लोक में सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र उत्पन्न हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
रूद्र की उत्पत्ति यद्यपि गोलोक में विष्णु के सापेक्ष समान महत्व के गुण तमस् से दर्शायी गयी है। "तमो गुण "सतो गुण के विपरीत प्रभाव वाला है- परन्तु प्रभाव क्रम में तमोगुण निम्नगामी और सतोगुण ऊर्ध्वगामी (ऊपर जाने वाला) रजोगुण मध्यगामी( बीच का गुण) है । गोलोक में प्रथम सृष्टि सर्जन क्रम में *फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
इसी क्रम में विष्णु (सतोगुण ऊर्ध्ववर्ती) से निम्न रजोगुण रूप होने से विष्णु से ब्रह्मा का उत्पन्न माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है। और रजोगुण से निम्न तमोगुण रूप होने से ब्रह्मा से रूद्र का उत्पन्न होना माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है।
क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
विशेष:- नारायण नाम की व्युत्पत्ति- नार+अयण= दीर्घगुणसन्धि के परिणाम स्वरूप (नारायण) रूप में होती है।
नारायणः- पुल्लिंग (नारा जलं अयनं स्थानं यस्य इति नारायण ।
नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक रोमकूपक जल में एक क्षुद्र विराट पुरुष,( छोटा- विष्णु) ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
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नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु के प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है।
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ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन् ! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्त -पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-
नारद ! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे।
एतरेय -उपनिषद में आता है
‘स इच्छत’एकोऽहं बहुस्याम्।’ उसने इच्छा करते हुए कहा- मैं एक से बहुत हो जाऊँ -
हमें लीला करनी है। लीला (खेलना) अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें ? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी।
सन्दर्भ:-(ऐतरेयोपनिषद् 1/3/11)
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।
इसी लिए स्त्री को लोक व्यवहार में 'वामा' भी कहते हैं ।
तत्पश्चात स्त्री पुरुष से मैथुनीय सृष्टि का विकास हुआ।
भारतीय पुराणों में चन्द्रमा की उत्पत्ति भिन्न- भिन्न विरोधाभासी रूपों में दर्शायी गयी है; जिससे चन्द्रमा की वास्तविक उत्पत्ति का निश्चय नहीं किया जा सकता है। परन्तु पुराणों की अपेक्षा" वेद" प्राचीनतर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक साक्ष्य हैं। अत: वेदों के साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक प्रबल हैं।
ऋग्वेद में "चन्द्रमा" की उत्पत्ति विराट पुरुष ( विष्णु) के मन से बतायी है। इस लिए चन्द्रमा विष्णु से उत्पन्न होने से कारण वैष्णव भी है। चन्द्रमा नाम से जो ग्रह अथवा नक्षत्र है। उसका अधिष्ठाता भी जो वैष्णव आत्मिक सत्ता है उसे ही चन्द्रमा नाम से सम्बोधित किया जाता है।
जिसके कारण उसका पृथ्वी के उपग्रह रूप में समायोजन हुआ। वह सोम: अथवा "चन्द्र:" है।
चदि (चन्द्)=आह्लादे दीप्तौ वा चदि( चन्द्) +णिच्+रक् = चन्द्र:। चन्द्रमा को देखकर मन को प्रसन्नता होती है इस लिए उसकी चन्द्र संज्ञा है।
चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश के परावर्तित होने से चमकता है इस लिए भी वह चन्द्र है।
यूरोपीय सास्कृतिक भाषा लैटिन में (candere= "to shine" चमकना क्रिया है।
जिसका मूल विकास (from- PIE( proto Indo- Europian root *kand- "to shine"). से सम्बन्ध है।
*kend-, Proto-Indo-European root meaning "to shine."
यह चन्द्रमा विराट विष्णु के मन से अथवा उनके हृदय से उत्पन्न हुआ है अत: इसका एक नाम मान: हुआ। मान शब्द समय का मानक होने से भी सार्थक है। संस्कृत में मान: शब्द ( मा =मापन करना- धातु से ल्युट्(अन्) तद्धित प्रत्यय करने पर बनता है।
हे मनुष्यो ! इस विराट पुरुष के (मनसः)-मनन रूप मन से (चन्द्रमाः) (जातः) उत्पन्न हुआ (चक्षोः) आँखों से (सूर्य्यः) सूर्य (अजायत) उत्पन्न हुआ (श्रोत्रात्) श्रोत्र नामक अवकाश रूप सामर्थ्य से (वायुः) वायु (च) तथा आकाश प्रदेश (च) और (प्राणः) जीवन के निमित्त दश प्राण उत्पन्न हुए। और (मुखात्) मुख से (अग्निः) अग्नि (अजायत) उत्पन्न हुआ है, ॥१२॥
ऋग्वेद के इसी विष्णु सूक्त में विराट पुरुष ( विष्णु) से सम्बन्धित अन्य ऋचाओं में विराट पुरुष का वर्णन है, स्पष्ट रूप से हुआ है। पुराणों में वर्णित है कि
विराट पुरुष( विष्णु) की नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। जिनसे चातुर्यवर्ण की सृष्टि होती है। जैसे ब्राह्मण - ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं ब्राह्मण ही कालान्तरण में चार रूपों में कर्मानुसार चार वर्णों में विभाजित हुए। और कर्म गत रूढि दीर्घकालिक हो जाने से वर्ण - व्यवस्था का विकास हुआ। जो कर्मगत न होकर जन्मगत होगयी। पुराणों में ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी गयी है।
ब्रह्मा को गोपों की स्तुति करते हुए पुराणों में बताया गया है।क्योंकि गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट्- विष्णु की प्रथम समरूपण जैविक सृष्टि हैं।।
ब्रह्मा की उत्पत्ति बहुत पूर्वगोपों की गोलोक में स्वराट्- विष्णु से उत्पत्ति हो जाती है।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।
उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके, [ हे नारद!]तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।। 53-54॥
ऋग्वेद में भी इसी विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न है। यही चन्द्रमा गोप- संस्कृति का सांस्कृतिक टॉटम ( प्रतीक ) बन गया। गोप भी स्वराट् - विष्णु के हृदय स्थल पर स्थित रोनकूपों से उत्पन्न हुए।
★-इसीलिए चन्द्रमा गोपों का सहजाति और सजाति भी है।
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
( ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से ब्रह्मा सहित जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
वेद की इस उत्पत्ति सिद्धान्त को श्रीमद्भगवद्गीता में भी बताया गया-
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
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इसलिए अहीरों की उत्पत्ति गायत्री से भी पूर्व है।
"चन्द्रमा और वर्णव्यवस्था में- ब्राह्मण उत्पत्ति को एक साथ मानना भी प्रसंग को प्रक्षेपित करता है।
गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ गायत्री ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं ये गोपों(अहीरों) की कन्या थी जो गोप विष्णु के रोमकूप
से उत्पन्न हुए थे।
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और गायत्री के परवर्ती काल में उत्पन्न पुरुरवा जो गायत्री का अनन्य स्तौता- (स्तुति करने वाला पृथ्वी ( इला) पर उत्पन्न प्रथम गोपालक सम्राट था । जिसका साम्राज्य पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक स्थापित है। ऋग्वेद के दशवें मण्डल के 95 वें सूक्त पुरुरवा का एक विशेषण गोष: ( घोष:) है।
पुरुरवा के आयुष-फिर उनके नहुष और नहुष के पुत्र ययाति से यदु, तुर्वसु, पुरु ,अनु ,द्रुह ,आदि पुत्रों का जन्म हुआ। जो सभी आभीर जाति के अन्तर्गत ही थे।
पुराणों में चन्द्रमा के जन्म के विषय में अनेक कथाऐं है।
कहीं कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि के नेत्र- मल से बतायी है जिन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा है। जबकि अनसुया से भी अत्रि ऋषि चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते थे। परन्तु चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि से काल्पनिक रूप से ही जोड़ी गयी है। अत: यह व्युत्पत्ति शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत होने से अमान्य है।
और तो और कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति को त्रिपुर सुन्दरी की बाईं आँख से उत्पन्न कर दिया गया है।
और कहीं समुद्र मन्थन काल में भी समुद्र से उत्पन्न चौदह रत्नों में चन्द्रमा भी एक बताया गया है।
चन्द्रमा की व्युत्पत्ति के ये सम्पूर्ण प्रकरण परस्पर विरोधी और अनेक द्विविधाओं से पूर्ण हैं और बाद में जोड़े गये हैं।
क्योंकि सत्य के निर्धारण में कोई विकल्प नहीं होता है। यहाँ तो चन्द्रमा की उत्पत्ति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए यहाँ चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत अनेक बातें स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।
विज्ञान के सिद्धान से चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से होना आनुमानिक ही है।
परन्तु वेदों में चन्द्रमा का उत्पत्ति के पुरातन सन्दर्भ विद्यमान हैं । वही स्वीकार करने योग्य हैं।
और हमने उन्हें साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है।
वहाँ पर चन्द्रमा विराटपुरुष- (विष्णु ) के मन से उत्पन्न हुआ बताया है।
चन्द्रमा की उत्पत्ति का यह प्राचीन प्रसंग विराट पुरुष (महा विष्णु) के मन से हुआ है उसी क्रम में जिस क्रम में जिस क्रम में ब्रह्माण्ड के अनेक रूपों की उत्पत्ति हुई है। यह सब हम ऊपर विवेचन कर ही चुके हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में कुछ ऋचाऐं वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से क्षेपक (नकली) ही हैं। जैसे नीचे दी गयी बारहवीं ऋचा- से जाना जा सकता है।
ऋग्वेद में वर्णित उपर्युक्त(12)वीं ऋचा वैदिक सिद्धान्त के विपरीत है यह ऋचा विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से सम्बन्धित होने से परवर्ती व पौराणिक सन्दर्भ है।
क्योंकि ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा की सन्तान का वाचक है। जैसा कि पाणिनीय अष्टाध्यायी में अण्- तद्धित के विधान में लिखित है।
"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण हैं” पाणिनीय- सूत्र न टिलोपः की व्याकरणिक विधि से ब्रह्मन्- शब्द के बाद में अण्- सन्तान वाची तद्धित प्रत्यय करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।
"ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण्। अर्थात -"ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाए-
जैसे मनु और श्रृद्धा क्रमश: मस्तिष्क- मनन ( विचार) और हृदय के भावों के क्रमश: प्रतिनिधि हैं।
यहाँ एक इला की भूमिका वाणी (अथवा ) पृथ्वी के रूप में है।
महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी इस दशा में एक नवीन व्याख्या है।
"जिस प्रकार श्रद्धा और मनु के सहयोग से बौद्धिक चेतना के सर्वोच्च आयाम के रूप में मानव के विकास की गाथा को, रूपक के आवरण में लपेटकर महाकाव्यों में प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार मान (विचार) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला( वाणी ) के संयोग से पुरुरवा-( अधिक स्तुति करने वाले) कवि और हृदय की संवेदना(वेदना) को उर्वशी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उर्वशी= (उरु+अशी)= यण् सन्धि विधान से उर्वशी शब्द उत्पन्न होता है। - उर्वशी हृदय की अशी( इच्छा) है उसी के अन्तस् से आयुस् ( जीवन शक्ति) का विकास हुआ।
उर्वशी निश्चित रूप से उरु (हृदय) की वह अशी (आशा ) है जो आयुस् (जीवन शक्ति) धारण करती है।
भले ही मानव सृष्टि का विकास पूर्व पाषाण काल के क्रमनुसार बौद्धिक विकास प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही माना गया हो परन्तु मिथकीय रूपान्तरण की आधार शिला पर संस्कृतियों का विकास हुआ ही है इसे कभी अमान्य नहीं किया जा सकता है।
मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा विश्व की अनेक प्रसिद्ध संस्कृतियों में जैसे मिश्र में "मेनेज- ग्रीक (यूनान) में "मोनोस- उत्तरीय जर्मनी "मेनुस" और सुमेरियन संस्कृतियों में "नूह" और भारतीय अनुश्रुति में मनु के रूप में दृढ़ता से मान्य है।
यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए। भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं। _________________________________________
भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है
हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇 बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ; और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है। इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है। मनु की नौका और नूह की क़िश्ती दोनों प्रसिद्ध हैं।
मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।
ऋग्वेद में इडा का रूपान्तरण कहीं इला तो कहीं इरा के रूप में भी है। का कई जगह उल्लेख मिलता है।
यह प्रजा पति मनु की पथ-प्रदर्शिका, मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है ।
इन ऋचाओं( श्लोकों) में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती नामक वाणीयों की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम भी आया है। लौकिक संस्कृत में इड़ा शब्द पृथ्वी , बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है---'गो भूर्वाचत्स्विड़ा इला'- गाय पृथ्वी वाणी सभी का वाचक इला-(इडा) है।--(अमरकोश)।
इडा- स्त्रीलिंग।
समानार्थक:व्याहार,उक्ति,लपित,भाषित,वचन,
वचस्,गो,इडा,इला,इरा अमर कोश-3।3।42।2।2
इस इडा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवादात्मक संवाद का भी शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्व के लिए झगड़ते हैं-'अथातोमनसश्च' इत्यादि (4 अध्याय 5 शतपथ-ब्राह्मण)। ऋग्वेद में इड़ा को, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है।
"व्यक्ति की वाणी की प्रखरता ही उसके बौद्धिक स्तर की मापिका और चेतना की प्रतिबिम्ब है।
बुद्धिवाद के विकास में, अधिक सुख की खोज में, दुख मिलना स्वाभाविक है। यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है ।
इसीलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा पुरुरवा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करते हैं।
अर्थात् मन के दोनों पक्ष १-हृदय और २-मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
देवा:= देवता लोग (हृदय्यया-आकूत्या) हृदयस्थ भावेच्छा से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (यजमानाः) यजनशील (आयु नामक गोपा ) उपासना करता है। (श्रद्धया वसु विन्दते) श्रद्धा से संसार की सभी वस्तुऐं प्राप्त होती हैं ॥४॥
(ऋग्वेद 10-151-4)
__________
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है।जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है। क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबस
बड़े स्तोता ( स्तुति करने वाले थे) व्याकरणिक विश्लेषण निम्नांकित-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु = शब्दे( शब्द करना '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते।
अनुवाद:-प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और ,इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा (मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रमा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।
📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है।
नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
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गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही उत्पन्न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।
नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी (12) वीं ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है।
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का सम्प्रसारण है।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
इस प्रकार पुरुरवा पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले, प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।
इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता प्रभावित अथवा प्रेरित होकर प्रेम के सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि उर्वशी को आधार मानकर की
उर्वशी का शाब्दिक यदि निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी) और ये उर्वशी यथार्थ उनके पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह वास्तव में मानवीय रूप में ही थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो बद्रिका वन के पास आभीर पल्लि में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी, नारायण संहिता से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य अधिष्ठात्री देवी थी। और जानकारी के अनुसार सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरुरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनका भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद ( )तथा भागवत पुराण से होती है।
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इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी उर्वशी आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत पुराण हरिवंश हरिवंश पर्व ,महाभारत आदिपर्व और अन्य शास्त्रों में मिलती है।
पुरुरवा के छ: पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु।
ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।
सन्दर्भ:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय -(75)
" और हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व-
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अर्थ:- धर्मात्मा विश्वायु और श्रुतायु,तथा और अन्य दृढायु, वनायुऔर शतायु उर्वशी द्वारा उत्पन्न उर्वशी के पुत्र थे।११।
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते । राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-
9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः । दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-
10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले हुए, जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२। नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।
फिर इसी गोप आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।
पुरुरवा और उर्वशी दौनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।
पुरुरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु दानव की पुत्री थी । अधिकतर दानव उस समय दान शील और धर्मज्ञ हुआ करते थे। नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।
कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।
प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टिनिर्मीण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और(कृति) (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।
सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं। और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है।
शुकदेव ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र थे, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उनके शुनक, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, पैदा हुए।
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
नहुष का विष्णु के अवतार- रूप में
📚: " दत्तात्रेय उवाच-।
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।
राजा च सार्वभौमश्च इंद्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।
नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
"श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51 में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -51 श्लोक 1-20
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38
अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परंपरा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।
पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।
उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"इस कारण उस ययाति ने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु )जो देवयानी से उत्पन्न थे उनको श्राप दे दिया।" राजा दूत को बुलाकर उसके द्वारा शर्मिष्ठा से ये शब्द कहे। शर्मिष्ठे देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ अश्रुबिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा की।तब काम देव की बेटी को उसकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अपनी माता (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा, राजाओं के स्वामी, :
9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा।
वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
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यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनन्द लो"।
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15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।
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