रविवार, 6 फ़रवरी 2022

पद्मपुराण


पद्म पुराण  

पद्मपुराण (सम्पूर्ण संस्करण) की झलक
लेखकवेदव्यास
देशभारत
भाषासंस्कृत
श्रृंखलापुराण
विषयविष्णु-माहात्म्य
प्रकार-आर्ष धार्मिक ग्रन्थ
श्लोक-५५,००० श्लोक

विस्तार

पद्मपुराण के छह खण्ड प्रसिद्ध हैं:

  1. सृष्टि खण्ड
  2. भूमि खण्ड
  3. स्वर्ग खण्ड
  4. ब्रह्म खण्ड
  5. पाताल खण्ड
  6. उत्तर खण्ड
  7. क्रियायोगसार खण्ड

इन खण्डों के क्रम एवं नाम में अंतर भी मिलता है।

'स्वर्ग खंड' का नाम 'आदि खंड' भी प्रचलित है। नारद पुराण की अनुक्रमणिका में 'ब्रह्म खंड' को 'स्वर्ग खंड' में ही अंतर्भूत कर दिया गया है 

और स्वयं पद्मपुराण के एक उल्लेख के अनुसार उपर्युक्त छह खंडों के अतिरिक्त 'क्रिया खंड' (क्रियायोगसार खंड) को भी सातवें खंड के रूप में गिना गया है।

हालाँकि इस पाठ से भिन्न पाठ भी उपलब्ध होते हैं जहाँ 6 खंडों का ही उल्लेख है तथा 'क्रिया खंड' को 'सृष्टि खंड' का ही नामांतर मानकर 'क्रियायोगसार खंड' को 'उत्तर खंड' में ही समाहित माना गया है।

(पद्मपुराण में कथित रूप से 55000 श्लोक माने गये हैं। पद्मपुराण के प्रामाणिक संस्करण तैयार करने की दिशा में 'आनन्दाश्रम मुद्रणालय, पुणे' द्वारा 1893-94 ई० में प्रस्तुत संस्करण मील के पत्थर की तरह महत्त्व रखने वाला है। 

इस संस्करण में  पद्मपुराण के यथासंभव प्रामाणिक रूप को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें श्लोकों की कुल संख्या 48,452 है। 

1956-58 ईस्वी में 'मनसुखराय मोर, 5, क्लाइव राॅ, कोलकाता' द्वारा प्रस्तुत संस्करण में 'वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई' से प्रकाशित प्राचीन संस्करण को ही आधार बनाया गया, क्योंकि 'आनन्दाश्रम' से प्रकाशित संस्करण में श्लोक संख्या 55000 से बहुत कम थी।

 हालाँकि वेंकटेश्वर प्रेस के संस्करण के श्लोकों को गिना नहीं गया था और अनुमान से ही उसे 55000 श्लोकों वाला मान लिया गया था। मनसुखराय मोर से प्रकाशित संस्करण ही अब 'चौखंबा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी' से प्रकाशित है।

निम्न तालिका से दोनों (आनन्दाश्रम एवं मनसुखराय मोर {= चौखंबा}) संस्करणों की अध्याय-संख्या सहित श्लोक संख्या की एकत्र जानकारी प्राप्त की जा सकती है:

श्लोक-सं


"विषय-
कमल पर विराजमान सृष्टिकर्ता ब्रह्मा

यह पुराण सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वतंर और वंशानुचरित –इन पाँच महत्त्वपूर्ण लक्षणों से युक्त है। भगवान् विष्णु के स्वरूप और पूजा उपासना का प्रतिपादन करने के कारण इस पुराण को वैष्णव पुराण भी कहा गया है।

इस पुराण में विभिन्न पौराणिक आख्यानों और उपाख्यानों का वर्णन किया गया है, जिसके माध्यम से भगवान् विष्णु से संबंधित भक्तिपूर्ण कथानकों को अन्य पुराणों की अपेक्षा अधिक विस्तृत ढंग से प्रस्तुत किया है।

पद्म-पुराण सृष्टि की उत्पत्ति अर्थात् ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना और अनेक प्रकार के अन्य ज्ञानों से परिपूर्ण है तथा अनेक विषयों के गम्भीर रहस्यों का इसमें उद्घाटन किया गया है।

इसमें सृष्टि खंड, भूमि खंड और उसके बाद स्वर्ग खण्ड महत्त्वपूर्ण अध्याय है। फिर ब्रह्म खण्ड और उत्तर खण्ड के साथ क्रिया योग सार भी दिया गया है। इसमें अनेक बातें ऐसी हैं जो अन्य पुराणों में भी किसी-न-किसी रूप में मिल जाती हैं। किन्तु पद्म पुराण में विष्णु के महत्त्व के साथ शंकर की अनेक कथाओं को भी लिया गया है।

शंकर का विवाह और उसके उपरान्त अन्य ऋषि-मुनियों के कथानक तत्व विवेचन के लिए महत्त्वपूर्ण है।

पद्मपुराण के कुल सात खण्डों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1.सृष्टि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में पुलस्त्य से पूछा। पुलस्त्य और भीष्म के संवाद में ब्रह्मा के द्वारा रचित सृष्टि के विषय में बताते हुए शंकर के विवाह आदि की भी चर्चा की।

2.भूमि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म और पुलस्त्य के संवाद में कश्यप और अदिति की संतान, परम्परा सृष्टि, सृष्टि के प्रकार तथा अन्य कुछ कथाएं संकलित है।

3.स्वर्ग खण्ड: स्वर्ग खण्ड में स्वर्ग की चर्चा है। मनुष्य के ज्ञान और भारत के तीर्थों का उल्लेख करते हुए तत्वज्ञान की शिक्षा दी गई है।

4. ब्रह्म खण्ड: इस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।

5.पाताल खण्ड:

6.उत्तर खण्ड:

7.क्रियायोगसार खण्ड: क्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।

____________

मोर=चौखंबा सं० (आनन्दाश्रम सं०)श्लोक

(मोर=चौखंबा सं०)श्लोक (आनन्दाश्रम सं०)

__________________

1 सृष्टि खण्ड 86 82 12,072 12,076

2 भूमि खण्ड 125 125 6,428 5,920

3 स्वर्ग खण्ड 62 62 3,139 3,160

4 ब्रह्म खण्ड 26 26 1,070 1,775

5 पाताल खण्ड 117 113 9,373 8,742

6 उत्तर खण्ड 255 282 14,887 16,779

7 क्रियायोगसार खण्ड 26 0 3,174 0।

कुल सात खण्ड कुल अध्याय=697 कुल अध्याय=690 कुल श्लोक=50,143 कुल श्लोक=48,452

यह ध्यातव्य है कि 'आनंदाश्रम संस्करण' में 'स्वर्ग खंड' का नाम 'आदि खंड' है और उसे ही सबसे पहले दिया गया है तथा 'सृष्टि खंड' को 'पाताल खंड' के बाद एवं 'उत्ततर खंड' से पहले दिया गया है। उपर्युक्त तालिका में इन खंडों को भी मनसुखराय मोर (= चौखंबा) संस्करण के अनुसार ही व्यवस्थित करके संख्या दी गयी है।

-"सन्दर्भ-

  1.  पद्मपुराणम्, भाग-2, चौखंबा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी, संस्करण-2015, पृष्ठ-199 (स्वर्ग खंड की पुष्पिका में उल्लिखित)।
  2.  पद्मपुराणम्, भाग-2, चौखंबा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी, संस्करण-2015, पृष्ठ-2 (स्वर्ग खंड-1.23-25)।
  3.  पद्मपुराणम्, भाग-1, आनन्दाश्रम मुद्रणालय, पुणे, संस्करण-1893, पृष्ठ-2 (विषय-अनुक्रमणिका के बाद)।
  4.  पद्मपुराणम्, भाग-1, चौखंबा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी, संस्करण-2015, पृष्ठ-2 (भूमिका)
प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार "रोहि"


               - "पद्मपुराणम्"

यह पृष्ठ यदु के वंश का वर्णन करता है जो कि पद्म पुराण के हिन्दी अनुवाद का अध्याय 12 है, जो सबसे बड़े महापुराणों में से एक है, जो प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल के साथ ही धार्मिक यात्रा को तथा पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) को वर्णित करता है।

यह पद्म पुराण के सृष्टि-खंड (सृजन पर आधारित खंड) का बारहवां अध्याय है।

पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १२

 
                 पद्मपुराणम्
अध्यायः १२

                  (भीष्म उवाच)
सोमवंशः कथं जातः कथयात्र विशारद
तद्वंशे केतुराजानो बभूवुः कीर्तिवर्द्धनाः।१।

                (पुलस्त्य उवाच)
आदिष्टो ब्रह्मणा पूर्वम्- अत्रिः सर्गविधौ पुरा
अनंतरं नाम तपः सृष्ट्यर्थं तप्तवान्विभुः ।२।

_________________________________

यदानंदकरं ब्रह्म भगवन्क्लेशनाशनं
ब्रह्मरुद्रेन्द्रसूर्याणामभ्यंतरमतींद्रियं।३।

शान्तिं कृत्वात्ममनसा तदत्रिः संयमे स्थितः
माहात्म्यं तपसो वापि परमानंदकारकं ।४।

यस्माद्वंशपतिः सार्द्धं समये तदधिष्ठितः
तं दृष्ट्वाचष्ट सोमेन तस्मात्सोमोभवद्विभुः ।५।

अथ सुस्राव नेत्राभ्यां जलं तत्रात्रिसंभवम्
द्योतयद्विश्वमखिलं ज्योत्स्नया सचराचरम् ।
६।

तद्दिशो जगृहुस्तत्र स्त्रीरूपेणासहृच्छयाः
गर्भो भूत्वोदरे तासां स्थितः सोप्यत्रिसंभवः।७।

आशाश्च मुमुचुर्गर्भमशक्ता धारणे ततः
समादायाथ तं गर्भमेकीकृत्य चतुर्मुखः ।८।

युवानमकरोद्ब्रह्मा सर्वायुधधरं नरम्
स्यंदनेथ सहस्तेन वेदशक्तिमये प्रभुः।९।

आरोप्य लोकमनयदात्मीयं स पितामहः
ततो ब्रह्मर्षिभिः प्रोक्तं ह्यस्मत्स्वामीभवत्वयम्।१०।

ऋषिभिर्देवगंधर्वैरप्सरोभिस्तथैव च.      स्तूयमानस्य तस्याभूदधिकं महदंतरम्।११।

तेजोवितानादभवद्भुवि दिव्यौषधीगणः
तद्दीप्तिरधिका तस्माद्रात्रौ भवति सर्वदा।१२।

तेनौषधीशः सोमोभूद्द्विजेष्वपि हि गण्यते
वेदधामा रसश्चायं यदिदं मंडलं शुभम्।१३।

क्षीयते वर्द्धते चैव शुक्ले कृष्णे च सर्वदा
विंशतिं च तथा सप्त दक्षः प्राचेतसो ददौ।१४।

रूपलावण्यसंयुक्तास्तस्मै कन्याः सुवर्चसः
ततः शक्तिसहस्राणां सहस्राणि दशैव तु१५।

तपश्चकार शीतांशुर्विष्णुध्यानैकतत्परः
ततस्तुष्टश्च भगवांस्तस्मै नारायणो हरिः१६।

वरं वृणीष्व चोवाच परमात्मा जनार्दनः
ततो वव्रे वरं सोमः शक्रलोके यजाम्यहम्१७।

प्रत्यक्षमेव भोक्तारो भवंतु मम मंदिरे
राजसूये सुरगणा ब्रह्माद्या ये चतुर्विधाः१८।

रक्षपालः सुरोस्माकमास्तां शूलधरो हरः
तथेत्युक्तः समाजह्रे राजसूयं तु विष्णुना १९।

होतात्रिर्भृगुरध्वर्युरुद्गाता च चतुर्मुखः
ब्रह्मत्वमगमत्तस्य उपद्रष्टा हरिः स्वयम् २०।

सदस्याः सर्वदेवास्तु राजसूयविधिः स्मृतः
वसवोध्वर्यवस्तद्वद्विश्वेदेवास्तथैव च २१।

त्रैलोक्यं दक्षिणा तेन ऋत्विग्भ्यः प्रतिपादिता
सोमः प्राप्याथदुष्प्राप्यमैश्वर्यं सृष्टिसत्कृतं २२।

सप्तलोकैकनाथत्वं प्राप्तस्स्वतपसा तदा
कदाचिदुद्यानगतामपश्यदनेकपुष्पा भरणोपशोभाम् ।२३।

बृहन्नितंबस्तनभारखेदां पुष्पावभंगेप्यतिदुर्बलांगीं
भार्यां च तां देवगुरोरनंगबाणाभिरामायत चारुनेत्रां २४।

तारां स ताराधिपतिः स्मरार्तः केशेषु जग्राह विविक्तभूमौ
सापि स्मरार्ता सहते न रेमे तद्रूपकांत्याहृतमानसैव २५।

चिरं विहृत्याथ जगाम तारां विधुर्गृहीत्वा स्वगृहं ततोपि
न तृप्तिरासीत्स्वगृहेपि तस्य तारानुरक्तस्य सुखागमेषु२६।

बृहस्पतिस्तद्विरहाग्निदग्धस्तद्ध्याननिष्ठैकमना बभूव
शशाक शापं न च दातुमस्मै न मंत्रशस्त्राग्निविषैरनेकैः२७।

तस्यापकर्तुं विविधैरुपायैर्नैवाभिचारैरपि वागधीशः
स याचयामास ततस्तु देवं सोमं स्वभार्यार्थमनंगतप्तः२८।

स याच्यमानोपि ददौ न भार्यां बृहस्पतेः कामवशेन मोहितः
महेश्वरेणाथ चतुर्मुखेन साध्यैर्मरुद्भिः सह लोकपालैः२९।

ददौ यदा तां न कथंचिदिंदुस्तदा शिवः क्रोधपरो बभूव यो वामदेवप्रथितः पृथिव्यामनेकरुद्रार्चितपादपद्मः३०।

ततः सशिष्यो गिरिशः पिनाकी बृहस्पतेः स्नेहवशानुबद्धः
धनुर्गृहीत्वाजगवं पुरारिर्जगाम भूतेश्वरसिद्धजुष्टः३१।

युद्धाय सोमेन विशेषदीप्तस्तृतीयनेत्रानलभीमवक्त्रः
सहैव जग्मुश्च गणेश्वराणां विंशाधिका षष्टिरथोग्रमूर्तिः३२।

यक्षेश्वराणां सगणैरनेकैर्युतोन्वगात्स्यंदनसंस्थितानां
वेतालयक्षोरगकिन्नराणां पद्मेन चैकेन तथार्बुदानाम्३३।

लक्षैस्त्रिभिर्द्वा दशभी रथानां सोमोप्यगात्तत्र विवृद्धमन्युः
शनैश्चरांगारकवृद्धतेजा नक्षत्रदैत्यासुरसैन्ययुक्तः३४।

जग्मुर्भयं सप्त तथैव लोका धरावनद्वीपसमुद्रगर्भाः
ससोममेवाभ्यगमत्पिनाकी गृहीतदीप्तास्त्रविशालवह्निः३५।

अथाभवद्भीषण भीम सोम सैन्यद्वयस्याथ महाहवोसौ
अशेषसत्वक्षयकृत्प्रवृद्धस्तीक्ष्णप्रधानो ज्वलनैकरूपः३६।

शस्त्रैरथान्योन्यमशेषसैन्यं द्वयोर्जगामक्षयमुग्रतीक्ष्णैः
पतंति शस्त्राणि तथोज्वलानि स्वर्भूमिपातालमलं दहंति३७।

रुद्रः क्रोधाद्ब्रह्मशिरो मुमोच सोमोपि सोमास्त्रममोघवीर्यं
तयोर्निपातेन समुद्रभूम्योरथांतरिक्षस्य च भीतिरासीत्३८।

तदा सुयुद्धं जगतां क्षयाय प्रवृद्धमालोक्य पितामहोपि
ततः प्रविश्याथ कथंचिदेव निवारयामास सुरैः सहैव३९।

अकारणं किं क्षयकृज्जनानां सोम त्वयापीदमकार्यकार्यं
यस्मात्परस्त्रीहरणाय सोम त्वया कृतं युद्धमतीव भीमम्४०।

पापग्रहस्त्वं भविता जनेषु पापोस्यलं वह्निमुखाशिनां त्वं
भार्यामिमामर्पय वाक्पतेस्त्वं प्रमाणयन्नेव मदीय वाचम्४१।

तथेति चोवाच हिमांशुमाली युद्धादपाक्रामदतः प्रशांतः
बृहस्पतिस्तामथ गृह्य तारां हृष्टो जगाम स्वगृहं च रुद्रः ४२।

पुलस्त्य उवाच
ततः संवत्सरस्यांते द्वादशादित्यसन्निभः
दिव्यपीताम्बरधरो दिव्याभरणभूषितः४३।

तारोदरविनिष्क्रान्तः कुमारस्सूर्यसन्निभः
सर्वार्थशास्त्रत्रविद्विद्वान्हस्तिशास्त्रप्रवर्त्तकः४४।

नामयद्राजपुत्रोयं विश्रुतो राजवैद्यकः
राज्ञः सोमस्य पुत्रत्वाद्राजपुत्रो बुधः स्मृतः४५।

जनानां तु स तेजांसि सर्वाण्येवाक्षिपद्बली
ब्रह्माद्यास्तत्र चाजग्मुर्देवा देवर्षिभिः सह४६।

बृहस्पतिगृहे सर्वे जातकर्मोत्सवे तदा
पप्रच्छुस्ते सुरास्तारां केन जातः कुमारकः४७।

ततः सा लज्जिता तेषां न किंचिदवदत्तदा
पुनः पुनस्तदा पृष्टा लज्जयंती वरांगना४८।

सोमस्येति चिरादाह ततो गृह्णाद्विधुः सुतं
बुध इत्यकरोन्नाम प्रादाद्राज्यं च भूतले४९।

अभिषेकं ततः कृत्वा प्रदानमकरोद्विभुः
ग्रहमध्यं प्रदायाथ ब्रह्मा ब्रह्मर्षिभिर्युतः५०। 1.12.50

पश्यतां सर्वभूतानां तत्रैवांतरधीयत
इलोदरे च धर्मिष्ठं बुधः पुत्रमजीजनत्५१।

अश्वमेधशतंसाग्रमकरोद्यस्स्वतेजसा
पुरूरवा इति ख्यातः सर्वलोकनमस्कृतः५२।

हिमवच्छिखरे रम्ये समाराध्य पितामहं
लोकैश्वर्यमगाद्राजन्सप्तद्वीपपतिस्तदा५३।

केशिप्रभृतयो दैत्यास्तद्भृत्यत्वं समागताः
उर्वशी यस्य पत्नीत्वमगमद्रूपमोहिता५४

सप्तद्वीपावसुमती सशैलवनकानना
धर्मेण पालिता तेन सर्वलोकहितैषिणा५५।

चामरग्रहणाकीर्तिः स्वयं चैवांगवाहिका
ब्रह्मप्रसादाद्देवेंद्रो ददावर्द्धासनं तदा५६।

धर्मार्थकामान्धर्मेण समवेतोभ्यपालयत्
धर्मार्थकामास्तं द्रष्टुमाजग्मुः कौतुकान्विताः५७।

जिज्ञासवस्तच्चरितं कथं पश्यति नः समम्
भक्त्या चक्रे ततस्तेषामर्घ्यपाद्यादिकं ततः५८।

आसनत्रयमानीय दिव्यं कनकभूषणम्
निवेश्याथाकरोत्पूजामीषद्धर्मेधिकां पुनः५९।

जग्मतुस्तौ च कामार्थावतिकोपं नृपं प्रति
अर्थः शापमदात्तस्मै लोभात्त्वं नाशमेष्यसि६०।

कामोप्याह तवोन्मादो भविता गंधमादने
कुमारवनमाश्रित्य वियोगाच्चोर्वशीभवात्६१।

धर्मोप्याह चिरायुस्त्वं धार्मिकश्च भविष्यसि
संततिस्तव राजेंद्र यावदाचंद्रतारकम्६२।

शतशो वृद्धिमायाति न नाशं भुवि यास्यति
षष्टिं वर्षाणि चोन्माद ऊर्वशीकामसंभवः६३।

अचिरादेव भार्यापि वशमेष्यति चाप्सराः
इत्युक्त्वांतर्दधुः सर्वे राजा राज्यं तदान्वभूत्६४।

अहन्यहनि देवेंद्रं द्रष्टुं याति पुरूरवाः
कदाचिदारुह्य रथं दक्षिणांबरचारिणा६५।

सार्धं शक्रेण सोऽपश्यन्नीयमानामथांबरे
केशिना दानवेंद्रेण चित्रलेखामथोर्वशीम्६६।

तं विनिर्जित्य समरे विविधायुधपातनैः
पुरा शक्रोपि समरे येन वज्री विनिर्जितः६७।

मित्रत्वमगमत्तेन प्रादादिंद्राय चोर्वशीं
ततःप्रभृति मित्रत्वमगमत्पाकशासनः६८।

सर्वलोकेतिशयितं पुरूरवसमेव तम्
प्राह वज्री तु संतुष्टो नीयतामियमेव च६९।

सा पुरूरवसः प्रीत्यै चागायच्चरितं महत्
लक्ष्मीस्वयंवरंनाम भरतेन प्रवर्तितम्७०।

मेनकां चोर्वशीं रंभां नृत्यध्वमिति चादिशत्
ननर्त सलयं तत्र लक्ष्मीरूपेण चोर्वशी७१।

सा पुरूरवसं दृष्ट्वा नृत्यंती कामपीडिता
विस्मृताभिनयं सर्वं यत्पुरातनचोदितम्७२।

शशाप भरतः क्रोधाद्वियोगात्तस्य भूतले
पंचपंचाशदब्दानि लताभूता भविष्यसि७३।

ततस्तमुर्वशी गत्वा भर्त्तारमकरोच्चिरं
शापानुभवनांते च उर्वशी बुधसूनुना७४।

अजीजनत्सुतानष्टौ नामतस्तान्निबोध मे
आयुर्दृढायुर्वश्यायुर्बलायुर्धृतिमान्वसुः७५।

दिव्यजायुः शतायुश्च सर्वे दिव्यबलौजसः
आयुषो नहुषः पुत्रो वृद्धशर्मा तथैव च७६।

रजिर्दंडो विशाखश्च वीराः पंचमहारथाः
रजेः पुत्रशतं जज्ञे राजेया इति विश्रुतं७७।

रजिराराधयामास नारायणमकल्मषं
तपसा तोषितो विष्णुर्वरं प्रादान्महीपतेः७८।

देवासुरमनुष्याणामभूत्स विजयी तदा
अथ देवासुरं युद्धमभूद्वर्षशतत्रयम्७९।

प्रह्लादशक्रयोर्भीमं न कश्चिद्विजयी तयोः
ततो देवासुरैः पृष्टः पृथग्देवश्चतुर्मुखः८०।

अनयोर्विजयी कः स्याद्रजिर्यत्रेति सोब्रवीत्
जयाय प्रार्थितो राजा सहायस्त्वं भवस्व नः८१।

दैत्यैः प्राह यदि स्वामी वो भवामि ततस्त्वलम्
नासुरैः प्रतिपन्नं तत्प्रतिपन्नं सुरैस्तदा८२।

स्वामी भव त्वमस्माकं बलनाशय विद्विषः
ततो विनाशिताः सर्वे ये वध्या वज्रपाणिनः८३।

पुत्रत्वमगमत्तुष्टस्तस्येंद्रः कर्मणा ततः
दत्त्वेंद्राय पुरा राज्यं जगाम तपसे रजिः८४।

रजिपुत्रैस्तदाछिन्नं बलादिंद्रस्य वैयदा
यज्ञभागश्च राज्यं च तपोबलगुणान्वितैः८५।

राज्यभ्रष्टस्ततः शक्रो रजिपुत्रनिपीडितः
प्राह वाचस्पतिं दीनः पीडितोऽस्मि रजेः सुतैः८६।

न यज्ञभागो राज्यं मे पीडितस्य बृहस्पते
राज्यलाभाय मे यत्नं विधत्स्व धिषणाधिप८७।

ततो बृहस्पतिः शक्रमकरोद्बलदर्पितम्
ग्रहशांतिविधानेन पौष्टिकेन च कर्मणा८८।

गत्वाथ मोहयामास रजिपुत्रान्बृहस्पतिः
जिनधर्मं समास्थाय वेदबाह्यं स धर्मवित्८९।

वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः
वेदबाह्यान्परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान्९०।

जघान शक्रो वज्रेण सर्वान्धर्मबहिष्कृतान्
नहुषस्य प्रवक्ष्यामि पुत्रान्सप्तैव धार्मिकान्९१।

यतिर्ययातिश्शर्यातिरुत्तरः पर एव च
अयतिर्वियतिश्चैव सप्तैते वंशवर्द्धनाः९२।

यतिः कुमारभावेपि योगी वैखानसोभवत्
ययातिरकरोद्राज्यं धर्मैकशरणः सदा ९३।

शर्मिष्ठा तस्य भार्याभूद्दुहिता वृषपर्वणः
भार्गवस्यात्मजा चैव देवयानी च सुव्रता९४।

ययातेः पंचदायादास्तान्प्रवक्ष्यामि नामतः
देवयानी यदुं पुत्रं तुर्वसुं चाप्यजीजनत्९५।

_________    

तथा द्रुह्यमणं पूरुं शर्मिष्ठाजनयत्सुतान्
यदुः पूरूश्च भरतस्ते वै वंशविवर्द्धनाः९६।

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोसि पार्थिव
यदोस्तु यादवा जाता यत्र तौ बलकेशवौ९७

भारावतारणार्थाय पाण्डवानां हिताय च
यदोः पुत्रा बभूवुश्च पंच देवसुतोपमाः९।

सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः९९

शतजितश्च दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः
हैहयश्च हयश्चैव तथा तालहयश्च यः१००। 1.12.100

हैहयस्य तु दायादो धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः
धर्मनेत्रस्य कुंतिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः१०१।

संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नाम पार्थिवः
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रसेनः प्रतापवान्१०२।

________________

वाराणस्यामभूद्राजा कथितः पूर्वमेव हि
भद्रसेनस्य पुत्रस्तु दुर्दमो नाम धार्मिकः१०३।

दुर्दमस्य सुतो भीमो धनको नाम वीर्यवान्
धनकस्य सुता ह्यासन्चत्वारो लोकविश्रुताः१०४।

कृताग्निः कृतवीर्यश्च कृतधर्मा तथैव च
कृतौजाश्च चतुर्थोभूत्कृतवीर्याच्च सोर्जुनः१०५।

जातो बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः
वर्षायुतं तपस्तेपे दुश्चरं पृथिवीपतिः१०६।

दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्योत्रिसंभवम्
तस्मै दत्तो वरान्प्रादाच्चतुरः पुरुषोत्तमः१०७।

पूर्वं बाहुसहस्रं तु स वव्रे राजसत्तमः
अधर्मं ध्यायमानस्य भीतिश्चापि निवारणम्१०८।

युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणावाप्य वै बलम्,
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद्भवेत्१०९।

एतेनेयं वसुमती सप्तद्वीपा सपत्तना
सप्तोदधि परिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता११०।

जज्ञे बाहुसहस्रं च इच्छतस्तस्य धीमतः
सर्वे यज्ञा महाबाहोस्तस्यासन्भूरिदक्षिणाः१११।

सर्वे कांचनयूपास्ते सर्वे कांचनवेदिकाः
सर्वे देवैश्च संप्राप्ता विमानस्थैरलंकृतैः११२।

गंधर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवापि सेविताः
यस्य यज्ञे जगौ गाथा गंधंर्वो नारदस्तथा११३।

कार्त्तवीर्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः
न नूनं कार्त्तवीर्यस्य गतिं यास्यंति पार्थिवाः११४।

यज्ञैर्दानैस्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च
सप्तद्वीपाननुचरन्वेगेन पवनोपमः११५।

पंचाशीतिसहस्राणि वर्षाणां च नराधिपः
सप्तद्वीपपृथिव्याश्च चक्रवर्ती बभूव ह११६।

स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हि
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो। योगित्वादर्जुनोभवत्११७।

साम्य

स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव च ।।
स एव वृष्ट्यां पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ।। ४१ ।।(भविष्यपुराणउत्तरपर्व५८वाँ अध्याय)

योसौ बाहुसहस्रेण ज्याघातकठिनत्वचा
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः११८।

एष नाम मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै११९।

क्रीडते स्वसुखा ये विप्रतिस्रोतो महीपतिः
ललनाः क्रीडता तेन प्रतिबद्धोर्मिमालिनी१२०

ऊर्मिभ्रुकुटिमाला सा शंकिताभ्येति नर्मदा
एष एव मनोर्वंशे त्ववगाहेन्महार्णवम्१२१।

करेणोद्धृत्य वेगं तु कामिनीप्रीणनेन तु
तस्य बाहुसहस्रेण क्षोभ्यमाणे महोदधौ१२२।

भवंति लीना निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः
तदूरुक्षोभचकिता अमृतोत्पादशंकिताः१२३।

नता निश्चलमूर्द्धानो भवंति च महोरगाः
एष धन्वी च चिक्षेप रावणं प्रति सायकान्१२४।

एष धन्वी धनुर्गृह्य उत्सिक्तं पंचभिः शरैः
लंकेशं मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्१२५।

निर्जित्य बद्ध्वा त्वानीय माहिष्मत्याम्बबंध तम्
ततो गतोहं तस्याग्रे अर्जुनं संप्रसादयन्१२६।

मुमोच राजन्पौत्रं मे सख्यं कृत्वा च पार्थिवः
तस्य बाहुसहस्रस्य बभूव ज्यातलस्वनः१२७।

युगांताग्नेः प्रवृत्तस्य यथा ज्यातलनिःस्वनः
अहो बलं विधेर्वीर्यं भार्गवः स यदाच्छिनत्१२८।

मृधे सहस्रं बाहूनां हेमतालवनं यथा
यं वसिष्ठस्तु संक्रुद्धो ह्यर्जुनं शप्तवान्विभुः१२९।

यस्माद्वनं प्रदग्धं ते विश्रुतं मम हैहय
तस्मात्ते दुष्कृतं कर्म कृतमन्यो हनिष्यति१३०।

छित्वा बाहुसहस्रं ते प्रमथ्य तरसा बली
तपस्वी ब्राह्मणस्त्वां वै वधिष्यति स भार्गवः१३१।

तस्य रामोथ हंतासीन्मुनिशापेन धीमतः
तस्य पुत्रशतं त्वासीत्पंच तत्र महारथाः१३२।

कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो महाबल
शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टो वै कृष्ण एव च१३३।

जयद्ध्वजः स वै कर्ता अवन्तिश्च रसापतिः
जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजंघो महाबलः१३४।

तस्य पुत्राश्शतान्येव तालजंघा इति स्मृताः
तेषां पंचकुलान्यासन्हैहयानां महात्मनाम्१३५।

वीतिहोत्राश्च संजाता भोजाश्चावंतयस्तथा
तुंडकेराश्च विक्रांतास्तालजंघाः प्रकीर्तिताः१३६

वीतिहोत्रसुतश्चापि अनंतो नाम वीर्यवान्
दुर्जयस्तस्य पुत्रस्तु बभूवामित्रकर्षणः१३७।

सद्भावेन महाराजः प्रजाधर्मेण पालयन्
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रधृत्१३८।

येन सागरपर्यंता धनुषा निर्जिता मही
यस्तस्यकीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः१३९।

न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टं च लभते पुनः
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः
यथा यष्टा यथा दाता स्वर्गलोके महीयते१४०।

( इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे यदुवंशकीर्तनं नाम द्वादशोऽध्यायः -१२)

                      "अनुवाद-★ 

अध्याय 12 - यादवों का वंश वर्णन


भीष्म ने कहा :

1. हे विद्वान, अब बताओ कि सोम वंश का उदय कैसे हुआ ? और इस वंश में किन राजाओं का जन्म हुआ जिससे इसकी ख्याति बढ़ी।

               (पुलस्त्य उवाच)
आदिष्टो ब्रह्मणा पूर्वमत्रिः सर्गविधौ पुरा
अनंतरं नाम तपः सृष्ट्यर्थं तप्तवान्विभुः ।२।

              पुलस्त्य ने कहा :

2-3। पूर्व में अत्रि को  सृष्टि बनाने का आदेश ब्रह्मा ने दिया था । तब भगवान ने सृष्टि के लिए तपस्या की।

यदानंदकरं ब्रह्म भगवन्क्लेशनाशनं
ब्रह्मरुद्रेन्द्रसूर्याणामभ्यंतरमतींद्रियं।३।

 (यह) रमणीय था, ब्रह्मा, रुद्र , इंद्र और सूर्य के निकटतम, ब्रह्मा की परेशानी को दूर करने वाला और अन्तर्मुखी इन्द्रिय हो गये।

यस्माद्वंशपतिः सार्द्धं समये तदधिष्ठितः
तं दृष्ट्वाचष्ट सोमेन तस्मात्सोमोभवद्विभुः ।५।

तद्दिशो जगृहुस्तत्र स्त्रीरूपेणासहृच्छयाः
गर्भो भूत्वोदरे तासां स्थितः सोप्यत्रिसंभवः।७।

4-5. मन को शांत कर अत्रि फिर संयमित रहे। तपस्या की महानता भी बहुत प्रसन्नता का कारण बनती है। जब से राजवंश का मुखिया खड़ा हुआ तब से यह आधे से बढ़ गया और जब से सोम ने उसे देखा तो उसने यह बताया कि वह पराक्रमी हो गया।


आरोप्य लोकमनयदात्मीयं स पितामहः
ततो ब्रह्मर्षिभिः प्रोक्तं ह्यस्मत्स्वामीभवत्वयम्।१०।

6. तब अत्रि की आंखों से आंसूओं का पानी बह निकला, जो अपनी चांदनी से सभी चल और अचल चीजों को रोशन कर रहा था।

7. महिलाओं के रूप में दिशाओं ने इसे पी लिया; यह अत्रि द्वारा उत्पन्न भ्रूण में बदल गया और उनके गर्भाशय में ही रह गया।

8-9. फिर इसे धारण करने में असमर्थ  दिशाओं ने इसे गिरा दिया। ब्रह्मा ने फिर भ्रूण लिया और उसे एक साथ रखा और (इस प्रकार) एक युवा को सभी हथियारों का उपयोग करने में कुशल बनाया।

10. उसे अपने हाथों से वेदों की शक्ति से भरे रथ में बिठाकर , वह उसे दुनिया में ले गया। तब ब्राह्मण ऋषियों ने कहा: वह हमारा स्वामी हो ।

11. तब उस (सोम) का अन्तःकरण जिसकी स्तुति ऋषि, गन्धर्व और अप्सराएँ कर रहे थे, अति महान हो गई।

12. उस बढ़ती हुई चमक से पृथ्‍वी पर जड़ी-बूटियों का समूह उत्‍पन्‍न हुआ; उसकी चमक महान है; इसलिए वह रात के समय हमेशा (यानी चमकता) रहता है।

13-15. इसलिए सोम जड़ी-बूटियों का स्वामी बन गया; वह भी ब्राह्मणों में गिना जाता है ; क्योंकि वह वैदिक चमक और तरल है। अंधेरे और उज्ज्वल (पखवाड़े) में शुभ डिस्क कम हो जाती है और मोम हो जाती है। प्रचेतस दक्ष ने उन्हें (उनकी) सत्ताईस प्रतिभाशाली बेटियाँ दीं, जो रूप और सौंदर्य से संपन्न थीं और फिर दस हज़ार (-गुना) शक्तियाँ थीं।

16-17. सोम ने विष्णु का ध्यान करने के इरादे से तपस्या की। तब भगवान, नारायण - हरि , सर्वोच्च जनार्दन उनसे प्रसन्न हुए और उनसे कहा, "वर मांगो।" तब सोम ने वरदान मांगा: “मैं इंद्र की दुनिया में एक यज्ञ करूंगा।

18-1 9. ब्रह्मा के नेतृत्व में देवताओं के समूह को व्यक्तिगत रूप से मेरे घर में, राजसूय में (प्रसाद) का आनंद लेना चाहिए । त्रिशूलधारी देवता, हारा , हमारे रक्षक होने चाहिए।" जब विष्णु ने कहा, "ऐसा ही रहने दो" उन्होंने राजसूय किया ।

20. अत्रि होता था (ऋग्वेद की प्रार्थनाओं का पाठ करने वाला पुजारी ) । भोगु अध्वर्यु ( कार्यकारी पुजारी) थे । ब्रह्मा उद्गाता बन गए (जो सामवेद के मंत्रों का जाप करते हैं ), और हरि स्वयं अधीक्षक थे।

21. सभी (अन्य) देवता याजकों की सहायता कर रहे थे; राजसूय होने के लिए संस्कार निर्धारित (कहा) किया गया था । वसु और विश्वदेव भी कार्यवाहक पुजारी थे।

22. उसने तीनों लोकों को याजकों को बलि के रूप में दिया। सोम ने जिस वैभव को प्राप्त करना कठिन था और जिसे संसार ने सम्मानित किया था, उसे अपनी तपस्या से सात लोकों की प्रभुता प्राप्त हुई।

23-24. एक बार उन्होंने एक बगीचे में देखा कि बृहस्पति की पत्नी तारा , कई फूलों और गहनों से सजी, बड़े कूल्हों की, स्तनों के बोझ से पीड़ित, इतनी कमजोर (यानी नाजुक) (कि वह बर्दाश्त नहीं करेगी) फूल, कामदेव के तीरों की तरह आकर्षक और चौड़ी और सुंदर आँखें।

25. उस सुनसान स्थान में तारों के स्वामी ने प्रेम से मारा हुआ उसके बालों से उसे पकड़ लिया। वह भी, (समान रूप से) उसके रूप और सुन्दरता से आकर्षित मन के साथ, उसके साथ आनंद लेती थी।

26. लंबे समय तक खेल-कूद करने के बाद सोम तारा को अपने घर ले गए; तब अपने घर में भी, वह तारा से जुड़ा हुआ था, (यौन) सुखों से संतुष्ट नहीं था।

27-28. वियोग की अग्नि से झुलसे बृहस्पति का मन उसी पर ही विचार कर रहा था। वह उसे (यानी सोम) को शाप देने में असमर्थ था, न ही (भाषण के स्वामी) कई मंत्रों, मिसाइलों, आग या जहरों के माध्यम से उसे नुकसान पहुंचाने में सक्षम था; या विभिन्न चालों से या जादुई मंत्रों द्वारा। प्रेम से तड़पकर उसने सोमदेव से अपनी पत्नी को लौटाने की याचना की।

29. प्रेम से मोहित होकर, उन्होंने शिव या ब्रह्मा द्वारा, साध्यों द्वारा , और मारुतों के साथ-साथ क्वार्टरों के अधिकारियों द्वारा भीख मांगी, उन्होंने (वापस) बृहस्पति की पत्नी को नहीं दिया।

30. जब उसने उसे (वामदेव भी) शिव नहीं दिया, जो (जिसे वामदेव भी कहा जाता है) पृथ्वी पर प्रसिद्ध था और जिसके चरणकमल जैसे कई रुद्रों द्वारा पूजा की जाती थी , क्रोधित हो गया।

31. तब, शिव त्रिशूल धारक, अपने शिष्यों के साथ, बृहस्पति के प्रेम से बंधे हुए, आत्माओं के देवताओं का सहारा लेते थे, और सिद्ध, जगव नामक अपना धनुष लेकर, सोम से लड़ने के लिए (आगे) चले गए।

32-34. वह, विशेष रूप से प्रतिभाशाली, एक भयानक रूप का और अपनी तीसरी आंख में आग के कारण भयानक और क्रूर, और उसके सेवकों के अस्सी स्वामी और युद्ध-रथ में बैठे यक्षों के स्वामी , और सोम भी अपने क्रोध से, और एक हजार अरब वेताल , यक्ष, सांप और किन्नरों के साथ, नागों के भी, इसलिए छत्तीस हजार रथों के साथ, शनि और अंगारक की चमक के साथ , नक्षत्रों , राक्षसों और राक्षसों की सेना के साथ वहां आए  .

35. सातों लोक, पृथ्वी, वन, द्वीप और समुद्र के भीतरी भाग भयभीत हो गए। त्रिशूलधारी, जिसने प्रज्वलित मिसाइल और प्रचंड अग्नि को ले लिया था, सोम के लिए (लड़ाई) चला गया।

36. फिर रुद्र और सोम की भयानक सेनाओं के बीच एक महान युद्ध हुआ। सभी प्राणियों को नष्ट करने में सक्षम, यह (अर्थात् युद्ध) भीषण और प्रख्यात अग्नि के रूप में परवान चढ़ा।

37. तेज और मार्मिक मिसाइलों के साथ दोनों की पूरी सेनाओं का विनाश हुआ। स्वर्ग, पृथ्वी और निचले क्षेत्र को जलाने में सक्षम तेज मिसाइलों को छुट्टी दे दी गई।

38. क्रोध से रुद्र ने ब्रह्मसिरस मिसाइल छोड़ी ; सोमा ने भी अचूक शक्ति की मिसाइल 'सोम' छोड़ी। दोनों (मिसाइलों) के गिरने से समुद्र में, पृथ्वी पर, वातावरण में भय फैल गया।

39. तब उस युद्ध को बढ़ता हुआ और लोकों को नष्ट करने में सक्षम देखकर, ब्रह्मा ने देवताओं के साथ, वहाँ प्रवेश करके किसी तरह उसे टाल दिया।

40-41. "हे सोम, आप बिना किसी कारण के यह घृणित कार्य क्यों कर रहे हैं, जिससे लोगों का विनाश हो रहा है? चूंकि आपने किसी और की पत्नी को ले जाने के लिए यह भयानक युद्ध छेड़ा है, इसलिए आप लोगों के बीच एक दुष्ट ग्रह बन जाएंगे; तुम पापी हो; तुम ब्राह्मणों के खाने वालों के समान हो जाओगे। मेरे वचन का सम्मान करते हुए, इस बृहस्पति की पत्नी को उन्हें लौटा दो।"

42. सोमा शान्त होकर युद्ध से दूर रहा। बृहस्पति तारा को लेकर प्रसन्न होकर घर चले गए; वैसे ही रुद्र भी।

पुलस्त्य ने कहा :

43-45. फिर एक वर्ष के अंत में, बारह सूर्यों के समान एक लड़का, दिव्य पीले वस्त्र पहने हुए, दिव्य आभूषणों से सुशोभित, और सूर्य की तरह, तारा के लिए पैदा हुआ था। वह सभी विज्ञानों को जानता था, और हाथियों के विज्ञान के प्रतिपादक थे। राजपुत्र नामित वह एक प्रसिद्ध शाही चिकित्सक थे। राजा सोम के पुत्र होने के कारण उन्हें बुध  के नाम से जाना जाता था ।

46. ​​उस शक्तिशाली ने सब लोगों की सारी चमक छीन ली। वहाँ ब्रह्मा आदि आये। इसी प्रकार बालक के जन्म के समय किए गए समारोह के समय देवता भी दिव्य ऋषियों के साथ बृहस्पति के घर आए।

47. देवताओं ने तारा से पूछा कि लड़का किसके द्वारा पैदा हुआ था (यानी उसके पिता कौन थे- सोम या बृहस्पति)?

48-49। उन पर लज्जित होकर वह उस समय कुछ नहीं बोली। महान महिला, फिर से पूछे जाने पर, लंबे समय के बाद शर्म से उत्तर दिया कि पुत्र सोम का था। तब सोम ने पुत्र को लेकर उसका नाम 'बुद्ध' रखा और उसे पृथ्वी पर राज्य दिया।

50-51. तब परम भगवान ब्रह्मा ने उन्हें अभिषेक करके, उन्हें ग्रहों में एक स्थान प्रदान किया; इसे देने के बाद, वह, ब्राह्मण ऋषियों के साथ, वहाँ गायब हो गए, जबकि सभी प्राणी देख रहे थे। बुध ने इला के गर्भ में सर्वाधिक धार्मिक पुत्र उत्पन्न किया।

52. उसने (अर्थात् पुत्र) पूर्ण रूप से एक सौ अश्व-यज्ञ किए, और उसकी चमक के कारण पुरुरवा के रूप में जाना जाता था और सभी लोगों द्वारा सम्मानित किया जाता था।

53. हिमालय के शिखर पर ब्रह्मा को प्रसन्न करने के बाद , उन्होंने, सात द्वीपों के स्वामी, ने दुनिया का आधिपत्य प्राप्त कर लिया।

54. केसीन और अन्य दुष्टात्माएं उसके दास बन गईं; उर्वशी उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर उसकी पत्नी बन गई।

55. उसने सब लोगों की भलाई की कामना करते हुए, सात द्वीपों वाली पृथ्वी की रक्षा की, जिसमें पहाड़, जंगल और उपवन थे।

56. ब्रह्मा की कृपा से (उन्होंने प्राप्त किया) प्रसिद्धि जो उनकी वाहक और चौरी धारण करने वाली प्रतीक्षारत लड़की बन गई। देवताओं के स्वामी ने उन्हें (उनके) आधे आसन की पेशकश की।

57. उन्होंने धर्म , अर्थ और काम की समान और न्यायसंगत रक्षा की।

58. धर्म , अर्थ और काम उत्सुकता से उनसे मिलने आए, यह जानने की इच्छा से कि उन्होंने उन्हें समान रूप से कैसे बनाए रखा। फिर उन्होंने भक्ति के साथ उन्हें प्रसाद, पैर धोने के लिए जल आदि अर्पित किए।

59. सोने से अलंकृत तीन आसनों को लाकर, उन्हें आसनों पर बिठाकर, उन्होंने उन्हें पूजा की, (अर्पण) धर्म की थोड़ी अधिक पूजा की ।

60. काम और अर्थ तब राजा से बहुत क्रोधित हो गए; अर्थ ने उसे शाप दिया: "तुम लालच के कारण नष्ट हो जाओगे।"

61. काम ने यह भी कहा: "उर्वशी से अलग होने के कारण कुमार के ग्रोव (पवित्र) कुमार में जाने के बाद, आप गंधमादन में पागल हो जाएंगे " ।

62-64. धर्म ने भी कहा: “तुम्हारी आयु लंबी होगी और आप धार्मिक होंगे; हे राजाओं के स्वामी, जब तक सूर्य और चंद्रमा (आकाश में) रहेंगे, तब तक आपकी संतान सौ गुना बढ़ जाएगी और पृथ्वी पर नष्ट नहीं होगी। उर्वशी से उत्पन्न पागलपन साठ वर्ष तक चलेगा; और वह दिव्य अप्सरा, आपकी पत्नी, शीघ्र ही आप पर विजय प्राप्त कर लेगी"। इतना कहकर सब गायब हो गए।

65-66. पुरूरवा प्रतिदिन उर्वशी के दर्शन करने जाते थे। एक बार दक्षिण दिशा में आकाश में चलते हुए इंद्र के साथ रथ में बैठे हुए उन्होंने उर्वशी और चित्रलेखा को राक्षसों के स्वामी केसिन द्वारा वातावरण में (दूर) ले जाते हुए देखा।

67-68. एक युद्ध में उसे (यानी केसिन) परास्त कर दिया, जो पहले युद्ध में इंद्र को भी विभिन्न मिसाइलों (उस पर) फेंक कर परास्त कर चुका था, वह (यानी पुरूरवा) इंद्र के साथ मित्रवत हो गया और उसे उर्वशी दी। तभी से इंद्र उनके मित्र बन गए।

69. इंद्र ने प्रसन्न होकर, पुरूरवाओं से, दुनिया में (सभी को) श्रेष्ठ, उनसे कहा: "तुम उसे ले लो"।

70. प्रेम के कारण उन्होंने भरत द्वारा रचित और लक्ष्मी - स्वयंवर नाम की एक महान कहानी पुरिरवास के लिए गाई ।

71. उसने (अर्थात भरत) मेनका , उर्वशी और रंभा को नृत्य करने का आदेश दिया। वहाँ उर्वशी, लक्ष्मी की भूमिका में, उचित विराम के साथ (संगीत में) नृत्य करती थीं।

72. वह नृत्य करते हुए, पुरूरवों को देखकर, प्रेम से पीड़ित हो गई और पहले निर्देशित सभी अभिनय को भूल गई।

73-74. भरत ने गुस्से में उसे श्राप दिया कि वह उससे (यानी पुरूरवा) अलग होकर एक लता में बदल जाएगी, पचपन साल तक पृथ्वी पर रहेगी। तब उर्वशी ने उसके पास जाकर बहुत दिनों तक उसे अपना पति बना लिया। श्राप का अनुभव करने के बाद, उर्वश ने बुद्ध के पुत्र (पुरुराव) द्वारा आठ पुत्रों को जन्म दिया।

75-77. मेरे पास से उनके नाम सुनो (जैसा कि मैं उन्हें बताता हूं)। आयु, दिधायु, वायुयु, बलायु, धृतिमान , वासु , दिव्याजय और शतायु- इन सभी में दैवीय शक्ति और जोश था। नहुष श्यु के पुत्र थे, वैसे ही वृद्धशर्मा भी थे; और राजी , दशा और विशाखा ; ये पांच वीर योद्धा थे। राजी के सौ पुत्र उत्पन्न हुए; वे राजय के नाम से जाने जाते थे ।

78. राजी ने शुद्ध नारायण को प्रसन्न किया; विष्णु जो (इस प्रकार) तपस्या से प्रसन्न थे, ने राजा को वरदान दिया।

79. वह तब देवताओं, राक्षसों और पुरुषों का विजेता बन गया। फिर तीन सौ वर्षों तक देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चलता रहा।

80. प्रह्लाद और शकर के बीच एक भयानक युद्ध हुआ , और उनमें से कोई भी विजयी नहीं हुआ। तब देवताओं और राक्षसों ने अलग-अलग ब्रह्मा से पूछा:

81. "दोनों में से कौन विजयी होगा?" उन्होंने कहा: "वह, जहां (यानी किसके पक्ष में) राजी है (विजयी होगा)।"

82. राक्षसों ने राजा से अनुरोध किया, "जीत के लिए हमारी मदद करें"। उसने कहा: “यदि मैं तेरा स्वामी हो (मैं तेरी सहायता करूंगा); अन्यथा यह पर्याप्त है (अर्थात मैं आपकी सहायता नहीं करूंगा)"। राक्षसों ने इसे स्वीकार नहीं किया; लेकिन देवताओं ने किया।

83. "हमारे प्रभु बनो और दुश्मन की सेना को नष्ट कर दो।" फिर उसने उन सभी को नष्ट कर दिया जो इंद्र द्वारा मारे जाने वाले थे।

84. उसके उस कार्य से इंद्र उसके पुत्र बने। फिर इंद्र को राज्य देते हुए, राजी तपस्या करने गए।

85. तब, तपस्या और शक्ति के गुण से संपन्न राजी के पुत्रों ने इंद्र से राज्य और बलि में उसका हिस्सा जबरन छीन लिया।

86-87. वह, राज्य से वंचित और राजी के पुत्रों द्वारा उत्पीड़ित, असहाय होकर, बृहस्पति से कहा: "हे बृहस्पति, राजी के पुत्रों द्वारा परेशान मेम; मैं जो अन्धेर में हूं, मेरे पास न राज्य है, और न बलिदान का भाग; बुद्धि के स्वामी, मेरे लिए राज्य प्राप्त करने का प्रयास करो। ”

88. तब बृहस्पति ने ग्रहों को शांत करने और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए अनुष्ठान के माध्यम से इंद्र को शक्ति से अभिमानी बना दिया।

89-91. बृहस्पति ने राजी के पुत्रों के पास जाकर उन्हें स्तब्ध कर दिया। बुद्धि के स्वामी (अर्थात बृहस्पति) जो धर्म को जानते थे, जैनों के धर्म का सहारा लेते हुए, जो वैदिक धर्म से बाहर थे, उन्हें तीनों वेदों से गिरा दिया। उन्हें वैदिक दायरे से बाहर और विवाद से संपन्न जानकर, इंद्र ने अपने बोल्ट से उन सभी को मार डाला - जो (वैदिक) धर्म से बहिष्कृत थे। मैं तुम्हें नहुष के सात धर्मपरायण पुत्रों के बारे में बताऊंगा:

92. यति , ययाति , शर्याती , उत्तरा और परा ; तो अयाति और वायति भी ; इन सातों ने जाति का प्रचार किया।

यतिः कुमारभावेपि योगी वैखानसोभवत्
ययातिरकरोद्राज्यं धर्मैकशरणः सदा ९३।

93. यति बचपन में ही वैखानस योगी  (प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्रह्मचारी या तपस्वी जो प्रायः वन में रहा करते थे।) बन गया था। हमेशा धर्मपरायण रहने वाले ययाति ने अपने राज्य पर शासन किया।

94. वृषपर्वन की पुत्री शर्मीठा उनकी पत्नी थीं; इसी प्रकार भार्गव की पुत्री देवयानी भी एक अच्छी प्रतिज्ञा की (उनकी पत्नी थी)।

95. ययाति के पांच पुत्र थे; मैं उनका उल्लेख नामों से करूंगा। देवयानी ने एक पुत्र (नाम) यदु और (एक अन्य पुत्र) तुर्वसु को भी जन्म दिया।

96. शर्मिष्ठा ने (तीन) पुत्रों को जन्म दिया: द्रुहु , अनु और पुरु । यदु, पुरु और भरत ने जातिपरम्परा जारी रखी।

97-98. हे राजा, (अब) मैं पुरु-वंश का वर्णन करूंगा, जिसमें आप पैदा हुए हैं। यदु से यादवों का जन्म हुआ, जिनमें से (जन्म) बल (- राम ) और कृष्ण पांडवों का बोझ उतारने और उनके कल्याण के लिए थे। यदु के पांच पुत्र भगवान के पुत्रों के समान थे।

99. सबसे बड़े थे सहस्रजित , फिर क्रोष्टा , नीला , अंजिका और रघु । शतजित नाम के राजा सहस्रजित के पुत्र थे।

100. शताजित के तीन अत्यंत धार्मिक पुत्र थे: हैहया , हया और तालहया भी।

101. धर्मनेत्र हैहया के सुप्रसिद्ध पुत्र थे; धर्मनेत्र के पुत्र कुंती थे और उनके (कुंती के) पुत्र संहत थे ।

102-104. महिष्मान नाम का राजा संहत का पुत्र था। बहादुर भद्रसेन महिष्मान के पुत्र थे। वह वाराणसी में एक राजा थे , जिनका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। भद्रसेन के धार्मिक पुत्र का नाम दुर्दाम था । दुर्दम के भयानक पुत्र का नाम धनक था । धनक के चार पुत्र थे जो संसार में विख्यात थे।

105. किताग्नि , कृतवीर्य , तो भी कृतधर्म; चौथा पुत्र कतौज था ; वह (प्रसिद्ध) अर्जुन कोतवीर्य का (पुत्र) था।

106. राजा अपनी हजार भुजाओं से सात द्वीपों का स्वामी हुआ। तब पृथ्वी के स्वामी ने दस हजार वर्ष तक तपस्या की।

107. कार्तवीर्य ने अत्रि से उत्पन्न दत्त को प्रसन्न किया। पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ दत्तात्रेय ने उन्हें चार वरदान दिए।

108. सबसे अच्छे राजा ने पहले एक हजार भुजाओं को चुना। (दूसरे वरदान के द्वारा उसने उसे चुना) एक दुष्ट सोच से भय उत्पन्न होगा और वह दूर हो जाएगा।

109. (तीसरे वरदान से) वह युद्ध करके पृथ्वी पर विजय प्राप्त करेगा और धार्मिक कार्यों के माध्यम से शक्ति प्राप्त करेगा; और अतिरिक्त (अर्थात् चौथा वरदान) द्वारा वह किसी को भी मार डालेगा जो उसके सामने युद्ध में खड़ा होगा।

110. उसने अपनी वीरता से इस पृथ्वी को अपने सात द्वीपों और शहरों के साथ जीत लिया और सात समुद्रों से घिरा हुआ था।

111. उनमें से, बुद्धिमान एक, एक हजार हथियार उसके द्वारा वांछित के रूप में उत्पादित किए गए थे; उन्होंने सभी बलिदान किए जिनमें बड़ी फीस का भुगतान किया गया था।

112. उन सब के सब सोने की बलि के खम्भे और सोने की वेदियां थीं; सभी देवताओं ने भाग लिया और हवाई कारों में बैठे और सुशोभित हुए।

113-116. वे हमेशा गंधर्वों और आकाशीय अप्सराओं द्वारा भी भाग लेते थे। उनके बलिदान में गंधर्व और नारद ने शाही ऋषि कार्तवीर्य की महानता को देखने के बाद एक श्लोक गाया। बलिदान, उपहार, तपस्या, वीरता या विद्या के माध्यम से राजा कभी भी कार्तवीर्य के पद को प्राप्त नहीं कर पाएंगे। सात द्वीपों पर तेजी से आगे बढ़ते हुए, राजा, हवा के बराबर, पचहत्तर हजार वर्षों के लिए सात द्वीपों के साथ पृथ्वी का शासक सम्राट बन गया।

___________________________

117. वह जानवरों का रक्षक बन गया; वह अकेला ही खेतों का रक्षक था; वह अकेले ही वर्षा के माध्यम से बादल बन गया और अपने परिश्रम (परिश्रम) के माध्यम से अर्जुन बन गया।

118. वह अपनी सहस्त्र भुजाओं से, और धनुष की तानों के कारण खुरदुरी त्वचा से, सहस्त्र किरणों से शरत्कालीन सूर्य के समान चमका।

119. माहिष्मती में वह (एक आदमी) पुरुषों के बीच महान प्रतिभा का था; बरसात के मौसम में वह समुद्र के आंदोलन को पूरा करेगा।

120. वह अपनी खुशी के लिए, करंट के खिलाफ (यानी स्पोर्टेड) ​​खेलता है; पलकों से खेलकर उसने समुद्र को बांध दिया।

121-123. नर्मदा , भयभीत और अपनी भौंहों के रूप में अपनी भौंहों की बुनाई की एक श्रृंखला पाकर उसके पास बहने लगीं। मनु के परिवार से वह अकेला ही समुद्र में डुबकी लगाता, एक हाथ से समुद्र को खींचता और सुंदर महिलाओं को प्रसन्न करके उसमें डुबकी लगाता। जब उसकी सहस्त्र भुजाओं से महान् महासागर उद्वेलित होगा, तो नीचे के क्षेत्र के बड़े-बड़े राक्षस छिप जायेंगे और गतिहीन रहेंगे।

124-128. उसकी जाँघों की हलचल से दंग रह गए, और यह संदेह करते हुए कि अमृत का मंथन किया जा रहा है, अपने सिर को गतिहीन रखते हुए नीचे झुक गए। इस धनुर्धर ने रावण के विरुद्ध बाण छोड़े । इस धनुर्धर ने धनुष लेकर (बल से) लंका-रावण के अभिमानी स्वामी को पाँच बाणों से स्तब्ध और परास्त कर दिया और उसे पकड़कर माहिष्मती के पास ले आया और उसे वहाँ कैद कर लिया। तब मैं अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए उनके पास गया; मेरे पोते (अर्थात् रावण) से मित्रता करके उसने उसे छोड़ दिया। उनके एक हजार भुजाओं वाले धनुष की ध्वनि उस अग्नि की तरह थी, जो एक युग (विश्व युग) के अंत में पृथ्वी पर फैल जाएगी।

129. ( परशुराम ) ने युद्ध में स्वर्ण ताल -वृक्षों की तरह हजार भुजाओं को काट दिया । शक्तिशाली वशिष्ठ ने क्रोधित होकर अर्जुन को श्राप दिया:

130. "चूंकि, हे हैहया, आपने मेरे प्रसिद्ध ग्रोव को जला दिया, इसलिए कोई और आपके बुरे कामों को नष्ट कर देगा।

131. वह शक्तिशाली तपस्वी ब्राह्मण भार्गव, आपकी हज़ार भुजाओं को शक्तिशाली रूप से काटकर (और इस प्रकार) आपको परेशान करके, आपको मार डालेंगे। ”

132-134. इस प्रकार परशुराम उस बुद्धिमान (कार्तवीर्य) के हत्यारे थे। हे बहुत शक्तिशाली ( भीम ), उसके सौ पुत्र थे; उनमें से (निम्नलिखित) पाँच महान योद्धा थे, जो मिसाइलों के विज्ञान में प्रशिक्षित थे, शक्तिशाली, बहादुर और धार्मिक: शरसेन , श्रृ ,  , कृष्ण और जयध्वज ; वह अवन्ती का निर्माता और पृथ्वी का स्वामी था। महान पराक्रम के तालजंघ जयध्वज के पुत्र थे।

135. उनके सौ पुत्र तलजंग के नाम से जाने जाते थे । इन हैहयों में से पाँच परिवार थे।

136. वतीहोत्र (इस परिवार में) पैदा हुए थे, इसलिए भोज और अवंती , और तुकाकेरा भी ; (इन सभी) को तलजंग कहा जाता था।

137. वतीहोत्र का शक्तिशाली पुत्र अनंत था । उसका पुत्र दुर्जय था जिसने अपने शत्रुओं को सताया।

138-140। एक हजार भुजाओं वाले महान राजा कार्तवीर्य ने ईमानदारी से प्रजा की रक्षा की, जिन्होंने अपने धनुष से समुद्रों से घिरी पृथ्वी को जीत लिया; और जो भोर को उठकर अपके नाम का उच्चारण करता है, वह अपके धन की कभी हानि नहीं करता; जो खोया है उसे वापस पा लेता है। जो बुद्धिमान कार्तवीर्य के जीवन का वर्णन करता है, वह दाता या बलिदानी के रूप में स्वर्ग में सम्मानित होता है। 

अध्याय १२ वा समाप्त-

              ★पद्म पुराण★-

पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १३

← अध्यायः १३पद्मपुराणम्

                   पुलस्त्य उवाच
क्रोष्टोः शृणु त्वं राजेंद्र वंशमुत्तमपूरुषम्
यस्यान्ववाये संभूतो विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वहः।१।

क्रोष्टोरेवाभवत्पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः
तस्य पुत्रोभवत्स्वातिः कुशंकुस्तत्सुतोभवत्।२।

कुशंकोरभवत्पुत्रो नाम्ना चित्ररथोस्य तु
शशबिंदुरिति ख्यातश्चक्रवर्ती बभूव ह।३।

अत्रानुवंशश्लोकोयं गीतस्तस्य पुराभवत्
शशबिंदोस्तु पुत्राणां शतानामभवच्छतम्।४।

धीमतां चारुरूपाणां भूरिद्रविणतेजसाम्
तेषां शतप्रधानानां पृथुसाह्वा महाबलाः।५।

पृथुश्रवाः पृथुयशाः पृथुतेजाः पृथूद्भवः
पृथुकीर्तिः पृथुमतो राजानः शशबिंदवः६।

शंसंति च पुराणज्ञाः पृथुश्रवसमुत्तमम्
ततश्चास्याभवन्पुत्राः उशना शत्रुतापनः७।

पुत्रश्चोशनसस्तस्य शिनेयुर्नामसत्तमः
आसीत्शिनेयोः पुत्रो यः स रुक्मकवचो मतः८।

निहत्य रुक्मकवचो युद्धे युद्धविशारदः
धन्विनो विविधैर्बाणैरवाप्य पृथिवीमिमाम्।९।

अश्वमेधे ऽददाद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणां
जज्ञे तु रुक्मकवचात्परावृत्परवीरहा१०।

तत्पुत्रा जज्ञिरे पंच महावीर्यपराक्रमाः
रुक्मेषुः पृथुरुक्मश्च ज्यामघः परिघो हरिः११।

परिघं च हरिं चैव विदेहे स्थापयत्पिता
रुक्मेषुरभवद्राजा पृथुरुक्मस्तथाश्रयः१२।

ताभ्यां प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामघोवसदाश्रमे
प्रशांतश्चाश्रमस्थस्तु ब्राह्मणेन विबोधितः१३।

जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी
नर्मदातट एकाकी केवलं वृत्तिकर्शितः१४।

ऋक्षवंतं गिरिं गत्वा मुक्तमन्यैरुपाविशत्
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या परिणता सती१५।

अपुत्रोप्यभवद्राजा भार्यामन्यामचिंतयन्
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः१६।

भार्यामुवाच संत्रासात्स्नुषेयं ते शुचिस्मिते
एवमुक्त्वाब्रवीदेनं कस्य केयं स्नुषेति वै१७।

                       राजोवाच
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति
तस्याः सा तपसोग्रेण कन्यायाः संप्रसूयत१८।

पुत्रं विदर्भं सुभगं शैब्या परिणता सती
राजपुत्र्यां तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथकौशिकौ१९।

लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम्
पश्चाद्विदर्भो जनयच्छूरं रणविशारदम्२०।

लोमपादात्मजो बभ्रुर्धृतिस्तस्य तु चात्मजः
कौशिकस्यात्मजश्चेदिस्तस्माच्चैद्यनृपाः स्मृताः२१।

क्रथो विदर्भपुत्रो यः कुंतिस्तस्यात्मजोभवत्
कुंतेर्धृष्टस्ततो जज्ञे धृष्टात्सृष्टः प्रतापवान्२२।

सृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निवृत्तिः परवीरहा
निवृत्तिपुत्रो दाशार्हो नाम्ना स तु विदूरथः२३।

दाशार्हपुत्रो भीमस्तु भीमाज्जीमूत उच्यते
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्यभीमरथः सुतः२४।

अथ भीमरथस्यापि पुत्रो नवरथः किल
तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः२५।

तस्मात्करंभस्तस्माच्च देवरातो बभूव ह
देवक्षत्रोभवद्राजा देवरातान्महायशाः२६।

देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नंदनः
मधुर्नाममहातेजा मधोः कुरुवशः स्मृतः२७।

आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः२८।

वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः२९।

इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः३०

सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्या सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु३१

भजमानस्य सृंजय्यां भाजनामा सुतोभवत्
सृंजयस्य सुतायां तु भाजकास्तु ततोभवन्३२

तस्य भाजस्य भार्ये द्वे सुषुवाते सुतान्बहून्
नेमिं चकृकणं चैव वृष्णिं परपुरंजयं३३

ते भाजकाः स्मृता यस्माद्भजमानाद्वि जज्ञिरे
देवावृधः पृथुर्नाम मधूनां मित्रवर्द्धनः३४

अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमं तपः
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्३५

संयोज्य कृष्णमेवाथ पर्णाशाया जलं स्पृशन्
सा तोयस्पर्शनात्तस्य सांनिध्यं निम्नगा ह्यगात्३६

कल्याणं चरतस्तस्य शुशोच निम्नगाततः
चिंतयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्३७

भूत्वा गच्छाम्यहं नारी यस्यामेवं विधः सुतः
जायेत तस्मादद्याहं भवाम्यस्य सुतप्रदा३८

अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः
ज्ञापयामास राजानं तामियेष नृपस्ततः३९

अथसानवमेमासिसुषुवेसरितांवरा
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधात्परम्४०

अत्र वंशे पुराणज्ञा ब्रुवंतीति परिश्रुतम्
गुणान्देवावृधस्याथ कीर्त्तयंतो महात्मनः४१

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
षष्टिः शतं च पुत्राणां सहस्राणि च सप्ततिः४२

एतेमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
यज्ञदानतपोधीमान्ब्रह्मण्यस्सुदृढव्रतः४३

रूपवांश्च महातेजा भोजोतोमृतकावतीम्
शरकान्तस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान्४४

कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः४५

कपोतरोमा तस्यापि तित्तिरिस्तस्य चात्मजः
तस्यासीद्बहुपुत्रस्तु विद्वान्पुत्रो नरिः किल४६

ख्यायते तस्य नामान्यच्चंदनोदकदुंदुभिः
अस्यासीदभिजित्पुत्रस्ततो जातः पुनर्वसुः४७

अपुत्रोह्यभिजित्पूर्वमृषिभिः प्रेरितो मुदा
अश्वमेधंतुपुत्रार्थमाजुहावनरोत्तमः४८

तस्य मध्ये विचरतः सभामध्यात्समुत्थितः
अन्धस्तु विद्वान्धर्मज्ञो यज्ञदाता पुनर्वसुः४९

तस्यासीत्पुत्रमिथुनं वसोश्चारिजितः किल
आहुकश्चाहुकी चैव ख्याता मतिमतां वर५० 1.13.50

इमांश्चोदाहरंत्यत्र श्लोकांश्चातिरसात्मकान्
सोपासंगानुकर्षाणां तनुत्राणां वरूथिनाम्५१

रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु
नासत्यवादिनो भोजा नायज्ञा नासहस्रदाः५२

नाशुचिर्नाप्यविद्वांसो न भोजादधिकोभवत्
आहुकां तमनुप्राप्त इत्येषोन्वय उच्यते५३

आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत५४

देवकं चोग्रसेनं च देवगर्भसमावुभौ
देवकस्य सुताश्चैव जज्ञिरे त्रिदशोपमाः५५

देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः
तेषां स्वसारः सप्तैव वसुदेवाय ता ददौ५६

देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा
श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी५७

नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां च पूर्वजः
न्यग्रोधस्तु सुनामा च कंकः शंकुः सुभूश्च यः५८

अन्यस्तु राष्ट्रपालश्च बद्धमुष्टिः समुष्टिकः
तेषां स्वसारः पंचासन्कंसा कंसवती तथा५९

सुरभी राष्ट्रपाली च कंका चेति वरांगनाः
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः६०

भजमानस्य पुत्रोभूद्रथिमुख्यो विदूरथः
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथसुतोभवत्६१

राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते वीरसंमतौ
क्षत्रव्रतेतिनिरतौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः६२

शोणाश्वस्य सुताः पंच शूरा रणविशारदाः
शमी च राजशर्मा च निमूर्त्तः शत्रुजिच्छुचिः६३

शमीपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजः
प्रतिक्षत्रसुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः
हृदीकस्याभवन्पुत्रा दश भीमपराक्रमाः६४

कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च सत्तमः
देवार्हश्च सुभानुश्च भीषणश्च महाबलः६५

अजातश्च विजातश्च करकश्च करंधमः
देवार्हस्य सुतो विद्वान्जज्ञे कंबलबर्हिषः६६

असमौजास्ततस्तस्य समौजाश्च सुतावुभौ
अजातपुत्रस्य सुतौ प्रजायेते समौजसौ६७

समौजः पुत्रा विख्यातास्त्रयः परमधार्मिकाः
सुदंशश्च सुवंशश्च कृष्ण इत्यनुनामतः६८

अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः६९

गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्७०।

माद्री युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः७१

अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ७२

स्यमंतकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्७३

हृदि कृत्वा सुबहुशो मणिं तं स व्यराजत
मणिरत्नं ययाचेथ राजार्थं शौरिरुत्तमम्७४

गोविंदश्च न तं लेभे शक्तोपि न जहार सः
कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः७५

बिले शब्दं स शुश्राव कृतं सत्त्वेन केनचित्
ततः प्रविश्य स बिलं प्रसेनो ह्यृक्षमासदत्७६

ऋक्षः प्रसेनं च तथा ऋक्षं चापि प्रसेनजित्
आसाद्य युयुधाते तौ परस्परजयेच्छया७७

हत्वा ऋक्षः प्रसेनं च ततस्तं मणिमाददात्
प्रसेनं तु हतं श्रुत्वा गोविंदः परिशंकितः७८

सत्राजित्रा तु तद्भ्रात्रा यादवैश्च तथापरैः
गोविंदेन हतो नूनं प्रसेनो मणिकारणात्७९

प्रसेनस्तु गतोरण्यं मणिरत्नेन भूषितः
तं दृष्ट्वा निजघानाथ न त्यजन्तं स्यमंतकम्८०

जघानैवाप्रदानेन शत्रुभूतं च केशवः
इति प्रवादस्सर्वत्र ख्यातस्सत्राजिता कृतः८१

अथ दीर्घेण कालेन मृगयां निर्गतः पुनः
यदृच्छया च गोविंदो बिलाभ्याशमथागमत्८२

ततश्शब्दं यथापूर्वं स चक्रे ऋक्षराड्बली
शब्दं श्रुत्वा तु गोविंदः खङ्गपाणिः प्रविश्य च८३

अपश्यज्जांबवंतं च ऋक्षराजं महाबलं
ततस्तूर्णं हृषीकेशस्तमृक्षमतिरंहसा८४

जांबवंतं स जग्राह क्रोधसंरक्तलोचनः
दृष्ट्वा चैनं तथा विष्णुं कर्मभिर्वैष्णवीं तनुं८५

तुष्टाव ऋक्षराजोपि विष्णुसूक्तेन सत्वरं
ततस्तु भगवांस्तुष्टो वरेण समरोचयत्८६

जाम्बवानुवाच
इष्टं चक्रप्रहारेण त्वत्तो मे मरणं शुभम्
कन्या चेयं मम सुता भर्त्तारं त्वामवाप्नुयात्८७

योयं मणिः प्रसेनात्तु हत्वा चैवाप्तवानहम्
स त्वया गृह्यतां नाथ मणिरेषोऽत्र वर्त्तते८८

इत्युक्तो जांबवंतं वै हत्वा चक्रेण केशवः
कृतकार्यो महाबाहुः कन्यां चैवाददौ तदा८९

ततः सत्राजिते चैतन्मणिरत्नं स वै ददौ
यल्लब्धमृक्षराजाच्च सर्वयादवसन्निधौ९०

तेन मिथ्याप्रवादेन संतप्तोयं जनार्दनः
ततस्ते यादवाः सर्वे वासुदेवमथाब्रुवन्९१

अस्माकं मनसि ह्यासीत्प्रसेनस्तु त्वया हतः
एकैकस्यास्तु सुंदर्यो दश सत्राजितः सुताः९२

सत्योत्पन्नास्सुतास्तस्य शतमेकं च विश्रुताः
विख्याताश्च महावीर्या भंगकारश्च पूर्वजः९३

सत्या व्रतवती स्वप्ना भंगकारस्य पूर्वजा
सुषुवुस्ताः कुमारांश्च शिनीवालः प्रतापवान्९४

अभंगो युयुधानश्च शिनिस्तस्यात्मजोभवत्
तस्माद्युगंधरः पुत्राश्शतं तस्य प्रकीर्तिताः९५

अनमित्राह्वयो यो वै विख्यातो वृष्णिवंशजः
अनमित्रात्शिनिर्जज्ञे कनिष्ठो वृष्णिनंदनः९६

अनमित्राच्च संजज्ञे वृष्णिवीरो युधाजितः
अन्यौ च तनयौ वीरा वृषभश्चित्र एव च९७

ऋषभः काशिराजस्य सुतां भार्यामनिंदितां
जयंतश्च जयंतीं च शुभां भार्यामविंदत९८

जयंतस्य जयंत्यां वै पुत्रः समभवत्ततः
सदा यज्वातिधीरश्च श्रुतवानतिथिप्रियः९९

अक्रूरः सुषुवे तस्मात्सुदक्षो भूरिदक्षिणः
रत्नकन्या च शैब्या च अक्रूरस्तामवाप्तवान्१०० 1.13.100
पुत्रानुत्पादयामास एकादशमहाबलान्
उपलंभं सदालंभमुत्कलं चार्य्यशैशवं१०१

सुधीरं च सदायक्षं शत्रुघ्नं वारिमेजयं
धर्मदृष्टिं च धर्मं च सृष्टिमौलिं तथैव च१०२

सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते
अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनंदनौ१०३

देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसंमतौ
अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च१०४

अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ
रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च१०५

अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्१०६

न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकी सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम्१०७

मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः१०८

देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नंदिश्चैव सकृद्यशाः१०९

श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः११०

राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्१११

कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत११२

राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरःसख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ११३

एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पांडोर्भार्यामनिंदिताम्११४

पाण्ड्वर्थेसूत देवी सा देवपुत्रान्महारथान्
धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे वाताज्जज्ञे वृकोदरः११५

इंद्राद्धनंजयश्चैव शक्रतुल्यपराक्रमः
योऽसौ त्रिपुरुषाज्जातस्त्रिभिरंशैर्महारथः११६

देवकार्यकरश्चैव सर्वदानवसूदनः
अवध्याश्चापि शक्रस्य दानवा येन घातिताः११७

स्थापितस्स तु शक्रेण लब्धवर्चास्त्रिविष्टपे
माद्रवत्यां तु जनितावश्विनाविति नः श्रुतम्११८

नकुलः सहदेवश्च रूपसत्वगुणान्वितौ
रोहिणी पौरवी नाम भार्या चानकदुंदुभेः११९

लेभे चेष्टं सुतं रामं सारणं च रणप्रियम्
दुर्धरं दमनं चैव पिंडारकमहाहनुं१२०

अथ मायात्वमावास्या देवकी या भविष्यति
तस्यां जज्ञे महाबाहुः पूर्वं तु स प्रजापतिः१२१

अनुजाताभवत्कृष्णा सुभद्रा भद्रभाषिणी
विजयो रोचमानस्तु वर्धमानश्च देवलः१२२

एते सर्वे महात्मान उपदेव्यां प्रजज्ञिरे
अगावहं महात्मानं बृहद्देवी व्यजायत१२३

बृहद्देव्यां स्वयं जज्ञे मन्दको नाम नामतः
सप्तमं देवकी पुत्रं रेमंतं सषुवे सुतम्१२४

गवेषणं महाभागं संग्रामेष्वपराजितम्
श्रुतदेव्या विहारे तु वने विचरता पुरा१२५

_______
वैश्यायां समधाच्छौरिः पुत्रं कौशिकमग्रजम्
श्रुतंधरा तु राज्ञी तु सौरगंधपरिग्रहः१२६

पुत्रं च कपिलं चैव वसुदेवात्मजो बली
जनानां च विषादोभूत्प्रथमः स धनुर्द्धरः१२७

सौभद्रश्चाभवश्चैव महासत्वौ बभूवतुः
देवभागसुतश्चापि प्रस्तावः स बुधः स्मृतः१२८

पण्डितं प्रथमं बाहु देवश्रवसमुत्तमम्
इक्ष्वाकुकुलतो यस्य मनस्विन्या यशस्विनी१२९

निवृत्तशत्रुः शत्रुघ्नः श्रद्धा तस्मादजायत
गंडूषायामपत्यानि कृष्णस्तुष्टः शतं ददौ१३०

स चंद्रं तु महाभागं वीर्यवंतं महाबलम्
रंतिपालश्च रंतिश्च नंदनस्य सुतावुभौ१३१

शमीकपुत्राश्चत्वारो विक्रांताः सुमहाबलाः
विरजश्च धनुश्चैव व्योमस्तस्य स सृंजयः१३२

अनपत्योभवद्व्योमः सृंजयस्य धनंजयः
यो जायमानो भोजत्वं राजर्षित्वमवाप्तवान्१३३

कृष्णस्य जन्माभ्युदयं यः कीर्तयति नित्यशः
शृणोति वा नरो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते१३४

अथ देवो महादेवः पूर्वं कृष्णः प्रजापतिः
विहारार्थं स देवोसौ मानुषेष्वप्यजायत१३५

देवक्यां वसुदेवेन तपसा पुष्करेक्षणः
चतुर्बाहुस्तु संजातो दिव्यरूपो जनाश्रयः१३६

श्रीवत्सलक्षणं देवं दृष्ट्वा देवैः सलक्षणम्
उवाच वसुदेवस्तं रूपं संहर वै प्रभो१३७

भीतोहं देव कंसस्य ततस्त्वेतद्ब्रवीमि ते
मम पुत्रा हतास्तेन श्रेष्ठाः षड्भीमविक्रमाः१३८

वसुदेववचः श्रुत्वा रूपं संहरदच्युतः
अनुज्ञाप्य तु तं शौरिर्नन्दगोपगृहेनयत्१३९

दत्वा तं नंदगोपाय रक्ष्यतामिति चाब्रवीत्
अतस्तुसर्वकल्याणं यादवानां भविष्यति१४०

अयं तु गर्भो देवक्या यावत्कंसं हनिष्यति
तावत्पृथिव्यां भविता क्षेमो भारावहः परम्१४१

ये वै दुष्टास्तु राजानस्तांस्तु सर्वान्हनिष्यति
कौरवाणां रणे भूते सर्वक्षत्रसमागमे१४२

सारथ्यमर्जुनस्यायं स्वयं देवः करिष्यति
निःक्षत्रियां धरां कृत्वा भोक्ष्यते शेषतां गताम्१४३

सर्वं यदुकुलं चैव देवलोकं नयिष्यति
भीष्म उवाच
क एष वसुदेवस्तु देवकी का यशस्विनी१४४

नंदगोपश्च कश्चैव यशोदा का महाव्रता
या विष्णुं पोषितवती यां स मातेत्यभाषत१४५।

या गर्भं जनयामास या चैनं समवर्द्धयत्
पुलस्त्य उवाच
पुरुषः कश्यपश्चासावदितिस्तत्प्रिया स्मृता१४६

________

कश्यपो ब्रह्मणोंशस्तु पृथिव्या अदितिस्तथा
नंदो द्रोणस्समाख्यातो यशोदाथ धराभवत्१४७

अथकामान्महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत्
ये तया कांक्षिताः पूर्वमजात्तस्मान्महात्मनः१४८

अचिरं स महादेवः प्रविष्टो मानुषीं तनुं
मोहयन्सर्वभूतानि योगाद्योगी समाययौ१४९

नष्टे धर्मे तथा यज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले विभुः
कर्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम्१५० 1.13.150

रुक्मिणी सत्यभामा च सत्या नाग्निजिती तथा
सुमित्रा च तथा शैब्या गांधारी लक्ष्मणा तथा१५१

सुभीमा च तथा माद्री कौशल्या विजया तथा
एवमादीनि देवीनां सहस्राणि च षोडश१५२

रुक्मिणी जनयामास पुत्रान्शृणु विशारदान्
चारुदेष्णं रणेशूरं प्रद्युम्नञ्च महाबलम्१५३

सुचारुं चारुभद्रञ्च सदश्वं ह्रस्वमेव च
सप्तमञ्चारुगुप्तञ्च चारुभद्रञ्च चारुकं१५४

चारुहासं कनिष्ठञ्च कन्याञ्चारुमतीं तथा
जज्ञिरे सत्यभामाया भानुर्भीमरथः क्षणः१५५

रोहितो दीप्तिमांश्चैव ताम्रबंधो जलंधमः
चतस्रो जज्ञिरे तेषां स्वसारश्च यवीयसीः१५६

जांबवत्याः सुतो जज्ञे सांबश्चैवातिशोभनः
सौरशास्त्रस्य कर्त्ता वै प्रतिमा मंदिरस्य च१५७

मूलस्थाने निवेशश्च कृतस्तेन महात्मना
तुष्टेन देवदेवेन कुष्ठरोगो विनाशितः१५८

सुमित्रं चारुमित्रं च मित्रविंदा व्यजायत
मित्रबाहुः सुनीथश्च नाग्नजित्यां बभूवतुः१५९

एवमादीनि पुत्राणांसहस्राणि निशामय
अशीतिश्च सहस्राणां वासुदेवसुतास्तथा१६०

प्रद्युम्नस्य च दायादो वैदर्भ्यां बुद्धिसत्तमः
अनिरुद्धो रणे योद्धा जज्ञेस्य मृगकेतनः१६१

काम्या सुपार्श्वतनया सांबाल्लेभे तरस्विनम्
सत्त्वप्रकृतयो देवाः पराः पंच प्रकीर्तिताः१६२

तिस्रः कोट्यः प्रवीराणां यादवानां महात्मनां
षष्टिः शतसहस्राणि वीर्यवंतो महाबलाः१६३

देवांशाः सर्व एवेह उत्पन्नास्ते महौजसः
दैवासुरे हता ये वा असुरास्तु महाबलाः१६४

इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधंते सर्वमानवान्
तेषामुद्धरणार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले१६५

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम्
विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः१६६

निदेशस्थायिनस्तस्य ऋद्ध्यंते सर्वयादवाः
भीष्म उवाच
सप्तर्षयः कुबेरश्च यक्षो मणिधरस्तथा१६७

सात्यकिर्नारदश्चैव शिवो धन्वंतरिस्तथा
आदिदेवस्तथाविष्णुरेभिस्तु सह दैवतैः१६८

किमर्थं सहसंभूताः सुरसम्भूतयः क्षितौ
भविष्याः कति वा चास्य प्रादुर्भावा महात्मनः१६९

सर्वक्षेत्रेषु सर्वेषु किमर्थमिह जायते
यदर्थमिह संभूतो विष्णुर्वृष्ण्यंधके कुले१७०

पुनःपुनर्मनुष्येषु तन्मे त्वं ब्रूहि पृच्छतः
पुलस्त्य उवाच
शृणु भूप प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम्
यथा दिव्यतनुर्विष्णुर्मानुषेष्विह जायते१७१

युगांते तु परावृत्ते काले प्रशिथिले प्रभुः
देवासुरमनुष्येषु जायते हरिरीश्वरः१७२

हिरण्यकशिपुर्दैत्यस्त्रैलोक्यस्य प्रशासिता
बलिनाधिष्ठिते चैव पुनर्लोकत्रये क्रमात्१७३

सख्यमासीत्परमकं देवानामसुरैः सह
युगाख्या दश संपूर्णा आसीदव्याकुलं जगत्१७४

निदेशस्थायिनश्चापि तयोर्देवासुरा स्वयं
बद्धो बलिर्विमर्दोयं सुसंवृत्तः सुदारुणः१७५

देवानामसुराणां च घोरः क्षयकरो महान्
कर्तुं धर्मव्यवस्थां च जायते मानुषेष्विह१७६

भृगोः शापनिमित्तं तु देवासुरकृते तदा
भीष्म उवाच
कथं देवासुरकृते हरिर्देहमवाप्तवान्१७७

दैवासुरं यथावृत्तं तन्मे कथय सुव्रत
पुलस्त्य उवाच
तेषां जयनिमित्तं वै संग्रामा स्युः सुदारुणाः१७८

अवतारा दशद्वौ च शुद्धा मन्वंतरे स्मृताः
नामधेयं समासेन शृणु तेषां विवक्षितम्१७९

प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः
तृतीयस्तु वराहश्च चतुर्थोऽमृतमंथनः१८०

संग्रामः पंचमश्चैव सुघोरस्तारकामयः
षष्ठो ह्याडीबकाख्यश्च सप्तमस्त्रैपुरस्तथा१८१

अष्टमश्चांधकवधो नवमो वृत्रघातनः
ध्वजश्च दशमस्तेषां हालाहलस्ततः परं१८२

प्रथितो द्वादशस्तेषां घोरः कोलाहलस्तथा
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो नरसिंहेन सूदितः१८३

वामनेन बलिर्बद्धस्त्रैलोक्याक्रमणे पुरा
हिरण्याक्षो हतो द्वंद्वे प्रतिवादे तु दैवतैः१८४

दंष्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्थो द्विधा कृतः
प्रह्लादो निर्जितो युद्धे इंद्रेणामृतमंथने१८५

विरोचनस्तु प्राह्लादिर्नित्यमिन्द्रवधोद्यतः
इंद्रेणैव च विक्रम्य निहतस्तारकामये१८६

अशक्नुवत्सु देवेषु त्रिपुरं सोढुमासुरम्
मोहयित्वाऽमृते पीते गोरूपेणासुरारिणा१८७

नासन्जीवयितुं शक्या भूयो भूयोमृतासुराः
निहता दानवाः सर्वे त्रैलोक्ये त्र्यंबकेण तु१८८

असुराश्च पिशाचाश्च दानवाश्चांधके वधे
हता देवमनुष्यैस्ते पितृभिश्चैव सर्वशः१८९

संपृक्तो दानवैर्वृत्रो घोरे कोलाहले हतः
तदा विष्णुसहायेन महेंद्रेण निपातितः१९०

हतस्ततो महेंद्रेण मायाछन्नस्तु योगवित्
वज्रेण क्षणमाविश्य विप्रचित्तिः सहानुगः१९१

दैत्याश्च दानवाश्चैव संयुताः कृत्स्नशस्तु ते
एते दैवाऽसुरावृत्ताः संग्रामाद्वा दशैव तु१९२

देवासुरक्षयकराः प्रजानां च हिताय वै
हिरण्यकशिपू राजा वर्षाणामर्बुदं बभौ१९३

द्विसप्ततिं तथान्यानि नियुतान्यधिकानि तु
अशीति च सहस्राणि त्रैलोक्यैश्वर्यवानभूत्१९४

पर्यायेण तु राजाभूद्बलिर्वर्षार्बुदं पुनः
षष्ठिं चैव सहस्राणि नियुतानि च विंशतिं१९५

बलिराज्याधिकारे तु यावत्कालश्च कीर्तितः
तावत्कालं तु प्रह्लादो निर्वृतो ह्यसुरैः सह१९६

जयार्थमेते विज्ञेया असुराणां महौजसः
त्रैलोक्यमिदमव्यग्रं महेंद्रेणानुपाल्यते१९७

असम्पन्नमिदं सर्वं यावद्वर्षायुतं पुनः
पर्यायेणैव सम्प्राप्ते त्रैलोक्यं पाकशासने१९८

ततोऽसुरान्परित्यज्य यज्ञो देवानगच्छत
यज्ञे देवानथ गते दितिजाः काव्यमब्रुवन्१९९

दैत्या ऊचुः-
हृतं मघवता राज्यं त्यक्त्वा यज्ञः सुरान्गतः
स्थातुं न शुक्नुमो ह्यत्र प्रविशामो रसातलम्२०० 1.13.200

एवमुक्तोब्रवीदेतान्विषण्णान्सांत्वयन्गिरा
मा भैष्ट धारयिष्यामि तेजसा स्वेन वोऽसुराः२०१

मंत्राश्चौषधयश्चैव धरायां यत्तु वर्तते
मयि तिष्ठति तत्सर्वं पादमात्रं सुरेषु वै२०२

तत्सर्वं च प्रदास्यामि युष्मदर्थे धृतं मया
ततो देवास्तुतान्दृष्ट्वा धृतान्काव्येन धीमता२०३

अमंत्रयंत देवा वै संविग्नास्तज्जिघृक्षया
काव्यो ह्येष इदं सर्वं व्यावर्तयति नो बलात्२०४

साधु गच्छामहे तूर्णं यावन्न च्यावयेत वै
प्रसह्य जित्वा शिष्टांस्तु पातालं प्रापयामहे२०५

ततो देवास्तु संरब्धा दानवानुपसृत्य ह
ततस्ते वध्यमानास्तैः काव्यमेवाभिदुद्रुवुः२०६

ततः काव्यस्तु तान्दृष्ट्वा तूर्णं देवैरभिद्रुतान्
रक्षाकार्येण संहृत्य देवेभ्यस्तान्सुरार्दितान्२०७

काव्यं दृष्ट्वा स्थितं देवा निर्विशंकास्तु ते जहुः
ततः काव्योनुचिंत्याथ ब्रह्मणो वचनं हितम्२०८

तानुवाच ततः काव्यः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्
त्रैलोक्यं वो हृतं सर्वं वामनेन त्रिभिः क्रमैः२०९

बलिर्बद्धो हतो जंभो निहतश्च विरोचनः
महासुरा द्वादशसु संग्रामेषु सुरैर्हताः२१०

तैस्तैरुपायैर्भूयिष्ठा निहतास्तु प्रधानतः
केचिच्छिष्टाश्च यूयं वै युद्धं नास्तीति मे मतम्२११

नीतयो वो विधातव्या उपासे कालपर्ययात्
यास्याम्यहं महादेवं मंत्रार्थं विजयावहम्२१२

अप्रतीपांस्ततो देवान्मंत्रान्प्राप्य महेश्वरात्
योत्स्यामहे पुनर्देवैस्ततः प्राप्स्यथ वै जयम्२१३

ततस्ते कृतसंवादा देवानूचुस्तदासुराः
न्यस्तशस्त्रा वयं सर्वे निःस्सन्नाहा रथैर्विना२१४

वयं तपश्चरिष्यामः संवृता वल्कलैस्तथा
देवास्तेषां वचः श्रुत्वा सत्याभिव्याहृतं ततः२१५

ततोन्यवर्तयन्सर्वे विज्वरा मुदिताश्च ते
न्यस्तशस्त्रेषु दैत्येषु विनिवृत्तास्तदा सुराः२१६

ततस्तानब्रवीत्काव्य उपाध्वं तपसि स्थिताः
निरुत्सिक्तास्तपोयुक्ताः कालं कार्यार्थसाधकम्२१७

पितुराश्रमसंस्था वै मां प्रतीक्षथ दानवाः
तानुद्दिश्यासुरान्काव्यो महादेवं प्रपद्यत२१८

                    शुक्र उवाच
मंत्रानिच्छाम्यहं देव येन सन्ति बृहस्पतौ
पराभवाय देवानामसुराणां जयाय च२१९

एवमुक्तोब्रवीद्देवो व्रतं त्वं चर भार्गव
पूर्णं वर्षसहस्रं तु कणधूममधः शिराः२२०

यदि पास्यसि भद्रं ते ततो मंत्रानवाप्स्यसि
तथेति समनुज्ञाप्य शुक्रस्तु भृगुनंदनः२२१

पादौ संस्पृश्य देवस्य बाढमित्यब्रवीद्वचः
व्रतं चराम्यहं देव त्वयादिष्टोद्य वै प्रभो२२२

आदिष्टो देवदेवेन कृतवान्भार्गवो मुनिः
तदा तस्मिन्गते शुक्रे असुराणां हिताय वै२२३

मंत्रार्थे तनुते काव्यो ब्रह्मचर्यं महेश्वरात्
तद्बुद्ध्वा नीतिपूर्वं वै राजन्यास्तु तदा सुखं२२४

अस्मिंश्छिद्रे तदामर्षाद्देवास्तानभिदुद्रुवुः
दंशिताः सायुधाः सर्वे बृहस्पतिपुरःसराः२२५

दृष्ट्वा सुरगणा देवान्प्रगृहीतायुधान्पुनः
उत्पेतुस्सहसा सर्वे संत्रस्तास्तान्वचोब्रुवत्२२६

                    दैत्या ऊचुः
न्यस्तशस्त्रा वयं देवा आचार्ये व्रतमास्थिते
दत्वा भवंतस्त्वभयं संप्राप्ता नो जिघांसया२२७

अनमर्षा वयं सर्वे त्यक्तशस्त्राश्च संस्थिताः
चीरकृष्णाजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः२२८

रणे विजेतुं देवांश्च न शक्ष्यामः कथंचन
अयुद्धेन प्रपत्स्यामः शरणं काव्यमातरम्२२९

ज्ञापयामः कृच्छ्रमिदं यावन्नाभ्येति नो गुरुः
निवृत्ते च तथा शुक्रे योत्स्यामो दंशितायुधाः२३०

एवमुक्त्वा च तेन्योन्यं शरणं काव्यमातरम्
प्रापद्यंत ततो भीतास्तेभ्योऽदादभयं तु सा२३१

न भेतव्यं न भेतव्यं भयं त्यजत दानवाः
मत्सन्निधौ वर्त्ततां वो न भीर्भवितुर्महति२३२

तयाभिरक्षितांस्तांश्च दृष्ट्वा देवास्तदाऽसुरान्
अभिजग्मुः प्रसह्यैतानविचार्य बलाबलम्२३३

ततस्तान्बध्यमानांस्तु देवैर्दृष्ट्वासुरांस्तदा
देवी क्रुद्धाब्रवीद्देवान्निद्रया मोहयाम्यहम्२३४

संभृत्य सर्वसंभारान्निद्रां सा व्यसृजत्तदा
तस्तंभ देवी च बलाद्योगयुक्ता तपोधना२३५

ततस्तं स्तभितं दृष्ट्वा इन्द्रं देवाश्च मूढवत्
प्राद्रवंत ततो भीता इन्द्रं दृष्ट्वा वशीकृतम्२३६

गतेषु सुरसंघेषु विष्णुरिंद्रमभाषत
विष्णुरुवाच
मां त्वं प्रविश भद्रं ते रक्षिष्ये त्वां सुरोत्तम२३७

एवमुक्तस्ततो विष्णुं प्रविवेश पुरंदरः
विष्णुसंरक्षितं दृष्ट्वा देवी क्रुद्धा वचोऽब्रवीत्२३८

एष त्वां विष्णुना सार्धं दहामि मघवन्बलात्
मिषतां सर्वभूतानां दृश्यतां मे तपोबलम्२३९

तयाभिभूतौ तौ देवाविंद्रविष्णू बभूवतुः
कथं मुच्येय सहितो विष्णुरिंद्रमभाषत२४०

इंद्रोब्रवीज्जहि ह्येनां यावन्नौ न दहेत्प्रभो
विशेषेणाभिभूतोस्मि जहीमां जहि मा चिरम्२४१

ततः समीक्ष्य विष्णुस्तांस्त्रीवधे कृच्छ्रमास्थितः
अभिध्याय ततः शक्रमापन्नं सत्वरं प्रभुः२४२

ततः स त्वरयायुक्तः शीघ्रकारी भयान्वितः
ज्ञात्वा विष्णुस्ततस्तस्याः क्रूरं देव्याश्चिकीर्षितम्२४३

क्रुद्धश्च चक्रमादाय शिरश्चिच्छेद वै भयात्
तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं चुक्रोध भृगुरीश्वरः२४४

ततो हि शप्तो भृगुणा विष्णुर्भार्यावधे कृते
भृगुरुवाच
यत्त्वया जानता धर्ममवध्या स्त्री निषूदिता२४५

तस्मात्त्वं सप्तकृत्वो हि मानुषेषूपयास्यसि
ततस्तेनाभिशापेन नष्टे धर्मे पुनःपुनः२४६

लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुषेष्विह
अथ व्याहृत्य विष्णुं स तदादाय शिरः स्वयम्२४७

समानीय ततः कायं पाणौ गृह्येदमब्रवीत्
भृगुरुवाच
एषा त्वं विष्णुना देवि हता संजीवयाम्यहं२४८

यदि कृत्स्नो मया धर्मो ज्ञायते चरितोपि वा
तेन सत्येन जीवस्व यदि सत्यं ब्रवीम्यहम्२४९

ततस्तां प्रोक्ष्य शीताद्भिर्जीवजीवेति सोब्रवीत्
ततोभिव्याहृते तस्मिन्देवी संजीविता तदा२५० 1.13.250

ततस्तां सर्वभूतानि दृष्ट्वा सुप्तोत्थितामिव
साधुसाध्विति दृष्ट्वैव वचस्तां सर्वतोब्रुवन्२५१

एवं प्रत्याहृता तेन देवी सा भृगुणा तदा
मिषतां दैवतानां हि तदद्भुतमिवाभवत्२५२

असंभ्रांतेन भृगुणा पत्नी संजीविता पुनः
दृष्ट्वा चेंद्रो नालभत शर्म काव्यभयात्पुनः२५३

प्रजागरे ततश्चेंद्रो जयंतीमिदमब्रवीत्
संधिकामोभ्यधाद्वाक्यं स्वां कन्यां पाकशासनः२५४

इन्द्र उवाच
एष काव्यो ह्यनिंद्राय व्रतं चरति दारुणम्
तेनाहं व्याकुलः पुत्रि कृतो मतिमता दृढम्२५५

तैस्तैर्मनोनुकूलैश्च उपचारैरतंद्रिता
आराधय तथा पुत्रि यथा तुष्येत स द्विजः२५६

गच्छ त्वं तस्य दत्तासि प्रयत्नं कुरु मत्कृते
एवमुक्ता जयंती सा वचः संगृह्य वै पितुः२५७

अगच्छद्यत्र घोरं स तपो ह्यारभ्य तिष्ठति
तं दृष्ट्वा च पिबंतं सा कणधूममधोमुखम्२५८

यक्षेण पात्यमानं च कुंडधारेण पावनम्
दृष्ट्वा तं यतमानं तु देवी काव्यमवस्थितम्२५९

शत्रूपघाते श्राम्यंन्तं दुर्बलस्थितिमास्थितम्
पित्रा यथोक्तं वाक्यं सा काव्ये कृतवती तदा२६०

गीर्भिश्चैवानुकूलाभिः स्तुवंती वल्गुभाषिणी
गात्रसंवाहनैः काले सेवमाना त्वचः सुखैः२६१

व्रतचर्यानुकूलाभिरुपास्य बहुलाः समाः
पूर्णे धूमव्रते तस्मिन्घोरे वर्षसहस्रके२६२

वरेण छंदयामास शिवः प्रीतोभवत्तदा
महेश्वर उवाच
एतद्व्रतं त्वयैकेन चीर्णं नान्येन केनचित्२६३

तस्माद्वै तपसा बुद्ध्या श्रुतेन च बलेन च
तेजसा च सुरान्सर्वांस्त्वमेकोभिभविष्यसि२६४

यच्च किंचिन्मयि ब्रह्मन्विद्यते भृगुनंदन
प्रतिदास्यामि तत्सर्वं त्वया वाच्यं न कस्यचित्२६५

किं भाषितेन बहुना अवध्यस्त्वं भविष्यसि
तान्दत्वा तु वरांस्तस्मै भार्गवाय पुनः पुनः२६६

प्रजेशत्वं धनेशत्वमवध्यत्वं च वै ददौ
एतान्लब्ध्वा वरान्काव्यः संप्रहृष्टतनूरुहः२६७

एवमाभाष्य देवेशमीश्वरं नीललोहितम्
प्रज्ञान्वितस्ततस्तस्मै प्राञ्जलि प्रणतो ऽभवत्२६८

ततः सोंऽतर्हिते देवे जयंतीमिदमब्रवीत्
कस्य त्वं सुभगे का वा दुःखिते मयि दुःखिता२६९

महता तपसा युक्ता किमर्थं मां जिगीषसि
अनया संस्थिता भक्त्या प्रश्रयेण दमेन च२७०

स्नेहेन चैव सुश्रोणि प्रीतोस्मि वरवर्णिनि
किमिच्छसि वरारोहे कस्ते कामः समुद्यतः२७१

तं ते संपादयाम्यद्य यद्यपि स्यात्सुदुष्करम्
एवमुक्ताब्रवीदेनं तपसा ज्ञातुमर्हसि२७२

चिकीर्षितं हि मे ब्रह्मंस्त्वं वै वद यथातथम्
एवमुक्तोब्रवीदेनं दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा२७३

मया सह त्वं सुश्रोणि शतवर्षाणि भामिनि
सर्वभूतैरदृश्यांतः संप्रयोगमिहेच्छसि२७४

देवि इंदीवरश्यामे वरार्हे वामलोचने
एवं वृणोषि कामांस्त्वं ददे वै वल्गुभाषिते२७५

एवं भवतु गच्छाव गृहं मे मत्तकाशिनि
ततः स गृहमागम्य जयंत्या सह चोशना२७६

तया सहावसद्देव्या शतवर्षाणि भार्गवः
अदृश्यः सर्वभूतानां मायया संशितव्रतः२७७

कृतार्थमागतं ज्ञात्वा शुक्रं सर्वे दितेस्सुताः
अभिजग्मुर्गृहं तस्य मुदितास्ते दिदृक्षवः२७८

गता यदा न पश्यंति मायया संवृतं गुरुम्
लक्षणं तस्य चाबुद्ध्वा नाद्यागच्छति नो गुरुः२७९

एवं ते स्वानि धिष्ण्यानि गताः सर्वे यथागताः
ततो देवगणास्सर्वे गत्वांगिरसमब्रुवन्२८०

दानवालये तु भगवान्गत्वा तत्र च तां चमूम्
मोहयित्वात्मवशगां क्षिप्रमेव तथा कुरु२८१

धिषणस्तान्सुरानाह एवमेव व्रजाम्यहम्
तेन गत्वा दानवेंद्रः प्रह्लादो वै वशीकृतः२८२

शुक्रो भूत्वा स्थितस्तत्र पौरोहित्यं चकार सः
स्थितो वर्षशतं साग्रमुशना तावदागतः२८३

दनुपुत्रैस्ततो दृष्टः सभायां तु बृहस्पतिः
उशना एक एवात्र द्वितीयः किमिहागतः२८४

सुमहत्कौतुकं चात्र भविता विग्रहो दृढम्
किं वदिष्यति लोकोयं द्वारि योयं व्यवस्थितः२८५

सभायामास्थितो योयं गुरुः किं नो वदिष्यति
एवं प्रजल्पतां तेषां दनूनां कविरागतः२८६

स्वरूपधारिणं तत्र दृष्ट्वासीनं बृहस्पतिम्
उवाच वचनं क्रुद्धः किमर्थं त्वमिहागतः२८७

शिष्यान्मोहयसे मे त्वं युक्तं सुरगुरोस्तव
मूढास्ते त्वां न जानंति त्वन्मायामोहिता ध्रुवम्२८८

तन्न युक्तं तव ब्रह्मन्परशिष्यप्रधर्षणम्
व्रज त्वं देवलोकं स्वं तिष्ठ धर्ममवाप्स्यसि२८९

शिष्यो हि मे कचः पूर्वं हतो दानवपुंगवैः
विद्यार्थी तनयो ब्रह्मंस्तवायोग्या गतिस्त्विह२९०

श्रुत्वा तु तस्य तद्वाक्यं स्मितं कृत्वावदद्गुरुः
संति चोराः पृथिव्यां येपरद्रव्यापहारिणः२९१

एवं विधानदृष्टाश्च रूपदेहापहारिणः
वृत्रघातेन चेंद्रस्य ब्रह्महहत्या पुराभवत्२९२

लोकायतिक शास्त्रेण भवता सा तिरस्कृता
जानामि त्वामांगिरसं देवाचार्यं बृहस्पतिम्२९३

मद्रूपधारिणं प्राप्तं सर्वे पश्यत दानवाः
एष वो मोहनायालं प्राप्तो विष्णुविचेष्टितैः२९४

तदेनं शृंखलैर्बद्ध्वा क्षिपेत लवणार्णवे
पुनरेवाब्रवीच्छुक्रः पुरोधायं दिवौकसाम्२९५

मोहितानूनमेतेन क्षयं यास्यथ दानवाः
भो अहं दानवेंद्रेह वंचितोऽस्मि दुरात्मना२९६

किमर्थं भवता त्यक्तः कृतश्चान्यः पुरोहितः
देवाचार्यॐगिरःपुत्रएषएवबृहस्पतिः२९७

वंचितोसि न संदेहो हितार्थं तु दिवौकसाम्
त्यजस्वैनं महाभाग शत्रुपक्षजयावहम्२९८

अनुशिष्यभयाद्यातः पूर्वमेवमहं प्रभो
जलमध्येस्थितः पीतो महादेवेन शंभुना२९९

उदरस्थस्य मे जातं साग्रं वर्षशतं किल
उदराच्छुक्ररूपेण शिश्नेनाहं विसर्जितः३०० 1.13.300

वरदः प्राह मां देवश्शुक्रेष्टं त्वं वरं वृणु
मयावृतो वरं राजन्देवदेवः पिनाकधृत्३०१

मनसा चिंतिता ह्यर्था मानसे ये स्थिता वराः
भवंतु मयि ते सर्वे प्रसादात्तव शंकर३०२

एवमस्त्विति देवेन प्रेषितोऽस्मि तवांतिकम्
तावदत्राभवच्चायं पुरोधास्ते बृहस्पतिः३०३

दृष्टः सत्यं दानवेंद्र मयोक्तं त्वं निशामय
बृहस्पतिस्तदा वाक्यं प्रह्लादं प्रत्यभाषत३०४

नाहमेतं प्रजानामि देवं वा दानवं नरम्
मद्रूपधारिणं राजन्वंचनार्थं तवागतम्३०५

ततस्ते दानवाः सर्वे साधुसाध्विति वादिनः
पुरोधाः पौर्विको नोस्तु यो वा को वा भवत्विति३०६

नानेन कार्यमस्माकं या तु ह्येष यथागतः
सक्रोधमशपत्काव्यो दानवेंद्रान्समागतान्३०७

त्यक्तो यथाहं युष्माभिस्तथा सर्वांश्चिरादिव
गतश्रीकान्गतप्राणान्पश्येयं दुःखजीविकान्३०८

सुघोरामापदं प्राप्तानचिरादेव सर्वशः
एवमुक्त्वा गतः काव्यो यदृच्छातस्तपोवनम्३०९

तस्मिन्गते ततः शुक्रे स्थितस्तत्र बृहस्पतिः
पालयन्दानवांस्तत्र किंचित्कालमतिष्ठत३१०

ततो बहुतिथे काले अतिक्रांते नरेश्वर
संभूय दानवाः सर्वे पर्यपृछंस्तदा गुरुम्३११

संसारेस्मिन्नसारे तु किंचिज्ज्ञानं प्रयच्छ नः
येन मोक्षं व्रजामश्च प्रसादात्तव सुव्रत३१२

ततः सुरगुरुः प्राह काव्यरूपी तदा गुरुः
ममाप्येषा मतिः पूर्वं या युष्माभिरुदाहृता३१३

क्षणं कुर्वंतु सहिताश्शुचीभूय समाहिताः
ज्ञानं वक्ष्यामि वो दैत्या अहं वै मोक्षदायि यत्३१४

एषा श्रुतिर्वैदिकी या ऋग्यजुःसामसंज्ञिता
वैश्वानरप्रसादात्तु दुःखदा प्राणिनामिह३१५

यज्ञश्राद्धं कृतं क्षुद्रैरैहिकस्वार्थतत्परैः
ये त्वमी वैष्णवा धर्मा ये च रुद्रकृतास्तथा३१६

कुधर्मा दारसहितैर्हिंसाप्रायाः कृताहितैः
अर्द्धनारीश्वरो रुद्र कथं मोक्षं गमिष्यति३१७

वृतो भूतगणैर्भूरिभूषितश्चास्थिभिस्तथा
न स्वर्गो नैव मोक्षोत्र लोकाः क्लिश्यंति वै तथा३१८

हिंसायामास्थितो विष्णुः कथं मोक्षं गमिष्यति
रजोगुणात्मको ब्रह्मा स्वां सृष्टिमुपजीवति३१९

देवर्षयोथ ये चान्ये वैदिकं पक्षमाश्रिताः
हिंसाप्रायाः सदा क्रूरा मांसादाः पापकारिणः३२०

सुरास्तु मद्यपानेन मांसादा ब्राह्मणास्त्वमी
धर्मेणानेन कः स्वर्गं कथं मोक्षं गमिष्यति३२१

यच्च यज्ञादिकं कर्म स्मार्तं श्राद्धादिकं तथा
तत्र नैवापवर्गोस्ति यत्रैषा श्रूयते श्रुतिः३२२

यज्ञं कृत्वा पशुं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्
यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते३२३

यदि भुक्तमिहान्येन तृप्तिरन्यस्य जायते
दद्यात्प्रवसतः श्राद्धं न स भोजनमाहरेत्३२४

आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात्
तेषां न विद्यते स्वर्गो मोक्षो नैवेह दानवाः३२५

जातस्य जीवितं जंतोरिष्टं सर्वस्य जायते
आत्ममांसोपमं मांसं कथं खादेत पंडितः३२६

योनिजास्तु कथं योनिं सेवंते जंतवस्त्वमी
मैथुनेन कथं स्वर्गं यास्यंते दानवेश्वर
मृद्भस्मना यत्रशुद्धिस्तत्र शुद्धिस्तु का भवेत्३२७

विपरीततमं लोकं पश्य दानव यादृशम्
विण्मूत्रस्य कृतोत्सर्गे शिश्नापाने तु शोधनम्३२८

भुक्ते वा भोजने राजन्कथं नापानशिश्नयोः३२९

क्रियते शोधनं तद्वद्विपरीता स्थितिस्त्वियम्
यत्र प्रक्षालनं प्रोक्तं तत्र तेनैव कुर्वते३३०

तारां बृंहस्पतेर्भार्यां हृत्वा सोमः पुरा गतः
तस्यां जातो बुधः पुत्रो गुरुर्जग्राह तां पुनः३३१

गौतमस्य मुनेः पत्नीमहल्यां नाम नामतः
अगृह्णात्तां स्वयं शक्रः पश्य धर्मो यथाविधः३३२

एतदन्यच्च जगति दृश्यते पापदायकम्
एवंविधो यत्र धर्मः परमार्थो मतस्तु कः३३३

वदस्व त्वं दानवेंद्र वद भूयो वदामि ते
गुरोस्तु गदितं श्रुत्वा परमार्थान्वितं वचः३३४

जातकौतूहलास्तत्र विविक्तास्तु भवार्णवात्
दानवा ऊचुः
दीक्षयस्व गुरो सर्वान्प्रपन्नान्भक्तितः स्थितान्३३५

येन वै न पुनर्मोहं व्रजामस्तव शासनात्
सुविरक्ताः स्म संसारे शोकमोहप्रदायिनि३३६

उद्धरस्व गुरो सर्वान्केशाकर्षेण कूपतः
कस्य देवस्य शरणं गच्छामो ब्राह्मणोत्तम३३७

दैवतं च प्रपन्नानां प्रकाशय महामते
स्मरणेनोपवासेन ध्यानधारणया तथा३३८

पूजोपहारे च कृते अपवर्गस्तु लभ्यते
विरक्तास्स्म कुटुंबे तु भूयो नात्र यतामहे३३९

एवं चैव गुरुश्छन्नस्तैरुक्तो दनुपुंगवैः
चिंतयामास तत्कार्यं कथमेतत्करोम्यहम्३४०

कथमेते मया पापाः कर्तव्या नरकौकसः
विडंबनाच्छ्रुतेर्बाह्यास्त्रैलोक्ये हास्यकारिणः३४१

इत्युक्त्वा धिषणो राजंश्चिन्तयामास केशवम्
तस्य तच्चिंतितं ज्ञात्वा मायामोहं जनार्दनः३४२

समुत्पाद्य ददौ तस्य प्राह चेदं बृहस्पतिम्
मायामोहोयमखिलांस्तान्दैत्यान्मोहयिष्यति३४३

भवता सहितः सर्वान्वेदमार्गबहिष्कृतान्
एवमादिश्य भगवानंतर्द्धानं जगाम ह३४४

तपस्यभिरतान्सोथ मायामोहो गतोऽसुरान्
तेषां समीपमागत्य बृहस्पतिरुवाच ह३४५

अनुग्रहार्थं युष्माकं भक्त्या प्रीतस्त्विहागतः
योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपत्रधरो ह्ययम्३४६

इत्युक्ते गुरुणा पश्चान्मायामोहोब्रवीद्वचः
भो भो दैत्याधिपतयः प्रब्रूत तपसि स्थिताः३४७

एहिकार्थं तु पारक्यं तपसः फलमिच्छथ
दानवा ऊचुः
पारक्यधर्मलाभाय तपश्चर्या हि नो मता३४८

अस्माभिरियमारब्धा किं वा तत्र विवक्षितम्
दिगंबर उवाच
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ३४९

आर्हतं सर्वमेतच्च मुक्तिद्वारमसंवृतम्
धर्माद्विमुक्तेरर्होयं नैतस्मादपरः परः३५० 1.13.350


अत्रैवावस्थिताः स्वर्गं मुक्तिं चापि गमिष्यथ
एवंप्रकारैर्बहुभिर्मुक्तिदर्शनवर्जितैः३५१

मायामोहेन ते दैत्याः वेदमार्गबहिष्कृताः
धर्मायैतदधर्माय सदेतदसदित्यपि३५२

विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं संप्रयच्छति
परमार्थोयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम्३५३

कार्यमेतदकार्यं हि नैतदेतत्स्फुटं त्विदम्
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोयं बहुवाससाम्३५४

इत्यनेकार्थवादांस्तु मायामोहेन ते यतः
उक्तास्ततोऽखिला दैत्याः स्वधर्मांस्त्याजिता नृप३५५

अर्हध्वं मामकं धर्मं मायामोहेन ते यतः
उक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेभवन्३५६

त्रयीमार्गं समुत्सृज्य मायामोहेन तेसुराः
कारितास्तन्मया ह्यासंस्तथान्ये तत्प्रबोधिताः३५७

तैरप्यन्ये परे तैश्च तैरन्योन्यैस्तथापरे
नमोऽर्हते चेति सर्वे संगमे स्थिरवादिनः३५८

अल्पैरहोभिः संत्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी
पुनश्च रक्तांबरधृन्मायामोहो जितेक्षणः३५९

सोन्यानप्यसुरान्गत्वा ऊचेन्यन्मधुराक्षरम्
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थाय वा पुनः३६०

तदलं पशुघातादि दुष्टधर्मैर्निबोधत
विज्ञानमयमेतद्वै त्वशेषमधिगच्छत३६१

बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्
जगदेतदनाधारं भ्रांतिज्ञानानुतत्परम्३६२

रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे
नानाप्रकारं वचनं स तेषां मुक्तियोजितम्३६३

तथा तथावदद्धर्मं तत्यजुस्ते यथायथा
केचिद्विनिंदां वेदानां देवानामपरे नृप३६४

यज्ञकर्मकलापस्य तथा चान्ये द्विजन्मनाम्
नैतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय जायते३६५

हवींष्यनलदग्धानि फलान्यर्हंति कोविदाः
निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते३६६

स्वपिता यजमानेन किं वा तत्र न हन्यते
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेद्यदि३६७

दद्याच्छ्राद्धं प्रवसतो न वहेयुः प्रवासिनः
यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येंद्रेण भुज्यते३६८

शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः
जना श्रद्धेयमित्येतदवगम्य तु तद्वचः३६९

उपेक्ष्य श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्
न ह्याप्तवादा नभसो निपतंति महासुराः३७०

युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः
दानवा ऊचुः
तत्ववादे वयं सर्वे प्रपन्नास्तव भक्तितः३७१

कुरुष्वानुग्रहं चाद्य प्रसन्नोसि यदि प्रभो
संभारानाहरामोद्य दीक्षायोग्यांश्च सर्वशः३७२

प्रसादात्तव येनाशु मोक्षो हस्तगतो भवेत्
ततस्तानब्रवीत्सर्वान्मायामोहोसुरांस्तदा३७३

प्रपन्नः शासनं ह्येष मदीयो गुरुरग्र्यधीः
दीक्षां दास्यति युष्माकं निदेशान्मम सत्तमः३७४

एतान्दीक्षय भो ब्रह्मन्वचनान्मम पुत्रकान्
गते मोहे दानवास्ते भार्गवं वाक्यमब्रुवन्३७५

देहि दीक्षां महाभाग सर्वसंसारमोचनीम्
तथेत्याहोशना दैत्यान्गच्छामो नर्मदामनु३७६

भोभोस्त्यजत वासांसि दीक्षां कारयितास्मि वः
एवं ते दानवा भीष्म भृगुरूपेण धीमता३७७

आंगिरसेन ते तत्र कृता दिग्वाससोसुराः
बर्हिपिच्छध्वजं तेषां गुंजिका चारुमालिकां३७८

दत्वा चकार तेषां तु शिरसो लुंचनं ततः
केशस्योत्पाटनं चैव परमं धर्मसाधनम्३७९

धनानामीश्वरो देवो धनदः केशलुंचनात्
सिद्धिं परमिकां प्राप्ताः सदा वेषस्य धारणात्३८०

नित्यत्वं लभ्यते ह्येवं पुरा प्राहार्हतः स्वयम्
वालोत्पाटेन देवत्वं मानुषैर्लभ्यते त्विह३८१

किं न कुर्वीत तत्तस्मान्महापुण्यप्रदं यतः
मनोरथो हि देवानां लोके वै मानुषे कदा३८२

नित्यत्वंअस्मिन्स्याद्भारते वर्षे जन्मनः श्रावके कुले
तपसा युञ्ज्महेस्मान्वै केशोत्पाटनपूर्वकम्३८३

छायाकृतं फणींद्रेण ध्यानमार्गप्रदर्शकम्३८४
स्तुवन्तं मंत्रवादेन स्वर्गो हस्तगतोर्हतं
मोक्षो वा भविता नूनं विचारः कोत्र कथ्यते३८५

कदा स्यामर्षयो भूत्वा सूर्याग्निसमतेजसः
जप्त्वा विरागिणश्चैवमनुपंचांगकं तथा३८६

तथा तपस्यतां मृत्युं गतानां कालपर्ययात्
पाषाणेन शिरोभग्नं भवते पुण्यकर्मणाम्३८७

अरण्ये निर्जने वासःकदा वै भविता हि नः
कर्णजप्यं श्रावकाश्च करिष्यंति समाहिताः३८८

भोभो ऋषे न गंतव्यं मोक्षमार्गी यतो भवान्
लब्धानि यानि स्थानानि भूयोवृत्तिकराणि च३८९

त्याज्यानि तेन चैतानि सत्यमेव वचो हि नः
अस्मदीयेन तपसा नियमैर्विविधैस्तथा३९०

व्रजध्वं चोत्तमं स्थानं मोक्षमार्गं च यं बुधाः
विंदंति भक्तिभावेन तपोयुक्तास्तपस्विनः३९१

अक्षेषु निग्रहो यत्र दयाभूतेषु सर्वदा
तत्तपोधर्ममित्युक्तं सर्वा चान्या विडंबना३९२

ज्ञात्वैतद्भवता साध्यं गंतव्यं परमं पदम्
यां वै तीर्थंकरा याता यां गतिं योगिनो गताः३९३

एवं वै देवताः पूर्वं विद्याधरमहोरगाः
मनोरथाभिलाषांस्ते चिंतयंतो दिवानिशम्३९४

यद्येषणा वै युष्माकं संसारविरतौ कृता
परित्यजध्वं दाराणि स्वर्गमार्गार्गलानि च३९५

यस्यां योनौ पिता यातस्तां योनिं सेवसे कथम्
आत्ममांसोपमं मांसं कथं खादंति जंतवः३९६

ततस्ते दानवा भीष्मा ऊचुः सर्वे गुरुं वचः
दीक्षस्व नो महाभाग भ्रूणकानग्रतः स्थितान्३९७

तथा कृत्वा स तानाह समयेन पुरोहितः
प्रणामो नान्यदेवेषु कर्तव्यो वः कदाचन३९८

एकस्थाने यदा भक्तं भोक्तव्यं करसंपुटे
तत्रस्थाने स्थितं तोयं केशकीटविवर्जितम्३९९

तुल्यं प्रियाप्रियं कार्यं नान्यदृष्टिहतं क्वचित्
भोक्तव्यमेतेन विभो आचारेण तथा कुरु४०० 1.13.400

भवध्वं सहिता यूयं ते तथा मोक्षभागिनः
एवमुक्त्वा स नियमान्कृत्वा तान्दनुपुंगवान्४०१

जगाम धिषणो राजन्देवलोकं दिवौकसाम्
आचचक्षे स तत्सर्वं दानवानां च कारितम्४०२

ततस्ते त्वसुरा जग्मुर्नर्मदामभितो वसन्
दृष्ट्वा तान्दानवांस्तत्र प्रह्लादेन विना कृतान्४०३

देवराजस्ततो हृष्टो नमुचिं प्राह वै वचः
हिरण्याक्षं यज्ञहनं धर्मघ्नं वेदनिंदकम्४०४

राक्षसं क्रूरकर्माणं प्रघसं विघसं तथा
मुचिं चैव तथा बाणं विरोचनमथापि वा४०५

महिषाक्षं बाष्कलं च प्रचंडं चंडकं तथा
रोचमानं तथात्युग्रं सुषेणं दानवोत्तमम्४०६

एतान्दृष्ट्वा तथा चान्यान्दानवेंद्रानथाब्रवीत्
इन्द्र उवाच
दानवेंद्राः पुरा जाताः कृतं राज्यं त्रिविष्टपे४०७

इदानीं कथमेवेदं व्रतं वेदविलोपकम्
भवद्भिः कर्तुमारब्धं नग्नमुंडिकमंडलु४०८

मयूरध्वजधारित्वं कथं चैवेह तिष्ठथ
दानवा ऊचुः
त्यक्तः सर्वासुरभाव ऋषिधर्मे वयं स्थिताः४०९

धर्मवृद्धिकरं कर्म चरामः सर्वजंतुषु
त्रैलोक्यराज्यमखिलं भुंक्ष्व शक्र व्रजस्व च४१०

तथेति चोक्त्वा मघवा पुनर्यातस्त्रिविष्टपम्
एवं ते मोहिताः सर्वे भीष्म देवपुरोधसा४११

नर्मदा सरितं प्राप्य स्थिता दानवसत्तमाः
ज्ञात्वा शुक्रेण ते सर्वे वृत्तांतमनुबोधिताः४१२

तदा त्रैलोक्यहरणे चक्रुः क्रूरां पुनर्मतिम्४१३

इति श्रीपद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे अवतारचरितंनाम त्रयोदशोऽध्यायः१३

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हिन्दू धर्म पुराण
यह पृष्ठ अवतार (अवतार) के कार्यों का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 13 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थस्थलों ( यात्रा ) का विवरण दिया गया है। ( तीर्थ )। यह पद्म पुराण के सृष्टि-खंड (सृजन पर खंड) का तेरहवां अध्याय है।

अध्याय 13 - अवतार के कर्म-


पुलस्त्य ने कहा :
1. हे राजाओं के राजा, क्रोष्टा के परिवार (जिसमें) उत्कृष्ट पुरुष (जन्मे) का (लेखा) सुनो। उनके परिवार में विष्णु का जन्म हुआ , जो वृष्णि परिवार के चिरस्थायी थे ।

2. क्रोष्टा से महान प्रसिद्धि वाले वृजनीवन का जन्म हुआ । उनका पुत्र स्वाति था, और कुशांकु उनका (अर्थात स्वाति का) पुत्र था।

3. कुशांकु के नाम से एक पुत्र चित्ररथ हुआ; उनका शंबिन्दु नाम का पुत्र एक संप्रभु सम्राट बन गया।

4-5. उनके बारे में वंशावली तालिका युक्त यह पद पहले गाया गया था। 
शतबिन्दु के सौ पुत्रों के सौ पुत्र हुए।
उन सौ बुद्धिमान, सुंदर और महत्वपूर्ण पुत्रों में से महान धन से युक्त, पृथु नाम के बहुत शक्तिशाली राजा पैदा हुए थे ।

6.पृथुश्रवा , पृथुयश , पृथुतेजस, पृथिद्भव, पृथुकीर्ति, पृथुमाता शंबिन्दु के राजा (परिवार में) थे।

7-8.पुराणों में पारंगत लोग पृथुश्रवों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। उसके बेटे थे। (उनमें से) उष्णों ने शत्रुओं को सताया। उषाना के पुत्र का नाम सिनेयु था और वह सबसे अधिक गुणी था। सिनेयु के पुत्र का नाम रुक्माकवच था ।

9-10. युद्ध में निपुण रुक्माकवच ने धनुर्धारियों को विभिन्न बाणों से मारकर और इस पृथ्वी को प्राप्त करके, अश्व-यज्ञ में ब्राह्मणों को उपहार दिए। प्रतिद्वंद्वी नायकों के हत्यारे परवीत का जन्म रुक्माकवच से हुआ था।

11. उनके पांच पुत्र पैदा हुए जो बहुत शक्तिशाली और पराक्रमी थे: रुकमेषु , पृथुरुक्मा , ज्यमाघ , परिघ और हरि ।

12. पिता ने परीघ और हरि को विदेह में रखा । रुकमेशु एक राजा बन गया और पृथुरुक्मा उसके साथ रहने लगा।

13-14. इन दोनों द्वारा निर्वासित जियामाघ एक आश्रम में रहते थे। वह आश्रम में शांतिपूर्वक रहकर और एक ब्राह्मण द्वारा उत्तेजित होकर अपना धनुष लेकर ध्वजा लेकर रथ पर विराजमान होकर दूसरे देश में चला गया। अकेले रहने और निर्वाह के अभाव में व्यथित होकर वह नर्मदा के तट पर स्थित अष्टावन पर्वत पर गया , दूसरों के द्वारा निर्जन, और वहाँ बैठ गया।

15. सैब्या जियामाघ की बूढ़ी पत्नी (उम्र में) थीं।

16-17. राजा ने भी पुत्रहीन होकर दूसरी पत्नी लेने का विचार किया। उसने एक युद्ध में जीत हासिल की और युद्ध में एक युवती को सुरक्षित करते हुए उसने डर के मारे अपनी पत्नी से कहा, "हे उज्ज्वल मुस्कान, यह आपकी बहू है।" जब उसने यह कहा, तो उसने उससे कहा: “वह कौन है? किसकी बहू है?”

18-19. राजा ने उत्तर दिया, "वह उस पुत्र की पत्नी होगी जो तुझ से उत्पन्न होगा।" उस कन्या की घोर तपस्या से उस वृद्ध शैब्या ने विदर्भ नामक पुत्र को जन्म दिया ।

20. विदर्भ ने राजकुमारी, (ज्यमाघ की) बहू, दो पुत्र, क्रथ और कौशिका और बाद में तीसरे पुत्र लोमपाद नाम से उत्पन्न हुए, जो अत्यंत पवित्र, बहादुर और युद्ध में कुशल थे।

21. बभरू लोमपाद के पुत्र थे; बभरू का पुत्र धृति था ; कौशिक के पुत्र सेदि थे और कैद्य के नाम से जाने जाने वाले राजा उनसे (जन्म) हुए थे।

22. कुंती क्रथ का पुत्र था जो विदर्भ का पुत्र था। धृत कुंती का पुत्र था; उसी से धृण वीर श्री का जन्म हुआ।

23. सूर्य का पुत्र पवित्र निवृत्ति था , प्रतिद्वंद्वी नायकों का हत्यारा। निवृत्ति का दशरथ नाम का पुत्र विदिरथ के समान था ।

24-25. दशरथ के पुत्र भीम थे ; भीम के पुत्र को जमुता कहा गया है ; जिमुत के पुत्र विकृति थे ; भीमरथ उसका पुत्र था; और भीमरथ के पुत्र को नवरथ कहा गया । उनके पुत्र दशरथ थे ; उसका पुत्र शकुनि था ।

26. उससे करम्भ उत्पन्न हुआ , और उससे देवराता ; देवराता से बहुत प्रसिद्ध देवक्षेत्र का जन्म हुआ था ।

27. देवक्षत्र से मधु नाम के एक देवतुल्य और अत्यंत तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। कहा जाता है कि कुरुवंश का जन्म मधु से हुआ है।

28. कुरुवंश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से अष्ट का जन्म खेल वैदर्भ में हुआ था ।

29-30. वेत्राकी आशु की पत्नी थी; उसके सात्वत (अर्थात् आशु) पर ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती हुई प्रसिद्धि से सातवत उत्पन्न हुई । एक बच्चे वाले और उदार ज्यमाघ की इस संतान को जानकर, बुद्धिमान सोम के साथ एक हो जाता है 

31-32. कौशल्या ने ऊर्जा से संपन्न सातवत नामक पुत्रों को जन्म दिया। उनकी रचनाएँ (अर्थात पंक्तियाँ) चार हैं; उन्हें (जैसा कि मैं आपको बताता हूं) विस्तार से सुनें: संजय को, भजमान को भज नाम का एक पुत्र मिला। तब संजय की पुत्री पर भाजक उत्पन्न हुए ।

33. उस भज की दो पत्नियों ने कई पुत्रों को जन्म दिया: नेमिका, कृष्ण और वृि, शत्रुओं के नगरों के विजेता।

34. चूंकि वे भजमाना से पैदा हुए थे, इसलिए वे भाजक कहलाए। देववृद्ध पृथु थे और उन्होंने मधु के साथ मित्रता बढ़ा दी ।

35-36। यह राजा पुत्रहीन था, इसलिए 'मुझे सभी गुणों से युक्त एक पुत्र प्राप्त करना चाहिए' की इच्छा से और केवल कृष्ण पर ध्यान केंद्रित करके और पारणा (नदी) के पानी को छूकर, उन्होंने एक महान तपस्या की। उसके स्पर्श से जल नदी उसके समीप आ गई।

37-38. तब नदी ने तपस्या करने वाले की भलाई की चिंता की। चिंता से भरे मन से उसने निश्चय किया: 'अपने आप को एक महिला में बदलकर मैं (उसके पास) जाऊंगी, जिससे एक ऐसा पुत्र (अर्थात सभी गुणों से संपन्न) पैदा होगा। इसलिए आज मैं (उसकी पत्नी बनूंगा) उसे एक पुत्र दूंगा'।

39. तब उस ने कुमारी होकर उत्तम शरीर धारण करके राजा को (अपने विषय में) बताया; राजा तब उसके लिए तरस गया।

40. तब देववृद्ध से उस श्रेष्ठ नदी ने नौवें महीने में एक महान पुत्र को जन्म दिया। बभरू सभी गुणों से संपन्न थे।

41. हमने सुना है कि जो लोग पुराणों को जानते हैं, वे महानिमूओं देवविद्या के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि:

42. बभरू पुरुषों में सबसे महान था; देवविध देवताओं के सदृश थे; बभरू और देववृद्ध से सत्तर हजार छह सौ पुत्र पैदा हुए और वे अमर हो गए।

43-46. भोज (प्रदर्शन करने के लिए दिया गया) बलिदान, (दान) उपहार, (अभ्यास) तपस्या, बुद्धिमान, पवित्र और बहुत मजबूत व्रत, सुंदर और बहुत उज्ज्वल (विवाहित) मुतकावती। (यह) शरकान्त की पुत्री ने चार पुत्रों को जन्म दिया: कुकरा , भजमान, श्याम और कंबलबर्हिष । कुकरा के पुत्र वी और वाणी के पुत्र धोती थे। उसका पुत्र कपोतरोमन था ; और उसका पुत्र तित्तिरी हुआ ; उनके पुत्र बाहुपुत्र थे । ऐसा कहा जाता है कि (उनका) विद्वान पुत्र नारी था ; उनका दूसरा नाम चन्दनोदकदुंदुभी कहा जाता है ।

47. उसका पुत्र अभिजीत था ; उनसे पुनर्वसु का जन्म हुआ।

48. अभिजीत पहले पुत्रहीन थे; लेकिन इस (राजा) ने, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, ऋषियों द्वारा प्रोत्साहित किया, पुत्र प्राप्त करने के लिए खुशी-खुशी अश्व-यज्ञ किया।

49. जब वह सभा में जा रहा था (यज्ञ पर) तो उसमें से अंधा पुनर्वसु उत्पन्न हुआ, धर्म में पारंगत और यज्ञ में दाता।

50. कहा जाता है कि वासु के दो पुत्र थे। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, वे शुक और शुकु के नाम से जाने जाते थे ।

51-52. इस मामले में वे बहुत दिलचस्प छंद उद्धृत करते हैं। उनके पास दस हजार बख्तरबंद और डाक वाले रथ थे, जो बादल की तरह गरज रहे थे और उनके नीचे संलग्नक थे। भोजों ने कभी झूठ नहीं बोला; वे बलिदान किए बिना कभी नहीं रहे; और कभी भी एक हजार से कम नहीं दिया।

53. भोज से अधिक पवित्र या अधिक विद्वान कोई नहीं था। कहा जाता है कि यह परिवार शुक तक आया था।

54-55. और शुक ने अपनी बहन ( अवंती -राजा को ) अवंती में दे दी। और शुक की पुत्री ने दो पुत्रों को जन्म दिया; देवक और उग्रसेन जो दिव्य बच्चों की तरह थे; और देवक के जो पुत्र उत्पन्न हुए वे देवताओं के समान थे।

56. (वे थे) देववन , उपदेव , सुदेव और देवरक्षित ; उनकी सात बहनें थीं जिन्हें उन्होंने (उग्रसन) वामदेव को दिया था :

57. देवकी , श्रुतदेव , यशोदा , श्रुतिश्रवा, श्रीदेव , उपदेव और सुरप्पा सातवें थे।

58-60. उग्रसेन के नौ पुत्र थे और कंस उनमें से सबसे बड़ा था: न्याग्रोधा , सुनामन , कंक , शंकु , और (वह) जिसे (सुभि कहा जाता था)। दूसरे थे राश्रपाल ; तो भी (थे) बधामुनि और सामुशिका। उनकी पाँच बहनें थीं: कंस , कंसवती , सुरभि , राश्रपाली और कंक ; वे सुंदर महिलाएं थीं। उग्रसेन अपने बच्चों के साथ कुकरा (यानी दशरह) देश के थे।

61. विदुरथ, योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ, भजमान का पुत्र था। बहादुर राजाधिदेव: was Vidūratha’s son.

62. राजाधिदेव के दो पुत्र षोडश और श्वेतवाहन थे । वे बहादुर पुरुषों द्वारा पसंद किए गए थे, जो क्षत्रिय -व्रत को बहुत पसंद करते थे ।

63. षोडश के पाँच वीर पुत्र थे जो युद्ध करने में कुशल थे: शमी , राजशर्मा, निमृत, शत्रुजित और सूचि ।

64. प्रतिक्षत्र सामी का पुत्र था और प्रतिक्षत्र का पुत्र भोज था और उसका पुत्र ह्दिक था । हृदक के भयानक वीरता के दस पुत्र थे।

65-66. उनमें कोतवर्मन सबसे बड़े थे, और सबसे अच्छे शतधनवन थे । (अन्य थे) देवरहा , सुभानु , भूषा और महाबल , और अजात , विजेता, काकरा और करंधमा । देवराह के एक पुत्र, कंबलबरिष्ट का जन्म हुआ; (वह था) सीखा।

67. उनके दो पुत्र थे: असमौज और समौज। अजात के पुत्र के दो वीर पुत्र उत्पन्न हुए।

68. समौजा के तीन प्रसिद्ध और अत्यंत धार्मिक पुत्र थे। क्रम में उनके नाम थे: सुदास, सुवाण और कृष्ण ।

69. जिसने अंधक के इस परिवार का प्रतिदिन महिमामंडन किया , उसके परिणामस्वरूप एक बड़ा परिवार और संतान थी।

70-71. क्रो की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेही सुनीत्रा को जन्म दिया; माद्री ने एक पुत्र युधिजित (नाम से) को जन्म दिया, फिर देवमहुष , (तब से) अनामित्रा और शिनि को । इन पांचों के पास (उनके शरीर पर) भाग्यशाली अंक थे।

72. निघना अनामित्रा का पुत्र था; निघ्न के दो बेटे थे: दो थे प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन ।

73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम का श्रेष्ठ और अनुपम रत्न था। इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' कहा गया।

74. उस मणि को अपनी छाती पर धारण करने से वह कई बार चमकता था। शौरी ने अपने राजा के लिए वह उत्तम रत्न मांगा।

75. गोविंदा को भी नहीं मिला; सक्षम होते हुए भी उसने उसे नहीं छीना। किसी समय इससे सुशोभित प्रसेन शिकार करने चला गया।

76-77. उसने एक गुफा में एक निश्चित प्राणी द्वारा की गई आवाज सुनी। फिर गुफा में प्रवेश करते हुए प्रसेन का सामना एक भालू (अर्थात् जाम्बवान ) से हुआ। भालू ने प्रसेन पर हमला किया और प्रसेनजीत ने भी भालू पर हमला किया और (इस प्रकार) वे एक दूसरे को जीतने के इच्छुक थे, लड़े।

78-79. भालू ने प्रसेन को मारकर वह मणि ले ली। यह सुनकर कि प्रसेन को मार दिया गया था, गोविंदा को उसके (अर्थात प्रसेन के) भाई पर संदेह था, इसलिए दूसरों को भी कि प्रसेन को गोविंदा ने मणि पाने के लिए मारा था।

80-81. उस उत्तम रत्न से सुशोभित प्रसेन वन को गया था; उसे देखकर जो श्यामंतक के साथ भाग लेने के लिए तैयार नहीं था, कशव ने उसे (प्रसेन) मार डाला था, क्योंकि वह मणि न देकर, अपना दुश्मन बन गया था। सतराजीत द्वारा शुरू की गई यह अफवाह हर जगह फैल गई।

82. फिर बहुत दिनों के बाद गोविन्द, जो फिर शिकार के लिए निकला था, संयोगवश गुफा के निकट आ गया।

83-84. तब भालू के उस पराक्रमी स्वामी (अर्थात् जाम्बवान) ने पहले की तरह आवाज की। गोविंदा ने आवाज सुनी और हाथ में तलवार लेकर गुफा में प्रवेश किया, उन्होंने भालू के बहुत शक्तिशाली राजा को देखा, अर्थात। जाम्बवान। तब हिकेश ने क्रोध से लाल अपनी आँखों से तुरंत जाम्बवान को बहुत हिंसक रूप से पकड़ लिया।

85-86. तब उन्हें विष्णु के शरीर में उनके (अतीत) कर्मों के कारण विष्णु के रूप में देखकर भालू के स्वामी ने भी विष्णुष्ट (विष्णु के सम्मान में एक स्तुति) के साथ उनकी प्रशंसा की। तब भगवान ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया।

87. जाम्बवान ने कहा: "अपनी डिस्क के स्ट्रोक से अपने हाथों से मृत्यु को प्राप्त करना वांछनीय और शुभ है। मेरी इस कुंवारी बेटी को तुम्हें अपना पति बनाना चाहिए।

88. हे प्रभो, जो मणि मैंने प्रसेन को मारकर प्राप्त की थी, उसे तुम ले लो। मणि यहाँ है ”।

89. केशव ने अपने चक्र से इस प्रकार बोलने वाले जाम्बवान का वध कर पराक्रमी भुजाओं वाले जाम्बवान का वध करके उस कन्या को ले लिया।

90-92. तब सभी यादवों की उपस्थिति में , जनार्दन , जो झूठी अफवाह के कारण क्रोधित थे, ने सतराजीत को वह सर्वश्रेष्ठ रत्न दिया जो उन्हें भालू-राजा से प्राप्त हुआ था । तब सभी यादवों ने वासुदेव से कहा : "हमने सोचा था कि आपने प्रसेन को मार डाला था" । सत्रजित के दस पत्नियों में से प्रत्येक से दस पुत्र थे।

93. उनके सत्या से एक सौ एक पुत्र उत्पन्न हुए । वे प्रसिद्ध और बहुत बहादुर थे, और भांगकार सबसे बड़े थे।

94. सत्या, व्रतवती और स्वप्ना, भंगकार से बड़ी, ने उन लड़कों को जन्म दिया। शिनिवाला बहादुर थे।

95. योद्धा अभंग (जन्म) थे ; सीनी उसका पुत्र था; उनसे युगांधरा (जन्म हुआ था); कहा जाता है कि उसके सौ पुत्र थे।

96. उन्हें अनामित्र कहा जाता था; वेवी परिवार के वंशज के रूप में जाने जाते थे। अनामित्रा से वाणी परिवार की सबसे छोटी सदस्य शिनी का जन्म हुआ।

97. अनामित्र से फिर से युधिजित का जन्म हुआ, जो वृि परिवार का एक योद्धा था। दो अन्य पुत्र भी (अनाममित्र से पैदा हुए): शभ और चित्रा ।

98. शभ को अपनी पत्नी के रूप में काशीराज की प्रशंसनीय बेटी मिली , और जयंत ने अपनी पत्नी के रूप में शुभ जयंती प्राप्त की ।

99. तब जयंती से जयंत के पुत्र का जन्म हुआ। वह हमेशा बलिदान करता था, बहुत साहसी था, सीखा था और मेहमानों को प्रिय था (या वह) मेहमानों को पसंद करता था।

100. उनसे अक्रूर , बहुत मेहनती और बड़े उपहार देने वाले पैदा हुए थे। शैब्या कुँवारियों में रत्न था; अक्रिरा ने उसे (अपनी पत्नी के रूप में) प्राप्त किया।

101-102. उस पर उन्होंने ग्यारह बहुत शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न किए: उपलंभ , सदालम्ब , उत्कल , आर्यसैणव, सुधीर , सदायक्ष, शत्रुघ्न , वरिमेजय , धर्मदी , धर्म और सिमौली।

103-106ए. और वे सभी पैदा हुए (इतने बहादुर) कि उन्होंने रत्न ले लिए। अक्रीरा से श्रृसेन को दो पुत्र, जो देवताओं के सदृश थे, और परिवार को प्रसन्न करने वाले थे: देववन और उपदेव। अक्रिरा से अश्विनी के बारह पुत्र उत्पन्न हुए : पृथु विपिथु , अश्वग्रीव , अश्वबाहु , सुपारीव , गवेशण , ऋषनेमि सुवरकस , सुधर्मन , मुदु , अभिमि और बाहुभूमि ; और दो बेटियां: श्रवण और श्रवण ।

106बी-107ए। एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस झूठे आरोप के बारे में जानता है, उस पर झूठे श्राप के द्वारा कभी भी हमला नहीं किया जा सकता है।

107बी. ऐकिवाकि ने एक वीर पुत्र को जन्म दिया-अद्भुत मुहुष ।

108-111. मुहुष द्वारा भोज पर दस वीर पुत्र उत्पन्न हुए : वासुदेव (जन्म हुआ) पहले, (तब) शंकदुंदुभी ; इसी प्रकार देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मुहुष द्वारा); और देवश्रव , अनावरी, कुंती, और नंदी और सकिद्य, श्याम, शमिक (भी) जिन्हें सप्त के नाम से जाना जाता है। उनकी पाँच सुंदर पत्नियाँ थीं: श्रुतकीर्ति , पृथा , और श्रुतादेवी और श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी भी । ये पाँच वीरों की माताएँ थीं। वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुण को जन्म दिया।

112. कैकय से श्रुतकीर्ति ने राजा संतर्दन को जन्म दिया । सुनीता का जन्म कैद्य से श्रुतश्रवास को हुआ था।

113. धर्म से भयविवरजीता का जन्म राजाधिदेवी को हुआ था। मित्रता के बंधन में बंधे एरा ने कुंतीभोज को (गोद लेने में) पीठ दी ।

114. इस प्रकार, वसुदेव की बहन पृथा को कुंती भी कहा जाता था । कुंतीभोज ने पाण्डु को अपनी पत्नी के रूप में वह प्रशंसनीय पीठ दी।

115. उस रानी ने पांडु के लिए पांच बहादुर पुत्रों को जन्म दिया: युधिष्ठिर धर्म से पैदा हुए थे; वकोदर (अर्थात भीम) का जन्म वायु से हुआ था ।

116. वीरता में इंद्र की तुलना में धनंजय (अर्थात अर्जुन ) का जन्म इंद्र से हुआ था; वह वीर, तीन देवताओं से तीन भागों के साथ पैदा हुआ था।

117. उसने देवताओं के लिए काम किया, और सभी राक्षसों को मार डाला; उसने उन राक्षसों का वध किया जिन्हें इंद्र भी नहीं मार सके।

118. जिसने बल प्राप्त किया था उसे इंद्र ने स्वर्ग में रखा था। हमने सुना है कि माद्रावती (आश्विनों द्वारा ) पर दो पुत्र उत्पन्न हुए थे ।

119. (वे थे) नकुल और सहदेव और सुंदर रूप और अच्छाई से संपन्न थे। अंकदुंदुभी की पुरु परिवार की रोहिक नाम की एक पत्नी थी ।

120-121. उनका (उनसे) एक पुत्र राम था जो उन्हें प्रिय था; इसी प्रकार सरण , कैरणाप्रिया, दुर्धरा , दमन , पितरक और महानु भी । जो माया अमावस्या थी वह देवकी होगी । पहले उस पराक्रमी प्रजापति का जन्म उनसे हुआ।

122. तब उससे श्याम सुभद्रा , वाणी में अनुग्रह, का जन्म हुआ; इसी तरह (जन्म हुए) विजया , रोकमान , वर्धमान और देवल ।

123-126। इन सभी का जन्म अधीनस्थ रानी पर हुआ था। बृहद्देवी ने उदार आगावाह को जन्म दिया । वे स्वयं बृहद्देवी को मंडक नाम से पैदा हुए थे। देवकी ने अपने सातवें पुत्र रोमंत को जन्म दिया, और गावेश युद्धों में पराजित हुआ। पूर्व में जंगल में भटकते समय, शौरी ने श्रुतादेवी के सुख-घर में ज्येष्ठ पुत्र अर्थात। वैश्य महिला पर कुसिका । श्रुतंधरा (वासुदेव की) रानियों में से एक थीं।

127. वासुदेव के पराक्रमी पुत्र कपिला ने दिव्य सुगंध वाले प्रथम धनुर्धर ने प्रजा को दु:ख दिया।

128ए. ये दोनों, अर्थात्। सौभद्र और भव बहुत ऊर्जावान थे।

128बी-129. (अस्पष्ट) देवभाग के पुत्र (नामित) प्रस्ताव को बुद्ध के साथ याद किया जाता है। प्रथम और श्रेष्ठ देवश्रव (बहू या प्रहुं?) को विद्वान कहा गया है। उनकी पुत्री यशस्विनी का जन्म इक्ष्वाकु कुल के मनस्विनी से हुआ था । (उनका पुत्र था) शत्रुघ्न।

130-13ला। (अस्पष्ट) उसके शत्रु उससे पीछे हट गए थे; वह शत्रुओं का हत्यारा था; उनसे श्रद्धा का जन्म हुआ। कृष्ण ने प्रसन्न होकर गंगा को सौ संतानें दीं , चंद्रमा के साथ, उदार, शक्तिशाली और बलवान (?)

131बी-133. नंदन के दो पुत्र थे रंतीपाल और रंति - सामिका के चार बहादुर और बहुत शक्तिशाली पुत्र थे: विराज , धनु और व्योम और संजय। व्योम निःसंतान था; धनंजय संजय (पुत्र) का था; वह जो भोज के रूप में पैदा हुआ था, एक शाही ऋषि बन गया।

134. जो व्यक्ति हमेशा कृष्ण के जन्म और उत्थान को सुनाता या सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

135. कृष्ण, महान देवता, पूर्व में निर्माता, पुरुषों के बीच भी पैदा हुए थे।

136. तपस्या के माध्यम से वासुदेव ने देवकी पर कमल-नेत्र (कृष्ण), चार भुजाओं वाले, एक दिव्य रूप और लोगों के लिए आश्रय का उत्पादन किया।

137. उसे श्रीवत्स के चिन्ह और देवताओं के सदृश देखकर, वासुदेव ने उससे कहा, "हे भगवान, अपना रूप वापस ले लो।

138. हे भगवान, मैं कंस से डरता हूं, इसलिए मैं तुमसे यह कह रहा हूं। उसने भयानक वीरता के मेरे छह पूर्व-प्रतिष्ठित पुत्रों को मार डाला। ”

139. वासुदेव की बातें सुनकर अच्युत ने अपना रूप वापस ले लिया।

140. इसके लिए राजी होने के बाद, शौरी उसे चरवाहे नंदा के घर ले गया । उसने उसे नन्द के हवाले कर दिया, और उससे कहा, “उसे बचा ले; तभी सभी यादव खुश होंगे ।

141. जैसे ही देवकी का यह भ्रूण (अर्थात् पुत्र) कंस का वध करेगा, जगत् में सुख होगा, जो (पृथ्वी का) भार बहुत दूर कर देगा।

142. जो (अर्थात् वह) दुष्ट राजाओं को मार डालेगा, जब कौरवों के बीच युद्ध होगा जहां सभी क्षत्रिय इकट्ठे होंगे।

143. यह भगवान स्वयं अर्जुन का सारथी होगा; क्षत्रियों की धरती से छुटकारा पाकर वह बाकी (यानी क्षत्रिय से रहित) का आनंद लेगा और पूरी यदु -वंश को दिव्य दुनिया में ले जाएगा।

भीम ने कहा :
144. यह वासुदेव कौन है? यह गौरवशाली देवकी कौन है?
______________
145. चरवाहे नंद कौन हैं? यशोदा कौन हैं जो व्रतों का कठोरता से पालन कर रही हैं, किसने विष्णु का पालन-पोषण किया और किसको उन्होंने अपनी माता कहा?

146ए. किसने (एक पुत्र) भ्रूण को जन्म दिया और उसका पालन-पोषण किया?

पुलस्त्य ने कहा :
146बी. कश्यप सर्वोच्च थे और अदिति को उनकी प्रिय कहा जाता है।

147. कश्यप ब्राह्मा और अदिति पृथ्वी का एक हिस्सा था। नंद को बादल कहा गया और यशोदा को पृथ्वी।

148. उसने देवकी की कई इच्छाओं को पूरा किया, जो उसने पहले महान अजन्मे से तृप्त की थी।

149-150। जल्द ही वह महान देवता मानव शरीर में प्रवेश कर गया। वह (भगवान विष्णु) जादुई शक्तियों से युक्त, अपनी अलौकिक शक्तियों के साथ सभी प्राणियों को स्तब्ध कर परिवार में धार्मिकता स्थापित करने और राक्षसों को नष्ट करने के लिए आए (नीचे) जब धार्मिकता और बलिदान नष्ट हो गया था।

151-152. रुक्मिणी , सत्यभामा, सत्या, नाग्निजिती और सुमित्रा , शैब्या, गांधारी और लक्ष्मण भी । तो सुभीमा, माद्री, कौशल्या और विजया भी । ये और अन्य उसकी सोलह हजार पत्नियाँ थीं।

153. रुक्मिणी के पुत्रों के नाम सुनें: चारुदेश जो युद्धों में बहादुर थे, और बहुत पराक्रमी प्रद्युम्न ।

154. सुकारू और चारुभद्रा और सदाश्व और ह्रश्व भी ।

155-156। सबसे छोटा चारुहास था , और एक बेटी (नाम) चारुमती थी । रोहिणी से भानु , भीमराथ, कृष्ण , रोहित और दीप्तिमान , ताम्रबंधु , जालंधमा पैदा हुए । उनमें से चार बेटियों का जन्म हुआ और वे छोटी थीं।

157. जाम्बवती से अत्यंत आकर्षक सांब का जन्म हुआ । वह सौर विज्ञान के लेखक थे, और घर में एक छवि।

158. उदार व्यक्ति ने बहुत आधार (सर्वोच्च आत्मा) में प्रवेश किया; (तब) देवताओं के देवता ने प्रसन्न होकर उसके कोढ़ का नाश किया।

159. मित्रविंदा ने सुमित्रा और चारुमित्र को जन्म दिया । नागनजिती से मित्रबाहु और सुनीता उत्पन्न हुए ।

160. इन्हें और अन्य को हजारों (कृष्ण के) पुत्रों के रूप में जानें; वासुदेव के पुत्र अस्सी हजार हैं।

161. प्रद्युम्न का सबसे बुद्धिमान पुत्र, अर्थात। युद्ध में एक योद्धा अनिरुद्ध और वैदरभी से मृगकेतन (उनके बैनर पर हिरण) का जन्म हुआ था।

162. सुपारीव की पुत्री काम्या ने साम्बा से तरासवीन प्राप्त किया। अन्य पांचों को अच्छे स्वभाव वाले देवता घोषित किए गए।

163. महान यादवों के तीन करोड़ थे। साठ हजार बहादुर और बहुत पराक्रमी थे।

164-165. इन सभी महान पराक्रमों के रूप में देवताओं के अंश उत्पन्न हुए। या देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध में मारे गए शक्तिशाली राक्षस यहां पुरुषों के बीच पैदा हुए और सभी पुरुषों को परेशान किया। उनकी मुक्ति के लिए वे यादव-परिवार में पैदा हुए थे ।

166. प्रतापी यादवों के सौ परिवार थे। विष्णु उनके प्रवर्तक थे और उन्हें उनके स्वामी के रूप में रखा गया था।

167. उनके आज्ञाकारी बने रहने वाले सभी यादव समृद्ध हुए।

भीम ने कहा :
168-169। सात ऋषि, कुबेर , मणिधर , यक्ष , सात्यकी , नारद , शिव और धन्वंतरि , विष्णु (अन्य) देवताओं के साथ-साथ पृथ्वी पर इन सभी देवताओं का जन्म एक साथ क्यों हुआ?

170. इस महान की कितनी अभिव्यक्तियाँ होंगी? वह सभी क्षेत्रों में किस उद्देश्य के लिए पैदा हुआ है? व्यांधक परिवार में विष्णु का जन्म किस उद्देश्य से हुआ है? कृपया मुझे बताएं कि आपसे कौन पूछ रहा है।

पुलस्त्य ने कहा :
171. हे राजकुमार, सुनो, मैं तुम्हें एक बहुत बड़ा रहस्य बताऊंगा कि पुरुषों के बीच एक दिव्य शरीर के विष्णु का जन्म क्यों होता है।

172. जब युग का अंत होता है, और समय ढीला हो जाता है, भगवान, हरि, देवताओं, राक्षसों या पुरुषों के बीच पैदा होते हैं,

173-174. राक्षस हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का शासक था; फिर बाद में जब बाली तीनों लोकों का शासक था, तब राक्षसों के साथ देवताओं की महान मित्रता थी। दस पूर्ण युग बीत गए; दुनिया बेफिक्र थी।

175. देवता और राक्षस उन दोनों के आज्ञाकारी थे। बाली ( वामन द्वारा ) बंधा हुआ था। उनका विनाश अत्यंत भयानक था, (जिससे) देवताओं और राक्षसों दोनों को बहुत नुकसान हुआ।

176-177. यहाँ (इस दुनिया में) वह फिर देवताओं और पुरुषों के लिए धार्मिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए भागु के श्राप के कारण पुरुषों के बीच पैदा हुआ है।

भीम ने कहा :
178. हरि ने देवताओं और राक्षसों के लिए एक शरीर क्यों लिया? हे शुभ मन्नत, मुझे देवताओं और राक्षसों के बीच (युद्ध का पूरा लेखा-जोखा) बताओ, जैसा कि यह हुआ था।

पुलस्त्य बोला :
जीत के लिए उनके बीच भयंकर युद्ध हुए।

179. मनु के काल में दस और दो शुद्ध अवतार बताए गए हैं (ले गए हैं) । मेरे द्वारा बताए जाने के लिए उनके नाम सुनो।

180. पहला (अवतार) नरसिंह है ; और दूसरा है वामन; तीसरा है वराह और चौथा है ( के समय कृमा ) अमृत मंथन कर रहा है।

181. पाँचवाँ युद्ध तारकमाया का बहुत ही भयानक युद्ध है जिसमें तारक शामिल हैं । छठा को शिवक कहा जाता है; इसी तरह सातवां है त्रिपुरा ।

182. आठवां अंधका की हत्या का है, नौवां वृत्रा की हत्या का है । उनमें से दसवां हिस्सा ध्वज का है , और हलाहला उसके बगल में है।

183. बारहवें को भयानक कोल्हाला के नाम से जाना जाता है । राक्षस हिरण्यकशिपु का वध नरसिंह ने किया था।

184. पूर्व में बाली को तीनों लोकों पर अधिकार करने के समय वामन द्वारा बाध्य किया गया था।

185. देवताओं ने हिरण्याक्ष को एक मुठभेड़ में मार डाला। समुद्र में वास करने पर सूअर (अवतार) ने उसे दो बना दिया।

186. अमृत मंथन के समय (समुद्र से बाहर यानी कछुआ के रूप में अवतार लेने के दौरान) इंद्र ने प्रह्लाद को परास्त कर दिया । प्रहलाद का पुत्र विरोचन , हमेशा इंद्र को मारने पर आमादा था; लेकिन इंद्र ने उसे परास्त कर तारकामाया युद्ध में उसका वध कर दिया।

187-188. जब देवता देवताओं के शत्रु त्रिपुरा को जीतने में असमर्थ थे , तो उन्होंने राक्षसों को बहकाया और अमृत पी लिया और बार-बार जीवन में आए। तीनों लोकों के सभी राक्षसों को शिव ने मार डाला था।

189. अंधक देवताओं की हत्या पर, पुरुषों और पुरुषों ने हर जगह राक्षसों, भूतों और राक्षसों को मार डाला।

190. भयानक कोलाहल में वृत्र जो (पूर्व में) राक्षसों द्वारा (अमृत के साथ) छिड़का गया था, इंद्र ने विष्णु की मदद से मारा और नष्ट कर दिया था।

191. अपने अनुयायियों के साथ विप्रसिट्टी के पास जाकर महेंद्र ने अपने बोल्ट के साथ उसे मार डाला जो जादुई कला जानता था और खुद को दुष्टता से छुपाता था।

192. राक्षसों और देवताओं ने जो पूरी तरह से इकट्ठा हुए थे, उन्होंने बारह युद्ध लड़े थे, जिससे देवताओं और राक्षसों का विनाश हुआ और प्राणियों की भलाई हुई।

193-194. हिरण्यकशिपु ने एक राजा के रूप में शासन किया और एक सौ बहत्तर लाख अस्सी हजार वर्षों तक तीनों लोकों में संप्रभुता का आनंद लिया।

195. बाली, बदले में, एक सौ बीस मिलियन साठ हजार वर्षों के लिए एक राजा (और शासन) बन गया।

196. प्रह्लाद ने उसी अवधि के लिए राक्षसों के साथ आनंद लिया, जैसा कि कहा जाता है कि बाली ने शासन किया था।

197-198. राक्षसों पर विजय प्राप्त करने के लिए शक्तिशाली इंद्र के इन (युद्धों) को जाना जाना चाहिए। तीनों लोकों का यह पूरा समूह तब इंद्र द्वारा संरक्षित है, जब दस हजार वर्षों तक यह समृद्ध नहीं था। जब एक समय बीतने के बाद इंद्र ने तीनों लोकों का (राज्य) प्राप्त किया, यज्ञ राक्षसों को छोड़कर देवताओं के पास गया।

199. जब यज्ञ देवताओं के पास गया, तो दिति के पुत्रों ने शुक्र से कहा :

200. “इंद्र ने हमारा राज्य छीन लिया है; यज्ञ , हमें छोड़कर, देवताओं के पास गया है। हम यहाँ नहीं रह सकते; हम निचली दुनिया में प्रवेश करेंगे।"

201. इस प्रकार संबोधित करते हुए, शुक्र ने निराश राक्षसों से कहा, उन्हें (इन) शब्दों के साथ सांत्वना दी: "डरो मत, राक्षसों, मैं अपनी ताकत के साथ तुम्हारा समर्थन करूंगा।

202. पृथ्वी पर जो कुछ मंत्र और जड़ी-बूटियाँ हैं, वह सब मेरे पास है; इसका एक हिस्सा ही देवताओं के पास है।

203. जो कुछ मेरे द्वारा तुम्हारे लिथे रखा गया है, वह सब मैं तुम्हें दूंगा। तब देवताओं ने उन्हें शुक्र द्वारा समर्थित और निराश देखकर उन्हें मारने की इच्छा से परामर्श किया:

204. “यह शुक्र अपने पराक्रम से यह सब हम से हटा लेगा। इससे पहले कि वह हमें (राज्य से) वंचित करे, हम (आगे) चलेंगे।

205. शेष (राक्षसों) को जबरन जीतकर हम उन्हें अधोलोक में भेज देंगे।

206. तब क्रोधित देवता राक्षसों के पास पहुंचे और उनके द्वारा मारे जा रहे राक्षस स्वयं शुक्र के पास पहुंचे।

207. तब काव्या (अर्थात् शुक्र) ने उन पर देवताओं द्वारा आक्रमण होते देख देवताओं द्वारा सताए गए लोगों की रक्षा के लिए उन्हें एक साथ लाया।

208ए. काव्या को देखकर वे रुक गए और देवताओं ने बिना किसी भय के उनका वध कर दिया।

208बी-210. तब काव्या ने ब्राह्मण (?) के लाभकारी शब्दों पर विचार करते हुए और पूर्व खाते को याद करते हुए उनसे कहा: "वामन ने तीनों लोकों को तीन चरणों में छीन लिया; बाली बंधा हुआ था; जांभा मारा गया; विरोकाना भी मारा गया। देवताओं ने बारह युद्धों में महान राक्षसों को मार डाला।

211. विभिन्न उपायों से उनमें से कई प्रमुख राक्षस मारे गए। आप में से कुछ बच गए हैं; मुझे लगता है कि यह कोई युद्ध नहीं है।

212. आपके द्वारा राजनीतिक ज्ञान का प्रयोग किया जाना चाहिए। समय बदलने तक मैं आपके साथ खड़ा रहूंगा। मैं महादेव के पास जाउंगा (प्राप्त करने के लिए) एक मंत्र जो आपको जीत दिलाएगा ।

213. भगवान महेश्वर से हमारे अनुकूल मंत्रों को प्राप्त करके हम फिर से देवताओं के साथ युद्ध करेंगे; तब हमें विजय प्राप्त होगी।"

214. सहमत होने के बाद (आपस में बातचीत करके) राक्षसों ने देवताओं से कहा: "हम सभी ने अपने हथियार डाल दिए हैं; हम बिना हथियारों और रथों के हैं।

215. छाल-कपड़ों से आच्छादित, हम तपस्या करेंगे।

216. देवताओं ने उनकी बातों को सच-सच सुनकर, गर्मी से मुक्त होकर और प्रसन्न होकर वहां से सेवानिवृत्त हो गए। जब दैत्यों ने अपने शस्त्र डाल दिए, तब दैत्य भी सेवानिवृत्त हो गए।

217-218. तब काव्या ने उनसे कहा: "अभिमान से मुक्त होने और नैतिक गुणों से संपन्न होने के कारण अपने शरीर की देखभाल करने में समय व्यतीत होता है। ब्रह्मा के आश्रम में रहकर , मेरी प्रतीक्षा करो, हे राक्षसों। काव्या उन राक्षसों के लिए ब्रह्मा के पास पहुंची।

219. शुक्र ने कहा: "देवताओं की हार और राक्षसों की जीत के लिए, हे भगवान, मुझे वे मंत्र चाहिए जो बृहस्पति के पास नहीं हैं।"

220. इस प्रकार भगवान ने संबोधित किया: "हे भार्गव , अपना सिर झुकाकर, आप पूरे एक हजार वर्षों तक कण्डधिम व्रत का अभ्यास करते हैं; यदि आप इसका अभ्यास करते हैं, तो भगवान आपको आशीर्वाद दें, आपको मंत्रों की प्राप्ति होगी।"

221-222. "ठीक है" कहकर, भृगु के पुत्र शुक्र, ब्रह्मा द्वारा अनुमति दिए जाने और भगवान के चरण स्पर्श करके कहा, "हाँ, श्रीमान, मैं आपके आदेश के अनुसार व्रत का अभ्यास करूंगा।"

223.-225. देवताओं के देवता के आदेश के अनुसार, ऋषि भार्गव ने किया (जैसा कि उन्हें बताया गया था)। फिर जब वह शुक्र राक्षसों की भलाई के लिए गया तो उसने महेश्वर से मंत्र प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया। तब यह जानकर कि राजनीतिक ज्ञान के कारण उनके आनंद में, इस कमजोर बिंदु पर देवताओं ने कवच और हथियारों से लैस और बृहस्पति के नेतृत्व में उन पर जोरदार हमला किया।

226. देवताओं के समूह को हथियार पकड़े हुए देखकर सभी राक्षस भयभीत हो गए, दृश्य में उभरे और उनसे (इन) शब्दों को कहा:

227. "हे देवताओं, जब हमारे गुरु एक मन्नत का पालन कर रहे हैं, तो हमने अपने हथियार डाल दिए हैं। हमें सुरक्षा का वादा करके अब आप हमें मारने की इच्छा से हमारे पास आए हैं।

228. हम सभी ईर्ष्या से मुक्त हैं और अपनी बाहों के साथ (यहाँ) बने हुए हैं। चिथड़े और मृग की खाल पहने हम निष्क्रिय और अधिकारहीन बने हुए हैं।

229. हम किसी भी तरह से युद्ध में देवताओं को जीतने में सक्षम नहीं हैं। (एक दूसरे से उन्होंने कहा:) "हम काव्या की माँ के सामने बिना युद्ध किए आत्मसमर्पण कर देंगे।

230. (और) हम उसे इस दुख से परिचित कराएंगे जब तक कि हमारे गुरु वापस नहीं आते। जब शुक्र वापस आएगा, तो हम हथियारों और हथियारों से लैस होकर (देवताओं के साथ) लड़ेंगे। ”

231. आपस में इस प्रकार बोलते हुए, जो भयभीत थे, उन्होंने काव्या की माँ की शरण ली। उन्होंने भी उन्हें सुरक्षा प्रदान की।

232. "डरो मत; हे राक्षसों, अपना भय छोड़ दो। मेरे साथ रहो; (तब) तुम्हें कोई भय नहीं होगा।”

233. तब देवताओं ने राक्षसों को उसके द्वारा संरक्षित देखकर, और उनकी ताकत या कमजोरी का न्याय किए बिना जबरन उन पर हमला किया।

234. तब उस देवी (अर्थात् काव्या की माता) ने देवताओं द्वारा राक्षसों की हत्या को देखकर क्रोधित होकर देवताओं से कहा: "मैं तुम्हें नींद से मूर्ख बना दूंगा।"

235. सभी सामग्रियों को इकट्ठा करके वह सो गई (देवताओं को); वह तपस्या में समृद्ध थी और ध्यान से संपन्न (उन्हें) अपनी शक्ति से स्तब्ध कर देती थी।

236. तब इंद्र को (काव्य की माता द्वारा) लकवाग्रस्त देखकर देवताओं की सेना भाग गई। इंद्र को वश में देखकर देवता भय के मारे दौड़ पड़े।

237. जब देवताओं की सेना भाग गई, तो विष्णु ने इंद्र से कहा, "मुझे प्रवेश करो, भगवान तुम्हें आशीर्वाद दे, हे सर्वश्रेष्ठ देवताओं, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।"

238. इस प्रकार इन्द्र ने विष्णु में प्रवेश किया। उन्हें विष्णु द्वारा संरक्षित देखकर क्रोधित देवी ने (ये) शब्द कहे:

239. "हे इंद्र, अब मैं तुम्हें विष्णु के साथ बलपूर्वक जला दूंगा, जब सभी प्राणी देख रहे होंगे; मेरी तपस्या की शक्ति देख!”

240. दो देवता, इंद्र और विष्णु, उसके द्वारा प्रबल थे। विष्णु ने इंद्र से कहा: "मैं तुम्हारे साथ कैसे मुक्त होऊं?"

241. इंद्र ने कहा: "हे प्रभु, जब तक वह हमें नहीं जलाती, तब तक उसे मार डालो; मैं उसके द्वारा विशेष रूप से वश में हूँ; उसे मारो; देरी मत करो।"

242. तब उसे देखकर, विष्णु ने एक महिला (?) को मारने का बुरा काम करने का फैसला किया और भगवान जल्दी से व्यथित इंद्र के पास पहुंचे।

243-244. तब विष्णु ने भय से मारा और गति के साथ आगे बढ़े, और देवी द्वारा किए जाने वाले क्रूर कार्य को जानकर क्रोधित हो गए, उनकी डिस्क ले ली और भय से उसका सिर काट दिया। महिला की उस भयानक हत्या को देखकर भगवान भागु क्रोधित हो गए।

245-246। तब विष्णु को अपनी पत्नी की हत्या के लिए भागु ने शाप दिया था।

भौगु ने कहा :
चूँकि तुमने धर्म को जानकर एक ऐसी स्त्री का वध किया है जिसका वध नहीं होना चाहिए था, इसलिए तुम मनुष्यों के बीच सात बार जन्मोगे।

247. फिर उस श्राप के कारण वह संसार के कल्याण के लिए मनुष्यों में बार-बार जन्म लेता है, जब उसमें से धर्म का लोप हो जाता है। फिर, विष्णु से बात करने के बाद, खुद सिर लाकर, और उसके शरीर को ले कर (सिर और शरीर) को अपने हाथ में लेकर उसने कहा:

248. "हे देवी, मैं तुम्हें पुनर्जीवित कर रहा हूं, जो विष्णु द्वारा मारे गए थे। यदि मैं पूरे पवित्र कानून को जानता हूं या इसका पालन करता हूं, और यदि मैं सच कह रहा हूं, (तुरंत) जीवित हो जाओ।

249. फिर उसने उसे ठंडे पानी से छिड़का, उसने कहा: "जीवित हो जाओ, जीवन में वापस आ जाओ।"

250. जब उन्होंने कहा (इस प्रकार) देवी जीवित हो गईं।

251. तब सभी प्राणियों ने उसे देखा जैसे कि नींद से जागा हो, 'अच्छा! अच्छा!' हर तरफ से।

252. इस प्रकार उस भृगु ने उस सम्मानित महिला को फिर से जीवित कर दिया। जब देवता देख रहे थे कि अद्भुत बात हुई।

253. बेफिक्र भागु ने फिर से अपनी पत्नी को जीवित किया; परन्तु यह देखकर काव्य के भय से इन्द्र को सुख नहीं मिला ।

254. फिर रात को जागकर (अर्थात् नींद न आने पर) इंद्र ने शांति की इच्छा रखते हुए अपनी पुत्री जयंती से (ये) शब्द कहे :

255. "यह काव्य इंद्र (अर्थात मुझे) को नष्ट करने के लिए एक भयानक व्रत का पालन कर रहा है। हे बेटी, उसने, बुद्धिमान ने मुझे बहुत डरा दिया है।

256. हे पुत्री, उसके मन को प्रसन्न करके उसकी सेवा इस प्रकार करो कि ब्राह्मण प्रसन्न हो जाए।

257-259. उसके पास जाएं; मैंने तुम्हें उसे दिया है; मेरे लिए प्रयास करो।"

अपने पिता के वचनों को भली-भांति समझकर जयंती उस स्थान पर चली गई, जहां वह भयानक मन्नत लेकर ठहरे थे। यक्ष द्वारा टपकते कटोरे से गिराए गए धुएं के कणों को पीते हुए, अपने चेहरे को झुका हुआ देखकर, अपने दुश्मनों के विनाश के लिए प्रयास कर रहे काव्या को देखकर, कमजोर हालत में, उसने काव्या के साथ अभिनय किया। जैसा कि उसके पिता ने उसे बताया था।

260-263. मधुरभाषी कन्या ने सहृदय स्तवनों से उसकी स्तुति की। (उचित) समय पर उसने धीरे से उसके अंगों को रगड़ा, जिससे त्वचा शांत हो गई और व्रत के अभ्यास के अनुसार कई वर्षों तक उसकी सेवा की। जब वह भयानक व्रत (कहा जाता है-) धम्म एक हजार वर्षों के बाद समाप्त हो गया, शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक वरदान दिया। महेश्वर ने कहा: "केवल तुमने ही यह व्रत किया है; किसी और ने इसे नहीं देखा है।

264. अत: अपनी तप, बुद्धि, ज्ञान और पराक्रम और तेज से तुम (सब) ही सब देवताओं पर विजय पाओगे।

265. हे भागु के पुत्र, मैं अपना सब कुछ तुझे दूंगा; इसे किसी को न बताएं। ज्यादा बात करने से क्या फायदा? आप मृत्यु के प्रति प्रतिरक्षित होंगे।"

266. भार्गव को वे वरदान देकर, उन्होंने उन्हें प्राणियों का आधिपत्य, धन और मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान की।

267. काव्या, इन वरदानों को पाकर अपने बालों के सिरे पर खड़े होने से खुश थी।

268. देवताओं के देवता, भगवान शिव से इस प्रकार बोलते हुए, शुक्र, बुद्धि से संपन्न, अपनी हथेलियों को जोड़कर उनके सामने झुक गया।

269. फिर, जब भगवान (शिव) गायब हो गए, तो उन्होंने जयंती से यह (यानी ये शब्द) कहा: "हे शुभ, आप किसके हैं? तुम कौन होते हो कि जब मैं दुःखी होता हूँ तो तुम पीड़ित होते हो?

270. तुम, महान तपस्या से संपन्न, मुझे क्यों जीतना चाहते हो? आप (यहाँ) इस (अर्थात) भक्ति, सम्मान और संयम और स्नेह के साथ रहे हैं; हे आकर्षक कूल्हों की आकर्षक महिला, मैं आपसे प्रसन्न हूं।

271-272. हे सुंदरी, तुम क्या चाहती हो? (आपके मन में) क्या इच्छा उठी? मैं इसे पूरा करूंगा, भले ही इसे पूरा करना मुश्किल हो। ”

इस प्रकार संबोधित करते हुए, उसने उससे कहा: "आपकी तपस्या के माध्यम से आप जान सकते हैं, हे ब्राह्मण, मैं चाहता हूं कि आप मेरे लिए क्या करें। (अब) मुझे ठीक-ठीक बताओ (आप क्या करेंगे)।”

273. इस प्रकार संबोधित करते हुए, उन्होंने उसे दिव्य दृष्टि से देखते हुए उससे कहा:

274. "हे सुंदर युवती, सभी प्राणियों द्वारा अनदेखी आप एक हजार साल के लिए मेरे साथ एकता की इच्छा रखते हैं।

275. हे आदरणीय युवा दिव्य महिला, नीले कमल की तरह आकर्षक, सुंदर आँखें और मधुरभाषी इस प्रकार आप भोगों का चयन करते हैं।

276-277। यह तो हो जाने दो; हे आप बहुत सुंदर और आकर्षक महिला; हम (मेरे) घर जाएंगे।”

तब जयंती के साथ अपने घर में आकर, भागु के पुत्र उषान, जिन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी, उस सम्मानित महिला के साथ सभी प्राणियों द्वारा अदृश्य सौ वर्षों तक जीवित रहे।

278. दिति के सब पुत्र यह जानकर कि शुक्र अपना माल पाकर लौट आया है, प्रसन्न होकर उसके घर को गया।

279. वहाँ जाने के बाद जब उन्होंने अपने गुरु को नहीं देखा, जिन्होंने अपनी जादुई शक्ति से खुद को छुपा लिया था, और उनके (वापस आने) का कोई संकेत नहीं देखा, तो उन्होंने (निष्कर्ष निकाला), 'हमारा गुरु अभी तक नहीं आया है'।

280. और इस प्रकार वे अपने निवास स्थान को चले गए जैसे वे आए थे। तब देवताओं की सारी सेना अगिरस के पास जाकर उस से कहने लगी:

281. "हे श्रद्धेय, दुष्टात्माओं के निवास में जा, और उनकी सेना को मूर्ख बनाकर शीघ्र ही उसे अपने वश में कर ले।"

282. बृहस्पति ने उन देवताओं से कहा: "बस इतना, (अभी) मैं जाता हूँ।" (वहां) जाकर उन्होंने राक्षसों के स्वामी प्रह्लाद को वश में कर लिया।

283. स्वयं को शुक्र में बदलकर, उन्होंने वहां (उनके) पुजारी के रूप में काम किया। उषान के वापस आने पर वे वहाँ पूरे सौ वर्ष रहे।

284-285. राक्षसों ने बृहस्पति को सभा में देखा। "यहाँ (पहले से ही) एक उषान है। दूसरा यहाँ क्यों आया है? यह एक बड़ा आश्चर्य है; एक बड़ा झगड़ा होगा (अब); दरवाजे पर बैठे इस व्यक्ति के बारे में लोग क्या कहेंगे?

286. (और) हमारे गुरु, जो सभा में बैठे हैं, हम से क्या कहेंगे? जब दैत्य ऐसा बोल रहे थे तो कवि (वहां) आ गया।

287. वहाँ बृहस्पति को, जिन्होंने अपना रूप धारण कर लिया था और जो वहाँ बैठे थे, क्रोधित होकर (ये) शब्द कहे: “तुम यहाँ क्यों आए हो?

288-289. आप मेरे शिष्यों को भ्रमित कर रहे हैं। क्या यह आपके (जो हैं) देवताओं के उपदेशक के लिए उचित है? निश्चय ही तुम्हारी चालबाजी से मूढ़ होकर अज्ञानी तुम्हें पहचान नहीं पाते। तो, हे ब्राह्मण, आपके लिए यह उचित नहीं है कि आप दूसरे के शिष्यों के साथ दुर्व्यवहार करें ।

देवताओं के निवास में जाओ (और) रहो (वहाँ)। इस प्रकार (अर्थात ऐसा करने से) आपको धार्मिक पुण्य की प्राप्ति होगी।

290. हे ब्राह्मण, पहले राक्षसों में सबसे अच्छा था

आपके पुत्र और शिष्य काका को मार डाला जो यहाँ एक छात्र के रूप में आए थे। (तो) यहां आपका प्रवेश अनुचित है।"

291-293. उसकी बातें सुनकर और मुस्कुराते हुए, बृहस्पति ने कहा: "पृथ्वी पर चोर हैं, जो दूसरों का धन छीन लेते हैं; (लेकिन) ऐसे चोर (आप जैसे) दूसरे का रूप और शरीर छीनते नहीं देखे गए। पूर्व में इंद्र ने वृत्रा का वध करके एक ब्राह्मण की हत्या की थी। आपने भौतिकवादियों (जैसे चार्वाक ) के विज्ञान (अर्थात शिक्षण द्वारा) इसे पार कर लिया है । मैं तुम्हें देवताओं के उपदेशक अगिरसा बृहस्पति के रूप में जानता हूं।

294. हे राक्षसों, आप सभी (उसे) देखते हैं जो (यहाँ के बाद) मेरा रूप धारण करके आया है। विष्णु के प्रयासों से, वह आपको मोहित करने में सक्षम है, यहाँ आया है।

295. सो उसे जंजीरों से बांधकर खारे समुद्र में फेंक देना।

296. और फिर शुक्र ने कहा: "वह देवताओं का पुजारी है। उसके द्वारा स्तब्ध होकर, तुम नाश हो जाओगे, हे राक्षसों। हे राक्षसों के स्वामी, इस दुष्ट ने मुझे धोखा दिया है।

297. तू ने मुझे छोड़कर दूसरे याजक को क्यों ले लिया? यह केवल बृहस्पति हैं, देवताओं के गुरु और सरस्वती के पुत्र हैं ।

298. आपको देवताओं के हित में धोखा दिया गया है। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। हे महानुभाव, उसे त्याग दो जो शत्रुओं पर विजय प्राप्त करेगा।

299. हे प्रभु, मैं पहिले ही से अपके चेलोंकी चिन्ता करके यहां से चला या, और जल में रहा। मैं महान भगवान शंभु के नशे में था ।

300-301. मैं वास्तव में उनके पेट में पूरे सौ साल गुजार चुका हूं। मुझे उनके द्वारा (उनके) वीर्य के रूप में उनके जनन अंग के माध्यम से छुट्टी दे दी गई थी। वरदान देने वाले देवता ने मुझ से कहा; 'शुक्र, अपनी पसंद का वरदान चुनो।' हे राजा, मैंने त्रिशूल धारण करने वाले देवताओं के देवता से एक वरदान चुना है।

302. 'हे शंकर, मेरे मन द्वारा भोगी गई सभी वस्तुओं और मेरे मन में रहने वाली इच्छाओं को (पूरी) अपनी कृपा से होने दो।'

303-305। यह कहते हुए कि 'ऐसा ही रहने दो', भगवान ने मुझे तुम्हारे पास भेजा; (लेकिन) इस प्रकार जब तक (मैं लौटा) मैंने वास्तव में इस बृहस्पति को आपका पुजारी बनते देखा। हे दैत्यों के स्वामी, मेरे वचन सुन।” बृहस्पति ने फिर से प्रह्लाद से ये शब्द कहे: "मैं उसे नहीं पहचानता कि वह देवता है या राक्षस या इंसान है; हे राजा, वह मेरा रूप धारण करके तुझे धोखा देने आया है।”

306. तब सब दुष्टात्माओं ने कहा, “अच्छा कहा; हमारे पास पूर्व पुजारी होगा; वह कोई भी हो; हमारा इससे (बाद में) कोई लेना-देना नहीं है; जैसा वह आया है, वैसे ही उसे जाने दे!”

307-308। काव्या ने गुस्से में वहाँ इकट्ठे हुए सभी राक्षसों के देवताओं को शाप दिया: "चूंकि तुमने मुझे त्याग दिया है, मैं आप सभी को धन से रहित, मृत (या) लंबे समय तक दुखी जीवन व्यतीत करते हुए देखूंगा।

309. और हर हाल में तुम पर बहुत ही भयानक विपत्ति आ पड़ेगी।”

इस प्रकार बोलते हुए काव्या अपनी इच्छा से एक तपस्या-कक्ष में चली गई।

310. जब वह शुक्र (इस प्रकार) चला गया, बृहस्पति कुछ समय के लिए राक्षसों की देखभाल करते हुए वहां रहे।

311-312. हे राजा, जब एक लंबा समय बीत गया, तो सभी राक्षसों ने मिलकर बृहस्पति से पूछा: "हमें इस बेकार सांसारिक जीवन में कुछ ज्ञान (उपयोगी) दें, जिससे हम आपकी कृपा से मुक्ति प्राप्त करेंगे, हे शुभ व्रत।"

313-314. तब देवताओं के गुरु , जिन्होंने तब काव्य का रूप धारण किया था, ने कहा: "मेरे पास पहले से ही वही विचार था जो आपने (अब) व्यक्त किया था; इसलिए तुम सब मिलकर शुद्ध और पवित्र होकर फुरसत पाओ (ताकि), हे राक्षसों, मैं तुम्हें वह ज्ञान बताऊंगा जो तुम्हें मुक्ति देगा।

315. वह ज्ञान जिसे ग ( वेद ), यजुर (वेद) और साम (वेद) कहा जाता है, वह वैदिक (ज्ञान) है; और वैष्णर (परमात्मा) के पक्ष के कारण है लेकिन यह इस दुनिया में प्राणियों को दुःख का कारण बनता है।

316-318। मतलब, भौतिक आत्म-उन्नति के इरादे से, बलिदान और श्राद्ध करते हैं । ये निर्दयी लोग अपनी पत्नियों के साथ विष्णु और रुद्र द्वारा निर्धारित बुरी प्रथाओं का पालन करते हैं । रुद्र, जिसका आधा नर और आधा स्त्री का रूप है, जो भूतों से घिरा हुआ है और हड्डियों से सुशोभित है, वह (व्यक्ति को) कैसे मुक्ति देगा? न स्वर्ग है, न मुक्ति है। लोग यहां पीड़ित हैं।

319. विष्णु, हिंसा का अभ्यास करते हुए, एक को मुक्ति की ओर कैसे ले जाएगा? रजस स्वरूप के ब्रह्मा अपनी ही सन्तान पर निर्वाह करते हैं।

320-321। अन्य अर्थात दिव्य ऋषि, जिन्होंने वैदिक धर्म का सहारा लिया है, वे हिंसा से भरे हुए हैं, हमेशा क्रूर और मांस खाते हैं; शराब पीने के कारण देवता भी पापी हैं। ये ब्राह्मण मांस भक्षक हैं। कौन करेगा और कैसे, इस तरह के अनुष्ठानों द्वारा (अभ्यास) स्वर्ग में जाएगा या (प्राप्त) रिहाई करेगा?

322. वे धार्मिक संस्कार जैसे यज्ञ आदि और श्रद्धा जैसे स्मृतियों आदि में जो शास्त्रों में स्वर्ग की ओर ले जाने या मुक्ति का आदेश दिया गया है, ऐसा नहीं करते हैं ।

323. यदि किसी व्यक्ति को यज्ञ करके और पशु को मारकर खून की कीचड़ पैदा करके स्वर्ग में ले जाया जाता है, तो वह क्या (है) जिसके द्वारा एक व्यक्ति को नरक में ले जाया जाता है?

324. यदि किसी के खाने (भोजन) से कोई और संतुष्ट हो जाता है, तो यात्रा पर गए व्यक्ति को श्राद्ध देना चाहिए; उसे (तब) भोजन (उसके साथ) नहीं लेना चाहिए।

325. हे राक्षसों, (यहां तक ​​कि) ब्राह्मण, आकाश में घूम रहे हैं, मांस खाकर गिरते हैं; उनके लिए यहां न तो स्वर्ग है और न ही मुक्ति (यानी वैदिकों की इस प्रणाली में )।

326. क्योंकि प्रत्येक प्राणी जो जन्म लेता है उसका जीवन प्रिय हो जाता है (उसे); बुद्धिमान मनुष्य अपने ही मांस के समान मांस कैसे खाएगा?

327. ये (वैदिक प्रथाओं के अनुयायी) उस स्त्री अंग का आनंद कैसे लेते हैं (अर्थात मैथुन करते हैं) जिससे वे पैदा हुए हैं? हे दैत्यों के स्वामी, मैथुन करके वे स्वर्ग में कैसे जा सकते हैं? वह कौन सी पवित्रता है जो मिट्टी और राख से प्राप्त हुई है?

328-330। हे दानव, देखो यह संसार ( वैदिकों का) कितना विकृत है! पेशाब करने के बाद या मलत्याग के बाद जनन अंग या गुदा को मिट्टी और पानी से साफ किया जाता है, लेकिन खाने के बाद मुंह के मामले में ऐसा प्रावधान नहीं किया जाता है। फिर हे राजा, पीढ़ी के अंग और गुदा को एक ही तरह से साफ क्यों नहीं किया जाता है? यह स्थिति (चीजों की) विकृत है (के लिए) वे सफाई नहीं करते जहां (वास्तव में) यह कहा जाता है।

331. पूर्व में सोम बृहस्पति की पत्नी तारा को छीन कर चले गए थे। उस पर (सोम से) एक पुत्र बुद्ध का जन्म हुआ; और गुरु ने उसे फिर से स्वीकार कर लिया।

332. शंकर ने स्वयं गौतम की पत्नी अहल्या को ले लिया ; देखिए यह कैसी धार्मिक प्रथा है!

333. यह और अन्य चीजें जो पाप करती हैं, इस दुनिया में देखी जाती हैं। जब इस तरह की धार्मिक प्रथाएं मौजूद हों तो मुझे बताओ, जो सबसे ज्यादा अच्छा कहा जाता है।

334. हे दुष्टात्माओं के स्वामी, मुझ से पूछ, तो मैं तुझे फिर बताऊंगा।

बृहस्पति के सत्य वचनों को सुनकर उनमें कौतूहल सहित दैत्य उठ खड़े हुए और संसार से विरक्त होकर बोले:

335-336। "हे गुरु, हम सब को दीक्षा दे, जो तेरे निकट आए हैं, और हमारी भक्ति में दृढ़ हैं, कि तेरे उपदेश से हम फिर मोह में न पड़ें; हम दु:ख और मोह पैदा करने वाले इस सांसारिक अस्तित्व में बहुत अधिक न्यारे रहेंगे।

337. हे गुरु, हमारे बालों को खींचकर हमें (सांसारिक अस्तित्व के) कुएं से बाहर निकालो; हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, हमें किस देवता की शरण लेनी चाहिए?

338-339। हे अति बुद्धिमान, हमें दिखाओ कि किसके पास है

आप से संपर्क किया, एक देवता को याद करके, सेवा करके या ध्यान करके, इसी तरह पूजा करने से, मुक्ति (हमारे द्वारा) प्राप्त की जाएगी। हम परिवार से नाखुश हैं, और हम यहां फिर से प्रयास नहीं करेंगे (यानी एक परिवार के लिए)।

340. जब गुरु, जो वेश में थे, को इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ राक्षसों द्वारा संबोधित किया गया था, उन्होंने उस उपक्रम के बारे में सोचा: 'मैं इसे कैसे लाऊं?

341. मैं उन्हें पापी (और फलस्वरूप) नरक का निवासी कैसे बना सकता हूँ, उनके उपहास के कारण और (इसलिए) तीनों लोकों में हँसे जाने के कारण वैदिक तह से बहिष्कृत?'

342-344। ऐसा कहकर (स्वयं से) बृहस्पति ने केशव (अर्थात विष्णु) का ध्यान किया। यह जानते हुए कि उनके जनार्दन के ध्यान ने मायामोह (अर्थात अपनी चाल से राक्षसों को बहकाने वाला) बनाया और उन्हें बृहस्पति के सामने प्रस्तुत किया और उनसे कहा: "आपके साथ जुड़ा यह मायामोह वैदिक पथ से बहिष्कृत सभी राक्षसों को मोहित कर देगा।" इस प्रकार निर्देश देकर प्रभु गायब हो गए।

345. वह मायामोह तपस्या में लगे राक्षसों के पास गया। बृहस्पति उनके पास पहुंचे और कहा:

346. "यह नग्न, साफ मुंडा तपस्वी, एक मोर का पंख पकड़े हुए, आपकी भक्ति से प्रसन्न होकर आप पर कृपा करने के लिए आया है।"

347-349। गुरु के इस प्रकार बोलने के बाद मायामोह ने (ये) शब्द कहे: "हे राक्षसों, आप जो तपस्या में लगे हुए हैं, (मुझे) बताएं कि क्या आप अपनी तपस्या के फल के रूप में कुछ सांसारिक या परोक्ष चाहते हैं?" राक्षसों ने उत्तर दिया: "हमारी राय में तपस्या का प्रदर्शन दूसरी दुनिया में धार्मिक योग्यता प्राप्त करने के लिए है; (इसलिए) हमने इसे शुरू कर दिया है; इस मामले में आपका क्या कहना है?" नग्न (यानी मायामोह) ने कहा: "यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो आप मेरे शब्दों के अनुसार कार्य करते हैं।

350. अरहत की सलाह के अनुसार रिहाई का पूरा दरवाजा खुला है। यह ऋत (रास्ता) (वैदिक) पथ से मुक्ति के लिए है; उससे बड़ा कोई नहीं है।

351. यहाँ (अर्थात उसकी तह में) रहकर ही तुम स्वर्ग में पहुँचोगे और मुक्त हो जाओगे। ”

352. मायामोह (कहते हुए) द्वारा राक्षसों को वैदिक पथ से हटा दिया गया था "यह पुण्य की ओर जाता है, यह पाप को; यह अच्छा है और यह बुरा है।

353. यह रिलीज की ओर जाता है, यह रिलीज नहीं देगा; यह सर्वोच्च सत्य है।

354. यह किया जाना चाहिए; यह नहीं किया जाना चाहिए; यह यह नहीं है (अर्थात जैसा कहा जाता है वैसा ही); यह स्पष्ट है; नग्नों की यह प्रथा है, यह उन लोगों की है जो बहुत से वस्त्र पहिनते हैं।”

355. इस प्रकार मायामोह ने राक्षसों को अर्हतों की बातें बताईं , और उन्हें अपनी (पुरानी) प्रथाओं को त्याग दिया।

356. जब मायामोह ने उन्हें अरहत के शब्द कहे, अर्थात। 'मेरे जीने के तरीके का सम्मान करो', उन्होंने उसका सहारा लिया और इसलिए वे अर्हतों के अनुयायी बन गए।

357-358. तीन वेदों का मार्ग छोड़ने के बाद मायामोह ने उन्हें पूरी तरह से अर्हत मार्ग में लीन कर दिया; दूसरों को भी उसके द्वारा निर्देश दिए गए थे; उन्होंने दूसरों को निर्देश दिया; ये अभी भी दूसरों को निर्देश दिया; ये अभी भी अन्य हैं। 'अरहतों को सलाम' इस प्रकार वे अपनी मंडली में दृढ़ता से बोले।

359. कुछ ही दिनों में राक्षसों ने (तीनों का मार्ग) वेदों को लगभग छोड़ दिया। मायामोह अपनी इन्द्रियों पर विजय पाकर फिर से लाल वस्त्र धारण करने वाला बन गया।

360-361। उसने भी, अन्य राक्षसों के पास जाकर, मीठे शब्द बोले: 'यदि आपको स्वर्ग में जाने या मुक्ति की इच्छा है, तो जानवरों को मारने जैसी दुष्ट प्रथाएं पर्याप्त हैं। (कृपया) समझें (इसे)। यह सब सांसारिक ज्ञान के स्वरूप का जानो।

362. मेरे शब्दों को ठीक से समझो; वे बुद्धिमानों द्वारा कहा जाता है। यह संसार निराकार है और इसमें मिथ्या ज्ञान प्रधान है।

363. यह आसक्ति जैसी वासनाओं से बहुत अपवित्र है और पुनर्जन्म के जोखिम में शामिल हो जाता है।"

364. उन्होंने उनकी रिहाई के लिए कई गुना शब्द इस तरह से कहा कि उन्होंने अपनी (पूर्व) प्रथाओं को छोड़ दिया। हे राजा, कुछ ने वेदों की निंदा की, जबकि अन्य ने देवताओं की निंदा की।

365. अन्य लोगों ने धार्मिक प्रथाओं के समूह और अन्य ब्राह्मणों की निंदा की। ये तार्किक तर्क हत्या से संबंधित प्रथाओं की ओर नहीं ले जाते हैं (अर्थात हत्या के खिलाफ हैं):

366-367। "हे ज्ञानियों, यदि आग में जला हुआ हवन फलदायी होता है, या यह निर्धारित किया जाता है कि बलि में मारा गया जानवर स्वर्ग को प्राप्त करता है, तो बलिदान करने वाला अपने ही पिता को वहाँ (यानी बलिदान में) क्यों नहीं मारता है? यदि किसी के खाने से दूसरे को तृप्ति होती है, तो यात्रा करने वालों को श्राद्ध देना चाहिए और उन्हें अपने साथ (प्रवर्धक आदि) नहीं लेना चाहिए।

368-369। अनेक यज्ञ करके देवत्व प्राप्त करने के बाद यदि इन्द्र ने शमी आदि की लकड़ी खायी तो पत्ते खाने वाला पशु निश्चय ही उत्तम है। यह जानते हुए कि उनके शब्दों को पुरुषों पर भरोसा नहीं करना है, उन्हें अनदेखा करें, और मेरे द्वारा कहे गए शब्दों को अंतिम रूप देने के लिए प्रसन्न (लेने) के लिए करें।

370. हे महाराक्षस, जिनके वचन अधिकारपूर्ण होते हैं, वे आकाश से नहीं गिरते।

371. औचित्यपूर्ण शब्द मुझे और आप जैसे अन्य लोगों को स्वीकार करने चाहिए।”

राक्षसों ने कहा :
372-374. आपके द्वारा दिए गए तथ्यों के इस कथन का हम सभी भक्ति के साथ सहारा ले रहे हैं। यदि आप प्रसन्न हैं, हे प्रभु, आज हम पर कृपा करें। हम दीक्षा के लिए आवश्यक सभी सामग्री लाएंगे, जिससे आपकी कृपा से हमें शीघ्र ही मुक्ति मिल जाएगी।

तब मायामोह ने इन सभी राक्षसों से कहा: "यह मेरी सबसे अच्छी बुद्धि के गुरु ने खुद को इस अनुशासन के लिए तैयार कर लिया है। मेरे निर्देश पर सबसे अच्छा आपको दीक्षा देगा: 'हे ब्राह्मण, मेरे निर्देश पर इन पुत्रों को दीक्षित करो'।

375. राक्षसों ने मोहित होने पर, भार्गव से (ये) शब्द कहे:

376. "हे महामानव, हमें दीक्षा दो, जो (हमें) पूरे सांसारिक अस्तित्व से मुक्त कर देगी।" उषाणों ने राक्षसों से कहा: "ठीक है, चलो (नदी) नर्मदा चलते हैं।

377. हे तू अपके वस्त्र उतार, मैं तुझे दीक्षा दूंगा।

इस प्रकार, भृगु रूप में अंगिरस के बुद्धिमान पुत्र हे भीम ने राक्षसों को नग्न कर दिया।

378-379। और उन्हें मोर के पंख, झंडे, गुंजा के पौधे के जामुन, आकर्षक माला देकर, उन्होंने उनके बाल तोड़ दिए, (के लिए) बालों को तोड़ना (प्राप्ति) धार्मिक पुण्य का एक बड़ा साधन है।

380. भगवान कुबेर अपने बालों को तोड़ने के कारण धन के स्वामी बन गए। सदा वस्त्रहीन रहकर (भक्तों) ने महान अलौकिक शक्ति प्राप्त की।

381. स्वयं अरहत ने पूर्व में कहा है कि इस प्रकार (अर्थात अर्हत-अभ्यास का पालन करने से) अनंत काल प्राप्त होता है। यहां (केवल) पुरुषों को अपने बालों को तोड़कर देवत्व प्राप्त होता है।

382-383। फिर ऐसा क्यों नहीं करते क्योंकि यह महान धार्मिक पुण्य देता है? यह देवताओं की एक बड़ी इच्छा थी: 'हम भारत देश में एक आम आदमी के परिवार में कब पैदा होंगे और हमारे बाल तोड़कर तपस्या से संपन्न होंगे।'

384-385। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों की पूजा की थी । (उनके लिए) मंत्रों के उच्चारण के साथ स्तुति करते हुए अर्हत ने नागों के स्वामी के साथ कवर किया और ध्यान का मार्ग दिखाते हुए, स्वर्ग (काफी) हाथ में था या मुक्ति आ जाएगी। उनके द्वारा कौन सा विचार व्यक्त किया गया है?

386-387. (विचार) है: सूर्य और अग्नि के समान चमक में होने के कारण हम ऋषि कब होंगे? हम कब (माध्यम से) बड़बड़ाना (मंत्र) और पांच मोड (भक्ति के) से जुनूनी होंगे? क्‍योंकि इस प्रकार तपस्‍या करनेवाले और मृत्‍यु पाकर उन धर्मियोंके सिर पत्‍थर से तोड़ दिए जाते हैं।

388. हम एक एकान्त वन में कब निवास करेंगे? (कब) शांत आम आदमी चुपके से हमारे कानों में बड़बड़ाएगा:

389-391। 'हे ऋषि, मत जाओ, क्योंकि तुम मुक्ति के मार्ग पर एक यात्री हो। आपने जिन स्थानों को सुरक्षित किया है, वे आगे की गतिविधि (और) का कारण बनते हैं, इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए- हमारे ये शब्द सत्य हैं। हमारी तपस्या और विभिन्न संयमों के माध्यम से सबसे अच्छे स्थान पर और मुक्ति के उस मार्ग के साथ जाते हैं, जो ज्ञानियों को तपस्या से संपन्न होकर भक्ति के माध्यम से प्राप्त होता है।

392. वह तपस्या कहलाती है जहां सभी प्राणियों के प्रति इंद्रियों का संयम और करुणा है; बाकी सब मजाक है'।

393. यह जानकर आपको उच्चतम पद प्राप्त करना चाहिए और (प्राप्त करना चाहिए) वही स्थिति जो तीर्थंकरों और तपस्वियों ने प्राप्त की है।

394. इस प्रकार (केवल) देवताओं, विद्याधरों और महान नागों ने पहले दिन-रात इच्छाओं का मनोरंजन किया (वह अवस्था प्राप्त की)।

395. यदि आपने सांसारिक जीवन के पाठ्यक्रम को समाप्त करने की इच्छा का मनोरंजन किया है तो (अपनी) पत्नियों को छोड़ दें जो स्वर्ग के मार्ग में बाधा हैं।

396. आप उस पीढ़ी के महिला अंग का आनंद कैसे लेते हैं जिसमें आपके पिता ने प्रवेश किया था (यानी सहवास था)? यह कैसे होता है कि प्राणी अपने समान मांस खाते हैं?

397. तब उन सभी भयानक राक्षसों ने गुरु से (ये) शब्द कहे: "हे महान, हमें (अपने) बच्चों को दीक्षा दे दो जो तुम्हारे सामने हैं!"

398. ऐसा करने के बाद उस समय के पुजारी ने कहा: "आपको कभी भी किसी अन्य देवता (अरहत के अलावा) को सलाम नहीं करना चाहिए।

399. जब आपको किसी स्थान पर खाने की आवश्यकता हो तो आपको भोजन को अपने हाथों की गुहा में रखकर खाना चाहिए और पानी को समान रूप से देखना चाहिए या अन्यथा (जो) बिना बालों और कीड़ों के और दूसरों की नज़र से दूषित नहीं होना चाहिए।

400. हे प्रभु, इस अभ्यास के अनुसार भोजन करना चाहिए। ऐसा करो। जो रिलीज के लिए फिट हैं और आपको साथ रहना चाहिए।"

401-402। हे राजकुमार, उन सर्वश्रेष्ठ राक्षसों को इस प्रकार संयम बताते हुए, गुरु स्वर्ग में गए, देवताओं के निवास और उन्हें वह सब बताया जो उन्होंने राक्षसों को करने के लिए बनाया था।

403-406। तब राक्षस नर्मदा के पास गए और उसके पास रहने लगे। वहाँ देवताओं के स्वामी प्रह्लाद को छोड़कर उन राक्षसों को देखकर प्रसन्न होकर (ये) शब्द रो नमुचि ने कहा : इन्हें देखकर- हिरण्यकश, यज्ञों और धार्मिक प्रथाओं के विनाशक और वेदों के सेंसर, इसलिए प्रघास भी दुष्ट कर्मों के राक्षस , और विघास , और मुचि , और बाणा और विरोचन , महिषाक्ष , बैककला , प्रकाश , चनक , इसी तरह चमकदार और बहुत क्रूर सुषेण , राक्षसों में सर्वश्रेष्ठ - और अन्य उन्होंने राक्षसों के प्रभुओं से कहा:

इंद्र ने कहा :
407-408। हे दैत्यों के स्वामी, आप पुराने दिनों में पैदा हुए थे; और तू ने स्वर्ग पर राज्य किया; यह कैसे हुआ कि अब आप वेदों को नष्ट करने, (नग्न) होने, एक घड़े को साफ करने और मोर को धारण करने के लिए इस व्रत का अभ्यास करने लगे हैं और यहीं रह गए हैं?

राक्षसों ने कहा :
409. हम अपने सभी दानवों को त्याग कर ऋषियों की इन प्रथाओं में बने हुए हैं।

410. हम सभी प्राणियों में धार्मिक प्रथाओं की वृद्धि के लिए कर्म कर रहे हैं। हे इंद्र, तीनों लोकों के राज्य का आनंद लो और (अब) प्रस्थान करो (यहाँ से)।

411. 'ठीक है' कहकर इंद्र फिर से स्वर्ग में चले गए। हे भीम, वे सभी (राक्षस) इस प्रकार देवताओं के पुजारी (बृहस्पति) द्वारा स्तब्ध थे।

412. नर्मदा नदी में जाकर सबसे अच्छे राक्षस (वहां) रुके थे। यह सब जानकर शुक्र ने उन्हें फिर सलाह दी।

413. तब उन्होंने फिर से तीनों लोकों को जीतने के दुष्ट विचार का मनोरंजन किया।

अध्याय 13 - अवतार के कर्म  अध्याय समाप्त
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अध्यायः १४

भीष्म उवाच
कथं त्रिपुरुषाज्जातो ह्यर्जुनः परवीरहा
कथं कर्णस्तु कानीनः सूतजः परिकीर्त्यते१।

वरं तयोः कथं भूतं निसर्गादेव तद्वद
बृहत्कौतूहलं मह्यं तद्भवान्वक्तुमर्हति२

पुलस्त्य उवाच
छिन्ने वक्त्रे पुरा ब्रह्मा क्रोधेन महता वृतः
ललाटे स्वेदमुत्पन्नं गृहीत्वा ताडयद्भुवि३

स्वेदतः कुंडली जज्ञे सधनुष्को महेषुधिः
सहस्रकवची वीरः किंकरोमीत्युवाच ह४

तमुवाच विरिंचस्तु दर्शयन्रुद्रमोजसा
हन्यतामेष दुर्बुद्धिर्जायते न यथा पुनः५

ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा धनुरुद्यम्य पृष्ठतः
संप्रतस्थे महेशस्य बाणहस्तोतिरौद्रदृक्६

दृष्ट्वा पुरुषमत्युग्रं भीतस्तस्य त्रिलोचनः
अपक्रांतस्ततो वेगाद्विष्णोराश्रममभ्यगात्७

त्राहित्राहीति मां विष्णो नरादस्माच्च शत्रुहन्
ब्रह्मणा निर्मितः पापो म्लेच्छरूपो भयंकरः८

यथा हन्यान्न मां क्रुद्धस्तथा कुरु जगत्पते
हुंकारध्वनिना विष्णुर्मोहयित्वा तु तं नरम्९

अदृश्यः सर्वभूतानां योगात्मा विश्वदृक्प्रभुः
तत्र प्राप्तं विरूपाक्षं सांत्वयामास केशवः१०

ततस्स प्रणतो भूमौ दृष्टो देवेन विष्णुना
विष्णुरुवाच
पौत्रो हि मे भवान्रुद्र कं ते कामं करोम्यहम्११

दृष्ट्वा नारायणं देवं भिक्षां देहीत्युवाच ह
कपालं दर्शयित्वाग्रे प्रज्वलंस्तेजसोत्कटम्१२

कपालपाणिं संप्रेक्ष्य रुद्रं विष्णुरचिन्तयत्
कोन्यो योग्यो भवेद्भिक्षुर्भिक्षादानस्य सांप्रतम्१३

योग्योऽयमिति संकल्प्य दक्षिणं भुजमर्पयत्
तद्बिभेदातितीक्ष्णेन शूलेन शशिशेखरः१४

प्रावर्तत ततो धारा शोणितस्य विभोर्भुजात्
जांबूनदरसाकारा वह्निज्वालेव निर्मिता१५

निपपात कपालांतश्शम्भुना सा प्रभिक्षिता
ऋज्वी वेगवती तीव्रा स्पृशंती त्वांबरं जवात्१६

पंचाशद्योजना दैर्घ्याद्विस्ताराद्दशयोजना
दिव्यवर्षसहस्रं सा समुवाह हरेर्भुजात्१७

इयंतं कालमीशोसौ भिक्षां जग्राह भिक्षुकः
दत्ता नारायणेनाथ कापाले पात्र उत्तमे१८

ततो नारायणः प्राह शंभुं परमिदं वचः
संपूर्णं वा न वा पात्रं ततो वै परमीश्वरः१९

सतोयांबुदनिर्घोषं श्रुत्वा वाक्यं हरेर्हरः
शशिसूर्याग्निनयनः शशिशेखरशोभितः२०

कपाले दृष्टिमावेश्य त्रिभिर्नेत्रैर्जनार्दनम्
अंगुल्या घटयन्प्राह कपालं परिपूरितम्२१

श्रुत्वा शिवस्य तां वाणीं विष्णुर्धारां समाहरत्
पश्तोऽथ हरेरीशः स्वांगुल्या रुधिरं तदा२२

दिव्यवर्षसहस्रं च दृष्टिपातैर्ममंथ सः
मथ्यमाने ततो रक्ते कलिलं बुद्बुदं क्रमात्२३

बभूव च ततः पश्चात्किरीटी सशरासनः
बद्धतूणीरयुगलो वृषस्कंधोङ्गुलित्रवान्२४

पुरुषो वह्निसंकाशः कपाले संप्रदृश्यते
तं दृष्ट्वा भगवान्विष्णुः प्राह रुद्रमिदं वचः२५

कपाले भव को वाऽयं प्रादुर्भूतोऽभवन्नरः
वचः श्रुत्वा हरेरीशस्तमुवाच विभो शृणु२६

नरो नामैष पुरुषः परमास्त्रविदां वरः
भवतोक्तो नर इति नरस्तस्माद्भविष्यति२७

नरनारायणौ चोभौ युगे ख्यातौ भविष्यतः
संग्रामे देवकार्येषु लोकानां परिपालने२८

एष नारायणसखो नरस्तस्माद्भविष्यति
अथासुरवधे साह्यं तव कर्ता महाद्युतिः२९

मुनिर्ज्ञानपरीक्षायां जेता लोके भविष्यति
तेजोधिकमिदं दिव्यं ब्रह्मणः पंचमं शिरः३०

तेजसो ब्रह्मणो दीप्ताद्भुजस्य तव शोणितात्
मम दृष्टि निपाताच्च त्रीणि तेजांसि यानि तु३१

तत्संयोगसमुत्पन्नः शत्रुं युद्धे विजेष्यति
अवध्या ये भविष्यंति दुर्जया अपि चापरे३२

शक्रस्य चामराणां च तेषामेष भयंकरः
एवमुक्त्वा स्थितः शंभुर्विस्मितश्च हरिस्तदा३३

कपालस्थः स तत्रैव तुष्टाव हरकेशवौ
शिरस्यंजलिमाधाय तदा वीर उदारधीः३४

किंकरोमीति तौ प्राह इत्युक्त्वा प्रणतः स्थितः
तमुवाच हरः श्रीमान्ब्रह्मणा स्वेन तेजसा३५

सृष्टो नरो धनुष्पाणिस्त्वमेनं तु निषूदय
इत्थमुक्त्वांजलिधरं स्तुवंतं शंकरो नरम्३६

तथैवांजलिसंबद्धं गृहीत्वा च करद्वयम्
उद्धृत्याथ कपालात्तं पुनर्वचनमब्रवीत्३७

स एष पुरुषो रौद्रो यो मया वेदितस्तव
विष्णुहुंकाररचितमोहनिद्रां प्रवेशितः३८

विबोधयैनं त्वरितमित्युक्त्वान्तर्दधे हरः
नारायणस्य प्रत्यक्षं नरेणानेन वै तदा३९

वामपादहतः सोपि समुत्तस्थौ महाबलः
ततो युद्धं समभवत्स्वेदरक्तजयोर्महत्४०

विस्फारितधनुः शब्दं नादिताशेषभूतलम्
कवचं स्वेदजस्यैकं रक्तजेन त्वपाकृतम्४१

एवं समेतयोर्युद्धे दिव्यं वर्षद्वयं तयोः
युध्यतोः समतीतं च स्वेदरक्तजयोर्नृप४२

रक्तजं द्विभुजं दृष्ट्वा स्वेदजं चैव संगतौ
विचिन्त्य वासुदेवोगाद्ब्रह्मणः सदनं परम्४३

ससंभ्रममुवाचेदं ब्रह्माणं मधुसूदनः
रक्तजेनाद्य भो ब्रह्मन्स्वेदजोयं निपातितः४४

श्रुत्वैतदाकुलो ब्रह्मा बभाषे मधुसूदनम्
हरे द्यजन्मनि नरो मदीयो जीवतादयम्४५

तथा तुष्टोऽब्रवीत्तं च विष्णुरेवं भविष्यति
गत्वा तयो रणमपि निवार्याऽऽह च तावुभौ४६

अन्यजन्मनि भविता कलिद्वापरयोर्मिथः
संधौ महारणे जाते तत्राहं योजयामि वां४७

विष्णुना तु समाहूय ग्रहेश्वरसुरेश्वरौ
उक्ताविमौ नरौ भद्रौ पालनीयौ ममाज्ञया४८

सहस्रांशो स्वेदजोयं स्वकीयोंऽशो धरातले
द्वापरांतेवतार्योयं देवानां कार्यसिद्धये४९
____________
यदूनां तु कुले भावी शूरोनाम महाबलः
तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि५० 1.14.50

उत्पत्स्यति महाभागा देवानां कार्यसिद्धये
दुर्वासास्तु वरं तस्यै मंत्रग्रामं प्रदास्यति५१

मंत्रेणानेन यं देवं भक्त्या आवाहयिष्यति
देवि तस्य प्रसादात्तु तव पुत्रो भविष्यति५२

सा च त्वामुदये दृष्ट्वा साभिलाषा रजस्वला
चिंताभिपन्ना तिष्ठंती भजितव्या विभावसो५३

तस्या गर्भे त्वयं भावी कानीनः कुंतिनंदनः
भविष्यति सुतो देवदेवकार्यार्थसिद्धये५४

तथेति चोक्त्वा प्रोवाच तेजोराशिर्दिवाकरः
पुत्रमुत्पादयिष्यामि कानीनं बलगर्वितम्५५

यस्य कर्णेति वै नाम लोकः सर्वो वदिष्यति
मत्प्रसादादस्य विष्णो विप्राणां भावितात्मनः५६

अदेयं नास्ति वै लोके वस्तु किंचिच्च केशव
एवं प्रभावं चैवैनं जनये वचनात्तव५७

एवमुक्त्वा सहस्रांशुर्देवं दानवघातिनम्
नारायणं महात्मानं तत्रैवांतर्दधे रविः५८

अदर्शनं गते देवे भास्करे वारितस्करे
वृद्धश्रवसमप्येवमुवाच प्रीतमानसः५९

सहस्रनेत्ररक्तोत्थो नरोऽयं मदनुग्रहात्
स्वांशभूतो द्वापरांते योक्तव्यो भूतले त्वया६०

यदा पांडुर्महाभागः पृथां भार्यामवाप्स्यति
माद्रीं चापि महाभाग तदारण्यं गमिष्यति६१

तस्याप्यरण्यसंस्थस्य मृगः शापं प्रदास्यति
तेन चोत्पन्नवैराग्यः शतशृगं गमिष्यति६२

पुत्रानभीप्सन्क्षेत्रोत्थान्भार्यां स प्रवदिष्यति
अनीप्संती तदा कुंती भर्त्तारं सा वदिष्यति६३

नाहं मर्त्यस्य वै राजन्पुत्रानिच्छे कथंचन
दैवतेभ्यः प्रसादाच्च पुत्रानिच्छे नराधिप६४

प्रार्थयंत्यै त्वया शक्र कुंत्यै देयो नरस्ततः
वचसा च मदीयेन एवं कुरु शचीपते६५

अथाब्रवीत्तदा विष्णुं देवेशो दुःखितो वचः
अस्मिन्मन्वंतरेऽतीते चतुर्विंशतिके युगे६६

अवतीर्य रघुकुले गृहे दशरथस्य च
रावणस्य वधार्थाय शांत्यर्थं च दिवौकसाम्६७

रामरूपेण भवता सीतार्थमटता वने
मत्पुत्रो हिंसितो देव सूर्यपुत्रहितार्थिना६८

वालिनाम प्लवंगेंद्रः सुग्रीवार्थे त्वया यतः
दुःखेनानेन तप्तोहं गृह्णामि न सुतं नरम्६९

अगृह्णमानं देवेंद्रं कारणांतरवादिनम्
हरिः प्रोचे शुनासीरं भुवो भारावतारणे७०

अवतारं करिष्यामि मर्त्यलोके त्वहं प्रभो
सूर्यपुत्रस्य नाशार्थं जयार्थमात्मजस्य ते७१

सारथ्यं च करिष्यामि नाशं कुरुकुलस्य च
ततो हृष्टोभवच्छक्रो विष्णुवाक्येन तेन ह७२

प्रतिगृह्य नरं हृष्टः सत्यं चास्तु वचस्तव
एवमुक्त्वा वरं देवः प्रेषयित्वाऽच्युतः स्वयम्७३

गत्वा तु पुंडरीकाक्षो ब्रह्माणं प्राह वै पुनः
त्वया सृष्टमिदं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्७४

आवां कार्यस्य करणे सहायौ च तव प्रभो
स्वयं कृत्वा पुनर्नाशं कर्तुं देव न बुध्यसे७५

कृतं जुगुप्सितं कर्म शंभुमेतं जिघांसता
त्वया च देवदेवस्य सृष्टः कोपेन वै पुमान्७६

शुद्ध्यर्थमस्य पापस्य प्रायश्चित्तं परं कुरु
गृह्णन्वह्नित्रयं देव अग्निहोत्रमुपाहर७७

पुण्यतीर्थे तथा देशे वने वापि पितामह
स्वपत्न्या सहितो यज्ञं कुरुष्वास्मत्परिग्रहात्७८

सर्वे देवास्तथादित्या रुद्राश्चापि जगत्पते
आदेशं ते करिष्यंति यतोस्माकं भवान्प्रभुः७९

एकोहि गार्हपत्योग्निर्दक्षिणाग्निर्द्वितीयकः
आहवनीयस्तृतीयस्तु त्रिकुंडेषु प्रकल्पय८०

वर्तुले त्वर्चयात्मानम्मामथो धनुराकृतौ
चतुःकोणे हरं देवं ऋग्यजुःसामनामभिः८१

अग्नीनुत्पाद्य तपसा परामृद्धिमवाप्य च
दिव्यं वर्षसहस्रं तु हुत्वाग्नीन्शमयिष्यसि८२

अग्निहोत्रात्परं नान्यत्पवित्रमिह पठ्यते
सुकृतेनाग्निहोत्रेण प्रशुद्ध्यंति भुवि द्विजाः८३

पंथानो देवलोकस्य ब्राह्मणैर्दशितास्त्वमी
एकोग्निः सर्वदा धार्यो गृहस्थेन द्विजन्मना८४

विनाग्निना द्विजेनेह गार्हस्थ्यन्न तु लभ्यते
भीष्म उवाच
योऽसौ कपालादुत्पन्नो नरो नाम धनुर्द्धरः८५

किमेष माधवाज्जात उताहो स्वेन कर्मणा
उत रुद्रेण जनितो ह्यथवा बुद्धिपूर्वकम्८६

ब्रह्मन्हिरण्यगर्भोऽयमंडजातश्चतुर्मुखः
अद्भुतं पञ्चमं तस्य वक्त्रं तत्कथमुत्थितम्८७

सत्वे रजो न दृश्येत न सत्वं रजसि क्वचित्
सत्वस्थो भगवान्ब्रह्मा कथमुद्रेकमादधात्८८

मूढात्मना नरो येन हंतुं हि प्रहितो हरं
पुलस्त्य उवाच
महेश्वरहरी चैतो द्वावेव सत्पथि स्थितौ८९

तयोरविदितं नास्ति सिद्धासिद्धं महात्मनोः
ब्रह्मणः पंचमं वक्त्रमूर्द्ध्वमासीन्महात्मनः९०

ततो ब्रह्माभवन्मूढो रजसा चोपबृंहितः
ततोऽयं तेजसा सृष्टिममन्यत मया कृता९१

मत्तोऽन्यो नास्ति वै देवो येन सृष्टिः प्रवर्तिता
सह देवाः सगंधर्वाः पशुपक्षिमृगाकुलाः९२

एवं मूढः स पंचास्यो विरिंचिरभवत्पुनः
प्राग्वक्त्रं मुखमेतस्य ऋग्वेदस्य प्रवर्तकम्९३

द्वितीयं वदनं तस्य यजुर्वेदप्रवर्तकम्
तृतीयं सामवेदस्य अथर्वार्थं चतुर्थकम्९४

सांगोपांगेतिहासांश्च सरहस्यान्ससंग्रहान्
वेदानधीते वक्त्रेण पंचमेनोर्द्ध्वचक्षुषा९५

तस्याऽसुरसुराः सर्वे वक्त्रस्याद्भुतवर्चसः
तेजसा न प्रकाशंते दीपाः सूर्योदये यथा९६

स्वपुरेष्वपि सोद्वेगा ह्यवर्तंत विचेतसः
न कंचिद्गणयेच्चान्यं तेजसा क्षिपते परान्९७

नाभिगंतु न च द्रष्टुं पुरस्तान्नोपसर्पितुम्
शेकुस्त्रस्ताः सुरास्सर्वे पद्मयोनिं महाप्रभुम्९८

अभिभूतमिवात्मानं मन्यमाना हतत्विषः
सर्वे ते मंत्रयामासुर्दैवता हितमात्मनः९९

गच्छामः शरणं शंभुं निस्तेजसोऽस्य तेजसा
देवा ऊचुः
नमस्तेसर्वसत्वेश महेश्वर नमोनमः१०० 1.14.100

जगद्योने परंब्रह्म भूतानां त्वं सनातनः
प्रतिष्ठा सर्वजगतां त्वं हेतुर्विष्णुना सह१०१

एवं संस्तूयमानोसौ देवर्षिपितृदानवैः
अंतर्हित उवाचेदं देवाः प्रार्थयतेप्सितम्१०२

देवा ऊचुः
प्रत्यक्षदर्शनं दत्वा देहि देव यथेप्सितम्
कृत्वा कारुण्यमस्माकं वरश्चापि प्रदीयताम्१०३

यदस्माकं महद्वीर्यं तेज ओजः पराक्रमः
तत्सर्वं ब्रह्मणा ग्रस्तं पंचमास्यस्य तेजसा१०४

विनेशुः सर्वतेजांसि त्वत्प्रसादात्पुनः प्रभो
जायते तु यथापूर्वं तथा कुरु महेश्वर१०५

ततः प्रसन्नवदनो देवैश्चापि नमस्कृतः
जगाम यत्र ब्रह्माऽसौ रजोहंकारमूढधीः१०६

स्तुवंतो देवदेवेशं परिवार्य समाविशन्
ब्रह्मा तमागतं रुद्रं न जज्ञे रजसावृतः१०७

सूर्यकोटिसहस्राणां तेजसा रंजयन्जगत्
तदादृश्यत विश्वात्मा विश्वसृग्विश्वभावनः१०८

सपितामहमासीनं सकलं देवमंडलम्
अभिगम्य ततो रुद्रो ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्१०९

अहोतितेजसा वक्त्रमधिकं देव राजते
एवमुक्त्वाट्टहासं तु मुमोच शशिशेखरः११०

वामांगुष्ठनखाग्रेण ब्रह्मणः पंचमं शिरः
चकर्त कदलीगर्भं नरः कररुहैरिव१११

विच्छिन्नं तु शिरः पश्चाद्भवहस्ते स्थितं तदा
ग्रहमंडलमध्यस्थो द्वितीय इव चंद्रमाः११२

करोत्क्षिप्तकपालेन ननर्त च महेश्वरः
शिखरस्थेन सूर्येण कैलास इव पर्वतः११३

छिन्ने वक्त्रे ततो देवा हृष्टास्तं वृषभध्वजम्
तुष्टुवुर्विविधैस्तोत्रैर्देवदेवं कपर्दिनम्११४

देवा ऊचुः
नमः कपालिने नित्यं महाकालस्य कालिने
ऐश्वर्यज्ञानयुक्ताय सर्वभागप्रदायिने११५

नमो हर्षविलासाय सर्वदेवमयाय च
कलौ संहारकर्ता त्वं महाकालः स्मृतो ह्यसि११६

भक्तानामार्तिनाशस्त्वं दुःखांतस्तेन चोच्यसे
शंकरोष्याशुभक्तानां तेन त्वं शंकरः स्मृतः११७

छिन्नं ब्रह्मशिरो यस्मात्त्वं कपालं बिभर्षि च
तेन देव कपाली त्वं स्तुतो ह्यद्य प्रसीद नः११८

एवं स्तुतः प्रसन्नात्मा देवान्प्रस्थाप्य शंकरः
स्वानि धिष्ण्यानि भगवांस्तत्रैवासीन्मुदान्वितः११९

विज्ञाय ब्रह्मणो भावं ततो वीरस्य जन्म च
शिरो नीरस्य वाक्यात्तु लोकानां कोपशांतये१२०

शिरस्यंजलिमाधाय तुष्टावाथ प्रणम्य तम्
तेजोनिधि परं ब्रह्म ज्ञातुमित्थं प्रजापतिम्१२१

निरुक्तसूक्तरहस्यैर्ऋग्यजुः सामभाषितैः
रुद्र उवाच
अप्रमेय नमस्तेस्तु परमस्य परात्मने१२२

अद्भुतानां प्रसूतिस्त्वं तेजसां निधिरक्षयः
विजयाद्विश्वभावस्त्वं सृष्टिकर्ता महाद्युते१२३

ऊर्द्ध्ववक्त्र नमस्तेस्तु सत्वात्मकधरात्मक
जलशायिन्जलोत्पन्न जलालय नमोस्तु ते१२४

जलजोत्फुल्लपत्राक्ष जय देव पितामह
त्वया ह्युत्पादितः पूर्वं सृष्ट्यर्थमहमीश्वर१२५

यज्ञाहुतिसदाहार यज्ञांगेश नमोऽस्तु ते
स्वर्णगर्भ पद्मगर्भ देवगर्भ प्रजापते१२६

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारः स्वधा त्वं पद्मसंभव
वचनेन तु देवानां शिरश्छिन्नं मया प्रभो१२७

ब्रह्महत्याभिभूतोस्मि मां त्वं पाहि जगत्पते
इत्युक्तो देवदेवेन ब्रह्मा वचनमब्रवीत्१२८

ब्रह्मोवाच
सखा नाराणो देवः स त्वां पूतं करिष्यति
कीर्तनीयस्त्वया धन्यः स मे पूज्यः स्वयं विभुः१२९

अनुध्यातोऽसि वै नूनं तेन देवेन विष्णुना
येन ते भक्तिरुत्पन्ना स्तोतुं मां मतिरुत्थिता१३०

शिरश्छेदात्कपाली त्वं सोमसिद्धांतकारकः
कोटीः शतं च विप्राणामुद्धर्तासि महाद्युते१३१

ब्रह्महत्याव्रतं कुर्या नान्यत्किंचन विद्यते
अभाष्याः पापिनः क्रूरा ब्रह्मघ्नाः पापकारिणः१३२

वैतानिका विकर्मस्था न ते भाष्याः कथंचन
तैस्तु दृष्टैस्तथा कार्यं भास्करस्यावलोकनम्१३३

अंगस्पर्शे कृते रुद्र सचैलो जलमाविशेत्
एवं शुद्धिमवाप्नोति पूर्वं दृष्टां मनीषिभिः१३४

स भवान्ब्रह्महन्तासि शुद्ध्यर्थं व्रतमाचर
चीर्णे व्रते पुनर्भूयः प्राप्स्यसि त्वं वरान्बहून्१३५

एवमुक्त्वा गतो ब्रह्मा रुद्रस्तन्नाभिजज्ञिवान्
अचिंतयत्तदाविष्णुं ध्यानगत्या ततः स्वयं१३६

लक्ष्मीसहायं वरदं देवदेवं सनातनम्
अष्टांगप्रणिपातेन देवदेवस्त्रिलोचनः१३७

तुष्टाव प्रणतो भूत्वा शंखचक्रगदाधरम्
रुद्र उवाच
परं पराणाममृतं पुराणं परात्परं विष्णुमनंतवीर्यं१३८

स्मरामि नित्यं पुरुषं वरेण्यं नारायणं निष्प्रतिमं पुराणम्
परात्परं पूर्वजमुग्रवेगं गंभीरगंभीरधियां प्रधानम्१३९

नतोस्मि देवं हरिमीशितारं परात्परं धामपरं च धाम
परापरं तत्परमं च धाम परापरेशं पुरुषं विशालम्१४०

नारायणं स्तौमि विशुद्धभावं परापरं सूक्ष्ममिदं ससर्ज
सदास्थितत्वात्पुरुषप्रधानं शांतं प्रधानं शरणं ममास्तु१४१

नारायणं वीतमलं पुराणं परात्परं विष्णुमपारपारम्
पुरातनं नीतिमतां प्रधानं धृतिक्षमाशांतिपरं क्षितीशम्१४२

शुभं सदा स्तौमि महानुभावं सहस्रमूर्द्धानमनेकपादम्
अनंतबाहुं शशिसूर्यनेत्रं क्षराक्षरं क्षीरसमुद्रनिद्रम्१४३

नारायणं स्तौमि परं परेशं परात्परं यत्त्रिदशैरगम्यम्
त्रिसर्गसंस्थं त्रिहुताशनेत्रं त्रितत्वलक्ष्यं त्रिलयं त्रिनेत्रम्१४४

नमामि नारायणमप्रमेयं कृते सितं द्वापरतश्च रक्तम्
कलौ च कृष्णं तमथो नमामि ससर्ज यो वक्त्रत एव विप्रान्१४५

भुजांतरात्क्षत्रमथोरुयुग्माद्विशः पदाग्राच्च तथैव शूद्रान्
नमामि तं विश्वतनुं पुराणं परात्परं पारगमप्रमेयम्१४६

सूक्ष्ममूर्त्तिं महामूर्त्तिं विद्यामूर्त्तिममूर्तिकम्
कवचं सर्वदेवानां नमस्ये वारिजेक्षणम्१४७

सहस्रशीर्षं देवेशं सहस्राक्षं महाभुजम्
जगत्संव्याप्य तिष्ठंतं नमस्ये परमेश्वरम्१४८

शरण्यं शरणं देवं विष्णुं जिष्णुं सनातनम्
नीलमेघप्रतीकाशं नमस्ये शार्ङ्गपाणिनम्१४९

शुद्धं सर्वगतं नित्यं व्योमरूपं सनातनम्
भावाभावविनिर्मुक्तं नमस्ये सर्वगं हरिम्१५० 1.14.150

न चात्र किंचित्पश्यामि व्यतिरिक्तं तवाच्युत
त्वन्मयं च प्रपश्यामि सर्वमेतच्चराचरम्१५१

एवं तु वदतस्तस्य रुद्रस्य परमेष्ठिनः
इतीरितेस्तेन सनातन स्वयं परात्परस्तस्य बभूव दर्शने१५२

रथांगपाणिर्गरुडासनो गिरिं विदीपयन्भास्करवत्समुत्थितः
वरं वृणीष्वेति सनातनोब्रवीद्वरस्तवाहं वरदः समागतः१५३

इतीरिते रुद्रवरो जगाद ममातिशुद्धिर्भविता सुरेश
न चास्य पापस्य हरं हि चान्यत्संदृश्यतेग्र्यं च ऋते भवं तम्१५४

ब्रह्महत्याभिभूतस्य तनुर्मे कृष्णतां गता
शवगंधश्च मे गात्रे लोहस्याभरणानि मे१५५

कथं मे न भवेदेवमेतद्रूपं जनार्दनम्
किं करोमि महादेव येन मे पूर्विका तनूः१५६

त्वत्प्रसादेन भविता तन्मे कथय चाच्युत
विष्णुरुवाच
ब्रह्मवध्या परा चोग्रा सर्वकष्टप्रदा परा१५७

मनसापि न कुर्वीत पापस्यास्य तु भावनाम्
भवता देववाक्येन निष्ठा चैषा निबोधिता१५८

इदानीं त्वं महाबाहो ब्रह्मणोक्तं समाचर
भस्मसर्वाणि गात्राणि त्रिकालं घर्षयेस्तनौ१५९

शिखायां कर्णयोश्चैव करे चास्थीनि धारय
एवं च कुर्वतो रुद्र कष्टं नैव भविष्यति१६०

संदिश्यैवं स भगवांस्ततोंऽतर्द्धानमीश्वरः
लक्ष्मीसहायो गतवान्रुद्रस्तं नाभिजज्ञिवान्१६१

कपालपाणिर्देवेशः पर्यटन्वसुधामिमाम्
हिमवंतं समैनाकं मेरुणा च सहैव तु१६२

कैलासं सकलं विंध्यं नीलं चैव महागिरिम्
कांचीं काशीं ताम्रलिप्तां मगधामाविलां तथा१६३

वत्सगुल्मं च गोकर्णं तथा चैवोत्तरान्कुरून्
भद्राश्वं केतुमालं च वर्षं हैरण्यकं तथा१६४

कामरूपं प्रभासं च महेंद्रं चैव पर्वतम्
ब्रह्महत्याभिभूतोसौ भ्रमंस्त्राणं न विंदति१६५

त्रपान्वितः कपालं तु पश्यन्हस्तगतं सदा
करौ विधुन्वन्बहुशो विक्षिप्तश्च मुहुर्मुहुः१६६

यदास्य धुन्वतो हस्तौ कपालं पतते न तु
तदास्य बुद्धिरुत्पन्ना व्रतं चैतत्करोम्यहम्१६७

मदीयेनैव मार्गेण द्विजा यास्यंति सर्वतः
ध्यात्वैवं सुचिरं देवो वसुधां विचचार ह१६८

पुष्करं तु समासाद्य प्रविष्टोऽरण्यमुत्तमम्
नानाद्रुमलताकीर्णं नानामृगरवाकुलम्१६९

द्रुमपुष्पभरामोद वासितं यत्सुवायुना
बुद्धिपूर्वमिव न्यस्तैः पुष्पैर्भूषितभूतलम्१७०

नानागधंरसैरन्यैः पक्वापक्वैः फलैस्तथा
विवेश तरुवृंदेन पुष्पामोदाभिनंदितः१७१

अत्राराधयतो भक्त्या ब्रह्मा दास्यति मे वरम्
ब्रह्मप्रसादात्संप्राप्तं पौष्करं ज्ञानमीप्सितम्१७२

पापघ्नं दुष्टशमनं पुष्टिश्रीबलवर्द्धनम्
एवं वै ध्यायतस्तस्य रुद्रस्यामिततेजसः१७३

आजगाम ततो ब्रह्मा भक्तिप्रीतोऽथ कंजजः
उवाच प्रणतं रुद्रमुत्थाप्य च पुनर्गुरुः१७४

दिव्यव्रतोपचारेण सोहमाराधितस्त्वया
भवता श्रद्धयात्यर्थं ममदर्शनकांक्षया१७५

व्रतस्था मां हि पश्यंति मनुष्या देवतास्तथा
तदिच्छया प्रयच्छामि वरं यत्प्रवरं वरम्१७६

सर्वकामप्रसिद्ध्यर्थं व्रतं यस्मान्निषेवितम्
मनोवाक्कायभावैश्च संतुष्टेनांतरात्मना१७७

कं ददामि च वै कामं वद भोस्ते यथेप्सितम्
रुद्र उवाच
एष एवाद्य भगवन्सुपर्याप्तो महा वरः१७८

यद्दृष्टोसि जगद्वंद्य जगत्कर्तर्नमोस्तुते
महता यज्ञसाध्येन बहुकालार्जितेन च१७९

प्राणव्ययकरेण त्वं तपसा देव दृश्यते
इदं कपालं देवेश न करात्पतितं विभो१८०

त्रपाकरा ऋषीणां च चर्यैषा कुत्सिता विभो
त्वत्प्रसादाद्व्रतं चेदं कृतं कापालिकं तु यत्१८१

सिद्धमेतत्प्रपन्नस्य महाव्रतमिहोच्यताम्
पुण्यप्रदेशे यस्मिंस्तु क्षिपामीदं वदस्व मे१८२

पूतो भवामि येनाहं मुनीनां भावितात्मनाम्
ब्रह्मोवाच
अविमुक्तं भगवतः स्थानमस्ति पुरातनम्१८३

कपालमोचनं तीर्थं तव तत्र भविष्यति
अहं च त्वं स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि भविष्यति१८४

दर्शने भवतस्तत्र महापातकिनोपि ये
तेपि भोगान्समश्नंति विशुद्धा भवने मम१८५

वरणापि असीचापि द्वे नद्यौ सुरवल्लभे
अंतराले तयोः क्षेत्रे वध्या न विशति क्वचित्१८६

तीर्थानां प्रवरं तीर्थं क्षेत्राणां प्रवरं तव
आदेहपतनाद्ये तु क्षेत्रं सेवंति मानवाः१८७

ते मृता हंसयानेन दिवं यांत्यकुतोभयाः
पंचक्रोशप्रमाणेन क्षेत्रं दत्तं मया तव१८८

क्षेत्रमध्याद्यदा गंगा गमिष्यति सरित्पतिम्
तदा सा महती पुण्या पुरी रुद्र भविष्यति१८९

पुण्या चोदङ्मुखी गंगा प्राची चापि सरस्वती
उदङ्मुखी योजने द्वे गच्छते जाह्नवी नदी१९०

तत्र वै विबुधाः सर्वे मया सह सवासवाः
आगता वासमेष्यंति कपालं तत्र मोचय१९१

तस्मिंस्तीर्थे तु ये गत्वा पिण्डदानेन वै पितॄन्
श्राद्धैस्तु प्रीणयिष्यंति तेषां लोकोऽक्षयो दिवि१९२

वाराणस्यां महातीर्थे नरः स्नातो विमुच्यते
सप्तजन्मकृतात्पापाद्गमनादेव मुच्यते१९३

तत्तीर्थं सर्वतीर्थानामुत्तमं परिकीर्तितम्
त्यजंति तत्र ये प्राणान्प्राणिनः प्रणतास्तव१९४

रुद्रत्वं ते समासाद्य मोदंते भवता सह
तत्रापि हि तु यद्दत्तं दानं रुद्र यतात्मना१९५

स्यान्महच्च फलं तस्य भविता भावितात्मनः
स्वांगस्फुटित संस्कारं तत्र कुर्वंति ये नराः१९६

ते रुद्रलोकमासाद्य मोदंते सुखिनः सदा
तत्र पूजा जपो होमः कृतो भवति देहिनां१९७

अनंतफलदः स्वर्गो रुद्रभक्तियुतात्मनः
तत्र दीपप्रदाने तु ज्ञानचक्षुर्भवेन्नरः१९८

अव्यंगं तरुणं सौम्यं रूपवंतं तु गोसुतम्
योङ्कयित्वा मोचयति स याति परमं पदम्१९९

पितृभिः सहितो मोक्षं गच्छते नात्र संशयः
अथ किं बहुनोक्तेन यत्तत्र क्रियते नरैः२०० 1.14.200

कर्मधर्मं समुद्दिश्य तदनंतफलं भवेत्
स्वर्गापवर्गयोर्हेतुस्तद्धि तीर्थम्मतं भुवि२०१

स्नानाज्जपात्तथा होमादनंतफलसाधनम्
गत्वा वाराणसीतीर्थं भक्त्या रुद्रपरायणाः२०२

ये तत्र पंचतां प्राप्ता भक्तास्ते नात्र संशयः
वसवः पितरो ज्ञेया रुद्राश्चैव पितामहाः२०३

प्रपितामहास्तथादित्या इत्येषा वैदिकी श्रुतिः
त्रिविधः पिंडदानाय विधिरुक्तो मयानघ२०४

मानुषैः पिंडादानं तु कार्यमत्रागतैस्सदा
पिंडदानं च तत्रैव स्वपुत्रैः कार्यमादरात्२०५

सुपुत्रास्ते पितॄणां तु भवंति सुखदायकाः
प्रोक्तं तीर्थं मया तुभ्यं दर्शनादपि मुक्तिदम्२०६

स्नात्वा तु सलिले तत्र मुच्यते जन्मबंधनात्
विमुक्तो ब्रह्महत्यायास्तत्र रुद्र यथासुखम्२०७

अविमुक्ते मया दत्ते तिष्ठ त्वं भार्यया सह
रुद्र उवाच
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तेष्वहं विष्णुना सह२०८

तिष्ठामि भवतोक्तेन वर एष वृतो मया
अहं देवो महादेव आराध्यो भवता सदा२०९

वरं दास्यामि ते चाहं संतुष्टेनांतरात्मना
विष्णोश्चाहं प्रदास्यामि वरांश्च मनसीप्सितान्२१०

सुराणां चैव सर्वेषां मुनीनां भवितात्मनाम्
अहं दाता अहं याच्यो नान्यो भाव्यः कथंचन२११

ब्रह्मोवाच
एवं करिष्येहं रुद्र यत्वयोक्तं वचः शुभम्
नारायणश्च ते वाक्यं कर्ता सर्वं न संशयः२१२

विसृज्यैवं तदा रुद्रं ब्रह्मा चांतरधीयत
वाराणस्यां महादेवो गत्वा तीर्थं न्यवेशयत्२१३

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे रुद्रस्य ब्रह्मवध्यानाशश्चतुर्दशोऽध्यायः१४
___________

हिन्दू धर्म पुराण
यह पृष्ठ रुद्र द्वारा ब्रह्मा के सिर को काटने का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 14 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थस्थलों ( यात्रा) का विवरण दिया गया है।

अध्याय 14 -रुद्र द्वारा ब्रह्मा का सिर काटना

भीष्म ने कहा :
1-2.मुझे बताओ कि कैसे वीर शत्रुओं के हत्यारे अर्जुन का जन्म त्रिपुरूष से हुआ था; फिर कैसे, अविवाहित स्त्री के पुत्र कर्ण को सारथी से उत्पन्न होने के रूप में जाना जाता है ; कैसे बढ़ी दोनों के बीच दुश्मनी मुझे बड़ी उत्सुकता है; तो कृपया मुझे वह बताओ।

पुलस्त्य ने कहा :
3-4.पूर्व में जब उनका चेहरा फटा हुआ था, ब्रह्मा ने बड़े क्रोध से अभिभूत होकर, उनके माथे पर उत्पन्न पसीने को उठाकर जमीन पर मारा; उस पसीने से एक वीर नायक, जिसके पास अंगूठियां, तीर और एक बड़ा धनुष और एक हजार शस्त्र हैं, पैदा हुआ और उसने कहा: "मैं क्या करूँ ?"

5. रुद्र की ओर इशारा करते हुए , ब्रह्मा ने उससे कहा: "इस दुष्ट को मार डालो ताकि वह फिर से पैदा न हो।"

6.ब्रह्मा की बात सुनकर और महेश के पीछे से धनुष उठाकर हाथ में बाण लिए और बहुत क्रोधित नेत्रों को लेकर (उसे मारने के लिए) शुरू कर दिया।

7-8. उस भयानक आदमी को देखकर रुद्र भयभीत होकर वहां से तेजी से चला गया और विष्णु के आश्रम में पहुंच गया। "हे विष्णु, शत्रुओं के हत्यारे, मुझे इस आदमी से बचाओ; म्लेच्छ रूप का यह भयानक पापी ब्रह्मा द्वारा बनाया गया है। हे जगत् के स्वामी, ऐसा कर्म करो कि वह क्रोधी मनुष्य मुझे न मार डाले।”

9-11. भगवान विष्णु, सभी प्राणियों के लिए अदृश्य (फिर भी स्वयं) सब कुछ देखकर और जादुई शक्तियों से युक्त होकर उस आदमी को बहकाया, विरुपाक्ष (यानी रुद्र) को छुपाया जो वहां आए थे। भगवान विष्णु ने उसे देखा जो (विष्णु के सामने) जमीन पर झुक गया था।

विष्णु ने उससे कहा :
हे रुद्र, तुम मेरे पोते हो, बताओ मुझे तुम्हारी कौन सी इच्छा पूरी करनी चाहिए?

12. भगवान विष्णु को देखकर और बहुत तेज चमकते हुए और उनकी (भीख) खोपड़ी की ओर इशारा करते हुए, उन्होंने कहा, "मुझे भीख दो"।

13.हाथ में खोपड़ी के साथ रुद्र को देखकर विष्णु ने सोचा: 'अब भिक्षा देने के लिए और कौन (आपके अलावा) उचित होगा?'


14.यह सोचकर कि 'यह ठीक है' उसने उसे अपना दाहिना हाथ दे दिया। शिव ने उसे अपने तेज त्रिशूल से काट दिया।

15. तब विभु की भुजा से आग की ज्वाला से निकले हुए सोने के समान लोहू की धारा बह निकली।

16. और वह खोपड़ी में से गिरा, और शम्भू ने उस से बिनती की; वह सीधा, मजबूत था और गति से आकाश को छूता था।

17. विष्णु की भुजा से यह एक हजार वर्ष तक बहती थी और पचपन योजन लंबी थी और इसका विस्तार दस योजन था।

18. भगवान, भिखारी ने इतनी (लंबी) अवधि के लिए भिक्षा प्राप्त की। यह नारायण द्वारा एक उत्कृष्ट (भीख) खोपड़ी में दिया गया था (अर्थात रखा गया )।

19. तब नारायण ने उस महान शंभु (अर्थात रुद्र) से ये शब्द कहे:

20-21. "घड़ा भरा है या नहीं?" तब महाप्रभु ने विष्णु के वचनों को सुनकर, जो बादलों की गड़गड़ाहट से मिलते-जुलते हैं, चन्द्रमा और सूर्य के समान नेत्र और सिर पर (अर्धचंद्राकार) चन्द्रमा धारण किए हुए, खोपड़ी पर (अपनी सभी) तीनों आँखों को स्थिर करते हुए, और उस पर पहुँचते हुए कहा जनार्दन : "खोपड़ी भर गई है।"

22-24. शिव के उन शब्दों को सुनकर, विष्णु ने धारा को वापस ले लिया। जब हरि देख रहे थे, तब भगवान (अर्थात रुद्र) ने उस रक्त को अपनी उंगली और अपनी दृष्टि से एक हजार दिव्य वर्षों तक मंथन (हलचल) किया। जब रक्त (इस प्रकार) मथना (हलचल) किया गया, तो यह धीरे-धीरे पहले एक द्रव्यमान बन गया, फिर एक बुलबुला और उसके बाद एक मुकुट वाला एक आदमी (उसके सिर पर), धनुष के साथ, बैल की तरह (यानी मजबूत) कंधे, उसकी पीठ पर दो तरकश बंधा हुआ है, एक उंगली-रक्षक के साथ, खोपड़ी में आग की तरह दिखाई दे रहा है।

25. उसे देखकर भगवान विष्णु ने रुद्र से ये शब्द कहे:

26-27. "हे भव , यह कौन है ( नर ) जो उछला है ?

खोपड़ी में ऊपर?" विष्णु के (इन) शब्दों को सुनकर, शिव ने उससे कहा: "हे भगवान, सुनो; यह नारा नाम का व्यक्ति है, जो महान मिसाइलों को (उपयोग) जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ है। आपने उसे नर कहा, तो वह (कहा जाएगा) नर।

28-30. नर और नारायण दोनों ही युग में और युद्धों में, देवताओं की मदद करने वाले कार्यों में और लोगों की सुरक्षा में प्रसिद्ध होंगे। इसलिए, यह नर नारायण का मित्र होगा । यह महान चमक राक्षसों को मारने में आपकी मदद करेगी; वह ज्ञान की परीक्षा लेने वाला संत और संसार में विजेता होगा। यह श्रेष्ठ चमक वाला ब्रह्मा का पांचवां सिर है।

31-33. ब्रह्मा की प्रज्वलित चमक और मेरे द्वारा डाली गई दृष्टि से उत्पन्न तीन चमकों के संयोजन से जन्मे, वह युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करेंगे। वह उन लोगों के लिए भयानक होगा जिन्हें इंद्र और (अन्य) देवताओं द्वारा नहीं मारा जा सकता है और उन अन्य लोगों के लिए भी जो इंद्र और (अन्य) देवताओं के लिए अजेय होंगे।

इतना कहकर शंभु फिर भी खड़ा हो गया और हरि भी आश्चर्य से खड़ा हो गया।

34-37. खोपड़ी में शेष (आदमी) ने शिव और विष्णु की प्रशंसा की। उदार दिमाग के नायक ने अपनी हथेलियों को एक साथ जोड़कर और उन्हें अपने सिर पर उठाकर उनसे कहा: "मुझे क्या करना चाहिए?" इतना कहकर वह उनके सामने झुके (अर्थात् विनम्र) रहे। गौरवशाली हारा ने उससे कहा: "ब्रह्मा ने अपने तेज से एक आदमी को अपने हाथ में धनुष के साथ बनाया है। तुम उसे मार डालो"। शंकर ने इस प्रकार बोलते हुए, उस व्यक्ति के दोनों हाथों को, जो उस तरह से संतोष में जुड़े हुए थे, पकड़े हुए, और उसकी स्तुति करने वाले व्यक्ति को खोपड़ी से उठाकर फिर से ये शब्द कहे:

38-39. “यह वही भयानक मनुष्य है जिसके विषय में मैं ने तुम से कहा, वह सो गया है। उसे जल्दी से जगा दो।" इतना कहकर हारा गायब हो गया। तब नारायण की उपस्थिति में, नर द्वारा बाएं पैर से मारा गया शक्तिशाली व्यक्ति उठ खड़ा हुआ।

40-41. फिर (ब्रह्मा के) पसीने और (विष्णु) के रक्त से पैदा हुए दोनों के बीच एक महान युद्ध हुआ, जिसमें विस्तारित धनुष की ध्वनि (सभी जगह) फैल गई और पूरी पृथ्वी ध्वनि (युद्ध की) से गूंज उठी।

(विष्णु के) रक्त (अर्थात् नर) से जन्म लेने वाले ने पसीने से जन्मे व्यक्ति का कवच उतार दिया।

42-43। हे राजा, कुछ दिव्य वर्ष बीत गए जब दोनों इस प्रकार युद्ध में मिले और लड़े। (विष्णु के) रक्त से पैदा हुए दो हाथ वाले और (ब्रह्मा के) पसीने से पैदा हुए को देखकर (एक दूसरे) विष्णु का सामना करने के बाद, विचार करने के बाद, ब्रह्मा के महान निवास में चले गए।

44-46. मधुसूदन (अर्थात् विष्णु) ने चेतावनी में, ब्रह्मा से ये शब्द बोले: "हे ब्राह्मण , जो (आपके) पसीने से पैदा हुआ था, उसे आज (मेरे) खून से पैदा हुआ था।"

यह सुनकर ब्रह्मा जो व्यथित हो गए, उन्होंने मधुसूदन से कहा:

"हे हरि, इस मेरे आदमी को (फिर से) इस अस्तित्व में रहने दो।"

विष्णु ने प्रसन्न होकर कहा: "ऐसा ही होगा।"

47. उनके युद्ध के मैदान में जाकर उन्हें भगाते हुए उन्होंने उन दोनों से कहा: " कलि और द्वापर युग के बीच की अवधि में, आपके अगले जन्म में (युद्ध) होगा; जब बड़ा युद्ध होगा तब मैं तुम दोनों को (लड़ाई के लिये) साथ लाऊंगा।”

48. विष्णु ने ग्रहों के स्वामी और देवताओं के स्वामी को बुलाकर उनसे कहा: "मेरी आज्ञा से इन दो अच्छे लोगों की रक्षा तुम्हारे द्वारा की जानी चाहिए।

49. हे सूर्य (हजार किरणों वाले), यह (ब्रह्मा के) पसीने से पैदा हुआ है, देवताओं की सफलता के लिए द्वापर (युग) के अंत में आपके हिस्से के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होना है।

50. यदुओं के परिवार में बहुत पराक्रमी श्रृंग का जन्म होगा ।

51. उसकी महिमामयी पुत्री पीठा , जो पृथ्वी पर अतुलनीय है, देवताओं की सफलता के लिए पैदा होगी; और दुर्वासा उसे एक वरदान और मंत्रों का एक समूह प्रदान करेंगे:

52. 'वह (अर्थात आप) जिस भी देवता का आह्वान करेंगे, उस देवता की कृपा से, हे आदरणीय महिला, आपको एक पुत्र की प्राप्ति होगी'।

53. हे सूर्य, वह अपने मासिक धर्म के दौरान तुम्हें उठते हुए देखेगी; जब वह (इस प्रकार) चिंता से पीड़ित हो तो आपको उसका आनंद लेना चाहिए।

54. देवताओं की सफलता के लिए उसके यानी कुंती के गर्भ में वह (गर्भवती और) एक अविवाहित महिला के पुत्र के रूप में पैदा होगा, हे प्रभु।

55. सूर्य, चमक का ढेर, "ठीक है" कह रहा है (आगे): "युवती पर मैं एक पुत्र उत्पन्न करूंगा जो अपनी शक्ति पर गर्व करेगा।

56. और सभी लोग उसे कर्ण के नाम से संबोधित करेंगे। हे विष्णु, संसार में मेरी कृपा के कारण उसके पास शुद्ध आत्मा का कुछ भी नहीं होगा, जो ब्राह्मणों को नहीं दिया जाएगा , हे केशव ।

57. तेरे निर्देश से मैं उसको ऐसा पराक्रम उत्पन्‍न करूंगा।'

58. इस प्रकार दानवों के संहारक महादेव नारायण को संबोधित करने के बाद, सूर्य वहीं गायब हो गया।

59. जब सूर्य देव, बादलों के डाकू, प्रकट हुए (विष्णु) ने अपने मन की प्रसन्नता से इंद्र से भी कहा:

60. “हे इंद्र, यह नारा (मेरे) रक्त से मेरी कृपा से उत्पन्न हुआ है और जो मेरा एक हिस्सा है, उसे द्वापर के अंत में पृथ्वी पर आपके द्वारा रखा जाना चाहिए ।

61. हे महानुभाव, जब पाण्डु पीठा को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करेगा और इसी तरह माद्री को भी वह वन में जाएगा।

62. जब वह जंगल में होगा तब हिरन उसे शाप देगा; उसके द्वारा उत्पन्न घृणा के साथ वह शटंग में जाएगा ।

63. अपनी पत्नी से (दूसरे से) पुत्र पैदा करने की इच्छा से वह उससे (ऐसा) कहेगा। तब कुंती अनिच्छुक (ऐसा करने के लिए) अपने पति (अर्थात पांडु) से कहेगी:

64. 'हे राजा, मैं नश्वर से पुत्रों की इच्छा बिल्कुल नहीं करता। हे राजा, मैं देवताओं से उनकी कृपा से पुत्रों की कामना करता हूं।'

65. हे शंकर, तो तुम्हें नर को कुन्ती के सामने प्रस्तुत करना चाहिए जो आपसे विनती करेगा। हे भगवान , मेरे निर्देश से ऐसा करो। ”

66-72. तब देवताओं के दुखी भगवान ने विष्णु से (ये) शब्द कहे: "जब मनु की यह अवधि बीत जाती है, तब चौबीसवें युग में आप रघु के परिवार में, दशरथ के घर में राम के रूप में अवतरित होते हैं (अर्थात जन्म लेते हुए) रावण को मारने के लिए और देवताओं को शांति देने के लिए, (जबकि) सीता के लिए जंगल में घूमते हुए , सूर्य के पुत्र की भलाई के लिए, (होगा) मेरे पुत्र, वालिन को मार डाला, बंदरों का मुखिया। इस दु:ख से त्रस्त होकर मैं उस पुत्र को स्वीकार नहीं करूंगा। नारा।" देवताओं के स्वामी इंद्र को, जिन्होंने नर को स्वीकार नहीं किया और कोई अन्य कारण बताते हुए, विष्णु ने पृथ्वी का बोझ उतारने के लिए कहा: "हे भगवान, मैं सूर्य के पुत्र को नष्ट करने के लिए नश्वर संसार में अवतार लूंगा और तुम्हारे लिए बेटे की सफलता। मैं भी (अर्जुन के) सारथी के रूप में कार्य करूंगा और कुरु -परिवार का विनाश करूंगा।"

73. तब विष्णु के इन शब्दों से नर को स्वीकार करने वाले शकर प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर उन्होंने (कहा) : “तेरी बातें सच हों।” स्वयं भगवान विष्णु, इस प्रकार वरदान देकर (इंद्र) भेजकर और ब्रह्मा के पास गए, कमल-नेत्र (अर्थात विष्णु) ने फिर उससे कहा:

74-85. "आपने चल और अचल तीनों लोकों का निर्माण किया है। हे प्रभु, हम दोनों आपकी (आपकी) नौकरी के निष्पादन में मदद करेंगे। हे प्रभु, आपको यह एहसास नहीं है कि आप (दुनिया को) खुद बनाकर इसे नष्ट कर रहे हैं। इस शंभू को मारने की इच्छा से, आपने निंदनीय कार्य किया है। भगवान (शिव) के लिए आपके क्रोध के कारण आपने मनुष्य को बनाया है। आपको इस पाप से मुक्त करने के लिए महान प्रायश्चित करें। हे भगवान, तीनों अग्नि को स्वीकार करते हुए , किसी पवित्र स्थान पर या किसी पवित्र क्षेत्र या जंगल में अग्नि को अर्पण करें । हे पितामह , अपनी पत्नी के साथ हमारे संरक्षण में यज्ञ करो । हे लोकों के स्वामी, सभी देवताओं, वैसे ही आदित्य और रुद्र भी आपकी आज्ञा का पालन करेंगे जैसे आप हमारे स्वामी हैं। एक है गढ़ापत्य:अग्नि, दूसरी है दक्षिणाग्नि और तीसरी है शवण्य । इन्हें तीन अग्नि-पोतों में बनाकर तैयार कर लें। अक्स, यजुस और सामनों के माध्यम से एक चक्र में, धनुष जैसी आकृति में मेरी और चतुर्भुज में भगवान हारा की पूजा करें । तपस्या द्वारा अग्नि उत्पन्न करके और महान समृद्धि प्राप्त करके, आप एक हजार दिव्य वर्षों के लिए हवन करने के बाद आग को बुझा देंगे। इस संसार में अग्नि को अर्पण करने से बढ़कर पवित्र कुछ भी नहीं कहा गया है। अग्नि को अर्पण करने से ब्राह्मणों को पृथ्वी पर शुद्ध किया जाता है।

इन्हें ब्राह्मणों द्वारा देवताओं की दुनिया की ओर ले जाने वाले मार्ग के रूप में इंगित किया गया है। ब्राह्मण गृहस्थ को सदैव अग्नि में रहना चाहिए । बिना अग्नि के ब्राह्मण को गृहस्थ का पद प्राप्त नहीं हो सकता।

भीष्म ने कहा :
86. नारा नाम का वह धनुर्धर, जो खोपड़ी से निकला, माधव से उत्पन्न हुआ था या अपने कर्मों के कारण? या वह जानबूझकर रुद्र द्वारा बनाया गया था?

87. हे ब्राह्मण, ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , एक अंडे से निकला। वह पाँचवाँ चेहरा कैसे आया?

88. रजस (एक लौकिक गुण-गतिविधि का कारण) कभी सत्व (अच्छाई का गुण) में नहीं देखा जाता है, न ही रजस में सत्त्व । सत्व में रहकर (हमेशा) ब्रह्मा के पास ( रजों की) अधिकता कैसे हुई , जिससे उसने अपने मन को बहलाकर हारा को मारने के लिए आदमी को भेजा?

पुलस्त्य ने कहा :
89. महेश्वर (अर्थात् शिव) और हरि ये दोनों अच्छे मार्ग पर बने रहे।

90. दो उदार लोगों के लिए, कुछ भी जो या तो अधूरा या पूरा नहीं है, अज्ञात है। महान ब्रह्मा का पाँचवाँ चेहरा सामने आया था।

91. तो, राजस के साथ बढ़ते हुए ब्रह्मा मोहित हो गए। उसने सोचा कि उसने अपनी चमक से सृष्टि (अर्थात संसार) की रचना की है।

92. 'मेरे अलावा कोई और देवता नहीं है, जिसने देवताओं, गंधर्वों , जानवरों, पक्षियों और हिरणों सहित सृष्टि को स्थापित किया है।'

93. और इस प्रकार पंचमुखी ब्रह्मा बहक गए। पूर्व की ओर मुख करके उनका मुख ऋग्वेद का प्रवर्तक था ।

94. उनके दूसरे चेहरे ने यजुर्वेद की स्थापना की । तीसरा सामवेद का प्रवर्तक था और चौथा अथर्ववेद का ।

95. पांचवें चेहरे को ऊपर की ओर देखते हुए वह अंगों (अर्थात वेदांग ) और उप-अंगों (अर्थात वेदांगों के पूरक कार्य ), इतिहास, गुप्त विज्ञान और संकलन (कानूनों) के साथ वेदों का अध्ययन करता है।

96. उस अद्भुत तेज के चेहरे की चमक से सभी राक्षसों और देवताओं ने सूर्योदय के समय दीपकों की तरह अपना तेज खो दिया।

97. घबराए हुए लोग अपके ही नगर में रह गए। एक ने न तो दूसरे की परवाह की और न ही अपनी ताकत से दूसरों को नाराज किया।

98. सभी भयभीत देवता उस महान भगवान ब्रह्मा के पास जाने या देखने या जाने में असमर्थ थे।

99. चमक में धुँधले वे अपने आप को पराक्रमी के रूप में मानते थे। वे सब अपनी भलाई के बारे में सोचते थे—देवताओं की भलाई।

100अ. 'हम, जिन्होंने अपने तेज से अपनी चमक खो दी है, शिव का सहारा लेंगे।'

देवताओं ने कहा :
100बी. आपको प्रणाम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, महादेव, हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं।

101. हे जगत् के स्रोत, हे सर्वोच्च ब्रह्म, तू नित्य है। आप, विष्णु के साथ, सभी संसारों के आधार और कारण हैं।

102. इस प्रकार देवताओं, ऋषियों, पूर्वजों और राक्षसों द्वारा स्तुति किए जाने पर, छिपे हुए, उन्होंने कहा: "हे देवताओं, अपनी इच्छित वस्तु मांगो।"

देवताओं ने कहा :
103. हे भगवान, व्यक्तिगत रूप से प्रकट होकर, हमें उतना ही दें जितना हम चाहते हैं। हम पर दया करो और हमें भी वरदान दो।

104. हमारे पास जो भी महान वीरता, तेज, शक्ति थी - वह सब जो ब्रह्मा ने अपने पांचवें चेहरे से ग्रहण किया है।

105. सभी चमक नष्ट हो गई हैं। हे महाप्रभु, ऐसा कर्म करो कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए।

106. तब शिव, अपने चेहरे से प्रसन्न और देवताओं द्वारा भी नमस्कार करते हुए, वहाँ गए जहाँ ब्रह्मा अपने राजस गुण के अभिमान से मोहित थे।

107. (देवता) देवताओं के स्वामी की स्तुति करते हुए और उसके चारों ओर उसके पास पहुंचे। रजस गुण (अर्थात् प्रबल) में आच्छादित ब्रह्मा ने रुद्र को नहीं पहचाना जो उसके पास आए थे।

108. उस समय सभी की आत्मा, ब्रह्मांड के निर्माता और हर चीज के प्रकाशक को करोड़ों सूर्यों की अपनी चमक (उस तरह) से दुनिया को खुश करने के लिए देखा गया था।

109. तब रुद्र, ब्रह्मा के पास, सर्वशक्तिमान, देवताओं के पूरे समूह के साथ (वहां) बैठे (कहा):

110. "हे भगवान, बड़ी चमक के साथ तुम्हारा चेहरा और चमक रहा है!" इतना कहकर शिव जोर से हंस पड़े।

111. जिस प्रकार मनुष्य ने केले के पेड़ के भीतरी भाग को अपने नाखूनों से काट दिया, उसी प्रकार शिव ने ब्रह्मा के पांचवें सिर को बाएं अंगूठे के नाखून से काट दिया।

112. वह सिर जो तब काट दिया गया था वह शिव के हाथ में रह गया, जैसे कोई अन्य चंद्रमा ग्रहों के बीच में रहता है।

113. महेश्वर ने अपने हाथ में सिर लेकर कैलास पर्वत की तरह नृत्य किया, जिसके शिखर पर सूर्य था।

114. जब सिर काट दिया गया, तो देवताओं ने प्रसन्न होकर, देवताओं के देवता वीरभध्वज कपार्डिन (यानी शिव) की प्रशंसा के विभिन्न भजनों के साथ प्रशंसा की।

देवताओं ने कहा :
115. खोपड़ी के धारक को, महान मृत्यु के नाश करने वाले को, जो वैभव और ज्ञान से संपन्न है और सभी भागों (भोग के) दाता है, को हमेशा के लिए सलाम।

116. उसे नमस्कार है जो आनंद की चमक है, और जो सभी देवताओं से भरा है। आप कलि (युग) में संहारक हैं, इसलिए आप महाकाल के रूप में जाने जाते हैं ।

117. आप (अपने) भक्तों के कष्टों को नष्ट करते हैं; आपको दुखांत कहा जाता है (अर्थात जो सभी दुखों का अंत करता है)। जैसे ही आप (अपने) भक्तों का कल्याण करते हैं, आप शंकर कहलाते हैं ।

118. हे भगवान, चूंकि आप (ब्रह्मा का) सिर जो कटे हुए हैं और खोपड़ी रखते हैं, इसलिए आप कपालिन हैं । हम पर कृपा करें जैसे आप हमारे द्वारा प्रशंसा करते हैं।

119. इस प्रकार स्तुति के बाद शंकर ने मन ही मन प्रसन्न होकर देवताओं को उनके निवास स्थान पर भेज दिया और वहीं आनन्द से भर गए।

120-121. ब्रह्मा के मन और वीर के जन्म को जानकर , शिव ने लोगों के शब्दों (अर्थात अनुरोध) पर सिर फेंक दिया, उनके सिर पर अपनी हथेलियाँ रख दीं और ब्रह्मा को प्रणाम करके उनके क्रोध को शांत करने और जानने के लिए उनकी प्रशंसा की। ब्रह्म, अभिव्यक्ति, भजन, रहस्य (मंत्र) और g ( वेद ), यजुर (वेद) और साम (वेद) के ग्रंथों के साथ चमक का सबसे बड़ा भंडार :

रुद्र ने कहा :
122-123. आपको नमस्कार, हे अनंत, और सर्वोच्च की सर्वोच्च आत्मा; आप अद्भुत चीजों के मूल हैं; आप वासनाओं के अटूट खजाने हैं। आपकी सफलता के कारण आप सभी की आत्मा हैं। आप सृष्टि के रचयिता हैं, हे महान तेजस्विनी।

124. तुझे नमस्कार, हे भलाई के स्वभाव, और पृथ्वी के रूप के एक मुख वाले, हे जल में पड़े हुए, जल से उत्पन्न, और जल में निवास करने वाले, तुझे नमस्कार।

125. हे जल से उत्पन्न हुए, जिसके नेत्रों के समान पत्तियाँ हैं; हे पोते, हे परमेश्वर, हे प्रभु, तेरी जय हो; तुमने मुझे सृष्टि के लिए पहले बनाया था।

126. हे बलि में हवन करनेवाले, हे बलि के अवयवोंके स्वामी, तुझे नमस्कार, हे सोने, कमल, देवताओं, हे प्राणियोंके स्वामी!

127. हे कमल से पैदा हुए, आप बलिदान हैं, वशंकार (विस्मयादिबोधक वान: एक देवता को अर्पण करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है) और स्वाधा (पितियों को अर्पित किया गया ) । हे प्रभु, मैंने देवताओं की दिशा में सिर काट दिया।

128. मैं एक ब्राह्मण की हत्या से अपमानित हूँ; हे जगत् के स्वामी, मेरी रक्षा करो।

इस प्रकार देवताओं के देवता द्वारा संबोधित, ब्रह्मा ने कहा (ये) शब्द:

ब्रह्मा ने कहा :
129. भगवान नारायण, (हमारे) मित्र, तुम्हें शुद्ध करेंगे । उस गुणी की महिमा करनी चाहिए। आत्म-शक्तिशाली मेरे लिए आदरणीय है।

130. वास्तव में आपको उस भगवान विष्णु ने सोचा था, इसलिए जैसे ही आप में भक्ति उत्पन्न हुई, और मेरी स्तुति करने की इच्छा आप में पैदा हुई।

131. सिर काटने के लिए आप कपाली हैं । आप सोम सिद्धांत के लेखक हैं । हे महान तेजोमय, आपने सौ करोड़ ब्राह्मणों को मुक्ति दिलाई है।

132. ब्राह्मण को मारने के लिए आपको व्रत (प्रायश्चित का) करना चाहिए; कोई दूसरा कोर्स नहीं है। ब्राह्मणों के पापी, क्रूर हत्यारे जो पापी हैं, उनसे बात नहीं की जानी चाहिए।

133. गलत कार्य करने वाले बलिकारों से कभी बात नहीं करनी चाहिए। यदि वे एक को देखते हैं, तो सूर्य को देखना चाहिए (पाप से मुक्त होने के लिए)।

134. हे रुद्र, यदि वे किसी के शरीर को छूते हैं, तो व्यक्ति को अपने वस्त्रों के साथ पानी में प्रवेश करना चाहिए। इस प्रकार व्यक्ति ने पवित्रता प्राप्त की जैसा कि पहले बुद्धिमानों द्वारा देखा गया था।

135. जैसे तुम हो, तुम एक ब्राह्मण के हत्यारे हो; पवित्रता (प्राप्त करने) के लिए एक व्रत का पालन करें। एक व्रत का पालन करने पर आपको कई वरदान प्राप्त होंगे।

136. ऐसा कहकर ब्रह्मा चले गए। रुद्र को यह समझ नहीं आया। फिर उन्होंने स्वयं विष्णु का ध्यान किया।

137. देवताओं के देवता त्रिलोकन (अर्थात रुद्र), शरीर के आठ अंगों के साथ झुककर, प्रणाम करते हुए, जमीन को छूते हुए, स्तुति (विष्णु), शाश्वत देवता, वरदान देने वाले, लक्ष्मी और धारक के साथ शंख, चक्र और गदा।

रुद्र ने कहा :
138-139. मैं मानसिक रूप से विष्णु नारायण को याद करता हूं जो निरंतर श्रृंखला के माध्यम से अमर हैं, जो बूढ़े हैं, जिनके पास अनंत शक्ति है, जो शाश्वत है, सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति है, अतुलनीय है, महानतम से बड़ा है, पहले जन्मा और बहुत शक्तिशाली है और है उनमें से प्रमुख जिनकी बुद्धि गूढ़ और गहन है।

140. मैं भगवान हरि, नियंत्रक, महानतम निवास, सर्वोच्च स्थान, उच्चतम और प्रतिष्ठित रिसॉर्ट, सर्वोच्च स्वामी और विशाल प्राणी को नमस्कार करता हूं।

141. (मैं) शुद्ध प्रकृति के नारायण की प्रशंसा करता हूं, (जिसने इस उच्च और निम्न और सूक्ष्म को बनाया है। (मैं उसकी स्तुति करता हूँ जो) सदैव उपस्थित (सर्वत्र) सर्वोच्च, शांत और प्रमुख व्यक्ति है। वह मेरी शरण हो।

142-143. मैं हमेशा विष्णु नारायण की स्तुति करता हूं, अशुद्धता से मुक्त, बूढ़ा, महान से बड़ा, जिसका कोई अंत नहीं है, प्राचीन, विवेकपूर्ण में प्रमुख, साहस, क्षमा और शांति के लिए दिया गया, पृथ्वी का स्वामी, शुभ, महान पराक्रम का एक हजार सिर और कई पैर और असंख्य हाथ वाले, चंद्रमा और सूर्य को अपनी आंखों के रूप में, मोबाइल और अचल की प्रकृति, समुद्र में लेटे हुए।

144.  (मैं) नारायण की प्रशंसा करता हूं, सर्वोच्च, सर्वोच्च भगवान, महानतम से बड़ा, जिसे देवताओं द्वारा (यहां तक) नहीं किया जा सकता है, तीन रचनाओं में रहने वाले, तीन सिद्धांतों वाले, तीन में लीन और तीन आंखों वाले।

145-146. मैं कृत (युग) में अथाह नारायण को, द्वापर (युग) में लाल और कलि (युग) में काले को नमन करता हूं ; मैं उनको प्रणाम करता हूँ जिन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों की रचना की। (जिसने सृष्टि की, उसे मैं प्रणाम करता हूँ) क्षत्रियों को उसकी भुजाओं से, (सृजित) वैश्यों को उसकी दोनों जाँघों से और शूद्रों को उसके पैरों की युक्तियों से। मैं उन्हें सलाम करता हूं कि ब्रह्मांड उनके शरीर के रूप में है, गहराई से सीखा और अनंत है।

147. मैं एक सूक्ष्म रूप के कमल-आंख (विष्णु) को नमस्कार करता हूं, एक महान रूप के, उनके रूप और निराकार (भी) और सभी देवताओं के कवच के रूप में सीखने वाले।

148. मैं एक हजार सिरों, हजार नेत्रों, विशाल भुजाओं वाले देवों (अर्थात् विष्णु) को सलाम करता हूं, वह महान देवता (संपूर्ण) संसार में व्याप्त होने के बाद शेष रह गए हैं।

149. मैं भगवान विष्णु, रक्षक, शरण, विजेता, प्राचीन एक को नमस्कार करता हूं, जो एक गहरे नीले बादल के समान है और उनके हाथ में शृंग धनुष है।

150. मैं सर्वव्यापक, शुद्ध, शाश्वत, प्राचीन हरि को, अस्तित्व और अअस्तित्व से मुक्त आकाश के रूप को नमन करता हूं।

151. हे अच्युत , मुझे यहाँ तुम्हारे सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। मैं यह सब मोबाइल और अचल (दुनिया) को आप से भरा हुआ देखता हूं।

152. जब वह परमेशिन (अर्थात् रुद्र) इस प्रकार बोल रहा था, तो वह, शाश्वत और सर्वोच्च व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रकट हुआ।

153. वह हाथ में चक्र और गरुण को अपने आसन के रूप में लेकर, एक पर्वत को रोशन करते हुए सूर्य की तरह उठे। प्राचीन ने कहा, "मैं, वर देने वाला, आया हूं। वरदान मांगो।"

154. इस प्रकार (विष्णु) की प्रशंसा करने के बाद सर्वश्रेष्ठ रुद्र ने कहा: "हे देवताओं के भगवान, मुझे अत्यंत शुद्ध होने दो। मुझे तुमसे बेहतर और कुछ नहीं दिखता जो इस पाप को दूर कर दे।

155. एक ब्राह्मण की हत्या से प्रताड़ित मेरा शरीर काला हो गया है। मेरे शरीर से मृत शरीर की दुर्गंध आ रही है और मेरे आभूषण लोहे के हैं।

156-157 ए. हे जनार्दन, (मुझे बताओ) मेरा रूप ऐसा कैसे नहीं रहेगा । मुझे बताओ, हे अच्युत, हे महान भगवान, मुझे क्या करना चाहिए कि मैं अपने पुराने शरीर को आपकी कृपा से प्राप्त करूं। ”

विष्णु ने कहा :
157बी. एक ब्राह्मण की हत्या बहुत क्रूर और अत्यधिक दर्दनाक है।

158. ऐसे पाप के बारे में मानसिक रूप से भी नहीं सोचना चाहिए। ऐसी भक्ति आपने देवताओं के वचनों के कारण व्यक्त की है।

159-160. हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, अब वही करो जो ब्रह्मा

आपको बताया है। अपने सभी अंगों को राख से मलें, (राख को रगड़ें) अपने शरीर पर तीन बार (दिन में) रगड़ें। हड्डियों को अपनी शिखा पर, अपने कानों और हाथों पर पहनें। ऐसा करने से हे रुद्र, तुम्हें कोई पीड़ा नहीं होगी।

161. इस प्रकार (रुद्र) को निर्देश देने के बाद, भगवान, लक्ष्मी के साथ, वहीं गायब हो गए। रुद्र को यह नहीं पता था।

162-165. अपने हाथ में खोपड़ी के साथ देवताओं का स्वामी और इस धरती पर घूमते हुए एक ब्राह्मण की हत्या से पीड़ित (और पहाड़) (पहाड़ों जैसे।) हिमालय , मेरु , कैलास, कला , विंध्य और महान पर्वत नीला के साथ मेनका , ( और स्थान जैसे) कांची , कां , ताम्रलिप्ता , मगध, एविला, इसलिए वत्सगुल्मा , गोकर्ण , उत्तरी कुरु, भद्राश्व , केतुमाला और हेराण्यक, कामरूप , प्रभास और पर्वत महेंद्र जैसे क्षेत्र भी।, शरण नहीं मिली (कहीं भी)।

166. हमेशा अपने हाथ में खोपड़ी देखकर, वह शर्म से दूर हो गया, उसने कई बार हाथ मिलाया और बार-बार विचलित हो गया।

167. जब (सम) हाथ मिलाने के बाद भी, खोपड़ी नहीं गिरी, तो उसके दिमाग में आया: 'मैं इस व्रत का पालन करूंगा।

168. ब्राह्मण हमेशा मेरे ही मार्ग पर चलेंगे'। बहुत देर तक यही सोचकर देवता पृथ्वी पर घूमते रहे।

169-171. पुष्कर में पहुँचकर , वह कई पेड़ों और लताओं से भरे हुए, और कई जानवरों की आवाज़ के साथ, सबसे अच्छे जंगल में प्रवेश किया, जो पेड़ों के प्रचुर फूलों की सुगंध से सुगंधित था, जिसकी भूमि को जानबूझकर फूलों से सजाया गया था ( जमीन पर), (जो भरा हुआ था) कई इत्र और रस और अन्य पके और कच्चे फल। वृक्षों के झुरमुट के फूलों की सुगन्ध पाकर वह उसमें प्रवेश कर गया।

172-173. 'ब्रह्मा मुझे एक वरदान देंगे जो उसे यहाँ प्रसन्न करेगा। ब्रह्मा की कृपा से मुझे इस पुष्कर (जंगल) के बारे में पता चला है, जो पापों को नष्ट करता है, बुराइयों को शांत करता है, और पोषण, समृद्धि और शक्ति को बढ़ाता है।'

174. जब वह अनंत चमक का रुद्र इस प्रकार सोच रहा था, कमल-जन्मे ब्रह्मा आए। प्रभु ने रूद्र को, जिसने झुक कर प्रणाम किया था, उठाकर उससे कहा:

175-177. "एक दिव्य मन्नत के पालन से, आपने मुझे देखने की तीव्र इच्छा के साथ, मुझे भक्ति के साथ प्रसन्न किया; क्योंकि व्रत में रहकर ही पुरुष देवताओं को देख सकते हैं। इसलिए मैं (आपकी) इच्छा के अनुसार एक उत्कृष्ट वरदान दूंगा। चूँकि आपने अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मानसिक, शारीरिक और वाणी से और मन की प्रसन्नता से यह व्रत किया है, इसलिए मुझे बताओ कि मुझे कौन सा वरदान चाहिए, जो मुझे देना चाहिए। ”

रुद्र ने कहा :
178-183ए. यह अपने आप में एक बहुत ही पर्याप्त वरदान है कि मैं आपको देख सकता था, हे आप (पूरे) विश्व के आदरणीय। हे जगत् के रचयिता, आपको मेरा नमस्कार। हे भगवान, आप एक लंबे समय तक किए गए एक महान बलिदान और (यहां तक) मृत्यु के कारण होने वाली तपस्या के माध्यम से देखे जाते हैं। हे सर्वशक्तिमान प्रभु, यह खोपड़ी मेरे हाथ से नहीं गिरी। जब से मैंने कापालिका के इस व्रत का पालन ​​किया (अर्थात् एक भटकते हुए ऋषि जो खोपड़ी को पकड़कर उसमें से खाते-पीते हैं) मेरे असर से ऋषियों को शर्म आती है और यह घृणित है। आपके साथ शरण लेने वाले मेरे द्वारा किया गया यह महान व्रत (प्रतिष्ठित) पूरा हो गया है। अब मुझे बताओ। कहो कि मैं इस (खोपड़ी) को किस शुभ क्षेत्र में फेंक दूं, जिससे मैं शुद्ध आत्माओं के संतों (आंखों में) शुद्ध हो जाऊं।

ब्रह्मा ने कहा :
183बी-184. अविमुक्त भगवान का (अर्थात् पवित्र) एक प्राचीन स्थान है; वहां आपको कपालमोचन (जिसे कहा जाएगा) खोपड़ी को गिराने का पवित्र स्थान मिलेगा । आप और मैं वहीं रहते हैं। तो विष्णु भी होंगे ।

185. वहाँ तुम्हें देखने से जो बड़े पापी हैं वे भी मेरे धाम में भोग पाएंगे।

186. दो नदियों के बीच, देवताओं को प्रिय, अर्थात। वाराणसी और असी, एक ऐसा क्षेत्र होगा जहां कभी कोई हत्या नहीं होगी ।

187-188. सबसे अच्छा पवित्र स्थान और तीर्थ (में) आपका (सम्मान) सबसे अच्छा स्थान होगा। वे लोग, जो अपने शरीर के पतन से पहले, इस पवित्र स्थान का सहारा लेते हैं, अमर होकर, और कहीं से कोई भय नहीं होने पर, ब्रह्म के मार्ग पर स्वर्ग में पहुंच जाते हैं। मैंने तुम्हें यह पवित्र स्थान पाँच क्रोस माप का दिया है ।

189. हे रुद्र, जब गंगा पवित्र स्थान से होकर नदियों के स्वामी (अर्थात् समुद्र) तक पहुंचेगी, तो वह एक महान पवित्र शहर होगा।

190. पवित्र गंगा का मुख उत्तर की ओर और सरस्वती पूर्व की ओर है। जाह्नवी नदी (गंगा) उत्तर की ओर दो योजन तक बहती है।

191. वहाँ मेरे साथ सभी देवता और इंद्र आ गए हैं या आएंगे। खोपड़ी वहीं छोड़ दो।

192. जो वहां जाकर अपने पूर्वजों को पीण और श्राद्ध देकर प्रसन्न करते हैं , वे स्वर्ग में एक शाश्वत क्षेत्र प्राप्त करते हैं।

193. वाराणसी के महान पवित्र स्थान पर स्नान करने वाला एक व्यक्ति रिहा हो गया। वहाँ जाकर ही वह सात जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।

194. कहा जाता है कि वह पवित्र स्थान सब पवित्र स्थानों में सर्वश्रेष्ठ है।

195-197. वे प्राणी, जो आपको प्रणाम करते हैं, वहीं मर जाते हैं, रुद्र (अर्थात आपकी स्थिति) प्राप्त करके, आपके साथ आनन्दित होते हैं। हे रुद्र, एक नियंत्रित मन वाला व्यक्ति वहां जो कुछ भी अर्पित करता है, वह उसे शुद्ध आत्मा का, एक महान फल देता है। जो पुरुष वहां अपने शरीर को नष्ट करने (अर्थात अपने जीवन को समाप्त करने) का संस्कार करते हैं, वे रुद्र की दुनिया में पहुंचते हैं और हमेशा खुश रहते हैं।

198. पूजा, मौन प्रार्थना, वहां किया गया बलिदान स्वर्ग की ओर ले जाता है, जिसका हृदय भक्ति से भरा होता है, उसे अनन्त फल देने वाला होता है। जो व्यक्ति दीपक चढ़ाता है, वह बौद्धिक दृष्टि वाला व्यक्ति होता है।

199-200। जो वहां से चला जाता है, उस पर निशान लगाकर, एक अपंग, युवा, सौम्य और अच्छे गुणों वाला बैल सर्वोच्च स्थान पर जाता है; इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह अपने पूर्वजों के साथ मोक्ष प्राप्त करता है। प्रोलिक्सिटी का क्या उपयोग है? यहाँ मनुष्य जो कुछ भी कर्म (प्राप्ति) धार्मिक योग्यता की दृष्टि से करता है, वह (उन्हें) एक शाश्वत फल देता है।

201. जो स्वर्ग और मोक्ष का कारण है, वह पृथ्वी पर पवित्र स्थान माना जाता है।

202. स्नान, प्रार्थना या यज्ञ (वहां किया गया) के माध्यम से यह ( तीर्थ ) एक चिरस्थायी फल का साधन बन जाता है।

203-204। वे भक्त, जो रुद्र में लीन हैं, जो पवित्र स्थान वाराणसी जाते हैं और वहीं मर जाते हैं, उन्हें वसु , पितृ, रुद्र और दादा-दादी और परदादा-पिता और आदित्य के रूप में माना जाना चाहिए - ऐसा वैदिक पाठ कहता है। हे पापरहित, मैंने पिण्डदान करने के त्रिविध संस्कार का वर्णन किया है।

205. यहां आने वाले पुरूषों को हमेशा पिंडदान करना चाहिए । उनके पुत्रों को भी सम्मानपूर्वक वहां पिंडदान करना चाहिए ।

206. ऐसे अच्छे पुत्र अपने पूर्वजों को खुशी देते हैं। मैंने आपको उस पवित्र स्थान के बारे में बताया है, जो उसके दर्शन मात्र से अंतिम मुक्ति देता है।

207. यहां स्नान करने से मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। रुद्र, मैंने तुम्हें यह पवित्र स्थान दिया है। अविमुक्ता। ब्राह्मण हत्याकांड (पाप) से मुक्त होकर वहां अपनी पत्नी के साथ रहते हैं।

रुद्र ने कहा :
208. मैं विष्णु के संग पृय्वी के पवित्र स्थानोंमें रहूंगा; यह वह वरदान है जिसे मैंने चुना है, जैसा आपने मुझे बताया (चुनने के लिए)।

209. मैं महान देवता हूं; आपको हमेशा मुझे प्रसन्न करना चाहिए।

210. मैं भी अपने मन की प्रसन्नता से तुम्हें एक वरदान दूंगा। और मैं विष्णु को भी उनके मन में उनके द्वारा वांछित वरदान दूंगा।

211. मैं सब देवताओं और पवित्र आत्माओं के ऋषियों को देने वाला हूं, और मैं से विनती करता हूं; और कोई नहीं।

ब्रह्मा ने कहा :
212. हे रुद्र, मैं आपकी शुभ आज्ञा का पालन करूंगा। नारायण भी, निस्संदेह आपकी सलाह का पालन करेंगे ।

213. इस प्रकार रुद्र को हटाकर ब्रह्मा वहीं विलीन हो गए। महादेव ने वाराणसी जाने के बाद, वहाँ डेरा डाला ।

श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे रुद्रस्य ब्रह्मवध्यानाशश्चतुर्दशोऽध्यायः१४
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/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/पद्मपुराणम्अध्यायः १५

पद्मपुराणम्
                  अध्यायः १५
                       
                     भीष्म उवाच

किं कृतं ब्रह्मणा ब्रह्मन्प्रेष्य वाराणसीपुरीम्
जनार्दनेन किं कर्म शंकरेण च यन्मुने१


कथं यज्ञः कृतस्तेन कस्मिंस्तीर्थे वदस्व मे
के सदस्या ऋत्विजश्च सर्वांस्तान्प्रब्रवीहि मे२


के देवास्तर्पितास्तेन एतन्मे कौतुकं महत्
पुलस्त्य उवाच
श्रीनिधानं पुरं मेरोः शिखरे रत्नचित्रितम्३


अनेकाश्चर्यनिलयंबहुपादपसंकुलम्
विचित्रधातुभिश्चित्रं स्वच्छस्फटिकनिर्मलम्४


लतावितानशोभाढ्यं शिखिशब्दविनादितम्
मृगेन्द्ररववित्रस्त गजयूथसमाकुलम्५


निर्झरांबुप्रपातोत्थ शीकरासारशीतलम्
वाताहततरुव्रात प्रसन्नापानचित्रितम्६


मृगनाभिवरामोद वासिताशेषकाननम्
लतागृहरतिश्रान्त सुप्तविद्याधराध्वगम्७


प्रगीतकिन्नरव्रात मधुरध्वनिनादितम्
तस्मिन्ननेकविन्यास शोभिताशेषभूमिकम्८


वैराजं नाम भवनं ब्रह्मणः परमेष्ठिनः
तत्र दिव्यांगनोद्गीत मधुरध्वनि नादिता९


पारिजाततरूत्पन्न मंजरीदाममालिनी
रत्नरश्मिसमूहोत्थ बहुवर्णविचित्रिता१०


विन्यस्तस्तंभकोटिस्तु निर्मलादर्शशोभिता
अप्सरोनृत्यविन्यास विलासोल्लासलासिता११


बह्वातोद्यसमुत्पन्नसमूहस्वननादिता
लयतालयुतानेक गीतवादित्र शोभिता१२


सभा कांतिमती नाम देवानां शर्मदायिका
ऋषिसंघसमायुक्ता मुनिवृंदनिषेविता१३


द्विजातिसामशब्देन नादिताऽऽनंददायिनी
तस्यां निविष्टो देवेशस्संध्यासक्तः पितामहः१४


ध्यायति स्म परं देवं येनेदं निर्मितं जगत्
ध्यायतो बुद्धिरुत्पन्ना कथं यज्ञं करोम्यहम्१५


कस्मिन्स्थाने मया यज्ञः कार्यः कुत्र धरातले
काशीप्रयागस्तुंगा च नैमिषं शृंखलं तथा१६


कांची भद्रा देविका च कुरुक्षेत्रं सरस्वती
प्रभासादीनि तीर्थानि पृथिव्यामिह मध्यतः१७


क्षेत्राणि पुण्यतीर्थानि संति यानीह सर्वशः
मदादेशाच्च रुद्रेण कृतान्यन्यानि भूतले१८


यथाहं सर्वदेवेषु आदिदेवो व्यवस्थितः
तथा चैकं परं तीर्थमादिभूतं करोम्यहम्१९


अहं यत्र समुत्पन्नः पद्मं तद्विष्णुनाभिजम्
पुष्करं प्रोच्यते तीर्थमृषिभिर्वेदपाठकैः२०


एवं चिंतयतस्तस्य ब्रह्मणस्तु प्रजापतेः
मतिरेषा समुत्पन्ना व्रजाम्येष धरातले२१


प्राक्स्थानं स समासाद्य प्रविष्टस्तद्वनोत्तमम्
नानाद्रुमलताकीर्णं नानापुष्पोपशोभितम्२२


नानापक्षिरवाकीर्णं नानामृगगणाकुलम्
द्रुमपुष्पभरामोदैर्वासयद्यत्सुरासुरान्२३


बुद्धिपूर्वमिव न्यस्तैः पुष्पैर्भूषितभूतलम्
नानागंधरसैः पक्वापक्वैश्च षडृतूद्भवैः२४


फलैः सुवर्णरूपाढ्यैर्घ्राणदृष्टिमनोहरैः
जीर्णं पत्रं तृणं यत्र शुष्ककाष्ठफलानि च२५


बहिः क्षिपति जातानि मारुतोनुग्रहादिव
नानापुष्पसमूहानां गंधमादाय मारुतः२६


शीतलो वाति खं भूमिं दिशो यत्राभिवासयन्
हरितस्निग्ध निश्छिद्रैरकीटकवनोत्कटैः२७


वृक्षैरनेकसंज्ञैर्यद्भूषितं शिखरान्वितैः
अरोगैर्दर्शनीयैश्च सुवृत्तैः कैश्चिदुज्ज्वलैः२८


कुटुंबमिव विप्राणामृत्विग्भिर्भाति सर्वतः
शोभंते धातुसंकाशैरंकुरैः प्रावृता द्रुमाः२९


कुलीनैरिव निश्छिद्रैः स्वगुणैः प्रावृता नराः
पवनाविद्धशिखरैः स्पृशंतीव परस्परम्३०


आजिघ्रंती वचाऽन्योन्यं पुष्पशाखावतंसकाः
नागवृक्षाः क्वचित्पुष्पैर्द्रुमवानीरकेसरैः३१


नयनैरिव शोभंते चंचलैः कृष्णतारकैः
पुष्पसंपन्नशिखराः कर्णिकारद्रुमाः क्वचित्३२


युग्मयुग्माद्विधा चेह शोभन्त इव दंपती
सुपुष्पप्रभवाटोपैस्सिंदुवार द्रुपंक्तयः३३


मूर्तिमत्य इवाभांति पूजिता वनदेवताः
क्वचित्क्वचित्कुंदलताः सपुष्पाभरणोज्वलाः३४


दिक्षु वृक्षेषु शोभंते बालचंद्रा इवोच्छ्रिताः
सर्जार्जुनाः क्वचिद्भान्ति वनोद्देशेषु पुष्पिताः३५


धौतकौशेयवासोभिः प्रावृताः पुरुषा इव
अतिमुक्तकवल्लीभिः पुष्पिताभिस्तथा द्रुमाः३६


उपगूढा विराजंते स्वनारीभिरिव प्रियाः
अपरस्परसंसक्तैः सालाशोकाश्च पल्लवैः३७


हस्तैर्हस्तान्स्पृशंतीव सुहृदश्चिरसंगताः
फलपुष्पभरानम्राः पनसाः सरलार्जुनाः३८


अन्योन्यमर्चयंतीव पुष्पैश्चैव फलैस्तथा
मारुतावेगसंश्लिष्टैः पादपास्सालबाहुभिः३९


अभ्याशमागतं लोकं प्रतिभावैरिवोत्थिताः
पुष्पाणामवरोधेन सुशोभार्थं निवेशिताः४०


वसंतमहमासाद्य पुरुषान्स्पर्द्धयंति हि
पुष्पशोभाभरनतैः शिखरैर्वायुकंपितैः४१


नृत्यंतीव नराः प्रीताः स्रगलंकृतशेखराः
शृंगाग्रपवनक्षिप्ताः पुष्पावलियुता द्रुमाः४२


सवल्लीकाः प्रनृत्यंति मानवा इव सप्रियाः
स्वपुष्पनतवल्लीभिः पादपाः क्वचिदावृताः४३


भांति तारागणैश्चित्रैः शरदीव नभस्तलम्
द्रुमाणामथवाग्रेषु पुष्पिता मालती लताः४४


शेखराइव शोभंते रचिता बुद्धिपूर्वकम्
हरिताः कांचनच्छायाः फलिताः पुष्पिता द्रुमाः४५


सौहृदं दर्शयंतीव नराः साधुसमागमे
पुष्पकिंजल्ककपिला गताः सर्वदिशासु च४६


कदंबपुष्पस्य जयं घोषयंतीव षट्पदाः
क्वचित्पुष्पासवक्षीबाः संपतंति ततस्ततः४७


पुंस्कोकिलगणावृक्ष गहनेष्विव सप्रियाः
शिरीषपुष्पसंकाशाः शुका मिथुनशः क्वचित्४८


कीर्तयंति गिरश्चित्राः पूजिता ब्राह्मणा यथा
सहचारिसुसंयुक्ता मयूराश्चित्रबर्हिणः४९


वनांतेष्वपि नृत्यंति शोभंत इव नर्त्तकाः
कूजंतःपक्षिसंघाता नानारुतविराविणः५० 1.15.50

कुर्वंति रमणीयं वै रमणीयतरं वनम्
नानामृगगणाकीर्णं नित्यं प्रमुदितांडजम्५१


तद्वनं नंदनसमं मनोदृष्टिविवर्द्धनम्
पद्मयोनिस्तु भगवांस्तथा रूपं वनोत्तमम्५२


ददर्शादर्शवद्दृष्ट्या सौम्ययापा पयन्निव
ता वृक्षपंक्तयः सर्वा दृष्ट्वा देवं तथागतम्५३


निवेद्य ब्रह्मणे भक्त्या मुमुचुः पुष्पसंपदः
पुष्पप्रतिग्रहं कृत्वा पादपानां पितामहः५४


वरं वृणीध्वं भद्रं वः पादपानित्युवाच सः
एवमुक्ता भगवता तरवो निरवग्रहाः५५


ऊचुः प्रांजलयः सर्वे नमस्कृत्वा विरिंचनम्
वरं ददासि चेद्देव प्रपन्नजनवत्सल५६


इहैव भगवन्नित्यं वने संनिहितो भव
एष नः परमः कामः पितामह नमोस्तु ते५७


त्वं चेद्वससि देवेश वनेस्मिन्विश्वभावन
सर्वात्मना प्रपन्नानां वांछतामुत्तमं वरम्५८


वरकोटिभिरन्याभिरलं नो दीयतां वरम्
सन्निधानेन तीर्थेभ्य इदं स्यात्प्रवरं महत्५९


ब्रह्मोवाच
उत्तमं सर्वक्षेत्राणां पुण्यमेतद्भविष्यति
नित्यं पुष्पफलोपेता नित्यसुस्थिरयौवनाः६०


कामगाः कामरूपाश्च कामरूपफलप्रदाः
कामसंदर्शनाः पुंसां तपःसिद्ध्युज्वला नृणाम्६१


श्रिया परमया युक्ता मत्प्रसादाद्भविष्यथ
एवं स वरदो ब्रह्मा अनुजग्राह पादपान्६२


स्थित्वा वर्ष सहस्रं तु पुष्करं प्रक्षिपद्भुवि
क्षितिर्निपतिता तेन व्यकंपत रसातलम्६३


विवशास्तत्यजुर्वेलां सागराः क्षुभितोर्मयः
शक्राशनि हतानीव व्याघ्र व्याला वृतानि च६४


शिखराण्यप्यशीर्यंत पर्वतानां सहस्रशः
देवसिद्धविमानानि गंधर्वनगराणि च६५


प्रचेलुर्बभ्रमुः पेतुर्विविशुश्च धरातलम्
कपोतमेघाः खात्पेतुः पुटसंघातदर्शिनः६६


ज्योतिर्गणांश्छादयंतो बभूवुस्तीव्र भास्कराः
महता तस्य शब्देन मूकांधबधिरीकृतम्६७


बभूव व्याकुलं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्
सुरासुराणां सर्वेषां शरीराणि मनांसि च६८


अवसेदुश्च किमिति किमित्येतन्न जज्ञिरे
धैर्यमालंब्य सर्वेऽथ ब्रह्माणं चाप्यलोकयन्६९


न च ते तमपश्यंत कुत्र ब्रह्मागतो ह्यभूत्
किमर्थं कंपिता भूमिर्निमित्तोत्पातदर्शनम्७०


तावद्विष्णुर्गतस्तत्र यत्र देवा व्यवस्थिताः
प्रणिपत्य इदं वाक्यमुक्तवंतो दिवौकसः७१


किमेतद्भगवन्ब्रूहि निमित्तोत्पातदर्शनम्
त्रैलोक्यं कंपितं येन संयुक्तं कालधर्मणा७२


जातकल्पावसानं तु भिन्नमर्यादसागरम्
चत्वारो दिग्गजाः किं तु बभूवुरचलाश्चलाः७३


समावृता धरा कस्मात्सप्तसागरवारिणा
उत्पत्तिर्नास्ति शब्दस्य भगवन्निः प्रयोजना७४


यादृशो वा स्मृतः शब्दो न भूतो न भविष्यति
त्रैलोक्यमाकुलं येन चक्रे रौद्रेण चोद्यता७५


शुभोऽशुभो वा शब्दोरेयं त्रैलोक्यस्य दिवौकसाम्
भगवन्यदि जानासि किमेतत्कथयस्व नः७६


एवमुक्तोऽब्रवीद्विष्णुः परमेणानुभावितः
मा भैष्ट मरुतः सर्वे शृणुध्वं चात्र कारणम्७७


निश्चयेनानुविज्ञाय वक्ष्याम्येष यथाविधम्
पद्महस्तो हि भगवान्ब्रह्मा लोकपितामहः७८


भूप्रदेशे पुण्यराशौ यज्ञं कर्तुं व्यवस्थितः
अवरोहे पर्वतानां वने चातीवशोभने७९


कमलं तस्य हस्तात्तु पतितं धरणीतले
तस्य शब्दो महानेष येन यूयं प्रकंपिताः८०


तत्रासौ तरुवृंदेन पुष्पामोदाभिनंदितः
अनुगृह्याथ भगवान्वनं तत्समृगांडजम्८१


जगतोऽनुग्रहार्थाय वासं तत्रान्वरोचयत्
पुष्करं नाम तत्तीर्थं क्षेत्रं वृषभमेव च८२


जनितं तद्भगवता लोकानां हितकारिणा
ब्रह्माणं तत्र वै गत्वा तोषयध्वं मया सह८३


आराध्यमानो भगवान्प्रदास्यति वरान्वरान्
इत्युक्त्वा भगवान्विष्णुः सह तैर्देवदानवैः८४


जगाम तद्वनोद्देशं यत्रास्ते स तु कंजजः
प्रहृष्टास्तुष्टमनसः कोकिलालापलापिताः८५


पुष्पोच्चयोज्ज्वलं शस्तं विविशुर्ब्रह्मणो वनम्
संप्राप्तं सर्वदेवैस्तु वनं नंदनसंमितम्८६


पद्मिनीमृगपुष्पाढ्यं सुदृढं शुशुभे तदा
प्रविश्याथ वनं देवाः सर्वपुष्पोपशोभितम्८७


इह देवोस्तीति देवा बभ्रमुश्च दिदृक्षवः
मृगयंतस्ततस्ते तु सर्वे देवाः सवासवाः८८


अद्भुतस्य वनस्यांतं न ते ददृशुराशुगाः
विचिन्वद्भिस्तदा देवं दैवैर्वायुर्विलोकितः८९


स तानुवाच ब्रह्माणं न द्रक्ष्यथ तपो विना
तदा खिन्ना विचिन्वंतस्तस्मिन्पर्वतरोधसि९०


दक्षिणे चोत्तरे चैव अंतराले पुनः पुनः
वायूक्तं हृदये कृत्वा वायुस्तानब्रवीत्पुनः९१


त्रिविधो दर्शनोपायो विरिंचेरस्य सर्वदा
श्रद्धा ज्ञानेन तपसा योगेन च निगद्यते९२


सकलं निष्कलं चैव देवं पश्यंति योगिनः
तपस्विनस्तु सकलं ज्ञानिनो निष्कलं परम्९३


समुत्पन्ने तु विज्ञाने मंदश्रद्धो न पश्यति
भक्त्या परमया क्षिप्रं ब्रह्म पश्यंति योगिनः९४


द्रष्टव्यो निर्विकारोऽसौ प्रधानपुरुषेश्वरः
कर्मणा मनसा वाचा नित्ययुक्ताः पितामहम्९५


तपश्चरत भद्रं वो ब्रह्माराधनतत्पराः
ब्राह्मीं दीक्षां प्रपन्नानां भक्तानां च द्विजन्मनाम्९६


सर्वकालं स जानाति दातव्यं दर्शनं मया
वायोस्तु वचनं श्रुत्वा हितमेतदवेत्य च९७


ब्रह्मेच्छाविष्टमतयो वाक्पतिं च ततोऽब्रुवन्
प्रज्ञानविबुधास्माकं ब्राह्मीं दीक्षां विधत्स्व नः९८


स दिदीक्षयिषुः क्षिप्रममरान्ब्रह्मदीक्षया
वेदोक्तेन विधानेन दीक्षयामास तान्गुरुः९९


विनीतवेषाः प्रणता अंतेवासित्वमाययुः
ब्रह्मप्रसादं संप्राप्ताः पौष्करं ज्ञानमीरितम्१०० 1.15.100


यज्ञं चकार विधिना धिषणोध्वर्युसत्तमः
पद्मं कृत्वा मृणालाढ्यं पद्मदीक्षाप्रयोगतः१०१


अनुजग्राह देवांस्तान्सुरेच्छा प्रेरितो मुनिः
तेभ्यो ददौ विवेकिभ्यः स वेदोक्तावधानवित्१०२


दीक्षां वै विस्मयं त्यक्त्वा बृहस्पतिरुदारधीः
एकमग्निं च संस्कृत्य महात्मा त्रिदिवौकसाम्१०३


प्रादादांगिरसस्तुष्टो जाप्यं वेदोदितं तु यत्
त्रिसुपर्णं त्रिमधु च पावमानीं च पावनीम्१०४


स हि जाप्यादिकं सर्वमशिक्षयदुदारधीः
आपो हिष्ठेति यत्स्नानं ब्राह्मं तत्परिपठ्यते१०५


पापघ्नं दुष्टशमनं पुष्टिश्रीबलवर्द्धनम्
सिद्धिदं कीर्तिदं चैव कलिकल्मषनाशनम्१०६


तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ब्राह्मस्नानं समाचरेत्
कुर्वंतो मौनिनो दांता दीक्षिताः क्षपितेंद्रियाः१०७


सर्वे कमंडलुयुता मुक्तकक्षाक्षमालिनः
दंडिनश्चीरवस्त्राश्च जटाभिरतिशोभिताः१०८


स्नानाचारासनरताः प्रयत्नध्यानधारिणः
मनो ब्रह्मणि संयोज्य नियताहारकांक्षिणः१०९


अतिष्ठन्दर्शनालापसंगध्यानविवर्जिताः
एवं व्रतधराः सर्वे त्रिकालं स्नानकारिणः११०


भक्त्या परमया युक्ता विधिना परमेण च
कालेन महता ध्यानाद्देवज्ञानमनोगताः१११


ब्रह्मध्यानाग्निनिर्दग्धा यदा शुद्धैकमानसाः
अविर्बभूव भगवान्सर्वेषां दृष्टिगोचरः११२


तेजसाप्यायितास्तस्य बभूवुर्भ्रांतचेतसः
ततोवलंब्य ते धैर्यमिष्टं देवं यथाविधि११३


षडंगवेदयोगेन हृष्टचित्तास्तु तत्पराः
शिरोगतैरंजलिभिः शिरोभिश्च महीं गताः११४


तुष्टुवुः सृष्टिकर्त्तारं स्थितिकर्तारमीश्वरम्
देवा ऊचुः
ब्रह्मणे ब्रह्मदेहाय ब्रह्मण्यायाऽजिताय च११५


नमस्कुर्मः सुनियताः क्रतुवेदप्रदायिने
लोकानुकंपिने देव सृष्टिरूपाय वै नमः११६


भक्तानुकंपिनेत्यर्थं वेदजाप्यस्तुताय च
बहुरूपस्वरूपाय रूपाणां शतधारिणे११७


सावित्रीपतये देव गायत्रीपतये नमः
पद्मासनाय पद्माय पद्मवक्त्राय ते नमः११८


वरदाय वरार्हाय कूर्माय च मृगाय च
जटामकुटयुक्ताय स्रुवस्रुचनिधारिणे११९


मृगांकमृगधर्माय धर्मनेत्राय ते नमः
विश्वनाम्नेऽथ विश्वाय विश्वेशाय नमोनमः१२०


धर्मनेत्रत्राणमस्मादधिकं कर्तुमर्हसि
वाङ्मनःकायभावैस्त्वां प्रपन्नास्स्मः पितामह१२१


एवं स्तुतस्तदा देवैर्ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः
प्रदास्यामि स्मृतो बाढममोघं दर्शनं हि वः१२२


ब्रुवंतु वांछितं पुत्राः प्रदास्यामि वरान्वरान्
एवमुक्ता भगवता देवा वचनमब्रुवन्१२३


एष एवाद्य भगवन्सुपर्याप्तो महान्वरः
जनितो नः सुशब्दोयं कमलं क्षिपता त्वया१२४


किमर्थं कंपिता भूमिर्लोकाश्चाकुलिताः कृताः
नैतन्निरर्थकं देव उच्यतामत्र कारणम्१२५


ब्रह्मोवाच
युष्मद्धितार्थमेतद्वै पद्मं विनिहितं मया
देवतानां च रक्षार्थं श्रूयतामत्र कारणम्१२६


असुरो वज्रनाभोऽयं बालजीवापहारकः
अवस्थितस्त्ववष्टभ्य रसातलतलाश्रयम्१२७


युष्मदागमनं ज्ञात्वा तपस्थान्निहितायुधान्
हंतुकामो दुराचारः सेंद्रानपि दिवौकसः१२८


घातः कमलपातेन मया तस्य विनिर्मितः
स राज्यैश्वर्यदर्पिष्टस्तेनासौ निहतो मया१२९


लोकेऽस्मिन्समये भक्ता ब्राह्मणा वेदपारगाः
मैव ते दुर्गतिं यांतु लभंतां सुगतिं पुनः१३०


देवानां दानवानां च मनुष्योरगरक्षसाम्
भूतग्रामस्य सर्वस्य समोस्मि त्रिदिवौकसः१३१


युष्मद्धितार्थं पापोऽसौ मया मंत्रेण घातितः
प्राप्तः पुण्यकृतान्लोकान्कमलस्यास्य दर्शनात्१३२


यन्मया पद्ममुक्तं तु तेनेदं पुष्करं भुवि
ख्यातं भविष्यते तीर्थं पावनं पुण्यदं महत्१३३


पृथिव्यां सर्वजंतूनां पुण्यदं परिपठ्यते
कृतो ह्यनुग्रहो देवा भक्तानां भक्तिमिच्छताम्१३४


वनेस्मिन्नित्यवासेन वृक्षैरभ्यर्थितेन च
महाकालो वनेऽत्रागादागतस्य ममानघाः१३५


तपस्यतां च भवतां महज्ज्ञानं प्रदर्शितम्
कुरुध्वं हृदये देवाः स्वार्थं चैव परार्थकम्१३६


भवद्भिर्दर्शनीयं तु नानारूपधरैर्भुवि
द्विषन्वै ज्ञानिनं विप्रं पापेनैवार्दितो नरः१३७


न विमुच्येत पापेन जन्मकोटिशतैरपि
वेदांगपारगं विप्रं न हन्यान्न च दूषयेत्१३८


एकस्मिन्निहते यस्मात्कोटिर्भवति घातिता
एकं वेदांतगं विप्रं भोजयेच्छ्रद्धयान्वितः१३९


तस्य भुक्ता भवेत्कोटिर्विप्राणां नात्र संशयः
यः पात्रपूरणीं भिक्षां यतीनां तु प्रयच्छति१४०


विमुक्तः सर्वपापेभ्यो नाऽसौ दुर्गतिमाप्नुयात्
यथाहं सर्वदेवानां ज्येष्ठः श्रेष्ठः पितामहः१४१


तथा ज्ञानी सदा पूज्यो निर्ममो निः परिग्रहः
संसारबंधमोक्षार्थं ब्रह्मगुप्तमिदं व्रतम्१४२


मया प्रणीतं विप्राणामपुनर्भवकारणम्
अग्निहोत्रमुपादाय यस्त्यजेदजितेंद्रियः१४३


रौरवं स प्रयात्याशु प्रणीतो यमकिंकरैः
लोकयात्रावितंडश्च क्षुद्रं कर्म करोति यः१४४

____________
स रागचित्तः शृंगारी नारीजन धनप्रियः
एकभोजी सुमिष्टाशी कृषिवाणिज्यसेवकः१४५


अवेदो वेदनिंदी च परभार्यां च सेवते
इत्यादिदोषदुष्टो यस्तस्य संभाषणादपि१४६


नरो नरकगामी स्याद्यश्च सद्व्रतदूषकः
असंतुष्टं भिन्नचित्तं दुर्मतिं पापकारिणम्१४७


न स्पृशेदंगसंगेन स्पृष्ट्वा स्नानेन शुद्ध्यति
एवमुक्त्वा स भगवान्ब्रह्मा तैरमरैः सह१४८


क्षेत्रं निवेशयामास यथावत्कथयामि ते
उत्तरे चंद्रनद्यास्तु प्राची यावत्सरस्वती१४९


पूर्वं तु नंदनात्कृत्स्नं यावत्कल्पं सपुष्करम्
वेदी ह्येषा कृता यज्ञे ब्रह्मणा लोककारिणा१५० 1.15.150


ज्येष्ठं तु प्रथमं ज्ञेयं तीर्थं त्रैलोक्यपावनम्
ख्यातं तद्ब्रह्मदैवत्यं मध्यमं वैष्णवं तथा१५१


कनिष्ठं रुद्रदैवत्यं ब्रह्मपूर्वमकारयत्
आद्यमेतत्परं क्षेत्रं गुह्यं वेदेषु पठ्यते१५२


अरण्यं पुष्कराख्यं तु ब्रह्मा सन्निहितः प्रभुः
अनुग्रहो भूमिभागे कृतो वै ब्रह्मणा स्वयम्१५३


अनुग्रहार्थं विप्राणां सर्वेषां भूमिचारिणाम्
सुवर्णवज्रपर्यंता वेदिकांका मही कृता१५४


विचित्रकुट्टिमारत्नैः कारिता सर्वशोभना
रमते तत्र भगवान्ब्रह्मा लोकपितामहः१५५


विष्णुरुद्रौ तथा देवौ वसवोप्पश्चिनावपि  ?
मरुतश्च महेंद्रेण रमंते च दिवौकसः१५६


एतत्ते तथ्यमाख्यातं लोकानुग्रहकारणम्
संहितानुक्रमेणात्र मंत्रैश्च विधिपूर्वकम्१५७


वेदान्पठंति ये विप्रा गुरुशुश्रूषणे रताः
वसंति ब्रह्मसामीप्ये सर्वे तेनानुभाविताः१५८


भीष्म उवाच
भगवन्केन विधिना अरण्ये पुष्करे नरैः
ब्रह्मलोकमभीप्सद्भिर्वस्तव्यं क्षेत्रवासिभिः१५९


किं मनुष्यैरुतस्त्रीभिरुत वर्णाश्रमान्वितैः
वसद्भिः किमनुष्ठेयमेतत्सर्वं ब्रवीहि मे१६०


पुलस्त्य उवाच
नरैः स्त्रीभिश्च वस्तव्यं वर्णाश्रमनिवासिभिः
स्वधर्माचारनिरतैर्दंभमोहविवर्जितैः१६१


कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्मभक्तैर्जितेंद्रियैः
अनसूयुभिरक्षुद्रैः सर्वभूतहिते रतैः१६२


भीष्म उवाच
किं कुर्वाणो नरः कर्म ब्रह्मभक्तस्त्विहोच्यते
कीदृशा ब्रह्मभक्ताश्च स्मृता नॄणां वदस्व मे१६३


पुलस्त्य उवाच
त्रिविधा भक्तिरुद्दिष्टा मनोवाक्कायसंभवा
लौकिकी वैदिकी चापि भवेदाध्यात्मिकी तथा१६४


ध्यानधारणया बुद्ध्या वेदार्थस्मरणे हि यत्
ब्रह्मप्रीतिकरी चैषा मानसी भक्तिरुच्यते१६५


मंत्रवेदनमस्कारैरग्निश्राद्धादिचिंतनैः
जाप्यैश्चावश्यकैश्चैव वाचिकी भक्तिरिष्यते१६६


व्रतोपवासनियतैश्चितेंद्रियनिरोधिभिः
भूषणैर्हेमरत्नाढ्यैस्तथा चांद्रायणादिभिः१६७


ब्रह्मकृच्छ्रोपवासैश्च तथाचान्यैः शुभव्रतैः
कायिकीभक्तिराख्याता त्रिविधा तु द्विजन्मनाम्१६८


गोघृतक्षीरदधिभिः रत्नदीपकुशोदकैः
गंधैर्माल्यैश्च विविधैर्धातुभिश्चोपपादितैः१६९


घृतगुग्गुलुधूपैश्च कृष्णागरुसुगंधिभिः
भूषणैर्हेमरत्नाढ्यैश्चित्राभिः स्रग्भिरेव च१७०


नृत्यवादित्रगीतैश्च सर्वरत्नोपहारकैः
भक्ष्यभोज्यान्नपानैश्च या पूजा क्रियते नरैः१७१


पितामहं समुद्दिश्य भक्तिस्सा लौकिकी मता
वेदमंत्रहविर्योगैर्भक्तिर्या वैदिकी मता१७२


दर्शे वा पौर्णमास्यां वा कर्तव्यमग्निहोत्रकम्
प्रशस्तं दक्षिणादानं पुरोडाशं चरुक्रिया१७३


इष्टिर्धृतिः सोमपानां यज्ञीयं कर्म सर्वशः
ऋग्यजुःसामजाप्यानि संहिताध्ययनानि च१७४


क्रियंते विधिमुद्दिश्य सा भक्तिर्वैदिकीष्यते
अग्नि भूम्यनिलाकाशांबुनिशाकरभास्करम्१७५


समुद्दिश्य कृतं कर्म तत्सर्वं ब्रह्मदैवतम्
आध्यात्मिकी तु द्विविधा ब्रह्मभक्तिः स्थिता नृप१७६


संख्याख्या योगजा चान्या विभागं तत्र मे शृणु
चतुर्विंशतितत्वानि प्रधानादीनि संख्यया१७७


अचेतनानि भोग्यानि पुरुषः पंचविंशकः
चेतनः पुरुषो भोक्ता न कर्ता तस्य कर्मणः१७८


आत्मा नित्योऽव्ययश्चैव अधिष्ठाता प्रयोजकः
अव्यक्तः पुरुषो नित्यः कारणं च पितामहः१७९


तत्वसर्गो भावसर्गो भूतसर्गश्च तत्त्वतः
संख्यया परिसंख्याय प्रधानं च गुणात्मकम्१८०


साधर्म्यमानमैश्वर्यं प्रधानं च विधर्मि च
कारणत्वं च ब्रह्मत्वं काम्यत्वमिदमुच्यते१८१


प्रयोज्यत्वं प्रधानस्य वैधर्म्यमिदमुच्यते
सर्वत्रकर्तृस्यद्ब्रह्मपुरुषस्याप्यकर्तृता१८२


चेतनत्वं प्रधाने च साधर्म्यमिदमुच्यते
तत्वांतरं च तत्वानां कर्मकारणमेव च१८३


प्रयोजनं च नैयोज्यमैश्वर्यं तत्वसंख्यया
संख्यास्तीत्युच्यते प्राज्ञैर्विनिश्चित्यार्थचिंतकैः१८४


इति तत्वस्य संभारं तत्वसंख्या च तत्वतः
ब्रह्मतत्वाधिकं चापि श्रुत्वा तत्वं विदुर्बुधाः१८५


सांख्यकृद्भक्तिरेषा च सद्भिराध्यात्मिकी कृता
योगजामपि भक्तानां शृणु भक्तिं पितामहे१८६


प्राणायामपरो नित्यं ध्यानवान्नियतेंद्रियः
भैक्ष्यभक्षी व्रती वापि सर्वप्रत्याहृतेंद्रियः१८७


धारणं हृदये कुर्याद्ध्यायमानः प्रजेश्वरम्
हृत्पद्मकर्णिकासीनं रक्तवक्त्रं सुलोचनम्१८८


परितो द्योतितमुखं ब्रह्मसूत्रकटीतटम्
चतुर्वक्त्रं चतुर्बाहुं वरदाभयहस्तकम्१८९


योगजा मानसी सिद्धिर्ब्रह्मभक्तिः परा स्मृता
य एवं भक्तिमान्देवे ब्रह्मभक्तः स उच्यते१९०


वृत्तिं च शृणु राजेंद्र या स्मृता क्षेत्रवासिनाम्
स्वयं देवेन विप्राणां विष्ण्वादीनां समागमे१९१


कथिता विस्तरात्पूर्वं सर्वेषां तत्र सन्निधौ
निर्ममा निरहंकारा निःसंगा निष्परिग्रहाः१९२


बंधुवर्गे च निःस्नेहास्समलोष्टाश्मकांचनाः
भूतानां कर्मभिर्नित्यैर्विविधैरभयप्रदाः१९३


प्राणायामपरा नित्यं परध्यानपरायणाः
याजिनः शुचयो नित्यं यतिधर्मपरायणाः१९४


सांख्ययोगविधिज्ञाश्च धर्मज्ञाश्छिन्नसंशयाः
यजंते विधिनानेन ये विप्राः क्षेत्रवासिनः१९५


अरण्ये पौष्करे तेषां मृतानां सत्फलं शृणु
व्रजंति ते सुदुष्प्रापं ब्रह्मसायुज्यमक्षयम्१९६


यत्प्राप्य न पुनर्जन्म लभन्ते मृत्युदायकम्
पुनरावर्तनं हित्वा ब्राह्मीविद्यां समास्थिताः१९७


पुनरावृत्तिरन्येषां प्रपंचाश्रमवासिनाम्
गार्हस्थ्यविधिमाश्रित्य षट्कर्मनिरतः सदा१९८


जुहोति विधिना सम्यङ्मंत्रैर्यज्ञे निमंत्रितः
अधिकं फलमाप्नोति सर्वदुःखविवर्जितः१९९


सर्वलोकेषु चाप्यस्य गतिर्न प्रतिहन्यते
दिव्येनैश्वर्ययोगेन स्वारूढः सपरिग्रहः२०० 1.15.200


बालसूर्यप्रकाशेन विमानेन सुवर्चसा
वृतः स्त्रीणां सहस्रैस्तु स्वंच्छदगमनालयः२०१


विचरत्यनिवार्येण सर्वलोकान्यदृच्छया
स्पृहणीयतमः पुंसां सर्वधर्मोत्तमो धनी२०२


स्वर्गच्युतः प्रजायेत कुले महति रूपवान्
धर्मज्ञो धर्मभक्तश्च सर्वविद्यार्थपारगः२०३


तथैव ब्रह्मचर्येण गुरुशुश्रूषणेन च
वेदाध्ययनसंयुक्तो भैक्ष्यवृतिर्जितेन्द्रियः२०४


नित्यं सत्यव्रते युक्तः स्वधर्मेष्वप्रमादवान्
सर्वकामसमृद्धेन सर्वकामावलंबिना२०५


सूर्येणेव द्वितीयेन विमानेनानिवारितः
गुह्यकानामब्रह्माख्य गणाः परमसंमताः२०६


अप्रमेयबलैश्वर्या देवदानवपूजिताः
तेषां स समता याति तुल्यैश्वर्यसमन्वितः२०७


देवदानवमर्त्येषु भवत्यनियतायुधः
वर्षकोटिसहस्राणि वर्षकोटिशतानि च२०८


एवमैश्वर्यसंयुक्तो विष्णुलोके महीयते
उषित्वाऽसौ विभूत्यैवं यदा प्रच्यवते पुनः२०९


विष्णुलोकात्स्वकृत्येन स्वर्गस्थानेषु जायते२१०


पुष्करारण्यमासाद्य ब्रह्मचर्याश्रमे स्थितः
अभ्यासेन तु वेदानां वसति म्रियतेपि वा२११


मृतोऽसौ याति दिव्येन विमानेन स्वतेजसा
पूर्णचंद्रप्रकाशेन शशिवत्प्रियदर्शनः२१२


रुद्रलोकं समासाद्य गुह्यकैः सह मोदते
ऐश्वर्यं महदाप्नोति सर्वस्य जगतः प्रभुः२१३


भुक्त्वा युगसहस्राणि रुद्रलोके महीयते
प्रच्युतस्तु पुनस्तस्माद्रुद्रलोकात्क्रमेण तु२१४


नित्यं प्रमुदितस्तत्र भुक्त्वा सुखमनामयम्
द्विजानां सदने दिव्ये कुले महति जायते२१५


मानुषेषु स धर्म्मात्मा सुरूपो वाक्पतिर्भवेत्
स्पृहणीयवपुः स्त्रीणाम्महाभोगपतिर्बली२१६


वानप्रस्थसमाचारी ग्राम्यौषधिविवर्जितः
सर्वलोकेषु चाप्यस्य गतिर्न प्रतिहन्यते२१७


शीर्णपर्णफलाहारः पुष्पमूलांबुभोजनः
कापोतेनाश्मकुट्टेन दंतोलूखलिकेन च२१८


वृत्युपायेन जीवेत चीरवल्कलवाससा
जटीत्रिषवणस्नायी त्यक्तदोषस्तु दंडवान्२१९


कृच्छ्रव्रतपरो यस्तु श्वपचो यदि वा परः
जलशायी पंचतपा वर्षास्वभ्रावगाहकः२२०


कीटकंटकपाषाणभूम्यां तु शयनं तथा
स्थानवीरासनरतः संविभागी दृढव्रतः२२१


अरण्यौषधिभोक्ता च सर्वभूताभयप्रदः
नित्यं धर्मार्जनरतो जितक्रोधो जितेंद्रियः२२२


ब्रह्मभक्तः क्षेत्रवासी पुष्करे वसते मुनिः
सर्वसंगपरित्यागी स्वारामो विगतस्पृहः२२३


यश्चात्र वसते भीष्म शृणु तस्यापि या गतिः
तरुणार्कप्रकाशेन वेदिकास्तंभशोभिना२२४


ब्रह्मभक्तो विमानेन याति कामप्रचारिणाम्
विराजमानो नभसि द्वितीय इव चंद्रमाः२२५


गीतवादित्रनृत्यज्ञैर्गंधर्वाप्सरसांगणैः
अप्सरोभिः समायुक्तो वर्षकोटिशतान्यसौ२२६


यस्य कस्यापि देवस्य लोकं यात्यनिवारितः
ब्रह्मणोऽनुग्रहेणैव तत्रतत्र विराजते२२७


ब्रह्मलोकाच्च्युतश्चापि विष्णुलोकं स गच्छति
विष्णुलोकात्परिभ्रष्टो रुद्रलोकं स गच्छति२२८


तस्मादपि च्युतः स्थानाद्द्वीपेषु स हि जायते
स्वर्गेषु च तथान्येषु भोगान्भुक्त्वा यथेप्सितान्२२९

______________
भुक्त्वैश्वर्यं ततस्तेषु पुनर्मर्त्येषु जायते
राजा वा राजपुत्रो वा जायते धनवान्सुखी२३०


सुरूपः सुभगः कांतः कीर्तिमान्भक्तिभावितः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वा क्षेत्रवासिनः२३१


स्वधर्मनिरता राजन्सुवृत्ताश्चिरजीविनः
सर्वात्मना ब्रह्मभक्ता भूतानुग्रहकारिणः२३२


पुष्करे तु महाक्षेत्रे ये वसंति मुमुक्षवः
मृतास्ते ब्रह्मभवनं विमानैर्यांति शोभनैः२३३


अप्सरोगणसंघुष्टैः कामगैः कामरूपिभिः
अथवा सर्वदीप्ताग्नौ स्वशरीरं जुहोति यः२३४


ब्रह्मध्यायी महासत्वस्स ब्रह्मभवनं व्रजेत्
ब्रह्मलोकोऽक्षयस्तस्य शाश्वतो विभवैः सह२३५


सर्वलोकोत्तमो रम्यो भवतीष्टार्थसाधकः
पुष्करे तु महापुण्ये प्राणान्ये सलिले त्यजन्२३६


तेषामप्यक्षयो भीष्म ब्रह्मलोको महात्मनाम्
साक्षात्पश्यंति ते देवं सर्वदुःखविनाशनम्२३७


सर्वामरयुतं देवं रुद्रविष्णुगणैर्युतम्
अनाशके मृताश्शूद्राः पुष्करे तु वने नराः२३८


हंसयुक्तैस्ततो यांति विमानैरर्कसप्रभैः
नानाारत्नसुवर्णाढ्यैर्दृढैर्गंधाधिवासितैः२३९

अनौपम्यगुणैरन्यैरप्सरोगीतनादितैः
पताकाध्वजविन्यस्तैर्नानाघण्टानिनादितैः२४०


बह्वाश्चर्यसमोपेतैः क्रीडाविज्ञानशालिभिः
सुप्रभैर्गुणसंपन्नैर्मयूरवरवाहिभिः२४१


ब्रह्मलोके नरा धीरा रमंते नाशके मृताः
तत्रोषित्वा चिरं कालं भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान्२४२


धनी विप्नकुले भोगी जायते मर्त्यमागतः
कारीषीं साधयेद्यस्तु पुष्करे तु वने नरः२४३


सर्वलोकान्परित्यज्य ब्रह्मलोकं स गच्छति
ब्रह्मलोके वसेत्तावद्यावत्कल्पक्षयो भवेत्२४४


नैव पश्यति मर्त्यं हि क्लिश्यमानं स्वकर्मभिः
गतिस्तस्याऽप्रतिहता तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा२४५


स पूज्यः सर्वलोकेषु यशो विस्तारयन्वशी
सदाचारविधिप्रज्ञः सर्वेन्द्रिय मनोहरः२४६


नृत्यवादित्रगीतज्ञः सुभगः प्रियदर्शनः
नित्यमम्लानकुसुमो दिव्याभरणभूषितः२४७


नीलोत्पलदलश्यामो नीलकुंचितमूर्द्धजः
अजघन्याः सुमध्याश्च सर्वसौभाग्यपूरिताः२४८


सर्वैश्वर्यगुणोपेता यौवनेनातिगर्विताः
स्त्रियः सेवंति तत्रस्थाः शयने रमयंति च२४९


वीणावेणुनिनादैश्च सुप्तः संप्रतिबुध्यते
महोत्सवसुखं भुंक्ते दुःप्राप्यमकृतात्मभिः२५० 1.15.250


प्रसादाद्देवदेवस्य ब्रह्मणः शुभकारिणः
भीष्म उवाच
आचाराः परमा धर्माः क्षेत्रधर्मपरायणाः२५१


स्वधर्माचारनिरता जितक्रोधा जितेंद्रियाः
ब्रह्मलोकं व्रजंतीति नैतच्चित्रं मतं मम२५२


असंशयं च गच्छंति लोकानन्यानपि द्विजाः
विना पद्मोपवासेन तथैव नियमेन च२५३


स्त्रियो म्लेछाश्च शूद्राश्च पक्षिणः पशवो मृगाः
मूका जडान्धबधिरास्तपो नियमवर्जिताः२५४


तेषां वद गतिं विप्र पुष्करे ये त्ववस्थिताः
पुलस्त्य उवाच
स्त्रियो म्लेच्छाश्च शूद्राश्च पशवः पक्षिणो मृगाः२५५


पुष्करे तु मृता भीष्म ब्रह्मलोकं व्रजंति ते
शरीरैर्दिव्यरूपैस्तु विमानै रविसप्रभैः२५६


दिव्यव्यूहसमायुक्तैः सुवर्णवरकेतनैः
सुवर्णवज्रसोपानमणिस्तंभविभूषितैः२५७


सर्वकामोपभोगाढ्यैः कामगैः कामरूपिभिः
नानारसाढ्यं गच्छंति स्त्रीसहस्रसमाकुलाः२५८


ब्रह्मलोकं महात्मानो लोकानन्यान्यथेप्सितान्
ब्रह्मलोकाच्च्युताश्चापि क्रमाद्द्वीपेषु यांति ते२५९


कुले महति विस्तीर्णे धनी भवति स द्विजः
तिर्यग्योनि गता ये तु सर्पकीटपिपीलिकाः२६०


स्थलजा जलजाश्चैव स्वेदांडोद्भिज्जरायुजाः
सकामा वाप्यकामा वा पुष्करे तु वने मृताः२६१


सूर्यप्रभविमानस्था ब्रह्मलोकं प्रयांति ते
कलौ युगे महाघोरे प्रजाः पापसमीरिताः२६२


नान्येनास्मिन्नुपायेन धर्मः स्वर्गश्च लभ्यते
वसंति पुष्करे ये तु ब्रह्मार्चनरता नराः२६३


कलौ युगे कृतार्थास्ते क्लिश्यंत्यन्ये निरर्थकाः
रात्रौ करोति यत्पापं नरः पंचभिरिंद्रियैः२६४


कर्मणा मनसा वाचा कामक्रोधवशानुगाः
प्रातः स जलमासाद्य पुष्करे तु पितामहम्२६५


अभिगम्य शुचिर्भूत्त्वा तस्मात्पापात्प्रमुच्यते
उदयेऽर्कस्य चारभ्य यावद्दर्शनमूर्ध्वगम्२६६


मानसाख्ये प्रसंचिंत्य ब्रह्मयोगे हरेदघम्
दृष्ट्वा विरिंचिं मध्याह्ने नरः पापात्प्रमुच्यते२६७


मध्याह्नास्तमयान्तं यदिंद्रियैः पापमाचरेत्
पितामहस्य संध्यायां दर्शनादेव मुच्यते२६८


शब्दादीन्विषयान्सर्वान्भुंजानोपि सकामतः
यः पुष्करे ब्रह्मभक्तो निवसेत्तपसि स्थितः२६९


पुष्करारण्यमध्यस्थो मिष्टान्नास्वादभोजनः
त्रिकालमपि भुंजानो वायुभक्षसमो मतः२७०


वसंति पुष्करे ये तु नराः सुकृतकर्मिणः
ते लभंते महाभोगान्क्षेत्रस्यास्य प्रभावतः२७१


यथा महोदधेस्तुल्यो न चान्योऽस्ति जलाशयः
तथा वै पुष्करस्यापि समं तीर्थं न विद्यते२७२


पुष्करारण्यसदृशं तीर्थं नास्त्यधिकं गुणैः
अथ तेऽन्यान्प्रवक्ष्यामि क्षेत्रे येऽस्मिन्व्यवस्थिताः२७३


विष्णुना सहिताः सर्व इंद्राद्याश्च दिवौकसः
गजवक्त्रः कुमारश्च रेवंतः सदिवाकरः२७४


शिवदूती तथा देवी कन्या क्षेमंकरी सदा
अलं तपोभिर्नियमैः सुक्रियार्चनकारिणाम्२७५


व्रतोपवासकर्माणि कृत्वान्यत्र महांत्यपि
ज्येष्ठे तु पुष्करारण्ये यस्तिष्ठति निरुद्यमः२७६


लभते सर्वकामित्वं योऽत्रैवास्ते द्विजः सदा
पितामहसमं याति स्थानं परममव्ययम्२७७


कृते द्वादशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तु
मासेन द्वापरे भीष्म अहोरात्रेण तत्कलौ२७८


फलं संप्राप्यते लोके क्षेत्रेस्मिंस्तीर्थवासिभिः
इत्येवं देवदेवेन पुरोक्तं ब्रह्मणा मम२७९


नातः परतरं किंचित्क्षेत्रमस्तीह भूतले
तस्मामात्सर्वप्रयत्नेनारण्यमेतत्समाश्रयेत्२८०

गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः
यथोक्तकारिणः सर्वे गच्छंति परमां गतिम्२८१


एकस्मिन्नाश्रमे धर्मं योऽनुतिष्ठेद्यथाविधि
अकामद्वेषसंयुक्तः स परत्र महीयते२८२


चतुष्पथाहि निःश्रेणी ब्रह्मणेह प्रतिष्ठिता
एतामाश्रित्य निश्रेणीं ब्रह्मलोके महीयते२८३


आयुषोऽपि चतुर्भागं ब्रह्मचार्यनसूयकः
गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद्धर्मार्थकोविदः२८४


कर्मातिरेकेण गुरोरध्येतव्यं बुभूषता
दक्षिणानां प्रदापी स्यादाहूतो गुरुमाश्रयेत्२८५


जघन्यशायी पूर्वं स्यादुत्थायी गुरुवेश्मनि
यच्च शिष्येण कर्त्तव्यं कार्यमासेवनादिकम्२८६


कृतमित्येव तत्सर्वं कृत्वा तिष्ठेत्तु पार्श्वतः
किंकरः सर्वकारी च सर्वकर्मसुकोविदः२८७


शुचिर्दक्षो गुणोपेतो ब्रूयादिष्टमथोत्तरम्
चक्षुषा गुरुमव्यग्रो निरीक्षेत जितेंद्रियः२८८


नाऽभुक्तवति चाश्नीयादपीतवति नो पिबेत्
न तिष्ठति तथासीत न सुप्तेनैव संविशेत्२८९


उत्तानाभ्यां च पाणिभ्यां पादावस्य मृदु स्पृशेत्
दक्षिणं दक्षिणेनैव सव्यं सव्येन पीडयेत्२९०


अभिवाद्य गुरुं ब्रूयादभिधां स्वां ब्रुवन्निति
इदं करिष्ये भगवन्निदं चापि मया कृतम्२९१


इति सर्वं च विज्ञाप्य निवेद्य गुरवे धनम्
कुर्यात्कृतं च तत्सर्वमाख्येयं गुरवे पुनः२९२


यांस्तु गंधान्रसान्वापि ब्रह्मचारी न सेवते
सेवेत तान्समावृत्य इति धर्मेषु निश्चयः२९३


ये केचिद्विस्तरेणोक्ता नियमा ब्रह्मचारिणः
तान्सर्वाननुगृह्णीयाद्भक्तश्शिष्यश्च वै गुरोः२९४


स एव गुरवे प्रीतिमुपकृत्य यथाबलम्
अग्राम्येष्वाश्रमेष्वेव शिष्यो वर्तेत कर्मणा२९५


वेदवेदौ तथा वेदान्वेदार्थांश्च तथा द्विजः
भिक्षाभुगप्यधःशायी समधीत्य गुरोर्मुखात्२९६


वेदव्रतोपयोगी च चतुर्थांशेन योगतः
गुरवे दक्षिणां दत्वा समावर्तेद्यथाविधि२९७


धर्मान्वितैर्युतो दारैरग्नीनावाह्य पूजयेत्
द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी समाचरेत्२९८


गृहस्थवृत्तयः पूर्वं चतस्रो मुनिभिः कृताः
कुसूलधान्या प्रथमा कुंभीधान्या द्वितीयका२९९


अश्वस्तनी तृतीयोक्ता कापोत्यथ चतुर्थिका
तासां परापरा श्रेष्ठा धर्मतो लोकजित्तमा३०० 1.15.300


षट्कर्मवर्त्तकस्त्वेकस्त्रिभिरन्यः प्रसर्पते
द्वाभ्यां चैव चतुर्थस्तु द्विजः स ब्रह्मणि स्थितः३०१


गृहमेधिव्रतादन्यन्महत्तीर्थं न चक्षते
नात्मार्थे पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत्पशुम्३०२


प्राणी वा यदि वाप्राणी संस्काराद्यज्ञमर्हति
न दिवा प्रस्वपेज्जातु न पूर्वापररात्रयोः३०३


न भुंजीतांतराकाले नानृतं तु वदेदिह
न चाप्यश्नन्वसेद्विप्रो गृहे कश्चिदपूजितः३०४


तथास्यातिथयः पूज्या हव्यकव्यवहाः स्मृताः
वेदविद्याव्रतस्नाता श्रोत्रिया वेदपारगाः३०५


स्वकर्मजीविनोदांताः क्रियावंतस्तपस्विनः
तेषां हव्यं च कव्यं चाप्यर्हणार्थं विधीयते३०६


नश्वरैस्संप्रयातस्य स्वधर्मापगतस्य च
अपविद्धाग्निहोत्रस्य गुरोर्वालीककारिणः३०७


असत्याभिनिवेशस्य नाधिकारोस्ति कर्मणोः
संविभागोत्र भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते३०८


तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना
विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं चामृतभोजनः३०९


अमृतं यज्ञशेषं स्याद्भोजनं हविषा समम्
संभुक्तशेषं योश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम्३१०


स्वदारनिरतो दांतो दक्षोत्यर्थं जितेंद्रियः
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यमातुलातिथिसंहतैः३११


वृद्धबालातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसंबंधि बांधवैः
मात्रा पित्रा च जामात्रा भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया३१२


दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्
एतान्विमुच्य संवादान्सर्वपापैः प्रमुच्यते३१३


एतैर्जितैस्तु जयति सर्वलोकान्न संशयः
आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्य प्रभुः पिता३१४


अतिथिः सर्वलोकेश ऋत्विग्वेदाश्रयः प्रभुः
जामाताप्सरसांलोके ज्ञातयो वैश्वदेविकाः३१५


संबंधि बांधवा दिक्षु पृथिव्यां मातृमातुलौ
वृद्धबालातुराश्चैव आकाशे प्रभविष्णवः३१६


पुरोधा ऋषिलोकेशः संश्रितास्साध्यलोकपाः
अश्विलोकपतिर्वैद्यो भ्राता तु वसुलोकपः३१७


चंद्रलोकेश्वरी भार्या दुहिताप्सरसां गृहे
भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्र स्वकातनुः३१८


कायस्था दासवर्गाश्च दुहिता कृपणं परम्
तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेन्नित्यमसंज्वरः३१९


गृहधर्मरतो विद्वान्धर्मनिष्ठो जितक्लमः
नारभेद्बहुकार्याणि धर्मवान्किंचिदारभेत्३२०


गृहस्थवृत्तयस्तिस्रस्तासां निश्रेयसं परं
परस्परं तथैवाहुश्चातुराश्रम्यमेव च३२१


ये चोक्तानि यमास्तेषां सर्वं कार्यं बुभूषुणा
कुंभधान्यैरुंच्छशिलैः कापोतीं वृत्तिमाश्रितैः३२२


यस्मिंश्चैते वसंत्यर्थास्तद्राष्ट्रमभिवर्धते
पूर्वापरान्दशपरान्पुनाति च पितामहान्३२३


गृहस्थवृत्तिमप्येतां वर्तयेद्यो गतव्यथः
स चक्रधरलोकानां समानाम्प्राप्नुयाद्गतिम्३२४


जितेंद्रियाणामथवा गतिरेषा विधीयते
स्वर्गलोको गृहस्थानां प्रतिष्ठा नियतात्मनां३२५


ब्रह्मणाभिहता श्रेणी ह्येषा यस्याः प्रमुच्यते
द्वितीयां क्रमशः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते३२६


तृतीयामपि वक्ष्यामि वानप्रस्थाश्रमं शृणु
गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः३२७


अपत्यस्यैव चापत्यं वनमेव तदाश्रयेत्
गृहस्थव्रतखिन्नानां वानप्रस्थाश्रमौकसां३२८


श्रूयतां भीष्म भद्रं ते सर्वलोकाश्रयात्मनां
दीक्षापूर्वं निवृत्तानां पुण्यदेशनिवासिनां३२९


प्रज्ञाबलयुजां पुंसां सत्यशौचक्षमावतां
तृतीयमायुषो भागं वानप्रस्थाश्रमे वसन्३३०


तानेवाग्नीन्परिचरेद्यजमानो दिवौकसः
नियतो नियताहारो विष्णुभक्तिप्रसक्तिमान्३३१


तदाग्निहोत्रमात्राणि यज्ञांगानि च सर्वशः
अकृष्टं वै व्रीहियवं नीवारं विघसानि च३३२


ग्रीष्मे हविष्यं प्रायच्छेत्स माघेष्वपि पंचसु
वानप्रस्थाश्रमेप्येताश्चतस्रो वृत्तयः स्मृताः३३३


सद्यः प्रभक्षकाः केचित्केचिन्मासिकसंचयान्
वार्षिकान्संचयान्केचित्केचिद्द्वादशवार्षिकान्३३४


कुर्वन्त्यतिथिपूजार्थं यज्ञतन्त्रार्थमेव च
अभ्रावकाशा वर्षासु हेमंते जलसंश्रयाः३३५


ग्रीष्मे पंचाग्नितपसः शरद्यमृतभोजनाः
भूमौ विपरिवर्तंते तिष्ठंति प्रपदैरपि३३६


स्थानासने च वर्तन्ते वसनेष्वपि संस्थिते
दंतोलूखलिनः केचिदश्मकुट्टास्तथा परे३३७


शुक्लपक्षे पिबन्त्येके यवागूं क्वथितां क्वचित्
कृष्णपक्षे पिबंत्येके भुंजते च यथागमम्३३८


मूलैरेके फलैरेके जलैरेके दृढव्रताः
वर्त्तयंति यथान्यायं वैखानस धृतव्रताः३३९


एताश्चान्याश्च विविधा दीक्षास्तेषां मनस्विनां
चतुर्थश्चौपनिषदो धर्मः साधारणो मतः३४०


वानप्रस्थो गृहस्थश्च सततोन्यः प्रवर्त्तते
तस्मिन्नेव युगे तात विप्रैः सर्वार्थदर्शिभिः३४१


अगस्त्यश्च सप्तर्षयो मधुच्छंदो गवेषणः
सांकृतिः सदिवो भांडिर्यवप्रोथो ह्यथर्वणः३४२


अहोवीर्यस्तथा काम्यः स्थाणुर्मेधातिथिर्बुधः
मनोवाकः शिनीवाकः शून्यपालो कृतव्रणः३४३


एते कर्मसु विद्वांसस्ततः स्वर्गमुपागमन्
एते प्रत्यक्षधर्माणस्तथा यायावरागणाः३४४


ऋषीणामुग्रतपसां धर्मनैपुण्यदर्शिनाम्
सुरेश्वरं समाराध्य ब्राह्मणा वनमाश्रिताः३४५


अपास्योपरता मायां ब्राह्मणा वनमाश्रिताः
अनक्षत्रास्तथा धृष्या दृश्यन्ते प्रोषिता गणाः३४६


जरया तु परिद्यूना व्याधिना परिपीडिताः
चतुर्थं त्वाश्रमं शेषं वानप्रस्थाश्रमाद्ययुः३४७


सद्यस्कारी सुनिर्वाप्य सर्ववेदसदक्षिणाम्
आत्मयाजी सौम्यमतिरात्मक्रीडात्मसंश्रयः३४८


आत्मन्यग्निं समाधाय त्यक्त्वासर्वपरिग्रहम्
सद्यस्कश्च यजेद्यज्ञानिष्टिं चैवेह सर्वदा३४९


सदैव याजिनां यज्ञानात्मनीज्या प्रवर्त्तते
त्रीनेवाग्नींस्त्यजेत्सम्यगात्मन्येवात्मना क्षणात्३५० 1.15.350


प्राप्नुयाद्येन वा यच्च तत्प्राश्नीयादकुत्सयन्
केशलोमनखान्न्यस्येद्वानप्रस्थाश्रमे रतः३५१


आश्रमादाश्रमं सद्यः पूतो गच्छति कर्मभिः
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो दत्वा प्रव्रजेद्द्विजः३५२


लोकास्तेजोमयास्तस्य प्रेत्य चानंत्यमश्नुते
सुशीलवृत्तो व्यपनीतकल्मषो न चेह नामुत्र चरन्तुमीहते३५३


अरोषमोहो गतसंधिविग्रहः स चेदुदासीनवदात्मचिंतया
यमेषु चैवान्यगतेषु न व्यथः स्वशास्त्रशून्यो हृदिनात्मविभ्रमः३५४


भवेद्यथेष्टागतिरात्मयाजिनी निस्संशये धर्मपरे जितेन्द्रिये
अतःपरं श्रेष्ठमतीवसद्गुणैरधिष्ठितं त्रीनतिवर्त्य चाश्रमान्३५५


चतुर्थमुक्तं परमाश्रमं शृणु प्रकीर्त्यमानं परमं परायणम्
प्राप्य संस्कारमेताभ्यामाश्रमाभ्यां ततः परम्३५६


यत्कार्यं परमात्मार्थं तत्त्वमेकमनाः शृणु
काषायं धारयित्वा तु श्रेणीस्थानेषु च त्रिषु३५७


यो व्रजेच्च परं स्थानं पारिव्राज्यमनुत्तमम्
तद्भावनेन संन्यस्य वर्तनं श्रूयतां तथा३५८


एक एव चरेद्धर्मं सिध्यर्थमसहायवान्
एकश्चरति यः पश्यन्न जहाति न हीयते३५९


अनग्निरनिकेतस्तु ग्रामं भिक्षार्थमाश्रयेत्
अश्वस्तनविधानः स्यान्मुनिर्भावसमन्वितः३६०


लघ्वाशी नियताहारः सकृदन्नं निषेवयेत्
कपालं वृक्षमूलानि कुचेलमसहायता३६१


उपेक्षा सर्वभूतानामेतावद्भिक्षु लक्षणम्
यस्मिन्वाचः प्रविशंति कूपे प्राप्ता मृता इव३६२


न वक्तारं पुनर्यांति स कैवल्याश्रमे वसेत्
नैव पश्येन्न शृणुयादवाच्यं जातु कस्यचित्३६३


ब्राह्मणानां विशेषेण नैतद्भूयात्कथंचन
यद्ब्राह्मणस्यानुकूलं तदेव सततं वदेत्३६४


तूष्णीमासीत निंदायां कुर्वन्भैषज्यमात्मनः
येन पूर्णमिवाकाशं भवत्येकेन सर्वदा३६५


शून्यं येन समाकीर्णं तं देवा ब्राह्मणं विदुः३६६


येनकेन चिदाछिन्नो येनकेन चिदाशितः
यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः३६७

________________________
अहेरिव जनाद्भीतः सुहृदो नरकादिव
कृपणादिव नारीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः३६८


न हृष्येत विषीदेत मानितो मानितस्तथा
सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः३६९


नाभिनंदेत मरणं नाभिनंदेत जीवितम्
कालमेव निरीक्षेत निर्देशं कृषको यथा३७०


अनभ्याहतचित्तश्च दांतश्चाहतधीस्तथा
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो नरो गच्छेत्ततो दिवम्३७१


अभयं सर्वभूतेभ्यो भूतानामभयं यतः
तस्य देहविमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन३७२


यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्
सर्वाण्येवावलीयंते तथा ज्ञानानि चेतसि३७३


एवं सर्वमहिंसायां धर्मोऽर्थश्च महीयते
मृतः स नित्यं भवति यो हिंसां प्रतिपद्यते३७४


अहिंसकस्ततः सम्यग्धृतिमान्नियतेंद्रियः
शरण्यस्सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम्३७५


एवं प्रज्ञानतृप्तस्य निर्भयस्य मनीषिणः
न मृत्युरधिकोभावः सोमृतत्वं च गच्छति३७६


विमुक्तः सर्वसंगेभ्यो मुनिराकाशवत्स्थितः
विष्णुप्रियकरः शांतस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः३७७


जीवितं यस्य धर्मार्थं धर्मोरत्यर्थमेव च
अहोरात्रादि पुण्यार्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः३७८


निवारितसमारंभं निर्नमस्कारमस्तुतिम्
अक्षीणं क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः३७९


सर्वाणि भूतानि सुखं रमंते सर्वाणि दुःखानि भृशं भवंति
तेषां भवोत्पादनजातखेदः कुर्यात्तु कर्माणि च श्रद्दधानः३८०


दानं हि भूताभयदक्षिणायाः सर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह
तीक्ष्णे तनुं यः प्रथमं जुहोति सोनंतमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः३८१


उत्तानमास्येन हविर्जुहोति अनंतमाप्नोत्यभितः प्रतिष्ठाम्
तस्यांगसंगादभिनिष्कृतं च वैश्वानरं सर्वमिदं प्रपेदे३८२


प्रादेशमात्रं हृदभिस्रुतं यत्तस्मिन्प्राणेनात्मयाजी जुहोति
तस्याग्निहोत्रे हुतमात्मसंस्थं सर्वेषु लोकेषु सदैव तेषु३८३


देवं विधातुं त्रिवृतं सुवर्णं ये वै विदुस्तं परमार्थभूतम्
ते सर्वभूतेषु महीयमाना देवाः समर्था अमृतं व्रजंति३८४


वेदांश्च वेद्यं च विधिं च कृत्स्नमथो निरुक्तं परमार्थतां च
सर्वं शरीरात्मनि यः प्रवेद तस्याभिसर्वे प्रचरंति नित्यम्३८५


भूमावसक्तं दिवि चाप्रमेयं हिरण्मयं तं च समंडलांते
प्रदक्षिणं दक्षिणमंतरिक्षे यो वेदनाप्यात्मनि दीप्तरश्मिः३८६


आवर्तमानं च विवर्तमानं षण्नेमि यद्द्वादशारं त्रिपर्व
यस्येदमास्यं परिपाति विश्वं तत्कालचक्रं निहितं गुहायाम्३८७


यतः प्रसादं जगतः शरीरं सर्वांश्च लोकानधिगच्छतीह
तस्मिन्हि संतर्पयतीह देवान्स वै विमुक्तो भवतीह नित्यम्३८८


तेजोमयो नित्यमतः पुराणो लोके भवत्यर्थभयादुपैति
भूतानि यस्मान्नभयं व्रजंति भूतेभ्यो यो नो द्विजते कदाचित्३८९


अगर्हणीयो न च गर्हतेन्यान्स वै विप्रः प्रवरं स्वात्मनीक्षेत्
विनीतमोहोप्यपनीतकल्मषो न चेह नामुत्र च योर्थमृच्छति३९०


अरोषमोहः समलोष्टकांचनः प्रहीणशोको गतसंधिविग्रहः
अपेतनिंदास्तुतिरप्रियाप्रियश्चरन्नुदासीनवदेव भिक्षुः३९१

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे क्षेत्रवासमाहात्म्यं नाम पंचदशोध्यायः१५



पद्म पुराण


यह पृष्ठ एक पवित्र स्थान (तीर्थ) में रहने के महत्व का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 15 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही साथ धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) का विवरण दिया गया है। पवित्र स्थान ( तीर्थ )। यह पद्म पुराण के सृष्टि-खंड (सृजन पर खंड) का पंद्रहवां अध्याय है


अध्याय 15 - पवित्र स्थान पर निवास का महत्व (तीर्थ)

भीष्म ने कहा :

1-3. ( रुद्र ) वाराणसी भेजकर ब्रह्मा ने क्या किया ? विष्णु ने क्या काम किया ? मुझे (भी) बताओ, हे ऋषि, शंकर ने क्या किया, उन्होंने कौन सा यज्ञ किया और किस पवित्र स्थान पर (उन्होंने किया)। सहायक पुजारी कौन थे और कार्यवाहक पुजारी कौन थे? मुझे उन सब के बारे में बताओ। मेरी बड़ी जिज्ञासा (जानने के लिए) है कि वे कौन से देवता थे जिन्हें उन्होंने तृप्त किया।

पुलस्त्य ने कहा :

4. मेरु की चोटी पर श्रीनिधान नाम की एक नगरी है। यह रत्नों से भिन्न है; अनेक आश्चर्यों का ठिकाना है; अनेक वृक्षों से भरा हुआ है; कई खनिजों से भिन्न है और बेदाग क्रिस्टल की तरह स्पष्ट है।

5. यह लताओं के विस्तार से सुशोभित है; वह मोरों की पुकार से गूँजता है; यह (की उपस्थिति) सिंहों के कारण भयभीत है; यह हाथियों के झुंड से भरा है।

6-7. झरनों से गिरने वाले पानी से उठने वाले तेज फुहारों से यह ठंडा होता है; यह हवा के झोंकों के पेड़ों के उपवनों के मनभावन मधुशाला से भिन्न है; उसका सारा जंगल कस्तूरी के उत्कृष्ट सुगन्ध से सुगन्धित हो जाता है; उसके लताओं के धनुष में यात्रा करने वाले विद्याधर यौन सुख के कारण होने वाली थकान के कारण सोते हैं।

8. किन्नरों के समूह द्वारा गाए जाने वाले गीतों की मधुर ध्वनि से यह गूंज रहा है । इसमें वैराजा नाम की ब्रह्मा की हवेली है , जिसके पूरे फर्श को विभिन्न व्यवस्थाओं से सजाया गया है।

9-14. इसमें कांतिमती नाम का एक हॉल है । यह दिव्य महिलाओं द्वारा गाए गए गीतों की मधुर ध्वनि के साथ गूंजता है; इसमें पारिजात के पेड़ों से अंकुरित अंकुरों की माला है ; lt रत्नों की कई किरणों से उगने वाले कई रंगों से भिन्न है; इसमें करोड़ों स्तंभ लगे हैं; यह बेदाग दर्पणों से सुशोभित है, और आकाशीय नर्तकियों द्वारा प्रस्तुत नृत्य के सुशोभित आंदोलनों के वैभव के साथ; यह कई संगीत वाद्ययंत्रों द्वारा उत्पादित ध्वनियों की संख्या के साथ गूंजता है, कई गीतों और संगीत वाद्ययंत्रों के साथ विराम और धड़कन के समय के साथ। यह देवताओं को आनंद देता है; यह ऋषियों के समूहों से भरा है और तपस्वियों द्वारा इसका सहारा लिया जाता है। यह ब्राह्मण ( ब्राह्मणसी द्वारा गाया गया) के ग्रंथों के साथ गूंजता हैऔर प्रसन्नता का कारण बनता है। इसमें (उनकी पत्नी) संध्या द्वारा सम्मानित (अर्थात सेवा की गई) ब्रह्मा निवास करते थे।

15. उन्होंने इस दुनिया को बनाने वाले सर्वोच्च देवता का ध्यान किया। ध्यान करते हुए उनके मन में यह आया: 'मैं यज्ञ कैसे करूं?

16. मैं पृथ्वी पर कहां हूं—किस स्थान पर—बलिदान करूं?

17. कां , प्रयाग , तुंग और नैमिष और शुक्ल , इसी तरह कांची , भद्रा , देविका , कुरुक्षेत्र और सरस्वती , प्रभास और अन्य पृथ्वी पर पवित्र स्थान हैं।

18. ये वे स्थान हैं जो पवित्र तीर्थ हैं और अन्य भी हैं जिन्हें रूद्र ने मेरे आदेश पर पृथ्वी पर स्थापित किया था।

19. जैसे मैं सब देवताओं में पहिला देवता ठहरा हुआ हूं, वैसे ही मैं एक बड़े पवित्र स्थान को पहिला ठहराऊंगा।

20. वह कमल, जो विष्णु की नाभि से निकला है, और जिसमें मैं पैदा हुआ था, वैदिक ग्रंथों का पाठ करने वाले ऋषियों द्वारा पुष्कर-तीर्थ कहा जाता है  '

21. जब ब्रह्मा इस प्रकार सोच रहे थे, तो उनके मन में यह विचार आया: 'मैं अब पृथ्वी पर जाता हूँ।'

22-24. सबसे पहले उस स्थान पर पहुँचकर, वह कई पेड़ों और लताओं से भरे उस सर्वश्रेष्ठ जंगल में प्रवेश किया; अनेक पुष्पों से सुशोभित; अनेक चिड़ियों के स्वरों से भरा हुआ; कई जानवरों के समूहों के साथ भीड़; देवताओं और राक्षसों को वृक्षों के प्रचुर पुष्पों के सुगन्ध से सुगन्धित करना; इसकी जमीन फूलों से सुशोभित थी, जैसे कि इसे जानबूझकर वहां रखा गया था।

25-28. (वहां के मौसम) कई इत्र और रस से पूरी तरह से आच्छादित थे, और यह छह मौसमों के फलों से भरा था, जो गंध और दृष्टि की भावना को प्रसन्न करने वाले सुनहरे रंग से संपन्न थे; जहां हवा, कृपा के रूप में, पुराने पत्तों, घास और सूखी लकड़ी और फलों को फेंक देती है; जहाँ हवा, फूलों के ढेर से सुगंध लेकर, (और) आकाश, पृथ्वी और क्वार्टरों को सुगंधित करके, ठंडी (हो रही) चलती है; (जो) बिना किसी उद्घाटन के और बिना कृमियों के समूहों और शीर्षों और विभिन्न नामों के हरे चमकदार बड़े पेड़ों से सुशोभित है।

29. सर्वत्र यह ब्राह्मणों के परिवार के रूप में दिखाई देता है जिसमें स्वस्थ, सुंदर, गुणी और उज्ज्वल पुजारियों के कारण खनिजों के समान अंकुरों से ढके हुए पेड़ होते हैं।

30-31. वे महान और दोषरहित गुणों से आच्छादित (अर्थात संपन्न) पुरुषों की तरह दिखते हैं; वे हवा के झोंकों से ऐसे उछले, मानो वे एक दूसरे को छू रहे हों; और फूलों की डालियों के आभूषणों समेत एक दूसरे को सुगन्धित करते थे।

32. कहीं-कहीं रतन के तन्तुओं वाले नाग वृक्ष ऐसे सुन्दर लगते हैं जैसे उनकी आँखों में उनकी काली पुतली अस्थिर होती है।

33. कर्णिका के पेड़ जोड़े में और दो में फूलों से भरे शीर्ष के साथ जोड़े की तरह दिखते हैं। अच्छे फूलों की प्रचुरता वाले सिंधुवर वृक्षों की पंक्तियाँ वास्तव में सिल्वन देवता प्रतीत होते हैं जिनकी पूजा की जाती है।

34. स्थानों पर फूलों के आभूषणों से उज्ज्वल, (देखो) कुंड की लताएं, (देखो) युवा चंद्रमाओं की तरह (शीर्षों पर) पेड़ों पर और क्वार्टरों में उग आई हैं।

35-39. जंगल के कुछ हिस्सों में फूलदार सरजा और अर्जुन के पेड़ सफेद रेशमी वस्त्रों से ढके हुए पुरुषों की तरह दिखते हैं। इसी प्रकार खिलती हुई अतिमुक्त लताओं द्वारा आलिंगन किए गए पेड़ ऐसे लगते हैं जैसे प्रेमी अपने ही प्रियतम द्वारा आलिंगन करते हैं। साला और अशोक के पेड़ अपने पत्तों के साथ एक दूसरे से चिपके हुए थे जैसे कि वे एक दूसरे को छू रहे थे जैसे दोस्त एक दूसरे के हाथों को छू रहे थे जब वे लंबे समय के बाद मिलते थे। पनासा , सरला और अर्जुन के पेड़ फलों और फूलों की प्रचुरता के कारण झुके हुए थे क्योंकि यह फूलों और फलों के साथ एक दूसरे की पूजा करते थे।

40. साला के पेड़, अपनी भुजाओं के साथ (शाखाओं के रूप में) हवा के झोंके से स्पर्श किए गए, जैसे कि, समान भावनाओं (यानी स्नेह) के साथ आने वाले लोगों (अभिवादन करने के लिए) उठे हैं।

41-42. फूलों के आवरण के साथ, सुंदरता के लिए वहां लगाए गए पेड़, वसंत-त्योहार में पहुंच गए, जैसे कि यह पुरुषों (हथियारों वाले) के साथ था। उनके सिरों पर सुंदर फूलों की बहुतायत के साथ झुके हुए और हवा से उछाले गए, पेड़ पुरुषों की तरह नृत्य करते हैं, जो प्रसन्न होते हैं और जिनके सिर मालाओं से सजाए जाते हैं।

43-47. हवा द्वारा उछाले गए फूलों की पंक्तियों वाले पेड़ अपने प्रिय के साथ पुरुषों की तरह लता के साथ नृत्य करते हैं। अपने (प्रचुर मात्रा में) फूलों के कारण झुके हुए लताओं से घिरे पेड़ धीरे-धीरे सितारों के विभिन्न समूहों के साथ शरद ऋतु के आकाश की तरह दिखाई देते हैं। पेड़ों के शीर्ष पर खिली हुई मालती लताएं आकर्षक लगती हैं जैसे जानबूझकर व्यवस्थित किए गए चैपल। सुन्दरता के धनी हरे-भरे वृक्ष, जिनमें (प्रचुर मात्रा में) फल और फूल हों, अच्छे मनुष्य के आने पर मनुष्यों के समान मित्रता प्रकट करते हैं। मधुमक्खियां, फूलों के तंतुओं के कारण, सभी दिशाओं में चलती हैं, क्योंकि यह कदंब - फूल की जीत की घोषणा कर रही थी और (अर्थात चूसने के कारण) शहद के नशे में, इधर-उधर गिरती हैं।

48-56। कहीं-कहीं नर कोयलों के झुण्ड अपने साथियों के साथ पेड़ों की घनी झाड़ियों में (देखे जाते हैं) हैं। कहीं-कहीं तोते-दंपत्ति शिर-फूल के सदृश ब्राह्मणों जैसे रोचक शब्द बोलते हैं जिनका सम्मान किया जाता है। विभिन्न प्रकार के पंखों वाले मोर अपने साथियों के साथ जंगलों के अंदरूनी हिस्सों में भी बड़े पैमाने पर सजाए गए नर्तकियों की तरह नृत्य करते हैं। विभिन्न स्वरों को सुनाने वाले पक्षियों के झुंड, जानवरों के कई झुंडों से भरे हुए (पहले से ही) आकर्षक जंगल को और अधिक आकर्षक बनाते हैं और हमेशा इंद्र के समान पक्षियों को प्रसन्न करते हैं।का बगीचा और मन और आँखों को प्रसन्न करने वाला। कमल में जन्मे भगवान ने अपनी मनभावन आँखों से देखा कि यह बुराई को दूर कर रहा है, उस प्रकृति का सबसे अच्छा जंगल दर्पण जैसा दिखता है। पेड़ों की उन सभी पंक्तियों ने, भगवान ब्रह्मा को देखकर, जो उस तरह पहुंचे थे, और खुद को भक्ति के साथ उन्हें प्रस्तुत करते हुए, अपने फूलों की संपत्ति को बहा दिया। वृक्षों द्वारा अर्पित किए गए फूलों को स्वीकार करते हुए ब्रह्मा ने उनसे कहा, "तुम्हारा कल्याण हो; वरदान मांगो।" पेड़, (किसी भी) नियंत्रण से मुक्त, नम्रता के साथ (अपनी हथेलियों के साथ प्रणाम में जुड़े हुए) ब्रह्मा को नमस्कार करते हुए कहा: "हे भगवान, लोगों के प्रति स्नेही, जो आपकी शरण लेते हैं, आप हमेशा एक वरदान दे रहे हैं हमारे पास जंगल में रहो।

57. यही हमारी सबसे बड़ी इच्छा है; आपको नमस्कार, हे ग्रैंड-सर।

58-59. हे देवताओं के स्वामी, हे ब्रह्मांड के निर्माता; यदि आप इस जंगल में रहते हैं, तो यह हमारे लिए सबसे अच्छा वरदान होगा कि हम आपकी शरण लें और एक वरदान की इच्छा करें। हमें यह वरदान दो- करोड़ों अन्य वरदानों से अधिक पर्याप्त। यह (जंगल) तेरे साम्हने सब पवित्र स्थानों से अधिक प्रतिष्ठित और महान होगा।”

ब्रह्मा ने कहा :

60-62। यह (स्थान) सभी पवित्र स्थानों में श्रेष्ठ और शुभ होगा। मेरी कृपा से तुम सदा फूलों और फलों से भरे रहोगे; आपके पास हमेशा बहुत स्थिर यौवन होगा; आप अपनी इच्छा पर आगे बढ़ेंगे (कर सकेंगे); आप अपने द्वारा वांछित किसी भी रूप को लेने (करने में सक्षम) होंगे; आप सुखद फल देंगे; तुम अपनी इच्छा और इच्छा के अनुसार मनुष्यों के सामने अपने आप को प्रस्तुत करोगे (दे) पुरुषों को उनकी तपस्या की पूर्ति के लिए; आप महान ऐश्वर्य से संपन्न होंगे।

इस प्रकार वरदान देने वाले ब्रह्मा ने वृक्षों पर कृपा की।

63. एक हजार वर्ष तक (वहां) रहकर उन्होंने जमीन पर एक कमल फेंका। उसके गिरने से पृथ्वी नीचे तक कांप उठी।

64-65. उत्तेजित लहरों के साथ असहाय महासागरों ने अपनी सीमा पार कर ली। बाघों और शातिर हाथियों के कब्जे वाले हजारों पर्वत-शिखरों को इंद्र के बोल्ट के रूप में मारा गया, चकनाचूर हो गया।

66-67। देवताओं और सिद्धों की हवेली (आठ विशेष संकायों की विशेषता वाले अर्ध-दिव्य प्राणी), गंधर्वों के शहर हिल गए, हिल गए और पृथ्वी में प्रवेश कर गए। कपोटा -बादलों, जो म्यानों का एक संग्रह दिखाते हैं, आकाश से गिरे (अर्थात वर्षा की वर्षा) । प्रकाशमान समूहों को ढँकने वाले मार्मिक सूर्य थे।

68. उसकी तेज आवाज से गूंगे, अंधे और बहरे तीनों लोक भयभीत हो उठे।

69-70. सभी देवताओं और राक्षसों के शरीर और दिमाग डूब गए और यह नहीं पता था कि यह क्या था। उन सभी ने साहस जुटाकर ब्रह्मा की खोज की। उन्हें नहीं पता था कि ब्रह्मा कहाँ गए थे। (वे समझ नहीं पाए) पृथ्वी क्यों कांपती है और संकेत और संकेत क्यों दिखाई देते हैं।

71. विष्णु वहीं गए जहां देवता ठहरे थे। उन्हें नमस्कार करते हुए देवताओं ने ये शब्द कहे:

72-73. "हे श्रद्धेय, यह शगुन और चमत्कार क्यों है, जिसके द्वारा मृत्यु के साथ जुड़े हुए तीनों लोकों को कांपने के लिए बनाया गया है, और कल्प का अंत हो गया है और महासागरों ने अपनी सीमाओं को पार कर लिया है? चार स्थिर चौथाई हाथी अस्थिर क्यों हो गए हैं?

74-75. पृथ्वी सात समुद्रों के जल से क्यों ढकी हुई है? हे प्रभु, बिना किसी कारण के ध्वनि उत्पन्न नहीं हो सकती थी; ऐसी भयानक ध्वनि, जो उठकर तीनों लोकों को भयभीत कर देती है, यह याद नहीं है कि वह पहले कभी हुआ था और न ही फिर होगा।

76. हे प्रभु, यदि आप जानते हैं कि यह तीनों लोकों और देवताओं के लिए शुभ या अशुभ ध्वनि है, तो हमें बताएं कि यह क्या है।

77. इस प्रकार संबोधित करते हुए, सर्वोच्च द्वारा पोषित विष्णु ने कहा: "हे देवताओं, चिंतित मत हो; आप सब इसका कारण सुनिए।

78. यह मैं (कारण) जानकर, जैसा हुआ वैसा ही आपको अवश्य बताऊंगा।

79. विश्व के पूज्य ब्रह्मा , हाथ में कमल लिए हुए, एक अत्यंत सुंदर क्षेत्र - धार्मिक योग्यता के ढेर - में यज्ञ करने के लिए पहाड़ों की ढलान पर बस गए।

80. और उसके हाथ से कमल भूमि पर गिर पड़ा। इसने एक बड़ी आवाज की जिससे आप कांपने लगे।

81-84. वहाँ वृक्षों द्वारा पुष्पों की सुगन्ध से अभिनन्दित होकर उन्होंने पशु-पक्षियों के साथ वन की उपकार की और जगत् का कल्याण करने के लिए वहाँ निवास करने का आनन्द लिया। श्रद्धेय, संसार के उपकारी, उस सर्वश्रेष्ठ पवित्र स्थान (जिसे पुष्कर कहते हैं) को स्थापित करते हैं। मेरे साथ वहाँ जाकर ब्रह्मा को प्रसन्न किया । पूज्य जब प्रसन्न होते हैं, तो आपको उत्कृष्ट वरदान देते हैं।"

85-93. ऐसा कहकर, दिव्य विष्णु उन देवताओं और राक्षसों के साथ उस वन-क्षेत्र में चले गए जहां ब्रह्मा रहते थे। वे प्रसन्न और अपने मन को प्रसन्न कर, और आपस में बातचीत कर रहे थे, जैसे कोयलों ​​की तरह, फूलों के ढेर और प्रशंसनीय ब्रह्मा के जंगल में प्रवेश किया। वह जंगल, सभी देवताओं द्वारा पहुंचा और इंद्र के बगीचे के समान, और कमल-लता, पशु और फूलों से समृद्ध, तब सुंदर लग रहा था। तब देवताओं ने सभी (प्रकार के) फूलों से सजे जंगल में प्रवेश करते हुए (अपने आप से) कहा, 'भगवान यहाँ हैं'; और ब्रह्मा को देखने की इच्छा से (उसमें) भटक गए। तब सभी देवताओं ने, इंद्र के साथ, ब्रह्मा को खोजते हुए, जंगल के आंतरिक भाग को नहीं देखा। तब भगवान (ब्रह्मा) की तलाश में देवताओं ने वायु को देखा. उन्होंने उनसे कहा, "तप के बिना तुम ब्रह्मा को नहीं देख पाओगे।" तब निराश होकर और वायु ने (उन्हें) जो कहा था, उसे ध्यान में रखते हुए, सभी देवताओं ने बार-बार ब्रह्मा को पहाड़ की ढलान पर, दक्षिण में, उत्तर में और बीच में (दोनों दिशाओं में) देखा। वायु ने फिर उनसे कहा, "विरिंचि (अर्थात ब्रह्मा) के दर्शन करने के लिए हमेशा एक तीन गुना साधन होता है। इसे आस्था से उत्पन्न ज्ञान, तपस्या और गहन और अमूर्त ध्यान से कहा जाता है। जो लोग गहन और अमूर्त ध्यान के मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे ईश्वर को अंशों के साथ और बिना दोनों रूपों में देखते हैं। तपस्वी उसे अंशों में देखते हैं, जबकि ज्ञानी उसे उसके बिना देखते हैं।

94. दूसरी ओर जब सांसारिक ज्ञान उत्पन्न होता है तो उदासीनता से देखने वाला (ब्रह्मा) नहीं देखता। जो लोग गहन और अमूर्त ध्यान के मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे अपनी महान भक्ति के माध्यम से भगवान को शीघ्रता से देखते हैं।

95. प्रकृति और पुरुष के उस अपरिवर्तनशील स्वामी को देखना चाहिए ।

96. कर्म, मन और वाणी से सदा ईश्वर में लीन होकर, और ब्रह्मा को प्रसन्न करने के इरादे से, तपस्या का पालन करें; ईश्वर आपको आशीर्वाद देगा। वह हमेशा सोचता है: 'मुझे उन लोगों के सामने आना चाहिए जिन्होंने खुद को ब्रह्मा और ब्राह्मण भक्तों के सामने समर्पित कर दिया है।'"

97-98. वायु के वचनों को सुनकर और उन्हें लाभकारी समझकर (और) ब्रह्मा की इच्छा (देखने) की इच्छा के साथ उन्होंने वाणी के स्वामी ( बृहस्पति ) से कहा, "हे ज्ञान के देवता, हमें ( पथ) ब्रह्मा की प्राप्ति।"

99. उन्हें (मार्ग) में दीक्षित करने की इच्छा रखते हुए, महान गुरु ने उन्हें वेदी नियमों के अनुसार दीक्षित किया।

100. वे साधारण वस्त्र पहिने हुए और दीन होकर उसके चेले बने; उन्होंने ब्रह्मा की कृपा प्राप्त की; पुष्कर के बारे में ज्ञान (उन्हें) दिया गया था।

101. गुरु, सर्वश्रेष्ठ स्थानापन्न पुजारियों ने नियमों के अनुसार यज्ञ किया।

102. कमल का अभिषेक (विधि) करके ऋषि ने उन देवताओं की इच्छा से प्रेरित होकर रेशों से भरा एक कमल बनाया और (इस प्रकार) देवताओं पर कृपा की।

103. अत्यंत बुद्धिमान बृहस्पति ने वेद में बताए गए नियमों को जानकर और संदेह को दूर करते हुए बुद्धिमान (देवताओं) को दीक्षा दी।

104-111. उदार अगिरसा (अर्थात् गुरु) ने प्रसन्न होकर और अग्नि का अभिषेक करके, देवताओं को वेदों में निर्धारित प्रार्थनाओं को दिया (अर्थात पढ़ाया) । अति बुद्धिमान ने (देवताओं को) सिखाया (वैदिक मंत्रों को कहा जाता है) त्रिसुपर्णा , त्रिमधु और सभी मंत्रमुग्ध प्रार्थना आदि। उस स्नान (जप के साथ) पोहिष्ठ को ब्रह्म कहा जाता है । यह पापों को दूर करता है, दुष्टों को वश में करता है, परिपूर्णता, धन और शक्ति को बढ़ाता है, सिद्धियों और प्रसिद्धि देता है, और काली के पापों को नष्ट करता है(उम्र)। तो मनुष्य को हर हाल में वह स्नान करना चाहिए। (उनमें से) सभी (उनमें से) मौन व्रत का पालन करते हुए स्नान करते हैं, संयमित होते हैं (व्रत के लिए), और तैयार होते हैं (स्वर के लिए), और उनकी इंद्रियों को नष्ट (अर्थात अंकुश), पानी के बर्तन (उनके हाथों में) के साथ। अपने निचले वस्त्रों के सिरों को ढीला करके, माला पहने हुए, लाठी लिए हुए, छाल या लत्ता पहने हुए, बहुत उलझे हुए बालों से सजे हुए, स्नान करने और (विशेष) आसनों में लगे हुए, बहुत प्रयास के साथ ध्यान करने और सीमित भोजन की इच्छा रखने के बाद मन को ब्रम्हा के साथ मिला कर वहाँ (किसी एक), बातचीत, संगति या विचार (सांसारिक वस्तुओं के बारे में) से परहेज करते रहे। महान भक्ति और एक महान पवित्र उपदेश के साथ संपन्न, उनके दिमाग में, ध्यान के माध्यम से, भगवान का ज्ञान, (कुछ समय के अंतराल के बाद) था।

112. जब उनका मन बिल्कुल शुद्ध था, ब्रह्मा के ध्यान के माध्यम से पूरी तरह से जलकर, भगवान सभी के लिए दृश्यमान हो गए।

113-114. वे उसकी चमक से प्रसन्न थे (फिर भी) उनका मन व्याकुल था। तब उन्होंने अपने मन की प्रसन्नता और उस पर नीयत से साहस जुटाकर अपनी हथेलियों को अपने सिर पर रखा, और अपने सिर को जमीन पर रख दिया (अर्थात सिर झुकाकर) भगवान की स्तुति की, सृष्टि और रखरखाव के लेखक का सहारा लिया। वेद अपने छह अंगों के साथ (यानी वैदिक ग्रंथों और छह अंगों से ग्रंथों के साथ)।

देवताओं ने कहा :

115-121. हे भगवान, हम, अच्छी तरह से नियंत्रित, आपको सलाम करते हैं, ब्राह्मण , ब्रह्मा के शरीर वाले, ब्राह्मणों के अनुकूल, अजेय, बलिदान और वेदों के दाता, दुनिया के लिए दयालु, सृष्टि के रूप में, अत्यंत अपने भक्तों पर दया करो, जो वेदों के ग्रंथों के उच्चारण से प्रशंसा करते हैं, जिनके रूप में कई रूप हैं, जो सैकड़ों रूप धारण करते हैं, सावित्री और गायत्री के स्वामी , कमल पर विराजमान, (स्वयं) कमल और कमल के समान (सुंदर) मुख वाला, वरदान देने वाला, वरदान के योग्य, कर्म (दूसरा अवतार) और मग, उलझे हुए बाल और मुकुट वाला, करछुल धारण करने वाला, चन्द्रमा और मृग के गुणों वाला और धर्म के नेत्रों वाला , हर नाम और ब्रह्मांड का स्वामी है। हे धर्मपरायण नेत्रों वाले, हमारी और अधिक रक्षा करो; हे महामहिम, हमने वाणी, मन और शरीर से आपकी शरण मांगी है।

122. ब्रह्मा, वेदों को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ, इस प्रकार देवताओं द्वारा स्तुति (उनसे कहा): "ठीक है, जब आपके द्वारा याद किया जाएगा तो मैं आपको (जो आप चाहते हैं) दूंगा; तुम मुझे देखना फलदायी होगा।

123. हे पुत्रों, मुझे बताओ कि तुम क्या चाहते हो; मैं तुम्हें उत्तम वरदान दूँगा!” इस प्रकार भगवान द्वारा संबोधित, देवताओं ने कहा (ये) शब्द:

124. “हे श्रद्धेय, यह अपने आप में एक महान वरदान है जो काफी है, जब आपने कमल को फेंका तो हमें एक अच्छी आवाज सुनाई दी।

125. पृथ्वी क्यों कांपने लगी? लोग परेशान क्यों थे? यह बिना किसी उद्देश्य के नहीं हो सकता। (हमें) इसका कारण बताओ, हे भगवान।"

ब्रह्मा बोले :

126. यह कमल आपके भले के लिए और देवताओं की रक्षा के लिए मेरे पास है। अब सुनिए क्या कारण था।

127. नाम से यह राक्षस वज्रनाभ बच्चों का जीवन छीन लेता है। वह पाताल लोक में आश्रय लेता रहता है।

128. तुम्हारे आगमन की सूचना पाकर, तपस्या में रहकर, अस्त्र-शस्त्र डाल कर, दुष्ट इन्द्र सहित देवताओं को भी मार डालना चाहता था।

129. मैंने कमल को गिराकर उसका विनाश किया; उसे अपने राज्य और वैभव पर गर्व था; इसलिए मैंने उसे मार डाला।

130. इस समय दुनिया में वेदों में महारत हासिल करने वाले भक्त, ब्राह्मण हैं। वे दुर्भाग्य से न मिलें, लेकिन उनका भाग्य अच्छा हो।

131. हे देवताओं, मैं देवताओं, राक्षसों, पुरुषों, सरीसृपों, मित्रों और प्राणियों की पूरी यजमान के बराबर (यानी निष्पक्ष) हूं।

132. मैंने आपकी भलाई के लिए पापी को एक मंत्र से मार डाला। इस कमल के दर्शन से ही वे धर्म लोक में पहुंचे हैं।

133. चूँकि मैंने कमल (यहाँ) गिराया है, इसलिए यह स्थान धार्मिक पुण्य देने वाला एक महान, पवित्र पवित्र स्थान पुष्कर के रूप में जाना जाएगा।

134-135। पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए वह पवित्र कहा जाएगा। (i) हे देवताओं ने वृक्षों के अनुरोध पर सदा यहां रहकर भक्ति के इच्छुक भक्तों पर कृपा की है। हे पापरहितों , जब मैं यहाँ पहुँचा तो महाकाल भी यहाँ आए हैं।

136. तपस्या करने वालों ने महान ज्ञान का प्रदर्शन किया है, हे देवताओं; अपने और दूसरों के हित को ध्यान में रखें।

137. पृथ्वी पर विभिन्न रूप धारण करके आपको यह दिखाना होगा कि एक बुद्धिमान ब्राह्मण से घृणा करने वाला व्यक्ति केवल पाप से पीड़ित होता है।

138-141. करोड़ों अस्तित्व के बाद भी वह पापों से मुक्त नहीं होगा। वेद और उसके अंगों (अर्थात् वेदांगों ) में महारत हासिल करने वाले ब्राह्मण को न तो मारना चाहिए और न ही दोष खोजना चाहिए; क्योंकि अगर एक मारा जाता है, तो एक करोड़ (उनमें से) मारे जाते हैं। विश्वास के साथ भोजन करना चाहिए (कम से कम) एक ब्राह्मण जिसने वेद में महारत हासिल की है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोई एक करोड़ ब्राह्मणों को खिलाएगा (सिर्फ एक ऐसे ब्राह्मण को खिलाकर)। जो तपस्वियों को भरपेट भिक्षा देता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और दुर्भाग्य से नहीं मिलता है। जिस प्रकार मैं, परदादी, देवताओं में सबसे बड़ा और सर्वश्रेष्ठ हूं, उसी प्रकार, एक बुद्धिमान व्यक्ति, जिसमें अपनेपन और संपत्ति की भावना नहीं होती है, वह हमेशा सम्मानित होता है।

142-148. मैंने वेदों में संरक्षित इस व्रत को, सांसारिक अस्तित्व के बंधन से मुक्ति (प्राप्त) के लिए और ब्राह्मणों के मामले में पुनर्जन्म की अनुपस्थिति के लिए प्रख्यापित किया है। जो, पवित्र अग्नि के रखरखाव को स्वीकार करने के बाद, (और) अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त नहीं करता (अर्थात नियंत्रण खो देता है), उसे छोड़ देता है, यम के सेवकों के नेतृत्व में, तुरंत रौरवनरक 

 (किसी से बात करके) जो संसार के मार्ग को चकमा देता है और नीच कर्म करता है, उसका हृदय आसक्ति और कामुक भावना से भरा है, स्त्री और धन का शौकीन है, बहुत मीठी चीजें खाता है, कृषि और वाणिज्य का पालन करता है, नहीं करता है वेद को जानो और वेद की निंदा करो, और दूसरे की पत्नी का आनंद लो; ऐसे दोषों से अशुद्ध व्यक्ति से बात करने से मनुष्य नरक में जाता है; इसलिए वह भी जो एक अच्छी मन्नत को बिगाड़ता है। 

जो तृप्त न हो, विखंडित या दुष्ट मन वाला हो और पापी हो, उसके साथ शारीरिक संपर्क नहीं करना चाहिए। यदि कोई (ऐसे व्यक्ति को) स्पर्श करता है तो वह स्नान करने के बाद शुद्ध हो जाता है।

इस प्रकार बोलते हुए, भगवान ब्रह्मा ने देवताओं के साथ वहां एक पवित्र स्थान की स्थापना की। मैं (इसके बारे में) आपको (देय) क्रम में बताऊंगा।

149-150। यह चन्द्रनादी के उत्तर में है; सरस्वती अपने पूर्व की ओर (बहती हुई) है; यह इंद्र के बगीचे से श्रेष्ठ है; और पुष्कर (तीर्थ) के साथ संपूर्ण कल्प के अंत तक वहीं रहेगा। यह संसार के रचयिता ब्रह्मा द्वारा किए गए यज्ञ की (अर्थात) वेदी है।

151-153. पहले वाले को तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ और शुद्ध करने वाले के रूप में जाना जाना चाहिए। कहा जाता है कि यह देवता ब्रह्मा के लिए पवित्र है। बीच वाला (यानी दूसरा) (विष्णु के लिए पवित्र है)। अंतिम एक देवता रुद्र के लिए पवित्र है। ब्रह्मा ने पहले फैशन (इन) किया। यह महान पवित्र स्थान अर्थात। पुष्कर नामक वन को वेदों में सबसे प्रमुख रहस्यमय क्षेत्र कहा गया है। भगवान ब्रह्मा मौजूद हैं (वहां)। स्वयं ब्रह्मा ने इस क्षेत्र का पक्ष लिया।

154-156. पृथ्वी पर घूमने वाले सभी ब्राह्मणों के पक्ष में उन्होंने भूमि को सोने और हीरे से घिरा हुआ, और एक वेदी द्वारा चिह्नित किया; उसने फर्श के विभिन्न प्रकार के गहनों से इसे सुंदर बनाया। दुनिया के पोते ब्रह्मा यहाँ रहते हैं। इसी प्रकार विष्णु, रुद्र और वसु देवता और दो अश्विनी भी, और इंद्र के साथ मरुत भी यहां रहते हैं।

157-158. यह बात मैंने तुमको बताई है, जगत् पर कृपा करने का कारण। वे ब्राह्मण, जो अपने गुरुओं की सेवा में लगे हुए हैं, और जो यहां वेदों को उचित नियमों के अनुसार और वेद के भजन पाठ के क्रम में मंत्रों के साथ पढ़ते हैं, वे ब्रह्मा के आसपास के क्षेत्र में रहते हैं, उनकी मदद की जा रही है।

भीम ने कहा :

159-160. हे श्रद्धेय, मुझे यह सब बताओ: किस नियम का पालन करते हुए, क्षेत्र के निवासी, ब्रह्मा की दुनिया की इच्छा रखते हुए, पुष्कर वन में रहें? और यहां रहने वाले विभिन्न जातियों और जीवन के चरणों वाले (अर्थात संबंधित) पुरुषों या महिलाओं को क्या अभ्यास करना चाहिए?

पुलस्त्य ने कहा :

161-162. (विभिन्न) जातियों के पुरुष और महिलाएं और जीवन के (अलग-अलग) चरणों में रहने वाले, अपने वर्ग के कर्तव्यों का पालन करने में लगे, छल और भ्रम से मुक्त, कर्म, मन और वाणी से और अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके ब्रह्मा को समर्पित, और ईर्ष्या और क्षुद्रता से मुक्त, सभी प्राणियों की भलाई में लगे हुए, यहाँ रहना चाहिए।

भीष्म ने कहा :

163. बताओ कौन-सा कर्म करने वाला मनुष्य ब्रह्मा का भक्त कहलाता है। मनुष्यों में ब्रह्मा के भक्त किस प्रकृति के हैं?

पुलस्त्य ने कहा :

164. श्रद्धांजलि तीन प्रकार की कही जाती है: मन, वाणी और शरीर से प्रभावित; तो यह सांसारिक, वैदिक और आत्मा से संबंधित भी हो सकता है।

165. इसे ही मानसिक श्रधांजलि कहा जाता है, जो वेद के महत्व के स्मरण में मन लगाकर (अर्थात ध्यान) ब्रह्मा के प्रति प्रेम का कारण बनता है।

166. मंत्रों, (पाठ) के माध्यम से भाषण द्वारा श्रद्धांजलि दी जाती है, (पाठ) वैदिक ग्रंथों, पूजा, (अग्नि में अर्पण), श्राद्ध करना और विचार करना (इनके बारे में), और म्यूटिंग के माध्यम से आवश्यक ग्रंथ।

167-168. ब्राह्मणों के लिए शरीर द्वारा श्रद्धांजलि तीन प्रकार की बताई जाती है: किचर (शारीरिक वैराग्य), (कठोर तपस्या जैसे) संतापना और अन्य, इसलिए भी (चंद्रमा के चरणों के आधार पर धार्मिक अनुष्ठान) चंद्रायण, व्रतों द्वारा विनियमित और इन्द्रियों को वश में करने वाले व्रत, वैसे ही ब्रह्मकुचर -उपवास और अन्य शुभ व्रत भी।

169-171. ब्रह्म के सम्बन्ध में जो उपासना की जाती है, वह सांसारिक उपासना कहलाती है, जो मनुष्य गाय के घी , दूध और दही, रत्नों से युक्त दीपक, दरभा घास और जल, चंदन, फूल और तैयार किए गए विभिन्न खनिजों, घी, गुग्गुलु (ए) से करते हैं। सुगंधित गोंद राल की तरह) और चंदन की सुगंधित धूप, सोने और गहनों से भरपूर आभूषण, और विभिन्न प्रकार की माला, नृत्य, वाद्य संगीत और गीत, सभी (प्रकार के) रत्नों का उपहार, और खाने योग्य, भोजन, भोजन और पेय के साथ।

172-176. वैदिक मंत्रोच्चार और आहुति के साथ (प्रस्तुत) को वैदिकी कहा जाता है । प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा के दिन अग्नि को अर्पण करना चाहिए; ब्राह्मणों को उपहार देने की सिफारिश की जाती है; चूर्ण चावल से बना एक बलिदान, इसलिए उबले हुए चावल, जौ और दाल का भी एक आहुति; इसी तरह पितरों के सम्मान में उन्हें खुशी देने वाला बलिदान हमेशा (माना जाता है) एक बलिदान कार्य है। तो भी (वह वैदिक श्रद्धांजलि है जिसमें) ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद के ग्रंथ गुदगुदी की जाती है और वेद के स्तोत्र ग्रंथों का अध्ययन नियमों के अनुसार किया जाता है। अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, चंद्रमा और सूर्य के संबंध में किए गए सभी संस्कार देवता ब्रह्मा के हैं। 

हे राजा, ब्रह्मा (जिन्हें आध्यात्मिक कहा जाता है) को श्रद्धांजलि दो प्रकार की होती है: एक को सांख्य कहा जाता है और दूसरा योग से पैदा होता है ।

177-178. मुझ से इसमें विभाजन (अर्थात सांख्य ) सुनें। प्रधान जैसे ( सांख्य ) सिद्धांतों की संख्या, जो भोग की अचेतन वस्तुएं हैं, चौबीस हैं। आत्मा पच्चीसवीं है। चेतन आत्मा किसी कार्य का भोक्ता है, लेकिन उसका एजेंट नहीं।

179. आत्मा शाश्वत, अपरिवर्तनीय, नियंत्रक और नियोक्ता है; और ब्रह्मा, अव्यक्त, शाश्वत, सर्वोच्च सत्ता कारण है ।

180-182. वास्तव में सिद्धांतों, स्वभावों और प्राणियों की रचना है। सांख्य प्रधान को (तीन) घटकों की प्रकृति के रूप में बताता है । यह कुछ गुणों के मामले में भगवान से मिलता जुलता है और उससे अलग भी है। यह (समानता) कारण और ब्रह्मत्व की स्थिति कहा जाता है; प्रधान द्वारा (पुरुष द्वारा) प्रयुक्त होने को इसकी भिन्नता कहा जाता है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान है; जबकि आत्मा अकर्ता है।

183. प्रधान में भावना (भगवान के साथ इसके संपर्क के कारण) को इसकी समानता (बाद वाले के साथ) कहा जाता है। यह एक अन्य सिद्धांत ( प्रधान ) अन्य सिद्धांतों की सक्रिय संपत्ति का कारण है।

184. इस सिद्धांत (अन्य सिद्धांत जैसे प्रधान ) के लिए कोई उद्देश्य जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना है । ज्ञानी, जो सत्य पर विचार करता है, वह (इसे) सुनिश्चित करके कहता है कि यह प्रतिबिंब ( सांख्य ) है।

185-186. ज्ञानियों ने इस प्रकार सिद्धांतों के संग्रह और उनकी संख्या को ठीक से सीख लिया है, साथ ही ब्रह्म के सिद्धांत को एक अतिरिक्त के रूप में, सत्य को समझ लिया है। सांख्य (प्रणाली) के प्रवर्तकों ने इस (प्रकार की) पूजा को आध्यात्मिक कहा है। योग (दर्शन) से उत्पन्न होने वाली श्रद्धांजलि को सुनें, जो ब्रह्मा को दी जाती है:

187-189. श्वास को वश में करना, सदा ध्यान करना और इन्द्रियों को वश में रखना, भीख माँगकर प्राप्त भोजन करना, मन्नतें मानना, और सब इन्द्रियों को वश में करके मन में ध्यान करना चाहिए और अपने मन में उत्पन्न प्राणियों के स्वामी को पेरिकारप में रहना चाहिए। दिल के कमल के, लाल चेहरे वाले, सुंदर आंखें, और उनके चेहरे चारों ओर प्रकाशित, एक पवित्र धागे (चारों ओर) के साथ, उनकी कमर, चार चेहरे, चार भुजाएं, उनके हाथों से वरदान और सुरक्षा प्रदान करते हैं।

190. योगाभ्यास के कारण जो महान मानसिक सिद्धि होती है, वह ब्रह्मा को प्रणाम कहा जाता है। जो ब्रह्म के प्रति ऐसी भक्ति रखता है, उसे ब्रह्मभक्त (ब्रह्मा का भक्त) कहा जाता है।

191-196. हे श्रेष्ठ राजाओं, पवित्र स्थान में रहने वालों के लिए निर्धारित जीवन-पद्धति को सुनो। यह पूर्व में सभी ब्राह्मणों की उपस्थिति में और विष्णु और अन्य लोगों की सभा में स्वयं भगवान द्वारा विस्तार से बताया गया था। (इस जगह के निवासियों को होना चाहिए) बिना खानदानी की भावना के; अहंकार के बिना; लगाव और संपत्ति के बिना; रिश्तेदारों के मेजबान के लिए प्यार की भावना के बिना; मिट्टी, पत्थर और सोने के ढेले को समान रूप से देखना; विभिन्न अनिवार्य कृत्यों द्वारा प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करना; हमेशा उनकी सांस को रोकने पर आमादा; और परम आत्मा के ध्यान में लीन; हमेशा बलिदान और शुद्ध प्रदर्शन करना; तपस्वी प्रथाओं को दिया; सांख्य और योग (प्रणाली) के नियमों को जानना; धार्मिक प्रथाओं में अच्छी तरह से वाकिफ हैं और उनकी शंकाओं को दूर करते हैं। इस पवित्र स्थान में रहने वाले उन ब्राह्मणों द्वारा प्राप्त अच्छे फल को सुनें, जो इन नियमों के अनुसार यज्ञ करते हैं और पुष्कर वन में मर जाते हैं। वे ब्रह्मा के साथ पूर्ण और अटूट अवशोषण प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करना कठिन है।

197-202। ब्रह्मा में इस लीन होने के बाद, वे पुनर्जन्म से बचते हैं, और ब्रह्मा के ज्ञान में रहते हुए, उन्हें पुनर्जन्म नहीं मिलता है; अन्य जो (भ्रामक) दुनिया के (विभिन्न) चरणों में रहते हैं, उन्हें फिर से जन्म लेना पड़ता है। एक (अर्थात एक ब्राह्मण) गृहस्थ स्तर के नियमों का पालन करता है, और हमेशा छह कर्तव्यों (सीखना, सिखाना, यज्ञ करना और यज्ञ में पुजारी के रूप में कार्य करना और उपहार देना और स्वीकार करना) में लगा रहता है, जिसे जब आमंत्रित किया जाता है (के रूप में कार्य करता है) एक पुजारी) एक यज्ञ में (अर्पण) ठीक से मंत्रों के साथ, सभी दुखों से मुक्त होने पर, एक बड़ा फल प्राप्त करता है। पूरी दुनिया में उनकी आवाजाही को कभी नहीं रोका जाता है। दैवीय शक्ति के कारण स्वावलंबी होने के कारण, वह अपनी पत्नी (या सामान) के साथ, हजारों महिलाओं से घिरा हुआ, अपनी प्यारी इच्छा से स्थानों पर जा रहा था, एक बहुत ही उज्ज्वल हवाई जहाज में, जो युवा सूर्य के समान था, निर्बाध रूप से चलता है और जैसा वह चाहता है, सभी दुनिया में। वह पुरुषों में सबसे वांछनीय हो जाता है; वह, सर्वोत्तम कर्तव्यों का पालन करते हुए, एक धनी व्यक्ति बन जाता है।

203-207। स्वर्ग से गिरे हुए वह एक महान परिवार में (एक) सुंदर (व्यक्ति) के रूप में पैदा होंगे। वह नैतिक कर्तव्यों में पारंगत हो जाता है और उनके प्रति समर्पित हो जाता है; वह सभी विद्याओं के महत्व में महारत हासिल करता है। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य, आचार्यों की सेवा, और वेदों का अध्ययन, भिक्षा पर निर्वाह, अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के साथ, हमेशा सत्य के व्रत में लगे हुए, अपने स्वयं के कर्तव्यों में गलती न करते हुए, अप्रतिबंधित (वह जाता है) एक हवाई जहाज में विष्णु की दुनिया में सभी इच्छाओं और समर्थन (यानी पूर्ति) की सभी वस्तुओं के साथ समृद्ध रूप से संपन्न, और जैसे कि यह एक और सूर्य था; वह, गुह्यकस नाम के ब्रह्म-परिचारकों के समान वैभव से संपन्न , जो बहुत सम्मानित हैं, जिनके पास अनंत शक्ति और तेज है और जो देवताओं और राक्षसों द्वारा सम्मानित हैं, उनके समान हैं।

208-213। उसके हथियार देवताओं, राक्षसों और मनुष्यों के बीच अनर्गल हैं। इस तरह वे विष्णु की दुनिया में हजारों करोड़, सैकड़ों करोड़ वर्षों के लिए सम्मानित होते हैं। इस प्रकार वहाँ बड़े वैभव के साथ रहने के बाद, जब वह फिर से विष्णु की दुनिया से गिर जाता है, तो वह अपने कर्मों के कारण स्वर्ग में पैदा होता है; या पुष्कर वन में आकर ब्रह्मचर्य की अवस्था में आकर वेदों का अध्ययन करता रहता है; और मृत्यु के बाद, चंद्रमा की तरह शुभ दिखने के बाद, वह दिव्य हवाई जहाज से इसकी चमक के साथ पूर्णिमा-प्रकाश (रुद्र की दुनिया में) जाता है; रुद्र लोक में पहुँचकर वह वहाँ गुह्यकों के साथ आनन्दित होता है, और सारे जगत का स्वामी होने के कारण उसे महान ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

214-217. हजारों युगों तक (इस प्रकार) भोगते हुए वह रुद्र लोक में प्रतिष्ठित है। हमेशा वहाँ आनन्दित, ध्वनि सुख का आनंद लेते हुए और फिर उस रुद्र की दुनिया से गिरकर, वह एक दिव्य, महान ब्राह्मण परिवार में पैदा होता है। मनुष्यों के बीच वह धार्मिक आत्मा (जन्म के रूप में) सुंदर और वाणी के स्वामी के रूप में होगी; उसके पास एक ईर्ष्यापूर्ण शरीर है, वह महिलाओं का शक्तिशाली पति है, जो बहुत आनंद लेता है; वह (तब) एक एंकराइट का जीवन व्यतीत करता है और अश्लील चालों से मुक्त होता है; दैवीय लोकों में भी उसकी गति बाधित नहीं होती है।

218-219. वह सूखे पत्ते और फल, और फूल और जड़ खाता है। वह कबूतरों की तरह रहता है या उन्हें (यानी पत्ते आदि) पत्थरों से पीटता है या दांतों को मोर्टार के रूप में इस्तेमाल करता है, और लत्ता या छाल के वस्त्र पहनता है। उसने बाल उलझाए हैं, दिन में तीन बार नहाता है, सभी दोषों को त्यागता है और उसके पास एक कर्मचारी है।

220. वह किचर व्रत में तल्लीन है, भले ही वह बहिष्कृत या श्रेष्ठ (जाति) का हो। वह जल में रहता है, ( अग्नि - साधना ) तपस्या करता है, वर्षा ऋतु में वर्षा में रहता है।

221. वैसे ही वह भूमि पर पड़ा है, जो कीड़ों, कांटों और पत्थरों से भरा हुआ है; वह खड़े होने की मुद्रा में या हैम पर बैठने की मुद्रा में रहता है; वह साझा करता है (दूसरों के साथ लेख) और दृढ़ संकल्प का है।

222-225. वह जंगल में जड़ी-बूटियों को खाता है, और सभी प्राणियों को सुरक्षा देता है। वह हमेशा धार्मिक पुण्य अर्जित करने में लगा रहता है, अपने क्रोध और इंद्रियों को नियंत्रित करता है। वह ब्रह्मा का भक्त है, और पुष्कर जैसे पवित्र स्थान में रहता है। ऐसा तपस्वी सभी आसक्तियों को त्याग देता है, स्वयं में प्रसन्न होता है और इच्छाओं से मुक्त होता है। हे भीम , सुनो, यहाँ रहने वाले को क्या मार्ग मिलता है। ऐसा ब्रह्मा का भक्त, अपनी इच्छा से चलने वालों के हवाई जहाज से जाता है, जो युवा सूरज की तरह चमकता है, और उठे हुए आसन और खंभों के माध्यम से आकर्षक दिखता है; वह दूसरे चंद्रमा की तरह आकाश में चमकता है।

226-227. वे सैकड़ों करोड़ वर्षों से आकाशीय अप्सराओं की संगति में हैं जो गायन और वाद्य संगीत और नृत्य जानते हैं। वह जिस भी भगवान की दुनिया में जाता है, जाता है, वहीं ब्रह्मा की कृपा से रहता है।

228-230। ब्रह्मा की दुनिया से गिरकर, वह विष्णु की दुनिया में जाता है, और विष्णु की दुनिया से गिरकर वह रुद्रलोक जाता है ; और उस स्थान से भी गिरकर, वह दुनिया के (विभिन्न) विभागों में पैदा हुआ है, वैसे ही अन्य स्वर्गों में भी, वांछित सुखों का आनंद ले रहा है। वहाँ संपन्नता का आनंद लेने के बाद वह नश्वर लोगों के बीच एक राजा या राजकुमार या धनी या सुखी व्यक्ति के रूप में पैदा होता है - बहुत सुंदर, बहुत भाग्यशाली, प्यारा, प्रसिद्ध और भक्ति से संपन्न।

231-238. हे राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य या शूद्रसी पवित्र स्थानों में रहने वाले, अपने वर्ग के कर्तव्यों में (अभ्यास) में लगे, अच्छे व्यवहार वाले और लंबे जीवन वाले, पूरी तरह से ब्रह्मा के प्रति समर्पित, प्राणियों के प्रति दया दिखाते हुए, जो महान पवित्र स्थान में रहते हैं। पुष्कर, मृत्यु के बाद, समृद्ध रूप से सजाए गए हवाई जहाजों में ब्रह्मा के निवास पर जाएं, आकाशीय अप्सराओं के यजमानों द्वारा सुशोभित, और इच्छानुसार (रहने वालों द्वारा), और इच्छानुसार (रहने वालों द्वारा) किसी भी रूप को लेते हुए। जो बहुत पवित्र, ब्रह्मा का ध्यान करते हुए, अपने शरीर को एक धधकती हुई अग्नि में अर्पित करता है, वह ब्रह्मा के धाम में जाता है। ब्रह्मा की दुनिया, सभी दुनियाओं में सर्वश्रेष्ठ, आकर्षक और वांछित वस्तुओं को पूरा करने वाले, सभी (इसकी) महानता के साथ उनका स्थायी निवास बन जाता है। हे भीम, वे महापुरुष भी, जिन्होंने अत्यंत पुण्यपूर्ण पुष्कर में जल में अपना जीवन डाल दिया, वे ब्रह्मा की अविनाशी दुनिया में जाते हैं।रुद्र और विष्णु ।

239-241. शूद्र जो पुष्कर में मरते हैं, कभी हताशा पैदा नहीं करते, हंसों से जुड़े हवाई जहाज में जाते हैं, चमक में सूर्य के समान, विभिन्न रत्नों और सोने से समृद्ध, सुगंधित और सुगंधित, (कई) अन्य अतुलनीय गुणों के साथ, झंडों और झंडों से बंधी दिव्य कन्याओं के गीत, और अनेक घंटियों के साथ बजने वाले, अनेक चमत्कारों से युक्त, सुखों से परिचित और अति तेजस्वी, गुणों से संपन्न और उत्कृष्ट मोर द्वारा धारण किए जाने वाले।

242-244. अविनाशी (पुष्कर) में मरने वाले बुद्धिमान लोग ब्रह्मा की दुनिया में आनन्दित होते हैं। लंबे समय तक वहाँ रहने और इच्छानुसार सुखों का आनंद लेने के बाद, नश्वर का आना (इस दुनिया में) एक ब्राह्मण परिवार में पैदा होता है, एक धनी व्यक्ति सुखों का आनंद लेता है। एक व्यक्ति, जो पुष्कर में करिरा संस्कार करता है, सभी (अन्य) संसारों को छोड़कर ब्रह्मा की दुनिया में जाता है। वह कल्प के अंत तक ब्रह्मा की दुनिया में रहेगा ।

245. वह मनुष्य को अपने ही कर्मों से तड़पते हुए नहीं देखता। उसका मार्ग अडिग है - तिरछा, ऊपर और नीचे।

246. वह सभी लोकों में पूजनीय है, अपनी कीर्ति का प्रसार करता है और नियंत्रित करता है। उसका व्यवहार अच्छा है, वह नियमों को जानता है और उसकी सभी इंद्रियां आकर्षक हैं।

247. वह नृत्य, वाद्य संगीत में पारंगत, भाग्यशाली और सुंदर है। वह हमेशा एक अधूरे (अर्थात एक ताजा) फूल की तरह होता है, और दिव्य आभूषणों से सुशोभित होता है। वह गहरे नीले रंग के कमल की पंखुड़ियों की तरह गहरा नीला है, और उसके बाल काले और घुंघराले हैं।

248-249। वहाँ देवियाँ, जो उच्च मूल की और एक सुंदर कमर की हैं, और (जो) सभी अच्छे भाग्य से भरी हुई हैं और सभी समृद्ध गुणों से संपन्न हैं, (जो) अपनी युवावस्था पर बहुत गर्व करती हैं, उनकी सेवा करती हैं और उन्हें बिस्तर पर प्रसन्न करती हैं (i) , ई. उसे यौन सुख दें)।

250-252। वह बांसुरी और बांसुरी की आवाज से नींद से जाग जाता है । स्वामी की कृपा के कारण अर्थात। ब्रह्मा, शुभ कार्यों के कर्ता, वे महान उत्सव का आनंद भोगते हैं, जो अज्ञानियों द्वारा प्राप्त करना कठिन है।

भीम ने कहा :

(अच्छा) अभ्यास एक महान धार्मिक योग्यता है; मेरे लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जो लोग किसी पवित्र स्थान के पारंपरिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं, जो अपने वर्ग के कर्तव्यों का पालन करने में लगे हुए हैं, और जिन्होंने अपने क्रोध और इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है, वे ब्रह्मा की दुनिया में जाते हैं।

253. इसमें कोई संदेह नहीं है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की प्रतीक्षा किए बिना या प्रतिबंधों का पालन किए बिना दूसरी दुनिया में भी जाते हैं।

254-255. हे ब्राह्मण, मुझे बताओ कि महिलाएं, म्लेच्छ , शूद्र, मवेशी, पक्षी और चौगुनी, (भी) गूंगे, मंद, अंधे, बहरे, जो पुष्कर में रहते हैं (लेकिन) तपस्या का अभ्यास नहीं करते हैं या प्रतिबंधों का पालन करें।

पुलस्त्य ने कहा :

256-259. हे भीम, स्त्री, म्लेच्छ, शूद्र, पशु, पक्षी और चौपाइयों, जो पुष्कर में मरते हैं, वायुयानों में दिव्य शरीरों के साथ ब्रह्मा की दुनिया में जाते हैं, जो सूर्य के समान चमक में, दिव्य रूपों से संपन्न, उत्कृष्ट सुनहरे बैनर वाले, सोने की सीढ़ियों से सजाए गए हैं। हीरे और जवाहरात वाले स्तंभों के साथ, सभी सुखों में समृद्ध, इच्छा (रहने वालों की) पर चलते हुए और किसी भी रूप में (जैसा कि रहने वालों द्वारा वांछित)। हजारों महिलाओं से घिरे महान लोग, कई आकर्षणों से भरे ब्रह्मा की दुनिया में या उनकी इच्छा के अनुसार अन्य दुनिया में जाते हैं। ब्रह्मा की दुनिया से गिरकर वे अन्य स्थलीय क्षेत्रों में नियत क्रम में जाते हैं।

260-267। एक ब्राह्मण एक बड़े बड़े परिवार में अमीर (जन्म लेने) बन जाता है। साँप, कीड़े, चीटियों जैसे निम्न पशुओं के रूप में जन्म लेने वाले, इसी प्रकार भूमि में जन्मे, जल-जनित, पसीने से उत्पन्न, अण्डाकार, पौधे और जीव-जंतु, जो पुष्कर में या बिना किसी इच्छा के मर जाते हैं, ब्रह्मा की दुनिया में जाते हैं। चमक में सूर्य जैसा दिखने वाला एक विमान। कलियुग में प्राणी पाप से प्रेरित होते हैं। इस ( युग ) में अन्य किसी साधन से न तो धार्मिक पुण्य मिलता है और न ही स्वर्ग। वे पुरुष जो पुष्कर में रहते हैं और कलियुग में ब्रह्मा की पूजा करने पर आमादा हैंधन्य हैं; दूसरों के पास कोई लक्ष्य नहीं है, वे पीड़ित हैं। मनुष्य उस पाप से मुक्त हो जाता है जो वह रात में अपनी पांचों इंद्रियों द्वारा, कर्म, विचार और वाणी द्वारा और कामना और क्रोध के प्रभाव में करता है, जब वह पुष्कर के जल में जाने के बाद पोते (अर्थात ब्रह्मा) के पास पहुँचता है ) और पवित्र हो जाता है। सूर्य को उसके उदय से उसके ऊपर जाने तक (आकाश में) देखने से मनुष्य का पाप दूर हो जाता है, जब वह मानसिक (मिलन) नामक ब्रह्मा के मिलन में ध्यान करता है। मध्याह्न में ब्रह्मा के दर्शन करने से मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है।

268. एक आदमी उस पाप से मुक्त हो जाता है जो वह दोपहर से सूर्यास्त तक करता है जब वह केवल शाम को ब्रह्मा को देखता है।

269-270. यद्यपि ब्रह्मा का वह भक्त, जो पुष्कर में रहता है, तपस्या में रहता है, ध्वनि जैसी इंद्रियों के सभी विषयों का भोग करता है, और पुंकरा वन में रहकर दिन में तीन बार भी स्वादिष्ट व्यंजन खाता है, उसे वायु पर निर्वाह करने वाले के बराबर माना जाता है।

271. जो पुरुष पुष्कर में रहते हैं, वे पवित्र कर्म करते हैं, इस पवित्र स्थान की शक्ति से महान सुख प्राप्त करते हैं।

272. जैसे महान महासागर के बराबर कोई जलाशय नहीं है, वैसे ही पुष्कर जैसा कोई पवित्र स्थान नहीं है।

273-275. पुष्कर जैसा कोई अन्य पवित्र स्थान नहीं है जो गुणों में इसे पार कर सके। मैं आपको (नाम) अन्य (देवताओं) के बारे में बताऊंगा जो इस पवित्र स्थान में बस गए हैं: विष्णु और इंद्र और अन्य के साथ सभी देवता; गजानन , कार्तिकेय ; सूर्य के साथ रेवंता ; शिव की दूत देवी दुर्गा , जो हमेशा कल्याणकारी हैं। देवताओं और वरिष्ठों के प्रति सम्मान और (भुगतान) अच्छे कर्म करने वालों के लिए पर्याप्त (अर्थात कोई आवश्यकता नहीं) तपस्या और संयम।

276-277। एक ब्राह्मण, जो व्रत और व्रत के रूप में इस तरह के कृत्यों को करता है, बिना कुछ किए सर्वश्रेष्ठ पुष्कर वन में रहता है, उसकी सभी इच्छाएं हमेशा पूरी होती हैं, भले ही वह यहां रहता है। वह ब्रह्मा के समान महान अविनाशी स्थान पर जाता है।

278-279। इस पवित्र स्थान के निवासी इस पवित्र स्थान (सिर्फ) में एक दिन में वह फल प्राप्त करते हैं जो बारह वर्षों में कृत (युग) में, एक वर्ष में त्रेता (युग) में और एक महीने में द्वापर ( युग) में प्राप्त होता है। ) ऐसा मुझे पहले देवताओं के देवता ब्रह्मा ने बताया था।

280. पृथ्वी पर इससे श्रेष्ठ कोई दूसरा पवित्र स्थान नहीं है। इसलिए मनुष्य को सभी प्रयत्नों से इस वन का आश्रय लेना चाहिए।

281. एक गृहस्थ, एक ब्रह्मचारी, एक लंगर और एक भिखारी - जो (ऊपर) बताए गए हैं वे सभी एक महान स्थिति को प्राप्त करते हैं।

282. वह, जो बिना किसी इच्छा या घृणा के, जीवन के एक (विशेष) चरण में धार्मिक नियमों का विधिवत पालन करता है, उसे अगले दुनिया में सम्मानित किया जाता है।

283. ब्रह्मा ने यहां चार पायदानों वाली सीढ़ी स्थापित की है। इस सीढ़ी का सहारा लेने वाले को ब्रह्मा की दुनिया में सम्मानित किया जाता है।

284. वह, जो नैतिक योग्यता और सांसारिक समृद्धि को जानता है, उसे अपने जीवन के एक चौथाई (अवधि) के लिए एक गुरु या उसके पुत्र के साथ रहना चाहिए और ब्रह्मा की पूजा करनी चाहिए।

285. वह जो नैतिक कर्तव्य में उत्कृष्ट होना चाहता है, उसे एक गुरु से सीखना चाहिए; वर्तमान देना चाहिए (गुरु को); और जब बुलाया जाए तो गुरु की सहायता करनी चाहिए।

286. (रहते हुए) गुरु के घर में उसके पीछे सोना चाहिए और गुरु के उठने से पहले उठना चाहिए। वह सब करना चाहिए अर्थात सेवा आदि जो शिष्य को करनी चाहिए।

287. वह सब सेवा करने के बाद, उसे (गुरु) के पास खड़ा होना चाहिए। वह एक सेवक होना चाहिए, सब कुछ कर रहा हो और सभी (प्रकारों) कार्यों में कुशल हो।

288. वह शुद्ध, मेहनती, गुणों से संपन्न होना चाहिए और अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके गुरु को वांछित उत्तर देना चाहिए; उसे गुरु की ओर टकटकी लगाकर देखना चाहिए।

289-290। जब तक गुरु न खाए, तब तक वह न खाए; जब तक गुरु ने ऐसा न किया हो, तब तक उसे (पानी) नहीं पीना चाहिए। गुरु के खड़े होने पर नहीं बैठना चाहिए, और जब तक गुरु सो नहीं जाता तब तक नहीं सोना चाहिए; अपने हाथों को फैलाकर (गुरु के) पैर दबाएं; और (गुरु के) दाहिने पैर को अपने दाहिने हाथ से और बाएं पैर को अपने बाएं हाथ से दबाएं।

291. अपने नाम की घोषणा करते हुए और उपदेशक को सलाम करते हुए कहना चाहिए, 'हे श्रद्धेय श्रीमान, मैं यह करूँगा, और मैंने यह किया है'।

292. गुरु को यह सब बताकर और धन देकर वह सब काम (जो उसे सौंपा गया हो) करे और गुरु को बता दे।

293. (केवल) गुरु के घर से लौटने के बाद उसे उन सभी गंधों और स्वादों का आनंद लेना चाहिए, जो एक ब्रह्मचारी को पसंद नहीं है। यह कानून की निश्चित राय है (-पुस्तकें)।

294. गुरु के शिष्य और भक्त को ब्रह्मचारी के लिए निर्धारित सभी नियमों का विस्तार से पालन करना चाहिए।

295. शिष्य को स्वयं अपनी शक्ति के अनुसार अपने गुरु को स्नेह देकर गांव के बाहर आश्रम में अपना कर्तव्य निभाते हुए रहना चाहिए।

296-297. इसी प्रकार नीचे पड़े ब्राह्मण को गुरु के मुख से वेद, दो वेद या (तीन) वेद सीखना चाहिए और वेद में दिए गए व्रतों का पालन करना चाहिए और गुरु को अपनी प्राप्ति का एक चौथाई हिस्सा देकर विधिवत घर लौट जाना चाहिए। उपदेशक का घर।

298. धार्मिक गुणों से युक्त पत्नी होने के कारण अग्नि का आह्वान करके उन्हें शांत करना चाहिए। (इस प्रकार) एक गृहस्थ को अपने जीवन के दूसरे भाग में व्यवहार करना चाहिए।

299-300। ऋषियों ने पूर्व में एक गृहस्थ के जीवन के चार तरीके निर्धारित किए हैं: पहला है मकई को तीन साल के लिए पर्याप्त रूप से संग्रहित करना; दूसरा मकई को एक के लिए पर्याप्त स्टोर करना है; तीसरा एक दिन के लिए पर्याप्त मकई स्टोर करना है; चौथा है लिटिल कॉर्न को स्टोर करना। उनमें से अंतिम सबसे अच्छा है क्योंकि यह (सभी) दुनिया (उसके लिए) पर विजय प्राप्त करता है।

301. एक छह कर्तव्यों का पालन करता है (अर्थात सीखना, सिखाना, बलिदान करना, बलिदान में पुजारी के रूप में कार्य करना, उपहार देना और प्राप्त करना); दूसरा अपना जीवन (निष्पादन) तीन कर्तव्यों का पालन करता है; चौथा एक (जीवन) केवल दो कर्तव्यों से। ऐसा ब्राह्मण ब्रह्म में रहता है।

302-305। गृहस्थ की मन्नत के अलावा और कोई महान पवित्र स्थान (अस्तित्व में) नहीं कहा जाता है। अपने लिए खाना नहीं बनाना चाहिए; किसी को बिना किसी कारण के किसी जानवर को नहीं मारना चाहिए, (लेकिन) एक जानवर या गैर-जानवर (उचित) पवित्रीकरण के बाद एक बलिदान (अर्थात बलिदान किया जा सकता है) का पात्र है। उसे न तो दिन में सोना चाहिए और न ही रात के पहले या आखिरी हिस्से में सोना चाहिए। उसे दो भोजन के बीच गलत समय पर भोजन नहीं करना चाहिए, और झूठ नहीं बोलना चाहिए। अपने घर में आने वाला कोई भी ब्राह्मण असम्मानजनक नहीं रहना चाहिए; और उसके मेहमान आदरणीय हैं और कहा जाता है कि वे देवताओं और अयालों को चढ़ावा चढ़ाते हैं। वे वैदिक विद्या के व्रत (अध्ययन) में नहाए हुए हैं, विद्वान हैं और वेदों में महारत हासिल कर चुके हैं।

306. वे अपने स्वयं के कर्तव्य से (करते हुए) अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं, संयमित होते हैं, (अपने) काम में लगे रहते हैं और तपस्या करते हैं। देवताओं और पुतलों को चढ़ाने के लिए उनके सम्मान के लिए चढ़ावा रखा जाता है।

307-308। (परन्तु) जो नाशवान वस्तुओं में आसक्त हो गया है, और धार्मिक प्रथाओं से विचलित हो गया है, और पवित्र अग्नि रखने का व्रत तोड़ दिया है, और अपने गुरु के साथ झूठा खेलता है, और झूठ के प्रति समर्पित है, उसे इन दोनों कर्तव्यों को करने का कोई अधिकार नहीं है। (अर्थात देवताओं और पितरों को अर्पण करना) और ऐसी स्थिति में सभी प्राणियों के साथ (भोजन) बांटना (पूर्ववत) रहता है।

309. इसी तरह एक गृहस्थ को खाना नहीं बनाने वालों को (अपने लिए) देना चाहिए। उसे हमेशा विघास (जो दूसरों के द्वारा खाए गए भोजन के अवशेषों को खाता है) और अमृत - भोजन (यज्ञ के अवशेषों का स्वाद लेने वाला) होना चाहिए।

310. अमृत यज्ञ के अवशेष हैं; और भोजन को यज्ञ के तुल्य बताया गया है। जो (दूसरों के द्वारा) खाया हुआ अवशेष खाता है, वह विघासां कहलाता है ।

311-313. पत्नी के प्रति समर्पित, संयमी, परिश्रमी और अपनी इन्द्रियों को बहुत वश में रखना चाहिए। उसे वृद्ध लोगों, बच्चों, बीमार व्यक्तियों, अपनी जाति के व्यक्तियों और रिश्तेदारों, अपने माता, पिता, दामाद, भाई, पुत्र, पत्नी, बेटी और नौकरों के साथ बहस नहीं करनी चाहिए। इनसे वाद-विवाद (अर्थात् टाला) करने से वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

314-318। इनसे जीतकर वह निस्संदेह सभी संसारों को जीत लेता है। गुरु ब्रह्मा की दुनिया के स्वामी हैं। प्रजापति के लिए जो कुछ भी पवित्र है, उसका पिता पिता है । अतिथि समस्त लोकों का स्वामी है। कार्यवाहक पुजारी वेदों का आश्रय और सर्वोच्च अधिकार है। आकाशीय अप्सराओं की दुनिया में दामाद (स्वामी) है। नातेदार सभी देवताओं के हैं। तिमाहियों में रिश्तेदार शक्तिशाली हैं। धरती पर माता और मामा शक्तिशाली हैं। बूढ़े, बच्चे और बीमार व्यक्ति आकाश में शक्तिशाली हैं। परिवार-पुजारी ऋषियों की दुनिया के स्वामी हैं। आश्रित (आकाशीय प्राणियों के विशेष वर्ग को कहा जाता है) साध्यसी के शासक हैं. वैद्य अश्विनी लोक के स्वामी हैं। और भाई वसुओं के लोक का स्वामी है । पत्नी चन्द्र लोक की अधिष्ठात्री है। आकाशीय अप्सराओं के घर में कन्या शक्तिशाली होती है।

319. सबसे बड़ा भाई पिता के बराबर है। पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं। क्लर्क, नौकर, बेटी बहुत दयनीय हैं। अत: (जब) ​​इनका अपमान किया जाए, तो उन्हें बिना क्रोधित हुए, हमेशा उनका साथ देना चाहिए।

320. गृहस्थ जीवन के प्रति समर्पित, धार्मिक कर्तव्यों में दृढ़ और निराश व्यक्ति को एक साथ कई कार्य शुरू नहीं करना चाहिए (लेकिन) कर्तव्यपरायण होकर उसे थोड़ा शुरू करना चाहिए।

321. एक गृहस्थ के निर्वाह के तरीके तीन हैं। उनका मुख्य उद्देश्य सर्वोच्च आनंद है। इसी तरह वे कहते हैं कि जीवन के चार चरण परस्पर (निर्भर) हैं।

322-323। और वह जो (गृहस्थ) बनना चाहता है, उसे निर्धारित सभी नियमों का पालन करना चाहिए। उन्हें छह दिनों के लिए (या एक वर्ष की खपत के लिए) जार में अनाज जमा करके (जीवित) रहना चाहिए, या कबूतरों की तरह अनाज इकट्ठा करके (अर्थात बहुत कम भंडारण करके) रहना चाहिए; और वह राष्ट्र, जिसमें ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति रहते हैं, समृद्ध होता है। ऐसा व्यक्ति पूर्व के दस दादा-दादी (अर्थात पूर्वजों) और दस (पीढ़ी) को शुद्ध करता है।

324. वह, जो पीड़ा से मुक्त होकर गृहस्थ के जीवन का अनुसरण करता है, उसे विष्णु के लोकों के समान स्थान प्राप्त होगा।

325. या यह उन लोगों की स्थिति कहा जाता है जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है। स्वर्ग उन्हीं का निवास है जो आत्मसंयमी हैं।

326. यह सीढ़ी ब्रह्मा द्वारा रखी गई है। इससे मुक्त होने वाला, दूसरे को नियत क्रम में प्राप्त करने पर, स्वर्ग में सम्मानित होता है।

327. मैं तीसरे का वर्णन करूंगा - एंकराइट का चरण; (कृपया मेरी बात सुने। जब गृहस्थ अपने को झुर्रीदार और भूरे बालों से युक्त देखता है और अपने बच्चे को देखता है, तो उसे वन का ही सहारा लेना चाहिए।

328-337. हे भीष्म, तेरा कल्याण हो, गृहस्थ की अवस्था से विरक्त, जो एंकोराइट की अवस्था में रहते हैं, समस्त लोकों के समर्थक, जो दीक्षा पाकर वन में चले गए हैं, उनका (लेखा) सुनो। जो पवित्र देशों में रहते हैं, जिनके पास बुद्धि की शक्ति है और जो सत्य, पवित्रता और क्षमा से संपन्न हैं। जीवन के तीसरे भाग में लंगर की अवस्था में रहते हुए, वह, एक बलिदानी, को उसी दिव्य अग्नि को प्रवृत्त करना चाहिए (जैसा कि उसने एक गृहस्थ के रूप में किया था)। भोजन (आदतों) में नियंत्रित और मध्यम और विष्णु के प्रति समर्पित और संलग्न, उसे हर तरह से अग्निहोत्र (जारी) करना चाहिए(पवित्र अग्नि का रखरखाव) और अन्य बलिदान की आवश्यकताएं। वह (उसे निर्वाह करना चाहिए) चावल और जौ जंगली उगने और खाने के पत्तों पर। माघ मास से ग्रीष्म ऋतु (शुरुआत) में उसे हवन करना चाहिए. निर्वाह के ये चार तरीके एंकराइट के चरण में (पाने के लिए) कहा जाता है। कुछ तुरंत खाते हैं (यानी कुछ भी स्टोर न करें); कुछ भंडार (अनाज) एक महीने तक चलने वाला, या एक साल तक चलने वाला या बारह साल तक मेहमानों और यज्ञ अनुष्ठानों के सम्मान के लिए। वर्षा ऋतु में वे आकाश के नीचे रहते हैं; सर्दियों में वे पानी का सहारा लेते हैं; गर्मियों में वे पांच अग्नि की तपस्या का अभ्यास करते हैं (अर्थात चार अग्नि चारों दिशाओं में एक के चारों ओर रखी जाती हैं और सूर्य पांचवीं अग्नि है); शरद ऋतु में वे अवांछित भिक्षा खाते हैं। वे जमीन पर लुढ़कते हैं या अपने पैरों के अग्र भाग पर खड़े होते हैं। वे स्थिर मुद्रा में या यहां तक ​​कि अपने (अपने आवास) में भी रहते हैं। कुछ अपने दांतों का उपयोग मोर्टार के लिए करते हैं, जबकि अन्य चीजों को तेज़ करने के लिए पत्थरों का उपयोग करते हैं।

338-339। कुछ लोग शुक्ल पक्ष में उबला हुआ खट्टा घी पीते हैं; या कुछ अंधेरे पखवाड़े में; या जब (और जब) उन्हें कुछ मिलता है (खाने के लिए); एंकराइट के जीवन के तरीके का अभ्यास करते हुए, और दृढ़ संकल्प के कुछ लोग जड़ों पर रहते हैं, अन्य फलों पर और (अभी भी) अन्य पानी पर रहते हैं।

340-341। ये और अन्य उन उच्च विचारों वाले लोगों के विभिन्न धार्मिक संस्कार हैं। जीवन की चौथी विधा (यानी संन्यास ) जैसा कि उपनिषदों में वर्णित है, को सार्वभौमिक कहा जाता है। एक अकोराइट के जीवन का तरीका एक है; एक गृहस्थ के जीवन का दूसरा तरीका है। उसी जीवन में दूसरा (अर्थात् संन्यास ) आगे बढ़ता है (इनके बाद)। (ऐसा कहा गया है) सब कुछ देखने वाले ऋषियों ने।

342-343। ये (ऋषि) अर्थात। अगस्त्य और सात ऋषि, मधुचंददास , गवेशण , संकीति, सदिव, भाशी , यवप्रोथा, अथर्वण , अहोवरी, इसलिए भी काम्य , स्थानु , और बुद्धिमान मेधाती , मनोवक, शृण्य, उनके कर्तव्य को जानकर, स्वर्ग, मानोका, शृण्यव गए।

344-345. जो धर्म के अवतार हैं, उसी प्रकार घोर तपस्या करने वाले और धार्मिक मामलों में कौशल दिखाने वाले ऋषियों में से आवारा भिक्षुओं के समूह ने देवताओं के स्वामी को प्रसन्न करके वन का सहारा लिया है।

346. पश्चाताप करने वाले ब्राह्मणों ने छल का त्याग कर वन का आश्रय लिया है। आवारा और अगम्य समूह अपने घरों से दूर दिखाई दे रहे हैं।

347-349। वृद्धावस्था से पीड़ित और रोग (ब्राह्मण) से परेशान होकर जीवन के शेष चरण में चले गए हैं। चौथा, एंकराइट से। शीघ्र कर्म करने वाला, जिसने सभी वेदों का अध्ययन (अध्ययन) किया है और (यज्ञों को) उपहारों के साथ किया है, वह सभी प्राणियों को स्वयं के रूप में देखता है; नरम दिमाग का है, अपने आप में खेल रहा है; आत्म निर्भर, स्वयं में आग लगाकर और सभी संपत्ति को त्याग कर, उसे हमेशा यज्ञ (या यज्ञ) करना चाहिए।

350-351. (मामले में) जो हमेशा यज्ञ करते हैं, वह स्वयं में चला जाता है एक उपयुक्त समय पर उसे अपनी व्यक्तिगत आत्मा के साथ तीनों अग्नि को सर्वोच्च आत्मा में समर्पित करना चाहिए। उसे निन्दा किए बिना, जो कुछ भी मिलता है, उसे किसी भी रूप में खाना चाहिए। जो जीवन के (तीसरे) चरण से प्यार से जुड़ा हुआ है। एंकराइट के सिर और शरीर के अन्य हिस्सों पर बालों को हटा देना चाहिए।

352-359. वह अपने कर्मों से तुरन्त शुद्ध होकर जीवन की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाता है। वह ब्राह्मण, जो सभी प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करने के बाद दुनिया को त्याग देता है, मृत्यु के बाद चमकदार दुनिया में जाता है और अनंत को प्राप्त करता है। वह एक अच्छे चरित्र का और अपने पापों को दूर करने के साथ, इस या अगले दुनिया में या तो आनंद नहीं लेता है। क्रोध और मोह से मुक्त, बिना मित्रता या कलह के, वह आत्म-ध्यान के परिणामस्वरूप उदासीन रहता है। वह दूसरों की मृत्यु से विचलित नहीं होता है; मानसिक रूप से अपने शास्त्रों के प्रति उदासीन है और स्वयं (समझने) में गलती नहीं करता है। उसके लिए, संदेह से मुक्त, सभी प्राणियों को स्वयं के रूप में देखना, और धार्मिकता के इरादे से और अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के साथ, अधिग्रहण (वस्तुओं का) उसकी इच्छा के अनुकूल हो जाता है (अर्थात चीजें अपने स्वयं के पाठ्यक्रम ले सकती हैं)। अब जीवन के उस चौथे चरण का (विवरण) सुनें, जिसे (मेरे द्वारा) वर्णित किया जा रहा है, जिसे सबसे बड़ा चरण कहा जाता है। यह सर्वोच्च लक्ष्य है, जीवन के बहुत ही श्रेष्ठ (अन्य) चरण। उस बात को ध्यान से सुनें जो परम आत्मा के लिए (पहुंच) की जानी चाहिए और जिसे दो चरणों (अर्थात् एक गृहस्थ और लंगर की) से शुद्धिकरण प्राप्त हुआ है और (जो किया जाना चाहिए) उनके बाद। सुनें कि वह तीन चरणों में लाल वस्त्र धारण करता है (अर्थात जो तपस्वी को स्वीकार करता है) -अद्वितीय चरण - और उस विचार (त्याग के) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। जीवन के बहुत अधिक श्रेष्ठ (अन्य) चरण। उस बात को ध्यान से सुनें जो परम आत्मा के लिए (पहुंच) की जानी चाहिए और जिसे दो चरणों (अर्थात् एक गृहस्थ और लंगर की) से शुद्धिकरण प्राप्त हुआ है और (जो किया जाना चाहिए) उनके बाद। सुनें कि वह तीन चरणों में लाल वस्त्र धारण करता है (अर्थात जो तपस्वी को स्वीकार करता है) -अद्वितीय चरण - और उस विचार (त्याग के) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। जीवन के बहुत अधिक श्रेष्ठ (अन्य) चरण। उस बात को ध्यान से सुनें जो परम आत्मा के लिए (पहुंच) की जानी चाहिए और जिसे दो चरणों (अर्थात् एक गृहस्थ और लंगर की) से शुद्धिकरण प्राप्त हुआ है और (जो किया जाना चाहिए) उनके बाद। सुनें कि वह तीन चरणों में लाल वस्त्र धारण करता है (अर्थात जो तपस्वी को स्वीकार करता है) -अद्वितीय चरण - और उस विचार (त्याग के) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। उसके लिए जो परम आत्मा के लिए (पहुंच) किया जाना चाहिए और जिसे दो चरणों (अर्थात एक गृहस्थ और लंगर के) से शुद्धिकरण प्राप्त हुआ है और (जो किया जाना चाहिए) उनके बाद। सुनें कि वह तीन चरणों में लाल वस्त्र धारण करता है (अर्थात जो तपस्वी को स्वीकार करता है) -अद्वितीय चरण - और उस विचार (त्याग के) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। उसके लिए जो परम आत्मा के लिए (पहुंच) किया जाना चाहिए और जिसे दो चरणों (अर्थात एक गृहस्थ और लंगर के) से शुद्धिकरण प्राप्त हुआ है और (जो किया जाना चाहिए) उनके बाद। सुनें कि वह तीन चरणों में लाल वस्त्र धारण करता है (अर्थात जो तपस्वी को स्वीकार करता है) -अद्वितीय चरण - और उस विचार (त्याग के) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। जो तपस्या को स्वीकार करता है)—अद्वितीय चरण—और उस विचार (त्याग) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)। जो तपस्या को स्वीकार करता है)—अद्वितीय चरण—और उस विचार (त्याग) के साथ (सब कुछ) त्याग कर, व्यवहार करता है; किसी और के साथ नहीं, उसे अकेले ही धार्मिकता का अभ्यास करना चाहिए। वह, जो एक समझदार व्यक्ति है, जो स्वयं (धार्मिकता) का अभ्यास करता है, वह (किसी को भी नहीं छोड़ता है और न ही किसी चीज में कमी है)।

360-363. न अग्नि को बनाए रखने और न रहने के लिए, उसे भिक्षा के लिए एक गाँव (केवल) का सहारा लेना चाहिए। एक तपस्वी विचारों (उपयुक्त) से संपन्न, उसे भविष्य के लिए कुछ भी नहीं रखना चाहिए। उसे कम खाना चाहिए, भोजन (आदतों) पर नियंत्रण रखना चाहिए, और एक बार (दिन में) भोजन करना चाहिए। उसे (भीख माँगना-) कटोरा लेना चाहिए, पेड़ों की जड़ों में रहना चाहिए, लत्ता पहनना चाहिए, और बिलकुल अकेला रहना चाहिए। उसे सभी प्राणियों के प्रति उदासीन होना चाहिए। ये एक तपस्वी के लक्षण हैं। वह, जिसके पास शब्द शवों के रूप में जाते हैं (हैं) एक कुएं में, और उनके पास कभी नहीं लौटता है जो उन्हें कहता है (अर्थात वह जो सभी आलोचनाओं के लिए बहरा है) तपस्वी के चरण में रहना चाहिए। उसे न तो देखना चाहिए और न ही वह सुनना चाहिए जो दूसरों को बताने के योग्य नहीं है।

364. यह विशेष रूप से ब्राह्मणों के मामले में किसी भी कारण से होना चाहिए; उसे हमेशा वही बोलना चाहिए जो एक ब्राह्मण को पसंद हो ।

365. खुद की देखभाल करते हुए उसे (दूसरों द्वारा) निंदा किए जाने पर चुप रहना चाहिए; ताकि उसके एक होने से सारा स्थान भर जाए।

366. भगवान उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जिसने एक शून्य को भर दिया है।

367. देवता उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जो अपने आप को किसी भी चीज़ से ढक लेता है, और कुछ भी खाकर तृप्त हो जाता है।

368. भगवान उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जो एक सर्प की तरह, लोगों से डरता है, या जो, अच्छे दिल के आदमी की तरह, नरक में गिरने से डरता है, या जो एक नीच व्यक्ति की तरह डरता है महिलाओं की।

369. सम्मानित होने पर न तो हर्षित होना चाहिए और न ही अपमानित होने पर उदास होना चाहिए। देवता उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जो सभी प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करता है।

370. उसे न तो मृत्यु का स्वागत करना चाहिए और न ही जीवन का। उसे बस भाग्य का निरीक्षण करना चाहिए जैसे एक बैल (अपने स्वामी के) आदेश की प्रतीक्षा करता है।

371. तब (ऐसे) मन से अप्रभावित, संयमी और बुद्धिहीन होकर सब पापों से मुक्त होकर मनुष्य स्वर्ग को जाता है।

372. जिसे सभी प्राणियों से भय नहीं है और जो प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करता है, और जो शरीर में (अर्थात जीवित रहते हुए) मुक्त हो जाता है, उसे कहीं से भी भय नहीं होता है।

373. जिस प्रकार हाथी के पदचिन्हों के नीचे दूसरों के पदचिन्ह (अर्थात् लुप्त) होते हैं, उसी प्रकार उसके हृदय में सभी प्रकार का ज्ञान निहित है।

374. इस प्रकार सब कुछ, इसलिए पवित्रता और सांसारिक समृद्धि भी, जब हानिरहितता (अभ्यास की जाती है) बढ़ जाती है; जो दूसरों का अहित करता है, वह सदा मरा हुआ है।

375. तो जो (किसी को) कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है, जो उचित रूप से साहसी है, जिसने अपनी इंद्रियों को नियंत्रित किया है। और जो सभी प्राणियों का आश्रय है, वह श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है।

376. इस प्रकार, बुद्धिमान के लिए, जो ज्ञान से संतुष्ट है, जो निडर है, मृत्यु कोई अतिरिक्त शर्त नहीं है; और, वह अमरता तक पहुँच जाता है।

377. देवता उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जो सभी आसक्तियों से मुक्त ऋषि है, अंतरिक्ष की तरह रहता है, वही करता है जो विष्णु को प्रिय और शांत होता है।

378. देवता उसे एक ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जिसका जीवन धर्मपरायणता के लिए है, और जिसकी धर्मपरायणता स्नेह के लिए है; और जिनके दिन और रात नेक कामों के लिए हैं।

379. देवता उसे ब्राह्मण के रूप में देखते हैं, जो (सभी) कार्यों से दूर रहता है, जो अभिवादन और प्रशंसा से बचता है, जो अप्रभावित रहता है, और (जिसके प्रभाव) कम हो जाते हैं।

380. सभी प्राणी खुशी से आनंद लेते हैं; सभी दुख अत्यधिक हैं; उनके जन्म देने से निराश होकर उन्हें अपने कर्मों (अर्थात कर्तव्य) को विश्वास के साथ करना चाहिए।

381. उनका उपहार प्राणियों को सुरक्षा प्रदान करना है; यह दुनिया के सभी (अन्य) उपहारों से श्रेष्ठ है। जो सबसे पहले अपने शरीर को कठोरता के लिए अर्पित करता है, वह प्राणियों से अनंत सुरक्षा प्राप्त करता है।

382. वह अपने मुंह से खुले दिमाग से अर्पण करता है (यानी वह केवल मौखिक रूप से यज्ञ करता है)। वह हर जगह एक अंतहीन अवधि के लिए एक उच्च स्थान प्राप्त करता है। यह सब उसके शरीर के संपर्क के कारण निकला है; वैष्णर (परमात्मा) तक पहुँच गया है ।

383. जो कुछ भी, वह अपने लिए बलिदान करता है, वह अपने दिल में अर्पित करता है, जो अंगूठे और तर्जनी के बीच की अवधि के माप के (यानी) फैल गया है, आत्मा में रहता है, सभी लोगों की उपस्थिति में साथ में देवताओं

384. जो लोग त्रिगुणात्मक सूक्ष्म देवता को जानते हैं, जो सर्वोच्च वस्तु बन गए हैं, सभी लोकों में सम्मानित (और शक्तिशाली देवता बनकर) अमरत्व को प्राप्त होते हैं।

385. जो अपनी आत्मा में वेदों को पाता है, जो जाना जाता है, संपूर्ण संस्कार, व्युत्पत्ति संबंधी व्याख्याएं और सर्वोच्च सत्य को पाता है, उसके द्वारा हमेशा सभी चलते हैं।

386-388। जो प्रज्वलित किरणों से युक्त है, वह समय के उस चक्र को जानता है, जो जमीन से नहीं चिपकता, जिसे आकाश में नहीं मापा जा सकता, जो परिक्रमा में स्वर्ण है, जो वायुमण्डल में दक्षिण में है, अपने में नहीं। , जो घूम रहा है और घूम रहा है, जिसमें छह गिरियां और तीन अवधि हैं, जिसके उद्घाटन में सब कुछ गिरता है (अर्थात शामिल है), एक गुफा में रखा गया है (अर्थात अस्पष्ट है), जिसके पक्ष में वह जानता है संसार और यहां के सभी लोगों का शरीर, इसमें वह देवताओं को प्रसन्न करता है और (इस प्रकार) नित्य मुक्त हो जाता है।

389-390। सांसारिक वस्तुओं के भय के कारण वह संसार में तेज, सर्वव्यापी, शाश्वत और निकट (परमात्मा) बन जाता है; जिससे (अर्थात्) प्राणी भयभीत नहीं होते, न ही वह सत्ता से ऊब जाता है, कि ब्राह्मण, निंदा के बिना, दूसरों की निंदा नहीं करता है; उसे अपनी आत्मा में बहुत झांकना चाहिए। अपने भ्रम को दूर करने और पापों को नष्ट करने के साथ, वह वांछित के रूप में इस दुनिया और अगले में कठोर हो जाता है।

391. क्रोध और मोह से मुक्त, मिट्टी और सोने के ढेले पर समान रूप से देखने से, उसके दुःख को नष्ट कर दिया, उसकी दोस्ती और झगड़ा बंद हो गया, निंदा या प्रशंसा से मुक्त, प्रिय या अप्रिय कुछ भी नहीं होने के कारण, वह एक उदासीन उदासीन है ( दुनिया के लिए)।

अध्याय१५-समाप्त


पद्म पुराण

यह पृष्ठ गायत्री के अधिग्रहण का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 16 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) के बारे में बताया गया है। 

अध्याय 16 - गायत्री की प्राप्ति

भीष्म ने कहा :

1-2. हे ब्राह्मण , (अब) कि आपने मुझे पवित्र स्थान का उत्कृष्ट महत्व बताया है, कि पवित्र स्थान कमल के पतन से पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न हुआ था, ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ, मुझे वह सब बताओ जो पूज्य हैं विष्णु और शंकर , जो वहां रहे, ने किया।

3. (मुझे बताओ) सर्वशक्तिमान भगवान द्वारा यज्ञ कैसे किया गया था। सदस्य कौन थे? पुजारी कौन थे? कौन से ब्राह्मण वहाँ पहुँचे?

4. बलिदान के कौन से हिस्से थे? सामग्री क्या थी? बलिदान शुल्क क्या था? वेदी क्या थी? ब्रह्मा ने (वेदी का) क्या उपाय अपनाया था?

5. किस इच्छा का मनोरंजन करते हुए, ब्रह्मा, जिसे सभी देवताओं द्वारा यज्ञ किया जाता है और जिसे सभी वेदों द्वारा वर्णित किया गया है , यज्ञ किया था?

6-11. जैसे यह देवता, देवताओं का स्वामी, अविनाशी और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अविनाशी है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि के लिए आहुति के लिए आई हैं। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जितने भी अन्य जानवर (देखे गए) हैं, वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान के लिए बनाए गए हैं। आपकी ये बातें सुनकर मुझे इस विषय में जिज्ञासा हुई है। कृपया मुझे वह सब बताएं कि उन्होंने किस इच्छा, किस फल और किस विचार से यज्ञ किया था। यहां कहा गया है कि सौ रूपों वाली महिला सावित्री है । उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है। 

सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसेदक्ष ।

12-17. सावित्री ने भी स्वयंभू की तरह मनु को जन्म दिया । यह कैसे हुआ कि ब्राह्मण को प्रिय, ब्रह्मा ने उस धार्मिक रूप से विवाहित धन्य पत्नी को त्याग दिया, पुत्रों से संपन्न, समर्पित (अपने पति के लिए), एक अच्छे व्रत के लिए और आकर्षक रूप से मुस्कुराते हुए, और दूसरी पत्नी को ले लिया? (दूसरी पत्नी का) नाम क्या था? उसका आचरण कैसा था? वह किस स्वामी की पुत्री थी? उसे प्रभु ने कहाँ देखा था? उसे किसने दिखाया? उसने मन को मोहित करके किस रूप में देखा—देखकर देवताओं का स्वामी काम के वश में आ गया? (क्या) वह, हे ऋषि, जिसने देवताओं के सर्वशक्तिमान स्वामी, सावित्री से श्रेष्ठ रंग और सुंदरता में आकर्षित किया था? मुझे बताओ कि कैसे भगवान ने दुनिया में सबसे सुंदर महिला को स्वीकार किया, और बलिदान कैसे आगे बढ़ा।

18. सावित्री ने उसे ब्रह्मा के पास देखकर क्या किया? और उस समय सावित्री के प्रति ब्रह्मा का क्या दृष्टिकोण था?

19. कृपया (मुझे) वह सब बताएं - सावित्री ने, जिन्हें ब्रह्मा ने संबोधित किया था, फिर से कौन से शब्द बोले?

20-28. तुमने वहाँ क्य किया? (क्या आपने व्यक्त किया) क्रोध या (क्या आपने दिखाया) धैर्य? जो कुछ तू ने किया, और जो देखा, और जो कुछ अभी मैं ने तुझ से पूछा है, और यहोवा के सब काम मैं विस्तार से सुनना चाहता हूं। तो भी (मैं सुनना चाहता हूं) बलिदान के महान प्रदर्शन को पूरी तरह से। तो कृत्यों का क्रम और उनकी शुरुआत भी। इसी तरह (मैं इसके बारे में सुनना चाहता हूं) यज्ञ,  बलि पुजारी का भोजन। सबसे पहले किसकी पूजा की गई? आदरणीय विष्णु (कार्य) कैसे किया? किसने किसकी मदद की पेशकश की? कृपया (भी) मुझे बताएं कि देवताओं ने क्या किया। कैसे (अर्थात् क्यों) ब्रह्मा ने दैवीय दुनिया को छोड़ दिया और नश्वर दुनिया में (नीचे) आए? (कृपया) मुझे यह भी बताएं कि कैसे उन्होंने (निर्धारित) संस्कार के अनुसार तीन अग्नि की स्थापना की, अर्थात। गृहस्थ की नित्य अग्नि, दक्षिणी अग्नि जिसे अन्वाहाहार्य कहा जाता हैऔर पवित्र अग्नि। कैसे उन्होंने यज्ञ की वेदी, यज्ञ की कलछी, अभिषेक के लिए जल, लकड़ी की करछुल  , हवन के लिए सामग्री तैयार की। उसी प्रकार उस ने तीन बलि और हव्योंके भाग को किस रीति से तैयार किया; कैसे उसने देवताओं को देवताओं के लिए चढ़ावे का प्राप्तकर्ता बनाया, और पुतलों को उनके लिए प्रसाद के प्राप्तकर्ता, विभिन्न (छोटे) बलिदानों के लिए बलिदान की प्रक्रिया के अनुसार किए गए (शेयर) बलिदान में। (तो कृपया मुझे भी बताएं) कि कैसे ब्रह्मा ने यज्ञ सामग्री जैसे बांधने वाले पदों, पवित्र ईंधन और दरभा (घास), सोम को बनाया (तैयार), इसी प्रकार कुण्डा घास की दो धारियाँ,  और डंडियाँ यज्ञ की अग्नि के चारों ओर रखी गईं। (मुझे यह भी बताएं) कि वह पहले अपने सर्वोच्च कार्य के माध्यम से कैसे चमकता था।

29-38. एक महान मन के निर्माता, पूर्व में बनाए गए क्षण, टिमटिमाते हुए , काठ , कला , तीन बार, मुहूर्त , तिथियां, महीने, दिन, वर्ष, मौसम, समय पर मंत्र  तीन गुना पवित्र अधिकार (अर्थात् शास्त्र), जीवन, पवित्र स्थान, कमी, संकेत और रूप की उत्कृष्टता। (उसने) तीन जातियों, तीन लोकों, तीन विद्याओं (अर्थात वेद) और तीन अग्नि, तीन काल, तीन (प्रकार) कृत्यों, तीन जातियों और तीन घटकों को बनाया, इसलिए श्रेष्ठ और अन्य दुनिया। (उसने निर्धारित किया) उन लोगों द्वारा अनुसरण किया गया जो (यानी अभ्यास) धार्मिकता से संपन्न हैं, इसलिए पापपूर्ण कृत्यों के लिए भी। वह चार जातियों का कारण है, चार जातियों का रक्षक, जो (अर्थात वह) चार विद्याओं (अर्थात वेदों) का ज्ञाता है, जीवन के चार चरणों का आश्रय है, उसे सर्वोच्च कहा जाता है प्रकाश और उच्चतम तप, उच्चतम से बड़ा है, जो (स्वयं) सर्वोच्च (आत्मा) है और स्वयंभू है, दुनिया के सेतुओं (रूप में) का सेतु है, पवित्र कर्मों के योग्य, वेदों के ज्ञाता, रचयिता के स्वामी, प्राणियों के प्राण हैं, अग्नि के समान प्रचंड लोगों की अग्नि, जो पुरुषों का मन है, तपस्या है जो लोग इसका अभ्यास करते हैं, उनमें से विवेकपूर्ण की लज्जा, और तेज की चमक; इस प्रकार दुनिया के पोते ने यह सब बनाया। (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है । (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है । (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है ।

39. उच्चतम ब्रह्मा को देवताओं और राक्षसों द्वारा एक आश्चर्य कहा जाता है। यद्यपि वह अपने (अद्भुत) कर्मों के कारण अद्भुत है, उसे यहाँ वास्तव में ऐसा (अर्थात एक आश्चर्य) बताया गया है।

पुलस्त्य बोला :

40-49. ब्रह्मा के बारे में आपके द्वारा पूछे गए प्रश्नों का भार बहुत बड़ा है। मैं अपनी क्षमता के अनुसार बताऊंगा (अर्थात आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा)। उसकी महान महिमा सुनो। (उसके बारे में सुनें) जिसका वेदों को जानने वाले ब्राह्मण वर्णन करते हैं (इस प्रकार): उसके एक हजार मुंह, एक हजार आंखें, एक हजार पैर, एक हजार कान, एक हजार हाथ हैं। (वह) अपरिवर्तनीय है, उसके पास एक हजार भाषाएं हैं, (वह है) हजार गुना, हजार गुना महान स्वामी, वह दाता है (में) एक हजार (तरीके), हजारों की उत्पत्ति है, और एक अपरिवर्तनीय एक हजार है हथियार। (वह है) अर्पण, सोम रस निकालने, भेंट और पुजारी। (वह है) बर्तन, कुश घास के ब्लेड जो यज्ञ में घी को शुद्ध करने और छिड़कने में उपयोग किए जाते हैं, वेदी, दीक्षा, चावल, जौ और दाल की आहुति देवताओं और पितरों को भेंट करने के लिए, बलि की कलछी, साथ ही बलि की आग पर घी डालने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी की सीढ़ी , सोम , आहुति, पवित्र जल, यज्ञ शुल्क के लिए धन, कार्यवाहक पुजारी, सामवेद में पारंगत ब्राह्मण , सदस्य ( बलिदान में उपस्थित), कक्ष, सभा, बांधने का पद, पवित्र ईंधन , चम्मच  मूसल और गारा, वह कमरा जिसमें बलि देने वाले के मित्र और परिवार इकट्ठे होते हैं, बलि की भूमि, गर्म-पुजारी, बंधन, छोटे (या) (उचित-) आकार की निर्जीव वस्तुएं (जैसे मिट्टी, पत्थर), दरभ , इसलिए वैदिक भजन, यज्ञ, अग्नि के साथ एक आहुति की पेशकश, अग्नि का भाग , और वह जो श्रेष्ठता है, वह जो पहले भोग करता है, यज्ञ का भोक्ता। वह एक शुभ चमक वाला है, जिसने अपना हथियार, बलिदान और शाश्वत स्वामी उठाया है। (मैं आपको बताऊंगा), हे महान राजा, यह दिव्य विवरण जिसके बारे में आप (मुझसे) पूछ रहे हैं और जिस कारण भगवान ब्रह्मा ने देवताओं और नश्वर की भलाई के लिए और दुनिया के उत्पादन के लिए पृथ्वी पर यज्ञ किया था। .

50-51. ब्रह्मा, कपिला , और विष्णु, देवता, सात ऋषि, महान पराक्रम के शिव , उच्च आत्मा मनु , श्रद्धेय रचनाकार, ये सभी चमक में आग के समान प्राचीन भगवान द्वारा बनाए गए थे।

52-53. पूर्व में जब कमल-जन्मे (ब्रह्मा) अपने निवास में तपस्या कर रहे थे - पुंकार में - जहाँ देवताओं और ऋषियों के समूह उत्पन्न हुए थे, उनके उच्च आत्मा वाले प्रकटीकरण को पौष्करक कहा जाता है, जिसके बारे में पुराण , अच्छी तरह से सहमत है वेदों और स्मृतियों के साथ सुनाया जाता है।

54-67. वहाँ शास्त्रों के मुख वाला एक वराह प्रकट हुआ। देवताओं के भगवान ने सूअर के रूप का सहारा लिया, पुष्कर में एक व्यापक पवित्र स्थान बनाया - क्योंकि यह एक लाल कमल का उद्घाटन है - स्वयं को ब्रह्मा की सहायता के लिए प्रकट किया। उनके पैर वेदों के रूप में, नुकीले बन्धन पदों के रूप में, हाथ यज्ञ के रूप में, मुख आयताकार के रूप में, जीभ अग्नि के रूप में, बाल दरभों के रूप में थे , पवित्र ग्रंथों के रूप में सिर और महान तपस्या थी (उसके श्रेय के लिए)। दिन और रात के रूप में उनकी आंखें थीं, दिव्य थे, वेदों के शरीर और शास्त्रों के आभूषण थे, घी के रूप में एक नाक थी, एक बलि की कलछी का मुंह, सामन की आवाज से महान था.

 वह सत्य से भरा हुआ था, वैभव से युक्त था, और अपने कदमों और कदमों से सुशोभित था। उसके पास प्रायश्चित के रूप में कीलें थीं, और वह दृढ़ था; जानवरों के रूप में घुटने और बलि की आकृति थी; उद्घाटी थी-पुजारी ने अपनी आंत के रूप में, अपने जननांग अंग के रूप में बलिदान किया था; वह फलों और बीजों वाला एक बड़ा पौधा था; उसके मन में वायु, हडि्डयों के समान स्तुति, होठों के समान जल और सोम का लहू था; उसके कंधे वेद थे, उसके पास यज्ञों की सुगंध थी; वह देवताओं और पितरों को चढ़ाए जाने के साथ बहुत तेज था। उनका शरीर यज्ञ कक्ष था जिसके स्तंभ पूर्व की ओर मुड़े हुए थे; वह उज्ज्वल था; और दीक्षाओं से सजाया गया था; वह, एक चिंतनशील संत, उसके दिल के रूप में बलिदान शुल्क था; और वह महान यज्ञों से भरा हुआ था। वह उपकर्म के यज्ञ समारोह के कारण आकर्षक थे । उनके पास सोम-यज्ञों के प्रारंभिक संस्कारों के रूप में आभूषण थे। 

वह अपनी पत्नी के साथ उसकी छाया की तरह था, और एक रत्नमय शिखर की तरह ऊंचा था। जिसने लोगों के हित को देखा, उसने अपने नुकीले से पृथ्वी का उत्थान किया। तब वह, पृथ्वी का धारक, पृथ्वी को उसके स्थान पर लाकर, पृथ्वी को बनाए रखने से संतुष्ट हो गया। इस प्रकार, पहले वराह ने ब्रह्मा की भलाई की इच्छा रखते हुए, पृथ्वी को जब्त कर लिया, जो पहले समुद्र के पानी में नीचे चली गई थी। ब्रह्मा, लाल कमल के उद्घाटन पर शेष, (यानी) शांति और संयम से आच्छादित, चल और अचल के स्वामी, वैभव से संपन्न, वेदों को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ, आदित्य जैसे देवताओं के साथ  , वसुस  , साध्य मारुत्सी, रुद्र  - सभी के मित्र, वैसे ही यक्षों , राक्षसों और किन्नरों द्वारा भी , दिशाओं और मध्यवर्ती दिशाओं, महासागरों के साथ-साथ पृथ्वी पर नदियों ने ये शब्द कहे (सूअर के रूप में विष्णु को): "हे भगवान, आप हमेशा पवित्र स्थान कोकामुख (यानी पुष्कर) की देखभाल और रक्षा करेंगे; यहाँ, बलिदान पर आप (बलिदान की) सुरक्षा करेंगे।"

68. तब उन्होंने ब्रह्मा से कहा: "आदरणीय, मैं ऐसा करूँगा"। ब्रह्मा ने फिर से भगवान विष्णु से कहा जो उनके सामने खड़े थे:

69-76. "हे सर्वश्रेष्ठ देवताओं, तुम मेरे सबसे बड़े देवता हो, तुम मेरे सबसे अच्छे गुरु हो; तुम मेरे सर्वोच्च सहारा हो और शंकर केऔर दूसरे। हे खिले हुए, बेदाग कमल के समान नेत्रों वाले, शत्रु का संहार करने वाले, ऐसा कर्म करना कि दैत्य मेरे सम्मुख झुके हुए मेरे यज्ञ का नाश न करें। आपको मेरा नमस्कार।" विष्णु ने कहा: "हे देवताओं के भगवान, अपना भय छोड़ दो; मैं उन सभी अन्य (जैसे) बुरी आत्माओं और राक्षसों को नष्ट कर दूंगा जो बाधा उत्पन्न करेंगे। ऐसा कहकर वह, जिसने (ब्रह्मा) की सहायता करने का वचन लिया था, वहीं रह गया। शुभ हवाएं चलीं और दस क्वार्टर उज्ज्वल थे। बहुत चमकीले प्रकाशमान चन्द्रमा के चक्कर लगा रहे थे। ग्रहों में (कोई) संघर्ष नहीं था, और समुद्र शांत हो गए थे। भूमि धूल रहित थी; जल ने सब को आनन्द दिया; नदियों ने अपने मार्ग का अनुसरण किया; समुद्र उत्तेजित नहीं थे; नियंत्रित दिमाग वाले पुरुषों की इंद्रियां भलाई के लिए अनुकूल थीं। महान संत, दुःख से मुक्त,

77. उस यज्ञ में हवन-यज्ञ शुभ होते थे, लोग सदाचार का पालन करते थे और मन को प्रसन्न करके अच्छे आचरण वाले होते थे।

78-89. एक सत्य व्रत के विष्णु के वचनों को सुनकर, (उनके) शत्रुओं को मारने के बारे में, राक्षसों और बुरी आत्माओं के साथ देवता (वहां) पहुंचे। आत्माएं, भूत-प्रेत-सभी वहां एक के बाद एक आए; इसी तरह गंधर्व , आकाशीय अप्सराएं, नाग और विद्याधरों के समूह  (वहां पहुंचे)। ब्रह्मा के आदेश से, हवा चारों ओर से, पेड़ों को लेकर आई और जड़ी-बूटियाँ जो कामना करती थीं और जो नहीं आना चाहती थीं। दक्षिण दिशा की ओर यज्ञ पर्वत पर पहुँचकर सभी देवता उत्तर में सीमा पर्वत पर ही रहे। उस महान यज्ञ में, गंधर्व, आकाशीय अप्सराएँ और ऋषि, जिन्होंने पश्चिमी दिशा का सहारा लेकर वेदों में महारत हासिल की थी, वहीं रहे। देवताओं के सभी समूहों, सभी राक्षसों और बुरी आत्माओं के यजमानों ने अपने क्रोध को छिपाए रखा और परस्पर स्नेही थे। उन सभी ने ऋषियों की प्रतीक्षा की और ब्राह्मणों की सेवा की। प्रमुख ऋषि, ब्राह्मण ऋषि, ब्राह्मण और दिव्य ऋषि, इसलिए शाही ऋषि भी सभी पक्षों से आए थे। (सभी जानने के लिए उत्सुक थे) यह यज्ञ किस देवता के लिए किया जाएगा? जानवर और पक्षी, इसे देखने की इच्छा से, इसलिए खाने के इच्छुक ब्राह्मण और सभी जातियां उचित क्रम में वहां आई थीं।वरुण ने स्वयं (चयन) में सावधानी बरती कि सर्वश्रेष्ठ भोजन दिया। वरुण-देवी से आने के बाद उन्होंने अपने हिसाब से पका हुआ भोजन तैयार किया। वायु ने विभिन्न प्रकार के भोजन और सूर्य ने द्रव्यों को पचा लिया। भोजन के पाचक सोम और बुद्धि के दाता बृहस्पति (थे) उपस्थित थे। धन का स्वामी (देखभाल) धन, और विभिन्न प्रकार के वस्त्र देने वाला। नदियों के मुखिया सरस्वती , नर्मदा के साथ देवी गंगा ( वहां आई थीं)।

90-111. अन्य सभी शुभ नदियाँ, कुएँ और झीलें, ताल और तालाब, कुएँ किसी देवता या पवित्र उद्देश्य के लिए समर्पित, देवताओं द्वारा खोदी गई कई मुख्य धाराएँ, इसलिए पानी के सभी जलाशय और संख्या में समुद्र; नमक, गन्ना, मादक शराब, दूध और पानी के साथ शुद्ध मक्खन और दही (वहां थे); सात जगत और सात निचले लोक, और सात द्वीप और नगर; पेड़ और लताएँ, घास और फलों के साथ सब्जियाँ; पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि पाँचवें (तत्व) के रूप में - ये तत्व; इसलिए भी जो भी कानून के कोड थे (वहां थे), वेदों, सूत्रों की व्याख्याव्यक्तिगत रूप से उपस्थित थे; (इस प्रकार) अशरीरी, देहधारी और अत्यंत देहधारी, वैसे ही सब (जो था) दृश्यमान- (इस प्रकार) ब्रह्मा द्वारा निर्मित सभी (वस्तुएं) (वहां मौजूद थे)। जब इस प्रकार उस समय देवताओं की उपस्थिति में और ऋषियों की संगति में पोते का बलिदान किया गया, तो शाश्वत विष्णु ब्रह्मा के दाहिने हाथ पर रहे। रुद्र , त्रिशूल धारक, वरदान दाता, भगवान, ब्रह्मा के बाईं ओर रहे। महान आत्मा वाले (ब्रह्मा) ने भी पुजारियों को यज्ञ में भाग लेने के लिए चुना। ऋग्वेद की प्रार्थनाओं का पाठ करते हुए भोगु को आधिकारिक पुजारी के रूप में चुना गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु पुजारी चुना गया। मारिसिक(के रूप में चुना गया था) उदगाती  पुजारी (जो सामवेद के भजनों का जाप करता है ) और नारद (चुना गया) ब्रह्मा पुजारी। सनत्कुमार और अन्य सदस्य (यज्ञ सभा के) थे, इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (बलिदान में शामिल हुईं); ब्रह्मा के पास पुजारियों की (बैठने की) व्यवस्था की गई थी। वे कुबेर द्वारा वस्त्र और आभूषणों से संपन्न थे. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टियों के साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उसने उनसे कहा): "हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिए; यह मेरी पत्नी सावित्री है; तुम मेरी शरण हो।" विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा लिया, क्योंकि यह एक यज्ञ में (प्रारंभिक के रूप में) रखा गया था। ब्राह्मण जोड़े (अर्थात ब्रह्मा और सावित्री) के लिए भी (सुरक्षित) सन के कपड़े। ब्राह्मण वहाँ रह गए (अर्थात ब्राह्मणों ने भर दिया) स्वर्ग को वेदों की ध्वनि (पाठ की) से भर दिया; क्षत्रिय इस दुनिया की रक्षा करने वाले हथियारों के साथ वहीं रहे ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए; उस समय बड़े स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की चीज़ें भी बनाई जाती थीं; इसे पहले अनसुना और अनदेखा देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्राग्वान नाम दिया । (ब्रह्मा ने इसे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी होती है; उन्हें अपने पैर धोने पड़ते हैं, उनके द्वारा बचा हुआ खाना (अर्थात ब्राह्मण) और शुद्ध (जमीन आदि) करना होता है। उन्होंने वहाँ भी (ये बातें) कीं; फिर उनसे कहा, "मैंने तुम्हें ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और तुम्हारे जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा करने के लिए चौथे स्थान पर रखा है; तीनों की सेवा करनी है।" ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को नियुक्त किया और इन्द्र को भीद्वार-अधीक्षक के रूप में, वरुण जल देने के लिए, कुबेर धन वितरित करने के लिए, हवा सुगंध देने के लिए, सूर्य प्रकाश व्यवस्था करने के लिए और विष्णु (प्रमुख) अधिकारी के रूप में रहे। सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर पथ का सहारा लिया।

112-125. सावित्री, उनकी सुंदर पत्नी, जिन्हें अच्छी तरह से सम्मानित किया गया था, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : "मैडम, जल्दी आओ, सभी आग बढ़ गई है (यानी अच्छी तरह से प्रज्वलित हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" वह किसी काम में तल्लीन थी और तुरंत नहीं आती थी, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता है। “मैंने यहाँ द्वार पर कोई सजावट नहीं की है; मैंने दीवार पर चित्र नहीं बनाए हैं; मैंने आंगन में स्वस्तिक [25] नहीं खींचा है। यहां पर गमलों की सफाई ही नहीं की गई है। लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, अभी तक नहीं आई हैं। तो अग्नि की पत्नी स्वाहा भी ; और यमरोड़ा, यम की पत्नी; गौरी, वरुण की पत्नी; सिद्धि , कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, दुनिया की प्यारी। इसी तरह बेटियां मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनश्या , धृति , कामा और गंगा और सरस्वती नदियां अभी तक नहीं आई हैं। इंद्राणी , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी , चंद्रमा को प्रिय । इसी तरह वशिष्ठ की पत्नी श्रृंधति ; इसी प्रकार सात ऋषियों की पत्नियाँ, और अनश्या, अत्रिंकी पत्नी और अन्य महिलाएं, बहुएं, बेटियां, दोस्त, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। मैं अकेला यहाँ (उनकी प्रतीक्षा में) बहुत समय तक रहा हूँ। जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ, मैं अकेली नहीं जाऊँगी। जाओ और ब्रह्मा से कुछ देर रुकने को कहो । मैं शीघ्र ही सब (उन स्त्रियों) के साथ आऊँगा; हे उच्च बुद्धि वाले, देवताओं से घिरे हुए, आप महान कृपा प्राप्त करेंगे; मैं भी वैसा ही करूंगा; इसमें कोई संदेह नहीं।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु ब्रह्मा के पास आए।

126-127. "हे भगवान, सावित्री व्यस्त है; वह घरेलू काम में लगी हुई है। मैं तब तक नहीं आऊँगा जब तक मेरे मित्र न आ जाएँ—उसने मुझसे ऐसा ही कहा है। हे प्रभु, समय बीत रहा है। हे पोते, आज जो चाहो करो।”

128-130. इस प्रकार, ब्रह्मा ने थोड़ा क्रोधित होकर संबोधित किया और इंद्र से कहा: "हे शंकर, मेरे लिए एक और पत्नी जल्दी से यहाँ ले आओ। वह जल्दी करो जिससे बलिदान आगे बढ़े (ठीक से) और देर न हो; जब तक बलि न हो जाए, तब तक मेरे लिथे कोई स्त्री ले आओ; मैं तुमसे याचना कर रहा हूँ; मेरे लिए अपना मन बनाओ; बलिदान समाप्त होने के बाद मैं उसे फिर से मुक्त कर दूंगा।"

131. इस प्रकार संबोधित करते हुए, इंद्र ने पूरी पृथ्वी पर (यानी घूमते हुए) महिलाओं को देखा, (लेकिन) वे सभी दूसरों की पत्नियां थीं।

132-133. एक ग्वाले की पुत्री थी, जो सुन्दर, सुडौल नाक और मनमोहक आँखों की थी। कोई देवी नहीं, कोई गंधर्व महिला नहीं, कोई राक्षस नहीं, कोई महिला नाग नहीं, कोई कन्या उस उत्कृष्ट महिला की तरह नहीं थी। उन्होंने उसे एक अन्य देवी लक्ष्मी की तरह एक आकर्षक रूप में देखा, और उसकी सुंदरता के धन के माध्यम से मन के कार्यों की शक्तियों को कम (यानी विचलित) किया।

134-137. सौन्दर्य से प्रतिष्ठित जो भी वस्तु कहीं भी पाई जाती है, ऐसी हर उत्कृष्ट वस्तु दुबले-पतले शरीर वाली स्त्री से जुड़ी हुई नजर आती थी। उसे देखकर इंद्र ने सोचा: 'यदि वह एक युवती है, तो पृथ्वी पर मुझसे अधिक मेधावी कोई अन्य देवता नहीं है। यह एक महिला का वह रत्न है, जिसके लिए, यदि दादाजी तरसते हैं, तो मेरा यह परिश्रम फलदायी होगा।'

138. उसने उसे नीले आकाश की सुंदरता, एक सुनहरा कमल और एक मूंगा, (अर्थात) उसके अंगों, बालों, गालों, आंखों और होंठों के माध्यम से चमकते हुए और एक सेब की अंकुरित कली के समान देखा- लकड़ी या अशोक का पेड़।

139. 'वह सृष्टिकर्ता द्वारा कैसे बनाई गई थी, उसके दिल में जलती हुई डार्ट और उसकी आंखों में आग की लपटों (जुनून के) के ढेर के साथ, बिना समानता देखे?

140-151. अगर उसने उसे अपने विचार के अनुसार बनाया है तो यह उसके कौशल का सर्वोच्च उत्पाद है। ये दो ऊँचे नुकीले स्तन (उसके द्वारा) बनाए गए हैं; जिसे (अर्थात उन्हें) देखकर मुझे आनंद आ रहा है। किसके दिल में उन्हें देखकर महान आश्चर्य उत्पन्न नहीं होगा? यद्यपि इस होंठ का स्पष्ट रूप से जुनून (भी, लाली) से प्रबल रूप है, फिर भी यह अपने भोक्ता को बहुत खुशी देगा। बाल टेढ़े होने के बावजूद (अर्थात घुंघराले बाल) सुख दे रहे हैं। एक दोष भी, जब वह प्रचुर सौंदर्य का सहारा लेता है, तो वह गुण प्रतीत होता है। (उसकी) आँखों के सजे हुए कोने कानों तक (यानी उसके पास पहुँचे हुए) आ गए हैं; (और इसके लिए) कारण विशेषज्ञ सुंदरता को प्रेम की (बहुत) भावना के रूप में वर्णित करते हैं। उसकी आँखें उसके कानों के आभूषण हैं (और) उसके कान उसकी आँखों के आभूषण हैं। यहां न तो इयररिंग्स की गुंजाइश है और न ही कोलिरियम की। दिल को दो (भागों) में बांटना उसकी नज़रों से शोभा नहीं देता। जो लोग आपके संपर्क में आते हैं, वे कैसे दुख साझा कर सकते हैं (अर्थात हैं)? (यहां तक ​​कि) एक विकृति प्राकृतिक गुणों के साथ सर्व-सुंदर (संपर्क में) हो जाती है। मैंने अपनी सैकड़ों बड़ी-बड़ी आँखों का मूल्यवान अधिकार देखा है। यह उनके कौशल की सीमा है जिसे निर्माता ने इस सुंदर रूप को बनाने में बखूबी प्रदर्शित किया है। वह अपने सुंदर कृत्यों (अर्थात गतियों) के माध्यम से पुरुषों के मन में प्रेम पैदा करती है।' उसका शरीर, जिसकी चमक इस प्रकार सोचकर दूर हो गई थी, लगातार उठती हुई भयावहता से ढका हुआ था। उसे नए सोने की तरह आकर्षण, और कमल-पत्तियों की तरह लंबी आंखों वाले (उसने सोचा:) 'मैंने देवताओं, यक्षों, गंधर्वों, सांपों और राक्षसों की कई महिलाओं को देखा है, लेकिन सौंदर्य का ऐसा धन कहीं नहीं देखा।


इंद्र ने कहा :

152-155. हे आकर्षक भौहों वाले, मुझे बताओ- तुम कौन हो? आप किससे संबंधित हैं? तुम कहाँ से आए हो? आप बीच सड़क पर क्यों खड़े हैं? ये आभूषण जो तुम्हारे शरीर में उत्साह बढ़ाते हैं और जिन्हें तुम धारण करते हो, वे तुम्हें शोभा नहीं देते; (बल्कि) आप उन्हें सजाते हैं। हे सुन्दर नेत्रों वाली, न देवी, न गंधर्व स्त्री, न दैत्य, न नाग नागिन, न किन्नर स्त्री तुम्हारे समान सुन्दर दिखाई देती थी। मेरे द्वारा बार-बार बोलने के बावजूद, आप उत्तर क्यों नहीं देते?

और उस कुमारी ने घबराहट और कांप से अभिभूत होकर इंद्र से कहा:

156-157. "हे योद्धा, मैं एक ग्वाला-युवती हूँ; मैं दूध, यह शुद्ध मक्खन, और मलाई से भरा दही बेचता हूँ। आप जो स्वाद चाहते हैं - दही या छाछ का - इसे (मुझे) बताओ, जितना तुम चाहो ले लो। ”

158. इस प्रकार (उनके द्वारा) संबोधित करते हुए, इंद्र ने दृढ़ता से उसका हाथ पकड़ लिया, और उस बड़ी आंखों वाली महिला को (उस स्थान पर) ले आए जहां ब्रह्मा तैनात थे।

159. वह अपके अपके माता पिता के लिथे रोती या। 'हे पिता, हे माता, हे भाई, यह आदमी मुझे (दूर) जबरन ले जा रहा है।'

160-161। (उसने इंद्र से कहा): "यदि आपको मुझसे कुछ करना है, तो मेरे पिता से अनुरोध करें। वह मुझे तुम्हें दे देगा; सच कह रहा हु। कौन सी युवती आसक्ति से स्नेही पति की लालसा नहीं करती? हे मेरे पिता, हे धर्म में लगे रहने वाले, तुझ से कुछ भी ग्रहण न किया जाएगा।

162-163. मैं अपने सिर को झुकाकर उसे प्रसन्न करूंगा, और प्रसन्न होकर वह (मुझे आपको) अर्पित करेगा। यदि मैं अपने पिता के मन को जाने बिना अपने आप को आपको अर्पित कर दूं, तो मेरी अधिकांश धार्मिक योग्यता नष्ट हो जाएगी और इसलिए मैं आपको खुश नहीं कर पाऊंगा। यदि (केवल) मेरे पिता मुझे आपके सामने प्रस्तुत करते हैं तो मैं अपने आप को आपके अधीन कर दूंगा।

164-168. भले ही शाकर को उसके द्वारा संबोधित किया जा रहा था, फिर भी वह उसे ले गया, और उसे ब्रह्मा के सामने रखकर कहा: "हे बड़ी आंखों वाली महिला, मैं आपको इसके लिए लाया हूं (भगवान); हे उत्तम वर्ण के तू शोकित न हो।” ग्वाले की पुत्री को गोरे रंग और महान् तेज को देखकर, उसने (अर्थात् ब्रह्मा ने) उसे कमल के समान नेत्रों वाली, स्वयं लक्ष्मी समझी। गर्म सोने की दीवार के हिस्से के समान, उसने भी, उसे एक मोटी छाती, नशे में धुत हाथियों की सूंड की तरह गोल जांघों के साथ, लाल और चमकीले नाखूनों की चमक के साथ, खुद को एनिमेटेड (की भावना) के रूप में देखा। ) प्यार। उसे (अपने पति के रूप में) सुरक्षित करने की इच्छा से ग्वाला-युवती बेसुध दिखाई दी। उसने यह भी सोचा (यानी उसके पास) खुद को (उसे) देने का अधिकार है। (उसने खुद से कहा :)

169-180। 'यदि वह मेरी सुन्दरता के कारण मेरे होने की जिद करता है, तो मुझ से बढ़कर और कोई सौभाग्यशाली स्त्री नहीं है। जब से उसने मुझे देखा, वह मुझे ले आया। यदि मैं उसे छोड़ दूं तो मैं मर जाऊंगा; यदि मैं उसे न छोड़ूं तो मेरा जीवन सुखी होगा; और अपमान के कारण मैं—अपना रूप निन्दा करके—दुख का कारण बनूंगा (दूसरों को); वह जिस भी स्त्री को अपनी आंखों से कृपा दृष्टि से देखता है, वह भी धन्य हो जाती है। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है; (तब) उसके बारे में क्या जिसे वह गले लगाता है? दुनिया की सारी सुंदरता विभिन्न तरीकों से चली गई है (यानी अलग-अलग जगहों पर बनी हुई है); (अब) ब्रह्मांड की उत्पत्ति (यानी निर्माता) ने एक ही स्थान पर सुंदरता प्रकट की है। वह कामदेव से ही तुलनीय है; कामदेव की तुलना उनकी प्रतिभा के कारण अच्छी है। मैं इस दु: ख (मेरा) को छोड़ देता हूं। (जीवन में जो कुछ भी मिलता है) उसका कारण न तो पिता है और न ही माता। अगर वह मुझे स्वीकार नहीं करता है या मुझसे थोड़ी बात नहीं करता है, तो मैं उसके लिए तरसता हूं, मुझे दुःख के कारण मृत्यु मिल जाएगी। जब यह निर्दोष अपनी पत्नी के पास जाता है (अर्थात अपनी पत्नी के लिए पति के रूप में कार्य करता है), तो शुद्ध कमल के समान तेज (कारण) स्तनों पर रत्नों की कृपा होगी। उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करें उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करें उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करें रति , क्योंकि हे कामदेव, वह सुन्दरता में तुमसे श्रेष्ठ लगता है। उसने निश्चय ही मेरे मन का मणि और मेरी सारी संपत्ति छीन ली है। चंद्रमा पर जो सुंदरता उसके चेहरे पर दिखाई देती है, उसे कोई कैसे (ढूंढ सकता है)? धब्बे वाली वस्तु और धब्बेदार वस्तु के बीच तुलना करना उचित नहीं है।

181-183. कमल को अपनी आंखों से समानता नहीं मिलती है। जल-शंख की तुलना उसके शंख (समान) कानों से कैसे की जा सकती है? यहां तक ​​कि एक मूंगा भी निश्चित रूप से अपने होंठ के समान नहीं होता है। उसमें अमृत वास करता है। वह निश्चित रूप से अमृत के प्रवाह का कारण बनता है। यदि मैंने अपने पूर्व के सैकड़ों जन्मों में कोई शुभ कार्य किया है, तो उसकी शक्ति के कारण जिसे मैं चाहता हूं, वह मेरा पति हो जाए'।

184-187. जब वह ग्वाला-युवती विचार में लीन होने के कारण स्वयं से परे थी, तो ब्रह्मा ने जल्दी से विष्णु से यज्ञ के लिए (तेजी से) ये शब्द कहे: "और यह है, हे भगवान, गायत्री नाम की देवी , परम धन्य हैं।" जब ये शब्द बोले गए, तो विष्णु ने ब्रह्मा से ये शब्द कहे: "हे संसार के स्वामी, आज गंधर्व - शैली में (विवाह करो, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। अब और संकोच न करें। हे प्रभु, बिना विचलित हुए, उसके इस हाथ को स्वीकार करो।" (तब) पोते ने उससे गंधर्व शैली में विवाह किया।

188-191. उसे (अपनी पत्नी के रूप में) प्राप्त करने के बाद, ब्रह्मा ने सबसे अच्छे अध्वर्यु -पुजारियों से कहा: "मैंने इस महिला को अपनी पत्नी के रूप में लिया है; उसे मेरे घर में रख दो।" पुजारी, वेदों के स्वामी, तब उस युवती को, हिरण के सींग को पकड़े हुए और रेशमी वस्त्र पहने हुए, यज्ञकर्ता की पत्नी के लिए बने कक्ष में ले गए। ऑडुंबरा कर्मचारियों के साथ ब्रह्मा (हाथ में और) हिरण-छिपे से ढके हुए, यज्ञ में वहां चमके, जैसे कि वह अपनी चमक के साथ थे। तब ब्राह्मणों ने, भृगु के साथ, वेदों में बताए अनुसार यज्ञ शुरू किया। फिर वह यज्ञ पुष्कर-तीर्थ में एक हजार युग तक चला (अर्थात जारी रहा ) ।

फुटनोट और संदर्भ:

:

होत्रा : भोग (घी के रूप में) के रूप में अर्पित करने के लिए उपयुक्त कुछ भी।

[2]:

श्रुवा : एक बलि का कलछी।

[3] :

श्रूक : एक प्रकार की लकड़ी की करछुल, जिसका उपयोग यज्ञ की अग्नि में घी डालने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर पलाना या खदीरा से बना होता है। श्रुवा : एक बलि का कलछी।

[4] :

हव्य : देवताओं को भेंट।

[5] :

काव्या : पितरों को भेंट।

[6] :

पवित्रा : कुण्डा घास की दो कलियाँ जो यज्ञ में घी को शुद्ध करने और छिड़कने के काम आती हैं।

[7] :

परिधि : पालना जैसे पवित्र वृक्ष की एक छड़ी यज्ञ की अग्नि के चारों ओर रखी जाती है।

[8] :

योग : मंत्र।

[9] :

प्रोक्ष : पवित्र जल ।

[10] :

दरवे : कलछी, चम्मच।

[11] :

सिटी : चतुष्कोणीय भुजाओं वाला एक आयताकार।

[12] :

उपकर्म : प्रारंभ में किया जाने वाला एक संस्कार।

[13] :

प्रवरग्य: सोम-यज्ञ के लिए एक प्रारंभिक समारोह। उपकर्म : प्रारंभ में किया जाने वाला एक संस्कार।

[14] :

आदित्य : वे बारह सूर्य हैं और ब्रह्मांड के विनाश पर ही चमकने वाले हैं।

[15] :

वसुस : वे देवताओं के एक वर्ग हैं; वे संख्या में आठ हैं: प, ध्रुव, सोम, धारा या धव, अनिला, अनल, प्रत्युष और प्रभास।

[16] :

साध्य : खगोलीय प्राणियों का एक वर्ग।

[17] :

मारुत : देवताओं का एक वर्ग। साध्य : खगोलीय प्राणियों का एक वर्ग।

[18] :

रुद्र : देवताओं के एक समूह का नाम, संख्या में ग्यारह, शिव या शंकर के निम्न रूप माने जाते हैं, जिन्हें समूह का मुखिया कहा जाता है।

[19] :

गंधर्व : देवताओं का एक वर्ग जो देवताओं के गायक या संगीतकार के रूप में माना जाता है और लड़कियों को अच्छी और सहमत आवाज देने के लिए कहा जाता है।

[20] :

विद्याधर : अर्ध-दिव्य प्राणियों या अर्ध-देवताओं का एक वर्ग। हिमालय को उनका पसंदीदा अड्डा माना जाता है। जब भी वे नश्वर द्वारा किए गए असाधारण पुण्य के किसी भी कार्य को देखते हैं, तो उन्हें स्वर्गीय फूलों की वर्षा के रूप में वर्णित किया जाता है। कहा जाता है कि वे हवा में घूमते हैं।

[21] :

वानस्पतिया : एक पेड़, जिसका फल फूल से उत्पन्न होता है जैसे आम।

[22] :

Hotṛ : एक बलि पुजारी, विशेष रूप से वह जो एक यज्ञ में ऋग्वेद की प्रार्थनाओं का पाठ करता है।

[23] :

अध्वर्यु : एक कार्यवाहक पुजारी।

[24] :

उद्घाटी : यज्ञ में चार प्रमुख पुजारियों में से एक; जो सामवेद के मंत्रों का जाप करता है।

[25] :

स्वस्तिक : एक प्रकार का चिन्ह जो सौभाग्य को दर्शाता है।


पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १६

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भीष्म उवाच
यदेतत्कथितं ब्रह्मंस्तीर्थमाहात्म्यमुत्तमम्
कमलस्याभिपातेन तीर्थं जातं धरातले१

तत्रस्थेन भगवता विष्णुना शंकरेण च
यत्कृतं मुनिशार्दूल तत्सर्वं परिकीर्त्तय२

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः
के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः३

के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का चदक्षिणा
का वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विरंचिना४

यो याज्यः सर्वदेवानां वेदैः सर्वत्र पठ्यते
कं च काममभिध्यायन्वेधा यज्ञं चकार ह५

यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते६

अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा७

ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः८

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां९

कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते१०

भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्११

स्वायंभुवादींश्च मनून्सावित्री समजीजनत्
धर्मपत्नीं तु तां ब्रह्मा पुत्रिणीं ब्रह्मणः प्रियः१२

पतिव्रतां महाभागां सुव्रतां चारुहासिनीं
कथं सतीं परित्यज्य भार्यामन्यामविंदत१३

किं नाम्नी किं समाचारा कस्य सा तनया विभोः
क्व सा दृष्टा हि देवेन केन चास्य प्रदर्शिता१४

किं रूपा सा तु देवेशी दृष्टा चित्तविमोहिनी
यां तु दृष्ट्वा स देवेशः कामस्य वशमेयिवान्१५

वर्णतो रूपतश्चैव सावित्र्यास्त्वधिका मुने
या मोहितवती देवं सर्वलोकेश्वरं विभुम्१६

यथा गृहीतवान्देवो नारीं तां लोकसुंदरीं
यथा प्रवृत्तो यज्ञोसौ तथा सर्वं प्रकीर्तय१७

तां दृष्ट्वा ब्रह्मणः पार्श्वे सावित्री किं चकार ह
सावित्र्यां तु तदा ब्रह्मा कां तु वृत्तिमवर्त्तत१८़

सन्निधौ कानि वाक्यानि सावित्री ब्रह्मणा तदा
उक्ताप्युक्तवती भूयः सर्वं शंसितुमर्हसि१९

किं कृतं तत्र युष्माभिः कोपो वाथ क्षमापि वा
यत्कृतं तत्र यद्दृष्टं यत्तवोक्तं मया त्विह२०

विस्तरेणेह सर्वाणि कर्माणि परमेष्ठिनः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण विधेर्यज्ञविधिं परं२१

कर्मणामानुपूर्व्यं च प्रारंभो होत्रमेव च
होतुर्भक्षो यथाऽचापि प्रथमा कस्य कारिता२२

कथं च भगवान्विष्णुः साहाय्यं केन कीदृशं
अमरैर्वा कृतं यच्च तद्भवान्वक्तुमर्हति२३

देवलोकं परित्यज्य कथं मर्त्यमुपागतः
गार्हपत्यं च विधिना अन्वाहार्यं च दक्षिणम्२४

अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव तथा स्रुवम्
प्रोक्षणीयं स्रुचं चैव आवभृथ्यं तथैव च२५

अग्नींस्त्रींश्च यथा चक्रे हव्यभागवहान्हि वै
हव्यादांश्च सुरांश्चक्रे कव्यादांश्च पितॄनपि२६

भागार्थं यज्ञविधिना ये यज्ञा यज्ञकर्मणि
यूपान्समित्कुशं सोमं पवित्रं परिधीनपि२७

यज्ञियानि च द्रव्याणि यथा ब्रह्मा चकार ह
विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठ्येन कर्मणा२८

क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च
मुहूर्तास्तिथयो मासा दिनं संवत्सरस्तथा२९

ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं पुरा
आयुः क्षेत्राण्यपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवम्३०

त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयो वर्णास्त्रयो गुणाः३१

सृष्टा लोकाः पराः स्रष्ट्रा ये चान्येनल्पचेतसा
या गतिर्धर्मयुक्तानां या गतिः पापकर्मणां३२

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः३३

यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्३४

सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम्
वेद्यो यो वेदविदुषां यः प्रभुः प्रभवात्मनाम्३५

असुभूतश्च भूतानामग्निभूतोग्निवर्चसाम्
मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम्३६

विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि
इत्येतत्सर्वमखिलान्सृजन्लोकपितामहः३७

यज्ञाद्गतिं कामन्वैच्छत्कथं यज्ञे मतिः कृता
एष मे संशयो ब्रह्मन्नेष मे संशयः परः३८

आश्चर्यः परमो ब्रह्मा देवैर्दैत्यैश्च पठ्यते
कर्मणाश्चर्यभूतोपि तत्त्वतः स इहोच्यते३९

पुलस्त्य उवाच
प्रश्नभारो महानेष त्वयोक्तो ब्रह्मणश्च यः
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां तत्परं यशः४०

सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्
सहस्रश्रवणं चैव सहस्रकरमव्ययम्४१

सहस्रजिह्वं साहस्रं सहस्रपरमं प्रभुं
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्४२

हवनं सवनं चैव हव्यं होतारमेव च
पात्राणि च पवित्राणि वेदीं दीक्षां चरुं स्रुवम्४३

स्रुक्सोममवभृच्चैव प्रोक्षणीं दक्षिणा धनम्
अद्ध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यान्सदनं सदः४४

यूपं समित्कुशं दर्वी चमसोलूखलानि च
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं बन्धनं च यत्४५

ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि प्रमाणस्थावराणि च
प्रायश्चित्तानि वाजाश्च स्थंडिलानि कुशास्तथा४६

मंत्रं यज्ञं च हवनं वह्निभागं भवं च यं
अग्रेभुजं होमभुजं शुभार्चिषमुदायुधं४७

आहुर्वेदविदो विप्रा यो यज्ञः शाश्वतः प्रभुः
यां पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यामिमां कथां४८

यदर्थं भगवान्ब्रह्मा भूमौ यज्ञमथाकरोत्
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च४९

ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः५० 1.16.50

सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान्प्रजापतिः
पुराणदेवोथ तथा प्रचक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः५१

पुरा कमलजातस्य स्वपतस्तस्य कोटरे
पुष्करे यत्र संभूता देवा ऋषिगणास्तथा५२

एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः
पुराणं कथ्यते यत्र वेदस्मृतिसुसंहितं५३

वराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भूतो विरिंचिनः
सहायार्थं सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः५४

विस्तीर्णं पुष्करे कृत्वा तीर्थं कोकामुखं हि तत्
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुहस्तश्चितीमुखः५५

अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदांगः श्रुतिभूषणः५६

आज्यनासः स्रुवतुंडः सामघोषस्वनो महान्
सत्यधर्ममयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः५७

प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्मखाकृतिः
उद्गात्रांत्रो होमलिंगो फलबीजमहौषधिः५८

वाय्वंतरात्मा मंत्रास्थिरापस्फिक्सोमशोणितः
वेदस्कंधो हविर्गंधो हव्यकव्यातिवेगवान्५९

प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरर्चितः
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्६०

उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः
छायापत्नीसहायो वै मणिशृंगमिवोच्छ्रितः६१

सर्वलोकहितात्मा यो दंष्ट्रयाभ्युज्जहारगाम्
ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः६२

ततो जगाम निर्वाणं पृथिवीधारणाद्धरिः
एवमादिवराहेण धृत्वा ब्रह्महितार्थिना६३

उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागरांबुगता पुरा
वृतः शमदमाभ्यां यो दिव्ये कोकामुखे स्थितः६४

आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः६५

दिग्भिर्विदिग्भिः पृथिवी नदीभिः सह सागरैः
चराचरगुरुः श्रीमान्ब्रह्मा ब्रह्मविदांवरः६६

उवाच वचनं कोकामुखं तीर्थं त्वया विभो
पालनीयं सदा गोप्यं रक्षा कार्या मखे त्विह६७

एवं करिष्ये भगवंस्तदा ब्रह्माणमुक्तवान्
उवाच तं पुनर्ब्रह्मा विष्णुं देवं पुरः स्थितम्६८

त्वं हि मे परमो देवस्त्वं हि मे परमो गुरुः
त्वं हि मे परमं धाम शक्रादीनां सुरोत्तम६९

उत्फुल्लामलपद्माक्ष शत्रुपक्ष क्षयावह
यथा यज्ञेन मे ध्वंसो दानवैश्च विधीयते७०

तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तु ते
विष्णुरुवाच
भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्७१

ये चान्ते विघ्नकर्तारो यातुधानास्तथाऽसुराः
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तिष्ठ पितामह७२

एवमुक्त्वा स्थितस्तत्र साहाय्येन कृतक्षणः
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रसन्नाश्च दिशो दश७३

सुप्रभाणि च ज्योतींषि चंद्रं चक्रुः प्रदक्षिणम्
न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसेदुश्चापि सिंधवः७४

नीरजस्का भूमिरासीत्सकला ह्लाददास्त्वपः
जग्मुः स्वमार्गं सरितो नापि चुक्षुभुरर्णवाः७५

आसन्शुभानींद्रियाणि नराणामंतरात्मनाम्
महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरवाचयन्७६

यज्ञे तस्मिन्हविः पाके शिवा आसंश्च पावकाः
प्रवृत्तधर्मसद्वृत्ता लोका मुदितमानसाः७७

विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधना गिरः
ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह७८

भूतप्रेतपिशाचाश्च सर्वे तत्रागताः क्रमात्
गंधर्वाप्सरसश्चैव नागा विद्याधरागणाः७९

वानस्पत्याश्चौषधयो यच्चेहेद्यच्च नेहति
ब्रह्मादेशान्मारुतेन आनीताः सर्वतो दिशः८०

यज्ञपर्वतमासाद्य दक्षिणामभितोदिशम्
सुरा उत्तरतः सर्वे मर्यादापर्वते स्थिताः८१

गंधर्वाप्सरसश्चैव मुनयो वेदपारगाः
पश्चिमां दिशमास्थाय स्थितास्तत्र महाक्रतौ८२

सर्वे देवनिकायाश्च दानवाश्चासुरागणाः
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा सुप्रीतास्ते परस्परम्८३

ऋषीन्पर्यचरन्सर्वे शुश्रूषन्ब्राह्मणांस्तथा
ऋषयो ब्रह्मर्षयश्च द्विजा देवर्षयस्तथा८४

राजर्षयो मुख्यतमास्समायाताः समंततः
कतमश्च सुरोप्यत्र क्रतौ याज्यो भविष्यति८५

पशवः पक्षिणश्चैव तत्र याता दिदृक्षवः
ब्राह्मणा भोक्तुकामाश्च सर्वे वर्णानुपूर्वशः८६

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ
आगत्यवरुणोलोकात्पक्वंचान्नंस्वतोपचत्८७

वायुर्भक्षविकारांश्च रसपाची दिवाकरः
अन्नपाचनकृत्सोमो मतिदाता बृहस्पतिः८८

धनदानं धनाध्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च
सरस्वती नदाध्यक्षो गंगादेवी सनर्मदा८९

याश्चान्याः सरितः पुण्याः कूपाश्चैव जलाशयाः
पल्वलानि तटाकानि कुंडानि विविधानि च९०

प्रस्रवाणि च मुख्यानि देवखातान्यनेकशः
जलाशयानि सर्वाणि समुद्राः सप्तसंख्यकाः९१

लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्
सप्तलोकाः सपातालाः सप्तद्वीपाः सपत्तनाः९२

वृक्षा वल्ल्यः सतृणानि शाकानि च फलानि च
पृथिवीवायुराकाशमापोज्योतिश्च पंचमम्९३

सविग्रहाणि भूतानि धर्मशास्त्राणि यानि च
वेदभाष्याणि सूत्राणि ब्रह्मणा निर्मितं च यत्९४

अमूर्तं मूर्तमत्यन्तं मूर्तदृश्यं तथाखिलम्
एवं कृते तथास्मिंस्तु यज्ञे पैतामहे तदा९५

देवानां संनिधौ तत्र ऋषिभिश्च समागमे
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे स्थितो विष्णुः सनातनः९६

वामपार्श्वे स्थितो रुद्रः पिनाकी वरदः प्रभुः
ऋत्विजां चापि वरणं कृतं तत्र महात्मना९७

भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः९८

____________________
सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः९९

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते१०० 1.16.100

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः१०१

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह१०२

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं१०३

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः१०४

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः१०५

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः१०६

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः१०७

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं१०८

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः१०९

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्११०

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्१११

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः११२

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता११३

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता११४

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु११५

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या११६

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा११७

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा११९

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः१२०

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह१२१

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं१२२

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्१२३

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते१२४

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः१२५

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम१२६

एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह१२७

एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय१२८

यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय१२९

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह१३०

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः१३१

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी१३२

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम्१३३

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्१३४

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्१३५

तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यते
योषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः१३६

सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमः
नीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां१३७

त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव१३८

प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता१३९

कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं१४०

पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्१४१

तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते१४२

दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ१४३

कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ१४४

कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि१४५

तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः१४६

वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता१४७

करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः१४८

निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्१४९

देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा१५० 1.16.150

त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः१५१

इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि१५२

यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्१५३

न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने१५४

उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती१५५

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्१५६

दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्१५७

एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः१५८

नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्१५९

यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते१६०

का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल१६१

प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते१६२

धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति१६३

इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले१६४

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्१६५

कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्१६६

मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्१६७

तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत१६८

यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि१६९

अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्१७०

भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः१७१

सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्१७२

लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा१७३

तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते१७४

अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी१७५

कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्१७६

अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्१७७

अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्१७८

त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्१७९

शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते१८०

समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः१८१

विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्१८२

यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः१८३

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः१८४

देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्१८५

तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्१८६

अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः१८७

तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय१८८

मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः१८९

औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते१९०

प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्१९१

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः१६
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अध्याय 16 - गायत्री की प्राप्ति

भीम ने कहा :
1-2. हे ब्राह्मण , (अब) कि आपने मुझे पवित्र स्थान का उत्कृष्ट महत्व बताया है, कि पवित्र स्थान कमल के पतन से पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न हुआ था, ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ, मुझे वह सब बताओ जो पूज्य हैं विष्णु और शंकर , जो वहां रहे, ने किया।

3. (मुझे बताओ) सर्वशक्तिमान भगवान द्वारा यज्ञ कैसे किया गया था। सदस्य कौन थे? पुजारी कौन थे? कौन से ब्राह्मण वहाँ पहुँचे?

4. बलिदान के कौन से हिस्से थे? सामग्री क्या थी? बलिदान शुल्क क्या था? वेदी क्या थी? ब्रह्मा ने (वेदी का) क्या उपाय अपनाया था?

5. किस इच्छा का मनोरंजन करते हुए, ब्रह्मा, जिसे सभी देवताओं द्वारा यज्ञ किया जाता है और जिसे सभी वेदों द्वारा वर्णित किया गया है , यज्ञ किया था?

6-11. जैसे यह देवता, देवताओं का स्वामी, अविनाशी और अमर है, वैसे ही स्वर्ग भी उसके लिए अविनाशी है। महान ने अन्य देवताओं को भी स्वर्ग प्रदान किया है। वेद और जड़ी-बूटियाँ अग्नि के लिए आहुति के लिए आई हैं। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि पृथ्वी पर जितने भी अन्य जानवर (देखे गए) हैं, वे सभी इस भगवान द्वारा बलिदान के लिए बनाए गए हैं। आपकी ये बातें सुनकर मुझे इस विषय में जिज्ञासा हुई है। कृपया मुझे वह सब बताएं कि उन्होंने किस इच्छा, किस फल और किस विचार से यज्ञ किया था। यहां कहा गया है कि सौ रूपों वाली महिला सावित्री है । उन्हें ब्रह्मा की पत्नी और ऋषियों की माता कहा जाता है। सावित्री ने पुलस्त्य और अन्य जैसे सात ऋषियों को जन्म दिया और सृजित प्राणियों के स्वामी जैसेदक्ष ।

12-17. सावित्री ने भी स्वयंभू की तरह मनु को जन्म दिया । यह कैसे हुआ कि ब्राह्मण को प्रिय, ब्रह्मा ने उस धार्मिक रूप से विवाहित धन्य पत्नी को त्याग दिया, पुत्रों से संपन्न, समर्पित (अपने पति के लिए), एक अच्छे व्रत के लिए और आकर्षक रूप से मुस्कुराते हुए, और दूसरी पत्नी को ले लिया? (दूसरी पत्नी का) नाम क्या था? उसका आचरण कैसा था? वह किस स्वामी की पुत्री थी? उसे प्रभु ने कहाँ देखा था? उसे किसने दिखाया? उसने मन को मोहित करके किस रूप में देखा—देखकर देवताओं का स्वामी काम के वश में आ गया? (क्या) वह, हे ऋषि, जिसने देवताओं के सर्वशक्तिमान स्वामी, सावित्री से श्रेष्ठ रंग और सुंदरता में आकर्षित किया था? मुझे बताओ कि कैसे भगवान ने दुनिया में सबसे सुंदर महिला को स्वीकार किया, और बलिदान कैसे आगे बढ़ा।

18. सावित्री ने उसे ब्रह्मा के पास देखकर क्या किया? और उस समय सावित्री के प्रति ब्रह्मा का क्या दृष्टिकोण था?

19. कृपया (मुझे) वह सब बताएं - सावित्री ने, जिन्हें ब्रह्मा ने संबोधित किया था, फिर से कौन से शब्द बोले?

20-28. तुमने वहाँ क्य किया? (क्या आपने व्यक्त किया) क्रोध या (क्या आपने दिखाया) धैर्य? जो कुछ तू ने किया, और जो देखा, और जो कुछ अभी मैं ने तुझ से पूछा है, और यहोवा के सब काम मैं विस्तार से सुनना चाहता हूं। तो भी (मैं सुनना चाहता हूं) बलिदान के महान प्रदर्शन को पूरी तरह से। तो कृत्यों का क्रम और उनकी शुरुआत भी। इसी तरह (मैं इसके बारे में सुनना चाहता हूं) यज्ञ, [1] 
बलि पुजारी का भोजन। सबसे पहले किसकी पूजा की गई? आदरणीय विष्णु (कार्य) कैसे किया? किसने किसकी मदद की पेशकश की? कृपया (भी) मुझे बताएं कि देवताओं ने क्या किया। कैसे (अर्थात् क्यों) ब्रह्मा ने दैवीय दुनिया को छोड़ दिया और नश्वर दुनिया में (नीचे) आए? (कृपया) मुझे यह भी बताएं कि कैसे उन्होंने (निर्धारित) संस्कार के अनुसार तीन अग्नि की स्थापना की, अर्थात। गृहस्थ की नित्य अग्नि, दक्षिणी अग्नि जिसे अन्वाहाहार्य कहा जाता हैऔर पवित्र अग्नि। कैसे उन्होंने यज्ञ की वेदी, यज्ञ की कलछी, [2] अभिषेक के लिए जल, लकड़ी की करछुल [3] , हवन के लिए सामग्री तैयार की। उसी प्रकार उस ने तीन बलि और हव्योंके भाग को किस रीति से तैयार किया; कैसे उसने देवताओं को देवताओं के लिए चढ़ावे का प्राप्तकर्ता बनाया, [4] और पुतलों को उनके लिए प्रसाद के प्राप्तकर्ता, [5] विभिन्न (छोटे) बलिदानों के लिए बलिदान की प्रक्रिया के अनुसार किए गए (शेयर) बलिदान में। (तो कृपया मुझे भी बताएं) कि कैसे ब्रह्मा ने यज्ञ सामग्री जैसे बांधने वाले पदों, पवित्र ईंधन और दरभा (घास), सोम को बनाया (तैयार), इसी प्रकार कुण्डा घास की दो धारियाँ, [6] और डंडियाँ यज्ञ की अग्नि के चारों ओर रखी गईं। [7] (मुझे यह भी बताएं) कि वह पहले अपने सर्वोच्च कार्य के माध्यम से कैसे चमकता था।

29-38. एक महान मन के निर्माता, पूर्व में बनाए गए क्षण, टिमटिमाते हुए , काठ , कला , तीन बार, मुहूर्त , तिथियां, महीने, दिन, वर्ष, मौसम, समय पर मंत्र [8], तीन गुना पवित्र अधिकार (अर्थात् शास्त्र), जीवन, पवित्र स्थान, कमी, संकेत और रूप की उत्कृष्टता। (उसने) तीन जातियों, तीन लोकों, तीन विद्याओं (अर्थात वेद) और तीन अग्नि, तीन काल, तीन (प्रकार) कृत्यों, तीन जातियों और तीन घटकों को बनाया, इसलिए श्रेष्ठ और अन्य दुनिया। (उसने निर्धारित किया) उन लोगों द्वारा अनुसरण किया गया जो (यानी अभ्यास) धार्मिकता से संपन्न हैं, इसलिए पापपूर्ण कृत्यों के लिए भी। वह चार जातियों का कारण है, चार जातियों का रक्षक, जो (अर्थात वह) चार विद्याओं (अर्थात वेदों) का ज्ञाता है, जीवन के चार चरणों का आश्रय है, उसे सर्वोच्च कहा जाता है प्रकाश और उच्चतम तप, उच्चतम से बड़ा है, जो (स्वयं) सर्वोच्च (आत्मा) है और स्वयंभू है, दुनिया के सेतुओं (रूप में) का सेतु है, पवित्र कर्मों के योग्य, वेदों के ज्ञाता, रचयिता के स्वामी, प्राणियों के प्राण हैं, अग्नि के समान प्रचंड लोगों की अग्नि, जो पुरुषों का मन है, तपस्या है जो लोग इसका अभ्यास करते हैं, उनमें से विवेकपूर्ण की लज्जा, और तेज की चमक; इस प्रकार दुनिया के पोते ने यह सब बनाया। (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है । (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है । (कृपया बताएं) मुझे बलिदान के परिणामस्वरूप किस मार्ग की इच्छा थी और उन्होंने कैसे यज्ञ करने का निर्णय लिया। यह, हे ब्राह्मण, मेरा संदेह है - यह मेरा महान संदेह है ।

39. उच्चतम ब्रह्मा को देवताओं और राक्षसों द्वारा एक आश्चर्य कहा जाता है। यद्यपि वह अपने (अद्भुत) कर्मों के कारण अद्भुत है, उसे यहाँ वास्तव में ऐसा (अर्थात एक आश्चर्य) बताया गया है।

पुलस्त्य बोला :
40-49. ब्रह्मा के बारे में आपके द्वारा पूछे गए प्रश्नों का भार बहुत बड़ा है। मैं अपनी क्षमता के अनुसार बताऊंगा (अर्थात आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा)। उसकी महान महिमा सुनो। (उसके बारे में सुनें) जिसका वेदों को जानने वाले ब्राह्मण वर्णन करते हैं (इस प्रकार): उसके एक हजार मुंह, एक हजार आंखें, एक हजार पैर, एक हजार कान, एक हजार हाथ हैं। (वह) अपरिवर्तनीय है, उसके पास एक हजार भाषाएं हैं, (वह है) हजार गुना, हजार गुना महान स्वामी, वह दाता है (में) एक हजार (तरीके), हजारों की उत्पत्ति है, और एक अपरिवर्तनीय एक हजार है हथियार। (वह है) अर्पण, सोम रस निकालने, भेंट और पुजारी। (वह है) बर्तन, कुश घास के ब्लेड जो यज्ञ में घी को शुद्ध करने और छिड़कने में उपयोग किए जाते हैं, वेदी, दीक्षा, चावल, जौ और दाल की आहुति देवताओं और पितरों को भेंट करने के लिए, बलि की कलछी, साथ ही बलि की आग पर घी डालने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी की सीढ़ी , सोम , आहुति, पवित्र जल, [9] यज्ञ शुल्क के लिए धन, कार्यवाहक पुजारी, सामवेद में पारंगत ब्राह्मण , सदस्य ( बलिदान में उपस्थित), कक्ष, सभा, बांधने का पद, पवित्र ईंधन , चम्मच [10] , मूसल और गारा, वह कमरा जिसमें बलि देने वाले के मित्र और परिवार इकट्ठे होते हैं, बलि की भूमि, गर्म-पुजारी, बंधन, छोटे (या) (उचित-) आकार की निर्जीव वस्तुएं (जैसे मिट्टी, पत्थर), दरभ , इसलिए वैदिक भजन, यज्ञ, अग्नि के साथ एक आहुति की पेशकश, अग्नि का भाग , और वह जो श्रेष्ठता है, वह जो पहले भोग करता है, यज्ञ का भोक्ता। वह एक शुभ चमक वाला है, जिसने अपना हथियार, बलिदान और शाश्वत स्वामी उठाया है। (मैं आपको बताऊंगा), हे महान राजा, यह दिव्य विवरण जिसके बारे में आप (मुझसे) पूछ रहे हैं और जिस कारण भगवान ब्रह्मा ने देवताओं और नश्वर की भलाई के लिए और दुनिया के उत्पादन के लिए पृथ्वी पर यज्ञ किया था। .

50-51. ब्रह्मा, कपिला , और विष्णु, देवता, सात ऋषि, महान पराक्रम के शिव , उच्च आत्मा मनु , श्रद्धेय रचनाकार, ये सभी चमक में आग के समान प्राचीन भगवान द्वारा बनाए गए थे।

52-53. पूर्व में जब कमल-जन्मे (ब्रह्मा) अपने निवास में तपस्या कर रहे थे - पुंकार में - जहाँ देवताओं और ऋषियों के समूह उत्पन्न हुए थे, उनके उच्च आत्मा वाले प्रकटीकरण को पौष्करक कहा जाता है, जिसके बारे में पुराण , अच्छी तरह से सहमत है वेदों और स्मृतियों के साथ सुनाया जाता है।

54-67. वहाँ शास्त्रों के मुख वाला एक वराह प्रकट हुआ। देवताओं के भगवान ने सूअर के रूप का सहारा लिया, पुष्कर में एक व्यापक पवित्र स्थान बनाया - क्योंकि यह एक लाल कमल का उद्घाटन है - स्वयं को ब्रह्मा की सहायता के लिए प्रकट किया। उनके पैर वेदों के रूप में, नुकीले बन्धन पदों के रूप में, हाथ यज्ञ के रूप में, मुख आयताकार [11] के रूप में, जीभ अग्नि के रूप में, बाल दरभों के रूप में थे , पवित्र ग्रंथों के रूप में सिर और महान तपस्या थी (उसके श्रेय के लिए)। दिन और रात के रूप में उनकी आंखें थीं, दिव्य थे, वेदों के शरीर और शास्त्रों के आभूषण थे, घी के रूप में एक नाक थी, एक बलि की कलछी का मुंह, सामन की आवाज से महान था. वह सत्य से भरा हुआ था, वैभव से युक्त था, और अपने कदमों और कदमों से सुशोभित था। उसके पास प्रायश्चित के रूप में कीलें थीं, और वह दृढ़ था; जानवरों के रूप में घुटने और बलि की आकृति थी; उद्घाटी थी-पुजारी ने अपनी आंत के रूप में, अपने जननांग अंग के रूप में बलिदान किया था; वह फलों और बीजों वाला एक बड़ा पौधा था; उसके मन में वायु, हडि्डयों के समान स्तुति, होठों के समान जल और सोम का लहू था; उसके कंधे वेद थे, उसके पास यज्ञों की सुगंध थी; वह देवताओं और पितरों को चढ़ाए जाने के साथ बहुत तेज था। उनका शरीर यज्ञ कक्ष था जिसके स्तंभ पूर्व की ओर मुड़े हुए थे; वह उज्ज्वल था; और दीक्षाओं से सजाया गया था; वह, एक चिंतनशील संत, उसके दिल के रूप में बलिदान शुल्क था; और वह महान यज्ञों से भरा हुआ था। वह उपकर्म [12] के यज्ञ समारोह के कारण आकर्षक थे । उनके पास सोम-यज्ञों के प्रारंभिक संस्कारों के रूप में आभूषण थे। [13]वह अपनी पत्नी के साथ उसकी छाया की तरह था, और एक रत्नमय शिखर की तरह ऊंचा था। जिसने लोगों के हित को देखा, उसने अपने नुकीले से पृथ्वी का उत्थान किया। तब वह, पृथ्वी का धारक, पृथ्वी को उसके स्थान पर लाकर, पृथ्वी को बनाए रखने से संतुष्ट हो गया। इस प्रकार, पहले वराह ने ब्रह्मा की भलाई की इच्छा रखते हुए, पृथ्वी को जब्त कर लिया, जो पहले समुद्र के पानी में नीचे चली गई थी। ब्रह्मा, लाल कमल के उद्घाटन पर शेष, (यानी) शांति और संयम से आच्छादित, चल और अचल के स्वामी, वैभव से संपन्न, वेदों को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ, आदित्य जैसे देवताओं के साथ [ 14] ] , वसुस [ 15] , साध्य [16] , मारुत्सी[17] , रुद्र [18] - सभी के मित्र, वैसे ही यक्षों , राक्षसों और किन्नरों द्वारा भी , दिशाओं और मध्यवर्ती दिशाओं, महासागरों के साथ-साथ पृथ्वी पर नदियों ने ये शब्द कहे (सूअर के रूप में विष्णु को): "हे भगवान, आप हमेशा पवित्र स्थान कोकामुख (यानी पुष्कर) की देखभाल और रक्षा करेंगे; यहाँ, बलिदान पर आप (बलिदान की) सुरक्षा करेंगे।"

68. तब उन्होंने ब्रह्मा से कहा: "आदरणीय, मैं ऐसा करूँगा"। ब्रह्मा ने फिर से भगवान विष्णु से कहा जो उनके सामने खड़े थे:

69-76. "हे सर्वश्रेष्ठ देवताओं, तुम मेरे सबसे बड़े देवता हो, तुम मेरे सबसे अच्छे गुरु हो; तुम मेरे सर्वोच्च सहारा हो और शंकर केऔर दूसरे। हे खिले हुए, बेदाग कमल के समान नेत्रों वाले, शत्रु का संहार करने वाले, ऐसा कर्म करना कि दैत्य मेरे सम्मुख झुके हुए मेरे यज्ञ का नाश न करें। आपको मेरा नमस्कार।" विष्णु ने कहा: "हे देवताओं के भगवान, अपना भय छोड़ दो; मैं उन सभी अन्य (जैसे) बुरी आत्माओं और राक्षसों को नष्ट कर दूंगा जो बाधा उत्पन्न करेंगे। ऐसा कहकर वह, जिसने (ब्रह्मा) की सहायता करने का वचन लिया था, वहीं रह गया। शुभ हवाएं चलीं और दस क्वार्टर उज्ज्वल थे। बहुत चमकीले प्रकाशमान चन्द्रमा के चक्कर लगा रहे थे। ग्रहों में (कोई) संघर्ष नहीं था, और समुद्र शांत हो गए थे। भूमि धूल रहित थी; जल ने सब को आनन्द दिया; नदियों ने अपने मार्ग का अनुसरण किया; समुद्र उत्तेजित नहीं थे; नियंत्रित दिमाग वाले पुरुषों की इंद्रियां भलाई के लिए अनुकूल थीं। महान संत, दुःख से मुक्त,

77. उस यज्ञ में हवन-यज्ञ शुभ होते थे, लोग सदाचार का पालन करते थे और मन को प्रसन्न करके अच्छे आचरण वाले होते थे।

78-89. एक सत्य व्रत के विष्णु के वचनों को सुनकर, (उनके) शत्रुओं को मारने के बारे में, राक्षसों और बुरी आत्माओं के साथ देवता (वहां) पहुंचे। आत्माएं, भूत-प्रेत-सभी वहां एक के बाद एक आए; इसी तरह गंधर्व , [19] आकाशीय अप्सराएं, नाग और विद्याधरों के समूह [20] (वहां पहुंचे)। ब्रह्मा के आदेश से, हवा चारों ओर से, पेड़ों को लेकर आई [21]और जड़ी-बूटियाँ जो कामना करती थीं और जो नहीं आना चाहती थीं। दक्षिण दिशा की ओर यज्ञ पर्वत पर पहुँचकर सभी देवता उत्तर में सीमा पर्वत पर ही रहे। उस महान यज्ञ में, गंधर्व, आकाशीय अप्सराएँ और ऋषि, जिन्होंने पश्चिमी दिशा का सहारा लेकर वेदों में महारत हासिल की थी, वहीं रहे। देवताओं के सभी समूहों, सभी राक्षसों और बुरी आत्माओं के यजमानों ने अपने क्रोध को छिपाए रखा और परस्पर स्नेही थे। उन सभी ने ऋषियों की प्रतीक्षा की और ब्राह्मणों की सेवा की। प्रमुख ऋषि, ब्राह्मण ऋषि, ब्राह्मण और दिव्य ऋषि, इसलिए शाही ऋषि भी सभी पक्षों से आए थे। (सभी जानने के लिए उत्सुक थे) यह यज्ञ किस देवता के लिए किया जाएगा? जानवर और पक्षी, इसे देखने की इच्छा से, इसलिए खाने के इच्छुक ब्राह्मण और सभी जातियां उचित क्रम में वहां आई थीं।वरुण ने स्वयं (चयन) में सावधानी बरती कि सर्वश्रेष्ठ भोजन दिया। वरुण-देवी से आने के बाद उन्होंने अपने हिसाब से पका हुआ भोजन तैयार किया। वायु ने विभिन्न प्रकार के भोजन और सूर्य ने द्रव्यों को पचा लिया। भोजन के पाचक सोम और बुद्धि के दाता बृहस्पति (थे) उपस्थित थे। धन का स्वामी (देखभाल) धन, और विभिन्न प्रकार के वस्त्र देने वाला। नदियों के मुखिया सरस्वती , नर्मदा के साथ देवी गंगा ( वहां आई थीं)।

90-111. अन्य सभी शुभ नदियाँ, कुएँ और झीलें, ताल और तालाब, कुएँ किसी देवता या पवित्र उद्देश्य के लिए समर्पित, देवताओं द्वारा खोदी गई कई मुख्य धाराएँ, इसलिए पानी के सभी जलाशय और संख्या में समुद्र; नमक, गन्ना, मादक शराब, दूध और पानी के साथ शुद्ध मक्खन और दही (वहां थे); सात जगत और सात निचले लोक, और सात द्वीप और नगर; पेड़ और लताएँ, घास और फलों के साथ सब्जियाँ; पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि पाँचवें (तत्व) के रूप में - ये तत्व; इसलिए भी जो भी कानून के कोड थे (वहां थे), वेदों, सूत्रों की व्याख्याव्यक्तिगत रूप से उपस्थित थे; (इस प्रकार) अशरीरी, देहधारी और अत्यंत देहधारी, वैसे ही सब (जो था) दृश्यमान- (इस प्रकार) ब्रह्मा द्वारा निर्मित सभी (वस्तुएं) (वहां मौजूद थे)। जब इस प्रकार उस समय देवताओं की उपस्थिति में और ऋषियों की संगति में पोते का बलिदान किया गया, तो शाश्वत विष्णु ब्रह्मा के दाहिने हाथ पर रहे। रुद्र , त्रिशूल धारक, वरदान दाता, भगवान, ब्रह्मा के बाईं ओर रहे। महान आत्मा वाले (ब्रह्मा) ने भी पुजारियों को यज्ञ में भाग लेने के लिए चुना। ऋग्वेद [22] की प्रार्थनाओं का पाठ करते हुए भोगु को आधिकारिक पुजारी के रूप में चुना गया था ; पुलस्त्य को सर्वश्रेष्ठ अध्वर्यु [23] पुजारी चुना गया। मारिसिक(के रूप में चुना गया था) उदगाती [24] पुजारी (जो सामवेद के भजनों का जाप करता है ) और नारद (चुना गया) ब्रह्मा पुजारी। सनत्कुमार और अन्य सदस्य (यज्ञ सभा के) थे, इसलिए दक्ष जैसे प्रजापति और ब्राह्मणों से पहले की जातियाँ (बलिदान में शामिल हुईं); ब्रह्मा के पास पुजारियों की (बैठने की) व्यवस्था की गई थी। वे कुबेर द्वारा वस्त्र और आभूषणों से संपन्न थे. ब्राह्मणों को कंगन और पट्टियों के साथ अंगूठियों से सजाया गया था। ब्राह्मण चार, दो और दस (इस प्रकार कुल मिलाकर) सोलह थे। उन सभी को ब्रह्मा ने नमस्कार के साथ पूजा की थी। (उसने उनसे कहा): "हे ब्राह्मणों, इस यज्ञ के दौरान तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिए; यह मेरी पत्नी सावित्री है; तुम मेरी शरण हो।" विश्वकर्मन को बुलाकर , ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का सिर मुंडवा लिया, क्योंकि यह एक यज्ञ में (प्रारंभिक के रूप में) रखा गया था। ब्राह्मण जोड़े (अर्थात ब्रह्मा और सावित्री) के लिए भी (सुरक्षित) सन के कपड़े। ब्राह्मण वहाँ रह गए (अर्थात ब्राह्मणों ने भर दिया) स्वर्ग को वेदों की ध्वनि (पाठ की) से भर दिया; क्षत्रिय इस दुनिया की रक्षा करने वाले हथियारों के साथ वहीं रहे ; वैश्य _विभिन्न प्रकार के भोजन तैयार किए; उस समय बड़े स्वाद से भरपूर भोजन और खाने की चीज़ें भी बनाई जाती थीं; इसे पहले अनसुना और अनदेखा देखकर, ब्रह्मा प्रसन्न हुए; भगवान, निर्माता, ने वैश्यों को प्राग्वान नाम दिया । (ब्रह्मा ने इसे रखा:) 'यहाँ शूद्रों को हमेशा ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी होती है; उन्हें अपने पैर धोने पड़ते हैं, उनके द्वारा बचा हुआ खाना (अर्थात ब्राह्मण) और शुद्ध (जमीन आदि) करना होता है। उन्होंने वहाँ भी (ये बातें) कीं; फिर उनसे कहा, "मैंने तुम्हें ब्राह्मणों, क्षत्रिय भाइयों और तुम्हारे जैसे (अन्य) भाइयों की सेवा करने के लिए चौथे स्थान पर रखा है; तीनों की सेवा करनी है।" ऐसा कहकर ब्रह्मा ने शंकर को नियुक्त किया और इन्द्र को भीद्वार-अधीक्षक के रूप में, वरुण जल देने के लिए, कुबेर धन वितरित करने के लिए, हवा सुगंध देने के लिए, सूर्य प्रकाश व्यवस्था करने के लिए और विष्णु (प्रमुख) अधिकारी के रूप में रहे। सोम के दाता चंद्रमा ने बाईं ओर पथ का सहारा लिया।

112-125. सावित्री, उनकी सुंदर पत्नी, जिन्हें अच्छी तरह से सम्मानित किया गया था, को अध्वर्यु ने आमंत्रित किया था : श्रीमती, जल्दी आओ, सभी आग बढ़ गई है (यानी अच्छी तरह से प्रज्वलित हैं), दीक्षा का समय आ गया है।" वह किसी काम में तल्लीन थी और तुरंत नहीं आती थी, जैसा कि आमतौर पर महिलाओं के साथ होता है। “मैंने यहाँ द्वार पर कोई सजावट नहीं की है; मैंने दीवार पर चित्र नहीं बनाए हैं; मैंने आंगन में स्वस्तिक [25] नहीं खींचा है। यहां पर गमलों की सफाई ही नहीं की गई है। लक्ष्मी , जो नारायण की पत्नी हैं, अभी तक नहीं आई हैं। तो अग्नि की पत्नी स्वाहा भी ; और यमरोड़ा, यम की पत्नी; गौरी, वरुण की पत्नी; सिद्धि , कुबेर की पत्नी; गौरी, शंभु की पत्नी, दुनिया की प्यारी। इसी तरह बेटियां मेधा , श्रद्धा , विभूति , अनश्या , धृति , कामा और गंगा और सरस्वती नदियां अभी तक नहीं आई हैं। इंद्राणी , और चंद्रमा की पत्नी रोहिणी , चंद्रमा को प्रिय । इसी तरह वशिष्ठ की पत्नी श्रृंधति ; इसी प्रकार सात ऋषियों की पत्नियाँ, और अनश्या, अत्रिंकी पत्नी और अन्य महिलाएं, बहुएं, बेटियां, दोस्त, बहनें अभी तक नहीं आई हैं। मैं अकेला यहाँ (उनकी प्रतीक्षा में) बहुत समय तक रहा हूँ। जब तक वे स्त्रियाँ न आ जाएँ, मैं अकेली नहीं जाऊँगी। जाओ और ब्रह्मा से कुछ देर रुकने को कहो । मैं शीघ्र ही सब (उन स्त्रियों) के साथ आऊँगा; हे उच्च बुद्धि वाले, देवताओं से घिरे हुए, आप महान कृपा प्राप्त करेंगे; मैं भी वैसा ही करूंगा; इसमें कोई संदेह नहीं।" उसे इस तरह बात करते हुए छोड़कर अध्वर्यु ब्रह्मा के पास आए।

126-127. "हे भगवान, सावित्री व्यस्त है; वह घरेलू काम में लगी हुई है। मैं तब तक नहीं आऊँगा जब तक मेरे मित्र न आ जाएँ—उसने मुझसे ऐसा ही कहा है। हे प्रभु, समय बीत रहा है। हे पोते, आज जो चाहो करो।”

128-130. इस प्रकार, ब्रह्मा ने थोड़ा क्रोधित होकर संबोधित किया और इंद्र से कहा: "हे शंकर, मेरे लिए एक और पत्नी जल्दी से यहाँ ले आओ। वह जल्दी करो जिससे बलिदान आगे बढ़े (ठीक से) और देर न हो; जब तक बलि न हो जाए, तब तक मेरे लिथे कोई स्त्री ले आओ; मैं तुमसे याचना कर रहा हूँ; मेरे लिए अपना मन बनाओ; बलिदान समाप्त होने के बाद मैं उसे फिर से मुक्त कर दूंगा।"

131. इस प्रकार संबोधित करते हुए, इंद्र ने पूरी पृथ्वी पर (यानी घूमते हुए) महिलाओं को देखा, (लेकिन) वे सभी दूसरों की पत्नियां थीं।

132-133. एक ग्वाले की पुत्री थी, जो सुन्दर, सुडौल नाक और मनमोहक आँखों की थी। कोई देवी नहीं, कोई गंधर्व महिला नहीं, कोई राक्षस नहीं, कोई महिला नाग नहीं, कोई कन्या उस उत्कृष्ट महिला की तरह नहीं थी। उन्होंने उसे एक अन्य देवी लक्ष्मी की तरह एक आकर्षक रूप में देखा, और उसकी सुंदरता के धन के माध्यम से मन के कार्यों की शक्तियों को कम (यानी विचलित) किया।

134-137. सौन्दर्य से प्रतिष्ठित जो भी वस्तु कहीं भी पाई जाती है, ऐसी हर उत्कृष्ट वस्तु दुबले-पतले शरीर वाली स्त्री से जुड़ी हुई नजर आती थी। उसे देखकर इंद्र ने सोचा: 'यदि वह एक युवती है, तो पृथ्वी पर मुझसे अधिक मेधावी कोई अन्य देवता नहीं है। यह एक महिला का वह रत्न है, जिसके लिए, यदि दादाजी तरसते हैं, तो मेरा यह परिश्रम फलदायी होगा।'

138. उसने उसे नीले आकाश की सुंदरता, एक सुनहरा कमल और एक मूंगा, (अर्थात) उसके अंगों, बालों, गालों, आंखों और होंठों के माध्यम से चमकते हुए और एक सेब की अंकुरित कली के समान देखा- लकड़ी या अशोक का पेड़।

139. 'वह सृष्टिकर्ता द्वारा कैसे बनाई गई थी, उसके दिल में जलती हुई डार्ट और उसकी आंखों में आग की लपटों (जुनून के) के ढेर के साथ, बिना समानता देखे?

140-151. अगर उसने उसे अपने विचार के अनुसार बनाया है तो यह उसके कौशल का सर्वोच्च उत्पाद है। ये दो ऊँचे नुकीले स्तन (उसके द्वारा) बनाए गए हैं; जिसे (अर्थात उन्हें) देखकर मुझे आनंद आ रहा है। किसके दिल में उन्हें देखकर महान आश्चर्य उत्पन्न नहीं होगा? यद्यपि इस होंठ का स्पष्ट रूप से जुनून (भी, लाली) से प्रबल रूप है, फिर भी यह अपने भोक्ता को बहुत खुशी देगा। बाल टेढ़े होने के बावजूद (अर्थात घुंघराले बाल) सुख दे रहे हैं। एक दोष भी, जब वह प्रचुर सौंदर्य का सहारा लेता है, तो वह गुण प्रतीत होता है। (उसकी) आँखों के सजे हुए कोने कानों तक (यानी उसके पास पहुँचे हुए) आ गए हैं; (और इसके लिए) कारण विशेषज्ञ सुंदरता को प्रेम की (बहुत) भावना के रूप में वर्णित करते हैं। उसकी आँखें उसके कानों के आभूषण हैं (और) उसके कान उसकी आँखों के आभूषण हैं। यहां न तो इयररिंग्स की गुंजाइश है और न ही कोलिरियम की। दिल को दो (भागों) में बांटना उसकी नज़रों से शोभा नहीं देता। जो लोग आपके संपर्क में आते हैं, वे कैसे दुख साझा कर सकते हैं (अर्थात हैं)? (यहां तक ​​कि) एक विकृति प्राकृतिक गुणों के साथ सर्व-सुंदर (संपर्क में) हो जाती है। मैंने अपनी सैकड़ों बड़ी-बड़ी आँखों का मूल्यवान अधिकार देखा है। यह उनके कौशल की सीमा है जिसे निर्माता ने इस सुंदर रूप को बनाने में बखूबी प्रदर्शित किया है। वह अपने सुंदर कृत्यों (अर्थात गतियों) के माध्यम से पुरुषों के मन में प्रेम पैदा करती है।' उसका शरीर, जिसकी चमक इस प्रकार सोचकर दूर हो गई थी, लगातार उठती हुई भयावहता से ढका हुआ था। उसे नए सोने की तरह आकर्षण, और कमल-पत्तियों की तरह लंबी आंखों वाले (उसने सोचा:) 'मैंने देवताओं, यक्षों, गंधर्वों, सांपों और राक्षसों की कई महिलाओं को देखा है, लेकिन सौंदर्य का ऐसा धन कहीं नहीं देखा।

इंद्र ने कहा :
152-155. हे आकर्षक भौहों वाले, मुझे बताओ- तुम कौन हो? आप किससे संबंधित हैं? तुम कहाँ से आए हो? आप बीच सड़क पर क्यों खड़े हैं? ये आभूषण जो तुम्हारे शरीर में उत्साह बढ़ाते हैं और जिन्हें तुम धारण करते हो, वे तुम्हें शोभा नहीं देते; (बल्कि) आप उन्हें सजाते हैं। हे सुन्दर नेत्रों वाली, न देवी, न गंधर्व स्त्री, न दैत्य, न नाग नागिन, न किन्नर स्त्री तुम्हारे समान सुन्दर दिखाई देती थी। मेरे द्वारा बार-बार बोलने के बावजूद, आप उत्तर क्यों नहीं देते?

और उस कुमारी ने घबराहट और कांप से अभिभूत होकर इंद्र से कहा:

156-157. "हे योद्धा, मैं एक ग्वाला-युवती हूँ; मैं दूध, यह शुद्ध मक्खन, और मलाई से भरा दही बेचता हूँ। आप जो स्वाद चाहते हैं - दही या छाछ का - इसे (मुझे) बताओ, जितना तुम चाहो ले लो। ”

158. इस प्रकार (उनके द्वारा) संबोधित करते हुए, इंद्र ने दृढ़ता से उसका हाथ पकड़ लिया, और उस बड़ी आंखों वाली महिला को (उस स्थान पर) ले आए जहां ब्रह्मा तैनात थे।

159. वह अपके अपके माता पिता के लिथे रोती या। 'हे पिता, हे माता, हे भाई, यह आदमी मुझे (दूर) जबरन ले जा रहा है।'

160-161। (उसने इंद्र से कहा): "यदि आपको मुझसे कुछ करना है, तो मेरे पिता से अनुरोध करें। वह मुझे तुम्हें दे देगा; सच कह रहा हु। कौन सी युवती आसक्ति से स्नेही पति की लालसा नहीं करती? हे मेरे पिता, हे धर्म में लगे रहने वाले, तुझ से कुछ भी ग्रहण न किया जाएगा।

162-163. मैं अपने सिर को झुकाकर उसे प्रसन्न करूंगा, और प्रसन्न होकर वह (मुझे आपको) अर्पित करेगा। यदि मैं अपने पिता के मन को जाने बिना अपने आप को आपको अर्पित कर दूं, तो मेरी अधिकांश धार्मिक योग्यता नष्ट हो जाएगी और इसलिए मैं आपको खुश नहीं कर पाऊंगा। यदि (केवल) मेरे पिता मुझे आपके सामने प्रस्तुत करते हैं तो मैं अपने आप को आपके अधीन कर दूंगा।

164-168. भले ही शाकर को उसके द्वारा संबोधित किया जा रहा था, फिर भी वह उसे ले गया, और उसे ब्रह्मा के सामने रखकर कहा: "हे बड़ी आंखों वाली महिला, मैं आपको इसके लिए लाया हूं (भगवान); हे उत्तम वर्ण के तू शोकित न हो।” ग्वाले की पुत्री को गोरे रंग और महान् तेज को देखकर, उसने (अर्थात् ब्रह्मा ने) उसे कमल के समान नेत्रों वाली, स्वयं लक्ष्मी समझी। गर्म सोने की दीवार के हिस्से के समान, उसने भी, उसे एक मोटी छाती, नशे में धुत हाथियों की सूंड की तरह गोल जांघों के साथ, लाल और चमकीले नाखूनों की चमक के साथ, खुद को एनिमेटेड (की भावना) के रूप में देखा। ) प्यार। उसे (अपने पति के रूप में) सुरक्षित करने की इच्छा से ग्वाला-युवती बेसुध दिखाई दी। उसने यह भी सोचा (यानी उसके पास) खुद को (उसे) देने का अधिकार है। (उसने खुद से कहा :)

169-180। 'यदि वह मेरी सुन्दरता के कारण मेरे होने की जिद करता है, तो मुझ से बढ़कर और कोई सौभाग्यशाली स्त्री नहीं है। जब से उसने मुझे देखा, वह मुझे ले आया। यदि मैं उसे छोड़ दूं तो मैं मर जाऊंगा; यदि मैं उसे न छोड़ूं तो मेरा जीवन सुखी होगा; और अपमान के कारण मैं—अपना रूप निन्दा करके—दुख का कारण बनूंगा (दूसरों को); वह जिस भी स्त्री को अपनी आंखों से कृपा दृष्टि से देखता है, वह भी धन्य हो जाती है। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है; (तब) उसके बारे में क्या जिसे वह गले लगाता है? दुनिया की सारी सुंदरता विभिन्न तरीकों से चली गई है (यानी अलग-अलग जगहों पर बनी हुई है); (अब) ब्रह्मांड की उत्पत्ति (यानी निर्माता) ने एक ही स्थान पर सुंदरता प्रकट की है। वह कामदेव से ही तुलनीय है; कामदेव की तुलना उनकी प्रतिभा के कारण अच्छी है। मैं इस दु: ख (मेरा) को छोड़ देता हूं। (जीवन में जो कुछ भी मिलता है) उसका कारण न तो पिता है और न ही माता। अगर वह मुझे स्वीकार नहीं करता है या मुझसे थोड़ी बात नहीं करता है, तो मैं उसके लिए तरसता हूं, मुझे दुःख के कारण मृत्यु मिल जाएगी। जब यह निर्दोष अपनी पत्नी के पास जाता है (अर्थात अपनी पत्नी के लिए पति के रूप में कार्य करता है), तो शुद्ध कमल के समान तेज (कारण) स्तनों पर रत्नों की कृपा होगी। उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करें उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करें उसे देखकर मेरा मन चिंतन में आ गया है। (वह अपने मन से कहती है:) यदि आप उसके शरीर के स्पर्श और संपर्क पर ध्यान नहीं देते हैं, तो, आप (ऐसे) एक उत्कृष्ट शरीर को नहीं छूते हुए, व्यर्थ भटक रहे हैं। या यह उसकी गलती नहीं है; क्‍योंकि तू अपक्की इच्‍छा पर विचरण करता है। हे कामदेव, तुम सचमुच लुट गए हो। अपने प्रिय की रक्षा करेंरति , क्योंकि हे कामदेव, वह सुन्दरता में तुमसे श्रेष्ठ लगता है। उसने निश्चय ही मेरे मन का मणि और मेरी सारी संपत्ति छीन ली है। चंद्रमा पर जो सुंदरता उसके चेहरे पर दिखाई देती है, उसे कोई कैसे (ढूंढ सकता है)? धब्बे वाली वस्तु और धब्बेदार वस्तु के बीच तुलना करना उचित नहीं है।

181-183. कमल को अपनी आंखों से समानता नहीं मिलती है। जल-शंख की तुलना उसके शंख (समान) कानों से कैसे की जा सकती है? यहां तक ​​कि एक मूंगा भी निश्चित रूप से अपने होंठ के समान नहीं होता है। उसमें अमृत वास करता है। वह निश्चित रूप से अमृत के प्रवाह का कारण बनता है। यदि मैंने अपने पूर्व के सैकड़ों जन्मों में कोई शुभ कार्य किया है, तो उसकी शक्ति के कारण जिसे मैं चाहता हूं, वह मेरा पति हो जाए'।

184-187. जब वह ग्वाला-युवती विचार में लीन होने के कारण स्वयं से परे थी, तो ब्रह्मा ने जल्दी से विष्णु से यज्ञ के लिए (तेजी से) ये शब्द कहे: "और यह है, हे भगवान, गायत्री नाम की देवी , परम धन्य हैं।" जब ये शब्द बोले गए, तो विष्णु ने ब्रह्मा से ये शब्द कहे: "हे संसार के स्वामी, आज गंधर्व - शैली में शादी करो, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। अब और संकोच न करें। हे प्रभु, बिना विचलित हुए, उसके इस हाथ को स्वीकार करो।" (तब) पोते ने उससे गंधर्व- शैली के विवाह में विवाह किया।

188-191. उसे (अपनी पत्नी के रूप में) प्राप्त करने के बाद, ब्रह्मा ने सबसे अच्छे अध्वर्यु -पुजारियों से कहा: "मैंने इस महिला को अपनी पत्नी के रूप में लिया है; उसे मेरे घर में रख दो।" पुजारी, वेदों के स्वामी, तब उस युवती को, हिरण के सींग को पकड़े हुए और रेशमी वस्त्र पहने हुए, यज्ञकर्ता की पत्नी के लिए बने कक्ष में ले गए। ऑडुंबरा कर्मचारियों के साथ ब्रह्मा (हाथ में और) हिरण-छिपे से ढके हुए, यज्ञ में वहां चमके, जैसे कि वह अपनी चमक के साथ थे। तब ब्राह्मणों ने, भृगु के साथ, वेदों में बताए अनुसार यज्ञ शुरू किया। फिर वह यज्ञ पुष्कर-तीर्थ में एक हजार युग तक चला (अर्थात जारी रहा ) ।

 और संदर्भ:
[1] :

होत्रा : भोग (घी के रूप में) के रूप में अर्पित करने के लिए उपयुक्त कुछ भी।

[2] :

श्रुवा : एक बलि का कलछी।

[3] :

श्रूक : एक प्रकार की लकड़ी की करछुल, जिसका उपयोग यज्ञ की अग्नि में घी डालने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर पलाना या खदीरा से बना होता है। श्रुवा : एक बलि का कलछी।

[4] :

हव्य : देवताओं को भेंट।

[5] :

काव्या : पितरों को भेंट।

[6] :

पवित्रा : कुण्डा घास की दो कलियाँ जो यज्ञ में घी को शुद्ध करने और छिड़कने के काम आती हैं।

[7] :

परिधि : पालना जैसे पवित्र वृक्ष की एक छड़ी यज्ञ की अग्नि के चारों ओर रखी जाती है।

[8] :

योग : मंत्र।

[9] :

प्रोक्ष : पवित्र जल ।

[10] :

दरवे : कलछी, चम्मच।

[11] :

सिटी : चतुष्कोणीय भुजाओं वाला एक आयताकार।

[12] :

उपकर्म : प्रारंभ में किया जाने वाला एक संस्कार।

[13] :

प्रवरग्य: सोम-यज्ञ के लिए एक प्रारंभिक समारोह। उपकर्म : प्रारंभ में किया जाने वाला एक संस्कार।

[14] :

आदित्य : वे बारह सूर्य हैं और ब्रह्मांड के विनाश पर ही चमकने वाले हैं।

[15] :

वसुस : वे देवताओं के एक वर्ग हैं; वे संख्या में आठ हैं: प, ध्रुव, सोम, धारा या धव, अनिला, अनल, प्रत्युष और प्रभास।

[16] :

साध्य : खगोलीय प्राणियों का एक वर्ग।

[17] :

मारुत : देवताओं का एक वर्ग। साध्य : खगोलीय प्राणियों का एक वर्ग।

[18] :

रुद्र : देवताओं के एक समूह का नाम, संख्या में ग्यारह, शिव या शंकर के निम्न रूप माने जाते हैं, जिन्हें समूह का मुखिया कहा जाता है।

[19] :

गंधर्व : देवताओं का एक वर्ग जो देवताओं के गायक या संगीतकार के रूप में माना जाता है और लड़कियों को अच्छी और सहमत आवाज देने के लिए कहा जाता है।

[20] :

विद्याधर : अर्ध-दिव्य प्राणियों या अर्ध-देवताओं का एक वर्ग। हिमालय को उनका पसंदीदा अड्डा माना जाता है। जब भी वे नश्वर द्वारा किए गए असाधारण पुण्य के किसी भी कार्य को देखते हैं, तो उन्हें स्वर्गीय फूलों की वर्षा के रूप में वर्णित किया जाता है। कहा जाता है कि वे हवा में घूमते हैं।

[21] :

वानस्पतिया : एक पेड़, जिसका फल फूल से उत्पन्न होता है जैसे आम।

[22] :

 : एक बलि पुजारी, विशेष रूप से वह जो एक यज्ञ में ऋग्वेद की प्रार्थनाओं का पाठ करता है।

[23] :

अध्वर्यु : एक कार्यवाहक पुजारी।

[24] :

उद्गाता: यज्ञ में चार प्रमुख पुजारियों में से एक; जो सामवेद के मंत्रों का जाप करता है।

[25] :

स्वस्तिक : एक प्रकार का चिन्ह जो सौभाग्य को दर्शाता है।


एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।


                  पुलस्त्य उवाच___________
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।

गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी।
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।

पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।

अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६
।★

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०। 

"एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।


एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।

उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।

कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।

कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः
एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।

तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।

उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।

तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।

पंचाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नांतः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।

नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 1.17.50

____________________________________    
                       ब्रह्मोवाच________________
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।

एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।

ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।

संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।

अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।

पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।

ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तु।६४।

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।

स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
             

"मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाःकपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।

दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९। 

ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताःऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।

वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताःन पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।

"सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताःरौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२। 

आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।

तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।

________________________

एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।

शांता दांता द्विजा ये तु भक्तिमंतो मयि स्थिराः
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।

अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।

नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।

विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।

एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।

यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वो द्विजाः।८८।

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।


कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।


बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।


मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं च भविष्यति
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिं तामवैक्षत।९२।

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।


एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।


न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।


वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।


रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।


प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।


तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।


अतः परं प्रवक्ष्यामि सावित्र्या ब्रह्मणा सह
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100


सावित्रीगमने सर्वा आगता देवयोषितः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना विष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।


आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता
मदिरा च महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।


श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।


सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।


जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।


गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।


स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।


मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।


सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।


राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।


अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।


काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।


आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।


करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।


उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रं शृंगाटकं तथा।११५।


कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च
अक्षोटामलकान्गृह्य जंबीराणि तथापरा।११६।


बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुंभकं तथा।११७।


एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः
सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।


सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।


त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।


पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।


वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।


मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।


शक्रेणान्याहृताभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।


कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।


वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।


पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।


पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।


द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।१२९।


पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।


कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।१३१।


प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।


उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।


उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्
।१३४।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।


यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।


भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।


कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।


कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।


यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।१४०।


भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
ब्रह्मोवाच
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।


पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।


गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।


पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
पुलस्त्य उवाच
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।


यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।


नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।


करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।


भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।


यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।


अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०। 1.17.150


शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।


भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।


न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।


यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।

_______
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।१५५


भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।१५६।


विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः
गंगाद्वारे स्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।


अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।


जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति
अमेध्येषु च ते जिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।


ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्री वै शशाप ह
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रो वृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।


सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ
परान्नेषु सदा तृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च
 ।१६१।

अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।


प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा
 ।१६३।

ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा
शापं दत्वा तथा तेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।


ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदा सा च व्यवस्थिता
लक्ष्मीं प्राह सतीं तां च शक्रभार्यां वराननाम्।१६५।


युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि संसदि
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।


ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।


यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः
तासामपि तथा शापं प्रदास्ये कुपिता भृशम्।१६८।


नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यति कदाचन
क्षुद्रा सा चलचित्ता च मूर्खेषु च वसिष्यति।१६९।


म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।


एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिः शापकारिता
शापं दत्वा ततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा
।१७१

ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ ते दुःखभागिनि
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति।१७२।


अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि।१७३।


नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते।१७४।


देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ।१७५।


दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी।१७६।


रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता
मा रोदीस्त्वं विशालाक्षि एह्यागच्छ सदा शुभे।१७७।


प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणि पादौ च प्रणमामि ते।१७८।


एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न वै ध्वनिम्।१७९।

एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता
विष्णुस्तदग्रतः स्थित्वा बध्वा च करसंपुटं।१८०।


तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः
विष्णुरुवाच
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता।१८१।


सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापि येषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः।१८२।


स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः
सावित्री पुष्करे नाम तीर्थानां प्रवरे शुभे।१८३।


वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने।१८४।


मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथांबरे
गोमंते गोमती नाम मंदरे कामचारिणी।१८५।


मदोत्कटा चैत्ररथे जयंती हस्तिनापुरे
कान्यकुब्जे तथा गौरी रंभा मलयपर्वते।१८६।


एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका।१८७।


नंदा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वके बिल्वपत्रिका।१८८।


श्रीशैले माधवीदेवी भद्रा भद्रेश्वरी तथा
जया वराहशैले तु कमला कमलालये।१८९।


रुद्रकोट्यां तु रुद्राणी काली कालंजरे तथा
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी।१९०।


शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगे जलप्रिया
मायापुर्यां कुमारी तु संताने ललिता तथा

१९१।


उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।१९२।


विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी।१९३


विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने।१९४।


कुब्जाम्रके त्रिसंध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे।१९५।


रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृंदावने तथा
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी।१९६़।


चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चंद्रे तु चंद्रिका।१९७।


रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके।१९८।८।

अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे।१९९।


मांडव्ये मांडवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे
वेगले तु प्रचंडाथ चंडिकामरकंटके।२००।
 1.17.200

_________________    

सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती
देवमाता सरस्वत्यां पारापारे तटे स्थिता।२०१,।

महालये महापद्मा पयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी।
२०२।


उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे।२०३।


जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमंडले।२०४।


भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे।२०५।


शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिः पिंडारके तथा
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी।२०६।


वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका
-२०७।

मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये।२०८।


गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती।२०९।


सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा
अरुंधती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।२१०।


चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं।२११।


अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।२१२।


येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्।२१३।


नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ
पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः
 ।२१४।       

गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति।२१५।

________________________________
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्यो भविष्यसि।२१६।


अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः
इह चागत्य यो मां तु स्तवेनानेन संस्तुयात्।२१७।


सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति
गच्छ यज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक।२१८।


कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी
समीपगा स्थिता भर्त्तुः करिष्ये तव भाषितम्।२१९।


एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्।२२०।


शृण्वंतु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता।२२१।


ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः
तेषां वस्त्रं धनं धान्यं दाराः सौख्यं धनानि च।२२२।


अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति।२२३।


                   पुलस्त्य उवाच_________
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु।२२४।


सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया।२२५।


पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः।२२६।


प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।


कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता
यां कृत्वा मानवा भक्त्या संयांति ब्रह्मलोकताम्।२२८।


कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप।२२९।


भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप।२३०।

_____________________________
ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शांडिलेयं प्रपूज्य च
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः।२३१।


रथाग्रे शांडिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्।२३२।


देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः।२३३।


कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।२३४।


पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च।२३५।


ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे।२३६।


विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्
बह्वृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा।२३७।


भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु।२३८।


न वोढव्यो रथो वीर शूद्रेण हितमिच्छता
न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः।२३९।


ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप
भोजकं वामपार्श्वे तु पुरतः पंङ्कजं न्येसेत्।२४०।


एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्।२४१।


स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः
य एवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापि पश्यति।२४२।


रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं।२४३।


शालायां ब्रह्मणः कुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः।२४४।


तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी।२४५।


ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः।२४६।


स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा।२४७।


तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप।२४८।


भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनं।२४९।


गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०। 1.17.250

_____________    
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन।२५१।


कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप।२५२।


बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी
                     गायत्र्युवाच__________
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं।२५३।


न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
मदीयं तु वचः श्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं।२५४।


इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति।२५५।


शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्।२५६।


स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति।२५७।


मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं।२५८।


हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ
गृहीत्वा तां पुना राज्यं कृत्वा स्वर्गं गमिष्यसि।२५९।


एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह।२६०।


सांतानिका नाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः।२६१।


गायत्री तु तदा रुद्रं वरदा प्रत्यभाषत
पतितेपि च ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः।२६२।


ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके।२६३।


यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव।२६४।


पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः।२६५।

 त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयि ध्रुवम्।२६६।


भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं।२६७।


युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः।२६८।


अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते।२६९।


ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैव पितामहाः।२७०।


यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ।२७१।


विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः।२७२।


पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोट्याः फलमवाप्स्यते।२७३।

ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्।२७४।


मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।२७५।


दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हंति किल्बिषं।२७६।


एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा।२७७।


प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धं जप्त्वा विशेषतः
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वा मां शिरसा सह।२७८।


अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता।२७९।


जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति।२८०।

___________
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।२८१।


यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तः सदस्यथ
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।


दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।


स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।


ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणः पार्श्वगाऽभवत्।२८५।


चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्
युवतीनां च सर्वासां शापान्ज्ञात्वा पृथक्पृथक्।२८६।


लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना।२८७।


शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी
ये त्वया वीक्षिताः पुत्रि सर्वे ते पुण्यभोजनाः।२८८।


परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने।२८९।


सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः।२९०।


सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना।२९१।


त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते।२९२।


एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः।२९३।


इंद्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति
त्वद्दृष्ट्या तु हतः पापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्।२९४।


सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव।२९५।


वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति
।२९६।

____
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनंदनः
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति।२९७।


तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्।२९८।


प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने
                 पुलस्त्य उवाच__________
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः।२९९।


अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता।३००। 1.17.300

________________
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी
समाप्तिं तस्य यज्ञस्य कांक्षंती ब्रह्मणः प्रिया।३०१।


वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह।३०२।
                      रुद्र उवाच_______________
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा।३०३।

सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च।३०४।

भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते।३०५।

श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ।३०६।

एणशृंगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा।३०७।

शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता।३०८।

चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता।३०९।

भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ।३१०।

जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी।३११।

विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा।३१२।

त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी।३१३।

पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति
ज्येष्ठे मासे पौर्णमास्यामग्र्यां पूजां च लप्स्यसे।३१४।

ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा।३१५।

कांतारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे।
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।३१६।

त्वं सिद्धिः श्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च।३१७।

अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना।३१८।

जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे।३१९।

बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।३२०।

नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च।३२१।

ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः।३२२।

अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा
सिद्धिस्त्वं हि नृपाणां च वेला सागरजा मता।३२३।

ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता
ज्योतिषां च प्रभा देवी लक्ष्मीर्नारायणे स्थिता।३२४।

क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च।३२५।

पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी।३२६।

इंद्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा।३२७।

कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा।३२८।

व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यां सुपूजिता।३२९।

सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।३३०।

सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः
                     गायत्र्युवाच_________
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्।३३१।
____________________________________

विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्रीविवादगायत्रीवरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्याय१७-

 ★-सम्पाद्यते इदम् सृष्टि खण्डम् यादवेन योगेशकुमारेण रोहिणा)


                 पद्मपुराणम्-खण्डः(१) 
           (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
        पद्मपुराणम्‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्ड
_________________________________ 

                  

हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ?  और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
_______________ऊं________________

ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ?  और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।
_______________ऊं________________

आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।

_______________ऊं________________
                  
              ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा  । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४। 

_______________ ऊं________________

उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मय कार्य किया  वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।

_______________ऊं________________

इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की  वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने  यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी  ।६।

_______________ऊं________________

और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।

_______________ऊं________________

यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८। 

_______________ऊं________________

और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर ( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌?
 ।९।
_______________ऊं________________

हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे  केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

_______________ऊं________________

यहाँ यह  हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त  किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है । अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है 
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।

_______________ऊं________________

यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

_______________ऊं________________

इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों  शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को( पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३  

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तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले  वेद पारंगत  ब्राह्मण  भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

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(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा  यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।

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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।

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और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।

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मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।

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उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।

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इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

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उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति कुल ( वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार करने योग्य ही है ।२१।

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आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।

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हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को  अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।

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ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो !
उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२४।

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किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को गये  देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली २५।

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बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको  सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता  के पास जाकर  कहा ! 

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मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता  और बान्धवों । मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी  चाहिए ।२७।

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मेरी सखीयाँ' मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं(देवीयों) के साथ हूँ। २८।

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तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।


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इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।


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गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।

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वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

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वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

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अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा  उनको दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए भी ।३४।

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शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ  सभी को सन्तुष्ट करने वाले  ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।
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हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात ्हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।

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इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

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उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।

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उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये  ।३९।
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वे देवताओं को मोहित करके  आकाश में वहीं स्थित हो गये  कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 
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जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; गतो फिर होम कैसे किया जाा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था

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उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।
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वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।

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पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते हैं 
 थे ।४४।

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इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।
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परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।

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उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।

विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आज आटे की चौंसी 

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हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८। 

विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।)  इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।

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तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें।
अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।
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हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।।५०।
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ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
 यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।

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उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

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इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।
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चारों वेदोंं के जानकार  ब्राह्मण उस समय  निश्चय ही वे  तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४। 
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शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करत देखा।५५।

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शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने  उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।
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दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे  कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।
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कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से  प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्म चारी (वटव) वहाँ  उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।
 ।५८। 
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यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।

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तुम्हें यह वृतचर्या किस पाप दर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ?  किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।
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शंकर ने कहा मेरा लिंग(लण्ड) ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है  अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता ।६१।
विशेष-
जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति  रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
(जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि)

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मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

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उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।
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इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले  देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं! ।६४।

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अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५। 

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हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।

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आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहते हुए बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को ।६७।

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शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८। 

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 उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे  तब  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये । ६९। 

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इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ । ७०। 

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वेश्या प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी और माता-पिता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।

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तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। 

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केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
 
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उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी दास बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

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इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्ध नारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। 

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उनका अन्वेषण करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मण जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६।

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वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके  शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जपकरके  अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।
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 मेरे द्वारा  असत्य नहीं कहा गया और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं  दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।
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जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।

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अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०। 

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 जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है  इतना  कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। 

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देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आगये सभी के साथ जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२। 

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वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३। 

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ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।

हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ? वहाँ रूद्र और विष्णु कैसे बने रहे ? ।१।

 वहाँ पर ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी ने क्या किया ?।२।

आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना हुई उसे भी बताइए  मुझे यह भी जानने का कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने उसके बाद क्या किया ?। ३।

              (पुलस्त्य ऋषि बोले -)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहता हूँ । आप सावधानी पूर्वक श्रवण करें ।४। 

उस सभा में जाकर रूद्र ने आश्चर्य मय कार्य किया वे अत्यन्त निन्दित ( घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।

इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने जब यह जाना कि गोपकन्या का अपहरण हो गया और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में कैसे बैठी है ? यह देख उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्व सा कहकर तथा सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८। 

अलक्तक से रहित तुझ सुन्दरी को यहाँ पर कौन लाया है ? तुम्हें साड़ी से रहित करके यह कम्बल किसने पहना दिया है ।९।

हे पुत्री ! किसने तम्हरे केशों की जटा ( जुड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया है ? अहीरों की इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

यहाँ इसे हम लोग लायें हैं और इसका उपयोग  पत्नी के रूप में किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है ।
अत: यहाँ कोलाहल मत करो! ।११।


यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्य वती तथा तुम्हारे जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पवित्रा नहीं होती तो इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों को शोक नहीं करना चाहिए!
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को पति के रूप में प्राप्त किया है ।१३  

तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और वेद पारंगत विप्र भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों मैंने धार्मिक सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र जानकर ही ब्रह्मा को इस कन्या का दान ( कन्यादान) किया ।१५।

इस कन्या ने तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया इसके द्वारा( देवों के कार्य की सिद्धि हो गयी है अर्थात सिद्धि का द्वार खुल गया ) ।१६।

जब पृथ्वी पर नन्द वसुदेव आदि का गोप रूप में अवतरण होगा  उस समय मैं भी तुम्हारे जाति कुल में अवतार लुँगा देव कार्य की सिद्धि के लिए ।१७।

मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या युवतियाँ आदि मेरे साथ खेल करेंगीं।१८।

उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।

इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीरों ने उन्हें प्रणाम किया और सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव आपने जो वरदान हमे हें दिया है वह हम लोगों को प्राप्त हो ! आपको हमारे जाति कुल ( वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार लेना ही चाहिए ।२१।

आपका दर्शन करके ही हम लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं ।
कल्याण करने वाली मंगलमयी ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का कारण करने वाली बन गयी है ।२२।

हे देवों के स्वामी हे विभो! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को आश्वस्त किये जाने पर तथा ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया ऐसा ही हो ! उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२३।

और वह कन्या मन में विचार कर रही थी कि किसने इनको मेरे विषय में बता दिया कि ये लोग यहाँ तक आ गये  उन अपने बान्धव लोगों को देखकर उस परिणीता कन्या ने कहा कि मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ।

आप लोगों अथवा मेरे माता- पिता को मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।२५-२७।

मेरी सखीयाँ मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवों
के साथ हूँ। २८।

तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में सुशोभित हुयीं ।२९।

इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।

गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह सभी देवी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।

वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से आया हुआ देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा निन्दा किये जाते हुए और लोगों द्वारा लगाये जाने पर भी शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों के प्रति कहा - सभी को सन्तुष्ट करने वाले इस ब्रह्मा जी के यज्ञ में किसी को भी नहीं लगाया जाता है हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? 

इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना  इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

उन ब्राह्मणों के उस कर्म देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते हुए कहा ।३८। 

उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये वे देवताओं को मोहित करने वाले आकाश में वहीं स्थित हो गये ।३९।

शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 

जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है तो फिर होम कैसे किया जाा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने ही कहा है ।४१।

उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर बैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे बैंक दिए जाने पर ।४२।     

वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी बैंक दिये जाने पर तीसरा वीसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।

पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण सवालों का अन्त नहीं कर पार ह
 थे ।४४।

इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण उनकी शरण में गये पुष्कर वन में वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।

उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि नहीं हो सकती है ।४७।


विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आज आटे की चौंसी 
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हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन हो जाता है ।४८। 

आप जो भी कहोगे
 मैं आपको दुँगा अजेय कुछ भी नहीं है 
ब्राह्मणों ने तथास्तु! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।

हे ब्रह्मा  आपके हृदय में जो वरदान की इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है ।।५०।

ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं माँगूगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।

उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं शिवजी ने स्थान बनाया ।।५३।
                           
चारों वेदोंं के जानकार उस समय शिवजी के द्ववारादेखने के समय ब्राह्मणों के बात करने पर कौतूहलवश सभा मेंं आकर स्विष्टकृत होम के समय शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ।५४-५५।

ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने देखा  उनको देखकर कुछ ब्राह्मणों ने उनका उपहास किया तो कुछ नें निन्दा की ।५६।


दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण दृप्त बने उन्हें कुछ ब्राह्मण ढ़ेले और लाठी से मारने लगे ।५७।

कुछ लोग पास में ही शंकर जी का उपहास करने लगे उसके बाद दूसरे ब्राह्मण शंकर जी की जटा को पकड़कर ।५८। 

पूछने लगे तुम्हें इस वृतचर्या को किसने बताया ? यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं क्या उन सबके लिए तुम यहाँ आये हो ?।५९। 

किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।

 शंकर ने कहा मेरा लिंग(लण्ड) ब्रह्म स्वरूप है और मन ही जनार्दन है इस बीज वपन करने से संसार कष्ट अनुभव करता है।६१। 

मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी सी सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

 उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।

इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया इस आचरण को विष्णु ने भी नहीं बतलाया है । ब्रह्म हत्या करने वाले शंकर के द्वारा यह चर्या की गयी।६४।

अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए।६५। 

हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ? 
आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहने वाले बनाबटी
 ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से ।६६।

डण्डों और कीलों से मारने लगे।  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुुुए ।शंकर ।क्रोधित हो गये । ६७। 


इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी । ७०। वेश्या प्रेमी द्यूतक्रीडाप्रेमी और मातापता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१। 

तुम लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने वाले होओगे दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। 

केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
उनके यहाँ धन पुत्र दासी दास बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृ सेउनके यहाँ सदवंश में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

इस तरह से ब्राह्मणों को ।
शाप और वरदान देकर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। 

उनका अन्वेषण करके भी ब्राह्मण जब उन्हें नहीं प्राप्त नहीं कर पाये तो नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६। 

वहाँ उन ब्राह्मणों ने पहुँच कर शतरूद्रीय सूक्त का जप किया पाठ के अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७। 

मैंने कोई भी बात असत्य नहीं कही और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं क्षमा करता हूँ ‌।७८।

 जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।

अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०।

 किञ्च जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अमंगल नहीं होता है ।
इतना ही कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। 

देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आये जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२।

 वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३।

 ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।

मुझ पर दया की, उनके पास धन, पुत्र, दासी, दास और छोटे पशु होंगे।




75-93. इस तरह एक श्राप और वरदान देकर भगवान गायब हो गए। जब वह चला गया, तो ब्राह्मणों ने उसे भगवान शंकर मानकर उसकी तलाश करने की कोशिश की; लेकिन जब उन्होंने उसे नहीं पाया, तो वे स्वयंभू धार्मिक अनुष्ठानों से संपन्न होकर पुष्कर वन में आ गए।

प्रमुख सरोवर में स्नान कर ब्राह्मणों ने रुद्र के सौ (नामों) का उच्चारण किया। प्रार्थना के बड़बड़ाने के अंत में, भगवान (अर्थात शिव) ने उनसे स्वर्गीय स्वर में बात की: "यहां तक ​​कि एक स्वतंत्र बातचीत में भी मैंने कभी झूठ नहीं कहा; तो कैसे (मैं ऐसा करूँगा) जब मैंने अपनी इंद्रियों पर अंकुश लगा लिया है? मैं तुम्हें फिर से सुख प्रदान करूंगा। वेद (अर्थात वैदिक ज्ञान) जो ब्राह्मण शांत, संयमी, मेरे प्रति समर्पित और मुझमें स्थिर (दिमाग) हैं, उनका धन और संतान नहीं छीनी जाएगी। उन (ब्राह्मणों) के लिए कुछ भी अशुभ नहीं है जो पवित्र अग्नि को बनाए रखने में लगे हुए हैं, जनार्दन को समर्पित हैं(अर्थात विष्णु), ब्रह्मा (और) सूर्य की पूजा करें - चमक का ढेर, और जिनके मन संतुलन में स्थिर हैं। ” ये बातें कहकर वह चुप हो गया। सभी (ब्राह्मण) महान देवता (अर्थात् शिव) से वरदान और कृपा प्राप्त करके (उस स्थान) जहां ब्रह्मा (रहने) गए थे। वे, ब्रह्मा को प्रसन्न करते हुए, उनके सामने बने रहे। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उनसे कहा: "मुझसे भी एक वर चुन लो।" ब्रह्मा के इन वचनों से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रसन्न हुए । (उन्होंने आपस में कहा:) "हे ब्राह्मणों, ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर हमें कौन सा वरदान मांगना चाहिए? आइए, इस वरदान के फलस्वरुप पवित्र अग्नि, वेदों, विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और संतानों से संबंधित (अर्थात) संसार की रक्षा करें। जब ब्राह्मण इस प्रकार (आपस में) बात कर रहे थे तो वे क्रोधित हो गए; "तुम कौन हो? यहाँ कौन प्रमुख हैं? हम यहां श्रेष्ठ हैं।" अन्य ब्राह्मणों ने कहा: "नहीं, (ऐसा नहीं है)।" ब्राह्मणों को जो वहां थे और क्रोध से भरे हुए थे, देखकर ब्रह्मा ने उनसे कहा: "चूंकि आप यज्ञ सभा से तीन समूहों में बने रहे, इसलिए, ब्राह्मण, आप में से एक समूह को बुलाया जाएगाअमूलिका ; जो तटस्थ रहे, वे उदासीन कहलाएंगे ; तीसरा समूह, हे ब्राह्मणों, उन लोगों में से होगा जिनके पास हथियार हैं और जिन्होंने खुद को तलवारों से लैस किया है और उन्हें कौशिकी कहा जाएगा । यह स्थान, इस प्रकार तीन तरीकों से (तीन समूहों द्वारा) कब्जा कर लिया गया है, पूरी तरह से आपका होगा। यहां की प्रजा (जीवित) बाहर से (अर्थात बाहरी लोगों द्वारा) 'संसार' कहलाएगी; विष्णु निश्चित रूप से इस अज्ञात स्थान की देखभाल करेंगे। मेरे द्वारा दिया गया यह स्थान सदा बना रहेगा और पूर्ण होगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा ने यज्ञ की समाप्ति का विचार किया। ये सभी ब्राह्मण जो (कुछ समय पहले) क्रोध और ईर्ष्या से भरे हुए थे, एक साथ मेहमानों को खिलाया और वैदिक अध्ययन में तल्लीन हो गए।

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94-99। यह पुष्कर, जिसे ब्रह्म भी कहा जाता है, एक महान पवित्र स्थान है। उस पवित्र स्थान में रहने वाले शांत ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मा की दुनिया में कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं है। हे श्रेष्ठ राजा, बारह वर्षों के बाद अन्य पवित्र स्थानों पर होने वाली किसी वस्तु की पूर्ति केवल छह महीने के भीतर ही इन पवित्र स्थानों पर होती है, अर्थात। कोकामुख , कुरुक्षेत्र , नैमिष जहां ऋषियों की मण्डली है, वाराणसी , प्रभास , वैसे ही बदरीकाश्रम , और गंगाद्वार , प्रयाग , और उस बिंदु पर जहां गंगा समुद्र से मिलती है, रुद्रकोशी , विरुपा, इसलिए मित्रवण भी [४] ; (मनुष्य के उद्देश्य की पूर्ति के बारे में) इसमें कोई संदेह नहीं है कि आदमी धार्मिक अध्ययन के लिए इच्छुक है। पुष्कर सभी पवित्र स्थानों में सबसे बड़ा और सबसे अच्छा है; यह हमेशा पोते (यानी ब्रह्मा) को समर्पित सम्माननीय लोगों द्वारा सम्मानित किया जाता है।

100-118. इसके बाद मैं आपको ब्रह्मा के साथ (यानी सावित्री और ब्रह्मा के बीच) सावित्री के मजाक के कारण हुए महान विवाद के बारे में बताऊंगा ।

सावित्री के जाने के बाद, सभी देवियाँ वहाँ आईं। ख्याति से उत्पन्न भृगु की पुत्री , अर्थात। लक्ष्मी , (हमेशा) सफल, हमेशा (सावित्री) द्वारा आमंत्रित किया गया, जल्दी से वहाँ आ गया। बहुत गुणी मदीरा , योगनिद्रा (नींद और जागने के बीच की स्थिति) और समृद्धि की दाता ; श्री, कमल, भूति , कीर्ति और उच्च मन में रहने वाली श्रद्धा : पोषण और संतुष्टि देने वाली ये सभी देवीएँ (वहाँ) पहुँची थीं; सती , दक्ष की बेटी, शुभ पार्वतीया उमा, तीनों लोकों में सबसे सुंदर महिला, महिलाओं को सौभाग्य (विधवापन की अनुपस्थिति) दे रही है; सावित्री के शुभ निवास में जया और विजया , मधुचन्दा, अमरावती , सुप्रिया , जनकान्त (सब इकट्ठे हुए थे)। वे, जिन्होंने उत्तम वस्त्र और आभूषण धारण किए हुए थे, गौरी के साथ पहुंचे थे । (ऐसी स्त्रियाँ थीं) शकरा, पुलोमन की पुत्री,(शचि) आकाशीय अप्सराओं के साथ; स्वाहा , स्वधा और धूमोर , एक सुंदर चेहरे की; यकी और राक्षसी और बहुत धनी गौरी; मनोजवा , वायु की पत्नी, औरसिद्धि , कुबेर की प्रिय (पत्नी) ; तो भी देवताओं की बेटियों और Dānava को -ladies प्रिय Danu वहाँ आया था। सात ऋषियों की महान सुंदर पत्नियाँ, [५] उसी तरह बहनें, बेटियाँ और विद्याधरियों की सेना ; Rākṣasīs , पितर और अन्य विश्व माताओं की बेटियों। सावित्री ने युवा विवाहित महिलाओं और बहुओं के साथ (बलिदान के स्थान पर) जाने की इच्छा की; इसी प्रकार अदिति के समान दक्ष की सभी बेटियाँ भीऔर अन्य आए थे। पवित्र महिला अर्थात। ब्रह्मा की पत्नी (सावित्री), उनके निवास के रूप में कमल होने के कारण, उनसे घिरी हुई थीं। कोई सुन्दर स्त्री हाथ में मिठाई लिये हुए थी, कोई फलों से भरी टोकरी लेकर ब्रह्मा के पास पहुंचा। इसी तरह अन्य लोग भीगे हुए अनाज की माप कर रहे हैं; इसी प्रकार एक सुन्दर स्त्री ने भी नाना प्रकार के अनार, सिट्रोन लिये हुए; दूसरे ने बाँस की टहनियाँ लीं, वैसे ही कमल, और केसर, जीरा-बीज, खजूर; दूसरे ने सारे नारियल ले लिए; (दूसरा) अंगूर (-रस) से भरा बर्तन लिया; इसी प्रकार अंगक का पौधा, विभिन्न प्रकार के कपूर-फूल और शुभ गुलाब सेब; इसी प्रकार किसी और ने अखरोट, हरड़ और सिट्रोन को भी लिया; एक सुंदर स्त्री ने पके बिल्व- फल और चपटे चावल लिए; किसी और ने कपास ले ली-बत्ती और केसरिया रंग का वस्त्र। सभी शुभ और सुन्दर स्त्रियाँ इन और अन्य वस्तुओं को टोकरियों में रख कर सावित्री के साथ वहाँ पहुँचीं।

119-120। सावित्री को वहाँ देखकर पुरन्दर डर गए; ब्रह्मा (भी) अपना चेहरा लटकाए हुए (सोचते हुए) वहीं रहे: 'वह (अब) मुझसे क्या कहेगी?' विष्णु और रुद्र शर्मिंदा थे, इसलिए अन्य सभी ब्राह्मण भी; सदस्य (यज्ञ सभा के) और अन्य देवता भयभीत थे।

121-122. संस, पोते, भतीजे, मामा, भाई, तो भी देवताओं नामित Ṛbhus और अन्य देवताओं के सभी सावित्री क्या कहेंगे (फिर) के रूप में शर्मिंदा रहे।

123-124। वहाँ जो बातें कर रहे थे, उनकी बातें सुनकर ग्वाले बेटियाँ ब्रह्मा के पास चुप रहीं। 'सबसे अच्छे रंग की महिला, हालांकि (मुख्य) पुजारी द्वारा बुलाई गई थी, वह नहीं आई; (इसलिए) इंद्र एक और चरवाहे लाए (और) विष्णु ने स्वयं उसे ब्रह्मा के सामने पेश किया।

125-129. वह बलिदान पर कैसे (व्यवहार) कर रही होगी? बलिदान कैसे पूरा होगा?' जब वे इस प्रकार सोच रहे थे, कमल में रहने वाले (ब्रह्मा की पत्नी) ने प्रवेश किया। ब्रह्मा उस समय सदस्यों (यज्ञ सभा के), पुजारियों और देवताओं से घिरे हुए थे। वेदों में महारत हासिल करने वाले ब्राह्मण अग्नि को अर्पण कर रहे थे। 

अहीर लोग कक्ष में शेष (बलि पत्नी के लिए) और एक हिरण के सींग और एक कमरबंद, और रेशमी कपड़ों में पहने हुए, सर्वोच्च स्थान पर ध्यान किया। वह अपने पति के प्रति वफादार थी, उसका पति उसका जीवन था; वह प्रमुखता से बैठी थी; वह सुंदरता से संपन्न थी; चमक में वह सूर्य के समान थी: उसने वहां की सभा को सूर्य के तेज के रूप में प्रकाशित किया।

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130.याजकों ने बलि के जानवरों के धधकते हुए भाग की भी पूजा की।

१३१-१३६.बलि के समय कुछ अंश प्राप्त करने के इच्छुक देवताओं ने तब कहा:"(बलिदान) में देरी नहीं होनी चाहिए; (किसी कार्य के लिए) देर से किया गया, उसका (वांछित) फल नहीं देता है; यही वह नियम है जो वेदों में सभी विद्वानों द्वारा देखा जाता है।" जब दो दूध (-बर्तन) तैयार हो गए, तो भोजन संयुक्त रूप से पकाया गया, और जब ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया, अध्वर्यु जिसे अर्पण किया गया था, वह वहाँ आया था, और प्रवरज्ञ वेदों में कुशल ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था; खाना बनाया जा रहा था। यह देखकर देवी (सावित्री) ने क्रोधित होकर ब्रह्मा से कहा, जो (यज्ञ) सत्र में चुपचाप बैठे थे: "यह क्या कुकर्म तुम करने वाले हो, कि वासना के द्वारा तुमने मुझे त्याग दिया और पाप किया है? वह, जिसे तुमने अपने सिर पर रखा है (अर्थात जिसे तुमने इतना महत्व दिया है) मेरे पैर की धूल से भी तुलनीय नहीं है।

 ऐसा (बलिदान) सभा में एकत्रित लोग कहते हैं। यदि तुम चाहो तो उन लोगों की उस आज्ञा का पालन करो जो (समान) देवता हैं।

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137-141. सुंदरता के लिए अपनी लालसा के माध्यम से आपने वह किया है जिसकी लोगों द्वारा निंदा की जाती है; हे ब्रह्मा, तू अपने पुत्रों और अपने पौत्रों से लज्जित नहीं हुआ; मुझे लगता है कि आपने यह निंदनीय कार्य जुनून के माध्यम से किया है; आप देवताओं के पोते और ऋषियों के परदादा हैं! 

अपने ही शरीर को देखकर आपको शर्म कैसे नहीं आई? आप लोगों के लिए हास्यास्पद हो गए हैं और मुझे नुकसान पहुंचाया है। 

अगर यह आपकी दृढ़ भावना है, तो हे भगवान, (अकेले) जियो; आपको नमस्कार (अलविदा); मैं अपने दोस्तों को अपना चेहरा कैसे दिखाऊंगी? मैं लोगों को कैसे बताऊं कि मेरे पति ने (एक और महिला को) अपनी पत्नी के रूप में लिया है?”

ब्रह्मा ने कहा :

१४२-१४४. दीक्षा के तुरंत बाद, पुजारियों ने मुझसे कहा: पत्नी के बिना बलिदान( यज्ञ) नहीं किया जा सकता है; अपनी पत्नी को जल्दी लाओ। यह (अन्य) पत्नी इंद्र द्वारा लाई गई थी, और मुझे विष्णु द्वारा प्रस्तुत की गई थी; (तो) मैंने उसे स्वीकार कर लिया; हे सुंदर भौहें वाली मैंने जो किया है उसके लिए मुझे क्षमा करें। 

हे अच्छी मन्नत के, मैं तुम्हें इस तरह फिर से गलत नहीं करूंगा। मुझे क्षमा कर, जो तेरे चरणों में गिरे हैं; आपको मेरा नमस्कार।

पुलस्त्य ने कहा :

इस प्रकार संबोधित करते हुए, वह क्रोधित हो गई, और ब्रह्मा को श्राप देने लगी:

145-148। "यदि मैंने तपस्या की है, यदि मैंने ब्राह्मणों के समूहों में अपने गुरुओं को प्रसन्न किया है, और विभिन्न स्थानों पर, ब्राह्मण आपकी पूजा कभी नहीं करेंगे, सिवाय आपकी वार्षिक पूजा (जो गिरती है) कार्तिक के महीने में जो ब्राह्मण करेंगे (अकेले) ) बलि चढ़ाएं, परन्तु अन्य मनुष्यों को पृथ्वी पर किसी अन्य स्थान पर न चढ़ाएं।" ब्रह्मा को ये शब्द कहते हुए, उसने इंद्र से कहा जो पास में था: "हे  इन्द्र , तुम अहीरिणी को ब्रह्मा के पास ले आए। 

चूंकि यह एक तुच्छ कर्म था, इसलिए आपको इसका फल प्राप्त होगा।

१४९. जब आप युद्ध में (लड़ाई के लिए तैयार) खड़े होंगे, तो आप अपने दुश्मनों से बंधे होंगे और बहुत (दयनीय) दुर्दशा में कम हो जाएंगे।

१५०. बिना किसी संपत्ति के, अपनी ऊर्जा खोकर, एक बड़ी हार का सामना करने के बाद, आप अपने दुश्मन के शहर में रहेंगे, (लेकिन) जल्द ही रिहा हो जाएंगे।"

१५१-१५३. इंद्र को श्राप देकर (इस प्रकार) देवी ने विष्णु से (ये शब्द) बोले: "जब, भृगु के श्राप के कारण आप नश्वर संसार में जन्म लेंगे, तो आप वहां (अर्थात उस अस्तित्व में) अलगाव के दर्द का अनुभव करेंगे अपनी पत्नी से।

तेरी पत्नी को तेरा शत्रु समुद्र के पार ले जाएगा; तुम शोक से व्याकुल मन से नहीं जानोगे (वह किसके द्वारा ली गई है) और बड़ी विपत्ति के बाद तुम अपने भाई के साथ दुखी होओगे।

154-156. जब आप यदु- परिवार में जन्म लेंगे , तो आपका नाम कृष्ण होगा ; और पशुओं का सेवक होकर बहुत दिन तक भटकता रहेगा।” 

तब क्रोधित व्यक्ति ने रुद्र से कहा: "जब तुम दारुवन में रहोगे , तब, हे रुद्र, क्रोधित ऋषि तुम्हें शाप देंगे; हे खोपड़ी-धारक, मतलब एक, आप हमारे बीच से एक महिला को छीनना चाहते हैं; इसलिए, तुम्हारा यह अहंकारी उत्पादक अंग(लिंग) आज जमीन पर गिरेगा।

157-160। पुरुषार्थ से रहित आप ऋषियों के श्राप से ग्रसित होंगे। गंगाद्वार में रहने वाली आपकी पत्नी आपको सांत्वना देगी।

"हे अग्नि , आप पहले मेरे पुत्र भागु द्वारा सर्व-उपभोक्ता बनाए गए थे, हमेशा धर्मी। मैं (तुम्हें) कैसे जलाऊँ जो पहले ही उससे जल चुके हैं? हे अग्नि, कि रुद्र आपको अपने वीर्य से डुबो देगा, और आपकी जीभ (यानी आपकी लौ) बलिदान के लिए उपयुक्त चीजों का उपभोग करते समय अधिक जलेगी।

”सावित्री ने उन सभी ब्राह्मणों और पुजारियों को शाप दिया, जो अपने पति को लूटने के लिए यज्ञ के पुजारी बन गए थे, और जो बिना किसी कारण के जंगल में चले गए थे:

१६१. “केवल लोभ के द्वारा सभी पवित्र और पवित्र स्थानों का सहारा लें; आप हमेशा दूसरों के भोजन से ही संतुष्ट होंगे (जब आप प्राप्त करेंगे); परन्तु अपने घरों में भोजन से तृप्त नहीं होगा।

१६२-१६४. जो बलिदान नहीं करना है उसका त्याग करके और जो तिरस्कारपूर्ण है उसे स्वीकार करके, धन अर्जित करके और इसे व्यर्थ खर्च कर-उससे (आपके) शवों को बिना अनुष्ठान के (उन्हें अर्पित किया जा रहा) केवल दिवंगत आत्माएं होंगी।

”इस प्रकार उस क्रोधित (सावित्री) ने इन्द्र को, इसी प्रकार विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा तथा समस्त ब्राह्मणों को भी श्राप दिया।

१६५-१६६.इस प्रकार उन्हें श्राप देकर वह यज्ञ) सभा से बाहर चली गई। प्रमुख पुष्कर में पहुँचकर, वह (वहाँ) बस गई।

उसने लक्ष्मी से कहा जो हँस रही थी और इंद्र की सुंदर पत्नी और युवा महिलाओं से भी (वहां): "मैं वहां जाऊंगी जहां मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई देगी।"

167. तब वे सभी महिलाएं अपने-अपने घर चली गईं। सावित्री, जो क्रोधित थीं, उन्हें भी श्राप देने लगीं।

168."चूंकि इन दिव्य महिलाओं मुझे छोड़ दिया और चले गए हैं, मैं, जो अत्यंत नाराज़ हूँ, शाला मै उन्हें भी अभिशाप:

169-171. लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं रहती। वह क्षुद्र और चंचल है, वह मूर्खों के बीच, बर्बरों और पर्वतारोहियों के बीच, मूर्खों और अभिमानियों के बीच रहेगी; उसी प्रकार (मेरे) श्राप के कारण, तुम (अर्थात् लक्ष्मी) शापित और दुष्टों जैसे नीच व्यक्तियों के साथ रहोगी।”

१७२-१७४. इस प्रकार (लक्ष्मी करने के लिए) एक अभिशाप दिया करने के बाद, वह शापित इंद्राणी : "जब इंद्र अर्थात्, अपने पति, द्वारा (किए पाप) से उत्पीड़ित एक ब्राह्मण के हत्या, दुखी हो जाएगा, और जब उसके राज्य से छीन लिया हो जाएगा नहुष.(Nahuṣa) द्वारा  , वह करेगा , तुम्हें देखकर, तुम्हारे लिए पूछो। (वह कहेगा) 'मैं इन्द्र हूँ; यह कैसे हो गया कि यह बचकानी (महिला) मेरी प्रतीक्षा नहीं करती है ? 

यदि मुझे शचि (अर्थात् इंद्रा) प्राप्त नहीं हुई तो मैं सभी देवताओं को मार डालूंगा। तब तू जिसे भागना होगा, और भयभीत और शोकित होगा , मेरे शाप के परिणामस्वरूप, हे दुष्ट आचरण और अभिमानी (एक) बृहस्पति के घर में रहेगा ।

175-1 78. तब उसने देवताओं की सभी पत्नियों पर एक शाप दिया: "इन सभी (महिलाओं) को बच्चों से स्नेह नहीं मिलेगा; वे दिन-रात (दु:ख के साथ) झुलसे रहेंगे और उनका अपमान किया जाएगा और उन्हें 'बंजर' कहा जाएगा।" उत्तम वर्ण की गौरी को भी सावित्री ने श्राप दिया था।

वह, जो रो रही थी, विष्णु ने देखा और उसने उसे तसल्ली दी: "हे बड़ी आँखों वाले, रो मत; तुम सदा शुभ हो, (कृपया) चलो; (यज्ञ) सभा में प्रवेश करना, अपनी कमरबंद और रेशमी वस्त्र सौंपना; हे ब्रह्मा की पत्नी, दीक्षा ग्रहण करो, मैं तुम्हारे चरणों को प्रणाम करता हूँ।"

179. इस प्रकार उस ने उस से कहा, मैं जैसा तू कहेगा वैसा ही करूंगा; और मैं वहाँ जाऊँगा जहाँ मुझे कोई आवाज़ न सुनाई देगी।”

180-215। इतना कहकर वह उस स्थान से चली गई और एक पर्वत पर चढ़कर वहीं रही। बड़ी भक्ति के साथ उसके सामने रहकर, विष्णु ने हाथ जोड़कर और झुककर उसकी स्तुति की।

सावित्री के १०८ नाम देखें ]

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216-219. सावित्री ने एक अच्छे व्रत के रूप में, विष्णु से कहा, जो उसकी प्रशंसा कर रहे थे: "बेटा, तुमने मेरी प्रशंसा की है; आप अजेय होंगे; अपने लहंगे में तू अपक्की पत्नी के संग रहेगा, जो अपके पिता और माता को प्रिय है; और वह, जो यहां आकर इस स्तुति से मेरी स्तुति करता है, सब पापों से मुक्त होकर सर्वोच्च स्थान पर जाएगा। हे पुत्र, ब्रह्मा के यज्ञ में जाओ और उसे पूरा करो । कुरुक्षेत्र और प्रयाग में, मैं भोजन का दाता होऊंगा; और मेरे पति के पास रहकर वही करो जो तू ने कहा है।”

220. विष्णु, इस प्रकार संबोधित करते हुए, ब्रह्मा की उत्कृष्ट (यज्ञ) सभा में गए। जब सावित्री चली गई। गायत्री ने (ये) शब्द कहे:

221. “ऋषि मेरे पति की उपस्थिति में कहे गए मेरे शब्दों को सुनें- मैं जो कुछ भी प्रसन्न और वरदान देने के लिए तैयार हूं, वह कहो।

222-223। (वे) पुरुष (जो), भक्ति से संपन्न, ब्रह्मा की पूजा करते हैं, उनके पास वस्त्र, अनाज, पत्नियां, सुख और धन होगा; इसी तरह (उनके पास) उनके घर में अखंड सुख होगा और (उनके) बेटे और पोते होंगे। लंबे समय तक (खुशी) भोगने के बाद, वे अंत में (अपने जीवन के) मोक्ष को प्राप्त करेंगे। ”

पुलस्त्य ने कहा :

224-225. एकाग्र मन से, स्थापित होने के बाद प्राप्त होने वाले फल को, पूरी सावधानी के साथ और पवित्र नियम (ब्रह्मा की छवि) के अनुसार सुनो। इस स्थापना से मनुष्य को वह फल प्राप्त होता है, जो समस्त यज्ञों, तपस्या, दान, पवित्र स्थानों और वेदों के फल से करोड़ गुना श्रेष्ठ है।

226-227. हे राजा, वह व्यक्ति, जो पूर्णिमा के दिन भक्ति के साथ उपवास करता है और पहले दिन (अर्थात पूर्णिमा के दिन के बाद का दिन) ब्रह्मा की पूजा करता है, हे महान-सशस्त्र (अर्थात शक्तिशाली) उस स्थान पर जाता है ब्राह्मण ; और वह जो पुजारियों के माध्यम से उसकी पूजा करता है, वह विशेष रूप से विरिंची (या) वासुदेव (यानी आत्माओं के स्वामी) के पास जाता है।

228-239। कार्तिक मास में निर्धारित है भगवान का रथ-जुलूस; करना (अर्थात लेना) जो भक्ति के साथ मनुष्य ब्रह्मा की दुनिया में पहुँचते हैं। कार्तिक की पूर्णिमा के दिन, सावित्री के साथ, सड़क के किनारे, कई संगीत वाद्ययंत्रों के साथ, ब्रह्मा का जुलूस निकालना चाहिए, हे श्रेष्ठ राजा। उसे पूरे शहर में लोगों (यानी नागरिकों) के साथ (यानी ब्रह्मा की छवि को जुलूस में निकालना) चाहिए। फिर इस प्रकार बारात निकालकर उन्हें स्नान कराना चाहिए। ब्राह्मणों को खाना खिलाकर और पहले अग्नि की पूजा करने के बाद, उन्हें शुभ संगीत वाद्ययंत्रों की आवाज़ के साथ रथ में भगवान की छवि रखनी चाहिए। रथ के सामने, पवित्र नियम के अनुसार, अग्नि की पूजा की, और ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान किया, और 'यह एक शुभ दिन है' को तीन बार दोहराते हुए, और भगवान की (छवि) को रथ में रखते हुए, वह रात में कई शो और वेदों की ध्वनि (पाठ) के माध्यम से जागते रहना चाहिए। हे राजा, भगवान को जगाकर, और सुबह, ब्राह्मणों को उनकी क्षमता के अनुसार कई प्रकार के भोजन के साथ खिलाया, और, हे राजा, पूजा करके, पवित्र सूत्र के पाठ और स्पष्ट मक्खन के साथ और दूध, और पवित्र नियमों के अनुसार; इसलिए भी, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान किया, और इसे एक शुभ दिन घोषित करने के बाद उन्हें शहर के माध्यम से रथ को ले जाना चाहिए (अर्थात जुलूस में ले जाना)। ब्रह्मा के रथ को चारों वेदों में पढ़े हुए ब्राह्मणों द्वारा स्थानांतरित (अर्थात घसीटा) जाना चाहिए; वैसे ही, हे बहादुर, कुशल लोगों द्वारा ब्राह्मणों को उनकी क्षमता के अनुसार कई प्रकार के भोजन के साथ खिलाया, और, हे राजा, पूजा करके, पवित्र सूत्र के पाठ के साथ, और स्पष्ट मक्खन और दूध के साथ, और पवित्र नियमों के अनुसार; इसलिए भी, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान किया, और इसे एक शुभ दिन घोषित करने के बाद उन्हें शहर के माध्यम से रथ को ले जाना चाहिए (अर्थात जुलूस में ले जाना)। ब्रह्मा के रथ को चारों वेदों में पढ़े हुए ब्राह्मणों द्वारा स्थानांतरित (अर्थात घसीटा) जाना चाहिए; वैसे ही, हे बहादुर, कुशल लोगों द्वारा ब्राह्मणों को उनकी क्षमता के अनुसार कई प्रकार के भोजन के साथ खिलाया, और, हे राजा, पूजा करके, पवित्र सूत्र के पाठ के साथ, और स्पष्ट मक्खन और दूध के साथ, और पवित्र नियमों के अनुसार; इसलिए भी, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान किया, और इसे एक शुभ दिन घोषित करने के बाद उन्हें शहर के माध्यम से रथ को ले जाना चाहिए (अर्थात जुलूस में ले जाना)। 

ब्रह्मा के रथ को चारों वेदों में पढ़े हुए ब्राह्मणों द्वारा स्थानांतरित (अर्थात घसीटा) जाना चाहिए; वैसे ही, हे बहादुर, कुशल लोगों द्वारा और इसे एक शुभ दिन घोषित करने के बाद उसे शहर के माध्यम से रथ को स्थानांतरित करना चाहिए (अर्थात जुलूस निकालना)। ब्रह्मा के रथ को चारों वेदों में पढ़े हुए ब्राह्मणों द्वारा स्थानांतरित (अर्थात घसीटा) जाना चाहिए; वैसे ही, हे बहादुर, कुशल लोगों द्वारा और इसे एक शुभ दिन घोषित करने के बाद उसे शहर के माध्यम से रथ को स्थानांतरित करना चाहिए (अर्थात जुलूस निकालना)। ब्रह्मा के रथ को चारों वेदों में पढ़े हुए ब्राह्मणों द्वारा स्थानांतरित (अर्थात घसीटा) जाना चाहिए; वैसे ही, हे बहादुर, कुशल लोगों द्वारा अथर्ववेद , (अर्थात जानने वाले) कई श्लोक और पुजारियों द्वारा - सामवेद के जाप । इस प्रकार उसे शहर के चारों ओर सर्वोच्च देवता के रथ को एक समान मार्ग पर ले जाना चाहिए। हे वीर, अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले शूद्र द्वारा रथ को नहीं हिलाना है; और कोई ज्ञानी नहीं, केवल भोजक रथ पर चढ़ेगा।


240-253। हे राजा, वह सावित्री को ब्रह्मा के दाहिनी ओर, भोजक को अपनी बाईं ओर और कमल को अपने सामने रखें। इस प्रकार हे वीर, तुरही और शंख की कई आवाजों के साथ, बुद्धिमान व्यक्ति को, पूरे शहर के चारों ओर रथ को घुमाकर, पूजा के कार्य के रूप में रोशनी लहराते हुए (भगवान की छवि) को उचित स्थान पर रखना चाहिए। वह, जो इस तरह की बारात निकालता है, या जो इसे भक्ति से देखता है या जो रथ को खींचता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर जाता है। जो कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ब्रह्मा के हॉल (अर्थात् मंदिर) में प्रकाश करता है और पहले दिन (कार्तिका के) चन्दन, फूल और नए वस्त्रों से स्वयं को प्रणाम करता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर पहुँच जाता है। यह एक बहुत ही पवित्र दिन है, जिस पर बाली राज्य की स्थापना की थी। यह दिन हमेशा ब्रह्मा को बहुत प्रिय होता है। इसे बाली कहा जाता है । जो इस दिन ब्रह्मा की और विशेष रूप से स्वयं की पूजा करता है, वह असीमित तेज के विष्णु के उच्चतम स्थान को जाता है। हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, चैत्र का पहला दिन शुभ और श्रेष्ठ होता है। वह, सबसे अच्छा आदमी, जो इस दिन, एक चांडल को छूता है और स्नान करता है, उसे कोई पाप नहीं है, कोई मानसिक पीड़ा या शारीरिक रोग नहीं हैं; इसलिए स्नान करना चाहिए (इस दिन) या यह एक मूर्ति के सामने रोशनी की दिव्य तरंग है, जो सभी रोगों को नष्ट कर देती है। हे राजा, वह सभी गायों और भैंसों को निकाल दे; फिर (घर) के बाहर उसे सभी वस्त्रों आदि के साथ एक धनुषाकार द्वार बनाना चाहिए। इसी तरह, हे कुरु के पालनकर्ता-परिवार, उसे ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए । हे कुरु-परिवार के वंशज, मैंने पहले कार्तिक, शिव और चैत्र के महीनों में इन तीन दिनों के बारे में बताया है , हे राजा; स्नान, उपहार देना (इन दिनों) (देना) सौ गुना पुण्य। हे राजा, कार्तिक का (पहला) दिन राजा बलि के लिए शुभ है, और पशुओं के लिए फायदेमंद है!

गायत्री ने कहा :

254-255. हे कमल से उत्पन्न ब्रह्मा, (यद्यपि) सावित्री ने कहा कि ब्राह्मण कभी भी तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, (फिर भी) मेरे वचनों को सुनकर वे तुम्हारी पूजा करेंगे; यहाँ (अर्थात् इस संसार में) भोग भोगने पर वे परलोक में मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसे श्रेष्ठ दृष्टि (-बिंदु) जानकर वह प्रसन्न होकर उन्हें वरदान देगा।

256. हे इंद्र, मैं तुम्हें एक वरदान दूंगा: जब तुम अपने शत्रुओं द्वारा गिरफ्तार किए जाओगे, तो ब्रह्मा, शत्रु के धाम में जाकर तुम्हें मुक्त कर देंगे।

257. अपने शत्रु के विनाश के कारण, आपको बहुत खुशी होगी और आपको अपना (राजधानी-) शहर वापस मिल जाएगा जो (आपने) खो दिया था। तीनों लोकों में तुम्हारा बिना किसी कष्ट के एक महान राज्य होगा।

258-259. हे विष्णु, जब आप पृथ्वी पर अवतार लेंगे, तो आप अपने भाई के साथ, अपनी पत्नी के अपहरण आदि के कारण बहुत दुःख का अनुभव करेंगे। आप अपने शत्रु को मारकर देवताओं की उपस्थिति में अपनी पत्नी को बचा लेंगे। उसे स्वीकार करने और राज्य पर फिर से शासन करने के बाद, तुम स्वर्ग में जाओगे।

260. आप ग्यारह हजार साल के लिए (शासन) करेंगे और (तब) स्वर्ग में जाएंगे। आप दुनिया में बहुत प्रसिद्धि का आनंद लेंगे, और लोगों से प्यार करेंगे।

261. हे भगवान, वे लोग जो राम के रूप (अर्थात अवतार) में आपके द्वारा मुक्त हो जाएंगे , उनके पास संतनिका नामक प्रसिद्ध लोक होंगे (अर्थात जाएंगे) ।

262-265. तब वरदान देने वाली गायत्री ने रुद्र से कहा: "वे पुरुष, जो आपके जननांग अंग (फालुस के रूप में) की पूजा करेंगे, भले ही वह गिर गया हो, शुद्ध होकर और पुण्य अर्जित करके, स्वर्ग का हिस्सा (यानी आनंद) लेंगे । वह अवस्था जो पुरुष आपके जनन अंग की उपासना करके (फलुस के रूप में) प्राप्त करते हैं, वह (अर्थात्) पवित्र अग्नि को बनाए रखने या उसमें हवन चढ़ाने में नहीं हो सकती। जो लोग सुबह-सुबह बिल्व-पत्र से आपके जननांग (फल्लस के रूप में) की पूजा करेंगे, वे रुद्र की दुनिया का आनंद लेंगे। ”

266-267। "हे अग्नि, तुम भी शिवभक्त का दर्जा पाकर शोधक बनो। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब आप प्रसन्न होते हैं तो देवता प्रसन्न होते हैं। प्रसाद देवताओं द्वारा आपके (केवल) द्वारा प्राप्त किया जाता है। निश्चय ही जब तुम प्रसन्न होगे, तो वे प्रसन्न होकर (प्रसाद) भोगेंगे; इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि वैदिक कथन ऐसा ही है।"

तब गायत्री ने उन सभी ब्राह्मणों से ये शब्द कहे :

268-284। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी पवित्र स्थानों पर आपको प्रसन्न करने वाले पुरुष वैराज नामक स्थान पर जाएंगे(अर्थात् ब्रह्मा)। विभिन्न प्रकार के भोजन और कई उपहार देकर, और (मनुष्यों को) प्रसन्न करके वे देवताओं के देवता बन जाते हैं। भगवान तुरंत प्रसाद का आनंद लेते हैं और पुरुष तुरंत (अर्थात) उन लोगों के मुंह में (अर्थात) प्रसाद का आनंद लेते हैं, जो सबसे अच्छे ब्राह्मण हैं, क्योंकि आप अकेले ही तीनों लोकों को बनाए रखने में सक्षम हैं - इसमें कोई संदेह नहीं है। श्वास के संयम से तुम सब शुद्ध हो जाओगे; हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, विशेष रूप से पुष्कर में स्नान करने और वेदों की माता (अर्थात् गायत्री) के नाम का उच्चारण करने के बाद उपहार प्राप्त करने के लिए आपको पाप नहीं लगेगा। पुष्कर में भोजन (ब्राह्मणों को) अर्पित करने से सभी देवता प्रसन्न होते हैं। यदि (मनुष्य) एक ब्राह्मण को खिलाता है, तो भी उसे एक करोड़ का फल मिलता है। पुरुष (नाश) उनके सभी पापों जैसे कि एक ब्राह्मण की हत्या और उनके द्वारा किए गए अन्य बुरे कर्मों को एक ब्राह्मण के हाथ में पैसा देकर। मेरे सम्मान में बड़बड़ाने के लिए प्रार्थनाओं का उपयोग करके उनकी तीन बार पूजा की जानी है। उस क्षण (सम) ब्राह्मण की हत्या के समान पाप नष्ट हो जाता है। गायत्री दस अस्तित्वों (या) के दौरान किए गए पापों को एक हजार अस्तित्वों और तीन युगों के हजार समूहों के दौरान भी नष्ट कर देती है। इस प्रकार मेरे सम्मान में प्रार्थनाओं को जानकर और गुनगुनाते हुए आप हमेशा के लिए शुद्ध हो जाएंगे।

 इसमें कोई संदेह या कोई झिझक नहीं है। सिर झुकाकर, (मेरी) प्रार्थना विशेष रूप से तीन अक्षरों वाले 'ओम' के उच्चारण के साथ, आप निस्संदेह शुद्ध हो जाएंगे।

 मैं (गायत्री छन्द के) आठ अक्षरों में व्याप्त हूं। यह संसार मुझमें व्याप्त है। सभी शब्दों से सुशोभित मैं वेदों की जननी हूँ। श्रेष्ठ ब्राह्मण भक्तिपूर्वक मेरा नाम जपने से सफलता प्राप्त करेंगे। मेरा नाम जपने से आप सबकी प्रधानता होगी। एक अच्छी तरह से नियंत्रित ब्राह्मण जिसमें गायत्री का सार है, वह चार वेदों को जानने, सब कुछ खाने और सभी चीजों को बेचने से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, यहाँ जो कुछ भी दिया या अर्पित किया जाता है, वह सब अटूट हो जाता है।

 इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है । जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रखरखाव के लिए समर्पित हैं और तीन बार (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) यज्ञ करते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग में जाएंगे। एक अच्छी तरह से नियंत्रित ब्राह्मण जिसमें गायत्री का सार है, वह चार वेदों को जानने, सब कुछ खाने और सभी चीजों को बेचने से बेहतर है। 

चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, यहाँ जो कुछ भी दिया या अर्पित किया जाता है, वह सब अटूट हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है । जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रखरखाव के लिए समर्पित हैं और तीन बार (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) यज्ञ करते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग में जाएंगे। एक अच्छी तरह से नियंत्रित ब्राह्मण जिसमें गायत्री का सार है, वह चार वेदों को जानने, सब कुछ खाने और सभी चीजों को बेचने से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, यहाँ जो कुछ भी दिया या अर्पित किया जाता है, वह सब अटूट हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है । जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रखरखाव के लिए समर्पित हैं और तीन बार (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) यज्ञ करते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग में जाएंगे।

285-293. इस प्रकार पुष्कर में इंद्र, विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा और ब्राह्मणों को एक उत्कृष्ट वरदान देकर, गायत्री ब्रह्मा के पक्ष में रही। 

तब गणों ने लक्ष्मी को श्राप का कारण बताया। ब्रह्मा की प्यारी पत्नी गायत्री ने इन सभी युवतियों और लक्ष्मी को दिए गए कई शापों के बारे में जानकर उन्हें वरदान दिया: 

"सभी को हमेशा प्रशंसनीय, और धन से आकर्षक दिखने वाले, आप सभी को प्रसन्न करते हैं , चमक जाएगा। हे पुत्री, जिस पर भी तुम दृष्टि करोगे, वह सब (अर्थात् है) धार्मिक पुण्य का भागी होगा; परन्तु तुम्हारे द्वारा छोड़े गए वे सब दु:ख का अनुभव करेंगे।

 वे अकेले (जिन पर आप कृपा करते हैं) (अर्थात उच्च में पैदा होंगे) जाति और (कुलीन) परिवार, (होगा) धार्मिकता, हे आकर्षक चेहरे वाले। वे अकेले ही सभा में चमकेंगे और (वे अकेले) राजाओं द्वारा देखे जाएंगे। श्रेष्ठ ब्राह्मण केवल उन्हीं की याचना करेंगे, और केवल उनके प्रति विनम्र होंगे।

 'आप हमारे भाई, पिता, गुरु और रिश्तेदार भी हैं। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। जब मैं तुम्हें देखता हूं तो मेरी दृष्टि स्पष्ट और सुंदर हो जाती है; मेरा मन बहुत प्रसन्न है, मैं तुम्हें सच और सच ही बता रहा हूँ'। ऐसे शब्द लोगों को प्रसन्न करते हैं, क्या वे, अच्छे लोग, जिन्हें आप ने देखा है, सुनेंगे।

294-299। पापी नहुष, इन्द्रपद प्राप्त कर आपसे विनती करेंगे। , अगस्त्य के शब्दों के माध्यम से, आपके द्वारा, एक सर्प में परिवर्तित होने के बाद, उससे अनुरोध करेगा: 'हे ऋषि, मैं अभिमान के माध्यम से बर्बाद हो गया हूं; मेरी शरण बनो (यानी मेरी मदद करो)'। तब श्रद्धेय ऋषि, अपने (अर्थात नहुष) के इन शब्दों से अपने दिल में दया करते हुए, उनसे ये शब्द कहेंगे: 'एक राजा, आपके परिवार का सम्मान, आपके परिवार में पैदा होगा। आपको (अर्थात्) नाग के रूप में देखकर वह आपके श्राप को तोड़ देगा। 

तब तुम अपने नाग के राज्य को त्याग कर फिर से स्वर्ग में जाओगे'। हे सुंदर नेत्रों वाले, मेरे वरदान के फलस्वरुप तुम अपने पति के साथ फिर से स्वर्ग में पहुंचोगे, जिसने अश्व-यज्ञ किया होगा।

पुलस्त्य बोला :

300-302। तब (गायत्री) ने देवताओं की सभी पत्नियों को संबोधित किया, जो प्रसन्न हुई: "भले ही आपके कोई संतान न होगी, आप दुखी नहीं होंगे"। तब गायत्री खुशी से बढ़ी, गौरी को भी सलाह दी । ब्रह्मा की उच्च मन वाली प्रिय पत्नी ने वरदान देकर यज्ञ की सिद्धि की कामना की। रुद्र ने उस प्रकार वरदान देने वाली गायत्री को देखकर उसे प्रणाम किया और इन शब्दों से उसकी स्तुति की:

रुद्र ने कहा :

303-317. वेदों की माता, और आठ अक्षरों से शुद्ध, आपको मेरा नमस्कार। आप गायत्री हैं, जो लोगों को कठिनाइयों को पार करने में मदद करती हैं, और सात प्रकार की वाणी [7], स्तुति से युक्त सभी ग्रंथ, इसलिए सभी छंद, समान रूप से सभी अक्षर और संकेत, सभी ग्रंथ जैसे ग्लॉस, इसलिए सभी उपदेश, और सभी अक्षर। 

हे देवी, आपको मेरा नमस्कार। तुम गोरे और गोरे रूप के हो, और तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान है। तुम्हारे पास बड़े-बड़े बाहें हैं, जो केले के वृक्षों के भीतरी भाग के समान नाजुक हैं; तुम अपने हाथ में एक हिरण का सींग और एक अत्यंत स्वच्छ कमल धारण करते हो; तू ने रेशमी वस्त्र पहिन लिए हैं, और ऊपर का वस्त्र लाल है।

 आप हार से सुशोभित हैं, चंद्रमा की किरणों की तरह शानदार, आपके गले में। आप दिव्य झुमके वाले कानों से सुशोभित हैं। 

आप चंद्रमा के साथ प्रतिद्वंद्विता वाले चेहरे से चमकते हैं। आप बेहद शुद्ध मुकुट वाले हेयर-बैंड के साथ आकर्षक लगते हैं। नागों के फन के समान तुम्हारी भुजाएँ स्वर्ग को सुशोभित करती हैं। आपके आकर्षक और गोलाकार स्तनों के निप्पल भी समान हैं। पेट पर ट्रिपल गुना अत्यंत निष्पक्ष कूल्हों और कमर के साथ विभाजन पर गर्व करता है। आपकी नाभि गोलाकार, गहरी है और शुभता की ओर इशारा करती है।

 आपके पास विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; तुम्हारी दो जांघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं।

आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों को धारण करते हैं, और आपसे अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से कृपालु हैं)। आप बहुत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण के होंगीं।

पुष्कर की यात्रा आपको देखकर फलदायी होगी। आपको पहली आराधना महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी तुम्हारी दो जांघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों को धारण करते हैं, और आपसे अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से कृपालु हैं)। आप बहुत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण के होंगे।

 पुष्कर की यात्रा आपको देखकर फलदायी होगी। आपको पहली आराधना महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी तुम्हारी दो जांघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों को धारण करते हैं, और आपसे अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से कृपालु हैं)। आप बहुत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण के होंगे। पुष्कर की यात्रा आपको देखकर फलदायी होगी।आपको पहली आराधना महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी ज्येषा ; और जो लोग तेरे पराक्रम को जानकर तेरी उपासना करेंगे, उन्हें पुत्रों और धन की कुछ घटी न होगी।

 आप उन लोगों के लिए सर्वोच्च सहारा हैं जो जंगल में या एक महान महासागर में गिरे हुए हैं; या जिन्हें डाकुओं ने पकड़ रखा है। आप ही सफलता, धन, साहस, कीर्ति, लज्जा का भाव, विद्या, शुभ नमस्कार, बुद्धि, सांझ, ज्योति, निद्रा और संसार के अंत में विनाश की रात भी हैं।आप अम्बा , कमला , माता, ब्रह्माणी और दुर्गा हैं ।

_______

318-331. आप सभी देवताओं की माता, गायत्री और एक उत्कृष्ट महिला हैं। आप जया, विजया (अर्थात दुर्गा), और पूणी (पोषण) और तुशी हैं(संतुष्टि), क्षमा और दया। आप सावित्री से छोटी हैं और हमेशा ब्रह्मा के प्रिय रहेंगे । तुम्हारे अनेक रूप हैं, एक सार्वभौम रूप; आपकी आकर्षक आंखें हैं और आप ब्रह्मा के साथ चलते हैं; आप एक सुंदर रूप के हैं, आपकी बड़ी आंखें हैं और आप अपने भक्तों के महान रक्षिका हैं। हे महान देवी, आप शहरों में, पवित्र आश्रमों में और जंगलों और पार्कों में रहते हैं। 

आप उन सभी स्थानों पर जहां वे रहते हैं, ब्रह्मा के बाईं ओर रहते हैं।

 ब्रह्मा के दायीं ओर सावित्री है, और ब्रह्मा (सावित्री और आप) के बीच हैं। तू बलि की वेदी पर है, और याजकों का बलिदान तू ही है; तुम राजाओं की जीत और समुद्र की सीमा हो। हे ब्रह्मचारिणी, आप (वह जो है) दीक्षा हैं, और महान सौंदर्य के रूप में देखे जाते हैं; आप प्रकाशमानियों की चमक हैं 

और नारायण में रहने वाली देवी लक्ष्मी हैं । आप ऋषियों की क्षमा की दिव्य शक्ति हैं, और रोहिणी हैं नक्षत्रों के बीच में। तुम राजद्वारों, पवित्र स्थानों और नदियों के संगम पर रहती हो। 

आप पूर्णिमा में पूर्णिमा के दिन हैं, और विवेक में बुद्धि हैं, और क्षमा और साहस हैं। आप एक उत्कृष्ट रंग के हैं, महिलाओं के बीच देवी उमा के रूप में जाने जाते हैं। आप इंद्र के आकर्षक दृश्य हैं, और इंद्र के निकट हैं। आप ऋषियों के धर्मी दृष्टिकोण हैं, और देवताओं के प्रति समर्पित हैं। आप कृषकों की जोत भूमि हैं, और प्राणियों की भूमि (या भूमि) हैं। आप (विवाहित) महिलाओं को विधवापन की अनुपस्थिति का कारण बनते हैं, और हमेशा धन और अनाज देते हैं। 

पूजा करने से रोग, मृत्यु और भय का नाश होता है। हे देवी, शुभ वस्तुएं देने वाली, यदि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन आपकी ठीक से पूजा की जाए, तो आप सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। जो मनुष्य इस स्तुति का बार-बार पाठ करता या सुनता है, अपने सभी उपक्रमों में सफलता प्राप्त करता है; इसमें कोई संदेह नहीं।

गायत्री ने कहा :

हे पुत्र, तूने जो कहा है वह पूरा होगा। आप विष्णु सहित सभी स्थानों पर उपस्थित रहेंगे।

फुटनोट और संदर्भ:

[1] :

यज्ञवास : यज्ञ के लिए तैयार और बंद स्थान।

[2] :

कपर्दिन : शंकर का एक विशेषण। कपर्दा: लट और उलझे हुए बाल, विशेष रूप से शंकर के।

[3] :

पुरोहण : पिसे हुए चावल से बना एक बलिदान और कपाल या बर्तन में चढ़ाया जाता है।

[4] :

मित्रावन : एक जंगल का नाम।

[5] :

सप्तर्षि : सात मुनि अर्थात् मरीचि, अत्रि, अगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।

[6] :

बलि : प्रह्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र, मनाया गया दानव। जब विष्णु, कश्यप और अदिति के पुत्र के रूप में, बाली के पास आए, उनकी उदारता के लिए उल्लेख किया, और उनसे प्रार्थना की कि वह तीन चरणों में जितनी पृथ्वी को कवर कर सकते हैं, और जब उन्होंने पाया कि तीसरे को रखने के लिए कोई जगह नहीं है कदम, उसने इसे बाली के सिर पर लगाया और उसे अपने सभी सैनिकों के साथ पाताल भेज दिया और उसे अपना शासक बनने दिया।

[7] :

सप्तविधि वान : भारतीय सरगम ​​के सात नोटों का प्रतिनिधित्व करने लगता है।


_________________________________

०७१पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)
अध्यायः ७२
अज्ञातलेखकः
अध्यायः ०७३ →


                  पिप्पल उवाच-
मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः
किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद १


सर्वपुण्यमयी पुण्या कथेयं पापनाशिनी
श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नैव तृप्यामि सर्वदा २


                       सुकर्मोवाच-
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठो ययातिर्नृपसत्तमः
तमुवाचागतं दूतं मातलिं शक्रसारथिम् ३


                        ययातिरुवाच-
शरीरं नैव त्यक्ष्यामि गमिष्ये न दिवं पुनः
शरीरेण विना दूत पार्थिवेन न संशयः ४


यद्यप्येवं महादोषाः कायस्यैव प्रकीर्तिताः
पूर्वं चापि समाख्यातं त्वया सर्वं गुणागुणम् ५


नाहं त्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवं पुनः
इत्याचक्ष्व इतो गत्वा देवदेवं पुरंदरम् ६


एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते
नैव सिद्धिं प्रयात्येवं सांसारिकमिहैव हि ७


नैव प्राणं विना कायो जीवः कायं विना नहि
उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये नाशमिंद्र न ८


यस्य प्रसादभावाद्वै सुखमश्नाति केवलम्
शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोनुगान् ९


एवं ज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक
संभवंति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः १०


मातले किल्बिषाच्चैव जरादोषात्प्रजायते
पश्य मे पुण्यसंयुक्तं कायं षोडशवार्षिकम् ११


जन्मप्रभृति मे कायः शतार्धाब्दं प्रयाति च
तथापि नूतनो भावः कायस्यापि प्रजायते १२


मम कालो गतो दूत अब्दा प्रनंत्यमनुत्तमम्
यथा षोडशवर्षस्य कायः पुंसः प्रशोभते १३


तथा मे शोभते देहो बलवीर्यसमन्वितः
नैव ग्लानिर्न मे हानिर्न श्रमो व्याधयो जरा १४


मातले मम कायेपि धर्मोत्साहेन वर्द्धते
सर्वामृतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम् १५


पापव्याधिप्रणाशार्थं धर्माख्यं हि कृतम्पुरा
तेन मे शोधितः कायो गतदोषस्तु जायते १६


हृषीकेशस्य संध्यानं नामोच्चारणमुत्तमम्
एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम् १७


तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याः प्रलयं गताः
विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे १८


मानवा मरणं यांति पापव्याधि प्रपीडिताः
न पिबंति महामूढाः कृष्ण नाम रसायनम् १९


तेन ध्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले
सत्येन दानपुण्येन मम कायो निरामयः २०


पापर्द्धेरामयाः पीडाः प्रभवंति शरीरिणः
पीडाभ्यो जायते मृत्युः प्राणिनां नात्र संशयः २१


तस्माद्धर्मः प्रकर्तव्यः पुण्यसत्याश्रयैर्नरैः
पंचभूतात्मकः कायः शिरासंधिविजर्जरः २२


एवं संधीकृतो मर्त्यो हेमकारीव टंकणैः
तत्र भाति महानग्निर्द्धातुरेव चरः सदा २३


शतखंडमये विप्र यः संधत्ते सबुद्धिमान्
हरेर्नाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पल २४


पंचात्मका हि ये खंडाः शतसंधिविजर्जराः
तेन संधारिताः सर्वे कायो धातुसमो भवेत् २५


हरेः पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च
सत्यभावेन दानेन नूत्नः कायो विजायते २६


दोषा नश्यंति कायस्य व्याधयः शृणु मातले
बाह्याभ्यंतरशौचं हि दुर्गंधिर्नैव जायते २७


← अध्यायः ०७१पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)
अध्यायः ७२
अज्ञातलेखकः
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पिप्पल उवाच-
मातलेश्च वचः श्रुत्वा स राजा नहुषात्मजः
किं चकार महाप्राज्ञस्तन्मे विस्तरतो वद १
सर्वपुण्यमयी पुण्या कथेयं पापनाशिनी
श्रोतुमिच्छाम्यहं प्राज्ञ नैव तृप्यामि सर्वदा २
सुकर्मोवाच-
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठो ययातिर्नृपसत्तमः
तमुवाचागतं दूतं मातलिं शक्रसारथिम् ३
ययातिरुवाच-
शरीरं नैव त्यक्ष्यामि गमिष्ये न दिवं पुनः
शरीरेण विना दूत पार्थिवेन न संशयः ४
यद्यप्येवं महादोषाः कायस्यैव प्रकीर्तिताः
पूर्वं चापि समाख्यातं त्वया सर्वं गुणागुणम् ५
नाहं त्यक्ष्ये शरीरं वै नागमिष्ये दिवं पुनः
इत्याचक्ष्व इतो गत्वा देवदेवं पुरंदरम् ६
एकाकिना हि जीवेन कायेनापि महामते
नैव सिद्धिं प्रयात्येवं सांसारिकमिहैव हि ७
नैव प्राणं विना कायो जीवः कायं विना नहि
उभयोश्चापि मित्रत्वं नयिष्ये नाशमिंद्र न ८
यस्य प्रसादभावाद्वै सुखमश्नाति केवलम्
शरीरस्याप्ययं प्राणो भोगानन्यान्मनोनुगान् ९
एवं ज्ञात्वा स्वर्गभोग्यं न भोज्यं देवदूतक
संभवंति महादुष्टा व्याधयो दुःखदायकाः १०
मातले किल्बिषाच्चैव जरादोषात्प्रजायते
पश्य मे पुण्यसंयुक्तं कायं षोडशवार्षिकम् ११
जन्मप्रभृति मे कायः शतार्धाब्दं प्रयाति च
तथापि नूतनो भावः कायस्यापि प्रजायते १२
मम कालो गतो दूत अब्दा प्रनंत्यमनुत्तमम्
यथा षोडशवर्षस्य कायः पुंसः प्रशोभते १३
तथा मे शोभते देहो बलवीर्यसमन्वितः
नैव ग्लानिर्न मे हानिर्न श्रमो व्याधयो जरा १४
मातले मम कायेपि धर्मोत्साहेन वर्द्धते
सर्वामृतमयं दिव्यमौषधं परमौषधम् १५
पापव्याधिप्रणाशार्थं धर्माख्यं हि कृतम्पुरा
तेन मे शोधितः कायो गतदोषस्तु जायते १६
हृषीकेशस्य संध्यानं नामोच्चारणमुत्तमम्
एतद्रसायनं दूत नित्यमेवं करोम्यहम् १७
तेन मे व्याधयो दोषाः पापाद्याः प्रलयं गताः
विद्यमाने हि संसारे कृष्णनाम्नि महौषधे १८
मानवा मरणं यांति पापव्याधि प्रपीडिताः
न पिबंति महामूढाः कृष्ण नाम रसायनम् १९
तेन ध्यानेन ज्ञानेन पूजाभावेन मातले
सत्येन दानपुण्येन मम कायो निरामयः २०
पापर्द्धेरामयाः पीडाः प्रभवंति शरीरिणः
पीडाभ्यो जायते मृत्युः प्राणिनां नात्र संशयः २१
तस्माद्धर्मः प्रकर्तव्यः पुण्यसत्याश्रयैर्नरैः
पंचभूतात्मकः कायः शिरासंधिविजर्जरः २२
एवं संधीकृतो मर्त्यो हेमकारीव टंकणैः
तत्र भाति महानग्निर्द्धातुरेव चरः सदा २३
शतखंडमये विप्र यः संधत्ते सबुद्धिमान्
हरेर्नाम्ना च दिव्येन सौभाग्येनापि पिप्पल २४
पंचात्मका हि ये खंडाः शतसंधिविजर्जराः
तेन संधारिताः सर्वे कायो धातुसमो भवेत् २५
हरेः पूजोपचारेण ध्यानेन नियमेन च
सत्यभावेन दानेन नूत्नः कायो विजायते २६
दोषा नश्यंति कायस्य व्याधयः शृणु मातले
बाह्याभ्यंतरशौचं हि दुर्गंधिर्नैव जायते २७
शुचिस्ततो भवेत्सूत प्रसादात्तस्य चक्रिणः
नाहं स्वर्गं गमिष्यामि स्वर्गमत्र करोम्यहम् २८
तपसा चैव भावेन स्वधर्मेण महीतलम्
स्वर्गरूपं करिष्यामि प्रसादात्तस्य चक्रिणः २९
एवं ज्ञात्वा प्रयाहि त्वं कथयस्व पुरंदरम्
सुकर्मोवाच-
समाकर्ण्य ततः सूतो नृपतेः परिभाषितम् ३०
आशीर्भिरभिनंद्याथ आमंत्र्य नृपतिं गतः
सर्वं निवेदयामास इंद्राय च महात्मने ३१
समाकर्ण्य सहस्राक्षो ययातेस्तु महात्मनः
तस्याथ चिंतयामासानयनार्थं दिवं प्रति ३२
 इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययाति-
चरिते द्विसप्ततितमोऽध्यायः ७२

पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ०७३


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अध्यायः ७३

पिप्पल उवाच-

गते तस्मिन्महाभागे दूत इंद्रस्य वै पुनः

किं चकार स धर्मात्मा ययातिर्नहुषात्मजः १

सुकर्मोवाच-

तस्मिन्गते देववरस्य दूते स चिंतयामास नरेंद्रसूनुः

आहूय दूतान्प्रवरान्स सत्वरं धर्मार्थयुक्तं वच आदिदेश २

गच्छंतु दूताः प्रवराः पुरोत्तमे देशेषु द्वीपेष्वखिलेषु लोके

कुर्वंतु वाक्यं मम धर्मयुक्तं व्रजंतु लोकाः सुपथा हरेश्च ३

भावैः सुपुण्यैरमृतोपमानैर्ध्यानैश्च ज्ञानैर्यजनैस्तपोभिः

यज्ञैश्च दानैर्मधुसूदनैकमर्चंतु लोका विषयान्विहाय ४

सर्वत्र पश्यंत्वसुरारिमेकं शुष्केषु चार्द्रेष्वपि स्थावरेषु

अभ्रेषु भूमौ सचराचरेषु स्वीयेषु कायेष्वपि जीवरूपम् ५

देवं तमुद्दिश्य ददंतु दानमातिथ्यभावैः परिपैत्रिकैश्च

नारायणं देववरं यजध्वं दोषैर्विमुक्ता अचिराद्भविष्यथ ६

यो मामकं वाक्यमिहैव मानवो लोभाद्विमोहादपि नैव कारयेत्

स शास्यतां यास्यति निर्घृणो ध्रुवं ममापि चौरो हि यथा निकृष्टः ७

आकर्ण्य वाक्यं नृपतेश्च दूताःसंहृष्टभावाः सकलां च पृथ्वीम्

आचख्युरेवं नृपतेः प्रणीतमादेशभावं सकलं प्रजासु ८

विप्रादिमर्त्या अमृतं सुपुण्यमानीतमेवं भुवि तेन राज्ञा

पिबंतु पुण्यं परिवैष्णवाख्यं दोषैर्विहीनं परिणाममिष्टम् ९

श्रीकेशवं क्लेशहरं वरेण्यमानंदरूपं परमार्थमेवम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १०

सखड्गपाणिं मधुसूदनाख्यं तं श्रीनिवासं सगुणं सुरेशम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः ११

श्रीपद्मनाथं कमलेक्षणं च आधाररूपं जगतां महेशम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १२

पापापहं व्याधिविनाशरूपमानंददं दानवदैत्यनाशनम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १३

यज्ञांगरूपं चरथांगपाणिं पुण्याकरं सौख्यमनंतरूपम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १४

विश्वाधिवासं विमलं विरामं रामाभिधानं रमणं मुरारिम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १५

आदित्यरूपं तमसां विनाशं बंधस्यनाशं मतिपंकजानाम्

नामामृतं दोषहरं सुराज्ञा आनीतमस्त्येव पिबंतु लोकाः १६

नामामृतं सत्यमिदं सुपुण्यमधीत्य यो मानव विष्णुभक्तः

प्रभातकाले नियतो महात्मा स याति मुक्तिं न हि कारणं च १७

इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने पितृतीर्थवर्णने ययाति-

चरिते त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ७३


अध्याय 73 - विष्णु के नाम की प्रभावकारिता

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

पिप्पला ने कहा :

1. जब वह महान दूत (स्वर्ग के लिए) चला गया था, तो नहुष के पुत्र, उस धार्मिक- चित्त ययाति ने क्या किया ?

सुकर्मण ने कहा :

2-7. जब सर्वश्रेष्ठ देवता (अर्थात इंद्र ) का वह दूत चला गया, तो राजा के पुत्र (नहुष) ने सोचा (खुद के लिए)। तुरंत अपने उत्कृष्ट दूतों को बुलाने के बाद, उसने उन्हें औचित्य के शब्दों के साथ निर्देश दिया: “उत्कृष्ट दूतों को एक उत्कृष्ट शहर में जाना चाहिए, दुनिया के सभी क्षेत्रों और द्वीपों में। उन्हें मेरे वचन (अर्थात आदेश) पर अमल करना चाहिए जो सद्गुणों से भरा हो। लोग विष्णु के अच्छे मार्ग पर चलें, भक्ति और बहुत मेधावी (कार्यों) के माध्यम से, अमृत, ज्ञान, बलिदान और तपस्या के समान ध्यान। सांसारिक विषयों को त्यागकर, वे केवल यज्ञ और उपहार के साथ विष्णु की पूजा करें। वे केवल राक्षसों के और आत्मा की प्रकृति के दुश्मन को हर जगह देखें - सूखे स्थानों पर, गीले और स्थिर स्थानों पर, बादलों में, पृथ्वी पर, मोबाइल और अचल (वस्तुओं) में और यहां तक ​​​​कि अपने शरीर में भी। अपने मृत पूर्वजों के सम्मान में आतिथ्य और संस्कार के साथ वे उस भगवान को समर्पित उपहार दे सकते हैं। वे उस सर्वश्रेष्ठ भगवान नारायण (यानी विष्णु) को बलिदान चढ़ाएं; आप (अर्थात वे) जल्द ही दोषों से मुक्त हो जाएंगे। वह बेशर्म आदमी जो लालच या मूर्खता के कारण अभी मेरे इन शब्दों का पालन नहीं करेगा, निश्चित रूप से एक दुष्ट चोर की तरह दंडित किया जाएगा। ”

8. राजा की बातें सुनकर दूतोंने मन ही मन प्रसन्न होकर सारी पृय्वी पर चढ़ाई की, और राजा की आज्ञा को सब प्रजा में प्रगट किया।

9-16. "हे मनुष्यों, ब्राह्मणों और अन्य, राजा ने पृथ्वी पर बहुत ही मेधावी अमृत लाया है। वैष्णव नामक उस गुणी (अमृत) का पान करें, जो दोषों से रहित और वांछनीय प्रभाव वाला हो। राजा ने श्री केशव नाम के रूप में दोषों को दूर करते हुए (पृथ्वी पर) अमृत पहले ही ला दिया है , जो दुख को दूर करता है, जो वांछनीय है, जो आनंद के रूप में है, और जो स्वयं सर्वोच्च सत्य है। लोग इसे पी लें। अच्छा राजा पहले ही (पृथ्वी पर) अपने नाम के रूप में, दोषों को दूर कर, अपने हाथ में तलवार लेकर, मधुसूदन , लक्ष्मी का निवास, अमृत ​​ला चुका है।, और देवताओं के मेधावी स्वामी। लोग इसे पी लें। अच्छा राजा पहले से ही (पृथ्वी पर) दोषों को दूर करते हुए, श्री पद्मनाभ नाम के रूप में , कमल जैसी आँखों का, संसार का सहारा, और महान स्वामी के रूप में (पृथ्वी पर) ला चुका है। लोग इसे पी लें। अच्छा राजा पहले ही (विष्णु के) नाम के रूप में दोषों को दूर कर अमृत ला चुका है, जो पापों को नष्ट करता है, जो रोगों को दूर करता है, जो आनंद देता है, जो दानवों और दैत्यों को नष्ट करता है।(यानी राक्षसों)। लोग इसे पी लें। अच्छे राजा ने पहले ही दोषों को दूर करते हुए, यज्ञ की प्रकृति के विष्णु नाम के रूप में, हाथ में एक डिस्क के साथ, धार्मिक योग्यता की खान, और अनंत सुखों के लिए अमृत लाया है। लोग इसे पी लें। राजा पहले से ही अमृत, विष्णु के नाम के रूप में, सब कुछ का निवास, शुद्ध, अंत (सब कुछ), राम नाम , सुखदायक, और मुरा के दुश्मन के रूप में अमृत लाया है । लोग इसे पी लें। अच्छा राजा पहले ही (विष्णु) के नाम के रूप में, सूर्य के रूप में, अंधकार का नाश करने वाला, मन के रूप में कमल के बंधन का नाश करने वाला, अमृत ला चुका है। लोग इसे पी लें।

17. वह, कुलीन, विष्णु का भक्त, खुद को संयमित करके, (विष्णु के) नाम के इस सच्चे, बहुत मेधावी अमृत का अध्ययन (अर्थात पाठ) करता है, मोक्ष को जाता है। कोई (अन्य) एजेंट (इसके अलावा) नहीं है। 

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पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ०७४

← अध्यायः ०७४३पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)


सुकर्मोवाच-
दूतास्तु ग्रामेषु वदंति सर्वे द्वीपेषु देशेष्वथ पत्तनेषु
लोकाः शृणुध्वं नृपतेस्तदाज्ञां सर्वप्रभावैर्हरिमर्चयंतु १
दानैश्च यज्ञैर्बहुभिस्तपोभिर्धर्माभिलाषैर्यजनैर्मनोभिः
ध्यायंतु लोका मधुसूदनं तु आदेशमेवं नृपतेस्तु तस्य २
एवं सुघुष्टं सकलं तु पुण्यमाकर्ण्य तं भूमितलेषु लोकैः
तदाप्रभृत्येव यजंति विष्णुं ध्यायंति गायंति जपंति मर्त्याः ३
वेदप्रणीतैश्च सुसूक्तमंत्रैः स्तोत्रैः सुपुण्यैरमृतोपमानैः
श्रीकेशवं तद्गतमानसास्ते व्रतोपवासैर्नियमैश्च दानैः ४
विहाय दोषान्निजकायचित्तवागुद्भवान्प्रेमरताः समस्ताः
लक्ष्मीनिवासं जगतां निवासं श्रीवासुदेवं परिपूजयंति ५
इत्याज्ञातस्य भूपस्य वर्तते क्षितिमंडले
वैष्णवेनापि भावेन जनाः सर्वे जयंति ते ६
नामभिः कर्मभिर्विष्णुं यजंते ज्ञानकोविदाः
तद्ध्यानास्तद्व्यवसिता विष्णुपूजापरायणाः ७
यावद्भूमंडलं सर्वं यावत्तपति भास्करः
तावद्धि मानवा लोकाः सर्वे भागवता बभुः ८
विष्णोर्ध्यानप्रभावेण पूजास्तोत्रेण नामतः
आधिव्याधिविहीनास्ते संजाता मानवास्तदा ९
वीतशोकाश्च पुण्याश्च सर्वे चैव तपोधनाः
संजाता वैष्णवा विप्र प्रसादात्तस्य चक्रिणः १०
आमयैश्च विहीनास्ते दोषैरोषैश्च वर्जिताः
सर्वैश्वर्यसमापन्नाः सर्वरोगविवर्जिताः ११
प्रसादात्तस्य देवस्य संजाता मानवास्तदा
अमराः निर्जराः सर्वे धनधान्यसमन्विताः १२
मर्त्या विष्णुप्रसादेन पुत्रपौत्रैरलंकृताः
तेषामेव महाभाग गृहद्वारेषु नित्यदा १३
कल्पद्रुमाः सुपुण्यास्ते सर्वकामफलप्रदाः
सर्वकामदुघा गावः सचिंतामणयस्तथा १४
संति तेषां गृहे पुण्याः सर्वकामप्रदायकाः
अमरा मानवा जाताः पुत्रपौत्रैरलंकृताः १५
सर्वदोषविहीनास्ते विष्णोश्चैव प्रसादतः
सर्वसौभाग्यसंपन्नाः पुण्यमंगलसंयुताः १६
सुपुण्या दानसंपन्ना ज्ञानध्यानपरायणाः
न दुर्भिक्षं न च व्याधिर्नाकालमरणं नृणाम् १७
तस्मिञ्शासति धर्मज्ञे ययातौ नृपतौ तदा
वैष्णवा मानवाः सर्वे विष्णुव्रतपरायणाः १८
तद्ध्यानास्तद्गताः सर्वे संजाता भावतत्पराः
तेषां गृहाणि दिव्यानि पुण्यानि द्विजसत्तम १९
पताकाभिः सुशुक्लाभिः शंखयुक्तानि तानि वै
गदांकितध्वजाभिश्च नित्यं चक्रांकितानि च २०
पद्मांकितानि भासंते विमानप्रतिमानि च
गृहाणि भित्तिभागेषु चित्रितानि सुचित्रकैः २१
सर्वत्र गृहद्वारेषु पुण्यस्थानेषु सत्तमाः
वनानि संति दिव्यानि शाद्वलानि शुभानि च २२
तुलस्या च द्विजश्रेष्ठ तेषु केशवमंदिरैः
भासंते पुण्यदिव्यानि गृहाणि प्राणिनां सदा २३
सर्वत्र वैष्णवो भावो मंगलो बहु दृश्यते
शंखशब्दाश्च भूलोके मिथः स्फोटरवैः सखे २४
श्रूयंते तत्र विप्रेंद्र दोषपापविनाशकाः
शंखस्वस्तिकपद्मानि गृहद्वारेषु भित्तिषु २५
विष्णुभक्त्या च नारीभिर्लिखितानि द्विजोत्तम
गीतरागसुवर्णैश्च मूर्च्छना तानसुस्वरैः २६
गायंति केशवं लोका विष्णुध्यानपरायणाः २७
हरिं मुरारिं प्रवदंति केशवं प्रीत्या जितं माधवमेव चान्ये
श्रीनारसिंहं कमलेक्षणं तं गोविंदमेकं कमलापतिं च २८
कृष्णं शरण्यं शरणं जपंति रामं च जप्यैः परिपूजयंति
दंडप्रणामैः प्रणमंति विष्णुं तद्ध्यानयुक्ताः परवैष्णवास्ते २९
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययाति-
चरित्रे चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ७४


यह पृष्ठ ययाति के शासन के दौरान विष्णु पंथ की लोकप्रियता का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 74 है,  यह पद्म पुराण के भूमि-खंड (पृथ्वी पर खंड) का चौहत्तरवां अध्याय है।

अध्याय 74 - ययाति के शासन के दौरान विष्णु पंथ की लोकप्रियता

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

सुकर्मण ने कहा :

1-2. सभी दूतों ने द्वीपों, क्षेत्रों और शहरों में कहा (यानी घोषित): “हे लोगों, राजा की आज्ञा सुनो। वे अपनी सारी महिमा के साथ विष्णु की पूजा करें । पुण्य की इच्छा रखने वाले (समर्पित) मन वाले लोग, कई उपहारों, बलिदानों के माध्यम से, विष्णु पर चिंतन करें; तपस्या और यज्ञोपवीत संस्कार।" ऐसा उस राजा का आदेश है।

3-5. लोगों ने इन सभी मेधावी (शब्दों) को इस प्रकार पृथ्वी पर (दूतों द्वारा) सुने गए। तब से केवल मनुष्यों ने (विष्णु के सम्मान में) बलि दी, उस पर विचार किया, उसे गाया (स्तुति में) और गुनगुनाया (उसके लिए प्रार्थना)। सभी मनुष्य, अपने शरीर, मन और वाणी के दोषों को, व्रतों, व्रतों, संयमों और उपहारों के माध्यम से, और अपने दिल से (अर्थात स्थापित) उसके पास गए, उस श्री केशव , श्री वासुदेव की पूजा करें। लक्ष्मी का निवास , और लोकों का निवास, वेदों और स्तुति के साथ पढ़ाए गए, बहुत ही मेधावी और अमृत समान भजनों के साथ।

6-11. इस प्रकार ग्लोब पर उस राजा का आदेश प्रबल होता है। वे सभी लोग विष्णु की भक्ति के कारण विजयी होते हैं। जो लोग ज्ञान में पारंगत हैं, और जो उनका ध्यान और चिंतन करते हैं और जो उनकी पूजा करने के इरादे से हैं, वे विष्णु को (अर्थात उनका पाठ करके) नाम और उनके कर्मों से पूजते हैं। जब तक विश्व रहता है और सूर्य चमकता है तब तक सभी मनुष्य भगवान (विष्णु) के अनुयायी थे (अर्थात रहेंगे ) । तब मनुष्य विष्णु पर ध्यान की शक्ति के कारण, उनकी पूजा और (उनके) स्तुति और (उनके) नामों के कारण, मानसिक पीड़ा और शारीरिक रोगों से मुक्त हो गए। हे ब्राह्मण:, चक्रधारी (अर्थात विष्णु) की कृपा से विष्णु के सभी भक्त दुःख से मुक्त हो गए, मेधावी बन गए और उनके धन के रूप में तपस्या हुई। वे रोगों से मुक्त थे, वे दोष या क्रोध से रहित थे; वे सभी (प्रकार) वैभव से संपन्न थे, और सभी रोगों से मुक्त थे।

12-27. उस ईश्वर की कृपा से उस समय के सभी मनुष्य अमर, अमर हो गए और सभी धन-धान्य से संपन्न हो गए। विष्णु की कृपा से नश्वर पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित थे। हे रईस, उनके घरों के दरवाजे (पास के क्षेत्रों में) में केवल हमेशा पुण्य देने वाले पेड़ होते थे, जो उनकी सभी इच्छाओं के फल देते थे, और सभी इच्छा देने वाली गायें, जो सभी इच्छाओं को पूरा करती थीं। विष्णु की कृपा से ही सभी पुरुष अमर हुए, पुत्रों और पौत्रों से सुशोभित थे और सभी दोषों से मुक्त थे। वे अच्छे भाग्य और योग्यता और शुभता के साथ संपन्न थे। वे बहुत मेधावी थे, दान से संपन्न थे और ज्ञान और ध्यान के इरादे से थे। जब राजा ययाति:, जो जानता था कि क्या सही है, शासन कर रहा था, कोई अकाल नहीं था, कोई बीमारी नहीं थी, और मनुष्यों में कोई अकाल मृत्यु नहीं थी। सभी पुरुष विष्णु के भक्त थे, सभी विष्णु के व्रत (अर्थात पवित्र) पर आमादा थे। वे उस पर ध्यान करते थे, उसके प्रति समर्पित थे, और उस पर अपना दिल लगा दिया था। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, उनके दिव्य और शुभ घर सफेद बैनर और शंख से सुसज्जित थे, और उनके झंडे गदा से चिह्नित थे और डिस्क के साथ चिह्नित थे। कमल से अंकित घर और अच्छे चित्रों से अच्छी तरह से चित्रित दीवारें दैवीय कारों के सदृश थीं। हे श्रेष्ठों, हर जगह-घरों के द्वारों के पास और पवित्र स्थानों पर वृक्षों के दिव्य घने और शुभ घास के धब्बे थे। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, तुलसी के कारणऔर विष्णु के मंदिर (मनुष्य) के शुभ और दिव्य घर हमेशा चमकते रहते हैं। हर जगह विष्णु की मेधावी भक्ति काफी हद तक देखी गई। हे मित्र, हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, वहाँ पृथ्वी पर परस्पर प्रलय और पाप का नाश करने वाली ध्वनियों (उत्पन्न) से शंखों की ध्वनि सुनाई देती थी। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, विष्णु की भक्ति के माध्यम से घरों के दरवाजों पर शंख, स्वस्तिक , कमल के चित्र (चित्र) खींचे थे; और संगीत, गीत, अच्छे शब्दों के साथ, संगीत के पैमाने के माध्यम से ध्वनियों के नियमित उत्थान या पतन के साथ लोग विष्णु गायन (विष्णु की स्तुति में) के ध्यान पर आमादा हैं।

28-29. वे प्यार से हरि , मुरारी , दूसरों के बारे में केशव, अजिता , माधव के बारे में बात करते हैं । वे विष्णु, शरण, (जैसे) कमल-आंखों वाले गोविंदा , कमला के स्वामी ( यानी लक्ष्मी), कृष्ण और राम के नामों को गुनगुनाते हैं, और गुनगुनाते हुए (उनके नाम) पूजा करते हैं। विष्णु के वे महान भक्त, जो ध्यान में लगे हुए थे, उन्हें उनके सामने पूरी तरह से नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं।


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पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ०७५

 अध्यायः ०७५पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)


सुकर्मोवाच-
विष्णुं कृष्णं हरिं रामं मुकुंदं मधुसूदनम्
नारायणं विष्णुरूपं नारसिंहं तमच्युतम् १
केशवं पद्मनाभं च वासुदेवं च वामनम्
वाराहं कमठं मत्स्यं हृषीकेशं सुराधिपम् २
विश्वेशं विश्वरूपं च अनंतमनघं शुचिम्
पुरुषं पुष्कराक्षं च श्रीधरं श्रीपतिं हरिम् ३
श्रीनिवासं पीतवासं माधवं मोक्षदं प्रभुम्
इत्येवं हि समुच्चारं नामभिर्मानवाः सदा ४
प्रकुर्वंति नराः सर्वे बालवृद्धाः कुमारिकाः
स्त्रियो हरिं सुगायंति गृहकर्मरताः सदा ५
आसने शयने याने ध्याने वचसि माधवम्
क्रीडमानास्तथा बाला गोविंदं प्रणमंति ते ६
दिवारात्रौ सुमधुरं ब्रुवंति हरिनाम च
विष्णूच्चारो हि सर्वत्र श्रूयते द्विजसत्तम ७
वैष्णवेन प्रभावेण मर्त्या वर्तंति भूतले
प्रासादकलशाग्रेषु देवतायतनेषु च ८
यथा सूर्यस्य बिंबानि तथा चक्राणि भांति च
वैकुंठे दृश्यते भावस्तद्भावं जगतीतले ९
तेन राज्ञा कृतं विप्र पुण्यं चापि महात्मना
विष्णुलोकस्य समतां तथानीतं महीतलम् १०
नहुषस्यापि पुत्रेण वैष्णवेन ययातिना
उभयोर्लोकयोर्भावमेकीभूतं महीतलम् ११
भूतलस्यापि विष्णोश्च अंतरं नैव दृश्यते
विष्णूच्चारं तु वैकुंठे यथा कुर्वंति वैष्णवाः १२
भूतले तादृशोच्चारं प्रकुर्वंति च मानवाः
उभयोर्लोकयोर्विप्र एकभावः प्रदृश्यते १३
जरारोगभयं नास्ति मृत्युहीना नरा बभुः
दानभोगप्रभावश्च अधिको दृश्यते भुवि १४
पुत्राणां तु सुखं पुण्यमधिकं पौत्रजं नराः
प्रभुंजंति सुखेनापि मानवा भुवि सत्तम १५
विष्णोः प्रसाददानेन उपदेशेन तस्य च
सर्वव्याधिविनिर्मुक्ता मानवा वैष्णवाः सदा १६
स्वर्गलोकप्रभावो हि कृतो राज्ञा महीतले
पंचविंशप्रमाणेन वर्षाणि नृपसत्तम १७
गदैर्हीना नराः सर्वे ज्ञानध्यानपरायणाः
यज्ञदानपराः सर्वे दयाभावाश्च मानवाः १८
उपकाररताः पुण्या धन्यास्ते कीर्तिभाजनाः
सर्वे धर्मपरा विप्र विष्णुध्यानपरायणाः १९
राज्ञा तेनोपदिष्टास्ते संजाता वैष्णवा भुवि
विष्णुरुवाच-
श्रूयतां नृपशार्दूल चरित्रं तस्य भूपतेः २०
सर्वधर्मपरो नित्यं विष्णुभक्तश्च नाहुषिः
अब्दानां तत्र लक्षं हि तस्याप्येवं गतं भुवि २१
नूतनो दृश्यते कायः पंचविंशाब्दिको यथा
पंचविंशाब्दिको भाति रूपेण वयसा तदा २२
प्रबलः प्रौढिसंपन्नः प्रसादात्तस्य चक्रिणः
मानुषा भुवमास्थाय यमं नैव प्रयांति ते २३
रागद्वेषविनिर्मुक्ताः क्लेशपाशविवर्जिताः
सुखिनो दानपुण्यैश्च सर्वधर्मपरायणाः २४
विस्तारं तेजनाः सर्वे संतत्यापि गता नृप
यथा दूर्वावटाश्चैव विस्तारं यांति भूतले २५
यथा ते मानवाः सर्वे पुत्रपौत्रैः प्रविस्तृताः
मृत्युदोषविहीनास्ते चिरं जीवंति वै जनाः २६
स्थिरकायाश्च सुखिनो जरारोगविवर्जिताः
पंचविंशाब्दिकाः सर्वे नरा दृश्यंति भूतले २७
सत्याचारपराः सर्वे विष्णुध्यानपरायणाः
एवं सर्वे च मर्त्यास्ते प्रसादात्तस्य चक्रिणः २८
संजाता मानवाः सर्वे दानभोगपरायणाः
मृतो न श्रूयते लोके मर्त्यः कोपि नरोत्तम २९
शोकं नैव प्रपश्यंति दोषं नैव प्रयांति ते
यद्रूपं स्वर्गलोकस्य तद्रूपं भूतलस्य च ३०
संजातं मानवश्रेष्ठ प्रसादात्तस्य चक्रिणः
विभ्रष्टा यमदूतास्ते विष्णुदूतैश्च ताडिताः ३१
रुदमाना गताः सर्वे धर्मराजं परस्परम्
तत्सर्वं कथितं दूतैश्चेष्टितं भूपतेस्तु तैः ३२
अमृत्युभूतलं जातं दानभोगेन भास्करे
नहुषस्यात्मजेनापि कृतं देवययातिना ३३
विष्णुभक्तेन पुण्येन स्वर्गरूपं प्रदर्शितम्
एवमाकर्णितं सर्वं धर्मराजेन वै तदा ३४
धर्मराजस्तदा तत्र दूतेभ्यः श्रुतविस्तरः
चिंतयामास सर्वार्थं श्रुत्वैवंनृपचेष्टितम् ३५
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययाति-
चरित्रे पंचसप्ततितमोऽध्यायः ७५

अध्याय 75 - विष्णु की कृपा से ययाति की प्रजा अमर हो गई

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

सुकर्मण ने कहा :

1-6. सभी पुरुष, बच्चे, बूढ़े, अविवाहित लड़कियां हमेशा विष्णु, कृष्ण , हरि , राम , मुकुंद , मधुसूदन, विष्णु के रूप के नारायण, नरसिंह , अच्युत , केशव , पद्मनाभ जैसे नामों का उच्चारण करती थीं । वासुदेव , वामन , वराह , कामथ , मत्स्य , हिकेश , सुरधिप, विश्वेना , विश्वरूप , अनंत , अनघ, सूचि , पुरुष , पुष्करणाक्ष , श्रीधर , श्रीपति , हरि , श्रीनिवास , पुत्रवास (अर्थात पीले वस्त्र पहने हुए), माधव , मोक्षदा (अर्थात मोक्ष दाता) और प्रभु । घरेलू काम में लगी महिलाएं हमेशा एक सीट पर हरि, माधव, (जब वे बैठी थीं) (जब वे लेटी थीं) बिस्तर पर, (जब वे जा रही थीं) गाती थीं। और ध्यान में। इसी तरह बच्चों (जबकि) प्लेइंग ने गोविंदा (अर्थात विष्णु) को प्रणाम किया ।

7-16. दिन और रात उन्होंने विष्णु का बहुत प्यारा नाम बोला । हे श्रेष्ठ ब्राह्मण , हर जगह (नाम का) विष्णु का उच्चारण सुना गया। मनुष्य पृथ्वी पर (केवल) विष्णु की शक्ति से रहते थे। डिस्क (विष्णु के) शोए (के प्रतिबिंब) के रूप में। महलों और मंदिरों के घड़े के शीर्ष पर सू की डिस्क चमकती है। वैकुण्ठ में जो स्थिति थी वह पृथ्वी पर दिखाई दी। वह महान राजा, नहुष का पुत्र ययाति:, किया (कार्य) पुण्य, और पृथ्वी को विष्णु के स्वर्ग के समान बनाया। दोनों लोकों की उपस्थिति (समान होने के कारण) पृथ्वी एक हो गई थी (विष्णु के स्वर्ग के साथ)। पृथ्वी और विष्णु के भार में कोई अंतर नहीं देखा गया। जैसे विष्णु के भक्तों ने वैकुण्ठ में विष्णु के नामों का उच्चारण किया, वैसे ही (अर्थात उसी तरह) पुरुषों ने पृथ्वी पर विष्णु के नामों का उच्चारण किया। हे ब्राह्मण, दोनों लोकों के बीच पहचान देखी गई। बुढ़ापे और बीमारियों से कोई डर नहीं था। लोग मृत्यु से मुक्त थे। पृथ्वी पर दान और भोग की अधिक भव्यता देखी गई। हे सबसे अच्छे, पुरुषों ने खुशी-खुशी (अर्थात) आदि पौत्रों का आनंद लिया। सभी मनुष्य-विष्णु के भक्त-विष्णु की कृपा (जो उन्हें प्राप्त हुई) और उनकी शिक्षा के उपहार के कारण हमेशा सभी रोगों से मुक्त थे।

17-20ए। राजा ने पृथ्वी पर स्वर्ग की भव्यता ला दी। हे श्रेष्ठ राजा, वर्ष पच्चीस की सीमा के थे (अर्थात बहुत लंबे थे)। सभी मनुष्य रोगों से मुक्त थे और ज्ञान और ध्यान पर (प्राप्त) थे। सभी पुरुष पूरी तरह से बलिदान (प्रदर्शन) और (देने) उपहारों में लीन थे, और सभी दयालु थे। वे बाध्य (अन्य) में लगे हुए थे; वे मेधावी पुरुष, प्रसिद्धि के भंडार, धन्य थे। हे ब्राह्मण, सभी पुरुष पूरी तरह से धर्म के प्रति समर्पित थे और पूरी तरह से ध्यान में लीन थे। उस राजा के निर्देश पर, वे पृथ्वी पर विष्णु के प्रति समर्पित हो गए।

विष्णु ने कहा :

20बी-28ए। हे श्रेष्ठ राजा, उस राजा का लेखा सुन। नहुष का वह पुत्र सदा सभी (कर्मों) में लीन और विष्णु का भक्त था। इस तरह उन्होंने पृथ्वी पर एक लाख वर्ष गुजारे। उनके। अपने (सुंदर) रूप से पच्चीस वर्ष का प्रतीत होता था। वे पुरुष (अर्थात् उनकी प्रजा) पृथ्वी का आश्रय लेकर (अर्थात् निवास करते हुए) यम के पास बिल्कुल नहीं जाते । हे राजा, राग-द्वेष से रहित, कष्ट के फंदे से रहित, दान से पुण्य (प्राप्त) के कारण सुखी, और सभी धार्मिक कर्मों के लिए समर्पित, हमेशा विस्तारित (अर्थात उनकी संख्या में वृद्धि) के साथ सभी लोग संतान के संबंध में भी। दूर्वा के रूप में(घास) और बरगद के पेड़ पृथ्वी पर फैले हुए हैं, उसी तरह उन सभी लोगों ने पुत्रों और पौत्रों के माध्यम से विस्तार किया (अर्थात संख्या में वृद्धि हुई)। वे लोग मृत्यु के दोष से मुक्त होकर दीर्घायु हुए। सभी (वे) मजबूत शरीर वाले, बुढ़ापे और बीमारियों से मुक्त और (इसलिए) खुश, पृथ्वी पर पच्चीस वर्ष (अर्थात बहुत छोटे) के रूप में देखे गए थे। सभी अच्छे आचरण के प्रति समर्पित थे और विष्णु के ध्यान में लीन थे।

28बी-34ए. इस प्रकार सभी नश्वर - सभी मनुष्य - उस डिस्क-धारक (यानी विष्णु) की कृपा के कारण पूरी तरह से उपहार और आनंद के लिए समर्पित (देने) बन गए थे। हे श्रेष्ठ मनुष्य, किसी भी मनुष्य के मृत होने की बात नहीं सुनी गई। उन्होंने न देखा (अर्थात मिले) दु:ख, न देखा। वे जाते हैं (यानी है) दोष। हे श्रेष्ठ पुरुषों, उस डिस्क-धारक की कृपा से, दुनिया की प्रकृति ठीक वैसी ही हो गई थी जैसी स्वर्ग की प्रकृति थी। यम के दूत, विष्णु के दूतों द्वारा पीटे गए, गायब हो गए। वे सब एक दूसरे के साथ रोते हुए धर्मराज के पास गए(अर्थात् यम)। दूतों ने (यम) को वह सब बताया जो राजा (अर्थात ययाति) ने किया था। (उन्होंने यम से कहा): “हे सूर्य के पुत्र; उपहार और भोग के (देने) के कारण पृथ्वी मृत्युहीन हो गई है। हे भगवान, नहुष के पुत्र ययाति ने किया। विष्णु के उस मेधावी भक्त ने (पृथ्वी पर) स्वर्ग की प्रकृति का प्रदर्शन किया। ”

34बी-35. उस समय धर्मराज ने यह सब सुना। तब धर्मराज ने राजा की गतिविधियों को विस्तार से सुनकर पूरे तथ्य पर विचार किया।



पद्मपुराणम्/खण्डः ५ ()/अध्यायः ०६९

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ऋषय ऊचुः -
सम्यक्छ्रुतो महाभाग त्वत्तो रामाश्वमेधकः
इदानीं वद माहात्म्यं श्रीकृष्णस्य महात्मनः १
सूत उवाच-
शृण्वंतु मुनिशार्दूलाः श्रीकृष्णचरितामृतम्
शिवा पप्रच्छ भूतेशं यत्तद्वः कीर्तयाम्यहम् २
एकदा पार्वती देवी शिवं संस्निग्धमानसा
प्रणयेन नमस्कृत्य प्रोवाच वचनं त्विदम् ३
पार्वत्युवाच-
अनंतकोटिब्रह्मांड तद्बाह्याभ्यंतरस्थितेः
विष्णोः स्थानं परं तेषां प्रधानं वरमुत्तमम् ४
यत्परं नास्ति कृष्णस्य प्रियं स्थानं मनोरमम्
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महाप्रभो ५
ईश्वर उवाच-
गुह्याद्गुह्यतरं गुह्यं परमानंदकारकम्
अत्यद्भुतं रहःस्थानमानंदं परमं परम् ६
दुर्लभानां च परमं दुर्लभं मोहनं परम्
सर्वशक्तिमयं देवि सर्वस्थानेषु गोपितम् ७
सात्वतां स्थानमूर्द्धन्यं विष्णोरत्यंतदुर्लभम्
नित्यं वृंदावनं नाम ब्रह्मांडोपरि संस्थितम् ८
पूर्णब्रह्मसुखैश्वर्यं नित्यमानंदमव्ययम्
वैकुंठादि तदंशांशं स्वयं वृंदावनं भुवि ९
गोलोकैश्वर्यं यत्किंचिद्गोकुले तत्प्रतिष्ठितम्
वैकुंठवैभवं यद्वै द्वारिकायां प्रतिष्ठितम् १०
यद्ब्रह्मपरमैश्वर्यं नित्यं वृंदावनाश्रयम्
कृष्णधामपरं तेषां वनमध्ये विशेषतः ११
तस्मात्त्रैलोक्यमध्ये तु पृथ्वी धन्येति विश्रुता
यस्मान्माथुरकं नाम विष्णोरेकांतवल्लभम् १२
स्वस्थानमधिकं नामधेयं माथुरमंडलम्
निगूढं विविधं स्थानं पुर्यभ्यंतरसंस्थितम् १३
सहस्रपत्रकमलाकारं माथुरमंडलम्
विष्णुचक्रपरिभ्रामाद्धाम वैष्णवमद्भुतम् १४
कर्णिकापर्णविस्तारं रहस्यद्रुममीरितम्
प्रधानं द्वादशारण्यं माहात्म्यं कथितं क्रमात् १५
भद्र श्री लोह भांडीर महाताल खदीरकाः
बकुलं कुमुदं काम्यं मधु वृंदावनं तथा १६
द्वादशैतावती संख्या कालिंद्याः सप्त पश्चिमे
पूर्वे पंचवनं प्रोक्तं तत्रास्ति गुह्यमुत्तमम् १७
महारण्यं गोकुलाख्यं मधु वृंदावनं तथा
अन्यच्चोपवनं प्रोक्तं कृष्णक्रीडारसस्थलम् १८
कदंबखंडनं नंदवनं नंदीश्वरं तथा
नंदनंदनखंडं च पलाशाशोककेतकी १९
सुगंधमानसं कैलममृतं भोजनस्थलम्
सुखप्रसाधनं वत्सहरणं शेषशायिकम् २०
श्यामपूर्वो दधिग्रामश्चक्रभानुपुरं तथा
संकेतं द्विपदं चैव बालक्रीडनधूसरम् २१
कामद्रुमं सुललितमुत्सुकं चापि काननम्
नानाविधरसक्रीडा नानालीलारसस्थलम् २२
नागविस्तारविष्टंभं रहस्यद्रुममीरितम्
सहस्रपत्रकमलं गोकुलाख्यं महत्पदम् २३
कर्णिकातन्महद्धाम गोविंदस्थानमुत्तमम्
तत्रोपरि स्वर्णपीठे मणिमंडपमंडितम् २४
कर्णिकायां क्रमाद्दिक्षु विदिक्षु दलमीरितम्
यद्दलं दक्षिणे प्रोक्तं परं गुह्योत्तमोत्तमम् २५
तस्मिन्दले महापीठं निगमागमदुर्गमम्
योगींद्रैरपि दुष्प्रापं सर्वात्मा यच्च गोकुलम् २६
द्वितीयं दलमाग्नेय्यां तद्रहस्यदलं तथा
संकेतं द्विपदं चैव कुटीद्वौ तत्कुले स्थितौ २७
पूर्वं दलं तृतीयं च प्रधानस्थानमुत्तमम्
गंगादिसर्वतीर्थानां स्पर्शाच्छतगुणं स्मृतम् २८
चतुर्थं दलमैशान्यां सिद्धपीठेऽपि तत्पदम्
व्यायामनूतनागोपी तत्र कृष्णं पतिं लभेत् २९
वस्त्रालंकारहरणं तद्दले समुदाहृतम्
उत्तरे पंचमं प्रोक्तं दलं सर्वदलोत्तमम् ३०
द्वादशादित्यमत्रैव दलं च कर्णिकासमम्
वायव्यां तु दलं षष्ठं तत्र कालीह्रदः स्मृतः ३१
दलोत्तमोत्तमं चैव प्रधानं स्थानमुच्यते
सर्वोत्तमदलं चैव पश्चिमे सप्तमं स्मृतम् ३२
यज्ञपत्नीगणानां च तदीप्सितवरप्रदम्
अत्रासुरोऽपि निर्वाणं प्राप त्रिदशदुर्लभम् ३३
ब्रह्ममोहनमत्रैव दलं ब्रह्मह्रदावहम्
नैर्ऋत्यां तु दलं प्रोक्तमष्टमं व्योमघातनम् ३४
शंखचूडवधस्तत्र नानाकेलिरसस्थलम्
श्रुतमष्टदलं प्रोक्तं वृंदारण्यांतरस्थितम् ३५
श्रीमद्वृंदावनं रम्यं यमुनायाः प्रदक्षिणम्
शिवलिंगमधिष्ठानं दृष्टं गोपीश्वराभिधम् ३६
तद्बाह्ये षोडशदलं श्रियापूर्णं तमीश्वरम्
सर्वासु दिक्षु यत्प्रोक्तं प्रादक्षिण्याद्यथाक्रमम् ३७
महत्पदं महद्धाम स्वधामाधावसंज्ञकम्
प्रथमैकदलं श्रेष्ठं माहात्म्यं कर्णिकासमम् ३८
तत्र गोवर्द्धनगिरौ रम्ये नित्यरसाश्रये
कर्णिकायां महालीला तल्लीला रसगह्वरौ ३९
यत्र कृष्णो नित्यवृंदाकाननस्य पतिर्भवेत्
कृष्णो गोविंदतां प्राप्तः किमन्यैर्बहुभाषितैः ४०
दलं तृतीयमाख्यातं सर्वश्रेष्ठोत्तमोत्तमम्
चतुर्थं दलमाख्यातं महाद्भुतरसस्थलम् ४१
नंदीश्वरवनं रम्यं तत्र नंदालयः स्मृतः
कर्णिकादलमाहात्म्यं पंचमं दलमुच्यते ४२
अधिष्ठाताऽत्र गोपालो धेनुपालनतत्परः
षष्ठं दलं यदाख्यातं तत्र नंदवनं स्मृतम् ४३
सप्तमं बकुलारण्यं दलं रम्यं प्रकीर्तितम्
तत्राष्टमं तालवनं तत्र धेनुवधः स्मृतः ४४
नवमं कुमुदारण्यं दलं रम्यं प्रकीर्तितम्
कामारण्यं च दशमं प्रधानं सर्वकारणम् ४५
ब्रह्मप्रसाधनं तत्र विष्णुच्छद्मप्रदर्शनम्
कृष्णक्रीडारसस्थानं प्रधानं दलमुच्यते ४६
दलमेकादशं प्रोक्तं भक्तानुग्रहकारणम्
निर्माणं सेतुबंधस्य नानावनमयस्थलम् ४७
भांडीरं द्वादशदलं वनं रम्यं मनोहरम्
कृष्णः क्रीडारतस्तत्र श्रीदामादिभिरावृतः ४८
त्रयोदशं दलं श्रेष्ठं तत्र भद्रवनं(रं) स्मृतम्
चतुर्दशदलं प्रोक्तं सर्वसिद्धिप्रदस्थलम् ४९
श्रीवनं तत्र रुचिरं सर्वैश्वर्यस्य कारणम्
कृष्णक्रीडादलमयं श्रीकांतिकीर्तिवर्द्धनम् ५०
दलं पंचदशं श्रेष्ठं तत्र लोहवनं स्मृतम्
कथितं षोडशदलं माहात्म्यं कर्णिकासमम् ५१
महावनं तत्र गीतं तत्रास्ति गुह्यमुत्तमम्
बालक्रीडारतस्तत्र वत्सपालैः समावृतः ५२
पूतनादिवधस्तत्र यमलार्जुनभंजनम्
अधिष्ठाता तत्र बालगोपालः पंचमाब्दिकः ५३
नाम्ना दामोदरः प्रोक्तः प्रेमानंदरसार्णवः
दलं प्रसिद्धमाख्यातं सर्वश्रेष्ठदलोत्तमम् ५४
कृष्णक्रीडा च किंजल्की विहारदलमुच्यते
सिद्धप्रधानकिंजल्क दलं च समुदाहृतम् ५५
पार्वत्युवाच-
वृंदारण्यस्य माहात्म्यं रहस्यं वा किमद्भुतम्
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महाप्रभो ५६
ईश्वर उवाच-
कथितं ते प्रियतमे गुह्याद्गुह्योत्तमोत्तमम्
रहस्यानां रहस्यं यद्दुर्लभानां च दुर्लभम् ५७
त्रैलोक्यगोपितं देवि देवेश्वरसुपूजितम्
ब्रह्मादिवांछितं स्थानं सुरसिद्धादिसेवितम् ५८
योगींद्रा हि सदा भक्त्या तस्य ध्यानैकतत्पराः
अप्सरोभिश्च गंधर्वैर्नृत्यगीतनिरंतरम् ५९
श्रीमद्वृंदावनं रम्यं पूर्णानंदरसाश्रयम्
भूरिचिंतामणिस्तोयममृतं रसपूरितम् ६०
वृक्षं गुरुद्रुमं तत्र सुरभीवृंदसेवितम्
स्त्रीं लक्ष्मीं पुरुषं विष्णुं तद्दशांशसमुद्भवम् ६१
तत्र कैशोरवयसं नित्यमानंदविग्रहम्
गतिनाट्यं कलालापस्मितवक्त्रं निरंतरम् ६२
शुद्धसत्वैः प्रेमपूर्णैर्वैष्णवैस्तद्वनाश्रितम्
पूर्णब्रह्मसुखेमग्नं स्फुरत्तन्मूर्तितन्मयम् ६३
मत्तकोकिलभृंगाद्यैः कूजत्कलमनोहरम्
कपोलशुकसंगीतमुन्मत्तालि सहस्रकम् ६४
भुजंगशत्रुनृत्याढ्यं सकलामोदविभ्रमम्
नानावर्णैश्च कुसुमैस्तद्रेणुपरिपूरितम् ६५
पूर्णेंदुनित्याभ्युदयं सूर्यमंदांशुसेवितम्
अदुःखं दुःखविच्छेदं जरामरणवर्जितम् ६६
अक्रोधं गतमात्सर्यमभिन्नमनहंकृतम्
पूर्णानंदामृतरसं पूर्णप्रेमसुखार्णवम् ६७
गुणातीतं महद्धाम पूर्णप्रेमस्वरूपकम्
वृक्षादिपुलकैर्यत्र प्रेमानंदाश्रुवर्षितम् ६८
किं पुनश्चेतनायुक्तैर्विष्णुभक्तैः किमुच्यते
गोविंदांघ्रिरजः स्पर्शान्नित्यं वृंदावनं भुवि ६९
सहस्रदलपद्मस्य वृंदारण्यं वराटकम्
यस्य स्पर्शनमात्रेण पृथ्वी धन्या जगत्त्रये ७०
गुह्याद्गुह्यतरं रम्यं मध्ये वृंदावनं भुवि
अक्षरं परमानंदं गोविंदस्थानमव्ययम् ७१
गोविंददेहतोऽभिन्नं पूर्णब्रह्मसुखाश्रयम्
मुक्तिस्तत्र रजःस्पर्शात्तन्माहात्म्यं किमुच्यते ७२
तस्मात्सर्वात्मना देवि हृदिस्थं तद्वनं कुरु
वृंदावनविहारेषु कृष्णं कैशोरविग्रहम् ७३
कालिंदी चाकरोद्यस्य कर्णिकायां प्रदक्षिणाम्
लीलानिर्वाणगंभीरं जलं सौरभमोहनम् ७४
आनंदामृत तन्मिश्रमकरंदघनालयम्
पद्मोत्पलाद्यैः कुसुमैर्नानावर्णसमुज्जवलम् ७५
चक्रवाकादिविहगैर्मंजुनानाकलस्वनैः
शोभमानं जलं रम्यं तरंगातिमनोरमम् ७६
तस्योभयतटी रम्या शुद्धकांचननिर्मिता
गंगाकोटिगुणा प्रोक्ता यत्र स्पर्शवराटकः ७७
कर्णिकायां कोटिगुणो यत्र क्रीडारतो हरिः
कालिंदीकर्णिका कृष्णमभिन्नमेकविग्रहम् ७८
पार्वत्युवाच
गोविंदस्य किमाश्चर्यं सौंदर्याकृतविग्रह
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व दयानिधे ७९
ईश्वर उवाच
मध्ये वृंदावने रम्ये मंजुमंजीरशोभिते
योजनाश्रितसद्वृक्ष शाखापल्लवमंडिते ८०
तन्मध्ये मंजुभवने योगपीठं समुज्जवलम्
तदष्टकोणनिर्माणं नानादीप्तिमनोहरम् ८१
तस्योपरि च माणिक्यरत्नसिंहासनं शुभम्
तस्मिन्नष्टदलं पद्मं कर्णिकायां सुखाश्रयम् ८२
गोविंदस्य परं स्थानं किमस्य महिमोच्यते
श्रीमद्गोविंदमंत्रस्थ बल्लवीवृंदसेवितम् ८३
दिव्यव्रजवयोरूपं कृष्णं वृंदावनेश्वरम्
व्रजेंद्रं संततैश्वर्यं व्रजबालैकवल्लभम् ८४
यौवनोद्भिन्नकैशोरं वयसाद्भुतविग्रहम्
अनादिमादिं सर्वेषां नंदगोपप्रियात्मजम् ८५
श्रुतिमृग्यमजं नित्यं गोपीजनमनोहरम्
परंधाम परं रूपं द्विभुजं गोकुलेश्वरम् ८६
बल्लवीनंदनं ध्यायेन्निर्गुणस्यैककारणम्
सुश्रीमंतं नवं स्वच्छं श्यामधाममनोहरम् ८७
नवीननीरदश्रेणी सुस्निग्धं मंजुकुंडलम्
फुल्लेंदीवरसत्कांति सुखस्पर्शं सुखावहम् ८८
दलितांजनपुंजाभ चिक्कणं श्याममोहनम्
सुस्निग्धनीलकुटिलाशेषसौरभकुंतलम् ८९
तदूर्ध्वं दक्षिणे काले श्यामचूडामनोहरम्
नानावर्णोज्ज्वलं राजच्छिखंडिदलमंडितम् ९०
मंदारमंजुगोपुच्छाचूडं चारुविभूषणम्
क्वचिद्बृहद्दलश्रेणी मुकुटेनाभिमंडितम् ९१
अनेकमणिमाणिक्यकिरीटभूषणं क्वचित्
लोलालकवृतं राजत्कोटिचंद्रसमाननम् ९२
कस्तूरीतिलकं भ्राजन्मंजुगोरोचनान्वितम्
नीलेंदीवरसुस्निग्ध सुदीर्घदललोचनम् ९३
आनृत्यद्भ्रूलताश्लेषस्मितं साचि निरीक्षणम्
सुचारून्नतसौंदर्य नासाग्राति मनोहरम् ९४
नासाग्रगजमुक्तांशु मुग्धीकृत जगत्त्रयम्
सिंदूरारुणसुस्निग्धाधरौष्ठसुमनोहरम् ९५
नानावर्णोल्लसत्स्वर्णमकराकृतिकुंडलम्
तद्रश्मिपुंजसद्गंड मुकुराभलसद्द्युतिम् ९६
कर्णोत्पलसुमंदारमकरोत्तंस भूषितम्
श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कं मुक्ताहारस्फुरद्गलम् ९७
विलसद्दिव्यमाणिक्यं मंजुकांचन मिश्रितम्
करे कंकणकेयूरं किंकिणीकटिशोभितम् ९८
मंजुमंजीरसौंदर्य्यश्रीमदंघ्रि विराजितम्
कर्पूरागुरुकस्तूरीविलसच्चंदनादिकम् ९९
गोरोचनादिसंमिश्र दिव्यांगरागचित्रितम्
स्निग्धपीतपटी राजत्प्रपदांदोलितांजनम् १००
गंभीरनाभिकमलं रोमराजीनतस्रजम्
सुवृत्तजानुयुगलं पादपद्ममनोहरम् १०१
ध्वजवज्रांकुशांभोज करांघ्रि तलशोभितम्
नखेंदु किरणश्रेणी पूर्णब्रह्मैककारणम् १०२
केचिद्वदंति तस्यांशं ब्रह्मचिद्रूपमद्वयम्
तद्दशांशं महाविष्णुं प्रवदंति मनीषिणः १०३
योगींद्रैः सनकाद्यैश्च तदेव हृदि चिंत्यते
त्रिभंगं ललिताशेष निर्माणसारनिर्मितम् १०४
तिर्यग्ग्रीवजितानंतकोटिकंदर्पसुंदरम्
वामांसार्पित सद्गण्डस्फुरत्कांचनकुंडलम् १०५
सहापांगेक्षणस्मेरं कोटिमन्मथसुंदरम्
कुंचिताधरविन्यस्त वंशीमंजुकलस्वनैः १०६
जगत्त्रयं मोहयंतं मग्नं प्रेमसुधार्णवे
श्रीपार्वत्युवाच-
परमं कारणं कृष्णं गोविंदाख्यं महत्पदम् १०७
वृंदावनेश्वरं नित्यं निर्गुणस्यैककारणम्
तत्तद्रहस्यमाहात्म्यं किमाश्चर्यं च सुंदरम् १०८
तद्ब्रूहि देवदेवेश श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो
ईश्वर उवाच-
यदंघ्रिनखचंद्रांशु महिमांतो न गम्यते १०९
तन्माहात्म्यं कियद्देवि प्रोच्यते त्वं मुदा शृणु
अनंतकोटिब्रह्मांडे अनंतत्रिगुणोच्छ्रये ११०
तत्कलाकोटिकोट्यंशा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः
सृष्टिस्थित्यादिना युक्तास्तिष्ठंति तस्य वैभवाः १११
तद्रूपकोटिकोट्यंशाः कलाः कंदर्पविग्रहाः
जगन्मोहं प्रकुर्वंति तदंडांतरसंस्थिताः ११२
तद्देहविलसत्कांतिकोटिकोट्यंशको विभुः
तत्प्रकाशस्य कोट्यंश रश्मयो रविविग्रहाः ११३
तस्य स्वदेहकिरणैः परानंद रसामृतैः
परमामोदचिद्रूपैर्निर्गुणस्यैककारणैः ११४
तदंशकोटिकोट्यंशा जीवंति किरणात्मकाः
तदंघ्रिपंकजद्वंद्व नखचंद्र मणिप्रभाः ११५
आहुः पूर्णब्रह्मणोऽपि कारणं वेददुर्गमम्
तदंशसौरभानंतकोट्यंशो विश्वमोहनः ११६
तत्स्पर्शपुष्पगंधादि नानासौरभसंभवः
तत्प्रिया प्रकृतिस्त्वाद्या राधिका कृष्णवल्लभा ११७
तत्कलाकोटिकोट्यंशा दुर्गाद्यास्त्रिगुणात्मिकाः
तस्या अंघ्रिरजः स्पर्शात्कोटिविष्णुः प्रजायते ११८
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये कृष्णचरित्रे
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ६९


पद्म पुराण

यह पृष्ठ कृष्ण की कहानी का वर्णन करता है जो कि पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 69 है, जो सबसे बड़े महापुराणों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) के बारे में बताया गया है। . यह पद्म पुराण के पाताल-खंड (सेक्शन ऑन द नेदर वर्ल्ड) का उनहत्तरवाँ अध्याय है।

अध्याय 69 - कृष्ण की कहानी शुरू होती है


ऋषियों ने कहा :

1. हे गौरवशाली, हमने आपसे विधिवत राम के अश्व-यज्ञ का (विवरण) सुना है। अब हमें श्रीकृष्ण की महानता (अर्थात महिमा) बताओ ।

सीता ने कहा :

2-3। हे श्रेष्ठ ऋषियों, (कृपया) श्रीकृष्ण की अमृत जैसी कथा को सुनें। मैं आपको बताऊंगा कि पार्वती ने प्राणियों के स्वामी से क्या पूछा । एक बार देवी पार्वती ने शिव के प्रति स्नेही मन से उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके उनसे ये शब्द कहे:

पार्वती ने कहा :

4-5. विष्णु का करोड़ों ब्रह्मांडों के बाहर और भीतर रहने का स्थान , उनसे परे है, प्रमुख है, सर्वश्रेष्ठ है, और उत्कृष्ट है। कृष्ण के प्रिय स्थान से श्रेष्ठ कोई स्थान नहीं है । हे महाप्रभु, मैं यह सब सुनना चाहता हूं। (कृपया) बताएं।

प्रभु ने कहा :

6-15ए। उच्चतम, उत्कृष्ट गुप्त स्थान प्रिय (विष्णु को) एक गुप्त स्थान से अधिक गुप्त है, पवित्र है, बहुत अद्भुत है, और बहुत आनंद देता है। हे देवी, यह महान है, उन सभी स्थानों तक पहुंचना बहुत कठिन है, जहां पहुंचना कठिन है; वह सब सामर्थ से भरा हुआ है, और सब स्थानोंमें छिपा है। विष्णु का यह स्थान सातवतों के स्थानों में प्रमुख है, पहुंचना अत्यंत कठिन है, शाश्वत है, वृंदावन कहलाता है , और ब्रह्मांड के ऊपर स्थित है। यह पूर्ण ब्रह्म है , सुख और महिमा है, शाश्वत है, आनंद है, और अविनाशी है। वैकुंठ इसके हिस्से का एक हिस्सा है; पृथ्वी पर ही वृन्दावन है। गोलोक की जो भी महिमा है, वह गोकुलों में विराजमान है. वैकुण्ठ में जो भी महिमा है (पाया) द्वारका में बसा हुआ है । उस सर्वोच्च ब्रह्म की जो भी महिमा है, वह हमेशा वृंदावन का सहारा लेता है। जंगल में कृष्ण का वास उनमें विशेष रूप से महान है । चूंकि माथुरका नाम की वस्तु विष्णु को ही प्रिय है, इसलिए तीनों लोकों में पृथ्वी धन्य है। उनका अपना निवास, जिसे मथुरा का क्षेत्र कहा जाता है, श्रेष्ठ है; यह एक छुपा हुआ, बहुरूपी स्थान है, जो एक शहर के भीतर स्थित है। मथुरा क्षेत्र एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल के आकार का है। विष्णु की डिस्क के घूमने के कारण, विष्णु का अद्भुत निवास (आया है)। इसकी पेरिकारप और पंखुड़ियां व्यापक हैं, और गुप्त पेड़ों के साथ उग आई हैं।

15बी-23ए। बारह उपवन महत्वपूर्ण हैं। महत्व के क्रम में वे हैं: भद्र , श्री, लोहा , भशीरा, महा , ताल , खदिरका, बकुला , कुमुदा , काम्या , मधु ( वन ) और वृंदावन। इनकी संख्या बारह है। उनमें से सात कालिंदी के पश्चिम में (स्थित) हैं । पूर्व में पाँच (एक साथ) पंचवना (अर्थात पाँच उपवन) कहलाते हैं। गोकुल नामक एक महान, गुप्त उपवन है और मधु (वन)-वृन्दावन भी। इस बाद को कृष्ण के खेल-प्रसन्नता का स्थान कहा जाता है । (तब वहाँ हैं :) कदंब , ख़ाना:नंदवन , नंदीश्वर, नंदनंदनखांस, पालना , अशोक , केतकी , सुगंधमानस , कैला , अमृता , उनके खाने का स्थान (भोजन); सुखाप्रसादन, वत्सहारण, सेशनायिका; ग्राम श्यामापुरवोदधि, इसलिए नगर चक्रभानु भी; शंकेत , द्विपद , बच्चों के खेल के कारण धूल-धूसरित; कामद्रुम, सुललिता और उपवन उत्सुका । यह विभिन्न प्रकार की लीलाओं के भोगों का स्थान है, वैसे ही अनेक खेलों के भोगों का भी; नागविस्तारविशंभ (शाब्दिक रूप से, नाग के विस्तार को रोकना), और उसमें गुप्त वृक्ष उग रहे हैं।

23बी-51. गोकुल नामक महान स्थान हजार पंखुड़ियों वाला कमल है। इसमें जो महान स्थान है, उसका पेरिकारप, गोविन्द का उत्कृष्ट वास हैएक स्वर्ण आसन पर और एक स्वर्ण मंडप से सुशोभित है। पंखुड़ियां पेरिकारप में (अर्थात से) उचित क्रम में (मुख्य) दिशाओं और मध्यवर्ती दिशाओं में ऊपर उठी हैं। जिस पंखुड़ी को दक्षिण दिशा में (स्थित होना) कहा गया है, वह उत्तम (अर्थात् सर्वाधिक) गुप्त स्थानों में श्रेष्ठ और उत्तम है। उस पंखुड़ी में वैदिक और पवित्र ग्रंथों के लिए दुर्गम एक महान आसन है। ध्यान करने वाले संतों के लिए भी इसे प्राप्त करना कठिन है, सभी की आत्मा है, और गोकुल है। दक्षिण-पूर्व में दूसरी पंखुड़ी है, गुप्त पंखुड़ी। यह शंकेत है, द्विपाद; उस क्षेत्र में दो झोपड़ियाँ स्थित हैं। पूर्व में तीसरी पंखुड़ी है, एक उत्कृष्ट और प्रमुख स्थान है। इसे गंगा जैसे सभी पवित्र स्थानों के संपर्क से सौ गुना अधिक मेधावी कहा जाता है. उत्तर-पूर्व में चौथी पंखुड़ी है, और यह स्थान प्रेरित ऋषियों के आसन पर है। कात्यायन की पूजा करने के कारण एक चरवाहा उस स्थान पर कृष्ण को अपने पति के रूप में प्राप्त करेगी । कहा जाता है कि वहां पर वस्त्र और आभूषण (गायों के) छीन लिए गए थे। उत्तर में (अस्तित्व में) पांचवीं पंखुड़ी, सभी पंखुड़ियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। यहाँ खुद कार्तिका (शाब्दिक रूप से, पेरिकारप ) जैसी पंखुड़ी है, जिसे द्वादादित्य कहा जाता है(अर्थात बारह सूर्य होना)। उत्तर-पश्चिम में छठी पंखुड़ी है। कलिहरदा वहाँ (स्थित होने के लिए) कहा जाता है। इसे सबसे अच्छी पंखुड़ियों में से सबसे अच्छा, और प्रमुख स्थान कहा जाता है। पश्चिम में कहा जाता है (अस्तित्व में) सातवीं पंखुड़ी, सभी पंखुड़ियों में सबसे अच्छी। यह विष्णु की पत्नियों के समूहों को वांछित वरदान देता है। यहां एक राक्षस को भी मोक्ष प्राप्त हुआ जिसे देवताओं द्वारा प्राप्त करना मुश्किल था। यहाँ केवल ब्रह्मदाला नामक पंखुड़ी है जो ब्रह्म को भ्रमित करती है । दक्षिण-पूर्व में (अस्तित्व में) आठवीं पंखुड़ी (जिसे व्योमघाटन कहा जाता है) कहा जाता है। शंख का वध वहीं हुआ था। यह कई खेलों के आनंद का स्थान है। आठवीं पंखुड़ी प्रसिद्ध है, और कहा जाता है कि यह वृंदावन-वन के भीतर स्थित है। यमुना के दक्षिण में गौरवशाली वृंदावन है. गोपीवर नामक शिव-पल्लुस का स्थान दिखाई देता है। इसके बाहर सोलहवीं पंखुड़ी है, जो महिमामय और सौन्दर्य से भरपूर है, जो इसके चारों ओर क्रम से चक्कर लगाने के कारण सभी दिशाओं में (अस्तित्व में) कही जाती है। यह एक महान स्थान है, एक महान निवास है, जिसका नाम स्वाधामाधव है । पहली पंखुड़ी सबसे बड़ी है, और इसकी महानता कार्तिका (पेरीकार्प) के समान है। गोवर्धन पर्वत पर कार्तिक है जो प्यारा है और हमेशा आनंद का निवास है, महान खेलों से भरा एक उपवन है जहां कृष्ण नित्यविन्दकान के स्वामी होंगे। कृष्ण (वहां) एक ग्वाला बन गए । ज्यादा बोलने से क्या फायदा? तीसरी पंखुड़ी को सर्वश्रेष्ठोत्तमोत्तम कहा जाता है। चौथी पंखुड़ी को महाभूतभूतरस्थल कहा जाता है। सुंदर उपवन (जिन्हें कहा जाता है) नंदीवर , और कहा जाता है (अस्तित्व में) निवासनंदा । पांचवीं पंखुड़ी को कार्तिकदलमहात्म्य कहा जाता है। यहाँ गोपाल (अर्थात कृष्ण) गायों की देखभाल में लगे हुए हैं, निवास करते हैं। वहां, जिसे छठी पंखुड़ी कहा जाता है, (अस्तित्व में) नंदवन कहा जाता है। सातवीं प्यारी पंखुड़ी को बकुलारण्य कहा जाता है। आठवां तलवन है जहां गायों को मारा गया था। नौवीं आकर्षक पंखुड़ी को कुमुदारण्य कहा जाता है। दसवां (कहा जाता है) कामराण्य सबका प्रमुख और कारण है। ब्रह्मप्रसादन (ब्रह्मा का अलंकृत अलंकार) और विष्णु के वेश का प्रकटीकरण है। यह (अर्थात) कृष्ण के खेल के आनंद का स्थान है, और इसे प्रमुख कहा जाता है। ग्यारहवीं पंखुड़ी भक्तानुग्रहाकरण कहलाती है। यहाँ एक पुल का निर्माण किया गया है; और वह स्थान अनेक उपवनों से भरा हुआ है। बारहवीं प्यारी और आकर्षक पंखुड़ी है भार:; वहाँ कृष्ण खेल में लगे हुए थे और श्रीदामन आदि से घिरे हुए थे। तेरहवीं सबसे अच्छी पंखुड़ी भद्रवर के नाम से जानी जाती है। चौदहवीं पंखुड़ी को सर्वसिद्धिप्रदास्थल कहा जाता है। वहाँ श्रीवन है , जो आकर्षक है, और सभी वैभव का कारण है; यह कृष्ण के खेल का एक हिस्सा है और महिमा, सुंदरता और प्रसिद्धि को बढ़ाता है। पंद्रहवीं उत्कृष्ट पंखुड़ी को लोहावन के नाम से जाना जाता है । कार्तिक जैसी दिखने वाली पंखुड़ी को सोलहवीं पंखुड़ी कहा गया है।

52-55. एक गुप्त, उत्कृष्ट, महान उपवन कहा जाता है। (कृष्ण) बछड़ों के रखवालों (यानी युवा चरवाहों) से घिरा हुआ है, बाल-खेल में लगा हुआ है। पूतना आदि का वध और अर्जुन के जुड़वाँ वृक्षों को तोडना (वहाँ हुआ)। युवा गोपाल, पांच साल का, प्रेम, आनंद और आनंद का सागर, और दामोदर कहा जाता है, वहां रहता है। यह एक प्रसिद्ध पंखुड़ी कहा जाता है, और सभी पंखुड़ियों में सबसे अच्छी और उत्कृष्ट है। कृष्ण का खेल (यहाँ होता है)। इसे किंजल्किविहारदल कहा जाता है। इसे सिद्धप्रधानकींजलका भी कहा जाता है।

पार्वती ने कहा :

56. मैं वृंदारण्य के महत्व और अद्भुत रहस्य को सुनना चाहता हूं। हे महाप्रभु, इसे सुनाओ।

प्रभु ने कहा :

57-59. हे सबसे प्यारे, मैंने तुम्हें सबसे अच्छा, सबसे बड़ा रहस्य, रहस्यों का रहस्य और दुर्लभ से दुर्लभ बताया है। हे देवी, यह तीनों लोकों में देखा जाता है, और देवताओं के स्वामी द्वारा सम्मानित किया जाता है। यह ब्रह्मा और अन्य लोगों द्वारा वांछित है; इस स्थान का सहारा देवताओं और प्रेरित संतों द्वारा लिया जाता है। ध्यान करने वाले संतों में सबसे अच्छा हमेशा उसी पर ध्यान करने के लिए समर्पित होता है। गंधर्वों और दिव्य कन्याओं का निरंतर गायन और नृत्य होता रहता है ।

60-69. गौरवशाली वृंदावन आकर्षक है और पूर्ण आनंद और आनंद का निवास है। मनोकामना पूर्ति करने वाले अनेक रत्न हैं; और पानी अमृत के स्वाद से भरा है। वहां का बड़ा पेड़ कदंब के पेड़ों से घिरा हुआ है। लक्ष्मी जी हैं, विष्णु पुरुष, इसके दसवें भाग से उत्पन्न हुआ। वहाँ (कोई देखता है) कृष्ण, एक लड़के की उम्र के, हमेशा एक हर्षित व्यक्ति के, नाटकीय रूप से चलने वाले, एक चेहरे के साथ लगातार मीठी लेकिन अस्पष्ट बात करने वाले, विष्णु के भक्तों द्वारा वन का सहारा लेते हुए, शुद्ध प्रकृति के, और पूर्ण प्रेम का, पूर्ण ब्रह्म के आनंद में लगा हुआ, उसके बारे में विचारों से भरा हुआ; उनकी छवि से प्रेरित होकर; (जंगल था) मदमस्त कोयल-मधुमक्खियों के मधुर स्वरों और गुंजन से, कबूतरों और तोतों के संगीत से युक्त, हजारों नशे में मधुमक्खियां, नागों (यानी मोर) के शत्रुओं के नृत्य से भरपूर, सभी से भरपूर मनोरंजक हर्षित खेल; वह विभिन्न रंगों के फूलों के परागकणों से भरा था; यह पूर्णिमा हमेशा उगता था, और सूर्य के साथ ठंडी किरणों के साथ सेवा करता था; वह दुःख रहित था, दुःख से मुक्त था, और बुढ़ापा और मृत्यु। यह क्रोध से मुक्त, ईर्ष्या से मुक्त, अखंड (अर्थात पूर्ण) और अहंकार रहित था; इसमें पूर्ण आनंद का अमृत था; यह पूर्ण प्रेम और खुशी का सागर था। महान धाम (सभी) गुणों से परे था और पूर्ण प्रेम की प्रकृति का था, जहां भयानकता के कारण पेड़ों आदि के आंसू बहाए जाते थे; फिर विष्णु भक्तों के होश में आने के बारे में क्या कहा जा सकता है! कृष्ण के चरणों की धूल के निरंतर संपर्क के कारण यह पृथ्वी पर वृंदावन था।

70-78. वृंदावन एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का बीज-पोत है, जिसके स्पर्श से पृथ्वी तीनों लोकों में धन्य हो जाती है। पृथ्वी पर वृंदावन एक रहस्य (यानी सबसे बड़ा रहस्य) और एक आकर्षक (स्थान) से बड़ा रहस्य है। यह गोविंदा का एक अटूट, अपरिवर्तनीय निवास है, जिसमें सबसे बड़ा आनंद है। यह गोविंदा के शरीर से अलग नहीं है, और पूर्ण ब्रह्म के आनंद (पहुंच) का निवास है। वहाँ धूल (-कण) के स्पर्श से मोक्ष मिलता है। इसके महत्व के बारे में क्या कहा जा सकता है? इसलिए हे रानी, ​​हर हाल में उस वन का ध्यान रखना। वृंदावन पार्कों में, (कोई देखता है) कृष्ण एक लड़के का शरीर रखते हैं। कालिंदी अपने पेरिकारप के चारों ओर चला गया। कालिंदी का जल खेलकूद से सुहावना, गहरा और सुगंध से आकर्षक होता है। यह आनंद के अमृत के साथ मिश्रित था; यह मधु का घना स्थान है; यह कमल और नीले कमल जैसे फूलों के कारण कई रंगों से चमकीला है। पानी प्यारा है; यह विभिन्न मीठे और अस्पष्ट नोटों के साथ सुर्ख गीज़ जैसे पक्षियों के साथ सुंदर दिखता है; यह लहरों के कारण बहुत प्यारा है। इसके दोनों ओर (एक पेरिकारप है) जो सुंदर और शुद्ध सोने से बना है, जिसे गंगा (गंगाकोशिगुण) से एक करोड़ गुना अधिक गुणी कहा जाता है। पेरिकारप (कारिका) में कोशिगुण है जहां कृष्ण खेल में लगे हुए हैं। कालिंदी, कार्तिका और कृष्ण एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनका (सिर्फ) एक शरीर है। इसके दोनों ओर (एक पेरिकारप है) जो सुंदर और शुद्ध सोने से बना है, जिसे गंगा (गंगाकोशिगुण) से एक करोड़ गुना अधिक गुणी कहा जाता है। पेरिकारप (कारिका) में कोशिगुण है जहां कृष्ण खेल में लगे हुए हैं। कालिंदी, कार्तिका और कृष्ण एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनका (सिर्फ) एक शरीर है। इसके दोनों ओर (एक पेरिकारप है) जो सुंदर और शुद्ध सोने से बना है, जिसे गंगा (गंगाकोशिगुण) से एक करोड़ गुना अधिक गुणी कहा जाता है। पेरिकारप (कारिका) में कोशिगुण है जहां कृष्ण खेल में लगे हुए हैं। कालिंदी, कार्तिका और कृष्ण एक दूसरे से अलग नहीं हैं। उनका (सिर्फ) एक शरीर है।

पार्वती ने कहा :

79. हे सुंदर शरीर न होने पर, मैं गोविंदा के चमत्कारों को सुनना चाहता हूं। हे करुणा के भण्डार, कहो (उन्हें मुझे)।

प्रभु ने कहा :

80-107. वृन्दावन में सुंदर अंकुरों से सुशोभित और एक योजन में फैले अच्छे वृक्षों की शाखाओं के पत्तों से सुशोभित, एक आकर्षक निवास में अमूर्त ध्यान के लिए एक बहुत ही उज्ज्वल आसन है। यह आठ कोणों से बना है और विभिन्न चमकों के कारण आकर्षक है। उस पर माणिकों वाला एक शुभ सिंहासन (अलंकृत) है। पेरिकारप में आराम से लेटा हुआ एक आठ पंखुड़ियों वाला कमल है। यह गोविंदा का महान निवास है। इसकी महानता का वर्णन कैसे किया जा सकता है? एक व्यक्ति को कृष्ण का ध्यान करना चाहिए, जो गोविन्द (अर्थात् निम्नलिखित) गोविन्द (अर्थात् कृष्ण) की सलाह में शेष (अर्थात निम्नलिखित) ग्वालों के समूह द्वारा सेवा कर रहे हैं, जिनके पास ग्वालों के दिव्य स्थान के लिए (उचित) आयु और रूप है, जो कि ग्वाले के स्वामी हैं। वृन्दावन, जो ग्वालों के थाने का मुखिया है, जो सदा वैभव रखता है, जो ग्वालों के थाने के बच्चों को अकेला प्रिय है, जिसका बचपन उम्र के कारण यौवन में टूट गया है, जिसका शरीर अद्भुत है, जो विहीन है एक शुरुआत लेकिन सभी का मूल है,मंदरा (फूल), जिसने सुंदर आभूषण धारण किए हैं, जो कभी-कभी बड़े पत्तों से बने मुकुट से सुशोभित होते हैं, जिनके पास कभी-कभी कई रत्नों और माणिकों से बने मुकुट का आभूषण होता है, जो अस्थिर बालों से ढका होता है , जिसका मुख करोड़ों उज्ज्वल चन्द्रमाओं के समान है, जिसने (अपने माथे पर) कस्तूरी का चिन्ह लगाया है, जो मूत्र या पित्त से बने चमकीले, आकर्षक पीले रंगद्रव्य के साथ (स्मियर) किया गया हैएक गाय की, जिसकी आंखें बहुत लंबी पंखुड़ियों की तरह लंबी होती हैं, जिसमें पूरी तरह से खुले नीले कमल की सुंदरता होती है, जिसकी मुस्कान में लता जैसी भौहें बारीकी से नृत्य करती हैं (अर्थात चलती हैं), और दृष्टि (यानी आंखें) आकर्षक होती हैं, जिसकी नाक का सिरा बहुत सुंदर और उभरे हुए होने के कारण अपनी सुंदरता के कारण आकर्षक है, जो अपनी नाक की नोक पर हाथियों के माथे पर प्रक्षेपण में पाए जाने वाले मोतियों की किरणों से तीनों लोकों को लुभाता है, जो अपने लाल और चमकदार निचले होंठ के कारण लाल सीसा जैसा प्यारा है, जो मगरमच्छों के आकार और शुद्ध चमकीले सोने और कई रंगों से बने कानों के छल्ले लगाता है, और अच्छे गाल जिनके कारण दर्पण के समान हैं की किरणों के ढेर के लिए (यानी शूटिंग) उन्हें (यानी कान के छल्ले),जिनके कानों पर मंदार और कमल रखे हुए हैं और जो 'मगरमच्छ' के आकार के झोंपड़ियों से सुशोभित हैं, जिनके सीने पर (निशान) है।श्रीवत्स और कौस्तुभ , जिनकी गर्दन मोतियों की माला से चमकती है, जिनकी भुजाओं में दिव्य माणिक चमकते और सुंदर सोने से मिश्रित कंगन और बाजूबंद हैं, जिनकी कमर छोटी-छोटी घंटियों से सुशोभित है, जिनके सुंदर पैर मीठे की सुंदरता से सुशोभित हैं ( -जिंगलिंग) पायल, (जिसके शरीर पर) चंदन आदि कपूर, अगरु से चमकीला दिखता है(चन्दन) और कस्तूरी, जो गाय के मूत्र या पित्त से बने चमकीले पीले रंगद्रव्य के साथ मिश्रित दिव्य सुगन्धित पदार्थों से रंगे हुए हैं, जो कोमल, पीले वस्त्र से चमक रहे हैं और जिनके पैरों से कोलिरियम विक्षुब्ध है, जिनकी कमल जैसी नाभि गहरी है , जिसका चैपलेट बालों की रेखा में दब गया है, जिसका घुटनों का जोड़ा काफी गोल है, जो अपने कमल के समान पैरों के कारण प्यारा है, जिसकी हथेलियाँ और तलवे ध्वज, हीरे, सोने और कमल के चिह्नों से सुशोभित हैं, जो उनके नाखूनों से निकलने वाली किरणों की पंक्ति का होना ही संपूर्ण ब्रह्म का एकमात्र कारण है। कुछ लोग कहते हैं कि अद्वितीय सर्वोच्च आत्मा, ब्रह्म, उसका अंश है; ज्ञानी कहते हैं कि महाविष्णुउसका दसवां हिस्सा है; वह अकेला, जिसके पास तीन गुण हैं और जो सभी अच्छी चीजों के फैशन (आवश्यक सामग्री) के सार के साथ तैयार किया गया है, उनके दिल में सनक जैसे सर्वश्रेष्ठ ध्यान करने वाले संतों के बारे में सोचा गया है , जो प्यारे हैं (जैसा कि उनके पास है) असंख्य परास्त उनकी गर्दन के कारण करोड़ों कामदेव जो (एक तरफ) मुड़े हुए हैं, जिनके सुनहरे कान के छल्ले चमकते हैं जब उन्होंने अपने बाएं कंधे पर अपना अच्छा गाल रखा है, जिनकी मुस्कान एक तरफ नजर के साथ है, जो तीनों लोकों को भ्रमित करती है प्रेम के सागर में डूबे हुए सिकुड़े होठों के बीच उसकी बांसुरी के मधुर, अस्पष्ट स्वरों को रखा जाता है।

पार्वती ने कहा :

108-115. हे भगवान, मुझे सर्वोच्च कारण कृष्ण के बारे में सब कुछ बताओ, कृष्ण नामक सर्वोच्च पद, वृंदावन के स्वामी, शाश्वत, और गुणवत्ताहीन (ब्राह्मण) का एकमात्र कारण; मुझे हर रहस्य का महत्व बताओ, प्यारे आश्चर्य के बारे में। हे प्रभुओं के स्वामी, मैं इसे सुनना चाहता हूं।

प्रभु ने कहा :

हे देवी, उसकी महानता के बारे में कितना कहा जा सकता है, जिसकी चंद्रमा जैसी किरणों का ज्ञान नहीं हो सकता है? खुशी से सुनो। असंख्य करोड़ों ब्रह्मांडों में, अनंत के उदय में ( प्रकृति:)) तीन घटकों के साथ, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उनके पैरों के एक करोड़वें हिस्से के माप के बराबर हैं। उससे उत्पन्न (ये) सृष्टि, पालन और संहार से संपन्न हैं। कामदेव के शरीर उनके रूप के एक करोड़वें हिस्से के एक करोड़वें हिस्से के बराबर भाग हैं। अपने अस्थाना (?) से पैदा हुए वे दुनिया को लुभाते हैं। ब्रह्मा अपने शरीर में चमकने वाले चमक के एक करोड़वें हिस्से के बराबर एक हिस्सा है। सूर्य के रूप उसके प्रकाश के करोड़वें भाग के करोड़वें भाग के बराबर आंशिक किरणें हैं। जो किरणें उसके एक करोड़वें हिस्से का करोड़वां हिस्सा हैं, वे उसके शरीर की किरणों के कारण जीवित रहती हैं जो महान आनंद का अमृत हैं, जो उच्चतम आनंद और बुद्धि की प्रकृति की हैं, और जो एकमात्र कारण हैं गुणहीन ब्रह्म

116-118. वे कहते हैं कि उनके दो पैरों के मणि (अर्धचंद्राकार) चंद्रमा (-आकार) के नाखूनों की चमक भी पूर्ण ब्रह्म का कारण है, जिसे वेदों द्वारा समझना मुश्किल है । (सुगंध) ब्रह्मांड को लुभाने वाला एक हिस्सा है जिसे मापा नहीं जा सकता (अर्थात नगण्य है) उसकी सुगंध का; और उसके स्पर्श किए हुए फूलों की सुगंध आदि से अनेक प्रकार की सुगन्ध उत्पन्न होती हैं। पहला (प्राथमिक) पदार्थ राधिका है , कृष्ण को प्रिय । दुर्गा और अन्य तीन घटकों वाले उसके करोड़वें हिस्से के एक करोड़वें हिस्से के बराबर हैं। उनके चरणों की धूलि के स्पर्श से ही उत्तम विष्णु की उत्पत्ति होती है।


पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः ०७०

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पार्वत्युवाच-
यदाकर्णनमेतस्य ये वा पारिषदाः प्रभोः
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व दयानिधे १
ईश्वर उवाच
राधया सह गोविंदं स्वर्णसिंहासनेस्थितम्
पूर्वोक्तरूपलावण्यं दिव्यभूषांबरस्रजम् २
त्रिभंगी मंजु सुस्निग्धं गोपीलोचनतारकम्
तद्बाह्ये योगपीठे च स्वर्णसिंहासनावृते ३
प्रत्यंगरभसावेशाः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः
ललिताद्याः प्रकृत्यंशा मूलप्रकृतिराधिका ४
संमुखे ललिता देवी श्यामला वायुकोणके
उत्तरे श्रीमती धन्या एशान्यां श्रीहरिप्रिया ५
विशाखा च तथा पूर्वे शैब्या चाग्नौ ततः परम्
पद्मा च दक्षिणे पश्चान्नैर्ऋते क्रमशः स्थिताः ६
योगपीठे केसराग्रे चारु चंद्रावती प्रिया
अष्टौ प्रकृतयः पुण्याः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः ७
प्रधानप्रकृतिस्त्वाद्या राधा चंद्रावती समा
चंद्रावली चित्ररेखा चंद्रा मदनसुंदरी ८
प्रिया च श्रीमधुमती चंद्ररेखा हरिप्रिया
षोडशाद्याः प्रकृतयः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः ९
वृंदावनेश्वरी राधा तथा चंद्रावली प्रिया
अभिन्नगुणलावण्य सौंदर्याश्चारुलोचनाः १०
मनोहरा मुग्धवेषाः किशोरीवयसोज्ज्वलाः
अग्रेतनास्तथा चान्या गोपकन्याः सहस्रशः ११
शुद्धकांचनपुंजाभाः सुप्रसन्नाः सुलोचनाः
तद्रूपहृदयारूढास्तदाश्लेष समुत्सुकाः १२
श्यामामृतरसे मग्नाः स्फुरत्तद्भावमानसाः
नेत्रोत्पलार्चिते कृष्णपादाब्जेऽपितचेतसः १३
श्रुतिकन्यास्ततो दक्षे सहस्रायुतसंयुताः
जगन्मुग्धीकृताकारा हृद्वर्तिकृष्णलालसाः १४
नानासत्वस्वरालापमुग्धीकृतजगत्त्रयाः
तत्र गूढरहस्यानि गायंत्यः प्रेमविह्वलाः १५
देवकन्यास्ततः सव्ये दिव्यवेषारसोज्ज्वलाः
नानावैदिग्ध्यनिपुणा दिव्यभावभरान्विताः १६
सौंदर्यातिशयेनाढ्याः कटाक्षातिमनोहराः
निर्लज्जास्तत्र गोविंदे तदंगस्पर्शनोद्यताः १७
तद्भावमग्नमनसः स्मितसाचि निरीक्षणाः
मंदिरस्य ततो बाह्ये प्रियया विशदावृते १८
समानवेषवयसः समानबलपौरुषाः
समानगुणकर्माणः समानाभरणप्रियाः १९
समानस्वरसंगीत वेणुवादनतत्पराः
श्रीदामा पश्चिमे द्वारे वसुदामा तथोत्तरे २०
सुदामा च तथा पूर्वे किंकिणी चापि दक्षिणे
तद्बाह्ये स्वर्णपीठे च सुवर्णमंदिरावृते २१
स्वर्णवेद्यंतरस्थे तु स्वर्णाभरणभूषिते
स्तोककृष्णं सुभद्राद्यैर्गोपालैरयुतायुतैः २२
शृंगवीणावेणुवेत्रवयोवेषाकृतिस्वरैः
तद्गुणध्यानसंयुक्तैर्गायद्भिरपि विह्वलैः २३
चित्रार्पितैश्चित्ररूपैः सदानंदाश्रुवर्षिभिः
पुलकाकुलसर्वांगैर्योगींद्रैरिव विस्मितैः २४
क्षरत्ययोभिर्गोविंदैरसंख्यातैरुपावृतम्
तद्बाह्ये स्वर्णप्राकारे कोटिसूर्यसमुज्जवले २५
चतुर्दिक्षुमहोद्यानं मंजुसौरभमोहिते
पश्चिमे संमुखे श्रीमत्पारिजातद्रुमाश्रये २६
तदधस्तु स्वर्णपीठे स्वर्णमंडनमंडिते
तन्मध्ये मणिमाणिक्य दिव्यसिंहासनोज्ज्वले २७
तत्रोपरि परानंदं वासुदेवं जगत्प्रभुम्
त्रिगुणातीतचिद्रूपं सर्वकारणकारणम् २८
इंद्रनीलघनश्यामं नीलकुंचितकुंतलम्
पद्मपत्रविशालाक्षं मकराकृतिकुंडलम् २९
चतुर्भुजं तु चक्रासिगदाशंखांबुजायुधम्
आद्यंतरहितं नित्यं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ३०
ज्योतीरूपं महद्धाम पुराणं वनमालिनम्
पीतांबरधरं स्निग्धं दिव्यभूषणभूषितम् ३१
दिव्यानुलेपनं राजच्चित्रितांग मनोहरम्
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजिती सुलक्षणा ३२
मित्रविंदानुविंदा सुनंदा जांबवती प्रिया
सुशीला चाष्टमहिला वासुदेवप्रियास्ततः ३३
उद्भ्राजिताः पारिषदा वृतयोर्भक्तितत्पराः
उत्तरे सुमहोद्याने हरिचंदनसंश्रये ३४
तत्राधस्तु स्वर्णपीठे मणिमंडपमंडिते
तन्मध्ये हेमनिर्माणदले सिंहासनोज्जवले ३५
तत्रैव सह रेवत्या संकर्षण हलायुधम्
ईश्वरस्य प्रियानंतमभिन्नगुणरूपिणम् ३६
शुद्धस्फटिकसंकाशं रक्तांबुज दलेक्षणम्
नीलपट्टधरं स्निग्धं दिव्यभूषास्रगंबरम् ३७
मधुपाने सदासक्तं मधुघूर्णितलोचनम्
प्रवीरदक्षिणेभागे मंजुनाभ्यंतरस्थिते ३८
संतानवृक्षमूले तु मणिमंदिरमंडितम्
तन्मध्ये मणिमाणिक्य दिव्यसिंहासनोज्ज्वले ३९
प्रद्युम्नं च रती देवं तत्रोपरिसुखस्थितम्
जगन्मोहनसौंदर्य्यसारश्रेणीरसात्मकम् ४०
असितांभोजपुंजाभमरविंददलेक्षणम्
दिव्यालंकारभूषाभिर्दिव्यगंधानुलेपनम् ४१
जगन्मुग्धीकृताशेष सौंदर्याश्चर्यविग्रहम्
पूर्वोद्याने महारण्ये सुरद्रुम समाश्रये ४२
तत्राधस्तु स्वर्णपीठे हेममंडपमंडिते
तस्य मध्ये स्थिरे राजद्दिव्यसिंहासनोज्ज्वले ४३
दिव्योषयासमं श्रीमदनिरुद्धं जगत्पतिम्
सांद्रानंदघनश्यामं सुस्निग्धं नीलकुंतलम् ४४
सुभ्रून्नतलताभंगीं सुकपोलं सुनासिकम्
सुग्रीवं सुंदरं वक्षो मनोहर मनोहरम् ४५
किरीटिनं कुंडलिनं कंठभूषाविभूषितम्
मंजुमंजीरमाधुर्यादतिसौंदर्य विग्रहम् ४६
प्रियभृत्यगणाराध्यं यत्र संगीतकप्रियम्
पूर्णब्रह्मसदानंदं शुद्धसत्वस्वरूपकम् ४७
तस्योर्द्ध्वे चांतरिक्षे च विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम्
अनादिमादिचिद्रूपं चिदानंदं परं विभुम् ४८
त्रिगुणातीतमव्यक्तं नित्यमक्षयमव्ययम्
समेघपुंजमाधुर्यसौंदर्यश्यामविग्रहम् ४९
नीलकुंचितसुस्निग्ध केशपाशातिसुंदरम्
अरविंददलस्निग्ध सुदीर्घचारुलोचनम् ५०
किरीटकुंडलोद्गंड शुद्धसत्वात्मभिर्वृतम्
आत्मारामैश्च चिद्रूपैस्तन्मूर्तिध्यानतत्परैः ५१
हृदयारूढ तद्ध्य्नौर्नासाग्रन्यस्तलोचनैः
क्रियतेऽहैतुकीभक्तिः कायहृद्वृत्तिभाषितैः ५२
तत्सव्ये यक्षगंधर्वसिद्धविद्याधरादिभिः
सुकांतैरप्सरःसंघैर्नृत्यसंगीततत्परैः ५३
तदंगभजनं कामं वांछद्भिः कृष्णलालसैः
तदग्रे वैष्णवैः सर्वैश्चांतरिक्षे सुखासने ५४
प्रह्लादनारदाद्यैश्च कुमारशुकवैष्णवैः
जनकाद्यैर्लसद्भावैर्हृद्बाह्य स्फूर्तितत्परैः ५५
पुलकाकुलसर्वांगैः स्फुरत्प्रेमसमाकुलैः
रहस्यामृतसंसिक्तैरर्द्धयुग्माक्षरो मनुः ५६
मंत्रचूडामणिः प्रोक्तः सर्वमंत्रैककारणम्
सर्वदेवस्य मंत्राणां कैशोरं मंत्रहेतुकम् ५७
सर्वकैशोरमंत्राणां हेतुश्चूडामणिर्मनुः
जपं कुर्वंति मनसा पूर्णप्रेमसुखाश्रयाः ५८
वांछंति तत्पदांभोजे निश्चलं प्रेमसाधनम्
तद्बाह्ये स्फटिकाद्युच्च प्रावारे सुमनोहरे ५९
कुंकुमैः सितरक्ताद्यैश्चतुर्दिक्षु समाकुलैः
शुक्लं चतुर्भुजं विष्णुं पश्चिमे द्वारपालकम् ६०
शंखचक्रगदापद्मकिरीटादि विभूषितम्
रक्तं चतुर्भुजं पद्मशंखचक्रगदायुधम् ६१
किरीटकुंडलोद्दीप्त ।
गौरं चतुर्भुजं विष्णुं शुखचक्रगदायुधम् ६२
किरीटकुंडलाद्यैश्च शोभितं वनमालिनम्
पूर्वद्वारे द्वारपालं गौरं विष्णुं प्रकीर्तितम् ६३
कृष्णवर्णं चतुर्बाहुं शंखचक्रादिभूषणम्
दक्षिणद्वारपालं तु श्रीविष्णुंकृष्णवर्णकम् ६४
श्रीकृष्णचरितं ह्येतद्यः पठेत्प्रयतः शुचिः
शृणुयाद्वापि यो भक्त्या गोविंदे लभते रतिम् ६५
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे कृष्णचरिते सप्ततितमोऽध्यायः ७०।


पद्म पुराण


यह पृष्ठ श्रीकृष्ण के वर्णन का वर्णन करता है जो पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 70 है, जो सबसे बड़े महापुराणों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) के बारे में बताया गया है। यह पद्म पुराण के पाताल-खंड  का सत्तरवां अध्याय है, 

अध्याय 70 - श्रीकृष्ण का एक विवरण

पार्वती ने कहा :

1. हे प्रभु, मैं उसकी और उसकी सभा के सदस्यों के बारे में सुनना चाहता हूं। हे दयालुता के खजाने, (कृपया) इसे बताएं।

प्रभु ने कहा :

2-7. (कोई देख सकता है) गोविंदा राधा के साथ स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके पास पहले वर्णित रूप की सुंदरता है। उनके आभूषण, वस्त्र और माला दिव्य हैं। वह, अपनी कुटिल मुद्रा में ( बांसुरी बजाते समय अपने शरीर को तीन बिंदुओं पर झुका हुआ माना जाता है) मधुर और बहुत चमकदार है और ग्वालों की आँखों की पुतली है। बाहर अमूर्त ध्यान ( योगपीठ ) के लिए एक सोने की चादर से ढके हुए आसन पर बैठे हैं, जो एक शेर की खाल (?) के समान है, मुख्य महिलाएं हैं जो कृष्ण को प्रिय हैं और हर अंग (उनके शरीर के) में उनके लिए एक मजबूत भक्ति रखते हैं। वे ललिता और अन्य हैं, और आदिम पदार्थ के अंश हैं । राधिका:आदिम बात है। उनके सामने देवी ललिता हैं; उत्तर-पश्चिम में श्रीहरिप्रिया है; पूर्व में विशाखा है ; और उसके बाद, दक्षिण-पूर्व में शैब्या है ; पद्मा दक्षिण में है; और फिर दक्षिण-पश्चिम में, योगपीठ पर, एक बकुला के पेड़ के सामने, चंद्रावती है , उसे प्रिय है। इस प्रकार वे क्रम में रहते हैं। ये आठ शुभ और प्रमुख प्राकृतिक रूप हैं, कृष्ण को प्रिय हैं।

8-13. मुख्य रूप राधा हैं जो चंद्रावती के समान हैं। चंद्रावली, चित्ररेखा, चंद्रा , मदनसुंदरी , प्रिया , श्री, मधुमती , चंद्ररेखा, हरिप्रिया -ये सोलह मूल प्राकृतिक रूप हैं जो कृष्ण को प्रिय हैं। वृंदावन मेंराधा (प्रमुख) देवी हैं, इसलिए चंद्रावती भी प्रिय (कृष्ण को)। सामने एक जैसे गुण, सौन्दर्य और मनमोहक नेत्रों वाली हजारों चरवाहे हैं। वे सुंदर हैं, आकर्षक कपड़े पहने हैं, युवा और उज्ज्वल हैं। वे शुद्ध सोने के द्रव्यमान से मिलते जुलते हैं, बहुत प्रसन्न होते हैं, और उनकी आंखें सुंदर होती हैं; उसका रूप उनके हृदय में समा गया है, वह उसके आलिंगन के लिए आतुर है; उन्होंने खुद को कृष्ण के अमृत में डुबो दिया है; उनके मन में उसके बारे में विचार कौंधते हैं; उन्होंने अपना हृदय श्रीकृष्ण के चरण कमलों को समर्पित कर दिया है, जिन्हें उनकी कमल जैसी आँखों से पूजा जाता है।

14-26. दायीं ओर श्रुतिकान्य हैं, हजारों और असंख्यों में एकत्रित, ऐसे रूप हैं जिन्होंने दुनिया को मोहित कर दिया है, उनके मन में कृष्ण की लालसा है; उन्होंने कई प्राकृतिक ध्वनियों से तीनों लोकों को लुभाया है; वहाँ वे, प्रेम से विजयी होकर, छिपे हुए (अर्थात महान) रहस्यों को गाते हैं; बाईं ओर दिव्य कन्याएं हैं, दिव्य पोशाकों के साथ और प्रेम से शानदार; वे कई कौशलों में कुशल हैं, और कई दिव्य भावनाओं से भरे हुए हैं। वे सुंदरता की उत्कृष्टता से संपन्न हैं और अपनी झलक के कारण बहुत आकर्षक हैं; वे गोविंदा से लज्जित न होते हुए उनके शरीर के स्पर्श के लिए उत्सुक हैं। उनकी भक्ति में उनका मन विलीन हो जाता है। वे एक मुस्कान के साथ और तिरछे दिखते हैं। फिर मंदिर के बाहर, एक समान पोशाक और उम्र की, समान शक्ति और वीरता के, समान गुणों और कर्मों के, अपने प्रियजनों से स्पष्ट रूप से भरे हुए, (महिलाएं हैं), जिन्हें समान आभूषण प्रिय हैं। वे समान स्वरों के गीत गाने और समान धुनों पर बजाने में लगे हुए हैं। पश्चिमी द्वार पर श्रीदामा है; इसी प्रकार उत्तरी (द्वार) पर हैवसुदामा ; उसी तरह, सुदामा पूर्वी द्वार पर और किष्किं दक्षिणी द्वार पर हैं। इसके बाहर स्वर्ण आसन पर, एक स्वर्ण मंदिर से घिरा हुआ, एक अन्य स्वर्ण वेदी पर, स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित (कोई देख सकता है) छोटे कृष्ण, असंख्य और असंख्य सुभद्रा जैसे चरवाहों से घिरे , सींग, लट, बांसुरी वाले, बेंत और (समान) उम्र, पोशाक, रूप और आवाज, और (भावनाओं के साथ) पर काबू पाने और उनके गुणों पर ध्यान, गायन (उनकी प्रशंसा), अद्भुत रूपों के चित्रों में खींचे गए, हमेशा खुशी के आंसू बहाते हुए, अपने पूरे के साथ भयावहता से भरे शरीर, सर्वश्रेष्ठ ध्यान करने वाले संतों की तरह स्थिर; असंख्य गौ-पालकों से घिरे हुए मुसब्बर-लकड़ी (पेस्ट) के साथ, (वह भी है); इसके बाहर, एक सुनहरी प्राचीर पर, करोड़ों सूर्यों से उज्ज्वल, और मीठी सुगंध से स्तब्ध, चारों दिशाओं में (विस्तारित) एक महान उद्यान है और पश्चिम में एक गौरवशाली पारिजात वृक्ष है।

27-31. इसके नीचे (है) एक दिव्य स्वर्ण आसन, जिसे सोने से सजाया गया है; उस पर (है) एक दिव्य सिंहासन, रत्नों और माणिकों से अलंकृत। उस पर (कोई देख सकता है), वासुदेव , दुनिया के स्वामी, जो सर्वोच्च आनंद हैं, जो तीन गुणों से परे हैंऔर बुद्धि की प्रकृति का, जो सभी कारणों का कारण है, जो नीलम और बादल की तरह काला है, जिसके काले बाल घुंघराले हैं, जिसकी आंखें कमल-पंखुड़ी की तरह चौड़ी हैं, जिसने कान के छल्ले लगाए हैं एक मगरमच्छ का आकार, जिसके चार हाथ हैं, जिसके हथियार डिस्क, तलवार, गदा, शंख और कमल हैं, जो आदि या अंत नहीं है, जो शाश्वत है, जो प्रमुख है, सर्वोच्च है, जो है प्रकाश का रूप, जो महान और प्राचीन निवास है, जो लकड़ी-फूलों की माला पहनता है, जिसने पीला वस्त्र धारण किया है, जो चमकदार है, जो दिव्य आभूषणों से सुशोभित है, जिसने स्वयं को दैवीय अशुद्धता के साथ लिप्त किया है, जो अपने चमकदार शरीर के कारण आकर्षक है।

32-37. तब (कोई भी) वासुदेव को प्रिय आठ देवियाँ: रुक्मिणी , सत्यभामा , नागनजिति, सुलक्षणा , मित्रविंदा , अनुविंदा , सुनंदा और जाम्बवती को प्रिय, और सुशीला को भी देख सकता है । वे उज्ज्वल हैं, अपने अनुचर से घिरे हुए हैं, और भक्ति पर आमादा हैं। उत्तर में (है) एक बहुत बड़ा पार्क, जिसमें पीले चन्दन का पेड़ है; इसके नीचे (है) सोने से बनी एक पंखुड़ी पर जड़े हुए मंडप से सजाया गया एक सुनहरा आसन; एक उज्ज्वल सिंहासन पर (कोई देख सकता है) संकरण यानी बलराम , रेवती के साथ; वह भगवान को बहुत प्रिय है, और उसके पास विभिन्न गुण और रूप नहीं हैं; वह एक शुद्ध क्रिस्टल की तरह है; उसकी आंखें लाल कमल के समान हैं; वह नीला पटटा पहिने, और चमकीला है, और दैवीय आभूषण, और हार और वस्त्र पहिने हुए है; वह हमेशा (पीने) शराब के कारण अपनी आँखों से लाल शराब पीने का आदी होता है।

38-42ए। दक्षिण में सबसे उत्तम क्षेत्र में, सुंदर नाभि के भीतरी भाग में शेष, संतान वृक्ष की जड़ में, एक रत्नमय मंदिर का अलंकरण है। इसमें रत्नों और माणिकों से अलंकृत एक उज्ज्वल दिव्य सिंहासन पर, एक (देवी) उस पर विराजमान भगवान प्रद्युम्न के पास जाती है। वह संसार को मोहित करने वाले सौन्दर्य के रसों की पंक्ति के आकर्षण से परिपूर्ण है। वह काले कमल के ढेर जैसा दिखता है; उसकी आंखें कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं; वह (के साथ) दैवीय आभूषण और अलंकरण और (के साथ) दैवीय चन्दन का धब्बा है; उनके अद्भुत शरीर में पूरी सुंदरता है जिसने दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया है।

42बी-52ए. विशाल वन में पूर्वी उद्यान में, दिव्य वृक्षों के आश्रय में, नीचे स्वर्ण मंडप से सुशोभित एक स्वर्ण आसन है। उस पर उषा के साथ एक उज्ज्वल, दिव्य, उज्ज्वल सिंहासन (कोई देख सकता है) गौरवशाली अनिरुद्ध ; वह जगत का स्वामी है; वह घने बादल के समान अन्धेरा है; वह बहुत चमकदार है; उसके बाल काले हैं; उसकी भौहें प्यारी हैं, और एक मुड़ी हुई लता के समान हैं; उसके गाल अच्छे हैं (यानी आकर्षक); उसकी नाक ठीक है; उसकी गर्दन अच्छी है; उसका सीना प्यारा है और बेहद खूबसूरत है; उसने एक मुकुट (और) कान के छल्ले लगाए हैं; वह अपने गले में एक आभूषण से सजाया गया है; मोहक पायल की मधुरता के कारण उनका शरीर अत्यंत प्यारा है; उनके प्रिय सेवकों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया जा रहा है; संगीत उसे प्रिय है; वह पूर्ण ब्राह्मण है, हमेशा आनंद से भरा हुआ; उसका स्वभाव शुद्ध अच्छाई है; उसके ऊपर, वातावरण में (कोई देख सकता है) विष्णु, सभी देवताओं के देवता; वह एक शुरुआत के बिना है; वह बुद्धि का स्रोत और प्रकृति है; वह बुद्धि और आनंद है, सर्वोच्च है, और स्वामी है; वह तीन घटकों से परे है; अव्यक्त है; शाश्वत है; अटूट और अपरिवर्तनीय; उसके काले शरीर में बादलों के द्रव्यमान की मिठास की सुंदरता है; वह अपने काले घुंघराले और चमकदार बालों के कारण बहुत सुंदर है; उसकी आकर्षक आंखें सफेद कमल की पंखुड़ियों की तरह बहुत लंबी (यानी चौड़ी) हैं; वह शुद्ध प्राणियों से घिरा हुआ है जिनके गालों के चारों ओर मुकुट और कान के छल्ले (लटकते हुए) हैं; इसी तरह प्यारे व्यक्तियों द्वारा, बुद्धि की प्रकृति और उनके रूप पर ध्यान करने के इरादे से, उनके दिलों में उनके बारे में विचार रखते हुए, और उनकी नाक के सिरों पर उनकी आंखों के साथ।

52बी-65. तन, मन और वाणी के द्वारा उद्देश्यपूर्ण भक्ति का अभ्यास किया जाता है। उनके बाईं ओर (वह चारों ओर से घिरा हुआ है) यक्ष , गंधर्व , सिद्ध , विद्याधर आदि, इसलिए भी बहुत ही आकर्षक आकाशीय युवतियों के समूह, नृत्य और गायन के इरादे से; और सामने, वातावरण में, एक आरामदायक आसन पर, विष्णु के सभी भक्तों द्वारा, कृष्ण की लालसा, और उनके शरीर की बहुत सेवा करने की इच्छा से; (वह घिरा हुआ है) प्रह्लाद , नारद और अन्य; तो कुमार , शुक और विष्णु के भक्तों द्वारा भी; इसी तरह जनक और अन्य लोगों द्वारा, एक उज्ज्वल (यानी मजबूत) भावना वाले, और दिल से प्रेरणा लेने का इरादा (हृदयभयस्फृतततपराई:?), अपने पूरे शरीर के साथ भयावहता से उबरे, प्यार से भरे और रहस्य के अमृत के साथ छिड़के। जुड़वां अक्षरों (अर्थात् कृष्ण) के भजन को सभी भजनों का शिखा-गहना और सभी भजनों का मूल कहा जाता है। भगवान के सभी भजनों में, बच्चे का भजन (अर्थात कृष्ण, बच्चे को संबोधित भजन), कारण है। भजन सभी भजनों (बच्चे को संबोधित) का शिखा-गहना है। वे पूर्ण प्रेम और आनंद का सहारा लेते हुए मानसिक रूप से नाम का उच्चारण करते हैं। वे उसके चरण कमलों के लिए प्रेम के एक स्थिर साधन की कामना करते हैं। इसके बाहर पश्चिम में एक बहुत ही सुंदर क्रिस्टल प्लेटफॉर्म (कोई देख सकता है) पर द्वारपाल-विष्णु, जो गोरा है, और उसके चार हाथ हैं; (वह छिड़का हुआ है) केसर, सफेद और लाल फूलों की भीड़ (सभी) चारों दिशाओं में; वह शंख, चक्र, गदा, कमल, मुकुट आदि से सुशोभित है; वह लाल है, उसके चार हाथ हैं, और उनके पास कमल, शंख और चक्र और गदा जैसे हथियार हैं। उत्तर में, (कोई देख सकता है) एक द्वारपाल, एक मुकुट और कान के छल्ले के साथ उज्ज्वल; वह, विष्णु, निष्पक्ष है; चार हाथ हैं, एक शंख और एक डिस्क और एक गदा जैसे हथियार हैं; वह मुकुट और झुमके आदि से सुशोभित है और उसने लकड़ी के फूल लगाए हैं। पूर्वी द्वार पर द्वारपाल है; निष्पक्ष है और विष्णु कहा जाता है। दक्षिणी द्वारपाल का रंग सांवला है, उसकी चार भुजाएं हैं, शंख, चक्र आदि आभूषण हैं। वह सांवले रंग के श्रीविष्णु हैं। जो संयमी और पवित्र होता है, वह . का लेखा-जोखा पढ़ता या सुनता है और लकड़ी के फूल लगाए हैं। पूर्वी द्वार पर द्वारपाल है; निष्पक्ष है और विष्णु कहा जाता है। दक्षिणी द्वारपाल का रंग सांवला है, उसकी चार भुजाएं हैं, शंख, चक्र आदि आभूषण हैं। वह सांवले रंग के श्रीविष्णु हैं। जो संयमी और पवित्र होता है, वह . का लेखा-जोखा पढ़ता या सुनता है और लकड़ी के फूल लगाए हैं। पूर्वी द्वार पर द्वारपाल है; निष्पक्ष है और विष्णु कहा जाता है। दक्षिणी द्वारपाल का रंग सांवला है, उसकी चार भुजाएं हैं, शंख, चक्र आदि आभूषण हैं। वह सांवले रंग के श्रीविष्णु हैं। जो संयमी और पवित्र होता है, वह . का लेखा-जोखा पढ़ता या सुनता हैश्रीकृष्ण भक्ति के साथ, गोविंदा के लिए प्यार प्राप्त करते हैं।


पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः ०७१

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श्रीदेव्युवाच-
भगवन्सर्वभूतेश सर्वात्मन्सर्वसंभव
देवेश्वर महादेव सर्वज्ञ करुणाकर १
त्वयानुकंपितैवाहं भूयोऽप्याहानुकंपय मंत्रास्त्वया मे कथिताः प्रभो २
तेन देवेन गोपीभिर्महामोहनरूपिणा
केन केन विशेषण चिक्रीडे तद्वदस्व मे ३
महादेव उवाच
एकदा वादयन्वीणां नारदो मुनिपुंगवः
कृष्णावतारमाज्ञाय प्रययौ नंदगोकुलम् ४
गत्वा तत्र महायोगमयेशं विभुमच्युतम्
बालनाट्यधरं देवदर्शनं नंदवेश्मनि ५
सुकोमलपटास्तीर्णहेमपर्यंकिकोपरि
शयानं गोपकन्याभिः प्रेक्षमाणं सदा मुदम् ६
अतीव सुकुमारांगं मुग्धं मुग्धविलोकनम्
विस्रस्तनीलकुटिलकुंतलावनिमंडलम् ७
किंचित्स्मितांकुरव्यंजदेकद्विरदकुड्मलम्
स्वप्रभाभिर्भासयंतं समंताद्भवनोदरम् ८
दिग्वाससं समालोक्य सोऽतिहर्षमवाप ह
संभाष्य गोपतिं नंदमाह सर्वप्रभुप्रियः ९
नारायणपराणां तु जीवनं ह्यतिदुर्लभम्
अस्य प्रभावमतुलं न जानंतीह केचन १०
भव ब्रह्मादयोऽप्यस्मिन्रतिं वांच्छन्ति शाश्वतीम्
चरितं चास्य बालस्य सर्वेषामेव हर्षणम् ११
मुदा गायंति शृण्वंति चाभिनंदंति तादृशाः
अस्मिंस्तव सुतेऽचिंत्यप्रभावे स्निग्धमानसाः १२
नराः संति न तेषां वै भवबाधा भविष्यति
मुंचेह परलोकेच्छाः सर्वा बल्लवसत्तम १३
एकांतेनैकभावेन बालेऽस्मिन्प्रीतिमाचर
इत्युक्त्वा नंदभवनान्निष्क्रांतो मुनिपुंगवः १४
तेनार्चितो विष्णुबुद्ध्या प्रणम्य च विसर्जितः
अथासौ चिंतयामास महाभागवतो मुनिः १५
अस्य कांता भगवती लक्ष्मीर्नारायणे हरौ
विधाय गोपिकारूपं क्रीडार्थं शार्ङ्गधन्वनः १६
अवश्यमवतीर्णा सा भविष्यति न संशयः
तामहं विचिनोम्यद्य गेहेगेहे व्रजौकसाम् १७
विमृश्यैवं मुनिवरो गेहानि व्रजवासिनाम्
प्रविवेशातिथिर्भूत्वा विष्णुबुद्ध्या सुपूजितः १८
सर्वेषां बल्लवादीनां रतिं नंदसुते पराम्
दृष्ट्वा मुनिवरः सर्वान्मनसा प्रणनाम ह १९
गोपालानां गृहे बालां ददर्श श्वेतरूपिणीम्
स दृष्ट्वा तर्कयामास रमा ह्येषा न संशयः २०
प्रविवेश ततो धीमान्नंदसख्युर्महात्मनः
कस्यचिद्गोपवर्य्यस्य भानुनाम्नो गृहं महत् २१
अर्चितो विधिवत्तेन सोऽप्यपृच्छन्महामनाः
साधो त्वमसि विख्यातो धर्मनिष्ठतया भुवि २२
तवाहं धनधान्यादि समृद्धिं संविभावये
कच्चित्ते योग्यः पुत्रोऽस्ति कन्या वा शुभलक्षणा २३
यतस्ते कीर्तिरखिलं लोकं व्याप्य भविष्यति
इत्युक्तो मुनिवर्य्येण भानुरानीय पुत्रकम् २४
महातेजस्विनं दृप्तं नारदायाभ्यवादयत्
दृष्ट्वा मुनिवरस्तं तु रूपेणाप्रतिमं भुवि २५
पद्मपत्रविशालाक्षं सुग्रीवं सुंदरभ्रुवम्
चारुदंतं चारुकर्णं सर्वावयवसुंदरम् २६
तं समाश्लिष्य बाहुभ्यां स्नेहाश्रूणि विमुच्य च
ततः स गद्गद प्राह प्रणयेन महामुनिः २७
नारद उवाच-
अयं शिशुस्ते भविता सुसखा रामकृष्णयोः
विहरिष्यति ताभ्यां च रात्रिंदिवमतंद्रितः २८
तत आभाष्य तं गोपप्रवरं मुनिपुंगवः
यदा गंतुं मनश्चक्रे तत्रैवं भानुरब्रवीत् २९
एकास्ति पुत्रिका देव देवपत्न्युपमा मम
कनीयसी शिशोरस्य जडांधबधिराकृतिः ३०
उत्साहाद्वृद्धये याचे त्वां वरं भगवत्तम
प्रसन्नदृष्टिमात्रेण सुस्थिरां कुरु बालिकाम् ३१
श्रुत्वैवं नारदो वाक्यं कौतुकाकृष्टमानसः
अथ प्रविश्य भवनं लुठंतीं भूतले सुताम् ३२
उत्थाप्यांके निधायातिस्नेहविह्वलमानसः
भानुरप्याययौ भक्तिनम्रो मुनिवरांतिकम् ३३
अथ भागवतश्रेष्ठः कृष्णस्यातिप्रियो मुनिः
दृष्ट्वा तस्याः परं रूपमदृष्टाश्रुतमद्भुतम् ३४
अभूत्पूर्वसमं मुग्धो हरिप्रेमा महामुनिः
विगाह्य परमानंदसिंधुमेकरसायनम् ३५
मुहूर्त्तद्वितयं तत्र मुनिरासीच्छिलोपमः
मुनींद्रः प्रतिबुद्धस्तु शनैरुन्मील्य लोचने ३६
महाविस्मयमापन्नस्तूष्णीमेव स्थितोऽभवत्
अंतर्हृदि महाबुद्धिरेवमेवं व्यचिंतयत् ३७
भ्रांतं सर्वेषु लोकेषु मया स्वच्छंदचारिणा
अस्या रूपेण सदृशी दृष्ट्वा नैव च कुत्रचित् ३८
ब्रह्मलोके रुद्रलोक इंद्रलोके च मे गतिः
न कोपि शोभाकोट्यंशः कुत्राप्यस्या विलोकितः ३९
महामाया भगवती दृष्टा शैलेंद्रनंदिनी
यस्या रूपेण सकलं मुह्यते सचराचरम् ४०
साप्यस्याः सुकुमारांगी लक्ष्मीं नाप्नोति कर्हिचित्
लक्ष्मीः सरस्वती कांति विद्याद्याश्च वरस्त्रियः ४१
छायामपि स्पृशंत्यस्याः कदाचिन्नैव दृश्यते
विष्णोर्यन्मोहिनीरूपं हरो येन विमोहितः ४२
मया दृष्टं च तदपि कुतोऽस्यासदृशं भवेत्
ततोऽस्यास्तत्त्वमाज्ञातुं न मे शक्तिः कथंचन ४३
अन्ये चापि न जानंति प्रायेणैनां हरेः प्रियाम्
अस्याः संदर्शनादेव गोविंदचरणांबुजे ४४
या प्रेमर्द्धिरभूत्सा मे भूतपूर्वा न कर्हिचित्
एकांते नौमि भवतीं दर्शयित्वातिवैभवम् ४५
कृष्णस्य संभवत्यस्या रूपं परमतुष्टये
विमृश्यैवं मुनिर्गोपप्रवरं प्रेष्य कुत्रचित् ४६
निभृते परितुष्टाव बालिकां दिव्यरूपिणीम्
अपि देवि महायोगमायेश्वरि महाप्रभे ४७
महामोहनदिव्यांगि महामाधुर्यवर्षिणि
महाद्भुतरसानंदशिथिलीकृतमानसे ४८
महाभाग्येन केनापि गतासि मम दृक्पथम्
नित्यमंतर्मुखादृष्टिस्तव देवि विभाव्यते ४९
अंतरेव महानंदपरितृप्तैव लक्ष्यसे
प्रसन्नं मधुरं सौम्यमिदं सुमुखमंडनम् ५०
व्यनक्तिपरमाश्चर्यं कमप्यंतः सुखोदयम्
रजः संबंधिकलिका शक्तिस्तत्वातिशोभने ५१
सृष्टिस्थितिसमाहाररूपिणी त्वमधिष्ठिता
तत्त्वं विशुद्धसत्वाशु शक्तिर्विद्यात्मिका परा ५२
परमानंदसंदोहं दधती वैष्णवं परम्
का त्वयाश्चर्यविभवे ब्रह्मरुद्रादिदुर्गमे ५३
योगींद्राणां ध्यानपथं न त्वं स्पृशसि कर्हिचित्
इच्छाशक्तिर्ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिस्तवेशितुः ५४
तवांशमात्रमित्येवं मनीषा मे प्रवर्त्तते
मायाविभूतयोऽचिंत्यास्तन्मायार्भकमायिनः ५५
परेशस्य महाविष्णोस्ताः सर्वास्ते कलाकलाः
आनंदरूपिणी शक्तिस्त्वमीश्वरि न संशयः ५६
त्वया च क्रीडते कृष्णो नूनं वृंदावने वने
कौमारेणैव रूपेण त्वं विश्वस्य च मोहिनी ५७
तारुण्यवयसा स्पृष्टं कीदृक्ते रूपमद्भुतम्
कीदृशं तव लावण्यं लीलाहासेक्षणान्वितम् ५८
हरि मानुषलोभेन वपुराश्चर्यमंडितम्
द्रष्टुं तदहमिच्छामि रूपं ते हरिवल्लभे ५९
येन नंदसुतः कृष्णो मोहं समुपयास्यति
इदानीं मम कारुण्यान्निजं रूपं महेश्वरि ६०
प्रणताय प्रपन्नाय प्रकाशयितुमर्हसि
इत्युक्ता मुनिवर्य्येण तदनुव्रतचेतसा ६१
महामाहेश्वरीं नत्वा महानंदमयीं पराम्
महाप्रेमतरोत्कंठा व्याकुलांगीं शुभेक्षणाम् ६२
ईक्षमाणेन गोविंदमेवं वर्णयतास्थितम्
जयकृष्ण मनोहारिञ्जय वृंदावनप्रिय ६३
जयभ्रूभंगललित जयवेणुरवाकुल
जय बर्हकृतोत्तंस जयगोपीविमोहन ६४
जय कुंकुमलिप्तांग जय रत्नविभूषण
कदाहं त्वत्प्रसादेन अनया दिव्यरूपया ६५
सहितं नवतारुण्य मनोहारि वपुःश्रिया
विलोकयिष्ये कैशोरे मोहनं त्वां जगत्पते ६६
एवं कीर्त्तयतस्तस्य तत्क्षणादेव सा पुनः
बभूव दधती दिव्यं रूपमत्यंतमोहनम् ६७
चतुर्दशाब्दवयसा संमितं ललितं परम्
समानवयसश्चान्यास्तदैव व्रजबालिकाः ६८
आगत्य वेष्टयामासुर्दिव्यभूषांबरस्रजः
मुनींद्रः स तु निश्चेष्टो बभूवाश्चर्यमोहितः ६९
बालायास्तास्तदा सख्यश्चरणांबुकणैर्मुनिम्
निषिच्य बोधयामासुरूचुश्च कृपयान्विताः ७०
मुनिवर्य महाभाग महायोगेश्वरेश्वर
त्वयैव परया भक्त्या भगवान्हरिरीश्वरः ७१
नूनमाराधितो देवो भक्तानां कामपूरकः
यदियंब्रह्मरुद्राद्यैर्देवैः सिद्धमुनीश्वरैः ७२
महाभागवतैश्चान्यैर्दुर्दर्शा दुर्गमापि च
अत्यद्भुतवयोरूपमोहिनी हरिवल्लभा ७३
केनाप्यचिंत्य भाग्येन तवदृष्टिपथं गता
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विप्रर्षे धैर्यमालंब्य सत्वरम् ७४
एनां प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कुरु पुनःपुनः
किं न पश्यसि चार्वंगीमत्यंतव्याकुलामिव ७५
अस्मिन्नेव क्षणे नूनमंतर्धानं गमिष्यति
नानया सह संलापः कथंचित्ते भविष्यति ७६
दर्शनं च पुनर्नास्याः प्राप्स्यसि ब्रह्मवित्तम
किंतु वृंदावने कापि भात्यशोकलता शुभा ७७
सर्वकालेऽपि पुष्पाढ्या सर्वदिग्व्यापि सौरभा
गोवर्द्धनाददूरेण कुसुमाख्यसरस्तटे ७८
तन्मूले ह्यर्द्धरात्रे च द्रक्ष्यस्यस्मानशेषतः
श्रुत्वैवं वचनं तासां स्नेहविह्वलचेतसाम् ७९
यावत्प्रदक्षिणीकृत्य प्रणमेद्दंडवन्मुनिः
मुहूर्त्तद्वितयं बालां नानानिर्माणशोभनाम् ८०
आहूय भानुं प्रोवाच नारदः सर्वशोभनाम्
एवं प्रभावा बालेयं न साध्या दैवतैरपि ८१
किंतु यद्गृहमेतस्याः पदचिह्नविभूषितम्
तत्र नारायणो देवः स्वयं वसति माधवः ८२
लक्ष्मीश्च वसते नित्यं सर्वाभिः सर्वसिद्धिभिः
अद्य एनां वरारोहां सर्वाभरणभूषणाम् ८३
देवीमिव परां गेहे रक्ष यत्नेन सत्तम
इत्युक्त्वा मनसैवैनां महाभागवतोत्तमः ८४
तद्रूपमेव संस्मृत्य प्रविष्टो गहनं वनम्
अशोकलतिकामूलमासाद्य मुनिसत्तमः ८५
प्रतीक्षमाणो देवीं तां तत्रैवागमनं निशि
स्थितोऽत्र प्रेमविकलश्चिंतयन्कृष्णवल्लभाम् ८६
अथ मध्यनिशाभागे युवत्यः परमाद्भुताः
पूर्वं दृष्ट्वास्तथान्याश्च विचित्राभरणस्रजः ८७
दृष्ट्वा मनसि संभ्रांतो दंडवत्पतितो भुवि
परिवार्य मुनिं सर्वास्ताः प्रविविशुः शुभाः ८८
प्रष्टुकामोऽपि स मुनिः किंचित्स्वाभिमतं प्रियम्
नाशकत्प्रेमलावण्यप्रियभाषाप्रधर्षितः ८९
अथागता मुनिश्रेष्ठं कृतांजलिमवस्थितम्
भक्तिभारानतग्रीवं सविस्मयं ससंभ्रमम् ९०
सुविनीततमं प्राह तत्रैव करुणान्विता
अशोकमालिनी नाम्ना अशोकवनदेवता ९१
अशोकमालिन्युवाच
अशोककलिकायां तु वसाम्यस्यां महामुने
रक्तांबरधरा नित्यं रक्तमालानुलेपना ९२
रक्तसिंदूरकलिका रक्तोत्पलवतंसिनी
रक्तमाणिक्यकेयूर मुकुटादिविभूषिता ९३
एकदा प्रियया सार्द्धं विहरंत्यो मधूत्सवे
तत्रैव मिलिता गोपबालिकाश्चित्रवाससः ९४
अहं चाशोकमालाभिर्गोपवेषधरं हरिम्
रमारूपाश्च ताः सर्वा भक्त्या सम्यगपूजयम् ९५
ततः प्रभृति चैतासां मध्ये तिष्ठामि सर्वदा
भूषाभिर्विविधाभिश्च तोषयित्वा रमापतिम् ९६
परात्परमहं सर्वं विजानामीह सर्वतः
गोगोपगोपिकादीनां रहस्यं चापि वेद्म्यहम् ९७
तव जिज्ञासितं सर्वं हृदि प्रत्यभिभाषितम्
तां देवीमद्भुताकारामद्भुतानंददायिनीम् ९८
हरेः प्रियां हिरण्याभां हीरकोज्ज्वलमुद्रिकाम्
कथं पश्यामि लोलाक्षीं कथं वा तत्पदांबुजम् ९९
आराध्यतेऽतिभक्त्येति त्वया ब्रह्मन्विमर्शितम्
तत्र ते कथयिष्यामि वृत्तांतं सुमहात्मनाम् १००
मानसे सरसि स्थित्वा तपस्तीव्रमुपेयुषाम्
जपतां सिद्धमंत्रांश्च ध्यायतां हरिमीश्वरम् १०१
मुनीनां कांक्षतां नित्यं तस्या एव पदांबुजम्
एकसप्ततिसाहस्रं संख्यातानां महौजसाम् १०२
तत्तेऽहं कथयाम्यद्य तद्रहस्यं परं वने १०३
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे श्रीराधाकृष्ण-
माहात्म्ये एकसप्ततितमोऽध्यायः ७१


पद्म पुराण


यह पृष्ठ राधाकृष्ण की महानता का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 71 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) के बारे में बताया गया है। यह पद्म पुराण के पाताल-खंड  का सत्तरवाँ अध्याय है, 

अध्याय 71 - राधाकृष्ण की महानता


देवी ( पार्वती ) ने कहा :

1-3 हे पवित्र, हे सब प्राणियों के स्वामी, हे सबकी आत्मा, हे सब की उत्पत्ति, हे देवताओं के स्वामी, हे महान देवता, हे सर्वज्ञ, हे तुम जो दया दिखाते हो, क्योंकि मैं आप पर दया आई, मैं फिर से कोमलता से कहता हूं। हे प्रभु, आपने मुझे तीनों लोकों को लुभाने वाले मंत्र बताए। (अब) मुझे बताओ, किन विशेष चीजों के माध्यम से भगवान ( कृष्ण ) ने बहुत ही आकर्षक रूप धारण किया, ग्वालों के साथ खेला।

महादेव ने कहा :

4-9ए। ( विष्णु के रूप में) कृष्ण के वंश के बारे में जानकर , एक बार नारद , सर्वश्रेष्ठ ऋषि, अपनी धुन बजाते हुए, नंद के गाँव गए(शाब्दिक रूप से, नंदा की गाय-कलम)। वहां जाकर नंद के घर में सर्वोच्च शासक, महान एकाग्रता से भरे हुए भगवान को देखकर, जो एक बच्चे के रूप में अभिनय करते थे, जो एक देवता के रूप में दिखते थे, जो सोने के सोफे पर लेटे हुए थे, जिस पर एक नरम (बिस्तर) चादर थी। फैला हुआ, जो लगातार, खुशी से ग्वालों द्वारा देखा जाता था, जिसका शरीर अत्यंत नाजुक था, जिसकी दृष्टि निर्दोष थी, जो बिखरे हुए, काले और घुंघराले बालों के ढेर से सुशोभित थी, जिसने अपने अंकुर से सिर्फ एक कली जैसा दांत प्रकट किया था- जैसे (अर्थात् नाजुक) मुस्कान, जिसने अपने आभा (अर्थात् आभा के द्रव्यमान) से घर के चारों ओर आलोकित किया, जो नग्न था, वह अत्यंत प्रसन्न था।

9बी-14. उन्होंने (यानी नारद) जो सभी भगवानों के प्रिय थे, उन्होंने गायों के स्वामी नंद को संबोधित करते हुए उनसे कहा: "नारायण के भक्तों का जन्म प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। यहाँ कोई (व्यक्ति) उसकी अतुलनीय शक्ति को नहीं जानता। यहां तक ​​कि शिव , ब्रह्मा और अन्य भी उसमें शाश्वत आनंद की कामना करते हैं। इस लड़के के काम सभी को प्रसन्न करते हैं; और उनके जैसे लोग आनन्द से गाते और उसके विषय में सुनते हैं, और उसे नमस्कार करते हैं। आपके इस पुत्र के प्रति (अर्थात पुरुष प्रेम करते हैं) पुरुषों का स्नेही मन होता है, जिसके पराक्रम की कल्पना नहीं की जा सकती। वे सांसारिक अस्तित्व से परेशान नहीं होंगे। हे श्रेष्ठ ग्वालों, इस लोक और परलोक में अपनी समस्त कामनाओं का परित्याग कर दो। अनन्य और विलक्षण दिमाग से, इस बच्चे से प्यार करो।" ऐसा बोलते हुए श्रेष्ठ मुनि नंदा के घर से निकल गए।

15-24क. उन्होंने (अर्थात् नन्द) ने उन्हें प्रणाम करके उन्हें विष्णु के रूप में देखते हुए सम्मानित किया और उन्हें विदा (जाने के लिए) दिया। तब ऋषि, विष्णु के महान भक्त, ने सोचा: 'उनकी प्रिय, गौरवशाली लक्ष्मी , निस्संदेह एक चरवाहे का रूप धारण कर लिया होगा, (यहाँ) नारायण के साथ खेलने के लिए उतरे, विष्णु ने शृंगार धनुष धारण किया। आज मैं व्रज के निवासियों के हर घर में उसे ढूंढूंगा।' ऐसा सोचकर, सर्वश्रेष्ठ ऋषि, अतिथि बनकर (अर्थात) व्रजवासियों के घरों में प्रवेश कर गए। उन्होंने उन्हें विष्णु के रूप में देखते हुए उनकी पूजा की। नन्द के पुत्र के प्रति समस्त ग्वालों आदि की अत्यधिक आसक्ति देखकर श्रेष्ठ मुनि ने उन सभी को मानसिक रूप से प्रणाम किया। (एक) ग्वालों के घर में उसने एक गोरे रंग की लड़की देखी। उसे देखकर, उसने अनुमान लगाया: 'यह अवश्य ही लक्ष्मी होगी; कोई संदेह नही।' तब बुद्धिमान ने महान नंद के मित्र भानु नाम के कुछ उत्कृष्ट चरवाहे के बड़े घर में प्रवेश किया। उनका विधिवत सम्मान किया गया। नेक दिमाग वाले ने भी उससे पूछा: "हे अच्छे, आप धर्मपरायणता के लिए पृथ्वी पर जाने जाते हैं। मैं धन, अनाज आदि में आपकी समृद्धि देखता हूं। क्या आपके पास एक योग्य पुत्र या पुत्री है जिसके शुभ अंक हैं, जिसके कारण आप पूरे विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे?

24बी-27. इस प्रकार श्रेष्ठ ऋषि द्वारा संबोधित, भानु ने अपने बहुत तेज और शक्तिशाली पुत्र को लाया और उसे नारद को प्रणाम किया। महान, उत्कृष्ट ऋषि, उन्हें देखकर, जो पृथ्वी पर अतुलनीय रूप में थे, जिनकी आंखें कमल के पत्तों की तरह लंबी (यानी चौड़ी) थीं, जिनकी गर्दन अच्छी थी, जिनकी भौहें सुंदर थीं, जिनके दांत ठीक थे, जिनके कान थे सुंदर, उसे अपनी बाहों से गले लगा लिया, प्यार के आंसू बहाए, और प्यार से और लड़खड़ाती आवाज में कहा:

नारद ने कहा :

28-31. यह तुम्हारा लड़का बलराम और कृष्ण का अच्छा मित्र होगा । सतर्क होकर, वह उनके साथ दिन-रात खेलेगा।

फिर, जब सर्वश्रेष्ठ ऋषि ने, उत्कृष्ट चरवाहे से बात करने के बाद, जाने का फैसला किया, तो भानु ने उनसे इस तरह कहा: "हे भगवान, मेरी (भी) एक बेटी है, जो एक देवता की पत्नी के समान है। वह इस लड़के से छोटी है। उसका रूप (अर्थात वह) नीरस और अंधी और बहरा है। उसकी समृद्धि की इच्छा से प्रेरित होकर, मैं आपसे एक वरदान चाहता हूं, हे परम प्रतापी। लड़की पर केवल एक मनभावन नज़र डालने से वह काफी शांत हो जाती है। ”

32-37. इन वचनों को सुनकर, नारद ने अपने मन से जिज्ञासा से आकर्षित होकर घर में प्रवेश किया, और जमीन पर लुढ़कती हुई लड़की को उठाकर और अपने मन से बड़े प्यार से उसे अपनी गोद में बिठा लिया। भक्ति से पूज्य भानु भी श्रेष्ठ मुनि के समीप आ गए। तब विष्णु का सबसे अच्छा भक्त, महान ऋषि, कृष्ण को बहुत प्रिय, विष्णु को प्यार करने वाले, उनके उत्कृष्ट अद्भुत रूप को देखकर, (पहले) के अनदेखे और अनसुने, पहले की तरह मोहित हो गए। परम आनंद के सागर में डुबकी लगाकर, एक अद्वितीय अमृत, ऋषि, एक पत्थर के समान (अर्थात् गतिहीन) दो मूरतों के लिए (अर्थात उस स्थिति में) रहे। धीरे-धीरे आंखें खोलकर श्रेष्ठ मुनि जाग गए। वह बहुत चकित हुआ, और केवल चुप रहा। बहुत बुद्धिमान व्यक्ति ने अपने दिल में ऐसा ही सोचा:

38-46ए। 'मैं हर जगह स्वतंत्र रूप से घूम रहा हूं, पूरी दुनिया में घूम रहा हूं। लेकिन मैंने ऐसी (सुंदर महिला) कहीं नहीं देखी। मैं (कर सकता हूँ) ब्रह्मा की दुनिया में, रुद्र की दुनिया में , और इंद्र की दुनिया में । लेकिन मैंने उनके सौन्दर्य के एक करोड़वें हिस्से को भी कहीं नहीं देखा। मैंने महान सांसारिक माया, पर्वतों के स्वामी की प्रतापी पुत्री (अर्थात् पार्वती ) को देखा है, जिसका रूप सभी गतिशील और अचल (वस्तुओं) को मोहित करता है। यहाँ तक कि वह, अत्यंत नाजुक शरीर की, उसमें (इस लड़की की तरह) सुंदरता बिल्कुल नहीं है। ऐसा बिल्कुल नहीं देखा जाता है कि उत्कृष्ट देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती , कांतिविद्या, बस उसकी (सौंदर्य) की छाया को भी स्पर्श (अर्थात) करें। मैंने मोहिनी को देखा है, विष्णु का (अर्थात् ग्रहण किया हुआ) रूप, जिससे शिव मोहित हो गए थे। यह उसके (रूप) के समान भी कैसे हो सकता है? इसलिए उसके वास्तविक स्वरूप को जानने की मुझमें शक्ति ही नहीं है। ज्यादातर लोग हरि की इस प्यारी पत्नी को भी नहीं जानते हैं । प्रेम में वह वृद्धि, जो अब मेरे पास गोविंदा के चरण कमलों के लिए है, उसे देखते ही, वह पहले कभी नहीं थी। मैं बड़ी महिमा दिखाते हुए एकांत स्थान में आदरणीय की स्तुति करूंगा। उसका रूप कृष्ण को बहुत प्रसन्न करेगा ।'

46बी-56ए। ऐसा सोचकर ऋषि ने उत्कृष्ट ग्वाले को कहीं भेजकर एकांत स्थान में दिव्य रूप की कन्या की प्रशंसा की: "हे देवी, हे महान माया शक्ति को नियंत्रित करने वाली, हे महान तेज, हे आप एक बहुत ही आकर्षक और दिव्य शरीर, हे महान मधुरता की बौछार करने वाले, हे अद्भुत प्रेम और आनंद के कारण मन को ढीला करने वाले, आप मेरे अवर्णनीय महान भाग्य के कारण मेरी दृष्टि के दायरे में आ गए हैं। हे देवी, तुम्हारी दृष्टि सदा भीतर ही रहती है (अर्थात तुम सदा भीतर ही देखते हो); और आप केवल अपने भीतर ही बड़े आनंद से तृप्त प्रतीत होते हैं। यह आपका अच्छा (अर्थात् सुंदर), मनभावन, मधुर, मनभावन, आकर्षक चेहरा अपने भीतर महान आश्चर्य और आनंद का एक अवर्णनीय उदय प्रकट करता है। हे बहुत सुंदर, आपके पास पराग बनाने के लिए एक कली की शक्ति है। आप सृजन की प्रकृति के हैं, रखरखाव और विनाश। आप एक शुद्ध ऊर्जा के हैं, एक त्वरित शक्ति के और ज्ञान की प्रकृति के और सर्वोच्च हैं। आपके पास विष्णु के महान आनंद का उच्चतम ढेर है। हे अद्भुत वैभव वाले, हे ब्रह्मा, रुद्र आदि द्वारा प्राप्त करना कठिन है, आप कौन हैं? आप सबसे अच्छे ध्यान करने वाले संतों के ध्यान के मार्ग को कभी नहीं छूते हैं। आप (संसार के) नियंत्रक की इच्छा-शक्ति, ज्ञान की शक्ति और क्रिया की शक्ति हैं। यह आप का एक हिस्सा है जिसके लिए मेरी इच्छा आगे बढ़ती है। सर्वोच्च भगवान विष्णु में से, जादूगर के, भ्रम के बच्चे, अकल्पनीय अलौकिक शक्तियां हैं। वे तुम्हारे अंशों के अंश मात्र हैं। हे अद्भुत वैभव वाले, हे ब्रह्मा, रुद्र आदि द्वारा प्राप्त करना कठिन है, आप कौन हैं? आप सबसे अच्छे ध्यान करने वाले संतों के ध्यान के मार्ग को कभी नहीं छूते हैं। आप (संसार के) नियंत्रक की इच्छा-शक्ति, ज्ञान की शक्ति और क्रिया की शक्ति हैं। यह आप का एक हिस्सा है जिसके लिए मेरी इच्छा आगे बढ़ती है। सर्वोच्च भगवान विष्णु में से, जादूगर के, भ्रम के बच्चे, अकल्पनीय अलौकिक शक्तियां हैं। वे तुम्हारे अंशों के अंश मात्र हैं। हे अद्भुत वैभव वाले, हे ब्रह्मा, रुद्र आदि द्वारा प्राप्त करना कठिन है, आप कौन हैं? आप सबसे अच्छे ध्यान करने वाले संतों के ध्यान के मार्ग को कभी नहीं छूते हैं। आप (संसार के) नियंत्रक की इच्छा-शक्ति, ज्ञान की शक्ति और क्रिया की शक्ति हैं। यह आप का एक हिस्सा है जिसके लिए मेरी इच्छा आगे बढ़ती है। सर्वोच्च भगवान विष्णु में से, जादूगर के, भ्रम के बच्चे, अकल्पनीय अलौकिक शक्तियां हैं। वे तुम्हारे अंशों के अंश मात्र हैं। अकल्पनीय अलौकिक शक्तियां हैं। वे तुम्हारे अंशों के अंश मात्र हैं। अकल्पनीय अलौकिक शक्तियां हैं। वे तुम्हारे अंशों के अंश मात्र हैं।

56बी-60. हे देवी, इसमें कोई संदेह नहीं कि आप ही आनंद स्वरूप की शक्ति हैं। सिर्फ एक बच्चे के रूप में, कृष्ण वृंदावन ग्रोव में खेलते हैं; आप (संपूर्ण) ब्रह्मांड को मोहित करते हैं। आपका यौवन किस प्रकृति के अद्भुत रूप को छू गया है? एक पुरुष के रूप में विष्णु की लालसा के कारण मुस्कान के साथ खेल की दृष्टि से संपन्न आपकी युवावस्था किस तरह की है। हे विष्णु के प्रिय, मैं तुम्हारा वह रूप देखना चाहता हूं जिससे नंद के पुत्र कृष्ण मोहित होंगे? हे महान देवी, कृपा करके मुझे अपना रूप दिखाओ, जिन्होंने (आपके सामने) झुककर आपसे सुरक्षा मांगी है। ”

61-69। श्रेष्ठ मुनि, उसके प्रति समर्पित मन से, और उस महान देवी को प्रणाम करते हुए, जो महान और महान आनंद से भरी हुई थी, जो बड़े प्यार से उत्सुक थी, जिसका शरीर (प्रेम) से भरा था, जिसकी आंखें शुभ थीं, वहीं खड़ा था , गोविंदा को देखकर और उनका इस तरह वर्णन करते हुए: "आप की जीत, हे आकर्षक कृष्ण; वृन्दावन के प्रिय आप की विजय; आपकी जीत, जिनकी भौंहों की आकर्षक बुनाई है; आप की जय, जो बाँसुरी की ध्वनि से विजयी हो जाते हैं; मोर के पूँछ-पंखों की झोली के पास तेरी जय हो; ग्वालों को लुभाने वाले तेरी जय हो। आपकी जय जिसके शरीर पर केसर लगा है; जय जय जयकार मैं आपकी कृपा से आपको बचपन में (अर्थात् बाल्यावस्था में) कब देखुँगा - आप (सबको) दिव्य रूप के इस (लड़की) के साथ, और यौवन के कारण सुंदर शरीर धारण करने वाले, हे दुनिया के मालिक?" जब वह इस तरह (कृष्ण) की स्तुति कर रहा था, उसने, केवल उसी क्षण, एक दिव्य, बहुत ही आकर्षक रूप धारण किया (एक युवा लड़की की तरह) चौदह साल की और बेहद आकर्षक। उसी समय, ब्रज की अन्य युवा लड़कियों ने, उसी उम्र की, और दिव्य आभूषण, वस्त्र और माला वाले, उसे घेर लिया। वह गतिहीन श्रेष्ठ मुनि आश्चर्य से दंग रह गए।

70-79ए। तब लड़की के उन दोस्तों ने दया से भरे हुए, ऋषि को एक पेड़ के पैर पर पानी की बूंदों के साथ छिड़का और उसे पुनर्जीवित किया, और उससे कहा: "हे महान ऋषि, हे महिमावान, महान ध्यान करने वाले संतों के स्वामी, आपने वास्तव में बड़ी भक्ति के साथ प्रसन्न किया है, भगवान विष्णु जो अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करते हैं। चूंकि यह (महिला) विष्णु को प्रिय है, जो अपनी अद्भुत उम्र और सुंदरता के कारण मोहक है, जिसे ब्रह्मा , रुद्र और सिद्धों और ऋषियों जैसे देवताओं द्वारा देखा और संपर्क करना मुश्किल है , इसलिए अन्य महान भक्तों द्वारा भी विष्णु, आपके अवर्णनीय और अकल्पनीय भाग्य के कारण आपके द्वारा देखा गया है; इसलिए, उठो, तुम ब्राह्मण :ऋषि, और जल्दी से साहस जुटाओ। अपने दाहिनी ओर रखकर उसके चारों ओर चक्कर लगाकर उसे बार-बार प्रणाम करना। क्या तुम नहीं देखते कि सुन्दर शरीर बहुत व्याकुल है? दरअसल, इसी क्षण वह गायब हो जाएगी। (तब) किसी भी तरह से आप उससे (कभी भी) बात नहीं कर पाएंगे। हे ब्रह्म (या वेदों ) को जानने वालों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं , आप उसे फिर से नहीं देख पाएंगे। लेकिन, वृंदावन में एक शुभ अशोक लता (अशोक-वृक्ष) है। हर मौसम में यह फूलों से भरा रहता है। इसकी सुगंध सभी दिशाओं में व्याप्त है। गोवर्धन से कुछ दूर , कुसुमा नामक झील के तट पर , आप हम सभी को आधी रात को इसकी जड़ में देखेंगे। ”

79बी-91. उनके इन वचनों को सुनकर, जिनके हृदय प्रेम से भर गए थे, जबकि ऋषि, उन्हें अपने दाहिनी ओर रखते हुए, उसके चारों ओर घूमते हुए, उसे नमस्कार करेंगे, जो कई सुंदर वस्तुओं के साथ तैयार किया गया था, (उसके सामने नारद को एक कर्मचारी की तरह, जिसे भानु कहा जाता था) और (उसके बारे में) सर्व-सुंदर (लड़की) से कहा: “लड़की का ऐसा कौशल है, कि उसे देवताओं द्वारा भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। लेकिन, उस घर में जो उसके पैरों (यानी उसके पैरों के निशान) से चिह्नित है, भगवान नारायण, माधव, खुद रहता है। लक्ष्मी भी समस्त समृद्धि के साथ वहीं रहती हैं। हे श्रेष्ठ, आज (अर्थात् अभी) इस महान की रक्षा करो, जो सबसे सुंदर है, ध्यान से, एक देवता की तरह ”। इस तरह बात करते हुए, और अपने मन में विष्णु के सबसे अच्छे भक्त को याद करते हुए घने जंगल में प्रवेश किया। सबसे अच्छा ऋषि, अशोक-लता की जड़ का सहारा लेकर, देवता की प्रतीक्षा कर रहा था - उसके रात में ही आगमन, कृष्ण को उस प्रिय के बारे में सोचते हुए, प्रेम से दूर हो गया। फिर मध्यरात्रि को देख कर वे बहुत ही अद्भुत कन्याएं जो (उनके द्वारा) पहले दिखाई दीं, जिन्होंने विविध प्रकार के आभूषण और मालाएं धारण की थीं, मन में उलझे हुए ऋषि एक लाठी की तरह गिर पड़े। उन सभी शुभों ने ऋषि को घेरकर प्रवेश किया। यहां तक ​​कि ऋषि भी कुछ पूछना चाहते थे कि उन्हें क्या प्रिय है और उन्हें क्या पसंद है, सुंदरता को प्रिय भाषा (अर्थात् उपयुक्त शब्दों को खोजने में असमर्थ) के प्रबल होने के कारण, ऐसा नहीं कर सका। अशोक उपवन का वह देवता, जिसका नाम अशोकमालिनी है, दया से भरा हुआ, (वहां) आया और अपने हाथों की हथेलियों के साथ खड़े सबसे अच्छे ऋषि से कहा, जिनकी गर्दन (यानी महान) भक्ति के बोझ के कारण झुकी हुई थी, जो आश्चर्य से भरा और भ्रमित था, और जो सबसे विनम्र था।

अशोकमालिनी ने कहा :

92-103. हे महान ऋषि, मैं हमेशा इस अशोक-कली में रहता हूं । मैं हमेशा लाल वस्त्र पहनता हूं, मैं लाल माला पहनता हूं, और लाल वस्त्र पहनता हूं। मैं लाल सीसे की तरह लाल कलियों का उपयोग करता हूं। मैं चैपल, लाल कमल का उपयोग करता हूं। मुझे लाल माणिक, लाल बाजूबंद और लाल मुकुट से सजाया गया है। एक बार, चरवाहे, अपने प्रिय के साथ खेलते हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, वहीं मिले; और फिर मैंने भक्तिपूर्वक और विधिवत पूजा की, अशोक-मालाओं के साथ, विष्णु ने एक चरवाहे का रूप धारण किया, और उन सभी को लक्ष्मी के रूप में । तब से मैं हमेशा उनके बीच रहा और विभिन्न सजावटों के साथ लक्ष्मी के भगवान (यानी विष्णु), सर्वोच्च (भगवान) को प्रसन्न करता रहा हूं। मैं हर जगह से सब कुछ जानता हूं। मैं गायों, ग्वालों और ग्वालों का रहस्य भी जानता हूँ। आपकी इच्छा थी और आपके दिल में (अर्थात अपने आप से) कहा: 'मैं उस देवी को एक अद्भुत रूप में कैसे देखूं, एक अद्भुत आनंद दे रहे हैं, विष्णु को प्रिय, सोने की तरह दिखने (चमकदार), हीरे की चमकीली अंगूठी और अस्थिर आंखों वाले? मैं भक्ति से उनके चरण कैसे शांत करूं?' इस प्रकार, हे ब्राह्मण, आपने सोचा । इस मामले में, मैं आपको उन महान ऋषियों का लेखा-जोखा बताऊंगा जो में रहे थे मनसा झील और घोर तपस्या का अभ्यास किया, जो प्रभावी भजन गाते थे, जो विष्णु का ध्यान करते थे, और जो लगातार अपने कमल जैसे पैरों के लिए तरसते थे। आज मैं आपको जंगल का महान रहस्य बताऊंगा।


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पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः ०७२

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             ईश्वर उवाच-
तदेकाग्रमना भूत्वा शृणु देवि वरानने
आसीदुग्रतपा नाम मुनिरेको दृढव्रतः १।


साग्निको ह्यग्निभक्षश्च चचारात्यद्भुतं तपः
जजाप परमं जाप्यं मंत्रं पंचदशाक्षरम् २


काममंत्रेण पुटितं कामं कामवरप्रदात्
कृष्णायेति पदं स्वाहा सहितं सिद्धिदं परम् ३


दध्यौ च श्यामलं कृष्णं रासोन्मत्तं वरोत्सुकम्
पीतपट्टधरं वेणुं करेणाधरमर्पितम् ४


नवयौवनसंपन्नं कर्षंतं पाणिना प्रियाम्
एवं ध्यानपरः कल्पशतांते देहमुत्सृजन् ५


सुनंद नाम गोपस्य कन्याभूत्स महामुनिः
सुनंदेति समाख्याता या वीणां बिभ्रती करे ६


मुनिरन्यः सत्यतपा इति ख्यातो महाव्रतः
सशुष्कपत्रं भुंक्ते यः प्रजजाप परं मनुम् ७


रत्यंतं कामबीजेन पुटितं च दशाक्षरम्
स प्रदध्यौ मुनिवरश्चित्रवेषधरं हरिम् ८


धृत्वा रमाया दोर्वल्लीद्वितयं कंकणोज्ज्वलम्
नृत्यंतमुन्मदंतं च संश्लिष्यं तं मुहुर्मुहुः ९


हसंतमुच्चैरानंदतरंगं जठरांबरे
दधतं वेणुमाजानु वैजयंत्या विराजितम् १०


स्वेदांभः कणसंसिक्त ललाटवलिताननम्
त्यक्त्वा त्यक्त्वा स वै देहं तपसा च महामुनिः ११


दशकल्पांतरे जातो ह्ययं नंदवनादिह
सुभद्र नाम्नो गोपस्य कन्या भद्रेति विश्रुता १२


यस्याः पृष्ठतले दिव्यं व्यजनं परिदृश्यते
हरिधामाभिधानस्तु कश्चिदासीन्महामुनिः १३


सोऽप्यतप्यत्तपः कृच्छ्रं नित्यं पत्रैकभोजनम्
आशुसिद्धिकरं मंत्रं विंशत्यर्णं प्रजप्तवान् १४


अनंतरं कामबीजादध्यारूढं तदेव तु
माया तत्पुरतो व्योम हंसासृग्द्युतिचंद्रकम् १५


ततो दशाक्षरं पश्चान्नमोयुक्तं स्मरादिकम्
दध्यौ वृंदावने रम्ये माधवीमंडपे प्रभुम् १६


उत्तानशायिनं चारुपल्लवास्तरणोपरि
कयाचिदतिकामार्त्त बल्लव्या रक्तनेत्रया १७


वक्षोजयुगमाच्छाद्य विपुलोरः स्थलं मुहुः
संचुंब्यमानगंडांतं तृप्यमानरदच्छदम् १८


कलयंतं प्रियां दोर्भ्यां सहासं समुदाद्भुतम्
स मुनिश्च बहून्देहां स्त्यक्त्वा कल्पत्रयांतरे १९


सारंगनाम्नो गोपस्य कन्याभूच्छुभलक्षणा
रंगवेणीति विख्याता निपुणा चित्रकर्मणि २०


यस्या दंतेषु दृश्यंते चित्रिताः शोणबिंदवः
ब्रह्मवादी मुनिः कश्चिज्जाबालिरिति विश्रुतः २१


सतपः सुरतो योगी विचरन्पृथिवीमिमाम्
स एकस्मिन्महारण्ये योजनायुतविस्तृते २२


यदृच्छयागतोऽपश्यदेकां वापीं सुशोभनाम्
सर्वतः स्फाटिकाबंधतटां स्वादुजलान्विताम् २३


विकासिकमलामोदवायुना परिशीलिताम्
तस्याः पश्चिमदिग्भागे मूले वटमहीरुहः २४


अपश्यत्तापसीं कांचित्कुर्वंतीं दारुणं तपः
तारुण्यवयसायुक्तां रूपेणाति मनोहराम् २५


चंद्रांशुं सदृशाभासां सर्वावयवशोभनाम्
कृत्वा कटितटे वामपाणिं दक्षिणतस्तदा २६


ज्ञानमुद्रां च बिभ्राणामनिमेषविलोचनाम्
त्यक्ताहारविहारां च सुनिश्चलतयास्थिताम् २७


जिज्ञासुस्तां मुनिवरस्तस्थौ तत्र शतं समाः
तदंते तां समुत्थाप्य चलितां विनयान्मुनिः २८


अपृच्छत्का त्वमाश्चर्यरूपे किं वा चरिष्यसि
यदि योग्यं भवेत्तर्हि कृपया वक्तुमर्हसि २९


अथाब्रवीच्छनैर्बाला तपसातीव कर्शिता
ब्रह्मविद्याहमतुला योगींद्रैर्या विमृग्यते ३०


साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः
चराम्यस्मिन्वने घोरे ध्यायंती पुरुषोत्तमम् ३१


ब्रह्मानंदेन पूर्णाहं तेनानंदेन तृप्तधीः
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना ३२


इदानीमतिनिर्विण्णा देहस्यास्य विसर्ज्जनम्
कर्त्तुमिच्छामि पुण्यायां वापिकायामिहैव तु ३३


तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या मुनिरत्यंतविस्मितः
पतित्वा चरणे तस्याः कृष्णोपासाविधिं शुभम् ३४


पप्रच्छ परमप्रीतस्त्यक्त्वाध्यात्मविरोचनम्
तयोक्तं मंत्रमाज्ञाय जगाम मानसं सरः ३५


ततोऽतिदुश्चरं चक्रे तपो विस्मयकारकम्
एकपादस्थितः सूर्यं निर्निमेषं विलोकयन् ३६


मंत्रं जजाप परमं पंचविंशतिवर्णकम्
दध्यौ परमभावेन कृष्णमानंदरूपिणम् ३७


चरंतं व्रजवीथीषु विचित्रगतिलीलया
ललितैः पादविन्यासैः क्वणयंतं च नूपुरम् ३८


चित्रकंदर्पचेष्टाभिः सस्मितापांगवीक्षितैः
संमोहनाख्यया वंश्या पंचमारुणचित्रया ३९


बिंबौष्ठपुटचुंबिन्या कलालापैर्मनोज्ञया
हरंतं व्रजरामाणां मनांसि च वपूंषि च ४०


श्लथन्नीवीभिरागत्य सहसालिंगितांगकम्
दिव्यमाल्यांबरधरं दिव्यगंधानुलेपनम् ४१


श्यामलांगप्रभापूर्णैर्मोहयंतं जगत्त्रयम्
स एवं बहुदेवेन समुपास्य जगत्पतिम् ४२


नवकल्पांतरे जाता गोकुले दिव्यरूपिणी
कन्या प्रचंडनाम्नस्तु गोपस्याति यशस्विनः ४३।


चित्रगंधेति विख्याता कुमारी च शुभानना
निजांगगंधैर्विविधैर्मोदयंती दिशो दश ४४।


तामेनां पश्य कल्याणीं वृंदशो मधुपायिनीम्
अंगेषु स्वपतिं कृत्वा रसावेशसमाकुलाम् ४५


अस्याः स्तनपरिष्वंगे हारैः सर्वैर्विहन्यते
वक्षःस्थलात्प्रच्यवद्भिश्चित्रगंधादिसौरभैः ४६


अपरे मुनिवर्यास्तु सततं पूतमानसाः
वायुभक्षास्तपस्तेपुर्जपंतः परमं मनुम् ४७


स्मरः कृष्णाय कामार्ति कलादिवृत्तिशालिने
आग्नेयीसहितं कृत्वा मंत्रं पंचदशाक्षरम् ४८


दध्युर्मुनिवराः कष्णमूर्तिं दिव्यविभूषणाम्
दिव्यचित्रदुकूलेन पूर्णपीनकटिस्थलाम् ४९


मयूरपिच्छकैः कॢप्तचूडामुज्ज्वलकुंडलाम्
सव्यजंघांत आदाय दक्षिणं चरणांबुजम् ५०


भ्रमंतीं संपुटीकृत्य चारुहस्तांबुजद्वयम्
कक्षदेशविनिक्षिप्तवेणुं परिचलत्पुटीम् ५१


आनंदयंतीं गोपीनां नयनानि मनांसि च
परमाश्चर्यरूपेण प्रविष्टां रंगमंडपे ५२


प्रसूनवर्षर्गोपीभिः पूर्यमाणां च सर्वतः
अथ कल्पांतरे देहं त्यक्त्वा जाता इहाधुना ५३


यासां कर्णेषु दृश्यंते ताटंका रश्मिदीपिताः
रत्नमाल्यानि कंठेषु रत्नपुष्पाणि वेणिषु ५४


मुनिः शुचिश्रवा नाम सुवर्णो नाम चापरः
कुशध्वजस्य ब्रह्मर्षेः पुत्रौ तौ वेदपारगौ ५५


ऊर्ध्वपादौ तपो घोरं तेपतुस्त्र्यक्षरं मनुम्
ह्रीं हंस इति कृत्वैव जपंतौ यतमानसौ ५६


ध्यायंतौ गोकुले कृष्णं बालकं दशवार्षिकम्
कंदर्पसमरूपेण तारुण्यललितेन च ५७


पश्यंतीर्व्रजबिंबोष्ठीर्मोहयंतमनारतम्
तौ कल्पांते तनूं त्यक्त्वा लब्धवंतौ जनिं व्रजे ५८


सुवीरनाम गोपस्य सुते परमशोभने
ययोर्हस्ते प्रदृश्येते सारिके शुभराविणी ५९।


जटिलो जंघपूतश्च घृताशी कर्बुरेव च
चत्वारो मुनयो धन्या इहामुत्र च निःस्पृहाः ६०


केवलेनैकभावेन प्रपन्ना बल्लवीपतिम्
तेपुस्ते सलिले मग्ना जपंतो मनुमेव च ६१


रमात्रयेण पुटितं स्मराद्यं तदशाक्षरम्
दध्युश्च गाढभावेन बल्लवीभिर्वने वने ६२


भ्रमंतं नृत्यगीताद्यैर्मानयंतं मनोहरम्
चंदनालिप्तसर्वांगं जपापुष्पावतंसकम् ६३।


कल्हारमालयावीतं नीलपीतपटावृतम्
कल्पत्रयांते जातास्ते गोकुले शुभलक्षणाः ६४


इमास्ताः पुरतो रम्या उपविष्टा नतभ्रुवः
यासां धर्मकृतान्येव वलयानि प्रकोष्ठके ६५


विचित्राणि च रत्नाद्यैर्दिव्यमुक्ताफलादिभिः
मुनिर्दीर्घतपा नाम व्यासोऽभूत्पूर्वकल्पके ६६


तत्पुत्रः शुक इत्येव मुनिः ख्यातो वरः सुधीः
सोऽपि बालो महाप्राज्ञः सदैवानुस्मरन्पदम् ६७


विहाय पितृमात्रादि कृष्णं ध्यात्वा वनं गतः
स तत्र मानसैर्दिव्यैरुपचारैरहर्निशम् ६८


अनाहारोऽर्चयद्विष्णुं गोपरूपिणमीश्वरम्
रमया पुटितं मंत्रं जपन्नष्टादशाक्षरम् ६९


दध्यौ परमभावेन हरिं हैमतरोरधः
हैममंडपिकायां च हेमसिंहासनोपरि ७०


आसीनं हेमहस्ताग्रैर्दधानं हेमवंशिकाम्
दक्षिणेन भ्रामयंतं पाणिना हेमपंकजम् ७१


हेमवर्णेष्टप्रियया परिकॢप्तांगचित्रकम्
हसंतमतिहर्षेण पश्यंतं निजमाश्रमम् ७२


हर्षाश्रुपूर्णः पुलकाचितांगः प्रसीदनाथेति वदन्नथोच्चैः
दंडप्रणामाय पपात भूमौ संवेपमानस्त्रिजगद्विधातुः ७३


तं भक्तिकामं पतितं धरण्यामायासितोस्मीति वदंतमुच्चैः
दंडप्रणामस्य भुजौ गृहीत्वा पस्पर्श हर्षोपचितेक्षणेन ७४


उवाच च प्रियारूपं लब्धवंतं शुकं हरिः
त्वं मे प्रियतमा भद्रे सदा तिष्ठ ममांतिके ७५


मद्रूपं चिंतयंती च प्रेमास्पदमुपागता
द्वे च मुख्यतमे गोप्यौ समानवयसी शुभे ७६


एकव्रते एकनिष्ठे एकनक्षत्रनामनी
तप्तजांबूनदप्रख्या तत्रैवान्या तडित्प्रभा ७७


एकानिद्रा यमाणाक्षी परा सौम्यायतेक्षणा
सोऽर्चयत्परया भक्त्या ते हरेः सव्यदक्षिणे ७८


स कल्पांते तनुं त्यक्त्वा गोकुलेऽभून्महात्मनः
उपनंदस्य दुहिता नीलोत्पलदलच्छविः ७९


सेयं श्रीकृष्णवनिता पीतशाटीपरिच्छदा
रक्तचोलिकया पूर्णा शातकुंभघटस्तनी ८०


दधाना रक्तसिंदूरं सर्वांगस्यावगुंठनम्
स्वर्णकुंडलविभ्राजद्गंडदेशां सुशोभनाम् ८१


स्वर्णपंकजमालाढ्या कुंकुमालिप्तसुस्तनी
यस्या हस्ते चर्वणीयं दृश्यते हरिणार्पितम् ८२


वेणुवाद्यातिनिपुणा केशवस्य निषेवणी
कृष्णेन परितुष्टेन कदाचिद्गीतकर्मणि ८३


विन्यस्ता कंबुकंठेऽस्या भाति गुंजावलि शुभा
परोक्षेपि च कृष्णस्य कांतिभिश्च स्मरार्दिता ८४


सखीभिर्वादयंतीभिर्गायंती सुस्वरं परम्
नर्त्तयेत्प्रियवेषेण वेषयित्वा वधूमिमाम् ८५


वारंवारं च गोविंदं भावेनालिंग्य चुंबति
प्रियासौ सर्वगोपीनां कृष्णस्याप्यतिवल्लभा ८६


श्वेतकेतोः सुतः कश्चिद्वेदवेदांगपारगः
सर्वमेव परित्यज्य प्रचंडं तप आस्थितः ८७


मुरारेः सेवितपदां सुधामधुरनादिनीम्
गोविंदस्य प्रियां शक्तिं ब्रह्मरुद्रादिदुर्गमाम् ८८


भजंतीमेकभावेन श्रियमेव मनोहराम्
ध्यायञ्जजाप सततं मंत्रमेकादशाक्षरम् ८९


हसितं सकलं कृत्वा बतमायेषु योजयन्
कांत्यादिभिर्हसंतीभिर्वासयंत्यभितो जगत् ९०


वसंते वसतेत्येवं मंत्रार्थं चिंतयन्सदा
सोऽपि कल्पद्वयेनैव सिद्धोऽत्र जनिमाप्तवान् ९१


सेयं बालायते पुत्री कृशांगी कुड्मलस्तनी
मुक्तावलिलसत्कंठी शुद्धकौशेयवासिनी ९२


मुक्ताच्छुरितमंजीरकंकणांगदमुद्रिका
बिभ्रती कुंडले दिव्ये अमृतस्राविणी शुभे ९३


वृत्तकस्तूरिकावेणी मध्ये सिंदूरबिंदुवत्
दधाना चित्रकं भाले सार्द्धं चंदनचित्रकैः ९४


या सैव दृश्यते शांता जपंती परमं पदम्
आसीच्चंद्रप्रभो नाम राजर्षिः प्रियदर्शनः ९५


तस्य कृष्णप्रसादेन पुत्रोऽभून्मधुराकृतिः
चित्रध्वज इति ख्यातः कौमारावधि वैष्णवः ९६


स राजा सुसुतं सौम्यं सुस्थिरं द्वादशाब्दिकम्
आदेशयद्द्विजान्मंत्रं परमष्टादशाक्षरम् ९७


अभिषिच्यमानः स शिशुर्मंत्रामृतमयैर्जलैः
तत्क्षणे भूपतिं प्रेम्णा नत्वोदश्रुप्रकल्पितः ९८


तस्मिन्दिने स वै बालः शुचिवस्त्रधरः शुचिः
हारनूपुरसूत्राद्यैर्ग्रैवेयांगदकंकणैः ९९


विभूषितो हरेर्भक्तिमुपस्पृश्यामलाशयः
विष्णोरायतनं गत्वा स्थित्वैकाकी व्यचिंतयत् १००


कथं भजामि तं भक्तं मोहनं गोपयोषिताम्
विक्रीडंतं सदा ताभिः कालिंदीपुलिने वने १०१


इत्थमत्याकुलमतिश्चिंतयन्नेव बालकः
अथापपरमां विद्यां स्वप्नं च समवाप्यत १०२


आसीत्कृष्णप्रतिकृतिः पुरतस्तस्य शोभना
शिलामयी स्वर्णपीठे सर्वलक्षणलक्षिता १०३


साभूदिंदीवरश्यामा स्निग्धलावण्यशालिनी
त्रिभंगललिताकार शिखंडी पिच्छभूषणा १०४


कूजयंती मुदा वेणुं कांचनीमधरेऽर्पिताम्
दक्षसव्यगताभ्यां च सुंदरीभ्यां निषेविताम् १०५


वर्द्धयंतीं तयोः कामं चुंबनाश्लेषणादिभिः
दृष्ट्वा चित्रध्वजः कृष्णं तादृग्वेषविलासिनम् १०६


अवनम्य शिरस्तस्मै पुरो लज्जितमानसः
अथोवाच हरिर्दक्षपार्श्वगां प्रेयसीं हसन् १०७


सलज्जं परमं चैनं स्वशरीरासनागतम्
निर्मायात्मसमं दिव्यं युवतीरूपमद्भुतम् १०८


चिंतयस्व शरीरेण ह्यभेदं मृगलोचने
अथो त्वदंगतेजोभिः स्पृष्टस्त्वद्रूपमाप्स्यति १०९


ततः सा पद्मपत्राक्षी गत्वा चित्रध्वजांतिकम्
निजांगकैस्तदंगानामभेदं ध्यायती स्थिता ११०


अथास्यास्त्वंगतेजांसि तदंगं पर्यपूरयन्
स्तनयोर्ज्योतिषा जातौ पीनौ चारुपयोधरौ १११


नितंबज्योतिषा जातं श्रोणिबिंबं मनोहरम्
कुंतलज्योतिषा केशपाशोऽभूत्करयोः करौ ११२


सर्वमेवं सुसंपन्नं भूषावासः स्रगादिकम्
कलासु कुशला जाता सौरभेनांतरात्मनि ११३


दीपाद्दीपमिवालोक्य सुभगां भुवि कन्यकाम्
चित्रध्वजां त्रपाभंगि स्मितशोभां मनोहराम् ११४


प्रेम्णा गृहीत्वा करयोः सा तामपहरन्मुदा
गोविंदवामपार्श्वस्थां प्रेयसीं परिरभ्य च ११५


उवाच तव दासीयं नाम चास्याश्चकार य
सेवां चास्यै वद प्रीत्या यथाभिरुचितां प्रियाम् ११६


अथ चित्रकलेत्येतन्नाम चात्ममतेन सा
चकार चाह सेवार्थं धृत्वा चापि विपंचिकाम् ११७


सदा त्वं निकटे तिष्ठ गायस्व विविधैः स्वरैः
गुणात्मन्प्राणनाथस्य तवायं विहितो विधिः ११८


अथ चित्रकला त्वाज्ञां गृहीत्वानम्य माधवम्
तत्प्रेयस्याश्च चरणं गृहीत्वा पादयो रजः ११९


जगौ सुमधुरं गीतं तयोरानंदकारणम्
अथ प्रीत्योपगूढा सा कृष्णेनानंदमूर्तिना १२०


यावत्सुखांबुधौ पूर्णा तावदेवाप्यबुध्यत
चित्रध्वजो महाप्रेमविह्वलः स्मरतत्परः १२१


तमेव परमानंदं मुक्तकंठो रुरोद ह
तदारभ्य रुदन्नेव मुक्त्वा हरिविचारकम् १२२


आभाषितोऽपि पित्राद्यैर्नैवावोचद्वचः क्वचित्
मासमात्रं गृहे स्थित्वा निशीथे कृष्णसंश्रयः १२३


निर्गत्यारण्यमचरत्तपो वै मुनिदुष्करम्
कल्पांते देहमुत्सृज्य तपसैव महामुनिः १२४


वीरगुप्ताभिधानस्य गोपस्य दुहिता शुभा
जाता चित्रकलेत्येव यस्याः स्कंधे मनोहरा १२५


विपंची दृश्यते नित्यं सप्तस्वरविभूषिता
उपतिष्ठति वै वामे रत्नभृंगारमद्भुतम् १२६


दधाना दक्षिणे हस्ते सा वै रत्नपतद्ग्रहम्
अयमासीत्पुरा सर्वं तापसैरभिवंदितः १२७


मुनिः पुण्यश्रवा नाम काश्यपः सर्वधर्मवित्
पिता तस्याभवच्छैवः शतरुद्रीयमन्वहम् १२८


प्रस्तुवन्देवदेवेशं विश्वेशं भक्तवत्सलम्
प्रसन्नो भगवांस्तस्य पार्वत्या सह शंकरः १२९


चतुर्दश्यामर्द्धरात्रेः प्रत्यक्षः प्रददौ वरम्
त्वत्पुत्रो भविता कृष्णे भक्तिमान्बाल एव हि १३०


उपनीयाष्टमे वर्षे तस्मै सिद्धमनुस्त्वयम्
उपदिशैकविंशत्या यो मया ते निगद्यते १३१


गोपालविद्यानामायं मंत्रो वाक्सिद्धिदायकः
एतत्साधकजिह्वाग्रे लीलाचरितमद्भुतम् १३२


अनंतमूर्तिरायाति स्वयमेव वरप्रदः
काममाया रमाकंठ सेंद्रा दामोदरोज्ज्वलाः १३३


मध्ये दशाक्षरीं प्रोच्य पुनस्ता एव निर्दिशेत्
दशाक्षरोक्तऋष्यादिध्यानं चास्य ब्रवीम्यहम् १३४


पूर्णामृतनिधेर्मध्ये द्वीपं ज्योतिर्मयं स्मरेत्
कालिंद्या वेष्टितं तत्र ध्यायेद्वृंदावने वने १३५


सर्वर्तुकुसुमस्रावि द्रुमवल्लीभिरावृतम्
नटन्मत्तशिखिस्वानं गायत्कोकिलषट्पदम् १३६


तस्य मध्ये वसत्येकः पारिजाततरुर्महान्
शाखोपशाखाविस्तारैः शतयोजनमुच्छ्रितः १३७


तले तस्याथ विमले परितो धेनुमंडलम्
तदंतर्मंडलं गोपबालानां वेणुशृंगिणाम् १३८


तदंतरे तु रुचिरं मंडलं व्रज सुभ्रुवाम्
नानोपायनपाणीनां मदविह्वलचेतसाम् १३९


कृतांजलिपुटानां च मंडलं शुक्लवाससाम्
शुक्लाभरणभूषाणां प्रेमविह्वलितात्मनाम् १४०


चिंतयेच्छ्रुतिकन्यानां गृह्णतीनां वचः प्रियम्
रत्नवेद्यां ततो ध्यायेद्दुकूलावरणं हरिम् १४१


ऊरौ शयानं राधायाः कदलीकांडकोपरि
तद्वक्त्रं चंद्र सुस्मेरं वीक्षमाणं मनोहरम् १४२


किंचित्कुंचितवामांघ्रिं वेणुयुक्तेन पाणिना
वामेनालिंग्य दयितां दक्षेण चिबुकं स्पृशन् १४३


महामारकताभासं मौक्तिकच्छायमेव च
पुंडरीकविशालाक्षं पीतनिर्मलवाससम् १४४


बर्हभारलसच्छीर्षं मुक्ताहारमनोहरम्
गंडप्रांतलसच्चारु मकराकृतिकुंडलम् १४५


आपादतुलसीमालं कंकणांगदभूषणम्
नूपुरैर्मुद्रिकाभिश्च कांच्या च परिमंडितम् १४६


सुकुमारतरं ध्यायेत्किशोरवयसान्वितम्
पूजा दशाक्षरोक्तैव वेदलक्षं पुरस्क्रिया १४७


इत्युक्त्वांतर्दधे देवो देवी च गिरिजा सती
मुनिरागत्य पुत्राय तथैवोपदिदेश ह १४८


पुण्यश्रवास्तु तन्मंत्र ग्रहणादेव केशवम्
वर्णयामास विविधैर्जित्वा सर्वान्मुनीन्स्वयम् १४९


रूपलावण्यवैदग्ध्य सौंदर्याश्चर्यलक्षणम्
तदा हृष्टमना बालो निर्गत्य स्वगृहात्ततः १५०

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वायुभक्षस्तपस्तेपे कल्पानामयुतत्रयम्
तदंते गोकुले जाता नंदभ्रातुर्गृहे स्वयम् १५१

लवंगा इति तन्नाम कृष्णेंगित निरीक्षणा
यस्या हस्ते प्रदृश्येत मुखमार्जनयंत्रकम् १५२


इति ते कथिताः काश्चित्प्रधानाः कृष्णवल्लभाः १५३


हरिविविधरसाद्यैर्युक्तमध्यायमेतद्व्रजवरतनयाभिश्चारुहासेक्षणाभिः
पठति य इह भक्त्या पाठयेद्वा मनुष्यो व्रजति भगवतः श्रीवासुदेवस्य धाम १५४

इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे श्रीकृष्णमाहात्म्ये द्विसप्ततितमोऽध्यायः ७२

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पद्म पुराण


यह पृष्ठ गोकुल में पैदा हुए कृष्ण के भक्तों को चरवाहों के रूप में वर्णित करता है जो पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 72 है, जो सबसे बड़े महापुराणों में से एक है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों का विवरण दिया गया है। 

अध्याय 72 - कृष्ण के भक्त गोकुल में ग्वाला के रूप में जन्मे

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

प्रभु ने कहा :

1-6क. हे सुंदरी देवी, एकाग्र मन से सुनो: उग्रतापस नामक एक ऋषि थे, जो अपनी प्रतिज्ञा में दृढ़ थे। उन्होंने अग्नि के सम्मान में अनुष्ठान करते हुए , अग्नि को खाया (अर्थात निर्वाह किया), और एक बहुत ही अद्भुत तपस्या की। उन्होंने महान स्तोत्र को गुनगुनाया, जो गुनगुनाए जाने के योग्य था और पंद्रह अक्षर वाले, एक इच्छा-प्राप्ति वाले भजन से बंधे हुए, वांछित वरदान देने वाले व्यक्ति से वांछित वस्तुओं को प्राप्त करते हुए, शब्द कृष्ण ( कृष्ण को ) के साथ, स्वाहा (प्रस्तावित ) शब्द के साथ। करने के लिए), और महान समृद्धि दे रही है। उन्होंने काले कृष्ण का ध्यान किया, नृत्य से पागल, वरदान देने के लिए उत्सुक, पीला वस्त्र धारण करके, बांसुरी के साथअपने निचले होंठ पर रखो, ताजा युवा के साथ संपन्न, और अपने प्रिय को अपने हाथ से खींच लिया। इस प्रकार, ध्यान में लगे महान ऋषि ने सौ कल्पों के अंत के बाद अपने शरीर को त्याग दिया और सुनंदा नाम से ग्वाले की बेटी के रूप में जन्म लिया ।

6बी-11. वह सुनंदा कहलाती थीं और उनके हाथ में एक लूट थी। सत्यतापस नाम का एक और ऋषि था जो एक महान धनुष का अभ्यास कर रहा था। उन्होंने सूखे पत्तों को खाया (अर्थात निर्वाह किया) और भक्ति में समाप्त होकर, इच्छा के बीज वाले दस अक्षरों से बंधे हुए एक महान भजन गाया। सबसे अच्छे ऋषि ने विष्णु का ध्यान किया , जिन्होंने विभिन्न प्रकार की पोशाक पहन रखी थी, जिन्होंने राम की लता जैसी भुजाओं को धारण किया था, जो कंगनों से चमकते थे, जो नाच रहे थे, पागल हो रहे थे, बार-बार (राम को गले लगा रहे थे), जोर से हंस रहे थे, और आनंद की लहरें उठा रहे थे। उसके पेट का आकाश (अर्थात् गुहा), बाँसुरी पकड़े हुए, जो अपने घुटनों तक पहुँचने वाले हार से सुशोभित था, जिसके माथे पर सिलवटों वाला चेहरा पसीने की बूंदों से भीगा हुआ था।

12-19ए. बार-बार, अपने शरीर को ढोते हुए, महान ऋषि, दस कल्पों के बाद, नंदवन से, सुभद्रा नामक चरवाहे की बेटी के रूप में यहां पैदा हुए थे, और भद्रा के नाम से जाने जाते थे । उनकी पीठ पर एक दिव्य पंखा दिखाई दे रहा है। हरिधामन नाम का एक निश्चित ऋषि था। उन्होंने कठिन तपस्या की और हमेशा पत्ते ही खाते थे। उसने जल्दी से फल देते हुए बीस अक्षरों का एक भजन सुनाया। फिर (भजन युक्त) इच्छा के बीज से, वह उस पर ही ( अस्पष्ट !) प्राप्त हुआ। माया थी; उसके सामने जल, हंस, केसर और चमकीला चाँद थे। फिर, याद करते हुए और दस अक्षरों के साथ (उसने भजन को गुनगुनाया) और चमेली-लता के आकर्षक धनुष में उन्होंने भगवान का ध्यान किया, जो उनकी पीठ पर पत्तियों के सुंदर बिस्तर पर लेटे हुए थे, जिनकी विशाल छाती बार-बार हो रही थी एक चरवाहे द्वारा कवर किया गया था जो बहुत जुनून से अभिभूत था और जिसकी आंखें लाल थीं, उसके स्तनों की जोड़ी के साथ, जिसे (यानी भगवान) उसके गालों पर चूमा जा रहा था, और जिसके होंठों को तृप्त किया जा रहा था, जो अद्भुत था, साथ था अपनी प्रेमिका को अपनी बाहों में पकड़े हुए एक मुस्कान।

19बी-28. वह ऋषि, कई शरीर धारण करने के बाद, तीन कल्पों के बाद शुभ अंक वाली बेटी के रूप में पैदा हुआ, जो रंग नाम के एक चरवाहे की बेटी थी । उन्हें रंगवेश के नाम से जाना जाता था। वह चित्र बनाने में कुशल थी। उसके दांतों पर लाल रंग के अलग-अलग निशान थे। वेदों के शिक्षक जाबली नामक एक ऋषि (भी) थे । वे तपस्या में लगे हुए इस पृथ्वी पर विचरण करते थे। एक बार, संयोग से, वह असंख्य योजनओं में फैले एक महान वन में गया. वहाँ उसने एक बहुत ही सुन्दर कुआँ देखा जिसके चारों ओर क्रिस्टल-दीवारें थीं, जो मीठे पानी से भरी हुई थीं, जो खिलते हुए कमल के साथ सुगंधित हवा से ठंडी थी। इसके पश्चिम के क्षेत्र में, बरगद के पेड़ की जड़ में, उन्होंने एक महिला तपस्वी को देखा, जो घोर तपस्या कर रही थी, युवावस्था से संपन्न थी, एक अत्यंत सुंदर रूप की थी, जिसकी चमक चंद्र किरणों की तरह थी, जिसके सभी अंग सुंदर थीं, जिन्होंने अपना बायां हाथ अपनी कमर पर रखा था, और अपने दाहिने हाथ की उंगलियों की स्थिति धार्मिक पूजा में अभ्यास के रूप में बनाई थी, जिनकी आंखें स्थिर थीं, जिन्होंने भोजन और भोग छोड़ दिया था, और जो स्थिर रहे थे। उसे जानने के इच्छुक उत्कृष्ट ऋषि (यह जानने के लिए कि वह कौन थी) सौ वर्षों तक वहीं रहे। उस (अवधि) के अंत में ऋषि ने उसे उठाया, और विनम्रता से उससे कहा कि कौन चल रहा है (दूर)।

29-30ए। उसने उससे पूछा: "आप एक अद्भुत रूप में कौन हैं? आप क्या करेंगे? अगर यह (मुझे बताना) उचित होगा, तो कृपया मुझे बताएं।" तब तपस्या के कारण अत्यंत दुर्बल युवती ने धीरे से (उससे) कहा:

30बी-33. "मैं ब्रह्म का अतुलनीय ज्ञान हूं , जिसकी तलाश सर्वश्रेष्ठ ध्यान करने वाले संतों द्वारा की जाती है। कि मैं परम आत्मा का ध्यान करते हुए, इस भयंकर वन में लंबे समय से विष्णु के चरण कमलों की इच्छा के साथ तपस्या कर रहा हूं। मैं ब्रह्म के आनन्द से परिपूर्ण हूँ। उस आनंद से मेरा मन प्रसन्न है। फिर भी, मैं अपने आप को कृष्ण के प्रेम के अभाव में अकेला देख रहा हूँ । अब मैं बहुत निराश हूँ, और इस शरीर को इसी शुभ कुएँ में यहाँ ही डालने की इच्छा रखता हूँ।”

34-46. उनके इन शब्दों को सुनकर ऋषि अत्यंत चकित हुए और बड़े प्रेम से उनके चरणों में गिरे और उनसे स्वयं के प्रति अरुचि को त्यागकर विष्णु की सेवा के शुभ संस्कार के बारे में पूछा। उसके द्वारा बताए गए भजन को जानकर (अर्थात् सीखा) वह मानसा झील के पास गया। फिर उन्होंने एक अद्भुत तपस्या की, जिसका अभ्यास करना बहुत कठिन था। एक पैर पर खड़े होकर और अनजाने में सूर्य को देखते हुए उन्होंने पच्चीस अक्षरों का एक महान भजन गाया। उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ कृष्ण का ध्यान किया, जो आनंद के रूप में थे, जो व्रज की सड़कों पर घूम रहे थे।एक अजीब और खेल-कूद चाल के साथ, जो आकर्षक कदमों के साथ अपनी पायल की आवाज कर रहा था, जिसने व्रज की खूबसूरत महिलाओं के मन और शरीर को उनके कपड़ों की गांठों से आकर्षित किया और अचानक उसे गले लगा लिया, प्यार के विभिन्न खेलों के साथ और एक मुस्कान के साथ, और आकर्षक सुनहरी बांसुरी के साथ, जिसे सम्मोहन कहा जाता है, जिसमें पांचवां नोट होता है, और उसके बिंबा -जैसे निचले होंठ को चूमता है (यानी छूता है), जिसने दिव्य फूल और वस्त्र पहने थे, और जिसने दिव्य चन्दन लगाया था (अपने शरीर के लिए), जिसने अपने काले शरीर की चमक के द्रव्यमान से तीनों लोकों को लुभाया। इस प्रकार अनेक सूक्तों से जगत् के स्वामी की आराधना करने के बाद नौ कल्पों के अंत में गोकुल में उनका जन्म दैवीय रूप वाली एक अत्यंत प्रसिद्ध ग्वाले की पुत्री के रूप में हुआ।प्रकाशा । शुभ मुख वाली कन्या चित्रगंधा के नाम से प्रसिद्ध थी और अपने शरीर की विभिन्न सुगंधों से दसों दिशाओं को प्रसन्न करती थी। वृंदा का मीठा पेय पीने वाली , जो वासना से भरी हुई अपने पति को अपने शरीर पर धारण करती है, उसे देखें। उनके स्तनों के संपर्क में आने पर हार उनके स्तनों से टकराते हैं, जबकि सुंदर मुसब्बर-लकड़ी आदि की सुगंध उनमें से निकलती है।

47-54। अन्य महान संत जिनके मन हमेशा शुद्ध होते हैं और जो हवा खाते हैं (अर्थात निर्वाह करते हैं), एक महान (अर्थात बहुत पवित्र) भजन का उच्चारण करते हुए, तपस्या का अभ्यास किया: 'एक स्मरण (अर्थात) कृष्ण, जुनून को नष्ट करने का कौशल रखने वाले।' पन्द्रह अक्षरों के स्तोत्र का पाठ करने के बाद, महान ऋषियों ने अग्नि की पत्नी के साथ कृष्ण की आकृति का ध्यान किया, वह छवि जिसमें दिव्य आभूषण थे, जिसकी मांसल कमर एक सुंदर रेशमी वस्त्र से ढकी हुई थी, जिसकी शिखा मोर के पंखों से ढकी हुई थी, जिसका झुमके चमकीले थे, जिन्होंने बायीं टांग पर दाहिना कमल जैसा पैर रखा था, जो अपने आकर्षक कमल-समान हाथों को जोड़कर भटक रहा था, जिसने अपने कमर-क्षेत्र पर चलते हुए बांसुरी को अपने कवर के साथ रखा था, जिसने दिया उन ग्वालों की आँखों और मन को प्रसन्नता हुई, जिन्होंने बहुत ही आश्चर्यजनक ढंग से भरे हुए हॉल में प्रवेश किया था (अर्थात आच्छादित) चरवाहों द्वारा चारों ओर फूलों की वर्षा के साथ। फिर के अंत में अपने शरीर को फेंक दियाकल्प वे अब यहाँ पैदा हुए हैं। इनके कानों पर रत्नों से चमकते बड़े-बड़े कर्ण-कण दिखाई देते हैं। उनके गले में जड़े हुए हार हैं, और उनकी लटों में (पुट) फूल हैं।

55-59. शुचिश्राव नाम के एक ऋषि थे । सुवर्ण नामक एक अन्य ऋषि भी थे । वे, वेदों में पारंगत, कुशध्वज के पुत्र थे । अपने पैरों को ऊपर उठाकर (हवा में यानी सिर के बल खड़े होकर), उन्होंने तीन अक्षरों वाले भजन के साथ घोर तपस्या की। अपने मन को वश में करके वे 'हृं, हंस' कहकर बुदबुदाए । उन्होंने दस साल के बच्चे गोकुल में कृष्ण (जीवित) का ध्यान किया, और कामदेव जैसी अपनी आकृति और अपने आकर्षक यौवन के साथ, उन्हें देखने वाली सुंदर महिलाओं को लगातार लुभाते रहे। कल्प के अंत में, वे, अपने शरीर को त्याग कर, व्रज में चरवाहे सुवीरा की अत्यंत सुंदर बेटियों के रूप में पैदा हुए थे. उनके हाथों में शुभ स्वरों के दो तोते दिखाई दे रहे थे।

60-66ए. चार ऋषि थे- जमील , जंघपति, गिरताम और कर्बू- जो धन्य थे और यहां और (अर्थात) अगले संसार में थे। एक भक्ति के साथ उन्होंने (कृष्ण) चरवाहों के प्रेमी की शरण मांगी। पानी में डुबकी लगाते हुए, उन्होंने शुरुआत और अंत में (कृष्ण के) स्मरण के साथ दस अक्षरों वाला एक भजन गाया, और राम के त्रय द्वारा एक साथ रखा । चरवाहों के रूप में, उन्होंने गहन भक्ति के साथ (कृष्ण) का ध्यान किया, जो हर जंगल में भटक रहे थे, जो आकर्षक का मूल्यांकन कर रहे थे, जिनके पूरे शरीर पर चन्दन लगा हुआ था, जिन्होंने एक चीन पहन रखा था।एक कान के आभूषण के रूप में गुलाब, जो कमल की एक माला के कारण बदल गया था, और नीले और पीले रंग के वस्त्रों से ढका हुआ था। तीन कल्पों के अंत में वे शुभ चिह्नों के गोकुल (गायों के रूप में) में पैदा हुए थे। घुमावदार भौहें वाले आकर्षक लोग सामने बैठे हैं। उनके अग्रभागों को गोल (अर्थात अलंकृत) रत्नों आदि और दिव्य मोती आदि द्वारा समर्थित सुंदर कंगन हैं।

66बी-73. पूर्व कल्प में एक ऋषि नाम दिर्घताप व्यास था । उनका उत्कृष्ट और बहुत बुद्धिमान लड़का, हमेशा (कृष्ण के) चरणों को याद करते हुए, अपने पिता, माता आदि को त्याग दिया और कृष्ण का ध्यान करते हुए एक जंगल में चला गया। वहाँ उन्होंने रात-दिन, बिना कुछ खाए-पिए भगवान विष्णु की पूजा की, जिन्होंने गाय (-झुंड) का रूप धारण किया था। बड़ी भक्ति के साथ, राम द्वारा एक साथ रखे गए अठारह अक्षरों के स्तोत्र का उच्चारण करते हुए, उन्होंने हरि पर विचार कियाजो स्वर्ण आसन पर स्वर्ण मंडप में विराजमान था, जो अपने स्वर्णिम हाथों की युक्तियों के साथ एक स्वर्ण बांसुरी धारण किए हुए था, जो अपने दाहिने हाथ से एक स्वर्ण कमल का चक्कर लगा रहा था, जो अपने प्रिय प्रिय के शरीर के कारण आकर्षक लग रहा था। एक स्वर्ण वर्ण, जो बड़े आनन्द से हँस रहा था और जो अपने आश्रम को देख रहा था। वह हर्ष के आंसुओं से भरा हुआ, अपने शरीर के साथ भयावहता से अलंकृत, जोर से कह रहा था, 'हे प्रभु, प्रसन्न हो', और कांपते हुए, दुनिया के निर्माता को साष्टांग प्रणाम करने के लिए जमीन पर गिर गया।

74-79. जोर से कहते हुए 'मैं थक गया हूँ', विष्णु ने खुशी से भरी आँखों से, भक्ति चाहने वाले का हाथ पकड़कर, जिसने खुद को (उनके सामने) एक कर्मचारी की तरह (उनके सामने) एक लाठी की तरह छुआ, उसे छुआ और उस शुक से बात की, जिसने अपने प्रिय का रूप प्राप्त किया था: "हे अच्छे, तुम मेरे प्रिय हो। मेरे रूप का विचार करके और मेरे प्रेम का धाम बन कर मेरे पास रहो।" दो चरवाहे प्रमुख हैं, एक ही उम्र के हैं, और शुभ हैं। वे एक स्थिर व्रत का पालन कर रहे हैं, एक दृढ़ भक्ति के हैं, और उसी नक्षत्र के नाम पर रखे गए हैं। एक गर्म सोने की तरह चमकीला है और दूसरे में बिजली की चमक है। एक की आंखें नींद में हैं, (जबकि) दूसरे की आंखें प्रसन्न और लंबी (यानी चौड़ी) हैं। उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ विष्णु के बाएँ और दाएँ पक्ष की पूजा की; और कल्प के अंत में, वह, अपने शरीर को त्याग कर, उपानंद की बेटी के रूप में पैदा हुआ था, जो सुंदरता में एक नीले कमल की पंखुड़ी के समान थी, उस महान के गोकुल में।

80-9ला। वह श्रीकृष्ण की पत्नी हैं, जिन्होंने पीले वस्त्र धारण किए हैं, जो लाल चोली से ढकी हुई हैं, जिनके स्तन सोने के घड़े के समान हैं, जिन्होंने अपने पूरे शरीर पर लाल शीशे का पर्दा लगा रखा है, जिनके गाल सुनहरे कानों से चमक रहे हैं- अंगूठियां, और कौन बहुत सुंदर है। वह सोने के कमल की माला से सुशोभित है, और उसके कठोर स्तनों को केसर के साथ लिप्त किया गया है। उसके हाथ में चबाने के लिए कुछ है, जो उसे हरि ने दिया था। वह एक बांसुरी और (अन्य) संगीत वाद्ययंत्र बजाने में बहुत कुशल है; वह केशव (अर्थात श्री कृष्ण) की परिचारक है, और कुछ समय प्रसन्न कृष्ण द्वारा गायन में लगी रहती है। गुंजन की एक शुभ स्ट्रिंगउसके शंख-समान गले में फल चमकते हैं। (वह) कृष्ण के आकर्षण के कारण उनकी अनुपस्थिति में भी प्रेम से पीड़ित है; (कृष्ण) इस युवती को अपनी पसंद के कपड़े पहनाने के लिए, उसे बहुत मधुर गायन, नृत्य, जब उसके दोस्त संगीत वाद्ययंत्र बजा रहे हों। बार-बार, वह भक्तिपूर्वक गोविंदा को गले लगाती और चूमती है । वह सभी ग्वालों को प्रिय है और कृष्ण को भी बहुत प्रिय है । (तब) श्वेतकेतु का पुत्र था । उन्होंने वेदों और वेदांगों में महारत हासिल की थी । यह सब त्याग कर उसने घोर तपस्या की। उन्होंने लगातार ग्यारह-अक्षर वाले भजन का उच्चारण किया, उनका ध्यान करते हुए, जिन्होंने कृष्ण के चरणों की सेवा की थी, जो मधुर गंगा की तरह प्रतिध्वनित थे, जो गोविंदा की प्रिय शक्ति थे, जो ब्रह्मा के लिए दुर्गम थे।रुद्र आदि, जो भक्तिपूर्वक (कृष्ण) की आकर्षक महिमा का सहारा ले रहे थे। हर किसी को हंसाते हुए, खुद को वन पथ पर रखते हुए, और मुस्कुराते हुए दुनिया को चारों ओर से बसाते हुए, हमेशा भजन के अर्थ के बारे में सोचते हुए, वह वसंत ऋतु में रहता था।

91बी-100. उन्होंने भी, कुछ कल्पों के बाद पूर्णता प्राप्त की, और यहीं उनका जन्म हुआ। यह दुबले-पतले शरीर वाली, कली के समान स्तनों वाली, गले में मोतियों की माला, शुद्ध रेशमी वस्त्र धारण करने वाली, पायल, कंगन, बाजूबंद और मोतियों से जड़ी हुई अंगूठियों वाली यह बालिका बालक की भाँति कार्य करती है। उसने दिव्य कान की बालियां पहन रखी थीं जो अमृत से निकल रही थीं और शुभ थीं। उसकी चोटी में लाल सीसे की बिंदी जैसा (एक निशान) था जो कस्तूरी से सजी थी। उसके माथे पर उसके (सांप्रदायिक) चंदन के निशान के साथ एक निशान था। वही शांत व्यक्ति सर्वोच्च पद (अर्थात ब्रह्म) की पूजा करते देखा गया। चन्द्रप्रभा नाम का एक सुंदर शाही ऋषि था. कृष्ण की कृपा से उन्हें एक आकर्षक आकृति वाले पुत्र की प्राप्ति हुई । वह चित्रध्वज के नाम से जाने जाते थे और बचपन से ही विष्णु के भक्त थे। राजा ने अपने अच्छे पुत्र, जो सुन्दर, सुगठित और बारह वर्ष का था, को एक ब्राह्मण के माध्यम से अठारह अक्षरों का महान भजन सिखाया । जब बालक पर अमृतमय स्तुति का जल छिड़का जा रहा था, उसी क्षण आंसुओं से भरकर उसने राजा को प्रणाम किया। उस दिन निर्मल हृदय का निष्कलंक बालक हार, पायल, तार, गले-आभूषण, बाजूबंद और कंगन से अलंकृत, विष्णु की भक्ति को स्पर्श (अर्थात् पूर्ण) करके, विष्णु के मंदिर में गया, (वहां) बिल्कुल अकेला रहा, और सोचा:

101-107ए. 'मैं उनकी पूजा कैसे करूं (उनके भक्तों द्वारा), जो चरवाहों को मोहित करते हैं और हमेशा उनके साथ कालिंदी के रेत-किनारे पर खेलते हैंऔर जंगल में।' इस प्रकार सोचने वाले बालक ने मन ही मन व्याकुल होकर बहुत बड़ी विद्या प्राप्त की और स्वप्न भी देखा। उनसे पहले कृष्ण की आकृति थी । यह खूबसूरत था। यह पत्थर से बना था। यह एक सुनहरी सीट पर (रखा) गया था। यह सभी (अच्छे) विशेषताओं के साथ चिह्नित किया गया था। वह नीले कमल के समान काला था। इसमें चमकदार सुंदरता थी। इसे मोर के पंखों से सजाया गया था। तीन तहों के कारण उसमें आकर्षण था; वह आनन्द से उस बाँसुरी पर बज रहा था जो सोने की बनी थी और उसके निचले होंठ पर लगाई गई थी। इसके बायीं और दायीं ओर खड़ी दो खूबसूरत युवतियों ने इसकी सेवा की। इसने चुंबन के साथ उनके जुनून को बढ़ा दिया। आलिंगन आदि। चित्रध्वज, कृष्ण को इस तरह एक खेल पोशाक पहने हुए देखकर, उनके मन में आहत हुए, और उनके सामने अपना सिर झुका लिया।

107बी-116. हरि ने हंसते हुए अपनी दाहिनी ओर प्रिय से कहा: "हे कमल-नेत्र, एक युवा महिला का एक दिव्य, अद्भुत रूप उत्पन्न करने के बाद, आप के समान और बहुत ही शर्मीले और अपने शरीर पर बैठे हुए, इसे गैर के रूप में देखें -अपने शरीर से अलग। आपके शरीर में चमक से छूकर यह आपका रूप धारण कर लेगा।" तब वह कमल-आंख वाला चित्रध्वज के पास गया, और अपने शरीर को उसके शरीर से अलग नहीं सोचता। तब उसके शरीर के तेजों ने उसके शरीर को भर दिया। उसके स्तनों की चमक से, बहुत आकर्षक, मोटे स्तन उत्पन्न हुए। उसके नितंबों की चमक से आकर्षक, गोल कूल्हों का निर्माण हुआ। केशों की चमक से अलंकृत बाल उत्पन्न होते थे। उसके दो हाथ (चमक) से, हाथ उत्पन्न हुए। इस प्रकार, सब कुछ-आभूषण, वस्त्र, माला आदि-अच्छी तरह से सिद्ध किया गया था। और अंदर सुगंध के साथ, वह कला में निपुण हो गई। एक दीपक के रूप में दूसरे से, पृथ्वी पर चित्रध्वज नाम की उस भाग्यशाली लड़की को देखकर, जो एक मुस्कान के साथ आकर्षक और सुंदर थी, उसने अपनी बाहों से उसे प्यार से पकड़ लिया और खुशी-खुशी उसे ले गई। और गोविंदा के बगल में खड़ी महिला को गले से लगाते हुए उसने कहा: “यह तुम्हारी दासी है। उसे एक नाम दें। प्यार से उसे बताओ, प्रिय, जो तुम्हें पसंद है, (क्या) सेवा (वह तुम्हारे साथ करे)।"

117-129ए. फिर, जैसा उसने पसंद किया, उसने अपना चित्रकला नाम दिया, और कहा: "हमारे जीवन के स्वामी की सेवा करने के लिए, गुणों से भरपूर, आप बांसुरी लेते हैं, हमेशा उनके पास रहते हैं, और विभिन्न स्वरों में गाते हैं। यह वह प्रथा है जो तुम्हें दी गई है।” तब चित्रकला ने आज्ञा का पालन करते हुए माधव को प्रणाम किया. अपनी प्रेमिका के पैर पकड़कर और उसके पैरों से धूल-कण ले कर (उसके सिर पर) उसने दोनों को आनंदित करते हुए बहुत मधुर गीत गाए। तब आनंद के अवतार कृष्ण ने उसे प्यार से गले लगा लिया । जब वह आनंद के सागर में पूरी तरह से (विलय) हो गई, तो वह जाग गई। चित्रध्वज, बड़े प्रेम से विजयी हुए, और केवल उस (कृष्ण) को याद करने के इरादे से, सर्वोच्च आनंद, एक स्वतंत्र आवाज (यानी स्वतंत्र रूप से) के साथ रोया। तब से वह भोजन और भोग-विलास छोड़कर, जो रो रहा था, अपने पिता आदि से बात करने के बावजूद, एक शब्द भी नहीं कहा। रात में कृष्ण का आश्रय लेते हुए, वे एक महीने तक अपने घर में रहे । (तब) बाहर (घर के) जंगल में जाकर, उन्होंने (वहां) तपस्या की, ऋषियों द्वारा अभ्यास करना मुश्किल था। एक कल्प के अंत में अपना शरीर डालने के बाद, वह महान ऋषि, केवल उनकी तपस्या के कारण, वेरागुप्त नाम के एक चरवाहे की चित्रकला नाम की शुभ पुत्री के रूप में पैदा हुई थी। उसके कंधे पर सात स्वरों से सजी एक मनमोहक लता सदैव दिखाई देती थी। उसके (उसके) बाएं (कंधे) पर गहनों के साथ एक अद्भुत सुनहरा घड़ा (अलंकृत) बना रहा। उसके दाहिने हाथ में, (उसके पास) एक गहना था। (तब) एक ऋषि थे,कश्यप के पुत्र का नाम पुष्यश्राव था, जो सभी कर्तव्यों को जानता था। उनके पिता शिव के भक्त थे , और हर रोज देवताओं के स्वामी, ब्रह्मांड के स्वामी (यानी शिव) की प्रशंसा करते थे जो अपने भक्तों से प्यार करते हैं।

129बी-134ए। पार्वती सहित शिव उससे प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे चौदहवें दिन (एक पखवाड़े के) मध्यरात्रि में एक वरदान दिया: "एक बच्चे के रूप में भी, आपका पुत्र कृष्ण का बहुत बड़ा भक्त होगा । अपने आठवें वर्ष में अपना धागा-समारोह करने के बाद, उन्हें इक्कीस अक्षर वाला भजन सिखाओ जो (इच्छा) मेरे द्वारा (आपको) बताया गया है। गोपाल - विद्या (गोपाल की विद्या) नामक यह भजन, शब्दों (जो कुछ भी व्यक्त किया जाता है) की शक्ति देता है। इसे करने वाले की जीभ के सिरे पर, कृष्ण का अद्भुत लेखा-जोखा रहता है। (उसे) वरदान देने वाले अनंत का स्वरूप स्वयं ही आता है। काममाया रामकण्ठ सेंद्रा दामोदरोज्वाला (अर्थात उज्ज्वल दामोदर ) शब्दों के साथ भजन का पाठ करना शुरू करनाइंद्र आदि के साथ ), फिर बीच में दस-अक्षर (भजन) का पाठ करते हुए, उन्हें फिर से उनका उल्लेख करना चाहिए।

134बी-147. दस अक्षरों से व्यक्त ऋषि-मुनियों आदि से किया हुआ ध्यान मैं आपको बताऊंगा। उसे अमृत के पूर्ण खजाने के प्रकाश से भरे द्वीप को याद करना चाहिए, और कालिंदी से घिरा हुआ है, (और) उसे वृंदावन के ग्रोव में उस पर चिंतन करना चाहिए । यह पेड़ों और लताओं से सभी मौसमों में फूल गिराता है, और (गूँजता हुआ) नाचने और नशे में धुत मोर और रोते हुए कोयल और (गुनगुनाते) मधुमक्खियों के रोने के साथ। इसमें एक महान पारिजात-वृक्ष है जो सौ योजन लंबा है और शाखाओं और टहनियों का विस्तार है। अपने बेदाग पैर में, बांसुरी धारण करने वाले युवा चरवाहेऔर सीरिंज ने एक घेरा बना लिया है, जो गायों के घेरे से घिरा हुआ है। इसके अंदर व्रज की सुंदर महिलाओं का एक आकर्षक चक्र था, जिनके हाथों में कई उपहार थे, जिनके मन उत्साही जुनून से दूर हो गए थे, जो उनके हाथों की हथेलियों में शामिल हो गए थे (नमस्कार में); यह उनका एक मंडल था, जिन्होंने श्वेत वस्त्र पहिने थे, जो चमकीले आभूषणों से अलंकृत थे, जिनके हृदय प्रेम से अभिभूत थे। वह श्रुति की पुत्रियों (अर्थात् पवित्र विधान) के प्रिय वचनों के बारे में सोचता। फिर वे गहना वेदी पर राधा के स्तनों पर लेटे हुए रेशमी वस्त्र से ढँके हरि के बारे में सोचते थे।एक केले के पेड़ के एक हिस्से पर, और उस पर एक आकर्षक मुस्कान के साथ उसके सुंदर चेहरे को देखते हुए, उसका बायां पैर थोड़ा मुड़ा हुआ था, अपने प्रेमी को बाएं हाथ से बांसुरी पकड़े हुए, उसकी ठुड्डी को अपने दाहिने हाथ से छूते हुए, चमकते हुए मोतियों से युक्त, सफेद कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें, पीले और बेदाग वस्त्र धारण किए हुए, मोरपंखों के भार (अर्थात् द्रव्यमान) से चमकीला सिर, मोतियों के हार के कारण आकर्षक, आकार के कान के छल्ले वाले गालों पर चमकते मगरमच्छ, पैरों तक तुलसी- माला (लटका हुआ), कंगन और बाजूबंद जैसे आभूषण, पायल, अंगूठियां और कमरबंद से सजाए गए, बहुत नाजुक होने के कारण, एक बच्चे की उम्र के होने के कारण; पूजा दस अक्षर की ही बताई गई है। दीक्षा संस्कार को शास्त्रों के साथ चिह्नित किया गया है।

148-154. इतना कहकर प्रभु गायब हो गए; इसी तरह देवी, ( हिमालय ) पर्वत की पुत्री और उनकी पवित्र पत्नी भी। (अपने) पुत्र के पास आकर ऋषि ने उसे ऐसा ही शिक्षा दी। पुष्यश्रवों ने सभी ऋषियों को परास्त करने के बाद, उनका (विभिन्न शब्दों में) वर्णन किया, जो रूप, सौंदर्य, चतुराई और आकर्षण जैसे अद्भुत चिह्नों वाले थे। तब लड़का मन ही मन प्रसन्न होकर अपने घर से निकल गया। 

वायुभक्षस्तपस्तेपे कल्पानामयुतत्रयम्
तदंते गोकुले जाता नंदभ्रातुर्गृहे स्वयम् १५१

हवा खाकर (अर्थात निर्वाह) उन्होंने तीन असंख्य कल्पों की तपस्या की। इसके अंत में उनका जन्म गोकुल में नंद  के भाई के घर में हुआ था  ।

उसका नाम लवंगा था। उसन (अर्थात वह जानता था) कृष्ण के आंतरिक विचार । उसके हाथ में वह तंत्र दिखाई दे रहा है जिससे चेहरा धोया गया था। इस प्रकार मैंने आपको कृष्ण के कुछ प्रमुख प्रिय लोगों के बारे में बताया है । वह पुरुष, जो कृष्ण के अनेक सुखों से भरे हुए इस अध्याय को ब्रज में उत्कृष्ट लड़कियों के साथ पढ़ता है या पढ़ता है, आकर्षक और मुस्कुराती आँखों वाला, भगवान श्री वासुदेव के निवास में जाता है ।

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पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः ०७३

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अध्यायः ०७३
वेदव्यासः
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ईश्वर उवाच-
यत्त्वया पृष्टमाश्चर्यं तन्मया भाषितं क्रमात्
यत्र मुह्यंति ब्रह्माद्यास्तत्र को वा न मुह्यति १
तथापि ते प्रवक्ष्यामि यदुक्तं परमर्षिणा
महाराजमंबरीषं विष्णुभक्तं शिवान्वितम् २
बदर्याश्रममासाद्य समासीनं जितेंद्रियम्
राजा प्रणम्य तुष्टाव विष्णुधर्मविवित्सया ३
वेदव्यासं महाभागं सर्वज्ञं पुरुषोत्तमम्
मां त्वं संसारदुष्पारे परित्रातुमिहार्हसि ४
विषयेषु विरक्तोऽस्मि नमस्तेभ्यो नमोखिलम्
यत्तत्पदमनुद्विग्नं सच्चिदानंदविग्रहम् ५
परं ब्रह्म पराकाशमनाकाशमनामयम्
यत्साक्षात्कृत्य मुनयो भवांभोधिं तरंति हि ६
तत्राहं मनसो नित्यं कथं गतिमवाप्नुयाम्
व्यास उवाच-
अतिगोप्यं त्वया पृष्टं यन्मया न शुकं प्रति ७
गदितं स्वसुतं किंतु त्वां वक्ष्यामि हरिप्रियम्
आसीदिदं परं विश्वं यद्रूपं यत्प्रतिष्ठितम् ८
अव्याकृतमव्यथितं तदीश्वरमयं शृणु
मया कृतं तपः पूर्वं बहुवर्षसहस्रकम् ९
फलमूलपलाशांबु वाय्वाहारनिषेविणा
ततो मामाहभगवान्स्वध्याननिरतं हरिः १०
कस्मिन्नर्थे चिकीर्षाते विवित्सा वा महामते
प्रसन्नोऽस्मि वृणुष्व त्वं वरं च वरदर्षभात् ११
मद्दर्शनांतः संसार इति सत्यं ब्रवीमि ते
ततोऽहमब्रुवं कृष्णं पुलकोत्फुल्लविग्रहः १२
त्वामहं द्रष्टुमिच्छामि चक्षुर्भ्यां मधुसूदन
यत्तत्सत्यं परं ब्रह्म जगज्ज्योतिं जगत्पतिम् १३
वदंति वेदशिरसश्चाक्षुषं नाथमद्भुतम्
श्रीभगवानुवाच-
ब्रह्मणैवं पुरा पृष्टः प्रार्थितश्च यथा पुरा १४
यदवोचमहं तस्मै तत्तुभ्यमपि कथ्यते
मामेके प्रकृतिं प्राहुः पुरुषं च तथेश्वरम् १५
धर्ममेके धनं चैके मोक्षमेकेऽकुतोभयम्
शून्यमेके भावमेके शिवमेके सदाशिवम् १६
अपरे वेदशिरसि स्थितमेकं सनातनम्
सद्भावं विक्रियाहीनं सच्चिदानंदविग्रहम् १७
पश्याद्य दर्शयिष्यामि स्वरूपं वेदगोपितम्
ततोऽपश्यं भूपबालमहं कालांबुदप्रभम् १८
गोपकन्यावृतं गोपं हसंतं गोपबालकैः
कदंबमूलआसीनं पीतवाससमद्भुतम् १९
वनं वृंदावनं नाम नवपल्लवमंडितम्
कोकिलभ्रमरारावं मनोभव मनोहरम् २०
नदीमपश्यं कालिंदीमिंदीवरदलप्रभाम्
गोवर्द्धनमथापश्यं कृष्णरामकरोद्धृतम् २१
महेंद्रदर्पनाशाय गोगोपालसुखावहम्
गोपालमबलासंगमुदितं वेणुवादिनम् २२
दृष्ट्वातिहृष्टो ह्यभवं सर्वभूषणभूषणम्
ततो मामाह भगवान्वृंदावनचरः स्वयम् २३
यदिदं मे त्वया दृष्टं रूपं दिव्यं सनातनम्
निष्कलं निष्क्रियं शांतं सच्चिदानंदविग्रहम् २४
पूर्णं पद्मपलाशाक्षं नातः परतरं मम
इदमेववदंत्येतेवेदाःकारणकारणम् २५
सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम्
नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा २६
यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः
ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः २७
ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः
सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः २८
मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम्
ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम् २९
काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः
वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ३०
कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम्
भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ३१
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः
देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ३२
गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः
कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ३३
वनमानंदकाख्यं हि महापातकनाशनम्
सिद्धाश्च साध्या गंधर्वाः कोकिलाद्या न संशयः ३४
केचिदानंदहृदयं साक्षाद्यमुनया तनुम्
अनादिर्हरिदासोऽयं भूधरो नात्र संशयः ३५
वेणुर्यः शृणुतं विप्रं तवापि विदितं तथा
द्विज आसीच्छांतमनास्तपः शांतिपरायणः ३६
नाम्ना देवव्रतोदांतः कर्मकांडविशारदः
स वैष्णवजनव्रातमध्यवर्त्ती क्रियापरः ३७
स कदाचन शुश्राव यज्ञेशोऽस्तीति भूपते
तस्य गेहमथाभ्यागाद्द्विजो मद्गतनिश्चयः ३८
स मद्भक्तः क्वचित्पूजां तुलसीदलवारिणा
कृतवांस्तद्गृहे किंचित्फलं मूलं न्यवेदयत् ३९
स्नानवारिफलं किंचित्तस्मै मत्या ददौ सुधीः
अश्रद्धया स्मितं कृत्वा सोऽप्यगृह्णाद्द्विजन्मनः ४०
तेन पापेन संजातं वेणुत्वमतिदारुणम्
तेन पुण्येन तस्याथ मदीय प्रियतां गतः ४१
अमुना सोपि राजेंद्र केतुमानिव राजते
युगांते तद्विष्णुपरो भूत्वा ब्रह्म समाप्स्यति ४२
अहो न जानंति नरा दुराशयाः पुरीं मदीयां परमां सनातनीम्
सुरेंद्र नागेंद्र मुनींद्र संस्तुतां मनोरमां तां मथुरां पुरातनीम् ४३
काश्यादयो यद्यपि संति पुर्यस्तासां तु मध्ये मथुरैव धन्या
यज्जन्ममौंजीव्रतमृत्युदाहैर्नृणां चतुर्द्धा विदधाति मुक्तिम् ४४
यदा विशुद्धास्तपआदिना जनाः शुभाशया ध्यानधना निरंतरम्
तदैव पश्यंति ममोत्तमां पुरीं न चान्यथा कल्पशतैर्द्विजोत्तमाः ४५
मथुरावासिनो धन्या मान्या अपि दिवौकसाम्
अगण्यमहिमानस्ते सर्व एव चतुर्भुजाः ४६
मथुरावासिनो ये तु दोषान्पश्यंति मानवाः
तेषु दोषं न पश्यंति जन्ममृत्युसहस्रजम् ४७
अधना अपि ते धन्या मथुरां ये स्मरंति ते
यत्र भूतेश्वरो देवो मोक्षदः पापिनामपि ४८
मम प्रियतमो नित्यं देवो भूतेश्वरः परः
यः कदापि मम प्रीत्यै न संत्यजति तां पुरीम् ४९
भूतेश्वरं यो न नमेन्न पूजयेन्न वास्मरेद्दुश्चरितो मनुष्यः
नैनां स पश्येन्मथुरां मदीयां स्वयंप्रकाशां परदेवताख्याम् ५०
न कथं मयि भक्तिं स लभते पापपूरुषः
यो मदीयं परं भक्तं शिवं संपूजयेन्नहि ५१
मन्मायामोहितधियः प्रायस्ते मानवाधमाः
भूतेश्वरं न नमंति न स्मरंति स्तुवंति ये ५२
बालकोऽपि ध्रुवो यत्र ममाराधनतत्परः
प्राप स्थानं परं शुद्धं यत्नयुक्तं पितामहैः ५३
तां पुरीं प्राप्य मथुरां मदीयां सुरदुर्लभाम्
खंजो भूत्वांधको वापि प्राणानेव परित्यजेत् ५४
वेदव्यासमहाभाग मा कृथाः संशयं क्वचित्
रहस्यं वेदशिरसां यन्मया ते प्रकाशितम् ५५
इमं भगवता प्रोक्तमध्यायं यः पठेच्छुचिः
शृणुयाद्वापि यो भक्त्या मुक्तिस्तस्यापि शाश्वती ५६
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनादिमथुरामाहात्म्य-
कथनंनाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ७३


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पद्म पुराण


यह पृष्ठ मथुरा की महानता का वर्णन करता है, जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 73 है, 

प्रभु ने कहा :

1-6. मैंने आपको (उचित) क्रम में बताया है, जिस आश्चर्य के बारे में आपने मुझसे पूछा था। वहाँ कौन स्तब्ध नहीं है, जहाँ ब्रह्मा और अन्य स्तब्ध हैं? फिर भी मैं आपको बताऊंगा कि महान ऋषि ( व्यास ) ने शिव से जुड़े विष्णु के एक भक्त अंबरीश से क्या कहा था । राजा, बदरयाश्रम में आकर, वैष्णव जीवन शैली, वेद-व्यास को जानने की इच्छा के साथ, नमस्कार और प्रशंसा कीजो वहाँ बैठा था, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया था, जो महान, सर्वज्ञ और मनुष्यों में श्रेष्ठ था: “कृपया मुझे इस सांसारिक अस्तित्व से बचाओ। मैं कामुक सुखों से न्यारा हूँ; मैं उन्हें सलाम करता हूं, मैं हर चीज को सलाम करता हूं। मैं हमेशा उस सर्वोच्च ब्रह्म का मानसिक सहारा कैसे प्राप्त करूंगा , जो निराशा से मुक्त स्थिति, शुभता, बुद्धि और आनंद का एक रूप है, उच्चतम आकाश, ईथर की अनुपस्थिति, जो स्वस्थ है, और जिसे देखकर ऋषि समुद्र पार करते हैं सांसारिक अस्तित्व?"

व्यास ने कहा :

7-14ए। आपने मुझसे एक महान रहस्य पूछा है। मैंने यह (यहां तक) मेरे बेटे लुका को नहीं बताया है , जो आपने मुझसे पूछा है। लेकिन जो लोग विष्णु को प्रिय हैं, उन्हें मैं आपको बताऊंगा। सुनो, यह महा जगत् उन्हीं के स्वरूप का था, उन्हीं में स्थित था। वह अव्यक्त था, दर्द से मुक्त; यह प्रभु से भरा था। पूर्व में, मैंने फल, जड़, पलाश- पत्ती, जल और वायु पर निर्वाह कर कई हजार वर्षों तक तपस्या की। तब विष्णु ने मुझसे कहा जो उस पर ध्यान में लगा हुआ था: "हे बहुत बुद्धिमान, तुम क्या करना चाहते हो, या तुम क्या जानना चाहते हो? मैं खुश हूँ; (मुझ से) वर मांगो जो वर देने वालों में श्रेष्ठ है। मैं तुमसे सच कहता हूं कि सांसारिक अस्तित्व तब तक रहता है जब तक मेरे दर्शन नहीं हो जाते।" फिर, अपने शरीर को भयावहता से भरकर, मैंने कृष्ण से कहा : "ओमधुसूदन , मैं आपको अपनी भौतिक आंखों से देखना चाहता हूं, जिन्हें प्रमुख वेदों ने सत्य, सर्वोच्च ब्रह्म, विश्व का प्रकाश, विश्व के स्वामी, अद्भुत दृश्य स्वामी के रूप में वर्णित किया है।

प्रभु ने कहा :

14बी-19. मुझसे पहले ब्रह्मा ने पूछा था और उन्होंने मुझसे अनुरोध किया था। जो कुछ मैं ने उस से कहा था, वह मैं तुझे भी बताऊंगा। कुछ लोग मुझे प्रकृति के रूप में वर्णित करते हैं ( अर्थात आदिम पदार्थ); कुछ लोग मुझे पुरुष , भगवान कहते हैं। कुछ लोग मुझे धर्म कहते हैं (अर्थात धर्मपरायणता); कुछ मुझे धन कहते हैं; कोई मुझे मोक्ष (अर्थात् मोक्ष) कहते हैं, जहां कहीं से भय नहीं होता। कुछ मुझे शून्य कहते हैं। कोई मुझे भक्ति कहता है। कुछ मुझे सदाशिव कहते हैं । दूसरों ने मुझे वेदों के शीर्ष पर, एक अच्छे स्वभाव के, बिना किसी बदलाव के, और अच्छाई, बुद्धि और आनंद के रूप में शेष एकमात्र शाश्वत के रूप में वर्णित किया। देखो, आज मैं तुम्हें वेदों में छिपा हुआ अपना रूप दिखाऊंगा।

तब मैंने देखा, हे राजा, एक लड़का जो काले बादल की तरह था, जो ग्वालों से घिरा हुआ था, जो ग्वालों के साथ हँस रहा था, जो कदंब के पेड़ की जड़ पर बैठा था, जिसने पीले वस्त्र पहने हुए थे, और था कमाल है।

20-23ए। (मैंने भी देखा) वृंदावन नाम का एक उपवन , जो ताजे पत्तों से सुशोभित था, जो कोयल के स्वरों से गूंज रहा था, जो कामदेव (की उपस्थिति) के कारण आकर्षक था। मैंने (भी) कालिंदी नदी देखी, जिसमें नीले कमल की पंखुड़ियों का रंग था। मैंने गोवर्धन (पहाड़) को भी देखा, जो कृष्ण और बलराम के हाथों में था, महान इंद्र के अभिमान को नष्ट करने के लिए और जो चरवाहों को आनंद देता था। मैंने उस चरवाहे (अर्थात् कृष्ण) को देखा जो महिलाओं की संगति में खुश था और जो बांसुरी बजा रहा था । सभी आभूषणों के आभूषण उन्हें देखकर मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ।

23बी-29ए. तब भगवान् ने वृन्दावन उपवन में भ्रमण करते हुए स्वयं मुझसे कहा: "मेरा कोई बड़ा रूप नहीं है, जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, कर्महीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद के रूप में पूर्ण है। , जिसकी आंखें पूर्ण रूप से खिले हुए कमल की पंखुडि़यों जैसी हैं, जिसे आपने (अभी) देखा है। वेदों में इसे ही कारण का कारण बताया गया है, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद रूप है, बुद्धि का एक समूह, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो, वैसे ही वृन्दावन भी; इसी तरह (अनन्त होने के लिए जानो) यमुना , चरवाहे और चरवाहे। मेरा यह अवतार शाश्वत है। इसमें कोई शंका न करें। राधा:मुझे हमेशा प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महान से बड़ा हूं। मेरी सारी मनोकामनाएं (पूरी हुई) हैं, मैं सभी का स्वामी हूं, मैं सभी आनंद और महान से बड़ा हूं। मुझमें यह सारा ब्रह्मांड प्रकट होता है, जो (मेरी) माया (भ्रम) द्वारा फैला हुआ है ।"

29बी-31ए. तब मैंने प्रभु से, जो जगत के कारण का कारण है, कहा: “वे चरवाहे कौन हैं? चरवाहे क्या हैं? यह किस तरह का पेड़ कहा जाता है? ग्रोव कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह कुलीन (जो बन गया है) बांसुरी कौन है, सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान?

31बी-36ए. भगवान, प्रसन्न और अपने कमल जैसे चेहरे से प्रसन्न होकर, मुझसे कहा: “गवाहों को वेदों के रूप में जाना जाना चाहिए। चरवाहों की युवा बेटियों को cs (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। वे दिव्य कन्या हैं, हे राजा। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी चरवाहे ऋषि हैं, वैकुण्ठ में आनंद के रूप हैं । यह कदंब इच्छा देने वाला वृक्ष है, जो सर्वोच्च आनंद का पात्र है। उपवन को आनंद कहा जाता है , जो बड़े-बड़े पापों का नाश करता है। कोयल और अन्य सिद्ध , साध्य और गंधर्व हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है कुछ उनके हर्षित हृदय हैं, यमुना शरीर है । यह पर्वत विष्णु का सेवक है और इसका कोई आदि नहीं है। सुनिए कौन है बाँसुरी। हे ब्राह्मण:, आप इसे (होने के लिए) इस तरह जानते हैं।

36बी-54. एक शांत मन का एक ब्राह्मण था, जो तपस्या और सच्चाई में लगा हुआ था। उनका नाम देवव्रत था , और वे वेदों में वर्णित औपचारिक कृत्यों और यज्ञ संस्कारों में कुशल थे। विष्णु के भक्तों के बीच होने के कारण, वे (विभिन्न) संस्कारों में लगे हुए थे। हे राजा, एक बार उसने सुना कि यज्ञ का स्वामी (घर में उपस्थित) था। ब्राह्मण, मुझे देखने के लिए निर्धारित (देखने के लिए) अपने घर गए। मेरे उस भक्त ने अपने घर में एक तुलसी से (मेरी) पूजा की-पत्ती और पानी और मुझे कुछ (जैसे) एक फल और एक जड़ की पेशकश की। बुद्धिमान ने उसे प्यार से नहाने और फलों के लिए पानी दिया। बिना विश्वास के मुस्कुराते हुए उन्होंने भी इसे ब्राह्मण से स्वीकार कर लिया। उस पाप के कारण उन्हें एक बांस की अत्यंत भयंकर स्थिति प्राप्त हुई थी; और उस धार्मिक योग्यता के परिणामस्वरूप वह मुझे प्रिय हो गया। उस (गुण) के कारण, हे राजा, वह प्रमुख के रूप में चमकता है। आयु के अंत में, वह, विष्णु के साथ एक होने के कारण, ब्रह्म को प्राप्त करेगा। ओह, दुष्ट हृदय वाले लोग मेरे प्राचीन शहर को नहीं जानते हैं, जो महान है, जिसकी प्रशंसा देवताओं और नागों और ऋषियों द्वारा की जाती है, जो आकर्षक और पुराना है। हालांकि काशी जैसे शहर हैंउनमें से केवल मथुरा ही गुणी हैं; उसमें जन्म, धागा-समारोह, मृत्यु या दाह संस्कार मनुष्य को मोक्ष प्रदान करता है। जब मनुष्य तप आदि से शुद्ध हो जाते हैं, शुद्ध हृदय वाले होते हैं, और अपने धन के रूप में निरंतर ध्यान रखते हैं, तभी वे मेरे शहर को देखते हैं, अन्यथा नहीं, सैकड़ों कल्पों के बाद भी , हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों. मथुरा के निवासी धन्य हैं, और स्वर्गवासी भी उनका सम्मान करते हैं। उनकी महानता अतुलनीय है, और उन सभी के चार हाथ हैं। मथुरावासियों को हजारों जन्म-मरण के कारण उनमें कोई दोष नहीं दिखता जिनमें (अन्य) पुरुष दोष देखते हैं। जो गरीब भी हैं, लेकिन जो मथुरा को याद करते हैं, वे (सचमुच) धन्य हैं। वहाँ भगवान, प्राणियों के स्वामी, पापियों (जीवन) को भी मोक्ष देते हैं। प्राणियों का वह महान् स्वामी, जो मुझे सदा सबसे प्रिय है, मेरे स्नेह के कारण वह नगर कभी नहीं छोड़ता। वह बुरा आचरण करने वाला व्यक्ति जो प्राणियों के स्वामी को प्रणाम नहीं करेगा या उसकी पूजा नहीं करेगा, वह मेरे स्वयं के चमकते हुए शहर को नहीं देखेगा, जिसे महान देवता कहा जाता है। वह पापी आदमी कैसे होगा जो मेरे महान भक्त की पूजा नहीं करेगा, अर्थात। शिव, मेरी भक्ति प्राप्त करो? वे पुरुष जो प्राणियों के स्वामी को प्रणाम नहीं करते, उसे याद मत करो या उसकी स्तुति मत करो, उनके मन ज्यादातर मेरी माया (भ्रम) से भ्रमित हैं। यहां तक ​​कि लड़कामेरी पूजा करने में लगे ध्रुव ने एक पवित्र स्थान प्राप्त किया, जो पोते-पोतियों द्वारा कठिनाई से प्राप्त किया गया था। एक आदमी, लंगड़ा, या अंधा होने के कारण, मेरे शहर मथुरा में आएगा, जहां देवताओं तक पहुंचना मुश्किल था और वहां अपना जीवन लगा देगा।

55-56। हे गौरवशाली वेदव्यास , वेदों के सर्वश्रेष्ठ रहस्य के बारे में बिल्कुल भी संदेह न करें, जो मैंने आपको बताया है। वह, शुद्ध व्यक्ति, जो भगवान द्वारा वर्णित इस अध्याय को भक्ति के साथ पढ़ेगा या सुनेगा, उसे अनन्त मोक्ष प्राप्त होगा। ”


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पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः ०७४

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पद्मपुराणम्


                   ईश्वर उवाच-
एकदा रहसि श्रीमानुद्धवो भगवित्प्रियः
सनत्कुमारमेकांते ह्यपृच्छत्पार्षदः प्रभो १
यत्र क्रीडति गोविंदो नित्यं नित्यसुरास्पदे
गोपांगनाभिर्यत्स्थानं कुत्र वा कीदृशं परम् २
तत्तत्क्रीडनवृत्तांतमन्यद्यद्यत्तदद्भुतम्
ज्ञातं चेत्तव तत्कथ्यं स्नेहो मे यदि वर्त्तते ३
सनत्कुमार उवाच-
कदाचिद्यमुनाकूले कस्यापि च तरोस्तले
सुवृत्तेनोपविष्टेन भगवत्पार्षदेन वै ४
यद्रहोऽनुभवस्तस्य पार्थेनापि महात्मना
दृष्टं कृतं च यद्यत्तत्प्रसंगात्कथितं मयि ५
तत्तेऽहं कथयाम्येतच्छृणुष्वावहितः परम्
किंत्वेतद्यत्र कुत्रापि न प्रकाश्यं कदाचन ६
अर्जुन उवाच-
शंकराद्यैर्विरिंच्याद्यैरदृष्टमश्रुतं च यत्
सर्वमेतत्कृपांभोधे कृपया कथय प्रभो ७
किं त्वया कथितं पूर्वमाभीर्यस्तव वल्लभाः
तास्ताः कतिविधा देव कति वा संख्यया पुनः ८
नामानि कति वा तासां का वा कुत्र व्यवस्थिताः
तासां वा कति कर्माणि वयोवेषश्च कः प्रभो ९
काभिः सार्द्धं क्व वा देव विहरिष्यसि भो रहः
नित्ये नित्यसुखे नित्यविभवे च वने वने १०
तत्स्थानं कीदृशं कुत्र शाश्वतं परमं महत्
कृपा चेत्तादृशी तन्मे सर्वं वक्तुमिहार्हसि ११
यदपृष्टं मयाप्येवमज्ञातं यद्रहस्तव
आर्तार्तिघ्न महाभाग सर्वं तत्कथयिष्यसि १२
श्रीभगवानुवाच-
तत्स्थानं वल्लभास्ता मे विहारस्तादृशो मम
अपि प्राणसमानानां सत्यं पुंसामगोचरः १३
कथिते दृष्टुमुत्कंठा तव वत्स भविष्यति
ब्रह्मादीनामदृश्यं यत्किं तदन्य जनस्य वै १४
तस्माद्विरम वत्सैतत्किं नु तेन विना तव
एवं भगवतस्तस्य श्रुत्वा वाक्यं सुदारुणम् १५
दीनः पादांबुजद्वंद्वे दंडवत्पतितोऽर्जुनः
ततो विहस्य भगवान्दोर्भ्यामुत्थाप्य तं विभुः १६
उवाच परमप्रेम्णा भक्ताय भक्तवत्सलः
तत्किं तत्कथनेनात्र द्रष्टव्यं चेत्त्वया हि यत् १७
यस्यां सर्वं समुत्पन्नं यस्यामद्यापि तिष्ठति
लयमेष्यति तां देवीं श्रीमत्त्रिपुरसुंदरीम् १८
आराध्य परया भक्त्या तस्यै स्वं च निवेदय
तां विनैतत्पदं दातुं न शक्नोमि कदाचन १९
श्रुत्वैतद्भगवद्वाक्यं पार्थो हर्षाकुलेक्षणः
श्रीमत्यास्त्रिपुरादेव्या ययौ श्रीपादुकातलम् २०
तत्र गत्वा ददर्शैनां श्रीचिंतामणिवेदिकाम्
नानारत्नैर्विरचितैः सोपानैरतिशोभिताम् २१
तत्र कल्पतरुं नाना पुष्पैः फलभवैर्नतम्
सर्वर्त्तुकोमलदलैः स्नवन्माध्वीकशीकरैः २२
वर्षद्भिर्वायुनालोलैः पल्लवैरुज्ज्वलीकृतम्
शुकैश्च कोकिलगणैः सारिकाभिः कपोतकैः २३
लीलाचकोरकै रम्यैः पक्षिभिश्च निनादितम्
यत्र गुंजद्भृंगराज कोलाहलसमाकुलम् २४
मणिभिर्भास्वरैरुद्यद्दावानल मनोहरम्
श्रीरत्नमंदिरं दिव्यं तले तस्य महाद्भुतम् २५
रत्नसिंहासनं तत्र महाहैमाभिमोहनम्
तत्र बालार्कसंकाशां नानालंकारभूषिताम् २६
नवयौवनसंपन्नां सृणिपाशधनुः शरैः
राजच्चतुर्भुजलतां सुप्रसन्नां मनोहराम् २७
ब्रह्मविष्णुमहेशादि किरीटमणिरश्मिभिः
विराजितपदांभोजामणिमादिभिरावृताम् २८
प्रसन्नवदनां देवीं वरदां भक्तवत्सलाम्
अर्जुनोऽहमिति ज्ञातः प्रणम्य च पुनःपुनः २९
विहितांजलिरेकांते स्थितो भक्तिभरान्वितः
सा तस्योपासितं ज्ञात्वा प्रसादं च कृपानिधिः ३०
उवाच कृपया देवी तस्य स्मरणविह्वला
भगवत्युवाच-
किं वा दानं त्वया वत्स कृतं पात्राय दुर्लभम् ३१
इष्टं यज्ञेन केनात्र तपो वा किमनुष्ठितम्
भगवत्यमला भक्तिः का वा प्राक्समुपार्ज्जिता ३२
किं वास्मिन्दुर्लभं लोके किं वा कर्म शुभं महत्
प्रसादस्त्वयि येनायं प्रपन्ने च मुदा किल ३३
गूढातिगूढश्चानन्य लभ्यो भगवता कृतः
नैतादृङ्मर्त्यलोकानां न च भूतलवासिनाम् ३४
स्वर्गिणां देवतादीनां तपस्वीश्वरयोगिनाम्
भक्तानां नैव सर्वेषां नैव नैव च नैव च ३५
प्रसादस्तु कृतो वत्स तव विश्वात्मना यथा
तदेहि भज बुद्ध्वैव कुलकुंडं सरो मम ३६
सर्वकामप्रदा देवी त्वनया सह गम्यताम्
तत्रैव विधिवत्स्नात्वा द्रुतमागम्यतामिह ३७
तदैव तत्र गत्वा स स्नात्वा पार्थस्तथागतः
आगतं तं कृतस्नानं न्यासमुद्रार्पणादिकम् ३८
कारयित्वा ततो देव्या तस्य वै दक्षिणश्रुतौ
सद्यः सिद्धिकरी बाला विद्यानिगदिता परा ३९
हकारार्द्धपरा द्वीपा द्वितीया विश्वभूषिता
अनुष्ठानं च पूजां च जपं च लक्षसंख्यकम् ४०
कोरकैः करवीराणां प्रयोगं च यथातथम्
निर्वर्त्य तमुवाचेदं कृपया परमेश्वरी ४१
अनेनैव विधानेन क्रियतां मदुपासनम्
ततो मयि प्रसन्नायां तवानुग्रहकारणात् ४२
ततस्तु तत्र पर्य्यंतेष्वधिकारो भविष्यति
इत्ययं नियमः पूर्वं स्वयं भगवता कृतः ४३
श्रुत्वैवमर्जुनस्तेन वर्मणा तां समर्चयत्
ततः पूजां जपं चैव कृत्वा देवी प्रसादिता ४४
कृत्वा ततः शुभं होमं स्नानं च विधिना ततः
कृतकृत्यमिवात्मानं प्राप्तप्रायमनोरथम् ४५
करस्थां सर्वसिद्धिं च स पार्थः सममन्यत
अस्मिन्नवसरे देवी तमागत्य स्मितानना ४६
उवाच गच्छ वत्स त्वमधुना तद्गृहांतरे
ततः ससंभ्रमः पार्थः समुत्थाय मुदान्वितः ४७
असंख्यहर्षपूर्णात्मा दंडवत्तां ननाम ह
आज्ञप्तस्तु तया सार्द्धं देवी वयस्ययार्जुनः ४८
गतो राधापतिस्थानं यत्सिद्धैरप्यगोचरम्
ततश्च स उपादिष्टो गोलोकादुपरिस्थितम् ४९
स्थिरं वायुधृतं नित्यं सत्यं सर्वसुखास्पदम्
नित्यं वृंदावनं नाम नित्यरासमहोत्सवम् ५०
अपश्यत्परमं गुह्यं पूर्णप्रेमरसात्मकम्
तस्या हि वचनादेव लोचनैर्वीक्ष्य तद्रहः ५१
विवशः पतितस्तत्र विवृद्धप्रेमविह्वलः
ततः कृच्छ्राल्लब्धसंज्ञो दोर्भ्यामुत्थापितस्तया ५२
सांत्वनावचनैस्तस्याः कथंचित्स्थैर्यमागतः
ततस्तपः किमन्यन्मे कर्त्तव्यं विद्यते वद ५३
इति तद्दर्शनोत्कंठाभरेण तरलोऽभवत्
ततस्तया करे तस्य धृत्वा तत्पददक्षिणे ५४
प्रतिपेदे सुदेशेन गत्वा चोक्तमिदं वचः
स्नानायैतच्छुभं पार्थ विश त्वं जलविस्तरम् ५५
सहस्रदलपद्मस्थ संस्थानं मध्यकोरकम्
चतुःसरश्चतुर्धारमाश्चर्यकुलसंकुलम् ५६
अस्यांतरे प्रविश्याथ विशेषमिह पश्यसि
एतस्य दक्षिणे देश एष चात्र सरोवरः ५७
मधुमाध्वीकपानं यन्नाम्ना मलयनिर्झरः
एतच्च फुल्लमुद्यानं वसंते मदनोत्सवम् ५८
कुरुते यत्र गोविंदो वसंतकुसुमोचितम्
यत्रावतारं कृष्णस्य स्तुवंत्येव दिवानिशम् ५९
भवेद्यत्स्मरणादेव मुनेः स्वांते स्मरांकुरः
ततोऽस्मिन्सरसि स्नात्वा गत्वा पूर्वसरस्तटम् ६०
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम्
ततस्तद्वचनं श्रुत्वा तस्मिन्सरसि तज्जले ६१
कल्हारकुमुदांभोजरक्तनीलोत्पलच्युतैः
परागैरंजिते मंजुवासिते मधुबिंदुभिः ६२
तुंदिले कलहंसादि नादैरांदोलिते ततः
रत्नाबद्धचतुस्तीरे मंदानिलतरंगिते ६३
मग्ने जलांतः पार्थे तु तत्रैवांतर्दधेऽथ सा
उत्थाय परितो वीक्ष्य संभ्रांता चारुहासिनी ६४
सद्यः शुद्धस्वर्णरश्मिगौरकांततनूलताम्
स्फुरत्किशोरवर्षीयां शारदेंदुनिभाननाम् ६५
सुनीलकुटिलस्निग्धविलसद्रत्नकुंतलाम्
सिंदूरबिंदुकिरणप्रोज्ज्वलालकपट्टिकाम् ६६
उन्मीलद्भ्रूलताभंगि जितस्मरशरासनाम्
घनश्यामलसल्लोल खेलल्लोचनखंजनाम् ६७
मणिं कुंडलतेजोंशु विस्फुरद्गंडमण्डलाम्
मृणालकोमलभ्राजदाश्चर्यभुजवल्लरीम् ६८
शरदंबुरुहां सर्वश्रीचौरपाणिपल्लवाम्
विदग्धरचितस्वर्णकटिसूत्रकृतांतराम् ६९
कूजत्कांचीकलापांत विभ्राजज्जघनस्थलाम्
भ्राजद्दुकूलसंवीतनितंबोरुसुमंदिराम् ७०
शिंजानमणिमंजीरसुचारुपदपंकजाम्
स्फुरद्विविधकंदर्पकलाकौशलशालिनीम् ७१
सर्वलक्षणसंपन्नां सर्वाभरणभूषिताम्
आश्चर्यललनाश्रेष्ठामात्मानं सव्यलोकयत् ७२
विसस्मार च यत्किंचित्पौर्वदेहिकमेव च
मायया गोपिकाप्राणनाथस्य तदनंतरम् ७३
इति कर्त्तव्यतामूढा तस्थौ तत्र सुविस्मिता
अत्रांतरेंऽबरे धीर ध्वनिराकस्मिकोऽभवत् ७४
अनेनैव पथा सुभ्रु गच्छ पूर्वसरोवरम्
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम् ७५
तत्र संति हि सख्यस्ते मा सीद वरवर्णिनि
ता हि संपादयिष्यंति तत्रैव वरमीप्सितम् ७६
इति दैवीं गिरं श्रुत्वा गत्वा पूर्वसरोऽथ सा
नानापूर्वप्रवाहं च नानापक्षिसमाकुलम् ७७
स्फुरत्कैरवकह्लारकमलेंदीवरादिभिः
भ्राजितं पद्मरागैश्च पद्मसोपानसत्तटम् ७८
विविधैः कुसुमोद्दामैर्मंजुकुंजलताद्रुमैः
विराजितचतुस्तीरमुपस्पृश्य स्थिता क्षणम् ७९
तत्रांतरे क्वणत्कांची मंजुमंजीररंजितम्
किंकिणीनां झणत्कारं शुश्रावोत्कर्णसंपुटे ८०
ततश्च प्रमदावृंदमाश्चर्ययुतयौवनम्
आश्चर्यालंकृतिन्यासमाश्चर्याकृतिभाषितम् ८१
अद्भुतांगमपूर्वं सा पृथगाश्चर्यविभ्रमम्
चित्रसंभाषणं चित्रहसितालोकनादिकम् ८२
मधुराद्भुतलावण्यं सर्वमाधुर्यसेवितम्
चिल्लावण्यगतानंतमाश्चर्याकुलसुंदरम् ८३
आश्चर्यस्निग्धसौंदर्यमाश्चर्यानुग्रहादिकम्
सर्वाश्चर्यसमुदयमाश्चर्यालोकनादिकम् ८४
दृष्ट्वा तत्परमाश्चर्यं चिंतयंती हृदा कियत्
पादांगुष्ठेना लिखंती भुवं नम्रानना स्थिता ८५
ततस्तासां संभ्रमोऽभूद्दृष्टीनां च परस्परम्
केयं मदीयजातीया चिरेणानस्तकौतुका ८६
इति सर्वाः समालोक्य ज्ञातव्येयमिति क्षणम्
आमंत्र्य मंत्रणाभिज्ञाः कौतुकाद्द्रष्टुमागताः ८७
आगत्य तासामेकाथ नाम्ना प्रियमुदा मता
गिरा मधुरया प्रीत्या तामुवाच मनस्विनी ८८
प्रियमुदोवाच-
कासि त्वं कस्य कन्यासि कस्य त्वं प्राणवल्लभा
जाता कुत्रासि केनास्मिन्नानीता वा गता स्वयम् ८९
एतच्च सर्वमस्माकं कथ्यतां चिंतया किमु
स्थानेऽस्मिन्परमानंदे कस्यापि दुःखमस्ति किम् ९०
इति पृष्टा तया सा तु विनयावनतिं गता
उवाच सुस्वरं तासां मोहयंती मनांसि च ९१
अर्जुन उवाच-
का वास्मि कस्य कन्या वा प्रजाता कस्य वल्लभा
आनीता केन वा चात्र किं वाथ स्वयमागता ९२
एतत्किंचिन्न जानामि देवी जानातु तत्पुनः
कथितं श्रूयतां तन्मे मद्वाक्ये प्रत्ययो यदि ९३
अस्यैव दक्षिणे पार्श्वे एकमस्ति सरोवरम्
तत्राहं स्नातुमायाता जाता तत्रैव संस्थिता ९४
विषमोत्कंठिता पश्चात्पश्यंती परितो दिशम्
एकमाकाशसंभूतं ध्वनिमश्रौषमद्भुतम् ९५
अनेनैव पथा सुभ्रु गच्छ पूर्वसरोवरम्
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम् ९६
तत्र संति हि सख्यस्ते मा सीद वरवार्णिनि
ताहि संपादयिष्यंति तत्र ते वरमीप्सितम् ९७
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य तस्मादत्र समागता
विषादहर्षपूर्णात्मा चिंताकुलसमाकुला ९८
आगतास्य जलं स्पृष्ट्वा नानाविधशुभध्वनिम्
अश्रौषं च ततः पश्चादपश्यं भवतीः पराः ९९
एतन्मात्रं विजानामि कायेन मनसा गिरा
एतदेव मया देव्यः कथितं यदि रोचते १००
का यूयं तनुजाः केषां क्व जाताः कस्य वल्लभाः
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्याः सा वै प्रियमुदाब्रवीत् १०१
अस्त्वेवं प्राणसख्यः स्म तस्यैव च वयं शुभे
वृंदावनकलानाथ विहारदारिकाः सुखम् १०२
ता आत्ममुदितास्तेन व्रजबाला इहागताः
एताः श्रुतिगणाः ख्याता एताश्च मुनयस्तथा १०३
वयं बल्लवबाला हि कथितास्ते स्वरूपतः
अत्र राधापतेरंगात्पूर्वायाः प्रेयसीतमाः १०४
नित्या नित्यविहारिण्यो नित्यकेलि भुवश्चराः
एषा पूर्णरसा देवी एषा च रसमंथरा १०५
एषा रसालया नाम एषा च रसवल्लरी
रसपीयूषधारेयमेषा रसतरंगिणी १०६
रसकल्लोलिनी चैषा इयं च रसवापिका
अनंगसेना एषैव इयं चानंगमालिनी १०७
मदयंती इयं बाला एषा च रसविह्वला
इयं च ललिता नाम इयं ललितयौवना १०८
अनंगकुसुमा चैषा इयं मदनमंजरी
एषा कलावती नाम इयं रतिकला स्मृता १०९
इयं कामकला नाम इयं हि कामदायिनी
रतिलोला इयं बाला इयं बाला रतोत्सुका ११०
एषा चरति सर्वस्व रतिचिंतामणिस्त्वसौ
नित्यानंदाः काश्चिदेता नित्यप्रेमरसप्रदाः १११
अतःपरं श्रुतिगणास्तासां काश्चिदिमाः शृणु
उद्गीतैषा सुगीतेयं कलगीता त्वियं प्रिया ११२
एषा कलसुराख्याता बालेयं कलकंठिका
विपंचीयं क्रमपदा एषा बहुहुता मता ११३
एषा बहुप्रयोगेयं ख्याता बहुकला बला
इयं कलावती ख्याता मता चैषा क्रियावती ११४
अतःपरं मुनिगणास्तासां कतिपया इह
इयमुग्रतपा नाम एषा बहुगुणा स्मृता ११५
एषा प्रियव्रता नाम सुव्रता च इयं मता
सुरेखेयं मता बाला सुपर्वेयं बहुप्रदा ११६
रत्नरेखा त्वियं ख्याता मणिग्रीवा त्वसौ मता
सुपर्णा चेयमाकल्पा सुकल्पा रत्नमालिका ११७
इयं सौदामिनी सुभ्रूरियं च कामदायिनी
एषा च भोगदाख्या ता इयं विश्वमता सती ११८
एषा च धारिणी धात्री सुमेधा कांतिरप्यसौ
अपर्णेयं सुपर्णैषा मतैषा च सुलक्षणा ११९
सुदतीयं गुणवती चैषासौ कलिनी मता
एषा सुलोचना ख्याता इयं च सुमनाः स्मृता १२०
अश्रुता च सुशीला च रतिसुखप्रदायिनी
अतः परं गोपबाला वयमत्रागतास्तु याः १२१
तासां च परिचीयंतां काश्चिदंबुरुहानने
असौ चंद्रावली चैषा चंद्रिकेयं शुभा मता १२२
एषा चंद्रावली चंद्ररेखेयं चंद्रिकाप्यसौ
एषा ख्याता चंद्रमाला मता चंद्रालिकात्वियम् १२३
एषा चंद्रप्रभा चंद्रकलेयमबला स्मृता
एषा वर्णावली वर्णमालेयं मणिमालिका १२४
वर्णप्रभा समाख्याता सुप्रभेयं मणिप्रभा
इयं हारावली तारा मालिनीयं शुभा मता १२५
मालतीयमियं यूथी वासंती नवमल्लिका
मल्लीयं नवमल्लीयमसौ शेफालिका मता १२६
सौगंधिकेयं कस्तूरी पद्मिनीयं कुमुद्वती
एषैव हि रसोल्लासा चित्रवृंदा समा त्वियम् १२७
रंभेयमुर्वशी चैषा सुरेखा स्वर्णरेखिका
एषा कांचनमालेयं सत्यसंततिका परा १२८
एताः परिकृताः सर्वाः परिचेयाः परा अपि
सहितास्माभिरेताभिर्विहरिष्यसि भामिनि १२९
एहि पूर्वसरस्तीरे तत्र त्वां विधिवत्सखि
स्नापयित्वाथ दास्यामि मंत्रं सिद्धिप्रदायकम् १३०
इति तां सहसा नीत्वा स्नापयित्वा विधानतः
वृंदावनकलानाथ प्रेयस्या मंत्रमुत्तमम् १३१
ग्राहयामास संक्षेपाद्दीक्षाविधिपुरस्सरम्
परं वरुणबीजस्य वह्निबीजपुरस्कृतम् १३२
चतुर्थस्वरसंयुक्तं नादबिंदुविभूषितम्
पुटितं प्रणवाभ्यां च त्रैलोक्ये चातिदुर्ल्लभम् १३३
मंत्रग्रहणमात्रेण सिद्धिः सर्वा प्रजायते
पुरश्चर्याविधिर्ध्यानं होमसंख्याजपस्य च १३४
तप्तकांचनगौरांगीं नानालंकारभूषिताम्
आश्चर्यरूपलावण्यां सुप्रसन्नां वरप्रदाम् १३५
कल्हारैः करवीराद्यैश्चंपकैः सरसीरुहैः
सुगंधकुसुमैरन्यैः सौगंधिकसमन्वितैः १३६
पाद्यार्घ्याचमनीयैश्च धूपदीपैर्मनोहरैः
नैवेद्यैर्विविधैर्दिव्यैः सखीवृंदाहृतैर्मुदा १३७
संपूज्य विधिवद्देवीं जप्त्वा लक्षमनुं ततः
हुत्वा च विधिना स्तुत्वा प्रणम्य दंडवद्भुवि १३८
ततः सा संस्तुता देवी निमेषरहितांतरा
परिकल्प्य निजां छायां माययात्मसमीहया १३९
पार्श्वेऽथ प्रेयसीं तत्र स्थापयित्वा बलादिव
सखीभिरावृता हृष्टा शुद्धैः पूजाजपादिभिः १४०
स्तवैर्भक्त्या प्रणामैश्च कृपयाविरभूत्तदा
हेमचंपकवर्णाभा विचित्राभरणोज्ज्वला १४१
अंगप्रत्यंगलावण्य लालित्य मधुराकृतिः
निष्कलंक शरत्पूर्णकलानाथ शुभानना १४२
स्निग्धमुग्धस्मितालोक जगत्त्रयमनोहरा
निजया प्रभयात्यंतं द्योतयंती दिशो दश १४३
अब्रवीदथ सा देवी वरदा भक्तवत्सला
देव्युवाच-
मत्सखीनां वचः सत्यं तेन त्वं मे प्रिया सखी १४४
समुत्तिष्ठ समागच्छ कामं ते साधयाम्यहम्
अर्जुनी सा वचो देव्याः श्रुत्वा चात्ममनीषितम् १४५
पुलकांकुरमुग्धांगी बाष्पाकुलविलोचना
पपात चरणे देव्याः पुनश्च प्रेमविह्वला १४६
ततः प्रियंवदां देवीं समुवाच सखीमिमाम्
पाणौ गृहीत्वा मत्संगे समाश्वास्य समानय १४७
ततः प्रियंवदा देव्या आज्ञया जातसंभ्रमा
तां तथैव समादाय संगे देव्या जगाम ह १४८
गत्वोत्तरसरस्तीरे स्नापयित्वा विधानतः
संकल्पादिकपूर्वं तु पूजयित्वा यथाविधि १४९
श्रीगोकुलकलानाथमंत्रं तच्च सुसिद्धिदम्
ग्राहयामास तां देवी कृपया हरिवल्लभा १५०
व्रतं गोकुलनाथाख्यं पूर्वं मोहनभूषितम्
सर्वसिद्धिप्रदं मंत्रं सर्वतंत्रेषु गोपितम् १५१
गोविंदेरितविज्ञासौ ददौ भक्तिमचंचलाम्
ध्यानं च कथितं तस्यै मंत्रराजं च मोहनम् १५२
उक्तं च मोहने तंत्रे स्मृतिरप्यस्य सिद्धिदा
नीलोत्पलदलश्यामं नानालंकारभूषितम् १५३
कोटिकंदर्पलावण्यं ध्यायेद्रासरसाकुलम्
प्रियंवदामुवाचेदं रहस्यं पावनेच्छया १५४
श्रीराधिकोवाच-
अस्या यावद्भवेत्पूर्णं पुरश्चरणमुत्तमम्
तावद्धि पालयैनां त्वं सावधाना सहालिभिः १५५
इत्युक्त्वा सा ययौ कृष्णपादांबुरुहसन्निधिम्
छायामात्मभवामात्मप्रेयसीनां निधाय च १५६
तस्थौ तत्र यथापूर्वं राधिका कृष्णवल्लभा
अत्र प्रियंवदादेशात्पद्ममष्टदलं शुभम् १५७
गोरोचनाभिर्निर्माय कुंकुमेनापि चंदनैः
एभिर्नानाविधैर्द्रव्यैः संमिश्रैः सिद्धिदायकम् १५८
लिखित्वा यंत्रराजं च शुद्धं मंत्रं तमद्भुतम्
कृत्वा न्यासादिकं पाद्यमर्घ्यं चापि यथाविधि १५९
नानर्तुसंभवैः पुष्पैः कुंकुमैरपि चंदनैः
धूपदीपैश्च नैवेद्यैस्तांबूलैर्मुखवासनैः १६०
वासोलंकारमाल्यैश्च संपूज्य नंदनंदनम्
परिवारैः समं सर्वैः सायुधं च सवाहनम् १६१
स्तुत्वा प्रणम्य विधिवच्चेतसा स्मरणं ययौ
ततो भक्तिवशो देवो यशोदानंदनः प्रभुः १६२
स्मितावलोकितापांग तरंगिततरेंगितम्
उवाच राधिकां देवीं तामानय इहाशु च १६३
आज्ञप्ता चैव सा देवी प्रस्थाप्य शारदां सखीम्
तामानिनाय सहसा पुरोवासुरसात्मनः १६४
श्रीकृष्णस्य पुरस्तात्सा समेत्य प्रेमविह्वला
पपात कांचनीभूमौ पश्यंती सर्वमद्भुतम् १६५
कृच्छ्रात्कथंचिदुत्थाय शनैरुन्मील्य लोचने
स्वेदांभः पुलकोत्कंप भावभाराकुलासती १६६
ददर्श प्रथमं तत्र स्थलं चित्रं मनोरमम्
ततः कल्पतरुस्तत्र लसन्मरकतच्छदः १६७
प्रवालपल्लवैर्युक्तः कोमलो हेमदंडकः
स्फटिकप्रवालमूलश्च कामदः कामसंपदाम् १६८
प्रार्थकाभीष्टफलदस्तस्याधो रत्नमंदिरम्
रत्नसिंहासनं तत्र तत्राष्टदलपद्मकम् १६९
शंखपद्मनिधी तत्र स व्यापसव्यसंस्थितौ
चतुर्दिक्षु यथा स्थानं सहिताः कामधेनवः १७०
परितो नंदनोद्यानं मलयानिलसेवितम्
ऋतूनां चैव सर्वेषां कुसुमानां मनोहरैः १७१
आमोदैर्वासितं सर्वं कालागुरुपराजितम्
मकरंदकणावृष्टिशीतलं सुमनोहरम् १७२
मकरंदरसास्वाद मत्तानां भृंगयोषिताम्
वृंदशो झंकृतैः शश्वच्चैवं मुखरितांतरम् १७३
कलकंठी कपोतानां सारिकाशुकयोषिताम्
अन्यासां पत्रिकांतानां कलनादैर्निनादितम् १७४
नृत्यैर्मत्तमयूराणामाकुलं स्मरवर्द्धनम्
रसांबुसेकसंसृष्ट तमांजनतनुद्युतिम् १७५
सुस्निग्धनीलकुटिल कषायावासिकुंतलम्
मदमत्तमयूराद्य शिखंडाबद्धचूडकम् १७६
भृंगसेवितसव्योपक्रमपुष्पावतंसकम्
लोलालकालिविलसत्कपोलादर्शकाशितम् १७७
विचित्रतिलकोद्दाम भालशोभाविराजितम्
तिलपुष्पपतंगेश चंचुमंजुलनासिकम् १७८
चारुबिंबाधरं मंदस्मितदीपितमन्मथम्
वन्यप्रसूनसंकाश ग्रैवेयकमनोहरम् १७९
मदोन्मत्तभ्रमद्भृंगी सहस्रकृतसेवया
सुरद्रुमस्रजाराजन्मुग्धपीनांसकद्वयम् १८०
मुक्ताहारस्फुरद्वक्षः स्थलकौस्तुभभूषितम्
श्रीवत्सलक्षणं जानुलंबिबाहुमनोहरम् १८१
गंभीरनाभिपंचास्य मध्यमध्यातिसुंदरम्
सुजातद्रुमसद्वृत्त मदूरजानुमंजुलम् १८२
कंकणांगदमञ्जीरैर्भूषितं भूषणैः परैः
पीतांशुकलयाविष्ट नितंबघटनायकम् १८३
लावण्यैरपि सौंदर्यजितकोटिमनोभवम्
वेणुप्रवर्त्तितैर्गीतरागैरपि मनोहरैः १८४
मोहयंतं सुखांभोधौ मज्जयंतं जगत्त्रयम्
प्रत्यंगमदनावेशधरं रासरसालसम् १८५
चामरं व्यजनं माल्यं गंधंचंदनमेव च
तांबूलं दर्पणं पानपात्रं चर्वितपात्रकम् १८६
अन्यत्क्रीडाभवं यद्यत्तत्सर्वं च पृथक्पृथक्
रसालं विविधं यंत्रं कलयंतीभिरादरात् १८७
यथास्थाननियुक्ताभिः पश्यंतीभिस्तदिंगितम्
तन्मुखांभोजदत्ताक्षि चंचलाभिरनुक्रमात् १८८
श्रीमत्या राधिका देव्या वामभागे ससंभ्रमम्
आराधयंत्या तांबूलमर्पयंत्या शुचिस्मितम् १८९
समालोक्यार्जुनी यासौ मदनावेशविह्वला
ततस्तां च तथा ज्ञात्वा हृषीकेशोऽपि सर्ववित् १९०
तस्याः पाणिं गृहीत्वैव सर्वक्रीडावनांतरे
यथाकामं रहो रेमे महायोगेश्वरो विभुः १९१
ततस्तस्याः स्कंधदेशे प्रदत्तभुजपल्लवः
आगत्य शारदां प्राह पश्चिमेऽस्मिन्सरोवरे १९२
शीघ्रं स्नापय तन्वंगीं क्रीडाश्रांतां मृदुस्मिताम्
ततस्तां शारदा देवी तस्मिन्क्रीडासरोवरे १९३
स्नानं कुर्वित्युवाचैनां सा च श्रांता तथाकरोत्
जलाभ्यंतरमाप्तासौ पुनरर्जुनतां गतः १९४
उत्तस्थौ यत्र देवेशः श्रीमद्वैकुंठनायकः
दृष्ट्वा तमर्जुनं कृष्णो विषण्णं भग्नमानसम् १९५
मायया पाणिना स्पृष्ट्वा प्रकृतं विदधे पुनः
श्रीकृष्ण उवाच-
धनंजय त्वामाशंसे भवान्प्रियसखो मम १९६
त्वत्समो नास्ति मे कोपि रहोवेत्ता जगत्त्रये
यद्रहस्यं त्वया पृष्टमनुभूतं च तत्पुनः १९७
कथ्यते यदि तत्कस्मै शपसे मां तदार्जुन
सनत्कुमार उवाच-
इति प्रसादमासाद्य शपथैर्जातनिर्णयः १९८
ययौ हृष्टमनास्तस्मात्स्वधामाद्भुतसंस्मृतिः
इति ते कथितं सर्वं रहो यद्गोचरं मम १९९
गोविंदस्य तथा चास्मै कथने शपथस्तव
ईश्वर उवाच-
इति श्रुत्वा वचस्तस्य सिद्धिमौपगविर्गतः २००
नरनारायणावासं वृंदारण्यमुपाव्रजत्
तत्रास्तेऽद्यापि कृष्णस्य नित्यलीलाविहारवित् २०१
नारदेनापिपृष्टोऽहं नाब्रवं तद्रहस्यकम्
प्राप्तं तथापि तेनेदं प्रकृतित्वमुपेत्यच २०२
तुभ्यं यत्तु मया प्रोक्तं रहस्यं स्नेहकारणात्
तन्नकस्मैचिदाख्येयं त्वया भद्रे स्वयोनिवत् २०३
इमं श्रीभगवद्भक्तमहिमाध्यायमद्भुतम्
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स रतिं विंदते हरौ २०४
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे अर्जुन्यनुनयोनाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ७४


पद्म पुराण


यह पृष्ठ अर्जुन की इच्छा और उसकी पूर्ति का वर्णन करता है जो कि सबसे बड़े महापुराणों में से एक, पद्म पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 74 है, जिसमें प्राचीन भारतीय समाज, परंपराओं, भूगोल, साथ ही धार्मिक तीर्थों ( यात्रा ) को पवित्र स्थानों ( तीर्थों ) के बारे में बताया गया है। . यह पद्म पुराण के पाताल-खंड का चौहत्तरवाँ अध्याय है, 

अध्याय 74 - अर्जुन की इच्छा और उसकी पूर्ति

प्रभु ने कहा :

1-3. एक बार, अकेले में, गौरवशाली उद्धव , भगवान के प्रिय और उनके एक परिचारक ने सनत्कुमार से पूछा : "वह महान स्थान कहाँ है जो हमेशा देवताओं का निवास है, जहाँ गोविंदा हर रोज ग्वालों के साथ खेल करते हैं? अगर आपको मुझसे लगाव है तो मुझे (गोविंदा के) खेल का लेखा-जोखा बताएं और जो कुछ भी अद्भुत हो, अगर आप उसे जानते हों।

सनत्कुमार ने कहा :

4-6. जैसे ही अवसर आया, मैंने बताया है कि एक अच्छे व्रत के महान अर्जुन , और भगवान के परिचारक, किसी समय एक निश्चित पेड़ की जड़ में, युमुना के तट पर बैठे, क्या देखा और किया - अकेलेपन में उनका अनुभव . मैं आपको वह बता दूं। बड़े ध्यान से सुनें। लेकिन आपको इसे इधर-उधर (अर्थात कहीं भी) प्रकट नहीं करना है।

अर्जुन ने कहा :

7-12. हे दया के सागर, हे भगवान, मुझे वह सब बताने की कृपा करो जो शंकर और अन्य, इसलिए ब्रह्मा भीऔर दूसरों ने देखा या सुना नहीं है। आपने पहले क्या कहा है? ग्वालों की पत्नियाँ तुम्हें प्रिय हैं। उनके कितने प्रकार हैं? वे संख्या में कितने हैं? उनके कितने नाम हैं? वे कौन हैं? वे कहां हैं? वे कहाँ बसे हैं? उनके कर्म कितने (अर्थात क्या) हैं? हे भगवान, उनकी उम्र क्या है? उनकी पोशाक क्या है? हे प्रभु, आप किसके साथ और कहाँ एकांत में हर उस जंगल में खेलेंगे जो शाश्वत है, जिसमें शाश्वत सुख और शाश्वत भव्यता है? वह शाश्वत और महान स्थान कहाँ और किस प्रकार का है? यदि आप पर उस तरह की कृपा है (मुझ पर) तो कृपया वह सब मुझे बताएं। हे प्रतापी, हे दु:खी के क्लेश का नाश करने वाले, आप मुझे वह सब भेद बता देंगे, जो न तो मैंने पूछा है और न ही मुझे मालूम है।

प्रभु ने कहा :

13-29ए. वह मेरी जगह है। वही मेरे प्रिय हैं। ऐसा मेरा खेल है, जो मेरे अपने जीवन की तरह (मेरे लिए) पुरुषों के लिए भी अगोचर है। यह सच है। हे प्रिय, जब इसके बारे में बताया जाएगा, तो आप इसे देखने के लिए उत्सुक होंगे। दूसरे लोग कैसे हो सकते हैं, जब इसे ब्रह्मा और अन्य भी नहीं देख सकते हैं? इसलिए, हे प्रिय, (इसके बारे में पूछने से) दूर हो जाओ। उसके बिना क्या (आप हारते हैं)?

भगवान् के इन अत्यंत भयानक वचनों को सुनकर अर्जुन लाचार की तरह अपने दोनों चरणकमलों पर गिर पड़े। तब पूज्य भगवान ने अपने भक्तों के प्रति स्नेही, उन्हें अपने हाथों से उठाया और बड़े प्यार से उनसे कहा: “अब इसके बारे में बताने से क्या फायदा? क्योंकि आप इसे देखने जा रहे हैं। उस महिमामयी देवी त्रिपुरसुंदरी को, जिसमें सब कुछ आ गया है, बड़ी भक्ति से प्रसन्न होकर, अब भी रहती है और विलीन हो जाएगी, अपने आप को उसके सामने पेश करें। उसके बिना मैं तुम्हें यह पद कभी नहीं दे सकता।”

भगवान के इन वचनों को सुनकर, अर्जुन, प्रसन्नता से भरी आँखों से, गौरवशाली देवी त्रिपुरा के चरणों में गए । वहाँ जाकर उन्होंने मनोकामना दायक रत्न की वेदी देखी, जो विभिन्न रत्नों से सजी सीढि़यों से अलंकृत थी। वहाँ (उसने देखा) एक इच्छा देने वाला पेड़ जो कई फूलों और फलों से झुका हुआ था, और जो पत्ते के कारण चमकीला था, पत्ते, सभी मौसमों में कोमल और बहने वाले शहद के स्प्रे के साथ टपकता और हवा के कारण अस्थिर; जो (अर्थात् वृक्ष) तोतों, कोयलों के झुंड, सारिका से गूँज रहा थाऔर कबूतर, इसलिए स्पोर्टिव पार्ट्रिज और (अन्य) आकर्षक पक्षियों के साथ भी; जिसके पैर में एक दिव्य, बहुत ही अद्भुत, रत्नों वाला मंदिर था जो चमकीले रत्नों से चमक रहा था, और जंगल की आग की तरह आकर्षक था। वहाँ एक रत्नमय सिंहासन था, जो चमकीले सोने और मोहक, और बहुत ही अद्भुत से बना था।

29बी-3ला। अर्जुन ने कहा, "मैं अर्जुन के रूप में जाना जाता हूं", और अपने हाथों की हथेलियों को मोड़कर और बार-बार नमस्कार करते हुए, और देवी की भक्ति से भरा हुआ, जो युवा (अर्थात सुबह) सूर्य के समान था, जो कई आभूषणों से अलंकृत था, जो नवीन यौवन से संपन्न थे, जिनकी चार भुजाएं लता के सदृश हैं, एक लता, एक फंदा और एक धनुष से चमकते हैं, जो बहुत प्रसन्न और आकर्षक थे, जिनके चरण कमल के समान ब्रह्मा, विष्णु के मुकुटों में रत्नों की किरणों से सुशोभित थे। , महेष (अर्थात शिव ) आदि, जो अशिमा जैसी (अलौकिक शक्तियों) से आच्छादित थे (अर्थात जिनके पास) थे , [1]एकांत जगह पर बैठ गया। देवी, करुणा का खजाना, उनकी आराधना और अच्छे स्वभाव को जानकर, और उनकी स्मृति से दूर होकर (उनसे) कोमलता से कहा:

देवी ने कहा :

31बी-37. हे बच्चे, आपने उपहार पाने के योग्य व्यक्ति को कौन सा दुर्लभ उपहार दिया है? आपने कौन सा यज्ञ किया है? या, आपने यहाँ (अर्थात इस संसार में) कौन-सी तपस्या की है? या पूर्व में तुमने कौन-सी (किस प्रकार की) भक्ति सिद्ध की है? या आपने कौन सा कठिन और शुभ, महान कार्य किया है, जिससे कि भगवान ने वास्तव में खुशी से आप पर एक उपकार किया है, जो सबसे गुप्त है, और जो किसी और के द्वारा नहीं किया जा सकता है? हे बालक, वह उपकार जो विश्वात्मा ने आप पर किया है, वह (उसके द्वारा) नश्वर जगत के लोगों, पृथ्वी पर रहने वाले, (ऐसा ही) स्वर्ग में रहने वाले देवताओं आदि पर भी नहीं है, और बिल्कुल भी नहीं है। (किया गया) अपने सभी भक्तों को जो सर्वश्रेष्ठ तपस्वी हैं और अमूर्त ध्यान का अभ्यास करते हैं। फिर, चलो; सरोवर को जानकर, मेरे आसन का, उसका सहारा लो। देवी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। (इसलिए) उसके साथ जाओ; और वहाँ विधिवत स्नान करके,

38-46ए। तब ही, अर्जुन वहाँ गया, स्नान किया, और वैसे ही आया (अर्थात जैसा उसे बताया गया था)। देवी ने उसे बनाया जो स्नान कर आया (वापस), न्यास [2], मुद्रा [3] आदि की पेशकश की और उसके दाहिने कान में बालविद्या कहा , जिसने तुरंत सफलता दी, जो महान था, जिसके लिए था उसका लक्ष्य शिव (अर्थात पार्वती ) का आधा भाग था, जो अद्वितीय था और जो हर चीज से सुशोभित था। (उसने उसे भी बनाया) धार्मिक तपस्या का अभ्यास करें, पूजा करें और पांच लाख बार प्रार्थना करें; और करवीर की कलियों के साथ (पूजा का) विधिवत प्रदर्शन कियावृक्ष, देवी, ने उनसे यह बात की (अर्थात ये शब्द): “केवल इसी तरह मेरी पूजा करो। फिर, जब मैं प्रसन्न होऊंगा, तुम मेरी कृपा के कारण कृष्ण के खेल के हकदार होगे । यह नियम पूर्व में स्वयं भगवान ने बनाया है।"

ऐसा सुनकर अर्जुन ने उस स्तोत्र से उनकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होंने पूजा-अर्चना कर देवी को प्रसन्न किया। फिर, एक शुभ यज्ञ करने और विधिवत स्नान करने के बाद, अर्जुन ने खुद को धन्य माना, जिसकी लगभग सभी इच्छाएं पूरी हो गईं, और उसके हाथों में हर सफलता थी।

46बी-5ला। इस समय देवी ने उनके पास आकर मुस्कुराते हुए चेहरे से कहा: "हे बच्चे, अब उस घर के भीतर जाओ"। फिर, अर्जुन जल्दबाजी और खुशी से उठा, और अथाह आनंद से भरा, उसने उसे एक लाठी के रूप में नमस्कार किया (अर्थात उसके सामने खुद को दंडवत करके)। फिर, देवी के आदेश पर, अर्जुन, देवी के मित्र के साथ, राधा के स्थान पर गए, जो कि सिद्धों के लिए भी दुर्गम है । फिर उन्हें वृन्दावन दिखाया गया जो गोलोक के ऊपर बना हुआ था, जो स्थिर था, हवा से टिका हुआ था, शाश्वत, सभी सुखों का निवास था, जिसमें चरवाहों के साथ कृष्ण के नृत्य का महान उत्सव लगातार चलता रहा। उसने प्रेम की अनुभूति से भरे महान रहस्य को देखा।

51बी-54. उसके शब्दों (अर्थात् आदेश) से ही उसने उस रहस्य को देखा, और स्वयं से परे और बढ़े हुए प्रेम से दूर होकर, वह वहीं गिर गया। फिर बड़ी मुश्किल से होश में आने पर उसके द्वारा (पकड़कर) उसकी बाँहों से उसे उठाया गया। उसके सांत्वना के शब्दों के कारण, वह किसी तरह स्थिर हो गया। "मुझे बताओ कि मुझे और कौन सी तपस्या करनी चाहिए?" इस प्रकार, उसे देखने के लिए चिंता से भरा, वह अस्थिर था। फिर उसका हाथ पकड़कर वह उस स्थान की दक्षिण दिशा की ओर चली गई।

55-61ए। एक अच्छे क्षेत्र में जाते हुए, उसने (उनसे) ये शब्द बोले: "हे अर्जुन, स्नान करने के लिए इस (झील) में प्रवेश करें, जो शुभ है, जिसमें व्यापक जल है, जिसमें एक कली के साथ एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का आकार है। केंद्र, चार झरने और चार धाराएं, और अजूबों की भीड़ से भरा है। इसके आंतरिक भाग में प्रवेश करने पर आपको एक विशेष गुण दिखाई देगा। इसके दक्षिण में यह झील है। मधुका वृक्ष से आसुत शहद और स्पिरिट शराब है, जिसके बाद मलाया से धारा (बहती) है।(पर्वत) का नाम है। यह पार्क फूलों से भरा है, जहां, बसंत के मौसम में, कृष्ण कामदेव के सम्मान में वर्णिक उत्सव मनाते हैं, जो फूलों से ढँके होते हैं; जहां वे दिन-रात कृष्ण के अवतार की स्तुति करते हैं, जिनके स्मरण मात्र से एक तपस्वी के हृदय में प्रेम का अंकुर (उगना) होगा। फिर इस सरोवर में स्नान करके, पूर्वी सरोवर के किनारे जाकर उसके जल में स्नान करके अपनी मनोकामना (अर्थात् इच्छित वस्तु) पूरी करो।

61बी-74ए. फिर शब्दों को सुनकर, जब अर्जुन ने झील के पानी में डुबकी लगाई, जो सफेद कमल से गिराए गए पराग से रंगा हुआ था, चंद्रोदय पर कमल, (अन्य) कमल और लाल और नीले कमल, और जो शहद से सुगंधित थे- बूँदें, जो मोटे हंसों के स्वरों से हिल गईं, जिनके चार किनारे गहनों से अलंकृत थे, जिनमें कोमल हवा के कारण लहरें थीं, वह वहीं गायब हो गईं। आकर्षक रूप से मुस्कुराता हुआ व्यक्ति उठा और चारों ओर देखकर भ्रमित हो गया। उसने तुरंत अपने आप को एक अद्भुत, उत्कृष्ट महिला के रूप में देखा, जिसके पास शुद्ध सोने की किरणों की तरह एक पतला, गोरा, आकर्षक शरीर था, जिसकी उम्र एक जगमगाते युवा की थी, जिसका चेहरा शरद ऋतु के चंद्रमा जैसा था, जिसके बाल बहुत काला, घुंघराला, चमकदार और गहनों से चमकीला था, जो सभी (अच्छे) गुणों से संपन्न था, जो सभी आभूषणों से सुशोभित था। ग्वालों के प्रेमी (अर्थात् निर्मित) के भ्रम के कारण वह भूल गया कि उसके पूर्व शरीर का क्या था; और उसके बाद, बहुत चकित होकर, वहाँ खड़ा था, न जाने क्या-क्या।

74बी-80. इस बीच, आकाश में अचानक, गंभीर आवाज सुनाई दी, कह रही है: "हे सुंदर महिला, इस (पथ) के साथ केवल पूर्वी झील तक जाओ। इसके जल में स्नान कर अपनी मनोकामना पूर्ण करें। हे आप एक उत्कृष्ट रंग के हैं, आपके मित्र हैं। हिम्मत ना छोड़ें। वे, वहाँ, केवल (आपके लिए आपकी) वांछित पसंद को पूरा करेंगे। ” इन दिव्य वचनों को सुनकर, वह पूर्वी झील में गई, जिसमें कई अद्भुत धाराएँ थीं और जिसमें विभिन्न पक्षियों की भीड़ थी, जो थरथराते हुए सफेद कमल, चन्द्रोदय पर खुलने वाले सफेद कमल, (साधारण) कमल और नीले कमल जो कंपकंपाते थे, और साथ में माणिक, जिसमें कमल (अर्थात अलंकृत) का एक अच्छा किनारा था, जिसके चार किनारे लताओं के विभिन्न सुंदर मेहराबों और प्रचुर मात्रा में फूलों वाले पेड़ों से सुशोभित थे। (वहां) नहाकर वह एक क्षण के लिए खड़ी रही।

81-88. तब (उसने देखा) अद्भुत यौवन वाली युवा युवतियों की एक बीवी, जिन्होंने अद्भुत आभूषण पहने थे, जिनकी आकृति और भाषण अद्भुत थे, जिनके शरीर अद्भुत थे, जो अद्वितीय थे, जिनकी कामुक हरकतें समान और अद्भुत थीं, जिनकी बातचीत थी दिलचस्प, जिसकी हँसी और निहारना मनभावन था, जिसकी सुंदरता मधुर और अद्भुत थी, जिसमें सारी मिठास थी, जिसकी समझ का आकर्षण चरम पर पहुंच गया था, जो आश्चर्यजनक रूप से सुंदर थे, जिनकी सुंदरता अद्भुत रूप से चमकदार थी, जिनकी कृपा आदि अद्भुत थी, जो थे सभी अजूबों का ढेर, जिसका रूप आदि अद्भुत था। उस महान आश्चर्य को देखकर और अपने दिल में थोड़ा सोचकर, वह अपने पैर के अंगूठे से जमीन को खुजलाती हुई (वहां) मुंह के बल लटकी रही। फिर उन्होंने झट से एक दूसरे की ओर देखा, 'यह कौन है, जो मेरे वर्ग का है, जिसने लंबे समय से (हमारे अंदर) जिज्ञासा पैदा की है?' इस प्रकार उसे देखकर, और (सोचते हुए) एक पल के लिए, 'उसे जाना जाना चाहिए' (यानी 'हमें पता होना चाहिए कि वह कौन है'), वे, विचार-विमर्श में चतुर, विचार-विमर्श किया, और जिज्ञासा से उसे देखने आए। उनमें से एक, प्रियमुदा नामक एक बुद्धिमान, (उसके पास) आया और मीठे शब्दों और स्नेह के साथ उससे बोला:

प्रियमुदा ने कहा :

89-91. तुम कौन हो? तुम किसकी बेटी हो? आप किसके प्रिय हैं? आपका जन्म कहां हुआ था? आपको इस (क्षेत्र) में कौन लाया? या आप खुद आए हैं? यह सब हमें बताओ। चिंता का क्या उपयोग है? क्या इस बड़े आनन्द के स्थान में किसी को कोई कष्ट है?

इस प्रकार उसके द्वारा पूछे जाने पर, वह विनय के माध्यम से झुकी; और उनके मन को बहलाकर वह मीठे स्वर में बोली।

अर्जुन ने कहा :

92-97. मैं कुछ भी नहीं जानता कि मैं कौन हूं, किसकी बेटी पैदा हुई, मैं किसका प्रिय था, मुझे यहां कौन लाया, या मैं यहां अकेले आया हूं; लेकिन देवी यह जान सकती है। (कृपया) मेरे द्वारा कही गई बातों को सुनें, यदि आप मेरी बातों पर विश्वास करते हैं। इसके दक्षिण की ओर एक सरोवर है। मैं वहाँ स्नान करने आया, और वहाँ रहकर ही मैं भयभीत हो उठा। फिर (हर) दिशा में चारों ओर देखते हुए, मैंने आकाश में एक अद्भुत आवाज सुनी, "हे सुंदर महिला, इस (पथ) के साथ केवल पूर्वी झील तक जाओ। इसके जल में स्नान कर अपनी मनोकामना पूर्ण करें। हे आप एक उत्कृष्ट रंग के हैं, आपके मित्र हैं। हिम्मत ना छोड़ें। वे, वहाँ, केवल (आपके लिए आपकी) वांछित पसंद को पूरा करेंगे। ”

98-104ए. ये शब्द सुनकर मैं वहाँ से यहाँ आया। मेरा मन निराशा और आनंद से भरा है और मैं चिंता से पूरी तरह दूर हो गया हूं। मैं यहाँ आया, और इसके जल में स्नान करने के बाद, मैंने कई प्रकार की शुभ ध्वनियाँ सुनीं, और फिर मैंने आपको देखा, महान। मैं शारीरिक, मानसिक और शब्दों के माध्यम से इतना ही जानता हूं। हे आदरणीय देवियों, यदि आप चाहें तो इतना ही बता दिया है। तुम कौन हो? आप किसकी बेटियां हैं? आपका जन्म कहां हुआ था? आप किसके प्रिय हैं?

उसके उन शब्दों को सुनकर, प्रियमुदा ने कहा: "ऐसा ही रहने दो। हे शुभ, हम उसके प्रिय हैं। हम वृंदावन (अर्थात कृष्ण) के चंद्रमा के साथ खुशी-खुशी खेलती हुई बेटियां हैं। हम स्वयं प्रसन्न हैं। इसलिए हम यहां ग्वालों के रूप में आए हैं। ये पवित्र ग्रंथों के समूह हैं; ये फिर से ऋषि हैं। हम चरवाहे हैं। मैंने आपको हमारे स्वभाव के बारे में बताया है।

104बी-121. (हम वे हैं) राधा के भगवान के सबसे प्यारे (हमारी) खुशी के कारण। हम हमेशा अनियमित रूप से खेलते हैं; हम हमेशा खेलते हैं और चलते हैं। यह देवी पुरसारसा हैं। यह रसमंथरा है। यह नाम से रसलय है; और यह रसवल्लारी है। यह रासपीयषाधारा है; यह रसतरंगि है; और यह है रासकालोलिन; और यह रासवापिका है; यह अनंगसेना है; और यह है अनंगमालिनी । यह युवती मदयंती है और यह रासविहवाला है। यह नाम से ललिता है, और यह ललितायुवन है; और यह मदनमंजरी है । यह नाम से कलावती है, और इसे रतिकला के नाम से जाना जाता है। यह कामकलां हैनाम से; यह कामदायिनी है । यह युवती है रतिलोला; और यह युवती रतोत्सुका है; और यह है रतिसर्वस्व; और यह है रतिसिंतामनि । इनमें से कुछ हमेशा खुश रहते हैं और हमेशा प्यार देते हैं। इसके बाद (आओ) शास्त्रों के समूह। इनमें से कुछ के नाम सुनें: यह एक है उदगीता; यह एक है सुगीता; यह प्रिय है कलगीता । इस युवती को कलसुरा कहा जाता है; यह युवती कलाकंधिका है । यह है विपंचि ; यह एक है क्रमापदा; इसे बहुहुता के नाम से जाना जाता है। इसे बहुप्रयोग के नाम से जाना जाता है। इस महिला को बाहुकला कहा जाता है। इसे कहते हैं कलावती; और इसे क्रियावती के नाम से जाना जाता है. इसके बाद (आओ) ऋषियों के समूह। उनमें से कुछ यहाँ हैं: इसका नाम उग्रतापा है; इसे बहुगुणा के नाम से जाना जाता है। यह नाम से प्रियव्रत है; और इसे सुव्रत कहा जाता है । इसे सुरेखा के नाम से जाना जाता है। इस युवती को सुपर्व के नाम से जाना जाता है। हे बाहुप्रदा। इसे रत्नरेखा कहा जाता है । इसे मणिग्रीव के नाम से जाना जाता है; और यह है सुपर्णा ; (और ये हैं) कल्पा, सुकल्पा, रत्नमालिका । यह (की) सुंदर भौहें सौदामिनी हैं ; और यह है कामदायिनी; और इसे भोगदा कहा जाता है; यह पवित्र है विश्वमाता । यह एक है धारी ; और यह है धात्री ; यह एक है सुमेधा ; और यह एक हैकांटी । यह एक है अपर्णा ; इसे सुपर्णा के नाम से जाना जाता है; और यह है सुलक्षणा । यह सुदाती है । यह एक है गुणवती ; और इसे सौकलिनी के नाम से जाना जाता है। इसे सुलोकाना कहा जाता है ; और इसे सुमना के नाम से जाना जाता है । (इन्हें इस नाम से जाना जाता है) अश्रुता , सुशीला और रतिसुखप्रदायिनी। आगे हम, चरवाहे हैं, जो यहाँ आए हैं।

122-138. हे कमल के समान मुख वाले, उनमें से कुछ को जान लो। यह एक है चंद्रावती ; इस शुभ को चंद्रिका के नाम से जाना जाता है । हे चंद्रावली । यह है चंद्ररेखा । और यह है चंद्रिका । इसे चंद्रमाला कहा जाता है और इसे चंद्रलिका के नाम से जाना जाता है। यह चंद्रप्रभा हैं और इस महिला को चंद्रकला के नाम से जाना जाता है । यह एक है वर्णावली; यह एक है वर्णमाला; यह एक है मणिमालिका । (इसे एक) वर्णप्रभा कहा जाता है; यह एक है सुप्रभा ; यह एक है मणिप्रभा । यह एक है हरावली ; यह शुभ है तारामालिनी । यह है मालती ; यह युथि है । (ये हैं) वसंती और नवमल्लिका । यह एक हैमल्लू ; यह है नवमल्ली। इसे सेफलिका के नाम से जाना जाता है । यह सौगंधिका है । यह है कस्तूरी ; यह है पद्मिनी ; यह है कुमुदवती । यह एक है रसोलासा; यह एक है चित्रविंदा; यह है सुरेखा; यह है स्वररेखािका । यह एक है कंचनमाला ; यह अन्य शुद्ध असंततिका है । इन सब ने (तुम्हें) घेर लिया है। दूसरों को भी आपसे परिचित कराया जाना है। हे सुंदरी, जवान औरत, आप हमारे साथ और इनके साथ मनोरंजन करेंगी। पूर्वी झील के तट पर आओ। वहाँ, हे मित्र, तुम्हें विधिवत स्नान कराकर, मैं तुम्हें सफलता देने वाला एक भजन दूंगा। ”

इस प्रकार अचानक उसे (झील में) ले जाकर विधिवत स्नान कराकर, उसने उचित संस्कारों के अनुसार, और संक्षेप में, वृन्दावन के चंद्रमा के प्रेमी का उत्कृष्ट भजन स्वीकार किया, जो उत्कृष्ट था और रोगाणु से संबंधित था वरुण (-भजन) का , और अग्नि के लिए पवित्र भजन के बीज द्वारा आगे रखा गया, जो चौथे नोट से संपन्न था, और ध्वनि के बिंदु से सजाया गया था, और प्रणवों के बीच सिल दिया गया थाऔर तीनों लोकों में जाना अत्यंत कठिन है। भजन को स्वीकार करने से ही हर सफलता मिलती है। होमबलि के साथ देवता के नाम का जप किया जाता है। ध्यान है; और प्रार्थनाओं को गुनगुनाने से कई बलिदान और सफलता मिलती है। उसने अपनी सहेलियों के साथ खुशी-खुशी देवी की पूजा की, जिसका शरीर गर्म सोने की तरह गोरा था, जो विभिन्न आभूषणों से अलंकृत था, जिसका रूप और सौंदर्य अद्भुत था, जो प्रसन्न था, और जिसने उचित संस्कार के अनुसार, और सफेद कमल के साथ वरदान दिया था। और करवीर फूल आदि, कैम्पक के साथफूल और कमल, वैसे ही अन्य सुगंधित फूलों और (अन्य वस्तुओं) के साथ सुगंध, पैर धोने और मुंह धोने के लिए पानी के साथ, आकर्षक धूप और रोशनी के साथ, खाने के विभिन्न प्रसाद भी; फिर उसने एक लाख बार भजन दोहराया; वह उचित रीति के अनुसार भेंट चढ़ाती, और उसकी स्तुति करती और लाठी की नाईं भूमि पर गिर पड़ी।

139-143. तब बिना पलक झपकाए देवी की स्तुति उनकी लालसा के साथ की गई। उसने, भ्रम के माध्यम से, अपनी छाया तैयार की, और जैसे कि वह बल के माध्यम से थी, प्रिय, उसके पास। वह अपने दोस्तों से घिरी हुई थी, और खुश थी। आराधना के कारण, प्रार्थना, स्तुति, भक्ति नमस्कार के कारण, वह अनुग्रह के माध्यम से प्रकट हुई। उसका रंग सोने या कैम्पका फूल जैसा था। सुन्दर आभूषणों के कारण वह चमकीली थी। छोटे-बड़े हर अंग में खूबसूरती के कारण उनका फिगर प्यारा था। उसका चेहरा शरद ऋतु में पूर्णिमा की तरह सुंदर था। उसकी मुस्कान और उपस्थिति दयालु और सरल थी। वह (सभी) तीनों लोकों में आकर्षक थी। उसने अपने तेज से दसों दिशाओं को रोशन किया। तब उस देवी ने अपने भक्तों को वरदान और स्नेह प्रदान करते हुए कहा:

देवी ने कहा :

144-154. मेरे दोस्तों की बात सच है। इसलिए तुम मेरे प्रिय मित्र हो। उठो, साथ चलो, मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा।

अर्जुन , देवी के वचनों को सुनकर, जो (लेकिन) उसके दिल की लालसा थी, और उसके शरीर के साथ अंकुर-जैसे भयावहता के कारण, उसकी आँखों से आंसुओं से भरी, और फिर से प्यार से अभिभूत होकर, चरणों में गिर गया, चरणों में गिर गया देवी का। फिर उसने ये शब्द अपनी मित्र-देवी प्रियंवदा से कहे । "उसका हाथ थामकर, और उसका जय-जयकार करते हुए, उसे मेरे पास ले आओ।" फिर, देवी के आदेश से उत्साहित होकर, प्रियश्वदा ने उसे ऐसे ही लिया और देवी के पास आ गया। देवी, हरि की प्रिय , उत्तरी झील के तट पर गई, और उसे विधिवत स्नान कराया और उचित संस्कारों के अनुसार उसकी पूजा की और एक गंभीर व्रत से पहले, उसे अच्छी सफलता प्रदान करते हुए, भजन को स्वीकार कर लिया, (यानी पवित्र करने के लिए) श्री गोकुला में चंद्रमा. व्रत को गोकुलनाथ कहा जाता है, पुराना है, और मोहना (अर्थात कृष्ण) द्वारा सुशोभित है; भजन सभी सफलता देता है और जादुई और रहस्यमय औपचारिकताओं को पढ़ाने वाले सभी धार्मिक ग्रंथों में संरक्षित है। उसने गोविंदा के गीतों को जानकर उसे स्थिर भक्ति दी। शर्मीली ने उसे ध्यान और मंत्रों के करामाती राजा के बारे में बताया। इसे मोहना नामक धार्मिक ग्रंथ में बताया गया है। इसका स्मरण भी सफलता दिलाता है। व्यक्ति को (कृष्ण) का ध्यान करना चाहिए, नीले कमल की पंखुड़ी के समान अंधेरा और कई आभूषणों से अलंकृत, और एक करोड़ कामदेव के समान सौंदर्य और प्रेम से भरपूर होना चाहिए। शुद्धि के लिए, उसने प्रियश्वदा को यह रहस्य बताया।

श्री राधिका ने कहा :

155-167ए. जब तक उसका उत्कृष्ट दीक्षा संस्कार समाप्त न हो जाए, तब तक सावधान रहें और अपने दोस्तों के साथ उसकी रक्षा करें।

अपनी और अपनी प्रेयसी की छाया (वहां) रख कर, वह कृष्ण के चरण कमलों के पास गई । वह राधिका , कृष्ण की प्रिय, पहले की तरह वहीं रही । इधर, प्रियंवदा की सलाह से, उसने एक शुभ आठ पंखुड़ियों वाला कमल तैयार किया, और उस अद्भुत शुभ स्तोत्र को लिखा, और चमकीले पीले रंग के रंग, केसर और चंदन को एक साथ मिलाकर, सफलता देने वाला रहस्यमय चित्र तैयार किया, और न्यासा आदि बनाया। और चरण धोने के लिए जल, पूजा के लिए सामग्री, और केसर और चंदन की धूप, रोशनी, खाने के प्रसाद, तंबुलों के साथ, मौसम के कई फूलों के साथ नंद के पुत्र की पूजा की।और सुगन्धि से मुख सुगन्धित होता था, और वस्त्र, आभूषण और फूल, और सब अनुयायिओं, शस्त्रों, और वाहनों समेत उसकी स्तुति और विधिवत् प्रणाम करके उसे स्मरण करती थी। तब भगवान, यशोदा के पुत्र, भक्ति से प्रभावित होकर, एक मुस्कान और लहराती दृष्टि और विचारों के साथ देवी राधिका से कहा: "जल्दी से उसे यहाँ लाओ।" देवी (इस प्रकार) ने आदेश दिया, मित्र शारदा के लिए भेजा , और वह अचानक उसे चंचल के सामने ले आई। श्री कृष्ण के सामने आकर, और प्रेम से जीतकर, वह सब कुछ अद्भुत देखकर, सोने में बदल कर जमीन पर गिर गई। किसी तरह कठिनाई से उठकर और धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलकर, पसीने और थरथराहट और काँप के बोझ से भरी उसने वहाँ एक सुंदर और आकर्षक जगह देखी।

167बी-177ए। एक इच्छा देने वाला वृक्ष भी था, जिसमें चमकीले पन्ना जैसे पत्ते थे, जिसमें अंकुरों के साथ पत्ते थे, जो नाजुक थे, और सुनहरे तने थे, जिसमें क्रिस्टल जैसे अंकुर और जड़ें थीं, जो इच्छा की समृद्ध वस्तुओं को प्रदान करती थीं, और जो एक प्रेमी को मनचाहा फल देता था। इसके नीचे एक गहना मंदिर था। एक गहना सिंहासन था। वहाँ (अर्थात् उस पर) आठ पंखुड़ियों वाला कमल था। दो खजाने थे [4] अर्थात। शंख और पद्मा , बाएँ और दाएँ (पक्षों) पर रखा गया है। चारों दिशाओं में मनोवांछित गायों को उचित स्थानों पर बिठाया गया। उसके चारों ओर नंदन थाबगीचा। यह मलाया-हवाओं द्वारा परोसा गया था। यह सभी मौसमों के फूलों की सुंदर सुगंध से सुगंधित था (और) इस प्रकार कालागरु (चन्दन) की (सुगंध) को हरा दिया था। शहद की बूंदों की बौछार से शीतल थी और बहुत प्यारी थी। शहद का स्वाद चखने पर मदहोश मादा मधुमक्खियों के झुंड की गुंजन से इसका भीतरी भाग लगातार गूंज रहा था। यह कोयल, कबूतर, सारिका, और मादा तोते, और अन्य (अर्थात पीछे छिपे हुए) पत्तों के मधुर स्वरों से गूंज रहा था। यह नशे में धुत मोरों के नृत्यों से भरा हुआ था और प्यार के जुनून को बढ़ाता था। इसमें रस के उत्सर्जन से उत्पन्न कोलियम जैसे अंधेरे की पतली (परत) की सुंदरता थी।

177बी-196ए। उसने कृष्ण को देखा जिनके बाल बहुत चमकदार, काले, घुंघराले और सुगंधित सुगंधित थे; जिसके सिर पर पागलपन के नशे में धुत मोर की सबसे अच्छी पूँछ बंधी थी; जिसकी बायीं ओर मधुमक्खियां फूलों की कर्ण-आभूषण थीं; जो अपने गालों के शीशों से चमक रहा था, मधुमक्खी के समान बालों से चमक रहा था; जो बड़े मस्तक की शोभा से चमक रहा था, जिसके सुन्दर चिह्न थे; जिसकी नाक तिल के फूल और उकाब की चोंच जैसी प्यारी थी; जिनके होठ मनमोहक और बिंबा फल के समान थे; जिन्होंने अपनी कोमल मुस्कान से प्रेम के जोश को प्रज्वलित किया; जो जंगली फूल जैसे हार के कारण प्यारे लगते थे; जिसके दोनों बड़े और आकर्षक कंधे दिव्य वृक्ष की माला (फूलों की) से चमक रहे थे, जिसका सहारा हजारों मदमस्त मादा मधुमक्खियां उठा रही थीं; जो से सुशोभित थामोती के हार से चमकते छाती के क्षेत्र पर कौस्तुभ ; जिस पर श्रीवत्स का निशान था , जो अपने हाथों को घुटनों तक लटके रहने के कारण आकर्षक था; जो सिंह की नाईं और गहिरी नाभि के कारण कमर बान्धने के कारण बहुत हष्ट-पुष्ट था; जो एक अच्छे पेड़ की तरह लंबे और बहुत गोल घुटनों के कारण प्यारा था; जो कंगन, बाजूबंद, और पायल जैसे उत्तम आभूषणों से अलंकृत था; जिसके कूल्हे उसके पीले वस्त्र के एक भाग से ढँके हुए थे; जिसने अपने सौन्दर्य से करोड़ों कामदेवों को अपने सौन्दर्य से परास्त कर दिया था। जो अपनी बाँसुरी से निकले मनमोहक गीतों से (दूसरों को) मंत्रमुग्ध कर देते थे; जिसने तीनों लोकों को सुख के सागर में डुबा दिया; जिसके शरीर के हर अंग में कामदेव का अहंकार था; जो नृत्य में रुचि के कारण थक गया था। उनकी आंतरिक भावनाओं को देखते हुए, उनके चेहरे पर अपनी आँखें टिकाए हुए, संबंधित स्थानों पर देवताओं को नियुक्त किया गया था, जो उचित क्रम में थे और सम्मान के साथ एक चौरी, एक पंखा, एक फूल, एक इत्र, चंदन, और एक तंबूला , एक दर्पण था। , पीने का बर्तन, थूकने का बर्तन, और खेल की अन्य वस्तुएं, इसलिए लोबान और ताबीज भी। अर्जुन को प्रसन्न करने वाली देवी राधिका के बाईं ओर भ्रम में देखकर, उन्हें एक उज्ज्वल मुस्कान के लिए एक तंबिला देते हुए, प्रेम के जुनून से दूर किया गया था। फिर श्रीकृष्ण, जो सब कुछ जानता था, उसे ऐसा होने के बारे में जानकर, उसका हाथ पकड़ लिया, और वह भगवान, जादुई कला के महान स्वामी, चुपके से पूरे सुख-वन में उसके साथ खेलता था। फिर अपने खेल-समान हाथ को उसके कंधे पर रखकर शारदा के पास आकर उससे कहा: "इस पश्चिमी झील में खेल के कारण थकी हुई कोमल मुस्कान वाली इस दुबली-पतली महिला को जल्दी से स्नान करा दो।" तब वह देवी शारदा (उसे) पश्चिमी झील में ले गईं, (और) उससे कहा, "स्नान करो"। थके हुए ने वैसा ही किया। वह जो पानी के भीतर तक पहुंच गई, फिर से अर्जुन में बदल गई और उस स्थान पर उठ गई जहां देवताओं के स्वामी और सुंदर वैकुण्ठ के प्रमुख खड़े थे। अर्जुन को उदास और टूटे मन को देखकर, कृष्ण ने कृपा करके उसे अपने हाथ से छुआ और उसे (पीछे) उसके स्वभाव में डाल दिया।

श्रीकृष्ण ने कहा :

196बी-198ए। हे धनंजय , मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं। तुम मेरे प्रिय मित्र हो। तीनों लोकों में तुम्हारे समान और कोई नहीं है जो मेरे रहस्य को जानता हो। हे अर्जुन, यदि तुम किसी को वह रहस्य बता दोगे जो तुमने (मुझसे) पूछा था और जो तुमने अनुभव किया है, तो तुम मुझे श्राप दोगे।

सनत्किमार ने कहा :

198बी-200ए। इस प्रकार उनकी कृपा पाकर और शपथ से बंधे हुए निर्णय लेने के बाद, अर्जुन अपने मन की प्रसन्नता और अद्भुत स्मृति के साथ उस (स्थान) से घर चला गया। इस प्रकार मैंने आपको गोविंदा का वह पूरा रहस्य बता दिया है जो मुझे ज्ञात है। यदि आप उसे बताते हैं तो मैं आपकी कसम खाता हूं।

प्रभु ने कहा :

200बी-204। इन वचनों को सुनकर चरवाहे को सफलता मिल गई। वह नर और नारायण के निवास में वृणदावन गए । वहाँ वह, कृष्ण के दैनिक खेल को जानकर, आज भी रहता है । मैंने यह रहस्य नारद को नहीं बताया , भले ही उन्होंने मुझसे पूछा था। फिर भी, प्राकृतिक रूप में पहुँचकर, उसने इसे प्राप्त कर लिया। हे शुभ, अपने एक स्टॉक की तरह, आपको वह रहस्य नहीं बताना है जो मैंने आपको प्यार के माध्यम से (आपके लिए) किसी और को बताया था।

जो कोई भगवान के भक्त की महानता का वर्णन करने वाले इस अद्भुत अध्याय को पढ़ता या सुनता है, उसे हरि में सुख प्राप्त होता है।

फुटनोट और संदर्भ:

[1] :

अष्टिमा—परमाणु जितना छोटा होने की अलौकिक शक्ति।

[2] :

न्यासा - शरीर के विभिन्न अंगों को विभिन्न देवताओं को सौंपना, जो आमतौर पर प्रार्थना और संगत हावभाव के साथ होता है।

[3] :

मुद्रा - धार्मिक पूजा या भक्ति में अभ्यास की जाने वाली उंगलियों के कुछ पदों का नाम।

[4] :

निधि - कुबेर का खजाना। वे संख्या में नौ हैं: महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छपा, मुकुंद, कुंड, नीला और खारवा।

अध्याय ७४-

_______

पद्मपुराणम्/खण्डः ५ (पातालखण्डः)/अध्यायः७७-

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पार्वत्युवाच-
विस्तरेण समाचक्ष्व नामार्थपदगौरवम्
ईश्वरस्य स्वरूपं च तत्स्थानानां विभूतयः १।


तद्विष्णोः परमं धाम व्यूहभेदास्तथा हरेः
निर्वाणाख्याहि तत्त्वेन मम सर्वं सुरेश्वर २।


ईश्वर उवाच-
सारे वृंदावने कृष्णं गोपीकोटिभिरावृतम्
तत्र गंगा पराशक्तिस्तत्स्थमानंदकाननम् ३।


नाना सुकुसुमामोदसमीरसुरभीकृतम्
कलिंदतनया दिव्यतरंगरागशीतलम् ४।


सनकाद्यैर्भागवतैः संसृष्टं मुनिपुंगवैः
आह्लादिमधुरारावैर्गोवृंदैरभिमंडितम् ५


रम्यस्रग्भूषणोपेतैर्नृत्यद्भिर्बालकैर्वृतम्
तत्र श्रीमान्कल्पतरुर्जांबूनदपरिच्छदः ६


नानारत्नप्रवालाढ्यो नानामणिफलोज्ज्वलः
तस्य मूले रत्नवेदी रत्नदीधितिदीपिता ७


तत्र त्रयीमयं रत्नसिंहासनमनुत्तमम्
तत्रासीनं जगन्नाथं त्रिगुणातीतमव्ययम् ८


कोटिचंद्रप्रतीकाशं कोटिभास्करभास्वरम्
कोटिकंदर्पलावण्यं भासयन्तं दिशोदश ९


त्रिनेत्रं द्विभुजं गौरं तप्तजांबूनदप्रभम्
श्लिष्यमाणमंगनाभिः सदामानं च सर्वशः १०


ब्रह्माद्यैः सनकाद्यैश्च ध्येयं भक्तवशीकृतम्
सदाघूर्णितनेत्राभिर्नृत्यंतीभिर्महोत्सवैः ११


चुंबंतीभिर्हसंतीभिः श्लिष्यंतीभिर्मुहुर्मुहुः
अवाप्तगोपीदेहाभिः श्रुतिभिः कोटिकोटिभिः १२


तत्पादांबुजमाध्वीकचित्ताभिः परितो वृतम्
तासां तु मध्ये या देवी तप्तचामीकरप्रभा १३


द्योतमाना दिशः सर्वाः कुर्वती विद्युदुज्ज्वलाः
प्रधानं या भगवती यया सर्वमिदं ततम् १४


सृष्टिस्थित्यंतरूपा या विद्या विद्यात्रयीपरा
स्वरूपा शक्तिरुपा च मायारूपा च चिन्मयी १५


ब्रह्मविष्णुशिवादीनां देहकारणकारणम्
चराचरं जगत्सर्वं यन्मायापरिरंभितम् १६


वृंदावनेश्वरी नाम्ना राधा धात्रानुकारणात्
तामालिंग्य वसंतं तं मुदा वृंदावनेश्वरम् १७


अन्योन्यचुंबनाश्लेष मदावेशविघूर्णितम्
ध्यायेदेवं कृष्णदेवं स च सिद्धिमवाप्नुयात् १८


मंत्रराजमिमं गुह्यं तस्य मंत्रं च मंत्रवित्
यो जपेच्छृणुयाद्वापि स महात्मा सुदुर्ल्लभः १९


राधिंका चित्ररेखा च चंद्रा मदनसुंदरी
श्रीप्रिया श्रीमधुमती शशिरेखा हरिप्रिया २०


सुवर्णशोभा संमोहा प्रेमरोमांचराजिता
वैवर्ण्यस्वेदसंयुक्ता भावासक्ता प्रियंवदा २१


सुवर्णमालिनी शांता सुरासरसिका तथा
सर्वस्त्री जीवना दीनवत्सला विमलाशया २२


निपीतनामपीयूषा सा राधा परिकीर्तिता
सुदीर्घस्मितसंयुक्ता तप्तचामीकरप्रभा २३


मूर्च्छत्प्रेमनदी राधा वरणा लोचनांजना
मायामात्सर्यसंयुक्ता दानसाम्राज्य जीवना २४


सुरतोत्सव संग्रामा चित्ररेखा प्रकीर्तिता
गौरांगी नातिदीर्घा च सदा वादनतत्परा २५


दैन्यानुरागनटना मूर्च्छारोमांचविह्वला
हरिदक्षिणपार्श्वस्था सर्वमंत्रप्रिया तथा २६


अनंगलोभमाधुर्या चंद्रा सा परिकीर्तिता
सलीलमंथरगतिर्मंजुमुद्रित लोचना २७


प्रेमधारोज्ज्वलाकीर्णा दलितांजन शोभना
कृष्णानुरागरसिका रासध्वनिसमुत्सुका २८


अहंकारसमायुक्ता मुखनिंदितचंद्रमाः
मधुरालापचतुरा जितेंद्रियशिरोमणिः २९


सुंदरस्मितसंयुक्ता सा वै मदनसुंदरी
विविक्तरासरसिका श्यामा श्याममनोहरा ३०


प्रेम्णा प्रेमकटाक्षेण हरेश्चित्तविमोहनी
जितेंद्रिया जितक्रोधा सा प्रिया परिकीर्तिता ३१


सुतप्तस्वर्णगौरांगी लीलागमनसुंदरी
स्मरोत्थ प्रेमरोमांच वैचित्रमधुराकृतिः ३२


सुंदरस्मितसंयुक्त मुखनिंदितचंद्रमाः
मधुरालापचतुरा जितेंद्रियशिरोमणिः ३३


कीर्तिता सा मधुमती प्रेमसाधनतत्परा
संमोहज्वररोमांच प्रेमधारा समन्विता ३४


दानधूलिविनोदा च रासध्वनि महानटी
शशिरेखा च विज्ञेया गोपालप्रेयसी सदा ३५


कृष्णात्मा सोत्तमा श्यामा मधुपिंगललोचना
तत्पादप्रेमसंमोहात्क्वचित्पुलकचुंबिता ३६


शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देहिकातटे
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृंदावने वने ३७


देवकी मथुरायां तु जाता मे परमेश्वरी
चंद्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी ३८


वाराणस्यां विशालाक्षी विमला पुरुषोत्तमे
वृंदावनाधिपत्यं च दत्तं तस्यै प्रसीदता ३९


कृष्णेनान्यत्र देवी तु राधा वृंदावने वने
नित्यानंदतनुः शौरिर्योऽशरीरीति भाष्यते ४०


वाय्वग्निनाकभूमीनामंगाधिष्ठितदेवता
निरूप्यते ब्रह्मणोऽपि तथा गोविंदविग्रहः ४१


सेंद्रियोऽपि यथा सूर्यस्तेजसा नोपलक्ष्यते
तथा कांतियुतः कृष्णः कालं मोहयति ध्रुवम् ४२


न तस्य प्राकृती मूर्तिर्मेदोमांसास्थिसंभवा
योगी चैवेश्वरश्चान्यः सर्वात्मा नित्यविग्रहः ४३


काठिन्यं देवयोगेन करकाघृतयोरिव
कृष्णस्यामिततत्त्वस्य पादपृष्ठं न देवता ४४


वृंदावनरजोवृंदे तत्र स्युर्विष्णुकोटयः
आनंदकिरणे वृंदव्याप्तविश्वकलानिधिः ४५


गुणात्मतात्मनि यथा जीवास्तत्किरणांगकाः
भुजद्वयवृतः कृष्णो न कदाचिच्चतुर्भुजः ४६


गोप्यैकया वृतस्तत्र परिक्रीडति सर्वदा
गोविंद एव पुरुषो ब्रह्माद्याः स्त्रिय एव च ४७


तत एव स्वभावोयंऽप्रकृतेर्भाव ईश्वरः
पुरुषः प्रकृतिश्चाद्यौ राधावृंदावनेश्वरौ ४८


प्रकृतेर्विकृतं सर्वं विना वृंदावनेश्वरम् ४९


समुद्भवेनैव समुद्भवेदिदं भेदं गतं                         तस्य विनाशतो हि
स्वर्णस्य नाशो न हि विद्यते तथा मत्स्यादिनाशेऽपि न कृष्णविच्युतिः ५०


त्रिगुणादिप्रपंचोऽयं वृंदावनविहारिणः
ऊर्म्मीवाब्धेस्तरंगस्य यथाब्धिर्नैव जायते ५१

न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान्
वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ५२

ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम्
श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ५३

बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि
अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ५४

यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते
तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ५५

बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम्
बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ५६

बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ५६

वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम्
यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ५७

अखंडातुलपीयूष रसानंदमहार्णवम्
जयति श्रीपतेर्गूढं वपुः कैशोररूपिणः ५८

एकमप्यव्ययं पूर्वं बल्लवीवृंदमध्यगम्
ध्यानगम्यं प्रपश्यंति रुचिभेदात्पृथग्धियः ५९

यन्नखेंदुरुचिर्ब्रह्म ध्येयं ब्रह्मादिभिः सुरैः
गुणत्रयमतीतं तं वंदे वृंदावनेश्वरम् ६०

वृंदावनपरित्यागो गोविंदस्य न विद्यते
अन्यत्र यद्वपुस्तत्तु कृत्रिमं तन्न संशयः ६१

सुलभं व्रजनारीणां दुर्ल्लभं तन्मुमुक्षुणाम्
तं भजे नंदसूनुं यन्नखतेजः परं मनुः ६२

पार्वत्युवाच
भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत्पिशाची हृदि वर्त्तते
तावत्प्रेमसुखस्यात्र कथमभ्युदयो भवेत् ६३

ईश्वर उवाच-
साधुपृष्टं त्वया भद्रे यन्मे मनसि वर्त्तते
तत्सर्वं कथयिष्यामि सावधाना निशामय ६४

स्मृत्वा गुणान्स्मरन्नाम गानं वा मनरंजनम्
बोधयत्यात्मनात्मानं सततं प्रेम्णि लीयते ६५
_________

(इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये पार्वतीशिवसंवादे श्रीकृष्णरूपवर्णनंनाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ७७) 

अध्याय 77 - कृष्ण का एक विवरण

पार्वती ने कहा :

1-2. मुझे विस्तार से बताएं कि भजन के अर्थ और शब्दों का महत्व क्या है; इसी तरह (मुझे) भगवान की प्रकृति, और (के बारे में) उनके स्थानों की महिमा। हे देवताओं के भगवान, (मुझे बताओ) सभी (के बारे में) विष्णु और हरि (यानी विष्णु के) के महान निवास को अनन्त आनंद कहा जाता है।

प्रभु ने कहा :

3-6ए। उत्कृष्ट वृंदावन में (कोई देखता है) कृष्ण करोड़ों ग्वालों से घिरे हुए हैं। गंगा वहां एक महान शक्ति है। आनंदकानन (भी) वहाँ है। यह अनेक अच्छे फूलों के ऊपर सुगन्धित हवा (उड़ाने) से सुगंधित हो जाती है। यह शीतल है और इसमें कालिंदा (यानी यमुना ) की बेटी की दिव्य तरंगों का रंग है । यह सर्वश्रेष्ठ संतों के संपर्क में आया है - सनक आदि जैसे भगवान के भक्त। यह गायों के झुंड से सुशोभित है, जो खुशी और मधुरता से चिल्ला रहा है। यह आकर्षक माला और आभूषण और नृत्य करने वाले लड़कों से आच्छादित है।

6बी-13ए. सोने से आच्छादित एक गौरवशाली इच्छा देने वाला वृक्ष है। यह कई रत्नों और मूंगों से समृद्ध है। यह कई मणि जैसे फलों से चमकीला होता है। इसके मूल में एक रत्नमय वेदी है। यह रत्नों की किरणों से रोशन होता है। वहाँ (अर्थात उस पर) त्रय ( वेदों का ) से बना एक उत्कृष्ट स्वर्ण सिंहासन है; (वहां देखा जा सकता है) विश्व के स्वामी जो वहां विराजमान हैं, जो तीन घटकों (अर्थात प्रकृति से परे ) से परे हैं , जो अपरिवर्तनीय हैं, जो एक करोड़ चंद्रमाओं के समान हैं, जो एक करोड़ सूर्य के समान उज्ज्वल हैं, जिनकी सुंदरता वह करोड़ कामदेवों के समान है, जो दस तिमाहियों को प्रकाशित करते हैं, जिनकी तीन आंखें, दो हाथ हैं, जो गर्म सोने की तरह गोरा और चमकीला है, जो हमेशा सुंदर महिलाओं द्वारा गले लगाया जाता है, जो हमेशा हर जगह सम्मानित होते हैं, जिनका ध्यान किया जाता है। और से प्रभावितब्रह्मा और अन्य और सनक और अन्य, जो हमेशा करोड़ों और करोड़ों शास्त्रों से घिरे रहते हैं, जिन्होंने ग्वालों के शरीर को बार-बार चूमते हुए, उन्हें गले लगाते और हंसते हुए प्राप्त किया है, और अपने दिल से उनके चरण कमलों से आध्यात्मिक शराब (आने वाली) पर सेट किया है। .

13बी-18. वह देवी जो उनमें से गर्म सोने की तरह चमकीली है, जो सभी दिशाओं को रोशन करती है और उन्हें बिजली के रूप में उज्ज्वल बनाती है, वह प्रधान (यानी प्रकृति) है, जिसने यह सब व्याप्त किया है। वह सृजन, रखरखाव और विनाश की प्रकृति की है। वह ज्ञान, अज्ञान और त्रय (वेदों की) से परे है। वह (अपने) प्राकृतिक रूप की है, शक्ति की प्रकृति की है, भ्रम की प्रकृति ( माया ) की है और बुद्धि से भरी है। वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव के शरीरों का कारण बताती है । सारा चल और अचल संसार माया में जकड़ा हुआ है। विष्णु के साथ समानता के कारण, राधावृंदावनेश्वरी कहा जाता है। एक आदमी को इस तरह ध्यान करना चाहिए, भगवान कृष्ण, वृंदावन के भगवान, जो उसे गले लगाते रहते हैं, जो चुंबन और गले लगाने के जुनून के प्रभाव से कांप रहे हैं। उसे सफलता मिलेगी।

19-21. वह महान व्यक्ति, जो इस सर्वोत्तम भजन, (अर्थात् उसके लिए पवित्र) को जानता है, और गुनगुनाता या सुनता है, उसे खोजना बहुत मुश्किल है। (वहाँ हैं) राधिका , चित्ररेखा, चंद्रा , मदनसुंदरी , श्रीप्रिया, श्रीमधुमती, शशिरेखा , हरिप्रिया , सोने की तरह सुंदर, मोहक और प्रेम के कारण भयावहता से चमकने वाला, पीलापन और पसीना वाला, प्यार से जुड़ा हुआ, सहमति से बात करना। (फिर हैं) सुवर्णमालिनी, शांता , सुरसा और रसिका ।

22-23. जो स्त्री का पूरा जीवन व्यतीत करती है, जो असहाय के प्रति स्नेही है, जो शुद्ध हृदय की है, जिसने (कृष्ण के) नाम का अमृत पूरी तरह से पी लिया है, वह राधा कहलाती है। राधा एक लंबी मुस्कान के साथ संपन्न है, गर्म सोने की चमक है, बढ़ते प्यार की नदी है, (बेहतर) देखने के लिए एक पसंद कोलिरियम है।

24ए. जो दया और द्वेष रखती है, जो दान के साम्राज्य में रहती है, जो मैथुन के आनंदमय युद्ध में लिप्त होती है, वह चित्ररेखा कहलाती है।

24बी-27ए। वह जिसका शरीर गोरा है, जो बहुत लंबा नहीं है, जो हमेशा वाद्य संगीत में लगी रहती है, जो असहायता का संकेत देती है, जो झपट्टा और भयावहता से दूर हो जाती है, जो हरि (अर्थात कृष्ण) के दाहिने तरफ रहती है, जिसके लिए सभी भजन हैं प्रिय, जो प्रेम की इच्छा (-बनाने) के कारण मिठास रखता है, उसे चंद्र कहा जाता है।

27बी-30ए. वह जिसकी चाल चंचल और धीमी है, जिसने आकर्षक रूप से अपनी आँखें बंद कर ली हैं, जो उज्ज्वल और प्रेम की धारा से भरी हुई है, जो विस्तारित कोलिरियम के कारण आकर्षक दिखती है, जो कृष्ण के प्रेम में रुचि रखती है, जो कृष्ण के नृत्य की ध्वनि के लिए उत्सुक है। जो अहंकार से युक्त है, जिसने मुख से चन्द्रमा की निंदा की है, जो मधुर वचनों में चतुर (बोलने वाला) है, जो इन्द्रियों को वश में करने वालों का शिखा-मणि है, जो आकर्षक मुस्कान से संपन्न है, वह मदनसुंदरी है।


30बी-31. वह जो कृष्ण के दोषरहित नृत्य में रुचि रखती है, जो काली (फिर भी) आकर्षक है, जो प्रेम और स्नेही दृष्टि से हरि के हृदय को आकर्षित करती है, जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है, जिसने अपने क्रोध को नियंत्रित किया है, वह प्रिया कहलाती है ।

32-34ए। वह जिसका शरीर सुहावने सोने के समान सुडौल है, जो खेल-कूद वाली चाल है और सुंदर है, जिसकी आकृति कामदेव के प्रेम के प्रहार और प्रचंडता के कारण मधुर है, जिसके चेहरे पर एक आकर्षक मुस्कान है, जिसने चाँद को नीचे कर दिया है, मधुर वचनों में कुशल, इन्द्रियों को वश में करने वालों का शिखा-मणि कौन है, और जो प्रेम की सिद्धि का इच्छुक है, वह मधुमती है।

34बी-40ए। वह जो भ्रम, भयावहता और प्रेम की धारा के बुखार से संपन्न है, जो खुद को दान के साथ (इसे तुच्छ के रूप में देखते हुए) धूल के रूप में बदल देती है, जो कृष्ण के नृत्य की ध्वनि का अनुसरण करने वाली एक महान नर्तकी है, और जो हमेशा कृष्ण की प्यारी है, शशिरेखा है। वह कृष्ण की आत्मा है । वह उत्कृष्ट है, सांवली है, प्यारी और तीखी आंखें हैं। वह उसके चरणों के प्रेम से मोहित हो जाती है; कभी-कभी वह भयावहता से छू जाती है। शिवकुशा में वह शिवानंद है; देहिका के तट पर वह नंदिनी है वह द्वारवती में रुक्मिणी है ; और वृंदावन-ग्रोव में वह राधा हैं । मेरी यह देवी मथुरा में देवकी बन गई है ; इसी तरह चित्रकश में वह हैसीता । विंध्य (पर्वत) पर वह विंध्यनिवासिनी है। वाराणसी में वह विशालाकी हैं ; और (अर्थात) विष्णु में वह विमला है । कृष्ण ने उनकी कृपा की, उन्हें वृंदावन पर शासन दिया। अन्य स्थानों पर वह देवी हैं और वृंदावन-ग्रोव में राधा हैं। कृष्ण के पास हमेशा एक सुखी शरीर होता है, जिसे अशरीरी कहा जाता है ।

40बी-48ए। उनके पास कृष्ण का शरीर है, उन्हें वायु, अग्नि, आकाश (अर्थात ईथर) और पृथ्वी के अधीक्षण देवता के रूप में वर्णित किया गया है, इसलिए ब्रह्मा का भी। यद्यपि सूर्य शक्तिशाली है, फिर भी उसे शक्ति के साथ नामित नहीं किया गया है; उसी तरह कृष्ण प्रतिभा से संपन्न हैं, निश्चित रूप से समय को भ्रमित करते हैं । उसका कोई भौतिक रूप नहीं है, जो मज्जा, मांस या हड्डियों से उत्पन्न होता है। उसके पास एक अद्भुत शक्ति है, वह एक और स्वामी है, और एक शाश्वत शरीर है, वह सभी की आत्मा है। ओलों और घी के (कणों) के मामले में कठोरता आकस्मिक है । असीमित प्राथमिक पदार्थ के कृष्ण के चरण की सतह एक देवता नहीं है ( अस्पष्ट !)। वृंदावन में धूल के ढेर में करोड़ों विष्णु हैं. आनंदकिरण में, ब्रह्मांड का चंद्रमा (अर्थात कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उसकी किरणों का हिस्सा हैं क्योंकि आत्मा में घटकों की प्रकृति मौजूद है। कृष्ण (अर्थात) दो भुजाओं से घिरे हुए हैं । उसकी कभी चार भुजाएँ नहीं होतीं। वहाँ, एक चरवाहे से घिरा, वह हमेशा खेलता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले एक आदमी है; ब्रह्मा और अन्य केवल महिलाएं हैं । उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति की एक विधा है।

48बी-51. राधा और कृष्ण पहले प्रकृति और पुरुष हैं । वृन्दावन के स्वामी को छोड़कर, सब कुछ प्रकृति की उपज है। उनके प्रकट होने से यह संसार प्रकट होता है, और उनके लुप्त होने पर टूट जाता है। जैसे सोना नष्ट नहीं होता (भले ही उसके उत्पाद नष्ट हो जाएं), इसलिए कृष्ण नहीं गिरते, भले ही (उनके अवतार जैसे) मत्स्य नाश हो। तीन घटकों ( गुणों ) (अर्थात सांसारिक अस्तित्व) का यह विस्तार वृंदावन में खेलने वाले का विस्तार है। सागर की लहर लहर बन जाती है; लेकिन महासागर (नया) उत्पन्न नहीं होता है।

52-55. राधिका जैसी कोई महिला नहीं है, और कृष्ण जैसा कोई पुरुष नहीं है । किशोरावस्था से बेहतर कोई उम्र नहीं होती। यही प्रकृति का महान सहज स्वभाव है। किशोरावस्था पर विचार करना चाहिए। वृंदावन-ग्रोव पर विचार करना चाहिए । सबसे बड़ा रूप है (उसका) श्याम , और सबसे बड़ा आनंद प्रथम ईश्वर है। बचपन पांचवें वर्ष तक रहता है। बाल्यावस्था दसवें वर्ष तक होती है। किशोरावस्था आठ और पांच साल तक चलती है। सीमा (इसकी) पंद्रहवीं वर्ष है। किशोरावस्था, युवावस्था ( यौवन) से निकलती है, ताजा युवा ( नवायवना ) कहलाती है। वह युग उसका सर्वस्व है; अन्य आयु (उस से अधिक) असत्य ( प्रपंच ) है।

56-62। मैं आकर्षक बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं युवा चरवाहे कृष्ण को नमन करता हूं, जो कामदेव के समान चरवाहे के रूप में हैं, जो ग्वाले-कामदेव हैं, एक किशोर के स्वभाव के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, जिनकी युवावस्था अभी-अभी टूटी है ( यानी सेट इन), जो निरंतर, अतुलनीय अमृत-समान आनंद का महान सागर है। श्री के स्वामी विजयी होते हैं। यौवन के रूप में उसका शरीर छिपा हुआ है। भिन्न-भिन्न मन के पुरुष अपनी-अपनी पसंद के अंतर के अनुसार उसे देखते हैं जो एक ही है, अपरिवर्तनीय, प्राचीन है, जिसे ग्वालों के समूह में ध्यान के माध्यम से जाना जाता है। मैं उन्हें नमस्कार करता हूं, जिनके नाखूनों की चमक ब्रह्मा है, जिनका ध्यान ब्रह्मा जैसे देवताओं द्वारा किया जाता है, जो तीन घटकों (यानी प्रकृति) से परे हैं, जो वृंदावन के स्वामी हैं। गोविंदा कभी वृंदावन नहीं छोड़ते। उसका शरीर कहीं और कृत्रिम है। इसमें तो कोई शक ही नहीं है। मैं उसकी पूजा करता हूँनंद का पुत्र जो व्रज में महिलाओं के लिए आसानी से सुलभ है , लेकिन मोक्ष की इच्छा रखने वालों तक पहुंचना मुश्किल है। भजन उनके नाखूनों की महान चमक है।

पार्वती ने कहा :

63. जब तक मोक्ष या भोग की इच्छा रूपी स्त्री हृदय में विद्यमान है, तब तक वहाँ प्रेम का आनंद कैसे उठ सकता है?

प्रभु ने कहा :

64-65. हे अच्छे, आपने अच्छा पूछा है। मेरे मन में जो कुछ है, वह सब बता दूं। ध्यानपूर्वक सुनें। (भक्त) अपने गुणों, अपने नाम, मन को भाने वाले गीतों को याद करता है; खुद को प्रबुद्ध करता है, और हमेशा (उसके) प्यार में विलीन हो जाता है। [1]

फुटनोट और संदर्भ:

[1] :

इस चार्टर के कुछ छंद जैसे 41, 44ff। बिल्कुल स्पष्ट नहीं हैं। कुछ, जैसे 52bff। अप्रासंगिक प्रतीत होते हैं।

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