तस्यापि नामनिर्वचनश्लोकः पठ्यते ।१७ ।
मूढे भर द्वाजमिमं भरद्वाजं बृहस्पते।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् इति ।।।१८ ।
भरद्वाजस्स तस्य वितथे पुत्रजन्मनि मरुद्भिर्दत्तः ततो वितथसंज्ञामवाप ।१९ ।
वितथस्यापि मन्युः पुत्रोऽभवत् ।२० ।
बृहत्क्षत्रमहावीर्यनगरगर्गा अभवन्मन्युपुत्राः ।२१ ।
नगरस्य संकृतिस्संकृतेर्गुरुप्रीतिरंतिदेवौ ।२२ ।
गर्गाच्छिनिः ततश्च गार्ग्याश्शैन्याः क्षत्रोपेता द्विजातयो बभूवु ।२३ ।
इति विष्णुपुराणे ४ अंशे १९ अध्यायः।
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सन्दर्भ:-
(मत्स्य पुराण-अध्याय-४९-)
नीलमतपुराण के अनुसार, त्रेतायुग एक कलियुग की तीन गुना मात्रा वाली समयावधि को संदर्भित करता है। जैसा कि हमें बताया गया है, सूर्य का राशि चक्र की एक राशि से होकर गुजरना सौर मास कहलाता है। दो महीनों से एक ऋतु बनती है, तीन ऋतुओं से एक अयन और दो अयन से एक वर्ष बनता है।
चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कलियुग बनाते हैं। कलियुग से दोगुना द्वापर है, तीन युगों से त्रेता है और चार युगों से एक चतुर्युग बनता है और इकहत्तर चतुर्युगों से एक मन्वंतर बनता है।
त्रेतायुग (त्रेतायुग).—चार युगों में से दूसरा। कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ये चार युग हैं। त्रेतायुग में तीन हजार देववर्ष हैं।
श्री राम का जन्म त्रेतायुग के अंत में हुआ था। त्रेतायुग ईसा पूर्व- (867100) में समाप्त हुआ। श्री राम ने ग्यारह हजार वर्षों तक देश पर शासन किया।
"दश-वर्ष-सहस्राणिनी दश-वर्ष-शतानि च / रामो राज्यमुपाषित्वा ब्रह्मलोकं प्रयस्यति //" (वाल्मीकि रामायण)।
(दस हजार वर्षों तक अपनी भूमि की सेवा करने के बाद और दस सौ वर्षों (दस हजार से अधिक हजार वर्ष) तक सेवा करने के बाद श्री राम ब्रह्मलोक जाएंगे)। जब राम ने प्रशासन की बागडोर संभाली तब वह केवल चालीस वर्ष के थे। मन्वंतर और युग के अंतर्गत देखें। (शास्त्रीय संस्कृत साहित्य)।
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रौद्राश्वस्य दशार्णेयुः कृकाणेयुस्तथैव च।
कक्षेयुस्थण्डिलेयुश्च सन्नतेयुस्तथैव च॥ १३.५ ॥
ऋचोयुश्च जलेयुश्च स्थलेयुश्च महाबलः।
धनेयुश्च वनेयुश्च पुत्रकाश्च दश स्त्रियः॥ १३.६ ॥
भद्रा शूद्रा च मद्रा च शलदा तथा।
खलदा च ततो विप्रा नलदा सुरसापि च॥ १३.७ ॥
तथा गोचपला च स्त्रीरत्नकूटा च ता दश।
ऋषिर्जातोऽत्रिवंशे च तासां भर्त्ता प्रभाकरः॥ १३.८ ॥
भद्रायां जनयामास सुतं सोमं यशस्विनम्।
स्वर्भानुना हते सूर्य्ये पतमाने दिवो महीम्॥१३.९॥
तमोऽभिभूते लोके च प्रभा येन प्रवर्त्तिता।
स्वस्ति तेऽस्त्विति चोक्त्वा वै पतमानो दिवाकरः॥ १३.१०॥
वचनात्तस्य विप्रर्षेर्न पपात दिवो महीम्।
अत्रिश्रेष्ठानि गोत्राणि यश्चकार महातपाः॥१३.११॥
यज्ञेष्वत्रेर्बलञ्चैव देवैर्यस्य प्रतिष्ठितम्।
स तासु जनयामास पुत्रिकास्वात्मकामजान्॥ १३.१२ ॥
दश पुत्रान् महासत्त्वांस्तपस्युग्रे रतांस्तथा।
ते तु गोत्रकरा विप्रा ऋषयो वेदपारगाः॥१३.१३ ॥
ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः (१३)
अत्रिस् ब्रह्म-( Atash-Behram, ) शब्द अवेस्ता( ईरानी) धर्मग्रन्थों में मिलता है। जो सर्वोत्तम अग्नि का वाचक है।
अत्रि- अग्नि की लपटों से वारुणी यज्ञ में जन्मे ; 1 उसकी दस सुंदर और पवित्र पत्नियाँ थीं, सभी भद्राश्व और घृताची की बेटियाँ थीं। उनके दस पुत्र आत्रेय, 2 स्वस्त्यात्रेय के नाम से जाने जाते थे;।
ब्रह्माण्ड-पुराण III। 1. 21 एवं 44; 8. 73; मत्स्य-पुराण 171. 27; 192. 10; 195. 9; वायु-पुराण 62. 17; 64. 27; विष्णु-पुराण I. 7.5, 7.
2) वायु-पुराण 70. 67-76.
3) मत्स्य-पुराण 145. 90, 107-9; 197. 1 और 4; 200. 19; 229. 2 और 3; वायु-पुराण 59. 104.
4) मत्स्य-पुराण 252. 2; 285-6.
अत्रिर्मीनश्च मेषश्च लोहितश्च शिखी तथा ।
खड्गदण्डद्विदण्डौ च सुमहाकालव्यालिनौ ॥ ३,४४.५३ ॥ ब्रह्माण्ड पुराण)
अत्रिर्मीनश्च मेषश्च लोहितश्च शिखी तथा ।२९३.०४५
छगलण्डद्विरण्डौ द्वौ समहाकालवालिनौ ॥२९३.०४५ अग्निपुराण)
अत्रि और चन्द्रमा की जो सिद्धान्त विहीन उत्पत्ति कालान्तर में पुराणों में जोड़ी गयी वह प्रक्षिप्त ही है। अत: अत्रि एक अग्नि का रूपान्तरण है।और अधिक तर अत्रि के प्रकरण अग्नि तत्व से सम्बन्धित है। ब्रह्मा से अत्रि को उत्पन्न कर दर्शाना और अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति भी प्रक्षेप ही है।
क्योंकि हरिवंश पुराण में हरिवंश पर्व -३१ वें अध्याय में पुरुवंशी रूद्राश्व(भद्राश्व) की घृताची अप्सरा में उत्पन्न भद्रा नामक पुत्री जो अत्रि की पत्नी है। अत्रि उसी भद्रा से चन्द्रमा को उत्पन्न करते हैं। ये चन्द्रमा ( सोम) पुरुवंशी का वंशज कैसे बन गया। जबकि इसे पुरवंश का पूर्वज होना चाहिए-
अवलंब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है,
क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है।
बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति "पालेति रक्खतीति पालि", इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु "पालि महाव्याकरण" के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त 'परीयाय' (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के 'धम्मपरियाय' शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार 'धम्म पलियाय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बुद्ध-उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।
भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
_
ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से
___
संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
हलन्त रूपों का अभाव,
कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !
जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।
काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
___
पाली भाषा का इतिहास-
प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
_____
इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।
देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों( ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी।
पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।
क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है।
बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति "पालेति रक्खतीति पालि", इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु "पालि महाव्याकरण" के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त 'परीयाय' (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के 'धम्मपरियाय' शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार 'धम्म पलियाय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बुद्ध-उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।
भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
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ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से
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संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
हलन्त रूपों का अभाव,
कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !
जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।
काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
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पाली भाषा का इतिहास-
प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
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इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।
देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों( ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी।
पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।
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(Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .
पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।
मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-and that those names are genuine and Ancient Germania __________
Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।
टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए
इन्हीं की उपशाखाऐं वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .
Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।
(Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .
पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।
मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-and that those names are genuine and Ancient Germania __________
Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।
टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए
इन्हीं की उपशाखाऐं वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .
Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।
ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं । मनुष्य इसे नहीं जान पाता-
और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये घटनाएँ प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण कर देती हैं। ये सब तो प्रारब्ध का विधान ही है। प्रारब्ध कर्म संस्कार के धागों से निर्मित जीवन का मानचित्र( नक्शा) है।
कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यह तो प्रारब्ध का विधान है।
दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से एक जीवन के निर्देशन के लिए विभाजित रूप है।
अर्थात ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम एक दूसरा नाम है। स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है।
यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।
परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है।
यही क्रियमाण कर्म है। जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।
यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं -
दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।
परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा सबका प्रारब्ध का लगा है इन वस्त्रों से जीवन आवृत है। और डोर वही प्रारब्ध ( भाग्य ) की लगी हुई है।
इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है।
- योगेश रोहि -
श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम:
इति - समापनम्★•
-
Yadav Yogesh Kumar Rohi:
पुराणों में श्री कृष्ण की आयु ( जीवन काल) और उनकी लौकिक लीलाऐं-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
विषय सूची
१ कृष्ण काल
२ कृष्ण का समय
३ कंस के समय मथुरा
४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
५ पुराणेतर ग्रंथ

संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर गुनगुनाया है।
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है ।
कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है।
ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की ।
उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।
बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है
वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है।
एक विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है ।
ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।
मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।
शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।
छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं।
और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये घटनाएँ प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण कर देती हैं। ये सब तो प्रारब्ध का विधान ही है। प्रारब्ध कर्म संस्कार के धागों से निर्मित जीवन का मानचित्र( नक्शा) है।
कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यह तो प्रारब्ध का विधान है।
दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से एक जीवन के निर्देशन के लिए विभाजित रूप है।
अर्थात ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम एक दूसरा नाम है। स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है।
यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।
परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है।
यही क्रियमाण कर्म है। जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।
यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं -
दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।
परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा सबका प्रारब्ध का लगा है इन वस्त्रों से जीवन आवृत है। और डोर वही प्रारब्ध ( भाग्य ) की लगी हुई है।
इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है।
- योगेश रोहि -
श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम:
इति - समापनम्★•
-
Yadav Yogesh Kumar Rohi:
पुराणों में श्री कृष्ण की आयु ( जीवन काल) और उनकी लौकिक लीलाऐं-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
विषय सूची
१ कृष्ण काल
२ कृष्ण का समय
३ कंस के समय मथुरा
४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
५ पुराणेतर ग्रंथ

संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर गुनगुनाया है।
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है ।
कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है।
ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की ।
उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।
बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है
वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है।
एक विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है ।
ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।
मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।
शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।
छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
रासेश्वरीं तां संभाष्य प्रविवेश स्वमालयम् ।
रत्नसिंहासने रम्ये हीरहारसमन्विते ।। ५०।।
वृन्दा तां वासयामास पादसेवनतत्परा ।
सप्तभिश्च सखीभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।५१ ।।
आययुर्गोपिकाः सर्वा द्रष्टुं तां परमेश्वरीम् ।
नन्दादिकं प्रकल्प्यैतद्राधा वासं पृथकपृथक्।५२।
परमानन्दरूपा सा परमानन्दपूर्वकम् ।
स्ववेश्मनि महारम्ये प्रतस्थे गोपिका सह ।। ५३ ।।
_____
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद
भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च
अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
"हिन्दी अनुवाद:-
"पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा। श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा।
श्री भगवान बोले- नन्द! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं- ऐसा जानो। मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था।
उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था। वही परम सत्य भ्रमरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए दीपक है; इसलिए तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम पद का स्मरण करो।
वह पद जन्म-मृत्यु-जरा व्याध का विनाशक, महान हर्षदायक, शोक संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है।
मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ. तदनन्तर भगवान ने कलियुग के धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया।
विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; उसमें हीरे हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मंदरियों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था।
नारद! राधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी आयोनिजा थीं।
उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं।
साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।
ब्रह्मन! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था।
उसे पार करके वे शतश्रृंग पर्वत पर गयीं। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा।
उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला।
आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं।
वह सौ योजन विस्तारवाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फलसमूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं।
उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदर सहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं। वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया।
तत्पश्चात रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी। वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरण सेवा में जुट गयी।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
रासेश्वरीं तां संभाष्य प्रविवेश स्वमालयम् ।
रत्नसिंहासने रम्ये हीरहारसमन्विते ।। ५०।।
वृन्दा तां वासयामास पादसेवनतत्परा ।
सप्तभिश्च सखीभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।५१ ।।
आययुर्गोपिकाः सर्वा द्रष्टुं तां परमेश्वरीम् ।
नन्दादिकं प्रकल्प्यैतद्राधा वासं पृथकपृथक्।५२।
परमानन्दरूपा सा परमानन्दपूर्वकम् ।
स्ववेश्मनि महारम्ये प्रतस्थे गोपिका सह ।। ५३ ।।
_____
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद
भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च
अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
"हिन्दी अनुवाद:-
"पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा। श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा।
श्री भगवान बोले- नन्द! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं- ऐसा जानो। मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था।
उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था। वही परम सत्य भ्रमरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए दीपक है; इसलिए तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम पद का स्मरण करो।
वह पद जन्म-मृत्यु-जरा व्याध का विनाशक, महान हर्षदायक, शोक संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है।
मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ. तदनन्तर भगवान ने कलियुग के धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया।
विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; उसमें हीरे हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मंदरियों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था।
नारद! राधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी आयोनिजा थीं।
उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं।
साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।
ब्रह्मन! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था।
उसे पार करके वे शतश्रृंग पर्वत पर गयीं। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा।
उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला।
आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं।
वह सौ योजन विस्तारवाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फलसमूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं।
उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदर सहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं। वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया।
तत्पश्चात रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी। वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरण सेवा में जुट गयी।
उपर्युक्त कथानक में नारद और नारायण का संवाद है ये नारायण क्षीरसागर वाले नहीं है। ये धर्नके पुत्र हैं जो उनकी पत्नी दक्ष कन्या मूर्ति के गर्भ से उत्पन्न हुए हरि ,कृष्ण नर और नारायण)
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायण - सौति शौनक के बीच गोलोकारोहण नामैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। १२९ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 129
श्रीकृष्ण के गोलोक गमन का वर्णन-
श्रीनारायण कहते हैं- नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुलवासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे पाँच गोपों के साथ ठहर गए।
वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो-समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है।
*****
तब उन कृपासागर को दया गयी। फिर तो, उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया।
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बँधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले।
श्रीभगवान ने कहा- हे गोपगण! हे बन्धो! तुमलोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ वास करो; क्योंकि प्रिया के साथ विहार, सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पुण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा, जब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी।
तत्पश्चात लोकों के विधाता ब्रह्मा भी भाण्डीरवन में आये।
उनके पीछे स्वयं शेष, धर्म, भवानी के साथ स्वयं शंकर, सूर्य, महेंद्र, चंद्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन, यम, ईशान आदि देव, आठों वसु, सभी ग्रह, रुद्र, मुनि तथा मनु- ये सभी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे, जहाँ सामर्थ्यशाली भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे।
तब स्वयं ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और यों कहा।
ब्रह्मा बोले- भगवन! आप परिपूर्णतम ब्रह्मस्वरूप, नित्य विग्रहधारी, ज्योतिः स्वरूप, परमब्रह्मा और प्रकृति से परे हैं, आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। परमात्मान! आप परम निर्लिप्त, निराकार, ध्यान के लिए साकार, स्वेच्छामय और परमधाम हैं; आपको प्रणाम है। सर्वेश! आप संपूर्ण कार्य स्वरूपों के स्वामी, कारणों के कारण और ब्रह्मा, शिव, शेष आदि देवों के अधिपति हैं, आपको बारंबार अभिवादन है।
परात्पर! आप सरस्वती, पद्मा, पार्वती, सावित्री और राधा के स्वामी हैं; रासेश्वर! आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो। सृष्टिरूप! आप सबके आदिभूत, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सबके पालक और संहारक हैं; आपको नमस्कार प्राप्त हो। हे नाथ! आपके चरणकमल की रज से वसुन्धरा पावन तथा धन्य हुई हैं; आपके परमपद चले जाने पर यह शून्य हो जायेगी।
इस पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये।
"यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-129
विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने धाम को पधार रहे हैं।
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायण - सौति शौनक के बीच गोलोकारोहण नामैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। १२९ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 129
श्रीकृष्ण के गोलोक गमन का वर्णन-
श्रीनारायण कहते हैं- नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुलवासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे पाँच गोपों के साथ ठहर गए।
वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो-समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है।
*****
तब उन कृपासागर को दया गयी। फिर तो, उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया।
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बँधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले।
श्रीभगवान ने कहा- हे गोपगण! हे बन्धो! तुमलोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ वास करो; क्योंकि प्रिया के साथ विहार, सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पुण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा, जब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी।
तत्पश्चात लोकों के विधाता ब्रह्मा भी भाण्डीरवन में आये।
उनके पीछे स्वयं शेष, धर्म, भवानी के साथ स्वयं शंकर, सूर्य, महेंद्र, चंद्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन, यम, ईशान आदि देव, आठों वसु, सभी ग्रह, रुद्र, मुनि तथा मनु- ये सभी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे, जहाँ सामर्थ्यशाली भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे।
तब स्वयं ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और यों कहा।
ब्रह्मा बोले- भगवन! आप परिपूर्णतम ब्रह्मस्वरूप, नित्य विग्रहधारी, ज्योतिः स्वरूप, परमब्रह्मा और प्रकृति से परे हैं, आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। परमात्मान! आप परम निर्लिप्त, निराकार, ध्यान के लिए साकार, स्वेच्छामय और परमधाम हैं; आपको प्रणाम है। सर्वेश! आप संपूर्ण कार्य स्वरूपों के स्वामी, कारणों के कारण और ब्रह्मा, शिव, शेष आदि देवों के अधिपति हैं, आपको बारंबार अभिवादन है।
परात्पर! आप सरस्वती, पद्मा, पार्वती, सावित्री और राधा के स्वामी हैं; रासेश्वर! आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो। सृष्टिरूप! आप सबके आदिभूत, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सबके पालक और संहारक हैं; आपको नमस्कार प्राप्त हो। हे नाथ! आपके चरणकमल की रज से वसुन्धरा पावन तथा धन्य हुई हैं; आपके परमपद चले जाने पर यह शून्य हो जायेगी।
इस पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये।
"यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-129
विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने धाम को पधार रहे हैं।
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-
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