पृथ्वी लोक पर गोपों की उत्पत्ति सत्युग में स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से ही उसी क्रम में होती है। जैसे गोलोक में कृष्ण से क्योंकि क्षुद्र विष्णु भी स्वराट् विष्णु के अंश अवतार है।
पृथ्वी पर सत्युग में गोप (आभीर) जन उपस्थित रहते हैं। चातुर्वर्ण की सृष्टि और ऋषि, देवता आदि की सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् जब ब्रह्मा एक महायज्ञ करते हैं। उसमें ब्रह्मा अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के चातुर्यवर्ण के लोगों को आमन्त्रित करते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि न होने से इस यज्ञ में ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किये जाते हैं।
जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त (दिन- रात का तीसवाँ भाग )व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है ।
इस महायज्ञ में अत्रि यज्ञ में होतृ की भूमिका में हैं। अब आभीर अथवा गोप अथवा यादव के पूर्वज अत्रि कैसे हुए ?
"निष्कर्ष:- उपर्युक्त पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- (१६-१७) में वर्णित गायत्री की कथा से प्रमाणित होता है कि गायत्री के परिवारी जन गोप गोलोक से पृथ्वी पर गोपालन हेतु सतयुग में ही अवतरित हो गये थे।
ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया।
अत्रि जो सावित्री द्वारा शापित हो गये थे; गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक होने के कारण उन्हें फिर आभीर कन्या गायत्री द्वारा ही शाप मुक्त कर वरदान से अनुग्रहीत किया गया।
इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?
ये कालान्तर में अहीर जाति के पुरोहित बन कर गोत्र प्रवर्तक हो गये हों यह सम्भव है परन्तु अहीर जाति अत्रि से उत्पन्न हुई है यह कहना शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत है ।
यदि कहा जाय कि गोप कन्या गायत्री थी परन्तु यादवों के पूर्वज अत्रि हैं। यादव और गोप अलग होते हैं।
तो यह कहना भी सही नहीं है। क्योंकि गोप ही यादव है वंश गत रूप से जिसके साक्ष्य निम्नांकित है।
📚
"गोप-गोपाल ,गोसंख्य, गोधुक्-आभीर,बल्लव:।५७।
(अमरकोश द्वितीय काण्ड)
📚: "गोगोमहिष्यादिकं यदूनामिदं यादवं स्यात् गवादि यादवं वित्तं- इति बोपपालित कोश
गाय भैंस आदि यादवों का धन है गो आदि यादवों का वित्त(धन) है।
(बोपपालितकोश)-
गोपों के यादव होने के सन्दर्भ कई पुराणों में स्पष्ट प्राप्त होते हैं।
पहले पद्म पुराण में ही देंखे-
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
इसी समय गायत्री ने विष्णु क अपनी अहीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतार लेने के लिए कहा है ।
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी (अच्छे व्रत का पालन करने वाले और जानकार रहे हैं।!
इसका साक्ष्य पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के निम्न श्लोक हैं।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।___________________
"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद :-विष्णु भगवान् ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ , धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
कालान्तर अहीरों से द्वेष कर बहुत सी अनर्गल बाते जोड़ने वाले आज भी अपना पुराना राग रैंहकिया अलापते ही रहते हैं।
अहीरों को ही गोपालन वृत्ति (व्यवसाय) के कारण ही समाज में गोप नाम से सम्बोधित किया गया है। गोप सनातन हैं। और ये गोप सदैव गोपों में ही जन्म लेते हैं। जबकि ब्राह्मी सृष्टि में क्रमानुसार जातीय व्युत्क्रम भी होता है । यद्यपि कर्म सिद्धांत के अधीन तो गोप भी संसार में होते हैं। और इसके मूल में उनकी मनोवृत्ति ( इच्छाऐं ही कारण होती है । परन्तु केवल अहीर या गोपों की जाति में ही इस कर्मानुसार उनके जन्म उच्च निम्न और मध्य सांस्कारिक स्तरों के अनुरूप ही होतो हैं। अहीर कभी ब्राह्मण अथवा वैश्य अथवा क्षत्रिय अथवा शूद्र होने की बात नहीं करेगा क्योंकि इनमें सभी चारों वर्णों के गुण विद्यमान हैं। शास्त्रों में इनको वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत निश्चित किया गया है। जो गोपों की सर्वश्रेष्ठता को जान लेगा वही ज्ञान सम्पन्न है।।
और गोपो की उत्पत्ति के विषय में भी ब्रह्मवैवर्त पुराण और गर्गसंहिता में लिखा है कि वे विष्णु अथवा कृष्ण के रोमकूपों से (क्लोनविधि) द्वारा गोप गण कृष्ण के समान रूप वाले उत्पन्न हुए थे। परन्तु संसार में कर्म प्रभाव से उनके स्वरूप और स्तर निरन्तर बदलते रहते हैं।
यद्यपि उत्पन्न होने की प्राणी जगत में अनेक विधियाँ हैं प्राचीन काल में भी विज्ञान रहा होगा -जिसके अनेक साक्ष्य परोक्ष रूप से प्राप्त होते हैं।
अत्रि चन्द्रमा ( सोम) और बुध का अहीर जाति से क्या सम्बन्ध है?
अत्रि की उत्पत्ति कभी ब्रह्मा के मन से तो कभी शिव से अग्नि रूप में होती है।
अत्रि की उपस्थिति आभीर कन्या गायत्री और जगत पिता ब्रह्मा के विवाह के प्रसंग में भी होती है।
जिसमें गायत्री स्वयं सावित्री द्वारा गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक सभी सप्तर्षि गण सभी देवों और देवीयों के अतिरिक्त स्वयं ब्रह्मा और विष्णु तथा शिव को भी शापित कर देती हैं।
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तब सावित्री द्वारा दिए गये शाप के निवारण स्वरूप आभीर कन्या गायत्री ही सभी के शाप को वरदान में बदल देती हैं।
और गायत्री माता अत्रि और विष्णु को अपनी अहीर जाति के उत्थान ,मार्गदर्शन और संरक्षण करने का वचन देती हैं।
तभी से अत्रि आभीर जाति के गोत्र प्रवर्तक माने जाते हैं।
और विष्णु सतयुग में नहुष और द्वापर में अपने मूल कारण सम्पूर्ण अंशों से कृष्ण रूप में गोपों ( अहीरों ) के मध्य में ही अवतरित होते हैं।
अहीर जाति सतयुग के प्रारम्भ में भी विद्यमान है। और कालान्तर में पुरुरवा जो गायत्री की नित्य अधिक स्तुति करने से पुरुरवा पुरु रौति रु--असि दीर्षश्च। पुरु= अधिक + रौति =स्तुते( स्तुति करता है।
गर्ग संहिता में सभी यादवों अथवा अहीरों को कृष्ण नें अपना सनातन अंश कहा है। इसलिए भी अहीरों (यादवों)को विष्णु से उत्पन्न -माना जाता है।
क्योंकि शास्त्रों की विरोधाभासी बातों में एक बात तो मिथकीय आधार पर स्वीकार करनी पड़ेगी ।
तर्क या दर्शन के आधार पर स्वीकार करना भी शास्त्रीय पद्धति है।
कालान्तर में गोपों, यादवों अथवा अहीरों के सर्वोपरिता को विखण्डन करने के लिए पुरोहितों में उन्हें ब्राह्मण वाद के दायरे में समेटने का प्रयास किया -
अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि
"ब्रह्मापि तं शशाप अथ कश्यपं मुनिसत्तमम्।मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परम्-वल्लभम्।१५।
-अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदो:कुले।भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपात्वं करिष्यसि।।१६।
अनुवाद:-
अतएव मर्यादा की रक्षाके लिये ब्रह्माजी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया ।१५।
कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियों के साथ गोपालनका कार्य करोगे ।१६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः।२।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना
अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
गायत्री के माता-पिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
सावित्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से सावित्री गायत्री का भी नामान्तरण है। गायत्री की उत्पत्ति के सभी नाम गो मूलक हैं।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
पृथ्वी पक गायत्री का आगमन गे लोक से हीन हुआ था।
पुरुरवा भी गायत्री उपासक के रूप में प्रचीन है।
उसके गोष और गोपाल विशेषण भी हैं ।
गोष लौकिक संस्कृत में घोष-गोप-आभीर तथा गोशाला का वाचक है।
📚: गोलोक से भूलोक तक "पञ्चम वर्ण गोपों की सृष्टि -
और अभीर गोपाल ,गोप और यादव आदि पर्याय शब्दों को द्वेष वश अलग अलग जाति बनाकर प्रस्तुत कर दिया
यहाँ उन प्रक्षेपों को प्रस्तुत करने की आवश्यता नहीं है।
यादवों को ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि से जोड़कर शास्त्र में लिपिबद्ध करना भी गोपों को ब्राह्मी वर्ण-व्यवस्था में ही घसीटना है।
ब्रह्मा के मन से अत्रि उत्पन्न किए और फिर अत्रि के नेत्रों के मल से समुद्र में चन्द्रमा उत्पन्न कर दिया ।
और कुछ पौराणिक लेखों के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान दसवें क्रम में "चन्द्रमा" प्रकट हुआ जिसे शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लियाl
और चन्द्रमा से बुध को उत्पन्न कर दिया
महाभारत आदि पर्व नें एक स्थान पर सूर्य चन्द्र दनु की संतान दानव हैं।
"सूर्याचन्द्रमसौ तथा। एते ख्याता दनोर्वंशे दानवाः परिकीर्तिताः।26।
📚: सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गये हैं।
सूर्यवंश और चन्द्र वंश देव ही नही अपितु दानव वंश भी है।
(महाभारत-65) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
इस लिए यादवों को किस चन्द्र वंश से समबन्धित किया जाए दानव अथवा देव सम्बन्धित अत: ये
सारी अत्रि" चन्द्रमा और बुध मूलक थ्योरी सिद्धान्त हीन व परवर्ती ही है।
परन्तु चन्द्रमा विराट परुष( विष्णु) के मन से उत्पन्न होता है। जो वैदिक सन्दर्भ होने प्राचीन व सत्य है। चन्द्रमा विराट विष्णु से उत्पन्न होने से वैष्णव है। नीचे देखे-
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता( महाविष्णु)
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
"
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्याऽअजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥
अनुवाद:-
हे मनुष्यो ! इस विराट पुरुष के (मनसः)-मनन रूप से (चन्द्रमाः) (जातः) उत्पन्न हुआ (चक्षोः) आँखों से (सूर्य्यः) सूर्य (अजायत) उत्पन्न हुआ (श्रोत्रात्) श्रोत्र नामक अवकाश रूप सामर्थ्य से (वायुः) वायु (च) तथा आकाश प्रदेश (च) और (प्राणः) जीवन के निमित्त दश प्राण और (मुखात्) मुख्य ज्योतिर्मय भक्षणस्वरूप सामर्थ्य से (अग्निः) अग्नि (अजायत) उत्पन्न हुआ है, ऐसा तुमको जानना चाहिये॥१२॥
_________
इस लिए अहीरों की उत्पत्ति गायत्री से भी पूर्व है।
चन्द्रमा और वर्णव्यवस्था में- ब्राह्मण उत्पत्ति को एक साथ मानना भी प्रसंग को प्रक्षेपित करता है।
गायत्री का विवाह ब्रह्मा से हुआ गायत्री ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं ये अहीरों की कन्या विष्णु के रोमकूप
से उत्पन्न गोपों( अहीरों) की कन्या है ।
क्योंकि ब्रह्मा अपनी सृष्टि से विवाह नहीं कर सकते ब्रह्मा की सभी पत्नीयाँ गोलोक में स्व काट विष्णु से उत्पन्न हैं।
सरस्वती तथा सावित्री दौंनों ही
____
और गायत्री के परवर्ती उत्पन्न गायत्री का अनन्य स्तौता- (स्तुति करने वाला) पुरुरवा पृथ्वी ( इला पर उत्पन्न प्रथम गोपालक सम्राट है ।
जिसका साम्राज्य पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक स्थापित है।
पुरुरवा के आयुष-फिर उनके नहुष और बहुत के ययाति से यदु तुर्वसु पुरु अनु द्रुह आदि पुत्र
सभी आभीर जाति के अन्तर्गत ही हैं।
____________
पुराणों में चन्द्रमा के जन्म के विषय में अनेक कथाऐं है।
कहीं कहीं चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि से बतायी है जिन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा है तो कहीं त्रिपुर सुन्दरी की बाईं आँख से उत्पन्न चन्द्रमा उत्पन्न कर दिया है।
और कहीं समुद्र मन्थन काल में समुद्र से उत्पन्न हुआ चौदह रत्नों में चन्द्रमा भी एक बताया गया है।
चन्द्रमा की व्युत्पत्ति के ये सम्पूर्ण प्रकरण परस्पर विरोधी हैं और बाद में जोड़े गये हैं।
क्योंकि सत्य के निर्धारण में कोई विकल्प नहीं होता है। यहाँ चन्द्रमा की उत्पत्ति के विषय में अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत बातें स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।
परन्तु वैदिक सन्दर्भ में चन्द्रमा की उत्पत्ति के पुरातन सन्दर्भ विद्यमान हैं ।
वहाँ पर चन्द्रमा विराटपुरुष- विष्णु के मन से उत्पन्न है।
चन्द्रमा की उत्पत्ति का यह प्राचीन प्रसंग विराट पुरुष ( महा विष्णु) के मन से हुआ है उसी क्रम में जिस क्रम में जिस क्रम में ब्रह्माण्ड के अनेक रपों की उत्पत्ति। वैदिक सन्दर्भ चन्द्रमा की उत्पत्ति इस प्रकार करते हैं ।
ऋग्वेद में वर्णित निम्न ऋचा विराट विष्णु से सम्बन्धित नहीं है।
यह ब्रह्मा से सम्बन्धित है।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
ऋग्वेद में वर्णित उपर्युक्त(12)वीं ऋचा वैदिक
नहीं हैं यह परवर्ती व पौराणिक सन्दर्भ है।
क्योंकि ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा की सन्तान का वाचक है।
ब्रह्मणो जाताविति” पाणिनीय- सूत्र न टिलोपः ब्रह्मणो मुखजातत्वात् ब्रह्मणोऽपत्यम् वा अण् । अर्थात -
"ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाए-
पद्मपुराण क्रिया योगसार खण्ड अध्याय (२१)
में किस प्रकार बाद में ब्राह्मणों को विना किसी गुण -तासीर के आधार पर भी श्रेष्ठ बनाने के लिए शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत बातें लिखीं गयीं हैं
जिसका एक उदाहरण नीचे प्रस्तुत है।
और विना योग्यता और गुणों के भी उन्हें भरपूर दान दक्षिणा देने का विधान किया गया।
पुराणो में बाद में विरोधी बातें जोड़ी गयीं जो ब्राह्मण धर्म के पतन का कारण बनीं-
देखें नीचें-
-ब्रह्मोवाच-
सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः
तस्मै देयानि दानानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः ।३।
अनुवाद-
सभी जातियों में ब्राह्मण ही परम गुरु है।
जिसे भक्ति से युक्त होकर दान देना चाहिए।३।
______________________
सर्वदेवाश्रयो विप्रः प्रत्यक्षस्त्रिदशो भुवि
स तारयति दातारं दुस्तरे विश्वसागरे ।४।
अनुवाद-
ब्राह्मण सभी देवताओं का आश्रय है। साक्षात पृथ्वी पर एक देवता है। वह संसार के इस महासागर में जिसे पार करना मुश्किल है वह ब्राह्मण दान करने वाले को बचाता है।४।
-ब्राह्मण उवाच-
सर्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वया प्रोक्तः सुरोत्तम
तेषां मध्ये तु कः श्रेष्ठः कस्मै दानं प्रदीयते ।५।
अनुवाद-
ब्राह्मण ने कहा : हे श्रेष्ठ भगवान, आपने ब्राह्मण को सभी जातियों में सबसे अधिक सम्मानित घोषित किया है। लेकिन उनमें से (अर्थात ब्राह्मण में भी ) सबसे महान कौन है? दान किसे दिया जाता है।५।
-ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ।६।
अनुवाद-
-ब्रह्मा ने कहा-
ब्रह्मा बोले- हे ब्राह्मण में उत्तम ! सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, और सभी हमेशा आदरणीय हैं। ब्राह्मण जो चोरी जैसे दोषों से दूषित हो गए हैं वे भी हमारे आदरणीय हैं ।६।
__________________________________________
अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरःस्मृताः।७।
अनुवाद-
____________________
हमसे द्वेष करने वाले वे सब और दूसरों के द्वारा वे सब भी कभी समान करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि अनाचारी( व्यभिचारी) ब्राह्मण भी पूज्य होते हैं परन्तु शूद्र जितेन्द्री होने पर भी पूज्य नहीं होते है ।
ब्राह्मण जो अभक्ष्य भी खाता है वह भी पूज्य है। गाय संसार की माता ही कही जाती है । ७।
समानता-
"दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः ।
कः परित्यज्य गां दुष्टांगा दुहेच्छीलवतीं खरीं ।। ८.२५ ।।
अनुवाद:-
दु:शील ( दुराचारी) ब्राह्मण पूज्यनीय है। न कि शूद्र जो जितेन्द्रिय भी क्यों न हो । कौन दूषित अंगों वाली गाय को छोड़कर शीलवती गदहीया(गधी) को दुहेगा।२५।
अर्थात- "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणगणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"
शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्ति अथवा चरित्र है। — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।
"धर्मशास्त्ररथारूढा वेदखड्गधरा द्विजाः ।
क्रीडार्थं अपि यद्ब्रूयुः स धर्मः परमः स्मृतः ।। ८.२६।।
अर्थ:-धर्मशास्त्रों के रथ पर सवार वेद रूपी तलवार धारण करने वाला ब्राह्मण खेल खेल में भी जो कुछ बोले वह भी परम धर्म माना जाता है।।२६।
( पराशर -स्मृति आठवाँ) अध्याय
वर्ण व्यवस्था और हिन्दुराष्ट्र के समर्थन की बात करने वाले आज वही लोग हैं जो बिना किसीश्रम -परिश्रम के ऊँची जाति के नाम पर मलाई खाते रहे हैं और बिना योग्यता और गुणों के भी पूजे जाते रहे हैं।
तुलसी दास तभी जहालत की हालत में लिख गये
"पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" सन्दर्भ:- (रामचरित.मानस. ३।३४।२)
तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों तथा कुछ पुराणों में भी जोड़ी व लिखी गयी । जैसे जैसे पद्मपुराण का एक नीचे नमूना है।
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ।६।
अनुवाद-
-ब्रह्मा ने कहा-
ब्रह्मा बोले- हे ब्राह्मण में उत्तम ! सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, और सभी हमेशा आदरणीय हैं। ब्राह्मण जो चोरी जैसे दोषों से दूषित हो गए हैं वे भी हमारे आदरणीय हैं ।६।
"माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया
तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ निशामय समाहितः ।८।
अनुवाद-
हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, अब मैं विशेष रूप से आपके लिए स्नेह के माध्यम से ब्राह्मणों की महानता को बता रहा हूं। इसे ध्यान से सुनें।८।
पद्मपुराण क्रिया योगसार खण्ड अध्याय (२१)
दर असल यहाँ ब्राह्मणों की विना किसी गुण योग्यता के आधार पर भी श्रेष्ठ सिद्ध करने बाते इसलिए प्रस्तुत की गयीं ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि चन्द्रमा को अत्रि से उत्पन्न करा कर और अत्रि को ब्राह्मणों के पिता -ब्रह्मा से उत्पन्न करा कर चन्द्र अथवा सोम से सम्बन्ध रखने वाली जाति अहीर( गोप) को ब्राह्मण वर्णव्यवस्था में खसीटा जा सके-
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चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु( नारायण) के मन से उत्पन है अत: चन्द्रा़मा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय (मूल वैदिक )शब्द मान=( मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः ।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रुशब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सू. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते ।
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पा. सू. ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।
पुरुरवा के विषय नें ऋग्वेद
"त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः ।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
(ऋग्वेदः - मण्डल १ सूक्त ३१ ऋचा ४)
सूक्तं १.३१
(अग्ने) हे अग्ने! ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त सुकृत कर्म करनेवाले (त्वम्) आप (पुरूरवसे) अधिक स्तुति करने वाले कवि के लिए (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) द्यौ लोक को (अवाशयः) - तुम प्रकाशित हुए।
मध्यम अवाशयः
(वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन का
रूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो । (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते हैं। जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
"सायण भाष्य-मूलक अर्थ-
हे अग्नि! तुम मनन शील व्यक्ति ( मनु) के लिए स्वर्ग से प्रकाशित हुए।
अच्छे से अच्छा कर्म करने वाले पुरुरवा के उन अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप उसके लिए भी प्रकाशित हुए ।
जब अरणियों( लकड़ीयों) के शीघ्र मन्थन से तुम चारो ओर उत्पन्न होते हो। जब अरणियों से उत्पन्न हुए तुम्हें वेदी के पहले स्थान को ले जाते हुए आह्वानीय रूप से स्थापित किया गया और उसके पश्चात पश्चिम स्थान को ले जाते हुए तुम्हें गार्हपत्य रूप में स्थापित किया गया ।।(ऋ०१/३१/४)
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आपको पता होना चाहिए कि संसार की रचना का आलंकारिक वर्णन शास्त्रों में प्रतिपादित हुआ है।
ब्रह्म वैवर्तपुराण में एक स्थान पर वर्णन है
मरीचेर्मनसो जातः कश्यपश्च प्रजापतिः ।।
अत्रेर्नेत्रमलाच्चन्द्रः क्षीरोदे च बभूव ह ।। २ ।।
प्रचेतसोऽपि मनसो गौतमश्च बभूव ह ।।
पुलस्त्यमानसः पुत्रो मैत्रावरुण एव च ।। ३ ।।
अनुवाद- मरीचि ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए और मरीचि के मन से कश्यप उत्पन्न हुए। और अत्रि के नेत्रमल-(आँखों के कीचड़) से समुद्र के जल में और प्रचेतस भी
चन्द्रमा उत्पन्न दर्शाया गया। और पुलस्त्य जो ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए उन्हीं पुलस्त्य के मन से मैत्रावरुण उत्पन्न हुए।२-३।
कुछ पुराण वर्णन करते हैं कि मरीचि की पत्नी दक्ष- कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्निनयां थीं - कला और उर्णा।
दो और पत्निनयां थी- कला और उर्णा।
संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो एक ब्राह्मण कन्या थी।
दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।
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जैसे धर्म हमारे सदाचरण का ही दूसरा समष्टि गत नाम है।
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नामानि धर्मपत्नीनां मत्तो विप्र निशामय ।
शान्तिः पुष्टिर्धृतिस्तुष्टिः क्षमा श्रद्धा मतिः स्मृतिः।
। ९ ।
शान्तेः पुत्रश्च सन्तोषः पुष्टेः पुत्रो महानभूत् ।।
धृतेधैर्य्यं च तुष्टेश्च हर्षदर्पौ सुतौ स्मृतौ।
1.9.१०।
क्षमापुत्रः सहिष्णुश्च श्रद्धापुत्रश्च धार्मिकः ।।
मतेर्ज्ञानाभिधः पुत्रः स्मृतेर्जातिस्मरो महान् ।११।
अनुवाद:-
विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये– शान्ति, पुष्टि (पोषण), धृति (धैर्य) , तुष्टि,(सब्र) क्षमा, श्रद्धा, मति( बुद्धि) और स्मृति (याददाश्त)।
शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान हुआ।
धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प(अहंकार)।
क्षमा का पुत्र सहिष्णुता था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक ।
मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान जातिस्मर(जिसे अपने पूर्वजन्म का इतिवृत्त याद हो) का जन्म हुआ।
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धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए।
श्रीबह्मवैवर् महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड नवमोऽध्यायः ।। ९ ।।
"धर्म की सन्तानों का उपर्युक्त विवेचन काव्यात्मक शैली में है। उसी प्रकार है जिस प्रकार मन से विचार( मान) और विचार से ज्ञान( बुध:) और बुध: और वाणी(इला) से कवित्व शक्ति का रूप पुरुरवा उत्पन्न होता है। पुरुरवा सृष्टि का प्रथम प्रेम पथ का कवि था जो कुशल वक्ता-( वाणी विशारद) और ज्ञान सम्पन्न ( बुद्धिमान) भी था।
मरीचि की दो और पत्नियां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।
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अध्याय 16 - सृष्टि का वर्णन
ब्रह्मा ने कहा :
4-7. मैंने अपनी आँखों से मरीचि को , अपने हृदय से भृगु को रचा; सिर से अंगिरस और प्राणवायु व्यान से महान ऋषि पुलहा ।
मैंने उदान से पुलस्त्य को उत्पन्न किया ; समाना से वसिष्ठ ; अपान से क्रतु ; कानों से अत्रि और प्राण से दक्ष । फिर मैंने तुम्हें अपनी गोद से और ऋषि कर्दम ने अपनी छाया से उत्पन्न किया। अंततः, मैंने अपनी अवधारणा से धर्म की रचना की, जो हर चीज़ की प्राप्ति का साधन है। हे ऋषियों में अग्रगण्य, महादेव की कृपा से इन उत्कृष्ट साधकों की रचना करके मैं संतुष्ट हो गया।
19. श्रद्धा आदि तेरह कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म को कर दिया था। हे परम ऋषि, धर्म की पत्नियों के नाम सुनो।
20. उनके नाम हैं श्रद्धा (विश्वास), लक्ष्मी (भाग्य), धृति (दृढ़ता), तुष्टि (तृप्ति), पुष्टि (पोषण ), मेधा (बुद्धि), क्रिया (संस्कार, गतिविधि), बुद्धि (बुद्धि, ज्ञान) , लज्जा (शर्मनाक), वसु (धन), शांति (शांति, शांति), सिद्धि (सिद्धि, उपलब्धि) और तेरहवीं कीर्ति (प्रसिद्धि) है।
मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी।
(सृष्टिखण्डः)
"ब्रह्मोवाच ।।
मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।४ ।।
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः।५ ।।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।। ७ ।।
ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् ।
सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।।९।।
ततोऽहं शंकरेणाथ प्रेरितोंऽतर्गतेन ह ।।
द्विधा कृत्वात्मनो देहं द्विरूपश्चाभवं मुने ।। 2.1.16.१० ।।
अर्द्धेन नारी पुरुषश्चार्द्धेन संततो मुने ।
स तस्यामसृजद्द्वंद्वं सर्वसाधनमुत्तमम् ।।११।।
स्वायंभुवो मनुस्तत्र पुरुषः परसाधनम् ।।
शतरूपाभिधा नारी योगिनी सा तपस्विनी।१२।
सा पुनर्मनुना तेन गृहीतातीव शोभना ।।
विवाहविधिना ताताऽसृजत्सर्गं समैथुनम् ।१३।
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देवहूत्यां कर्दमाच्च बह्व्यो जातास्सुता मुने ।।
दशाज्जाताश्चतस्रश्च तथा पुत्र्यश्च विंशतिः।१८।
धर्माय दत्ता दक्षेण श्रद्धाद्यास्तु त्रयोदश ।।
शृणु तासां च नामानि धर्मस्त्रीणां मुनीश्वर।१९।
श्रद्धा लक्ष्मीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिर्मेधा तथा क्रिया ।।
वसुःर्बुद्धि लज्जा शांतिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदश।2.1.16.२०।
ताभ्यां शिष्टा यवीयस्य एकादश सुलोचनाः ।।
ख्यातिस्सत्पथसंभूतिः स्मृतिः प्रीतिः क्षमा तथा।।२१।।
श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।
मरीचिः मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः ।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वान् अभवत् सुतः ॥१०॥
अनुवाद:-
मरीचि का जन्म ब्रह्मा के मन से हुआ था। मरीचि के वीर्य से दक्ष की एक कन्या के गर्भ से कश्यप प्रकट हुए और कश्यप से अदिति में विवस्वान।( भागवत-पुराण 9.1.10)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे प्रथमोध्याऽयः ॥ १ ॥
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"पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति ।तस्मादमुष्य पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
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सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
अनुवाद:-पुण्यमय कनखल में पहले सनत्कुमार ने यात्रा की थी। वहीं पुरु नाम से प्रसिद्ध पर्वत है, जहाँ पूर्वकाल में पुरूरवा ने यात्रा की थी।19।
महाभारत वन पर्व -/88/19
इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा (पुरु + रु +) “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ । २३१ । इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।) बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
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विशेष :- अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।
उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।
इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।
अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण आभीर तथा गोष(घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है।
इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए , स्वयं कृष्ण और संकर्षण(बलराम) कृषि पद्धति के जनक थे बलराम ने हल का आविष्कार कर उसे ही अपना शस्त्र स्वीकार किया। स्वयं आभीर शब्द "आर्य के सम्प्रसारण "वीर का सम्प्रसारण है।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि
नहीं कोई काव्य सी !
"प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका
चिरनिवेदक है।।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।
मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
__________________________________ "कृष्ण उवाच"
"त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-
वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८।
बात उस समय की है जब एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्त स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।
"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
अनुवाद:- प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।
"यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।
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"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु। आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।
जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
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मत्स्यपुराण -★(भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
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अनुवाद:- जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-गणिकाओं -(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
इस समस्त सृष्टि में यह व्रत तपस्या का ही एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।
ब्रह्मा तप करने के पश्चात ही सृष्टि उत्पादन की शक्त प्राप्त करते हैं। तप शक्तियों का संचायक है।महाभारत में एक प्रसंग में पुरुरवा के विरासत के रूप में गोपालनवृत्ति स्वीकार करने का वर्णन
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गाय देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः ॥१॥
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- दितित ही हैं । पुरुरवा बुध और इला की सन्तान था ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-
अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता ( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।
पुरुरवा :- उर्वशी से कहते हैं हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।
विशेष:- गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह ।
हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।
"मत्स्य उवाच।
शृणु कर्म्मविपाकेन येन राजा पुरूरवाः।
अवाप ताद्रृशं रूपं सौभाग्यमपि चोत्तमम्। ११५.६।
"अतीते जन्मनि पुरा योऽयं राजा पुरूरवाः। पुरूरवा इति ख्यातो मद्रदेशाधिपो हि सः।११५.७।
चाक्षुषस्यान्वये राजा चाक्षुषस्यान्तरे मनोः।स वै नृपगुणैर्युक्तः केवलं रूपवर्जितः।११५.८ ।
पुरूरवा मद्रपतिः कर्म्मणा केन पार्थिवः।बभूव कर्म्मणा केन रूपवांश्चैव सूतज!। ११५.९।
अनुवाद:- शास्त्रों में पुरुरवा के जन्म की विभिन्न कथाऐं हैं।
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। राजा पुरुरवाको जिस कर्मके फलस्वरूप वैसे सुन्दर रूप और उत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति हुई थी, वह बतला रहा हूँ, सुनो। यह राजा पुरूरवा पूर्वजन्म में भी पुरूरवा नाम से ही विख्यात था। यह चाक्षुष मन्वन्तरमें चाक्षुष मनुके वंशमें उत्पन्न होकर मद्र देश (पंजाबका पश्चिमोत्तर भाग) का अधिपति था (जहाँका राजा शल्य तथा पाण्डुपत्त्री माद्री थी। उस समय इसमें राजाओं के सभी गुण तोविद्यमान थे, पर वह केवल रूपरहित अर्थात् कुरूप था (मत्स्यभगवान्द्वारा आगे कहे जानेवाले प्रसङ्गको ऋषियोंके पूछने पर सूतजीने वर्णन किया है, अतः इसके आगे पुनः वही प्रसङ्ग चलाया गया है।)।6-8।
(मत्स्यपुराण अध्याय-115)
सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से केवल भागवत पुराण में वर्णन किया गया है।
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:-
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--)
परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थे
वर्ण व्यवस्था ब्राह्मी सृष्टि है
जब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था । तब आभीर जाति के लोग उपस्थित थे। परन्तु ये व्र
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अनुसार ब्रह्मा नें अपने महा यज्ञ में अपने द्वारा उत्पन्न सृष्टि के सभी प्राणी आमन्त्रित किए थे।
कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।
क्योंकि जातियों का निर्धारण प्रवृत्ति से होता है और समान व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों की प्रवृत्ति ( स्वभाव और आदत का मूल) भी समान हो जाती है।
यद्यपि वर्णव्यवस्था भगवान की सृष्टि नहीं है।
ज्ञान भगवान की सृष्टि बनाकर जातीय अथवा जन्म गत रूप दिया जा रहा है।
निम्न श्लोक श्रीमद्भगीता का मौलिक श्लोक नहीं है। परन्तु फिर भी गुण कर्म के अनुसार व्यक्ति के वर्ण( वर्ग) का निर्धारण करता है।
"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)
अनुवाद:- गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है।
प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी। विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
बात हम चन्द्रमा की उत्पत्ति की करें तो
इन्हीं कथाओं को आलंकारिक रूप में प्रस्तुत क्रिया गया!
मान (मास) के समानांतर अन्य खगोलीय शब्द सूनु - शब्द वैदिक है जिसके चार अर्थ शब्दकोशों में उल्लिखित हैं।
सूनु=(सू+नुक्) १ पुत्र २ सूर्य्ये मेदिीकोश ४ अर्कवृक्ष( अकौआ) । आधुनिक अंग्रेज़ी में प्रचलित शब्द (SUN) का सम्बन्ध
; मध्य अंग्रेज़ी के (sonne) , से है और इसका भी सम्बन्ध पुरानी अंग्रेज़ी के (sunne) से है। य सभी शब्द प्रोटो-जर्मनिक "सूर्य"।*sunno के रूपान्तरण व विकसित रूप हैं।
(ओल्ड नॉर्स, ओल्ड सैक्सन, ओल्ड हाई जर्मन का का (sunna), मध्य डच का (sonne,) डच का (zon,) जर्मनी का (Sonne), गॉथिक का sunno" सभीशब्द वैदिक शब्द सूनु - सभी शब्द चाहें वह सूनु हो अथवा सूर्य
षूङ् ( सू) प्राणि प्रसवे प्राणिगर्भविमोचने च -धातु से निष्पन्न ( उत्पन्न) हैं। सविता सूर्य को इसीलिए कहते हैं कि वह जीवन का आधार है सूर्य के प्रकाश ( ऊष्मा) से ही अनेक प्राणी अनुकूल तापमान पर उत्पन्न होते हैं।
सूनु- पुत्रार्थी शब्द भी यूरोपीय भाषाओं में विद्यमान है।
Old English sunu "son,
Proto-Germanic *sunus Old Saxon and
Old Frisian sunu,
Old Norse sonr,
Danish søn, Swedish son,
Middle Dutch sone,
Dutch zoon,
Old High German sunu, German Sohn,
Gothic- sunus "son").
The Germanic words are from PIE *su(H)nus -"son"
(source also of Sanskrit -sunus, सूनु: Greek -huios,
Avestan- hunush,
Armenian -ustr,
Lithuanian sūnus, Old Church Slavonic synu, Russian and Polish syn "son"), a derived noun from root *su(H)- "to give birth" (source also of Sanskrit sauti "gives birth,"
Old Irish suth "birth, offspring").
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Old English mōna, of Germanic origin; related to Dutch maan and German Mond, also to month, from an Indo-European root shared by Latin mensis and Greek mēn ‘month’, and also Latin metiri ‘to measure’ (the moon being used to measure time).
heavenly body which revolves about the earth monthly," Middle English mone, from Old English mona, from Proto-Germanic *menon- (source also of Old Saxon and Old High German mano, Old Frisian mona, Old Norse mani, Danish maane, Dutch maan, German Mond, Gothic mena "moon"), from PIE *me(n)ses- "moon, month" (source also of Sanskrit masah "moon, month;" Avestan ma, Persian mah, Armenian mis "month;" Greek mene "moon," men "month;" Latin mensis "month;" Old Church Slavonic meseci, Lithuanian mėnesis "moon, month;" Old Irish mi, Welsh mis, Breton miz "month"), from root *me- (2) "to measure" in reference to the moon's phases as an ancient and universal measure of time.
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Etymology
moon (n.)
"heavenly body which revolves about the earth monthly
," Middle English mone, from
Old English mona, from
Proto-Germanic *menon- (source also of Old Saxon and Old High German mano,
Old Frisian mona,
Old Norse mani,
Danish maane,
Dutch maan,
German Mond,
Gothic mena "moon"),
from PIE *me(n)ses- "moon, month"
(source also of Sanskrit masah "moon, month;"
Avestan ma, Persian mah,
Armenian mis "month;
" Greek mene "moon," men "month;"
Latin mensis "month;"
Old Church Slavonic meseci,
Lithuanian mėnesis "moon, month;"
Old Irish mi,
Welsh mis, Breton miz "month"),
from root *me- (2) "to measure" in reference to the moon's phases as an ancient and universal measure of time.
A masculine noun in Old English. In Greek, Italic, Celtic, and Armenian the cognate words now mean only
"month." Greek selēnē (Lesbian selanna)
is from selas "light, brightness (of heavenly bodies).
" Old Norse also had tungl "moon,"
("replacing mani in prose" - Buck), evidently an older Germanic word for "heavenly body," cognate with Gothic tuggl, Old English tungol "heavenly body, constellation," of unknown origin or connection. Hence Old Norse tunglfylling "lunation," tunglœrr "lunatic" (adj.).
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शब्द-व्युपत्ति-
चंद्रमा -अंग्रेजी नामान्तरण( मून) एक "आकाशीय पिंड अथवा पृथ्वी का उपग्रह है। जो मासिक रूप से पृथ्वी की परिक्रमा करता है यह शब्द मध्य अंग्रेजी मोने, है। तो
पुरानी अंग्रेज़ी में मोना, है।
प्रोटो-जर्मेनिक *मेनन- और(ओल्ड सैक्सन और ओल्ड हाई जर्मन "मानो" के रूप में है।
पुरानी पश्चिमी अंग्रेज- मोना,
पुराना नॉर्स- मणि,
डेनिश- माने,
डच- मान,
जर्मन- मॉन्ड,
गॉथिक- मैना "(चंद्रमा"),
मूल भारोपीय धातु *मी(ने)सेस- "चंद्रमा, महीना"
(संस्कृत मासः "चंद्रमा, महीना" का भी स्रोत)
अवेस्तन मा तथा, फ़ारसी माह,
अर्मेनियाई मिस "महीना; और
"ग्रीक में मेने "चंद्रमा," का वाचक है।
मेन- "माह;"
लैटिन मेन्सिस "माह;"
पुरानी चर्च स्लावोनिक मेसेसी,
लिथुआनियाई मेनेसिस "चंद्रमा, महीना;"
पुराना आयरिश मील,
वेल्श मिस, ब्रेटन मिज़ "माह"),
समय के एक प्राचीन और सार्वभौमिक माप के रूप में चंद्रमा के चरणों के संदर्भ में समय का "मापन" होता था यह चन्द्र- मास की गणना थी।
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वैदिक मास् - मान
मा--ल्युट् । १ परिमाण( मापन)
"32000 सालों से कालगणना का पहला साधन है चंद्रमा, चीन-अरब ने भारत से सीखा चन्द्र मास पद्धति प्राचीन -
चांद उसके लिए समय की गणना करने का साधन रहा है। ऋग्वेद और शतपथ ब्राह्मण ये दो ग्रंथ बताते हैं कि हजारों साल से चांद इंसानों के लिए कालगणना का साधन रहा है।
जब समय पता करने का कोई साधन नहीं था, तब चंद्रमा के घटने और बढ़ने की स्थितियों से ही दिन और महीनों का अनुमान लगाया जाता था।
15 दिन अमावस्या और 15 पूर्णिमा के ऐसे दो पक्षों को मिलाकर महीने का कैलकुलेशन किया गया, जिसे चांद्रमास यानी चंद्रमा का महीना कहा जाता है। संस्कृत शब्द मास्- मूलत: मापक का अर्थ वाची है।
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आज भी भारतीय ज्योतिष में भारतीय पाचांग चांद्रमास से ही बनाया जाता है। सारे तीज-त्योहार इसी से तय होते हैं।
नासा की एक रिपोर्ट के मुताबिक पाषाण युग में फ्रांस और जर्मनी की गुफाओं में रहने वाले आदिमानवों ने 32,000 साल पहले चंद्रमा की गति का अध्ययन करके पहला कैलेंडर बनाया था।
भारत में इसका सबसे सटीक गणित है।
चीन और अरब देशों ने भी चांद से कैलेंडर बनाना भारत से सीखा है। सूर्य से गणना मुश्किल थी तो चांद को साधन बनाया
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जर्मन विद्वान्- प्रो०. मैक्समूलर ने अपनी किताब “इंडिया- व्हाट कैन इट टीच अस” भारत- यह हमें क्या सिखा सकता है? में लिखा है- भारत ज्योतिष, आकाश मंडल और नक्षत्रों के बारे में जानने के लिए किसी दूसरे देश का ऋणी नहीं है, ये उसने खुद खोज किया है।
उन्होंने लिखा है कि चंद्रमा ही कालगणना का पहला साधन था।
सूर्योदय के बाद नक्षत्रों और तारों को देख पाना या उनके बारे में अनुमान लगा पाना मुश्किल था। भारतीय विद्वानों ने चंद्रमा के आधार पर ही दिन, पक्ष, मास और वर्ष गणना की।
चंद्रमा की विभिन्न कलाओं को देखते हुए आकाश को 27 नक्षत्रों में बांटा। मूल ज्योतिष का तत्व भारत से ही हजारों साल पहले उपजा है।
भारत से ही कालगणना चीन और अरब पहुंची
भारत के अलावा चीन और अरब देशों में भी कालगणना का पहला साधन चंद्रमा ही था।
हिजरी संवत कैलेंडर में भी चांद से ही महीनों की गणना हुई है। इसलिए ़यहूदी ईसाई और मुसलमान चाँद को धार्मिक महत्व देते हैं। और अपने को सैमेटिक साम की सन्तान मानते हैं।
अमूमन अरब देशों में सैकड़ों साल पहले दिन की बजाय चांद रातों की संख्या से ही समय तय किया जाता था।
मुगल काल में भी कई कामों के लिए चांद रातों( चन्द रातों )का जिक्र मिलता है।
जब समय पता करने का कोई साधन नहीं था, तब चंद्रमा के घटने और बढ़ने की स्थितियों से ही दिन और महीनों का अनुमान लगाया जाता था। 15 दिन अमावस्या और 15 पूर्णिमा के ऐसे दो पक्षों को मिलाकर महीने की गणना की जाती थी। , जिसे चांद्रमास यानी चंद्रमा का महीना कहा जाता है।
वैदिक काल से अब तक चंद्रमा की पूजा ग्रह और देवता, दोनों रूप में हो रही है।
वहीं, ज्योतिर्विज्ञान में चंद्रमा को उपग्रह नहीं, बल्कि ग्रह कहा गया है।
धरती के काफी नजदीक होने से सूर्य के बाद चंद्रमा दूसरा ग्रह है, जो पृथ्वी पर रहने वाले हर प्राणी को प्रभावित करता है। चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण ही धरती पर पानी और औषधियां हैं।
जिससे व्यक्ति लम्बी आयु पाता है। वेदों से लेकर पुराणों और ज्योतिष ग्रंथों में भी चंद्रमा को विशेष बताया गया है।
चंद्रमा से कालचक्र का निर्धारण प्राचीनकाल ही है।
इसी के 105वें सूक्त में कहा है कि चंद्रमा आकाश में गतिशील है और नित्य गति करता रहता है।
"चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि ।
न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१॥ऋग्वेद-१/ १०५/१
अप्सु =आन्तरिक्षासु’ उदकमये मण्डले "अन्तः= मध्ये वर्तमानः
"सुपर्णः =शोभनपतनः । यद्वा । सुपर्ण इति रश्मिनाम । सुषुम्णाख्येन सूर्यरश्मिना युक्तः "चन्द्रमाः
"दिवि= द्युलोके “आ “धावते । आङ् मर्यादायाम् । एकेनैव प्रकारेण धावते शीघ्रं गच्छति ।
तादृशस्य चन्द्रमसः संबन्धिनो हे “हिरण्यनेमयः
सुवर्णसदृशपर्यन्ताः । यद्वा । हितरमणीयप्रान्ताः । "विद्युतः विद्योतमाना रश्मयः "वः युष्माकं "पदं पादस्थानीयमग्रं "न "विन्दन्ति मदीयानीन्द्रियाणि कूपेनावृतत्वात् न लभन्ते । अतः इदमनुचितम् । तस्मात् कूपात् मामुत्तारयतेत्यर्थः । अपि च हे "रोदसी द्यावापृथिव्यौ "मे मदीयम् "अस्य इदं स्तोत्रं "वित्तं जानीतम्। यद्वा। मदीयं कूपपतनरूपं यदिदं दुःखं तदवगच्छतम् । मदीयं स्तोत्रं श्रुत्वा मदीयं दुःखं ज्ञात्वा वा अस्मात् कूपात् मामुत्तारयतमित्यर्थः ।।
चन्द्रमाः। चन्द्रमाह्लादनं सर्वस्य जगतो निर्मिमीते इति चन्द्रमाः । ‘चन्द्रे माङो डित् ( उ. सू. ४. ६६७) इति असुन्। दासीभारादिषु पाठात् पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।
धावते । ‘ सृ गतौ । ‘ पाघ्रा' इत्यादिना वेगितायां धावादेशः । व्यत्ययेन आत्मनेपदम् । वित्तम् । 'विद ज्ञाने'। लोटि अदादित्वात् शपो लुक् । पादादित्वात् ‘तिङ्ङतिङः ' इति निघातभावः । अस्य ।' क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वात् चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ।' उडिदम् ' इति विभक्तेरुदात्तवम् ॥
एतरेय ब्राह्मण ग्रंथ के मुताबिक वैदिक काल में तिथियां चंद्रमा के उदय और अस्त होने से तय होती थीं। चंद्रमा ही तिथियों के साथ महीने को शुक्ल और कृष्ण पक्ष में बांटता है। इस बारे में तैत्तरीय ब्राह्मण में बताया गया है।
इसके बाद ऋतुओं की बात करें तो अथर्ववेद के 14 वें कांड के पहले सूक्त में कहा गया है कि चंद्रमा से ही ऋतुएं बनती हैं।
वेदों में बताया गया है कि चंद्रमा के कारण ही ऋतुएं बदलती हैं। भले ही इसमें तापीय प्रभाव सूर्य का हो।
वहीं चंद्रमा के प्रभाव से ही 13 महीने हो जाते हैं, जिसे अधिकमास कहते हैं। इस बात का जिक्र वाजसनेयी संहिता में किया गया है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि पृथ्वी पर उगने वाली औषधियों और वनस्पतियों में रस चंद्रमा से ही आता है। जो सोम रस देवता पीते हैं, उस बारे में ऋग्वेद में कहा गया है कि सोम नाम की लता चंद्रमा से ही रस बनाती है।
देवी-सूक्त / वाक्-सूक्त / आत्म-सूक्त / अम्भृाणी-सूक्त भगवती पराम्बा के अर्चनपूजन के साथ देवीसूक्त के पाठ की विशेष महिमा है ।‘
यह वाक्-सूक्त’ कहलाता है । परन्तु इसे ‘आत्मसूक्त’ भी कहते हैं । इसमें अम्भृण-ऋषि की पुत्री वाक् ब्रह्मसाक्षात्कार से सम्पन्न होकर अपनी सर्वात्मदृष्टि को अभिव्यक्त कर रही है।
ब्रह्मविद्की वाणी ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर अपने-आपको ही सर्वात्मा के रूप में वर्णन कर रही है ।
विनियोगः-
ॐ अहमित्यष्टर्चस्य सूक्तस्य वागाम्भृणी ऋषिः, सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता, द्वितीयाया ॠचो जगती, शिष्टानां त्रिष्टुप् छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः । ध्यानम् – ॐ सिंहस्था शशिशेखरा मरकत प्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः शङ्खं चक्रध्नुः शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता । आमुक्ताङ्गदहारकङकणरणत्काञ्चीरणन्नूपुरा दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला ॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥ १ ॥
अनुवाद:-
ब्रह्मस्वरुपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वदेवता के रुप में विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपों में भासमान हो रही हूँ । मैं ही ब्रह्मरुप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ । मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ । मैं ही दोनो अश्विनी-कुमारों का भी धारण-पोषण करती हूँ ॥ १ ॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् । अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥ २ ॥
अनुवाद:-
मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाह्लाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण पोषण करती हूँ ।
मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ । जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषव के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ ॥ २ ॥
"श्रीकृष्णो गोपेश्वर: पञ्चंवर्णम्"
देवीभागवतपुराण -स्कन्धः(9) -अध्यायः (38)
इन्द्रायुश्चैव दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः।
अष्टाविंशे शक्रपाते ब्रह्मणश्च दिवानिशम्।५०।
एवं त्रिंशद्दिनैर्मासो द्वाभ्यामाभ्यामृतुः स्मृतः ।
ऋतुभिः षड्भिरेवाब्दं ब्रह्मणो वै वयः स्मृतम् ॥ ५१ ॥
ब्रह्मणश्च निपाते च चक्षुरुन्मीलनं हरेः ।
चक्षुरुन्मीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ॥ ५२ ॥
प्रलये प्राकृते सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ।
लीना धाता विधाता च श्रीकृष्णनाभिपङ्कजे ॥ ५३ ॥
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः।५४॥
यस्य ज्ञाने शिवो लीनो ज्ञानाधीशः सनातनः ।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्वशक्तयः।५५।
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