शनिवार, 13 जनवरी 2024

गोपों की वंशावली

📚: जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णोऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीलेत्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ।१८।

अर्थ:- जाति से वह गोप निश्चय ही काले रंग का  जिसके पास न धन है, न वीरता, और नाही शील रूप है।   उससे तुम प्रेम करती हो सुशीले राधे ! उस निर्मोहन कृष्ण को शीघ्र ही त्याग दो।।१८।।

"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च
जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥ २२ ॥

अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।
 इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं।  इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।

श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

प्रसंग :- जब एक बार स्वयं भगवान कृष्ण ने राधा जी की परीक्षा एक गोपदेवि का रूप धारण करके के ली तो राधा ने गोप जाति की श्रेष्ठता के विषय में कहा था।

वृन्दावन खण्ड : अध्याय 18

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गोपदेवी ने कहा- राधे ! वरसानुगिरि की घाटियों में जो मनोहर सँकरी गली है, उसी से होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतने में नन्द जी के नवतरूण कुमार श्यामसुन्दर ने मुझे मार्ग में रोक लिया। उनके हाथ में वंशी और बेंत की छड़ी थी। उन रसिकशेखर ने लाज को तिलांजलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकांत वन में वे इस प्रकार कहने लगे- ‘सुन्दरी ! मैं कर लेने वाला हूँ। अत: तू मुझे करके रूप में दही का दान दे।’ मैंने कहा- ‘चलो, हटो। अपने-आप कर लेने वाले बने हुए तुम- जैसे गोरस-लम्पट को मैं कदापि दान नहीं दूँगी।’ मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिर पर से दही का मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला। मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरि की ईशान कोण वाली दिशा की ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ। 

"जात्या स गोपः किल कृष्णवर्णोऽधनी न वीरो न हि शीलरूपः।
यस्मिंस्त्वया प्रेम कृतं सुशीलेत्यजाशु निर्मोहनमद्य कृष्णम् ।१८।
अनुवाद;-

"जात का ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान, न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले! ऐसे पुरुष के प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आज से शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्ण को मन से निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो)। 

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इस प्रकार वैर भाव से युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा को बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदों के प्रयोग के सम्बन्ध में सरस्वती के चरणों का स्मरण करती हुई उनसे बोलीं।

श्रीराधा ने कहा- सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योग रीति से पंचाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अंगिरा आदि ऋषि भी जिनके चरणाविन्दों के मकरन्द और पराग का सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजनदु:खहारी, भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याण के लिये यहाँ प्रकट हुए आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? 

हे सखि! तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। 

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तुम उसे काला-कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की श्याम-विभा से विलसित सुन्दर कला का दर्शन करके उन्हीं में मन लग जाने के कारण भगवान नीलकण्ठ औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटे के लिये ही पागलों की भाँति व्रज में दौड़ते फिरते हैं !


📚: शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"
(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय}

पुरोहितों ने यादवों को गोपालन कारण वैश्य कहा यह  पूर्वदुराग्रह ही है। 

📚: 
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यशोदा जी  के माता और पिता के नाम वर्णन-

(ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्णजन्मखण्ड अध्याय- 13)
                  "श्रीगर्ग उवाच। 
"सुधामयं ते वचनं लौकिकं च कुलोचितम् । 
यस्य यत्र कुले जन्म स एव तादृशो भवेत्।३७।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः। 
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती।३८।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।३९।
नन्दो यस्त्वं च या भद्रे बालो यो येन वा गतः। जानामि निर्जने सर्वं वक्ष्यामि नंदसन्निधिम्।
अनुवाद - •-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में बलराम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नन्द जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप/सुमुख है।
और माता का नाम पद्मावती सती हैैं तुम नन्द जी को पति रूप में पाकर कृतकृत्य हो गईं हो ! 
 (ब्रह्म वैवर्त पुराण 4.13.४०)


लिंगपुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे:- १आयु: २मायु: ३अमायु: ४विश्वायु: ५श्रुतायु: ६शतायु: और ७दिव्य: ये सात पुत्र थे ।
आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष  इनका ज्येष्ठ पुत्र था  नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए।    
          
(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन इस प्रकार है ) 👇
पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी (चन्द्रवंशी) हैं )।

परन्तु यादवों के सनातन शत्रु कुछ पुरोहितों ने यादवों वंशमूल को ही काटने का दुष्प्रयास किया है।

श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमान्-इलो नाम महाशयाः।उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 3)

हे सज्जन! ऐसा सुना जाता है कि पूर्व में अत्यंत पुण्यात्मा और सौम्य ( इला,) नाम से  प्रजापति कर्दम के पुत्र, बाहलिका प्रांत में राज्य करते थे। 
एवं स राजा पुरुषो मासं भूत्वाथ कार्दमिः ।
त्रैलोक्यसुन्दरी नारी मासमेकमिला ऽभवत् ।। ७.८७.२९ ।।
अनुवाद:-
इस प्रकार कर्दम से वह राजा उत्पन्न हुआ इल, एक महीने के लिए पुरुष अगले महीने इला के नाम पर एक महिला बन गया,(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड-सर्ग- (87 श्लोक 29)

वाल्मीकि-रामायण कार ने  तो हद ही कर दी नहुष को आयुष् के स्थान पर सूर्यशी   राजा अम्बरीष से उत्पन कर दिया है। 
जैसे -वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में  इसका वर्णन है कि    नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे 
जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष के पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था)
वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में  इसका वर्णन है 👇

शीघ्रगस्त्वग्रिवर्णस्य शीघ्रगस्य मरु: सुत:।मरो:प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अम्बरीष: प्रशुश्रुकात्।।४१।।

अम्बरीषस्य  पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।

नाभागस्य बभूव अज अजाद् दशरथोऽभवत् ।अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।४३। 
(वाल्मकि  रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें )     ____________________________________
अनुवाद :--अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए । और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।
यादवों के इतिहास को नष्ट करने का षड्यंत्र वैदिक काल से ही कुछ पुरोहित वंश परम्परागत रूप से करते रहे हैं।

ययाति के पुत्र नाभाग से अज उत्पन्न कर दिए जो दशरथ के पिता और राम के पितामह थे।
 सम्भव हो ये सब सूर्य वंश के अन्तर्गत हों परन्तु यादवों का आदि पूर्वज बुध और इला (पृथ्वी) की पारस्परिक जीवन शक्तियों उत्पन्न पुरुरवा गोप( गोष:) है।
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यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की भी चेष्टा की।

उपरोक्त श्लोकों में नभगपुत्र नाभाग का वर्णन है ।
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातर: कविम्। 
यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्।।१।
मनु पुत्र नभग के पुत्र नाभाग का वर्णन है । जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)
(परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी हुए थे ) क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था। यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था । इसी की नकल करके बहुत से वंशावली पात्र सूर्यवंशी रूप में रचे गये। 

कृष्ण से लेकर जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण श्रोतों के रूप में आप्तों पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे।

इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है। दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी  निरन्तर  सक्रिय रहे । 
विश्व- इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।

द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है ।
तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का भी निर्वहन किया इस लिए गोपों को ब्राह्मण व्यवस्था के किसी एक वर्ण में नहीं बाँधा जा सकता है।

नन्द के जीवन की ऐतिहासिकता को उद्धृत करते हुए भागवत पुराण के दशम स्कन्ध अध्याय एक की टीका करते हुए वंशीधर नामक टीकाकार ने टीका की है  "  देखें श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४) नीचें

📚: किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं ।श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।
स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया  सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश ।

"अर्थ"-"जो निश्चय ही अपने गुणों  से स्वजनों को वश में करने वाली, और यश देने वाली थीं। 
सुनने वालों के द्वारा और देखने वालों के द्वारा और भक्ति करनेवालों के द्वारा उसके क्या कहने! दूसरे शब्दों देखने सुनने वालों के द्वारा यशोदा की नाम और गुण के आधार सार्थकता सिद्ध हेतु इन लोगों द्वारा प्रशंसा की गयी ।

जब यशोदा का आगमन पर्जन्य के घर पुत्रवधू के रूप में हुआ; तो पर्जन्य की सभी सन्तानों (अपत्यों) में ही सुख सम्पदा वृद्धि हुई थी।

 (और एक पिता के लिए इससे बढ़़कर क्या उपलब्धि थी अर्थात् यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।यशोदा नन्द के घर आने पर सब लोग आनन्दित थे। और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके  प्रभु के चरण-कमलों में ध्यान लगाने वाले हो गये और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढ़ाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया। 

उस  सभा में उपनन्द के द्वारा मझले अर्थात् अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था ; उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में ही नियुक्त कर दिया।

तब संकोच करते हुए नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये। 
अर्थात राजपद करते समय नन्द थोड़ा संकोच करने लगे। स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं ; यह कहते हुए तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की । और उसके बाद  पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए उस सभा को सम्पन्न कर; वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
(अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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'तत्काले शास्त्रसारं पृच्छत: पुत्रानुपदिदेश ।तथाहि–किं भयमूलमदृष्टं किं शरणं श्रीहरेर्भक्त: किं प्रार्थे तद्भक्ति: किं सौख्यं तत्परप्रेम। इति " श्रीमानुपनन्द: श्रीनन्दमहेन्द्रसदसि मन्त्रितया तस्थिवान् । तस्य च नन्दराजस्य श्रीगोलोकेशश्श्रीकृष्णो द्वादशीव्रतचर्यातुष्ट: पुत्रतामत्रापेति । इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति।)
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"अर्थ"- उस काल में ही  शास्त्रों के सार का    पर्जन्य ने अपने सभी  पुत्रों को उपदेश दिया ।
जीवन में भय का मूल  कौनसा अदृश्य तत्व है;  हरि के भक्त किसकी प्रार्थना अथवा भक्ति करे ? कि उनका संसार भय से निवारण हो। और सुखी होने के लिए किस प्रकार प्रेम भाव की तत्परता है हो  आदि ।आध्यात्मिक और भक्ति मूलक सिद्धान्तों की पर्जन्य जी द्वारा व्याख्या  की गयी। इस प्रकार के पर्जन्य के द्वारा उपदेश - काल में श्रीमान उपनन्द और "श्रीमान नन्द आदि सभी व्रज मण्डल की सभा में मन्त्रियों के साथ खड़े हुए थे । और उस नन्द के राज्य में गोलोक के स्वामी अर्थात श्रीकृष्ण के षोडांशी रूप विष्णु ने पर्जन्य के द्वादशी व्रत की चर्या (साधना) से प्रसन्न होकर पर्जन्य को पुत्ररत्न के रूप में इन उपनन्द' नन्द आदि पुत्रों को प्राप्त कराया। 
इस प्रकार यह नन्द का सम्पूर्ण परिवार ( समुदाय/ कुल ) वास्तव में यदुवंश का ही रूप है।
दूसरे शब्दों नन्द का कुल यदुवंश से सम्बन्धित  था ।(इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति)
संक्षेप में नन्द गोप कृष्ण क रक्तसम्बन्धी थे। अथवा सनाभि थे -एक ही पूर्वज से उत्पन्न पुरुष। सपिंड पुरुष
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सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पर आधारित वंशीधरी टीका दशम् स्कन्द पूर्वार्द्ध प्रथम अध्याय- पृष्ठ  संख्या -१६२५)
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गोपों की वीरता और शूरता के शास्त्रों में अनेक सन्दर्भ हैं।

"अथ नारायणा: क्रुद्धा: विविधा आयुध पाणय: क्षोदयन्त:शरव्रातेै: परिवव्रुर्धनञ्जयम्।७।
अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।   

और आगे के श्लोक में वर्णन है कि 
'अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।              कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। 
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ; जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।      कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याः शूर आभीरा दशेरकाः।६।।
शका यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।
गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः।।८।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय) अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा, पराक्रमी कारकाश , कलिंग, सिंहल , पराच्य,  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।
शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।     विशेष:- कुछ अनुवादक   शूराभीर" में शूर+आभीर= दीर्घ सन्धि के रूप में शूराभीर पद का अर्थ   शूर या वीर अहीर करते हैं वह भी अहीरों( गोपों) की वीरता को सूचित करता है।
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)

महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और१९ पर भी गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है। देखे निम्नलिखित श्लोक-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता:सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अर्थ:-
मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।

ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व उनके वीरत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।

ये गोप अथवा आभीर लोग ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में नहीं हैं। 
कृष्ण ने भी क्षत्रिय शब्द का अभिधा शब्द शक्ति परक अर्थ ग्रहण किया है।  इस विषय में हम श्रीमद्भगवद्गीता का सन्दर्भ देते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी कृष्ण कहते है-  
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।
अनुवाद:-
शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजाके संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ दिखाकर पलायन न करना, दान करना और शासन करने का भाव -- ये सबके सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। अर्थात जिस किसी के स्वभाव में ये कर्म हैं वही क्षत्रिय है।

क्षत्रिय' शब्द का उद्गम "क्षत्र" से है जिसका अर्थ  विनाश से बचाने वाले केअर्थ में है।,
रघुवंशम्  महाकाव्य  में राजा दिलीप, सिंह से कहते हैं-
रघुवंश महाकाव्य में महाकवि कालिदास ने क्षत्रिय शब्द की मूल व्युत्पत्ति की है।

"क्षतात्किल त्रायते इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः ।
राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा ॥२-५३॥
अर्थ - क्षत्रिय शब्द की संसार में प्रचलित जो व्युत्पत्ति है वह निश्चित ही 'क्षत् अर्थात् नाश से जो बचावे' (क्षतात् त्रायते) वह क्षत्त्र या क्षत्रिय है। अतः उस क्षत्र शब्द से विपरीत वृत्ति वाले अर्थात नाश से रक्षा न करने वाले पुरुष के राज्य और अपकीर्ति से मलिन हुए प्राण ये दोनों व्यर्थ हैं।

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प्रारम्भिक ऋगवेदिक आदिम जाति मुख्यधारा
ऋग्वैदिक कालीन शासन प्रणाली में सम्पूर्ण कबीले का प्रमुख "राजन" कहलाता था व राजन की पदवी वंशानुगत नहीं होती थी। कबीले की समिति जिसमें महिलाएं भी भागीदार होती थीं, राजा का सर्व सहमति से चयन करती थी। कबीले के जन व पशुधन (गाय) की रक्षा करना राजन का कर्तव्य था। राजपुरोहित राजन का सहयोगी होता था। प्रारंभिक दौर में अलग से कोई सेना नहीं होती थी परंतु कालांतर में शासक व सैनिकों के एक पृथक वर्ग का उदय हुआ। उस समय समाज के विभाजन की प्रणाली वर्णों के आधार पर नहीं थी।

उत्तर वैदिक काल
ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त" में चार वर्णों के पौराणिक इतिहास का वर्णन है। कुछ विद्वान पुरुषसूक्त को ऋग्वेद में अंतःप्रकाशित (बीच में जोड़ा हुआ) मानते हैं, जो कि वैदिक साहित्य की मूल संरचना के मुक़ाबले नवीन तर्कों पर ज्यादा आधारित है। वे मानते हैं चूंकि वैदिक ग्रंथों के वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं है इसलिए पुरुष सूक्त को वंशानुगत जाति व्यवस्था की वकालत हेतु लिखा गया था।
 वैकल्पिक व्याख्या यह भी है कि पुरुषसूक्त के अलावा ऋग्वेद में अन्य कहीं भी "शूद्र" शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है, 
अतः कुछ विद्वानों का मानना है कि पुरुष सूक्त उत्तर- ऋग्वैदिक काल का एक संयोजन था, जो एक दमनकारी और शोषक वर्ग संरचना को पहले से ही अस्तित्व में होने को निरूपित व वैध बनाने हेतु लिखा गया था। 

हालांकि, पुरुषसूक्त में "क्षत्रिय" शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है, "राजन्य" शब्द हुआ है, फिर भी वैदिक ग्रंथावली में यह पहला अवसर माना जाता है जहां चारों वर्णों का एक समय में व एक साथ उल्लेख हुआ है। "राजन्य" शब्द का प्रयोग संभवतः उस समय राजा के संबधियों हेतु प्रयुक्त हुआ माना जाता है, जबकि यह समाज के एक विशिष्ट वर्ग के रूप में स्थापित हो चुके थे। वैदिक काल के अंतिम चरणों में "राजन्य" शब्द को "क्षत्रिय" शब्द से प्रतिस्थापित कर दिया गया, जहाँ "राजन्य" शब्द राजा से संबंध होना इंगित करता है तथा "क्षत्रिय" शब्द किसी विशेष क्षेत्र पर शक्ति प्रभाव या नियंत्रण को।
"राजन्य" शब्द प्रमुख रूप से एक ही वंशावली के तहत प्रमुख स्थान को प्रदर्शित करता है जबकि "क्षत्रिय" शब्द शासन या शासक को।
क्षत्रिय वैश्य और शूद्र शब्द ब्राह्मण शब्द की तरह जाति मूलक नहीं हैं ।
एक विद्वान-'काशीप्रसाद जायसवाल का तर्क है कि ऋग्वेद में "ब्राह्मण" शब्द भी दुर्लभ प्रतीत होता है, यह सिर्फ "पुरुषसूक्त" में ही आया है तथा संभवतः पुरोहित वर्ग विशेष के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है। पाणिनी, पतंजलि, कात्यायन व महाभारत के आधार पर जयसवाल मानते हैं कि राजनैतिक वर्ग को राजन्य नाम से संबोधित किया जाता था तथा राजन्य लोकतान्त्रिक रूप से चुने हुये शासक थे। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने हुये शासक जैसे कि अंधक व वृष्णि इत्यादि इस संदर्भ में उदाहरण माने जाते हैं।

विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे ।

जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है
"अथ कदाचित्प्राड्‌विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥

सुयोधनेन संपूजितः परमादरेण।
सोपचारेण महार्हसिंहासने स्थितोऽभूत् ॥७॥____________
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे दुर्योधनप्राड्‌विपाकसंवादे
बलदेवावतारकारणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कोशकारों द्वारा  की गयीं हैं। ✍
प्रदेश उत्पत्ति अभीर: रूप में-
अभीर:=
"अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः={ अभि + ईर् +अच् }अभीर:  "सामने मुख करके गाय हाँकने वाला गोप- "गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् इति अभीरी । 
सन्दर्भ :- वाचस्पत्यम् संस्कृतकोश-

दूसरी उत्पत्ति आभीर रूप में-
आभीरः= पुंल्लिगपद (आ =समन्तात् भियं= भयं राति = ददाति। रा =दाने आत इति कः ) गोपः अमर कोश ॥ इसी आभीर का प्राकृत भाषा में  आहिर रूप । 

अमरकोशः में  आभीर पुं। के पर्याय वाली रूप हैं।समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्, आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप, गोष:( घोष) -2।9।57।2।5
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरगोषवल्लवाः॥
पत्नी : आभीरी
सेवक : गोपग्रामः
वृत्ति : गौः
:गवां_स्वामिः
पदार्थ-विभागः : वृत्तिः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः

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"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी ( जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द  रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ। पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।
(Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎‎ (pasu, “livestock”),
3-Latin pecū (“cattle”), 
4-Old English feoh (“livestock, cattle”),
5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).
पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-
१-प्रोटो-इंडो-ईरानी में पाकु(páću) जोकि, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेकु péḱu ("मवेशी, पशुधन") से।
 अवेस्ता में (पसु, "पशुधन"-pasu, “livestock”) के रूप में आया।
लैटिनमें  पेकु-pecū (“cattle” ("मवेशी") के अर्थ में तो  पुरानी अंग्रेज़ी में यही feoh फीह ("पशुधन, मवेशी"- (“livestock, cattle”) के रूप में जो 
(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”) स्थापित करता है।

आशय यह कि पशु सृष्टि के आदिम काल में मानवीय जीविका और दुग्ध उत्पादन के श्रोत बनकर सहचर या साथी रहे हैं।
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ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) वें सूक्त की दसवीं ऋचा में "यदु और तुर्वसु" को गायों की परिचर्या करते हुए और गायों से घिरा हुआ " वर्णन  करना यादवों के पूर्वजो की पशुपालन जीवनचर्या को दर्शाता है। और उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वसु दोनों भाईयों को द्विवचन में दाता अथवा दानी होने से ही "दासा" विशेषण से सम्बोधित किया गया है। 

जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" द्विवचन  कर्ता और कर्म कारक में  विद्यमान है।
प्राचीनतम वैदिक सन्दर्भों  में दास: का अर्थ दाता" अथवा दानी ही हेै।
वैदिक निघण्टु इसका साक्ष्य है।  कि उत्तर वैदिक काल और  लौकिक संस्कृत में आते आते  "दास शब्द का अर्थ 'दाता से पतित होकर देव संस्कृतियों के विद्रोही अर्थ में  रूढ़ होकर धनसम्पन्नशाली असुरों का सम्बोधन होने लगा जैसे कि ऋग्वेद की कुछ परवर्ती ऋचाओं में  वृत्र शम्बर और नमुचि आदि असुरो के लिए  हुआ भी है। स्वयं असुर शब्द नें भी अपना अर्थ देव विरोधी जनजाति के लिए रूढ़ कर लिया । अत: वैदिक सन्दर्भ में "दास  शब्द का अर्थ "सेवा करने वाला गुलाम" या भृत्य नहीं है।👇 जैसा कि कुछ परवर्ती भाष्य कार करते रहते हैं।
और दास का अर्थ भक्त भी नहीं था।

जैसे कि आज कल तुलसी दास , कबीरदास अथवा मलूकदास जैसे नामवाची शब्दों में सुनाई देता है। पद्मपुराण पातालखण्ड में वैष्णव सन्तों को दास उपाधि से सम्मानित किया जाता है।

सावधानी से दास शब्द के साथ एक नाम भी देना चाहिए । तब बुद्धिमान व्यक्ति को विष्णु के भक्तों को प्रेमपूर्वक भोजन कराना चाहिए। उसे अपने सम्माननीय गुरु को वस्त्र, आभूषण आदि से सम्मानित करना चाहिए। हे महान ऋषि, उसे अपनी सारी संपत्ति या उसकी आधी संख्या गुरु को दे देनी चाहिए। भक्तों को गुरु के लिए अपना शरीर भी गिराकर रहना चाहिए (यानि अपना शरीर गिरा देना चाहिए)। जो बुद्धिमान व्यक्ति इन पाँच पवित्र संस्कारों से पवित्र होता है, वह कृष्ण की सेवा में भाग लेता है; अन्यथा करोड़ों कल्पों तक भी नहीं ।

19-21. पूर्व विद्वानों ने इन्हें पांच पवित्र संस्कार बताया है: अंकन (शंख आदि के निशान वाला शरीर), सीधा निशान, प्रार्थना, नाम लेना और पांचवां बलिदान है। शंख, चक्र आदि से अंकन (किया जाता है); कहा जाता है कि सीधे निशान में छेद होता है; नाम दास शब्द से जुड़ा है ; प्रार्थनाएँ दो हैं. त्याग गुरु की पूजा है और विष्णु भक्त है । ये पाँच महान पवित्र संस्कार मैंने तुम्हें बताये हैं।

ग्वाले, गायें, ग्वाले और यह मेरा वृन्दावन सदैव (अस्तित्व में) रहते हैं। यह सब शाश्वत है, और बुद्धि के आनंद से भरपूर है। इस आनंदकंद ('आनंद की जड़') को मेरा वृन्दावन समझो, जिसमें प्रवेश मात्र से मनुष्य फिर से सांसारिक अस्तित्व में नहीं आता।

अंकनं शंखचक्राद्यैः सच्छिद्रं पुंड्रमुच्यते ।
दासशब्दयुतं नाममन्त्रो युगलसंज्ञकः।२०।

गुरुवैष्णवयोः पूजा याग इत्यभिधीयते ।
एते परमसंस्कारा मया ते परिकीर्तिताः ।२१।

अभ्यंगमर्दनं कृत्वा दासैः संस्नापितो मुदा ।
धौतवस्त्रधरः स्रग्वी चंदनाक्तकलेवरः ३६।

गोपा गावो गोपिकाश्च सदा वृंदावनं मम ।
सर्वमेतन्नित्यमेव चिदानन्दरसात्मकम् ।७५।

सन्दर्भ:-

 वास्तव में  यह तो आज के समय में का उन्नत अर्थ है। इस दास शब्द का विकसित अर्थ है। क्योंकि ये "दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम होने से आधुनिक अर्थों से विपरीत ही हैं । अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇क्या वह भक्त था ? जैसा कि निम्न ऋचा में वर्णित है।
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"उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥ (ऋग्वेद- ४/३०/१४)
और वर्जिन दैत्य को लिए भी। दास शब्द का सम्बोधन है 👇क्या वह भी भक्त था ?
"उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४
 ____________________________________
उपर्युक्त ऋचा में  दास शब्द असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर को कोलों की सन्तान होने से कौलितर कहा गया।
अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए  दानी- (धन -सम्पन्न) कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया 
विदित हो कि  ईरानी संस्कृति में  असुर(अहुर) शब्द का अर्थ श्रेष्ठ और ईरानीयों के सर्वोच्च उपास्य का वाचक या सम्बोधन है। ईरानी संस्कृति में "दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ" कुशल और दाता" होता है । 
विदित हो कि ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे के रूप में किया है।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर -महत्) था ।

दास शब्द का अर्थ परिवर्तन काल-क्रम से उसी प्रकार हुआ जैसे वैदिक भाषा में घृणा- दया से लौकिक संस्कृत में घृणा नफरत का अर्थ देने लगा।

घृणा:-कारुण्ये--दयायां कारुण्येन हि हृदयं सिक्तमिवार्द्रं भवतीति तस्य तथात्वम् । “मन्द- मस्यन्निषुलतां घृणया मुनिरेष वः” किरातार्जुनीय । 

घृणा, स्त्री, (घ्रियते सिच्यते हृदयमनया । घृ सेके + बाहुलकात् नक् स्त्रियां टाप् ।
 दयारसेन हि हृदयं सिक्तमिवार्द्रं भवतीति तथात्वम्  करुणा ।

'मन्दं अस्यन्निषुलतां घृणया मुनिरेष वः ।
प्रणुदत्यागतावज्ञं जघनेषु पशूनिव ।। १५.१३ ।।
(महाकवि भारवि रचित.किरातार्ज्जुनीय सर्ग १५)
“इत्थङ्गते गतघृणः किमयं विधत्ताम्” रघुवंशमहाकाव्य।9/81।
अर्थ-ऐसा घटित होने पर दया से रहित  क्या विधान करें।
ऋग्वेद में घृणा का अर्थ प्रकाश, ज्योति और उष्मा  भी है।
 “अह्ना शं भानुना शं हिमा शं घृणेन ऋ० १० । ३७ । १० ।
 ऋग्वेद १ । १३३ । ६ । “
इसी प्रकार दास का पूर्व वैदिक अर्थ कभी दानी और दाता भी रहा है।
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 या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।
तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं-- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐतरेय.आरण्यक.- ५./ २./ ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्वलायन. श्रौतसूत्र- ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति । 
उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति 
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मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९।।

“सूरे= सूर्ये "उदिते =उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य  “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥
अर्थ-
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी ! यह स्तोत्र तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान (सायंकाल) में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
______________________________  
स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०
आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥३०। 
_________________________________  
(आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् ।   उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥३१। 
ऋग्वेद (८/१/३०)
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(१-“वनन्वतः= वननवतः संभक्तवतः
२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः 
३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे
४- “आ “रुहं आरोहयम्।रुहेरन्तर्भावितण्यर्थाल्लुङि ‘ कृमृदृरुहिभ्यः' इति च्लेरङादेशः । तदानीं मामेवं स्तुहि । 
५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।
६-“वामस्य वननीयस्य 
७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।
__________________________________
८- "याद्वः= यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।
९-“पशुः। लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा  अथवा यम् पाशेन बधेत( जिसको पाश( रस्सी) में बाँधा जाय वह पशु है) । 
___________________________________
१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥
अनुवाद-
हे मेधातिथि ! प्रयोग(प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है । वह  तुमको दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
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"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा हैं जो पशुओं( गाय-महिषीआदि) से समन्वित (युक्त) हैं अर्थात् यादव वंश के लोग सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति और रोजीरोटी(जीविका) के आधार हुआ करते थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार की सभी प्राचीन और प्राचीनत्तम भाषाओं में péḱu (पेकु) शब्द  रूप में विद्यमान है ।
पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ।पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।

अनुवाद-व अर्थ-★
ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आसंग ने पुरुषत्व को प्राप्त किया। पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की  तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई। अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान हो गया)
यही शाश्वती आंगिरस ऋषि की सुता (पुत्री) थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।
________________________________
📚 हे वैश्येन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुन्धरा ।
पुनः सृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम् ।।३६। (श्रीकृष्णजन्मखण्ड ब्रह्मवैवर्तपुराण )।    
अर्थ:- 
हे वैश्यों के मुखिया ! कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे । पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी । इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है । परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇
और यह वैश्य  श्रेणि की उपाधि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए।
 तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए।

क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं । क्या वे वैश्य हो गये ? परन्तु पालन रक्षण तो क्षत्रियों की प्रवृत्ति है ।
धूर्त पुरोहितों ने पूर्व दुराग्रह और  द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया है। कृष्ण का प्रभाव शाली व्यक्तित्व होने के कारण  उनको वैश्य लिखने की हिम्मत नही की परन्तु उनकी जाति को वैश्य लिख दिया अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में स्थान हि कहाँ था ?

पशुपालन और कृषि वैदिक ऋषियों की परम्परा-क्योंकि जब परिकल्पना सत्यापित होकर सिद्धान्त बन जाये तब ऐसा ही है यह मानना उचित है।
और यह तब तक के लिए लिखा जा सकता है,जबतक इसे खण्डित करके इसके विरुद्ध कोई नया तथ्य न आ जाय-
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो 
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?
श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं शुश्रूषास्वभावं कर्मम शूद्रस्य अपि स्वभावजम्।।44।।


अहीर जाति के लोग बड़े धार्मिक ,सदाचारी, अच्छे व्रतों का जानकार और धर्म वत्सल होते थे।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय (17) में यही वर्णन है।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।

अनया आभीरकन्याया तारितोगच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

अनुवाद-भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों ! मेरे द्वारा  यह जानकर यह कन्या धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है  तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
_______________ऊं________________
_________________
इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
_______________ऊं________________
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
_______________ऊं________________
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
_______________ऊं________________
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
___________

गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्  दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
अनुवाद-
आये हुए सभी गोपों ने ब्रह्मा के समीप गायत्री को देखकर उस मेखलाबँधी हुई यज्ञ के समीप में 
"हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
अनुवाद-हाय पुत्री इस प्रकार तब माता- पिता बहिन- बन्धु और उसकी सभी सखीयों ने कहा हाय सखी 
"केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी शाटीं  निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
अनुवाद-हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसके द्वारा हटा दिया गया है ।
____________________________________
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
अनुवाद-किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के  विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-
               (स्वयं हरिर् उवाच)
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद-स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है  ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।
____________________________________
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
अनुवाद-यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यों वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
अनुवाद-इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो  यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।
"योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद- हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए प्राप्त नहीं करते हैं ।
______
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चयेे।१५।
अनुवाद-धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको  जानकर ही मैने  ब्रह्मा को पत्नी रूप में  इस कन्या का दान किया है ।१५।
____________________________________
इसी क्रम में विष्णु का गोपों को' उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने  का वचन देना-
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अनुवाद –इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं ‌। (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा। 
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-अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद –मैं अवतरण करुँगा वह लीला भविष्य में होगी जब नन्द आदि भी पृथ्वी पर अवतरण करेंगे।१७।
-करिष्यंतितदाचाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः युष्माकंकन्यकाःसर्वा वसिष्यंतिमयासह।१८।
अनुवाद-आप लोगों के मध्य में रहकर मैं अनेक लीला करूँगा  और तुम्हारी कन्याऐं सभी मेरे साथ निवास करेंगीं ।१८।
देखें स्कन्दपुराण नागर खण्ड-
"तेनाकृत्येऽपि रक्तास्तेगोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ।
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४॥_
"सात्वतीयटीका-
तेन-=उस कृष्ण रूप के द्वारा अकृत्येऽपि- =( विना कुछ करते हुए भी) अर्थात न करने पर भी  रक्तास्ते-=तेरे रक्त( जाति)वाले गोपा=-  गोपगण.यास्यंति श्लाघ्यताम् =-प्रशंसा को प्राप्त करेंगे  सर्वेषामेव लोकानां =-समस्त लोकों में, देवानां च विशेषतः-= विशेषकर देवताओं में भी।१४।
 इस प्रकार वे गोप कुछ न करते हुए भी =  (अकृत्येऽपि) तेरी जाति वाले =(रक्तास्ते) प्रशंसा को प्राप्त करेंगे= यास्यंति श्लाघ्यताम्  ।१४। 
'यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवा नराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति।१५॥
और जहाँ जहाँ भी मेरे गोप वंश में मनुष्य निवास करेंगे वहाँ वहाँ लक्ष्मी का निवास होगा भले ही वह  जंगल क्यों ही नहों।१५। 
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः।१७।
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इसी प्रकार स्कन्दपुराण नागर खण्ड में विष्णु का गोपों में अवतार लेने का वर्णन है।
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति॥११॥
तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः
तत्र त्वं पावनार्थायचिरं वृद्धिमवाप्स्यसि॥१२॥
एकःकृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः
तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्यसारथ्यंत्वं करिष्यसि।१३।
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः॥१४ ॥
 च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५।
इतिश्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यांसंहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥१९३॥


नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा-
                 "श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-

श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :

71-74. इस कल्पद्रुम  के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में  चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।

इस प्रकार  (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।


इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।


पुरुरवा पुत्र  आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आषुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश और अवतार होगा।  नीचे के श्लोकों में यही है।
 
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।

देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।

दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।

अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।

देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।

अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।

              "दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।

एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।

एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।

प्रसंग-

एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी  दत्तात्रेय ने उन्मत्त  हालत में  राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये। (आयुस की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, उन्होंने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुस् से कहा:

129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।”

राजा ने कहा :

130-135. हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र  अवश्य दीजिए।

दत्तात्रेय ने कहा :

136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह  सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।

इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय  उसे  आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।



तावत्पुष्पसुवृष्टिं च चक्रुर्देवाः सुतोपरि ।
ललितं सुस्वरं गीतं जगुर्गंधर्वकिन्नराः ५६।

ऋषयो वेदमंत्रैस्तु स्तुवंति नृपनंदनम् ।
वशिष्ठस्तं समालोक्य वरं वै दत्तवांस्तदा ।५७।

नहुषेत्येव ते नाम ख्यातं लोके भविष्यति ।
हुषितो नैव तेनापि बालभावैर्नराधिप ।५८।*******

तस्मान्नहुष ते नाम देवपूज्यो भविष्यसि ।
जातकर्मादिकं कर्म तस्य चक्रे द्विजोत्तमः ।५९।

व्रतदानं विसर्गं च गुरुशिष्यादिलक्षणम् ।
वेदं चाधीत्य सम्पूर्णं षडङ्गं सपदक्रमम् ।६०।

सर्वाण्येव च शास्त्राणि अधीत्य द्विजसत्तमात् ।
वशिष्ठाच्च धनुर्वेदं सरहस्यं महामतिः।६१।

शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि ग्राहमोक्षयुतानि च ।
ज्ञानशास्त्रादिकं न्याय राजनीतिगुणादिकान् ।६२।

वशिष्ठादायुपुत्रश्च शिष्यरूपेण भक्तिमान् ।
एवं स सर्वनिष्पन्नो नाहुषश्चातिसुन्दरः ।६३।

वशिष्ठस्य प्रसादाच्च चापबाणधरोभवत् ।६४।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे पञ्चोत्तरशततमोऽध्यायः ।१०५।

वसिष्ठ ने कहा :

आप सभी ऋषिगण आकर बालक का दर्शन करें। यह (बच्चा) किसका है ? रात को इसे मेरे दरवाजे के आँगन में कौन ले आया? ऋषियों ने उस बच्चे को देवता या गंधर्व के बच्चे के समान और करोड़ों कामदेवों के समान देखा होगा।

उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उस महान आयु के पुत्र को देखकर अत्यंत जिज्ञासा और प्रसन्नता से भर दिया। उस धर्मात्मा वसिष्ठ ने कुलीन आयु के पुत्र को देखकर उसके (अलौकिक) ज्ञान से यह जान लिया कि यह बालक उदार आयु का पुत्र है और (अच्छे) आचरण से सम्पन्न है तथा उस दुष्ट तथा दुष्टात्मा हुण्ड का वृत्तान्त भी यह जानता है। .

55-60ए. जब ब्रह्मा के पुत्र उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने (उसके लिए) दया करके बालक को अपने हाथों से उठाया, तो देवताओं ने बालक पर पुष्पों की वर्षा की । गंधर्व और किन्नर मनमोहक और मधुर गायन करते थे। ऋषियों ने वैदिक ऋचाओं से उस राजा के पुत्र की स्तुति की। उसे देखकर वसिष्ठ ने उसी समय उसे वरदान दे दिया। “तुम्हारा नाम संसार में नहुष के नाम से प्रसिद्ध होगा । अपनी बालसुलभ भावनाओं के कारण, तुम उसके द्वारा नष्ट नहीं हुए। इसलिये तेरा नाम नहुष होगा, और तू देवताओं द्वारा सम्मानित [1] किया जाएगा।” सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण (यानी वशिष्ठ [वसिष्ठ]?) ने उनके जन्म पर समारोह आयोजित किया, और उन्हें व्रत, दान सिखाया और उन्हें शिक्षक के पास एक शिष्य के रूप में भेज दिया।

60-64. एक छात्र के रूप में छह अंगों वाले वेदों और पद और क्रम [2] (उन्हें पढ़ने के तरीके) के साथ पूरी तरह से अध्ययन किया, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण वशिष्ठ से सभी पवित्र पुस्तकों का अध्ययन किया, अपने रहस्यों के साथ तीरंदाजी, और (उपयोग) () दिव्य हथियार और अग्नेयास्त्र के, साथ ही उन्हें पकड़ने और छोड़ने के तरीके, और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं, तर्क विज्ञान, राजनीति जैसी उत्कृष्टताएं, आयु का सुंदर और समर्पित पुत्र इस प्रकार पूरी तरह से निपुण हो गया। वसिष्ठ की कृपा से वह धनुष-बाण धारक (अर्थात् चलाने में कुशल) हो गया।

फ़ुटनोट और संदर्भ:

[1] :

हुशिता-शब्द स्पष्ट नहीं है।

[2] :

पादक्रम- पाद वैदिक शब्दों को एक दूसरे से अलग करना है और क्रमा वैदिक पाठ को पढ़ने का विशेष तरीका है।


नहुष का विष्णु के अंश से उत्पन्न होना- तथा नहुष की पत्नी अशोकसुन्दरी जो पार्वती पुत्री थीं उनकी जन्म गाथा- नवीन संस्करण-


                "कुञ्जल उवाच-
गते तस्मिन्महाभागे दत्तात्रेये महामुनौ ।
आजगाम महाराज आयुश्च स्वपुरं प्रति ।१।

इन्दुमत्या गृहं हृष्टः प्रविवेश श्रियान्वितम् ।
सर्वकामसमृद्धार्थमिन्द्रस्य सदनोपमम् ।२।

राज्यं चक्रे स मेधावी यथा स्वर्गे पुरन्दरः ।
स्वर्भानुसुतया सार्द्धमिन्दुमत्या द्विजोत्तम।३।

सा च इन्दुमती राज्ञी गर्भमाप फलाशनात् ।
दत्तात्रेयस्य वचनाद्दिव्यतेजः समन्वितम् ।४।

इन्दुमत्या महाभाग स्वप्नं दृष्टमनुत्तमम् ।
रात्रौ दिवान्वितं तात बहुमङ्गलदायकम् ।५।

गृहान्तरे विशन्तं च पुरुषं सूर्यसन्निभम् ।
मुक्तामालान्वितं विप्रं श्वेतवस्त्रेणशोभितम् ।६।

श्वेतपुष्पकृतामाला तस्य कण्ठे विराजते ।
सर्वाभरणशोभांगो दिव्यगन्धानुलेपनः ।७।

चतुर्भुजः शङ्खपाणिर्गदाचक्रासिधारकः ।
छत्रेण ध्रियमाणेन चन्द्रबिम्बानुकारिणा ।८।

शोभमानो महातेजा दिव्याभरणभूषितः ।
हारकङ्कणकेयूर नूपुराभ्यां विराजितः ।९।

चन्द्रबिम्बानुकाराभ्यां कुण्डलाभ्यां विराजितः ।
एवंविधो महाप्राज्ञो नरः कश्चित्समागतः ।१०।

इन्दुमतीं समाहूय स्नापिता पयसा तदा ।
शङ्खेन क्षीरपूर्णेन शशिवर्णेन भामिनी ।११।

रत्नकाञ्चनबद्धेन सम्पूर्णेन पुनः पुनः ।
श्वेतं नागं सुरूपं च सहस्रशिरसं वरम् ।१२।

महामणियुतं दीप्तं धामज्वालासमाकुलम् ।
क्षिप्तं तेन मुखप्रान्ते दत्तं मुक्ताफलं पुनः।१३।

कण्ठे तस्याः स देवेश इन्दुमत्या महायशाः ।
पद्मं हस्ते ततो दत्वा स्वस्थानं प्रति जग्मिवान् ।१४।

एवंविधं महास्वप्नं तया दृष्टं सुतोत्तमम् ।
समाचष्ट महाभागा आयुं भूमिपतीश्वरम् ।१५।

समाकर्ण्य महाराजश्चिन्तयामास वै पुनः ।
समाहूय गुरुं पश्चात्कथितं स्वप्नमुत्तमम् ।१६।

शौनकं सुमहाभागं सर्वज्ञं ज्ञानिनां वरम् ।
राजोवाच-
अद्य रात्रौ महाभाग मम पत्न्या द्विजोत्तम ।१७।

विप्रो गेहं विशन्दृष्टः किमिदं स्वप्नकारणम् ।
शौनक उवाच-
वरो दत्तस्तु ते पूर्वं दत्तात्रेयेण धीमता ।१८।

आदिष्टं च फलं राज्ञां सुगुणं सुतहेतवे ।
तत्फलं किं कृतं राजन्कस्मै त्वया निवेदितम् ।१९।

सुभार्यायै मया दत्तमिति राज्ञोदितं वचः ।
श्रुत्वोवाच महाप्राज्ञः शौनको द्विजसत्तमः ।२०।

दत्तात्रेयप्रसादेन तव गेहे सुतोत्तमः।
वैष्णवांशेन संयुक्तो भविष्यति न संशयः।२१।

स्वप्नस्य कारणं राजन्नेतत्ते कथितं मया ।
इन्द्रोपेन्द्र समः पुत्रो दिव्यवीर्यो भविष्यति ।२२।

पुत्रस्ते सर्वधर्मात्मा सोमवंशस्य वर्द्धनः ।
धनुर्वेदे च वेदे च सगुणोसौ भविष्यति ।२३।

एवमुक्त्वा स राजानं शौनको गतवान्गृहम् ।
हर्षेण महताविष्टो राजाभूत्प्रियया सह ।२४।
अनुवाद:-

कुंजल ने कहा :

1-4. जब वे महामहिम महर्षि दत्तात्रेय चले गये, तब वे महान् राजा आयुष अपने नगर में (वापस) आये। वह प्रसन्न होकर वैभव से संपन्न, सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न तथा इंद्र के भवन के समान दिखने वाले इन्दुमती साथ  महल में प्रवेश कर गये। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ,  वह आयुष स्वर्ग में इंद्र की तरह, बुद्धिमान व्यक्ति स्वर्भानु की बेटी इंदुमती के साथ अपने राज्य पर शासन करते थे।दत्तात्रेय के कहने पर रानी इन्दुमती ने फल खाने के परिणामस्वरूप दिव्य तेज से संपन्न एक पुत्र को जन्म दिया।

5-14. हे महामहिम, इन्दुमती ने रात के अन्तिम प्रहर-साथ दिन में (अर्थात प्रातःकाल) बहुत सी शुभ वस्तुएँ देने वाला एक उत्तम स्वप्न देखा।(उसने सपने में देखा) कि एक ,  एक विप्र , जो सूर्य के समान, मोतियों की माला से सुसज्जित और सफेद वस्त्र से सुसज्जित है, उसके घर में प्रवेश कर रहा है। उसके गले में श्वेत पुष्पों से सुसज्जित माला चमक रही थी। उनका शरीर समस्त आभूषणों से सुशोभित और दिव्य चंदन से रंगा हुआ दिख रहा था। उसके चार हाथ थे, उसके हाथ में एक शंख था और एक गदा, एक चक्र और एक तलवार थी। 

 वह महान् कान्ति वाला, दिव्य आभूषणों से सुशोभित, चन्द्रमा के गोले के समान छाते से चमक रहा था, जो छाता (उसके ऊपर) रखा हुआ था। वह हार, कंगन, बाजूबंद और पायल के साथ बेहद खूबसूरत लग रहे थे। वह (भी) चंद्रमा की कक्षा के समान कान की बालियों से चमक रहा था।ऐसा ही एक अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति (वहां) आया. उसने इंदुमती को बुलाकर, बार-बार उस सुंदर महिला को दूध से स्नान कराया, (अर्थात) दूध से भरे शंख से, जिसका रंग चंद्रमा के समान था और रत्नों और सोने से सजाया गया था। उससे स्नान कराया  उस इन्दुमती के मुँह में उस विप्र ने एक हजार फनों से ढका हुआ, मणि से युक्त तथा उज्ज्वल ज्वालाओं से भरा हुआ एक सफेद, सुंदर साँप प्रवेश कराया । उसके गले में उसने एक मोती भी पहनाया। तब वह परम तेजस्वी विप्र देवराज इन्दुमती के हाथ में कमल देकर अपने स्थान को चले गया।

15. इस प्रकार उसने एक महान् स्वप्न और सर्वोत्तम पुत्र देखा। प्रतिष्ठित व्यक्ति ने इसे राजाओं के स्वामी आयुष को सुनाया।

16-17. यह सुनकर महान राजा ने फिर सोचा। तब परम तेजस्वी, सर्वज्ञ तथा विद्वानों में श्रेष्ठ अपने गुरु शौनक को बुलाकर उन्हें उत्तम स्वप्न सुनाया।

राजा ने कहा :

17-18. हे महामहिम, हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, आज (देर रात) मेरी पत्नी ने (स्वप्न में) एक साधु को घर में प्रवेश करते देखा। इस सपने का क्या मतलब है?

शौनक ने कहा :

18-23. पूर्व बुद्धिमान दत्तात्रेय ने तुम्हें वरदान दिया था; और रानी को पुत्र प्राप्ति के लिए एक अत्यंत प्रभावशाली फल देने का निर्देश दिया था। हे राजा, तुमने फल के साथ क्या किया? आपने इसे किसको दिया है?

शौनक द्वारा कहे गए वचनों को सुनकर, राजा ने कहा -"मैंने इसे अपनी अच्छी पत्नी को दे दिया है," परम बुद्धिमान, सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण शौनक ने कहा: "इसमें कोई संदेह नहीं है कि, दत्तात्रेय की कृपा से, विष्णु के अंश से युक्त सबसे अच्छा पुत्र आपके घर में पैदा होगा। 

हे राजा, मैंने स्वप्न का यह अर्थ तुम्हें बता दिया है।(तुम्हारे घर में) एक दैवीय शक्ति वाला, इंद्र और विष्णु के समान पुत्र पैदा होगा। आपका पुत्र सभी अच्छे आचरणों की आत्मा होगा और चंद्र वंश को कायम रखेगा। वह धनुर्विद्या और (ऋग्- वेद (आदि) के विज्ञान में भी कुशल होगा ।

24. राजा से इस प्रकार कहकर शौनक अपने आश्रम को चले गये। राजा अपनी पत्नी सहित अत्यंत आनंद से परिपूर्ण हो गया था।

सन्दर्भ:-इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे चतुरधिकशततमोऽध्यायः ।१०४।


अध्याय -(103) - पार्वती पुत्री अशोक सुंदरी को बचाया गया और आयु को वरदान मिला

कुञ्जल ने कहा :

1-2. उस समय अशोकसुंदरी का जन्म सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में हुआ था। वह मनमोहक मुस्कान वाली, गायन और नृत्य में कुशल और सभी वांछित वस्तुओं से संपन्न उत्कृष्ट मेधावी थी नंदन वन   में सुसज्जित अत्यंत सुंदर देवताओं की बेटियों के साथ सभी सुखों का आनंद ले रही थी।

3-4. विप्रचित्ति का पुत्र हुण्ड , जो सदैव हिंसक, उतावला और अत्यधिक कामुक रहता था, नन्दन वन में प्रवेश कर गया। सभी आभूषणों से संपन्न अशोकसुंदरी को देखने के बाद, वह उसके देखते ही कामदेव के बाणों से घायल हो गया।

5. उस विशाल शरीरवाले ने उस से कहा, हे शुभे, तू कौन है? तुम किसी  किसकी पुत्री हो ? आप इस उत्तम नन्दना (उद्यान) में किस कारण से आयी हो ?”

अशोकसुंदरी ने कहा :

6. अब सुनो. मैं अत्यंत मेधावी शिव की पुत्री हूं । मैं कार्तिकेय की बहन हूं और पर्वत पुत्री (अर्थात पार्वती ) मेरी मां हैं।

7. बचपन के कारण (अर्थात् बालक होने के कारण) मैं खेल-खेल में नन्दना उपवन में पहुँच गया हूँ। आप कौन हैं? आप मुझसे ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?

हुण्ड ने कहा :

8-11. मैं विप्रचित्त्ति का पुत्र हूँ, अच्छे गुणों और गुणों से सम्पन्न हूँ। मैं ताकत और ताकत के कारण घमंडी होकर हुडा के नाम से मशहूर हूं। हे सुंदर मुख वाले, राक्षसों में भी मैं सर्वश्रेष्ठ हूं और मेरे समान देवताओं में, मानवलोक में या नागलोक में (उसके समान) कोई दूसरा राक्षस नहीं है (तपस्या के संबंध में, परिवार में महिमा के संबंध में), या धन और सुख. हे विशाल नेत्रों वाली, तुम्हें देखते ही मैं कामदेव के बाणों से घायल हो गया हूँ। मैंने आपकी शरण मांगी है. मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें. मेरी प्रिय पत्नी बनो, मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय।

अशोकसुंदरी ने कहा :

12-20. सुनो, मैं तुम्हें अच्छे पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी संपर्कों का कारण बताता हूं; तो सुनो, हे हुन्दा, इस सांसारिक अस्तित्व में यह दुनिया की रीति है कि एक महिला का पति गुणों के संबंध में उसके लिए उपयुक्त होगा। एक कारण है कि मैं आपकी योग्य पत्नी नहीं बनूंगी। हे दैत्यराजों के स्वामी, शांत मन से सुनो। जब मैं वृक्षों के देवता से उत्पन्न हुआ, तो शिव के मन को ठीक से समझने के बाद, पार्वती ने मेरा ध्यान किया। भगवान की सहमति से देवी ने मेरे पति को भी उत्पन्न किया। उसका (जन्म) चन्द्रवंश में होगा। वह बहुत बुद्धिमान और धार्मिक विचारधारा वाला होगा। वह एक विजेता होगा, और वीरता में जिष्णु (अर्थात् विष्णु या अर्जुन ) के समान होगा, और तेज में अग्नि के समान होगा। वह सर्वज्ञ, सत्यवादी और दान में कुबेर के समान होगा । वह यज्ञ करने वाला, दान देने वाला (अर्थात महान दान देने वाला) होगा और सुन्दरता में कामदेव के समान होगा। उसका नाम नहुष होगा , वह धर्मात्मा होगा और सद्गुणों तथा अच्छे चरित्र का महान खजाना होगा। वह मुझे देवी (पार्वती) और भगवान (शिव) द्वारा दिया गया है। मेरे पति मशहूर होंगे. उससे मुझे सर्वगुण सम्पन्न सुन्दर पुत्र प्राप्त होगा। 

शिव की कृपा से मुझे उनसे ययाति नाम का एक पुत्र प्राप्त होगा , जो इंद्र और विष्णु के समान होगा, दुनिया भर के लोगों को प्रिय होगा और युद्ध में बहादुर होगा।

21. हे वीर हुण्ड, मैं एक वफ़ादार पत्नी हूं, और विशेषकर किसी और की पत्नी हूं। इसलिए गलत धारणा को पूरी तरह त्याग दो और यहां से चले जाओ।

22. वह बस दानव  हँसा और  उसने अशोकसुन्दरी से ये शब्द कहे।

हुण्ड ने कहा :

22-30. तुमने जो कहा (कि) देवी और देवता ने (नहुष ​​को तुम्हारे पति के रूप में दिया है) वह उचित नहीं है। नहुष नाम का वह धर्मात्मा चन्द्रवंश में जन्म लेगा। आप उम्र में बड़ी हैं, इसलिए जो छोटा है वह आपका पति बनने के लायक नहीं है। कम उम्र की महिला की (पत्नी बनने के लिए) सराहना की जाती है, न कि कम उम्र के पुरुष (पति बनाने के लिए प्रशंसा किय जाय। हे सुन्दरी, वह पुरूष तेरा पति कब होगा? ज तक तुम्हारी ताजगी और यौवन अवश्य नष्ट हो जायेगा। हे उत्तम वर्ण वाली, सुन्दर स्त्रियाँ अपने यौवन के बल पर सदैव पुरुषों को प्रिय हो जाती हैं। हे सुन्दर मुख वाली, यौवन ही नारियों की महान पूंजी है। इसके सहारे वे इच्छानुसार सुख और वस्तुओं का उपभोग करते हैं। हे अच्छी महिला, आयुस् का वह पुत्र तुम्हारे पास कब आएगा ? मेरी बात सुनो। यौवन आज ही (के लिए) मौजूद है। यह (बाद में) बेकार हो जाएगा. सुनो, उसे गर्भ में रहना, बचपन और किशोरावस्था जैसी स्थितियों से गुजरना होगा। वह कब यौवन के वैभव से सम्पन्न होगा और आपके योग्य होगा ? उसे बहुत समय लगेगा हे विशाल नेत्रों वाली, यौवन के तेज से युक्त, मादक पेय पी लो। मेरे साथ आनंदपूर्वक रमण करो .

30-38. हुण्ड के वचनों को सुनकर शिव की पुत्री भय से भरकर फिर से राक्षसों के स्वामी से बोली: "जब  अठ्टाइस वाँ द्वापर नामक  युग आएगा, तब धर्मात्मा बल (अर्थात बलराम ), शेष के अवतार और वासुदेव के पुत्र , लेंगे। रेवत की दिव्य पुत्री उनकी पत्नी के रूप में। हे महामहिम, वह पहले से ही कृत नामक सर्वोत्तम युग में पैदा हो चुकी है । वह उनसे तीन युग बड़ी है। वह रेवती बल ( राम ) को अपने प्राणों के समान प्रिय हो गई है । जब भविष्य में द्वापर (युग) आएगा, तब वह यहीं जन्म लेगी।

 पूर्व में वह एक गंधर्व की उत्कृष्ट पुत्री, मायावती के रूप में पैदा हुई थी । श्रेष्ठ दैत्य शंबर ने उसका अपहरण कर बंदी बना लिया। उस युग में, यादवों के स्वामी माधव के पुत्र, सर्वश्रेष्ठ नायक प्रद्युम्न को उनका पति घोषित किया गया है।

वह उसका पति होगा. इस भविष्य (घटना) को व्यास जैसे प्राचीन प्रतिष्ठित और महान (ऋषियों) ने देखा है । हे राक्षस, उस समय जगत की माता तथा हिमालय की पुत्री देवी ने मेरे विषय में ऐसे ही वचन कहे थे।

39-42. और तुम लोभ और वासना के कारण ऐसे शब्द बोल रहे हो जो दुष्ट, पाप से भरे हुए और वेदों और धार्मिक ग्रंथों से रहित (अर्थात् समर्थित नहीं) हैं। किसी व्यक्ति के मामले में उसके पूर्व कर्मों के अनुसार जो भी अच्छा या बुरा निश्चित होता है, वही उसके मामले में घटित होता है। यदि देवताओं और ब्राह्मणों के मुख से निकले हुए वचन सत्य हैं, तो वे कभी भी अन्यथा नहीं होंगे। यह मेरे और उस नहुष के भाग्य के कारण नियत है। (हम दोनों के) मिलन का ऐसा विचार करके मेरी माता पार्वती देवी तथा शिव ने भी (ऐसा ही) कहा।

43-44. इस बात को समझते हुए शांत रहें और अपने मन में चल रही गलत धारणा को त्याग दें। हे राक्षस, तुम निश्चय ही मेरे मन को विचलित नहीं कर पाओगे। मैं एक वफादार पत्नी हूं, मन की दृढ़ हूं; कौन मुझे दूर ले जा सकता है? मैं तुम्हें बड़े शाप से भस्म कर दूँगा। हे महान राक्षस, यहाँ से चले जाओ।”

45-48. उसके ये वचन सुनकर महाबली राक्षस हुण्ड ने मन में सोचा, 'यह मेरी पत्नी कैसे होगी?' ऐसा सोचते हुए धोखेबाज हुंड गायब हो गया। फिर उसे छोड़कर तेजी से वहां से निकल गया और दूसरे दिन वह पाप से भरी हुई माया बनाकर वहां आ गया। हे मेरे बेटे, राक्षस ने एक स्त्री का दिव्य, मायावी रूप धारण कर लिया था, वह माया के माध्यम से एक स्त्री का रूप बन गया (अर्थात् स्वयं को बदल लिया)। उस अत्यंत सुन्दर युवती ने मायावी रूप धारण कर लिया। हँसी-मजाक और खेलकूद में व्यस्त होकर वह उस स्थान पर गई, जहाँ शिव की पुत्री (अर्थात अशोकसुंदरी) रहती थी।

49-50. मानो (उसके प्रति) स्नेह करते हुए उसने अशोकसुंदरी से (ये) शब्द कहे: “हे धन्य, तुम कौन हो? आप किसके हैं? हे युवती, तुम क्यों तपस्या-कुंज में रहकर अपनी वासना को सुखाने वाली तपस्या करती हो? मुझे बताओ, हे परम भाग्यशाली, किस कारण से (तुम तपस्या कर रही हो) तपस्या करना बहुत कठिन है।

51-53. उस मायावी राक्षस ने, जिसने अपना मूल रूप छिपा रखा था और जो (उसके प्रति) लालसा रखता था, उसके कहे हुए शुभ वचनों को सुनकर अत्यंत दुःखी हुई उस अशोक सुन्दरी ने शीघ्र ही उसे अपनी सृष्टि का वृत्तांत सुनाया, जैसा कि उसने पहले कहा था। स्थान और तपस्या करने का सारा कारण भी। (उसने) उस दुष्ट राक्षस द्वारा किये गये उत्पीड़न के बारे में भी (उसे बताया)। वह उसके मायावी रूप को नहीं पहचानती थी, अत: स्नेहवश उसने उसे (सब कुछ) बता दिया।

हुण्डा ने कहा :

54-57ए. हे आदरणीय स्त्री, तुम पतिव्रता हो, अच्छे व्रतों में लगी हो। आपका चरित्र और व्यवहार अच्छा है, आपके कार्य पवित्र हैं और आप बहुत पवित्र महिला हैं। हे अच्छी महिला, मैं एक वफादार पत्नी हूं और अपने पति के प्रति समर्पित हूं। मैं एक महान पतिव्रता स्त्री हूँ और अपने पति के लिये तपस्या कर रही हूँ। उस दुष्ट हुण्ड ने मेरे पति को भी मार डाला। उसके नाश के लिये मैं महान् (अर्थात् घोर) तपस्या कर रही हूँ। मेरे पवित्र आश्रम में आओ. मैं गंगा के किनारे रहती हूँ ।

57-62. शिव की उस पुत्री को उसने (अर्थात हुण्ड ने) अन्य आकर्षक और आश्वस्त करने वाले शब्दों से संबोधित किया और हुण्डा ने मैत्रीपूर्ण भावना से उसे मोहित कर लिया। मूर्खता के कारण मोहित होकर वह बहुत तेजी से उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह उसे अपने दिव्य, अतुलनीय और अत्यंत सुंदर घर में ले आया। हे पुत्र, मेरु के शिखर पर एक उत्कृष्ट नगर है, जो वैदूर्य नाम से जाना जाता है , सभी अच्छे गुणों से भरा हुआ है, बहुत शुभ है और काञ्चन नाम से जाना जाता है । राक्षस का पूरा शहर ऊंचे महलों, घड़ों, डंडों और चौरियों से भरा हुआ था। वह बादलों के समान गहरे नीले पेड़ों से भरा हुआ था, और विभिन्न पेड़ों से भरा हुआ था, कुओं, तालाबों और झीलों और नदियों और जलाशयों से भी भरा हुआ था। वह बड़े-बड़े रत्नों से, सोने से सुसज्जित प्राचीरों से, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली वस्तुओं से समृद्ध था।

63. तब अशोकसुन्दरी ने उस सुन्दर नगर को देखा। “हे मित्र, मुझे बताओ कि यह स्थान किस देवता का है।”

64-65ए. उसने कहा: “यह राक्षसों के उस सरदार का है जिसे तुम पहले देख चुकी हो। यह उस राक्षस का स्थान है. हे महाबली, मैं वह सर्वश्रेष्ठ राक्षस हूं। हे उत्तम वर्ण वाली, माया से (अर्थात तुम्हें धोखा देकर) मैं तुम्हें (यहाँ) ले आया हूँ।

65-67. (इस प्रकार) उससे बात करके वह उसे अपने सुनहरे महल में ले गया, जो कई भवनों से भरा हुआ था और कैलास के शिखर के समान था । उन्होंने काम से पीड़ित होकर, उस सुंदर स्त्री को झूले पर बैठाया, अपना मूल रूप धारण किया, और फिर राक्षसों के स्वामी ने, कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर, अपने हाथ की हथेलियाँ जोड़ीं, और उससे (ये) शब्द कहे :

68-70. “हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि तुम जो चाहोगी मैं तुम्हें दूँगा। हे विशाल नेत्रों वाले, जो वासना से पीड़ित होकर तुमसे आसक्त हो गया है, मेरा आश्रय लो।

आदरणीय महिला (अर्थात अशोक सुन्दरी) ने कहा :

हे राक्षसों के स्वामी, आप मुझे बिल्कुल भी गुमराह नहीं कर सकते। मेरे विषय में (तुम्हारे मन में) जो भ्रम उत्पन्न हो गया है, उसे अपने मन में भी मत लाना। महान पापी नीच राक्षसों से मेरी रक्षा करना कठिन है। इसमें कोई संदेह नहीं है. बार-बार (ऐसी) बात तुम  मत करो.

71-72. वह देवी, जो स्कंद के बाद उत्पन्न हुई उसकी बहिन थी, तपस्या से संपन्न, अत्यंत क्रोध से जलने वाली, उस राक्षस को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और मृत्यु की जीभ की तरह फड़कती हुई फिर से उस नीच राक्षस से बोली:

72-79. “हे पापी, तूने स्वयं के विनाश के लिए, अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों के विनाश के लिए एक भयंकर कार्य किया है। तू अपने घर में आग की एक जलती हुई, उज्ज्वल लौ लेकर आया है। जैसे एक अशुभ, धोखेबाज पक्षी, सभी प्रकार के दुखों के साथ उठता है, जिसके घर में प्रवेश करता है, उसके घर को नष्ट कर देता है, जैसे वह पक्षी (मनुष्य के) रिश्तेदारों, सभी धन और परिवार के विनाश की कामना करता है। (तब) उसके घर में प्रवेश करो, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे विनाश की इच्छा से तुम्हारे घर में आयी हूँ। निःसंदेह मैं अब तुम्हारा सब कुछ नष्ट कर दूंगी - तुम्हारा धन, धान्य, परिवार, जीवन, पुत्र और पौत्र आदि। हे राक्षस, जब से तुम मेरे पास आए हो जो एक महान (अर्थात गंभीर) तपस्या कर रही थी, मैं एक पति की लालसा कर रही थी। आयुस के पुत्र नहुष से विवाह उपरान्त, मेरा पति तुम्हें नष्ट कर देगा।

79-88. पहले (केवल) भगवान ने मेरे मामले में यह उपाय देखा था। यह लोकप्रिय श्लोक, (जिसे) बुद्धिमान लोग गाते हैं, सत्य है। यह वास्तव में दुनिया में मनाया जाता है; दुष्ट मन वालों को इसका एहसास नहीं होता। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसे किसी एक से दुःख, सुख आदि का अनुभव करना होता है, वह उसी व्यक्ति से अनुभव करता है। तुम (आदमी) के पास जाओगे। कोई अपनी उंगली की नोक से बहुत तेज़, महीन धार वाली, अच्छी तलवार को छूता है। अब जान लो कि मुझे इस तरह छूने से (मुझमें) गुस्सा पैदा हो जाएगा। कौन उतावले होकर क्रोध में और जोर से दहाड़ रहे सिंह के पास जाकर उसके चेहरे के बाल काट देगा ? जो मृत्यु की इच्छा रखता है, वह मेरे साथ व्यभिचार करना चाहता है, जो सत्य आचरण वाला, संयमी और तपस्या में रत रहने वाला है। वह, अब, चूँकि वह मृत्यु से प्रेरित है, एक काले, जीवित नाग के मणि को जब्त करने की इच्छा रखता है; और हे मूर्ख, तू मृत्यु से मोहित होकर मृत्यु के द्वारा भेजा गया है। इसलिये ऐसा दुष्ट विचार (तुम्हारे मन में) उत्पन्न होता है। क्या तुम्हें इसका एहसास नहीं है? आयू के बेटे को छोड़कर, कौन देखता है (यानी मेरी तरफ देखेगा)? मेरे रूप को देखकर कोई भी (आयुस् के बेटे के अलावा) मर जाएगा।


89-92. वह जो पतिव्रता स्त्री थी, जो दुःखी थी, जो क्लेश से व्याकुल थी, जो वश में थी और जो धार्मिक व्रत का पालन कर रही थी, वह इस प्रकार बोलकर गंगा के तट पर चली गयी। 'मैं, जिसने पहले वर की इच्छा से (प्राप्त करने के लिए) कठोर तपस्या की थी, अब आपके विनाश की इच्छा से फिर से कठिन तपस्या करूंगी। तब मैं अपने पति के पास जाऊँगी, जब मैं तुम्हें विशाल नहुष द्वारा वज्र और सर्पों के समान तीक्ष्ण बाणों से मार डाला हुआ, युद्धभूमि में खुले बालों और रक्त से लथपथ उस पापी को देखूँगी। आपके शरीर से रिस रहा है)।”

93-94. हुण्ड के विनाश के लिए इतनी बड़ी प्रतिज्ञा करके, शिव की उस दृढ़ पुत्री ने गंगा के उत्कृष्ट तट का सहारा लिया। जिस प्रकार तेज,  अग्नि की लौ, तेज से भरी हुई महान लोकों को जला देगी, देवताओं के स्वामी की बेटी, क्रोध से जलती हुई, गंगा के तट पर,  कठिन तपस्या कर रही थी।

कुंजल ने कहा :

95-96. हे महानुभाव, इस प्रकार कहकर शिव की पुत्री गंगा के जल में स्नान करके कांचन नामक अपने नगर में चली गई। दुबले-पतले शरीर वाली और सत्यनिष्ठा से संपन्न उस युवा अशोकसुंदरी ने हुंड की मृत्यु के लिए तपस्या की।

97-98. हुण्ड भी शाप से जले हुए हृदय से दुःखी हो गया और शब्दों की अग्नि से अत्यन्त पीड़ित होकर सोचने लगा। 

-उसने कम्पन नामक अपने मंत्री को बुलाकर उससे कहा। उसने उसे उसके श्राप का महत्वपूर्ण समाचार सुनाया:

99-100. "मुझे शिव की अच्छी बेटी अशोकसुन्दरी ने शाप दिया है: उसने कहा है।कि 'तुम मेरे पति नहुष के हाथों मरोगे।' वह बच्चा (अभी तक) पैदा नहीं हुआ है; लेकिन आयु की पत्नी उसकी माँ होगी । ऐसा कार्य करो कि अभिशाप झूठा निकले।”

कंपन ने कहा :

101-104. आयु की पत्नी का अपहरण करके उसे (यहाँ) ले आओ। इस तरह आपका शत्रु पैदा नहीं होगा. या फिर तेज़ (दवाइयों) से उसका गर्भपात करा दो। इस तरह आपका शत्रु भी पैदा नहीं होगा. उस दुष्ट नहुष के जन्म का समय अंकित करो। इसे लेकर (यहाँ )लाओ और पापबुद्धि को मार डालो।

इस प्रकार कम्पन के साथ परामर्श करने के बाद, राक्षस (हुंड) ने नहुष को नष्ट करने के लिए खुद ही प्रयास किया।

विष्णु ने कहा :

105-108. ऐल (पुरुरवा) का गौरवशाली, धर्मात्मा पुत्र , जिसका नाम आयु था, जो सोम कुल का आभूषण था , सर्वश्रेष्ठ राजा और सभी प्रथाओं को जानने वाला संप्रभु सम्राट, सत्य की प्रतिज्ञा में लगा हुआ, इंद्र और विष्णु के समान, एक छत्र के नीचे शासन करता था सार्वभौमिक संप्रभु) पृथ्वी पर तपस्या, महिमा, शक्ति, दान, बलिदान, मेधावी कृत्यों और संयम के माध्यम से। 

राजा (आयुस्) का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह दुखी था. धर्मी ने सोचा, 'मेरे यहां पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता है?'

109. पृथ्वी के स्वामी आयु ने ऐसा विचार मन में उठाया। शांतचित्त होकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिये बहुत प्रयत्न किया।

110-113. अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय , उच्चात्मा ब्राह्मण , महान ऋषि, जिनकी आँखें शराब पीने के कारण लाल थीं, एक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस धर्मात्मा ने शराब के नशे में धुत होकर, एक युवा, शुभ स्त्री, सभी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ, को अपनी गोद में बिठाया, गाना गाया, नृत्य किया और जमकर शराब पी। महान ध्यान करने वाले संतों में सर्वश्रेष्ठ,  ऋषि, (जो) बिना जनेऊ के थे, (और) अपने शरीर पर चंदन और घृत का लेप लगाए हुए थे, फूलों की दिव्य मालाओं और मोतियों के हार के उपांगों से चमक रहे थे।

114-118. राजा ने उसके आश्रम में जाकर, श्रेष्ठ ब्राह्मण को देखकर और शांतचित्त होकर, सिर झुकाकर और उसके सामने गिरकर उसे नमस्कार किया। अत्रि के उस धर्मात्मा पुत्र ने अपने सामने आये उस श्रेष्ठ राजा को भक्तिपूर्वक देखकर ध्यान का सहारा लिया। हे श्रेष्ठ, राजा को इसी प्रकार सौ वर्ष बीत गये। जो स्थिर, शान्त और अत्यंत समर्पित था, उसे बुलाकर उसने ये (शब्द) कहे: “हे राजा, तू अपने आप को क्यों कष्ट देता है? मैं ब्राह्मण आचरण से रहित हूँ। मेरे पास कभी नहीं  ब्राह्मणत्व था. मैं शराब और माँस का लालची हूँ और सदैव स्त्रियों में आसक्त रहता हूँ।

मुझमें वरदान देने की शक्ति नहीं है। (कृपया) किसी अन्य ब्राह्मण की सेवा कर तू।”

आयुस ने कहा :

119-123. हे महामहिम, आपके समान कोई अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मण नहीं है, जो सभी वांछित वस्तुओं को प्रदान करता है और तीनों लोकों में सबसे महान स्वामी है। हे महामहिम, आप विष्णु हैं, गरुड़ -धारी, सर्वोच्च भगवान, (ब्राह्मण के रूप में अत्रि के परिवार में जन्मे)। हे देवाधिदेवों के प्रधान, हे सर्वोच्च प्रभु, मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे तुम जो अपने आप को तुम्हारे अधीन कर देते हो उन पर स्नेह करने वालों, मैंने तुम्हारी शरण मांगी है। हे हृषीकेश , मुझे मुक्ति दो। तुम भ्रम पैदा करके बने रहते हो (अर्थात आनंद लेते हो)। मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता हूं जो ब्रह्मांड में रहने वाले प्राणियों को जानता है, जो ब्रह्मांड का प्रमुख है, जो दुनिया का स्वामी है और (राक्षस) मधु का हत्यारे हैं । हे गोविंद , हे विश्वरूप, आप ही मेरी रक्षा करें। आपको मेरा प्रणाम


दानवं सूदयिष्यामि समरे पापचेतनम् ।
देवानां च विशेषेण मम मायापचारितम् ।१३।


एवमुक्ते महावाक्ये नहुषेण महात्मना ।
अथायातः स्वयं देवः शंखचक्रगदाधरः ।१४।*******

चक्राच्चक्रं समुत्पाट्य सूर्यबिम्बोपमं महत्।
ज्वलता तेजसा दीप्तं सुवृत्तारं शुभावहम् ।१५।

नहुषाय ददौ देवो हर्षेण महता किल ।
तस्मै शूलं ददौ शम्भुः सुतीक्ष्णं तेजसान्वितम्।१६।


तेन शूलवरेणासौ शोभते समरोद्यतः ।
द्वितीयः शङ्करश्चासौ त्रिपुरघ्नो यथा प्रभुः।१७।


ब्रह्मास्त्रं दत्तवान्ब्रह्मा वरुणः पाशमुत्तमम् ।
चन्द्र तेजःप्रतीकाशं शङ्खं च नादमङ्गलम् ।१८।


वज्रमिन्द्रस्तथा शक्तिं वायुश्चापं समार्गणम् ।
आग्नेयास्त्रं तथा वह्निर्ददौ तस्मै महात्मने।१९।


शस्त्राण्यस्त्राणि दिव्यानि बहूनि विविधानि च ।
ददुर्देवा महात्मानस्तस्मै राज्ञे महौजसे ।२०।


                "कुञ्जल उवाच-
अथ आयुसुतो वीरो दैवतैः परिमानितः ।
आशीर्भिर्नन्दितश्चापि मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः।२१।

आरुरोह रथं दिव्यं भास्वरं रत्नमालिनम् ।
घण्टारवैः प्रणदन्तं क्षुद्रघण्टासमाकुलम् ।२२।

रथेन तेन दिव्येन शुशुभे नृपनन्दन: ।
दिविमार्गे यथा सूर्यस्तेजसा स्वेन वै किल ।२३।

प्रतपंस्तेजसा तद्वद्दैत्यानां मस्तकेषु सः ।
जगाम शीघ्रं वेगेन यथा वायुः सदागतिः २४।

यत्रासौ दानवः पापस्तिष्ठते स्वबलैर्युतः ।
तेन मातलिना सार्द्धं वाहकेन महात्मना ।२५।

इन शब्दों को सुनकर) राजाओं के स्वामी हर्ष के कारण रोमाँचित हो गए (कहा:) "देवताओं के भगवान, उदार वशिष्ठ की कृपा से, मैं युद्ध में एक दुष्ट हृदय के राक्षस को मार डालूँगा, जिसने देवताओं को धोखा दिया था और विशेष रूप से मुझको।"

14-20. जब नहुष ने ये महान वचन कहे तो शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए भगवान विष्णु स्वयं वहाँ आये। भगवान ने अपने चक्र से सूर्य के गोले के समान, ज्वलंत चमक से चमकने वाली, गोल तीलियों वाली और शुभता लाने वाली एक बड़ी चक्र निकाला, जिसे भगवान ने बहुत खुशी के साथ नहुष को दे दिया।

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शिव ने उसे तेजस्विता से युक्त एक अत्यंत तीक्ष्ण भाला दिया। उस उत्कृष्ट भाले से वह युद्ध के लिये तत्पर होकर त्रिपुर के संहारक भगवान शिव के समान चमकने लगा । ब्रह्मा ने उसे ब्रह्मास्त्र दिया । वरुण ने उसे चन्द्रमा के समान कान्ति वाला एक उत्तम पाश और मंगल ध्वनि वाला शंख दिया। इंद्र ने (उसे) वज्र और (एक प्रकार की मिसाइल जिसे शक्ति कहा जाता है) दी । वायु ने (उसे) बाणों सहित एक धनुष दिया। ( अग्नि ) ने उदार अग्नि-प्रक्षेपास्त्र दिया।(इस प्रकार) देवताओं ने उस महान तेजस्वी राजा को विभिन्न प्रकार के दिव्य हथियार और **********

कुंजल ने कहा :

21-25. तब आयु के पुत्र, देवताओं द्वारा सम्मानित और ऋषियों द्वारा आशीर्वाद के साथ ब्राह्मण के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले नायक , दिव्य, चमकदार, रत्नों से सुसज्जित, घंटियों के कारण बड़ी ध्वनि करने वाले और छोटी-छोटी घंटियों से भरे हुए रथ में चढ़े। . उस दिव्य रथ से राजकुमार दिव्य पथ पर अपनी चमक से सूर्य के समान चमकने लगा। वह उसी के समान अपने तेज से प्रज्वलित होकर, उस उदार सारथी मातलि के साथ, राक्षसों के सिरों की ओर, निरंतर चलने वाले वायु की तरह, तेजी से और तेजी से उस स्थान पर पहुंचे, जहां वह पापी राक्षस हुण्ड अपनी सेना के साथ खड़ा था।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने दशाधिकशततमोऽध्यायः ।११०।


कुञ्जल उवाच-

अशोकसुन्दरी जाता सर्वयोषिद्वरा तदा।रेमे सुनन्दने पुण्ये सर्वकामगुणान्विते।१।

सुरूपाभिः सुकन्याभिर्देवानां चारुहासिनी ।सर्वान्भोगान्प्रभुं जाना गीतनृत्यविचक्षणा ।२।

विप्रचित्तेः सुतो हुण्डो रौद्रस्तीव्रश्च सर्वदा ।स्वेच्छाचारो महाकामी नन्दनं प्रविवेश ह ।३।

अशोकसुन्दरीं दृष्ट्वा सर्वालङ्कारसंयुताम् ।तस्यास्तु दर्शनाद्दैत्यो विद्धः कामस्य मार्गणैः ४।

तामुवाच महाकायः का त्वं कस्यासि वा शुभे ।कस्मात्त्वं कारणाच्चात्र आगतासि वनोत्तमम् ।५।

             अशोकसुन्दर्युवाच-

शिवस्यापि सुपुण्यस्य सुताहं शृणु साम्प्रतम् ।स्वसाहं कार्तिकेयस्य जननी गोत्रजापि मे ।६।

बालभावेन सम्प्राप्ता लीलया नन्दनं वनम् ।भवान्कोहि किमर्थं तु मामेवं परिपृच्छति ।७।

                 हुण्ड उवाच-

विप्रचित्तेः सुतश्चाहं गुणलक्षणसंयुतः । हुण्डेति नाम्ना विख्यातो बलवीर्यमदोद्धतः ।८।

दैत्यानामप्यहं श्रेष्ठो मत्समो नास्ति राक्षसः। देवेषु मर्त्यलोकेषु तपसा यशसा कुले ।९।

अन्येषु नागलोकेषु धनभोगैर्वरानने ।दर्शनात्ते विशालाक्षि हतः कन्दप्रमार्गैण ।१०।

शरणं ते ह्यहं प्राप्तः प्रसादसुमुखी भव ।भव स्ववल्लभा भार्या मम प्राणसमा प्रिया ।११।

                अशोकसुन्दर्युवाच-

श्रूयतामभिधास्यामि सर्वसम्बन्धकारणम् ।भवितव्या सुजातस्य लोके स्त्री पुरुषस्य हि ।१२।

भवितव्यस्तथा भर्ता स्त्रिया यः सदृशो गुणैः ।संसारे लोकमार्गोयं शृणु हुणड यथाविधि ।१३।

अस्त्येव कारणं चात्र यथा तेन भवाम्यहम् ।सुभार्या दैत्यराजेंद्र शृणुष्व यतमानसः ।१४।

वृक्षराजादहं जाता यदा काले महामते ।

शम्भोर्भावं सुसंगृह्य पार्वत्या कल्पिता ह्यहम् ।१५।

देवस्यानुमते देव्या सृष्टो भर्ता ममैव हि ।सोमवंशे महाप्राज्ञः स धर्मात्मा भविष्यति ।१६।

जिष्णुर्विष्णुर्समो वीर्ये तेजसा पावकोपमः।

सर्वज्ञः सत्यसन्धश्च त्यागे वैष्णवोपमम् ।१७।

यज्वा दानपतिः सोपि रूपेण मन्मथोपमः।नहुषोनाम धर्मात्मा गुणशील महानिधिः ।१८।

देव्या देवेन मे दत्तःख्यातोभर्ताभविष्यति ।तस्मात्सर्वगुणोपेतं पुत्रमाप्स्यामि सुन्दरम् १९।

इन्द्रोपेन्द्र समं लोके ययातिं जनवल्लभम् ।लप्स्याम्यहं रणे धीरं तस्माच्छम्भोः प्रसादतः ।२०।

अहं पतिव्रता वीर परभार्या विशेषतः ।अतस्त्वं सर्वथा हुणड त्यज भ्रान्तिमितो व्रज ।२१।

प्रहस्यैव वचो ब्रूते अशोकसुन्दरीं प्रति । हुण्ड उवाच-नैव युक्तं त्वया प्रोक्तं देव्या देवेन चैव हि ।२२।

नहुषोनाम धर्मात्मा सोमवंशे भविष्यति ।भवती वयसा श्रेष्ठा कनिष्ठो न स युज्यते ।२३।

कनिष्ठा स्त्री प्रशस्ता तु पुरुषो न प्रशस्यते ।कदा स पुरुषो भद्रे तव भर्ता भविष्यति ।२४।

तारुण्यं यौवनं चापि नाशमेवं प्रयास्यति ।यौवनस्य बलेनापि रूपवत्यः सदा स्त्रियः ।२५।

पुरुषाणां वल्लभत्वं प्रयान्ति वरवर्णिनि ।तारुण्यं हि महामूलं युवतीनां वरानने ।२६।

तस्या धारेण भुञ्जन्ति भोगान्कामान्मनोनुगान् ।

कदा सोभ्येष्यते भद्रे आयोः पुत्रः शृणुष्व मे ।२७।

यौवनं वर्ततेऽद्यैव वृथा चैव भविष्यति ।गर्भत्वं च शिशुत्वं च कौमारं च निशामय ।२८।

दत्तात्रेयो मुनिश्रेष्ठः साक्षाद्देवो भविष्यति ।
शुश्रूषितस्त्वया देवि मया च तपसा पुरा ।२६।
पुत्ररत्नं तेन दत्तं वैष्णवांशप्रधारकम् ।************
सदा हनिष्यति परं दानवं पापचेतनम् ।२७।

सर्वदैत्यप्रहर्ता च प्रजापालो महाबलः ।
दत्तात्रेयेण मे दत्तो वैष्णवाञ्शः सुतोत्तमः ।२८।

एवं संभाष्य तां देवीं राजा चेन्दुमतीं तदा ।
महोत्सवं ततश्चक्रे पुत्रस्यागमनं प्रति ।२९।


हर्षेण महताविष्टो विष्णुं सस्मार वै पुनः ।३०।
सर्वोपपन्नं सुरवर्गयुक्तमानन्दरूपं परमार्थमेकम् ।
क्लेशापहं सौख्यप्रदं नराणां सद्वैष्णवानामिह मोक्षदं परम् ।३१। 


23-28. उसके शब्दों को सुनकर, राजाओं के स्वामी ने अपनी पत्नी से कहा: "हे गौरवशाली, पहले ऋषि नारद ने मुझसे कहा था: 'हे राजा, तुम्हें अपने बेटे के बारे में कभी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा पुत्र बड़ी वीरता से उस राक्षस को मारकर आएगा।' मुनि ने पहले जो वचन कहे थे वे सत्य हो गये। हे रानी, ​​उसकी बातें अन्यथा (अर्थात् असत्य) कैसे होंगी? ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ दत्तात्रेय वास्तव में भगवान हैं। पूर्व में, हे रानी, ​​आपने और मैंने तपस्या के माध्यम से उनकी सेवा की थी। उन्होंने विष्णु के अंश से हमें यह पुत्र रत्न दिया है । वह सदैव एक महान दुष्टात्मा राक्षस का वध करेगा। दत्तात्रेय ने मुझे सबसे उत्तम और अत्यंत शक्तिशाली पुत्र दिया है, जो विष्णु का अंश है, सभी राक्षसों का संहार करने वाला है और अपनी प्रजा का पालन-पोषण करेगा।”

29-31. रानी इन्दुमती से इस प्रकार कहकर राजा ने अपने पुत्र के आगमन पर बड़े उत्सव मनाया। अत्यंत आनंद से परिपूर्ण होकर उसने फिर से सब कुछ से संपन्न, देवताओं के समूहों के साथ, आनंद स्वरूप, एकमात्र सर्वोच्च वस्तु, दर्द को दूर करने वाले, खुशी देने वाले और विष्णु के अच्छे अनुयायियों को मोक्ष देने वाले महान दाता विष्णु को याद किया।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे नहुषाख्याने षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ।११६।


अब नहुष के पुत्र वैष्णव ययाति की जीवन गाथा

मातलि के द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णु की महिमा का वर्णन, मातलि को विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्म के प्रचार द्वारा भूलोक को वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययाति के दरबार में काम आदि का नाटक खेलना

                पिप्पल उवाच-
मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः।
किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद ।१।

सर्वपुण्यमयी पुण्या कथेयं पापनाशिनी ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नैव तृप्यामि सर्वदा ।२।

                सुकर्मोवाच-
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठो ययातिर्नृपसत्तमः ।
तमुवाचागतं दूतं मातलिं शक्रसारथिम् ।३।

                "ययातिरुवाच-
शरीरं नैव त्यक्ष्यामि गमिष्ये न दिवं पुनः ।
शरीरेण विना दूत पार्थिवेन न संशयः ।४।

यद्यप्येवं महादोषाः कायस्यैव प्रकीर्तिताः ।
पूर्वं चापि समाख्यातं त्वया सर्वं गुणागुणम् ।५।

नाहं त्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवं पुनः ।
इत्याचक्ष्व इतो गत्वा देवदेवं पुरंदरम् ।६।

एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते ।
नैव सिद्धिं प्रयात्येवं सांसारिकमिहैव हि ।७।

नैव प्राणं विना कायो जीवः कायं विना नहि ।
उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये नाशमिंद्र न ।८।

यस्य प्रसादभावाद्वै सुखमश्नाति केवलम् ।
शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोनुगान् ।९।

एवं ज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक ।
संभवंति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः ।१०।

मातले किल्बिषाच्चैव जरादोषात्प्रजायते ।
पश्य मे पुण्यसंयुक्तं कायं षोडशवार्षिकम् ।११।

जन्मप्रभृति मे कायः शतार्धाब्दं प्रयाति च ।
तथापि नूतनो भावः कायस्यापि प्रजायते ।१२।

मम कालो गतो दूत अब्दा प्रनंत्यमनुत्तमम् ।
यथा षोडशवर्षस्य कायः पुंसः प्रशोभते ।१३।

तथा मे शोभते देहो बलवीर्यसमन्वितः ।
नैव ग्लानिर्न मे हानिर्न श्रमो व्याधयो जरा ।१४।

मातले मम कायेपि धर्मोत्साहेन वर्द्धते ।
सर्वामृतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम् ।१५।

पापव्याधिप्रणाशार्थं धर्माख्यं हि कृतम्पुरा ।
तेन मे शोधितः कायो गतदोषस्तु जायते ।१६।

हृषीकेशस्य संध्यानं नामोच्चारणमुत्तमम् ।
एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम् ।१७।

तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याः प्रलयं गताः।
विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे ।१८।

मानवा मरणं यांति पापव्याधि प्रपीडिताः ।
न पिबंति महामूढाः कृष्ण नाम रसायनम् ।१९।

तेन ध्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले ।
सत्येन दानपुण्येन मम कायो निरामयः।२०।

पापर्द्धेरामयाः पीडाः प्रभवंति शरीरिणः ।
पीडाभ्यो जायते मृत्युः प्राणिनां नात्र संशयः ।२१।

तस्माद्धर्मः प्रकर्तव्यः पुण्यसत्याश्रयैर्नरैः ।
पंचभूतात्मकः कायः शिरासंधिविजर्जरः ।२२।

एवं संधीकृतो मर्त्यो हेमकारीव टंकणैः ।
तत्र भाति महानग्निर्द्धातुरेव चरः सदा ।२३।

शतखंडमये विप्र यः संधत्ते सबुद्धिमान् ।
हरेर्नाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पल ।२४।

पंचात्मका हि ये खंडाः शतसंधिविजर्जराः ।
तेन संधारिताः सर्वे कायो धातुसमो भवेत् ।२५।

हरेः पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च ।
सत्यभावेन दानेन नूत्नः कायो विजायते ।२६।

दोषा नश्यंति कायस्य व्याधयः शृणु मातले ।
बाह्याभ्यंतरशौचं हि दुर्गंधिर्नैव जायते ।२७।

शुचिस्ततो भवेत्सूत प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
नाहं स्वर्गं गमिष्यामि स्वर्गमत्र करोम्यहम् ।२८।

तपसा चैव भावेन स्वधर्मेण महीतलम् ।
स्वर्गरूपं करिष्यामि प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२९।

एवं ज्ञात्वा प्रयाहि त्वं कथयस्व पुरंदरम् ।
                    "सुकर्मोवाच-
समाकर्ण्य ततः सूतो नृपतेः परिभाषितम् ।३०।

आशीर्भिरभिनंद्याथ आमंत्र्य नृपतिं गतः ।
सर्वं निवेदयामास इंद्राय च महात्मने ।३१।

समाकर्ण्य सहस्राक्षो ययातेस्तु महात्मनः ।
तस्याथ चिंतयामासानयनार्थं दिवं प्रति ।३२।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरिते द्विसप्ततितमोऽध्यायः ।७२।


अध्याय 72 - ययाति की शरीर छोड़ने की अनिच्छा

पिप्पला ने कहा :

1-2. हे अत्यंत बुद्धिमान, मुझे विस्तार से बताओ कि मातलि के वचन सुनकर नहुष के पुत्र राजा ययाति ने क्या कहा । हे मुनिवर, यह पापों का नाश करने वाली परम पुण्यमयी कथा है। मुझे इसे सुनने की इच्छा है. मुझे बिल्कुल भी संतुष्टि नहीं हो रही है.

3. श्रेष्ठ राजा, धर्मपरायण लोगों में सबसे महान, ययाति ने, इंद्र के सारथी, दूत मातलि से, जो (उनके पास) आया था, कहा:

ययाति ने कहा :

4-7. हे दूत, मैं अपना शरीर नहीं त्यागूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं (इस) पार्थिव शरीर के बिना स्वर्ग नहीं जाऊँगा। यद्यपि आपने इस प्रकार शरीर के महान दोषों का वर्णन किया है, और यद्यपि आप पहले ही इसके सभी गुण और दोषों का वर्णन कर चुके हैं, फिर भी मैं अपने शरीर का त्याग नहीं करूंगा, और मैं स्वर्ग में नहीं आऊंगा। देवताओं के राजा इंद्र के पास जाकर उनसे इस प्रकार कहो: “हे अत्यंत बुद्धिमान, कोई व्यक्ति अकेले आत्मा के माध्यम से या केवल शरीर के माध्यम से पूर्णता प्राप्त नहीं करता है। यह शरीर सांसारिक (अस्तित्व) है.

8-14. शरीर जीवन (अर्थात आत्मा) के बिना नहीं रह सकता, न ही आत्मा शरीर के बिना रह सकती है। हे इन्द्र, उनमें मित्रता है (अर्थात वे परस्पर मित्र हैं)। मैं उस शरीर को नष्ट नहीं करूँगा जिसकी कृपा से आत्मा को अपने मन के अनुसार (अर्थात् इच्छानुसार) अनन्य सुख तथा अन्य सुख प्राप्त होते हैं।” हे देवदूत, स्वर्ग में भोगों को इस प्रकार जानते हुए भी मैं उन्हें नहीं चाहता। हे मातलि, दोषों के कारण कष्टदायक और अत्यंत पापपूर्ण रोग (संक्रमित) होते हैं। बुढ़ापा एक दोष के कारण होता है। मेरे धार्मिक गुणों से सम्पन्न और सोलह वर्ष के शरीर का निरीक्षण करें। मेरे जन्म के बाद से मेरा शरीर आधी शताब्दी तक चला गया है (अर्थात् अस्तित्व में है)। अभी भी मेरे शरीर में ताजगी है। मेरा यह (अर्थात् जीवन) काल उत्तम व्यतीत हुआ। जैसे सोलह वर्ष के युवक का शरीर सुन्दर दिखता है, उसी प्रकार शक्ति और वीरता से सम्पन्न मेरा शरीर दिखता है।

4-16.  , मुझे असफलता नहीं है, मुझे थकावट नहीं है; न ही मुझे कोई बीमारी या बुढ़ापा है। हे मातलि, मेरा शरीर भी धर्मपरायणता के उत्साह से भर जाता है; क्योंकि, पुराने दिनों में, औषधि - दिव्य और, महान , अमृत से भरपूर, पापों और रोगों के विनाश के लिए तैयार की जाती है। उससे मेरा शरीर शुद्ध होता है; (इसलिए) यह दोषों से मुक्त है.

17-24. हे दूत, मैं सदैव अमृत का पान (अर्थात् ग्रहण) करता रहता हूँ। विष्णु का ध्यान और उनके नाम का उत्कृष्ट उच्चारण उससे मेरे सभी रोग और पाप आदि दोष नष्ट हो गए हैं, जब इस सांसारिक अस्तित्व में कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम जैसी महान (अर्थात् प्रभावी) औषधि है।

 पापपूर्ण रोग से पीड़ित मनुष्य मर जाते हैं (क्योंकि) अत्यंत मूर्ख लोग कृष्ण (अर्थात विष्णु) के नाम का अमृत नहीं पीते हैं। हे मातलि, उस ध्यान, ज्ञान, पूजा, सत्यता और दान देने के धार्मिक पुण्य के कारण मेरा शरीर स्वस्थ है। 

रोग और कष्ट उसे सताते हैं जिनकी सिद्धि पाप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राणी यहीं (अर्थात इस संसार में) कष्टों के कारण मरते हैं। इसलिये मनुष्यों को सदाचार और सत्यता का आश्रय लेकर धर्म-कर्म करना चाहिये। शरीर पांच तत्वों से बना है, और नाड़ियों और जोड़ों से जर्जर हो गया है। जैसे एक आभूषण सुनार द्वारा टङ्कण (धातु की चीज में टाँका मारकार जोड़ लगाने का कार्य)   से बनाया जाता है, उसी प्रकार एक मनुष्य को एक साथ रखा जाता है। इसमें सदैव एक महान अग्नि, शरीर का गतिशील हास्य चमकता रहता है, जो सैकड़ों टुकड़ों से बना होता है। हे ब्राह्मण , जो इन टुकड़ों को जोड़ता है वह बुद्धिमान है।

25-30. हे पिप्पल , पांच तत्वों की प्रकृति के ये सभी टुकड़े (शरीर के) और सैकड़ों जोड़ों से घिसे हुए, विष्णु के दिव्य नाम और सौभाग्य से एक साथ रखे गए हैं। शरीर एक धातु की तरह है. विष्णु की पूजा, ध्यान और संयम, सत्य और दान से शरीर नया हो जाता है। हे मातलि, सुनो, शरीर के दोष-रोग-नाश हो जाते हैं। बाह्य एवं आन्तरिक पवित्रता रहती है तथा दुर्गन्ध नहीं रहती। तब, हे सारथी, चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से, (शरीर) शुद्ध होगा।

 मैं स्वर्ग नहीं जाऊंगा. मैं यहीं (केवल) स्वर्ग का निर्माण करूंगा। मैं (अपनी) तपस्या, भक्ति, अपने धार्मिक कृत्यों और चक्र-धारक की कृपा से पृथ्वी को स्वर्ग की प्रकृति बना दूंगा। यह जानकर आप (कृपया) जाकर इन्द्र से कह दीजिये।

सुकर्मन ने कहा :

30-32. तब वह सारथी राजा के वचन सुनकर और आशीर्वाद देकर राजा से विदा लेकर (स्वर्ग को) चला गया। उसने सारी बात देवराज इन्द्र को बता दी। उदार ययाति का (संदेश) सुनकर इंद्र ने सोचा कि ययाति को स्वर्ग में कैसे लाया जाए।

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  पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्याय 73 )
      पिप्पल उवाच-

गते तस्मिन्महाभागे दूत इंद्रस्य वै पुनः ।
किं चकार स धर्मात्मा ययातिर्नहुषात्मजः ।१।

                   सुकर्मोवाच-
तस्मिन्गते देववरस्य दूते स चिंतयामास नरेंद्रसूनुः।आहूय दूतान्प्रवरान्स सत्वरं धर्मार्थयुक्तं वच आदिदेश ।२।

गच्छंतु दूताः प्रवराः पुरोत्तमे देशेषु द्वीपेष्वखिलेषु लोके।
कुर्वंतु वाक्यं मम धर्मयुक्तं व्रजंतु लोकाः सुपथा हरेश्च ।३।

भावैः सुपुण्यैरमृतोपमानैर्ध्यानैश्च ज्ञानैर्यजनैस्तपोभिः।
यज्ञैश्च दानैर्मधुसूदनैकमर्चंतु लोका विषयान्विहाय ।४।

सर्वत्र पश्यंत्वसुरारिमेकं शुष्केषु चार्द्रेष्वपि स्थावरेषु ।
अभ्रेषु भूमौ सचराचरेषु स्वीयेषु कायेष्वपि जीवरूपम् ।५।

देवं तमुद्दिश्य ददंतु दानमातिथ्यभावैः परिपैत्रिकैश्च।
नारायणं देववरं यजध्वं दोषैर्विमुक्ता अचिराद्भविष्यथ ।६।

यो मामकं वाक्यमिहैव मानवो लोभाद्विमोहादपि नैव कारयेत् ।
स शास्यतां यास्यति निर्घृणो ध्रुवं ममापि चौरो हि यथा निकृष्टः ।७।

आकर्ण्य वाक्यं नृपतेश्च दूताःसंहृष्टभावाः सकलां च पृथ्वीम् ।
आचख्युरेवं नृपतेः प्रणीतमादेशभावं सकलं प्रजासु ।८।

विप्रादिमर्त्या अमृतं सुपुण्यमानीतमेवं भुवि तेन राज्ञा ।
पिबंतु पुण्यं परिवैष्णवाख्यं दोषैर्विहीनं परिणाममिष्टम् ।९।

श्रीकेशवं क्लेशहरं वरेण्यमानंदरूपं परमार्थमेवम् 
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१०।

सखड्गपाणिं मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सगुणं सुरेशम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।११।

श्रीपद्मनाथं कमलेक्षणं च आधाररूपं जगतां महेशम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१२।

पापापहं व्याधिविनाशरूपमानंददं दानवदैत्यनाशनम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबन्तु लोकाः ।१३।

यज्ञांगरूपं चरथांगपाणिं पुण्याकरं सौख्यमनंतरूपम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१४।

विश्वाधिवासं विमलं विरामं रामाभिधानं रमणं मुरारिम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१५।

आदित्यरूपं तमसां विनाशं बंधस्यनाशं मतिपंकजानाम् ।
नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ।१६।

नामामृतं सत्यमिदं सुपुण्यमधीत्य यो मानव विष्णुभक्तः।
प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्तिं न हि कारणं च ।१७।


अध्याय 73 - विष्णु के नाम की प्रभावकारिता

पिप्पला ने कहा :

1. जब वह तेजस्वी दूत (स्वर्ग के लिए) चला गया, तो नहुष के पुत्र, धार्मिक विचारधारा वाले ययाति ने क्या किया?

सुकर्मन ने कहा :

2-7. जब  देवता (अर्थात इंद्र ) का वह दूत चला गया, तो राजा नहुष के पुत्र  ने (अपने मन में) सोचा। तुरंत अपने उत्कृष्ट दूतों को बुलाकर, उन्होंने उन्हें उचित शब्दों में निर्देश दिया: “उत्कृष्ट दूतों को एक उत्कृष्ट शहर, दुनिया के सभी क्षेत्रों और द्वीपों में जायें और वे मेरे वचनों (अर्थात् आदेश) का पालन करें, जो सदाचार से परिपूर्ण है। लोग भक्ति और अत्यंत मेधावी कार्यों, अमृत के समान ध्यान, ज्ञान, बलिदान और तपस्या के माध्यम से विष्णु के अच्छे मार्ग पर चलें 

 वे सांसारिक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके यज्ञों और उपहारों से केवल विष्णु की ही पूजा करें। वे हर जगह केवल राक्षसों और आत्मा की प्रकृति के शत्रु को ही देखें - सूखे स्थानों पर, गीले और स्थिर स्थानों पर, बादलों में, पृथ्वी पर, गतिशील और स्थिर (वस्तुओं) में और यहां तक ​​कि अपने स्वयं के शरीर में भी। वे अपने मृत पूर्वजों के सम्मान में आतिथ्य और संस्कार के साथ उन्हें उस देवता को समर्पित करते हुए उपहार दे सकते हैं। क्या वे उस सर्वश्रेष्ठ भगवान नारायण (अर्थात् विष्णु) की  उपासना करते हैं ;  वे शीघ्र ही दोषों से मुक्त हो जायेंगे। वह निर्लज्ज मनुष्य जो लोभ या मूर्खता के कारण अभी मेरी ये बातें नहीं मानेेगे, उन्हें निश्चय ही एक नीच चोर के समान दण्ड दिया जाएगा।”

8. राजा की बातें सुनकर दूत मन से प्रसन्न  सारी पृय्वी पर चले गए, और राजा की आज्ञा सारी प्रजा में प्रगट की।

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9-16. “हे मनुष्यों, ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों, राजा अत्यंत पुण्यदायी अमृत को पृथ्वी पर लेकर आये हैं। उस वैष्णव नामक गुणकारी (अमृत) को पीजिए , जो दोषों से मुक्त और वांछनीय प्रभाव वाला है। राजा ने पहले ही श्रीकेशव नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जो दुख को दूर करता है, जो वांछनीय है, जो आनंद का रूप है और जो स्वयं सर्वोच्च सत्य है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले से ही अपने नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है, जिसके हाथ में तलवार है, जिसे मधुसूदन कहा जाता है, जो लक्ष्मी का निवास है , और देवताओं का मेधावी स्वामी है। लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही कमल जैसी आँखों वाले, संसार के सहारा और महान स्वामी, श्री पद्मनाभ नाम के रूप में, दोषों को दूर करते हुए, अमृत (पृथ्वी पर) ला दिया है। लोग इसे पियें। अच्छे राजा ने पहले ही (विष्णु के) नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत ला दिया है, जो पापों को नष्ट कर देता है, जो रोगों को दूर कर देता है, जो आनंद देता है, जो दानवों और दैत्यों ( यानी राक्षसों) को नष्ट कर देता है। लोग इसे पीयें. अच्छा राजा पहले से ही यज्ञीय प्रकृति के विष्णु नाम के रूप में दोषों को दूर करने वाला अमृत लेकर आया है, उसके हाथ में एक चक्र है, जो धार्मिक गुणों की खान है, और अनंत सुख की खान है। लोग इसे पीयें. राजा पहले से ही दोषों को दूर करने वाला, विष्णु के नाम के रूप में, हर चीज का निवास, शुद्ध, अंत (हर चीज का), राम नाम वाला , सुखदायक और मुरारि का  अमृत लेकर आया है । लोग इसे पीयें. अच्छे राजा ने पहले ही अमृत ला दिया है, जो दोषों को दूर करता है, (विष्णु के नाम के रूप में), सूर्य के रूप में, अंधेरे का विनाशक, मन रूपी कमल के बंधन को नष्ट करने वाला। लोग इसे पीयें.

17. वह श्रेष्ठ, विष्णु का भक्त, स्वयं को संयमित करके, (विष्णु के) नाम के इस सत्य, अत्यंत मेधावी अमृत का अध्ययन (अर्थात् पाठ) करता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। (इसके अलावा) कोई (अन्य) प्रतिनिथि नहीं है।”



  पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-74)


                   सुकर्मोवाच-
दूतास्तु ग्रामेषु वदंति सर्वे द्वीपेषु देशेष्वथ पत्तनेषु 
लोकाः शृणुध्वं नृपतेस्तदाज्ञां सर्वप्रभावैर्हरिमर्चयंतु ।१।

दानैश्च यज्ञैर्बहुभिस्तपोभिर्धर्माभिलाषैर्यजनैर्मनोभिः ।
ध्यायंतु लोका मधुसूदनं तु आदेशमेवं नृपतेस्तु तस्य ।२।

एवं सुघुष्टं सकलं तु पुण्यमाकर्ण्य तं भूमितलेषु लोकैः ।
तदाप्रभृत्येव यजंति विष्णुं ध्यायंति गायंति जपंति मर्त्याः ।३।

वेदप्रणीतैश्च सुसूक्तमंत्रैः स्तोत्रैः सुपुण्यैरमृतोपमानैः ।
श्रीकेशवं तद्गतमानसास्ते व्रतोपवासैर्नियमैश्च दानैः ।४।

विहाय दोषान्निजकायचित्तवागुद्भवान्प्रेमरताः समस्ताः ।
लक्ष्मीनिवासं जगतां निवासं श्रीवासुदेवं परिपूजयंति।५।

इत्याज्ञातस्य भूपस्य वर्तते क्षितिमंडले ।
वैष्णवेनापि भावेन जनाः सर्वे जयंति ते ।६।

नामभिः कर्मभिर्विष्णुं यजंते ज्ञानकोविदाः ।
तद्ध्यानास्तद्व्यवसिता विष्णुपूजापरायणाः ।७।

यावद्भूमंडलं सर्वं यावत्तपति भास्करः ।
तावद्धि मानवा लोकाः सर्वे भागवता बभुः।८।

विष्णोर्ध्यानप्रभावेण पूजास्तोत्रेण नामतः ।
आधिव्याधिविहीनास्ते संजाता मानवास्तदा ।९।

वीतशोकाश्च पुण्याश्च सर्वे चैव तपोधनाः ।
संजाता वैष्णवा विप्र प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।१०।

आमयैश्च विहीनास्ते दोषैरोषैश्च वर्जिताः ।
सर्वैश्वर्यसमापन्नाः सर्वरोगविवर्जिताः।११।

प्रसादात्तस्य देवस्य संजाता मानवास्तदा ।
अमराः निर्जराः सर्वे धनधान्यसमन्विताः ।१२।

मर्त्या विष्णुप्रसादेन पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।
तेषामेव महाभाग गृहद्वारेषु नित्यदा ।१३।

कल्पद्रुमाः सुपुण्यास्ते सर्वकामफलप्रदाः ।
सर्वकामदुघा गावः सचिंतामणयस्तथा ।१४।

संति तेषां गृहे पुण्याः सर्वकामप्रदायकाः ।
अमरा मानवा जाताः पुत्रपौत्रैरलंकृताः ।१५।

सर्वदोषविहीनास्ते विष्णोश्चैव प्रसादतः ।
सर्वसौभाग्यसंपन्नाः पुण्यमंगलसंयुताः ।१६।

सुपुण्या दानसंपन्ना ज्ञानध्यानपरायणाः ।
न दुर्भिक्षं न च व्याधिर्नाकालमरणं नृणाम् ।१७।

तस्मिञ्शासति धर्मज्ञे ययातौ नृपतौ तदा ।
वैष्णवा मानवाः सर्वे विष्णुव्रतपरायणाः ।१८।

तद्ध्यानास्तद्गताः सर्वे संजाता भावतत्पराः ।
तेषां गृहाणि दिव्यानि पुण्यानि द्विजसत्तम ।१९।

पताकाभिः सुशुक्लाभिः शंखयुक्तानि तानि वै ।
गदांकितध्वजाभिश्च नित्यं चक्रांकितानि च ।२०।

पद्मांकितानि भासंते विमानप्रतिमानि च ।
गृहाणि भित्तिभागेषु चित्रितानि सुचित्रकैः।२१।

सर्वत्र गृहद्वारेषु पुण्यस्थानेषु सत्तमाः ।
वनानि संति दिव्यानि शाद्वलानि शुभानि च ।२२।

तुलस्या च द्विजश्रेष्ठ तेषु केशवमंदिरैः ।
भासंते पुण्यदिव्यानि गृहाणि प्राणिनां सदा ।२३।

सर्वत्र वैष्णवो भावो मंगलो बहु दृश्यते ।
शंखशब्दाश्च भूलोके मिथः स्फोटरवैः सखे ।२४।

श्रूयंते तत्र विप्रेंद्र दोषपापविनाशकाः ।
शंखस्वस्तिकपद्मानि गृहद्वारेषु भित्तिषु ।२५।

विष्णुभक्त्या च नारीभिर्लिखितानि द्विजोत्तम ।
गीतरागसुवर्णैश्च मूर्च्छना तानसुस्वरैः ।२६।

गायंति केशवं लोका विष्णुध्यानपरायणाः।२७।

हरिं मुरारिं प्रवदंति केशवं प्रीत्या जितं माधवमेव चान्ये ।
श्रीनारसिंहं कमलेक्षणं तं गोविंदमेकं कमलापतिं च ।२८।

कृष्णं शरण्यं शरणं जपंति रामं च जप्यैः परिपूजयंति ।
दंडप्रणामैः प्रणमंति विष्णुं तद्ध्यानयुक्ताः परवैष्णवास्ते ।२९।


अध्याय 74 - ययाति के शासन के दौरान विष्णु पंथ की लोकप्रियता

सुकर्मन ने कहा :

1-2. सभी दूतों ने द्वीपों, प्रदेशों और नगरों में कहा (अर्थात् प्रचार किया) : “हे प्रजा, राजा की आज्ञा सुनो।” वे अपनी संपूर्ण महिमा के साथ विष्णु की पूजा करते हैं । पुण्य की इच्छा रखने वाले (समर्पित) मन वाले लोग, कई उपहारों, बलिदानों के माध्यम से, विष्णु पर चिंतन करें; तपस्या, और यज्ञ संस्कार।'' ऐसी उस राजा की आज्ञा है.

3-5. पृथ्वी पर (संदेशवाहकों द्वारा) इस प्रकार सुप्रचारित ये सब गुणात्मक (वचन) लोगों ने सुने। तब से केवल मनुष्य ही विष्णु के (सम्मान में) बलिदान देते हैं,।

 उनका चिंतन करते हैं, उनकी स्तुति गाते हैं और बुदबुदाते हैं (उनके लिए प्रार्थना करते हैं)। सभी मनुष्य व्रत, उपवास, संयम और दान के द्वारा अपने शरीर, मन और वाणी के दोषों को त्याग कर और अपने हृदय से उन पर समर्पित होकर उन श्री केशव, श्री वासुदेव की पूजा करते हैं। लक्ष्मी का निवास , और लोकों का निवास, वेदों द्वारा सिखाए गए बहुत ही मेधावी और अमृतमय भजनों और स्तुतियों के साथ।

6-11. इस प्रकार उस राजा का आदेश पृथ्वी पर प्रचलित होता है। वे सभी लोग विष्णु की भक्ति के कारण विजयी हुए हैं। जो लोग ज्ञान में पारंगत हैं, और जो उनका ध्यान और चिंतन करते हैं और जो उनकी पूजा करने के इच्छुक हैं, वे विष्णु की (अर्थात् उनके नामों का पाठ करके) और उनके कर्मों से पूजा करते हैं। जब तक पृथ्वी कायम है और सूर्य चमक रहा है तब तक सभी मनुष्य भगवान (विष्णु) के अनुयायी थे (अर्थात बने रहेंगे)। तब विष्णु के ध्यान की शक्ति के कारण, उनकी पूजा और उनकी स्तुति और (उनके) नामों के (पाठ) के कारण मनुष्य मानसिक पीड़ा और शारीरिक रोगों से मुक्त हो गए। हे ब्राह्मण , चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से विष्णु के सभी भक्त दुःख से मुक्त हो गए, मेधावी बन गए और तपस्या ही उनका धन बन गई। वे रोगों से मुक्त थे, दोष या क्रोध से रहित थे; वे सभी प्रकार के वैभव से संपन्न और सभी रोगों से मुक्त थे।

12-27. उस देवता की कृपा से उस समय के सभी मनुष्य अजर-अमर हो गये और सभी धन-धान्य से सम्पन्न हो गये। विष्णु की कृपा से प्राणी पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित थे। हे महानुभाव, उनके घरों के दरवाज़ों पर (आस-पास के क्षेत्रों में) हमेशा ही उनकी सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले फल देने वाले गुणकारी वृक्ष होते थे, और सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली गायें भी होती थीं। विष्णु की कृपा से ही सभी मनुष्य अमर हो गये, पुत्र-पौत्रों से सुशोभित हो गये और सभी दोषों से मुक्त हो गये। वे सौभाग्य, योग्यता एवं शुभता से सम्पन्न थे। वे बड़े मेधावी, दान-पुण्य से सम्पन्न तथा ज्ञान-ध्यान में तत्पर थे। जब राजा ययाति , जो जानते थे कि क्या सही है, शासन कर रहे थे, तब कोई अकाल नहीं था, कोई बीमारी नहीं थी, और मनुष्यों में कोई अकाल मृत्यु नहीं थी। सभी मनुष्य विष्णु के भक्त थे, सभी विष्णु के व्रत (अर्थात उनके लिए पवित्र) के प्रति समर्पित (पालन करने वाले) थे। उन्होंने उस पर ध्यान किया, वे उसके प्रति समर्पित थे, और उनका हृदय उस पर लगा हुआ था। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, उनके दिव्य और शुभ घर सफेद ध्वजों और शंखों से सुसज्जित थे, और उनके ध्वज गदाओं से चिह्नित थे और चक्रों से चिह्नित थे। कमलों से अंकित और अच्छे चित्रों से रंगी हुई दीवारों वाले घर दिव्य कारों के समान थे। हे श्रेष्ठों, हर जगह - घरों के दरवाजों के पास और पवित्र स्थानों पर पेड़ों की दिव्य झाड़ियाँ और शुभ घास के स्थान थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, तुलसी और विष्णु के मंदिरों के कारण (मानव) प्राणियों के शुभ और दिव्य घर हमेशा चमकते रहते हैं। सर्वत्र विष्णु के प्रति मेधावी भक्ति प्रचुर मात्रा में देखी गई। हे मित्र, हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, वहाँ पृथ्वी पर परस्पर टकराने और पाप का नाश करने वाली ध्वनियों के कारण शंख की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, विष्णु के प्रति भक्ति के कारण स्त्रियों ने घरों के दरवाजों पर शंख, स्वस्तिक , कमल के चित्र बनाए थे ; और संगीत, गाने, अच्छे शब्दों, संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के विनियमित उत्थान या पतन के साथ विष्णु का ध्यान करने वाले लोग विष्णु की प्रशंसा में गाते हैं।

28-29. वे हरि , मुरारी , केशव, अजिता , माधव के बारे में स्नेहपूर्वक बात करते हैं । वे शरणागत विष्णु के नाम जपते हैं, (जैसे) कमल-नेत्र गोविंदा , कमला के स्वामी (अर्थात लक्ष्मी), कृष्ण और राम , और (उनके नाम) जपते हुए पूजा करते हैं। विष्णु के वे महान भक्त, ध्यान में लगे हुए, उनके सामने पूरी तरह से प्रणाम करके उन्हें नमस्कार करते हैं।

                   "सुकर्मोवाच-
विष्णुं  हरिं रामं कृष्णं मुकुंदं मधुसूदनम् ।
नारायणं विष्णुरूपं नारसिंहं तमच्युतम् ।१।

केशवं पद्मनाभं च वासुदेवं च वामनम् ।
वाराहं कमठं मत्स्यं हृषीकेशं सुराधिपम् ।२।

विश्वेशं विश्वरूपं च अनंतमनघं शुचिम् ।
पुरुषं पुष्कराक्षं च श्रीधरं श्रीपतिं हरिम् ।३।

श्रीनिवासं पीतवासं माधवं मोक्षदं प्रभुम् ।
इत्येवं हि समुच्चारं नामभिर्मानवाः सदा ।४।

प्रकुर्वंति नराः सर्वे बालवृद्धाः कुमारिकाः ।
स्त्रियो हरिं सुगायंति गृहकर्मरताः सदा ।५।

आसने शयने याने ध्याने वचसि माधवम् ।
क्रीडमानास्तथा बाला गोविंदं प्रणमंति ते ।६।

दिवारात्रौ सुमधुरं ब्रुवंति हरिनाम च ।
विष्णूच्चारो हि सर्वत्र श्रूयते द्विजसत्तम ।७।

वैष्णवेन प्रभावेण मर्त्या वर्तंति भूतले ।
प्रासादकलशाग्रेषु देवतायतनेषु च ।८।

यथा सूर्यस्य बिंबानि तथा चक्राणि भांति च ।वैकुंठे दृश्यते भावस्तद्भावं जगतीतले ।९।

तेन राज्ञा कृतं विप्र पुण्यं चापि महात्मना ।
विष्णुलोकस्य समतां तथानीतं महीतलम् ।१०।

नहुषस्यापि पुत्रेण वैष्णवेन ययातिना ।
उभयोर्लोकयोर्भावमेकीभूतं महीतलम् ।११।

भूतलस्यापि विष्णोश्च अंतरं नैव दृश्यते ।
विष्णूच्चारं तु वैकुंठे यथा कुर्वंति वैष्णवाः ।१२।

भूतले तादृशोच्चारं प्रकुर्वंति च मानवाः ।
उभयोर्लोकयोर्विप्र एकभावः प्रदृश्यते ।१३।

जरारोगभयं नास्ति मृत्युहीना नरा बभुः ।
दानभोगप्रभावश्च अधिको दृश्यते भुवि ।१४।

पुत्राणां तु सुखं पुण्यमधिकं पौत्रजं नराः ।
प्रभुंजंति सुखेनापि मानवा भुवि सत्तम ।१५।

विष्णोः प्रसाददानेन उपदेशेन तस्य च ।
सर्वव्याधिविनिर्मुक्ता मानवा वैष्णवाः सदा ।१६।

स्वर्गलोकप्रभावो हि कृतो राज्ञा महीतले ।
पंचविंशप्रमाणेन वर्षाणि नृपसत्तम ।१७।

गदैर्हीना नराः सर्वे ज्ञानध्यानपरायणाः ।
यज्ञदानपराः सर्वे दयाभावाश्च मानवाः ।१८।

उपकाररताः पुण्या धन्यास्ते कीर्तिभाजनाः ।
सर्वे धर्मपरा विप्र विष्णुध्यानपरायणाः ।१९।

राज्ञा तेनोपदिष्टास्ते संजाता वैष्णवा भुवि ।
विष्णुरुवाच-
श्रूयतां नृपशार्दूल चरित्रं तस्य भूपतेः ।२०।

सर्वधर्मपरो नित्यं विष्णुभक्तश्च नाहुषिः ।
अब्दानां तत्र लक्षं हि तस्याप्येवं गतं भुवि ।२१।

नूतनो दृश्यते कायः पंचविंशाब्दिको यथा ।
पंचविंशाब्दिको भाति रूपेण वयसा तदा ।२२।

प्रबलः प्रौढिसंपन्नः प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
मानुषा भुवमास्थाय यमं नैव प्रयांति ते ।२३।

रागद्वेषविनिर्मुक्ताः क्लेशपाशविवर्जिताः ।
सुखिनो दानपुण्यैश्च सर्वधर्मपरायणाः ।२४।

विस्तारं तेजनाः सर्वे संतत्यापि गता नृप ।
यथा दूर्वावटाश्चैव विस्तारं यांति भूतले ।२५।

यथा ते मानवाः सर्वे पुत्रपौत्रैः प्रविस्तृताः ।
मृत्युदोषविहीनास्ते चिरं जीवंति वै जनाः ।२६।

स्थिरकायाश्च सुखिनो जरारोगविवर्जिताः ।
पंचविंशाब्दिकाः सर्वे नरा दृश्यंति भूतले ।२७।

सत्याचारपराः सर्वे विष्णुध्यानपरायणाः ।
एवं सर्वे च मर्त्यास्ते प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।२८।

संजाता मानवाः सर्वे दानभोगपरायणाः ।
मृतो न श्रूयते लोके मर्त्यः कोपि नरोत्तम ।२९।

शोकं नैव प्रपश्यंति दोषं नैव प्रयांति ते ।
यद्रूपं स्वर्गलोकस्य तद्रूपं भूतलस्य च ।३०।

संजातं मानवश्रेष्ठ प्रसादात्तस्य चक्रिणः ।
विभ्रष्टा यमदूतास्ते विष्णुदूतैश्च ताडिताः ।३१।

रुदमाना गताः सर्वे धर्मराजं परस्परम् ।
तत्सर्वं कथितं दूतैश्चेष्टितं भूपतेस्तु तैः ।३२।

अमृत्युभूतलं जातं दानभोगेन भास्करे ।
नहुषस्यात्मजेनापि कृतं देवययातिना ।३३।

विष्णुभक्तेन पुण्येन स्वर्गरूपं प्रदर्शितम् ।
एवमाकर्णितं सर्वं धर्मराजेन वै तदा ।३४।

धर्मराजस्तदा तत्र दूतेभ्यः श्रुतविस्तरः ।
चिंतयामास सर्वार्थं श्रुत्वैवंनृपचेष्टितम् ।३५।

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे पंचसप्ततितमोऽध्यायः ।७५।

अध्याय 75 - विष्णु की कृपा से ययाति की प्रजा अमर हो गई


सुकर्मन ने कहा :

1-6. सभी पुरुष, बच्चे, बूढ़े, अविवाहित लड़कियाँ हमेशा विष्णु, कृष्ण , हरि , राम , मुकुंद , मधुसूदन, विष्णु के रूप नारायण, नरसिंह , अच्युत , केशव , पद्मन जैसे नामों का उच्चारण करते थे (अर्थात विष्णु के विभिन्न नामों का जाप करते थे)।

 आभा , वासुदेव , वामन , वराह , कामठ , मत्स्य , हृषिकेश , सुरधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनंत , अनाघ , शुचि , पुरुष , पुष्करक्ष, श्रीधर , श्रीपति , हरि , श्रीनिवास , पीतवास ( अर्थात पीले वस्त्र पहने हुए), माधव , मोक्षदा ( अर्थात मोक्ष दाता) और प्रभु । घरेलू काम में लगी महिलाएँ हमेशा हरि, माधव, (जब वे बैठी होती थीं) (जब वे लेटी हुई होती थीं) (जब वे जा रही होती थीं) वाहन में  प्रचुर मात्रा में गाती थीं (अर्थात् उनके नामों का जप करती थीं)। और ध्यान में. इसी प्रकार बच्चों ने (जबकि) खेलते हुए गोविंद (अर्थात विष्णु) को प्रणाम किया।

7-16. दिन-रात वे विष्णु के अत्यंत मधुर नाम का उच्चारण करते थे। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , सर्वत्र विष्णु का (नाम का) उच्चारण सुनाई दे रहा था। मनुष्य पृथ्वी पर (केवल) विष्णु की शक्ति से रहते थे। विष्णु का चक्र) के प्रतिबिंब) के रूप में चमकता है। सूर्य के चक्र महलों और मंदिरों के घड़ों के शीर्ष पर चमकते हैं। जो स्थिति वैकुण्ठ में देखी गई वही पृथ्वी पर देखी गई। 

उस महान राजा नहुष के पुत्र ययाति ने पुण्य का कार्य किया और पृथ्वी को विष्णु के स्वर्ग के समान बना दिया। दोनों लोकों की शक्ल (समान होने से) पृथ्वी एक (विष्णु के वैकुण्ठ के साथ) हो गई थी। पृथ्वी और विष्णु के वैकुण्ठ में कोई अंतर नहीं देखा गया।

जैसे विष्णु के भक्तों ने वैकुण्ठ में विष्णु के नामों का उच्चारण किया, उसी प्रकार (अर्थात् उसी प्रकार) मनुष्यों ने पृथ्वी पर विष्णु के नामों का उच्चारण किया।

हे ब्राह्मण, दोनों दुनियाओं के बीच पहचान देखी गई। बुढ़ापे और बीमारियों से कोई डर नहीं था. लोग मृत्यु से मुक्त हो गये। पृथ्वी पर दान और भोग का अधिक वैभव देखने को मिला। 

हे श्रेष्ठ, पुरुषों ने पुत्रों और पौत्रों से (अर्थात) अधिक आनंद उठाया। सभी मनुष्य - विष्णु के भक्त - विष्णु की कृपा (जो उन्हें प्राप्त हुई) और उनके निर्देश के कारण सभी रोगों से हमेशा मुक्त थे।

17-20. राजा ने पृथ्वी पर वैकुण्ठ का वैभव लाया। हे श्रेष्ठ राजा, वर्ष पच्चीस वर्ष के थे (अर्थात् बहुत लम्बे थे)। सभी मनुष्य रोगों से मुक्त थे और ज्ञान तथा ध्यान पाने के इच्छुक थे। 

सभी मनुष्य पूरी तरह से विष्णु यजन करने ) और उपहार देने  में लीन थे और सभी दयालु थे।वे (दूसरों को) उपकृत करने में लगे हुए थे; यश के भंडार वे मेधावी पुरुष धन्य हो गये। 

हे ब्राह्मण, सभी मनुष्य पूरी तरह से धर्म के प्रति समर्पित थे और पूरी तरह से ध्यान में लीन थे। उस राजा के निर्देश पर, वे पृथ्वी पर विष्णु के प्रति समर्पित हो गये।

विष्णु ने कहा :

20-28. हे राजाश्रेष्ठ, उस राजा का वृत्तान्त सुनो।नहुष का वह पुत्र सदैव सभी गुणों में लीन और विष्णु का भक्त था। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी पर एक लाख वर्ष व्यतीत किये।

 उसका शरीर परिपक्व हो गया था और रूप से पच्चीस वर्ष का प्रतीत होता था। वे मनुष्य (अर्थात् उसकी प्रजा) पृथ्वी का आश्रय लेकर (अर्थात् उस पर रहकर) यम के पास नहीं जाते थे।********

 हे राजा, सभी लोग राग-द्वेष से रहित, कष्ट के पाश से रहित, उपहार देने से प्राप्त पुण्य से प्रसन्न और केवल सभी धार्मिक कार्यों में समर्पित रहने वाले लोगों का सदैव विस्तार होता है ।

(अर्थात उनकी संख्या बढ़ती है) संतान के संबंध में भी. जैसे दूर्वा (घास) और बून के वृक्ष पृथ्वी पर फैले हुए थे, उसी प्रकार वे सभी मनुष्य पुत्रों और पौत्रों के द्वारा विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) करने लगे।

 वे मनुष्य मृत्यु के दोष से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहे। पृथ्वी पर सब (वे) बलिष्ठ शरीर वाले, बुढ़ापे और रोगों से रहित तथा (अत: प्रसन्न) पुरुष पच्चीस वर्ष के (अर्थात् बहुत युवा) जान पड़ते थे। 

सभी अच्छे आचरण के प्रति समर्पित थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे। इसी लिए वे सभी भौतिक विकारों से परे थे।

28-34. इस प्रकार सभी नश्वर प्राणी-सभी मनुष्य-उस चक्र-धारक (अर्थात विष्णु) की कृपा के कारण, पूरी तरह से उपहार और भोग के प्रति समर्पित हो गए थे। हे नरश्रेष्ठ, किसी भी मनुष्य को मरा हुआ नहीं सुना गया। उन्होंने दु:ख न देखा  और न ही मिला। वे निर्दोष देखे जाते हैं 

हे पुरुषश्रेष्ठ, उस चक्रधारी की कृपा से संसार का स्वरूप ठीक वैसा ही हो गया जैसा वैकुण्ठ का स्वरूप था। 

विष्णु के दूतों द्वारा पीटे गए यम के दूत गायब हो गए। वे सभी एक दूसरे के साथ रोते हुए धर्मराज (अर्थात् यम) के पास गये। 

दूतों ने (यम को) वह सब बता दिया जो राजा (अर्थात् ययाति) ने किया था। (उन्होंने यम से कहा): “हे सूर्य पुत्र; दान और भोग के कारण पृथ्वी अमर हो गई है। 

हे भगवान यम , नहुष के पुत्र ययाति ने ऐसा किया है। विष्णु के उस मेधावी भक्त ने (पृथ्वी पर) वैकुण्ठ की प्रकृति का प्रदर्शन किया।

34-35. उसी समय धर्मराज ने यह सब सुन लिया। तब धर्मराज ने राजा की गतिविधियों को विस्तारपूर्वक सुनकर सारी बात पर विचार किया।

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पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय 76)

                  "सुकर्मोवाच-
सौरिर्दूतैस्तथा सर्वैः सह स्वर्गं जगाम सः।
द्रष्टुं तत्र सहस्राक्षं देववृंदैः समावृतम् ।१।

धर्मराजं समायांतं ददर्श सुरराट्तदा ।
समुत्थाय त्वरायुक्तो दत्वा चार्घमनुत्तमम्।२।

पप्रच्छागमनं तस्य कथयस्व ममाग्रतः ।
समाकर्ण्य महद्वाक्यं देवराजस्य भाषितम् ।३।

धर्मराजोऽब्रवीत्सर्वं ययातेश्चरितं महत् ।
              "धर्मराज उवाच-
श्रूयतां देवदेवेश यस्मादागमनं मम।४।

कथयाम्यहमत्रापि येनाहमागतस्तव ।
नहुषस्यात्मजेनापि वैष्णवेन महात्मना।५।

वैष्णवाश्च कृता मर्त्या ये वसन्ति महीतले ।
वैकुण्ठस्य समं रूपं मर्त्यलोकस्य वै कृतम्।६।

अमरा मानवा जाता जरारोगविवर्जिताः ।
पापमेव न कुर्वंति असत्यं न वदंति ते।७।

कामक्रोधविहीनास्ते लोभमोहविवर्जिताः ।
दानशीला महात्मानः सर्वे धर्मपरायणाः।८।

सर्वधर्मैः समर्चन्ति नारायणमनामयम् ।
तेन वैष्णवधर्मेण मानवा जगतीतले ।९।

निरामया वीतशोकाः सर्वे च स्थिरयौवनाः ।
दूर्वा वटा यथा देव विस्तारं यान्ति भूतले ।१०।

तथा ते विस्तरं प्राप्ताः पुत्रपौत्रैः प्रपौत्रकैः ।
तेषां पुत्रैः प्रपौत्रैश्च वंशाद्वंशांतरं गताः।११।

एवं हि वैष्णवः सर्वो जरामृत्युविवर्जितः ।
मर्त्यलोकः कृतस्तेन नहुषस्यात्मजेन वै।१२।

पदभ्रष्टोस्मि सञ्जातो व्यापारेण विवर्जितः ।
एतत्सर्वं समाख्यातं मम कर्मविनाशनम् ।१३।

एवं ज्ञात्वा सहस्राक्ष लोकस्यास्य हितं कुरु ।
एतत्ते सर्वमाख्यातं यथापृष्टोस्मि वै त्वया ।१४।

एतस्मात्कारणादिन्द्र आगतस्तव सन्निधौ ।
                    "इन्द्र उवाच-
पूर्वमेव मया दूत आगमाय महात्मनः।१५।

प्रेषितो धर्मराजेन्द्र दूतेनास्यापि भाषितम् ।
नाहं स्वर्गसुखस्यार्थी नागमिष्ये दिवं पुनः।१६

स्वर्गरूपं करिष्यामि सर्वं तद्भूमिमंडलम् ।
इत्याचचक्षे भूपालः प्रजापाल्यं करोति सः।१७।

तस्य धर्मप्रभावेण भीतस्तिष्ठामि सर्वदा ।
               "धर्म उवाच-
येनकेनाप्युपायेन तमानय सुभूपतिम् ।१८।

देवराज महाभाग यदीच्छसि मम प्रियम् ।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य धर्मस्यापि सुराधिपः।१९।

चिन्तयामास मेधावी सर्वतत्वेन भूपते ।
कामदेवं समाहूय गंधर्वांश्च पुरंदरः।२०।

मकरंदं रतिं देव आनिनाय महामनाः ।
तथा कुरुत वै यूयं यथाऽगच्छति भूपतिः।२१।

यूयं गच्छन्तु भूर्लोकं मयादिष्टा न संशयः ।
                  "काम उवाच-
युवयोस्तु प्रियं पुण्यं करिष्यामि न संशयः।२२।

राजानं पश्य मां चैव स्थितं चैव समा युधि।
तथेत्युक्त्वा गताः सर्वे यत्र राजा स नाहुषिः।२३।

नटरूपेण ते सर्वे कामाद्याः कर्मणा द्विज ।
आशीर्भिरभिनन्द्यैव ते च ऊचुः सुनाटकम् ।२४।

तेषां तद्वचनं श्रुत्वा ययातिः पृथिवीपतिः ।
सभां चकार मेधावी देवरूपां सुपण्डितैः। २५।

समायातः स्वयं भूपो ज्ञानविज्ञानकोविदः ।
तेषां तु नाटकं राजा पश्यमानः स नाहुषिः।२६।

चरितं वामनस्यापि उत्पत्तिं विप्ररूपिणः।
रूपेणाप्रतिमा लोके सुस्वरं गीतमुत्तमम् ।२७।

गायमाना जरा राजन्नार्यारूपेण वै तदा ।
तस्या गीतविलासेन हास्येन ललितेन च ।२८।

मधुरालापतस्तस्य कन्दर्पस्य च मायया ।
मोहितस्तेन भावेन दिव्येन चरितेन च ।२९।

बलेश्चैव यथारूपं विंध्यावल्या यथा पुरा ।
वामनस्य यथारूपं चक्रे मारोथ तादृशम् ।३०।

सूत्रधारः स्वयं कामो वसंतः पारिपार्श्वकः ।
नटीवेषधरा जाता सा रतिर्हृष्टवल्लभा।३१।

नेपथ्यान्तश्चरी राजन्सा तस्मिन्नृत्यकर्मणि ।
मकरन्दो महाप्राज्ञः क्षोभयामास भूपतिम् ।३२।

यथायथा पश्यति नृत्यमुत्तमं गीतं समाकर्णति स क्षितीशः ।
तथातथा मोहितवान्स भूपतिं नटीप्रणीतेन महानुभावः ।३३।




अनुवाद:-

सुकर्मन ने कहा :

1-4. सूर्य के पुत्र ( यम ) अपने सभी दूतों के साथ देवताओं के समूहों से घिरे इंद्र से  मिलने  के लिए स्वर्ग गए । तभी उस देवराज (अर्थात इन्द्र) ने धर्मराज को अपनी सभा में देखा। 

उसने झट से उठकर उसे उत्तम सम्मानपूर्ण भेंट दी और उससे  उनके आने का कारण पूछा  "मुझे बताओ  (तुम क्यों आए हो)।" देवताओं के राजा के भारी वचनों को सुनकर धर्मराज ने उन्हें ययाति का सारा महान वृत्तान्त कह सुनाया ।

धर्मराज ने कहा :

4-11. हे देवराज, सुनो मैं किस लिये आया हूँ। मैं यही  तुम्हें बताऊँगा कि मैं क्यों आया हूँ। विष्णु के भक्त नहुष के कुलीन पुत्र ने पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों को विष्णु का भक्त बना दिया है। उन्होंने नश्वर संसार का स्वरूप वैकुण्ठ जैसा बना दिया है । 

मनुष्य अमर हो गया है और बुढ़ापे तथा रोगों से मुक्त हो गया है। वे न तो कोई पाप करते हैं और न ही झूठ बोलते हैं।

वे काम और क्रोध से मुक्त हैं, और लोभ और भ्रम से रहित हैं। श्रेष्ठजनों को दान दिया जाता है और वे सभी धर्म के प्रति समर्पित होते हैं। 

सभी अच्छे कार्यों के साथ वे ध्वनि नारायण की पूजा करते हैं । उस वैष्णव धर्म के  पालन करने के कारण पृथ्वी पर सभी मनुष्य स्वस्थ हैं।, शोक से मुक्त हैं और सभी स्थिर युवा हैं। 

हे भगवन्, जिस प्रकार दूर्वा (घास) और बून के वृक्ष पृथ्वी पर फैलते हैं, उसी प्रकार वे अपने पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों के कारण विस्तार (अर्थात संख्या में वृद्धि) कर चुके हैं। 

अपने पुत्रों और प्रपौत्रों के साथ वे एक राजवंश से दूसरे राजवंश में चले गये (अर्थात विभिन्न राजवंशों की शुरुआत की)।

12-15. इस प्रकार नहुष के पुत्र ने संपूर्ण नश्वर संसार को विष्णु का भक्त  वैष्णव बना दिया और बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त कर दिया। 

कार्य से मुक्त (अर्थात शून्य) होने के कारण मैं (मानो) अपने पद से वंचित हो गया हूँ।

 इस प्रकार मैंने तुम्हें वह सब कुछ बता दिया है जो मेरे कार्य को समाप्त कर देता है। हे हजार नेत्रों वाले (इंद्र) ऐसा जानकर वही करो जो इस संसार के लिए हितकर हो। जैसा कि आपने मुझसे पूछा था, मैंने यह सब आपको बता दिया है। इसी कारण से, हे इंद्र, मैं आपके समीप (अर्थात आपके पास आया हूं।

इंद्र ने कहा :

15-18. हे महान धर्मराज, पहले केवल मैंने ही अपने दूत (अर्थात् मातलि ) को उस महान व्यक्ति के पास  उस महान ययाति को यहाँ लाने के लिए) भेजा था। यहाँ तक कि मेरे दूत ने भी उससे बात की। (लेकिन ययाति ने उससे कहा:) “मुझे स्वर्ग में सुख की इच्छा नहीं है। मैं स्वर्ग में (बिल्कुल नहीं) आऊंगा। मैं पूरे विश्व को स्वर्ग की प्रकृति का बना दूंगा।

इन्दिर ने कहा हे धर्मराज-

इस प्रकार राजा ने (मेरे दूत मातलि से) कहा। वह राजा अपनी प्रजा की रक्षा कर रहा है. उसकी धार्मिकता के बल से मैं भी सदैव संकट में रहता हूँ।

धर्म ने कहा :

18-19. हे देवताओं के महामहिम स्वामी, यदि आप मुझे प्रिय वस्तु देना चाहते हैं तो उस अच्छे राजा को किसी भी तरह से लालसा देकर (स्वर्ग में) ले आइए।

19-22. हे राजन, उस धर्मराज के ये वचन सुनकर बुद्धिमान देवराज ने सभी बातों पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार किया। श्रेष्ठ मन वाले भगवान इंद्र ने कामदेव और गंधर्वों को बुलाकर कोयल वसन्त (मकरन्द) और रति को ले आये । (उन्होंने उनसे कहा:) "वह करो जिससे राजा (यहाँ) आये।" मेरी आज्ञा से तुम पृथ्वी पर चले जाओ। (इस बारे में) तुम्हें कोई झिझक नहीं होनी चाहिए।”

 "कामदेव ने कहा :

22-23. इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं वही करूँगा जो आपके अनुकूल एवं जो तुम्हें उचित लगेगा।मुझे और राजा को युद्ध में (एक दूसरे के विपरीत) खड़े हुए देखिये।

23-24. 'ठीक है' कहकर सभी वहाँ चले गये जहाँ वह राजा नहुष का पुत्र ययाति रहता था। 

हे ब्राह्मण , उन सभी ने, काम देव आदि ने, अभिनेताओं के रूप में (अर्थात स्वयं को छिपाकर) राजा को आशीर्वाद दिया और अपने अच्छे नाटक के बारे में राजा को बताया (अर्थात अच्छे अभिनय के साथ उनसे बात की)।

25-33. उनकी ये बातें सुनकर पृथ्वी के बुद्धिमान स्वामी ययाति ने अत्यंत विद्वानों के साथ एक दिव्य सभा की व्यवस्था की। पवित्र तथा अपवित्र विद्या में निपुण राजा स्वयं (वहां) आये। नहुष के पुत्र राजा ने वह नाटक देखा। (उन्होंने देखा) वामन का जीवन , एक ब्राह्मण के रूप में उनका जन्म भी है। 

उस समय जरा (अर्थात् वृद्धावस्था) ने संसार में सौंदर्य में अद्वितीय स्त्री का रूप धारण करके एक उत्तम, मधुर गीत गाया, हे राजन! उसके गायन के आकर्षण के कारण, उसकी मनोहर हंसी (अर्थात मुस्कान) के कारण, और उसके मीठे शब्दों के कारण, और कामदेव की युक्ति, ढंग और दिव्य व्यवहार के कारण वह राजा मोहित हो गया था। कामदेव का रूप पहले बलि , और विंध्य या वामन की पंक्ति जैसा था। 

कामदेव स्वयं मुख्य अभिनेता और मंच प्रबंधक बन गए, और  वसन्त रति उनके सहायक थे। वह रति, जिसका पति प्रसन्न था, उस रति ने मुख्य अभिनेत्री की पोशाक पहन ली। उस नृत्य-प्रदर्शन में वह  विश्राम-कक्ष में चली गईं।अत्यंत बुद्धिमान कोयल ने राजा को उत्साहित कर दिया। जैसे ही गौरवशाली राजा ने उत्कृष्ट नृत्य देखा और उत्कृष्ट संगीत सुना, वह मुख्य अभिनेत्री (अर्थात् रति) द्वारा प्रस्तुत (इनसे) मोहित हो गया।

मकरन्द:- पुष्परस-कामवर्धक पदार्थ- मकरमपि द्यति कामजनकत्वात् दो--अवखण्डने क पृषो० मुम् ।(१)-पुष्पमधौ अमरः कोश ।


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                'सुकर्मोवाच-
कामस्य गीतलास्येन हास्येन ललितेन च।
मोहितो राजराजेंद्रो नटरूपेण पिप्पल ।१।

कृत्वा मूत्रं पुरीषं च स राजा नहुषात्मजः ।
अकृत्वा पादयोः शौचमासने उपविष्टवान् ।२।

तदंतरं तु संप्राप्य संचचार जरा नृपम् ।
कामेनापि नृपश्रेष्ठ इंद्रकार्यं कृतं हितम् ।३।

निवृत्ते नाटके तस्मिन्गतेषु तेषु भूपतिः ।
जराभिभूतो धर्मात्मा कामसंसक्तमानसः।४।

मोहितः काममोहेन विह्वलो विकलेंद्रियः ।
अतीव मुग्धो धर्मात्मा विषयैश्चापवाहितः।५।

एकदा तु गतो राजा मृगया व्यसनातुरः।
वने च क्रीडते सोपि मोहरागवशं गतः।६।

सरसं क्रीडमानस्य नृपतेश्च महात्मनः ।
मृगश्चैकः समायातश्चतुःशृंगो ह्यनौपमः ।७।

सर्वांगसुंदरो राजन्हेमरूपतनूरुहः।
रत्नज्योतिः सुचित्रांगो दर्शनीयो मनोहरः।८।

अभ्यधावत्स वेगेन बाणपाणिर्धनुर्द्धरः।
इत्यमन्यत मेधावी कोपि दैत्यः समागतः।९।

मृगेण च स तेनापि दूरमाकर्षितो नृपः ।
गतः सरथवेगेन श्रमेण परिखेदितः।१०।

वीक्षमाणस्य तस्यापि मृगश्चांतरधीयत ।
स पश्यति वनं तत्र नंदंनोपममद्भुतम्।११।

चारुवृक्षसमाकीर्णं भूतपंचकशोभितम् ।
गुरुभिश्चंदनैः पुण्यैः कदलीखंडमंडितैः।१२।

बकुलाशोकपुंनागैर्नालिकेरैश्च तिंदुकैः ।
पूगीफलैश्च खर्जूरैः कुमुदैः सप्तपर्णकैः।१३।

पुष्पितैः कर्णिकारैश्च नानावृक्षैः सदाफलैः ।
पुष्पितामोदसंयुक्तैः केतकैः पाटलैस्ततः।१४।

वीक्षमाणो महाराज ददर्श सर उत्तमम् ।
पुण्योदकेन संपूर्णं विस्तीर्णं पंचयोजनम्।१५।

हंसकारंडवाकीर्णं जलपक्षिविनादितम् ।
कमलैश्चापि मुदितं श्वेतोत्पलविराजितम्।१६।

रक्तोत्पलैः शोभमानं हाटकोत्पलमंडितम् ।
नीलोत्पलैः प्रकाशितं कल्हारैरतिशोभितम् ।१७।

मत्तैर्मधुकरैश्चपि सर्वत्र परिनादितम् ।
एवं सर्वगुणोपेतं ददर्श सर उत्तमम् ।१८।

पंचयोजनविस्तीर्णं दशयोजनदीर्घकम् ।
तडागं सर्वतोभद्रं दिव्यभावैरलंकृतम् ।१९।

रथवेगेन संखिन्नः किंचिच्छ्रमनिपीडितः।
निषसाद तटे तस्य चूतच्छायां सुशीतलाम् ।२०।

स्नात्वा पीत्वा जलं शीतं पद्मसौगंध्यवासितम् ।
सर्वश्रमोपशमनममृतोपममेव तत् ।२१।

वृक्षच्छाये ततस्तस्मिन्नुपविष्टेन भूभृता ।
गीतध्वनिः समाकर्णि गीयमानो यथा तथा ।२२।

यथा स्त्री गायते दिव्या तथायं श्रूयते ध्वनिः।
गीतप्रियो महाराज एव चिंतां परां गतः।२३।

चिंताकुलस्तु धर्मात्मा यावच्चिंतयते क्षणम् ।
तावन्नारी वरा काचित्पीनश्रोणी पयोधरा।२४।

नृपतेः पश्यतस्तस्य वने तस्मिन्समागता ।
सर्वाभरणशोभांगी शीललक्षणसंपदा।२५।

तस्मिन्वने समायाता नृपतेः पुरतः स्थिता ।
तामुवाच महाराजः का हि कस्य भविष्यसि।२६।

किमर्थं हि समायाता तन्मे त्वं कारणं वद ।
पृष्टा सती तदा तेन न किंचिदपि पिप्पल।२७।

शुभाशुभं च भूपालं प्रत्यवोचद्वरानना ।
प्रहस्यैव गता शीघ्रं वीणादंडकराऽबला।२८।

विस्मयेनापि राजेंद्रो महता व्यापितस्तदा ।
मया संभाषिता चेयं मां न ब्रूते स्म सोत्तरम्।२९।

पुनश्चिंतां समापेदे ययातिः पृथिवीपतिः ।
यो वै मृगो मया दृष्टश्चतुःशृंगः सुवर्णकः।३०।

तस्मान्नारी समुद्भूता तत्सत्यं प्रतिभाति मे ।
मायारूपमिदं सत्यं दानवानां भविष्यति।३१।

चिंतयित्वा क्षणं राजा ययातिर्नहुषात्मजः ।
यावच्चिंतयते राजा तावन्नारी महावने।३२।

अंतर्धानं गता विप्र प्रहस्य नृपनंदनम् ।
एतस्मिन्नंतरे गीतं सुस्वरं पुनरेव तत्।३३।

शुश्रुवे परमं दिव्यं मूर्छनातानसंयुतम् ।
जगाम सत्वरं राजा यत्र गीतध्वनिर्महान्।३४।

जलांते पुष्करं चैव सहस्रदलमुत्तमम् ।
तस्योपरि वरा नारी शीलरूपगुणान्विता ।३५।

दिव्यलक्षणसंपन्ना दिव्याभरणभूषिता ।
दिव्यैर्भावैः प्रभात्येका वीणादंडकराविला ।३६।

गायंती सुस्वरं गीतं तालमानलयान्वितम् ।
तेन गीतप्रभावेण मोहयंती चराचरान् ।३७।

देवान्मुनिगणान्सर्वान्दैत्यान्गंधर्वकिन्नरान् ।
तां दृष्ट्वा स विशालाक्षीं रूपतेजोपशालिनीम्।३८।

संसारे नास्ति चैवान्या नारीदृशी चराचरे ।
पुरा नटो जरायुक्तो नृपतेः कायमेव हि ।३९।

संचारितो महाकामस्तदासौ प्रकटोभवत् ।
घृतं स्पृष्ट्वा यथा वह्नी रश्मिवान्संप्रजायते।४०।

तां च दृष्ट्वा तथा कामस्तत्कायात्प्रकटोऽभवत् ।
मन्मथाविष्टचित्तोसौ तां दृष्ट्वा चारुलोचनाम्।४१।

ईदृग्रूपा न दृष्टा मे युवती विश्वमोहिनी ।
चिंतयित्वा क्षणं राजा कामसंसक्तमानसः।४२।

तस्याः सविरहेणापि लुब्धोभून्नृपतिस्तदा ।
कामाग्निना दह्यमानः कामज्वरेणपीडितः।४३।

कथं स्यान्मम चैवेयं कथं भावो भविष्यति ।
यदा मां गूहते बाला पद्मास्या पद्मलोचना।४४।

यदीयं प्राप्यते तर्हि सफलं जीवितं भवेत् ।
एवं विचिंत्य धर्मात्मा ययातिः पृथिवीपतिः।४५।

तामुवाच वरारोहां का त्वं कस्यापि वा शुभे ।
पूर्वं दृष्टा तु या नारी सा दृष्टा पुनरेव च ।४६।

तां पप्रच्छ स धर्मात्मा का चेयं तव पार्श्वगा ।
सर्वं कथय कल्याणि अहं हि नहुषात्मजः।४७।

सोमवंशप्रसूतोहं सप्तद्वीपाधिपः शुभे ।
ययातिर्नाम मे देवि ख्यातोहं भुवनत्रये ।४८।

तव संगमने चेतो भावमेवं प्रवांछते ।
देहि मे संगमं भद्रे कुरु सुप्रियमेव हि ।४९।

यं यं हि वांछसे भद्रे तद्ददामि न संशयः ।
दुर्जयेनापि कामेन हतोहं वरवर्णिनि ।५०।

तस्मात्त्राहि सुदीनं मां प्रपन्नं शरणं तव ।
राज्यं च सकलामुर्वीं शरीरमपि चात्मनः ।५१।

संगमे तव दास्यामि त्रैलोक्यमिदमेव ते ।
तस्य राज्ञो वचः श्रुत्वा सा स्त्री पद्मनिभानना ।५२।

विशालां स्वसखीं प्राह ब्रूहि राजानमागतम् ।
नाम चोत्पत्तिस्थानं च पितरं मातरं शुभे ।५३।

ममापि भावमेकाग्रमस्याग्रे च निवेदय ।
तस्याश्च वांछितं ज्ञात्वा विशाला भूपतिं तदा ।५४।

उवाच मधुरालापैः श्रूयतां नृपनंदन ।
                "विशालोवाच-
काम एष पुरा दग्धो देवदेवेन शंभुना ।५५।

रुरोद सा रतिर्दुःखाद्भर्त्राहीनापि सुस्वरम् ।
अस्मिन्सरसि राजेंद्र सा रतिर्न्यवसत्तदा ।५६।

तस्य प्रलापमेवं सा सुस्वरं करुणान्वितम् ।
समाकर्ण्य ततो देवाः कृपया परयान्विताः ।५७।

संजाता राजराजेंद्र शंकरं वाक्यमब्रुवन् ।
जीवयस्व महादेव पुनरेव मनोभवम् ।५८।

वराकीयं महाभाग भर्तृहीना हि कीदृशी ।
कामेनापि समायुक्तामस्मत्स्नेहात्कुरुष्व हि ।५९।

तच्छ्रुत्वा च वचः प्राह जीवयामि मनोभवम् ।
कायेनापि विहीनोयं पंचबाणो मनोभवः ।६०।

भविष्यति न संदेहो माधवस्य सखा पुनः ।
दिव्येनापि शरीरेण वर्तयिष्यति नान्यथा ।६१।

महादेवप्रसादाच्च मीनकेतुः स जीवितः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैवं देव्याः कामं नरोत्तम ।६२।

गच्छ काम प्रवर्तस्व प्रियया सह नित्यशः ।
एवमाह महातेजाः स्थितिसंहारकारकः ।६३।

पुनः कामः सरःप्राप्तो यत्रास्ते दुःखिता रतिः ।
इदं कामसरो राजन्रतिरत्र सुसंस्थिता ।६४।

दग्धे सति महाभागे मन्मथे दुःखधर्षिता ।
रत्याः कोपात्समुत्पन्नः पावको दारुणाकृतिः ।६५।

अतीवदग्धा तेनापि सा रतिर्मोहमूर्छिता ।
अश्रुपातं मुमोचाथ भर्तृहीना नरोत्तम ।६६।

नेत्राभ्यां हि जले तस्याः पतिता अश्रुबिंदवः।
तेभ्यो जातो महाशोकः सर्वसौख्यप्रणाशकः।६७।

जरा पश्चात्समुत्पन्ना अश्रुभ्यो नृपसत्तम ।
वियोगो नाम दुर्मेधास्तेभ्यो जज्ञे प्रणाशकः ।६८।

दुःखसंतापकौ चोभौ जज्ञाते दारुणौ तदा ।
मूर्छा नाम ततो जज्ञे दारुणा सुखनाशिनी ।६९।

शोकाज्जज्ञे महाराज कामज्वरोथ विभ्रमः ।
प्रलापो विह्वलश्चैव उन्मादो मृत्युरेव च ।७०।

तस्याश्च अश्रुबिंदुभ्यो जज्ञिरे विश्वनाशकाः ।
रत्याः पार्श्वे समुत्पन्नाः सर्वे तापांगधारिणः ।७१।

मूर्तिमंतो महाराज सद्भावगुणसंयुताः ।
काम एष समायातः केनाप्युक्तं तदा नृप ।७२।

महानंदेन संयुक्ता दृष्ट्वा कामं समागतम् ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पतिता अश्रुबिन्दवः ।७३।

अप्सु मध्ये महाराज चापल्याज्जज्ञिरे प्रजाः ।
प्रीतिर्नाम तदा जज्ञे ख्यातिर्लज्जा नरोत्तम ।७४।

तेभ्यो जज्ञे महानंद शांतिश्चान्या नृपोत्तम ।
जज्ञाते द्वे शुभे कन्ये सुखसंभोगदायिके ।७५।

लीलाक्रीडा मनोभाव संयोगस्तु महान्नृप ।
रत्यास्तु वामनेत्राद्वै आनंदादश्रुबिंदवः ।७६।

जलांते पतिता राजंस्तस्माज्जज्ञे सुपंकजम् ।
तस्मात्सुपंकजाज्जाता इयं नारी वरानना ।७७।

अश्रुबिंदुमती नाम रतिपुत्री नरोत्तम । तस्याः प्रीत्या सुखं कृत्वा नित्यं वर्त्ते समीपगा।७८।

सखीभावस्वभावेन संहृष्टा सर्वदा शुभा ।
विशाला नाम मे ख्यातं वरुणस्य सुता नृप ।७९।

अस्याश्चांते प्रवर्तामि स्नेहात्स्निग्धास्मि सर्वदा ।
एतत्ते सर्वमाख्यातमस्याश्चात्मन एव ते ।८०।

तपश्चचार राजेंद्र पतिकामा वरानना ।
                  -राजोवाच-
सर्वमेव त्वयाख्यातं मया ज्ञातं शुभे शृणु ।८१।

मामेवं हि भजत्वेषा रतिपुत्री वरानना ।
यमेषा वांछते बाला तत्सर्वं तु ददाम्यहम् ।८२।

तथा कुरुष्व कल्याणि यथा मे वश्यतां व्रजेत् ।
                  विशालोवाच-
अस्या व्रतं प्रवक्ष्यामि तदाकर्णय भूपते ।८३।

पुरुषं यौवनोपेतं सर्वज्ञं वीरलक्षणम् ।
देवराजसमं राजन्धर्माचारसमन्वितम् ।८४।

तेजस्विनं महाप्राज्ञं दातारं यज्विनां वरम् ।
गुणानां धर्मभावस्य ज्ञातारं पुण्यभाजनम् ।८५।

लोक इंद्रसमं राजन्सुयज्ञैर्धर्मतत्परम् ।
सर्वैश्वर्यसमोपेतं नारायणमिवापरम् ।८६।

देवानां सुप्रियं नित्यं ब्राह्मणानामतिप्रियम् ।
ब्रह्मण्यं वेदतत्त्वज्ञं त्रैलोक्ये ख्यातविक्रमम् ।८७।

एवंगुणैः समुपेतं त्रैलोक्येन प्रपूजितम् ।
सुमतिं सुप्रियं कांतं मनसा वरमीप्सति ।८८।

                  'ययातिरुवाच-
एवं गुणैः समुपेतं विद्धि मामिह चागतम् ।
अस्यानुरूपो भर्त्ताहं सृष्टो धात्रा न संशयः ।८९।

                   'विशालोवाच-
भवंतं पुण्यसंवृद्धं जाने राजञ्जगत्त्रये ।
पूर्वोक्ता ये गुणाः सर्वे मयोक्ताः संति ते त्वयि ।९०।

एकेनापि च दोषेण त्वामेषा हि न मन्यते ।
एष मे संशयो जातो भवान्विष्णुमयो नृप ।९१।
                    "ययातिरुवाच-
समाचक्ष्व महादोषं यमेषा नानुमन्यते ।
तत्त्वेन चारुसर्वांगी प्रसादसुमुखी भव ।९२।

                      विशालोवाच-
आत्मदोषं न जानासि कस्मात्त्वं जगतीपते ।
जरया व्याप्तकायस्त्वमनेनेयं न मन्यते ।९३।

एवं श्रुत्वा महद्वाक्यमप्रियं जगतीपतिः ।
दुःखेन महताविष्टस्तामुवाच पुनर्नृपः ।९४।

जरादोषो न मे भद्रे संसर्गात्कस्यचित्कदा ।
समुद्भूतं ममांगे वै तं न जाने जरागमम् ।९५।

यं यं हि वांछते चैषा त्रैलोक्ये दुर्लभं शुभे ।
तमस्यै दातुकामोहं व्रियतां वर उत्तमः ।९६।

                     विशालोवाच-
जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
एतद्विनिश्चितं राजन्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।९७।

श्रुतिरेवं वदेद्राजन्पुत्रे भ्रातरि भृत्यके ।
जरा संक्राम्यते यस्य तस्यांगे परिसंचरेत् ।९८।

तारुण्यं तस्य वै गृह्य तस्मै दत्वा जरां पुनः ।
उभयोः प्रीतिसंवादः सुरुच्या जायते शुभः।९९।

यथात्मदानपुण्यस्य कृपया यो ददाति च ।
फलं राजन्हि तत्तस्य जायते नात्र संशयः।१००।

दुःखेनोपार्जितं पुण्यमन्यस्मै हि प्रदीयते ।
सुपुण्यं तद्भवेत्तस्य पुण्यस्य फलमश्नुते।१०१।

पुत्राय दीयतां राजंस्तस्मात्तारुण्यमेव च ।
प्रगृह्यैव समागच्छ सुंदरत्वेन भूपते।१०२।


यदा त्वमिच्छसे भोक्तुं तदा त्वं कुरुभूपते ।
एवमाभाष्य सा भूपं विशाला विरराम ह ।१०३।

                 "सुकर्मोवाच-
एवमाकर्ण्य राजेंद्रो विशालामवदत्तदा ।
                     "राजोवाच-
एवमस्तु महाभागे करिष्ये वचनं तव ।१०४।

कामासक्तः समूढस्तु ययातिः पृथिवीपतिः ।
गृहं गत्वा समाहूय सुतान्वाक्यमुवाच ह ।१०५।

तुरुं पूरुं कुरुं राजा यदुं च पितृवत्सलम्।
कुरुध्वं पुत्रकाः सौख्यं यूयं हि मम शासनात् ।१०६।

                   "पुत्रा ऊचुः-
पितृवाक्यं प्रकर्तव्यं पुत्रैश्चापि शुभाशुभम् ।
उच्यतां तात तच्छीघ्रं कृतं विद्धि न संशयः।१०७।

एवमाकर्ण्यतद्वाक्यं पुत्राणां पृथिवीपतिः ।
आचचक्षे पुनस्तेषु हर्षेणाकुलमानसः।१०८।

अध्याय 77 - ययाति जुनून को जन्म देता है

सुकर्मन ने कहा :

1-5. हे पिप्पल , कामदेव के संगीत के आकर्षण, उनकी मनमोहक मुस्कान और एक अभिनेता के रूप में उनके रूप से राजाओं के राजा ययाति मोहित हो गए थे । नहुष का पुत्र राजा ययाति, मल मूत्र त्याग कर  , पैर धोए बिना ही अपने आसन पर बैठ गया। उस अवसर लाभ उठाकर  जरा (अर्थात बुढ़ापा) राजा के पास चला गया। हे श्रेष्ठ राजा,  तभी कामदेव ने भी इंद्र के लिए लाभकारी कार्य पूरा कर दिया।

जब नाटक समाप्त हो गया और वे चले गए, तो धार्मिक विचारों वाला राजा बुढ़ापे से ग्रस्त हो गया, उसका मन वासना में आसक्त हो गया, कामदेव द्वारा उत्पन्न भ्रम से मोहित हो गया, व्याकुल हो गया, उसके अंग कमजोर हो गए; वह धर्मात्मा (राजा) अत्यंत मूर्च्छित होगया था और इन्द्रिय विषयों से दूर हो गया था।

6-11. एक बार एक राजा शिकार की इच्छा से (अर्थात् शिकार करने को उत्सुक) जंगल में गया। वह मोह के वशीभूत होकर वन में क्रीड़ा करने लगा। जब वह प्रतापी राजा रुचिपूर्वक खेल रहा था, तभी चार सींगों वाला एक अतुलनीय हिरण (वहां) आया। हे राजन, उसका पूरा शरीर सुंदर था, उसके बाल सुनहरे रंग के थे, उसका शरीर मणि के समान चमक से युक्त था; यह सुंदर और आकर्षक था. धनुर्धर (अर्थात राजा) हाथ में तीर लेकर तेजी से (उसकी ओर) दौड़ा।

 बुद्धिमान (राजा) ने सोचा कि (वहाँ) कोई राक्षस आया है। हिरण ने भी राजा को खींच लिया। वह रथ की गति से (उसके पीछे) चला, और थकावट से पीड़ित हो गया। जब वह देख रहा था, हिरण गायब हो गया।

11-20. वहाँ उन्होंने इन्द्र की वाटिका के समान एक अद्भुत वन देखा; यह सुंदर पेड़ों से भरा हुआ था, और पांच तत्वों के साथ शानदार लग रहा था, बड़े पवित्र चंदन के पेड़ और केले के पेड़ों के आकर्षक समूहों के साथ, (जैसे) बकुला , अशोक , पुन्नागा , नालिकेरा (यानी कोको-अखरोट के पेड़) के साथ। तिंदुका , पुगीफला (सुपारी के पेड़), खजूर के पेड़, कमल और सप्तपर्ण के पेड़, खिले हुए कर्णिकारा (पेड़), और विभिन्न पेड़ जिन पर हमेशा फल लगते हैं, इसी तरह केतका और पाटल के साथ भी । (इन्हें) देखते समय महान राजा को एक उत्तम झील दिखाई दी। वह पवित्र जल से भरा हुआ था; वह पाँच योजन तक व्यापक (फैला हुआ) था ; उसमें हंसों और बत्तखों की भीड़ थी; वह जलीय पक्षियों से गूँज रहा था; वह कमलों से भी रमणीय था; वह लाल कमलों से आकर्षक लग रही थी, और सुनहरे कमलों से सुशोभित थी; श्वेत कमलों के कारण वह अत्यंत मनमोहक लग रहा था; यह हर जगह नशे में धुत मधुमक्खियों से भी गूंज रहा था। इस प्रकार उन्होंने झील को सभी उत्कृष्टताओं से संपन्न देखा। यह पाँच योजन चौड़ा और दस योजन लम्बा था। झील सब तरफ से शुभ थी; और दिव्य वस्तुओं से सुशोभित था। रथ की गति से थककर और थकान से परेशान होकर वह उसके किनारे एक आम के पेड़ की छाया में बैठ गया।

21-26. उसमें स्नान करके, अमृत के समान कमल की सुगंध से सुगन्धित उसके शीतल जल को पीकर (अर्थात् पिया) और सारी थकावट दूर कर देता है। पेड़ की छाया में बैठे राजा को किसी तरह (किसी के द्वारा) गाए जा रहे गीत की आवाज सुनाई दी। यह ध्वनि उस गीत के रूप में सुनी गई (यह ध्वनि होगी) जिसे एक दिव्य महिला गाएगी। संगीत प्रेमी वह महान राजा अत्यंत विचारशील हो गया। जब वह कुलीन इस प्रकार चिंतित हुआ और एक क्षण के लिए सोचने लगा, तभी जंगल में एक स्त्री, जिसके नितम्ब और स्तन थे, आ पहुँची, जिसे राजा देख रहे थे। वह, जिसका शरीर सभी आभूषणों से सुंदर लग रहा था, और अच्छे चरित्र और (शुभ) चिह्नों से युक्त थी, जंगल में आई और राजा के सामने खड़ी हुई।

26-32. राजा ने उससे कहा: “तुम कौन हो? आप किसके हैं? तुम यहाँ क्यों आये हो? मुझे इसका कारण बताओ।” हे पिप्पला, उस उत्कृष्ट मुख वाली स्त्री ने उस समय राजा द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर न तो अच्छा उत्तर दिया और न ही बुरा। वह स्त्री, जिसकी गर्दन हाथ में थी, हँसी और तेजी से चली गई। तब राजा बड़े आश्चर्य से भर गये, 'जब मैंने उससे बात की तो वह उत्तर नहीं दे रही है।' फिर उस राजा ययाति ने सोचा: '(ये) चार सींग जो मैंने देखे थे। मुझे लगता है कि यही सच है. यह वास्तव में राक्षसों का एक कपटपूर्ण रूप होना चाहिए (अर्थात् द्वारा अपनाया गया)।' हे ब्राह्मण , नहुष के पुत्र राजा ययाति ने एक क्षण के लिए (इस प्रकार) सोचा।

32-38. जब राजा ऐसा सोच रहा था; महिला राजकुमार पर हंसते हुए जंगल में गायब हो गई। इस बीच, उन्होंने फिर से गाना सुना, जो मधुर था, बहुत दिव्य था और संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के स्वर और नियमित उतार-चढ़ाव के साथ था। राजा उस स्थान पर गया (जहाँ से) गीत की महान ध्वनि आ रही थी। जल में एक हज़ार पंखुड़ियों वाला एक उत्कृष्ट कमल था। उस पर एक उत्कृष्ट महिला थी, जो (अच्छे) चरित्र, सुंदरता और गुणों से संपन्न थी। वह दिव्य चिन्हों से युक्त थी; वह दिव्य आभूषणों से सुसज्जित थी; वह दिव्य वस्तुओं से चमकती थी; उसका हाथ लुटेरे की गर्दन पकड़ने में लगा हुआ था। वह ताल और समय मापने तथा विराम के साथ एक मधुर गीत गा रही थी। उस गाने की शक्ति से उसने जंगम और स्थावर, देवताओं, ऋषियों के समूहों, सभी राक्षसों, गंधर्वों और किन्नरों को भी मोहित कर लिया ।

38-42. उस (स्त्री को) चौड़ी आंखों वाली, सौंदर्य और तेज से युक्त देखकर (उसने सोचा) कि इस चराचर और स्थावर संसार में उसके समान दूसरी कोई स्त्री नहीं है। पूर्वकाल में अभिनेता महान कामदेव राजा के शरीर में प्रविष्ट हो गये थे; उन्होंने उस समय स्वयं को प्रकट किया। जैसे आग, घी के संपर्क में आने से प्रकाश की किरणें निकालती है (यानी उज्ज्वल होती है), उसी तरह कामदेव (यानी जुनून) उसे देखने के बाद (यानी राजा के बाद) खुद को प्रकट करते हैं। उस मनमोहक नेत्रों वाली स्त्री को देखकर उसके मन पर कामदेव (अर्थात जुनून) हावी हो गया। (उसने सोचा:) 'मैंने (पहले) ऐसी युवा महिला को दुनिया को लुभाते हुए कभी नहीं देखा।'

42-43. एक पल के लिए सोचने पर राजा का मन कामवासना में बंध गया। उसके वियोग में राजा कामाग्नि से जलकर तथा काम-ज्वर से पीड़ित होकर उसकी लालसा करने लगा।

44-46. (उसने सोचा:) 'वह मेरी कैसे होगी? उसे (मुझसे) प्रेम कैसे होगा? मेरा जीवन तभी सफल होगा जब कमल के समान मुख वाली तथा कमल के समान नेत्रों वाली यह युवती मुझे गले लगाएगी अथवा मुझे प्राप्त होगी।' इस प्रकार विचार करके उस धर्मात्मा राजा ययाति ने उस सुन्दरी से कहा- हे शुभा आप कौन हैं? आप किसके हैं?” वह महिला जो पहले देखी गई थी वह फिर से (मुझे) दिखाई दी है।

47-52. धर्मी ने उससे पूछा: “तुम्हारे पास कौन है? हे शुभ, मुझे सब कुछ बताओ। मैं नहुष का पुत्र हूं। हे दयालु, मैं चंद्र वंश में पैदा हुआ हूं और सात द्वीपों का स्वामी हूं। हे आदरणीय महिला, मेरा नाम ययाति है; मैं तीनों लोकों में विख्यात हूँ। इस प्रकार मेरा हृदय आपके साथ मिलन की अभिलाषा रखता है। हे अच्छी महिला, मेरे साथ एकजुट हो जाओ, वह करो जो (मुझे) बहुत प्रिय है। हे अच्छी महिला, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा जो तुम चाहोगी। हे उत्कृष्ट रंगरूप वाले आप, मैं अजेय जुनून से अभिभूत हूं। अत: मुझ अत्यंत असहाय और आपकी शरण में आये हुए लोगों की रक्षा कीजिये। तुम्हारे साथ मिलन के लिए (अर्थात बदले में) मैं अपना राज्य, पूरी पृथ्वी या यहां तक ​​कि अपना शरीर भी दे दूंगा। ये तीनों लोक आपके हैं।”

52-55 राजा के वचन सुनकर कमल के समान मुख वाली उस स्त्री ने अपनी सखी विशाला से कहा- जो राजा यहाँ आये हैं, उन्हें मेरा नाम, मेरा जन्म स्थान, मेरा नाम बताओ। मेरे पिता और माता, हे अच्छी स्त्री! उसे (उसके लिए) मेरे प्यार के बारे में भी बताओ।” उसकी इच्छा को समझकर विशाला ने मीठे शब्दों में राजा से कहा, "हे राजकुमार, सुनो।"

विशाला ने कहा :

55-7. इस कामदेव को पहले देवताओं के देवता शम्भु (अर्थात शिव ) ने जला दिया था। वह रति अपने पति से वंचित होकर दुःख के कारण मधुर स्वर में रोने लगी। हे राजाश्रेष्ठ, उस समय वह रति इसी सरोवर में रहती थी। हे राजाओं के राजा, देवताओं ने उसके इस प्रकार दुःख से युक्त मधुर विलाप को सुनकर (उस पर) बड़ी दया की। उन्होंने शंकर से (ये) शब्द कहे : “हे महान देवता, मन में जन्मे (कामदेव) को फिर से जीवित करो। हे महिमामयी, वह किस स्वभाव की होगी (अर्थात उसकी क्या दुर्दशा होगी) जो अपने पति से वंचित होकर असहाय हो गयी है? हमारे प्रति आपके स्नेह के कारण (अर्थात चूँकि आप हमसे प्रेम करते हैं, कृपया) उसे कामदेव से मिला दें।” उन शब्दों को सुनकर (शिव) ने कहा: "मैं कामदेव को पुनर्जीवित करूंगा।" पांच बाणों से युक्त यह मन-जन्मा (अर्थात कामदेव), शरीर न होते हुए भी, फिर से वसंत का मित्र होगा। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। वह दिव्य शरीर के साथ रहेगा; (और) अन्यथा नहीं (अर्थात् किसी अन्य निकाय के साथ नहीं)।” वह मछली-बैनर वाला देवता (अर्थात कामदेव), महान देवता (अर्थात शिव) की कृपा से जीवित हो गया। हे श्रेष्ठ पुरुष, इस प्रकार आदरणीय महिला (अर्थात रति) की इच्छा को आशीर्वाद के साथ मंजूरी दे दी (शिव ने कहा:) "हे कामदेव, जाओ और हमेशा अपने प्रिय के साथ रहो।" इस प्रकार महान तेज वाले (संसार के) पालन और विनाश के कारण भगवान ने (कामदेव से) कहा। कामदेव फिर से उस झील पर आए जहां दुखी रति रह गई थी। हे राजा, यह (उस झील को कामसरस कहा जाता है) (अर्थात कामदेव से संबंधित) जहां रति अच्छी तरह से बसी हुई है। जब महान कामदेव को (शिव द्वारा) जला दिया गया तो वह दुःख से उबर गई। रति के क्रोध से भयानक रूप वाली अग्नि उत्पन्न हुई। उसने रति को भी बहुत झुलसा दिया और बेहोश हो गई। हे नरश्रेष्ठ, वह अपने पति से वंचित होकर आँसू बहा रही थी। उसकी आँखों से आँसू पानी में गिर गये। उनसे महान् दुःख उत्पन्न हुआ जिसने समस्त सुखों को नष्ट कर दिया। हे श्रेष्ठ राजा, उसके बाद जरा (अर्थात बुढ़ापा) आंसुओं से अस्तित्व में आया। उनमें से मंदबुद्धि विनाशक अर्थात्। अलगाव उभर आया. भयानक दुःख और यातना दोनों भी तब सामने आये। उनसे भयानक और सुख को नष्ट करने वाला भ्रम उत्पन्न हुआ। हे महान राजा, दुःख से जुनून और त्रुटि का बुखार उत्पन्न हुआ। व्यथित विलाप, पागलपन और मृत्यु, सब कुछ नष्ट कर देने वाली, उसके आँसुओं से उत्पन्न हुई।

71-79. हे महान राजा, रति की ओर से सभी पीड़ा के शरीर को धारण करते हैं और, सभी अच्छी भावनाओं के गुणों से युक्त होकर, अवतार लेते हैं। हे राजा, तभी किसी ने कहा: "यह कामदेव (वह) आया है।" (वहां) आये हुए कामदेव को देखकर वह (अर्थात रति) अत्यंत आनंद से भर गयी। उसकी आँखों से आँसू गिर पड़े। हे महान राजा, जल में प्राणियों की उत्पत्ति शीघ्र हो गयी। हे श्रेष्ठ पुरुष, उस समय लव नाम की (एक महिला) उत्पन्न हुई, उसी प्रकार रेनॉउन और शेम भी। हे श्रेष्ठ राजा, उनमें से (अर्थात आंसुओं से) महान आनंद उत्पन्न हुआ और दूसरा, अर्थात्। शांति। सुख और भोग देने वाली दो मंगलमय कन्याएँ उत्पन्न हुईं। हे राजन, मनोरंजन, खेल और मन की भक्ति का अद्भुत संयोजन था। हे राजन, खुशी के मारे रति की बायीं आंख से आंसू छलक पड़े। उनसे एक उत्तम कमल उत्पन्न हुआ। हे पुरुषश्रेष्ठ, उस अच्छे कमल से रति की पुत्री, अश्रुबिन्दुमती नाम की यह सुंदर स्त्री उत्पन्न हुई। उसके प्रति प्रेम के कारण, मैं उसका मित्र होने के कारण, सदैव प्रसन्न और सदाचारी होकर, उसके निकट रहता हूँ और उसे सुख देता हूँ। मेरा नाम विशाला के नाम से जाना जाता है (अर्थात मुझे इस नाम से जाना जाता है)। हे राजन, मैं वरुण की पुत्री हूं।


80-81  मैं उसके प्रति सदैव स्नेहशील रहकर उसके प्रेम के द्वारा उसके निकट रहता हूँ। इस प्रकार मैंने तुम्हें उसका (वृत्तान्त) सब बता दिया है और अपना भी। हे राजाओं के स्वामी, इस सुंदरी ने पति की इच्छा से तपस्या की।

राजा ने कहा :

81 -83। हे मंगलमयी, तूने जो कुछ मुझसे कहा है, वह सब मैं समझ गया हूँ; सुनो, रति की इस सुन्दर पुत्री को मुझे चुनने दो। मैं इस युवती को वह सब कुछ दूँगा जो वह चाहती है। हे शुभ स्त्री, ऐसा करो जिससे वह मेरे वश में हो जाये।

विशाला ने कहा :

83-88. मैं तुम्हें उसका संकल्प बताऊंगा. इसे सुनो, हे राजा! वह अपने दूल्हे के रूप में एक ऐसे पुरुष की इच्छा रखती है, जो यौवन से संपन्न हो; जो सर्वज्ञ है; जिसमें वीर पुरुष के लक्षण हों; जो देवताओं के स्वामी के समान है; जो धर्मात्मा आचरण रखता हो; जो प्रतिभाशाली है; अत्यंत तेजस्वी, दानी तथा यज्ञों में श्रेष्ठ; जो सद्गुणों और धर्म के प्रति समर्पण को जानता है (अर्थात् सराहना करता है); जो धर्म और अच्छे आचरण से युक्त है; जो संसार में इन्द्र के समान है; जो महान बलिदानों के माध्यम से धार्मिक प्रथाओं का इरादा रखता है; जो समस्त वैभव से संपन्न है; जो मानो दूसरा विष्णु है ; जो सदैव देवताओं को अत्यंत प्रिय है और ब्राह्मणों को अत्यंत प्रिय है ; जो ब्राह्मणों का मित्र है; जो वेदों के सत्य को जानता है ; जिनकी वीरता तीनों लोकों में विख्यात है। वह ऐसा ही वर चाहती है

ययाति ने कहा :

89. जो लोग यहाँ आये हैं, मुझे इन गुणों से सम्पन्न जानो। इसमें कोई संदेह नहीं कि विधाता ने (मुझमें) उसके योग्य पति उत्पन्न किया है।

विशाला ने कहा :

90. हे राजा, मैं जानता हूं कि आप तीनों लोकों में धार्मिक गुणों से समृद्ध हैं। जो गुण मैंने पहले बताये हैं वे आपमें विद्यमान हैं।

91. केवल एक दोष के कारण वह आपके बारे में अच्छा नहीं सोचती। यह शंका मेरे मन में उत्पन्न हो गई है। (अन्यथा) हे राजा, आप विष्णु से परिपूर्ण हैं।

ययाति ने कहा :

92. मुझे वह महान दोष बताओ, जो सभी अंगों में सुंदर है, वास्तव में इसका प्रतिकार नहीं करता। मेरा पक्ष लेने के लिए अच्छी तरह तैयार रहें।

विशाला ने कहा :

93. हे जगत के स्वामी, तू अपना दोष क्यों नहीं जानता? तुम्हारा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है। इस (दोष) के कारण वह तुम्हें पुरस्कार नहीं देती।

94. इन महान् (महत्वपूर्ण) और अप्रिय वचनों को सुनकर जगत् के स्वामी राजा ने बड़े दुःख से आतुर होकर फिर कहा:

95. “हे शुभ नारी, मेरे शरीर पर बुढ़ापे का यह दोष किसी के संसर्ग का कारण नहीं है। मैं नहीं जानता कि मेरे शरीर में यह बुढ़ापा (कैसे) आ गया है।

96. हे मंगलमयी, वह संसार में जो भी कठिन वस्तु प्राप्त करना चाहती है, मैं उसे देने को तैयार हूं। सर्वोत्तम वरदान चुनें।”

विशाला ने कहा :

97-100. जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तब वह तुम्हारी परम प्रिय (पत्नी) होगी। यह निश्चित है, हे राजा; मैं (आपको) सच (और) सच (केवल) बता रहा हूं। जो अपने बेटे, (या) भाई, (या) नौकर से अपनी जवानी छीनकर उसे अपना बुढ़ापा दे देता है, उसके शरीर पर जवानी हावी हो जाती है। अच्छे स्वाद के कारण दोनों के बीच एक सुखद समझौता हो जाता है। हे राजा, उसे उस व्यक्ति के पुण्य के समान ही फल मिलता है जो दया करके स्वयं को अर्पित करता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

101-103. जब कठिनाई से प्राप्त पुण्य किसी और को दिया जाता है तो उसके पास महान धार्मिक योग्यता होगी। पुण्य का फल (इस प्रकार) प्राप्त होता है। अत: हे राजा, अपने पुत्र को (अपनी वृद्धावस्था) दे दो और उससे (यौवन) प्राप्त करके रूप रूप धारण करके (अर्थात प्राप्त करके) लौट आओ। हे राजन, जब तुम्हें (उसका) आनंद लेने की इच्छा हो तो ऐसा करो।

इस प्रकार, राजा से बात करते हुए, विशाला ने बोलना बंद कर दिया।

सुकर्मन ने कहा :

104. फिर श्रेष्ठ राजा के समान सुनकर विशाला से बोले।

राजा ने कहा :

104-106. हे महानुभाव, ऐसा ही हो; मैं आपकी बात मानूंगा (अर्थात जैसा आपने मुझसे कहा है वैसा ही करूंगा)।

पृथ्वी के उस मूर्ख स्वामी, ययाति ने, जोश से वशीभूत होकर, घर जाकर, अपने पुत्रों तुरु, पुरु , कुरु और यदु को बुलाकर , पिता से प्रेम करते हुए, उनसे (ये) शब्द कहे: "मेरे आदेश पर, हे बेटों, (मेरे लिए) खुशियाँ लाओ।”

बेटों ने कहा :

107-108. पिता के शब्द (अर्थात आदेश) - चाहे अच्छे हों या बुरे - पुत्रों को निष्पादित करने पड़ते हैं। हे पिता, शीघ्र बोलो, और जान लो कि इसका (अर्थात आदेश का) पालन किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं है।

पुत्रों की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी हर्ष से अभिभूत होकर फिर उनसे बोले।

पद्मपुराण /खण्डः २ (भूमिखण्डः)अध्यायः (७८)


पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः 78)

                "ययातिरुवाच-
एकेन गृह्यतां पुत्रा जरा मे दुःखदायिनी ।
धीरेण भवतां मध्ये तारुण्यं मम दीयताम् ।१।

स्वकीयं हि महाभागाः स्वरूपमिदमुत्तमम् ।
संतप्तं मानसं मेद्य स्त्रियां सक्तं सुचंचलम् ।२।

भाजनस्था यथा आप आवर्त्तयति पावकः ।
तथा मे मानसं पुत्राः कामानलसुचालितम् ।३।

एको गृह्णातु मे पुत्रा जरां दुःखप्रदायिनीम् ।
स्वकं ददातु तारुण्यं यथाकामं चराम्यहम् ।४।

यो मे जरापसरणं करिष्यति सुतोत्तमः ।
स च मे भोक्ष्यते राज्यं धनुर्वंशं धरिष्यति ।५।

तस्य सौख्यं सुसंपत्तिर्धनं धान्यं भविष्यति ।
विपुला संततिस्तस्य यशः कीर्तिर्भविष्यति ।६।

पुत्रा ऊचुः-
भवान्धर्मपरो राजन्प्रजाः सत्येन पालकः ।
कस्मात्ते हीदृशो भावो जातः प्रकृतिचापलः ।७।

राजोवाच-
आगता नर्तकाः पूर्वं पुरं मे हि प्रनर्तकाः ।
तेभ्यो मे कामसंमोहे जातो मोहश्च ईदृशः ।८।

जरया व्यापितः कायो मन्मथाविष्टमानसः ।
संबभूव सुतश्रेष्ठाः कामेनाकुलव्याकुलः ।९।

काचिद्दृष्टा मया नारी दिव्यरूपा वरानना ।
मया संभाषिता पुत्राः किंचिन्नोवाच मे सती ।१०।

विशालानाम तस्याश्च सखी चारुविचक्षणा ।
सा मामाह शुभं वाक्यं मम सौख्यप्रदायकम् ।११।

जराहीनो यदा स्यास्त्वं तदा ते सुप्रिया भवेत् ।
एवमंगीकृतं वाक्यं तयोक्तं गृहमागतः ।१२।

मया जरापनोदार्थं तदेवं समुदाहृतम् ।
एवं ज्ञात्वा प्रकर्तव्यं मत्सुखं हि सुपुत्रकाः ।१३।

तुरुरुवाच-
शरीरं प्राप्यते पुत्रैः पितुर्मातुः प्रसादतः ।
धर्मश्च क्रियते राजञ्शरीरेण विपश्चिता ।१४।

पित्रोः शुश्रूषणं कार्यं पुत्रैश्चापि विशेषतः ।
न च यौवनदानस्य कालोऽयं मे नराधिप ।१५।

प्रथमे वयसि भोक्तव्यं विषयं मानवैर्नृप ।
इदानीं तन्न कालोयं वर्तते तव सांप्रतम् ।१६।

जरां तात प्रदत्वा वै पुत्रे तात महद्गताम् ।
पश्चात्सुखं प्रभोक्तव्यं न तु स्यात्तव जीवितम् ।१७।

तस्माद्वाक्यं महाराज करिष्ये नैव ते पुनः ।
एवमाभाषत नृपं तुरुर्ज्येष्ठसुतस्तदा ।१८।

तुरोर्वाक्यं तु तच्छ्रुत्वा क्रुद्धो राजा बभूव सः ।
तुरुं शशाप धर्मात्मा क्रोधेनारुणलोचनः ।१९।

अपध्वस्तस्त्वयाऽदेशो ममायं पापचेतन ।
तस्मात्पापी भव स्वत्वं सर्वधर्मबहिष्कृतः ।२०।

शिखया त्वं विहीनश्च वेदशास्त्रविवर्जितः ।
सर्वाचारविहीनस्त्वं भविष्यसि न संशयः ।२१।

ब्रह्मघ्नस्त्वं देवदुष्टः सुरापः सत्यवर्जितः ।
चंडकर्मप्रकर्ता त्वं भविष्यसि नराधमः ।२२।

सुरालीनः क्षुधी पापी गोघ्नश्च त्वं भविष्यसि ।
दुश्चर्मा मुक्तकच्छश्च ब्रह्मद्वेष्टा निराकृतिः ।२३।

परदाराभिगामी त्वं महाचंडः प्रलंपटः ।
सर्वभक्षश्च दुर्मेधाः सदात्वं च भविष्यसि ।२४।

सगोत्रां रमसे नारीं सर्वधर्मप्रणाशकः ।
पुण्यज्ञानविहीनात्मा कुष्ठवांश्च भविष्यसि ।२५।

तव पुत्राश्च पौत्राश्च भविष्यंति न संशयः ।
ईदृशाः सर्वपुण्यघ्ना म्लेच्छाः सुकलुषीकृताः ।२६।

एवं तुरुं सुशप्त्वैव यदुं पुत्रमथाब्रवीत् ।
जरां वै धारयस्वेह भुंक्ष्व राज्यमकंटकम् ।२७।

बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा यदू राजानमब्रवीत् ।
यदुरुवाच-
जराभारं न शक्नोमि वोढुं तात कृपां कुरु ।२८।

शीतमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः ।
मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पंचहेतवः ।२९।

जरादुःखं न शक्नोमि नवे वयसि भूपते ।
कः समर्थो हि वै धर्तुं क्षमस्व त्वं ममाधुना ।३०।

यदुं क्रुद्धो महाराजः शशाप द्विजनंदन ।
राज्यार्हो न च ते वंशः कदाचिद्वै भविष्यति ।३१।

बलतेजः क्षमाहीनः क्षात्रधर्मविवर्जितः ।
भविष्यति न संदेहो मच्छासनपराङ्मुखः ।३२।

यदुरुवाच-
निर्दोषोहं महाराज कस्माच्छप्तस्त्वयाधुना ।
कृपां कुरुष्व दीनस्य प्रसादसुमुखो भव ।३३।

राजोवाच-
महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक ।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव ।३४।

यदुरुवाच-
अहं पुत्रो महाराज निर्दोषः शापितस्त्वया ।
अनुग्रहो दीयतां मे यदि मे वर्त्तते दया ।३५।

राजोवाच-
यो भवेज्ज्येष्ठपुत्रस्तु पितुर्दुःखापहारकः ।
राज्यदायं सुभुंक्ते च भारवोढा भवेत्स हि ।३६।

त्वया धर्मं न प्रवृत्तमभाष्योसि न संशयः ।
भवता नाशिताज्ञा मे महादंडेन घातिनः ।३७।

तस्मादनुग्रहो नास्ति यथेष्टं च तथा कुरु ।
यदुरुवाच-
यस्मान्मे नाशितं राज्यं कुलं रूपं त्वया नृप ।३८।

तस्माद्दुष्टो भविष्यामि तव वंशपतिर्नृप ।
तव वंशे भविष्यंति नानाभेदास्तु क्षत्त्रियाः ।३९।

तेषां ग्रामान्सुदेशांश्च स्त्रियो रत्नानि यानि वै ।
भोक्ष्यंति च न संदेहो अतिचंडा महाबलाः ।४०।

मम वंशात्समुत्पन्नास्तुरुष्का म्लेच्छरूपिणः ।
त्वया ये नाशिताः सर्वे शप्ताः शापैः सुदारुणैः ।४१।

एवं बभाषे राजानं यदुः क्रुद्धो नृपोत्तम ।
अथ क्रुद्धो महाराजः पुनश्चैवं शशाप ह ।४२।

मत्प्रजानाशकाः सर्वे वंशजास्ते शृणुष्व हि ।
यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च पृथ्वी नक्षत्रतारकाः ।४३।

तावन्म्लेच्छाः प्रपक्ष्यंते कुंभीपाके चरौ रवे ।
कुरुं दृष्ट्वा ततो बालं क्रीडमानं सुलक्षणम् ।४४।

समाह्वयति तं राजा न सुतं नृपनंदनम् ।
शिशुं ज्ञात्वा परित्यक्तः सकुरुस्तेन वै तदा ।४५।

शर्मिष्ठायाः सुतं पुण्यं तं पूरुं जगदीश्वरः ।
समाहूय बभाषे च जरा मे गृह्यतां पुनः ।४६।

भुंक्ष्व राज्यं मया दत्तं सुपुण्यं हतकंटकम् ।
पूरुरुवाच-
राज्यं देवे न भोक्तव्यं पित्रा भुक्तं यथा तव ।४७।

त्वदादेशं करिष्यामि जरा मे दीयतां नृप ।
तारुण्येन ममाद्यैव भूत्वा सुंदररूपदृक् ।४८।

भुंक्ष्व भोगान्सुकर्माणि विषयासक्तचेतसा ।
यावदिच्छा महाभाग विहरस्व तया सह ।४९।

यावज्जीवाम्यहं तात जरां तावद्धराम्यहम् ।
एवमुक्तस्तु तेनापि पूरुणा जगतीपतिः ।५०।

हर्षेण महताविष्टस्तं पुत्रं प्रत्युवाच सः ।
यस्माद्वत्स ममाज्ञा वै न हता कृतवानिह ।५१।

तस्मादहं विधास्यामि बहुसौख्यप्रदायकम् ।
यस्माज्जरागृहीता मे दत्तं तारुण्यकं स्वकम् ।५२।

तेन राज्यं प्रभुंक्ष्व त्वं मया दत्तं महामते ।
एवमुक्तः सुपूरुश्च तेन राज्ञा महीपते ।५३।

तारुण्यंदत्तवानस्मै जग्राहास्माज्जरां नृप ।
ततः कृते विनिमये वयसोस्तातपुत्रयोः ।५४।

तस्माद्वृद्धतरः पूरुः सर्वांगेषु व्यदृश्यत ।
नूतनत्वं गतो राजा यथा षोडशवार्षिकः ।५५।

रूपेण महताविष्टो द्वितीय इव मन्मथः ।
धनूराज्यं च छत्रं च व्यजनं चासनं गजम् ।५६।

कोशं देशं बलं सर्वं चामरं स्यंदनं तथा ।
ददौ तस्य महाराजः पूरोश्चैव महात्मनः ।५७।

कामासक्तश्च धर्मात्मा तां नारीमनुचिंतयन् ।
तत्सरः सागरप्रख्यंकामाख्यं नहुषात्मजः ।५८।

अश्रुबिंदुमती यत्र जगाम लघुविक्रमः ।
तां दृष्ट्वा तु विशालाक्षीं चारुपीनपयोधराम् ।५९।

विशालां च महाराजः कंदर्पाकृष्टमानसः ।
राजोवाच-
आगतोऽस्मि महाभागे विशाले चारुलोचने ।६०।

जरात्यागःकृतो भद्रे तारुण्येन समन्वितः ।
युवा भूत्वा समायातो भवत्वेषा ममाधुना ।६१।

यंयं हि वांछते चैषा तंतं दद्मि न संशयः ।
विशालोवाच-
यदा भवान्समायातो जरां दुष्टां विहाय च ।६२।

दोषेणैकेनलिप्तोसि भवंतं नैव मन्यते ।
राजोवाच-
मम दोषं वदस्व त्वं यदि जानासि निश्चितम् ।६३।

तं तु दोषं परित्यक्ष्येगुणरूपंनसंशयः ।६४।

अध्याय 78 - पुरु ने अपनी जवानी ययाति को दे दी

ययाति ने कहा :

1-4. हे मेरे श्रेष्ठ पुत्रों, तुममें से जो बुद्धिमान है, उसे मेरे इस बुढ़ापे को, जो मुझे कष्ट दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपना यौवन तथा उत्तम रूप मुझे दे देना चाहिए; (ताकि) मैं जैसा चाहूँ वैसा व्यवहार करूँ। आज मेरा अत्यंत चंचल मन क्रोधित हो गया है और एक स्त्री में आसक्त हो गया है। जैसे घड़े में भरे हुए पानी के चारों ओर अग्नि घूमती रहती है, उसी प्रकार हे मेरे पुत्रों, काम की अग्नि से मेरा मन अत्यंत कंपित हो रहा है। हे (मेरे) पुत्रों, तुम में से एक को मेरा यह बुढ़ापा जो मुझे दुःख दे रहा है, ले लेना चाहिए और अपनी जवानी (मुझे) दे देनी चाहिए; (ताकि) मैं अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करूँ।

5-6. वह श्रेष्ठ पुत्र, जो अपनी युवावस्था मुझे सौंप देगा, वह मेरे राज्य का आनंद उठाएगा और मेरा धनुष उठाएगा (और मेरी वंशावली को आगे बढ़ाएगा)। उसके पास सुख, प्रचुर धन, ऐश्वर्य और धान्य होगा। उसके बहुत से बच्चे होंगे, उसे यश और कीर्ति प्राप्त होगी।

बेटों ने कहा :

7. हे राजन, आप धर्म परायण राजा हैं। आप सच्चाई से अपनी प्रजा की रक्षा कर रहे हैं। आपके मन में यह स्वाभाविक रूप से चंचल विचार किस कारण उत्पन्न हुआ है?

राजा ने कहा :

8-10. पूर्व नर्तक, श्रेष्ठ नर्तक, मेरे शहर में आये। उन्हीं के कारण मुझमें ऐसी भ्रांति उत्पन्न हुई है, जब कामदेव ने मुझे मोहित कर लिया था। मेरा शरीर बुढ़ापे से ढका हुआ है; और मेरा मन कामदेव (अर्थात् जोश) से वश में हो गया। हे श्रेष्ठ पुत्रों, मैं क्रोधित था और जोश से वश में था। मैंने एक दिव्य रूप वाली सुन्दर कन्या को देखा। हे पुत्रों, मैं ने उस से बातें कीं; लेकिन अच्छे ने कुछ नहीं कहा.

11-13. उसकी आकर्षक और चतुर दोस्त का नाम विशाला है। उसने मुझसे अच्छे शब्द कहे, जिससे मुझे खुशी हुई: "जब तुम बुढ़ापे से मुक्त हो जाओगे, तो सबसे प्रिय तुम्हारा होगा।" मैंने उसके कहे हुए इन शब्दों को मान लिया (अर्थात् मान लिया) और (फिर) घर आ गया। मैंने अपने बुढ़ापे को दूर करने के लिये तुमसे ऐसा कहा है (उसने मुझसे कहा था)। हे भले पुत्रों, ऐसा समझकर तुम्हें वही करना चाहिए (जिससे मुझे प्रसन्नता हो)।

14-18. पिता और माता की कृपा से पुत्रों को शरीर मिलता है। हे राजन, शरीर की सहायता से बुद्धिमान व्यक्ति धार्मिक कार्य करता है। पुत्र को अपने पिता की विशेष सेवा करनी चाहिए। फिर भी, हे राजा, यह मेरे लिए अपनी जवानी तुम्हें देने का समय नहीं है। हे राजन, पुरुषों को युवावस्था में इंद्रियों का सुख भोगना चाहिए। अभी तुम्हारे लिए (इन सुखों को भोगने का) उचित समय नहीं है। (आप कहते हैं) हे पिता, आप उस सुख का आनंद तब उठाएंगे जब आप अपना परिपक्व बुढ़ापा अपने पुत्रों को दे देंगे; लेकिन (तब) आपके पास (इतना) जीवन नहीं होगा (यानी आप इतने लंबे समय तक जीवित नहीं रहेंगे)। इसलिए, हे महान राजा, मैं आपके शब्दों का पालन नहीं करूंगा (अर्थात जैसा आप कहते हैं वैसा ही करूंगा)।

इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र तुरु ने उस समय उनसे बात की।

19 तुरु की ये बातें सुनकर राजा को क्रोध आया। धर्मात्मा ने क्रोध से लाल आँखें करके तुरु को श्राप दिया।

20-26. “हे दुष्ट हृदय, तू ने मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन किया है। अत: सब धर्मों से बहिष्कृत पापी मनुष्य बनो। तुम सिर के मुकुट पर बालों की लट से रहित रहोगे; तुम पवित्र ग्रंथों से वंचित रह जाओगे; तुम सभी शिष्टाचार से रहित हो जाओगे। इसमें कोई संदेह नहीं है. तुम ब्राह्मणों के हत्यारे होगे ; तुम देवताओं द्वारा नष्ट किये जाओगे; तुम शराबी होगे; तुम सत्यता से रहित हो जाओगे; तू भयंकर काम करेगा; तुम सबसे नीच आदमी होगे. तुम्हें शराब पीने की लत लग जायेगी; आप। भूखा, पापी और गौहत्यारा होगा। आपकी त्वचा खराब हो जाएगी; तेरे निचले वस्त्र का आंचल खुला रहेगा; तुम ब्राह्मणों से घृणा करोगे; तुम विकृत हो जाओगे. तू व्यभिचारी होगा; तुम बहुत उग्र होगे; तुम बहुत कामातुर हो जाओगे; तुम सब कुछ खाओगे; तुम सदैव दुष्ट रहोगे. तू अपने ही कुटुम्बी स्त्री के साथ संभोग करेगा; आप सभी धार्मिक प्रथाओं को नष्ट कर देंगे; तुम पवित्र ज्ञान से रहित हो जाओगे; और तुम कुष्ठ रोग से पीड़ित हो जाओगे. तुम्हारे पुत्र और पौत्र भी सभी पवित्र वस्तुओं को नष्ट कर देंगे, बर्बर होंगे और इसी प्रकार (अर्थात् इसी प्रकार) बहुत बिगड़ जायेंगे।”


27. इस प्रकार तुरु को बहुत बुरी तरह श्राप देने के बाद, उन्होंने (अपने दूसरे) पुत्र, यदु से कहा : "अब (मेरा) बुढ़ापा ले लो, और किसी भी प्रकार की परेशानी से मुक्त होकर राज्य का आनंद लो।"

28. यदु ने हाथ जोड़कर राजा से कहा:

यदु ने कहा :

28बी-30. हे पिता, मैं (आपके) बुढ़ापे का बोझ सहन करने में असमर्थ हूँ; (कृपया) मुझ पर दया करें (अर्थात् क्षमा करें)। बुढ़ापे के पांच कारण हैं: ठंडक, यात्रा, गलत खान-पान, वृद्ध स्त्री और मन का अरुचि। हे राजन, मैं अपनी युवावस्था में (अर्थात् जवान होते हुए) दुःख सहने में समर्थ नहीं हूँ। बुढ़ापे को कौन रोक सकता है? अब (कृपया) मुझे क्षमा करें।

31-32. हे ब्राह्मण पुत्र , क्रोधित महान राजा ने यदु को श्राप दिया: “तुम्हारा वंश कभी भी राज्य का हकदार नहीं होगा। यह शक्ति, चमक, सहनशीलता से रहित हो जाएगा और क्षत्रियों के आचरण से वंचित हो जाएगा (क्योंकि आपने) मेरे आदेश से मुंह मोड़ लिया है। इसमें कोई अनिश्चितता नहीं है।”

यदु ने कहा :

33. हे राजा, मैं निर्दोष हूं; अब तुमने मुझे क्यों शाप दिया है? (कृपया) उस गरीब (अर्थात मुझ पर) का पक्ष लें। मुझ पर अनुग्रह करने की कृपा करें.

राजा ने कहा :

34. हे पुत्र, (जब) ​​महान देवता अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेगा, तब तेरा कुल शुद्ध हो जायेगा।

यदु ने कहा :

35. हे राजा, तू ने मुझ निर्दोष पुत्र को शाप दिया है; यदि आपको मुझ पर दया है तो (कृपया) मुझ पर कृपा करें।

राजा ने कहा :

36.जो ज्येष्ठ पुत्र हो उसे पिता का दुःख दूर करना चाहिए। वह राज्य की विरासत का अच्छी तरह से आनंद लेता है, और वह (राज्य का) बोझ भी उठाएगा।

37-38. आपने (अपना) कर्तव्य नहीं निभाया है, (इसलिए) आप निश्चित रूप से बात करने के लायक नहीं हैं। तूने मेरे उस आदेश को नष्ट कर दिया है (अर्थात अवज्ञा की है) जिसे मैं महान् (अर्थात् भारी) दण्ड दे सकता हूँ। इसलिए आपका पक्ष नहीं लिया जा सकता, आप जैसा चाहें वैसा करें।

यदु ने कहा :

38-42. हे राजा, चूँकि तुमने मेरे राज्य, रूप और परिवार को नष्ट कर दिया है, इसलिए मैं, तुम्हारे परिवार का मुखिया, दुष्ट होगा। आपके परिवार में विभिन्न रूपों वाले (जन्म लेने वाले) क्षत्रिय होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अत्यंत भयंकर और अत्यंत शक्तिशाली (प्राणी) अपने गाँवों, अच्छे क्षेत्रों, अपनी स्त्रियों और उनके पास जो भी रत्न होंगे, उनका आनंद लेंगे। मेरे कुल में बर्बरों के रूप वाले तुरुष्क उत्पन्न होंगे - जो नष्ट हो गए थे और जिन्हें आपने बहुत भयंकर शाप दिया था। हे श्रेष्ठ राजा, क्रोधित यदु ने राजा ( ययाति ) से इस प्रकार कहा।


42-45. तब क्रोधित महान राजा ने फिर से (यदु) को श्राप दिया: “सुनो, यह जान लो कि तुम्हारे परिवार में जो भी जन्म लेगा वह मेरी प्रजा को नष्ट कर देगा। जब तक चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे (अंतिम) रहेंगे तब तक म्लेच्छ कुंभीपाक और रौरव (नरक) में भुने रहेंगे । तब राजा ने युवा कुरु को खेलते हुए और अच्छे अंक प्राप्त करते हुए देखकर उस पुत्र को राजकुमार नहीं कहा। कुरु को बालक जानकर राजा वहां से चले गये।

46-47 तब संसार के स्वामी (अर्थात् ययाति) ने शर्मिष्ठा के मेधावी पुत्र पुरु को बुलाया और उससे कहा: "मेरा बुढ़ापा ले लो और मेरे द्वारा दिए गए उपद्रव के स्रोतों को नष्ट करके, (और) मेरे अत्यंत अच्छे राज्य का आनंद लो ( आपको)।"

पुरु ने कहा :

47-49. प्रभु (यदि आप) अपने पिता के समान राज्य का उपभोग करें, तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हे राजा, मेरी जवानी के बदले मुझे अपना बुढ़ापा दे दो। आज केवल सुंदर दिखने वाले, भोग-विलास करने वाले, मन को इंद्रिय विषयों, भोग-विलास और अच्छे कर्मों में आसक्त रखने वाले हैं।

49-54. हे महानुभाव, जब तक तुम चाहो उसके साथ खेलो। हे पिता, जब तक मैं जीवित हूं, बुढ़ापा कायम रखूंगा।

उस पुरु के इस प्रकार कहने पर जगत् के स्वामी ने बड़े हर्ष से भरे हुए हृदय से अपने पुत्र से फिर कहा, “हे पुत्र, चूँकि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, (इसके विपरीत) उसका पालन किया, इसलिए मैं तुम्हें दूँगा।” तुम्हें बहुत ख़ुशी है. हे परम बुद्धिमान, तू ने मेरा बुढ़ापा ले लिया, और मुझे अपनी जवानी दे दी, इस कारण तू मेरे दिए हुए राज्य का उपभोग कर। हे राजन, राजा द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर उस अच्छे पुरु ने उसे अपनी जवानी दे दी और उससे बुढ़ापा ले लिया।

54 -60. हे प्रियजन, जब पिता और पुत्र की आयु का आदान-प्रदान हुआ, तो पुरु अपने सभी अंगों में राजा से अधिक उम्र का प्रतीत हुआ। राजा युवावस्था तक पहुँच गया, (और एक आदमी की तरह दिखता था) सोलह साल का, और बहुत आकर्षण रखता था (दिखता था) जैसे कि वह एक और कामदेव था। महान राजा ने उस महान पुरु को सब कुछ दे दिया - (उसका) धनुष, राज्य, छत्र, पंखा, आसन और हाथी, (साथ ही) उसका पूरा खजाना, देश, सेना, चौरी और रथ भी।वह नहुष का धर्मात्मा पुत्र, जो वासना से आसक्त था, उस कन्या के बारे में सोचता हुआ, तेज कदमों से उस काम नामक झील पर गया , जो समुद्र के समान थी, जहाँ अश्रुबिन्दुमति (रखी) थी। बड़े-बड़े नेत्रों वाली तथा सुन्दर एवं मोटे स्तनों वाली उस प्रतिष्ठित कन्या को देखकर कामदेव के प्रति आकर्षित मन वाले महान राजा ने विशाला से कहा:

राजा ने कहा :

60-62. हे महान और आकर्षक आँखों वाली प्रतिष्ठित महिला, हे शुभ, मैंने अपना बुढ़ापा त्याग दिया है, और (अब) युवावस्था से संपन्न हूँ। जवान होकर मैं (यहाँ) आया हूँ। अब उसे मेरा होने दो।इसमें कोई संदेह नहीं कि वह जो चाहेगी मैं उसे दूँगा।

विशाला ने कहा :

62-63. जब (अब) तुम दुष्ट बुढ़ापे को त्याग कर आये हो, (फिर भी) तुम पर अब भी एक दोष लगा हुआ है। (इसलिए) वह आपको पुरस्कार नहीं देती।

राजा ने कहा :

63-64. यदि तुम निश्चय ही मेरा दोष जानते हो तो (मुझसे) कहो। मैं निःसंदेह उस निम्न प्रकृति के दोष को त्याग दूँगा।

पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-79)


               विशालोवाच-
शर्मिष्ठा यस्य वै भार्या देवयानी वरानना ।
सौभाग्यं तत्र वै दृष्टमन्यथा नास्ति भूपते ।१।

तत्कथं त्वं महाभाग अस्याः कार्यवशो भवेः ।
सपत्नजेन भावेन भवान्भर्ता प्रतिष्ठितः ।२।

ससर्पोसि महाराज भूतले चंदनं यथा ।
सर्पैश्च वेष्टितो राजन्महाचंदन एव हि ।३।

तथा त्वं वेष्टितः सर्पैः सपत्नीनामसंज्ञकैः ।
वरमग्निप्रवेशश्च शिखाग्रात्पतनं वरम् ।४।

रूपतेजः समायुक्तं सपत्नीसहितं प्रियम् ।
न वरं तादृशं कांतं सपत्नीविषसंयुतम् ।५।

तस्मान्न मन्यते कांतं भवंतं गुणसागरम् ।
               राजोवाच-
देवयान्या न मे कार्यं शर्मिष्ठया वरानने ।६।

इत्यर्थं पश्य मे कोशं सत्वधर्मसमन्वितम् ।
             अश्रुबिंदुमत्युवाच-
अहं राज्यस्य भोक्त्री च तव कायस्य भूपते।७।

यद्यद्वदाम्यहं भूप तत्तत्कार्यं त्वया ध्रुवम् ।
इत्यर्थे मम देहि स्वं करं त्वं धर्मवत्सल ।८।

बहुधर्मसमोपेतं चारुलक्षणसंयुतम् ।
                  राजोवाच-
अन्य भार्यां न विंदामि त्वां विना वरवर्णिनि ।९।

राज्यं च सकलामुर्वीं मम कायं वरानने ।
सकोशं भुंक्ष्व चार्वंगि एष दत्तः करस्तव।१०।

यदेव भाषसे भद्रे तदेवं तु करोम्यहम्।
अश्रुबिंदुमत्युवाच-
अनेनापि महाभाग तव भार्या भवाम्यहम् ।११।

एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

सागरस्य च तीरेषु वनेषूपवनेषु च ।
पर्वतेषु च रम्येषु सरित्सु च तया सह ।१४।

रमते राजराजेंद्रस्तारुण्येन महीपतिः ।
एवं विंशत्सहस्राणि गतानि निरतस्य च ।१५।

भूपस्य तस्य राजेंद्र ययातेस्तु महात्मनः।
                विष्णुरुवाच-
एवं तया महाराजो ययातिर्मोहितस्तदा ।१६।

कंदर्पस्य प्रपंचेन इंद्रस्यार्थे महामते ।
                 सुकर्मोवाच-
एवं पिप्पल राजासौ ययातिः पृथिवीपतिः।१७।

तस्या मोहनकामेन रतेन ललितेन च ।
न जानाति दिनं रात्रिं मुग्धः कामस्य कन्यया ।१८।

एकदा मोहितं भूपं ययातिं कामनंदिनी ।
उवाच प्रणतं नम्रं वशगं चारुलोचना ।१९।

            अश्रुबिंदुमत्युवाच-
संजातं दोहदं कांत तन्मे कुरु मनोरथम् ।
अश्वमेधमखश्रेष्ठं यजस्व पृथिवीपते ।२०।

राजोवाच-
एवमस्तु महाभागे करोमि तव सुप्रियम् ।
समाहूय सुतश्रेष्ठं राज्यभोगे विनिःस्पृहम् ।२१।

समाहूतः समायातो भक्त्यानमितकंधरः ।
बद्धांजलिपुटो भूत्वा प्रणाममकरोत्तदा ।२२।

तस्याः पादौ ननामाथ भक्त्या नमितकंधरः ।
आदेशो दीयतां राजन्येनाहूतः समागतः।२३।

किं करोमि महाभाग दासस्ते प्रणतोस्मि च ।
                  राजोवाच-
अश्वमेधस्य यज्ञस्य संभारं कुरु पुत्रक ।२४।

समाहूय द्विजान्पुण्यानृत्विजो भूमिपालकान् ।
एवमुक्तो महातेजाः पूरुः परमधार्मिकः।२५।

सर्वं चकार संपूर्णं यथोक्तं तु महात्मना ।
तया सार्धं स जग्राह सुदीक्षां कामकन्यया ।२६।

अश्वमेधयज्ञवाटे दत्वा दानान्यनेकधा ।
ब्राह्मणेभ्यो महाराज भूरिदानमनंतकम् ।२७।

दीनेषु च विशेषेण ययातिः पृथिवीपतिः ।
यज्ञांते च महाराजस्तामुवाच वराननाम् ।२८।

अन्यत्ते सुप्रियं बाले किं करोमि वदस्व मे ।
तत्सर्वं देवि कर्तास्मि साध्यासाध्यं वरानने।२९।
                    सुकर्मोवाच-
इत्युक्ता तेन सा राज्ञा भूपालं प्रत्युवाच ह ।
जातो मे दोहदो राजंस्तत्कुरुष्व ममानघ ।३०।

इंद्रलोकं ब्रह्मलोकं शिवलोकं तथैव च।
विष्णुलोकं महाराज द्रष्टुमिच्छामि सुप्रियम् ।३१।

दर्शयस्व महाभाग यदहं सुप्रिया तव ।
एवमुक्तस्तयाराजातामुवाचससुप्रियाम् ।३२।

साधुसाधुवरारोहेपुण्यमेवप्रभाषसे ।
स्त्रीस्वभावाच्चचापल्यात्कौतुकाच्चवरानने ।३३।

यत्तवोक्तं महाभागे तदसाध्यं विभाति मे।
तत्साध्यं पुण्यदानेन यज्ञेन तपसापि च ।३४।

अन्यथा न भवेत्साध्यं यत्त्वयोक्तं वरानने ।
असाध्यं तु भवत्या वै भाषितं पुण्यमिश्रितम् ।३५।

मर्त्यलोकाच्छरीरेण अनेनापि च मानवः।
श्रुतो दृष्टो न मेद्यापि गतः स्वर्गं सुपुण्यकृत् ।३६।

ततोऽसाध्यं वरारोहे यत्त्वया भाषितं मम ।
अन्यदेव करिष्यामि प्रियं ते तद्वद प्रिये ।३७।

                देव्युवाच-
अन्यैश्च मानुषै राजन्न साध्यं स्यान्न संशयः ।
त्वयि साध्यं महाराज सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ।३८।

तपसा यशसा क्षात्रै र्दानैर्यज्ञैश्च भूपते ।
नास्ति भवादृशश्चान्यो मर्त्यलोके च मानवः ।३९।

क्षात्रं बलं सुतेजश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
तस्मादेवं प्रकर्तव्यं मत्प्रियं नहुषात्मज ।४०।
इति 

 "श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।७९।

अध्याय 79 - युवा ययाति अश्रुबिन्दुमति के साथ आनंद लेते हैं

विशाला ने कहा :

1-2. वहाँ (अर्थात उस राजा में) ही सौभाग्य देखा जाता है , जिसकी पत्नी शर्मिष्ठा हो और जिसकी पत्नी सुंदर देवयानी हो। हे राजा, यह बात झूठी नहीं हो सकती; तो फिर हे प्रतापी राजा, आप इस युवती के शरीर (सौंदर्य) पर कैसे मोहित हो गए [1] जबकि आप दो पत्नियों वाले पति के रूप में जाने जाते हैं ?

3-4. हे राजा, चंदन के समान आपके (चारों ओर) सर्प हैं। हे राजन, जैसे एक विशाल चंदन का वृक्ष सर्पों से घिरा रहता है, उसी प्रकार आप सह-पत्नियों नामक सर्पों से घिरे रहते हैं।

4-6. अग्नि में प्रवेश करना उत्तम है, (पहाड़ की) चोटी से गिरना उत्तम है, परंतु सुन्दरता और तेज से युक्त आप जैसे  प्रिय पति का होना  सहपत्नियों के साथ -उत्तम नहीं है,  सहपत्नी रूपी विष के साथ रहना उत्तम नहीं है इसलिए वह आपको, गुणों के सागर, अपने प्रेमी के रूप में पुरस्कृत नहीं करती है।

राजा ने कहा :

अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

7-9. हे राजन, मैं आपके राज्य और आपके शरीर का भोक्ता बनूंगी। हे राजा, मैं जो कुछ करने को कहूँगी तुम्हें अवश्य ही करना पड़ेगा। इस प्रयोजन के लिए, हे धर्मपरायण लोगों, अनेक गुणों से युक्त और शुभ चिह्नों से युक्त अपना हाथ मुझे दीजिए।

राजा ने कहा :

9-11. हे अति सुन्दर रूप वाली, मैं तेरे सिवा कोई दूसरी पत्नी नहीं रखूँगा। हे सुंदर स्त्री, हे मनमोहक शरीर वाली स्त्री, मेरे संपूर्ण राज्य का उसके धन सहित, इसी प्रकार संपूर्ण पृथ्वी और मेरे शरीर का भी आनंद लो। (इसके प्रमाण रूप में) मैंने अपना यह हाथ तुम्हें अर्पित किया है।हे अच्छी महिला, तुम जो कहोगी मैं वही करूंगा।

अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

11. बस इस (वादे) के साथ, हे महान व्यक्ति, मैं तुम्हारी पत्नी बनूंगी।

12-16. यह सुनकर, पृथ्वी के स्वामी, राजाओं के राजा, ययाति ने खुशी से भरी आँखों के साथ कामदेव की उस पवित्र पुत्री से गंधर्व विधि से विवाह किया।   देखें नीचे प्रमाण

एवमाकर्ण्य राजेंद्रो हर्षव्याकुललोचनः ।
गांधर्वेण विवाहेन ययातिः पृथिवीपतिः ।१२।

उपयेमे सुतां पुण्यां मन्मथस्य नरोत्तम ।
तया सार्द्धं महात्मा वै रमते नृपनंदनः।१३।

राजा नहुष का कुलीन पुत्र  उसके साथ समुद्र तटों, जंगलों और उद्यानों में आनंद लेता था।

,वह  राजाओं के स्वामी, युवावस्था में उसके साथ पहाड़ों और सुंदर नदियों में क्रीड़ा करता था। इस प्रकार हे राजन्!, उस महान राजा ययाति को उसके साथ क्रीड़ा करते हुए बीस हजार (वर्ष) बीत गये।

विष्णु ने कहा :

16-17. हे अत्यंत बुद्धिमान, उस समय कामदेव के कपटपूर्ण कार्य के माध्यम से, महान राजा ययाति इंद्र के लाभ के लिए उसके द्वारा मोहित हो गए थे।

सुकर्मन ने कहा :

17-19. हे पिप्पल , पृथ्वी के स्वामी ययाति को कामदेव की पुत्री के मोहक जोश और मोहक मिलन से मोहित होकर दिन या रात का ज्ञान नहीं रहता था। एक बार आकर्षक नेत्रों वाली कामदेव की पुत्री ने उन स्तब्ध, विनम्र, आज्ञाकारी राजा ययाति को प्रणाम करके कहा:

अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

20. हे प्रिय, मेरी इच्छा उत्पन्न होती है; अत: मेरी वह इच्छा पूरी करो: सर्वोत्तम यज्ञ करो, अर्थात्। अश्वमेध , हे पृथ्वी के स्वामी!

राजा ने कहा :

21-24. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; मैं वही करूंगा जो तुम्हें बहुत पसंद है.

उन्होंने अपने छोटे श्रेष्ठ बेटे को आमंत्रित किया, जिसे राज्य का आनंद लेने की कोई इच्छा नहीं थी।

(पुत्र) बुलाये जाने पर भक्तिभाव से गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर तथा हाथ जोड़कर (ययाति को) प्रणाम करके वहाँ पुरु  आया। उसने भी अपनी गर्दन (अर्थात् सिर) झुकाकर उसके चरणों को प्रणाम किया। “हे राजा, मुझे आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं पुरु , जिसे आपके द्वारा बुलाया गया था, मैं आ गया हूं। हे महानुभाव, मुझे क्या करना चाहिए? मैं आपका सेवक हूँ जिसने आपको प्रणाम किया है।”

राजा ने कहा :

24-29. हे पुत्र, ब्राह्मणों , यज्ञ करने वाले मेधावी पुरोहितों ,और राजाओं को आमंत्रित करके, अश्व-यज्ञ की तैयारी करो।

इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस अत्यंत तेजस्वी और अत्यधिक धार्मिक पुरु ने महिमावान के कहे अनुसार सब कुछ पूर्ण रूप से किया।कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती  के साथ उन्होंने विधिवत दीक्षा ली (अर्थात स्वयं को यज्ञ के लिए समर्पित कर लिया)। हे महान राजा, पृथ्वी के स्वामी ययाति ने यज्ञ स्थल पर ब्राह्मणों को विभिन्न उपहार दिए, उसी प्रकार विशेष रूप से गरीबों को अनंत, प्रचुर उपहार दिए; और यज्ञ के अंत में उन्होंने उस खूबसूरत महिला अश्रुबिन्दुमती से कहा: “हे युवा महिला, मुझे बताओ कि तुम्हारा प्रिय मुझे और क्या करना चाहिए। हे सुंदरी, मैं वह सब कुछ करूंगा जो प्राप्य है और प्राप्य भी नहीं है।"

सुकर्मन ने कहा :

30-37. राजा के इस प्रकार कहने पर वह उत्तर में बोली, “हे राजा, मुझमें एक इच्छा उत्पन्न हुई है; हे भोले, तू इसे कर (अर्थात् संतुष्ट कर)। हे महान राजा, मैं इंद्र, ब्रह्मा , शिव और विष्णु का अत्यंत सुखदायक लोक देखने की इच्छा रखती हूँ । हे कुलीन, यदि मैं तुम्हें बहुत प्रिय हूं तो मुझे दिखाओ।'' उसके इस प्रकार संबोधित करने पर राजा ने उससे, जो उसे बहुत प्रिय थी, कहा: ''हे सुंदरी, अच्छा, तुम न्यायप्रिय हो पवित्र बातें कह रही हो। हे सुंदरी, मुझे लगता है कि स्त्री स्वभाव, चंचलता और जिज्ञासा के कारण आपने जो कहा, वह अप्राप्य है, 

हे महान महिला !  आपने जो कहा  है वह पवित्र उपहार, त्याग और तपस्या के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है; किसी अन्य माध्यम से, प्राप्त नहीं किया जा सकता है   हे सुन्दर महिला। आपने अभी कुछ ऐसा कहा है जो अप्राप्य है क्योंकि यह धार्मिक गुणों के साथ मिश्रित (अर्थात् जुड़ा हुआ) है। मैंने अभी तक किसी अत्यंत मेधावी व्यक्ति के बारे में नहीं देखा या सुना है जो नश्वर संसार से अपने शरीर के साथ स्वर्ग गया हो । 

इसलिए, हे सुंदरी, तुमने जो कहा वह मेरे लिए अप्राप्य है। मैं कुछ और कर सकूँ। हे प्रिय मुझे वही बताओ।"

आदरणीय महिला ने कहा :

38-40. हे राजन, यह निश्चित रूप से अन्य मनुष्यों के लिए प्राप्य नहीं है; लेकिन यह आपके लिए प्राप्य है; मैं सत्य ही कह रही हूं। हे राजन, इस मृत्युलोक में तपस्या में, यश में, वीरतापूर्वक कार्य करने में, दान देने में और यज्ञ करने में आपके समान कोई दूसरा मनुष्य नहीं है।

 सब कुछ - एक क्षत्रिय की शक्ति , ऊर्जा की आग - आप में स्थापित है। इसलिए, हे नहुष के पुत्र, यह (बात) मुझे प्रिय है  यह कार्य (तुम्हारे द्वारा) किया जाना ही चाहिए।

फ़ुटनोट और सन्दर्भ:-

[1] :

मौजूदा पाठ में "कार्यवशो" का कोई अर्थ नहीं है। इसे "कायवशो" से प्रतिस्थापित करना बेहतर होगा जिसका हमने यहां अनुवाद किया है। 

← पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)

कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम ।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके ।१।

देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः ।२।

               "सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।

तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।

रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।

दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा ।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।

****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।

सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।

प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।

मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम् ।१०।

दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।

पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये ।१२।

यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः ।१३।

यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः ।१४।

एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः ।१५।

रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिंदुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना ।१६।

बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः ।१७।

अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः ।१८।

तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः ।१९।

अध्याय- 80 -ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दौंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति यदु को शाप दिया ।

पिप्पला ने कहा :

1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा ( ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।

सुकर्मन ने कहा :

3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"उसके लिए उसने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया।" प्रसिद्ध व्यक्ति ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे ये शब्द कहे। शर्मिष्ठा और देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ प्रतिस्पर्धा की।तब काम की बेटी को उनकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे ब्राह्मण! तब क्रोधित होकर महान राजा ने यदु को बुलाया और उनसे कहा:

 “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी (देवयानी) को मार डालो । 

हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने अपने पिता, राजाओं के स्वामी, को उत्तर दिया:

9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। 

इसलिए, हे महान राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे महान राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।

यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।

पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश की अवज्ञा की है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनंद लो"।

******************

15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र  यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के  साथ सुख भोगा।

आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया। 

इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे। हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।

पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्यायः81)

  →

                     सुकर्मोवाच-
यथेंद्रोसौ महाप्राज्ञः सदा भीतो महात्मनः।
ययातेर्विक्रमं दृष्ट्वा दानपुण्यादिकं बहु ।१।

मेनकां प्रेषयामास अप्सरां दूतकर्मणि ।
गच्छ भद्रे महाभागे ममादेशं वदस्व हि ।२।

कामकन्यामितो गत्वा देवराजवचो वद।
येनकेनाप्युपायेन राजानं त्वमिहानय ।३।

एवं श्रुत्वा गता सा च मेनका तत्र प्रेषिता ।
समाचष्ट तु तत्सर्वं देवराजस्य भाषितम् ।४।

एवमुक्ता गता सा च मेनका तत्प्रचोदिता ।
गतायां मेनकायां तु रतिपुत्री मनस्विनी ।५।

राजानं धर्मसंकेतं प्रत्युवाच यशस्विनी ।
राजंस्त्वयाहमानीता सत्यवाक्येन वै पुरा।६।

स्वकरश्चांतरे दत्तो भवनं च समाहृता ।
यद्यद्वदाम्यहं राजंस्तत्तत्कार्यं हि वै त्वया।७।

तदेवं हि त्वया वीर न कृतं भाषितं मम ।
त्वामेवं तु परित्यक्ष्ये यास्यामि पितृमंदिरम्।८।

                  राजोवाच-
यथोक्तं हि त्वया भद्रे तत्ते कर्त्ता न संशयः ।
असाध्यं तु परित्यज्य साध्यं देवि वदस्व मे।९।

             "अश्रुबिंदुमत्युवाच-
एतदर्थे महीकांत भवानिह मया वृतः ।
सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः।१०।

सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।

त्रैलोक्यसाधकं ज्ञात्वा त्रैलोक्येऽप्रतिमं च वै।
विष्णुभक्तमहं जाने वैष्णवानां महावरम् ।१२।

इत्याशया मया भर्त्ता भवानंगीकृतः पुरा।
यस्य विष्णुप्रसादोऽस्ति स सर्वत्र परिव्रजेत् ।१३।

दुर्लभं नास्ति राजेंद्र त्रैलोक्ये सचराचरे ।
सर्वेष्वेव सुलोकेषु विद्यते तव सुव्रत।१४।

विष्णोश्चैव प्रसादेन गगने गतिरुत्तमा ।
मर्त्यलोकं समासाद्य त्वयैव वसुधाधिप।१५।

जरापलितहीनास्तु मृत्युहीना जनाः कृताः ।
गृहद्वारेषु सर्वेषु मर्त्यानां च नरर्षभ।१६।

कल्पद्रुमा अनेकाश्च त्वयैव परिकल्पिताः ।
येषां गृहेषु मर्त्यानां मुनयः कामधेनवः ।१७।

त्वयैव प्रेषिता राजन्स्थिरीभूताः सदा कृताः ।
सुखिनः सर्वकामैश्च मानवाश्च त्वया कृताः।१८।

गृहैकमध्ये साहस्रं कुलीनानां प्रदृश्यते ।
एवं वंशविवृद्धिश्च मानवानां त्वया कृता।१९।

यमस्यापि विरोधेन इंद्रस्य च नरोत्तम।
व्याधिपापविहीनस्तु मर्त्यलोकस्त्वया कृतः ।२०।

स्वतेजसाहंकारेण स्वर्गरूपं तु भूतलम् ।
दर्शितं हि महाराज त्वत्समो नास्ति भूपतिः।२१।

नरो नैव प्रसूतो हि नोत्पत्स्यति भवादृशः ।
भवंतमित्यहं जाने सर्वधर्मप्रभाकरम् ।२२।

तस्मान्मया कृतो भर्ता वदस्वैवं ममाग्रतः ।
नर्ममुक्त्वा नृपेंद्र त्वं वद सत्यं ममाग्रतः।२३।

यदि ते सत्यमस्तीह धर्ममस्ति नराधिप ।
देवलोकेषु मे नास्ति गगने गतिरुत्तमा ।२४।

सत्यं त्यक्त्वा यदा च त्वं नैव स्वर्गं गमिष्यसि।
तदा कूटं तव वचो भविष्यति न संशयः।२५।

पूर्वंकृतं हि यच्छ्रेयो भस्मीभूतं भविष्यति ।
                   "राजोवाच-
सत्यमुक्तं त्वया भद्रे साध्यासाध्यं न चास्ति मे।२६।

सर्वंसाध्यं सुलोकं मे सुप्रसादाज्जगत्पते।
स्वर्गं देवि यतो नैमि तत्र मे कारणं शृणु ।२७।

आगंतुं तु न दास्यंति लोके मर्त्ये च देवताः ।
ततो मे मानवाः सर्वे प्रजाः सर्वा वरानने ।२८।

मृत्युयुक्ता भविष्यंति मया हीना न संशयः ।
गंतुं स्वर्गं न वाञ्छामि सत्यमुक्तं वरानने ।२९।

देव्युवाच-।
लोकान्दृष्ट्वा महाराज आगमिष्यसि वै पुनः ।
पूरयस्व ममाद्यत्वं जातां श्रद्धां महातुलाम् ।३०।

               "राजोवाच-
सर्वमेवं करिष्यामि यत्त्वयोक्तं न संशयः ।
समालोक्य महातेजा ययातिर्नहुषात्मजः ।३१।

एवमुक्त्वा प्रियां राजा चिंतयामास वै तदा ।
अंतर्जलचरो मत्स्यः सोपि जाले न बध्यते ।३२।

मरुत्समानवेगोपि मृगः प्राप्नोति बंधनम् ।
योजनानां सहस्रस्थमामिषं वीक्षते खगः ।३३।

सकंठलग्नपाशं च न पश्येद्दैवमोहितः ।
कालः समविषमकृत्कालः सन्मानहानिदः ।३४।

परिभावकरः कालो यत्रकुत्रापि तिष्ठतः ।
नरं करोति दातारं याचितारं च वै पुनः ।३५।

भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।

अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।

न मंत्रा न तपो दानं न मित्राणि न बांधवाः ।
शक्नुवंति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।

त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यंते नातिवर्तितुम् ।
विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।

यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यंते मातरिश्वना ।
तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।

सुकर्मोवाच- 
कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।

उपद्रवा घातदोषाः सर्पाश्च व्याधयस्ततः ।
सर्वे कर्मनियुक्तास्ते प्रचरंति च मानुषे ।४२।

सुखस्य हेतवो ये च उपायाः पुण्यमिश्रिताः ।
ते सर्वे कर्मसंयुक्ता न पश्येयुः शुभाशुभम् ।४३।

कर्मदा यदि वा लोके कर्मसंबधि बांधवाः ।
कर्माणि चोदयंतीह पुरुषं सुखदुःखयोः ।४४।

सुवर्णं रजतं वापि यथा रूपं विनिश्चितम् ।
तथा निबध्यते जंतुः स्वकर्मणि वशानुगः ।४५।

पंचैतानीह सृज्यंते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।
आयुः कर्म च वित्तं च विद्यानिधनमेव च ।४६।

यथा मृत्पिंडतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति ।
तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।४७।

देवत्वमथ मानुष्यं पशुत्वं पक्षिता तथा ।
तिर्यक्त्वं स्थावरत्वं च प्राप्यते च स्वकर्मभिः।४८।

स एव तत्तथा भुंक्ते नित्यं विहितमात्मना ।
आत्मना विहितं दुःखं चात्मना विहितं सुखम्। ४९।

गर्भशय्यामुपादाय भुंजते पूर्वदैहिकम् ।
संत्यजंति स्वकं कर्म न क्वचित्पुरुषा भुवि।५०।

बलेन प्रज्ञया वापि समर्थाः कर्तुमन्यथा ।
सुकृतान्युपभुंजंति दुःखानि च सुखानि च।५१।

हेतुं प्राप्य नरो नित्यं कर्मबंधैस्तु बध्यते ।
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विंदति मातरम्।५२।

तथा शुभाशुभं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।
उपभोगादृते यस्य नाश एव न विद्यते ।५३।

प्राक्तनं बंधनं कर्म कोन्यथा कर्तुमर्हति ।
सुशीघ्रमपि धावंतं विधानमनुधावति ।५४।

शेते सह शयानेन पुरा कर्म यथाकृतम् ।
उपतिष्ठति तिष्ठंतं गच्छंतमनुगच्छति ।५५।

करोति कुर्वतः कर्मच्छायेवानु विधीयते ।
यथा छायातपौ नित्यं सुसंबद्धौ परस्परम् ।५६।

तद्वत्कर्म च कर्ता च सुसंबद्धौ परस्परम् ।
ग्रहा रोगा विषाः सर्पाः शाकिन्यो राक्षसास्तथा ५७।

पीडयंति नरं पश्चात्पीडितं पूर्वकर्मणा ।
येन यत्रोपभोक्तव्यं सुखं वा दुःखमेव वा ।५८।

स तत्र बद्ध्वा रज्ज्वा वै बलाद्दैवेन नीयते ।
दैवः प्रभुर्हि भूतानां सुखदुःखोपपादने ।५९।

अन्यथा चिंत्यते कर्म जाग्रता स्वपतापि वा ।
अन्यथा स तथा प्राज्ञ दैव एवं जिघांसति ।६०।

शस्त्राग्नि विष दुर्गेभ्यो रक्षितव्यं च रक्षति ।
अरक्षितं भवेत्सत्यं तदेवं दैवरक्षितम् ।६१।

दैवेन नाशितं यत्तु तस्य रक्षा न दृश्यते ।
यथा पृथिव्यां बीजानि उप्तानि च धनानि च।६२।

तथैवात्मनि कर्माणि तिष्ठंति प्रभवंति च ।
तैलक्षयाद्यथा दीपो निर्वाणमधिगच्छति ।६३।

कर्मक्षयात्तथा जंतुः शरीरान्नाशमृच्छति ।
कर्मक्षयात्तथा मृत्युस्तत्त्वविद्भिरुदाहृतः।६४।

विविधाः प्राणिनस्तस्य मृत्यो रोगाश्च हेतवः ।
तथा मम विपाकोयं पूर्वं कृतस्य नान्यथा ।६५।

संप्राप्तो नात्र संदेहः स्त्रीरूपोऽयं न संशयः ।
क्व मे गेहं समायाता नाटका नटनर्तकाः ।६६।

तेषां संगप्रसंगेन जरा देहं समाश्रिता ।
सर्वं कर्मकृतं मन्ये यन्मे संभावितं ध्रुवम् ।६७।

तस्मात्कर्मप्रधानं च उपायाश्च निरर्थकाः ।
पुरा वै देवराजेन मदर्थे दूतसत्तमः ।६८।

प्रेषितो मातलिर्नाम न कृतं तस्य तद्वचः ।
तस्य कर्मविपाकोऽयं दृश्यते सांप्रतं मम ।६९।

इति चिंतापरो भूत्वा दुःखेन महतान्वितः ।
यद्यस्याहि वचः प्रीत्या न करोमि हि सर्वथा ।७०।

सत्यधर्मावुभावेतौ यास्यतस्तौ न संशयः ।
सदृशं च समायातं यद्दृष्टं मम कर्मणा ।७१।

भविष्यति न संदेहो दैवो हि दुरतिक्रमः ।
एवं चिंतापरो भूत्वा ययातिः पृथिवीपतिः। ७२।

कृष्णं क्लेशापहं देवं जगाम शरणं हरिम् ।
ध्यात्वा नत्वा ततः स्तुत्वा मनसा मधुसूदनम् ।७३।

त्राहि मां शरणं प्राप्तस्त्वामहं कमलाप्रिय ।७४।


अध्याय 81 - नियति अप्रतिरोध्य है

सुकर्मन ने कहा :

1-3. अत्यंत बुद्धिमान इंद्र , जो हमेशा कुलीन ययाति से डरते थे , उन्होंने उनके वीरता और उपहार देने जैसे कई सराहनीय कार्यों को देखकर, स्वर्ग की अप्सरा मेनका को एक दूत के रूप में कार्य करने के लिए भेजा

 (उसने उससे कहा:) "हे अच्छे और प्रतिष्ठित व्यक्ति मातलि!, जाओ और मेरा आदेश बताओ । यहां से जाकर कामदेव की पुत्री से देवताओं के स्वामी (मेरे) ये शब्द (अर्थात आदेश) कहो:  वे राजा ययाति को'राजा को किसी भी तरह यहां ले आऐं।''

4. यह सुनकर वह मेनका (इंद्र द्वारा) भेजी हुई वहां गयी; और जो कुछ देवताओं के प्रभु ने कहा था, वह सब उसे बता दिया।

5-8. इस प्रकार उसे यह बताने के बाद कि मेनका, उसके द्वारा निर्देशित (यानी कामदेव की बेटी) के पास चली गई  जब मेनका चली गई, और अश्रुबिन्दुमती राजा ययाति के पास गयी तो रति की उस उच्च विचारधारा वाली, गौरवशाली बेटी अश्रुबिन्दुमती ने राजा को वैध समझौते की बात कही: “हे राजा, आपने पहले सच्ची वाणी के साथ मुझे (यहाँ) लाया था; इस बीच तू ने मुझे अपना हाथ दिया, और मुझे अपने निवास में ले आया। हे राजा, तुम्हें यहाँ (अर्थात अभी) वही करना होगा जो मैं तुमसे कहती हूँ। हे वीर, जो मैं ने तुझ से कहा था, वह तू ने नहीं किया; मैं तुम्हें त्याग कर अपने पिता के घर चली जाऊँगी।”

राजा ने कहा :

9. हे भद्रे!, जो कुछ तू ने मुझ से कहा है, मैं अवश्य वैसा ही करूंगा। हे आदरणीय नारी, जो अप्राप्य है उसे छोड़कर (अर्थात् न बताना) और जो प्राप्य है वह बताओ।

अश्रुबिन्दुमति ने कहा :

"अश्रुबिंदुमत्युवाच-
एतदर्थे महीकांत भवानिह मया वृतः ।
सर्वलक्षणसंपन्नः सर्वधर्मसमन्वितः ।१०।

सर्वं साध्यमिति ज्ञात्वा सर्वधर्तारमेव च ।
कर्त्तारं सर्वधर्माणां स्रष्टारं पुण्यकर्मणाम्।११।


10-11.  इस प्रयोजन के लिए, हे पृथ्वी के स्वामी, मैं तुम्हें विवाह के लिए चुनती हूँ, यह जानते हुए कि तुम सभी (शुभ) चिह्नों वाले और सभी गुणों से संपन्न हो, और यह जानते हुए कि तुम सब कुछ पूरा करोगे, हर चीज का समर्थन करोगे, सभी अच्छे उपयोग करोगे और सृजन करोगे ( अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करो, और तीनों लोकों को प्राप्त करोगे, और यह जानोगे कि तुम तीनों लोकों में अतुलनीय हो। मैं जानती हूं कि आप एक भक्त हैं और विष्णु के अनुयायियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । इसी आशा से मैंने पहले तुम्हें अपना पति समझ लिया था। जिस पर विष्णु की कृपा होगी वह हर जगह विचरण करेगा। हे राजाओं के स्वामी, ऐसा कुछ भी नहीं है जो (आपके द्वारा) तीनों लोकों में - स्थावर या (स्थिर रहने वाला)- में पूरा न किया जा सके। अच्छे व्रत के कारण आपके लिए सभी लोकों में सब कुछ (प्राप्त करने योग्य) है। विष्णु की कृपा से ही तुम आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकते हो। नश्वर संसार में आकर, हे पृथ्वी के स्वामी, आपने लोगों को बुढ़ापे, सफ़ेद बालों और मृत्यु से मुक्त किया है। हे राजन, आपने स्वयं ही मनुष्यों के सभी घरों के द्वारों के पास बहुत से इच्छा फल देने वाले वृक्ष लगाए हैं।हे राजन, आपने स्वयं मनुष्यों के घरों में ऋषियों को भेजा है और उनके घरों में इच्छा देने वाली गायों को हमेशा दृढ़ता से बसाया है। तुमने मनुष्यों की सब अभिलाषाएं पूरी करके उन्हें प्रसन्न किया है। एक घर में हजारों कुलीन लोग देखे जाते हैं।

19-26. इस प्रकार तुमने मनुष्यजाति को बढ़ाया है। यम और इंद्र के विरोध के बावजूद भी , हे राजा, आपने नश्वर संसार को रोगों और पापों से मुक्त कर दिया। हे महान राजा, आपने अपने पराक्रम और स्वाभिमान से पृथ्वी को ही स्वर्ग का रूप दिखा दिया है। आपके समान कोई दूसरा राजा नहीं है।आपके जैसा कोई भी व्यक्ति पैदा नहीं हुआ है और न ही पैदा होगा। मैं तुम्हें संपूर्ण धर्म का प्रकाशक जानता हूं। इसलिये मैं ने तुझे अपना पति मान लिया; हे राजाओं के स्वामी, मजाक छोड़ कर मेरे सामने सत्य बोलो। हे राजन, यदि तुममें सत्य और धर्मपरायणता है तो सच बोलो। "मैं दिव्य लोकों में विचरण नहीं करती, न ही आकाश में स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकती हूँ"। जब तुम सत्य को त्यागकर (ऐसा कहते हो) तो कभी स्वर्ग में नहीं जाओगे; तुम्हारी बातें निश्चय झूठी होंगी; और पहले किए गए सभी अच्छे काम राख में मिल जाएंगे।

राजा ने कहा :

26-29. हे सुन्दरी, आपने सच कहा, मेरे लिए अप्राप्य जैसा कुछ भी नहीं है। जगत् के स्वामी की कृपा से मेरे लिए सब कुछ प्राप्य है। हे आदरणीय नारी, मैं  जिस कारण से स्वर्ग नहीं जा रहा हूँ, उसका कारण सुनो।

वे देवताओं को नश्वर संसार में जाने की अनुमति नहीं देंगे; परिणामस्वरूप सभी मनुष्य-मेरी प्रजा-मेरे द्वारा त्याग दिए जाने पर मृत्यु को प्राप्त होंगे; 

इसमें कोई संदेह नहीं है, हे सुन्दरी! मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है; हे सुन्दरी, मैं ने तुझ से सत्य कहा है।

अश्रुबिन्दुमती ने कहा :

30. हे राजा, तुम उन सभी लोकों को देखकर फिर  पुन: पृथ्वी पर लौट आएगे। आज मेरी अतुलनीय प्रबल इच्छा पूरी करो.

राजा ने कहा :

31-40. आपने जो कुछ कहा है मैं अवश्य वह सब करूँगा। नहुष के पुत्र अत्यंत तेजस्वी राजा ययाति ने (इस प्रकार) देखा और अपनी प्रियतमा से इस प्रकार कहा, फिर सोचा: 'एक मछली पानी में घूमती हुई भी जाल में बंधी हुई है (अर्थात फंसी हुई है)। वायु के समान वेग वाला मृग भी बंधा हुआ है। एक हजार योजन की दूरी पर होने पर भी पक्षी शिकार को देख लेता है । नियति के बहकावे में आकर यह अपनी गर्दन पर लटका हुआ फंदा नहीं देख पाता। नियति अच्छी और बुरी चीजें लेकर आती है। 

नियति सम्मान को नष्ट कर देती है. नियति जहां चाहे वहाँ  रहकर अपमान भी कराती है। यह मनुष्य को दाता या याचक बनाती है। नियति सब कुछ धारण करती है - सभी गतिहीन और स्वर्ग या पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणी। इस संसार का कर्म ही एकमात्र भाग्यविधायक है।

यह उत्पत्ति और मृत्यु से रहित है और संसार का सबसे बड़ा कारण है।

नियति दुनिया भर को उसी तरह पकाती है जैसे पेड़ पर लगे फल को समय पकाता है।

भूतानि स्थावरादीनि दिवि वा यदि वा भुवि ।
सर्वं कलयते कालः कालो ह्येक इदं जगत् ।३६।

अनादिनिधनो धाता जगतः कारणं परम् ।
लोकान्कालः स पचति वृक्षे फलमिवाहितम् ।३७।

न मंत्रा न तपो दानं न मित्राणि न बांधवाः ।
शक्नुवंति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।३८।

त्रयः कालकृताः पाशाः शक्यंते नातिवर्तितुम् ।
विवाहो जन्ममरणं यदा यत्र तु येन च ।३९।

यथा जलधरा व्योम्नि भ्राम्यंते मातरिश्वना ।
तथेदं कर्मयुक्तेन कालेन भ्राम्यते जगत् ।४०।

                 "सुकर्मोवाच- 
कालोऽयं कर्मयुक्तस्तु यो नरैः समुपासितः ।
कालस्तु प्रेरयेत्कर्म न तं कालः करोति सः।४१।

भजन, तप, दान, मित्र या सम्बन्धी भी भाग्य से पीड़ित मनुष्य की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।नियति के तीन बंधनों पर काबू पाना संभव नहीं है: विवाह, जन्म और मृत्यु - किसी को ये कब और कहाँ मिलेंगे, और किसके साथ या किसके माध्यम से मिलेंगे। 

जैसे आकाश में बादल हवा से चलते हैं, वैसे ही संसार (प्राणियों के) कर्मों (फलों) के साथ मिलकर भाग्य से चलता है।

सुकर्मन ने कहा :

41-67. लेकिन नियति, जो कर्म (कर्म) के साथ संयुक्त है, मनुष्यों द्वारा पूजनीय है, (केवल) कर्म (कर्मों के फल) के लिए आग्रह करती है, और इसे बनाती नहीं है। मानव (संसार) में विपत्तियाँ, विपत्तियाँ, सर्प और बीमारियाँ (किसी के) कर्मों के अनुसार ही चलती हैं। जो सुख के कारण और साधन हैं, वे सब पुण्य से मिश्रित होकर (कर्मों के) फल से संयुक्त हैं। वे शुभ और (क्या है) अशुभ नहीं देखेंगे (अर्थात् इसकी परवाह नहीं करेंगे)।(अस्पष्ट!) कर्मों के फल से जुड़े रिश्तेदार उनका आदान-प्रदान कर सकते हैं [1] ; परन्तु (अकेले) कर्मों का फल ही मनुष्यों को इस संसार में सुख और दुःख की ओर ले जाता है। जिस प्रकार सोने या चांदी का स्वभाव निश्चित होता है, उसी प्रकार जीव अपने कर्मों के अनुसार बंधा होता है। मनुष्य जब (अपनी माँ के) गर्भ में होता है, तब ये पाँच उत्पन्न होते हैं (अर्थात निर्णय लेते हैं): उसका जीवन (अर्थात दीर्घायु), कर्म, धन, विद्या और मृत्यु। जिस प्रकार कुम्हार निर्जीव गांठ से जो चाहे बना देता है, उसी प्रकार पहले किए गए कर्म कर्ता के पीछे चले जाते हैं। कोई अपने कर्मों के अनुसार देवता, या मनुष्य, या जानवर, या पक्षी, या निचला जानवर, या स्थिर वस्तु बन जाता है।वह हमेशा उसी के अनुसार आनंद लेता है जो उसके द्वारा पूरा किया जाता है - दुख उसके अपने कार्यों से उत्पन्न होता है; ख़ुशी व्यक्ति के अपने कर्मों से मिलती है। गर्भ शैया प्राप्त करके वह अपने पूर्व शरीर के कर्मों (अर्थात पूर्व जन्म में किये गये कर्मों) का फल भोगता है। पृथ्वी पर मनुष्य अपने कर्मों का फल कभी नहीं त्यागते (अर्थात् कभी नहीं छोड़ सकते)। वे

अपनी शक्ति या बुद्धि से उन्हें बदलने में सक्षम नहीं हैं। वे पुण्य कर्मों, दुखों और सुखों का आनंद लेते हैं। किसी कारण तक पहुंचकर (अर्थात् कारण से) मनुष्य सदैव अपने कर्मों के बंधन से बंधा रहता है। 

जैसे हजारों गायों में से एक बछड़ा अपनी माँ को खोज लेता है, उसी प्रकार शुभ या अशुभ कर्मों का फल - जो 'भोग (या दुःख) के अलावा नष्ट नहीं होता है - अपने कर्ता के पीछे-पीछे जाता है। पूर्व जन्म में किये गये कर्म का फल कौन बदल सकता है? जो बहुत तेज दौड़ता है, उसके कर्म का फल भी उसका पीछा करता है। पूर्व जन्म के कर्मों का फल, जैसा कि किया गया था, सोने वाले के साथ सोता है। यह उसके साथ खड़ा रहता है जो खड़ा रहता है, और जो चलता है उसका अनुसरण करता है। जो कार्य करता है, उसके कर्म का फल; यह उसकी छाया की तरह उसका पीछा करता है।

जिस प्रकार छाया और प्रकाश सदैव एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं, उसी प्रकार एक कार्य और उसके कर्ता आपस में जुड़े होते हैं। ग्रह, रोग, विषैले साँप, राक्षसियाँ [2] तथा राक्षस सबसे पहले अपने ही कर्मों से पीड़ित मनुष्य को कष्ट देते हैं।जिसे किसी स्थान पर सुख भोगना होता है या दुख भोगना होता है, वह वहां रस्सी से बंधा होता है, भाग्य उसे बलपूर्वक ले जाता है। सुख या दुख देने में भाग्य ही प्राणियों का स्वामी होता है। हे बुद्धिमान, जागते या सोते रहने से एक प्रकार से कर्म की कल्पना की जाती है और नियति उसे दूसरा मोड़ देकर नष्ट कर देती है। 

यह उसकी रक्षा करता है जिसकी रक्षा की जानी चाहिए (अर्थात जिसकी वह रक्षा करना चाहता है) उसे हथियार, आग, जहर या कठिनाइयों से बचाता है। सचमुच जिसकी रक्षा नहीं की जा सकती, नियति इसी प्रकार उसकी रक्षा करती है।जो नियति द्वारा नष्ट कर दिया जाता है, उसकी रक्षा कभी नहीं की जा सकती। जैसे भूमि में बोए गए बीज और धन पहले (सुप्त) रहते हैं और (फिर) बढ़ते (सक्रिय) होते हैं, उसी प्रकार आत्मा में कर्म (अक्षुण्ण) रहते हैं और (फिर) सक्रिय हो जाते हैं। जैसे तेल के समाप्त हो जाने से अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार कर्मों के फल के समाप्त हो जाने से जीव अपने शरीर से नाश को प्राप्त हो जाता है (अर्थात् चला जाता है); 

क्योंकि जो लोग सत्य को जानते हैं वे कहते हैं कि मृत्यु (किसी के) कर्मों के (फलों की) समाप्ति के कारण होती है। उसकी मृत्यु का कारण विभिन्न जीव-जंतु और रोग हैं। 'इस प्रकार यह मेरे पूर्व अस्तित्व के कर्मों का पकना है। यह अन्यथा नहीं है. यह (अब) निश्चित रूप से इस महिला के रूप में (मेरे पास) आया है; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। अभिनेताओं, नर्तकों और बार्डों को मेरे घर आना पड़ता था; उनके सम्पर्क से मेरे शरीर में बुढ़ापा आ गया है। मेरा मानना ​​है कि सब कुछ (अर्थात्) किसी के (पूर्व अस्तित्व में) कर्मों के कारण होता है, क्योंकि यह (अब) निश्चित रूप से उत्पन्न हो चुका है।

68 (क). इसलिये कर्म ही प्रधान हैं; प्रयास बेकार हैं.

68 (ख)-74. पूर्वकाल में देवताओं के राजा ने मुझे (स्वर्ग में) ले जाने के लिए मातलि नामक सर्वश्रेष्ठ दूत भेजा था । मैंने उनकी बात (अर्थात जो उन्होंने मुझसे कहा था) वैसा नहीं किया। अब मैं उन कर्मों का पकना देख रहा हूं।' वह (ययाति) इस प्रकार चिंता से भरा हुआ था, और महान दुःख से उबर गया था। (उसने सोचा:) 'यदि मैं ख़ुशी से वह नहीं करूँगा जो वह कहती है, तो सत्यता और धर्मपरायणता दोनों चली जाएँगी (अर्थात नष्ट हो जाएँ); इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। मेरे कर्मों के अनुसार जो निश्चय हुआ वह आ गया; (जो पूर्वनिर्धारित है) अवश्य घटित होगा। नियति पर विजय पाना कठिन है।' पृथ्वी के स्वामी ययाति इस प्रकार विचार में लीन थे। उन्होंने संकट हरने वाले कृष्ण , हरि की शरण मांगी , उनका ध्यान करके, उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति की: 'हे आप जिन्हें लक्ष्मी प्रिय हैं, मेरी रक्षा करें जिन्होंने आपकी शरण ली है।'

फ़ुटनोट और संदर्भ:

[1] :

"कर्मदायादिवाणोके" संभवतः एक भ्रष्ट वाचन है। (ईडी।)

[2] :

साकिनी - एक प्रकार की महिला, दुर्गा की परिचरिका को राक्षसी या परी माना जाता है।


  पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डःअध्याय-82)


              "सुकर्मोवाच-
एवं चिंतयते यावद्राजा परमधार्मिकः ।
तावत्प्रोवाच सा देवी रतिपुत्री वरानना ।१।

किमु चिंतयसे राजंस्त्वमिहैव महामते ।
प्रायेणापि स्त्रियः सर्वाश्चपलाः स्युर्न संशयः ।२।

नाहं चापल्यभावेन त्वामेवं प्रविचालये ।
नाहं हि कारयाम्यद्य भवत्पार्श्वं नृपोत्तम ।३।

अन्यस्त्रियो यथा लोके चपलत्वाद्वदंति च ।
अकार्यं राजराजेंद्र लोभान्मोहाच्च लंपटाः ।४।

लोकानां दर्शनायैव जाता श्रद्धा ममोरसि ।
देवानां दर्शनं पुण्यं दुर्लभं हि सुमानुषैः ।५।

तेषां च दर्शनं राजन्कारयामि वदस्व मे ।
दोषं पापकरं यत्तु मत्संगादिह चेद्भवेत् ।६।

एवं चिंतयसे दुःखं यथान्यः प्राकृतो जनः ।
महाभयाद्यथाभीतो मोहगर्ते गतो यथा ।७।

त्यज चिंतां महाराज न गंतव्यं त्वया दिवि ।
येन ते जायते दुःखं तन्न कार्यं मया कदा ।८।

एवमुक्तस्तथा राजा तामुवाच वराननाम् ।
चिंतितं यन्मया देवि तच्छृणुष्व हि सांप्रतम् ।९।

मानभंगो मया दृष्टो नैव स्वस्य मनःप्रिये ।
मयि स्वर्गं गते कांते प्रजा दीना भविष्यति।१०।

त्रासयिष्यति दुष्टात्मा यमस्तु व्याधिभिः प्रजाः।
त्वया सार्धं प्रयास्यामि स्वर्गलोकं वरानने ।११।

एवमाभाष्य तां राजा समाहूय सुतोत्तमम् ।
पूरुं तं सर्वधर्मज्ञं जरायुक्तं महामतिम् ।१२।

एह्येहि सर्वधर्मज्ञ धर्मं जानासि निश्चितम् ।
ममाज्ञया हि धर्मात्मन्धर्मः संपालितस्त्वया ।१३।

जरा मे दीयतां तात तारुण्यं गृह्यतां पुनः ।
राज्यं कुरु ममेदं त्वं सकोशबलवाहनम् ।१४।

आसमुद्रां प्रभुंक्ष्व त्वं रत्नपूर्णां वसुंधराम् ।
मया दत्तां महाभाग सग्रामवनपत्तनाम् ।१५।

प्रजानां पालनं पुण्यं कर्तव्यं च सदानघ ।
दुष्टानां शासनं नित्यं साधूनां परिपालनम् ।१६।

कर्तव्यं च त्वया वत्स धर्मशास्त्रप्रमाणतः ।
ब्राह्मणानां महाभाग विधिनापि स्वकर्मणा ।१७।

भक्त्या च पालनं कार्यं यस्मात्पूज्या जगत्त्रये।
पंचमे सप्तमे घस्रे कोशं पश्य विपश्चितः।१८।

बलं च नित्यं संपूज्यं प्रसादधनभोजनैः ।
चारचक्षुर्भवस्व त्वं नित्यं दानपरो भव ।१९।

भव स्वनियतो मंत्रे सदा गोप्यः सुपंडितैः ।
नियतात्मा भव स्वत्वं मा गच्छ मृगयां सुत।२०।

विश्वासः कस्य नो कार्यः स्त्रीषु कोशे महाबले ।
पात्राणां त्वं तु सर्वेषां कलानां कुरु संग्रहम्।२१।

यज यज्ञैर्हृषीकेशं पुण्यात्मा भव सर्वदा ।
प्रजानां कंटकान्सर्वान्मर्दयस्व दिने दिने ।२२।

प्रजानां वांछितं सर्वमर्पयस्व दिने दिने ।
प्रजासौख्यं प्रकर्तव्यं प्रजाः पोषय पुत्रक।२३।

स्वको वंशः प्रकर्तव्यः परदारेषु मा कृथाः।
मतिं दुष्टां परस्वेषु पूर्वानन्वेहि सर्वदा ।२४।

वेदानां हि सदा चिंता शास्त्राणां हि च सर्वदा।
कुरुष्वैवं सदा वत्स शस्त्राभ्यासरतो भव।२५।

संतुष्टः सर्वदा वत्स स्वशय्या निरतो भव ।
गजस्य वाजिनोभ्यासं स्यंदनस्य च सर्वदा ।२६।

एवमादिश्य तं पुत्रमाशीर्भिरभिनंद्य च ।
स्वहस्तेन च संस्थाप्य करे दत्तं स्वमायुधम् ।२७।

स्वां जरां तु समागृह्य दत्त्वा तारुण्यमस्य च ।
गंतुकामस्ततः स्वर्गं ययातिः पृथिवीपतिः ।२८।


अध्याय 82 - ययाति ने अपना बुढ़ापा वापस ले लिया

सुकर्मन ने कहा :

1-8. जब राजा इस प्रकार सोच में डूबे हुए थे, तब रति की सुंदर पुत्री ने कहा: "हे अत्यंत बुद्धिमान राजा, आप अभी क्या सोच रहे हैं? इसमें कोई शक नहीं कि ज्यादातर महिलाएं चंचल होती हैं। मैं तुम्हें चंचलता से दूर नहीं ले जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ राजा, मैं आज किसी कपटपूर्ण उपाय का उपयोग नहीं कर रही हूं, (बोलकर) जैसा कि अन्य लालची महिलाएं बोलती हैं, कुछ ऐसा जो लालच और भ्रम के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। मेरे हृदय में समस्त लोकों को देखने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई है।देवताओं का दर्शन पुण्यदायी है और सज्जनों को भी प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। 

हे राजा, मुझसे कहो कि तुम मुझे देवताओं के दर्शन कराओगे।दूसरे साधारण मनुष्य की भाँति महान् दुःख से भयभीत होकर मोह की खाई में गिरे हुए आप यह सोच रहे हैं कि क्या अब मेरी संगति से कोई महान् पाप होगा। 

अपनी चिंता छोड़ो; तुम्हें स्वर्ग नहीं जाना चाहिए. मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी जिससे तुम्हें दुःख पहुंचे।”

9-11. राजा ने (उसके द्वारा) संबोधित करते हुए, उस सुंदर महिला से कहा: “हे आदरणीय महिला, अब मैंने जो सोचा है उसे सुनो। मैं (यहाँ) अपना अपमान देखता हूँ, अपने मन की (संतुष्टि) नहीं देखता। हे प्रिय, जब मैं स्वर्ग जाऊंगा, तो मेरी प्रजा असहाय हो जाएगी। दुष्ट मन वाले यमराज मेरी प्रजा को रोगों से परेशान करेंगे। हे सुंदरी, तब  मैं तुम्हारे साथ स्वर्ग क्यों जाऊंगा।

12-26. इस प्रकार उससे बात करके और अपने सबसे अच्छे बेटे पुरु को बुलाकर , जो वृद्ध और महान बुद्धि वाला था । राजा ने उससे कहा:) "चलो, हे पुरु! तुम जो सभी पारंपरिक अनुष्ठानों को जानते हो, तुम निश्चित रूप से अपना कर्तव्य जानते हो। हे धार्मिक विचारधारा वाले, तुमने मेरे आदेश से धर्मपरायणता बनाए रखी है। हे पुत्र, मुझे (मेरा) बुढ़ापा वापस दे दो, और (अपनी) जवानी वापस ले लो। धन, सेना और वाहनों सहित मेरे इस राज्य की रक्षा करो।

मेरे द्वारा (तुम्हें) दी गयी रत्नों से भरी पृथ्वी का, गाँवों, वनों और नगरों सहित पालन कर जीवन व्यती करते हुए आनन्द उठाओ।

हे निष्पाप, तुम्हें पुण्यदायी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए; पवित्र ग्रंथों के आधार पर तुम्हें हमेशा दुष्टों को दंडित करना चाहिए और अच्छे लोगों की रक्षा करनी चाहिए। हे गौरवशाली, आपको अपने कर्मों द्वारा भक्तिपूर्वक और नियमों के अनुसार ब्राह्मणों की रक्षा करनी चाहिए , क्योंकि वे तीनों लोकों में सम्मान के पात्र हैं। हर पांचवें या सातवें दिन खजाने का निरीक्षण करें और विद्वानों से मिलें।तुम्हें हमेशा अपनी सेना का समर्थन करके और उन्हें धन और भोजन देकर उनका सम्मान करना चाहिए। अपने गुप्तचरों को सदैव अपनी आँखें बनाकर काम में लो और सदैव परोपकार में लगे रहो। अपने परामर्श में हमेशा संयमित रहें, क्योंकि इसकी राज्य की रक्षा हमेशा बहुत बुद्धिमान लोगों द्वारा की जाती है। हे पुत्र, तू सदैव अपने ऊपर नियंत्रण रख; शिकार करने मत जाओ. किसी पर भी भरोसा मत करो - महिलाओं पर, खजाने पर या अपनी महान सेना पर भी। 

सदैव योग्य व्यक्तियों और सभी कलाओं का संग्रह करें। यज्ञों से विष्णु की अवश्य पूजा करो 

और सदैव सदाचारी रहो। प्रजा में उपद्रव फैलाने वाले स्रोतों को प्रतिदिन कुचल डालो। प्रतिदिन अपनी प्रजा को वह सब कुछ दो जो वह चाहती है। प्रजा को सुख दो, प्रजा का पालन करो, हे पुत्र ! अपने ही परिवार में (केवल एक महिला अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध) रखें; किसी और की पत्नी के साथ ऐसा न करें. दूसरे के धन के बारे में बुरा मत सोचो; सदैव अपने पूर्वजों का अनुसरण करो। 

सदैव वेदों और पवित्र ग्रंथों का मनन करो; हे बालक, शस्त्र विद्या के अध्ययन में लग जाओ। हे वत्स!, सदैव सन्तुष्ट रहो और अपनी शय्या (अर्थात् पत्नी) के प्रति समर्पित रहो। सदैव हाथियों, घोड़ों और रथों का अध्ययन करो।”

27-28. इस प्रकार अपने पुत्र को उपदेश देकर,और  आशीर्वाद देकर अभिनन्दन करके, अपने हाथ से उसे (सिंहासन पर बैठाकर) ययाति ने अपना दण्ड उसके हाथ में दे दिया।तब पृथ्वी के स्वामी ययाति ने (पुरु से) उसका बुढ़ापा वापस लेकर (अपनी जवानी) उसे दे दी और गोलोक( वैकुण्ठ का ऊपरी लोक) जाने की इच्छा की।

अध्याय 83 - ययाति ने दिव्य लोकों का दौरा किया

सुकर्मन ने कहा :

1-5. पृथ्वी के स्वामी ने ययाति ने सभी हिस्सों से सभी प्रजा को बुलाकर अत्यंत प्रसन्नता से कहा, "हे मेरी प्रजा में श्रेष्ठ लोगों सुनो! - ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र , मैं इस महिला के साथ जा रहा हूं।" इंद्र का स्वर्ग, ब्रह्मा का लोक, रुद्र का लोक और फिर विष्णु के वैकुण्ठ में, सभी पापों को नष्ट करके मोक्ष का कारण बनता है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

 (अपने) परिवार सहित (तुम) पृथ्वी पर सुखपूर्वक रहो। हे प्रजा, मैंने इस गौरवशाली और बुद्धिमान पुरु को आपका संरक्षक और राजदंडधारी राजा नियुक्त किया है।

5-13. इस प्रकार संबोधित करते हुए, उन सभी विषयों में राजा से कहा: “हे श्रेष्ठ राजा, (अर्थात्) सभी वेदों और पुराणों में हम धर्म के बारे में सुनते हैं ; लेकिन जैसा कि हमने देखा, किसी ने भी धर्म को नहीं देखा, जैसा कि नहुष के महान घर में पैदा हुआ ययाति  (यानी आप), दस घटकों में से एक, चंद्र वंश में, सत्य से प्यार करने वाले, हाथ, पैर और चेहरे वाला, सभी (अच्छे) का प्रचार करने वाले अभ्यास, आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान से संपन्न, और धार्मिक गुणों का एक बड़ा खजाना, गुणों की खान और सत्य में कुशल, हे महान राजा आप हो।

सत्यवादी और अत्यधिक तेजस्वी लोग महान गुणों का अभ्यास करते हैं। हमने आप में वह धर्म देखा है, जो वांछनीय रूप (या कामदेव के समान सुंदर), (हमारी) इच्छाओं को पूरा करने वाला और इतना सत्य बोलने वाला है। तीन प्रकार के कृत्यों (अर्थात शरीर, मन और वाणी) के साथ भी हम आपको त्यागने में असमर्थ हैं,।

आप जहां भी जाएंगे, हम खुशी से और सहमति से आप के साथ  जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम जहां रहोगे (अर्थात यदि तुम नरक में रहोगे तो) हम नरक में ही होंगे। हे महान राजा, आपके बिना पत्नी, भोग या जीवन का क्या लाभ? हमारा उससे (अर्थात् पत्नी आदि) से कोई लेना-देना नहीं है। हे राजाओं के स्वामी ययाति, हम तो तेरे संग ही चलेंगे; यह अन्यथा नहीं होगा।”

14-26. प्रजा की ये बातें सुनकर पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अत्यंत प्रसन्नता से भरकर प्रजा से कहा, "हे सभी मेधावी लोगों, मेरे साथ आओ।" कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती को लेकर राजा रथ पर चढ़ गये। (वह) नहुष के पुत्र ययाति , देवताओं के स्वामी इंद्र की तरह चमकते थे, उनके रथ का रंग हंसों जैसा और चंद्रमा की कक्षा के समान था; 

वह चाउरी और प्रशंसकों द्वारा प्रशंसित होने के संकट से मुक्त था (जैसा कि वह था); वह भी उस भाग्यशाली, शुभ और महान ध्वजा से चमक उठा। 

ऋषि-मुनियों, पंडितों और गायकों के साथ-साथ उनकी प्रजा भी उनकी प्रशंसा करती थी। तब उसकी सारी प्रजा वाहनों में सवार होकर मनुष्यों के स्वामी के पास पहुंची; और वे हाथियों और घोड़ों के साथ (अर्थात् उन पर चढ़कर) वैकुण्ठ की ओर चले गए।

वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य सामान्य लोग थे। वे सभी विष्णु के अनुयायी थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे । उनके झण्डे श्वेत थे और सुनहरी डंडियों से सुशोभित थे। (वह सभी एक वर्ण वैष्णव के लोग हो गये)

सभी पर शंख और चक्र अंकित थे और उनके पास दण्ड और ध्वज थे। हवा से प्रेरित बैनर प्रजा की भीड़ के बीच चमक उठे। सभी (प्रजा) ने दिव्य मालाएँ पहन रखी थीं और तुलसी के पत्तों से सुशोभित थे। उनके शरीर पर दिव्य चंदन और (दिव्य काले देवदारु और चन्दन) की लकड़ी का लेप लगाया गया था। वे दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित थे और दिव्य आभूषणों से अलंकृत थे। वे सभी सुन्दर लोग राजा के पीछे चलने लगे। सारी प्रजा - हजारों, सैकड़ों, लाखों और करोड़ों की संख्या में लोग , और अरव , खर्व (अर्थात् 10,000,000,000) जैसी बहुत बड़ी संख्या में लोग (राजा के साथ) चले गए। वे सभी, विष्णु के अनुयायी, मेधावी कार्य करते हुए, विष्णु के ध्यान में, पवित्र नामों के जाप में और दान में राजा के साथ चले गए।

सुकर्मन ने कहा :

26-30. हे महान राजा, वे सभी बड़े हर्ष से भरे हुए (राजा के साथ) आगे बढ़े, अपने पुत्र पुरु को अपने सिंहासन पर बैठाया, जिससे पृथ्वी के स्वामी ययाति विष्णु के लोक में चले गए। उनके तेज, धार्मिक गुण और धर्मपरायणता के कारण वे सभी लोग विष्णु के सर्वोत्तम लोक वैकुण्ठ ( गोलोक) में चले गये। तब देवताओं के राजा के साथ, गंधर्वों , किन्नरों और भांडों के साथ देवता उनके सामने आए (उनका स्वागत करने के लिए), हे श्रेष्ठ राजा, उन राजाओं का सम्मान करते हुए।

इंद्र ने कहा :

30. हे महान राजा, आपका स्वागत है। मेरे घर में प्रवेश करो.

31. यहां अपनी इच्छानुसार सभी दिव्य सुखों का आनंद उठायें।

राजा ने कहा :

31-40. हे सहस्र नेत्रों वाले, अत्यंत बुद्धिमान भगवान, मैं आपके कमल-सदृश चरणों को नमस्कार कर रहा हूँ। फिर मैं ब्रह्मा के लोक में जाऊंगा।

देवताओं द्वारा प्रशंसा किये जाने पर वह ब्रह्मा के लोक में चला गया। अत्यंत तेजस्वी ब्रह्मा ने उत्कृष्ट ऋषियों के साथ उनके पैर धोने के लिए जल, आदरपूर्वक प्रसाद और उत्कृष्ट आसन देकर उनका आतिथ्य सत्कार किया; (और) उससे कहा: "अपने कर्मों के बल से विष्णु के वैकुण्ठ में जाओ।" विधाता के इस प्रकार कहने पर वह शिव के घर गया। उमा (अर्थात पार्वती ) के साथ शिव ने उसी राजा का आतिथ्य सत्कार किया और राजा से ये शब्द कहे:

"कृष्णभक्तोसि राजेंद्र ममापि सुप्रियो भवान् ।
ततो ययाते राजेंद्र वस त्वं मम मंदिरम्।३६।

सर्वान्भोगान्प्रभुंक्ष्व त्वं दुःखप्राप्यान्हि मानुषैः ।
अंतरं नास्ति राजेंद्र मम विष्णोर्न संशयः।३७।

अनुवाद:-

हे राजाओं के राजा, आप कृष्ण के भक्त हैं , आप मुझे भी बहुत प्रिय हैं; इसलिए, हे राजाओं के स्वामी ययाति, मेरे लोक में रहो। उन सभी सुखों का आनंद लें जो मनुष्य को प्राप्त करना कठिन है।

हे राजाओं के स्वामी, विष्णु और मुझमें निश्चित रूप से कोई अंतर नहीं है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो विष्णु का रूप है वह शिव है, और हे राजा, जो शिव है वह प्राचीन विष्णु है। दोनों में कोई अंतर नहीं है. इसलिये मैं ही (इस प्रकार) बोलता हूँ। मैं विष्णु के एक मेधावी भक्त को (अपने निवास में) स्थान देता हूं। इसलिए, हे निर्दोष महान राजा, आपको यहीं रहना चाहिए।

40-43. शिव द्वारा इस प्रकार संबोधित किए जाने पर, विष्णु के प्रिय ययाति ने, भक्ति में अपनी गर्दन (अर्थात सिर) झुकाकर, देवताओं के स्वामी शिव को नमस्कार किया, (और उनसे कहा:) "हे महान भगवान, आपने जो कुछ भी कहा है वह उचित है . आप दोनों में कोई अंतर नहीं है. यह दो भागों में विभाजित एक रूप है। मैं विष्णु के पास (वैकुण्ठ) जाने की इच्छा रखता हूँ; मैं आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ।” “हे महान राजा, ऐसा ही हो; विष्णु के लोक  को जाओ।”

43-65. (इस प्रकार) शिव द्वारा निर्देशित, पृथ्वी के स्वामी, विष्णु के बहुत मेधावी भक्तों के साथ, विष्णु के प्रिय राजा - उनके सामने नृत्य करते हुए (विष्णु के लोक की ओर) आगे बढ़े। वह महापापों का नाश करने वाले शंख-ध्वनि और सिंहों की बहुत सी दहाड़ें, बहुत सी (अन्य) ध्वनियों के साथ, अच्छे पंडितों द्वारा पूजे जाने वाले, (उनकी स्तुति) शास्त्रों में कुशल पाठकों द्वारा मधुर स्वर में गाए जाने पर, (आगे बढ़ गए) गाने में उत्सुकता से लगे गंधर्वों ने उनके सामने गाना गाया। ऋषि-मुनियों के साथ-साथ देवताओं की टोली भी उनकी स्तुति कर रही थी। नहुष के उस पुत्र की सेवा सुंदर दिव्य युवतियाँ कर रही थीं। उस महान राजा की प्रशंसा मेधावी और शुभ गंधर्वों, किन्नरों, सिद्धों , साधुओं, साध्यों , विद्याधरों , मरुतों और वसुओं द्वारा की जाती है , साथ ही रुद्र और आदित्यों के समूहों द्वारा, और अभिभावकों और देवताओं द्वारा, और तीनों लोकों द्वारा की जाती है। चारों ओर, विष्णु का अतुलनीय और कुण्ठा रहित लोक वैकुण्ठ( गोलोक) देखा। हे राजा, वह उत्कृष्ट और सर्वश्रेष्ठ नगर स्वर्णिम,  दिव्य यानों  से चमक रहा था, सभी सुंदरता से भरा हुआ था, सौ मंजिला हवेली थी जिसमें हंस, कुंड  (फूल) या चंद्रमा की तरह सफेद महालय( महल) थे, और मेरु और मंदार के समान थे। वे पर्वत जिनकी चोटियाँ स्वर्ग और आकाश को छूती थीं, और जिनके शिखरों पर चमकीले सुनहरे घड़े थे।वह बहुत से तारों वाले आकाश के समान तेज से चमका; धधकती हुई चमक की लपटों के साथ वह मानो आँखों से देख रहा था। हे राजाओं के देव, उस शिव के लोक ने, अनेक रत्नों से युक्त, हँसते हुए दाँत दिखाते हुए, और पत्ते उछालते हुए ध्वज के बहाने, विष्णु के प्रिय, मेधावी भक्तों को आमंत्रित किया। 

वह हर जगह हवा से उछाले गए आकर्षक बैनरों के शीर्षों, सुनहरे डंडों और घंटियों से सुशोभित था। वह सूर्य की चमक के समान (उज्ज्वल) दिखने वाले द्वारों और निगरानी टावरों से चमक रहा था, सुंदर गोल खिड़कियों, जाली की पंक्तियों और चौड़े मार्गों की चमक वाली खिड़कियों, और सुनहरे प्राचीरों, मेहराबों, अच्छे बैनरों और कई बहुत ही शुभ ध्वनियों के साथ, घड़ों के शीर्षों से युक्त, दर्पण जैसा चक्र जो चमक में सूर्य के गोले के समान होता है, महान शोभा के साथ, पानी से रहित बादलों के समान सैकड़ों निजी कक्षों के साथ, कर्मचारियों और छतरियों और घड़ों से भरे हुए, बरसात के मौसम में बादलों के समान कक्षों के साथ, और (इतने सारे) घड़ों से पृथ्वी ऐसी दिखाई देती थी, मानो आकाश तारों से भरा हो। विष्णु की नगरी बहुत से तारों के समान चमक वाली, शंख या चंद्रमा के समान दिखने वाली, स्फटिक की वस्तुओं के आकार की, शंख या चंद्रमा के समान चमकने वाली, बहुत सी धातुओं से बने सोने के महलों और  की भीड़ के साथ, बहुत सारी छड़ियों और बैनरों से सुंदर लग रही थी, दस करोड़ और हज़ारों करोड़ों की संख्या में दिव्य विमानो के साथ; और सभी आनंद के साथ. वे मनुष्य, विष्णु के भक्त, धार्मिक कर्मों वाले और अपने सभी पापों को धोकर, उनकी कृपा से उन घरों में रहते हैं, जो पूरी तरह से मेधावी, दिव्य और सभी सुखों से समृद्ध हैं।

65-75. विष्णु का लोक इस प्रकार की उत्कृष्ट (वस्तुओं) से सुशोभित था। वह सर्वत्र नाना प्रकार के वृक्षों से भरा हुआ था, चंदन के वृक्षों से सुशोभित था, सभी वांछित फलों से युक्त था। यह कुओं, तालाबों और सारस से सुशोभित झीलों से चमकता था, उसी प्रकार हंसों और बत्तखों से भरी झीलों से भी, सफेद कमलों से सुशोभित, (अन्य) कमल, बड़े सफेद कमल, (अन्य प्रकार के) कमल और नीले कमल, और (अन्य) से सुशोभित था। ) सुनहरे कमल के समान रंग वाला (अर्थात् सदृश)। वैकुण्ठ (अर्थात विष्णु का लोक) सभी सौंदर्य से समृद्ध था, दिव्य उद्यानों से सुशोभित था, दिव्य आकर्षण से भरा था और विष्णु के भक्तों से सुशोभित था। राजा ने (यह) वैकुण्ठ, मोक्ष का अतुलनीय स्थान देखा। नहुष के पुत्र ययाति ने देवताओं की सेना से भरे हुए और किसी भी प्रकार के भयंकर तीव्र ताप  से मुक्त उस सुंदर शहर में प्रवेश किया। उसने देखा कि विष्णु, सभी कष्टों का नाश करने वाले, किसी भी क्षति से मुक्त, दिव्य विमानो से चमकने वाले, सभी आभूषणों से देदीप्यमान, पीले वस्त्र पहने हुए, श्रीवत्स से चिह्नित , और बहुत चमकदार, श्री के साथ गरुड़ पर चढ़े हुए , सर्वोच्च से भी ऊंचे , - सर्वोच्च देवता, सभी संसारों के आश्रय, (जो) सर्वोच्च आनंद के रूप में पूर्ण वैराग्य के साथ चमकते थे, और विष्णु के महान, बहुत मेधावी भक्तों द्वारा उनकी सेवा की जा रही थी।

76-79. पृथ्वी के स्वामी ने, अपनी पत्नी के साथ, नारायण (अर्थात विष्णु) को नमस्कार किया, जो देवताओं के समूह से भरे हुए थे, गंधर्वों और दिव्य अप्सराओं के समूहों द्वारा प्रतीक्षा कर रहे थे, जो उदार थे और जिन्होंने सभी कष्टों को दूर कर दिया था। राजा के साथ गए विष्णु के सभी भक्तों ने विष्णु को नमस्कार किया, हे परम बुद्धिमान! हे अत्यंत बुद्धिमान, उन्होंने भक्तिपूर्वक उनके दोनों चरणों को नमस्कार किया। विष्णु ने उस तेजस्वी राजा से कहा, जो तेज से चमक रहा था और जो उसे नमस्कार कर रहा था: “हे अच्छे व्रत वाले, मैं तुमसे प्रसन्न हूं। हे राजाओं के स्वामी, जो वरदान तुम्हारे मन में हो, वह माँग लो; मैं इसे तुम्हें अवश्य प्रदान करूंगा। तुम मेरे भक्त हो, हे अत्यंत बुद्धिमान ययाति।”

राजा ने कहा :

80. हे मधुसूदन , हे देवताओं के स्वामी, यदि आप प्रसन्न हैं, तो हे लोकों के स्वामी, मुझे सदैव अपनी दासता प्रदान करें (अर्थात मुझे अपना दास बना लें)।

विष्णु ने कहा :

81-83. हे गौरवशाली, ऐसा ही हो; तुम निःसंदेह मेरे भक्त हो; हे महान राजा, इस महिला के साथ आप मेरे वैकुण्ठ अथवा गोलोक में रह सकते हैं।

पृथ्वी के स्वामी, महान राजा ययाति, इस प्रकार संबोधित करते हुए, उस भगवान की कृपा से, विष्णु के उत्कृष्ट वैकुण्ठ में रहते थे, जो सुशोभित था।



महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के-से रूप में अवतार लिया था। 

यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। 

सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ।
शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। 

हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।


श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।

वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। 

इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।

सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। 

इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। 
उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे।

बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।

जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ।

 तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये।

 महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।

 उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। 

मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। परीक्षित! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों[1] का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।

परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं।

 इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। 

उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। 

उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।
 उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। 


एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ 

ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’।

 राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।

 फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। 

उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।


श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-


विदर्भ के वंश का वर्णन
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद।

 रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि।

राजन! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए। 

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क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम।

 व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ। दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। 

अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।
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परीक्षित! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

 देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं।
 बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’ 

सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।

परीक्षित! वृष्णि‡‡

 के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। 

अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था। वृष्णि‡‡‡   के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। 

अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। 

आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।


श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-

उग्रसेन के नौ लड़के थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।

चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। 

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हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।

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 देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।

 ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। 

वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।

वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी। 


परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। 

उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। 

उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ। वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।



श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद:-

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं। रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। 

उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।

परीक्षित! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये।

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 परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी। उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।

जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं। परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।



श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का हिन्दी अनुवाद:-

उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।

परीक्षित! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी।

लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया। फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।



सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।
अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)
अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।      सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।
पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत:।।२८।।
अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहते हैं परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।
किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।
(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु:पञ्चैवमूर्तय:। यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।
अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 
उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३०।।
अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।
मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।
अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (गिरिभानु/ सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनन्द जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्तिका कौन वर्णन कर सकता है।३६।
तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।
अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ
उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 
" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात  उन श्री उपनन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
हम भी इसी प्रकार के महानुभावों से अनुप्रेरित हैं 
क्योंकि ज्ञान एक "तपस्साधना" से प्रादुर्भूत अनुभवपुञ्ज है ! 


 इस ऐतिहासिक विवेचनात्मक सन्दर्भों के प्रस्तुतिकरण के शुभ अवसर  पर  आज के समय में कृष्ण जीवन  के ऐतिहासिकता पूर्ण  प्राचीन गूढ़ तथ्यों का अनावरण करने में हमारे सम्बल और अहीर जाति के स्वाभिमान के भविष्य का उज्ज्वल कल  परम सात्विक सन्त हृदय श्री आत्मानन्द की पावन प्रेरणाओं सेअनुप्रेरित होकर साधक व्यक्तित्व-  श्री माताप्रसाद जी  हमारे साथ वर्तमान हैं। इसके अतिरिक्त हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण पूर्ण लेखन काल मे  सम्बल के रूप में श्रद्धेय आत्मानन्द जी से अनवरत विमर्श होता रहा है। एतदर्थ वे श्रद्धा और साधुता के पात्र हैं।

आज हम पुन: वैष्णव वर्ण और तदनुरूप भागवत धर्म की आवश्यकता मानव की आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिए अति आवश्यक है।

 इतिहास के उन बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही क्रियान्वयन कर रहे हैं ;

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जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं। 
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
१-कृष्ण के पितामह—पर्जन्य।
२-पितामही–वरीयसी। 
कृष्ण की पालिका माता यशोदा के पिता- माता जिनके साथ कृष्ण के नाना नानी का सम्बन्ध होने पर -३-मातामह—-सुमुख-। ४-मातामही –पाटला-। 
(सुमुख और पाटला यशोदा के माता-पिता)
★-कृष्ण के ताऊ ( नन्द को पिता मानने पर)
५-तातगु-(ताऊ) — उपनन्द एवं अभिनन्द।
६-ताई— क्रमश: तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
७-पीवरी (अभिनन्द की पत्नी)।
८-चाचा — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन । 
९-चाची — क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), 
१०-अतुल्या (नन्दन की पत्नी) ।
११-फूफा (वपस्वसापति)-महानील एवं सुनील ।
१२-बुआ क्रमश:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), 
१३-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी)।
१४-कृष्ण के पिता—महाराज नन्द।
१५-बड़ी माता—महारानी रोहिणी-(वसुदेव की पत्नी एवं बलरामजी की जननी)। 
१६-माता—महारानी यशोदा । 
१७-मामा (यशोदा के चार भाई थे)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव।
१८-मौसा —मल्ल ( जिनकी पत्नी—यशस्विनी जो कृष्ण की मौसी ( मातृस्वसा थीं) (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
१९-मौसी—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा)। 
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२०-पितामह के समान पूज्य गोप —गोष्ठ, कल्लोल, करुण्ड, तुण्ड, कुटेर, पुरट आदि।
पितामही के समान पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — शिलाभेरी, शिखाम्बरा, भारुणी, भंगुरा,भंगी, भारशाखा, शिखा आदि।
२१-पिता के समकक्ष पूज्य गोप–कपिल, मंगल, पिंगल, पिंग, माठर, पीठ, पट्टिश, शंकर, संगर, भृंग, घृणि, घाटिक, सारघ, पटीर, दण्डी, केदार, सौरभेय, कलांकुर, धुरीण, धुर्व, चक्रांग, मस्कर, उत्पल, कम्बल, सुपक्ष, सौधहारीत, हरिकेश, हर, उपनन्द आदि। 
२‍२-माता के समान पूजनीया गोपांगनागण — वत्सला, कुशला, ताली, मेदुरा, मसृणा, कृपा, शंकिनी, बिम्बिनी, मित्रा, सुभगा, भोगिनी, प्रभा, शारिका, हिंगुला, नीति, कपिला, धमनीधरा, पक्षति, पाटका, पुण्डी, सुतुण्डा, तुष्टि, अंजना, तरंगाक्षी, तरलिका, शुभदा, मालिका, अंगदा, विशाला, शल्लकी, वेणा, वर्तिका आदि। 
इनके घर प्रायः आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — सुलता, गौतमी, यामी, चण्डिका आदि थीं। 


२३-मातामह के तुल्य पूज्य गोप — किल, अन्तकेल, तीलाट, कृपीट, पुरट, गोण्ड, कल्लोट्ट, कारण्ड, तरीषण, वरीषण, वीरारोह, वरारोह आदि। २४-मातामही के तुल्य पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — भारुण्डा, जटिला, भेला, कराला, करवालिका, घर्घरा, मुखरा, घोरा, घण्टा, घोणी, सुघण्टिका, ध्वांक्षरुण्टी हण्डि, तुण्डि, डिण्डिमा, मंजुवाणिका, चक्कि, चोण्डिका, चुण्डी, पुण्डवाणिका, डामणी, डामरी, डुम्बी, डंका आदि।
२५-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि। 
२६-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।२७-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
नित्य-सखा — 
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
 इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। 
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे। 
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि। 
(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
 इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं। 
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।

भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं। 
विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।
वेश-विन्यास की सेवा —प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।
मधुकन्दला। 
वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा —विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।
जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।
ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं। 
ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।
चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं। 
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि। धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं। गुप्तचर और भीड़
खराग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं। ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं। 
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं। 
दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं। 
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं।
वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं।
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं।
वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक —(नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।

रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं। 
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं। 
गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक। 
रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं। 
काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं। 
चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि। 
बलीवर्द (बैल) — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग)-इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।
हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।
मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।
तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं। 
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है। 
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।
घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है। 
निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं। 
कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है। लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है।
निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है।
दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है।
पंखा (व्यञ्जन) — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है। 
लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है। 


का धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है। 

वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामकी रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण —अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगल में स्थित हैं) —
इस प्रकार कुल आठ-चिह्न हैं।

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पिता — वृषभानु ।
माता — कीर्तिदा। 
पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु 
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा। 
भ्राता — श्रीदामा।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। 
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।
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(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं। 
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं। 
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं। 
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं। 
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। 
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं। 
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी। 
वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।
वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं।
व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं।
मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं।
इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है। 
यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी।
राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि। 
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि।
मुख्यदूती — महीसूर्या।

चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—श्रृंगारिका आदि। मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं।
ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं। श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं। सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण—रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।

गृह-स्नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो स्नापित—कन्याएँ करती हैं।यही इनको स्नान कराती हैं। अत: इस कारण से  स्नापिता संज्ञा इनकी सार्थक है। ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं।
गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं। 
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
 विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
                 कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं।    
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है। 
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा —ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं। 
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र।
हार — हरिमनोहर। रत्नताटंक जोड़ी — रोचन। घ्राणमुक्ता (बुलाक) — प्रभाकरी । पदक — मदन (इसके भीतर वे श्रीकृष्ण की प्रतिच्छवि छिपाये रहती हैं)। कटक (कडूला)-जोड़ा — चटकाराव। केयूर (बाजूबन्द)-जोड़ा — मणिकर्बुर।
मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं। 
मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी । 
यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है।
वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।
मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है। दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।
श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली।
 वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है। 
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है। 
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं। दाहिना पैर —अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं। 
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ —तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं, 
उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी है ।।  
 "राधा परिवार परिचय प्रकरण समाप्त "
गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109)

सन्दर्भ-ग्रन्थ  

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.. ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है।
भ्रातृपुत्रस्य  पुनर्ज्ञातय: स्मृता ।          गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८।   
"अर्थ- •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८। 
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥
(भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।)
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।    ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्।२३।


"देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवुर्महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्चगुणवत्यो राज्ञ्योरूपाभि:।१।

"अर्थ- - देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।

"अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।

"गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३।

"पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।           ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४।
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।

"गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा।           यादवालोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्चब्रुवन्ति।५।
अर्थ:-•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही संसार में गोप और आभीर कहलाते हैं ।५।

"आ समन्तात् भियं राति ददाति  शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति।६।
अर्थ •-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६।

"अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर:बभूव।७। 
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर  हुआ उससे "आवीर और आवीर  से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।

"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत । 
अर्थ:-:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।           
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 
"तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।        चत्वारोजज्ञिरेपुत्र लोकपालोपमा: शुभा:।४९"
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के 
"वसु वभ्रु:सुषेणश्च ,सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।       यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५०
सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए       
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: ।   तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।


अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।  स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
__________
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।  में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः।      करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये 
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥अर्थ •-प्राचीन  समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।        वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ(उसके पिता का नाम मधु  था ) वह वरदान पाकर  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।      निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥ अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।   

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥ ५९ ॥_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा।६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।   
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।    अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                   
 अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥    

यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो  ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये  ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों  का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता  आर्य  शब्द  परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो  वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।


अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।              कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।८।।
अर्थ:-भरत श्रेष्ठ ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। 
और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छ: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।      कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याःशूर आभीरा दशेरकाः।६।।
शका यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।
गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः।।८।
(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय) 
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।६-७ ।          
(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)

समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी,  तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु ,डकैत भी कहा है ।  

पारसी ग्रंथ "शातीर" में व्यास जी का उल्लेख है-ये ईसापूर्व अष्टम सदी जुरथुस्त्र" के समकालीन थे। उनके जीवन काल का अनुमान विभिन्न विद्वानों द्वारा १४०० से ६०० ई.पू. है।
अर्थात :-"अकनु बिरमने व्यासनाम अज हिंद आयद !   दाना कि अल्क निर्वाचित नेरस्त ""! 
 “व्यास नाम का एक ब्राह्मण हिन्दुस्तान से आया  वह बड़ा ही चतुर था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता ! 

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