अध्याय- (७)
"वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।। ८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते ।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।। ७९।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा ।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये । ८२।।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः ।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था। ७९।
• गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- ८५ और ८६ में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।। ८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ८५-८९।
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
"वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा।
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- १७ में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।। १७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
(१)- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- १७ में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।। १७।
अनुवाद- तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई नहीं है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः ।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है। १२-१३।
• आप सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी
नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६।
• आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसंपन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ।१७।
• आपका (यादवों का ) आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुत्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है। १९।
उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए
पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव - पाखंडपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भांति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान है।
(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और विशेषताओं को कंस स्वयं करता है।यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -
"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।
कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः ।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।
यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।
अनुवाद -
आप (यादव ) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवताओं के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल है। १२-१३।
• आप सब लोग पाखंडपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मंत्राओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
• आपके यशस्वी रूप प्रदीप संपूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ है। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके आप लोग पारंगत विद्वान है।१५।
• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी
नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक है।१६।
• आपके सदाचार में कभी आंच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसंपन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों के नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ।१७।
• आपका (यादवों का ) आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुत्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों ने इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है। १९।
उपरोक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए
पांच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-
(१)- यादव - पाखंडपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव - वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म है, उन्हें ये लोग भली- भांति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान है।
(३)- यादव - नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके
आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुत्रों के,
और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी बताएं हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।। ६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया। ६।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ? ये सभी विशेषताएं आज भी यादवों में देखने को मिलती है।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके
आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुत्रों के,
और तेज अग्नि के समान होता है दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पंचम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी बताएं हैं -
स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।। ६।
अनुवाद - तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया। ६।
इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।। ८।
अनुवाद - नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस "व्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपिया कोई साधारण स्त्रियां नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।। ६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।
(४)- गोपिया कोई साधारण स्त्रियां नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।। ६१।
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरंतर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते ।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।
पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -
"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।। ७९।
गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।
ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा ।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये । ८२।।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।
न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः ।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।
अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था। ७९।
• गोलोक- वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की 16 (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।
पुनः इसके अगले श्लोक- ८५ और ८६ में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।
न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।। ८६।।
अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।
गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।
ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मंडल संबंधी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ८५-८९।
गोपों की इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोपों (यादवों) को पाप से मुक्ति दिलाने वाला कहा जाता है। इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खंड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
अनुवाद- जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक( गोप) , यादवों की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-
"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४।
अनुवाद - जिसमें श्री कृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।
किंतु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी -अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्री कृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह बात शास्त्रोचित है कि गोपेश्वर श्री कृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्री कृष्ण अपनी लीलाएं करते रहते हैं। इसीलिए बगैर गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है। जिससे कभी उसके श्रवण का पुण्यफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
गोपों की निन्दा करने वाले ऐसे कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है। क्योंकि लोभी और छद्म-वेषधारी कथावाचक जब कथा करने लगेंगे तो समाज में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय - एक भाग-(दो) में बताई जा चुकी है।
इस प्रकार से यह अध्याय-७ वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरी-भूरी प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की कुछ जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ८ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें