इन शब्दों का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है; जिनमें इन शब्दों का मूल अर्थ भी दृष्टिगोचर होता है।
"दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे ।
हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥५॥ — ऋग्वेदः सूक्तं १.११४
अनुवाद:-
उस अरुण रंग के देव वराहरूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्म) और (वर्म)कवच अथवा ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब(शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से आच्छादित करे !(ऋ०१/११४/५)
जिन्हे संस्कृत में क्रमशः शर्मा तथा वर्मा लिखा जाता है। शर्मा ब्राह्मणों तथा वर्मा क्षत्रियों के नाम के अन्त में प्रयोग की जाने वाली उपाधियाँ हैं।
"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)
ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !
शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।
देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !
शर्मन् एक प्राचीन शब्द है; ऋग्वेद संहिता में इसका अर्थ -शस्त्र। शरण। आदि-
शरण=(शॄ+ल्युट्)। १ गृह २ रक्षक अमरकोश । ३ रक्षण ४ बध मेदिनीकोश । ५ घातक -शब्दचन्द्रिका।
इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥
अनुवाद-
हे
इन्द्र , तुम भी मरुतों सहित इस उत्सव में
सोम का पान करो , जैसे तुमने इस
शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया है ; तुम्हारे दूर-दूर तक फैले हुए प्रेम करने वाले
शर्मन् बनकर शूर रहकर अपनी सुन्दर यज्ञों के माध्यम से स्तुति करने वाले तुम्हारी आराधना करते हैं।७।
वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वैदिक काल में इन्द्र की यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।
वर्मन्-
त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।
स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ (ऋ० १/३१/१)
हे अग्नि, आप परिश्रमपूर्वक धर्मात्मा मनुष्य की रक्षा उस ढाल की तरह करते हैं जो ब्रह्मांड की रक्षा करती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ करता है, वह स्वर्ग के समान है।
हे अग्नि, आप उस मनुष्य की रक्षा करते हैं जो अपनी धार्मिकता के लिए प्रयास कर रहा है, जैसे ढाल उसे सभी तरफ से बचाती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ प्रदान करता है, वह स्वर्ग के समान है।
त्वम् अग्नि प्रयतददक्षिणं नरं वरमेव स्युतम परि पासि विश्वतः स्वादुक्षाद्मा यो वसतौ स्योनाक्रज जीवयजं यजते सोपमा दिवाः ।।
अनुवाद:
" अग्नि , तुम उस व्यक्ति को जानते हो जो हर तरफ से (पुजारियों को) उपहार देता है, अच्छी तरह से सिले हुए कवच की तरह। जो आदमी अपने घर में बढ़िया भोजन रखता है, और उनके साथ (अपने मेहमानों) का मनोरंजन करता है, वह जीवन का बलिदान करता है, और स्वर्ग की तरह है।"
सायण द्वारा भाष्य: ऋग्वेद-भाष्य
वर्मा स्युतम = सिला हुआ कवच, जो बिना कोई दरार छोड़े सुइयों से बनाया जाता है; जीवम्-याजम् यजते, जीवन-यज्ञ का बलिदान: जीवयजनसहितं यज्ञम्, जीवन के बलिदान के साथ बलिदान; जीवनिष्पाद्यम्, जिससे जीवन को सहारा दिया जाता है;
जीवयाजम् = जीवः , जीवित, पुजारी, जो इज्यन्ते दक्षिणाभिः, उपहारों द्वारा पूजे जाते हैं
वर्मन् शब्द की व्याख्या इस प्रकार है; "आवृणोति अङ्गम् (वृ+मनिन्)" जो अङ्ग को आच्छादित करे !। इससे इस शब्द का अर्थ-विस्तार आवरण, कवच, ढाल, सुरक्षा, पेड़ की छाल, छिलका, आदि में हुआ। तथा मनुष्य रूप में शरण, सुरक्षा प्रदान करने वाले के लिए वर्मन् शब्द उनके नाम में जोड़ने की परम्परा बन गई।
गुप्त
गुप्तम्, त्रि, (गुप्यते स्म । गुप् + कर्म्मणि क्तः ।) कृतरक्षणम् । तत्पर्य्यायः । त्रातम् २ त्राणम् ३ रक्षितम् ४ अवितम् ५ गोपायितम् ६ । (यथा, महाभारते । १ । १ । १८८ ।
गुप्त वि।
रक्षितम्
समानार्थक:त्रात,त्राण,रक्षित,अवित,गोपायित,गुप्त
3।1।106।1।6
"त्रातं त्राणं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च। अवगणितमवमतावज्ञातेऽवमानितं च परिभूते॥
(अमरकोश)
गो रक्षक- गुप्त( गोपायितृ)
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।
मा मा प्रापत्पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥२९॥ — अथर्ववेदः/काण्डं १७
दास
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास शब्द दान देने (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस की ऋचा लें :—
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥ — (ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)
"(हे अग्निदेव!) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)
अनुकम्पा, दानादि के लिए उपयुक्त पात्र व्यक्ति को दास कहा गया है। ऋसुदास ऋग्वेद में वर्णित राजा सुदास भी वस्तुतः (ईश्वर की) अनुकम्पा के लिए उपयुक्त सुपात्र हैं।
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दास--दाने सम्प्रदाने घञ ५ दानपात्रे सम्प्रदाने ६ शूद्राणां नामान्त प्रयोज्योपाधिभेदे “शर्म्मान्त ब्राह्मणस्य स्यात् वर्म्मान्तं क्षक्षियस्य तु । गुप्तदासान्तकं नाम प्रशस्तं बैश्यशूद्रयोः” उद्वाह० त०
'विष्णूवाच !
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।
अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा
तुम मेरे भक्त हो!।७९।
"राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।
'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा ! ऐसा ही हो ! तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं! अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो !।८१।
एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।
निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।
और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)
ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेहनि ।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम् ।८ ॥
शर्मेति ब्राह्यणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ॥९॥
नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा ।
नामङ्गल्यं जुगुप्साकं नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥१०॥
(विष्णुपुराण-तृतीयांशः-अध्यायः (१०)
शर्मान्तं ब्राह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ॥१५३/४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३/५
(अग्निपुराण -/अध्यायः १५३)
मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्। वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥ |
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् । वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२। (मनुस्मृति )
-पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द शूद्र का वाचक बन गया और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ। जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा। "राजोवाच यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन । दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०। अनुवाद:- राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।
"पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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