अध्याय- (२)
श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन
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गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक का वर्णन मुख्यतः ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता में मिलता है। जिसमें सबसे पहले हमलोग गोपेश्वर श्री कृष्ण के स्वरूप को जानेंगे, इसके बाद गोलोक की भौतिक स्थिति को जानेंगे।
जिसमें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- ४ से २१ में श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।। सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४।
स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत् ।।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।५।
तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज ।।त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६।
तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम् ।८।
सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।९।
तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् ।१०।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
अनुवाद-
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।
• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।
• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। ६।
• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है। ७।
• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।
• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।
• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।
• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।
• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।
• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।
• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।
• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।
• वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है। ४१।
• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।
• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहां कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने ।४४ ।।
शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम् ।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः ।।४५ ।।
शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम् ।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।। ४६ ।।
कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः ।। ४७ ।।
मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः ।।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम् ।४८ ।।
षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः ।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ।४९ ।
नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम् ।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् । ५०।
शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम् । ५१ ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम् ।५२।
सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम् । ५३ ।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः ।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम् । ५४ ।
अनुवाद- ४४-५४
• मुने ! वह वृंदावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहां सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम है।४४-४५।
• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।
• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है।
इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।
उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।४७।
• मणीन्द्रसार से निर्मित वहां के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भांति सुसज्जित है।४८।
• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यंत उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।
• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कांति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।
• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१
• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है।५३।
• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मंद मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः ।६१ ।
सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।६२ ।।
स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च ।६३ ।।
सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम् ।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।६४।
गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः ।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ।६५ ।
अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।
• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।
• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।
•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों(गोपों ) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात् गायों का लोक कहा जाता है।
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो। (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि -वह परमेश्वर गोप-वेष में ही संसार में धर्म की पुन: स्थापना करता है।
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तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज ।।त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६।
तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम् ।८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः (२) के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)
सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।९।
तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् ।१०।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
( ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)अध्यायः (२)के
तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।१६।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।
श्लोक -
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।१६।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।
श्लोक -
रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।२०।
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।२०।
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।
अनुवाद-
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।
• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।
• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। ६।
• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है। ७।
• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।
• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।
• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।
• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।
• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।
• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।
• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।
• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।
• वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
कुछ इसी तरह से श्रीकृष्ण के स्वरूप और उनके गोलोक का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है।
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च ।। ४०।।
लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा ।।४१।।
सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ।४२।
ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ।। ४३।
अनुवाद ४०- ४३
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च ।। ४०।।
लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा ।।४१।।
सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ।४२।
ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ।। ४३।
अनुवाद ४०- ४३
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।
• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है। ४१।
• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।
• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहां कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने ।४४ ।।
शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम् ।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः ।।४५ ।।
शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम् ।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।। ४६ ।।
कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः ।। ४७ ।।
मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः ।।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम् ।४८ ।।
षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः ।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ।४९ ।
नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम् ।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् । ५०।
शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम् । ५१ ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम् ।५२।
सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम् । ५३ ।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः ।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम् । ५४ ।
अनुवाद- ४४-५४
• मुने ! वह वृंदावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहां सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम है।४४-४५।
• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।
• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है।
इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।
उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।४७।
• मणीन्द्रसार से निर्मित वहां के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भांति सुसज्जित है।४८।
• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यंत उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।
• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कांति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।
• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१
• उनका मुखमंडल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चंद्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौंदर्य कोटी कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चंद्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।
• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है।५३।
• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मंद मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः ।६१ ।
सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।६२ ।।
स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च ।६३ ।।
सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम् ।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।६४।
गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः ।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ।६५ ।
अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।
• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।
• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।
•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों(गोपों ) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात् गायों का लोक कहा जाता है।
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो। (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्)= धारण करता हुआ । (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्)= धारण करता हुआ । (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि -वह परमेश्वर गोप-वेष में ही संसार में धर्म की पुन: स्थापना करता है।
इस प्रकार से यह अध्याय समाप्त हुआ।-
जिसमें आप लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम के बारे में जाना। अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।
जिसमें आप लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम के बारे में जाना। अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।
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