सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

सहस्रबाहू द्वारा परशुराम वध-


(महाभारत के  अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्ण-संकर जाति कथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -)
 कहता है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे 

वे ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
(पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)
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इसके लिए देखें निम्न श्लोक - देखें 
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"भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते ।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
अनुवाद:-
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से तो सन्तान केवल  ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
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और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान  होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।

इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।।७।।

अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ;
वह क्षत्रिय वर्ण का होता है तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र) का कथन है।७।

(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण) _
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अब हम उस आख्यान का वर्णन करते हैं जिसमें कहा गया है।  जब परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य किया था  और फिर उन क्षत्रियों की विधवाऐं ब्राह्मणों के पास ऋतु दान के लिए आयीं थी  तो उनसे उत्पन्न सन्तानें क्षत्रिय हुईं ।
(तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान् )
 
समस्या यह कि इसी महाभारत में दो तरह की विपरीत बातें किस ने लिख दीं ।

परन्तु नीचे (महाभारत के  आदि पर्व के ६४वें अध्याय) में अनुशासन पर्व के विपरीत श्लोक कहता है।

त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।

तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत 
सुतार्थिन्यऽभिचक्रमु:।५।

ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
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तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।

कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।

जातं वृद्धं  च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।

(महाभारत आदि पर्व(६४)वाँ अध्याय)
अनुवाद:-
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
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तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
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विशेष :- जब अनुशासन पर्व कहता है कि ब्राह्मण के द्वारा क्षत्रिया वर्ण की पत्नी में उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी ।

परन्तु  यहाँ  आदि पर्व में  क्षत्राणीयों के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय कैसे हो गये । यह बात शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत होने से खारिज है।
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परशुराम की प्रक्षिप्त कथा का सृजन करते हुए आगे महाभारत के आदि पर्व में वर्णन किया कि 
उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ  माना गया ।

सत्य तो यह होना चाहिए 
 कि क्षत्रिया स्त्री में ब्राह्मण से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी।
अत: परशुराम द्वारा २१बार क्षत्रिय विनाश  वाली घटना कल्पना और शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत है।

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।
प्राचीन काल में शास्त्रों में इनकी पूजा का वर्णन मिलता है ।
कि कार्तवीर्य अर्जुन की लोग पूजा करते थे।
और भारतीय शास्त्रों में उसकी पूजा के विधान के यत्र तत्र सूत्र मिलते भी हैं। 
भारतीय शास्त्रों- महाभारत  एवम्  वेदों आदि के उद्भट् भाष्यकार आचार्य महीधर ने "मन्त्रमहोदधि ग्रन्थ में कार्त्तवीर्यार्जुन की पूजा करने के विधान सूत्र वर्णित किए है। जिसे विस्तार भय से यहाँ प्रस्तुत करना अपेक्षित नहीं है। फिर कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

 "मन्त्रमहोदधिसप्तदश:तरङ्गः"
मन्त्रमहोदधि – सप्तदश तरङ्ग (सत्रहवीं तरंग) अरित्र---
"अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये कार्तवीर्यस्य गोपितान् । यःसुदर्शनचक्रस्यावतारः क्षितिमण्डले सुदर्शन: स्वमेव विष्णु:॥१॥ 
अर्थ:- शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ। जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं जो स्वयं विष्णु का रूप हैं। ॥१॥

अभीष्टसिद्धिदः कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रःवहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक् ।वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥२॥

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥
अर्थ:-
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥

अस्य मन्त्रस्य न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकारदत्तात्रेयो मुनिश्चास्य च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥
अर्थ:-
इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद् बुधः ।शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन शिरोङ्गकम् ।६
इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया ।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं चरेत् ।
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः  से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_

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विमर्श – न्यासविधि –  आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः,  ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
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हुं शिखायै वषट्   क्रैं श्रैं कवचाय हुम्,    हुँ फट्‍ अस्त्राय फट् ।

इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
उद्यत्सूर्यसहस्रकान्तिरखिलक्षोणीधवैर्वन्दितो
हस्तानां शतपञ्चकेन च दधच्चापानिपूंस्तावता ।
कण्ठे हाटकमालया परिवृतश्चक्रावतारो हरेःपायात् स्यन्दनगोरुणाभवसनः श्रीकार्तवीर्यो नृपः ॥ १२ ॥

अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं –
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथों में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥

लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजेत्तु तम् ॥ १३॥

वक्ष्यमाणे दशदले वृत्तभूपुरसंयुते ।         
सम्पूज्य वैष्णवीः शक्तीस्तत्रावाद्यार्चयेन् नृपम् ॥१४॥

इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥
वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे।
 और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था। 
दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने  कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार  न लगे 
5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे। 
मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने  वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
पृथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगों अथवा क्षत्रियों के अबोध शिशुओ का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्य किसी अवतार का गुण कर्म नहीं।  और सत्य पूछा जाय तो परशुराम का वध तो सहस्रबाहू ने पूर्वकाल में कर दिया था । अत: त्रेतायुग की परशुराम कथा प्रक्षिप्त ही है।
 महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेंगे।           
परशुराम ने केवल उनकी सहस्र भुजाओं का उच्छेदन भले ही कर दिया हो परन्तु उनका वध कभी नहीं हुआ महाराज सहस्रार्जुन का वध नही हुआ। 
अन्त समय में उन्होंने समाधि ले ली।
इसकी व्याख्या कई पौराणिक कथाओ में की गयी है। साक्ष्य के रूप मे माहेश्वर स्थित श्री राजराजेश्वर समाधि मन्दिर, प्रामाणिक साक्ष्य है ; जो वर्तमान में है।
"श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित  करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। 
उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास( 11)अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। 
अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है। जैसा कि कालान्तर में ब्राह्मण समाज ने शास्त्र कुछ श्लोक जोड़कर नयी कथा ऐ सृजित कीं जो सिद्धान्त हीन और अस्वाभाविक ही हैं। जैसे निम्न श्लोक- सम्भव है कुछ क्षत्रियों का परशुराम ने भले ही बध कर दिया हो-
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त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे। 
भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । 
कथा के मूल में यह अवधारणा भी विद्यमान है कि जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर श्यालिबोढ़्री (साढू अथवा हमजुल्फ -) थे।  
जिनके प्रारंभिक दौर में परिवार सदृश सम्बन्ध थे। 
ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★ हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। 
श्रुणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव।  विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४। 
यद्पि विष्णु का अञ्शभूत"  तो सहस्रबाहू भी थे। परन्तु उपर्युक्त श्लोक में विष्णोरंश दत्तात्रेय का सम्बोधन है। परन्तु सहस्रबाहू भी विष्णु के सुदर्शन चक्र रूप को अवतार होने से विष्णु हीअञ्श थे । परन्तु कालान्तर में सत्य का तिरोभाव हुआ। जिसमें शास्त्रीय मर्यादाओं का विध्वंसन भी हुआ।
 
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? 
तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ?
जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? 
यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, उसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परन्तु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता।
मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ? राजन् ! तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ? 
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एक स्थान पर परशुराम स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए भी कहते हैं।
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। 
पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। मूल श्लोक निम्न प्रकार हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम          (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।         
             ★श्रीनारायण उवाच★
शृणु लक्ष्मि! माधवांशः परशुराम उवाच तम् ।
कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।
शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।
कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।
किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।
यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।
त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।
कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।
सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।
अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।
राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।
गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।
द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।
बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४।

निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं।  अर्थ सहित  प्रस्तुत करते हैं।
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तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५। 
विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंश दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
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जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था  परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये।।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि को क्यो स्मरण किया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो ।
वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का बध कर दिया था । परन्तु परशुराम का बध जाति वादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था इसी लिए इसी समस्या के निदान के लिए निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया पुराणों और परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया । और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । देखें इस सन्दर्भ में निम्न श्लोक -
ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
अर्थ:-  नारायण की आज्ञा से  शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९। 
विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।
यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। 
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वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है परन्तु प्राय: शास्त्र परशुराम के द्वारा सहस्रबाहू की गुण स्तुति का ही वर्णन दर्शाते हैं।

परशुराम को यदि हम ब्राह्मण मान भी मान लें तो भी उनकी वृत्ति और प्रवृत्ति परशुराम की सहस्रबाहू से साम्य रखती है।  विज्ञान  की भाषा में इसे ही जेनेटिक कोड अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
शास्त्र में विरोधाभास होना कालांतर में विपरीत सिद्धांत का आरोपण किया गया।

जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। 
किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। 
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे।
 सन्दर्भ- (महाभारत-  अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
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"परन्तु  उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू भी विचारणीय  हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं  प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं। यदि जमदग्नि के पास संजीवनी विद्या थी तो वह उन्होंने अपने पत्रों
 को भी दी होगी तब उनके पुत्रों ने उन्हें जीवित क्यों नही किया।
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और तृतीय आख्यानक यह है  कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है। इससे तो परशुराम इन्द्र के अंश हुए
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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने 
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की क्या यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण  हो सकता है। ? कभी नहीं।
महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
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"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः।               ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।             अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
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"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं। राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। 
"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु 
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"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। __________________
सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं परशुराम जन्म की कथा वर्णित है।   
  
अब प्रश्न यह भी उठता है  !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं 
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह  वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व  से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई  दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? 
किस सिद्धांत की अवहेलना करके  क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
ओं श्री सहस्रबाह्वे नम:

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