शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

:अध्याय - (५) पांच "वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य औरवैष्णव वर्ण में अन्तर"



"वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य और
वैष्णव वर्ण में अन्तर"



 इस अध्याय में ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य(चारों-वर्णों) और विष्णु जी के "वैष्णव वर्ण" में प्रमुख अंतर और उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के विषय में बताया गया है।

ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें कर्म के आधार पर वर्ग विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र चार वर्गों में विभाजित है।

इस बात की पुष्टि- पद्मपुराणम्‎ सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ।१३०।   

अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए। १३०।
इसी उपर्युक्त बात को विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय में बताया गया है।

ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१,६.६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।

यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥१,६.७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुव॑ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति( उत्पादन) के लिए बनाया ।
विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६)

अतः इससे सिद्ध होता है कि इन चारों वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही हुई है।  अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।
 विशेष :- यज्ञ का विधान भी ब्राह्मण प्रदान चारों वर्णों के लिए है। गोपों के लिए नहीं क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समर्ण
 पूर्वक ईश्वर के प्रति होकर भजन संकीर्तन ही  वैष्णवों का कर्तव्य  हैं।  
वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अतिरिक्त एक पाँचवां वर्ण भी है, जिसका नाम "वैष्णव वर्ण" है, जिसकी उत्पत्ति भगवान स्वराड्- विष्णु  से हुई है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव
- तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
      
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही  आती हैं बाकी कोई नहीं। 

क्योंकि  इनकी उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (३) में बताया जा चुका है।

इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है। जैसे-
१- ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ऊँच- नीच का बड़ा भेद- विभेद पाया जाता है। जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है सभी बराबर हैं।
"हरि को भजे सो हरि को होई जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
२- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है।  कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्ण अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर  करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।
जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
३- इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन व्यवसाय (कार्यों) के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में न होकर जन्म के ही आधर  पर हो जाता है।
मनुस्मृति में वर्णन है। कि 

"मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम् ।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥३१॥

शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२॥
(मनुस्मृति अध्याय-2- का 31-और 32 वाँ श्लोक)
अनुवाद-.ब्राह्मण का नाम मंगलमय', क्षत्रिय का नाम 'रक्षात्मक', वैश्य का नाम 'समृद्धि या धनात्मक' तथा शूद्र का नाम घृणा का बोधक होना चाहिए।—(३२)


                 "विष्णूवाच !
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन में स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं !  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।


निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

______________
पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)


इन शब्दों का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है; जिनमें इन शब्दों का मूल अर्थ भी दृष्टिगोचर होता है।

"दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे ।
हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥५॥ — ऋग्वेदः सूक्तं १.११४
अनुवाद:-
उस अरुण रंग के देव वराहरूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्म) और (वर्म)कवच अथवा ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब(शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से आच्छादित करे !(ऋ०१/११४/५)


जिन्हे संस्कृत में क्रमशः शर्मा तथा वर्मा लिखा जाता है। शर्मा ब्राह्मणों तथा वर्मा क्षत्रियों के नाम के अन्त में प्रयोग की जाने वाली उपाधियाँ हैं।

"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)

ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !

शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।

देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !

शर्मन् एक प्राचीन शब्द है; ऋग्वेद संहिता में इसका अर्थ -शस्त्र। शरण। आदि-
शरण=(शॄ+ल्युट्)। १ गृह २ रक्षक अमरकोश । ३ रक्षण ४ बध मेदिनीकोश । ५ घातक -शब्दचन्द्रिका।
इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥
अनुवाद-
हे इन्द्र , तुम भी मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने इस शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया है ; तुम्हारे दूर-दूर तक फैले हुए प्रेम करने वाले शर्मन् बनकर शूर  रहकर अपनी सुन्दर यज्ञों  के माध्यम से स्तुति करने वाले तुम्हारी आराधना करते हैं।७।


वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वैदिक काल में इन्द्र की यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।


वर्मन्-

त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।
स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ (ऋ० १/३१/१)

हे अग्नि, आप परिश्रमपूर्वक धर्मात्मा मनुष्य की रक्षा उस ढाल की तरह करते हैं जो ब्रह्मांड की रक्षा करती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ करता है, वह स्वर्ग के समान है।
हे अग्नि, आप उस मनुष्य की रक्षा करते हैं जो अपनी धार्मिकता के लिए प्रयास कर रहा है, जैसे ढाल उसे सभी तरफ से बचाती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ प्रदान करता है, वह स्वर्ग के समान है।
त्वम् अग्नि प्रयतददक्षिणं नरं वरमेव स्युतम परि पासि विश्वतः  स्वादुक्षाद्मा यो वसतौ स्योनाक्रज जीवयजं यजते सोपमा दिवाः ।।

अनुवाद:

अग्नि , तुम उस व्यक्ति को जानते हो जो हर तरफ से (पुजारियों को) उपहार देता है, अच्छी तरह से सिले हुए कवच की तरह। जो आदमी अपने घर में बढ़िया भोजन रखता है, और उनके साथ (अपने मेहमानों) का मनोरंजन करता है, वह जीवन का बलिदान करता है, और स्वर्ग की तरह है।"

सायण द्वारा भाष्य: ऋग्वेद-भाष्य

वर्मा स्युतम = सिला हुआ कवच, जो बिना कोई दरार छोड़े सुइयों से बनाया जाता है; जीवम्-याजम् यजते, जीवन-यज्ञ का बलिदान: जीवयजनसहितं यज्ञम्, जीवन के बलिदान के साथ बलिदान; जीवनिष्पाद्यम्, जिससे जीवन को सहारा दिया जाता है;

जीवयाजम् = जीवः , जीवित, पुजारी, जो इज्यन्ते दक्षिणाभिः, उपहारों द्वारा पूजे जाते हैं

वर्मन् शब्द की व्याख्या इस प्रकार है; "आवृणोति अङ्गम् (वृ+मनिन्)" जो अङ्ग को आच्छादित करे !। इससे इस शब्द का अर्थ-विस्तार आवरण, कवच, ढाल, सुरक्षा, पेड़ की छाल, छिलका, आदि में हुआ। तथा मनुष्य रूप में शरण, सुरक्षा प्रदान करने वाले के लिए वर्मन् शब्द उनके नाम में जोड़ने की परम्परा बन गई।

गुप्त

गुप्तम्, त्रि, (गुप्यते स्म । गुप् + कर्म्मणि क्तः ।) कृतरक्षणम् । तत्पर्य्यायः । त्रातम् २ त्राणम् ३ रक्षितम् ४ अवितम् ५ गोपायितम् ६ । (यथा, महाभारते । १ । १ । १८८ ।

गुप्त वि।
रक्षितम्
समानार्थक:त्रात,त्राण,रक्षित,अवित,गोपायित,गुप्त
3।1।106।1।6

"त्रातं त्राणं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च। अवगणितमवमतावज्ञातेऽवमानितं च परिभूते॥
(अमरकोश)

गो रक्षक- गुप्त( गोपायितृ)
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।
मा मा प्रापत्पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥२९॥ — अथर्ववेदः/काण्डं १७

दास

अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास शब्द दान देने (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस की ऋचा लें :—

यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥ — (ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)

"(हे अग्निदेव!) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)

अनुकम्पा, दानादि के लिए उपयुक्त पात्र व्यक्ति को दास कहा गया है। ऋसुदास ऋग्वेद में वर्णित राजा सुदास भी वस्तुतः (ईश्वर की) अनुकम्पा के लिए उपयुक्त सुपात्र हैं।
___
दास--दाने सम्प्रदाने घञ ५ दानपात्रे सम्प्रदाने ६ शूद्राणां नामान्त प्रयोज्योपाधिभेदे “शर्म्मान्त ब्राह्मणस्य स्यात् वर्म्मान्तं क्षक्षियस्य तु । गुप्तदासान्तकं नाम प्रशस्तं बैश्यशूद्रयोः” उद्वाह० त० 
                 'विष्णूवाच !
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा ! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।
और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)



ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेहनि ।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम् ।८ ॥

शर्मेति ब्राह्यणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ॥९॥

नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा ।
नामङ्गल्यं जुगुप्साकं नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥१०॥
(विष्णुपुराण-तृतीयांशः-अध्यायः (१०)

शर्मान्तं ब्राह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ॥१५३/४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३/५

(अग्निपुराण -/अध्यायः १५३)

मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥

अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम शुभ होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से संबंधित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से संबंधित होना चाहिए, जबकि शूद्र का नाम घृणित होना चाहिए।—(३१

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२।

अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम  शर्मवत्( यज्ञ में बलि करने से सम्बन्धित), क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम ' दासत्व(गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए।—(३२)

(मनुस्मृति- अध्याय 2- के श्लोक संख्या- 31-32 )

 -पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल  में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द  शूद्र का वाचक बन गया  और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ।

जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का  का ही वर माँगा। 

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

"पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है।  कि चातुर्वर्ण्य के लोग जो अपने  वर्ण  के दायरे में रहकर ही कार्य करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह ब्राह्मणत्व कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।

इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥

सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।

अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।। ३०,३६
 
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
         
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के कर सकते हैं।  वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(पांच) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि, एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना प्रतिबंध के करते हैं।

वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-

"सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥४।
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक व्यक्ति का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।

वैष्णव के लक्षण-

महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।

तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम्।२।

विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते।     सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।           अनुवाद:-                 
-१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं । १।                            
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                    

३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाता है; और सभी वर्णों मे वैष्णव श्रेष्ठ कहे जाता है।३।  
      
"पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८- श्लोक संख्या १-२-३।
Note- यदि और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम मण्डल के(62) वें सूक्त की ऋचा संख्या- 10  में दासा( दास का द्विवचन) पद से सम्बोधित किया है।      
जिसे आप इसी पुस्तक के अध्याय संख्या (11) के भाग (1) में देख सकते हैं।

इस प्रकार से इस अध्याय में आप लोगों ने वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर एवं उनकी विशेषताओं को जाना। अब इसके अगले अध्याय -(६) में आप लोग जानेंगे कि - वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या हैं ? ।

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