बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

सहस्रबाहू द्वारा परशुराम का वध- एक सत्य- नवीन संस्करण

(महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्ण-संकर जाति कथन नामक अड़तालीसवें अध्याय का सप्तम श्लोक)
कहता है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ तो वैध होती हैं।

"ब्राह्मणी और क्षत्राणी इन दोनों  के गर्भ से जो सन्तान ब्राह्मण के द्वारा उत्पन्न होगी तो वह  ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी और शेष दो पत्नीयों -  वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे 
वे ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
(पृष्ठ संख्या(५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)
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इस प्रमाण के  लिए निम्न शास्त्रीय प्रमाण हैं देखें निम्न श्लोक - देखें 
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"भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।
 (महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
अनुवाद:- ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से तो सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
_____
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी।।४।।

परन्तु परशुराम के द्वारा २१ बार क्षत्रिय विहीन पृथ्वी को करने और फिर उन क्षत्रियों की विधवाओं का ब्राह्मणों द्वारा गर्भाधान करने का प्रकरण ही मिथ्या सिद्ध होता है।
क्योंकि
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ;वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।

तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र) का कथन है।७।
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अब हम उस आख्यान का वर्णन करते हैं जिसमें कहा गया है। परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य किया था और फिर उन क्षत्रियों की विधवाऐं ब्राह्मणों के पास ऋतुदान( गर्भाधान) के लिए आयीं थीं तो ब्राह्मणों द्वारा गर्भाधान होने  उनसे उत्पन्न सन्तानें क्षत्रिय हुईं।
(तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान् )

समस्या यह कि इसी महाभारत में दो तरह की विपरीत बातें किस मूर्ख ने लिख दीं।

प्रथम क्रम में हमने शास्त्रीय आधार पर ही लिखा कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी उनके गर्भ से जो सन्तान उत्पन्न होगी वह केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
_____
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी।
(महाभारत के  अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्ण-संकर जाति कथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक)

अब इसी ग्रन्थ में (महाभारत के आदिपर्व के ६४ वें अध्याय) में  महाभारत अनुशासन पर्व के विपरीत सिद्धान्त को श्लोक कहता है।

"त्रिसप्तकृत्व: पृथ्वीकृत्वा नि:क्षत्रियां पुरा।
 जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।

"तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
 ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत 
सुतार्थिन्यऽभिचक्रमु:।५।

ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता:।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा।६।
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तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।

कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।

जातं वृद्धं  च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा:।९।
(महाभारत आदि पर्व(६४)वाँ अध्याय)
अनुवाद:-
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१) वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पाने के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
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तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
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अब यह ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय विधवाओं से पुन: क्षत्रियों की उत्पत्ति का सिद्धान्त कितना सही है कितना गलत इस शास्त्रीय पद्धति से विचार करते हैं।

विशेष :- जब अनुशासन पर्व कहता है कि ब्राह्मण के द्वारा क्षत्रिया वर्ण की पत्नी में उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी। तो ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की विधवाओं में उत्पन्न संतान क्षत्रिय किस शास्त्रीय विधान से हुई। 

कोई शंकराचार्य अथवा परशुराम भक्त बताऐ ?

अत: यह बात शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत:  विपरीत होने से स्वत: खारिज है।
___________ 
परशुराम की प्रक्षिप्त कथा का सृजन करते हुए आगे महाभारत के आदि पर्व में वर्णन किया कि 
"उस वर्णव्यवस्था में भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया।

सत्य तो यह होना चाहिए 
कि क्षत्रिया स्त्री में ब्राह्मण से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी । न कि क्षत्रिय । 
परशुराम की काल्पनिक कथा बनाने वाला यह शास्त्रीय सिद्धान्त बिल्कुल भूल ही गया ।

अत: परशुराम द्वारा २१बार क्षत्रिय विनाश  वाली घटना "कल्पना और शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत होने से से अमान्य है।

 कुछ प्राचीन शास्त्रों 
में तो प्रमाण तो ये भी मिलता है। कि वे भगवान् सहस्रबाहू विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । और स्वयं दत्तात्रेय ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेच्छा से वरदान दिया था। 
दस वरदान जिन भगवान् दत्तात्रेय ने  कार्तवीर्यार्जुन को प्रदान किये थे वे इस प्रकार है।
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1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार  न लगे 
5- पर्वत 'आकाश" जल" पृथ्वी और पाताल में अविहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7-कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जाऐं एवं भक्ति बनी रहे। 

मांगे गए वरदानों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु-अर्जुन अर्थात् कार्तवीर्यार्जुन-ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने  वाले, शत्रु के मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथि सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने।
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ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने उनकी सहस्र बाहु की प्रशंसा करते हुए कहा-★ 
हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु केे अंश दत्तात्रेय के शिष्य हो ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ,विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४। 
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) 
यद्यपि विष्णु का अञ्शभूत " सुदर्शन के अवतार  तो सहस्रबाहू भी थे। परन्तु उपर्युक्त श्लोक में विष्णोरंश दत्तात्रेय का ही सम्बोधन है। 
 "सहस्रबाहू भी विष्णु के सुदर्शन चक्र रूप का अवतार होने से विष्णु के ही अञ्श थे। परन्तु कालान्तर सहस्रबाहु की महानता ब्राह्मणवाद की भेट  चढ़ गयी। और उनके  सत्य जीवन इतिहास का तिरोभाव हुआ। परिणामस्वरूप शास्त्रीय मर्यादाओं का विध्वंसन भी हुआ।

सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) में परशुराम सहस्र बाहु केन प्रति कहते हैं।

तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ? 
तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ?
जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल ! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? सहस्रबाहू से यह बात परशुराम कह रहे थे।
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एक स्थान पर परशुराम स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए भी कहते हैं।

(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। 
पुराणों के अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान का वर्णन करते हैं। 

निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं जिनमें परशुराम स्वयं सहस्रबाहु की प्रशंसा करतेहैं। 

"लक्ष्मीनारायणसंहिता -खण्ड प्रथम          (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः ४५८ में 
परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।         
             ★"श्रीनारायण उवाच"★
शृणु लक्ष्मि ! माधवांशः परशुराम उवाच तम् ।
कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।
शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।
कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।
किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।
यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।
त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।
कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।
सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।
अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।
राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।
गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।
द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।
बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४।
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तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच जो विष्णु द्वारा सिद्ध था ) प्रदान किया।८५। 
यहाँ उपर्युक्त श्लोक में एक बात विचारणीय है।
विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंश दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के लिए सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
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जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था  परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवों के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये।।

परशुराम के गिर जाने के बाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।

इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि नाम को क्यो स्मरण किया। 

यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो ।
वास्तव में  इतिहास तो यह रहा होगा कि सहस्रबाहू ने परशुराम का बध कर दिया था। 

परन्तु परशुराम का बध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था इसी लिए इसी समस्या के निदान के लिए निम्न श्लोक और  बनाकर जोड़ दिया गया ताकि  पुराणों में परशुराम के मरने बाद  शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।

और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया जाना। ब्राह्मणीय युक्ति ही थी । देखें इस सन्दर्भ में निम्न श्लोक दृष्टव्य है।
"ब्राह्मणं जीवयामास शम्भुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
अर्थ:- नारायण की आज्ञा से  शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।

दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित (जाम)हो गये।

"श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९। 
विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं।

यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित किया जाएगा । जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही होगा । 
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"परन्तु  उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू और भी विचारणीय हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं  प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं। यदि जमदग्नि के पास संजीवनी विद्या थी तो वह उन्होंने अपने पुत्रों को भी दी होगी तब उनके पुत्रों ने जमदग्नि को  जीवित क्यों नही किया ?
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और तृतीय आख्यानक यह है  कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है। इससे तो परशुराम इन्द्र के अंश हुए नकि विष्णु के-
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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने 
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की क्या यह कृत्य करना विष्णु के अवतारीयों का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।

महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
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"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः।     ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)

"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।        
अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।

"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
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"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं। राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। 
"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। 
उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम्।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३।
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। __________________
सन्दर्भ- कालिकापुराण अध्यायः (८३) मेेंं परशुराम जन्म की कथा वर्णित है।

 नारदपुराणम्- पूर्वार्धः/अध्यायः ७६
                ।।नारद उवाच ।।

कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।।
जायंतेऽथ प्रलीयंते स्वस्वकर्मानुसारतः ।। ७६-१।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।। ७६-२।
         ।।सनत्कुमार उवाच ।।
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये ।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि ।। ७६-३।

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले ।।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम् । ७६-४
 

तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।। ७६-५ 

तेनास्य मंत्रपूजादि सर्वतंत्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।। ७६-६ ।।

वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।। ७६-७ ।।

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम् ।।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।। ७६-८ ।।

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।। ७६-९ ।।

दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।। ७६-१0 ।।

शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।। ७६-११ ।।

इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।। ७६-१२ ।।

वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।। ७६-१३ ।।

दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।। ७६-१४ 

ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।। ७६-१५ ।।

सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। ७६-१६ 

उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।। ७६-१७ ।।

दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।। ७६-१८ ।।

लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।। ७६-१९ ।।

षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।। ७६-२०

अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।। ७६-२१ 

दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।। ७६-२२ 

आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः ।।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।। ७६-२३ ।।

एवं संसाधितो मंत्रः प्रयोगार्हः प्रजायते ।।
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजायंत्रमिहोच्यते ।। ७६-२४ 

स्वबीजानंगध्रुववाक्कर्णिकं दिग्दलं लिखेत् ।।
तारादिवर्मांतदलं शेषवर्णदलांतरम् ।। ७६-२५ ।।

ऊष्मान्त्यस्वरकिंजल्कं शेषार्णैः परिवेष्टितम् ।।
कोणालंकृतभूतार्णभूगृहं यन्त्रमीशितुः ।। ७६-२६ 

शुद्धभूमावष्टगन्धैर्लिखित्वा यन्त्रमादरात् ।।
तत्र कुंभं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम् ।। ७६-२७ 

स्पृष्ट्वा कुंभं जपेन्मन्त्रं सहस्रं विजितेंद्रियः ।।
अभिषिं चेत्तदंभोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ।। ७६-२८ 

पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरंजनम् ।।
वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः ।। ७६-२९ ।।

शत्रूपद्रव आपन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।।
संस्थापंयेदिदं यन्त्रं शत्रुभीतिनिवृत्तये ।। ७६-३0 

सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैर्मार्यते रिपुः ।।
धत्तूरैः स्तभ्यते निम्बैर्द्वेष्यते वश्यतेंऽबुजैः ।। ७६-३१ ।।

उच्चाटने विभीतस्य समिद्भिः खदिरस्य च ।।
कटुतैलमहिष्याज्यैर्होमद्रव्यांजनं स्मृतम् ।। ७६-३२ ।।

यवैर्हुते श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः ।।
तिलतंडुलसिद्धार्थजालैर्वश्यो नृपो भवेत् ।। ७६-३३ ।।

अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।।
स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां मुराणां भूतशांतिदः ।। ७६-३४ ।।

अश्वत्थोदुंबरप्लक्षवटबिल्वसमुद्भवाः ।।
समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्द्धनं सुखम् ।। ७६-३५ ।।

निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चौरनाशनम् ।।
रोचनागोमयैस्तंभो भूप्राप्तिः शालिभिर्हुतैः ।। ७६-३६ ।।

होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।।
प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्य्यगौरवलाघवात् ।। ७६-३७ ।।

कार्तवीर्य्यस्य मन्त्राणामुच्यते लक्षणं बुधाः ।।
कार्तवीर्यार्जुनं ङेंतं सर्वमंत्रेषु योजयेत् ।। ७६-३८ 

स्वबीजाद्यो दशार्णोऽसौ अन्ये नवशिवाक्षराः ।।
आद्यबीजद्वयेनासौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः ।। ७६-३९ ।।

स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः ।।
स्वपाशाभ्यां पञ्चमोऽसौ षष्टः स्वेन च मायया ।। ७६-४0 ।।

स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात्स्वरमाभ्यामथाष्टमः ।।
स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यामथांतिमः ।। ७६-४१ ।।

द्वितीयादिनवांतेषु बीजयोः स्याद्व्यतिक्रमः ।।
मंत्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ।। ७६-४२ 

एतेषु मंत्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।।
एषामाद्ये विराट्छदोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ।। ७६-४३ ।।

दश मंत्रा इमे प्रोक्ता यदा स्युः प्रणवादिकाः ।।
तदादिमः शिवार्णः स्यादन्ये तु द्वादशाक्षराः ।। ७६-४४ ।।

त्रिष्टुपूछन्दस्तथाद्ये स्यादन्येषु जगती मता ।।
एवं विंशतिमंत्राणां यजनं पूर्ववन्मतम ।। ७६-४५

दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडंगकम् ।।
तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।। ७६-४६ ।।

चतुर्दशार्णो मंत्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता ।।
भूनेत्रसमनेत्राक्षिवर्णेरस्यांगपंचकम् ।। ७६-४७ ।।

तारो हृद्भगवान् ङेंतः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ।।
वर्मास्त्राग्निप्रियामंत्रः प्रोक्तो ह्यष्टादशार्णकः ।। ७६-४८ ।।

त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पंचांगकं मनोः ।।
नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।। ७६-४९

सर्वदुष्टांतकायेति तपोबलपराक्रमः ।।
परिपालितसप्तांते द्वीपाय सर्वरापदम् ।। ७६-५०

जन्यचूडा मणांते ये महाशक्तिमते ततः ।।
सहस्रदहनप्रांते वर्मास्त्रांतो महामनुः ।। ७६-५१ ।।

त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरमात्सर्वविघ्नहृत् ।।
राजन्यक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।। ७६-५२ ।।

माहिष्मतीपतिः पश्चाञ्चतुर्थः समुदीरितः ।।
रेवांबुपरितृप्तश्च काणो हस्तप्रबाधितः ।। ७६-५३ 

दशास्येति च षड्भिः स्यात्पदैर्ङेतैः षडंगकम् ।।
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडंतं नर्मदाजले ।। ७६-५४ 

हस्तैर्जलौधं रुंधंतं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ।।
एवं ध्यात्वायुतं मंत्रं पजेदन्यत्तु पूर्ववत् ।। ७६-५५ 

पूर्वं तु प्रजपेल्लक्षं पूजायोगश्च पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान् ।। ७६-५६ ।।

तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च संवदेत् ।।
लभ्यते मंत्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंयुतः ।। ७६-५७

पादैः सर्वेण पंचांगं ध्यानपूजादि पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्याय शब्दांते विद्महे पदमुञ्चरेत् ।। ७६-५८ 

महावीर्याय वर्णांते धीमहीति पदं वदेत् ।।
तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णांते चोदयात्पदमीरयेत् ।। ७६-५९ 

गायत्र्येषार्जुन स्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।।
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसंचयाः ।। ७६-६०

पलायंते गृहाद्दूरं तर्पणाद्ध्रवनादपि ।।
अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ।। ७६-६१ ।।

वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।।
माघफाल्गुनयोर्मासोर्दीपारंभं समाचरेत् ।। ७६-६२ 

तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।।
हस्तोत्तराश्विरौद्रेयपुष्यवैष्णववायुभे ।। ७६-६३ ।।

द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारंभो हितावहः ।।
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि ।। ७६-६४ 

प्रीतौ हर्षं च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।।
करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु ।। ७६-६५ ।।

योगेषु रात्रौ पूर्वाह्णे दीपारंभः कृतः शुभः ।।
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः ।। ७६-६६ ।।

यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं च दुर्लभम् ।।
अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम् ।। ७६-६७ ।।

आद्ये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी सपीतकैः ।।
प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ।। ७६-६८ ।।

प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।।
षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचंदनतंडुलैः ।। ७६-६९ ।।

अतः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् ।।
नवार्णैर्वेष्टयेत्तञ्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः ।। ७६-७०

एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् ।।
स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः ।। ७६-७१ 

कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।।
शांतये मुद्गचूर्णोत्थं संधौ गोधूमचूर्णजम् ।। ७६-७२ 

आज्ये पलसहस्रे तु पात्रं शतपलं स्मृतम् ।।
आज्येऽयुतपले पात्रं पलपंचशता स्मृतम् ।। ७६-७३।

पंचसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं स्मृतम् ।।
त्रिसाहस्री घृतपले शर्करापलभाजनम् ।। ७६-७४ 

द्विसाहख्त्र्यां द्विशतमितं च भाजनमिष्यते ।।
शतेऽक्षिचरसंश्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ।। ७६-७५ 

नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ।। ७६-७६ ।।

एका तिस्रोऽथवा पंचसप्ताद्या विषमा अपि ।।
तिथिमानादासहस्रं तंतुसंख्या विनिर्मिता ।। ७६-७७ ।।

गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।।
सहस्रपलसंख्यादिदशांशं कार्यगौरवात् ।७६-७८ 

सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।।
तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूलमूलिकाम् ।। ७६-७९ ।।

विमुंचेद्दक्षिणे पात्रमध्ये चाग्रे कृताग्रिकाम् ।।
पात्रदक्षिणदिग्देशे मुक्त्वां गुलचतुष्टयम् ।। ७६-८० 

अधोग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् ।।
दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ।। ७६-८१ 

दीपात्पूर्वत्र दिग्भागे सर्वतोभद्रमंडले ।।
तंडुलाष्टदले वापि विधिवत्स्थापयेद्धूटम् ।। ७६-८२ ।।

तत्रावाह्य नृपाधीशं पूजयेत्पूर्ववत्सुधीः ।।
जलाक्षतान्समादाय दीपं संकल्पयेत्ततः। ७६-८३ 

दीपसंकल्पमंत्रोऽयं कथ्यते द्वीषुभूमितः ।।
प्रणवः पाशमाये च शिखा कार्ताक्षराणि च ।। ७६-८४ ।।

वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च ।।
बाहवे इति वर्णांते सहस्रपदमुच्चरेत् ।। ७६-८५ ।।

क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च ।।
आत्रेयायानुसूयांते गर्भरत्नाय तत्परम् ।७६-८६ ।।

नमो ग्रीवामकर्णेंदुस्थितौ पाश इमं ततः ।।
दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः ।। ७६-८७ ।।

दुष्टान्नाशययुग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।।
शत्रून् जहिद्वयं माया तारः स्वं बीजमात्मभूः ।। ७६-८८ ।।

वह्नीप्रिया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।।
भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकांते वरप्रद ।। ७६-८९ ।।

मायाकाशद्वयं वामनेत्रचंद्रयुतं शिवा ।।
वेदादिकामचामुंडाः स्वाहा तु पूसबिंदुकौ ।। ७६-९0 ।।

प्रणवोऽग्निप्रिया मंत्रो नेत्रबाणाधराक्षरः ।।
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामंत्रस्य परिकीर्तितः ।। ७६-९१ 

छन्दोऽमितं कार्तवीर्युर्जुनो देवोऽखिलाप्तिकृत् ।।
चामुंडया षडंगानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ।। ७६-९२ 

ध्यात्वा देवं ततो मंत्रं पठित्वांते क्षिपेज्जजलम् ।।
गोविंदाढ्यो हली सेंदुश्चामुंडाबीजमीरितम् ।। ७६-९३ ।।

ततो नवाक्षरं मंत्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ।।
तारोऽनंतो बिंदुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।। ७६-९४ ।।

कूर्माग्नी शांतिबिंद्वाढ्यौ वह्नि जायांकुशं ध्रुवम् ।।
ऋषिः पूर्वोदितोनुष्टुप्छंदोऽन्यत्पूर्ववत्पुनः ।। ७६-९५ ।।

सहस्रं मंत्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ।।
एवं दीपप्रदानस्य कर्ताप्नोत्यखिलेऽप्सितम् ।। ७६-९६ ।।

दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ।।
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम्।७६-९७ ।।

शूद्राणां प्रध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य वधबन्धनम् ।।
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।। ७६-९८ ।।

दीपज्वाला समा सिद्ध्यै वक्रा निशविधायिनी ।।
शब्दा भयदा कर्तुरुज्ज्वला सुखदा मता ।। ७६-९९ ।।

कृष्णा शत्रुभयोत्पत्त्ये वमंती पशुनाशिनी ।।
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्यते दैवतः ।। ७६-१०० ।।

पक्षादर्वाक्तदा गच्छेद्यजमानो यमालयम् ।।
वर्त्यतरं यदा कुर्यात्कार्यं सिद्ध्येद्विलंबतः ।। ७६-१0१ ।।

नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपांतरे कृते ।।
अशुचिस्पर्‌शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः ।। ७६-१0२ ।।

श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितो भयम् ।।
पात्रारंभे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः ।। ७६-१0३ ।।

तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोंऽतरायतः ।।
आसमाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्यं च भूशयः ।। ७६-१0४ ।।

स्त्रीशूद्रपतितादीनां संभाषामपि वर्जयेत् ।।
जपेत्सहस्रं प्रत्येकं मंत्रराजं नवाक्षरम् ।। ७६-१0५ 

स्तोत्रपाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः ।।
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मंत्रनायकम् ।। ७६-१0६ ।।

सहस्रं प्रजपेद्वात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ।।
समाप्य शोभनदिने संभोज्य द्विजसत्तमान् ।। ७६-१0७ ।।

कुंभोदकेन कर्तारमभिषिंचन्मनुं जपेत् ।।
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात्पुष्कलां तोषहेतवे ।। ७६-१0८ ।।

गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः ।।
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद्गुरुः ।। ७६-१0९ ।।

दत्त्वा धनादिकं तस्मै दीपदानाय नारद ।।
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।। ७६-११0 ।।

सिद्धिर्न जायते तस्य हानिरेव पदे पदे ।।
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महषीभवम् ।। ७६-१११ ।।

तिलतैलं तु तादृक् स्यात्कनीयोऽजादिजं घृतम् ।।
आस्यरोगे सुगंधेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।। ७६-११२ ।।

सिद्ध्वार्थसंभवेनाथ द्विषतां नाशनाय च ।।
सहस्रेण पलैर्दीपे विहिते च न दृश्यते ।७६-११ ।।

कार्यसिद्धस्तदा कुर्यात्र्रिवारं दीपजं विधिम् ।।
तदा सुदुर्लभमपि कार्य्यं सिद्ध्व्येन्न संशयः ।। ७६-११४ ।।

दीपप्रियः कार्तवीर्यो मार्तंडो नतिवल्लभः ।।
स्तुतिप्रोयो महाविष्णुर्गणेश स्तपर्णप्रियः ।। ७६-११५ ।।

दुर्गार्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः ।।
तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादरात् ।। ७६-११६ ।।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ।। ७६ ।।

नारद पुराण के अनुसार, [यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले]

"सहस्त्रबाहु भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार थे"

नारद पुराण हैहय वंशी यदुवंशी क्षत्रिय महाराज सहस्त्रबाहु के लिये मन्त्र, दीप - धूप तथा पूजा करने के लिए कहता है तथा उनके 108 नाम  व्याख्या  करता है।  

महाभारत के अनुसार, परमप्रतापी धनुर्धर अर्जुन के जन्म के समय आकाशवाणी होती है "कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवतुल्यपराक्रमः"

शृण्वतां सर्वभूतानां तेषां चाश्रमवासिनाम्।
कुन्तीमाभाष्य विस्पष्टमुवाचेदं शुचिस्मिताम्।।
1-132-19a
1-132-19b
कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवतुल्यपराक्रमः।
एष शक्र इवाजय्यो यशस्ते प्रथयिष्यति।।
1-132-20a
1-132-20b
अदित्या विष्णुना प्रीतिर्यथाऽभूदभिवर्धिता।
तथा विष्णुसमः प्रीतिं वर्धयिष्यति तेऽर्जुनः।।
1-132-21a
1-132-21b

अर्थात "ओ कुंती तेरा यह पुत्र कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु की तरह महापराक्रमी होगा जो शिव के सामान शक्तिशाली एवं देवराज इंद्र के सामान अजेय होगा जो तेरी ख्याति को चहुँ दिशाओं में फैलाएगा। 

फिर ये भ्रम किसने फैलाया कि महापराक्रमी , धर्म परायण कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु अत्याचारी थे। 

 आइये महापराक्रमी , धर्म परायण महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रबाहु की स्तुति करें और उन्हें उनका सम्मान लौटायें

प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि-

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