हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
पिण्डारक तीर्थ के अन्तर्गत समुद्र में श्रीकृष्ण तथा अन्य यादवों का जल विहार
जनमेजय बोले- मुने ! अन्धक वध का प्रसंग अवश्य सुनने योग्य है।
मैंने उसे अच्छी तरह सुना है। अन्धकासुर का वध करके बुद्धिमान महादेव जी ने तीनों लोकों में शान्ति फैला दी। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि चक्रपाणि भगवान श्रीकृष्ण ने निकुम्भ के दूसरे शरीर का किसलिये और किस प्रकार वध किया था। आप उसे बताने की कृपा करें।
वैशम्पायन जी कहते हैं- निष्पाप राजेन्द्र! तुम श्रद्धालु हो; इसलिये तुमसे अमित तेजस्वी जगन्नाथ श्रीहरि के चरित्र का वर्णन करना उचित है। नरेश्वर! एक समय की बात है, द्वारका में रहते समय अतुल तेजस्वी श्रीकृष्ण को पिण्डारक तीर्थ में समुद्र यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ। भरतनन्दन! राजा उग्रसेन तथा वसुदेव इन दोनों को नगर का अध्यक्ष बनाकर द्वारकापुरी में ही छोड़ दिया गया। शेष सब लोग यात्रा के लिये निकले। नरदेव! बलराम जी अपने परिवार के साथ अलग थे, सम्पूर्ण जगत के स्वामी बुद्धिमान भगवान जनार्दन का दल अलग था तथा अमित तेजस्वी कुमारों की मण्डलियां भी अलग-अलग थी।
नरेश्वर! वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न वृष्णिवंशी कुमारों के साथ सहस्रों गणिकाएं भी यात्रा के लिये निकलीं। वीर! सुदृढ़ पराक्रमी यादव वीरों ने दैत्यों के निवास-स्थान समुद्र को जीतकर वहाँ द्वारकापुरी में सहस्रों वेश्याओं को बसा दिया था। विविध वेश धारण करने वाली वे युवतियां महामनस्वी यादवकुमारों के लिये सामान्य क्रीड़ा नारियां थीं। वे अपने गुणों द्वारा सभी कुमारों की इच्छा के अनुसार उनके उपभोग में आने वाली थी। राजकुमारों की उपभोग्या होने के कारण वे राजन्या कहलाती थीं। प्रभो! बुद्धिमान श्रीकृष्ण ने भीमवंशी यादवों के लिये ऐसी व्यवस्था कर दी थी, जिससे यादवों में स्त्री के कारण परस्पर वैर न हो। प्रतापी यदुश्रेष्ठ बलराम जी सदा अपने अनुकूल रहने वाली एकमात्र रेवती देवी के साथ चकवा-चकवी के समान परस्पर अनुरागपूर्वक रमण करते थे। वे कादम्बरी (मधु) का पान करके मस्त रहते थे। वन माला से विभूषित हुए बलराम वहाँ रेवती के साथ समुद्र जल में क्रीड़ा करने लगे। सबके द्रष्टा कमलनयन गोविन्द सर्वरूप से अर्थात् जितनी स्त्रियां थी, उतने ही रूप धारण करके जल में अपनी सोलह हजार स्त्रियों को रमाते थे। उस रात में नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की वे सारी रानियां यही मानती थी कि मैं ही इन्हें अधिक प्रिय हूँ; अत: केशव मेरे ही साथ जल में विहार कर रहे हैं। सभी के अंगों में सुरत के चिह्न थे। सभी सुरत-सुख का अनुभव करके तृप्त हो गयी थीं; अत: वे सब-की-सब गोविन्द के प्रति बहुमान जनित सम्मान का भाव धारण करती थीं।
श्रीकृष्ण की वे सभी सुन्दरी रानियां अपने स्नेही परिजनों के समीप प्रसन्नतापूर्वक अपने भाग्य की सराहना करती हुई कहती थीं कि मैं ही अपने प्राणनाथ को अधिक प्रिय हूँ। मैं ही उन्हें अधिक प्यारी हूँ। वे कमलनयनी सुन्दरियां दर्पण में अपने कुचों पर श्रीकृष्ण के नखक्षत और अधरों पर दन्तक्षत के चिह्न देख-देखकर हर्ष में भर जाती थीं। श्रीकृष्ण की वे सुन्दर पत्नियां उनके नाम ले-लेकर गीत गाती और अपने नेत्रपुटों से उनके मुखारविन्द का रसपान करती थीं। राजन! उनके मन और नेत्र श्रीकृष्ण में ही लगे रहते थे। नारायण की वे कमनीय भार्याएं अत्यन्त मनोहारिणी और एक निश्चय अटल रहने वाली थीं। नारायणदेव उनके सारे मनोरथ पूर्ण करके उन्हें तृप्त रखते थे; अत: वे अंगनाएं एक को ही अपना हृदय और दृष्टि अर्पित करके भी आपस में कभी ईर्ष्या नहीं करती थीं। वे सारी की सारी मनोहर दृष्टि वाली (अथवा मनोहर दिखायी देने वाली) सुन्दरियां केशव की वल्लभ होने का अथवा केशव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य वहन करती हुई अपने सिर को बड़े गर्व से ऊँचा किये रहती थीं।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 22-43 का हिन्दी अनुवाद;-
अपने मन को वश में रखने वाले भगवान श्रीकृष्ण समुद्र के निर्मल जल में पूर्वोक्त विश्वरूप विधि से उन सबके साथ क्रीड़ा करते थे। भगवान वासुदेव के शासन से उस समय महासागर समस्त सुगन्धों से युक्त, स्वच्छ, लवण रहित और शुद्ध स्वादिष्ट जल धारण करता था। समुद्र का वह जल कहीं घुट्ठी भर था तो कहीं घुटनों तक, कहीं जांघों तक था तो कहीं स्तनों तक। उन नारियों को इतना ही जल अभीष्ट था। श्रीकृष्ण की वे रानियां उन पर सब ओर से जल उलीचने लगीं, जैसे नदियों की अनेक धाराएं महासागर को सींचती हैं। भगवान गोविन्द भी उन पर जल छिड़कने लगे, मानो मेघ खिली हुई लताओं पर जल बरसा रहा हो। कितनी ही मृगनयनी नारियां श्रीहरि के कण्ठ में अपनी बांहें डालकर कहने लगी- 'वीर! मुझे हृदय से लगा लो, अपनी भुजाओं में कस लो; अन्यथा मैं जल में गिरी जाती हूँ।' कितनी ही सर्वांग सुन्दरी स्त्रियां क्रोंच, मोर तथा नागों के आकार में बनी हुई काठ की नौकाओं द्वारा जल पर तैरने लगीं। दूसरी-दूसरी स्त्रियां मगर, मत्स्य तथा अन्यान्य विविध प्राणियों की आकृति धारण करने वाली नौकाओं द्वारा तैरने लगीं। कितनी ही रानियां समुद्र के रमणीय जल में श्रीकृष्ण को हर्ष प्रदान करती हुई घटों के समान अपने स्तन कुम्भों द्वारा तैर रही थीं।
अमरशिरोमणि श्रीकृष्ण उस जल में आनन्दपूर्वक महारानी रुक्मिणी के साथ रमण करते थे। वे जिस-जिस कार्य या उपाय से आनन्द मानते, उनकी वे सुन्दरी स्त्रियां प्रशंसापूर्वक वही-वही कार्य या उपाय करती थीं। महीन वस्त्रों से ढकी हुई दूसरी तन्वंगी एवं कमलनयनी स्त्रियां भाँति-भाँति की लीलाएं करती हुई जल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा करती थीं। जिस-जिस रानी के मन में जो-जो भाव था, सब के भावों को जानने और मन को वश में रखने वाले श्रीकृष्ण उसी-उसी भाव से उस स्त्री के अन्तर में प्रवेश करके उसे अपने वश में कर लेते थे। इन्द्रियों के प्रेरक और सबके स्वामी होकर भी सनातन भगवान हृषीकेश देश-काल के अनुसार अपनी प्रेयसी पत्नियों के वश में हो गये थे। वे समस्त वनिताएं अपने कुल के अनुरूप बर्ताव करने वाले जनार्दन को ऐसा समझती थीं कि ये कुल और शील में समान होने के कारण हमारे ही योग्य हैं। मुस्कराकर बात करने वाले तथा औदार्य-गुण से सम्पन्न उन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण को उस समय उनकी वे पत्नियां हृदय से चाहने लगीं तथा भक्ति एवं अनुराग के कारण उनका बहुत सम्मान करने लगीं। यादवकुमारों की गोष्ठियां अलग थीं। वे वीर यादवकुमार उत्तम गुणों की खान थे और प्रकाश रूप से स्त्री समुदायों के साथ समुद्र के जल की शोभा बढ़ा रहे थे।
जनेश्वर! वे स्त्रियां गीत और नृत्य की क्रिया को जानने वाली थीं तथा उन कुमारों के तेज से स्वयं ही उनकी ओर आकृष्ट हुई थीं तो भी वे कुमार उदारता के कारण उनके वश में स्थित थे। उन उत्तम नारियों के मनोहर गीत और वाद्य सुनते तथा उनके सुन्दर अभिनय देखते हुए वे यदुपुंगववीर उन पर लट्टू हो रहे थे। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने विश्वरूप होने के कारण स्वयं ही प्रेरणा देकर पंचचूड़ा नाम वाली अप्सरा को तथा कुबेर भवन और इन्द्र भवन की भी सुन्दरी अप्सराओं को वहाँ बुला मँगाया। अप्रमेय स्वरूप जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई उन अप्सराओं को उठाया और सान्त्वना देकर कहा- 'सुन्दरियों! तुम नि:शंक होकर भीमवंशी यादवकुमारों की क्रीड़ा युवतियों में प्रविष्ट हो जाओ और मेरा प्रिय करने के लिये इन यादवों को सुख पहुँचाओ। नाच, गान, एकान्त–परिचर्या, अभिनय-योग तथा नाना प्रकार के बाजे बजाने की कला में तुम लोगों के पास जितने गुण हों, उन सबको दिखाओ। ऐसा करने पर मैं तुम्हें मनोवांछित कल्याण प्रदान करूँगा; क्योंकि ये सब-के-सब यादव मेरे शरीर के ही समान हैं।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 88 श्लोक 44-63
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टाशीतितम अध्याय: श्लोक 44-63 का हिन्दी अनुवाद:-
उस समय श्रीहरि की उस आज्ञा को शिरोधार्य करके वे सब श्रेष्ठ अप्सराएं यादवकुमारों की क्रीड़ा-युवतियों में सम्मिलित हो गयीं। निष्पाप नरेश! उनके प्रवेश करते ही वह महासागर दिव्य प्रभा से उद्दीप्त हो उठा। ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में मेघों का समुदाय बिजलियों के चमकने से प्रकाशित हो उठता है। वे दिव्य अंगनाएं जल में भी स्थल की ही भाँति खड़ी हो स्वर्गलोक की ही भाँति गीत गाने, बाजे बजाने तथा सुन्दर अभिनय करने लगीं। वे विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियां दिव्य गन्ध, माल्य तथा वस्त्रों से सुशोभित हो अपनी विविध लीलाओं तथा हास्ययुक्त हाव-भावों से यादवकुमारों के चित्त चुराने लगीं। कटाक्षों, संकेतों, क्रीड़ाजनित रोषों तथा प्रसन्नतासूचक मनोअनुकूल भावों के द्वारा वे भीमवंशियों के मनमोहन लगीं। वे अप्सराएं उन यादवकुमारों को ऊपर-ऊपर पर आकाश में प्रवाह आदि वायु के मार्गों में ले जाकर उनके साथ विहार करती थीं, अत: वे मदमत्त हुए भीमवंशीकुमार उन सुन्दरी अप्सराओं का बड़ा सम्मान करते थे। भगवान श्रीकृष्ण भी उन यादवों की प्रसन्नता के लिये आकाश में स्थित हो अपनी सोलह हजार स्त्रियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे। वे वीर यादव अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण का प्रभाव जानते थे; अत: आकाश में क्रीड़ा करने के कारण उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे उस दशा में भी अत्यन्त गम्भीर बने रहे।
शत्रुमर्दन! भरतनन्दन! कुछ यादव रैवतक पर्वत पर जाकर फिर लौट आते थे। दूसरे घरों में जाकर आ जाते तथा अन्य लोग अभिलषित वनों में घूम-फिरकर लौटते थे। उस समय अतुल तेजस्वी लोकनाथ भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) की आज्ञा से अपेय समुद्र का जल भी पीने योग्य हो गया था। वे कमलनयनी नारियां जब इच्छा होती, तब जल में भी स्थल की भाँति दौड़ती थीं और जब चाहती परस्पर हाथ पकड़कर एक साथ ही गोता लगा लेती थीं। यादवों के मन से चिन्तन करते ही उनके लिये नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य पदार्थ प्रस्तुत हो जाते थे। जो कभी कुम्हलाती नहीं थी, ऐसी माला धारण करने वाली वे दिव्य अप्सराएं स्वर्ग में देवताओं के साथ की गयी रति क्रीड़ा का अनसुरण करती हुई उन श्रेष्ठ यादवकुमारों को एकान्त में रमण का अवसर देती थीं। किसी से पराजित न होने वाले अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सायंकाल में स्नान के पश्चात अनुलेपन धारण करके आनन्द मग्न हो गृहाकार बनी हुई नौकाओं द्वारा क्रीड़ा करने लगे।
कुरुनन्दन! विश्वकर्मा ने नौकाओं में अनेक प्रकार के महल बनाये थे, जिनमें से कुछ लम्बे थे और कुछ चौकोर। कुछ गोलकार थे और कुछ स्वस्तिकाकार। वे महल कैलास, मन्दराचल और मेरु पर्वत की भाँति इच्छानुसार रूप धारण कर लेते थे। कई नाना प्रकार के पक्षियों और ईहामृगों (भेड़ियों) के समान रूप धारण करने वाले थे। उनमें वैदूर्यमणि के तोरण लगे थे, जिनसे उन महलों की विचित्र शोभा होती थी। वे विचित्र मणिमय शय्याओं से सुसज्जित थे। मरकत, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणिमय विचित्र रागों से वे रंजित थे तथा नाना प्रकार के सैकड़ों आस्तरण (बिस्तर) उनकी शोभा बढ़ाते थे। खेल के लिये बनाये गये गरुड़ के समान भी उन भवनों की आकृति थी। वे विचित्र भवन सुवर्ण की धाराओं से शोभा पाते थे। कोई क्रोंच के समान, कोई तोते के तुल्य और कितने ही भवन हाथियों की सी आकृति धारण करते थे। सुवर्ण से प्रकाशित होने वाली वे नौकाएं कर्णधारों के नियंत्रण में रहकर उत्ताल तरंगों से युक्त सागर की जलराशि को सुशोभित कर रही थीं। सफेद जलपोतों, यात्रोपयोगी बड़ी-बड़ी नावों, वगवती नौकाओं और महल आदि से युक्त विशाल जहाजों से उस वरुणालय (समुद्र) की बड़ी शोभा हो रही है।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 64-81 का हिन्दी अनुवाद;-
यादवों के वे जलयान समुद्र के जल में सब ओर चक्कर लगा रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो गन्धर्वों के नगर आकाश में विचर रहे हों। भारत! नन्दन वन की आकृति और समृद्धियों से युक्त यान पात्रों में विश्वकर्मा ने सब कुछ नन्दन-जैसा ही बना दिया था। उद्यान, सभा, वृक्ष, झील और झरने (या फौवारे) आदि शिल्प सर्वथा वैसे ही उनमें समाविष्ट किये गये थे। वीर! स्वर्ग- जैसे बने हुए दूसरे जलयानों में विश्वकर्मा ने भगवान नारायण की आज्ञा से स्वर्ग की-सी सारी वस्तुएं संक्षेप से रच दी थीं। वहाँ के वनों में पक्षी हृदय को प्रिय लगने वाली मधुर बोली बोलते थे। उनकी वह बोली उन अत्यन्त तेजस्वी यादवों को बहुत ही मनोहर प्रति होती थी। देवलोक में उत्पन्न हुए सफेद कोकिल उस समय यादव वीरों की इच्छा के अनुसार विचित्र एवं मधुर आलाप छेड़ रहे थे। चन्द्रमा की किरणों के समान रूपवाली श्वेत अट्टालिकाओं पर मीठी बोली बोलने वाले मोर दूसरे मोरों से घिरकर नृत्य करते थे। विशाल जलयानों पर लगी हुई सारी पताकाओं की लड़ियाँ बँधी थीं, उन पर आसक्त होकर रहने वाले भ्रमर वहाँ गुंजारव फैला रहे थे। नारायण (श्रीकृष्ण) की आज्ञा से वृक्ष तथा ऋतुएं आकाश में स्थित हो मनोहर रूप वाले पुष्पों की अधिक वर्षा करने लगीं। रति जनित खेद अथवा श्रम को हर लेने वाली मनोहर एवं सुखदायिनी हवा चलने लगी, जो सब प्रकार के फूलों के पराग से संयुक्त तथा चन्दन की शीतलता को धारण करने वाली थी।
पृथ्वीपते! क्रीड़ा में तत्पर होकर सर्दी-गर्मी की इच्छा रखने वाले यादवों को उस समय वहाँ भगवान वासुदेव की कृपा से वह सब उनकी रुचि के अनुकूल प्राप्त होती थी। भगवान चक्रपाणि के प्रभाव से उस समय उन भीम-वंशियों के भीतर न तो भूख-प्यास, न ग्लानि, न चिन्ता और न शोक का ही प्रवेश होता था। अत्यन्त तेजस्वी यादवों की समुद्र के जल में होने वाली क्रीड़ाएं निरन्तर चल रही थीं। उनमें बड़े-बड़े वाद्यों की ध्वनि शान्त नहीं होती थी तथा गीत और नृत्य उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी यादव अनेक योजन विस्तृत समद्र के जलाशय को रोककर क्रीड़ा कर रहे थे। विश्वकर्मा ने महात्मा भगवान नारायण देव के लिये उनके विशाल परिवार (सोलह हजार रानियों के समुदाय) के अनुरूप ही जहाज बना रखा था। प्रजानाथ! तीनों लोकों में जो विशिष्ट रत्न थे, वे सभी अत्यन्त तेजस्वी श्रीकृष्ण के उस यानपात्र में लगे थे। भारत! श्रीकृष्ण की स्त्रियों के लिये उसमें पृथक-पृथक निवास स्थान बने थे, जो मणि और वैदूर्य से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न तथा सुवर्ण से विभूषित थे। उन गृहों में सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल लगाये थे। वहाँ सभी तरह के उत्तम सुगन्ध फैलकर उन भवनों को सुवासित कर रहे थे। श्रेष्ठ यादव-वीर तथा स्वर्गवासी पक्षी उन निवास स्थानों का सेवन करते थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में भानुमतीहरण विषयक अट्ठासीवां अध्याय पूरा हुआ।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद:-
बलराम और श्रीकृष्ण आदि यादवों की जलक्रीड़ा एवं गान आदि का वर्णन वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बलराम जी अपने अंगों में चन्दन से चर्चित थे। मधु पीकर वे बड़े मनोहर लग रहे थे। उनकी शोभा बहुत बढ़ी हुई थी। नेत्र कुछ-कुछ लाल थे तथा भुजाएँ बहुत बड़ी थीं। वे रेवती देवी का सहारा लेकर सुललित गति से चल रहे थे। उन्होंने श्याम मेघ के समान कान्ति वाले दो नील वस्त्र धारण कर रखे थे। उनकी अंग कान्ति चन्द्रमा की किरणों के समान गौर थी और मधुमती आंखें अलसायी सी जान पड़ती थीं। समुद्र के बीच में आकर भगवान बलराम जी सम्पूर्ण विम्ब वाले चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे। उनके एकमात्र बांये कान में निर्मल कुण्डल की शोभा फैल रही थी। उन्होंने दूसरे कान में मनोहर कमल को ही कर्णभूषण के रूप में धारण कर रखा था। उनकी प्रिया रेवती मन्द मुस्कान और बांकी चितवन के साथ उनकी ओर सुखपूर्वक निहार रही थी तथा बलराम जी उनके साथ आनन्दमग्न हो रहे थे। तदनन्तर कंस और निकुम्भ के शत्रु श्रीकृष्ण की आज्ञा से अप्सराओं का उदार एवं सुन्दर रूप वाला समुदाय स्वर्ग के समान समृद्धिशाली समुद्र में रेवती का दर्शन करने के लिये प्रसन्नतापूर्वक उनके पास आया। उन सबके अंग छड़ी के समान पतले और मनोहर थे। उन समस्त सुन्दरियों ने उन रेवती देवी और बलराम जी को नमस्कार करके बाजे के लय पर नाचना आरम्भ किया। दूसरी अप्सराएं, उन्हें सब ओर से घेरकर उत्तम रीति से गीत गाने लगीं। वे अप्सराएं बलराम और रेवत राजकुमारी रेवती की आज्ञा से अभिनयपूर्वक ऐसा खेल खेलने लगीं, जो इन यादवों को प्रिय, सार्थक, मनोरम और अनुकूल प्रतीत हो। अपने अंगों में मंगलसूचक श्रृंगार धारण करने वाली वे सुन्दरी अप्सराएँ उस देश की भाषा, आकृति और वेश से युक्त हो हँसती और हाथों पर ताल देती हुई लीलापूर्वक ललित रास (नृत्य–गान) करने लगीं। वीर! उस रास में वे श्रीकृष्ण और बलराम को आनन्द देने वाली उनकी मंगलमयी लीलाओं का संकीर्तन करती थीं। कंस और प्रलम्ब आदि के वध का रमणीय प्रसंग रंगशाला में चाणूर आदि का घात, जिसके कारण यशोदा ने जनार्दन का दामोदर और यश फैलाया, वह ऊलूख बन्धन की लीला, अरिष्टासुर और धेनुकासुर का वध, व्रज में निवास, पूतना का वध, यमलार्जुन-भंग, भेड़िये की सृष्टि, वत्सासुर का वध, यमुना के हृदय में श्रीकृष्ण द्वारा दुरात्मा नागराज कालिय का दमन, शंखनिधि से युक्त उस यमुनाह्रद से मधुसूदन श्रीकृष्ण द्वारा कमलों और उत्पलों का उखाड़ा जाना, गौओं की रक्षा के लिये जनार्दन श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन-धारण, सुगन्धयुक्त अनुलेपन पीसने वाली कुब्जा के कुब्जत्व का उनके द्वारा निवारण आदि लीला प्रसंग जैसे-जैसे हुए थे, उन सबका वे अप्सराएं गान करती थीं। राजन! अनवद्य (स्तुत्य) और अजन्मा श्रीकृष्ण ने अपने अवामन (विराट) स्वरूप को भी जिस प्रकार वामन बना लिया, जिस प्रकार सौभ विमान को मथ डाला तथा बलराम ने जिस तरह हलरूप आयुध ग्रहण किया, श्रीकृष्ण द्वारा जिस प्रकार देव शत्रु मुर का वध किया गया, गान्धार राजकन्या शैव्या के विवाह में जिस प्रकार बलशाली राजाओं को रथ में जोता या बांधा गया, सुभद्रा हरण के समय जिस प्रकार अर्जुन की विजय हुई, बालाहक और जम्बूमाली के साथ होने वाले युद्ध में जिस प्रकार श्रीकृष्ण आदि को विजय प्राप्त हुई, युद्ध में जीते गये राक्षसों द्वारा इन्द्र के सामने ही जो रत्न राशि द्वारका पहुँचायी गयी; इनको तथा अन्य चरित्रों को, जो यादवों को प्रसन्न करने वाले थे, उन मनोहर रूप वाली अप्सराओं ने गाया। श्रीकृष्ण और बलराम को हर्ष प्रदान करने वाले जो उनकी अनेक लीलाकथाओं से सम्बन्ध रखने वाले विचित्र गीत थे, उन सबका उन्होंने गान किया। तदनन्तर मधुपान से मत्त हुए परम शोभायमान बलराम अपनी पत्नी रेवतराजकुमारी रेवती के साथ हाथ पर ताल देते हुए मधुर स्वर में सम स्थान के प्रदर्शनपूर्वक गीत गाने लगे।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद:-
उन्हें गाते देख महात्मा श्रीकृष्ण ने भी बलराम जी का हर्ष बढ़ाने के लिये सत्यभामा के साथ गान आरम्भ कर दिया। नरलोक के प्रमुख वीर कुन्तीनन्दन अर्जुन भी समुद्र यात्रा के लिये वहाँ आये थे। वे भी आनन्द में मग्न होकर श्रीकृष्ण और सुन्दरांगी सुभद्रा के साथ गीत अलापने लगे। नरेश्वर! फिर तो बुद्धिमान गद, सारण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, उदार पराक्रमी सत्यभामाकुमार भानु और अत्यन्त मनोहर रूप वाले सुचारुदेष्ण, बलराम जी के पुत्र दोनों वीर कुमार निशठ और उल्मुक जो अत्यन्त वीर थे, गाने लगे। अक्रूर, यादव सेनापति अनाधृष्टि, शंकु तथा भीमकुल के अन्य प्रधान पुरुष भी वहाँ गान करने लगे। उदार कीर्ति वाले नरेन्द्र कुमार! उस समय वह यानपात्र (जहाज) गाते हुए प्रमुख यादव वीरों से ज्यों-ज्यों भरता गया त्यों-ही-त्यों श्रीकृष्ण के प्रभाव से बढ़ता चला गया। वीर राजकुमार! रास में संलग्न हो अत्यन्त गीत गाने वाले उन देवोपम यादव वीरों के साथ सारा जगत हर्षोल्लास से परिपूर्ण हो गया। सबके पाप-ताप शान्त हो गये। तदनन्तर मुर और केशी के शत्रु श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये देवताओं के अतिथि विप्रवर नारद जी उन यादव-शिरोमणियों के बीच में आकर गान करने लगे। उनके शरीर का एक देश उनके जटा-कलाप से आच्छादित था।
राजपुत्र! वे अप्रमेय स्वरूप नारद मुनि ही वहाँ रासनृत्य के प्रणेता (संचालक या सूत्रधार) हो गये। वे अपने अनुकरणशील अंगों द्वारा लीला का अनुकरण करते हुए यादव-मण्डली के मध्य में पहुँचकर गीत गाने लगे। वे बुद्धिमान मुनि सत्यभामा, श्रीकृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा, बलदेव तथा रेवतराजकुमारी रेवती देवी की ओर देख-देखकर हँस रहे थे। परिहासशील बुद्धिमान नारद जी किसी की चेष्टाओं का, किसी की हँसी का और किसी की लीलाओं का अनुकरण करके तथा अन्य प्रकार के दूसरे-दूसरे उपायों द्वारा उन अत्यन्त धैर्यशालिनी देवियों को भी हँसा देते थे। जब कोई कुछ मन्द स्वर में बहुत थोड़ा और धीरे-धीरे बोलता तो ऐश्वर्यशाली नारद जी उसके उत्तर में बहुत ही ऊँचे स्वर में सिंहनाद-सा करते हुए जोर-जोर से बोलने लगते थे और हास्य के अवसर पर हँसते-हँसते हर्षातिरेक से अट्टहास करने लगते थे। यह सब कुछ वे श्रीकृष्ण के मनोरंजन के लिये करते थे। नरदेवकुमार! श्रीकृष्ण की आज्ञा से वहाँ बैठी हुई युवतियों ने जगत के प्रधान-प्रधान रत्न, सुन्दर वस्त्र जो मुनि के अनुरूप थे, उन्हें अधिक मात्रा में दिये। श्रीकृष्ण के संकेत तथा समय की आवश्यकता को समझने वाली उन रानियों ने उस समय स्वर्गीय पुष्पहार, संतान- (पारिजात) पुष्पों की लड़ियां, अतिमुक्तक तथा सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल उन्हें अर्पित किये।
रास के अन्त में अप्रमेयस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण नारद-मुनि का हाथ पकड़कर तथा सत्यभामा और अर्जुन को भी साथ में लेकर समुद्र के जल में कूद पड़े। तदनन्तर अप्रमेय पराक्रमी तथा प्रचुर शोभा से सम्पन्न श्रीकृष्ण ने किंचित मुस्कराकर सात्यकि से कहा- ‘तुम सब लोग दो भागों में बँटकर अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ ही इस क्रीड़ा जल में कूद पड़ो। मेरे सारे पुत्र और आधे यदुवंशी इन सबको मिलाकर जो आधे द्वारकावासियों का दल होगा, उसके नेता रेवती सहित बलभद्र जी हों और आधे भीमवंशियों के साथ बलराम जी के सभी पुत्र ये मेरे पक्ष में रहें।' इस प्रकार समुद्र के जल में (दो दलों में बँटकर हम लोग क्रीड़ा करें)। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने पूर्ण विश्वस्त होकर वहाँ हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए समुद्र को आज्ञा दी- ‘तुम अपने जल को सुगन्धित और शुद्ध एवं स्वादिष्ट बना लो तथा ग्राहों से रहित हो जाओ। तुम्हारी तटभूमि रत्नों से विभूषित दिखायी दे, पैरों के लिये सुखदायिनी हो तथा लोगों के लिये जो मनोअनुकूल वस्तुएं हों, वे सब उन्हें अर्पण करो। मेरे प्रभाव से तुम्हें सबकी अभीष्ट वस्तुओं का ज्ञान हो जायगा। यद्यपि तुम्हारा जल अपेय है तो भी वह प्रिय एवं पीने योग्य हो जायगा। तुम सब लोगों के मनोअनुकूल हो जाओगे। तुम्हारे भीतर जो मत्स्य हैं, वे वैदूर्य, मोती, मणि और सुवर्ण से चित्रित तथा सौम्य रूप वाले हो जायेंगे।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद तुम लाल रंग के कमल और उत्पल धारण करो, जो उत्तम गन्ध, सुखद स्पर्श तथा रुधिर रस को प्रकट करने में समर्थ हों। वे भ्रमरों से सेवित तथा देखने में मनोहर हो। तुम अपने जल के ऊपर मैरेय, माध्वीक, सुरा और आसव नाम मधु से भरे हुए कलश स्थापित करो। साथ ही इनके पीने के लिये सोने के पान पात्र दो, जिनमें ये यादव मधुपान कर सकें। जलनिधे! तुम निश्चय ही ऐसे बन जाओ, जिससे तुम्हारा शीतल जल फूलों की राशि से वासित हो जाय। इसके लिये सतत् सावधान रहो और ऐसा प्रयत्न करो, जिससे स्त्री–पुरुषों सहित यादवों के प्रति कोई विपरीत बर्ताव न हो जाय।' समुद्र से ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। नरेश्वर! श्रीकृष्ण के मुख के संकेतों को समझने वाली सत्यभामा ने पहले देवर्षि नारद पर जल उछाल कर उन्हें भिगो दिया। तदनन्तर मद के आवेश से रहित मनोहर शरीर वाले बलराम जी अपने हाथ से मनोहारिणी रेवतराजकुमारी रेवती का हाथ पकड़कर इच्छानुसार गीत गाते हुए लीलापूर्वक जल में कूद पड़े। बलराम जी के कूदने के पश्चात श्रीकृष्ण के पुत्र तथा भीमवंशियों के प्रधान-प्रधान व्यक्ति नाना प्रकार के रंग वाले वस्त्र और आभूषण धारण किये हर्ष में भरकर समुद्र में कूद पड़े। उस समय वे जल-क्रीड़ा में अभिरत थे और उनकी आंखें मधु से मतवाली हो रही थीं। शेष यादव तथा निशठ और उल्मुक आदि बलरामपुत्र क्रीड़ा में अभिरत होकर श्रीकृष्ण के निकट गये। वे विचित्र वस्त्राभूषणों से विभूषित और मदमत्त थे तथा उनके कण्ठदेश संतान-पुष्पों की मालाओं से अलंकृत थे। वे सब-के-सब पराक्रम से सम्पन्न तथा मनोहर वेशभूषा से युक्त थे। उनके अंगों में चन्दन का लेप लगा था। वे हाथों में जल पात्र लिये हुए थे और उस वेष के अनुरूप स्वसम्पन्न मनोहर गीत गा रहे थे। तत्पश्चात श्रीकृष्ण की आज्ञा से स्वर्गवासिनी अप्सराओं के साथ सैकड़ों वेषवधुओं ने, जिन्हें वाद्यघोष बहुत प्रिय था, नाना स्वरों में जल-तरंग आदि बाजे बजाने आरम्भ किये। अप्सराएं नित्य युवती, एक मात्र काम में ही मन को लगाने वाली तथा आकाश गंगा के जल से बाजा बजाने की कला का ज्ञान रखने वाली थीं। उन्होंने जलदर्दुर बजाये और हर्ष में भरकर उस वाद्य के अनुरूप गीत भी गाये। स्वर्गीय अप्सराओं के नेत्र कमल कलिकाओं के समान विशाल थे। वे कमलों के ही मुकुटों से विभूषित थीं तथा सूर्य की किरणों द्वारा खिले हुए कमलों की शोभा को चुराये लेती थीं। उन सबके मुख देवताओं के समान मनोहर थे। राजन सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान मनोहर नारियों के सैकड़ों मुख-चन्द्रों से अलंकृत हुआ समुद्र उस आकाश के समान शोभा पा रहा था, जो अकस्मात या दैव के विधान के अनुसार सहस्रों चन्द्रमाओं से व्याप्त हो गया हो। नरेश्वर! विद्युत के समान कान्तिमती स्त्रियों की प्रभा से अत्यन्त मनोहर दिखायी देने वाला वह समुद्ररूपी मेघ उसी तरह सुशोभित हो रहा था, जैसे जल का स्वामी मेघ आकाश में बिजलियों से संयुक्त होकर अत्यन्त उद्भासित हो उठता है। सुन्दर एवं मनोहर वेश-भूषा धारण किये भगवान श्रीकृष्ण और नारद अपने दल के लोगों के साथ स्थित हो सुन्दर वेश-भूषा वाले बलराम तथा उनके पक्ष के लोगों पर पानी उछालने लगे और बलराम-पक्ष के लोग भी श्रीकृष्ण के पक्ष वालों को जल से भिगोने लगे। उस समय जिनका सारा शरीर हर्षोल्लास से परिपूर्ण हो रहा था, वे मधुपान से मत्त ओर राग से उद्धत हुई बलराम और श्रीकृष्ण की पत्नियां अपने हाथों तथा जलयन्त्रों (पिचकारियों) से दूसरों को भिगोने लगीं। वे भीमवंशी यादव अपने हृदय में मान, मदन और मद को धारण किये कुछ-कुछ लाल नेत्रों से युक्त हो पानी उछालने में लगे थे और स्त्रियों के समक्ष पुरुषार्थ दिखा रहे थे। वे बहुत देर तक उस जल क्रीड़ा से विरत नहीं हुए। उनकी अत्यन्त बढ़ती हुई आसक्ति का विचार करके चक्रपाणि भगवान विष्णु ने उन सबको रोक दिया और जलवाद्य के मधुर शब्दों को सुनते हुए वे देवर्षि नारद और अर्जुन के साथ स्वयं भी जल-विहार से निवृत्त हो गये।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्तर उन प्रिय पुरुषों को नित्य आनन्द देने वाली उनकी प्यारी वारवनिताएं विश्वस्त होकर नृत्य करने लगीं। नृत्य के अन्त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्याग दिये। उन्होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्दन का लेप देकर फिर स्वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्ण को जल से बाहर निकला देख अन्य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्याग दी। फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्ण की आज्ञा से पानभूमि (रसोई के स्थान) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे। तदनन्तर उन प्रख्यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्न खाये और पेय रसों का पान किया। पके फलों के गूदे, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये कन्द या फलों के टुकड़े, पोषक[1] तत्त्व (अन्न)- ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे। शूल में गूँथकर पकाये गये भैंसाकन्द तथा अन्यान्य कन्द या मूल-फल, नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्यान्य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्तुएं पाकशालाध्यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्तुत कीं।
__________________
पाकशालाध्यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृगनामक कन्द विशेष के मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्यंजन भी इनके लिये परोसे गये। दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया। कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2] के साथ मैरेय, माध्वीक, सुरासव नामक मधु का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया। नरेश्वर! श्वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्होंने खाये।
राजन! उद्धव, भोज आदि श्रेष्ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्तम अन्न का भोजन किया। उन्होंने प्यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये। खा-पीकर तृप्त होने के पश्चात वे मुख्य-मुख्य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे। उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्द्र ने उस रात में बहुसंख्यक मनुष्यों द्वारा सम्पन्न होने वाले उस छालिक्य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्धर्व कहते हैं। उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर[3] आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी। नरदेव! साक्षात् श्रीकृष्ण्ा ने वंशी बजाकर हृल्लीसक[4] (रास) नामक नृत्य का आयोजन किया। कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्य वाद्यों को श्रेष्ठ अप्सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्यात थी।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 70-85 का हिन्दी अनुवाद
उसकी अंगयष्टि बड़ी सुन्दर थी। उसके द्वारा अभिनय किये जाने पर बलराम और श्रीकृष्ण को बड़ा संतोष हुआ। राजन! तदनन्तर मनोहर एवं विशाल नेत्रों वाली उर्वशी, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा और मेनका- ये तथा और भी बहुत-सी अप्सराएं श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये मन के अनुकूल प्रिय कामनाओं को प्रस्तुत करती हुई गाने और अभिनय करने लगीं। नरेन्द्रकुमार! वे रम्भा आदि अप्सराएं मन-ही-मन वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त थीं। उन्होंने अपने गीत, नृत्य एवं उदार अभिनयों द्वारा सबको संतोष प्रदान करके प्रसन्न कर लिया। नरेश्वर! उस समय श्रीकृष्ण की इच्छा से जल क्रीड़ा में आयी हुई उन श्रेष्ठ अप्सराओं ने उनकी ओर से पान के बीड़े प्राप्त किये, जो उनके लिये सम्मान स्वरूप थे। नरदेव! श्रीकृष्ण की इच्छा से मनुष्यों पर अनुग्रह करने के लिए स्वर्ग से वह छालिक्य गान्धर्व (दिव्य संगीत एवं नृत्य विशेष) भूतल पर लाया गया था; साथ ही उत्तम गन्धों से युक्त देवयोग्य फल भी यहाँ लाये गये थे। वीर यादवों ने इन सबका रसास्वादन किया। वह रमणीय छालिक्य गान्धर्व भगवान श्रीकृष्ण के ही प्रभाव से इस पृथ्वी पर प्रद्युम्न आदि में प्रतिष्ठित हुआ।
उदार बुद्धि रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्न ने गान्धर्व-कला को प्रयोग में लाकर दिखाया भी था। उन्होंने ही ताम्बूल का प्रयोग किया। इन्द्रतुल्य पराक्रमी पांच वीरों (श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब) ने यहाँ छालिक्य गान्धर्व का आयोजन किया था, जो मनुष्यों को सदा ही अभीष्ट है। वह शुभकारक, वृद्धि करने वाला, प्रशस्त, मंगलकारी, यशोवर्द्धक पुण्यदायक, पुष्टि और अभ्युदय को देने वाला है। उदार कीर्ति वाले भगवान नारायण को वह परमप्रिय है। उसकी चर्चा करने मात्र से वह विजय की प्राप्ति और धर्म का लाभ कराता है। दु:स्वप्न का नाश और पाप का निवारण कर देता है। किसी समय देवलोक में गये हुए उदार कीर्ति राजा रेवत ने छालिक्य गान्धर्व को इतनी तन्मयता के साथ सुना था कि उन्हें चार हजार युगों का समय भी एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। राजन! उसी छालिक्य गान्धर्व से कुमार जाति तथा अन्य गान्धर्व जाति की प्रवत्ति हुई है। ठीक उसी तरह, जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल जाते हैं।
नरेश्वर! प्रद्युम्न आदि मुख्य-मुख्य यादवों के साथ भगवान श्रीकृष्ण और नारद जी ही छालिक्य गुणोदय के इस विज्ञान का यथावत रूप से जानते हैं। संसार के दूसरे मनुष्यों को तो इसकी नाम मात्र की ही जानकारी है। जैसे नदियों के जल को समुद्र अथवा कोई विशाल पर्वत ही यथार्थ रूप से जान सकता है, उसी प्रकार भगवान ही छालिक्य के श्रेष्ठ फल अथवा गुणों को ठीक-ठीक जानते हैं। तपस्या किये बिना छालिक्य गान्धर्व को तथा उसके मूर्च्छनाविषयक विधान को नहीं जान जा सकता। यह कथन सर्वथा उचित ही है। राजन! छ: ग्रामों वाले जो राग हैं, उनमें भी छालिक्य का उसके एकदेशीय अवयव के द्वारा गान करना चाहिये। लेश नामक जो छालिक्य की सुकुमार जाति है, उसका गान करने वाले मनुष्य भी बड़े दु:ख से (कठिनाई से) उसकी समाप्ति कर पाते हैं। फिर सम्पूर्ण छालिक्य के गान की तो बात ही क्या है? नरदेव! जो देवता, गन्धर्व और महर्षियों के समुदाय हैं, वे ही छालिक्य गान्धर्व के गुणों के प्रकट करने की कला में पारंगत होते हैं। इस बात को तुम अपनी बुद्धि द्वारा अच्छी तरह जान लो। ऐसा समझकर ही भगवान मधुसूदन ने सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने की इच्छा से मुख्य यादवों को छालिक्य गान्धर्व का ज्ञान प्रदान किया था। वह देवताओं द्वारा गाये जाने योग्य छालिक्य इस प्रकार मनुष्य लोक में प्रतिष्ठित हुआ है। बालक, युवक और वृद्ध यदुवंशी जन्मोत्सवों में उक्त गान्धर्व द्वारा क्रीड़ा या मनोरंजन करते थे। पहले बालक उस कला को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करने लगे। तत्पश्चात वृद्ध लोग भी उसके प्रति आदर का भाव दिखाने लगे; फिर तो सब लोग सदा सभी स्थानों में उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 86-89 का हिन्दी अनुवाद
धर्म के विधान को जानने वाले अत्यन्त वीर यादव अपने पुरातन वंश-धर्म का स्मरण करते हुए मर्त्यलोक में मनुष्यों को जो सदा सम्मान देते थे, वह इस बात का सूचक है कि प्रेम ही प्रधान एवं महत्त्व की वस्तु। है। अवस्था का महत्त्व नहीं है। सौहार्द का मूल आधार है प्रेम। अत: वे दशार्ह, वृष्णि और अन्धक-वंशी यादवपुत्रों के साथ भी मित्रवत् बर्ताव करते थे। उस उत्सव के बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने उन सबको विदा कर दिया। तत्पश्चात वे अप्सराएँ भी मधु और कंस के शत्रु आनन्दमूर्ति श्रीकृष्ण को प्रणाम करके स्वयं भी अत्यन्त हर्षमग्न को स्वर्गलोक चली गई। उस समय देवताओं के समुदाय में हर्ष छा गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व भानुमतिहरण के प्रसंग में छालिक्यक्रीड़ा का वर्णन विषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें