सम्पादकीय
प्रस्तुत ग्रन्थ दीर्घकालिक शास्त्रीय गवेषणाओं के अध्यवसाय की परिणति है। प्रत्येक देश और राष्ट्र की संस्कृतियों का आधार उस देश की धर्मशास्त्रीय मान्यताओं और परम्पराओं पर अवलम्बित होता है। भारतीय पुराणों और वेदों में आभीर जाति के अन्तर्गत यदुवंश का विस्तृत वर्णन है । भले हि वह मिथकीय और काव्यात्मक रूप में ही क्यों न हो कहीं न कहीं शास्त्रीय घटनाओं का अस्तित्व तो रहा ही होगा जो दीर्घकाल तक जनश्रुतियों के रूप में परम्परागत रूप से संवहन होता रहा है। जिसे कालान्तरण में विद्वानों ने भोजपत्र ताड़पत्र आदि पर लिपिबद्ध भी किया कागज का आविष्कार तो इतिहासकारों के अनुसार सबसे पहले चीन में हुआ। 201 ई. पू.में हान राजवंश के समय चीन के निवासी “त्साई-लुन” ने कागज़ का आविष्कार किया। जिसका प्रयोग बौद्ध ग्रन्थों के लेखन में हुआ और देश दुनिया कागज अवगत हुई। भारत वेद और पुराणों उपनिषदों तथा अन्य धर्म शास्त्रीय ग्रन्थों रामायण और महाभारत ( जय संहिता) आदि को कागज पर लिपिबद्ध कर ग्रन्थ रूप पुन: दिया गया। इस श्रंखला में लेखक द्वारा यादव इतिहास के उन अध्यायों को प्रस्तुत किया गया है जो आज तक बहुसंख्यक भारतीय समाज के संज्ञान से परे और ओझल थे। सम्पादकीय के अन्तर्गत इस तथ्य पर भी प्रकाश परावर्तित करना अपेक्षित है कि इस यदुवंश- संहिता में लेखक ने सटीक व सप्रमाण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए समस्त मिथकीय पूर्वाग्रहों का क्रमागत ढंग से बहुत ही तर्कसंगत, स्पष्ट , व्यवस्थित और शास्त्रीय शैली में समाधान प्रस्तुत किया है।
यह शोध-ग्रन्थ आभीर जाति की उत्पत्ति के साथ भाषा-विज्ञान प्राचीन-इतिहास व धर्म शास्त्र का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु पाठकों लिए निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण अवदान सिद्ध होगा ऐसा हमारा विश्वास है।
यह ऐैतिहासिक गवेषणा-मूलक ग्रन्थ है। और इसका लेखन पूर्ण रूपेण प्रबल प्रमाणों के दायरे में है। जिसमें सन्देह की कोई गुँजायश नहीं है। सभी सन्दर्भ यथास्थान दिए गये हैं।
यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें ! कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है। अपितु वह तो अखण्ड और सार -भौमिक तथ्यों का यथावत- विवरण होता है। यद्पि कालक्रम के आघात से कुछ व्युत्क्रम ( उलट-फेर ) हो जाए परन्तु उन घटनाओं के अस्तित्व को नकार नहीं सकते हैं।
छोटी-मोटी घटनाऐं तो इतिहास नहीं होतीं अपितु सारभौमिक घटनाऐं जो बहुतायत शास्त्रों वर्णित हो इतिहास ही हैं।
तथ्य- परक विश्लेषण इतिहासकार की मौलिक व आत्मिक प्रवृति होती है; और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है। जिसमें कोई पूर्वदुराग्रह नहीं होता ।
ऐतिहासिक अन्वेषण में प्रमाण ही वास्तव में ढाल हैं । जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध में ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा करता है। अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर( भँवर) में प्रमाण ही पतवार हैं । और प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रमाणों की आधार शिला पर प्रचीन इतिहास का स्थापन है।
पाण्डित्यवाद के संग्राम में भी सटीक तर्क किसी अस्त्र अथवा शस्त्र से कम नहीं हैं। हम दृढ़ता से अब भी कह सकते हैं। कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं होती है। अपितु विश्व-व्यापी होती है ! क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है। इतिहास एक बहिर्निष्ठ प्रति क्रिया भी है। इतिहास है गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है। अत: प्रस्तुत ग्रन्थ इन्हीं समग्र ऐतिहासिक प्रारूपों का निरूपण है।
गुरू जी थोड़ा और शब्द बढ़ाइए और गहराई में जाइए और
अब मन्तव्य बिन्दु है कि यदुवंश संहिता ग्रन्थ की यादव समाज को क्या आवश्यकता थी ? लेखक और संपादक का लेखन और संपादन की आवश्यकता क्यों पड़ी ? सर्व प्रथम तो ग्रन्थ के शीर्षक से ही समाज में उसका उद्देश्य निहित होता है।
आज जब भारतीय समाज में जातिवाद राजनीति की धुरी बन गया है। और व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उसकी जातीय अस्मिता से ही होता हो तो यादवों भी अपने जातीय स्वाभिमान से प्रेरित होकर अपनी जाति वंश और कुल का इतिहास जानने की महती आवश्यकता है। स्वाभिमान जातीय मर्यादाओं और परम्पराओं के अवबोधन का भाव है । हीनता जीवन की वह चिर-रुग्णता( बीमारी) है जिसके दुष्प्रभाव से व्यक्ति श्वास चलते हुए मृतक ( मुर्दे) के समान समाज जीता है । उसके सामाजिक नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। और स्वाभिमान ही व्यक्ति में पौरुष और उत्साह का संचार करते हुए समाज के हर अन्याय और विषमता से जूझने का माद्दा मुहैया करता है।
स्वाभिमान समाज में एक समाचरण तथा सबको साथ लेकर सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान के लिए प्रेरित करता है । जिन जाती यों का कोई गौरवपूर्ण इतिहास अथवा इतिवृत्त नहीं होता वे जातियाँ भी उदासीन और निकम्मी बन जाती हैं । अहीर जाति का इतिहास जाति विशेष के लोगों ने लिखा जिकी लेखनी इस कार्य में निष्पक्ष और तटस्थ नहीं रही क्यों कि उन जाति विशेष के लोगो ंको तो स्वयं को ही समाज में श्रेष्ठ घोषित करना था। प्रत्येक समाज का इतिहास ही उसके उज्ज्वल भविष्य का मार्गदर्शक होता है। यद्यपि यादवों के इतिहास पर अनेक पुस्तकें लिखी भी चुकी हैं। जो प्राय: एक दूसरे का ही संशोधित संस्करण मात्र हैं। परन्तु यह पुस्तक इस दिशा में एक नवीन शोधग्रन्ध ही है। इसमें बहुत सी बातें ऐसी भी हैं जिसका यादव समाज के लोगों को ज्ञान नहीं है। इसी अभाव की आपूर्ति के लिए आज यादव समाज के लिए आवश्यक है। बहुत से अन्य जाति के लोग जो प्राय:स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरी जातियों को नीच या शूद्र भी मानते हैं। वे कहते रहते हैं कि अहीर और यादव अलग अलग होते हैं गोप और अहीर अलग अलग होते हैं अहीर म्लेच्छ और शूद्र हैं। यादव क्षत्रिय होते हैं।
आदि आदि वास्तव में ये सब बाते हवा में उड़ती हुईं विना शिर पैर की ही हैं। इन सबका सम्यक् समाधान शास्त्रीय पद्धति से इस पुस्तक में यथा स्थान क्या गया है। इस ग्रन्थ का लेखन और सम्पादन दोनों क्रियाऐं परस्पर सम्पूरक हैं।
ग्रन्थ के विशाल कलेवर से सारगर्भित और सामयिक तथ्यों का संकलन व प्रसंगानुकूल समायोजन सम्पादकीयता का उद्देश्य रहा है।
जातीय स्वाभिमान के लिए भी अपना इतिहास बोध आवश्यक है।
यादव समाज की हीनता रूपी तमस के निराकरण के लिए यह ग्रन्थ एक ज्योतिर्पुञ्ज के सदृश है। अहीर जाति की एकजुटता और राष्ट्र निर्माण के लिए उनके सकारात्मक आह्वान के लिए यह ग्रन्थ उच्चस्वर से उद्घोष करता है।
सम्पादक:- (इंजिनियर (अभियन्ता)- माता प्रसाद यादव )
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