📚: जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णोऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीलेत्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ।१८।
अर्थ:- जाति से वह गोप निश्चय ही काले रंग का जिसके पास न धन है, न वीरता, और नाही शील रूप है। उससे तुम प्रेम करती हो सुशीले राधे ! उस निर्मोहन कृष्ण को शीघ्र ही त्याग दो।।१८।।
"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं। इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
प्रसंग :-जब एक बार स्वयं भगवान कृष्ण ने राधा जी की परीक्षा एक गोपदेवि का रूप धारण करके के ली तो राधा ने गोप जाति की श्रेष्ठता के विषय में कहा था।
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 18
गोपदेवी ने कहा- राधे ! वरसानुगिरि की घाटियों में जो मनोहर सँकरी गली है, उसी से होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतने में नन्द जी के नवतरूण कुमार श्यामसुन्दर ने मुझे मार्ग में रोक लिया। उनके हाथ में वंशी और बेंत की छड़ी थी। उन रसिकशेखर ने लाज को तिलांजलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकांत वन में वे इस प्रकार कहने लगे- ‘सुन्दरी ! मैं कर लेने वाला हूँ। अत: तू मुझे करके रूप में दही का दान दे।’ मैंने कहा- ‘चलो, हटो। अपने-आप कर लेने वाले बने हुए तुम- जैसे गोरस-लम्पट को मैं कदापि दान नहीं दूँगी।’ मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिर पर से दही का मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला। मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरि की ईशान कोण वाली दिशा की ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ।
"जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णोऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीलेत्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ।१८।
अनुवाद;-
"जात का ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान, न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले! ऐसे पुरुष के प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आज से शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्ण को मन से निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो)।
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इस प्रकार वैर भाव से युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा को बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदों के प्रयोग के सम्बन्ध में सरस्वती के चरणों का स्मरण करती हुई उनसे बोलीं।
श्रीराधा ने कहा- सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योग रीति से पंचाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अंगिरा आदि ऋषि भी जिनके चरणाविन्दों के मकरन्द और पराग का सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजनदु:खहारी, भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याण के लिये यहाँ प्रकट हुए आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ?
हे सखि! तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
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तुम उसे काला-कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की श्याम-विभा से विलसित सुन्दर कला का दर्शन करके उन्हीं में मन लग जाने के कारण भगवान नीलकण्ठ औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटे के लिये ही पागलों की भाँति व्रज में दौड़ते फिरते हैं !
📚: शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"
(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह गोलोक से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति श्रृँगाल ने कहा :-
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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{ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय}
पुरोहितों ने यादवों को गोपालन कारण वैश्य कहा यह पूर्वदुराग्रह ही है।
📚:
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यशोदा जी के माता और पिता के नाम वर्णन-
(ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्णजन्मखण्ड अध्याय- 13)
"श्रीगर्ग उवाच।
"सुधामयं ते वचनं लौकिकं च कुलोचितम् ।
यस्य यत्र कुले जन्म स एव तादृशो भवेत्।३७।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती।३८।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।३९।
नन्दो यस्त्वं च या भद्रे बालो यो येन वा गतः। जानामि निर्जने सर्वं वक्ष्यामि नंदसन्निधिम्।
अनुवाद - •-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में बलराम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नन्द जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप/सुमुख है।
और माता का नाम पद्मावती सती हैैं तुम नन्द जी को पति रूप में पाकर कृतकृत्य हो गईं हो !
(ब्रह्म वैवर्त पुराण 4.13.४०)
लिंगपुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे:- १आयु: २मायु: ३अमायु: ४विश्वायु: ५श्रुतायु: ६शतायु: और ७दिव्य: ये सात पुत्र थे ।
आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष इनका ज्येष्ठ पुत्र था नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए।
(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन इस प्रकार है ) 👇
पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी (चन्द्रवंशी) हैं )।
परन्तु यादवों के सनातन शत्रु कुछ पुरोहितों ने यादवों वंशमूल को ही काटने का दुष्प्रयास किया है।
श्रूयते हि पुरा सौम्यकर्दमस्य प्रजापतेः।
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमान्-इलो नाम महाशयाः।उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 3)
हे सज्जन! ऐसा सुना जाता है कि पूर्व में अत्यंत पुण्यात्मा और सौम्य ( इला,) नाम से प्रजापति कर्दम के पुत्र, बाहलिका प्रांत में राज्य करते थे।
इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया,(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 29)
वाल्मीकि-रामायण कार ने तो हद ही कर दी नहुष को आयुष् के स्थान पर सूर्यशी राजा अम्बरीष से उत्पन कर दिया है।
जैसे -वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में इसका वर्णन है कि नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे
जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष के पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था)।
वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में इसका वर्णन है 👇
(वाल्मकि रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें ) ____________________________________
अनुवाद :--अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए । और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।
यादवों के इतिहास को नष्ट करने का षड्यंत्र वैदिक काल से ही कुछ पुरोहित वंश परम्परागत रूप से करते रहे हैं।
ययाति के पुत्र नाभाग से अज उत्पन्न कर दिए जो दशरथ के पिता और राम के पितामह थे।
सम्भव हो ये सब सूर्य वंश के अन्तर्गत हों परन्तु यादवों का आदि पूर्वज बुध और इला (पृथ्वी) की पारस्परिक जीवन शक्तियों उत्पन्न पुरुरवा गोप( गोष:) है।
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यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की भी चेष्टा की।
उपरोक्त श्लोकों में नभगपुत्र नाभाग का वर्णन है ।
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातर: कविम्।
यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्।।१।
मनु पुत्र नभग के पुत्र नाभाग का वर्णन है । जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)
(परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी हुए थे ) क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था। यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था । इसी की नकल करके बहुत से वंशावली पात्र सूर्यवंशी रूप में रचे गये।
कृष्ण से लेकर जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण श्रोतों के रूप में आप्तों पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे।
इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।
यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है। दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी निरन्तर सक्रिय रहे ।
विश्व- इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।
द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है ।
तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का भी निर्वहन किया इस लिए गोपों को ब्राह्मण व्यवस्था के किसी एक वर्ण में नहीं बाँधा जा सकता है।
नन्द के जीवन की ऐतिहासिकता को उद्धृत करते हुए भागवत पुराण के दशम स्कन्धअध्याय एक की टीका करते हुए वंशीधर नामक टीकाकार ने टीका की है " देखें श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४) नीचें
स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश ।
"अर्थ"-"जो निश्चय ही अपने गुणों से स्वजनों को वश में करने वाली, और यश देने वाली थीं।
सुनने वालों के द्वारा और देखने वालों के द्वारा और भक्ति करनेवालों के द्वारा उसके क्या कहने! दूसरे शब्दों देखने सुनने वालों के द्वारा यशोदा की नाम और गुण के आधार सार्थकता सिद्ध हेतु इन लोगों द्वारा प्रशंसा की गयी ।
जब यशोदा का आगमन पर्जन्य के घर पुत्रवधू के रूप में हुआ; तो पर्जन्य की सभी सन्तानों (अपत्यों) में ही सुख सम्पदा वृद्धि हुई थी।
(और एक पिता के लिए इससे बढ़़कर क्या उपलब्धि थी अर्थात् यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।यशोदा नन्द के घर आने पर सब लोग आनन्दित थे। और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके प्रभु के चरण-कमलों में ध्यान लगाने वाले हो गये और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढ़ाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया।
उस सभा में उपनन्द के द्वारा मझले अर्थात् अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था ; उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में ही नियुक्त कर दिया।
तब संकोच करते हुए नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये।
अर्थात राजपद करते समय नन्द थोड़ा संकोच करने लगे। स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं ; यह कहते हुए तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की । और उसके बाद पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए उस सभा को सम्पन्न कर; वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
"अर्थ"- उस काल में ही शास्त्रों के सार का पर्जन्य ने अपने सभी पुत्रों को उपदेश दिया ।
जीवन में भय का मूल कौनसा अदृश्य तत्व है; हरि के भक्त किसकी प्रार्थना अथवा भक्ति करे ? कि उनका संसार भय से निवारण हो। और सुखी होने के लिए किस प्रकार प्रेम भाव की तत्परता है हो आदि ।आध्यात्मिक और भक्ति मूलक सिद्धान्तों की पर्जन्य जी द्वारा व्याख्या की गयी। इस प्रकार के पर्जन्य के द्वारा उपदेश - काल में श्रीमान उपनन्द और "श्रीमान नन्द आदि सभी व्रज मण्डल की सभा में मन्त्रियों के साथ खड़े हुए थे । और उस नन्द के राज्य में गोलोक के स्वामी अर्थात श्रीकृष्ण के षोडांशी रूप विष्णु ने पर्जन्य के द्वादशी व्रत की चर्या (साधना) से प्रसन्न होकर पर्जन्य को पुत्ररत्न के रूप में इन उपनन्द' नन्द आदि पुत्रों को प्राप्त कराया।
इस प्रकार यह नन्द का सम्पूर्ण परिवार ( समुदाय/ कुल ) वास्तव में यदुवंश का ही रूप है।
दूसरे शब्दों नन्द का कुल यदुवंश से सम्बन्धित था ।(इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति)।
संक्षेप में नन्द गोप कृष्ण क रक्तसम्बन्धी थे। अथवा सनाभि थे -एक ही पूर्वज से उत्पन्न पुरुष। सपिंड पुरुष
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सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पर आधारित वंशीधरी टीका दशम् स्कन्द पूर्वार्द्ध प्रथम अध्याय- पृष्ठ संख्या -१६२५)
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गोपों की वीरता और शूरता के शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।।
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ; जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय) अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा, पराक्रमी कारकाश , कलिंग, सिंहल , पराच्य, (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।
शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ । विशेष:- कुछ अनुवादक शूराभीर" में शूर+आभीर= दीर्घ सन्धि के रूप में शूराभीर पद का अर्थ शूर या वीर अहीर करते हैं वह भी अहीरों( गोपों) की वीरता को सूचित करता है।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)
महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर भी गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है। देखे निम्नलिखित श्लोक-
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व उनके वीरत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।
ये गोप अथवा आभीर लोग ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में नहीं हैं।
कृष्ण ने भी क्षत्रिय शब्द का अभिधा शब्द शक्ति परक अर्थ ग्रहण किया है। इस विषय में हम श्रीमद्भगवद्गीता का सन्दर्भ देते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी कृष्ण कहते है-
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।
अनुवाद:-
शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजाके संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ दिखाकर पलायन न करना, दान करना और शासन करने का भाव -- ये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। अर्थात जिस किसी के स्वभाव में ये कर्म हैं वही क्षत्रिय है।
क्षत्रिय' शब्द का उद्गम "क्षत्र" से है जिसका अर्थ विनाश से बचाने वाले केअर्थ में है।,
रघुवंशम् महाकाव्य में राजा दिलीप, सिंह से कहते हैं-
रघुवंश महाकाव्य में महाकवि कालिदास ने क्षत्रिय शब्द की मूल व्युत्पत्ति की है।
अर्थ - क्षत्रिय शब्द की संसार में प्रचलित जो व्युत्पत्ति है वह निश्चित ही 'क्षत् अर्थात् नाश से जो बचावे' (क्षतात् त्रायते) वह क्षत्त्र या क्षत्रिय है। अतः उस क्षत्र शब्द से विपरीत वृत्ति वाले अर्थात नाश से रक्षा न करने वाले पुरुष के राज्य और अपकीर्ति से मलिन हुए प्राण ये दोनों व्यर्थ हैं।
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प्रारम्भिक ऋगवेदिक आदिम जाति मुख्यधारा
ऋग्वैदिक कालीन शासन प्रणाली में सम्पूर्ण कबीले का प्रमुख "राजन" कहलाता था व राजन की पदवी वंशानुगत नहीं होती थी। कबीले की समिति जिसमें महिलाएं भी भागीदार होती थीं, राजा का सर्व सहमति से चयन करती थी। कबीले के जन व पशुधन (गाय) की रक्षा करना राजन का कर्तव्य था। राजपुरोहित राजन का सहयोगी होता था। प्रारंभिक दौर में अलग से कोई सेना नहीं होती थी परंतु कालांतर में शासक व सैनिकों के एक पृथक वर्ग का उदय हुआ। उस समय समाज के विभाजन की प्रणाली वर्णों के आधार पर नहीं थी।
उत्तर वैदिक काल
ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त" में चार वर्णों के पौराणिक इतिहास का वर्णन है। कुछ विद्वान पुरुषसूक्त को ऋग्वेद में अंतःप्रकाशित (बीच में जोड़ा हुआ) मानते हैं, जो कि वैदिक साहित्य की मूल संरचना के मुक़ाबले नवीन तर्कों पर ज्यादा आधारित है। वे मानते हैं चूंकि वैदिक ग्रंथों के वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं है इसलिए पुरुष सूक्त को वंशानुगत जाति व्यवस्था की वकालत हेतु लिखा गया था।
वैकल्पिक व्याख्या यह भी है कि पुरुषसूक्त के अलावा ऋग्वेद में अन्य कहीं भी "शूद्र" शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है,
अतः कुछ विद्वानों का मानना है कि पुरुष सूक्त उत्तर- ऋग्वैदिक काल का एक संयोजन था, जो एक दमनकारी और शोषक वर्ग संरचना को पहले से ही अस्तित्व में होने को निरूपित व वैध बनाने हेतु लिखा गया था।
हालांकि, पुरुषसूक्त में "क्षत्रिय" शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है, "राजन्य" शब्द हुआ है, फिर भी वैदिक ग्रंथावली में यह पहला अवसर माना जाता है जहां चारों वर्णों का एक समय में व एक साथ उल्लेख हुआ है। "राजन्य" शब्द का प्रयोग संभवतः उस समय राजा के संबधियों हेतु प्रयुक्त हुआ माना जाता है, जबकि यह समाज के एक विशिष्ट वर्ग के रूप में स्थापित हो चुके थे। वैदिक काल के अंतिम चरणों में "राजन्य" शब्द को "क्षत्रिय" शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जहाँ "राजन्य" शब्द राजा से संबंध होना इंगित करता है तथा "क्षत्रिय" शब्द किसी विशेष क्षेत्र पर शक्ति प्रभाव या नियंत्रण को।
"राजन्य" शब्द प्रमुख रूप से एक ही वंशावली के तहत प्रमुख स्थान को प्रदर्शित करता है जबकि "क्षत्रिय" शब्द शासन या शासक को।
क्षत्रिय वैश्य और शूद्र शब्द ब्राह्मण शब्द की तरह जाति मूलक नहीं हैं ।
एक विद्वान-'काशीप्रसाद जायसवाल का तर्क है कि ऋग्वेद में "ब्राह्मण" शब्द भी दुर्लभ प्रतीत होता है, यह सिर्फ "पुरुषसूक्त" में ही आया है तथा संभवतः पुरोहित वर्ग विशेष के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है। पाणिनी, पतंजलि, कात्यायन व महाभारत के आधार पर जयसवाल मानते हैं कि राजनैतिक वर्ग को राजन्य नाम से संबोधित किया जाता था तथा राजन्य लोकतान्त्रिक रूप से चुने हुये शासक थे। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने हुये शासक जैसे कि अंधक व वृष्णि इत्यादि इस संदर्भ में उदाहरण माने जाते हैं।
विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे ।
जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है
"अथ कदाचित्प्राड्विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कोशकारों द्वारा की गयीं हैं। ✍
"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी ( जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का विकास हुआ। पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।
(Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎 (pasu, “livestock”),
3-Latin pecū (“cattle”),
4-Old English feoh (“livestock, cattle”),
5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).
पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-
१-प्रोटो-इंडो-ईरानी में पाकु(páću) जोकि, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेकु péḱu ("मवेशी, पशुधन") से।
अवेस्ता में (पसु, "पशुधन"-pasu, “livestock”) के रूप में आया।
लैटिनमें पेकु-pecū (“cattle” ("मवेशी") के अर्थ में तो पुरानी अंग्रेज़ी में यही feoh फीह ("पशुधन, मवेशी"- (“livestock, cattle”) के रूप में जो
(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”) स्थापित करता है।
आशय यह कि पशु सृष्टि के आदिम काल में मानवीय जीविका और दुग्ध उत्पादन के श्रोत बनकर सहचर या साथी रहे हैं।
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ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) वें सूक्त की दसवीं ऋचा में "यदु और तुर्वसु" को गायों की परिचर्या करते हुए और गायों से घिरा हुआ " वर्णन करना यादवों के पूर्वजो की पशुपालन जीवनचर्या को दर्शाता है। और उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वसु दोनों भाईयों को द्विवचन में दाता अथवा दानी होने से ही "दासा" विशेषण से सम्बोधित किया गया है।
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" द्विवचन कर्ता और कर्म कारक में विद्यमान है।
प्राचीनतम वैदिक सन्दर्भों में दास: का अर्थ दाता" अथवा दानी ही हेै।
वैदिक निघण्टु इसका साक्ष्य है। कि उत्तर वैदिक काल और लौकिक संस्कृत में आते आते "दास शब्द का अर्थ 'दाता से पतित होकर देव संस्कृतियों के विद्रोही अर्थ में रूढ़ होकर धनसम्पन्नशाली असुरों का सम्बोधन होने लगा जैसे कि ऋग्वेद की कुछ परवर्ती ऋचाओं में वृत्र शम्बर और नमुचि आदि असुरो के लिए हुआ भी है। स्वयं असुर शब्द नें भी अपना अर्थ देव विरोधी जनजाति के लिए रूढ़ कर लिया । अत: वैदिक सन्दर्भ में "दास शब्द का अर्थ "सेवा करने वाला गुलाम" या भृत्य नहीं है।👇 जैसा कि कुछ परवर्ती भाष्य कार करते रहते हैं।
और दास का अर्थ भक्त भी नहीं था।
जैसे कि आज कल तुलसी दास , कबीरदास अथवा मलूकदास जैसे नामवाची शब्दों में सुनाई देता है। पद्मपुराण पातालखण्ड में वैष्णव सन्तों को दास उपाधि से सम्मानित किया जाता है।
सावधानी से दास शब्द के साथ एक नाम भी देना चाहिए । तब बुद्धिमान व्यक्ति को विष्णु के भक्तों को प्रेमपूर्वक भोजन कराना चाहिए। उसे अपने सम्माननीय गुरु को वस्त्र, आभूषण आदि से सम्मानित करना चाहिए। हे महान ऋषि, उसे अपनी सारी संपत्ति या उसकी आधी संख्या गुरु को दे देनी चाहिए। भक्तों को गुरु के लिए अपना शरीर भी गिराकर रहना चाहिए (यानि अपना शरीर गिरा देना चाहिए)। जो बुद्धिमान व्यक्ति इन पाँच पवित्र संस्कारों से पवित्र होता है, वह कृष्ण की सेवा में भाग लेता है; अन्यथा करोड़ों कल्पों तक भी नहीं ।
19-21. पूर्व विद्वानों ने इन्हें पांच पवित्र संस्कार बताया है: अंकन (शंख आदि के निशान वाला शरीर), सीधा निशान, प्रार्थना, नाम लेना और पांचवां बलिदान है। शंख, चक्र आदि से अंकन (किया जाता है); कहा जाता है कि सीधे निशान में छेद होता है; नाम दास शब्द से जुड़ा है ; प्रार्थनाएँ दो हैं. त्याग गुरु की पूजा है और विष्णु भक्त है । ये पाँच महान पवित्र संस्कार मैंने तुम्हें बताये हैं।
ग्वाले, गायें, ग्वाले और यह मेरा वृन्दावन सदैव (अस्तित्व में) रहते हैं। यह सब शाश्वत है, और बुद्धि के आनंद से भरपूर है। इस आनंदकंद ('आनंद की जड़') को मेरा वृन्दावन समझो, जिसमें प्रवेश मात्र से मनुष्य फिर से सांसारिक अस्तित्व में नहीं आता।
वास्तव में यह तो आज के समय में का उन्नत अर्थ है। इस दास शब्द का विकसित अर्थ है। क्योंकि ये "दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम होने से आधुनिक अर्थों से विपरीत ही हैं । अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇क्या वह भक्त था ? जैसा कि निम्न ऋचा में वर्णित है।
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"उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥ (ऋग्वेद- ४/३०/१४)
और वर्जिन दैत्य को लिए भी। दास शब्द का सम्बोधन है 👇क्या वह भी भक्त था ?
उपर्युक्त ऋचा में दास शब्द असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे
अर्थात् कुलितर को कोलों की सन्तान होने से कौलितर कहा गया।
अर्थात् इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए दानी- (धन -सम्पन्न) कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया
विदित हो कि ईरानी संस्कृति में असुर(अहुर) शब्द का अर्थ श्रेष्ठ और ईरानीयों के सर्वोच्च उपास्य का वाचक या सम्बोधन है। ईरानी संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ" कुशल और दाता" होता है ।
विदित हो कि ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे के रूप में किया है।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर -महत्) था ।
दास शब्द का अर्थ परिवर्तन काल-क्रम से उसी प्रकार हुआ जैसे वैदिक भाषा में घृणा- दया से लौकिक संस्कृत में घृणा नफरत का अर्थ देने लगा।
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी ! यह स्तोत्र तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान (सायंकाल) में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
९-“पशुः। लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा अथवा यम् पाशेन बधेत( जिसको पाश( रस्सी) में बाँधा जाय वह पशु है) ।
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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥
अनुवाद-
हे मेधातिथि ! प्रयोग(प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है । वह तुमको दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
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"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी(जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का विकास हुआ।पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।
अनुवाद-व अर्थ-★
ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आसंग ने पुरुषत्व को प्राप्त किया। पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई। अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान हो गया)
यही शाश्वती आंगिरस ऋषि की सुता (पुत्री) थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।
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📚 हे वैश्येन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुन्धरा ।
पुनः सृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम् ।।३६। (श्रीकृष्णजन्मखण्ड ब्रह्मवैवर्तपुराण )।
अर्थ:-
हे वैश्यों के मुखिया ! कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे । पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी । इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है । परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇
और यह वैश्य श्रेणि की उपाधि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए।
तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए।
क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं । क्या वे वैश्य हो गये ? परन्तु पालन रक्षण तो क्षत्रियों की प्रवृत्ति है ।
धूर्त पुरोहितों ने पूर्व दुराग्रह और द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया है। कृष्ण का प्रभाव शाली व्यक्तित्व होने के कारण उनको वैश्य लिखने की हिम्मत नही की परन्तु उनकी जाति को वैश्य लिख दिया अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में स्थान हि कहाँ था ?
पशुपालन और कृषि वैदिक ऋषियों की परम्परा-क्योंकि जब परिकल्पना सत्यापित होकर सिद्धान्त बन जाये तब ऐसा ही है यह मानना उचित है।
और यह तब तक के लिए लिखा जा सकता है,जबतक इसे खण्डित करके इसके विरुद्ध कोई नया तथ्य न आ जाय-
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?
श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः। करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
अनुवाद-भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों ! मेरे द्वारा यह जानकर यह कन्या धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
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और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
_______________ऊं________________
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
_______________ऊं________________
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
अनुवाद-हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसके द्वारा हटा दिया गया है ।
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केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
अनुवाद-किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-
(स्वयं हरिर् उवाच)
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद-स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।
अनुवाद-यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यों वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
अनुवाद-इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।
"योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद- हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए प्राप्त नहीं करते हैं ।
अनुवाद-धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको जानकर ही मैने ब्रह्मा को पत्नी रूप में इस कन्या का दान किया है ।१५।
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इसी क्रम में विष्णु का गोपों को' उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने का वचन देना-
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अनुवाद –इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं । (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा।
तेन-=उस कृष्ण रूप के द्वारा अकृत्येऽपि- =( विना कुछ करते हुए भी) अर्थात न करने पर भी रक्तास्ते-=तेरे रक्त( जाति)वाले गोपा=- गोपगण.यास्यंति श्लाघ्यताम् =-प्रशंसा को प्राप्त करेंगे सर्वेषामेव लोकानां =-समस्त लोकों में, देवानां च विशेषतः-= विशेषकर देवताओं में भी।१४।
इस प्रकार वे गोप कुछ न करते हुए भी = (अकृत्येऽपि) तेरी जाति वाले =(रक्तास्ते) प्रशंसा को प्राप्त करेंगे= यास्यंति श्लाघ्यताम् ।१४।
'यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवा नराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति।१५॥
और जहाँ जहाँ भी मेरे गोप वंश में मनुष्य निवास करेंगे वहाँ वहाँ लक्ष्मी का निवास होगा भले ही वह जंगल क्यों ही नहों।१५।
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः।१७।
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इसी प्रकार स्कन्दपुराण नागर खण्ड में विष्णु का गोपों में अवतार लेने का वर्णन है।
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥ तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति॥११॥ तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥ यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥ तत्र त्वं पावनार्थायचिरं वृद्धिमवाप्स्यसि॥१२॥ एकःकृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥ तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्यसारथ्यंत्वं करिष्यसि।१३। तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥ सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४ ॥ च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः॥ तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५।
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74. इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी दत्तात्रेय ने उन्मत्त हालत में राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये। (आयुस की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, उन्होंने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुस् से कहा:
129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।”
राजा ने कहा :
130-135. हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र अवश्य दीजिए।
दत्तात्रेय ने कहा :
136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।
इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय उसे आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।
आप सभी ऋषिगण आकर बालक का दर्शन करें। यह (बच्चा) किसका है ? रात को इसे मेरे दरवाजे के आँगन में कौन ले आया? ऋषियों ने उस बच्चे को देवता या गंधर्व के बच्चे के समान और करोड़ों कामदेवों के समान देखा होगा।
उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उस महान आयु के पुत्र को देखकर अत्यंत जिज्ञासा और प्रसन्नता से भर दिया। उस धर्मात्मा वसिष्ठ ने कुलीन आयु के पुत्र को देखकर उसके (अलौकिक) ज्ञान से यह जान लिया कि यह बालक उदार आयु का पुत्र है और (अच्छे) आचरण से सम्पन्न है तथा उस दुष्ट तथा दुष्टात्मा हुण्ड का वृत्तान्त भी यह जानता है। .
55-60ए. जब ब्रह्मा के पुत्र उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने (उसके लिए) दया करके बालक को अपने हाथों से उठाया, तो देवताओं ने बालक पर पुष्पों की वर्षा की । गंधर्व और किन्नर मनमोहक और मधुर गायन करते थे। ऋषियों ने वैदिक ऋचाओं से उस राजा के पुत्र की स्तुति की। उसे देखकर वसिष्ठ ने उसी समय उसे वरदान दे दिया। “तुम्हारा नाम संसार में नहुष के नाम से प्रसिद्ध होगा । अपनी बालसुलभ भावनाओं के कारण, तुम उसके द्वारा नष्ट नहीं हुए। इसलिये तेरा नाम नहुष होगा, और तू देवताओं द्वारा सम्मानित [1] किया जाएगा।” सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण (यानी वशिष्ठ [वसिष्ठ]?) ने उनके जन्म पर समारोह आयोजित किया, और उन्हें व्रत, दान सिखाया और उन्हें शिक्षक के पास एक शिष्य के रूप में भेज दिया।
60-64. एक छात्र के रूप में छह अंगों वाले वेदों और पद और क्रम [2] (उन्हें पढ़ने के तरीके) के साथ पूरी तरह से अध्ययन किया, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण वशिष्ठ से सभी पवित्र पुस्तकों का अध्ययन किया, अपने रहस्यों के साथ तीरंदाजी, और (उपयोग) () दिव्य हथियार और अग्नेयास्त्र के, साथ ही उन्हें पकड़ने और छोड़ने के तरीके, और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं, तर्क विज्ञान, राजनीति जैसी उत्कृष्टताएं, आयु का सुंदर और समर्पित पुत्र इस प्रकार पूरी तरह से निपुण हो गया। वसिष्ठ की कृपा से वह धनुष-बाण धारक (अर्थात् चलाने में कुशल) हो गया।
1-4. जब वे महामहिम महर्षि दत्तात्रेय चले गये, तब वे महान् राजा आयुष अपने नगर में (वापस) आये। वह प्रसन्न होकर वैभव से संपन्न, सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न तथा इंद्र के भवन के समान दिखने वाले इन्दुमती साथ महल में प्रवेश कर गये। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण , वह आयुष स्वर्ग में इंद्र की तरह, बुद्धिमान व्यक्ति स्वर्भानु की बेटी इंदुमती के साथ अपने राज्य पर शासन करते थे।दत्तात्रेय के कहने पर रानी इन्दुमती ने फल खाने के परिणामस्वरूप दिव्य तेज से संपन्न एक पुत्र को जन्म दिया।
5-14. हे महामहिम, इन्दुमती ने रात के अन्तिम प्रहर-साथ दिन में (अर्थात प्रातःकाल) बहुत सी शुभ वस्तुएँ देने वाला एक उत्तम स्वप्न देखा।(उसने सपने में देखा) कि एक , एक विप्र , जो सूर्य के समान, मोतियों की माला से सुसज्जित और सफेद वस्त्र से सुसज्जित है, उसके घर में प्रवेश कर रहा है। उसके गले में श्वेत पुष्पों से सुसज्जित माला चमक रही थी। उनका शरीर समस्त आभूषणों से सुशोभित और दिव्य चंदन से रंगा हुआ दिख रहा था। उसके चार हाथ थे, उसके हाथ में एक शंख था और एक गदा, एक चक्र और एक तलवार थी।
वह महान् कान्ति वाला, दिव्य आभूषणों से सुशोभित, चन्द्रमा के गोले के समान छाते से चमक रहा था, जो छाता (उसके ऊपर) रखा हुआ था। वह हार, कंगन, बाजूबंद और पायल के साथ बेहद खूबसूरत लग रहे थे। वह (भी) चंद्रमा की कक्षा के समान कान की बालियों से चमक रहा था।ऐसा ही एक अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति (वहां) आया. उसने इंदुमती को बुलाकर, बार-बार उस सुंदर महिला को दूध से स्नान कराया, (अर्थात) दूध से भरे शंख से, जिसका रंग चंद्रमा के समान था और रत्नों और सोने से सजाया गया था। उससे स्नान कराया उस इन्दुमती के मुँह में उस विप्र ने एक हजार फनों से ढका हुआ, मणि से युक्त तथा उज्ज्वल ज्वालाओं से भरा हुआ एक सफेद, सुंदर साँप प्रवेश कराया । उसके गले में उसने एक मोती भी पहनाया। तब वह परम तेजस्वी विप्र देवराज इन्दुमती के हाथ में कमल देकर अपने स्थान को चले गया।
15. इस प्रकार उसने एक महान् स्वप्न और सर्वोत्तम पुत्र देखा। प्रतिष्ठित व्यक्ति ने इसे राजाओं के स्वामी आयुष को सुनाया।
16-17. यह सुनकर महान राजा ने फिर सोचा। तब परम तेजस्वी, सर्वज्ञ तथा विद्वानों में श्रेष्ठ अपने गुरु शौनक को बुलाकर उन्हें उत्तम स्वप्न सुनाया।
राजा ने कहा :
17-18. हे महामहिम, हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, आज (देर रात) मेरी पत्नी ने (स्वप्न में) एक साधु को घर में प्रवेश करते देखा। इस सपने का क्या मतलब है?
शौनक ने कहा :
18-23. पूर्व बुद्धिमान दत्तात्रेय ने तुम्हें वरदान दिया था; और रानी को पुत्र प्राप्ति के लिए एक अत्यंत प्रभावशाली फल देने का निर्देश दिया था। हे राजा, तुमने फल के साथ क्या किया? आपने इसे किसको दिया है?
शौनक द्वारा कहे गए वचनों को सुनकर, राजा ने कहा -"मैंने इसे अपनी अच्छी पत्नी को दे दिया है," परम बुद्धिमान, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण शौनक ने कहा: "इसमें कोई संदेह नहीं है कि, दत्तात्रेय की कृपा से, विष्णु के अंश से युक्त सबसे अच्छा पुत्र आपके घर में पैदा होगा।
हे राजा, मैंने स्वप्न का यह अर्थ तुम्हें बता दिया है।(तुम्हारे घर में) एक दैवीय शक्ति वाला, इंद्र और विष्णु के समान पुत्र पैदा होगा। आपका पुत्र सभी अच्छे आचरणों की आत्मा होगा और चंद्र वंश को कायम रखेगा। वह धनुर्विद्या और (ऋग्- वेद (आदि) के विज्ञान में भी कुशल होगा ।
24. राजा से इस प्रकार कहकर शौनक अपने आश्रम को चले गये। राजा अपनी पत्नी सहित अत्यंत आनंद से परिपूर्ण हो गया था।
3-4. विप्रचित्ति का पुत्र हुण्ड , जो सदैव हिंसक, उतावला और अत्यधिक कामुक रहता था, नन्दन वन में प्रवेश कर गया। सभी आभूषणों से संपन्न अशोकसुंदरी को देखने के बाद, वह उसके देखते ही कामदेव के बाणों से घायल हो गया।
5. उस विशाल शरीरवाले ने उस से कहा, हे शुभे, तू कौन है? तुम किसी किसकी पुत्री हो ? आप इस उत्तम नन्दना (उद्यान) में किस कारण से आयी हो ?”
7. बचपन के कारण (अर्थात् बालक होने के कारण) मैं खेल-खेल में नन्दना उपवन में पहुँच गया हूँ। आप कौन हैं? आप मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?
हुण्ड ने कहा :
8-11. मैं विप्रचित्त्ति का पुत्र हूँ, अच्छे गुणों और गुणों से सम्पन्न हूँ। मैं ताकत और ताकत के कारण घमंडी होकर हुडा के नाम से मशहूर हूं। हे सुंदर मुख वाले, राक्षसों में भी मैं सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे समान देवताओं में, मानवलोक में या नागलोक में (उसके समान) कोई दूसरा राक्षस नहीं है (तपस्या के संबंध में, परिवार में महिमा के संबंध में), या धन और सुख. हे विशाल नेत्रों वाली, तुम्हें देखते ही मैं कामदेव के बाणों से घायल हो गया हूँ। मैंने आपकी शरण मांगी है. मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें. मेरी प्रिय पत्नी बनो, मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय।
अशोकसुंदरी ने कहा :
12-20. सुनो, मैं तुम्हें अच्छे पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी संपर्कों का कारण बताता हूं; तो सुनो, हे हुन्दा, इस सांसारिक अस्तित्व में यह दुनिया की रीति है कि एक महिला का पति गुणों के संबंध में उसके लिए उपयुक्त होगा। एक कारण है कि मैं आपकी योग्य पत्नी नहीं बनूंगी। हे दैत्यराजों के स्वामी, शांत मन से सुनो। जब मैं वृक्षों के देवता से उत्पन्न हुआ, तो शिव के मन को ठीक से समझने के बाद, पार्वती ने मेरा ध्यान किया। भगवान की सहमति से देवी ने मेरे पति को भी उत्पन्न किया। उसका (जन्म) चन्द्रवंश में होगा। वह बहुत बुद्धिमान और धार्मिक विचारधारा वाला होगा। वह एक विजेता होगा, और वीरता में जिष्णु (अर्थात् विष्णु या अर्जुन ) के समान होगा, और तेज में अग्नि के समान होगा। वह सर्वज्ञ, सत्यवादी और दान में कुबेर के समान होगा । वह यज्ञ करने वाला, दान देने वाला (अर्थात महान दान देने वाला) होगा और सुन्दरता में कामदेव के समान होगा। उसका नाम नहुष होगा , वह धर्मात्मा होगा और सद्गुणों तथा अच्छे चरित्र का महान खजाना होगा। वह मुझे देवी (पार्वती) और भगवान (शिव) द्वारा दिया गया है। मेरे पति मशहूर होंगे. उससे मुझे सर्वगुण सम्पन्न सुन्दर पुत्र प्राप्त होगा।
शिव की कृपा से मुझे उनसे ययाति नाम का एक पुत्र प्राप्त होगा , जो इंद्र और विष्णु के समान होगा, दुनिया भर के लोगों को प्रिय होगा और युद्ध में बहादुर होगा।
21. हे वीर हुण्ड, मैं एक वफ़ादार पत्नी हूं, और विशेषकर किसी और की पत्नी हूं। इसलिए गलत धारणा को पूरी तरह त्याग दो और यहां से चले जाओ।
22. वह बस दानव हँसा और उसने अशोकसुन्दरी से ये शब्द कहे।
हुण्ड ने कहा :
22-30. तुमने जो कहा (कि) देवी और देवता ने (नहुष को तुम्हारे पति के रूप में दिया है) वह उचित नहीं है। नहुष नाम का वह धर्मात्मा चन्द्रवंश में जन्म लेगा। आप उम्र में बड़ी हैं, इसलिए जो छोटा है वह आपका पति बनने के लायक नहीं है। कम उम्र की महिला की (पत्नी बनने के लिए) सराहना की जाती है, न कि कम उम्र के पुरुष (पति बनाने के लिए प्रशंसा किय जाय। हे सुन्दरी, वह पुरूष तेरा पति कब होगा? ज तक तुम्हारी ताजगी और यौवन अवश्य नष्ट हो जायेगा। हे उत्तम वर्ण वाली, सुन्दर स्त्रियाँ अपने यौवन के बल पर सदैव पुरुषों को प्रिय हो जाती हैं। हे सुन्दर मुख वाली, यौवन ही नारियों की महान पूंजी है।इसके सहारे वे इच्छानुसार सुख और वस्तुओं का उपभोग करते हैं। हे अच्छी महिला, आयुस् का वह पुत्र तुम्हारे पास कब आएगा ? मेरी बात सुनो। यौवन आज ही (के लिए) मौजूद है। यह (बाद में) बेकार हो जाएगा. सुनो, उसे गर्भ में रहना, बचपन और किशोरावस्था जैसी स्थितियों से गुजरना होगा। वह कब यौवन के वैभव से सम्पन्न होगा और आपके योग्य होगा ? उसे बहुत समय लगेगा हे विशाल नेत्रों वाली, यौवन के तेज से युक्त, मादक पेय पी लो। मेरे साथ आनंदपूर्वक रमण करो .
30-38. हुण्ड के वचनों को सुनकर शिव की पुत्री भय से भरकर फिर से राक्षसों के स्वामी से बोली: "जब अठ्टाइस वाँ द्वापर नामक युग आएगा, तब धर्मात्मा बल (अर्थात बलराम ), शेष के अवतार और वासुदेव के पुत्र , लेंगे। रेवत की दिव्य पुत्री उनकी पत्नी के रूप में। हे महामहिम, वह पहले से ही कृत नामक सर्वोत्तम युग में पैदा हो चुकी है । वह उनसे तीन युग बड़ी है। वह रेवती बल ( राम ) को अपने प्राणों के समान प्रिय हो गई है । जब भविष्य में द्वापर (युग) आएगा, तब वह यहीं जन्म लेगी।
पूर्व में वह एक गंधर्व की उत्कृष्ट पुत्री, मायावती के रूप में पैदा हुई थी । श्रेष्ठ दैत्य शंबर ने उसका अपहरण कर बंदी बना लिया। उस युग में, यादवों के स्वामी माधव के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ नायक प्रद्युम्न को उनका पति घोषित किया गया है।
39-42. और तुम लोभ और वासना के कारण ऐसे शब्द बोल रहे हो जो दुष्ट, पाप से भरे हुए और वेदों और धार्मिक ग्रंथों से रहित (अर्थात् समर्थित नहीं) हैं। किसी व्यक्ति के मामले में उसके पूर्व कर्मों के अनुसार जो भी अच्छा या बुरा निश्चित होता है, वही उसके मामले में घटित होता है। यदि देवताओं और ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए वचन सत्य हैं, तो वे कभी भी अन्यथा नहीं होंगे। यह मेरे और उस नहुष के भाग्य के कारण नियत है। (हम दोनों के) मिलन का ऐसा विचार करके मेरी माता पार्वती देवी तथा शिव ने भी (ऐसा ही) कहा।
43-44. इस बात को समझते हुए शांत रहें और अपने मन में चल रही गलत धारणा को त्याग दें। हे राक्षस, तुम निश्चय ही मेरे मन को विचलित नहीं कर पाओगे। मैं एक वफादार पत्नी हूं, मन की दृढ़ हूं; कौन मुझे दूर ले जा सकता है? मैं तुम्हें बड़े शाप से भस्म कर दूँगा। हे महान राक्षस, यहाँ से चले जाओ।”
45-48. उसके ये वचन सुनकर महाबली राक्षस हुण्ड ने मन में सोचा, 'यह मेरी पत्नी कैसे होगी?' ऐसा सोचते हुए धोखेबाज हुंड गायब हो गया। फिर उसे छोड़कर तेजी से वहां से निकल गया और दूसरे दिन वह पाप से भरी हुई माया बनाकर वहां आ गया। हे मेरे बेटे, राक्षस ने एक स्त्री का दिव्य, मायावी रूप धारण कर लिया था, वह माया के माध्यम से एक स्त्री का रूप बन गया (अर्थात् स्वयं को बदल लिया)। उस अत्यंत सुन्दर युवती ने मायावी रूप धारण कर लिया। हँसी-मजाक और खेलकूद में व्यस्त होकर वह उस स्थान पर गई, जहाँ शिव की पुत्री (अर्थात अशोकसुंदरी) रहती थी।
49-50. मानो (उसके प्रति) स्नेह करते हुए उसने अशोकसुंदरी से (ये) शब्द कहे: “हे धन्य, तुम कौन हो? आप किसके हैं? हे युवती, तुम क्यों तपस्या-कुंज में रहकर अपनी वासना को सुखाने वाली तपस्या करती हो? मुझे बताओ, हे परम भाग्यशाली, किस कारण से (तुम तपस्या कर रही हो) तपस्या करना बहुत कठिन है।
51-53. उस मायावी राक्षस ने, जिसने अपना मूल रूप छिपा रखा था और जो (उसके प्रति) लालसा रखता था, उसके कहे हुए शुभ वचनों को सुनकर अत्यंत दुःखी हुई उस अशोक सुन्दरी ने शीघ्र ही उसे अपनी सृष्टि का वृत्तांत सुनाया, जैसा कि उसने पहले कहा था। स्थान और तपस्या करने का सारा कारण भी। (उसने) उस दुष्ट राक्षस द्वारा किये गये उत्पीड़न के बारे में भी (उसे बताया)। वह उसके मायावी रूप को नहीं पहचानती थी, अत: स्नेहवश उसने उसे (सब कुछ) बता दिया।
हुण्डा ने कहा :
54-57ए. हे आदरणीय स्त्री, तुम पतिव्रता हो, अच्छे व्रतों में लगी हो। आपका चरित्र और व्यवहार अच्छा है, आपके कार्य पवित्र हैं और आप बहुत पवित्र महिला हैं। हे अच्छी महिला, मैं एक वफादार पत्नी हूं और अपने पति के प्रति समर्पित हूं। मैं एक महान पतिव्रता स्त्री हूँ और अपने पति के लिये तपस्या कर रही हूँ। उस दुष्ट हुण्ड ने मेरे पति को भी मार डाला। उसके नाश के लिये मैं महान् (अर्थात् घोर) तपस्या कर रही हूँ। मेरे पवित्र आश्रम में आओ. मैं गंगा के किनारे रहती हूँ ।
57-62. शिव की उस पुत्री को उसने (अर्थात हुण्ड ने) अन्य आकर्षक और आश्वस्त करने वाले शब्दों से संबोधित किया और हुण्डा ने मैत्रीपूर्ण भावना से उसे मोहित कर लिया। मूर्खता के कारण मोहित होकर वह बहुत तेजी से उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह उसे अपने दिव्य, अतुलनीय और अत्यंत सुंदर घर में ले आया। हे पुत्र, मेरु के शिखर पर एक उत्कृष्ट नगर है, जो वैदूर्य नाम से जाना जाता है , सभी अच्छे गुणों से भरा हुआ है, बहुत शुभ है और काञ्चन नाम से जाना जाता है । राक्षस का पूरा शहर ऊंचे महलों, घड़ों, डंडों और चौरियों से भरा हुआ था। वह बादलों के समान गहरे नीले पेड़ों से भरा हुआ था, और विभिन्न पेड़ों से भरा हुआ था, कुओं, तालाबों और झीलों और नदियों और जलाशयों से भी भरा हुआ था। वह बड़े-बड़े रत्नों से, सोने से सुसज्जित प्राचीरों से, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली वस्तुओं से समृद्ध था।
63. तब अशोकसुन्दरी ने उस सुन्दर नगर को देखा। “हे मित्र, मुझे बताओ कि यह स्थान किस देवता का है।”
64-65ए. उसने कहा: “यह राक्षसों के उस सरदार का है जिसे तुम पहले देख चुकी हो। यह उस राक्षस का स्थान है. हे महाबली, मैं वह सर्वश्रेष्ठ राक्षस हूं। हे उत्तम वर्ण वाली, माया से (अर्थात तुम्हें धोखा देकर) मैं तुम्हें (यहाँ) ले आया हूँ।
65-67. (इस प्रकार) उससे बात करके वह उसे अपने सुनहरे महल में ले गया, जो कई भवनों से भरा हुआ था और कैलास के शिखर के समान था । उन्होंने काम से पीड़ित होकर, उस सुंदर स्त्री को झूले पर बैठाया, अपना मूल रूप धारण किया, और फिर राक्षसों के स्वामी ने, कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर, अपने हाथ की हथेलियाँ जोड़ीं, और उससे (ये) शब्द कहे :
68-70. “हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम जो चाहोगी मैं तुम्हें दूँगा। हे विशाल नेत्रों वाले, जो वासना से पीड़ित होकर तुमसे आसक्त हो गया है, मेरा आश्रय लो।
आदरणीय महिला (अर्थात अशोक सुन्दरी) ने कहा :
हे राक्षसों के स्वामी, आप मुझे बिल्कुल भी गुमराह नहीं कर सकते। मेरे विषय में (तुम्हारे मन में) जो भ्रम उत्पन्न हो गया है, उसे अपने मन में भी मत लाना। महान पापी नीच राक्षसों से मेरी रक्षा करना कठिन है। इसमें कोई संदेह नहीं है. बार-बार (ऐसी) बात तुम मत करो.
71-72. वह देवी, जो स्कंद के बाद उत्पन्न हुई उसकी बहिन थी, तपस्या से संपन्न, अत्यंत क्रोध से जलने वाली, उस राक्षस को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और मृत्यु की जीभ की तरह फड़कती हुई फिर से उस नीच राक्षस से बोली:
72-79. “हे पापी, तूने स्वयं के विनाश के लिए, अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों के विनाश के लिए एक भयंकर कार्य किया है। तू अपने घर में आग की एक जलती हुई, उज्ज्वल लौ लेकर आया है। जैसे एक अशुभ, धोखेबाज पक्षी, सभी प्रकार के दुखों के साथ उठता है, जिसके घर में प्रवेश करता है, उसके घर को नष्ट कर देता है, जैसे वह पक्षी (मनुष्य के) रिश्तेदारों, सभी धन और परिवार के विनाश की कामना करता है। (तब) उसके घर में प्रवेश करो, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे विनाश की इच्छा से तुम्हारे घर में आयी हूँ। निःसंदेह मैं अब तुम्हारा सब कुछ नष्ट कर दूंगी - तुम्हारा धन, धान्य, परिवार, जीवन, पुत्र और पौत्र आदि। हे राक्षस, जब से तुम मेरे पास आए हो जो एक महान (अर्थात गंभीर) तपस्या कर रही थी, मैं एक पति की लालसा कर रही थी। आयुस के पुत्र नहुष से विवाह उपरान्त, मेरा पति तुम्हें नष्ट कर देगा।
79-88. पहले (केवल) भगवान ने मेरे मामले में यह उपाय देखा था। यह लोकप्रिय श्लोक, (जिसे) बुद्धिमान लोग गाते हैं, सत्य है। यह वास्तव में दुनिया में मनाया जाता है; दुष्ट मन वालों को इसका एहसास नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसे किसी एक से दुःख, सुख आदि का अनुभव करना होता है, वह उसी व्यक्ति से अनुभव करता है। तुम (आदमी) के पास जाओगे। कोई अपनी उंगली की नोक से बहुत तेज़, महीन धार वाली, अच्छी तलवार को छूता है। अब जान लो कि मुझे इस तरह छूने से (मुझमें) गुस्सा पैदा हो जाएगा। कौन उतावले होकर क्रोध में और जोर से दहाड़ रहे सिंह के पास जाकर उसके चेहरे के बाल काट देगा ? जो मृत्यु की इच्छा रखता है, वह मेरे साथ व्यभिचार करना चाहता है, जो सत्य आचरण वाला, संयमी और तपस्या में रत रहने वाला है। वह, अब, चूँकि वह मृत्यु से प्रेरित है, एक काले, जीवित नाग के मणि को जब्त करने की इच्छा रखता है; और हे मूर्ख, तू मृत्यु से मोहित होकर मृत्यु के द्वारा भेजा गया है। इसलिये ऐसा दुष्ट विचार (तुम्हारे मन में) उत्पन्न होता है। क्या तुम्हें इसका एहसास नहीं है? आयू के बेटे को छोड़कर, कौन देखता है (यानी मेरी तरफ देखेगा)? मेरे रूप को देखकर कोई भी (आयुस् के बेटे के अलावा) मर जाएगा।
89-92. वह जो पतिव्रता स्त्री थी, जो दुःखी थी, जो क्लेश से व्याकुल थी, जो वश में थी और जो धार्मिक व्रत का पालन कर रही थी, वह इस प्रकार बोलकर गंगा के तट पर चली गयी। 'मैं, जिसने पहले वर की इच्छा से (प्राप्त करने के लिए) कठोर तपस्या की थी, अब आपके विनाश की इच्छा से फिर से कठिन तपस्या करूंगी। तब मैं अपने पति के पास जाऊँगी, जब मैं तुम्हें विशाल नहुष द्वारा वज्र और सर्पों के समान तीक्ष्ण बाणों से मार डाला हुआ, युद्धभूमि में खुले बालों और रक्त से लथपथ उस पापी को देखूँगी। आपके शरीर से रिस रहा है)।”
93-94. हुण्ड के विनाश के लिए इतनी बड़ी प्रतिज्ञा करके, शिव की उस दृढ़ पुत्री ने गंगा के उत्कृष्ट तट का सहारा लिया। जिस प्रकार तेज, अग्नि की लौ, तेज से भरी हुई महान लोकों को जला देगी, देवताओं के स्वामी की बेटी, क्रोध से जलती हुई, गंगा के तट पर, कठिन तपस्या कर रही थी।
कुंजल ने कहा :
95-96. हे महानुभाव, इस प्रकार कहकर शिव की पुत्री गंगा के जल में स्नान करके कांचन नामक अपने नगर में चली गई। दुबले-पतले शरीर वाली और सत्यनिष्ठा से संपन्न उस युवा अशोकसुंदरी ने हुंड की मृत्यु के लिए तपस्या की।
97-98. हुण्ड भी शाप से जले हुए हृदय से दुःखी हो गया और शब्दों की अग्नि से अत्यन्त पीड़ित होकर सोचने लगा।
-उसने कम्पन नामक अपने मंत्री को बुलाकर उससे कहा। उसने उसे उसके श्राप का महत्वपूर्ण समाचार सुनाया:
99-100. "मुझे शिव की अच्छी बेटी अशोकसुन्दरी ने शाप दिया है: उसने कहा है।कि 'तुम मेरे पति नहुष के हाथों मरोगे।' वह बच्चा (अभी तक) पैदा नहीं हुआ है; लेकिन आयु की पत्नी उसकी माँ होगी । ऐसा कार्य करो कि अभिशाप झूठा निकले।”
कंपन ने कहा :
101-104. आयु की पत्नी का अपहरण करके उसे (यहाँ) ले आओ। इस तरह आपका शत्रु पैदा नहीं होगा. या फिर तेज़ (दवाइयों) से उसका गर्भपात करा दो। इस तरह आपका शत्रु भी पैदा नहीं होगा. उस दुष्ट नहुष के जन्म का समय अंकित करो। इसे लेकर (यहाँ )लाओ और पापबुद्धि को मार डालो।
इस प्रकार कम्पन के साथ परामर्श करने के बाद, राक्षस (हुंड) ने नहुष को नष्ट करने के लिए खुद ही प्रयास किया।
विष्णु ने कहा :
105-108. ऐल (पुरुरवा) का गौरवशाली, धर्मात्मा पुत्र , जिसका नाम आयु था, जो सोम कुल का आभूषण था , सर्वश्रेष्ठ राजा और सभी प्रथाओं को जानने वाला संप्रभु सम्राट, सत्य की प्रतिज्ञा में लगा हुआ, इंद्र और विष्णु के समान, एक छत्र के नीचे शासन करता था सार्वभौमिक संप्रभु) पृथ्वी पर तपस्या, महिमा, शक्ति, दान, बलिदान, मेधावी कृत्यों और संयम के माध्यम से।
राजा (आयुस्) का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह दुखी था. धर्मी ने सोचा, 'मेरे यहां पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है?'
109. पृथ्वी के स्वामी आयु ने ऐसा विचार मन में उठाया। शांतचित्त होकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये बहुत प्रयत्न किया।
110-113. अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय , उच्चात्मा ब्राह्मण , महान ऋषि, जिनकी आँखें शराब पीने के कारण लाल थीं, एक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस धर्मात्मा ने शराब के नशे में धुत होकर, एक युवा, शुभ स्त्री, सभी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ, को अपनी गोद में बिठाया, गाना गाया, नृत्य किया और जमकर शराब पी। महान ध्यान करने वाले संतों में सर्वश्रेष्ठ, ऋषि, (जो) बिना जनेऊ के थे, (और) अपने शरीर पर चंदन और घृत का लेप लगाए हुए थे, फूलों की दिव्य मालाओं और मोतियों के हार के उपांगों से चमक रहे थे।
114-118. राजा ने उसके आश्रम में जाकर, श्रेष्ठ ब्राह्मण को देखकर और शांतचित्त होकर, सिर झुकाकर और उसके सामने गिरकर उसे नमस्कार किया। अत्रि के उस धर्मात्मा पुत्र ने अपने सामने आये उस श्रेष्ठ राजा को भक्तिपूर्वक देखकर ध्यान का सहारा लिया। हे श्रेष्ठ, राजा को इसी प्रकार सौ वर्ष बीत गये। जो स्थिर, शान्त और अत्यंत समर्पित था, उसे बुलाकर उसने ये (शब्द) कहे: “हे राजा, तू अपने आप को क्यों कष्ट देता है? मैं ब्राह्मण आचरण से रहित हूँ। मेरे पास कभी नहीं ब्राह्मणत्व था. मैं शराब और माँस का लालची हूँ और सदैव स्त्रियों में आसक्त रहता हूँ।
मुझमें वरदान देने की शक्ति नहीं है। (कृपया) किसी अन्य ब्राह्मण की सेवा कर तू।”
आयुस ने कहा :
119-123. हे महामहिम, आपके समान कोई अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मण नहीं है, जो सभी वांछित वस्तुओं को प्रदान करता है और तीनों लोकों में सबसे महान स्वामी है। हे महामहिम, आप विष्णु हैं, गरुड़ -धारी, सर्वोच्च भगवान, (ब्राह्मण के रूप में अत्रि के परिवार में जन्मे)। हे देवाधिदेवों के प्रधान, हे सर्वोच्च प्रभु, मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे तुम जो अपने आप को तुम्हारे अधीन कर देते हो उन पर स्नेह करने वालों, मैंने तुम्हारी शरण मांगी है। हे हृषीकेश , मुझे मुक्ति दो। तुम भ्रम पैदा करके बने रहते हो (अर्थात आनंद लेते हो)। मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता हूं जो ब्रह्मांड में रहने वाले प्राणियों को जानता है, जो ब्रह्मांड का प्रमुख है, जो दुनिया का स्वामी है और (राक्षस) मधु का हत्यारे हैं । हे गोविंद , हे विश्वरूप, आप ही मेरी रक्षा करें। आपको मेरा प्रणाम
इन शब्दों को सुनकर) राजाओं के स्वामी हर्ष के कारण रोमाँचित हो गए (कहा:) "देवताओं के भगवान, उदार वशिष्ठ की कृपा से, मैं युद्ध में एक दुष्ट हृदय के राक्षस को मार डालूँगा, जिसने देवताओं को धोखा दिया था और विशेष रूप से मुझको।"
14-20. जब नहुष ने ये महान वचन कहे तो शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए भगवान विष्णु स्वयं वहाँ आये। भगवान ने अपने चक्र से सूर्य के गोले के समान, ज्वलंत चमक से चमकने वाली, गोल तीलियों वाली और शुभता लाने वाली एक बड़ी चक्र निकाला, जिसे भगवान ने बहुत खुशी के साथ नहुष को दे दिया।
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शिव ने उसे तेजस्विता से युक्त एक अत्यंत तीक्ष्ण भाला दिया। उस उत्कृष्ट भाले से वह युद्ध के लिये तत्पर होकर त्रिपुर के संहारक भगवान शिव के समान चमकने लगा । ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मास्त्र दिया । वरुण ने उसे चन्द्रमा के समान कान्ति वाला एक उत्तम पाश और मंगल ध्वनि वाला शंख दिया। इंद्र ने (उसे) वज्र और (एक प्रकार की मिसाइल जिसे शक्ति कहा जाता है) दी । वायु ने (उसे) बाणों सहित एक धनुष दिया। ( अग्नि ) ने उदार अग्नि-प्रक्षेपास्त्र दिया।(इस प्रकार) देवताओं ने उस महान तेजस्वी राजा को विभिन्न प्रकार के दिव्य हथियार और **********
कुंजल ने कहा :
21-25. तब आयु के पुत्र, देवताओं द्वारा सम्मानित और ऋषियों द्वारा आशीर्वाद के साथ ब्राह्मण के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले नायक , दिव्य, चमकदार, रत्नों से सुसज्जित, घंटियों के कारण बड़ी ध्वनि करने वाले और छोटी-छोटी घंटियों से भरे हुए रथ में चढ़े। . उस दिव्य रथ से राजकुमार दिव्य पथ पर अपनी चमक से सूर्य के समान चमकने लगा। वह उसी के समान अपने तेज से प्रज्वलित होकर, उस उदार सारथी मातलि के साथ, राक्षसों के सिरों की ओर, निरंतर चलने वाले वायु की तरह, तेजी से और तेजी से उस स्थान पर पहुंचे, जहां वह पापी राक्षस हुण्ड अपनी सेना के साथ खड़ा था।
23-28. उसके शब्दों को सुनकर, राजाओं के स्वामी ने अपनी पत्नी से कहा: "हे गौरवशाली, पहले ऋषि नारद ने मुझसे कहा था: 'हे राजा, तुम्हें अपने बेटे के बारे में कभी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा पुत्र बड़ी वीरता से उस राक्षस को मारकर आएगा।' मुनि ने पहले जो वचन कहे थे वे सत्य हो गये। हे रानी, उसकी बातें अन्यथा (अर्थात् असत्य) कैसे होंगी? ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ दत्तात्रेय वास्तव में भगवान हैं। पूर्व में, हे रानी, आपने और मैंने तपस्या के माध्यम से उनकी सेवा की थी। उन्होंने विष्णु के अंश से हमें यह पुत्र रत्न दिया है । वह सदैव एक महान दुष्टात्मा राक्षस का वध करेगा। दत्तात्रेय ने मुझे सबसे उत्तम और अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया है, जो विष्णु का अंश है, सभी राक्षसों का संहार करने वाला है और अपनी प्रजा का पालन-पोषण करेगा।”
29-31. रानी इन्दुमती से इस प्रकार कहकर राजा ने अपने पुत्र के आगमन पर बड़े उत्सव मनाया। अत्यंत आनंद से परिपूर्ण होकर उसने फिर से सब कुछ से संपन्न, देवताओं के समूहों के साथ, आनंद स्वरूप, एकमात्र सर्वोच्च वस्तु, दर्द को दूर करने वाले, खुशी देने वाले और विष्णु के अच्छे अनुयायियों को मोक्ष देने वाले महान दाता विष्णु को याद किया।
मातलि के द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णु की महिमा का वर्णन, मातलि को विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्म के प्रचार द्वारा भूलोक को वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययाति के दरबार में काम आदि का नाटक खेलना
पिप्पल उवाच- मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः। किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद ।१।
1-2. हे अत्यंत बुद्धिमान, मुझे विस्तार से बताओ कि मातलि के वचन सुनकर नहुष के पुत्र राजा ययाति ने क्या कहा । हे मुनिवर, यह पापों का नाश करने वाली परम पुण्यमयी कथा है। मुझे इसे सुनने की इच्छा है. मुझे बिल्कुल भी संतुष्टि नहीं हो रही है.
3. श्रेष्ठ राजा, धर्मपरायण लोगों में सबसे महान, ययाति ने, इंद्र के सारथी, दूत मातलि से, जो (उनके पास) आया था, कहा:
ययाति ने कहा :
4-7. हे दूत, मैं अपना शरीर नहीं त्यागूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं (इस) पार्थिव शरीर के बिना स्वर्ग नहीं जाऊँगा। यद्यपि आपने इस प्रकार शरीर के महान दोषों का वर्णन किया है, और यद्यपि आप पहले ही इसके सभी गुण और दोषों का वर्णन कर चुके हैं, फिर भी मैं अपने शरीर का त्याग नहीं करूंगा, और मैं स्वर्ग में नहीं आऊंगा। देवताओं के राजा इंद्र के पास जाकर उनसे इस प्रकार कहो: “हे अत्यंत बुद्धिमान, कोई व्यक्ति अकेले आत्मा के माध्यम से या केवल शरीर के माध्यम से पूर्णता प्राप्त नहीं करता है। यह शरीर सांसारिक (अस्तित्व) है.
8-14. शरीर जीवन (अर्थात आत्मा) के बिना नहीं रह सकता, न ही आत्मा शरीर के बिना रह सकती है। हे इन्द्र, उनमें मित्रता है (अर्थात वे परस्पर मित्र हैं)। मैं उस शरीर को नष्ट नहीं करूँगा जिसकी कृपा से आत्मा को अपने मन के अनुसार (अर्थात् इच्छानुसार) अनन्य सुख तथा अन्य सुख प्राप्त होते हैं।” हे देवदूत, स्वर्ग में भोगों को इस प्रकार जानते हुए भी मैं उन्हें नहीं चाहता। हे मातलि, दोषों के कारण कष्टदायक और अत्यंत पापपूर्ण रोग (संक्रमित) होते हैं। बुढ़ापा एक दोष के कारण होता है। मेरे धार्मिक गुणों से सम्पन्न और सोलह वर्ष के शरीर का निरीक्षण करें। मेरे जन्म के बाद से मेरा शरीर आधी शताब्दी तक चला गया है (अर्थात् अस्तित्व में है)। अभी भी मेरे शरीर में ताजगी है। मेरा यह (अर्थात् जीवन) काल उत्तम व्यतीत हुआ। जैसे सोलह वर्ष के युवक का शरीर सुन्दर दिखता है, उसी प्रकार शक्ति और वीरता से सम्पन्न मेरा शरीर दिखता है।
4-16. , मुझे असफलता नहीं है, मुझे थकावट नहीं है; न ही मुझे कोई बीमारी या बुढ़ापा है। हे मातलि, मेरा शरीर भी धर्मपरायणता के उत्साह से भर जाता है; क्योंकि, पुराने दिनों में, औषधि - दिव्य और, महान , अमृत से भरपूर, पापों और रोगों के विनाश के लिए तैयार की जाती है। उससे मेरा शरीर शुद्ध होता है; (इसलिए) यह दोषों से मुक्त है.
17-24. हे दूत, मैं सदैव अमृत का पान (अर्थात् ग्रहण) करता रहता हूँ। विष्णु का ध्यान और उनके नाम का उत्कृष्ट उच्चारण उससे मेरे सभी रोग और पाप आदि दोष नष्ट हो गए हैं, जब इस सांसारिक अस्तित्व में कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम जैसी महान (अर्थात् प्रभावी) औषधि है।
पापपूर्ण रोग से पीड़ित मनुष्य मर जाते हैं (क्योंकि) अत्यंत मूर्ख लोग कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम का अमृत नहीं पीते हैं। हे मातलि, उस ध्यान, ज्ञान, पूजा, सत्यता और दान देने के धार्मिक पुण्य के कारण मेरा शरीर स्वस्थ है।
रोग और कष्ट उसे सताते हैं जिनकी सिद्धि पाप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राणी यहीं (अर्थात इस संसार में) कष्टों के कारण मरते हैं। इसलिये मनुष्यों को सदाचार और सत्यता का आश्रय लेकर धर्म-कर्म करना चाहिये। शरीर पांच तत्वों से बना है, और नाड़ियों और जोड़ों से जर्जर हो गया है। जैसे एक आभूषण सुनार द्वारा टङ्कण (धातु की चीज में टाँका मारकार जोड़ लगाने का कार्य) से बनाया जाता है, उसी प्रकार एक मनुष्य को एक साथ रखा जाता है। इसमें सदैव एक महान अग्नि, शरीर का गतिशील हास्य चमकता रहता है, जो सैकड़ों टुकड़ों से बना होता है। हे ब्राह्मण , जो इन टुकड़ों को जोड़ता है वह बुद्धिमान है।
25-30. हे पिप्पल , पांच तत्वों की प्रकृति के ये सभी टुकड़े (शरीर के) और सैकड़ों जोड़ों से घिसे हुए, विष्णु के दिव्य नाम और सौभाग्य से एक साथ रखे गए हैं। शरीर एक धातु की तरह है. विष्णु की पूजा, ध्यान और संयम, सत्य और दान से शरीर नया हो जाता है। हे मातलि, सुनो, शरीर के दोष-रोग-नाश हो जाते हैं। बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता रहती है तथा दुर्गन्ध नहीं रहती। तब, हे सारथी, चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से, (शरीर) शुद्ध होगा।
मैं स्वर्ग नहीं जाऊंगा. मैं यहीं (केवल) स्वर्ग का निर्माण करूंगा। मैं (अपनी) तपस्या, भक्ति, अपने धार्मिक कृत्यों और चक्र-धारक की कृपा से पृथ्वी को स्वर्ग की प्रकृति बना दूंगा। यह जानकर आप (कृपया) जाकर इन्द्र से कह दीजिये।
सुकर्मन ने कहा :
30-32. तब वह सारथी राजा के वचन सुनकर और आशीर्वाद देकर राजा से विदा लेकर (स्वर्ग को) चला गया। उसने सारी बात देवराज इन्द्र को बता दी। उदार ययाति का (संदेश) सुनकर इंद्र ने सोचा कि ययाति को स्वर्ग में कैसे लाया जाए।
नामामृतं सत्यमिदं सुपुण्यमधीत्य यो मानव विष्णुभक्तः। प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्तिं न हि कारणं च ।१७।
महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के-से रूप में अवतार लिया था।
यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु।
सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ।
शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय।
हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-
भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।
वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।
इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।
सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा।
इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।
उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे।
बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ।
तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये।
महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।
उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।
मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। परीक्षित! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों[1] का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।
परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं।
इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं।
उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ।
उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।
उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया।
एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’
ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’।
राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।
फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया।
उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-
विदर्भ के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद।
रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि।
राजन! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए।
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क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम।
व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ। दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए।
अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।
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परीक्षित! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं।
बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’
सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।
परीक्षित! वृष्णि‡‡
के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ।
अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था। वृष्णि‡‡‡ के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी।
अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-
उग्रसेन के नौ लड़के थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।
चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए।
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हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।
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देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये।
वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी।
परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था।
उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया।
उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ। वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद:-
सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।
आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं। रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था।
उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।
परीक्षित! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये।
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परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी। उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।
जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं। परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का हिन्दी अनुवाद:-
उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।
परीक्षित! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी।
लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया। फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।
सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहते हैं परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (गिरिभानु/ सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनन्द जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्तिका कौन वर्णन कर सकता है।३६।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उपनन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
२५-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि।
२६-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।२७-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं।
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे।
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं।
विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।
वेश-विन्यास की सेवा —प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।
—मधुकन्दला।
वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा —विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।
जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।
ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं।
ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।
चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं।
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि। धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं। गुप्तचर और भीड़
खराग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं। ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं।
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं।
दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं।
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं।
वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं।
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं।
वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक —(नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।
रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं।
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं।
गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक।
रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं।
काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं।
चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि।
बलीवर्द (बैल) — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग)-इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।
हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।
मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।
तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं।
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है।
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।
घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है।
निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं।
कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है। लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है।
निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है।
दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है।
पंखा (व्यञ्जन) — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है।
लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
का धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामकी रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण —अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगल में स्थित हैं) —
(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं।
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं।
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।
वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं।
व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं।
मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं।
इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है।
यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी।
राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि।
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि।
मुख्यदूती — महीसूर्या।
चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—श्रृंगारिका आदि। मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं।
ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं। श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं। सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण—रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।
गृह-स्नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो स्नापित—कन्याएँ करती हैं।यही इनको स्नान कराती हैं। अत: इस कारण से स्नापिता संज्ञा इनकी सार्थक है। ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं।
गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं।
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
कुल-उपास्यदेव — भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं।
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है।
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा —ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं।
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र।
मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं।
मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी ।
यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है।
वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।
मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है। दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।
श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली।
वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं। दाहिना पैर —अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं।
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ —तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं,
उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी है ।।
"अर्थ- •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर हुआ उससे "आवीर और आवीर से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।
अर्थ:-:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था ।
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है। स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
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श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०। में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥अर्थ •-प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्। वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥ अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता आर्य शब्द परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।।
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय)
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)
समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी, तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु ,डकैत भी कहा है ।
पारसी ग्रंथ "शातीर" में व्यास जी का उल्लेख है-ये ईसापूर्व अष्टम सदी जुरथुस्त्र" के समकालीन थे। उनके जीवन काल का अनुमान विभिन्न विद्वानों द्वारा १४०० से ६०० ई.पू. है।
अर्थात :-"अकनु बिरमने व्यासनाम अज हिंद आयद ! दाना कि अल्क निर्वाचित नेरस्त ""!
“व्यास नाम का एक ब्राह्मण हिन्दुस्तान से आया वह बड़ा ही चतुर था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता !
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