शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

अध्याय- (६)वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व-

      (अध्याय षष्ठम्)  

 
ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है। ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था में वर्ण जातिगत विशेषण है।
इस बात को पिछले अध्याय- चार (४) में बताया जा चुका है।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग के विभाजन  है। इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के बड़े ही स्वाभिमान से करते हैं। जैसे -
अर्थात् अहीर जाति में वर्ण गत विधान नहीं है अहीर लोग सभी वर्णों के कर्म करने में स्वतन्त्र हैं।


ब्रह्मणत्व कर्म का मुख्य उद्देश्य पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना प्रमुख है। और ये सभी कर्म- स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारंभ से ही करते आए हैं।
 
गोपों के इसी ब्रह्मणत्व स्वभाव और कर्मों की वजह से  उन्हे पौराणिक ग्रन्थों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है।
             सत्यनारायणव्रतकथाः 
            
              ॥सूत उवाच॥ 
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा:॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥    एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥

आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥          ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६।

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥ 
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥

सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥

य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्।१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥

भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्।१२॥

इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥

विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥

सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा:॥        
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥

व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥

शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९॥

काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥

उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥

तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३॥


सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। 
उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दु:ख प्राप्त किया। 

एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने गोपों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा।

अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी वह राजा पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। 

गोपों  ने राजा को प्रसाद दिया।
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। 

जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है।

वह दुबारा गोपों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरान्त उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।

 जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन व्यक्ति  धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। 

संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ।

वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।

उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए।
साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया।
महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  
इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।


इसका सबसे बड़ा उदाहरण- गोपेश्वर श्रीकृष्ण, ज्ञान की देवी- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली देवी स्वाहा और स्वधा हैं।

जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप जाति के सदस्यपति हैं। इन सभी के बारे में नीचे बताया गया है कि इन्हीं से धर्म  और यज्ञ कर्म का फल फलीभूत होता है। गोपों को ही सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया है। इस बात की पुष्टि-पद्म पुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१७ के श्लोक-( १५-१६ )और (१७ )से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान के उपरांत गोपों से कहते हैं कि-

'भोभोगोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्यायााषतेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।।१५।

योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणाबेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।।१६।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरंचयते।।१७।

अनुवाद -

• हे गोपगण! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धु-गण के लिए आनन्दप्रदा है। इस बाला को हम यहाँ लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलंबन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों ? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी इस भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है।१५।

• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६।

• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
_______________________________
           
इन उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है-
• पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ। जिनके मंत्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।
जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इंद्र से कहती है -
 
गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।। १५५।


अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मंडराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५

• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया।
• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है।
• चौथी बात- यह कि- देवी गायत्री महा विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरी भूरी प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में की, और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
          
देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनों ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायण संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -

_______
ब्रह्मणंयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।

श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता६५।

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता ।।६६।

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे ।।६८।

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।। ६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह  गायत्री नाम्ना।। ७०।

अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।

•श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए  उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी  जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।

• सुनो ! मैं  जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५।

• उस परमात्मा ने अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या के  गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।

• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८।

• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित हुईं।६९।

• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको जानना चाहिए गायत्री नाम से ।७०।
          
ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
     
इसी तरह से देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पितृ- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
__________________________________
  
जिसमें सुशील को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशील को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिण के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥ २।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३।
      
अनुवाद - प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी। २-३।

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७ ॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥ ८।

        
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥ ७-८।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥

     
अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। ९।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥-१०॥

  _________      
 ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तृत  रूपान्तरण है।
     
इसी तरह से देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा हैं।
 जिनकी यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। 

और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशीला को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
  
जिसमें सुशीला को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

"गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥२।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥३।
      
अनुवाद - प्राचीनकाल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७॥

सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥८।।
        
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥७-८।।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥

वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥

अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥
**
पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥१५॥

अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति।१६।

 अनुवाद- ( १५-१६ )
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन

करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।

दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५


अनुवाद - हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई। ३५।

इस संबंध में ज्ञात होगी भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिण रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥ ३७ ॥

दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥ ३८ ॥

विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥ ३९ ॥
             
अनुवाद -  जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिण को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया। ३७-३८-३९।
             
तब यज्ञ पुरुष देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिण से कहा कि-
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥

राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
      
अनुवाद - हे महाभागे!तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियोंमें परम श्रेष्ठ थी। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी थी। ७१।

कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२॥

आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥

लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥

कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
      
अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसरपर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांशसे प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शापसे गोलोक से च्युत( पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांशसे आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥ ७२,७४।
                 
फिर यज्ञ पुरुष उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥७५॥

त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥
       
अनुवाद-  तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओंका कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५,७६,७७
      
और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कंद के अध्याय-४३ के श्लोक-३८ में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के दरम्यान गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।। ३८
स्वाहान्तं मंत्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे ।
स्वाहायुक्तं च मत्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् ।। ३९
               
अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त  प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे मंत्र के उच्चारण से उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।
               
इस तरह से देखा जाए तो ब्राह्मणत्व से संबंधित सारे कर्म-विधान और फल, गोप और गोपियों के माध्यम से ही संपन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंगीता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय (60) के श्लोक संख्या (40) में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
        
अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा गोप,यादव की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।
और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्मांड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण को गोप होने को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय-(८)में दी गई है।
         
 कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता बिना वर्ण विभाजन के ब्राह्मणत्व कर्म को स्वाभाविक रूप से करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।

           [ख] गोपों का क्षत्रित्व कर्म

वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रियों से इनका कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि का भार हरण के उद्देश्य से ही किया गया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायण सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
     
इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहें हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिचासों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।। १०।

    
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्रकृति मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूं।
 इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से। और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में।  भगवान श्रीकृष्ण खुद गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहां से इस विषय पर पाठक गण जानकारी ले सकते हैं।
     
भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भांति नंद बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा ।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।। २३।
         
अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिय हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐमकार एवं वषट्कार हो।
    
 किंतु इस संबंध में यह बात ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
          
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय। इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शास्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
     
अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे संबंधित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजित एवं अजेय है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक परलोक सभी को जीतने शक्ति है। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उनपर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् उसपर देवता, गंधर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-२ के श्लो

क संख्या- ७ में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।

           
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और संपूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
         
 इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेय एवं अपराजित है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय कहा जाता है।

                 [ग] गोपों का वैश्य कर्म

ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप भी स्वतंत्र रूप से करते हैं इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है।

 क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। क्योंकि गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं। जिसमें ये गोप पशुपालन में  मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है। गोपालन कार्य से सम्बन्ध,गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का पूर्व कल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- 154 की रिचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥६
              
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
   
इससे सिद्ध होता है कि गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परंपरागत रूप से निभाते हैं।
गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-६ के श्लोक-२६ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।। २६
         
अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।
 इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हाल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
            
श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कंध के अध्याय- (२० )के श्लोक-६० और ६१ से होती है-
तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।

वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।। ६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।
              
अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी सुरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था। ६०,६१

                    कृ .प .उ.

अध्याय-(६)/२ 


     
 इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्णा भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ करते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।

                       
 [घ] गोपों का शूद्र कर्म।
 देखा जाए तो  ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही स्वभाव देखने को मिलता है। जिसकी वजह से भगवान श्री कृष्णा जब-जब पृथ्वी पर पाप अत्याचार बढ़ता है, तब- तब वे अपने गोपों के साथ वैष्णव वर्ण के गोप कुल में अवतरित होते हैं। यानी पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा हेतु ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं। भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध (उत्तरार्ध ) के अध्याय-७५ के श्लोक- ४,५ और ६ से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो थानाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्य साधने।। ४
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।। ५
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।। ६

  अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्री कृष्ण, आए हुए अतिथियों के पांव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे। ४,५,६
     इन उपरोक्त श्लोक को यदि अंतरात्मा विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार कर यह सिद्ध कर दिया कि वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को करना और कराना दोनों ही निंदनीय माना गया है। जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसा नहीं है।
      
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
   
इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें