सोमवार, 18 नवंबर 2024

अध्याय- (८) OKभगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"

     (अध्याय - अष्ठम-)

"भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७

             स्रोत-(गीता अध्याय- ४)
अनुवाद - भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।

        इसी को चरितार्थ करने के लिए परम प्रभु गोपेश्वर श्री कृष्ण अपने गोलोक से धरा धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
       इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।। २२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
                   इसी तरह से श्रीमद् भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कंध के अध्याय-६ के श्लोक संख्या -२३ और २५ में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।। २५
               
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं । २३
•  पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पच्चीस वर्ष" बीत गए हैं। २५
        
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- ५५ के श्लोक - १७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण, ब्रह्मा जी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- १८ से २० में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु में विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८
यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।। १९
ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। २०
             
अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण! आप मुझे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहां जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के संपूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूं सुनिए। १८,१९,२०
          
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की  पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- १४ के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें त्रेता युग के रावण के भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी दरम्यान
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।। ४१
यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
       
 अनुवाद - असंख्य ब्रह्मांडपति परात्पर गोलोकनाथ 
श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है। ४१, ४२/२
       
 यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर  को भी भगवान श्री कृष्ण को यादवकुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायें। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- २८ के श्लोक संख्या ४५ व ४६ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।। ४५
भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः ।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।। ४६
      
अनुवाद - राजन! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युमन को भेजा है।
४५, ४६
                
कि  विश्वजीत युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनी मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ बोली उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खंड के अध्याय- ४२ के श्लोक संख्या- ६ और ७ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि तुभ्यम्।। ६।

मदात्मजं पालय भीतभीत ममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।

अनुवाद - प्रभो! आदि देव! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पलक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूं।
 मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने  जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
 
इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से करा दिए, तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करने लगी। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री श्राप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ा। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या-१६१ से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-

यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१५४।
                    
अनुवाद - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। १५४
           
 इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खंड के श्लोक संख्या -१३और १४ से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३।

भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गंन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं  मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।। १४।

अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि आदि, व्यास आदि तथा कुमुद आदि मुनियों! हे कोटि-कोटि रूद्रों! गिरिजा पति शंकर जी! ग्यारह रुद्रों! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमंडल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूंगा। तुम सब वहां आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना। १३,१४
इन सभी उपरोक्त श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण यदुकुल या यदुवंश में हुआ है।

किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश या यदुकुल- वैष्णव वर्ण के गोपकुल का ही प्रमुख वंश एवं कुल है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है, तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी कुल में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपकुल या यदुकुल नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपकुल में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इंद्र गोप कन्या गायत्री को बलात उठाकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लाठी- डंडा के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल पर पहुंचे। वहां पहुंच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहां लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अंदाजा लगाकर वहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहां उपस्थित विष्णु जी बीच बचाव करते हुए गोपों के सामने खड़े हो गए और उस मौके पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या -१६ से २० में मिलता है। जिसमें विष्णु जी गोपों से कहते हैं कि -

"अनया आभीरकन्याया तारितो गच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।। १६।              

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले। १७।            

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।     

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः ।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः ।।१९  ।   

न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा ।। २०।

                
अनुवाद:- हे अहीरों (गोपों ) इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोक को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुंगा। १६
• और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७
• तब मैं उनके बीच रहूंगा। तुम्हारी सभी पुत्रियां मेरे साथ रहेंगी। १८
• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। ग्वाले और मनुष्य भी किसी को भय नहीं देंगे। १९   
•  इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए। २०  
              
किंतु जाते समय गोपगण विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण विष्णु जी से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१
                 
अनुवाद - हे देव! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन कर्तव्य हेतु अवश्य अवतार लेंगे। २१
 तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तब सभी गोप खुशी-खुशी से अपने-अपने घर चले गए।
         
तब अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे  चुकी थी कि - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं( गायों) के सेवक बन कर  लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री वर्दान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कंद पुराण खण्ड- ६ के नागर खंड के अध्याय- १९३ के श्लोक - १४ और १५ में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥ १४॥
यत्रयत्र  च वत्स्यंन्ति  मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥

अनुवाद - गायत्री विष्णु से कहती है-  तुम्हारे  इस प्रकार  रक्त सम्बन्धी ( blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर  विना कुछ कर्म  के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४
•  और पुन: गायत्री विष्णु से  कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों नन हो।
           इन उपरोक्त महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अंतर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
                यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोप भेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला कहा जाता है।
                भगवान श्री कृष्ण को सदैव गोप भेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -३ के श्लोक -३४ से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण जन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि- 
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४
             अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी ब्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
             ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोप भेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्ल

ोक - २१ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१
                अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) भेष में रहते हैं।२१।
           अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोप भेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
         इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहा कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१
            अनुवाद - ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं। २६
                तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक  से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं। ४१
                इसी तरह से एक बार श्री कृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को  श्रीकृष्ण अपने गोपों के लिए गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- २० के श्लोक- ११ में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।। ११
        अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूं।
       इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोप भेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ९ में जानकारी दी गई है कि- गोप, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।

      (अध्याय-नवम)

गोप, गोपाल,अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।

जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा होगा तथा थोड़ी सी भी हिंदी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।                             इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है-

१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक,  ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द  ७- गोप।
   आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
                                  श्रोत - अमरकोश  2/9/57/2/5
आभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं।
          
      अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है।
अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस संबंध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
   किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
                           अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।

                    इसी तरह से करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं
                 और 500 साल पहले कृष्णभक्त चारण "इशरदास" रोहडिया जी" ने पिंगल -डिंगल शैली में श्री कृष्ण को अपने एक  दोहे में अहीर लिखा है, जो इस प्रकार है-

                इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८

                   अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है। ५८

                  और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
               इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।
अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के लिए कहां-कहां किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रुप अहीर है। तो जाहिर है कि अहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा।
जैसे -:  
गर्ग संह

िता के विश्वजीत खंड के अध्याय ७ के श्लोक संख्या- १४ में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी
शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।। १४

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६

        इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
       ▪️ इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।। ६  

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।। ७
             अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
         •  अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

▪️ इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः । 16

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18
     
                 अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

        अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
        उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
            ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
             इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति का प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है।

                    इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण  इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
                      अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
•   कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
           इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
                        इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के
श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४
              अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
             इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
     और अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।

             भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०
             
                  अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
•  यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
                 भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
             अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४
      इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर  विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
                      इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१

  अनुवाद -
• ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं। २६
    तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं। ४१
           इस प्रकार से यह अध्याय-८ इस बात की जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोप, गोपाल,अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं।
      अब इसके अगले अध्याय - १० में गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में जानकारी दी गई है।


गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान   पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।


           
यादववंश, गोपजाति का एक ऐसा रक्त समूह है जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी।

इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं। (इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।)  इसलिए गोपकुल के प्रमुख सदस्यपति भी अति प्राचीनतम हैं। उन सभी का वर्णन इस अध्याय के भाग- १,२,३ और ४ में क्रमशः किया गया है।
              

            -:  श्रीकृष्ण :-

                  
                         ________
श्री कृष्ण ही गोप-कुल के प्रथम सदस्यपति हैं। उन्हें ही परम परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपवेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी  किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब उसको दूर करने के लिए वे प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल( अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं।

भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतरित होने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है।
 जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}

भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। किंतु ध्यान रहे गोपेश्वर श्रीकृष्ण के अनंत गुण और विशेषताएं हैं। जिनका वर्णन करना किसी के लिए सम्भव नही है। पौराणिक ग्रंथों एवं शास्त्रों में उनकी विशेषताओं का जो भी, जैसे भी वर्णन किया गया है। उसी के आधार पर हम भी श्रीकृष्ण की कुछ व्यक्तिगत और कुछ सामाजिक विशेषताओं को बताने का प्रयास किया है। किंतु ध्यान रहे यहां केवल श्रीकृष्ण की लौकिक विशेषताओं का ही वर्णन किया गया है। यदि श्रीकृष्ण की आध्यात्मिक और पारलौकिक विशेषताओं को जानना है तो इस पुस्तक के अध्याय - (दो) और (तीन) को देखें, और यदि सम्पूर्ण विशेषताओं को जानना है तो  "श्रीमद्भागवत गीता" का अध्ययन करें निश्चित रूप से संतुष्टि मिलेगी।
अब हम गोपेश्वर श्रीकृष्ण की कुछ खास विशेषताओं का वर्णन कर रहे हैं।

 जैसे -
(१)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।

(२)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।

(३)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को  सारंगधारी भी कहा जाता है।

(४)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्णा जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में जब अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको  चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।

(५)- गिरिधारी— इन्द्र के प्रकोप से अपने समस्त गोप और गोधन की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली से गोवर्धन (गिरि) पर्वत को उठा लिया था। उसके धारण करने से ही श्री कृष्ण को गिरिधारी कहा गया।

(६)- गोपवेषधारी— भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, दोनों जगहों पर वह सदैव गोपों के साथ गोपवेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपवेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्

।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
           
ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। उनकी कुछ सामुहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी।
जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-

(७)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B)  सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।

(A) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।

(B)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
 विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।

• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
   मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।

(C)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।

इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए  स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।

(D)-  प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,
         (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।

राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

•  अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को। जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
  
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि।श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।




अध्याय-१० [भाग-२]
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान   पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।


                     

       -: श्रीराधा जी :-



          
श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से ६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -

त्वं मे  प्राणाधिका  राधे   प्रेयसी   च   वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।

अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
               
अतः  श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा  सर्वाभ्यः  सुन्दरी  परा।। ४४।

सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्‌गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।

परावरा   सारभूता   परमाद्या   सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
      
अनुवाद- जो पंचप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुंदरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं।  वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं। ४४-४६।

रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥ ४७।

रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।

परमाह्लादरूपा  च  सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रिडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
         
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
           
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
          
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
        
 अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।   
       
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां  श्रेष्ठा   राधा  वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
           
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।

अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-

• पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
• पितामह- महिभानु गोप (आभीर)

• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।
• पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु

एवं सुभानु।
• भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
• फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा,
• मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा।
• मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
• मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
• मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
• धात्री — धातकी।
• राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।

• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
 इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -

(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।

(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।

(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
       
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।

(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।

(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं —
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५)   चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।

(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।

(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य

(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।

(I)- मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।

वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।

राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।

नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।

• श्रीराधा जी का विवाह -
श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

'राधे  स्मरसि  गोलोकवृत्तान्तं   सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये। ५७

अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
                  
ये कथोपकथन(  संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये।
तब ब्रह्मा ने  श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः। ९६।।
 अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
                              
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु - तत्पर हुए-

'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदो

क्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।

अनुवाद -फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।         
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?




                   ___________
पुरूरवा के  सात पुत्रों-  (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी गोप जातीय  ही थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
          
गोप पुरूरवा एवं गोपी( अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका संबंध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।

(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (आठ) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
          
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु( सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण आदि  में "प्रभा" भी मिलता है।
       
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ  श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- १२ और १३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

'द्वारे नियुक्तं ददृशुः  सूर्यभानुं  च  नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।। १२।


मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं  प्रेष्यं  राधेशयोः परम्।। १३।


अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुंदर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के  परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे।
            
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- ५९ और ६० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।


 अनुवाद - आयुष के पांच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था। ५९।


                      -: नहुष :-
                     ___________

उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी ( विरजा ) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
          
ज्ञात हो कि नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।

'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो। १३५।
              
               'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।

अनुवाद-  सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो। १३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

•  जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
          
अतः उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुंदरी) भी गोलोक की गोपी है। जो भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। 

इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥ १७।

अनुवाद - श्री कृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुंज की शोभा बढ़ाने लगे।
       
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।

इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुंदरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -

"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।। ७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।। ७३।

एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।। ७४।

अनुवाद- पार्वती  ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा-  इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्र वंशीय परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।

 इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
 इन श्लोकों से एक बात और निकल कर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुंदरी का विवाह चंद्रवंशी सम्राट नहुष से होने की बात निश्चित होती है।

अतः यहां सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चंद्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर उस समय तक यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किंतु  श्रीकृष्ण अंश नहुष को चंद्रवंशी होने का प्रमाण यहां मिल गया। और चंद्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका क्रम भी आएगा।

अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भांति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव  देहिनः।।१।


अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इंद्रियां होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १।

जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।

 ( ज्ञात हो कि ययाति अपने पिता नहुष के इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को ही राजा बनाया। इसका विवरण आगे दिया गया है।)


           ‌‌            -: ययाति :-
                      ___________
ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के ही पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों से सम्पन्न गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे।  और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।

"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। ६।

 अनुवाद - युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये। ५-६।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप थे। ययाति की तीन पत्नियां थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी।  जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
 
'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।। ४।


अनुवाद - ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
                
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिंदुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
        
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए।  किंतु अश्रुबिंदुमति सदा पुत्रहीन रही।
        
 ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी सौत होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से बैर रखतीं थीं। विशेष रूप से अश्रुबिंदुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक बैर रखती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह( बिनाकारण)  ही शाप दे दिया। किंतु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार वर्णन पद्मपुराण  के दूसरे खण्ड भूमिखण्ड के अध्याय- (८०) के श्लोक -३ से लेकर १४ तक  मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।

• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
 अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।

• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
 शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।

• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
  शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।

• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
  राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।

• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
  शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।

• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
  एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।। ८।

• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं  पितरं  प्रति   मानद ।
   नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।। ९।

• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
  तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।

• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
  भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।

• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
  एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।। १२।

• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
  शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।

• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
  मातुरंशं भजस्व त्वं  मच्छापकलुषीकृतः।।१४।

  अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा ( ययाति)  कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।

•इस कारण उस ययाति  ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया।  और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को  बुलाकर  ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और  देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु- बिन्दुमती के साथ  प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह  सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर  राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो  यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो ! अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने  पिता से कहा। ८।

• मान्य वर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
• वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।  इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।

• हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया। १३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही भजन (भक्ति ) करो।१४।


पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-

हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।

- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या-३३ और ३४ में यदु और ययाति के संवाद रूप में  दो श्लोक  विशेष महत्व के हैं। जिसमें  यदु अपने पिता से कहते हैं -

'निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना।
कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव।। ३३।

                    "राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।। ३४।


अनुवाद - हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूं, फिर भी तुमने मुझे क्यों शाप दिया है ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।

तब राजा ने कहा- हे पुत्र!  जब महान देवता (स्वराट विष्णु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा। ३३-३४।

(ज्ञात हो- अनंत ब्रह्मांड में अनंत छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किंतु स्वराट विष्णु एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य देखें।)
    
और आगे चलकर ययाति का यहीं शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय-८ को देखें।

 इस प्रकार से अध्याय- (१०) का यह भाग -(४) वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं (आयुष, नहुष, ययाति) तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों की विशेष जानकारीयों के साथ समाप्त हुआ।

 अब इसके अगले भाग -(पांच) में यदु और उनसे उत्पन्न पुत्रों तथा यदुवंश के प्रमुख सदस्यपतियों के बारे में बताया गया है।




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