गुरुवार, 14 मार्च 2024

श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य सर्वस्वं कथा समिति- महा ग्रन्थ-पञ्चंवर्णम्- २-

   "अध्याय- प्रथम•★-                    

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लोक में सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र उत्पन्न हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
रूद्र की उत्पत्ति यद्यपि गोलोक में विष्णु के सापेक्ष समान महत्व के गुण तमस् से दर्शायी गयी है। "तमो गुण "सतो गुण के विपरीत प्रभाव वाला है- परन्तु प्रभाव क्रम में तमोगुण निम्नगामी और सतोगुण ऊर्ध्वगामी (ऊपर जाने वाला) रजोगुण मध्यगामी( बीच का गुण) है । गोलोक में प्रथम सृष्टि सर्जन क्रम में  *फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। 
इसी क्रम में विष्णु (सतोगुण ऊर्ध्ववर्ती) से निम्न रजोगुण रूप होने से विष्णु से ब्रह्मा का उत्पन्न माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है। और रजोगुण से निम्न तमोगुण रूप होने से ब्रह्मा से रूद्र का उत्पन्न होना माना जाना उचित व सैद्धान्तिक है।

क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे।  यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
विशेष:- नारायण नाम की व्युत्पत्ति- नार+अयण= दीर्घगुणसन्धि के परिणाम स्वरूप (नारायण) रूप में होती है।
अर्थात् जल में जिसका निवास स्थान है वह नारायण है।

"आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।  अयनं तस्य ताः पूर्व्वं तेन नारायणः स्मृतः॥” इति विष्णुपुराणम् ॥ 
नारायणः- पुल्लिंग (नारा जलं अयनं स्थानं यस्य इति नारायण । 

नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक रोमकूपक जल में एक क्षुद्र विराट पुरुष,( छोटा- विष्णु) ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। 
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नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु के प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है। 

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ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन् ! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्त -पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-

नारद ! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे। 

 एतरेय -उपनिषद में आता है
‘स इच्छत’ एकोऽहं बहुस्याम्।’  उसने इच्छा करते हुए कहा- मैं एक से बहुत हो जाऊँ  -
हमें लीला करनी है। लीला (खेलना) अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें ? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी। 
सन्दर्भ:-(ऐतरेयोपनिषद् 1/3/11)

सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता के प्रतिबिम्ब हैं .।

इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव भी होता है.।

उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।
इसी लिए स्त्री को लोक व्यवहार में 'वामा' भी कहते हैं ।
तत्पश्चात स्त्री पुरुष से मैथुनीय सृष्टि का विकास हुआ।




 "गोपों की उत्पत्ति विष्णु के द्वारा होने के  उपरान्त, उनका वैष्णव वर्ण में समाहित होना, और गोपों के अवान्तर पूर्वज चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट पुरुष( विष्णु) के मन  से उत्पन्न होने  से वैष्णव वर्ण में होने का वैदिक साक्ष्य व इसी चन्द्रवंश में  इला  और  बुध नामक बुद्धि सम्पन्न स्त्री पुरुष  के संयोग से उत्पन्न गोप जाति के प्रथम सम्राट पुरुरवा की उत्पत्ति गाथा - 

भारतीय पुराणों में चन्द्रमा की उत्पत्ति भिन्न- भिन्न विरोधाभासी रूपों में दर्शायी गयी है; जिससे चन्द्रमा की वास्तविक उत्पत्ति का निश्चय नहीं किया जा सकता है। परन्तु पुराणों की अपेक्षा" वेद" प्राचीनतर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक साक्ष्य हैं। अत: वेदों के साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक प्रबल हैं।

ऋग्वेद में "चन्द्रमा" की उत्पत्ति विराट पुरुष ( विष्णु) के मन से बतायी है। इस लिए चन्द्रमा विष्णु से उत्पन्न होने से कारण वैष्णव भी है। चन्द्रमा नाम से जो  ग्रह अथवा नक्षत्र है। उसका अधिष्ठाता  भी  जो वैष्णव आत्मिक सत्ता है उसे ही चन्द्रमा नाम से सम्बोधित किया जाता है।

जिसके कारण उसका पृथ्वी के उपग्रह रूप में समायोजन हुआ। वह सोम: अथवा "चन्द्र:" है। 
चदि (चन्द्)=आह्लादे दीप्तौ वा चदि( चन्द्) +णिच्+रक् = चन्द्र:। चन्द्रमा को देखकर मन को प्रसन्नता होती है इस लिए उसकी चन्द्र संज्ञा है।
 चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश के परावर्तित होने से चमकता है इस लिए भी वह चन्द्र है।
यूरोपीय सास्कृतिक भाषा लैटिन में (candere= "to shine" चमकना क्रिया है।
जिसका मूल विकास (from- PIE( proto Indo- Europian root *kand- "to shine"). से सम्बन्ध है। 
*kend-, Proto-Indo-European root meaning "to shine."
Sanskrit cand चन्द- "to give light, shine," candra- "shining, glowing, moon;" Greek kandaros "coal;" Latin candere "to shine;" Welsh cann "white," Middle Irish condud "fuel."
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जिसका अन्य वैदिक नामान्तरण "मान:" भी है।
संस्कृत के सबसे प्राचीन कोश - अमरकोश में मनस् का एक पर्याय हृदय भी है।
मनस् नपुं।
मनस्
समानार्थक: १-चित्त,२-चेतस्,३-हृद्,४- हृदय,५-मनस,-६-मानस्७-स्वान्त।
(अमरकोश- 1।4।31।2।7 )

यह चन्द्रमा विराट विष्णु के मन से अथवा उनके हृदय से उत्पन्न हुआ है अत: इसका एक  नाम मान: हुआ। मान शब्द समय का मानक होने से भी सार्थक है। संस्कृत में मान: शब्द ( मा =मापन करना- धातु से ल्युट्(अन्) तद्धित प्रत्यय करने पर बनता है। 
मान:=(मा+ल्युट् )-कालव्यापारे  येन कारणेन मास गणनाया: निर्धारय्यते इति मान: ) अर्थ:-
काल व्यवहार में जिस कारण से काल गणना का निर्धारण हो वह मान: है।
चन्द्रमा की उत्पत्ति का साक्ष्य ऋग्वेद की निम्न ऋचा में है।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्याऽअजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥
अनुवाद:-
हे मनुष्यो ! इस विराट पुरुष के (मनसः)-मनन रूप मन से (चन्द्रमाः) (जातः) उत्पन्न हुआ (चक्षोः)  आँखों से  (सूर्य्यः) सूर्य (अजायत) उत्पन्न हुआ (श्रोत्रात्) श्रोत्र नामक अवकाश रूप सामर्थ्य से (वायुः) वायु (च) तथा आकाश प्रदेश (च) और (प्राणः) जीवन के निमित्त दश प्राण उत्पन्न हुए। और (मुखात्) मुख से (अग्निः) अग्नि (अजायत) उत्पन्न हुआ है, ॥१२॥

ऋग्वेद के इसी विष्णु सूक्त में विराट पुरुष ( विष्णु) से सम्बन्धित अन्य ऋचाओं में विराट पुरुष का वर्णन है, स्पष्ट रूप से हुआ है। पुराणों में वर्णित है कि 
विराट पुरुष( विष्णु) की नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। जिनसे चातुर्यवर्ण की सृष्टि होती है। जैसे ब्राह्मण - ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं  ब्राह्मण  ही कालान्तरण में चार रूपों में कर्मानुसार चार वर्णों में विभाजित हुए। और कर्म गत रूढि दीर्घकालिक हो जाने से वर्ण - व्यवस्था का विकास हुआ। जो कर्मगत न होकर जन्मगत होगयी। पुराणों में  ब्रह्मा से गोपों की उत्पत्ति नहीं दर्शायी गयी है।
ब्रह्मा को गोपों की स्तुति करते हुए पुराणों में बताया गया है।क्योंकि  गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं गोप स्वराट्- विष्णु की प्रथम समरूपण जैविक सृष्टि हैं।।

ब्रह्मा की उत्पत्ति  बहुत पूर्वगोपों की गोलोक में स्वराट्- विष्णु से उत्पत्ति हो जाती है।

देखें ब्रह्मा की उत्पत्ति का पौराणिक विवरण-
विष्णुनाभ्यब्जतो ब्रह्मा ब्रह्मपुत्रोऽत्रिरिति ।२।
अर्थ:- विष्णु के नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। और ब्रह्मा के पुत्र अत्रि आदि हुए इस प्रकार-।
"गरुडपुराणम्‎ - आचार काण्ड१- अध्याय-(145) श्लोक संख्या-२ 

 (श्रीमद्भागवत पुराण)-1/3/2 में भी देखें-
यस्यामसि शयानस्य योगनिद्रां वित्तन्वत:।
नाभिहृदम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पति:।2।

तथा -भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय(१-) का आठवाँ श्लोक-
परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन।8। 
(भागवत पुराण-9/1/8)
अनुवाद:-
जो परमपुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही था; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था।
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः।
 तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयम्भूःचतुराननः।9। (भागवत पुराण-9/1/9)
अनुवाद:-
उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसी में चतुर्मुख ब्रह्मा जी का जन्म हुआ।
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ब्रह्मवैवर्त तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है।

श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ।४८।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।


                 "श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥

अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए  महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।

उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके, [ हे नारद!]तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।। 53-54॥

ऋग्वेद में भी  इसी विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न है। यही चन्द्रमा गोप- संस्कृति का सांस्कृतिक टॉटम ( प्रतीक ) बन गया। गोप भी स्वराट् - विष्णु के हृदय स्थल पर स्थित रोनकूपों से उत्पन्न हुए। 

★-इसीलिए चन्द्रमा गोपों का सहजाति और सजाति भी है। 

"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
( ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से  यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से ब्रह्मा सहित जीव समुदाय  उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।  इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।

वेद की इस उत्पत्ति सिद्धान्त को श्रीमद्भगवद्गीता में भी बताया गया-
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।11/19.
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इसलिए अहीरों की उत्पत्ति गायत्री से भी पूर्व है।
"चन्द्रमा और वर्णव्यवस्था में- ब्राह्मण उत्पत्ति को एक साथ मानना भी प्रसंग को प्रक्षेपित करता है।
गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ  गायत्री ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं ये गोपों(अहीरों) की कन्या थी जो गोप विष्णु के रोमकूप
से उत्पन्न हुए थे। 
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और गायत्री के परवर्ती काल में  उत्पन्न पुरुरवा जो  गायत्री का अनन्य  स्तौता- (स्तुति करने वाला पृथ्वी ( इला) पर उत्पन्न प्रथम  गोपालक सम्राट था । जिसका साम्राज्य पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक स्थापित है। ऋग्वेद के दशवें मण्डल के 95 वें सूक्त पुरुरवा का एक विशेषण गोष: ( घोष:)  है।

पुरुरवा के आयुष-फिर उनके नहुष और नहुष के पुत्र ययाति से यदु, तुर्वसु, पुरु ,अनु ,द्रुह ,आदि पुत्रों का जन्म हुआ। जो सभी आभीर जाति के अन्तर्गत ही थे।

पुराणों में चन्द्रमा के जन्म के विषय में अनेक  कथाऐं है। 
कहीं कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि के नेत्र- मल से  बतायी है जिन्हें ब्रह्मा का मानस  पुत्र  कहा है। जबकि अनसुया से भी अत्रि ऋषि चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते थे। परन्तु चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि से काल्पनिक रूप से ही जोड़ी गयी है। अत: यह व्युत्पत्ति शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत होने से अमान्य है। 
और  तो और  कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति को त्रिपुर सुन्दरी की बाईं आँख से उत्पन्न  कर दिया गया है। 

और कहीं  समुद्र मन्थन काल में भी समुद्र से उत्पन्न  चौदह रत्नों में चन्द्रमा भी एक बताया गया है।
चन्द्रमा की व्युत्पत्ति के ये सम्पूर्ण प्रकरण परस्पर विरोधी और अनेक द्विविधाओं से पूर्ण हैं और बाद में जोड़े गये हैं।
क्योंकि सत्य के निर्धारण में कोई विकल्प नहीं होता है।  यहाँ तो चन्द्रमा की उत्पत्ति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए   यहाँ चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत अनेक बातें स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।
विज्ञान के सिद्धान से चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से होना आनुमानिक ही है। 
परन्तु वेदों में चन्द्रमा का उत्पत्ति के पुरातन सन्दर्भ विद्यमान हैं । वही स्वीकार करने योग्य हैं।
और हमने उन्हें साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया है।
वहाँ पर चन्द्रमा विराटपुरुष- (विष्णु ) के मन से उत्पन्न हुआ बताया है। 
चन्द्रमा की उत्पत्ति का यह प्राचीन प्रसंग विराट पुरुष (महा विष्णु) के मन से हुआ है उसी क्रम में जिस क्रम में जिस क्रम में ब्रह्माण्ड के अनेक रूपों की उत्पत्ति हुई है।  यह सब हम ऊपर विवेचन कर ही चुके हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में कुछ ऋचाऐं वैदिक सिद्धान्तों के विपरीत होने से क्षेपक (नकली) ही हैं। जैसे नीचे दी गयी बारहवीं ऋचा- से जाना जा सकता है।

"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
ऋग्वेद में वर्णित उपर्युक्त(12)वीं ऋचा वैदिक सिद्धान्त के विपरीत है  यह ऋचा विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न  ब्रह्मा से सम्बन्धित होने से  परवर्ती व पौराणिक सन्दर्भ है।
क्योंकि ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा की सन्तान का वाचक है। जैसा कि पाणिनीय अष्टाध्यायी में अण्- तद्धित के विधान में लिखित है।
"ब्रह्मणो जाताविति ब्राह्मण- ब्रह्मा से उत्पन्न होने से ब्राह्मण हैं” पाणिनीय- सूत्र न टिलोपः की व्याकरणिक  विधि से ब्रह्मन्- शब्द के बाद में अण्- सन्तान वाची तद्धित प्रत्यय करने पर ब्राह्मण शब्द बनता है।

"ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण्। अर्थात -"ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाए-

जैसे मनु और श्रृद्धा क्रमश: मस्तिष्क-  मनन ( विचार) और हृदय के भावों के क्रमश:  प्रतिनिधि हैं।
यहाँ एक इला की भूमिका वाणी (अथवा ) पृथ्वी के रूप में है।
महाकवि जय शंकर प्रसाद की कामायनी इस दशा में एक नवीन व्याख्या है।

"जिस प्रकार श्रद्धा और मनु के सहयोग से बौद्धिक चेतना के सर्वोच्च आयाम के रूप में मानव  के विकास की गाथा को, रूपक के आवरण में लपेटकर महाकाव्यों में प्रस्तुत किया गया है। उसी प्रकार मान (विचार) से बुध( ज्ञान) और बुध और इला( वाणी ) के संयोग से पुरुरवा-( अधिक स्तुति करने वाले) कवि और हृदय की संवेदना(वेदना) को उर्वशी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उर्वशी=  (उरु+अशी)= यण् सन्धि विधान से  उर्वशी  शब्द उत्पन्न होता है। -  उर्वशी  हृदय की अशी( इच्छा) है उसी के अन्तस्  से आयुस् ( जीवन शक्ति) का विकास हुआ। 
उर्वशी निश्चित रूप से उरु (हृदय) की वह अशी (आशा ) है जो आयुस् (जीवन शक्ति) धारण करती है।

भले ही मानव सृष्टि का विकास पूर्व पाषाण काल के क्रमनुसार बौद्धिक विकास प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही माना गया हो परन्तु मिथकीय रूपान्तरण की आधार शिला पर संस्कृतियों का विकास हुआ  ही है इसे कभी अमान्य नहीं  किया जा सकता है। 

मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा विश्व की अनेक प्रसिद्ध संस्कृतियों में जैसे मिश्र में "मेनेज- ग्रीक (यूनान) में "मोनोस- उत्तरीय जर्मनी "मेनुस"  और सुमेरियन संस्कृतियों में "नूह" और भारतीय अनुश्रुति में मनु के रूप में दृढ़ता से मान्य है।

यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है 

हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇

आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।

जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।

यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।

क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।

यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।

मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।

जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।

मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।

ऋग्वेद में इडा का रूपान्तरण कहीं इला तो कहीं इरा के रूप में भी है। का कई जगह उल्लेख मिलता है।

यह प्रजा पति मनु की पथ-प्रदर्शिका, मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है ।

त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः ।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥



"इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.३१
 '
 इड़ा के संबंध में ऋग्वेद में कई मंत्र मिलते हैं। '
सरस्वती साधयन्ती धियं न इळा देवी भारती विश्वतूर्तिः ।
तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥
(ऋग्वेद 2-3.8) 
आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्ती ।
तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥
 (ऋग्वेद—10-110.8)

इन ऋचाओं( श्लोकों) में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती नामक वाणीयों की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम भी आया है। लौकिक संस्कृत में इड़ा शब्द पृथ्वी , बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है---'गो भूर्वाचत्स्विड़ा इला'- गाय पृथ्वी वाणी सभी का वाचक इला-(इडा) है।--(अमरकोश)।

इडा- स्त्रीलिंग।
समानार्थक:व्याहार,उक्ति,लपित,भाषित,वचन,
वचस्,गो,इडा,इला,इरा
अमर कोश-3।3।42।2।2

इस इडा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवादात्मक संवाद का भी शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्व के लिए झगड़ते हैं-'अथातोमनसश्च' इत्यादि (4 अध्याय 5 शतपथ-ब्राह्मण)। ऋग्वेद में इड़ा को, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। 
"व्यक्ति की वाणी की प्रखरता ही उसके बौद्धिक स्तर की मापिका और चेतना की प्रतिबिम्ब है।

बुद्धिवाद के विकास में, अधिक सुख की खोज में, दुख मिलना स्वाभाविक है। यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है ।

इसीलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा  पुरुरवा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करते हैं।  

अर्थात् मन के दोनों पक्ष १-हृदय और २-मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा और इड़ा से भी सरलता से लग जाता है।
श्रद्धां देवा यजमाना वा आयुगोपा उपासते ।
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥४॥
देवा:= देवता लोग (हृदय्यया-आकूत्या) हृदयस्थ भावेच्छा से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (यजमानाः) यजनशील (आयु नामक गोपा ) उपासना करता है।  (श्रद्धया वसु विन्दते) श्रद्धा से  संसार की सभी वस्तुऐं प्राप्त होती हैं ॥४॥
(ऋग्वेद 10-151-4) 
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यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक  शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा)  अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।


कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः”। उणादि सूत्र ४।१३८। इति इः।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है।जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से  । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरुरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) है।  क्यों कि स्वयं पुरुरवा शब्द का  मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरु- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरुरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरुरवा अधिक  कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरुरवा है। क्योंकि गायत्री के सबस
बड़े स्तोता ( स्तुति करने वाले थे)  व्याकरणिक विश्लेषण निम्नांकित-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रु = शब्दे( शब्द करना '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सूत्र. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते। 
सुकृते ।‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पाणिनीय. सूत्र.३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।

इस बात की पुष्टि महाभारत के सन्दर्भों से होती है।
"पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा लोकेसार्थकवती।।१।
अनुवाद:-प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
_______________
वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही  हैं । पुरुरवा ,बुध ,और ,इला की सन्तान था। 
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा (मान ) कहलाया  चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र  कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं। 

और इस मान -( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम  पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में । 

चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है अत: चन्द्रमा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्‍न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।

📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है  मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य  है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से  भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है। 

नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें 

"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से  यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय  उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥
( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष  शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं।  इस विराट पुरुष के द्वारा  इसी प्रकार अनेक लोकों को  रचा गया ।14।

श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - 
आपको मैं  अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते  हुए देख रहा हूँ।11/19.
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गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही  उत्पन्‍न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।

नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।

ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी  (12) वीं  ऋचा  ब्रह्मा से सम्बन्धित है।

"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥

"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥



ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।

जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।

पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह  से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
 नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥

गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही  हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था। 
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।

इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।

पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य  पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।

(पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।

अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द  "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का सम्प्रसारण है।

उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुत सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।

"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।

"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि 
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के (95) वें सूक्त में (18) ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।

सत्य पूछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है। 
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।

और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।

इस प्रकार  पुरुरवा  पृथ्वी के सबसे बुद्धि सम्पन्न अत्यधिक स्तुति करने वाले,  प्रथम सम्राट थे जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य था।

इनकी पत्नी का नाम उर्वशी था जो अत्यधिक सुन्दर थीं। उनकी सुन्दता  प्रभावित अथवा प्रेरित होकर  प्रेम के  सौन्दर्य मूलक काव्य की प्रथम सृष्टि  उर्वशी को आधार मानकर की 
उर्वशी का शाब्दिक यदि निरूपित किया जाय तो उर्वशी शब्द की व्युत्पत्ति (उरसे वष्टि इति उर्वशी) और ये उर्वशी यथार्थ उनके पुरुरवा के हृदय में काव्य रूप वसती थी।
किन्तु वह वास्तव में मानवीय रूप में ही थी जिनका जन्म एक आभीर परिवार में हुआ था जिनके पिता "पद्मसेन" आभीर ही थे जो  बद्रिका वन के पास  आभीर पल्लि में रहते थे।
इस बात कि पुष्टि मत्स्य पुराण तथा लक्ष्मी, नारायण संहिता से होती है। इसके अतिरिक्त
उर्वशी के विषय में शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं कि ये स्वर्ग की समस्त अप्सराओं की स्वामिनी और सौन्दर्य अधिष्ठात्री देवी थी। और जानकारी के अनुसार सौन्दर्य ही कविता का जनक है । इसका विस्तृत विवरण उर्वशी प्रकरण में दिया गया है।
अब इसी क्रम में में पुरुरवा जो उर्वशी के पति हैं। उनका भी गोप होने की पुष्टि ऋग्वेद ( )तथा भागवत पुराण से होती है। 
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इस प्रकार से देखा जाए तो प्रथम गोप सम्राट और उनकी पत्नी  उर्वशी  आभीर जाति सम्बन्धित थे। और इन दोनों से सृष्टि सञ्चालित हुई जिसमें इन दोनों से छ: पुत्र-आयुष् (आयु),मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु आदि  उत्पन्न हुए । इसकी पुष्टि भागवत पुराण हरिवंश हरिवंश पर्व ,महाभारत आदिपर्व  और अन्य शास्त्रों में मिलती है। 

पुरुरवा के छ: पुत्र उत्‍पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- 
आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, वनायु और शतायु।
ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं। 
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।

सन्दर्भ:-
महाभारत आदि पर्व अध्याय -(75) 
" और हरिवंश पुराण हरिवंशपर्व-
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः।११।
अर्थ:- धर्मात्मा विश्वायु और श्रुतायु,तथा और अन्य दृढायु, वनायुऔर शतायु उर्वशी द्वारा उत्पन्न उर्वशी के पुत्र थे।११।

सन्दर्भ:- हरिवंश पुराण( हरिवंश - पर्व) अध्याय - (27)

अध्याय- 26 - पुरुरवा का विवरण-

पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः।

               षडविंशोऽध्यायः

             "वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।

अनुवाद:-

1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।

ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।

अनुवाद:-

2. वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।

अनुवाद:-

3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।

अनुवाद:-

4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ।५।

वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।

एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।

अनुवाद:-

5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे

सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक   जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।

8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।

देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।

अनुवाद:-

9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।

तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

अनुवाद:-

10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद:-

धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।


आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।



पुरुरवा के  ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले  हुए,  जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।  नामक प्रकरण में समायोजित किया गया । 

फिर इसी गोप  आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष‌ और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।

पुरुरवा और उर्वशी दौनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।

पुरुरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष  था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु दानव की पुत्री थी । अधिकतर दानव उस समय दान शील और धर्मज्ञ हुआ करते थे।  नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।

कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री  इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम  मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में  "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। 

प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी  (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टिनिर्मीण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में  अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और(कृति)  (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी  पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।

सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1

नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं। और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी  पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है। 


               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपःश्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः।६६।

विशेष:- विरजा एक गोलोक की गोपी है और स्वर्भानु गोलोक के गोप हैं। जिनकी पुत्री प्रभा है। वही स्वर्भानु गोप जाति में समयानुसार अवतरण लेते है।

             "श्रीबादरायनिरुवाच
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।

अनेना इति राजपुत्र श्रृणु क्षत्रियवृधोऽन्वयम्।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः ॥ 2॥
अनुवाद:-
शुकदेव  ने कहा: पुरुरवा से आयु उत्पन्न हुआ, जिससे अत्यंत शक्तिशाली पुत्र नहुष, क्षत्रियवृद्ध, रजि, राभ और अनेना उत्पन्न हुए थे। हे परिक्षित, अब क्षत्रिय वंश के बारे में सुनो।
क्षत्रियवृद्ध के पुत्र सुहोत्र थे, काश्य, कुश और गृत्समद नाम के तीन पुत्र थे। गृत्समद से शुनक पैदा हुए, और उनके शुनक, महान संत, ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, पैदा हुए।    

पुरुरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-

वंशावली-

 विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ   उस  क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरुरवा -'आयुष-

आयुस का जन्म उर्वशी में  पुरुरवा से हुआ था . नहुष का जन्म  आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका नाम इन्दुमती भी था। 

आयुस वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त हुई की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).

पुरुरवा के छ: पुत्र-
१-आयुष् (आयु), मायु, अमायु, विश्वायु, शतायु और श्रुतायु हम पूर्व में ही दे चुके हैं । पुरुरवा स्वयं परम वैष्णव था।

आयुष की पत्नी  स्वर्भानु  गोप की पुत्री  प्रभा -( इन्दुमती)  और नहुष की पत्नी पितर कन्या विरजा  अथवा पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी का होना-
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु,: मायु:, अमायु,: विश्वायु:, श्रुतायु: ,शतायु: ,और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।
ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।
तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।
सन्दर्भ:-
श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।

नहुष का विष्णु के  अवतार- रूप में  

📚:        " दत्तात्रेय उवाच-।
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।
राजा च सार्वभौमश्च इंद्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।


पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान है कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।
 
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
"विष्णु का नहुष के रूप में अवतरित होना"


              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
___________
श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।

📚: नहुष गोपालक होना -

नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51 में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -51 श्लोक 1-20
 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38

अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परंपरा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।

पंचरात्र पुस्तक कवर

पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।

गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।

पुरुरवा को अपनी पत्नी उर्वशी से आयुस, श्रुतायुस,सत्यायुस,राया,विजयाऔर जया छह पुत्र कहे गए । 


नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बता ये हैं।

               "सूत उवाच।।

ऐलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान्।।चक्रे त्वकण्टकं राज्यं देशे पुण्यतमे द्विजाः।५५।

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते।।प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः।५६ ।

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः।।गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः।५७।

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान्।।श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः।५८ ।

आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।।स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।५९।

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः।।नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः।६०।

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः।।यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पञ्चमोऽन्धकः।६१।

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः।।यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः।६२।

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः।।तेषां ययातिः पञ्चानां महाबलपराक्रमः।६३।

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः।।शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः।६४।

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।।तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ।६५।

सन्दर्भ:-श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे षट्षष्टितमोऽध्यायः। ६६।


उनमें से सबसे बड़े पुत्र आयुस के भी पांच पुत्र थे जिनका नाम है नहुष,क्षत्रवृद्ध,रजि,रम्भ और अनेनास थे। नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन  पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंशऔरपुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।

नहुष के भाई अनेना: के शुद्ध नामित पुत्र का जन्म हुआ। शुद्ध से शुचि उत्पन्न हुई जिससे त्रिकाकुप उत्पन्न हुआ और त्रिकाकुप से शान्तराय नामित पुत्र का जन्म हुआ।

नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा- पद्मपुराण के अनुसार-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :

71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।


पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।
 
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।

"अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।


 ' ययाति का यदु को  देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने  पर ययाति द्वारा यदु को शाप देना" 


"यदुवँश का विवरण 
पिप्पला ने कहा :

1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।

सुकर्मन ने कहा :

3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"इस कारण  उस ययाति  ने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु )जो देवयानी से उत्पन्न थे उनको श्राप दे दिया।" राजा  दूत को बुलाकर उसके द्वारा  शर्मिष्ठा  से ये शब्द कहे। शर्मिष्ठे  देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ अश्रुबिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा की।तब काम देव की बेटी को उसकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर  राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी  अपनी माता (देवयानी) को मार डालो । 

हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने  पिता से कहा, राजाओं के स्वामी, :

9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा।

वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 

इसलिए, हे  राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे  राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।

******

यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।

पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनन्द लो"।

******************

15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।

आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया। 

इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।

हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।

 "पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-  

पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)

"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।

देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।

               "सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।

दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।

यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।

यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।

एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।

रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।

बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।

अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।

तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।


अध्याय-(80 )-ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।

पिप्पला ने कहा :

1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा ( ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।

सुकर्मन ने कहा :

3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"उसके लिए उसने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया।" प्रसिद्ध व्यक्ति ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे ये शब्द कहे। शर्मिष्ठा और देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ प्रतिस्पर्धा की।तब कामदेव की बेटी को उनकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे ब्राह्मण! तब क्रोधित होकर महान राजा ने यदु को बुलाया और उनसे कहा:

 “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी (देवयानी) को मार डालो । 

हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने अपने पिता, राजाओं के स्वामी, को उत्तर दिया:

9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 

इसलिए, हे महान राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे महान राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।

यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।

पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश की अवज्ञा की है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनंद लो"।

******************

15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।

आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया। 

इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे। हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।

यदु के चार पुत्र प्रसिद्ध थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय-(13)  में पाँच पुत्र भी बताये गये हैं।

"यदोः पुत्रा बभूवुश्च पञ्च देवसुतोपमाः।।९८।।
सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः।
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः।।९९।।
अनुवाद:-यदु के देवों के समान पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।98।
सबसे बड़े थे सहस्रजित , फिर क्रोष्ट्रा , नील , अंजिका और रघु ।99।
 
 राजा सहस्रजीत का पुत्र शतजित था।
 और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। 

कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा। 

सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे - जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।

जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये।  उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।

 मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि।*****(१-मधु पुत्र वृष्णि)

 परीक्षित ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु।

शशबिन्दु सम्राट- वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।

परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। 

उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।

उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। 

एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है।

फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। 

उसी ने शैव्या( चेैत्रा) की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।


 "भागवत-पुराण नवम स्कन्ध के अन्तर्गत यदु की वंशावली-  

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-
विदर्भ के वंश का वर्णन
विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद।

रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि।
क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ।

दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। 

अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।


सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-


निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘

सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।


सात्वत के वंश में  वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे।
********
अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ।

अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।*****‡‡‡ 
वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। 

उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।

इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। 

उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।

तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः -

उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। 

इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।

अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः।६९।

69. जो व्यक्ति प्रतिदिन अंधकों के इस परिवार की महिमा करता था , फलस्वरूप उसका परिवार और संतान बहुत समृद्ध हो जाती हैं।

_ ___________
सात्वतों में वृष्णिवंश का विस्तार★
गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्।७०।
70-. क्रोष्ट्र की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री थी । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेह करने वाली सुनित्र को जन्म दिया; 
_____________________________
माद्रीं युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः।७१।

71-माद्री ने एक पुत्र युधाजित (नाम से), फिर देवमीढुष , (फिर) अनामित्र और शिनि को जन्म दिया । इन पांचों के शरीर पर शुभ चिन्ह थे।

अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ।७२।
72.  अनामित्र का पुत्र निघ्न था; निघ्न के दो बेटे थे:  प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन थे ।
________________
स्यमंतकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्।७३।
73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम की सर्वोत्तम और अद्वितीय मणि थी । इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' के रूप में वर्णित किया गया था।

सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते।
अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनन्दनौ।१०३।

"अनुवाद:-

103-अक्रूर ने शूरसेना नामक पत्नी में  देवताओं के समान  दो पुत्र पैदा किए : 

देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसम्मतौ।
अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च।१०४।
देववान और उपदेव। अक्रूर से अश्विनी में  बारह पुत्र  :१-पृथु २-विपृथु , 

अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ।
रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च।१०५।

अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ।
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्।१०६।
अनुवाद:-106-(११)-अभूमि और १२-बहुभूमि ; और दो बेटियाँ: श्रविष्ठा और श्रवणा  उत्पन्न किए।
-एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस मिथ्या आरोप के बारे में जान जाता है, उसे कभी भी  भविष्य में कोई मिथ्या श्राप नहीं लग सकता है।

न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकीं सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम्।१०७।।
अनुवाद:-
किसी इक्ष्वाकी से मिथ्या शाप के प्राप्त होने पर एक शूर - मीढुष उत्पन्न हुआ। ****

मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः।१०८।
108-.शूर मिढुष द्वारा भोजा नामक पत्नी में दस वीर पुत्र उत्पन्न हुए : पहले वासुदेव का जन्म हुए), जिनका नाम अनकदुन्दुभि भी था ; 

देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नन्दिश्चैव सकृद्यशाः।१०९।
इसी प्रकार देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मिधुष द्वारा); और देवश्रवस , अनावृष्टि, कुंती, और नंदी और सकृद्यशा, ।

श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।११०।
श्यामा, शमीका (भी) जिन्हें सप्त के नाम से जाना जाता है। उनकी पाँच सुंदर पत्नियाँ थीं: श्रुतकीर्ति , पृथा , और श्रुतदेवी और श्रुतश्रवा ।

राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्।१११।

और राजाधिदेवी । ये पांचों वीरों की माताएं थीं। वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुष को जन्म दिया।

कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।११२।
112. कैकय से श्रुतकीर्ति ने राजा संतर्दन को जन्म दिया । सुनीथा का जन्म श्रुतश्रवस के चैद्य से हुआ था।


राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरः सख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ।११३।
113. धर्म से भयविवर्जिता का जन्म राजधिदेवी के यहां हुआ। मित्रता के बंधन में बंधे शूर ने पृथा को कुन्तिभोज को गोद दे दिया ।

एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पाण्डुर्भार्यामनिंदिताम्।११४।
114. इस प्रकार, वासुदेव की बहन पृथा को कुंती भी कहा जाता था । कुन्तिभोज ने उस प्रशंसनीय पृथा को पाण्डु को पत्नी के रूप में दे दिया।
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय(13-)


चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक( ) हुए।

हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।

अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः ।
महिष्यां जज्ञिरे शूराद् भोज्यायां पुरुषा दश।१७।

वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुन्दुभिः।
जज्ञे यस्य प्रसूतस्य दुन्दुभ्यः प्राणदन् दिवि।१८।

आकानां च संह्रादः सुमहानभवद् दिवि।
पपात पुष्पवर्षं च शूरस्य भवने महत् ।१९।

मनुष्यलोके कृत्स्नेऽपि रूपे नास्ति समो भुवि ।
यस्यासीत्पुरुषाग्र्यस्य कान्तिश्चन्द्रमसो यथा। 1.34.२०।

देवभागस्ततो जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः ।
अनाधृष्टिः कनवको वत्सावानथ गृञ्जिमः।२१।

श्यामः शमीको गण्डूषः पञ्च चास्य वराङ्गनाः ।
पृथुकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवा श्रुतश्रवाः ।२२।

राजाधिदेवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः ।
पृथां दुहितरं वव्रे कुन्तिस्तां कुरुनन्दन ।२३।

शूरः पूज्याय वृद्धाय कुन्तिभोजाय तां ददौ ।
तस्मात्कुन्तीति विख्याता कुन्तिभोजात्मजा पृथा ।२४।
अन्त्यस्य श्रुतदेवायां जगृहुः सुषुवे सुतः ।
श्रुतश्रवायां चैद्यस्य शिशुपालो महाबलः ।२५।

 हरिवंशपुराण हरिवशपर्व अध्याय- (34)

देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- 
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। 
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी। 

पृथा का विवाह पाण्डु से हुआ  ! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ।

यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द।

वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल ।

वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए।
 
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। 

वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये।

कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।
 रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि।

 नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।

वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये।

परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी।

उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।

परन्तु अन्पुराणों हरिवंश आदि में सुभद्र बलराम की बहिन थीं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
 जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३

(भागवत पुराण-9/1/23)
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा[1] की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें।


"क्रोष्टा से  देवमीढ़ तक  के गोपों  वंश का विवरण-  

  पद्मपुराणम्/खण्डः(१ )(सृष्टिखण्डम्)अध्यायः (१३)

            (क्रोष्टा वंश वर्णन)
               (पुलस्त्य उवाच)
क्रोष्टोः शृणु त्वं राजेंद्र वंशमुत्तमपूरुषम्
यस्यान्ववाये संभूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः।१।
1. हे राजेन्द्र !, क्रोष्ट्र के परिवार का (वृत्तांत) सुनो (जिसमें) उत्कृष्ट लोग पैदा हुए थे। उनके परिवार में वृष्णि कुल के संस्थापक विष्णु का जन्म हुआ।


क्रोष्टोरेवाभवत्पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः
तस्य पुत्रोभवत्स्वातिः कुशंकुस्तत्सुतोभवत्।२।
2. क्रोष्ट्र से महान् ख्याति प्राप्त वृजिनिवान् का जन्म हुआ । उनका पुत्र स्वाति था , और कुशांकु उनका (अर्थात् स्वाति का) पुत्र था।

कुशंकोरभवत्पुत्रो नाम्ना चित्ररथोस्य तुु।
शशबिन्दुरिति ख्यातश्चक्रवर्ती बभूव ह,।३।
3. कुशनांकु का चित्ररथ नाम का एक पुत्र था ; उसका शशबिन्दु नाम का पुत्र एक संप्रभु सम्राट बन गया।

अत्रानुवंशश्लोकोयं गीतस्तस्य पुराभवत्
शशबिंदोस्तु पुत्राणां शतानामभवच्छतम्।४।
4-उनके विषय में वंशावली तालिका वाला यह पद पहले गाया जाता था। शतबिन्दु के सौ पुत्र थे। 

धीमतां चारुरूपाणां भूरिद्रविणतेजसाम्
तेषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः।५।


पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुतेजाः पृथूद्भवःः'
पृथुकीर्तिः पृथुमतो राजानः शशबिंदवः।६।
6. पृथुश्रवा , पृथुयश , पृथुतेज, पृथुद्भव, पृथुकीर्ति , पृथुमाता शशबिन्दु के (परिवार में) राजा थे।

शंसंति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम्
ततश्चास्याभवन्पुत्राः उशना शत्रुतापनः।७।।
7-. पुराणों के अच्छे जानकार -पृथुश्रवा को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं। उसके बेटे  उशनों ने शत्रुओं को पीड़ा दी।

पुत्रश्चोशनसस्तस्य शिनेयुर्नामसत्तमः
आसीत्शिनेयोः पुत्रो यःस रुक्मकवचो मतः।८।
8- उशनस के पुत्र का नाम सिनेयु था और वह परम गुणी था। सिनेयु के पुत्र को रुक्मकवच के नाम से जाना जाता था ।

निहत्य रुक्मकवचो युद्धे युद्धविशारदः
धन्विनो विविधैर्बाणैरवाप्य पृथिवीमिमाम्।९।

9-. युद्ध में कुशल रुक्मकवच ने विभिन्न बाणों से धनुर्धारियों को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त कर लिया 

अश्वमेधे ऽददाद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणां
जज्ञे तु रुक्मकवचात्परावृत्परवीरहा।१०।

10-और अश्व मेध-यज्ञ में ब्राह्मणों को दान दिया। रुक्मकवच से प्रतिद्वन्द्वी वीरों का हत्यारा परावृत उत्पन्न हुआ।

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तत्पुत्रा जज्ञिरे पंच महावीर्यपराक्रमाः
रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः।११।

11. उनके पांच पुत्र पैदा हुए जो बहुत शक्तिशाली और वीर थे। रुक्मेशु , पृथुरुक्म , ज्यमाघ , परिघ और हरि ।

परिघं च हरिं चैव विदेहे स्थापयत्पिता
रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तथाश्रयः।१२।
12. पिता ने परिघ और हरि को विदेह में स्थापित कर दिया । रुक्मेशु राजा बन गया और पृथुरुक्म उसके साथ रहने लगा।

ताभ्यां प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामघोवसदाश्रमे
प्रशांतश्चाश्रमस्थस्तु ब्राह्मणेन विबोधितः।१३।
13-. इन दोनों द्वारा राज्य से   निर्वासित ज्यामघ एक आश्रम में रहते थे। वह आश्रम में शांति से रह रहा था और एक ब्राह्मण द्वारा उकसाए जाने पर उसने अपना धनुष उठाया ।

जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी
नर्मदातट एकाकी केवलं वृत्तिकर्शितः।१४।
 14 -और एक ध्वज लेकर और रथ पर बैठकर दूसरे देश में चला गया। नितांत अकेले होने और जीविका के अभाव से व्यथित होने के कारण 

ऋक्षवंतं गिरिं गत्वा मुक्तमन्यैरुपाविशत्
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या परिणता सती।१५।
15-वह अन्य लोगों द्वारा छोड़े गए स्थान  नर्मदा के तट पर "ऋक्षवन्त पर्वत पर चले गए और वहीं बैठ गए। ज्यमाघ की शैब्या नाम की   एक पवित्र पत्नी  ( अधिक उम्र में) हुई थी।

अपुत्रोप्यभवद्राजा भार्यामन्यामचिंतयन्
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।१६।
16-राजा ने भी पुत्रहीन होने के कारण दूसरी पत्नी लेने का विचार किया। एक युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई और युद्ध में एक कन्या प्राप्त होने पर उसने

भार्यामुवाच संत्रासात्स्नुषेयं ते शुचिस्मिते
एवमुक्त्वाब्रवीदेनं कस्य केयं स्नुषेति वै।१७।
17.  डरते हुए अपनी पत्नी से कहा, "हे उज्ज्वल मुस्कान वाली, यह तुम्हारी पुत्रवधू है।" जब उस ने यह कहा, तो उस ने उस से कहा, वह कौन है ?  किसकी बहू है ?”

                   ( राजोवाच)
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति
तस्याःसातपसोग्रेण कन्यायाःसंप्रसूयत।१८।
18-. राजा ने उत्तर दिया, “वह तुम्हारे पुत्र की पत्नी होगी।” उस कन्या की कठोर तपस्या के फलस्वरूप उस वृद्ध शैब्या ने  पुत्र को जन्म दिया। 

पुत्रं विदर्भं सुभगं शैब्या परिणता सती
राजपुत्र्यां तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथकौशिकौ।१९।
19-विदर्भ नामक पुत्र को जन्म दिया । सौभाग्यवती शैव्या प्रसन्न हुई ,विदर्भ ने राजकुमारी, (ज्यामघ की पुत्रबधु) में ,दो पुत्र, क्रथ और कौशिक  उत्पन्न किये।।
 
लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम्
पश्चाद्विदर्भो जनयच्छूरं रणविशारदम्।२०।

20. और बाद में लोमपाद नाम का तीसरा पुत्र उत्पन्न किया , जो अत्यंत परमधार्मिक, बहादुर और युद्ध में कुशल था।


लोमपादात्मजो बभ्रुर्धृतिस्तस्य तु चात्मजः
कौशिकस्यात्मजश्चेदिस्तस्माच्चैद्यनृपाः स्मृताः।२१।
21. बभ्रु लोमपाद का पुत्र था; और बभ्रु का पुत्र धृति था ; विदर्भ एक पुत्र कौशिक का पुत्र चेदि था और उससे ही चैद्य नाम से जाने जाने वाले राजा उत्पन्न हुए थे।
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क्रथो विदर्भपुत्रो यः कुंतिस्तस्यात्मजोभवत्
कुंतेर्धृष्टस्ततो जज्ञे धृष्टात्सृष्टः प्रतापवान्।२२।
22.  विदर्भ के पुत्र क्रथ के पुत्र कुंति थे।  कुंती का पुत्र धृष्ट था; उस धृष्ट से वीर सृष्ट का जन्म हुआ।

सृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निवृत्तिः परवीरहा
निवृत्तिपुत्रो दाशार्हो नाम्ना स तु विदूरथः।२३।

23. सृष्ट का पुत्र पवित्र निवृत्ति हुआ वह , प्रतिद्वंद्वी नायकों का हत्यारा था। निवृत्ति के दशार्ह नामक पुत्र  हुआ उसक विदुरथ हुआ था ।

दाशार्हपुत्रो भीमस्तु भीमाज्जीमूत उच्यते
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्यभीमरथः सुतः।२४।
24-. दशार्ह का पुत्र भीम था ; भीम का पुत्र जिमूत कहा जाता है ; जीमूत का पुत्र विकृति था ;  उनका पुत्र भीमरथ था; 

अथ भीमरथस्यापि पुत्रो नवरथः किल
तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।२५।
25-और भीमरथ का पुत्र नवरथ बताया गया । उनके पुत्र दशरथ थे ; उसका पुत्र शकुनि था ।

तस्मात्करंभस्तस्माच्च देवरातो बभूव ह
देवक्षत्रोभवद्राजा देवरातान्महायशाः।२६।
26. उससे करम्भ उत्पन्न हुआ , और उससे देवरात उत्पन्न हुआ ; देवरात से अत्यंत प्रसिद्ध देवक्षेत्र का जन्म हुआ ।

देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः
मधुर्नाममहातेजा मधोः कुरुवशः स्मृतः।२७।
27. देवक्षत्र से मधु नामक देवतुल्य एवं अत्यन्त तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। कहा जाता है कि कुरुवश का जन्म मधु से हुआ था।


आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।

28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में  अंशु नामक पुत्र  हुआ। 

वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।

29-.  अंशू की पत्नी वेत्रकी से   सात्वत  हुआ जो  ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था। 

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।

 30-  महाराज ज्यामघ की. इन  संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला   व्यक्ति  पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है। ।


सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में  सत्व सम्पन्न सात्वत से  चार पुत्र को जन्म हुआ  उन्हें विस्तार से सुनो

भजमानस्य सृंजय्यां भाजनामा सुतोभवत्
सृंजयस्य सुतायां तु भाजकास्तु ततोभवन्।३२।
32-(जैसा कि मैं तुम्हें बताता हूं): सृंजया नामक पत्नी में  भजमान का भाज नामक पुत्र प्राप्त हुआ। फिर सृंजय की पुत्री सृंजया के गर्भ से भाजक का जन्म हुआ ।

तस्य भाजस्य भार्ये द्वे सुषुवाते सुतान्बहून्
नेमिं चकृकणं चैव वृष्णिं परपुरञ्जयं।३३।
33. उस भाज की दो पत्नियों ने कई पुत्रों को जन्म दिया: नेमिकृकण-और शत्रुओं के नगरों के विजेता वृष्णि

ते भाजकाः स्मृता यस्माद्भजमानाद्वि जज्ञिरे
देवावृधः पृथुर्नाम मधूनां मित्रवर्द्धनः।३४।
34. चूंकि वे भजमान से पैदा हुए थे इसलिए उन्हें भाजक कहा जाने लगा। वहाँ    मधु के  मित्रों का वर्द्धन करने वाले देववृध, का दूसरा नाम पृथु  था।

अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमं तपः
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्।३५।

-35. यह राजा देवावृध  पुत्रहीन था, इसलिए 'मुझे सभी गुणों से संपन्न एक पुत्र मिले' उसने ये  इच्छा करते हुए परम तप किया  ़।


संयोज्य कृष्णमेवाथ पर्णाशाया जलं स्पृशन्
सा तोयस्पर्शनात्तस्य सांनिध्यं निम्नगा ह्यगात्।३६।
36-और केवल कृष्ण पर ध्यान केंद्रित करके और पर्णाशा (नदी) के पानी को स्पर्श कर , उसने बड़ी तपस्या की। उसके पानी छूने से नदी उसके पास आ गयी।
( नदी पर कोई स्त्री मिली होगी उसी भाव को नदी रूप में दर्शाया है।

कल्याण चरतस्तस्य शुशोच निम्नगाततः
चिंतयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्।३७।
37-तब नदी (नदी के पास स्त्री) को उसकी भलाई की चिंता हुई जो देववृथ तपस्या कर रहा था। चिन्ता से भरे हुए मन से उसने निश्चय किया, 

भूत्वा गच्छाम्यहं नारी यस्यामेवं विधः सुतः
जायेत तस्मादद्याहं भवाम्यस्य सुतप्रदा।३८।
38-मैं स्त्री बनकर उसके पास जाऊँगी, जिससे ऐसा (अर्थात् सर्वगुण सम्पन्न) पुत्र उत्पन्न होगा। इसलिए आज मैं (उसकी पत्नी बन कर) उससे  एक पुत्र उत्पन्न करुँगी ।'

अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः
ज्ञापयामास राजानं तामियेष नृपस्ततः।३९।
39. तब उस ने कुमारी होकर सुन्दर शरीर धारण करके राजा को (अपने विषय में) समाचार दिया; तब राजा को उसकी लालसा हुई।

अथसानवमेमासिसुषुवेसरितांवरा
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधात्परम्।४०।
40 फिर नौवें महीने में उस सर्वोत्तम नदी ने देववृध से एक महान पुत्र को जन्म दिया।  जिसका नाम बभ्रु था वह सर्वगुण सम्पन्न था।

अत्र वंशे पुराणज्ञा ब्रुवंतीति परिश्रुतम्
गुणान्देवावृधस्याथ कीर्त्तयंतो महात्मनः।४१।

41. हमने सुना है कि जो लोग पुराणों को जानते हैं, वे महापुरुष देववृध के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि:

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बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
षष्टिः शतं च पुत्राणां सहस्राणि च सप्ततिः।४२।
42. बभ्रु मनुष्यों में सबसे महान था; देववृध देवताओं के सदृश थे; बभ्रु और देववृध से सत्तर हजार छह सौ पुत्र पैदा हुए और वे अमर हो गये।

एतेमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
यज्ञदानतपोधीमान्ब्रह्मण्यस्सुदृढव्रतः।४३।
43-बभ्रु और देवावृध के अनृत-उपदेश से भी
यज्ञ ,दान और तपस्या में धैर्यसम्पन्न, ब्राह्मण भक्त तथा सुदृढ़ व्रत वाला हो जाता है।

रूपवांश्च महातेजा भोजोतोमृतकावतीम्
शरकान्तस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान् ।४४।

44-. बभ्रु से उत्पन्न रूपवान और महातेजस्वी भोज ने शरकान्त की  पुत्री अमृतकावती से विवाह कर चार पुत्र उत्पन्न किए।




कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।

45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) ।  कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे। 


कपोतरोमा तस्यापि तित्तिरिस्तस्य चात्मजः
तस्यासीद्बहुपुत्रस्तु विद्वान्पुत्रो नरिः किल।४६।
46-उस धृति का पुत्र कपोतारोमा था ; और उसका पुत्र तित्तिर था ; और  उनका पुत्र बाहुपुत्र था । ऐसा कहा जाता है कि उन बाहुपुत्र का विद्वान पुत्र नरि था

ख्यायते तस्य नामान्यच्चंदनोदकदुंदुभिः
अस्यासीदभिजित्पुत्रस्ततो जातः पुनर्वसुः।४७।
नरि का  अन्य नाम  (चन्दनोदक और -दुन्दुभि)  47-भी बताया जाता है । चन्दनोदक का पुत्र अभिजित्  था ;और  उसका पुत्र  पुनर्वसु  हुआ। 

अपुत्रोह्यभिजित्पूर्वमृषिभिः प्रेरितो मुदा
अश्वमेधंतुपुत्रार्थमाजुहावनरोत्तमः।४८।
48. अभिजीत पहले पुत्रहीन थे; लेकिन पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ इस (राजा) ने, ऋषियों द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर, पुत्र प्राप्ति के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अश्वमेध-यज्ञ किया।

तस्य मध्ये विचरतः सभामध्यात्समुत्थितः
अन्धस्तु विद्वान्धर्मज्ञो यज्ञदाता पुनर्वसु ।४९।।
49. जब वह सभा में (यज्ञ स्थल पर) घूम रहा था तो उसमें से अंधा पुनर्वसु विद्वान, धर्म में पारंगत और यज्ञ देने वाला उत्पन्न हुआ।

तस्यासीत्पुत्रमिथुनं वसोश्चारिजितः किल
आहुकश्चाहुकी चैव ख्याता मतिमतां वर।५०।
50. कहा जाता है कि उस शत्रुविजेता पनर्वसु के दो पुत्र थे। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, वे आहुका और आहुकी के नाम से जाने जाते थे ।
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इमांश्चोदाहरंत्यत्र श्लोकांश्चातिरसात्मकान्
सोपासंगानुकर्षाणां तनुत्राणां वरूथिनाम्।५१।
 51- इस विषय में वे बड़ी दिलचस्प उदाहरण रूप में  श्लोक उद्धृत किया जाता हैं। उनके पास दस हजार बख्तरबंद सेनिक थे।, 

रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु
नासत्यवादिनो भोजा नायज्ञा गासहस्रदाः।५२।
52.  दशों हजार रथ जो बादलों की तरह गरजते थे और उनके निचले हिस्से में संलग्नक लगे हुए थे। भोज ने कभी झूठ नहीं बोला; वे यज्ञ किये बिना कभी नहीं रहते थे; और कभी एक हजार से कम  गाय दान नहीं करते  थे।

नाशुचिर्नाप्यविद्वांसो न भोजादधिकोभवत्
आहुकां तमनुप्राप्त इत्येषोन्वय उच्यते।५३।
53. भोज से अधिक पवित्र या अधिक विद्वान कोई व्यक्ति कभी नहीं हुआ। कहा जाता है कि इसी  परिवार में आहुका उत्पन्न हुआ था इसी वंश को भोज इस नाम से कहा गया।

आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
54-. और आहुका ने अपनी बहन आहुकी का विवाह ( अवंती के राजा ) से कर दिया  और अहुका से ही पहले पुत्री और फिर पुत्र  दो सन्तानें उत्पन्न हुईं।
उपर्युक्त श्लोक का इस प्रकार अनुवाद भी है।

कुछ अनुवादक निम्न अर्थ भी करते हैं।
आहुक ने अपनी बहिन आहुकी का व्याह अवन्ती देश में किया था। 

आहुक की एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- देवक और उग्रसेन वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी हैं।

परन्तु ये उपर्युक्त श्लोक प्रक्षेप हैं।  फिर भी सही  वंशावली का निर्धारण करने का हमारा प्रयास रहा है।

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हरिवंश पुराण में वर्णन है। कि आहुक के राशि राज की पुत्री काश्या से दो पुत्र उत्पन्न हुए
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ” इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः । देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ । नवोग्रसे- नस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः” हरिवंश पुराण- ३८ अध्याय।

तित्तिरेस्तु नरः पुत्रस्तस्य चन्दनदुन्दुभिः।
पुनर्वसुस्तस्य पुत्र आहुकश्चाहुकीसुतः।२९।
आहुकाद्देवको जज्ञे उग्रसेनस्ततोऽभवत्।
देववानुपदेवश्च देवकस्य सुताः स्मृता।३०।

तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ ।३१।

अनुवाद:- 29.तित्तिर  के वंश में नरि  हुआ। नरि के अन्य नाम चंदन और दुंदुभि भी थे।  इसी दुंदुभि के वंश में अभिजित का पुत्र

पुनर्वसु हुआ उसके पुत्र और पुत्री आहुक आहुकी  थे।

30-.आहुका से देवक का जन्म हुआ और फिर उग्रसेन का जन्म हुआ

देववन और उपदेव को देवक के पुत्र माना जाता है। 
उनकी सात बहनें थीं। (देवका ने) उनका विवाह वासुदेव से किया।
(अग्निपुराणम्/अध्यायः- २७५)

मत्स्य पुराण में भी आहुक के पुत्रों का वर्णन है।आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।। ४४.७० ।।

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।। ४४.७१ ।।

देवानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ।। ४४.७२ ।।

देवकी श्रुतदेवी च यशोदा च यशोधरा।
श्री देवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी।। ४४.७३ ।।

मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४४

क्रोष्टु-- के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।


श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ९/अध्यायः २४

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२० (अरिद्योतः पाठभेदः)।
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ।२१।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ।२२।
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ।२३।
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ।२४।
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ।२५।
शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः।
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ।२६।
देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७।
तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।
अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।

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उग्रसेन मथुरा के राजा थे। महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। कंस इन्हीं का पुत्र था, जिसने अपने पिता उग्रसेन को बलपूर्वक राजगद्दी से हटा दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा था। 

जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब उसकी अंत्येष्टि के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पुन: उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर बैठा दिया।
उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किये। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे।

                     ★परिचय★
उग्रसेन यदुवंशीय (कुकुरवंशी) राजा आहुक के पुत्र तथा कंस आदि नौ पुत्रों के पिता थे। उनकी माता काशीराज की पुत्री काश्या थीं, जिनके देवक और उग्रसेन दो पुत्र थे। उग्रसेन के नव पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं।

कंस इनका क्षेत्रज पुत्र था और भाइयों में सबसे बड़ा था। इनकी पाँचों पुत्रियाँ वसुदेव के छोटे भाइयों की ब्याही गई थीं।

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आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
पद्म पुराण का यह (५४) वाँ श्लोक प्रक्षिप्त है।
जिसमें आहुक की किसी पुत्री से ही देव और उग्रसेन की उत्पत्ति कर दी गयी है। 

इस के बाद के श्लोक सही हैं। जिन्हें हम नीचे प्रस्तुत तकते हैं।

देवकं चोग्रसेनं च देवगर्भसमावुभौ
देवकस्य सुताश्चैव जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।५५।
55-(आहुक की पत्नी काश्या ने जन्म  देवक और उग्रसेन को जन्म दिया) जो देवों  के पुत्रों की तरह थे; और देवक से जो पुत्र उत्पन्न हुए वे देवताओं के समान थे।

देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः
तेषां स्वसारः सप्तैव वसुदेवाय ता ददौ।५६।

56- देववान , उपदेव , सुदेव और देवरक्षित ; उनकी सात बहनें थीं जिन्हें उन्होंने (उग्रासन ने) वामदेव को दे दिया था :


देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा
श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।
57. देवकी , श्रुतदेव , यशोदा , श्रुतिश्रवा, श्रीदेव , उपदेव और सुरूपा सातवीं  थी।

नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां च पूर्वजः
न्यग्रोधस्तु सुनामा च कंकः शंकुः सुभूश्च यः।५८।
58-. उग्रसेन के नौ बेटे थे और कंस उनमें सबसे बड़ा था: न्यग्रोध , सुनामन , कंक , शंकु , और (वह) जिसे (सुभू कहा जाता था)। 

 
अन्यस्तु राष्ट्रपालश्च बद्धमुष्टिः समुष्टिकः
तेषां स्वसारः पंचासन्कंसा कंसवती तथा।५९।
दूसरा था राष्ट्रपाल ; इसी प्रकार बद्धमुष्टि और समुष्टिक भी  थे। उनकी पाँच बहनें थीं: कंसा , कंसावती ,।

सुरभी राष्ट्रपाली च कंका चेति वरांगनाः
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः।६०।
60-सुरभि , राष्ट्रपाली और कंका ; वे सुन्दर महिलाएँ थीं। उग्रसेन अपने बच्चों सहित कुकुर वंश से विख्यात  थे।

भजमानस्य पुत्रोभूद्रथिमुख्यो विदूरथः
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथसुतोभवत्।६१।

61. योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ विदुरथ, भजमान का पुत्र था ।  और   राजाधिदेव  शूर विदुरथ का पुत्र था।

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राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते वीरसंमतौ
क्षत्रव्रतेतिनिरतौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः।६२।

62. राजाधिदेव से जन्मे दो पुत्र शोणश्व और श्वेतवाहन थे । वे शूरवीरों को बहुत पसंद थे, और क्षत्रिय -व्रत को बहुत पसंद थे।

शोणाश्वस्य सुताः पंच शूरा रणविशारदाः
शमी च राजशर्मा च निमूर्त्तः शत्रुजिच्छुचिः।६३।

63. शोणाश्व के युद्ध में कुशल पांच वीर पुत्र थे: शमी , राजशर्मा, निमूर्त, शत्रुजित और शुचि ।

शमीपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजःप्रतिक्षत्रसुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः
हृदीकस्याभवन्पुत्रा दश भीमपराक्रमाः।६४।
64. प्रतिक्षत्र शमी का पुत्र था और प्रतिक्षत्र का पुत्र भोज था***## और उसका पुत्र हृदिक था । हृदिक के दस भयानक शूरवीर पुत्र थे।

कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च सत्तमः
देवार्हश्च सुभानुश्च भीषणश्च महाबलः।६५।
65-66. उनमें कृतवर्मन सबसे उग्र था और शतधन्वन सात्विक था । (अन्य थे) देवार्हा , सुभानु दौनों , भीषण और महाबली थे , 

अजातश्च विजातश्च करकश्च करंधमः
देवार्हस्य सुतो विद्वान्जज्ञे कंबलबर्हिषः।६६।

66-और अजात , विजता, कारक और करंधमा । देवार्हा से एक पुत्र, कम्बलबर्हिष का जन्म हुआ; (वह) विद्वान था।

असमौजास्ततस्तस्य समौजाश्च सुतावुभौ
अजातपुत्रस्य सुतौ प्रजायेते समौजसौ।६७।

67. कम्बलबर्हिष के  दो पुत्र थे: असमौजा और सामौजा। अजात के पुत्र से दो वीर औजस्वी पुत्र पैदा हुए।

समौजः पुत्रा विख्यातास्त्रयः परमधार्मिकाः
सुदंशश्च सुवंशश्च कृष्ण इत्यनुनामतः।६८।
68. सामौजा के तीन प्रसिद्ध और बहुत धार्मिक पुत्र थे। उनके नाम क्रम से थे: सुदंश, सुवंश और कृष्ण।*****#

अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः।६९।
69. जो व्यक्ति प्रतिदिन अन्धकों के इस परिवार की महिमा करता था , फलस्वरूप उसका परिवार और संतान बहुत समृद्ध हो जाती हैं।

गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्।७०।
70-. क्रोष्ट्र की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री थी । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेह करने वाली सुनित्र को जन्म दिया; 
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माद्री युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः।७१।
71-माद्री ने एक पुत्र युधाजित (नाम से), फिर देवमिढुष , (फिर) अनामित्र और शिनि को जन्म दिया । इन पांचों के शरीर पर शुभ चिन्ह थे।

अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ।७२।

72.  अनामित्र का पुत्र निघ्न था; निघ्न के दो बेटे थे:  प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन थे ।

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स्यमंतकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्।७३।
73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम की सर्वोत्तम और अद्वितीय मणि थी । इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' के रूप में वर्णित किया गया था।

हृदि कृत्वा सुबहुशो मणिं तं स व्यराजत
मणिरत्नं ययाचेथ राजार्थं शौरिरुत्तमम्।७४।
74. उस मणि को अनेक बार छाती पर धारण करने से वह बहुत चमका। शौरी ने अपने राजा के लिए वह उत्कृष्ट रत्न माँगा।

गोविंदश्च न तं लेभे शक्तोपि न जहार सः
कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः।७५।

75. गोविंदा को भी यह नहीं मिला; समर्थ होते हुए भी उसने इसे छीना नहीं। कुछ समय प्रसेन उसे धारण कर शिकार की ओर चला गया।



सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते।
अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनन्दनौ।१०३।

अनुवाद:-

103-अक्रूर ने शूरसेना नामक पत्नी में  देवताओं के समान  दो पुत्र पैदा किए : 


देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसम्मतौ।
अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च।१०४।
अनुवाद:-
देववान और उपदेव। अक्रूर से अश्विनी में  बारह पुत्र  :१-पृथु २-विपृथु , 

अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ।
रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च।१०५।
अनुवाद:-

अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ।
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्।१०६।
अनुवाद:-106-(११)-अभूमि और १२-बहुभूमि ; और दो बेटियाँ: श्रविष्ठा और श्रवणा  उत्पन्न किए।
-एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस मिथ्या आरोप के बारे में जान जाता है, उसे कभी भी  भविष्य कोई मिथ्या श्राप नहीं लग सकता है।

न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकीं सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम्।१०७।।
अनुवाद:-
किसी इक्ष्वाकी से मिथ्या शाप के प्राप्त होने पर एक शूर - मीढुष उत्पन्न हुआ।****

मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः।१०८।
अनुवाद:-
108-.शूर मीढुष द्वारा भोजा नामक पत्नी में दस वीर पुत्र उत्पन्न हुए : पहले वासुदेव का जन्म हुए), जिनका नाम अनकदुन्दुभि भी था ; 

देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नन्दिश्चैव सकृद्यशाः।१०९।
अनुवाद:-
इसी प्रकार देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मिीढुष द्वारा); और देवश्रवस , अनावृष्टि, कुंती, और नंदी और सकृद्यशा, ।

श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।११०।
अनुवाद:-
श्यामा, शमीका (भी) जिन्हें सप्त के नाम से जाना जाता है। उनकी पाँच सुंदर पत्नियाँ थीं: श्रुतकीर्ति , पृथा , और श्रुतदेवी और श्रुतश्रवा ।

राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्।१११।
अनुवाद:-
और राजाधिदेवी । ये पांचों वीरों की माताएं थीं। वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुष को जन्म दिया।

कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।११२।
अनुवाद:-
112. कैकय से श्रुतकीर्ति ने राजा संतर्दन को जन्म दिया । सुनीथा का जन्म श्रुतश्रवस के चैद्य से हुआ था।


राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरः सख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ।११३।
अनुवाद:-
113. धर्म से भयविवर्जिता का जन्म राजधिदेवी के यहां हुआ। मित्रता के बंधन में बंधे शूर ने पृथा को कुन्तिभोज को गोद दे दिया ।


एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पाण्डुर्भार्यामनिंदिताम्।११४।
अनुवाद:-
114. इस प्रकार, वासुदेव की बहन पृथा को कुंती भी कहा जाता था । कुन्तिभोज ने उस प्रशंसनीय पृथा को पाण्डु को पत्नी के रूप में दे दिया।


("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)

स्कन्ध 4, अध्याय 3 - 

वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा

दित्या अदित्यै शापदानम्

             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥


                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥


                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥


                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥


अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

  1.  इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान  वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।

______________________
हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
 हिन्दी अनुवाद:-

व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥


एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥

उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥

तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥




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