यादव और गोप कहा है ।
जिसमें वृष्णि वंश के राजा देवमीढ़ के वंशज गोप अहीरों का वर्णन है ।
"देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।
अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।
अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।
गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३।
पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।
ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४।
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।
गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा।
यादवा लोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।
•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं ५
आ समन्तात् भियं राति ददाति ।
शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति ।६।
•- चारो ओर से शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६
अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।।७।
अर्थ:- ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।।७।
ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।
अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है।
देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।४९
अर्थ:-
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे
जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।
वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।
यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५०।
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सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए ।
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शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
'देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।
चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।
तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
स्पष्टीकरण:-
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था ।
उसी चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या- १७६ सम्बद्ध है ।
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है।
परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।
स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को
और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी
गोपालक ही था ।
निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
__________
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।
में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशं गतः ।
करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनः सदैव हि।५२।
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं
।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥ ५३ ॥
अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा ।
जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥अर्थ • -प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै ॥ ५५ ॥
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।
वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना॥५६ ॥अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।
निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः॥ ५७॥
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा॥५८॥
अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०
_________
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये !
अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था।
और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है।
जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे; इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
अग्रलिखित सन्दर्भों में हम चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे
यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
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(अथ कथारम्भ:)
"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।
तस्य चार्याणां शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।
तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति ।
तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार ।
स चार्य बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं
व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।
अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ;
उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ थीं , पहली (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की, दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ;
उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।
और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे;
जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।
विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।
तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।
अर्थ•-इस विषय में मनुस्मृति भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं।
उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ होता है । अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।
इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।
अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति ।२५।।
अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य ! का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !
इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।
संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।
अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।
अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई ! मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।
मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।
अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी अधिक नाना(मातामह) के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे।
उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९।
उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।
तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
"स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उप नन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक
अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
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'तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।
अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।
गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।
अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।
व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा
गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।
अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।
(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)_______
प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा
तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।
देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।
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देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम् तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।। तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।
नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।
उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं । उपनन्द बडे़ थे ।
__________________________________ माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोऽथ गोप इति प्राहु:।५७।
एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)
अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं). _______________
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)
आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् ।
पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम् ।।५-२४-७ ।।
बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह- ।
ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम् । ५-२४-८ ।।
ततो गोपीश्व गोपांश्व यथापूर्व्वममित्रजित् ।
तथैवाभ्यवदत् प्रेमूणा बहुमानपुरःसरम् ।। ५-२४-९ ।।
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।
जैसे - अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; ऐसा वर्णन है ।
अब देखें देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है।
परन्तु कृषि और गोपालन तो क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप
स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक था
निम्न रूप में -
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
में प्रस्तुत है वह वर्णन -
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥
•-प्राचीन समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।
•(उसके पिता का नाम मधु ) वरदान पाकर वह पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।
स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः। ५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा।५८।
•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।____________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१॥
•तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ !
•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।
•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और अग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
______________
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप कृषि, गो पालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है नकि वैश्य वृत्ति वैश्य वृत्ति तो केवल व्यापार तथा वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपित विपरीत ही हैं ।
फिर सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है ये गोपालक के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प लाने का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ
जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे जो दोनों के गोप और यादवों के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें
अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।
जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
_________________________________________
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उप नन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक
अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
_________________________________________ तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
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वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
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पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।।
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।।
द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।।१२९।।
पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।।१३०।।
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।।१३१।
_______________
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।।१३२।
उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।।१३३।।
________
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।।१३४।।
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।।१३५।।
यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।।१३६।।
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।।
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।।
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।।
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।।१४०।।
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
(ब्रह्मोवाच)
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।।१४१।।
________________________________
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना ।१४२।।
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।।१४३।।
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
(पुलस्त्य उवाच)
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।।
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।।१४५।।
________________________________
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।।१४६।।
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।।१४७।।
______________
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।।१४८।।
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।।
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।।१५०।।
(पद्म पुराण 1.17.150)
____________________________
सावित्री द्वारा विष्णु को शाप-
______________
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।।१५१।।
भो विष्णो ! भार्या वियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।।
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।।१५३।
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यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि।।१५४।
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।।१५५।।
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।।१५६।।
(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड 1/17/156)
घोरचारा क्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेद कारिणी।
यादवेन्द्र- कुलोद्भूता तुरीय- पदगामिनी ।।६।।
गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना। गेयगानप्रिया गौरी गोविन्द पदपूजिता।७।।
(श्रीगायत्री अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्-)
★-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू आभीर कन्या तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे ।
यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
और सावित्री विष्णु को यादव गोप कुल में गायत्री माता के भाई के रूप अवतरित होने का शाप देती हैं । पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के १५-१६-१७-१८ अध्यायों में विष्णु के आभीर कन्या गायत्री के ब्रह्मा के साथ विवाह में सहायक होने से गायत्री सभी देवों तथा विष्णु को गायत्री के यादव कुल में आभीर रूप में अवतरण होने का शाप देती हैं । इसी बात का समर्थन स्कन्दपुराण के नागर खण्ड तथा नान्दीपुराण में है ।
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प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया -
परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा !
तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !
यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों , विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर
उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्दों में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी
तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीरों की कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी गोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
सन्दर्भ : पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १५-१६-१७-१८-
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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्र नाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।
यादव गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोकों में देखें
एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।
न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।।
संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।।
तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।
उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।
और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।
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गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।
गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।
आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५।
निम्न श्लोक में भी देखें ।
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।
उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है।
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तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।
तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री को ब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।
गायत्री जिसे गूजर , जाट और अहीर तीनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं।
गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।
गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है।👇
अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
मत्संहनन तुल्यानां गोपानामर्बुदं महत्।नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: १०- घोष:( वैदिक रूप गोष:)
(2।9।57।2।5)(अमरकोशः)
हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
" भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया ।सरे आम बकवास है ये तो प्रक्षेप !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये । माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
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परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या १९ से ३१ तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है ।
जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे
सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।
दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता: ॥ २० ॥
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक: ॥ २२ ॥
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