गुरुवार, 14 नवंबर 2024

अध्याय- (४) चार - गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।


                (अध्याय-चतुर्थ)

गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा  भी कहा जाता है। किंतु प्रश्न यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या  ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अलावा कोई दूसरा वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।

तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त -अर्थात् परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन  करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो  ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण  है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
               
सृष्टि सर्जन के प्रारम्भिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या- (१ से ७) तथा (१८ से ३०) और (३१) में मिलता है। जिसमें सृष्टि के प्रारम्भिक क्रम को दर्शाते हैं।

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।

आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः ।।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः ।।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः ।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात् ।।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।।३१।

अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। -१।

• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की। - २-३।

• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए। ४-५।

तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे। ६-७।

• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पांच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।

• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे।- ३०-३१।
   
इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम प्रभु श्री कृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण( स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                  
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों की भी उत्पत्ति हुई। जिसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- २५, ४० और ४२ से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२।

अनुवाद -

गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी। २५।

• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे। ४२।

गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्मतम इकाई रूप अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए - सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।

इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-  समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।

और विज्ञान के इस समरूप सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूप विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति  कर चुके हैं।

किंतु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धांत को आज अपनी उपलब्धियां मानकर फूले नहीं समा रहा है।
    
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं  सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है।

अब प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है ! कि राधा और कृष्ण तो द्वापर युग (आज से  लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए ) और आभीर अथवा गोप जाति तो सतयुग से ही अस्तित्व में है।

तो इसका समाधान यही है कि राधा और कृष्ण का गोलोक वासी रूप सनातन है। उसी से सत् युग के प्रारम्भ में गोलोक में ही गोपीयों और गोपों  की उत्पत्ति राधा और कृष्ण से हुई -

जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन  ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(48) के श्लोक संख्या- (43) में शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है। 
   

इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति  को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -३६ के श्लोक संख्या -६२ में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद:- 

हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं।

और इसके  कुछ समय पश्चात उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- 
"सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ५ ,६ और-७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति ॥५॥

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- 
•  तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५।

•  प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।६।
•  क्योंकि ये समस्‍त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब  समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दंतवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ।
उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- 11 के श्लोक संख्या-२१और २२ में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।
अनुवाद-

नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण ( आभीर ) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
                 
इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति किये हैं। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ हीरहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर उन्हें आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।

               
गोलोक में जब भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-६ के श्लोक संख्या-७१ और-७२ में कहते हैं-
"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् । ७१।
इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम्
।७२। 

अनुवाद-• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृंदावन है)
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ करते हैं।
इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे संपूर्ण ब्रह्मांड में अनंत लोकों रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि  के चार्तुवर्ण की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों  की सामाजिक स्थितियां बनी है।
       
किंतु ब्रह्मा जी सबसे उपर वाले गोलक और उससे क्रमशः नीचे शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं।  इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में  भी होती है
जो इस प्रकार है-

"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः ।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय ।१२।

"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः ।।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः ।।१३।।

"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः ।। १४ ।।

"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।

'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे ।।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।

"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः ।।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।। १७ ।।
   
अनुवाद - १२ से १७ तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद( चर्बी) से मेदिनी( पृथ्वी) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यंत प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी ( तीन लोक) है, उसकी  रचना की। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुंठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है)  उसकी रचना ब्रह्मा ने  नहीं की ।
      
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिरस्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते। 
क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो जाहिर सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से ये क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- पांच और छः में किया गया है। 
वहां से इस विषय पर संपूर्ण जानकारी मिलेगी।
      
 इस प्रकार से यह अध्याय इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई है।

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