सोमवार, 18 नवंबर 2024

अध्याय -(९) गोप, गोपाल,अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।


अध्याय -(९) 
गोप, गोपाल,अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।

                   
                   जो भी थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा होगा तथा थोड़ी सी भी हिंदी व्याकरण की जानकारी रखता होगा। वह इस बात को अवश्य जानता होगा कि अहीर शब्द के पर्यायवाची - आभीर, गोप, गोपाल, यादव, गोसंख्य, गोधुक, बल्लव, घोष इत्यादि होते हैं।                             इस सम्बन्ध में अमरकोश जो गुप्त काल की रचना है। उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं, जो इस प्रकार है-
१- गोपाल २- गोसङ्ख्य ३- गोधुक,  ४- आभीर ५- वल्लव ६- गोविन्द  ७- गोप।
         आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
                                  श्रोत - अमरकोश  2/9/57/2/5
आभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन का वाचक है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं।
          
      अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है।
अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस संबंध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
   किंतु हमें अहीर,आभीर, और यादव शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
                           अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।

                    इसी तरह से करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं
                 और 500 साल पहले कृष्णभक्त चारण "इशरदास" रोहडिया जी" ने पिंगल -डिंगल शैली में श्री कृष्ण को अपने एक  दोहे में अहीर लिखा है, जो इस प्रकार है-

                इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८

                   अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है। ५८

                  और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
               इस प्रकार से देखा जाए तो हिंदी ग्रंथों में अहीर शब्द का प्रयोग केवल यादव, गोप, घोष, और ग्वाला के लिए ही सामान्य रुप से प्रयुक्त किया जाता है, अन्य किसी के लिए नहीं।
अब यह जानना है कि संस्कृत व पौराणिक ग्रंथों में "आभीर" शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से अहीर, गोप, और यादव, के लिए कहां-कहां किया गया है। ध्यान रहे इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि आभीर संस्कृत शब्द है, जिसका तद्भव रुप अहीर है। तो जाहिर है कि अहीर शब्द संस्कृत में प्रयुक्त नहीं होगा। उसके स्थान पर "आभीर" शब्द ही प्रयुक्त होगा।
जैसे -:  
गर्ग संह

िता के विश्वजीत खंड के अध्याय ७ के श्लोक संख्या- १४ में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब संधि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी
शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।। १४

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नंद नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६

        इन उपर्युक्त दो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
       ▪️ इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।। ६  

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।। ७
             अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
         •  अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

▪️ इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः । 16

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18
     
                 अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

        अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
        उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
            ध्यान रहे ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों को क्षत्रिय होने की भी पुष्टि करती हैं।
             इन उपरोक्त श्लोकों से आभीर जाति का प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है।

                    इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण  इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
                      अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
•   कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
           इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
                        इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के
श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम ज

ी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४
              अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
             इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
     और अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया और गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया और गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल और यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।

             भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०
             
                  अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
•  यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
                 भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
             अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४
      इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर  विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८
           अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
                      इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।

गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१

  अनुवाद -
• ओ यादव! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं। २६
    तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं। ४१
           इस प्रकार से यह अध्याय-८ इस बात की जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोप, गोपाल,अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं।
      अब इसके अगले अध्याय - १० में गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में जानकारी दी गई है।

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