गुरुवार, 4 जनवरी 2024

हृल्लीसकं

अनुवाद" 

उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी  नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा # हल्लीसक- नृत्य का आयोजन किया।६८। सन्दर्भ:- हरिवंशपुराण-विष्णुपर्व /अध्याय-89/श्लोक-68 

"श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। इनके छोटे भाई कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी -बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी और कृष्ण ने एक नवीन संगीत की सृष्टि की कृष्ण ने संगीत को जीवन का आधार और सृष्टि की आदि विद्या के रूप प्रतिपादित किया।'

आभीर जाति के नाम पर प्रचलित राग आभीर संगीत के क्षेत्र में अहीरों योगदान को परिलक्षित करता है। वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना -

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।         इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता- मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और  इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।

वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है।

वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल ( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब चिन्ता- दु:खों को भूलकर विश्राम करता है।

कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में ही इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के  के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया ।


जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे  
धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और 
ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ। 

जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र थे जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ होती थीं।


ग्रामीण जीवनका पालन करने वाले  गोपों की गोप ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक ऋतु सम्बन्धी रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।

मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य. सम्पादन करता रहता है वह अपने उत्सवों में भी वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता है। -

"ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है।

"यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः।
यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥७॥
ग्रसतेऽत्रेति ग्रामा = जहाँ ग्रास खाने के लिए मिले वह स्थान- ग्राम है। (ऋग्वेद २/१२/७)

(ग्रस्+ मन्)“ग्रसेरात्  उणादि मन् प्रत्यय।१।१४२। इतिमन्धातोराकारान्तादेशश्च।

हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय( 89 )में  वर्णित है।

हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से  हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः-  हल्यते कृष्यतेऽनेन  इति हल्+ घञर्थे करणे (क) । लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।

हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-

और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक

हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानांतर दृश्य में आकृति बनाकर किया मण्डलाकार विधि से किया जाता था।

वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दौंनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था। 

इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।

जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।संकर्षण कि हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।

हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् ।  बलराम  कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।

इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)= 

नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।

विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 

इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं  जिसे मंडल बाँधकर  जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं। साहित्यदर्पण(। ६ । ५५५ । )  में इसका लक्षण 

हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥

विशेष—पौराणिक परम्परा  इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा  कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा  को तो कभी  कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।

तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी। इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग जाता है। जैसे  हल्लीषा-

इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने  लगा।

भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।

भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।

प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।

मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं। 

अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।

रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।

वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं। जिसे भविष्य पुराण  कारो ने हल्लीषम् अवश्य कहा-

रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।

आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री।

संस्कृत में हल्लीषक का विश्लेषण-

एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल मत है  कि हल्लीसं शब्द ़यूनानी इलिशियन- नृत्यों (इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन्  के आसपास माना जाता है। 

सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-

वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दौंनो शब्द पृथक पृथक है।

विशेषण को तौर पर  एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग हवाई छुट्टियों पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं। एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।  हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वासतव में  मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल था।

 संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी। 

आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -

एलीसियन- 1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।

    यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।"  PIE आद्य भारोपीय  रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ"खेलना,"  मृगतृष्णा

    लैटिन (illusio) से ही  फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। 

    इस इल्युशन शब्द के मोह माया  जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी 

      मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।

      कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है। 

      अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।

      रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।

      इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। 

      इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। 

      दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई।

      इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। 

      नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।  रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं।

      रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

      विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं।  लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। 

       कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। 

      lascivious  adj.)

      mid-15c., "lustful, inclined to lust," कामुक, वासना की ओर प्रवृत्त,"


      from Medieval Latin lasciviosus (used in a scolding sense by Isidore and other early Church writers),

      मध्यकालीन लैटिन लास्किविओसस से (इसिडोर और अन्य प्रारंभिक चर्च लेखकों द्वारा डांट के अर्थ में प्रयुक्त),



       from Latin lascivia "lewdness, playfulness, fun, frolicsomeness, jolity," from lascivus "lewd, playful, undesigned, frolicsome, wanton."


      लैटिन लास्किविया से "भद्दापन, चंचलता, मौज-मस्ती, उल्लास, उल्लास," लास्किवस से "भद्दा, चंचल, असंयमित, उल्लासपूर्ण, प्रचंड।"

      __________    


      This is from PIE *las-ko-, from the root *las- "to be eager, wanton, or unruly" यह PIE से है *लास-को-, मूल से *लास-"उत्सुक, प्रचंड, या अनियंत्रित होना"

      हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20) में मिलता है। 

      विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।

      यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।

      इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता। 

      भासकृत बालचरित्‌ में हल्लीशक का उल्लेख है।अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।

      शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।

      इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति  से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति   की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं।  हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-

        - हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-

        मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।

        इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।

         द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-

        पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।

        इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है

        आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । 

        ब्रज का रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-

        १- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक। 

        देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।

         गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।


        यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।

         यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।


        "आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। 

        कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। 

        इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक'  था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।

        कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

        विषय सूची

        १नृत्य एवं नाट्य कलाएँ / Dance and Drama

        २कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

        ३नृत्यनाट्य का महान ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र'

        ४नाट्य मंडप

        श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में ब्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।

         उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।

        प्राचीन ब्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। 

        फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। 

        बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।

        नृत्य अहीरों में पहले से  रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,

        तथा उर्वशी भगवान  कृष्ण की विभूति हैं।  पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।


        जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं। 


        यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।

        "हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।


        भगवान कृष्ण का  जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --

        "मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६।

        सरस्वतीकण्ठाभरणम्  /परिच्छेदः (२)

        सरस्वतीकण्ठाभरणम्

        परिच्छेदः २

        भोजराजः


        यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।

        नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।


        तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।

        हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।

        ____________________

        मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।

        तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)

        अर्थ-

        मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कहलाता है ।

        उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।


        "अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।

        षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)


        चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।

        शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)

        ____________________


        इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।


        नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।

        विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 

        इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 

        यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

        मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।

        इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।


        यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।

        इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में हुआ है। 

        इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।

        भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों 

        का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है। शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य मं प्रशिक्षित किया था। 


        द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।


        भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --

        १. मण्डल रासक 

        २. लकुट रासक तथा 

        ३. ताल रासक। 

        मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया। 

        कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ। 

        इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।

        भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।

        अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है। 

          (हरिवंशपुराण विष्णु पर्व-अध्याय-89)  →

        बलरामश्रीकृष्णादीनां यादवानां जलक्रीडा एवं गानादिकानां वर्णनम्-एकोननवतितमोऽध्यायः

                       "वैशम्पायन उवाच रेमे बलश्चन्दनपङ्कदिग्धः कादम्बरीपानकलः पृथुश्रीः। रक्तेक्षणो रेवतिमाश्रयित्वा प्रलम्बबाहुर्ललितप्रयातः ।।१।।

        नीलाम्बुदाभे वसने वसानश्चन्द्रांशुगौरो मदिराविलाक्षः । रराज रामोऽम्बुदमध्यमेत्य सम्पूर्णबिम्बो भगवानिवेन्दुः ।। २ ।। वामैककर्णामलकुण्डलश्रीः स्मेरं मनोज्ञाब्जकृतावतंसः । तिर्यक्कटाक्षं प्रियया मुमोद रामः सुखं चार्वभिवीक्ष्यमाणः ।। ३ ।। अथाज्ञया कंसनिकुम्भशत्रोरुदाररूपोऽप्सरसां गणः सः । द्रष्टुं मुदा रेवतिमाजगाम वेलालयं स्वर्गसमानमृद्ध्या ।। ४ ।। तां रेवतीं चाप्यथ वापि रामं सर्वा नमस्कृत्य वराङ्गयष्ट्यः । वाद्यानुरूपं ननृतुः सुगात्र्यः समन्ततोऽन्या जगिरे च सम्यक्।। ५ ।। चकुस्तथैवाभिनयेन रङ्गं यथावदेषां प्रियमर्थयुक्तम् । हद्यानुकूलं च बलस्य तस्य तथाज्ञया रेवतराजपुत्र्याः ।। ६ ।। चक्रुर्हसन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेषयुक्ताः । सहस्ततालं ललितं सलीलं वराङ्गना मङ्गलसम्भृताङ्ग्यः ।। ७ ।। संकर्षणाधोक्षजनन्दनानि संकीर्तयन्त्योऽथ च मङ्गलानि । कंसप्रलम्बादिवधं च रम्यं चाणूरघातं च तथैव रङ्गे ।। ८ ।। यशोदया च प्रथितं यशोऽथ दामोदरत्वं च जनार्दनस्य । वधं तथारिष्टकधेनुकाभ्यां व्रजे च वासं शकुनीवधं च ।। ९ तथा च भग्नौ यमलार्जुनौ तौ सृष्टिं वृकाणामपि वत्सयुक्ताम् । स कालियो नागपतिर्ह्रदे च कृष्णेन दान्तश्च यथा दुरात्मा ।। 2.89.१० ।। शङ्खहृदादुद्धरणं च वीर पद्मोत्पलानां मधुसूदनेन । गोवर्द्धनोऽर्थे च गवां धृतोऽभूद् यथा च कृष्णेन जनार्दनेन ।। ११ ।। कुब्जां यथा गन्धकपीषिकां च कुब्जत्वहीनां कृतवांश्च कृष्णः । अवामनं वामनकं च चक्रे कृष्णो यथाऽऽत्मानमजोऽप्यनिन्द्यः।।१२। सौभप्रमाथं च हलायुधत्वं वधं मुरस्याप्यथ देवशत्रोः । गान्धारकन्यावहने नृपाणां रथे तथा योजनमूर्जितानाम् ।। १३ । ततः सुभद्राहरणे जयं च युद्धे च बालाहकजम्बुमाले । रत्नप्रवेकं च युधाजितैर्यत् समाहृतं शक्रसमक्षमासीत् ।।१४।। एतानि चान्यानि च चारुरूपा जगुः स्त्रियः प्रीतिकराणि राजन् । सङ्कर्षणाधोक्षजहर्षणानि चित्राणि चानेककथाश्रयाणि ।। १५ ।। कादम्बरीपानमदोत्कटस्तु बलः पृथुश्रीः स चुकूर्द रामः । सहस्ततालं मधुरं समं च स भार्यया रेवतराजपुत्र्या ।। १६ ।। तं कूर्दमानं मधुसूदनश्च दृष्ट्वा महात्मा च मुदान्वितोऽभूत्। चुकूर्द सत्यासहितो महात्मा हर्षागमार्थं च बलस्य धीमान् ।। १७ ।। समुद्रयात्रार्थमथागतश्च चुकूर्द पार्थो नरलोकवीरा । कृष्णेन सार्द्धं मुदितश्चुकूर्द सुभद्रया चैव वराङ्गयष्ट्या ।। १८ ।। गदश्च धीमानथ सारणश्च प्रद्युम्नसाम्बौ नृप सात्यकिश्च । सात्राजितीसूनुरुदारवीर्यः सुचारुदेष्णश्च सुचारुरूपः ।। १९ ।। वीरौ कुमारौ निशठोल्मुकौ च रामात्मजौ वीरतमौ चुकूर्दतुः । अक्रूरसेनापतिशंकवश्च तथापरे भैमकुलप्रधानाः ।। 2.89.२० ।। तद् यानपात्रं ववृधे तदानीं कृष्णप्रभावेण जनेन्द्रपुत्र । आपूर्णमापूर्णमुदारकीर्ते चुकूर्दयद्भिर्नप भैममुख्यैः ।। २१ ।।। तै राससक्तैरतिकूर्दमानैर्यदुप्रवीरैरमरप्रकाशैः । हर्षान्वितं वीर जगत् तथाभूच्छेमुश्च पापानि जनेन्द्रसूनो ।। २२ ।। देवातिथिस्तत्र च नारदोऽथ विप्रः प्रियार्थं मुरकेशिशत्रोः । चुकूर्द मध्ये यदुसत्तमानां जटाकलापागलितैकदेशः ।। २३ ।। रासप्रणेता मुनि राजपुत्र स एव तत्राभवदप्रमेयः । मध्ये च गत्वा च चुकूर्द भूयो हेलाविकारैः सविडम्बिताङ्गैः ।।२४ ।। स सत्यभामामथ केशवं च पार्थं सुभद्रां च बलं च देवम् । देवीं तथा रेवतराजपुत्रीं संदृश्य संदृश्य जहास धीमान् ।।२५ ।। ता हासयामास सुधैर्ययुक्तास्तैस्तैरुपायैः परिहासशीलः । चेष्टानुकारैर्हसितानुकारैर्लीलानुकारैरपरैश्च धीमान् । २६ ।। आभाषितं किंचिदिवोपलक्ष्य नादातिनादान् भगवान् मुमोच । हसन् विहासांश्च जहास हर्षाद्धास्यागमे कृष्णविनोदनार्थम् ।। २७ । कृष्णाज्ञया सातिशयानि तत्र यथानुरूपाणि ददुर्युवत्यः । रत्नानि वस्त्राणि च रूपवन्ति जगत्प्रधानानि नृदेवसूनो ।। २८ ।। माल्यानि च स्वर्गसमुद्भवानि संतानदामान्यतिमुक्तकानि । सर्वर्तुकान्यप्यनयंस्तदानीं ददुर्ह रेरिङ्गितकालतज्ज्ञाः ।।२९।। रासावसाने त्वथ गृह्य हस्ते महामुनिं नारदमप्रमेयः । पपात कृष्णो भगवान् समुद्रे सात्राजितीं चार्जुनमेव चाथ ।। 2.89.३० ।। उवाच चामेयपराक्रमोऽथ शैनेयमीषत्प्रहसन् पृथुश्रीः । द्विधा कृतास्मिन् पतताशु भूत्वा क्रीडाजलेनोऽस्तु सहाङ्गनाभिः ।।३१।। सरेवतीकोऽस्तु बलोऽर्द्धनेता पुत्रा मदीयाश्च सहार्द्धभैमाः । भैमार्द्धमेवाथ बलात्मजाश्च मत्पक्षिणः सन्तु समुद्रतोये ।।३२।। आज्ञापयामास ततः समुद्रं कृष्णः स्मितं प्राञ्जलिनं प्रतीतः । सुगन्धतोयो भव मृष्टतोयस्तथा भव ग्राहविवर्जितश्च ।। ३३ ।। दृश्या च ते रत्नविभूषिता तु सा वेलिका भूरथ पत्सुखा च । मनोऽनुकूलं च जनस्य तत्तत् प्रयच्छ विज्ञास्यसि मत्प्रभावात्।।३४।। भवस्यपेयोऽप्यथ चेष्टपेयो जनस्य सर्वस्य मनोऽनुकूलः । वैडूर्यमुक्तामणिहेमचित्रा भवन्तु मत्स्यास्त्वयि सौम्यरूपाः ।। ३५ ।। बिभृस्व च त्वं कमलोत्पलानि सुगन्धसुस्पर्शरसक्षमाणि । षट्पादजुष्टानि मनोहराणि कीलालवर्णैश्च समन्वितानि ।। ३६ ।। मैरेयमाध्वीकसुरासवानां कुम्भांश्च पूर्णान् स्थपयस्व तोये । जाम्बूनदं पाननिमित्तमेषां पात्रं पपुर्येषु ददस्व भैमाः ।। ३७ ।। पुष्पोच्चयैर्वासितशीततोयो भवाप्रमत्तः खलु तोयराशे । यथा व्यलीकं न भवेद् यदूनां सस्त्रीजनानां कुरु तत्प्रयत्नम् ।। ३८।। इतीदमुक्त्वा भगवान् समुद्रं ततः प्रचिक्रीड सहार्जुनेन । सिषेच पूर्वं नृप नारदं तु सात्राजिती कृष्णमुखेङ्गितज्ञा ।। ३९ ।। ततो मदावर्जितचारुदेहः पपात रामः सलिले सलीलम् । साकारमालम्ब्य करं करेण मनोहरां रेवतराजपुत्रीम् ।। 2.89.४० ।। कृष्णात्मजा ये त्वथ भैममुख्या रामस्य पश्चात् पतिताः समुद्रे । विरागवस्त्राभरणाः प्रहृष्टाः क्रीडाभिरामा मदिराविलाक्षाः ।। ४१ ।। शेषास्तु भैमा हरिमभ्युपेताः क्रीडाभिरामा निशठोल्मुकाद्याः । विचित्रवस्त्राभरणाश्च मत्ताः संतानमाल्यावृतकण्ठदेशाः ।। ४२ ।। वीर्योपपन्नाः कृतचारुचिह्ना विलिप्तगात्रा स्नलपात्रहस्ताः । गीतानि तद्वेषमनोहराणि स्वरोपपन्नान्यथ गायमानाः ।।४३ ।। ततः प्रचक्रुर्जलवादितानि नानास्वराणि प्रियवाद्यघोषाः । सहाप्सरोभिस्त्रिदिवालयाभिः कृष्णाज्ञया वेशवधूशतानि ।। ४४ ।। आकाशगङ्गाजलवादनज्ञाः सदा युवत्यो मदनैकचित्ताः । अवादयंस्ता जलदर्दुरांश्च वाद्यानुरूपं जगिरे च हृष्टाः ।। ४५ ।। कुशेशयाकोशविशालनेत्राः कुशेशयापीडविभूषिताश्च । कुशेशयानां रविबोधितानां जह्रुः श्रियं ताः सुरचारुमुख्यः ।। ४६ । स्त्रीवक्त्रचन्द्रैः सकलेन्दुकल्पै रराज राजञ्छतशः समुद्रः । यदृच्छया दैवविधानतो वा नभो यथा चन्द्रसहस्रकीर्णम् ।। ४७ ।। समुद्रमेघः स रराज राजञ्च्छतह्रदास्त्रीप्रभयाभिरामः । सौदामिनीभिन्न इवाम्बुनाथो देदीप्यमानो नभसीव मेघः ।। ४८ ।। नारायणश्चैव सनारदश्च सिषेच पक्षे कृतचारुचिह्नः । बलं सपक्षं कृतचारुचिह्नं स चैव पक्षं मधुसूदनस्य ।। ४९।। हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्च प्रहृष्टरूपाः सिषिचुस्तदानीम् । रागोद्धता वारुणिपानमत्ताः संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्यः ।। 2.89.५० ।। आरक्तनेत्रा जलमुक्तिसक्ताः स्त्रीणां समक्षं पुरुषायमाणाः । ते नोपरेमुः सुचिरं च भैमा मानं वहन्तो मदनं मदं च ।। ५१ ।। अतिप्रसङ्गं तु विचिन्त्य कृष्णस्तान् वारयामास रथाङ्गपाणिः । स्वयं निवृत्तो जलवाद्यशब्दैः सनारदः पार्थसहायवांश्च ।। ५२ ।। कृष्णेङ्गितज्ञा जलयुद्धसङ्गाद् भैमा निवृत्ता दृढमानिनोऽपि । नित्यं तथाऽऽनन्दकराः प्रियाणां प्रियाश्च तेषां ननृतुः प्रतीताः ।। ५३ ।। नृत्यावसाने भगवानुपेन्द्रस्तत्याज धीमानथ तोयसङ्गान् । उत्तीर्य तोयादनुकूललेपं जग्राह दत्त्वा मुनिसत्तमाय ।। ५४ । उपेन्द्रमुत्तीर्णमथाशु दृष्ट्वा भैमा हि ते तत्यजुरेव तोयम् । विविक्तगात्रास्त्वथ पानभूमिं कृष्णाज्ञया ते ययुरप्रमेयाः ।। ५५ ।। यथानुपूर्व्या च यथावयश्च यत्सन्नियोगाश्च तदोपविष्टाः । अन्नानि वीरा बुभुजुः प्रतीताः पपुश्च पेयानि यथानुकूलम् ।। ५६ ।। मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन । निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।। ५७ । सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्। वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।। ५८ पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि । नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।। ५९ ।। पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि । सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।। समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च । तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः ।। ६१ । कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः । मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।। ६२ ।। श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च। आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।। ६३ ।। अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः । पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।। ६४ ।। तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु । शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।। ६५ ।। तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः । गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।। ६६ ।। आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः । छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।। ६७ ।। जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् । हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।। ६८।। मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः । आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।। ६९ ।। तयाभिनीते वरगात्रयष्ट्या तुतोष रामश्च जनार्दनश्च । अथोर्वशी चारुविशालनेत्रा हेमा च राजन्नथ मिश्रकेशी ।। 2.89.७०।। तिलोत्तमा चाप्यथ मेनका च एतास्तथान्याश्च हरिप्रियार्थम् । जगुस्तथैवाभिनयं च चक्रु रिष्टैश्च कामैर्मनसोऽनुकूलैः ।। ७१ ।। ता वासुदेवेऽप्यनुरक्तचित्ताः स्वगीतनृत्याभिनयैरुदारैः । नरेन्द्रसूनो परितोषितेन ताम्बूलयोगाश्च वराप्सरोभिः ।। ७२ ।। तदागताभिर्नृवराहृतास्तु कृष्णेप्सया मानमयास्तथैव । फलानि गन्धोत्तमवन्ति वीराश्छालिक्यगान्धर्वमथाहृतं च ।। ७३ ।। कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् । स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः ।। ७४ ।। छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् । प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।। ७५ ।। शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम । पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः । ७६ ।। जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् । करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।। ७७।। छालिक्यगान्धर्वमुदारकीर्तिर्मेने किलैकं दिवसं सहस्रम् । चतुर्युगानां नृप रेवतोऽथ ततः प्रवृत्ता च कुमारजातिः ७८ ।। गान्धर्वजातिश्च तथापरापि दीपाद् यथा दीपशतानि राजन् । विवेद कृष्णश्च स नारदश्च प्रद्युम्नमुख्यैर्नृप भैममुख्यैः ।। ७९ ।। विज्ञानमेतद्धि परे यथावदुद्देशमात्राच्च जनास्तु लोके । जानन्ति छालिक्यगुणोदयानां तोयं नदीनामथवा समुद्रः ।। 2.89.८० ।। ज्ञातुं समर्थो हि महागिरिर्वा फलाग्रतो वा गुणतोऽथ वापि । शक्यं न छालिक्यमृते तपोभिः स्थाने विधानान्यथ मूर्च्छनासु ।। ८१ ।। षड्ग्रामरागेपु च तत्तु कार्यं तस्यैकदेशावयवेन राजन् । लेशाभिधानां सुकुमारजातिं निष्ठां सुदुःखेन नराः प्रयान्ति ।। ८२ ।। छालिक्यगान्धर्वगुणोदयेषु ये देवगन्धर्वमहर्षिसंघाः । निष्ठां प्रयान्तीत्यवगच्छ बुद्ध्या छालिक्यमेवं मधुसूदनेन ।। ८३ ।। भैमोत्तमानां नरदेव दत्तं लोकस्य चानुग्रहकाम्ययैव । गतं प्रतिष्ठाममरोपगेयं बाला युवानश्च तथैव वृद्धाः ।। ८४.।। क्रीडन्ति भैमाः प्रसवोत्सवेषु पूर्वं तु बालाः समुदावहन्ति । वृद्धाश्च पश्चात्प्रतिमानयन्ति स्थानेषु नित्यं प्रतिमानयन्ति ।। ८५ ।। मर्त्येषु मर्त्यान् यदवोऽतिवीराः स्ववंशधर्मे समनुस्मरन्तः । पुरातनं धर्मविधानतज्ज्ञाः प्रीतिः प्रमाणं न वयः प्रमाणम् ।। ८६ ।। प्रीतिप्रमाणानि हि सौहृदानि प्रीतिं पुरस्कृत्य हि ते दशार्हाः । वृष्ण्यन्धकाः पुत्रसखा बभूवुर्विसर्जिताः केशिविनाशनेन ।। ८७ ।। स्वर्गे गताश्चाप्सरसां समूहाः कृत्वा प्रणामं मधुकंसशत्रोः । प्रहृष्टरूपस्य सुहृष्टरूपा बभूव हृष्टः सुरलोकसङ्घः ।। ८८ ।। इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि भानुमतीहरणे छालिक्यक्रीडावर्णने एकोननवतितमोऽध्यायः।।८९।।

        अंतिम बार 


        कृष्ण का चिरत्रांकन देश और समाज की प्रवृत्तियों के अनुरूप हर काल में भिन्न भिन्न रूप में हुआ। परन्तु कुछ शास्त्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने कृष्ण का चरित्रांकन कामशास्त्र के नायक के रूप में किया ये शास्त्रकार कृष्ण को देव संस्कृति के समर्थकों में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।

        हरिवंश पुराण कार ने रास प्रकरण में काल्पनिक उपादानों को आधार मानकर यही प्रयास किया है।

        परन्तु सच्चे अर्थों में कृष्ण देवसंस्कृति के कटु आलोचक तथा इन्द्र यज्ञ और पूजा के प्रबल विरोधी थे।

        परन्तु पुष्यमित्र सुँग ने देवयज्ञों प्रारम्भ कराकर पुन: यज्ञों  पशु बलि की पृथा भी प्रारम्भ कराई -

        यह सम्भव है कि  कुछ यादव साकाहारी और कुछ मासाँहारी भी रहे होंगे। जैसा कि आज भी है। परन्तु कृष्ण और बलराम जैसे भागवत धर्म के संस्थापकों को मदिरा पान कराकर माँस भक्षण करते हुए दिखाना और अनेक स्त्रीयों के साथ व्यभिचारी की भूमिका में प्रस्तुत करना " श्रीमद् भगवद्गीता के सिद्धान्तों के विपरीत है। पुराणों में जिस प्रकार ब्राह्मणों की प्रसंग विपरीत होने पर भी अचानक दान और सेवा आदि से संतुष्ट करने की बातें सर्वविदित ही हैं। हरिवंश पुराण से कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं जो पूर्णत: उनके वास्तविक चरित्र को विपरीत हैं। फिर भी ब्राह्मण शास्त्र कार उन्हें लिखकर कृष्ण के सामाजिक वर्चस्व को समाप्त करना चाहते हैं।

        "हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय:89 वाँ अध्याय -

         श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद :-श्रीकृष्‍ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्‍त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्‍तर उन प्रिय पुरुषों को नित्‍य आनन्‍द देने वाली उनकी प्‍यारी वारवनिताएं विश्‍वस्‍त होकर नृत्‍य करने लगीं। नृत्‍य के अन्‍त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्‍याग दिये।


         उन्‍होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्‍दन का लेप देकर फिर स्‍वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्‍ण को जल से बाहर निकला देख अन्‍य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्‍याग दी। फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से पानभूमि (रसोई के स्‍थान) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्‍था और सम्‍बन्‍ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।

         तदनन्‍तर उन प्रख्‍यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्‍न खाये और पेय रसों का पान किया।

         पके फलों के गूदे, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये कन्‍द या फलों के टुकड़े, पोषक[1]

         तत्त्‍व (अन्‍न)- ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे। 


        शूल में गूँथकर पकाये गये भैंसाकन्‍द तथा अन्‍यान्‍य कन्‍द या मूल-फल, नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्‍यान्‍य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्‍तुएं पाकशालाध्‍यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्‍तुत कीं। 


        पाकशालाध्‍यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृगनामक कन्‍द विशेष के मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्‍यंजन भी इनके लिये परोसे गये।


        दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्‍हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्‍दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।


         कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2] 


        के साथ मैरेय, माध्‍वीक, सुरासव नामक मधु का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया। 


        नरेश्‍वर! श्‍वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्‍ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्‍होंने खाये।


         राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्‍ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्‍तम अन्‍न का भोजन किया।

        ___________________

        उन्‍होंने प्‍यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये। 


        खा-पीकर तृप्‍त होने के पश्‍चात वे मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।


        उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्‍तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्‍द्र ने उस रात में बहुसंख्‍यक मनुष्‍यों द्वारा सम्‍पन्‍न होने वाले उस छालिक्‍य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्‍धर्व कहते हैं।


        उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी। 


        नरदेव! साक्षात् श्रीकृष्‍ण ने वंशी बजाकर हृल्‍लीसक[4] (रास) नामक नृत्‍य का आयोजन किया। 

        _________________    

        कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्‍य वाद्यों को श्रेष्‍ठ अप्‍सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्‍यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्‍सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्‍यात थी।


        अध्याय 90 - यादवों  का खेल (जारी)

        1. वैशम्पायन ने कहा:- कादम्बर मदिरा पीने के कारण बलराम ने स्वयं पर तथा अपनी गतिविधियों पर सारा नियंत्रण खो दिया था और उसकी आँखें लाल हो गई थीं, चंदन से चिपकी हुई बड़ी भुजाओं वाली अत्यंत सुंदर पत्नी रेवती के साथ वे क्रीड़ा करने लगे ।१।

        2. जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा बादलों में चमकता है, वैसे ही काले वस्त्र पहने हुए , चंद्रमा की किरणों के समान गोरे और नशे में डूबी आंखों वाले दिव्य बलराम वहां चमक रहे थे ।२।

        3. अपने बाएं कान पर केवल कुंडल रखकर और सुंदर कमलों से सुशोभित, मुस्कुराते हुए राम ने अपनी प्यारी पत्नी के पार्श्व-लंबाई रूप से सुशोभित चेहरे को बार-बार देखकर अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।

        4. तत्पश्चात कंस और निकुंभ के संहारक केशव की आज्ञा से सुंदर अप्सराएं रेवती और बलराम को देखने के लिए स्वर्ग के समान समृद्ध हल धारक के पास पहुंचीं।

        5. मनमोहक शारीरिक गठन से युक्त उन सुंदर शरीर वाली अप्सराओं ने रेवती और राम को नमस्कार किया और समय के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया। और उनमें से कुछ ने हर प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करने वाले इशारों के साथ गाया।

        6. बलदेव और रेवत के  राजा की पुत्री की आज्ञा के अनुसार उन्होंने यादवों की इच्छा के अनुसार अपने द्वारा अर्जित विभिन्न हाव-भाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया ।

        7. उन दुबली-पतली और सुंदर युवतियों ने यादव देश की स्त्रियों के समान वस्त्र पहनकर उनकी भाषा में मधुर गीत गाए।

        7-14. हे वीर, उस सभा से पहले उन्होंने बलराम और केशव की प्रसन्नता के लिए विभिन्न पवित्र प्रसंग गाए, जैसे कंस, प्रलम्व और चाणूर का विनाश ; जनार्दन को ओखली से बांधने की कहानी जिसके कारण यशोदा ने उनकी महिमा स्थापित की और उन्हें दामोदर नाम मिला ; अरिष्टा और धेनुका का विनाश ; व्रज में उनका निवास ; पूतना का विनाश ; उनके द्वारा यमल और अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना ; कालांतर में उनके द्वारा भेड़ियों की रचना, झील में कृष्ण द्वारा दुष्ट नागों के राजा कलयानाग का दमन ; उस झील से कमल, कुमुद, शंख और निधियों के साथ मधुसूदन की वापसी ; विश्व कल्याण के स्रोत केशव द्वारा गोकुल की भलाई के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण करना ; कैसे कृष्ण ने खुशबूदार चन्द्रन  बेचने वाली कूबड़ वाली महिला को ठीक किया; भगवान के ये वृत्तांत जन्म और अपूर्णताओं से रहित हैं।

        अप्सराओं ने यह भी वर्णन किया कि कैसे भगवान ने, यद्यपि स्वयं बौने नहीं थे, अत्यंत वीभत्स बौना रूप धारण किया; सौभ की हत्या कैसे हुई; इन सभी युद्धों में बलदेव ने अपना हल कैसे उठाया; देवताओं के अन्य शत्रुओं का विनाश; गांधार राजकुमारी के विवाह के समय घमंडी राजाओं के साथ युद्ध ; सुभद्रा का हरण; वलहाका और जमवुमाली के साथ युद्ध ; और कैसे उसने इन्द्र  को हराने के बाद उसकी मौजूदगी में ही सारे गहने हरण लिए ।

        15-16. हे राजन, जब वे सुंदर स्त्रियाँ संगकर्षण और अधोक्षज के लिए इन सभी और विभिन्न अन्य सुखद और आनंददायक विषयों को गा रही थीं , तो अत्यधिक सुंदर बलराम , कादम्बरीवारी  के नशे में, अपनी पत्नी रेवती के साथ मधुर तालियों के साथ गाने लगे ।

        17. राम को इस प्रकार गाते देख बुद्धिमान, उच्चात्मा और अत्यधिक शक्तिशाली मधुसूदन ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सत्य के साथ गाना शुरू किया ।

        18. विश्व के महानतम वीर पार्थ , जो समुद्र-यात्रा के लिये वहाँ आये थे, वह भी प्रसन्न होकर सुन्दर सुभद्रा और कृष्ण के साथ गाने लगे।

        19-20. हे राजन, बुद्धिमान गद , सरण , प्रद्युम्न , साम्ब- , सात्यकि और सत्राजित के पुत्र, महान शक्तिशाली चारुदेष्ण ने भी वहां समवेत स्वर में गाया। बलराम के पुत्र, सबसे महान वीर, राजकुमार निशाथ और उल्मुख, सेनापति अक्रूर , शंख और अन्य प्रमुख भीमकुल के यादवों ने भी वहां गाया।

        21. उस समय, हे राजा, कृष्ण की शक्ति से नावों का आकार बढ़ गया और जनार्दन ने प्रमुख भीमवंशीयों के साथ अपनी पूरी क्षमता से गाना गाया।

        23 हे वीर राजकुमार, जब अमर-तुल्य यदु सरदारों ने इस प्रकार गाया तो सारा संसार हर्ष से भर गया और पाप नष्ट हो गये।

        23 तब मधु के हत्यारे केशव को प्रसन्न करने के लिए देवताओं के अतिथि नारद ने यादवों के बीच ऐसा गाना शुरू किया कि उनकी जटाओं का एक हिस्सा पिघल गया।

        24. हे राजकुमार, अथाह ऊर्जा वाले उस मुनि ने वहां-वहां गीतों की रचना करते हुए उन्हें बार-बार विभिन्न भावों और गतियों के साथ उन्हें  भीम कुल  के यादवों के बीच गाया।

        25 तब राजा रेवत की पुत्री रेवती, बलदेव , केशव, पृथा के पुत्र अर्जुन तथा सुभद्रा को देखकर बुद्धिमान ऋषि बार-बार मुस्कुराये।

        26. हालाँकि केशव की पत्नियाँ स्वभाव से धैर्यवान थीं, फिर भी बुद्धिमान नारद, जो हमेशा मज़ाक करने के शौकीन थे, अपने हाव-भाव, मुस्कुराहट, चाल और कई अन्य तरीकों से जो उनकी हँसी को उत्तेजित कर सकते थे, उन्हें हँसाते थे।

        27. मानो निर्देश दिया गया हो कि दिव्य मुनि नारद ने ऊंचे और नीचे विभिन्न धुनें गाईं और कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह जोर-जोर से हंसने लगे और खुशी के आंसू बहाने लगे।

        28-29. हे राजकुमार, तब इशारों में निपुण युवा युवतियों ने, कृष्ण के आदेश पर, दुनिया के सबसे अच्छे गहने, सुंदर वस्त्र, स्वर्ग में बनी मालाएं, संतानक(पारिजात) फूल, मोती और सभी मौसमों में पैदा होने वाले अन्य फूल दे दिए।

        30. तत्पश्चात् संगीतमय सभा की समाप्ति के बाद दिव्य कृष्ण, महान और अतुलनीय मुनि नारद का हाथ पकड़कर , सत्यभामा और अर्जुन के साथ समुद्र में कूद पड़े ।

        31-32. अतुलनीय पराक्रम वाले अत्यधिक सुंदर कृष्ण ने थोड़ा मुस्कुराते हुए सिनी के पुत्र से कहा- "आइए हम दो दलों में बंट जाएं और युवतियों के साथ समुद्र के पानी में खेलें। समुद्र के इस पानी में बलदेव और रेवती को साथ रहने दें मेरे बेटे और कुछ भीमवंशी यादव एक पार्टी बनाते हैं और बचे हुए भीमवंशी और बलराम के बेटों को मेरी पार्टी में शामिल होने देते हैं।"

        33. बाद में अत्यधिक आश्वस्त केशव ने हाथ जोड़कर सामने खड़े समुद्र से कहा:- "समुद्र, तुम्हारा पानी मीठा हो और घतक मगर आदि से रहित हो।

        34. तेरा बिछौना  (समुद्र तल) रत्नों से सुशोभित हो, और तेरे किनारे दोनों पांवों के सुखपूर्वक स्पर्श के योग्य हों। और आप, मेरी शक्ति से, वह सब कुछ दे सकें जो आप मानव जाति के स्वाद के अनुकूल जानते हैं।

        35. तू मनुष्यों को मनभावन सब प्रकार का पेय दे, और सोने, नीलमणि और मोतियों से सजी हुई कोमल मछलियां तेरे जल में तैरें।

        36. आप रत्नों, सुगन्धित, मनमोहक, लाल कमलों और मधुर स्पर्श वाले कुमुदिनों को धारण करें और मधुमक्खियों से सेवित हों।

        ______    

        37. क्या आपके पास असंख्य घड़े और सोने के बर्तन हैं, जिनमें से भैमस मैरेया , माधविका और आसव आदि  मदिरा हों तो उन्हें पेश करो

        38. हे सागर, तुम्हार जल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित ठंडा हो। आप इतना सावधान रहें कि यादवों को अपनी स्त्रियों के साथ कोई असुविधा न हो।

        39 हे राजन, समुद्र से ऐसा कहकर कृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। सत्राजित की पुत्री, जो कृष्ण द्वारा दिए गए संकेतों में पारंगत थी, ने नारद के शरीर पर जल छिड़का।

        40. तब राम ने नशे में डूबे अपने शरीर को उत्तेजना पूर्वक अपने हाथों से रेवती के हाथों से पकड़ लिया और खेल-खेल में समुद्र के पानी में कूद पड़े।

        41-42. राम के पीछे कृष्ण के चंचल पुत्र, नशे में आँखें घुमाते हुए और अन्य प्रमुख भीमवंशी, अपने वस्त्र, और आभूषणों से वंचित होकर, खुशी से समुद्र में कूद पड़े।

        निशत, उल्मुक और बलदेव के अन्य पुत्र अपने गले में संतानक फूलों की माला पहने हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, नशे में धुत और खेल-कूद में व्यस्त थे, साथ ही शेष भीमवंशी भी केशव की सभा में शामिल हो गए।

        43. शक्तिशाली यादव, जिनके चेहरे पर सुंदर निशान और लेप थे, अपने हाथों में मदिरा के पात्र लेकर, मधुर धुनों वाले गीत गाने लगे और उस स्थान के लिए सुंदर रूप से अनुकूल थे।

        44 तदनन्तर संगीत में रुचि रखने वाली, सजी-धजी सैकड़ों युवतियाँ, दिव्यलोक में रहने वाली अप्सराओं के साथ मिलकर विभिन्न स्वर बजाने लगीं।

        45. वे युवा युवतियाँ, जो अलौकिक गंगा के जल में वाद्ययंत्र बजाने में पारंगत थीं , और जिनका मन पूरी तरह से कामदेव के वश में था, प्रसन्नतापूर्वक   जलदर्दुर[1] बजाती थीं और उसके साथ गीत गाती थीं।

        46. ​​उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाली और कमल के डंठलों से सुशोभित सुंदर दिव्य नृत्य करने वाली लड़कियाँ सूर्य की किरणों से उड़े हुए कमल के समान शोभा पा रही थीं।

        47. हे राजा, सैकड़ों पूर्णिमा के चंद्रमाओं के समान दिखने वाली उन महिलाओं के चंद्रमा जैसे चेहरों से भरा हुआ, या तो अपनी इच्छा से या विधि के आदेश के तहत वहां जा रहा थे , समुद्र हजारों चंद्रमाओं से सुशोभित आकाश की तरह दिखाई दे रहा था।

        48 हे राजन, मेघरूपी समुद्र स्त्री के समान प्रकाश से सुशोभित हुआ। जल के स्वामी आकाश में बिजली से छितरे हुए बादलों के समान प्रकट हुए।

        49. इसके बाद नारायण , जिन्होंने अपने शरीर पर सुंदर निशान लगाए थे, नारद और उनकी सभा के अन्य सदस्यों ने बलदेव और उनकी सभा पर पानी छिड़का, जिन्होंने भी सुंदर निशान लगाए थे। और बाद वाले ने भी पहले वाले पर पानी छिड़का।

        50. उस समय कृष्ण और संकर्षण की पत्नियाँ वारुणी मदिरा के नशे में चूर होकर और संगीत के साथ प्रसन्न होकर हाथों और जलयंत्रों से एक दूसरे पर पानी फेंकती थीं।

        51. शराब, कामदेव और स्वाभिमान से युक्त, नशे से लाल आंखों वाले भीमवंशी एक-दूसरे पर पानी फेंकते थे और इस तरह महिलाओं की उपस्थिति के सामने कठोर रवैया अपनाते थे: 

        हालांकि वे एक के लिए खेल रहे थे, वे बाज नहीं आए  लंबे समय तक भी।

        52. इस प्रकार उनके परिचित कामक्रीडा को देखकर, चक्रधारी कृष्ण ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने भी पार्थ और नारद के साथ जल में वाद्ययंत्र बजाने से परहेज किया।

        53. भीमवंशी यादव, जो हमेशा अपनी प्रिय महिलाओं को प्रसन्न करते थे, हालांकि वे अत्यधिक संवेदनशील थे, जैसे ही उन्होंने संकेत दिया, तुरंत कृष्ण के इरादे को समझ गए और पानी में खेलना बंद कर दिया: लेकिन युवतियों ने नृत्य करना जारी रखा।

        54. नाच पार्टी समाप्त होने के बाद जब अन्य यादव पानी में थे तब भी उपेन्द्र किनारे पर आ गये। इसके बाद उन्होंने नारद को श्रेष्ठ मुनि बनने का अवसर दिया और बाद में स्वयं भी उनका अंग बन गये।

        55. फिर उपेन्द्र को जल से बाहर निकलता देख अतुलनीय भींमो ने शीघ्र ही जल छोड़ दिया। फिर वे अपने शरीर को दूबों से शुद्ध करके, कृष्ण की अनुमति से, शाराब के स्थान में चले गए।

        56 उन सुप्रसिद्ध वीरों ने अपनी-अपनी आयु तथा स्थिति के अनुसार क्रम से बैठकर नाना प्रकार के भोजन तथा पेय पदार्थों से स्वयं को तरोताजा किया।

        57. तब रसोइये बड़े आनन्द से पके हुए मांस, सिरके, अनार और लोहे की छड़ों पर भुना हुआ पशुओं का मांस ले आए।

        58. फिर एक युवा भैंस को डंडे पर अच्छी तरह से भूनकर, गर्म करके, घी में भिगोकर, सिरका, सोचल नमक और एसिड मिलाकर परोसा गया।

        59. बहुत से मोटे हिरणों का मांस कुशल पकाने की विधि के अनुसार भूनकर, और सिरके में मीठा करके लाया गया।

        60. जानवरों की टाँगें, नमक और सरसों के साथ मिलाकर और घी में तलकर भी परोसी जाती थीं।

        61. अतुलनीय यादवों ने अरुम कैम्पैनुलटम की जड़ों, अनार, नींबू, हींग, जिंजरेड और अन्य सुगंधित सब्जियों वाले उन व्यंजनों को बड़े आनंद से खाया। फिर उन्होंने सुंदर प्यालों में शराब पी।

        62. वे अपनी प्रिय युवतियों के साथ घिरे रहकर मैरेया, माधविका और आसव जैसी विभिन्न मदिरा पीते थे, जो पक्षियों के मांस को मक्खन, अम्ल रस, नमक और खट्टी चीजों के साथ भूनकर तैयार की जाती थी।

        63. उन्होंने अन्य व्यंजन, सफेद और लाल रंग के विभिन्न सुगंधित नमकीन खाद्य पदार्थ, दही और घी से बनी चीजें भी खाईं।

        64. हे राजा, उद्धव , भोज और अन्य वीर, जो शराब नहीं पीते थे, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब्जियाँ, सब्जी-करी, केक, दही और हलवा लिया।

        65. पलावी नामक पीने के बर्तन से, वे विभिन्न सुगंधित पेय, दूध और चीनी के साथ मक्खन पीते थे और विभिन्न प्रकार के फल लेते थे।

        66. इस प्रकार वीर भीमों ने भरपेट भोजन करके प्रसन्न हो गये। बाद में, वे, अपनी पत्नियों को अपने साथियों के रूप में रखते हुए, अपनी पत्नियों द्वारा शुरू किए गए आनंद के साथ फिर से संगीत में शामिल हो गए।

        67. इसके बाद जब रात होने लगी तो दिव्य उपेन्द्र ने सभा में उपस्थित सभी लोगों से गाना जारी रखने के लिए कहा। 

        देवताओं और गंधर्वों द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न सुरों के (छालिक्य) ।

        68-72. हे राजन, तब नारद ने अपनी वीणा बजाना शुरू किया जो छह ताल और रागों के साथ [2] मन की एकाग्रता लाती है, कृष्ण ने अपनी बांसुरी के संगीत के साथ हल्लीसक नृत्य करना जारी रखा और पार्थ ने अपने मृदंग को बजाना शुरू किया। : [

        4] अन्य प्रमुख अप्सराएँ विभिन्न अन्य वाद्ययंत्र बजाती थीं। इसके बाद असरिता के बाद , सुंदर रंभा , एक चतुर अभिनेत्री, उठी, उसने अभिनय किया और बलराम और केशव को प्रसन्न किया। तदनन्तर, हे राजन , सुंदर और विशाल नेत्रों वाली उर्वशी , हेमा , मिश्रकेशी , तिलोत्तमा , मेनका और अन्य दिव्य अभिनेत्रियाँ क्रम से उठीं और गायन और नृत्य से हरि को प्रसन्न किया।

         उनके मनमोहक गायन और नृत्य से आकर्षित होकर वासुदेव ने उन सभी को उनके मन के अनुरूप उपहार देकर प्रसन्न किया। 

        हे राजकुमार, उन सम्मानित और प्रमुख अप्सराओं को, जिन्हें वहां लाया गया था, कृष्ण की इच्छा पर पान के पत्तों से  ( वीड़ो)सम्मानित किया गया था।

        73-74. हे राजा, इस प्रकार विभिन्न सुगंधित फल और  छालिक्य गीत, जो कृष्ण की इच्छा और मानव जाति के प्रति उनके उपकार से दिव्य क्षेत्र से स्वर्ग से लाए गए थे, केवल रुक्मिणी के बुद्धिमान पुत्र को ही ज्ञात थे। वही उनका उपयोग कर सकता था और वही उस समय पान बांटता था।

        75-76.  छालिक्य गीत, नारायण के कल्याण, पोषण और समृद्धि के लिए अनुकूल, गौरवशाली कर्मों का, और जो मानव जाति के लिए महान, शुभ और प्रसिद्धि और धर्मपरायणता का उत्पादक था, इंद्र जैसे कृष्ण, राम, प्रद्युम्न द्वारा समवेत स्वर में गाया गया था। अनुविन्ध और शम्वा।

        77-78. यह छालिक्य, जो वहाँ गाया जाता था, पुण्य की धुरी धारण करने में समर्थ तथा दु:ख और पाप का नाश करने वाला था। दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करते हुए और इस चालिक्य गीत को सुनकर प्रतापी राजा रेवत ने चार हजार युगों को एक दिन के रूप में माना।इससे कुमारजाति आदि गंधर्वों के विभिन्न प्रभागों की उत्पत्ति हुई ।

        79. हे राजन, जैसे एक ही प्रकाश से सैकड़ों दीप उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार छालिक्य से गंधर्वों की विभिन्न श्रेणियां उत्पन्न हुई हैं। हे राजन, प्रद्युम्न और अन्य प्रमुख भीमों के साथ कृष्ण और नारद यह सब जानते थे।

        80-81. झरनों और समुद्र के पानी की तरह इस दुनिया के लोग छालिक्य को केवल दृष्टांत से जानते थे। मुरकाना [5] और चालिक्य के समय को जानने के लिए कठोर तपस्या किए बिना हिमालय के गुणों और वजन को जानना संभव है , लेकिन ऐसा नहीं है ।

        82-83. हे राजा, छह तराजू और राग पुरुषों के साथ छालिक्य का क्या, बड़ी कठिनाई के साथ, सुकुमारजति के ग्यारहवें मंडल के अंत तक भी नहीं आ सकता है । हे राजन, यह निश्चित रूप से जान लें कि मधुसूदन ऐसी व्यवस्था की थी कि देवता, गंधर्व और महान ऋषि छालिक्य के गुणों के कारण भक्ति भावना प्राप्त कर सकें।

        84-88. भगवान द्वारा, मनुष्यों में, कृष्ण द्वारा, दुनिया पर उपकार दिखाने के लिए भैमों से पहले गाए जाने के कारण, चालिक्य, जिसे केवल अमर लोगों द्वारा गाया जाता था, ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है,

         जिसे पहले उत्सव के अवसर पर भीम लड़के इस्तेमाल करते थे इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत करने के लिए। और बड़े-बूढ़े उनकी बात का अनुमोदन करते थे और लड़के, जवान और बूढ़े उसे समवेत स्वर में गाते थे। "प्यार ही कसौटी है, उम्र नहीं" - मनुष्यों को उनकी जाति के इस गुण की याद दिलाने के लिए, प्राचीन धार्मिक संस्कारों के संचालक वीर यादवों ने मनुष्यों की भूमि में ऐसा किया। 

        हे राजन, मित्रता प्रेम से जानी जाती है, इसलिए प्रेम को सामने रखते हुए, केशव को छोड़कर अन्य वृष्णि , अंधक और दशार्ह अपने पुत्रों के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तत्पश्चात प्रसन्न होकर कंस के हत्यारे मधुसूदन को नमस्कार करते हुए, संतुष्ट अप्सराएँ दिव्य क्षेत्र में लौट आईं, जो भी (तदनुसार) खुशी से भरा हुआ था।

        फ़ुटनोट और संदर्भ:

        [1] :

        पानी में बजाया जाने वाला एक प्रकार का वाद्ययंत्र।

        [2] :

        संगीत की एक विधा जिसमें से छह की गणना की जाती है। भैरव , मालव सारंगा , हिंडोला , वसंत , दीपका और मेघा : वे काव्य और पौराणिक कथाओं में चित्रित हैं ।

        [3] :

        मुख्य रूप से एक पुरुष और आठ या दस महिला कलाकारों द्वारा गायन और नृत्य का एक छोटा नाटकीय मनोरंजन , एक बैले।

        [4] :

        एक प्रकार का वाद्य यंत्र।

        [5] :

        एक स्वर या अर्धस्वर जो उसके पैमाने में रखा जाता है, ग्राम या पैमाने का सातवाँ भाग।


        हरिवंशपुराण- हरिवंश का स्वरूप, हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड 


        महाभारत के खिल पर्व होने के कारण हरिवंश की आलोचना अब प्रसंग प्राप्त है। हरिवंश में श्लोकों की संख्या सोलह हजार तीन सौ चौहत्तर (16, 374 श्लोक ) श्रीमद्भागवत की श्लोक संख्या से कुछ ही अधिक है।

        डॉ० विन्टरनित्स के कथनानुसार यूनानी कवि होमर के दोनों महाकाव्यों 'इलियड' और 'ओडिसी' की सम्मिलित संख्या से भी यह अधिक है, परन्तु यह एक लेखक की रचना न होकर अनेक लेखकों के संयुक्त प्रयास का फल है। 

        हरिवंश का अन्तिम पर्व (ग्रन्थ का तृतीय भाग) तो परिशिष्ट भूत हरिवंश का भी परिशिष्ट है और काल क्रम से सबसे पीछे का निर्मित भाग है। 

        हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड हैं

        (क) हरिवंश पर्व

         कृष्ण के वंश वृष्णि-अन्धक की कथा विस्तार से दी गयी है और इस आदिम पर्व के वर्णन के अनन्तर राजा पृथु की कथा विस्तार से दी गयी है ।

        सूर्यवंशीय राजाओं के प्रसंग में विश्वामित्र तथा वसिष्ठ का भी आख्यान वर्णित है। प्रसंग से पृथक् हटकर प्रेतकल्प ( अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध) का वर्णन नौ अध्यायों में (अध्याय- 16-24) विस्तार से निबद्ध है और इसी के अन्तर्गत 21 वें अध्याय में पशुओं की बोली को समझने-बूझने वाले ब्रह्मदत्त की कथा दी गई है चन्द्रवंशीय राजाओं के वर्णन के अवसर पर राजा पुरूरवा और उर्वशी का प्रख्यान से समानता रखता है (अ0 26) । नहुष, ययाति तथा यदु के वर्णन के पश्चात् विष्णु की अनेक स्तुतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जो एक प्रकार से कृष्ण के पूर्व दैवी इतिहास का परिचय देती हैं।


        (ख) विष्णुपर्व -

        यह समय ग्रन्थ का अतिशय विस्तृत तथा महनीय भाग है। इसमें कृष्णचन्द्र की विविध लीलाओं का, विशेषत: बाललीलाओं का बड़ा ही सांगोपांग रूचिर विवरण है श्रीमद्भागवत के वर्णन से तुलना करने पर अनेक स्थल पर पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं अन्य घटनायें भी दी गयी हैं। 

        कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जन्म, शंबर द्वारा हरण, समुद्र से प्राप्ति तथा मायावती के साथ विवाह आदि प्रख्यात कथाओं का यहाँ उल्लेख है, परन्तु असुरों के राजा वज्रनाभ की दुहिता प्रभावती के साथ प्रद्युम्न का विवाह और वह भी नितान्त नाटकीय ढंग से एकदम नूतन तथा पर्याप्तरूपेण रोचक है (150 अध्याय)। 


        इसी प्रकार प्रख्यात रासलीला का हल्लीसक नृत्य के रूप में निर्देश किसी प्राचीन युग की स्मृति दिलाता है। इस पर्व के अन्त में अनिरूद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा के साथ बड़े उमंग और उत्साह से वर्णित है और इससे पूर्व 'हरि-हरात्मक स्तव' (अध्याय- 184) द्वारा शिव और विष्णु की एक ही अभिन्न देवता के रूप में सुन्दर स्तुति की गई है। इस पर्व में विषय की एकता और वर्णन की संगति से प्रतीत होता है कि प्राचीन युग में ‘श्रीकृष्ण चरित काव्य' के साथ यह अंश सम्बन्ध रखता है, परन्तु तृतीय भाग के विषय में किसी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती।


        (ग) भाविष्यपर्व- 

        यह भाग विविध वृत्तों का पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध संकलन है। इस पर्व का नामकरण प्रथम अध्याय के नाम पर है, जहाँ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत किया गया है। जनमेजय द्वारा विहित यज्ञों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है (अ) 191-196) । विष्णु के सूकर, नृसिहं तथा वामन अवतारों के वर्णन के अनन्तर शिवपूजा तथा विष्णु पूजा के समन्वय की दिशा दिखाई गई है। शिव के दो उपासक हंस तथा डिम्भक की कथा विस्तार से है, जिन्हे कृष्ण ने पराजित किया था। महाभारत के माहात्म्य वर्णन के पश्चात् समग्र हरिवंश का ध्येय हरि की स्तुति में प्रदर्शित किया गया है-

        ‘आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।

        हरिवंश का स्वरूप

         

        एक ओर हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट (खिल) माना जाता है और दूसरी ओर यह ‘पुराण' नाम से भी अभिहित होता है। इसके पोषक प्रमाणों की कमी नहीं है-

        (1) महाभारत के आरम्भ में ग्रन्थ के समग्र पर्वो की संख्या एक सौ परिगणित है (आदि अ0 2) और इसके भीतर हरिवंश भी सम्मिलित किया गया है (आदि 2/82-83)। ध्यान देने की बात तो यह है कि हरिवंश 'खिलसंज्ञित पुराण' कहा गया है। (हरिवंशसततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्)। फलत: व्यास की दृष्टि में खिल और पुराण दोनों साथ-साथ होने में कोई वैषम्य नहीं है।

        ( 2 ) हरिवंश के 20 वें अध्याय में 'यथा ते कथितं पूर्व मया राजर्षिसत्तम' के द्वारा याति के चरित की महाभारत में पूर्व स्थिति का स्पष्ट निर्देश है (आदिपर्व अ0 81-88)।

         

        (3) हरिवंश के 32 वें अध्याय में अदृश्यवाणी का कथन 'त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला' के द्वारा महाभारत में शकुन्तलोपाख्यान की ओर स्पष्ट संकेत है तथा 54 अध्याय में कणिक मुनि महाभारत में कणिक मुनि की पूर्व स्थिति बतलाता है (आदिपर्व अ0 140 ) ।

         

        (4) हरिवंश का उपक्रम तथा उपसंहार बतलाता है कि हरिवंश महाभारत का ही परस्पर सम्बद्ध खिल पर्व है। उपक्रमाध्याय में भारती कथा सुनने के बाद वृष्णि अन्धक चरित सुनने की इच्छा शौनक ने सौति से जो प्रकट की वह दोनों के सम सम्बन्ध का सूचक है। हरिवंश के 132 वें अध्याय में महाभारत के कथाश्रवण का फल है, जिस कथन की संगति हरिवंश के महाभारत के अन्तर्गत मानने पर ही बैठ सकती है, अन्यथा नहीं ।

        (5) बहिरंग प्रमाणों में आनन्दवर्धन का यह कथन साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि महाभारत के अन्त में हरिवंश के वर्णन से समाप्ति करने वाले व्यासजी ने शान्तरस को ही ग्रन्थ का मुख्य रस व्यन्जना के द्वारा अभिव्यक्त किया है। '

        फलत: हरिवंश महाभारत का 'खिल' पर्व है। साथ ही साथ पञ्च लक्षण से समन्वित होने से यह 'पुराण' नाम्ना भी अभिहित किया जाता है, परन्तु न तो यह महापुराणों में अन्तर्भूत होता है और न उपपुराणों में दोनों से इसकी विशिष्टता पृथक् ही है।

        हरिवंश का कालनिर्णय

        हरिवंश के कालनिर्माण तथा महाभारत के साथ सम्बद्ध होने के काल का निर्णय प्रमाणों द्वारा किया जा सकता है-

        (क) हरिवंश के साथ सम्मिलित होकर लक्ष श्लोकात्मक रूप धारण करने वाला महाभारत ‘शत साहस्री संहिता' के नाम से (454) ईस्वी के गुप्त शिलालेख में उल्लिखित है। 

        (ख) अश्वघोष (प्रथमशती) ने अपने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के 'प्रेतकल्प' प्रकरण से ‘सप्तव्याधा दशार्णेषु’ (हरिवंश 24/20, 21) इत्यादि श्लोकों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः हरिवंश की रचना प्रथमशती से अर्वाचीन नहीं हो सकती।

        (ग) हरिवंश (विष्णु पर्व 55/50) में 'दीनार' का उल्लेख उसके रचनाकाल का द्योतक है। रोम साम्राज्य के सोने के सिक्के 'दिनारियस' कहलाते थे और उसी शब्द का संस्कृत रूप दीनार' है। इस शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग प्रथमशती के शिलालेखों में उपलब्ध होता है।

        (घ) हरिवंश के एक श्लोक में शुंगब्राह्मण राज्य के संस्थापक पुष्यमित्रशुंग द्वारा यज्ञ का उल्लेख भविष्य में होनेवाली घटना के रूप में निर्दिष्ट किया गया है

        उपात्तयज्ञो देवेसु ब्राह्मणेषुपपत्स्यते । ‘औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपो द्विजः । अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति । (हरिवंश 3 /2/39-40 )


        यह तो प्रसिद्ध ही है कि ब्राह्मण सेनापति पुष्पमित्र ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया था, जिनमें महाभाष्य के रचयिता पतञलि स्वयं ऋत्विक् रूप से उपस्थित थे। 'इह पुष्पमित्रं याजयाम:'-महाभाष्य । पुष्पमित्र ने लगभग 36 वर्षो तक राज्य किया (लगभग ईस्वी पूर्व 187-151) और आरम्भ में वे मौर्य सम्राट् के सेनापति था। इसी प्रसिद्ध सेनानी का निर्देश इस श्लोक में है। फलत: हरिवंश का रचनाकाल इससे पूर्व नहीं, तो इसके कुछ ही पश्चात् होना चाहिए। 

        अतएव 'हरिवंश' का निर्माण काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में मानना सर्वथा सुसंगत होगा | 

        हरिवंश का धार्मिक महत्व सर्वत्र प्रख्यात है । सन्तान के इच्छुक व्यक्तियों के लिये 'हरिवंश' के विधिवत् श्रवण का विधान लोक प्रचलित है। शपथ खाने के लिए पुरूषों के हाथ पर हरिवंश की पोथी रखने का प्रचलन नेपाल में उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी मुसलमान के हाथ पर कुरान रखने का . 

        श्रीकृष्ण के चरित के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हरिवंश के विष्णुपर्व का परिशीलन नितान्त आवश्यक है। प्राचीन भारत की ललित कलाओं के विषय में हरिवंश बहुत ही उपादेय सामग्री प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारत में नाटक के अभिनय प्रकार की जानकारी के लिए यहाँ उपादेय तथ्यों का संकलन है। 

        सबसे महत्वपूर्ण है हरिवंश में राजनैतिक इतिहास का वर्णन, जो किसी भी प्राचीन पुराण के वर्णन से उपादेयता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार न्यून नहीं है फलतः प्रथम शती में भारती संस्कृति की रूपरेखा जानने के लिए हरिवंश' हमारा विश्वनीय मार्गदर्शक है।



        इस प्रकार उन लोगों ने अपने रहने के लिये नगर और अन्य आवास बनाये; उन्होंने कई जोड़ों के लिए घर बनाएरहने के लिए। जैसे पेड़ उनके पहले प्रकार के घर थे, वैसे ही, उन सभी को याद करके, उन लोगों ने अपने घर बनाए। जैसे किसी पेड़ की कुछ शाखाएँ एक दिशा में जाती हैं, और कुछ दूसरी दिशा में जाती हैं, और कुछ ऊपर की ओर उठती हैं और कुछ नीचे की ओर झुकती हैं, वैसे ही उन्होंने अपने घरों में शाखाएँ बनाईं । हे ब्राह्मण, वे शाखाएँ, जो पहले कल्प वृक्ष की शाखाएँ थीं, परिणामस्वरूप उन लोगों के बीच घरों में कमरे बन गईं।



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