क्षणभंगुर - जीवन की कलिका,
कल प्रात: को जाने खिली न खिली।
मलयाचल की शुचि मन्द हवा
कल प्रात: को जाने चली न चली।
कलि काल कुठार लिए फिरता,
तन नम्र है चोट झिली न झिली।
रट ले हरिनाम अरी रसना,
फिर अन्त समय में हिली न हिली।
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बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि;
प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।
दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रिः
निष्क्रियो भवति पंकज-कोशे।१। चाणक्य नीतिदर्पण-15/15
अनुवाद:-संसार में अनेक प्रकार के बन्धन हैं परन्तु प्रेम-रज्जु-कृत बन्धन तो सर्वथा ही विलक्षण है। कठोरातिकठोर काष्ठ को भेद देने में निपुण षडंघ्रि (भ्रमर) भी कमल की कोमलातिकोमल पँखुड़ियों में विवश होकर रह जाता है ।
और उसके साथ ही कालकवलित भी हो जाता है।
विद्वानों ने दूसरी अन्योक्ति द्वारा भी मानव जीवन की नश्वरता की विवेचना की है। कि किस प्रकार काल रूपी हाथी अपने लीला करता है।
‘रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालि।
इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे,
हा मूलतः नलनीं गज उज्जहार।।
भौंरा कमल के पुष्प में मकरन्द-पान में अर्थात् (पुष्परस) पीने में लीन था।
तभी सूर्य अस्ताचलगामी हो गये; कमल कोश ( बन्द) हुआ; भ्रमर भी उस कमल कोश में ही बँध रह गया; कमल की पँखुड़ियों को काटने में असमर्थ भौंरा विचार कर रहा है। (चलो कोई बात नहीं) पुनः रात्रि व्यतीत होगी, पुनः सुप्रभात होगा; सूर्योदय होने पर बन्द कमलकोश पुनः खिलेगा ; कमल के पुनः खिलते ही मैं यहाँ से निकल जाऊँगा
परन्तु दु:ख की बात हुई ! रात्रि व्यतीत होने से पूर्व ही कोई उन्मत्त हाथी उस सरोवर में स्नान करता हुआ उन कमलिनियों को समूल उखाड़ता-रौंदता आ घुसा। और वह भौरा जिस कमल कोश में बन्द था। हाथी ने उसे भी उखाड़ कर फैंक दिया।
मानव जीवन भी इसी प्रकार है सभी अपने अपने भविष्य की परियोजनाऐं बनाते बनाते योजनाओं को परिणाम तक पहुँचने से पूर्व ही संसार से जीवन त्याग देते हैं।
अत: हरि चिन्तन में मन लगाते हुए भी लौकिक कर्तव्यों का पालन करते रहो -
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