शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

पद्मपुराणम्- सृष्टि खण्डम्-

               पद्मपुराणम्-खण्डः(१) 
           (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
        पद्मपुराणम्‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)
____________________________________
_________________________________ 

    
                    ।भीष्म उवाच।


हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ?  और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
_______________ऊं________________


ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ?  और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।

_______________ऊं________________
आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।

_______________ऊं________________
                  
             (पुलस्त्य ऋषि बोले-)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४। 
_______________ ऊं________________

उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मय कार्य किया  वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।
_______________ऊं________________


इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की  वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने  यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी  ।६।

_______________ऊं________________

और अन्य गोपों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण (आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला (करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।

_______________ऊं________________

यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रहीं थीं ।८। 

_______________ऊं________________

और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌?
।९।
_______________ऊं________________

हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे  केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

_______________ऊं________________


यहाँ यह  हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त  किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है । अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है 
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।
_______________ऊं________________

यह अत्यन्त पुण्य शालिनी, सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

_______________ऊं________________

इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोग  शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को (पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३  

_______________ऊं________________

तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योग करने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले  वेद पारंगत  ब्राह्मण  भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

_______________ऊं________________

(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा  यह जानकर कि आप धार्मिक' सदाचरण करने वाले और धर्मवत्सल के रूप में पात्र हैं यह कन्या तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।

_______________ऊं________________


_________________
इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।

_______________ऊं________________
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास-नृत्य करेंगीं।१७।

_______________ऊं________________


मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।

_______________ऊं________________

उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
_______________ऊं________________

इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

_______________ऊं________________

उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति वंश और कुल ( परिवार ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार करने योग्य ही है ।२१।
_______________ऊं________________



आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर गोलोक के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।

_______________ऊं________________

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।

उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।

कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।

कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः
एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।

तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।

उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।

तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।

पंचाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नांतः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।

नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 1.17.50

____________________________________    
                       ब्रह्मोवाच________________
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।

एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।

ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।

संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।

अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।

पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।

ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तु।६४।

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।

स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
             

"मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाःकपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।

दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९। 

ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताःऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।

वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताःन पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।

"सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताःरौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२। 

आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।

तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।

एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।

शांता दांता द्विजा ये तु भक्तिमंतो मयि स्थिराः
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।

अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।

नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।

विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।

एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।

यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वो द्विजाः।८८।

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।


कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।


बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।


मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं च भविष्यति
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिं तामवैक्षत।९२।

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।


एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।


न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।


वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।


रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।


प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।


तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।


अतः परं प्रवक्ष्यामि सावित्र्या ब्रह्मणा सह
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100


सावित्रीगमने सर्वा आगता देवयोषितः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना विष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।


आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता
मदिरा च महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।


श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।


सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।


जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।


गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।


स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।


मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।


सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।


राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।


अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।


काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।


आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।


करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।


उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रं शृंगाटकं तथा।११५।


कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च
अक्षोटामलकान्गृह्य जंबीराणि तथापरा।११६।


बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुंभकं तथा।११७।


एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः
सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।


सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।


त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।


पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।


वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।


मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।


शक्रेणान्याहृताभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।


कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।


वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।


पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।


पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।


द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।१२९।


पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।


कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।१३१।


प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।


उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।


उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्
।१३४।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।


यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।


भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।


कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।


कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।


यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।१४०।


भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
ब्रह्मोवाच
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।


पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।


गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।


पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
पुलस्त्य उवाच
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।


यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।


नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।


करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।


भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।


यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।


अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०। 1.17.150


शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।


भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।


न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।


यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।

_______
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।१५५


भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।१५६।


विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः
गंगाद्वारे स्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।


अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।


जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति
अमेध्येषु च ते जिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।


ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्री वै शशाप ह
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रो वृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।


सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ
परान्नेषु सदा तृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च
 ।१६१।

अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।


प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा
 ।१६३।

ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा
शापं दत्वा तथा तेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।


ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदा सा च व्यवस्थिता
लक्ष्मीं प्राह सतीं तां च शक्रभार्यां वराननाम्।१६५।


युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि संसदि
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।


ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।


यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः
तासामपि तथा शापं प्रदास्ये कुपिता भृशम्।१६८।


नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यति कदाचन
क्षुद्रा सा चलचित्ता च मूर्खेषु च वसिष्यति।१६९।


म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।




हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को  अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।

_______________ऊं________________

ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो !
उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२४।

_______________ऊं________________


कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को गये  देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली २५।


_______________ऊं________________

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको  सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता  के पास जाकर  कहा ! 

_______________ऊं________________


भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता  और बान्धवों । मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी  चाहिए ।२७।


_______________ऊं________________

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

मेरी सखीयाँ' मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं(देवीयों) के साथ हूँ। २८।



_______________ऊं________________
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।


_______________ऊं________________
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।



_______________ऊं________________
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।


_______________ऊं________________
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

_______________ऊं________________
बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

_______________ऊं________________

कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।
अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा  उनको दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए भी ।३४।

_______________ऊं________________
उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।
शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ  सभी को सन्तुष्ट करने वाले  ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।


_______________ऊं________________
कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।
हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात ्हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।

_______________ऊं________________
कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।

इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

_______________ऊं________________
तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।

उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।


_______________ऊं________________
उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये  ।३९।



_______________ऊं________________
वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।
वे देवताओं को मोहित करके  आकाश में वहीं स्थित हो गये  कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 


_______________ऊं________________
कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।
जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; गतो फिर होम कैसे किया जाा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था


_______________ऊं________________
विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।

उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।

_______________ऊं________________
तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।   
वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।


_______________ऊं________________
पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।
पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते हैं 
 थे ।४४।

_______________ऊं________________
नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।
इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।


_______________ऊं________________
तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।
परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।



_______________ऊं________________
उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।
उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।

विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आज आटे की चौंसी 


_______________ऊं________________
कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।
हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८। 

विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।)  इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।

_______________ऊं________________
तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।
तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें।
अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।


_______________ऊं________________
वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 
1.17.50
हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।।५०।


_______________ऊं________________
                      ब्रह्मोवाच
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।
ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
 यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।


_______________ऊं________________
एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२
उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

_______________ऊं________________
ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।

_______________ऊं________________
चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४
चारों वेदोंं के जानकार  ब्राह्मण उस समय  निश्चय ही वे  तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४। 

_______________ऊं________________
संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।
शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करत देखा।५५।


_______________ऊं________________
प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।
शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने  उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।

_______________ऊं________________
अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।
दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे  कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।


_______________ऊं________________
प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।
कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से  प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्म चारी (वटव) वहाँ  उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।
 ।५८। 

_______________ऊं________________
पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।
यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।

_______________ऊं________________
केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०
तुम्हें यह वृतचर्या किस पाप दर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ?  किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।

_______________ऊं________________
शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१
शंकर ने कहा मेरा लिंग(लण्ड) ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है  अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता ।६१।
विशेष-
जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति  रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
(जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि)

_______________ऊं________________
मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२। 
मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

_______________ऊं________________
उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।

उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।
_______________ऊं________________
ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृते न तु।६४।
इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले  देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं! ।६४।

_______________ऊं________________
कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।
अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५। 


_______________ऊं________________
स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।
हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।

_______________ऊं________________
यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहते हुए बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को ।६७।



_______________ऊं________________
मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।
शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८। 

_______________ऊं________________
दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।
 उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे  तब  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये । ६९। 

_______________ऊं________________
ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।
___________________________________
इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ । ७०। 

_______________ऊं________________
वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।
वेश्या प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी और माता-पिता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।


_______________ऊं________________
सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताः
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२।
तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। 


_______________ऊं________________
आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।
केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
 

_______________ऊं________________
तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी दास बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

_______________ऊं________________
एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।
इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्ध नारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। 



_______________ऊं________________
अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।
उनका अन्वेषण करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मण जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६।



_______________ऊं________________
स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।
वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके  शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जपकरके  अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।

_______________ऊं________________
अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।
 मेरे द्वारा   असत्य नहीं कहा गया और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं  दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।

_______________ऊं________________
शान्ता दान्ता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराःन तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।
जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।


_______________ऊं________________
अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।
अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०। 


_______________ऊं________________
नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।
 जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है  इतना  कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। 


_______________ऊं________________
लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।
देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आगये सभी के साथ जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२। 


_______________ऊं________________
विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।
वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३। 


_______________ऊं________________
ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।



हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ? वहाँ रूद्र और विष्णु कैसे बने रहे ? ।१।

 वहाँ पर ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी ने क्या किया ?।२।

आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना हुई उसे भी बताइए  मुझे यह भी जानने का कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने उसके बाद क्या किया ?। ३।

           ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहता हूँ । आप सावधानी पूर्वक श्रवण करें ।४। 

उस सभा में जाकर रूद्र ने आश्चर्य मय कार्य किया वे अत्यन्त निन्दित ( घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।

इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने जब यह जाना कि गोपकन्या का अपहरण हो गया और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में कैसे बैठी है ? यह देख उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्व सा कहकर तथा सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८। 

अलक्तक से रहित तुझ सुन्दरी को यहाँ पर कौन लाया है ? तुम्हें साड़ी से रहित करके यह कम्बल किसने पहना दिया है ।९।

हे पुत्री ! किसने तम्हरे केशों की जटा ( जुड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया है ? अहीरों की इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

यहाँ इसे हम लोग लायें हैं और इसका उपयोग  पत्नी के रूप में किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है ।
अत: यहाँ कोलाहल मत करो! ।११।




यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्य वती तथा तुम्हारे जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पवित्रा नहीं होती तो इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों को शोक नहीं करना चाहिए!
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को पति के रूप में प्राप्त किया है ।१३  

तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और वेद पारंगत विप्र भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों मैंने धार्मिक सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र जानकर ही ब्रह्मा को इस कन्या का दान ( कन्यादान) किया ।१५।

इस कन्या ने तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया इसके द्वारा( देवों के कार्य की सिद्धि हो गयी है अर्थात सिद्धि का द्वार खुल गया ) ।१६।

जब पृथ्वी पर नन्द वसुदेव आदि का गोप रूप में अवतरण होगा  उस समय मैं भी तुम्हारे जाति कुल में अवतार लुँगा देव कार्य की सिद्धि के लिए ।१७।

मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या युवतियाँ आदि मेरे साथ खेल करेंगीं।१८।

उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।

इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीरों ने उन्हें प्रणाम किया और सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव आपने जो वरदान हमे हें दिया है वह हम लोगों को प्राप्त हो ! आपको हमारे जाति कुल ( वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार लेना ही चाहिए ।२१।

आपका दर्शन करके ही हम लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं ।
कल्याण करने वाली मंगलमयी ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का कारण करने वाली बन गयी है ।२२।

हे देवों के स्वामी हे विभो! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को आश्वस्त किये जाने पर तथा ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया ऐसा ही हो ! उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२३।



और वह कन्या मन में विचार कर रही थी कि किसने इनको मेरे विषय में बता दिया कि ये लोग यहाँ तक आ गये  उन अपने बान्धव लोगों को देखकर उस परिणीता कन्या ने कहा कि मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ।

आप लोगों अथवा मेरे माता- पिता को मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।२५-२७।

मेरी सखीयाँ मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवों
के साथ हूँ। २८।

तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में सुशोभित हुयीं ।२९।

इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।

गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह सभी देवी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।

वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से आया हुआ देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा निन्दा किये जाते हुए और लोगों द्वारा लगाये जाने पर भी शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों के प्रति कहा - सभी को सन्तुष्ट करने वाले इस ब्रह्मा जी के यज्ञ में किसी को भी नहीं लगाया जाता है हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? 

इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना  इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

उन ब्राह्मणों के उस कर्म देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते हुए कहा ।३८। 

उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये वे देवताओं को मोहित करने वाले आकाश में वहीं स्थित हो गये ।३९।


शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 

जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है तो फिर होम कैसे किया जाा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने ही कहा है ।४१।


उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर बैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे बैंक दिए जाने पर ।४२।     

वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी बैंक दिये जाने पर तीसरा वीसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।

पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण सवालों का अन्त नहीं कर पार ह
 थे ।४४।

इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण उनकी शरण में गये पुष्कर वन में वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।

उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि नहीं हो सकती है ।४७।



विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आज आटे की चौंसी 
____________________________________

हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन हो जाता है ।४८। 

आप जो भी कहोगे
 मैं आपको दुँगा अजेय कुछ भी नहीं है 
ब्राह्मणों ने तथास्तु! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।

हे ब्रह्मा  आपके हृदय में जो वरदान की इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है ।।५०।


ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं माँगूगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।

उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं शिवजी ने स्थान बनाया ।।५३।
                               


चारों वेदोंं के जानकार उस समय शिवजी के द्ववारादेखने के समय ब्राह्मणों के बात करने पर कौतूहलवश सभा मेंं आकर स्विष्टकृत होम के समय शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ।५४-५५। ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने देखा  उनको देखकर कुछ ब्राह्मणों ने उनका उपहास किया तो कुछ नें निन्दा की ।५६।

दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण दृप्त बने उन्हें कुछ ब्राह्मण ढ़ेले और लाठी से मारने लगे ।५७।

कुछ लोग पास में ही शंकर जी का उपहास करने लगे उसके बाद दूसरे ब्राह्मण शंकर जी की जटा को पकड़कर ।५८। 

पूछने लगे तुम्हें इस वृतचर्या को किसने बताया ? यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं क्या उन सबके लिए तुम यहाँ आये हो ?।५९। किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।
 शंकर ने कहा मेरा लिंग(लण्ड) ब्रह्म स्वरूप है और मन ही जनार्दन है इस बीज वपन करने से संसार कष्ट अनुभव करता है।६१। मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी सी सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

 उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।
इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया इस आचरण को विष्णु ने भी नहीं बतलाया है । ब्रह्म हत्या करने वाले शंकर के द्वारा यह चर्या की गयी।६४।
अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए।६५। 

हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ? आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहने वाले बनाबटी
 ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से ।६६। डण्डों और कीलों से मारने लगे।  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुुुए ।शंकर ।क्रोधित हो गये । ६७। 



इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी । ७०। वेश्या प्रेमी द्यूतक्रीडाप्रेमी और मातापता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१। तुम लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने वाले होओगे दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
उनके यहाँ धन पुत्र दासी दास बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृ सेउनके यहाँ सदवंश में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

इस तरह से ब्राह्मणों को ।
शाप और वरदान देकर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। उनका अन्वेषण करके भी ब्राह्मण जब उन्हें नहीं प्राप्त नहीं कर पाये तो नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६। वहाँ उन ब्राह्मणों ने पहुँच कर शतरूद्रीय सूक्त का जप किया पाठ के अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७। मैंने कोई भी बात असत्य नहीं कही और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं क्षमा करता हूँ ‌।७८। जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०। किञ्च जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अमंगल नहीं होता है ।इतना ही कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आये जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२। वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३। ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।










मुझ पर दया की, उनके पास धन, पुत्र, दासी, दास और छोटे पशु होंगे।

75-93. इस तरह एक श्राप और वरदान देकर भगवान गायब हो गए। जब वह चला गया, तो ब्राह्मणों ने उसे भगवान शंकर मानकर उसकी तलाश करने की कोशिश की; लेकिन जब उन्होंने उसे नहीं पाया, तो वे स्वयंभू धार्मिक अनुष्ठानों से संपन्न होकर पुष्कर वन में आ गए। प्रमुख सरोवर में स्नान कर ब्राह्मणों ने रुद्र के सौ (नामों) का उच्चारण किया। प्रार्थना के बड़बड़ाने के अंत में, भगवान (अर्थात शिव) ने उनसे स्वर्गीय स्वर में बात की: "यहां तक ​​कि एक स्वतंत्र बातचीत में भी मैंने कभी झूठ नहीं कहा; तो कैसे (मैं ऐसा करूँगा) जब मैंने अपनी इंद्रियों पर अंकुश लगा लिया है? मैं तुम्हें फिर से सुख प्रदान करूंगा। वेद (अर्थात वैदिक ज्ञान) जो ब्राह्मण शांत, संयमी, मेरे प्रति समर्पित और मुझमें स्थिर (दिमाग) हैं, उनका धन और संतान नहीं छीनी जाएगी। उन (ब्राह्मणों) के लिए कुछ भी अशुभ नहीं है जो पवित्र अग्नि को बनाए रखने में लगे हुए हैं, जनार्दन को समर्पित हैं(अर्थात विष्णु), ब्रह्मा (और) सूर्य की पूजा करें - चमक का ढेर, और जिनके मन संतुलन में स्थिर हैं। ” ये बातें कहकर वह चुप हो गया। सभी (ब्राह्मण) महान देवता (अर्थात् शिव) से वरदान और कृपा प्राप्त करके (उस स्थान) जहां ब्रह्मा (रहने) गए थे। वे, ब्रह्मा को प्रसन्न करते हुए, उनके सामने बने रहे। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उनसे कहा: "मुझसे भी एक वर चुन लो।" ब्रह्मा के इन वचनों से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रसन्न हुए । (उन्होंने आपस में कहा:) "हे ब्राह्मणों, ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर हमें कौन सा वरदान मांगना चाहिए? आइए, इस वरदान के फलस्वरुप पवित्र अग्नि, वेदों, विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और संतानों से संबंधित (अर्थात) संसार की रक्षा करें। जब ब्राह्मण इस प्रकार (आपस में) बात कर रहे थे तो वे क्रोधित हो गए; "तुम कौन हो? यहाँ कौन प्रमुख हैं? हम यहां श्रेष्ठ हैं।" अन्य ब्राह्मणों ने कहा: "नहीं, (ऐसा नहीं है)।" ब्राह्मणों को जो वहां थे और क्रोध से भरे हुए थे, देखकर ब्रह्मा ने उनसे कहा: "चूंकि आप यज्ञ सभा से तीन समूहों में बने रहे, इसलिए, ब्राह्मण, आप में से एक समूह को बुलाया जाएगाअमूलिका ; जो तटस्थ रहे, वे उदासीन कहलाएंगे ; तीसरा समूह, हे ब्राह्मणों, उन लोगों में से होगा जिनके पास हथियार हैं और जिन्होंने खुद को तलवारों से लैस किया है और उन्हें कौशिकी कहा जाएगा । यह स्थान, इस प्रकार तीन तरीकों से (तीन समूहों द्वारा) कब्जा कर लिया गया है, पूरी तरह से आपका होगा। यहां की प्रजा (जीवित) बाहर से (अर्थात बाहरी लोगों द्वारा) 'संसार' कहलाएगी; विष्णु निश्चित रूप से इस अज्ञात स्थान की देखभाल करेंगे। मेरे द्वारा दिया गया यह स्थान सदा बना रहेगा और पूर्ण होगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा ने यज्ञ की समाप्ति का विचार किया। ये सभी ब्राह्मण जो (कुछ समय पहले) क्रोध और ईर्ष्या से भरे हुए थे, एक साथ मेहमानों को खिलाया और वैदिक अध्ययन में तल्लीन हो गए।



94-99। यह पुष्कर, जिसे ब्रह्म भी कहा जाता है, एक महान पवित्र स्थान है। उस पवित्र स्थान में रहने वाले शांत ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मा की दुनिया में कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं है। हे श्रेष्ठ राजा, बारह वर्षों के बाद अन्य पवित्र स्थानों पर होने वाली किसी वस्तु की पूर्ति केवल छह महीने के भीतर ही इन पवित्र स्थानों पर होती है, अर्थात। कोकामुख , कुरुक्षेत्र , नैमिष जहां ऋषियों की मण्डली है, वाराणसी , प्रभास , वैसे ही बदरीकाश्रम , और गंगाद्वार , प्रयाग , और उस बिंदु पर जहां गंगा समुद्र से मिलती है, रुद्रकोशी , विरुपा, इसलिए मित्रवण भी [४] ; (मनुष्य के उद्देश्य की पूर्ति के बारे में) इसमें कोई संदेह नहीं है कि आदमी धार्मिक अध्ययन के लिए इच्छुक है। पुष्कर सभी पवित्र स्थानों में सबसे बड़ा और सबसे अच्छा है; यह हमेशा पोते (यानी ब्रह्मा) को समर्पित सम्माननीय लोगों द्वारा सम्मानित किया जाता है।





100-118. इसके बाद मैं आपको ब्रह्मा के साथ (यानी सावित्री और ब्रह्मा के बीच) सावित्री के मजाक के कारण हुए महान विवाद के बारे में बताऊंगा ।

सावित्री के जाने के बाद, सभी देवियाँ वहाँ आईं। ख्याति से उत्पन्न भृगु की पुत्री , अर्थात। लक्ष्मी , (हमेशा) सफल, हमेशा (सावित्री) द्वारा आमंत्रित किया गया, जल्दी से वहाँ आ गया। बहुत गुणी मदीरा , योगनिद्रा (नींद और जागने के बीच की स्थिति) और समृद्धि की दाता ; श्री, कमल, भूति , कीर्ति और उच्च मन में रहने वाली श्रद्धा : पोषण और संतुष्टि देने वाली ये सभी देवीएँ (वहाँ) पहुँची थीं; सती , दक्ष की बेटी, शुभ पार्वतीया उमा, तीनों लोकों में सबसे सुंदर महिला, महिलाओं को सौभाग्य (विधवापन की अनुपस्थिति) दे रही है; सावित्री के शुभ निवास में जया और विजया , मधुचन्दा, अमरावती , सुप्रिया , जनकान्त (सब इकट्ठे हुए थे)। वे, जिन्होंने उत्तम वस्त्र और आभूषण धारण किए हुए थे, गौरी के साथ पहुंचे थे । (ऐसी स्त्रियाँ थीं) शकरा, पुलोमन की पुत्री, आकाशीय अप्सराओं के साथ; स्वाहा , स्वधा और धूमोर , एक सुंदर चेहरे की; यकी और राक्षसी और बहुत धनी गौरी; मनोजवा , वायु की पत्नी, औरसिद्धि , कुबेर की प्रिय (पत्नी) ; तो भी देवताओं की बेटियों और Dānava को -ladies प्रिय Danu वहाँ आया था। सात ऋषियों की महान सुंदर पत्नियाँ, [५] उसी तरह बहनें, बेटियाँ और विद्याधरियों की सेना ; Rākṣasīs , पितर और अन्य विश्व माताओं की बेटियों। सावित्री ने युवा विवाहित महिलाओं और बहुओं के साथ (बलिदान के स्थान पर) जाने की इच्छा की; इसी प्रकार अदिति के समान दक्ष की सभी बेटियाँ भीऔर अन्य आए थे। पवित्र महिला अर्थात। ब्रह्मा की पत्नी (सावित्री), उनके निवास के रूप में कमल होने के कारण, उनसे घिरी हुई थीं। कोई सुन्दर स्त्री हाथ में मिठाई लिये हुए थी, कोई फलों से भरी टोकरी लेकर ब्रह्मा के पास पहुंचा। इसी तरह अन्य लोग भीगे हुए अनाज की माप कर रहे हैं; इसी प्रकार एक सुन्दर स्त्री ने भी नाना प्रकार के अनार, सिट्रोन लिये हुए; दूसरे ने बाँस की टहनियाँ लीं, वैसे ही कमल, और केसर, जीरा-बीज, खजूर; दूसरे ने सारे नारियल ले लिए; (दूसरा) अंगूर (-रस) से भरा बर्तन लिया; इसी प्रकार अंगक का पौधा, विभिन्न प्रकार के कपूर-फूल और शुभ गुलाब सेब; इसी प्रकार किसी और ने अखरोट, हरड़ और सिट्रोन को भी लिया; एक सुंदर स्त्री ने पके बिल्व- फल और चपटे चावल लिए; किसी और ने कपास ले ली-बत्ती और केसरिया रंग का वस्त्र। सभी शुभ और सुन्दर स्त्रियाँ इन और अन्य वस्तुओं को टोकरियों में रख कर सावित्री के साथ वहाँ पहुँचीं।





119-120। सावित्री को वहाँ देखकर पुरन्दर डर गए; ब्रह्मा (भी) अपना चेहरा लटकाए हुए (सोचते हुए) वहीं रहे: 'वह (अब) मुझसे क्या कहेगी?' विष्णु और रुद्र शर्मिंदा थे, इसलिए अन्य सभी ब्राह्मण भी; सदस्य (यज्ञ सभा के) और अन्य देवता भयभीत थे।

121-122. संस, पोते, भतीजे, मामा, भाई, तो भी देवताओं नामित Ṛbhus और अन्य देवताओं के सभी सावित्री क्या कहेंगे (फिर) के रूप में शर्मिंदा रहे।

123-124। वहाँ जो बातें कर रहे थे, उनकी बातें सुनकर ग्वाले बेटियाँ ब्रह्मा के पास चुप रहीं। 'सबसे अच्छे रंग की महिला, हालांकि (मुख्य) पुजारी द्वारा बुलाई गई थी, वह नहीं आई; (इसलिए) इंद्र एक और चरवाहे लाए (और) विष्णु ने स्वयं उसे ब्रह्मा के सामने पेश किया।

125-129. वह बलिदान पर कैसे (व्यवहार) कर रही होगी? बलिदान कैसे पूरा होगा?' जब वे इस प्रकार सोच रहे थे, कमल में रहने वाले (ब्रह्मा की पत्नी) ने प्रवेश किया। ब्रह्मा उस समय सदस्यों (यज्ञ सभा के), पुजारियों और देवताओं से घिरे हुए थे। वेदों में महारत हासिल करने वाले ब्राह्मण अग्नि को अर्पण कर रहे थे। चरवाहे, कक्ष में शेष (बलि पत्नी के लिए) और एक हिरण के सींग और एक कमरबंद, और रेशमी कपड़ों में पहने हुए, सर्वोच्च स्थान पर ध्यान किया। वह अपने पति के प्रति वफादार थी, उसका पति उसका जीवन था; वह प्रमुखता से बैठी थी; वह सुंदरता से संपन्न थी; चमक में वह सूर्य के समान थी: उसने वहां की सभा को सूर्य के तेज के रूप में प्रकाशित किया।




130. याजकों ने बलि के जानवरों के धधकते हुए भाग की भी पूजा की।

१३१-१३६. बलि के समय कुछ अंश प्राप्त करने के इच्छुक देवताओं ने तब कहा: "(बलिदान) में देरी नहीं होनी चाहिए; (किसी कार्य के लिए) देर से किया गया, उसका (वांछित) फल नहीं देता है; यही वह नियम है जो वेदों में सभी विद्वानों द्वारा देखा जाता है।" जब दो दूध (-बर्तन) तैयार हो गए, तो भोजन संयुक्त रूप से पकाया गया, और जब ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया, अध्वर्युजिसे अर्पण किया गया था, वह वहाँ आया था, और प्रवरज्ञ वेदों में कुशल ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था; खाना बनाया जा रहा था। यह देखकर देवी (सावित्री) ने क्रोधित होकर ब्रह्मा से कहा, जो (यज्ञ) सत्र में चुपचाप बैठे थे: "यह क्या कुकर्म तुम करने वाले हो, कि वासना के द्वारा तुमने मुझे त्याग दिया और पाप किया है? वह, जिसे तुमने अपने सिर पर रखा है (अर्थात जिसे तुमने इतना महत्व दिया है) मेरे पैर की धूल से भी तुलनीय नहीं है। ऐसा (बलिदान) सभा में एकत्रित लोग कहते हैं। यदि तुम चाहो तो उन लोगों की उस आज्ञा का पालन करो जो (समान) देवता हैं।

137-141. सुंदरता के लिए अपनी लालसा के माध्यम से आपने वह किया है जिसकी लोगों द्वारा निंदा की जाती है; हे यहोवा, तू अपने पुत्रों और अपने पौत्रों से लज्जित नहीं हुआ; मुझे लगता है कि आपने यह निंदनीय कार्य जुनून के माध्यम से किया है; आप देवताओं के पोते और ऋषियों के परदादा हैं! अपने ही शरीर को देखकर आपको शर्म कैसे नहीं आई? आप लोगों के लिए हास्यास्पद हो गए हैं और मुझे नुकसान पहुंचाया है। अगर यह आपकी दृढ़ भावना है, तो हे भगवान, (अकेले) जियो; आपको नमस्कार (अलविदा); मैं अपने दोस्तों को अपना चेहरा कैसे दिखाऊंगा? मैं लोगों को कैसे बताऊं कि मेरे पति ने (एक और महिला को) अपनी पत्नी के रूप में लिया है?”





ब्रह्मा ने कहा :

१४२-१४४. दीक्षा के तुरंत बाद, पुजारियों ने मुझसे कहा: पत्नी के बिना बलिदान नहीं किया जा सकता है; अपनी पत्नी को जल्दी लाओ। यह (अन्य) पत्नी इंद्र द्वारा लाई गई थी, और मुझे विष्णु द्वारा प्रस्तुत की गई थी; (तो) मैंने उसे स्वीकार कर लिया; हे सुंदर भौहें, मैंने जो किया है उसके लिए मुझे क्षमा करें। हे अच्छी मन्नत के, मैं तुम्हें इस तरह फिर से गलत नहीं करूंगा। मुझे क्षमा कर, जो तेरे चरणों में गिरे हैं; आपको मेरा नमस्कार।





पुलस्त्य ने कहा :

इस प्रकार संबोधित करते हुए, वह क्रोधित हो गई, और ब्रह्मा को श्राप देने लगी:

145-148। "यदि मैंने तपस्या की है, यदि मैंने ब्राह्मणों के समूहों में अपने गुरुओं को प्रसन्न किया है, और विभिन्न स्थानों पर, ब्राह्मण आपकी पूजा कभी नहीं करेंगे, सिवाय आपकी वार्षिक पूजा (जो गिरती है) कार्तिक के महीने में जो ब्राह्मण करेंगे (अकेले) ) बलि चढ़ाएं, परन्तु अन्य मनुष्यों को पृथ्वी पर किसी अन्य स्थान पर न चढ़ाएं।" ब्रह्मा को ये शब्द कहते हुए, उसने इंद्र से कहा जो पास में था: "हे शंकर , तुम ग्वाले को ब्रह्मा के पास ले आए। चूंकि यह एक तुच्छ कर्म था, इसलिए आपको इसका फल प्राप्त होगा।

१४९. जब आप युद्ध में (लड़ाई के लिए तैयार) खड़े होंगे, तो आप अपने दुश्मनों से बंधे होंगे और बहुत (दयनीय) दुर्दशा में कम हो जाएंगे।

१५०. बिना किसी संपत्ति के, अपनी ऊर्जा खोकर, एक बड़ी हार का सामना करने के बाद, आप अपने दुश्मन के शहर में रहेंगे, (लेकिन) जल्द ही रिहा हो जाएंगे।"

१५१-१५३. इंद्र को श्राप देकर (इस प्रकार) देवी ने विष्णु से (ये शब्द) बोले: "जब, भृगु के श्राप के कारण आप नश्वर संसार में जन्म लेंगे, तो आप वहां (अर्थात उस अस्तित्व में) अलगाव के दर्द का अनुभव करेंगे। अपनी पत्नी से। तेरी पत्नी को तेरा शत्रु समुद्र के पार ले जाएगा; तुम शोक से व्याकुल मन से नहीं जानोगे (वह किसके द्वारा ली गई है) और बड़ी विपत्ति के बाद तुम अपने भाई के साथ दुखी होओगे।

154-156. जब आप यदु- परिवार में जन्म लेंगे , तो आपका नाम कृष्ण होगा ; और पशुओं का सेवक होकर बहुत दिन तक भटकता रहेगा।” तब क्रोधित व्यक्ति ने रुद्र से कहा: "जब तुम दारुवन में रहोगे , तब, हे रुद्र, क्रोधित ऋषि तुम्हें शाप देंगे; हे खोपड़ी-धारक, मतलब एक, आप हमारे बीच से एक महिला को छीनना चाहते हैं; इसलिए, तुम्हारा यह अहंकारी उत्पादक अंग आज जमीन पर गिरेगा।



157-160। पुरुषार्थ से रहित आप ऋषियों के श्राप से ग्रसित होंगे। गंगाद्वार में रहने वाली आपकी पत्नी आपको सांत्वना देगी।" "हे अग्नि , आप पहले मेरे पुत्र भागु द्वारा सर्व-उपभोक्ता बनाए गए थे, हमेशा धर्मी। मैं (तुम्हें) कैसे जलाऊँ जो पहले ही उससे जल चुके हैं? हे अग्नि, कि रुद्र आपको अपने वीर्य से डुबो देगा, और आपकी जीभ (यानी आपकी लौ) बलिदान के लिए उपयुक्त चीजों का उपभोग करते समय अधिक जलेगी। ” सावित्री ने उन सभी ब्राह्मणों और पुजारियों को शाप दिया, जो अपने पति को लूटने के लिए बलि के पुजारी बन गए थे, और जो बिना किसी कारण के जंगल में चले गए थे:

१६१. “केवल लोभ के द्वारा सभी पवित्र और पवित्र स्थानों का सहारा लें; आप हमेशा दूसरों के भोजन से ही संतुष्ट होंगे (जब आप प्राप्त करेंगे); परन्तु अपने घरों में भोजन से तृप्त नहीं होगा।

१६२-१६४. जो बलिदान नहीं करना है उसका त्याग करके और जो तिरस्कारपूर्ण है उसे स्वीकार करके, धन अर्जित करके और इसे व्यर्थ खर्च कर-उससे (आपके) शवों को बिना अनुष्ठान के (उन्हें अर्पित किया जा रहा) केवल दिवंगत आत्माएं होंगी। ” इस प्रकार उस क्रोधित (सावित्री) ने इन्द्र को, इसी प्रकार विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा तथा समस्त ब्राह्मणों को भी श्राप दिया।

१६५-१६६. इस प्रकार उन्हें श्राप देकर वह (बलिदान) सभा से बाहर चली गई। प्रमुख पुष्कर में पहुँचकर, वह (वहाँ) बस गई। उसने लक्ष्मी से कहा जो हँस रही थी और इंद्र की सुंदर पत्नी और युवा महिलाओं से भी (वहां): "मैं वहां जाऊंगी जहां मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई देगी।"

167. तब वे सभी महिलाएं अपने-अपने घर चली गईं। सावित्री, जो क्रोधित थीं, उन्हें भी श्राप देने लगीं।

168. "चूंकि इन दिव्य महिलाओं मुझे छोड़ दिया और चले गए हैं, मैं, जो अत्यंत नाराज़ हूँ, शाल मैं उन्हें भी अभिशाप:

169-171. लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं रहती। वह क्षुद्र और चंचल है, वह मूर्खों के बीच, बर्बरों और पर्वतारोहियों के बीच, मूर्खों और अभिमानियों के बीच रहेगी; उसी प्रकार (मेरे) श्राप के कारण, तुम (अर्थात् लक्ष्मी) शापित और दुष्टों जैसे नीच व्यक्तियों के साथ रहोगी।”

१७२-१७४. इस प्रकार (लक्ष्मी करने के लिए) एक अभिशाप दिया करने के बाद, वह शापित इंद्राणी : "जब इंद्र, अपने पति, द्वारा (का पाप) उत्पीड़ित एक ब्राह्मण के हत्या, दुखी हो जाएगा, और जब उसके राज्य से छीन लिया हो जाएगा Nahuṣa , वह करेगा , तुम्हें देखकर, तुम्हारे लिए पूछो। (वह कहेगा) 'मैं इन्द्र हूँ; यह कैसे हो गया कि यह बचकानी (महिला) मेरी प्रतीक्षा नहीं करती है? यदि मुझे शचि (अर्थात् इंद्रा) प्राप्त नहीं हुई तो मैं सभी देवताओं को मार डालूंगा। तब तू जिसे भागना होगा, और भयभीत और शोकित होगा , मेरे शाप के परिणामस्वरूप, हे दुष्ट आचरण और अभिमानी (एक) बृहस्पति के घर में रहेगा ।



175-1 78. तब उसने देवताओं की सभी पत्नियों पर एक शाप दिया: "इन सभी (महिलाओं) को बच्चों से स्नेह नहीं मिलेगा; वे दिन-रात (दु:ख के साथ) झुलसे रहेंगे और उनका अपमान किया जाएगा और उन्हें 'बंजर' कहा जाएगा।" उत्तम वर्ण की गौरी को भी सावित्री ने श्राप दिया था। वह, जो रो रही थी, विष्णु ने देखा और उसने उसे तसल्ली दी: "हे बड़ी आँखों वाले, रो मत; तुम सदा शुभ हो, (कृपया) चलो; (बलिदान) सभा में प्रवेश करना, अपनी कमरबंद और रेशमी वस्त्र सौंपना; हे ब्रह्मा की पत्नी, दीक्षा ग्रहण करो, मैं तुम्हारे चरणों को प्रणाम करता हूँ।"

179. इस प्रकार उस ने उस से कहा, मैं जैसा तू कहेगा वैसा ही करूंगा; और मैं वहाँ जाऊँगा जहाँ मुझे कोई आवाज़ न सुनाई देगी।”

180-215। इतना कहकर वह उस स्थान से चली गई और एक पर्वत पर चढ़कर वहीं रही। बड़ी भक्ति के साथ उसके सामने रहकर, विष्णु ने हाथ जोड़कर और झुककर उसकी स्तुति की।


























































____________________
आज्यस्थाली वामपार्श्वे देवाः सर्वेऽग्रतः स्थिताः।
सावित्री वामपार्श्वस्था दक्षिमस्था सरस्वती।। ८०.७४ ।।


सर्वे च ऋषयो ह्यग्रे कुर्यादेवं विचिन्तनम्।
चतुष्कोणं चतुर्द्वारमष्टपत्रसमन्वितम्।। ८०.७५ ।।

चतुष्कोणेष्वङ्कितं तु स्रक्कमण्डलुक्स्रुवैः।
सम्मार्जनादिकं सर्वं याश्चान्याः प्रतिपत्तयः।। ८०.७६ ।।

दृष्ट्वाश्चोत्तरतन्त्रोक्ता योगपीठेऽङ्गिकादिकाः।
आधारशक्तिप्रमुखांस्तथा सर्वांस्तु पूजयेत्।। ८०.७७ ।।

अष्टपत्रेषु पद्मस्य दिक्पालांश्च प्रपूजयेत्।
पद्मासनाय विद्यमहे हंसरूढाय धीमहि।८०.७८।।
तन्नो ब्रह्मन्निति पदं ततः पश्चात् प्रचोदयात्।
एषा तु ब्रह्मगायत्री पूजयेदनया विधिम्।। ८०.७९         ।।कालिकापुराणअध्याय ८० ।।
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे गायत्रीसहस्रनामस्तोत्रवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥


 ____________     

"तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम।
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।

गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।


                  पुलस्त्य उवाच___________
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।

गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी।
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।

पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।

अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६
।★

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०। 

"एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।


एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।

उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।

कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।

कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः
एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।

तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।

उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।

तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।

पंचाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नांतः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।

नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 1.17.50

____________________________________    
                       ब्रह्मोवाच________________
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।

एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।

ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।

संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।

अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।

पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।

ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तु।६४।

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।

स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
             

"मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाःकपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।

दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९। 

ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताःऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।

वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताःन पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।

"सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताःरौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२। 

आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।

तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।

एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।

शांता दांता द्विजा ये तु भक्तिमंतो मयि स्थिराः
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।

अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।

नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।

विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।

एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।

यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वो द्विजाः।८८।

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।


कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।


बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।


मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं च भविष्यति
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिं तामवैक्षत।९२।

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।


एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।


न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।


वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।


रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।


प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।


तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।


अतः परं प्रवक्ष्यामि सावित्र्या ब्रह्मणा सह
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100


सावित्रीगमने सर्वा आगता देवयोषितः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना विष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।


आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता
मदिरा च महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।


श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।


सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।


जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।


गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।


स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।


मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।


सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।


राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।


अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।


काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।


आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।


करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।


उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रं शृंगाटकं तथा।११५।


कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च
अक्षोटामलकान्गृह्य जंबीराणि तथापरा।११६।


बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुंभकं तथा।११७।


एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः
सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।


सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।


त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।


पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।


वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।


मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।


शक्रेणान्याहृताभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।


कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।


वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।


पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।


पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।


द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।१२९।


पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।


कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।१३१।


प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।


उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।


उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्
।१३४।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।


यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।


भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।


कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।


कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।


यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।१४०।


भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
ब्रह्मोवाच
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।


पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।


गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।


पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
पुलस्त्य उवाच
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।


यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।


नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।


करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।


भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।


यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।


अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०। 1.17.150


शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।


भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।


न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।


यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।

_______
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।१५५


भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।१५६।


विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः
गंगाद्वारे स्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।


अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।


जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति
अमेध्येषु च ते जिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।


ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्री वै शशाप ह
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रो वृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।


सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ
परान्नेषु सदा तृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च
 ।१६१।

अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।


प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा
 ।१६३।

ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा
शापं दत्वा तथा तेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।


ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदा सा च व्यवस्थिता
लक्ष्मीं प्राह सतीं तां च शक्रभार्यां वराननाम्।१६५।


युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि संसदि
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।


ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।


यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः
तासामपि तथा शापं प्रदास्ये कुपिता भृशम्।१६८।


नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यति कदाचन
क्षुद्रा सा चलचित्ता च मूर्खेषु च वसिष्यति।१६९।


म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।


एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिः शापकारिता
शापं दत्वा ततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा
।१७१

ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ ते दुःखभागिनि
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति।१७२।


अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि।१७३।


नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते।१७४।


देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ।१७५।


दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी।१७६।


रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता
मा रोदीस्त्वं विशालाक्षि एह्यागच्छ सदा शुभे।१७७।


प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणि पादौ च प्रणमामि ते।१७८।


एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न वै ध्वनिम्।१७९।

एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता
विष्णुस्तदग्रतः स्थित्वा बध्वा च करसंपुटं।१८०।


तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः
विष्णुरुवाच
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता।१८१।


सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापि येषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः।१८२।


स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः
सावित्री पुष्करे नाम तीर्थानां प्रवरे शुभे।१८३।


वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने।१८४।


मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथांबरे
गोमंते गोमती नाम मंदरे कामचारिणी।१८५।


मदोत्कटा चैत्ररथे जयंती हस्तिनापुरे
कान्यकुब्जे तथा गौरी रंभा मलयपर्वते।१८६।


एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका।१८७।


नंदा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वके बिल्वपत्रिका।१८८।


श्रीशैले माधवीदेवी भद्रा भद्रेश्वरी तथा
जया वराहशैले तु कमला कमलालये।१८९।


रुद्रकोट्यां तु रुद्राणी काली कालंजरे तथा
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी।१९०।


शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगे जलप्रिया
मायापुर्यां कुमारी तु संताने ललिता तथा

१९१।


उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।१९२।


विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी।१९३


विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने।१९४।


कुब्जाम्रके त्रिसंध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे।१९५।


रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृंदावने तथा
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी।१९६़।


चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चंद्रे तु चंद्रिका।१९७।


रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके।१९८।८।

अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे।१९९।


मांडव्ये मांडवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे
वेगले तु प्रचंडाथ चंडिकामरकंटके।२००।
 1.17.200

_________________    

सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती
देवमाता सरस्वत्यां पारापारे तटे स्थिता।२०१,।

महालये महापद्मा पयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी।
२०२।


उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे।२०३।


जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमंडले।२०४।


भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे।२०५।


शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिः पिंडारके तथा
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी।२०६।


वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका
-२०७।

मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये।२०८।


गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती।२०९।


सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा
अरुंधती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।२१०।


चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं।२११।


अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।२१२।


येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्।२१३।


नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ
पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः
 ।२१४।       

गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति।२१५।

________________________________
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्यो भविष्यसि।२१६।


अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः
इह चागत्य यो मां तु स्तवेनानेन संस्तुयात्।२१७।


सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति
गच्छ यज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक।२१८।


कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी
समीपगा स्थिता भर्त्तुः करिष्ये तव भाषितम्।२१९।


एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्।२२०।


शृण्वंतु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता।२२१।


ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः
तेषां वस्त्रं धनं धान्यं दाराः सौख्यं धनानि च।२२२।


अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति।२२३।


                   पुलस्त्य उवाच_________
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु।२२४।


सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया।२२५।


पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः।२२६।


प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।


कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता
यां कृत्वा मानवा भक्त्या संयांति ब्रह्मलोकताम्।२२८।


कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप।२२९।


भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप।२३०।


ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शांडिलेयं प्रपूज्य च
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः।२३१।


रथाग्रे शांडिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्।२३२।


देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः।२३३।


कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।२३४।


पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च।२३५।


ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे।२३६।


विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्
बह्वृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा।२३७।


भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु।२३८।


न वोढव्यो रथो वीर शूद्रेण हितमिच्छता
न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः।२३९।


ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप
भोजकं वामपार्श्वे तु पुरतः पंङ्कजं न्येसेत्।२४०।


एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्।२४१।


स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः
य एवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापि पश्यति।२४२।


रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं।२४३।


शालायां ब्रह्मणः कुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः।२४४।


तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी।२४५।


ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः।२४६।


स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा।२४७।


तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप।२४८।


भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनं।२४९।


गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०। 1.17.250

_____________    
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन।२५१।


कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप।२५२।


बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी
                     गायत्र्युवाच__________
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं।२५३।


न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
मदीयं तु वचः श्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं।२५४।


इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति।२५५।


शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्।२५६।


स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति।२५७।


मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं।२५८।


हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ
गृहीत्वा तां पुना राज्यं कृत्वा स्वर्गं गमिष्यसि।२५९।

एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह।२६०।


सांतानिका नाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः।२६१।


गायत्री तु तदा रुद्रं वरदा प्रत्यभाषत
पतितेपि च ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः।२६२।


ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके।२६३।


यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव।२६४।


पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः।२६५।

 त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयि ध्रुवम्।२६६।


भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं।२६७।


युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः।२६८।


अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते।२६९।


ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैव पितामहाः।२७०।


यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ।२७१।


विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः।२७२।


पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोट्याः फलमवाप्स्यते।२७३।

ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्।२७४।


मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।२७५।


दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हंति किल्बिषं।२७६।


एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा।२७७।


प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धं जप्त्वा विशेषतः
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वा मां शिरसा सह।२७८।


अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता।२७९।


जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति।२८०।

___________
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।२८१।


यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तः सदस्यथ
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।


दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।


स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।


ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणः पार्श्वगाऽभवत्।२८५।


चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्
युवतीनां च सर्वासां शापान्ज्ञात्वा पृथक्पृथक्।२८६।


लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना।२८७।


शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी
ये त्वया वीक्षिताः पुत्रि सर्वे ते पुण्यभोजनाः।२८८।


परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने।२८९।


सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः।२९०।


सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना।२९१।


त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते।२९२।


एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः।२९३।


इंद्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति
त्वद्दृष्ट्या तु हतः पापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्।२९४।


सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव।२९५।


वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति
।२९६।

____
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनंदनः
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति।२९७।


तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्।२९८।


प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने
                 पुलस्त्य उवाच__________
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः।२९९।


अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता।३००। 1.17.300

________________
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी
समाप्तिं तस्य यज्ञस्य कांक्षंती ब्रह्मणः प्रिया।३०१।


वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह।३०२।
                      रुद्र उवाच_______________
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा।३०३।

सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च।३०४।

भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते।३०५।

श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ।३०६।

एणशृंगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा।३०७।

शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता।३०८।

चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता।३०९।

भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ।३१०।

जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी।३११।

विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा।३१२।

त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी।३१३।

पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति
ज्येष्ठे मासे पौर्णमास्यामग्र्यां पूजां च लप्स्यसे।३१४।

ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा।३१५।

कांतारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे।
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।३१६।

त्वं सिद्धिः श्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च।३१७।

अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना।३१८।

जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे।३१९।

बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।३२०।

नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च।३२१।

ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः।३२२।

अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा
सिद्धिस्त्वं हि नृपाणां च वेला सागरजा मता।३२३।

ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता
ज्योतिषां च प्रभा देवी लक्ष्मीर्नारायणे स्थिता।३२४।

क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च।३२५।

पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी।३२६।

इंद्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा।३२७।

कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा।३२८।

व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यां सुपूजिता।३२९।

सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।३३०।

सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः
                     गायत्र्युवाच_________
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्।३३१।
____________________________________

विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्रीविवादगायत्रीवरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्याय१७-




 ★-सम्पाद्यते इदम् सृष्टि खण्डम् यादवेन योगेशकुमारेण रोहिणा)







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें