यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी यदुवंश में अनेक कुल पुरोहित थे यह तथ्य हम उपर्युक्त रूप में वर्णित कर चुके हैं।
- विशेषत: जो भृगु , कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे ।
ये सभी यादवों के पुरोहित रहे हैं ! परन्तु केवल गर्गाचार्य को ही यादवों का कुल-पुरोहित जानना अल्प ज्ञान का दायरा ही है।
कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे। अङ्गिरस ऋषि के तीन पुत्र लोक प्रसिद्ध हैं १-बृहस्पति २- उतथ्य ३-और सम्वर्त
अङ्गिरसस्त्रयः पुत्राः लोके सर्व्वत्र विश्रुताः । वृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्त्तश्च धृतव्रतः।।
और यादवों के पुरोहित कुछ भृगु वंश के भी थे।
भृगु - एक प्रसिद्ध ऋषि हैं जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
विशेषत:—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की वक्षस्थल में लात मारी थी।
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इन्हीं के वंश में परशुराम हुए , कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' 'अंगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है।
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं।
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।
सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया।
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। अत: भृगु का अर्थ भी अग्नि ही है।
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परशुराम का जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये शास्त्रीय कथानक काव्य और कल्पना के गुणों से समन्वित होते हुए भी हैं। प्रागैतिहासिक मानवीय अस्तित्व के साक्ष्य है। अवश्य ही इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही होगा।
[अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं।
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।
इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है।
कहीं इनके पिता को (उरु) और माता को (आग्नेयी) कहा कहीं इन्हें ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न भी बतलाया गया है।
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी चार स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
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इसी अंगिरा की परम्परा में बृहस्पति के पुत्र गौतम के पुत्र शतानन्द भी हुए जो कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।
सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ, और जो कालान्तर में ये उज्जैन को चले गये थे।
सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन सन्दीपन ऋषि के पुत्र थे। जोकि बलराम और कृष्ण के गुरु रहे।
रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे।
और ये उग्रसेन के कुलपुरोहित थे । जबकि इसी समय शूरसेन के गर्गाचार्य पुरोहित थे । उग्रसेन और शूरसेन दोनों ही यादव राजा थे।
विष्णु पुराण में सान्दीपन ऋषि के बारे में लिखा है।
विदिताखिलविज्ञानौ सर्व्वज्ञानमयावपि ।
शिष्याचार्य्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ यदूत्तमौ। ५-२१-१८।
ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ बलदेव-जनार्द्दनौ ।५-२१-१९।
तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ ।
दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२०।
वे दौनों कृष्ण और बलराम सर्वज्ञ माने जाते हैं। फिर भी यदुश्रेष्ठ दोनों वीरों ने अपनी शिष्य परम्परा में गुरुजनों की आज्ञा का भी पालन किया।
फिर उनकी मुलाकात सान्दीपनी, काश्य से हुई, जो काशी में उत्पन्न होकर भी अवन्ती नगर में रहते थे। वीर बलदेव और कृष्ण दौनों शस्त्र ज्ञान के लिए उनके अन्तेवासी हुए। अर्थात
वे दोनों उनके शिष्य बन गए और अपने गुरु के व्यवहार के प्रति समर्पित थे।
उन्होंने सभी लोगों को वीरता का परिचय दिया
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21वाँ)
सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।
वसुदेव के गोप जीवन के विषय में कुछ पुराणों में वर्णन मिलता है। कि वे गोपालन और कृषि कार्य करते हुए वैश्य वृत्ति का भी जीवन निर्वहन करते थे।
"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन का निर्वाह किया ।६१।
शास्त्रों में वसुदेव का गोप रूप में भी वर्णन है।-
परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु वंश का वर्णन द्वेष दृष्टिकोण से लिखा।
उनकी द्वेष दृष्टि में यदु म्लेच्छ भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों में कालान्तर में ये प्रक्षेप जोड़ दिया गया।
इतना ही नहीं एक समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी परम्परागत रूप से कहा करते हैं कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय के घर हुआ। और यादवों के कुल गुरु गर्गाचार्य और गोपों के साण्डिल्य थे।
और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण, विष्णु पुराण आदि में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक भी जोड़ दिए।
परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में अध्ययन के पश्चात हमने द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित कर दिया है।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन काल में जो शास्त्रों में जोड़-तोड़ हआ उसी के परिणाम स्वरूप शास्त्रों में परस्पर विरोधाभास उत्पन्न हुआ।
अत: आज तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में जिनका खण्डन है
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।
अनुवाद:-
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।
यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
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ययातिशापाद वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।
विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीस का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)
जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित हुए बहुत बाद में शूरसेन के पिता देवमीढ़ के पुरोहित शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मण ही थे जो कश्यप ऋषि की परम्परा से सम्बद्ध हैं।
गर्गाचार्य एक समय भ्रमण करते हुए अपने आश्रय हेतु शूरसेन की सभा में पहुचे थे । तब यादव सभासदों की सम्मति से ये शूरसेन के पुरोहित पद पर आसीन हुए।
वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था।
निराकरण-👇★
अत: यह स्पष्ट ही है कि सम्पूर्ण यादवों के कुल पुरोहित गर्गाचार्य ही नहीं थे।
गर्गाचार्य शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था।
सहस्रबाहू अर्जुन के कुल पुरोहित यद्यपि भृगु वंश से थे परन्तु उनकी सभा में गर्गाचार्य का भी वर्णन प्राप्त होता है । पुत्र उवाच. गर्गाचार्य वर्णन
" सहस्रबाहू कुल पुरोहित यद्यपि भृगु वंश के और्व शाखा में जमदग्नि आदि थे - परन्तु सह्स्रबाहु की सभा में र्गाचार्य का वर्णन भी मिलता है"
तस्य तन्निश्चयं ज्ञात्वा मन्त्रिमध्यस्थितोऽब्रवीत्
गर्गो नाम महाबुद्धिर्मुनिश्रेष्ठो वयोऽतिगः॥१८.१०॥
अर्थ:-उसका वह निश्चय जानकर मन्त्रीयों
के मध्य स्थित गर्ग नाम के महाबुद्धिमान श्रेेष्ठ। और उम्रदराज मुनि थे बोले ।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।
सूरसेन के सौतेले भाई पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________
परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है ।
गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।
वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी करते रहते थे निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है
गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥
नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः ।२।
श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्दनन्दन की यह बात सुनकर श्रीनन्द और सन्नन्द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होनें पहले का निश्चय त्यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया।
मिथिलेश्वर ! नन्दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्कण्ठित हो प्रसन्नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
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( भागवत पुराण में वर्णन है कि )
गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।। ___________________________________
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_____________________________________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः । उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।
पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।
शाण्डिल्य- सा पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है।
सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।
शांडिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी।
फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया।
विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे।
भीष्म की सरसैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे।
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।
कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।
इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।
रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-
यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 8077160219
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