धर्म का विकास और सम्प्रदायों की विभेदक रेखा...
(प्रथम अध्याय)
सभ्यता के विकास क्रम में धर्म की आवश्यकता तब हुई जब मनुष्य मन को सन्तुष्ट करके भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया !
वह भौतिक सुखों का भोग करके भी सुखी नहीं हो पाया ,उसे लगा कि संसार रूपी महानदी में इच्छाओं के अथाह जल में स्वाभाविकताओं के वेग से प्रेरित अहंकार की जो लहरें हैं ;
उन्हीं लहरों के आगोश में अपराध या पाप के बुलबुले उत्पन्न होकर मनुष्य को अनेक शरीरों की प्राप्ति कराते रहते हैं !
शरीरों की प्राप्ति प्राणी को उसके संस्कारों के अनुरूप ही मिलती है ; ये संस्कार उसके मनोयोग से किए गये कर्मों द्वारा निश्चित होते हैं
जिनके प्रभाव से निजात पाना जीवन-कल्याण के लिए आवश्यक है और यह उपाय धर्म ही है
और इसी आवश्कता की पूर्ति के लिए आचरण मूलक व्रत किये गये
वही धर्म के प्रारम्भिक प्रारूप थे.
मनुष्य का जीवन स्वभाविकता के प्रवाह में वहता रहता है !
यह स्वाभाविकता प्रवृत्तियों में उसी प्रकार समायोजित है जैसे प्रकाश में चमक अथवा
पवित्रता में स्वच्छता समाहित है |
स्वभाव जन्म से उत्पन्न गुण है जो मनुष्य के प्रारब्ध की गन्ध ही है और प्रवृत्तियाँ मनुष्य की योनि या जाति शरीर के अनुरूप ही होती हैं
जाति शरीर का तात्पर्य है जैसे स्त्री जाति, गोजाति महिषी जाति, कुत्ता जाति अर्थात् समान प्रसवात्मिका प्राणी ही सजातीय हैं
प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार मस्तिष्क के सी▪पी▪ यू▪ में सिस्तम - साॅफ्तवेयर) के समान स्थाई हैं
आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है
आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई हैं |
और यही स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है
आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है
क्यों कि आदत मनुष्य स्वयं बनाता है जबकि स्वभाव स्वयं ही प्रारब्ध से बनता है !
आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई हैं |
आदतें बनायी और बिगाड़ी जा सकती हैं परन्तु स्वभाव बनाया नहीं जा सकता है !
और यही स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है !
मनुष्य के पापों का कारण केवल अहंकार ही है
अहंकार मनुष्य को एक एहसाश कराता है कि वह किस बिन्दु पर अपूर्ण या जरूरत मन्द है
उसकी अपूर्णता ही उसे आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण प्रदान करती है
सौन्दर्य भी केवल आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण ही है
महिलाओं की कोमलता पुरुष को सौन्दर्य बोध कराती
क्यों कि पुरुष में कोमलता का अभाव और कठोरता का भाव होता है !
और इस अपूर्णता की पूर्ति के लिए जो भाव उत्पन्न होता है वह काम है काम आवेशमयी कामना आपूर्ति का प्रवाह है यहीं से पाप एक पेप (जोश ) के रूप में उत्पन्न होकर
ज्ञान को आच्छादित कर देता है
संसार ज्ञानी और योगी भी सौन्दर्य विमोहित होकर पतित हो जाते है क्यों उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण भाव अर्थात् भक्ति नहीं होती जबकि भक्त सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देता है कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित
तब उसका भटकना ते ईश्वर का भटकना ही है
और ईश्वर तो कभी भटक ही नहीं सकता है
और भक्ति वस्तुत: ज्ञान और कर्म का ही सम्यक् रूपानतरण है "
आपने पुराणों में ऋषियों के सुन्दरियों को देखकर स्खलित अथवा कामपीड़ित होने के भी दृष्टान्त सुने होंगे परन्तु किसी निष्काम भक्त के विचलित होने प्रसंग नहीं सुने होंगे !
कृष्ण जी ने भगवत गीता को भागवत धर्म के प्रतिनिधि रूप में प्रकाशित किया जिसमें भक्ति योग का ही प्राधान्य है ..
दुनिया में केवल पाँच ही व्यक्ति सम्मान या प्रतिष्ठा के पात्र हैं -१ धनी - २सुन्दर -३बलवान-४ वृद्ध इन्सान ५-ज्ञानी
छठा व्यक्ति कौन हो सकता है
भक्त जो सबसे श्रेष्ठ है उसका सम्मान दुनियाँ में नहीं होता
और वह दुनियाँ के सम्मान का तलबदार भी नहीं है ।भक्त तो भगवान को भी वश में कर लेता है
अहंकार ही संसार है
संसार का स्वरूप अन्धकार है क्यों कि अन्धकार का कोई श्रोत नजर नहीं आता जबकि प्रकाश किसी न किसी श्रोत से उत्पन्न होता है |
सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकारो उन्मुख
इसी स्वाभाविकता के दौरान वह मनुष्य भी कभी मोह के भँवरों में लोभ के गोते खाता रहता है और अन्त में डूब भी जाता है ...
स्वाभाविकता से प्रेरित मनुष्य पुण्य और पाप , सुख और दु:ख को भी क्रमश: पाता रहता है !
स्वाभाविकताओं का दमन ही संयम था और यही यम धर्म का अधिष्ठात्री देवता हुआ |
जबकि अज्ञात शक्ति के प्रति विश्वास पूर्ण भावना आस्था या श्रृद्धा है जिसमें सात्विक अनुभतियों की महती भूमिका है
यदि आस्था में मनन या ज्ञान न हो तो वह आस्था अन्धी है
परन्तु आस्था जब हृदय की सात्विक अनुभूतियों का प्रतिफलन होती तभी वह ज्ञान की उद्भासिका होती है
श्रृद्धा, धर्म, ज्ञान और भक्ति सभी तत्व सम्पूरक रूप में परस्पर निबद्ध हैं
जैसे धर्म, अध्यात्म दर्शन आदि सभी का समन्वित रूप अध्यात्म है .🌻🌻
श्रृद्धा धर्म का यह प्रारम्भिक चरण है धर्म में केवल आत्मोत्थान के लिए सदाचरण का भाव प्रमुख हो जाता है .
श्रृद्धा और धर्म हृदय- स्पन्दन और श्वाँस के समान परस्पर सम्पूरक हैं
जैसे पुष्प में सुगन्ध और पराग होती ठीक वैसे ही श्रृद्धा से उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसी से भक्ति उत्पन्न होती है
भक्ति साधन नहीं साध्य है क्यों कि यही ईश्वरीय सत्ता की अनन्त अनुभूति कराती यह अनन्त अनुभूति विशाल से शूक्ष्मता के प्रति अग्रसर अनुभूति है अहंकार की शून्यता जहाँ अनिवार्य है
स्व की व्यापकता और अनन्त के प्रति विलय अथवा आत्म समर्पण ही भक्ति है स्वाभिमान व अभिमान जैसे भाव भी इसमें नहीं होते हैं !
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क्यों कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल (थाँमला) है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
और संकल्प से इच्छा और इच्छा कर्म की जननी है
स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप है जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।
और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।
जैसे- संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गयी निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गयी मानसिक दृढ़ता है ।
परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।
और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो कर्म के लिए प्रेरित करती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की
और कर्म ही इस प्रकार जीवन और संसार का सृष्टा है।
महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा
संसार का सार है संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती स्थितियाँ के रूप में अनुभव हुईं
मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च"
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।
मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
और इच्छा का भौतिक रूपान्तरण ही ऊर्जा है या शक्ति है
मुझे लगा कि अब हम सत्य के समीप आ चुके हैं। मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है
पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।
जो उन्हें आवेशित करता है
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।
जो उन्हें आवेशित करती है
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।
और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानती हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ;
वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही उसी अनुपात में ख़ूबसूरत होती है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना का जन्म हुआ है ।
और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।कर्म भारतीय सनातन संस्कृति की वह अवधारणा है ! जो
उन्हें दुनियाँ के आदिम द्रव- वेता द्रविडो से व्याख्यायित रूप में एक प्रतिक्रियात्मक प्रणाली के के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती हुई प्राप्त हुई है, !!
जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। ..
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कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं।
जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है।
चेतना के क्रमिक विकास का स्तर ही विभिन्न प्रकार की यौनियों का निर्धारक है .
कर्म व्युत्पत्ति का आधार मन का संकल्प- प्रवाह है संकल्प की गन्ध और इच्छाऔं का पराग से ही कर्म पुष्प का स्वरूप है जो भोग के फल का कारक है
किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के सन्दर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋग्वेद में नहीं मिलता है।
कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता
(पञ्चम सदी ) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई।
काल परिवर्तन और कर्म क्रमशः वाष्प जल और हिम के सदृश्य विका - क्रम की श्रृंखला हैं ..
"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में प्रचीन भारतीयों का मानना है। -------
जीवन एक पुष्प है प्रवृत्ति उसकी गन्ध ,तथा स्वभाव पराग के सदृश्य है
इन्हीं गन्ध और पराग के द्वारा
प्रारब्ध के फल का निर्माण होता है
विचार - विश्लेषण ---- यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़..8077160219----सम्पर्क - सूत्र
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आस्था हृदय की आस्तिक अनुभूतियों से उत्पन्न सात्विक बुद्धि का प्रकाश ही है
जिससे ईश्वर की अनन्त सत्ता का आभास होता है
जब अन्त: करण रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है
तब ही ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि पर परावर्तित होता है
और अन्त: करण सदाचरण से भी शनै: शनै: स्वच्छ हो जाता है तब भी यही होता है !
ये अहंकार ही व्यक्ति को सीमित करता है
तब व्यक्ति समुद्र से बिन्दु बन जाता है !
आचरण में जब सात्विक भाव होता है तब 'वह सदाचरण होता है
जबकि सभ्यता मानव आचरण का वह केवल भौतिक सामूहिक पक्ष है
जो संस्कृति की कर्म समष्टि मूलक व्याख्या है
जैसे व्यक्ति का व्यवहार उसके विचारों की व्याख्या है
सभ्यता में अध्यात्म की अनिवार्यता नहीं है
परन्तु नैतिकता सभ्यता का प्राण है
क्यों कि जब आचरण में सद का भाव समाहित होता है तब 'वह धर्म रूप धारण करता है
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परन्तु आस्था अथवा श्रृद्धा का जन्म तो तभी हुआ जब मनुष्य अज्ञात शक्तियों के चमत्कार के प्रति विश्वास पूर्ण भावना से नत- मस्तक हुआ और अपने अनिष्ट निवारण के प्रति उस अज्ञात शक्ति से अनुनय -विनय करने के लिए क्रियाओं के रूप में हुआ उद्यत हुआ ...
उसके अन्त:करण की अनुभूतियों ने उसकी आस्था को पुष्ट किया
वाकई जिसके लिए कोई शब्द नहीं थे
और धर्म का विकास अध्यात्म की उन साधाना मूलक क्रियाओं के रूप में हुआ है जिसके द्वारा व्यक्ति ने अपने मन के नियमन के लिए जिस सदाचरण को आधार बनाया ...
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के नैतिक पूर्ण ढंग के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है।
अथवा कहें संस्कृति समाज के सामूहिक परम्परा गत रूप से आयात वैचारिक पक्ष ही है
जबकि सभ्यता मानव का आचरण पक्ष है वह भी परम्परा गत ही है !
अंग्रेजी में संस्कृति के लिये (Culture) 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है; जो यूरोपीय लैटिन भाषा के ‘कल्ट (Cult) क्रिया से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना।
मस्तिष्क रूपी क्षेत्र की फसल या उपज है
संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है।
अत: 'वह अपने सुधार के प्रति अग्रसर रहा
यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है यही उसकी संस्कृति है ।
ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है।
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विचारों का ही स्थूल रूप कर्म होता है
उसी प्रकार संस्कृति का स्थूल रूप सभ्यता है
सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के शारीरिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता।
वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और हृदय भी है।
भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और हृदय तो अतृप्त ही बने रहते हैं
इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं।
मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह आनन्द की अनुभूति करता है ...
आनन्द से उत्पन्न आनन्द उसकी आवश्यकता है
क्यों कि सौन्दर्य भी आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है
और वह सौन्दर्य अनुभूति के लिए संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है।
सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है।
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इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है।
इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं के वैचारिक पक्ष का समावेश होता है।
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संस्कृति जीवन जीने की विधि है।
जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं;
तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है।
क्यों कर्म पहले मन से विचारों के रूप में उत्पन्न होता है
सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं;और कार्य करते हैं।
इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं।
एक समाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं।
तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।
इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बंध रखती है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं।
समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं।
ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं;
जिनमें मानवसमूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं।
इन्हें शिल्पकलाकृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है।
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(वस्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्र-बिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं)।
संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, विचार करते हैं और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं।
संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है।
(संस्कृति और सभ्यता )
संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं।
फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं।
संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस पटल में होता है।
दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है।
जो शरीर पर व्यवहार रूप में प्रकट होता है
'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'।
इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक आचरणगत स्वरूप को आकार देती है।
सभ्यता को अंग्रेजी में 'सिविलाइज़ेशन' (civilization) कहते है; और कल्चर (culture) से उसका अन्तर स्पष्ट ही है।
संस्कृति और सभ्यता में भी वही भेद है।
जो आत्मा और शरीर में अथवा सुगन्ध और पराग में जो समाञ्जस्य है
प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली।
अब वह अयस और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है।
प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे।
फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ का आश्रय लिया।
अब मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है।
पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था।
बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की।
पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था।
पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल, गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा।
अन्त में उसने हवा पानी, वाष्प, बिजली और अणु की भौतिक शक्तियों का विश्लेषण करके ऐसे यन्त्र आविष्कार किये , जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई।
मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।
‘सभ्यता’ का अर्थ है जीने के बेहतर तरीके है
इसके अन्तर्गत समाजों को राजनैतिक रूप से परिभाषित वर्गों में संगठित करना भी सम्मिलित है जो भोजन, वस्त्र, संप्रेषण आदि के विषय में जीवन स्तर को सुधारने का प्रयत्न करते रहते हैं।
इस प्रकार कुछ वर्ग अपने आप को अधिक सभ्य समझते हैं, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखते और असभ्य समझते हैं।
कुछ वर्गों की इस मनोवृत्ति ने कई बार संघर्षों को भी जन्म दिया है जिनका परिणाम मनुष्य के विनाशकारी विध्वंस के रूप में हुआ है।
सभ्यता का अर्थ अब आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियो का मानक है ...
इसके विपरीत, संस्कृति आन्तरिक अनुभूति से सम्बद्ध वैचारिक पक्ष है जिसमें मन और हृदय की पवित्रता निहित है।
परन्तु अब पवित्रता नहीं स्वच्छता विद्वता नहीं अपितु चालाकी है |
इसमें कला, विज्ञान, संगीत और नृत्य और मानव जीवन की उच्चतर उपलब्धियाँ सम्मिलित हैं जिन्हें 'सांस्कृतिक गतिविधियाँ' कहा जाता है।
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एक व्यक्ति जो निर्धन है, सस्ते वस्त्र पहने है, वह असभ्य तो कहा जा सकता है परन्तु वह सबसे अधिक सुसंस्कृत व्यक्ति भी कहा जा सकता है।
एक व्यक्ति जिसके पास बहुत धन है वह सभ्य तो हो सकता है पर आवश्यक नहीं कि वह सुसंस्कृत भी हो।
अत: संस्कृति और सभ्यता अब बिखर कर रह गये हैं
अतः जब हम संस्कृति के विषय में विचार करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि यह सभ्यता से अलग है।
संस्कृति मानव के अन्तर्मन का उच्चतम वैचारिक स्तर है।
जबकि सभ्यता शरीर से सम्बद्ध भौतिक सुविधा का मानक है परन्तु मानव केवल शरीरमात्र नहीं हैं।
वे तीन स्तरों पर जीते हैं और व्यवहार करते हैं - भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक।
शरीर मन और आत्मा
जबकि सामाजिक और राजनैतिक रूप से जीवन जीने के उत्तरोत्तर उत्तम तरीकों को तथा चारों ओर की प्रकृति का बेहतर उपयोग ‘सभ्यता’ कहा जा सकता है परन्तु सुसंस्कृत होने के लिए यह पर्याप्त नहीं है।
जब एक व्यक्ति की बुद्धि और अन्तरात्मा के गहन स्तरों की अभिव्यक्ति होती है तब हम उसे ‘संस्कृत’ कह सकते हैं।
आज की सभ्यता केवल फर्जी मुखौटों के दौर में गुम हो गयी है
विचार और भावों के अनुरूप आचरण आज व्यक्ति कभी करता नहीं !
जब वह अक्सर मंच या सामाजिक रूप में मुखातिब होता हैं तब आदमी मुखौटा ही लगाता है|
उसकी फर्जी मुस्कराहटों और फर्जी आहटों से अपनी औपचारिक प्रस्तुति दर्ज कराता है ;उसकी कृत्रिम नम्रता आदि सभी उसके सभ्य होने के प्रतिमान हैं ..
योग एक आध्यात्मिक प्रकिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (संयुक्त करने ) का काम होता है।
यह शब्द -धैर्य प्रक्रिया और धारणा की स्थिरता ये सम्बद्ध है - ये ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है।
योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत में लोग इससे परिचित
भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग।
वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं।
जो मनोनियन्त्रण के बल पूर्वक किये गये उपक्रम थे।‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।
इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।
वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।
जो धर्म के सन्निकट है
गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्' ( कर्मों में कुशलता ही योग है।)
पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः',
चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।
इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
प्रवृत्तियों के निर्देशन में मन इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों के लिए प्रेरित कराता है
और काम प्रवृत्ति सबसे प्रबल है स्वाभाविकता की. धारा में प्रवृत्तियों के वेग का निरोध कर इसके विपरीत चलने का उपक्रम योग या धर्म है।
योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्
मन के विकारों की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म का विकास
मनो नियमन की क्रियाओं से हुआ था
यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवतावत माना गाया है
भारती स्मृतियों (धर्म शास्त्रों ) में आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं।
परन्तु पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी अन्य ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।
— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय।
'यम' योग के आठ अंगों में से पहला अंग है।
चित्त की वृत्तियो या प्रवृत्तियों का निरोध योग है और यम योग के प्रमुख चरण में से एक है
धर्म में भी व्यक्ति तप रूपी सदाचरण का पालन स्वाभाविकता का दमन करके ही करता है ..
स्वाभाविकता को दबाकर ही हम दूसरों के समाने
सभ्य दिखाने के लिए आचरण करते हैं
जैसे हम कहीं घर से बाहर जाते हैं तब
यम के अन्तर्गत
पांच सामाजिक नैतिकता हैं
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
नियम
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
संसार की दरिया को पापर करने के लिए तैरना हीह पड़ेगा तैरना में स्वाभाविकता के वेगों का दमन करके ही तो हम तैर पाऐंगे जिसमें
संसार की दरिया में लोभ के गोतों और मोह के अथाह भँवर देखे
मन को स्वाभाविकता से प्रेरित जानकर साधक ने मन के विरुद्ध भी विद्रोह कर दिया !
उपनिषदों में यही निर्देश है कि मन को बुद्धि या योग से वश में करें 🌻
ये यम ,नियम और संयम ही धर्म के आधार स्तम्भ हैं
धर्म वस्तुत: स्वाभविकता के दमन या संयम की ही प्रक्रिया है ; क्यों कि जिसने स्वाभाविक धाराओं के विपरीत तैरने की कोशिश की है वही पार हुआ है और धर्म स्वाभाविकताओ का दमन का ही नाम है
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फिर कालान्तरण में पुरोहितों ने स्वभाव को ही धर्म माना परिणाम यह हुआ कि समाज का घोर नैतिक पतन हुआ कृष्ण ने धर्म को एक नदी की धाराओं के विरुद्ध प्लावन या तैरने की क्रिया कहा जो कि सत्य ही है !
कृष्ण का और बुद्ध तथा महावीर का भी धर्म मार्ग स्वाभाविकता का दमन ही था
जिसे उन्होंने तप या योग कहा
न कि स्वाभाविकता को धर्म माना
भारतीय पुराणों में अनेक स्थलों पर धर्म को किसी ऐसे देव याय शक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो न्याय और प्राकृतिक व्यवस्था की प्रतिमूर्ति है जिसे यम नाम दिया गया ...
इसी प्रकार, यम को 'धर्मराज' कहा जाता है क्योंकि वे मनुष्यों को उनके कर्म के अनुसार निर्णय करके गति देते हैं।
संयम के भाव के कारण ये यम हैं
तत्व-वेत्ताओं ने उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा,
और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा है ।
देखें संबंधित आख्यान में यम देवता के अवलम्बन से निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन की सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं !
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आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।३
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम –
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख
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इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)
मनीषियों, या विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर रूपी रथ का भोग करने वाला बताया है
प्राचीन समय में रथ यातायात के साथन के रूप में मान्य था चरत् शब्द रूप से रथ का विकास हुआ 🌻🌺
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।
क्यों ये आत्मा को स्थाई तुष्टि देने वाला नहीं था
और उन साधकों की जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
जो वस्तुत: मन के ही विकल्प हैं आत्मा के नहीं
मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
सांख्य दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः
पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात् जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है,
जो सुख या दुःख के तौर पर ।
इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर हुए नियंत्रण पर निर्भर रहता है ।
इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से चिन्तन रहा है ।
उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इस लिए मन को ज्ञान से जीतना चाहिए
इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा
बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है !
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स्वभाव भी मानव प्रवृत्तियों के अनुरूप उन्हीं का परिणाम है स्व भाव प्रवृत्तियों का अनुगामी है
ये मनुष्य को जन्म से प्राप्त शरीर तथा प्राणी की जाति गत निर्धारक तत्व है जैसे सभी कुत्ते चरणोत्थान कर मूत्र विसर्जन क्रिया सम्पन्न करते हैं सभी वानर आँख दिखाकर घुडंकी लगाते हैं
ऐसे ही सभी कौए प्रात: पूरब दिशा से पश्चिम की और या सूर्य की विपरीत दिशा में भोजन की तलाश में दूर तक जाते हैं ये इनकी प्रवृत्तियाँ ही हैं 🌻💂
जिन्हें हम इनका (सिस्तत साॅफ्टटवेयर) मान भी सकते हैं __________
वास्तव नें धर्म को स्वभाव जन्य क्रिया के रूप में परिभाषित करना लोगों का चरित्र पतन करना सिद्ध हुआ
परन्तु जब समय के अन्तराल से पुरोहितों ने धर्म को स्वभाव तक ही परिभाषित किया
प्रवृत्ति , देश काल और परस्थितियों के अनुरूप धर्म की व्याख्याऐं भी होती रही हैं कृष्ण के युग से लेकर बुद्ध
के युग तक पुरोहितों ने धर्म की विवेचनाऐं स्वभाव मूलक की हैं पुरोहितों ने स्वभाव जन्य कर्मों को ही धर्म माना
अधिकतर रूपों में धर्म को एक स्वभाव जन्य सत्ता के रूप में पुरोहितों द्वारा मान्य किया गया जैसे👇
वर्ण- व्यवस्था काल में धर्म का अर्ध बदल गया
किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो वही उसका धर्म है ।
जैसे सुगन्ध या दुर्गन्ध पुष्प का धर्म है
इन अर्थों में प्रकृति, स्वभाव, नित्य प्रवृत्तियाँ ही धर्म हैं ।
जैसे, नेत्र का धर्म देखना, शरीर का धर्म भोजन द्वारा पोषण और तो और सर्प का धर्म काटना , दुष्ट का धर्म दुःख देना ।
इन अर्थों में भी धर्म परिभाषित हुआ
विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । देखें निम्न ऋचा
देवता: विष्णुः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः।
अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥
पद पाठ
त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः।
अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥
धर्मों को धारण करते हुए वह तीन पदों से गोप रूप में विचरण करते हैं
ऋग्वेद » मण्डल:1» /सूक्त:22»/ ऋचा 18 .
यदि (अद् = बन्धने )धातु से अदाभ्य: क्रिया पद ग्रहण किया जाए तो अर्थ होगा जो धर्म में बाँध कर सबको धारण करता है |
अर्थात् प्राणी प्रवृत्तियों के अनुरूप व्यवहार करता रहता है
पदार्थान्वयभाषाः -जिस कारण यह दम्भ:(अदाभ्यः) जिस मारा न जा सके ...या संसार को धर्म में बाँधने वाला
(गोपाः) और गायों की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) चरणों से (विचक्रमे) गमन करता है,
(धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥
वामन अवतार के विष्णु का यही ऋचा आधार है
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दम्भ ण्यत् नलोपोपधावृद्धी नञ् तत्पुरुष ।
अहिंस्ये ।
“यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवीति यजुर्वेद ७/ २, हे सोम ! ते त्वदीयमहिसितं जागृवि जागरणशीलमिति वेददीपः ।
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यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।
समय के सापेक्ष धर्म की अर्थवत्ता के आयामों का विस्तार भी हुआ
अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो धर्म है ।
वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है ।
जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरण, इस उदाहरण में कोमल चरण और ललाई साधारण धर्म है ।
किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य या ऋषि द्वारा निर्दिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ में किया जाय ।
वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।
शुभ दृष्टि ।
विशेष—मीमांसा के अनुसार वेद विहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है ।
जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।
संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।
कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।
यद्यपि श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था ।
वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो ।
वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो ।
जैसे वर्णाश्रम धर्म
वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिए करना चाहिए ।
किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार ।
कर्तव्य अथवा फर्ज ही धर्म है जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
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पुष्य मित्र सुँग काल में निर्मित ग्रन्थों में
विशेषत:—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की सेवा करना ही धर्म है ।
जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद् धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है,
जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।
इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे ब्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।
गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्ण मास बलिकर्म आदि करना इत्यादि ।
संन्यासी के लिए सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्वारा निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना ।
यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । इन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं ।
जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना ।
जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—
जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना ।
निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय ।
जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्ध करने पर प्रायश्चित करना ।
इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है ।
धर्म वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो ।
वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले ।
कल्याण कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म आदि धर्म हैं ।
विशेष—स्मृतिकारौ ने वर्ण, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना ।
ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आवश्यक है ।
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मनु स्मृति में वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच इंद्रिय-निग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध ।
मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है ।
वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती ।
मनुस्मृति में कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है ।
अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतियों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है,
उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है ।
बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है
शील स्वभाव का वाचक है ।
जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।
किसी आचार्य या महात्मा द्वारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली ।
यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219
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