बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

तुलसीदास जी तभी जहालत में और जाति उन्माद में लिख गये "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" (रामचरित-मानस. ३।३४।२)

महाभारत-अरण्य पर्व अध्याय-275/13

 (सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि ।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ॥१३॥

यही पर राम सीता के प्रति कहते है।
अनुवाद:- 
अर्थात 'मिथिलेश नन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन सामग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त  और त्याज्य  हो जाती हैं। 

क्या वास्तव में राम ने सीता से ये बातें कहीं थी या रामायण लिखने वाले ने राम के चरित्र पर इस घटना को आरोपित कर नारीयों को उपभोग की वस्तु बताना चाहा है। 
जो झूँठी हो जाने पर त्याज्या हैं । इस प्रकार के शास्त्रीय विधानों से भी नारी जाति की दुर्गति हुई है 
तुलसी दास ने तो अब संशोधन शुरु कर दिया है परन्तु अभी धर्मशास्त्रों में दबी पड़ी गन्दिगी को निकालने की महती आवश्यकता है ।
और उन फर्जी शंकराचार्यो को भी बताने की आवश्यकता है जो एक नारी से जन्म लेकर आज उसे अपवित्र बता रहे हैं ।

आडम्बरों और सामाजिक बुराईयों पर चोट होनी ही चाहिए। ये बुराईयाँ धर्मशास्त्रों को ढाल बनाकर अपने लाभ के लिए पुरोहितों ने समाज पर आरोपित कर दी  
 कोई रचना उस कालखंड के लिए भले ही लेखक को प्रासंगिक लगे लेकिन भविष्य में  परिस्थिति  और देश काल   के साथ  बदलते सिद्धान्तों के रूप में उसका महत्व समाप्त हो जाता है।  परिवर्तन प्रकृति का ही शाश्वत नियम है।

तुलसी जी तुम बहुसंख्यक पशुपालक और मेहनत कश जातियों को गाली देकर समाज हित नहीं कर सकते ।
तुलसी दास जी आपके द्वारा ही  रामचरितमानस के बालकाण्ड में लिखा गया है  कि -

“जद्यपि जग दारुन दुख नाना।सब तें कठिन जाति अवमाना।
जिसका अनुवाद किया  गया है - “हालाँकि  संसार में अनेक प्रकार के  भयंकर दुःख हैं, तो भी  जाति अपमान सबसे बड़ा अपमान है।”
लेकिन आगे चलकर रामचरितमानस के उत्तरकांड में तुलसी जी आपने वह जाति अपमान भी कर दिया - और भक्त लोग आपको वाल्मीकि का अवतार कहने लगे।
आपने इन जातियों को गाली दी-

“जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी रामचरित मानस उत्तर-काण्ड-” (1.7.100) 
अर्थ -  तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो में नीचे दर्जे की जातियाँ  हैं वे, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर केवल सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं।

तुलसी दास जी हम किस प्रकार माने कि आप मानव कल्याण के लिए अवतरित हुए 

आपने किसी भी समाज के एक दो व्यक्तियों के आधार पर सम्पूर्ण समाज के गुण दोषों का आकलन कर डाला । क्या ये आपका पूर्व दुराग्रह नहीं था ।
 तुम मे लाख अच्छाईयाँ थीं परन्तु तुम्हारी बुराईयों को भी बताया जाएगा ।

क्यों की हम अन्ध भक्त नहीं हैं जिनकी आँखों पर आस्था का उत्तल लेन्स वाला चश्मा लगा हुआ हो । हम तो मनन शील हैं ।
मनु ( मनन) के बिना आस्था अन्धी ही है।

तुलसी जी जब आपने पहले अहीरों को  निर्मल मन  (पाप रहित)  बता दिया था।
रामचरितमानस-चौपाई
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥
भावार्थ:- उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर  पृष्ठ संख्या-534
 तो फिर उन्हीं आहीरों को आभीर रूप में  बाद में पाप से उत्पन्न भी कर दिया।
आप ही उत्तरकांड में यह  लिखते हैं: 

"पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर, जमन, किरात, खस ,स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥
भावार्थ:-अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच ( कुत्ते का माँस पकाने वाला चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥1॥”(1.7
पुस्तक- श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर पृष्ठ संख्या-543
जाति सम्मान क्या सिर्फ़ ब्राह्मण या सवर्ण जातियों का होता है। 
तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल, अहीर , कलवार का क्या स्वाभिमान नहीं होता ? 

समाविष्टार्थ:तुलसी घोर जाति वादी थे.वैसे अपने जाति हित को बढ़ाने के लिए बाकी जातियों का इन्होंने अपमान किया है और जिसमें ये गोलियाँ लिखी हों तो  क्या ऐसी पुस्तक की निंदा और बहिष्कार करना गुनाह है ?

 रामचरित मानस की निंदा और उसका बहिष्कार का मतलब राम से कदापि  नहीं है। यद्यपि राम के मुख से भी रूढ़िवादी शास्त्रकारों ने बहुत कुछ बकवा दिया है। परन्तु राम प्रागैतिहासिक पुरुष हैं ।
जिनका चरित्र भी अस्पष्ट है।
रामचरित मानस की गलत बातों को कोड करना 
यह राम का  अपमान कैसे कहा जा सकता है ? क्यों कि राम का वर्णन तो विश्व की अनेक संस्कृतियों में उनकी परम्पराओं और लोकाचारों के अनुरूप है। 
धर्मग्रन्थों की आढ़ में किसी अन्य जाति को गाली देना सामाजिक विघटन का कारण और धर्म ग्रन्थों में  उसका उपयोग निहित जातीय स्वार्थों को साधने में हुआ है। यह धर्म शास्त्रों में निहित गन्दिगी है।

इस गन्दिगी को शीघ्र ही निस्तारित करना चाहिए अन्यथा स्वस्थ समाज में धर्म ग्रन्थों के रूप में दबी पड़ी यह गन्दिगी सेप्टिक बनाकर समाज का विध्वन्स कर देगी । जो धर्म के ही लक्ष्मण हैं  अब दु:शील का तात्पर्य दुश्चरित्र ही हुआ। अब यहाँ तो तुलसी दुराचारी यों के पूजन की बात कर रहे हैं ।
खैर !  जो भी 

वर्ण व्यवस्था और हिन्दुराष्ट्र के समर्थन की बात करने वाले  आज वही लोग हैं जो बिना किसी श्रम -परिश्रम के ऊँची जाति के नाम पर  मलाई खाते रहे हैं और बिना योग्यता और गुणों के भी पूजे जाते रहे हैं।

तुलसी दास तभी  जहालत में लिख गये  "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" (रामचरित.मानस. ३।३४।२)
अर्थः "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणगणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"

तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों में लिखी गयी । जैसे 

"दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् (पाराशर-स्मृति 192)
 शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्तिअथवा चरित्र है।  — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।

 विशेष—बौद्ध शास्त्रों में दस शील कहे गए हैं—हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्य गीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह इन सब का त्याग। कहीं कहीं पंचशील ही कहे गए हैं।
उपर्युक्त गद्यांशों में केवल शील का अर्थ बताना है।
तुलसी दु:शील ब्राह्मण को पूजन की बात कह रहे हैं धर्म ग्रन्थ की आढ़ में परन्तु शूद्र कही जाने वाली मेहनत कश जाति के काबिल और विद्वान होने पर भी सम्मानित न करने की भी बात कह रहें हैं।

मतलब धर्म और समाज का ठेका तुमने ही ले लिया। वह भी दर दर भीख माँग कर - शा~ आ ~~बास!!!

दु:शील का मतलब चरित्रहीन भी है। ऐसे ब्राह्मणों को पूजन का विधान बनाकर धर्म का सत्यानाश ही किया गया ।

दुर्जना दासवर्गाश्च पटहाः पशवस्तथा ।
ताडिता मार्दवं यान्ति दुष्टा स्त्री व्यसनी नरः।५५।

दुर्जन= गँवार। दास = शूद्र! पटह = बड़ा ढोल! पशव = पशुगण। ताडिता ( प्रताडिता- पिटे हुए होकर- मार्दव= कोमलता( अधीनता) को प्राप्त होते हैं। दुष्ट नारी और व्यसनी नर भी प्रताणित होकर कोमल हो जाते हैं।
अनुवाद:-
दुष्ट, दास, बड़े ढोल और पशु और दुष्टा नारी ।
मार खाकर वे मृदुता ( अधीनता) को प्राप्त हो जाते हैं ।   स्त्रियाँ  नदियाँ के समान प्रकृति की होती  हैं जो तेज वहाव वाली  और बहुत नीची होती हैं
यदि वे अपनी मर्जी से चलते हैं तो वे कुल को को गिरा देंगे।

तुलसी के  सुन्दर कांड की पूरी चौपाई कुछ इस तरह की है…..

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥

ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी.. और,किंतु मर्यादा भी आपकी ही बनाई हुई है!

क्योंकि… ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री। 
ये सब ताड़न  के अधिकारी हैं॥3॥

अर्थात…. ढोल , गंवार(मूर्ख), शूद्र  पशु  और नारी (स्त्री/पत्नी), इन सब को प्रताड़ित.करने का ( पीटने) का    अधिकार है।

__________       
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने वधूगीतायां सदाचारप्रदर्शनादिनिरूपणनामा द्वाचत्वारिंशोऽध्यायः ।।४२।।


प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार "रोहि"

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