-+वचन+-
संस्कृत में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन।
संख्या में एक होने पर एकवचन का, दो होने पर द्विवचन का तथा दो से अधिक होने पर बहुवचन का प्रयोग किया जाता है।
जैसे- एक वचन -- एकः बालक: क्रीडति।
द्विवचन -- द्वौ बालकौ क्रीडतः।
बहुवचन -- त्रयः बालकाः क्रीडन्ति।
_______________________________
लिंग-′पुल्लिंग- जिस शब्द में पुरुष जाति का बोध होता है, उसे पुलिंग कहते हैं।
- (जैसे रामः, बालकः, सः आदि)
- स: बालकः अस्ति।- वह बालक है।
- तौ बालकौ स्तः।- वे दोनों बालक हैं।
- ते बालकाः सन्ति। -वे सब बालक हैं।
- सा बालिका अस्ति। वह बालिका है ।
- ते बालिके स्तः। वे दो बालिका हैं।
- ताः बालिकाः सन्ति। वे सब बालिका हैं।-
- तत् फलम् अस्ति | वह फल है ।
- ते फले स्त: |वे दो फल हैं।
- तानि फलानि सन्ति | वे सब फल हैं।
"संस्कृत के पुरुष"
पुरुष | एकव० | द्विव० | बहुव० |
---|---|---|---|
उत्तमपुरुष | अहम्(मैं) | आवाम्(हमदोनों) | वयम्-(हमसब) |
मध्यमपुरुष | त्वम्(तू) | युवाम्(तुम दोनों) | यूयम्(तुम सब) |
प्रथम/अन्य पुरुष | स:/सा/तत् (वह) | तौ/ते/ते (वे दोनों | ते/ता:/तानि (वे सब) |
- अन्य पुरुष एकवचन मे 'स:' पुल्लिङ्ग के लिये , 'सा' स्त्रीलिङ्ग के लिये और 'तत्' नपुन्सकलिङ्ग के लिये है।
- क्रमश: द्विवचन और बहुवचन के लिए भी यही रीति है |
- उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष मे लिङ्ग के भेद नही है ।
- कारक नाम - वाक्य के अन्दर उपस्थित पहचान-चिह्न से समन्वित क्रिया से सम्बन्धित पदों का नाम कारक है
कर्ता - ने (रामः) गीतं गायति।)
कर्म - को (to) (बालकः (विद्यालयं) गच्छति।)
करण - से (by /With), द्वारा (सः (हस्तेन) फलं खादति।
सम्प्रदान -को , के लिये (for) (निर्धनाय) धनं देयं।
अपादान - से (from) अलगाव (वृक्षात् )पत्राणि पतन्ति।
सम्बन्ध - का, की, के (of) (राम: (दशरथस्य पुत्रः) आसीत्।
अधिकरण - में, पे, पर (in/on) यस्य (गृहे) माता नास्ति,)
सम्बोधन - हे!,भो !,अरे !, (हे राजन्) !अहं निर्दोषः।
भवत् स्त्रील्लिंग शब्द के रूप –
भवत् स्त्रील्लिंग शब्द रूप: “भवत् शब्द” नाम का
भवत् (भवती = आप स्त्री) अन्यपुरुष, स्त्री० –
विभक्ति | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन |
प्रथमा | भवती= आप एक स्त्री ने | भवत्यौ=आप दौनों स्त्रीयों ने | भवत्यः= आप सब स्त्रीयों ने |
द्वितीया | भवतीम्= आप एक स्त्री को | भवत्यौ=आप दौनों स्त्रियों को | भवत्यः= आप सब स्त्रीयों को |
तृतीया | भवत्या= आप एक स्त्री को द्वारा | भवतीभ्याम्= आप दौंनो स्त्रियों के द्वारा | भवतीभिः= आप सब स्त्रियों के द्वारा |
चतुर्थी | भवत्यै= आप एक स्त्री के लिए | भवतीभ्याम्= आप दौंनो स्त्रियों के लिए | भवतीभ्यः= आप सब स्त्रीयों के लिए |
पञ्चमी | भवत्याः= आप एक स्त्री से | भवतीभ्याम्= आप दौनों स्त्रीयों से | भवतीभ्यः= आप सब स्त्रीयों से |
षष्ठी | भवत्याः= आप एक स्त्री का | भवत्योः= आप दौंनो स्त्रियों का | भवतीनाम्= आप सब स्त्रीयों का |
सप्तमी | भवत्याम्= आप एक स्त्री में | भवत्योः= आप दौनों स्त्रीयों में | भवतीषु= आप सब स्त्रीयों में |
सम्बोधन | हे भवति | हे भवत्यौ | हे भवत्यः |
___________________
"भवत्" सर्वनामपद के रूप तीनों लिंगों में सदैव अन्य पुरुष के क्रियापद का प्रयोग होता है।
"डवतुप्रत्ययान्तपुल्लिङ्गः
(भवत् -पुल्लिङ्गः)
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमा | भवान्= आप एक ने | भवन्तौ= आप दौनों ने | भवन्तः= आप सब ने |
द्वितीया | भवन्तम्= आप एक को | भवन्तौ= आप दौनों को | भवतः= आप सब को |
तृतीया | भवता= आप एक को द्वारा- | भवद्भ्याम् =आप दौनों को द्वारा | भवद्भिः= आप सब को द्वारा |
चतुर्थी | भवते= आप एक के लिए | भवद्भ्याम् =आप दौनों के लिए | भवद्भ्यः= आप सब को लिए |
पञ्चमी | भवतः= आप एक से | भवद्भ्याम् आप दौनों से | भवद्भ्यः= आप सब से |
षष्ठी | भवतः= आप एक का | भवतोः= आप दौंनो का | भवताम्= आप सब का |
सप्तमी | भवति= आप एक में | भवतोः= आप दौनों में | भवत्सु= आप सब में |
सम्बोधन | हे भवान् | हे भवन्तौ | हे भवन्तः |
"वाच्य"-
संस्कृत में तीन वाच्य होते हैं- कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य।
- कर्तृवाच्य में कर्तापद में प्रथमा विभक्ति का होता है।
- (छात्रः) श्लोकं पठति- यहाँ (छात्रः) कर्ता है और प्रथमा विभक्ति में है।
- कर्मवाच्य में कर्तापद में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है और कर्म में प्रथमा विभक्ति का।
- जैसे, छात्रेण (श्लोकः) पठ्यते। यहाँ छात्रेण तृतीया विभक्ति में और कर्म-श्लोक: में प्रथमा विभक्ति है।
- अकर्मक क्रिया में कर्म नहीं होने के कारण क्रिया की प्रधानता होने से भाववाच्य के प्रयोग सिद्ध होते हैं।
- कर्ता की प्रधानता होने से कर्तृवाच्य प्रयोग सिद्ध होते हैं। भाववाच्य एवं कर्मवाच्य में क्रियारूप एक जैसे ही रहते हैं।
कर्तृवाच्य. से | -भाववाच्य | |
---|---|---|
1.पु० | भवान् तिष्ठतु -आप बैठो। | भवता स्थीयताम्आ=प के द्वारा बैठा जाए- |
2.स्त्री० | भवती नृत्यतु आप नाचो- | भवत्या नृत्यताम्आ=प के द्वारा नाचा जाए- |
3. | त्वं वर्धस्व | त्वया वर्ध्यताम् =आपके द्वारा बढ़ा जाए- |
4.पु० | भवन्तः न खिद्यन्ताम् | भवद्भिः न खिद्यताम् =आप सबके द्वारा दु:खी न हुआ जाए- |
5.स्त्री० | भवत्यः उत्तिष्ठन्तु | भवतीभिः उत्थीयताम् =आपके सबके द्वारा उठा जाए |
6. | यूयं संचरत | युष्माभिःसंचर्यताम्= आप सबके द्वारा चरा जाए |
7.पु० | भवन्तौ रुदिताम् | भवद्भयां रुद्यताम् =आप सबके द्वारा रोया जाए. |
8.स्त्री० | भवत्यौ हसताम् | भवतीभ्यां हस्यताम् आप दौनों के द्वारा हसा जाए. |
9. | विमानम् उड्डयताम् | विमानेन उड्डयताम् विमान के द्वारा उड़ा जाए. |
10 | सर्वे उपविशन्तु | सर्वै: उपविश्यताम् -सबके द्वारा बैठा जाए- |
उपर्युक्त वाक्यों में क्रिया अन्य पुरुष, एक वचन और आत्मनेपदीय में रूप में है।
उप+ विश् धातुरूपाणि -लोट् लकारःविशँ प्रवेशने तुदादिःगणीय- परस्मैपदीय व आत्मनेपदीय रूप-
"उप+विश्-बैठना।
प्रथमपु०-एकव०उपविशतात् / उपविशताद् / उपविशतु।द्विव०उपविशताम्।बहुव०उपविशन्तु।
मध्यम पु०-एकव०-उपविश।द्विव-उपविशतम्।बहुव०-उपविशत।
उत्तम पु०एकव०- उपविशानि।द्विव ०- उपविशाव।बहुव० - उपविशाम।_______________________
________प्रथमपु०एकव०-उपविश्यताम्द्विव० -उपविश्येताम्बहुव०-उपविश्यन्ताम्_______मध्यमएकव०-उपविश्यस्वद्विव० - उपविश्येथाम्बहुव०-उपविश्यध्वम्_____उत्तमएकव०-उपविश्यैद्विव०-उपविश्यावहैबहुव०-उपविश्यामहै_____________________
रूपिम-(Morpheme) भाषा उच्चारण की लघुत्तम अर्थवान् इकाई है।
रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।
स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है।
रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।
स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है।
(रूपिम को 'रूपग्राम' और 'पदग्राम' भी कहते हैं। जिस प्रकार स्वन-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई स्वनिम (ध्वनि है
उसी प्रकार रूप-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई रूपिम है।
रूपिमवाक्य-रचना और अर्थ-अभिव्यक्ति की सहायक इकाई है।
स्वनिम -भाषा की अर्थहीन इकाई है, किन्तु इसमें अर्थभेदक क्षमता होती है।
_____________
_____________
(रूपिम- लघुत्तम अर्थवान इकाई है, किन्तु रूपिम को अर्थिम का पर्याय नहीं मान सकते हैं;
यथा-" परमात्मा" एक अर्थिम पद है, जबकि इसमें ‘परम’ और ‘आत्मा’ दो रूपिम पद हैं।
परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-
"ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
"ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
"आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है।
स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
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परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-
"ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
"ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
"आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है।
स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
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"वाक्य विज्ञान --
दो या दो से अधिक पदों के सार्थक समूह जिसका पूरा अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं।
--
उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।
शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --
- वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है।
क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो
विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में
(१) आकांक्षा,
(२) योग्यता और
(३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों।
जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय (सम्बन्ध) है।
'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।
दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं-
उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।
शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --
- वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है।
क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो
विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में
(१) आकांक्षा,
(२) योग्यता और
(३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों।
जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय (सम्बन्ध) है।
'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।
दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं-
"विधि-वाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद -वाक्य किए गए हैं ; इनमें अंतिम के चार भेद- १-स्तुति, २-निंदा, ३-परकृति और ४-पुराकल्प बताए गए हैं।
(वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।
भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।
आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—
२-मिश्रित वाक्य और
३-संयुक्त वाक्य।
तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं ।________________________________________
वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |
वाक्य किसे कहते हैं?
सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।
उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।
2. आप की इच्छा क्या है ?
वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।
शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया।
अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया।
अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ?
शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया।
शुभम् बाजार गया।
उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई।
उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।
शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया।
अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
मेरे साथ ढेर सारा सामान है।
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।
शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।______________
जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।
अब रेखांकित वाक्यों को देखें।
रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं।
_________
सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -
1. अर्थ की दृष्टि से
2. रचना की दृष्टि से
__________
हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।
1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ
2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर
3. किन्तु और परन्तु में अन्तर
4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर
5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों
6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.
7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ
8. सर्वनाम और उसके प्रकार
__________________
अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–
अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।
(अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अशोक राजनगर में रहता है।
(ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।
इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं आज नहीं जाऊंगा।
(स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
क्या तुम आज ही वापस जाओगे?
(द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अरे! शुभम् तुम!!
इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।
1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ
2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल
4. काव्य के प्रकार
5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य
6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय
7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद
(ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
तुम बाजार चले जाओ।
(फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
(ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
शायद मैं आज देर से लौटूँ।
(ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।
___________________________
अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–
आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।
जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–
"अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।
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1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।
2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।
3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?
4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।
5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।
6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।
7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।
8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।
वाक्यांश--
शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -
'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
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कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
वाक्य के दो भेद होते हैं-
उद्देश्य और
विधेय
वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय उसे विधेय कहते हैं।उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
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वाक्य के भेद
वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-
१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-
विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत एक देश है।
राम के पिता का नाम दशरथ है।
दशरथ अयोध्या के राजा हैं।
निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
मैंने दूध नहीं पिया।
मैंने खाना नहीं खाया।
प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत क्या है?
राम के पिता कौन है?
दशरथ कहाँ के राजा है?
आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
बैठो।
बैठिये।
कृपया बैठ जाइये।
शांत रहो।
कृपया शांति बनाये रखें।
इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।
विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
ओह! कितनी ठंडी रात है।
बल्ले! हम जीत गये।
इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्यों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
नववर्ष मंगलमय हो।
संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
राम का मकान उधर है।
सोनु उधर रहता है।
संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्यों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण-
क्या वह यहाँ आ गया ?
क्या उसने काम कर लिया ?
रचना के आधार पर वाक्य के भेद---
रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-
(१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
जैसे- मुकेश पढ़ता है।
राकेश ने भोजन किया।
(२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।
(३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।
इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।
जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।
प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि" संस्कृत में काल गत वाक्य निरूपण के लिए लकार हैं।
रूपिम-(Morpheme) भाषा उच्चारण की लघुत्तम अर्थवान् इकाई है।
रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।
स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है।
रूपिम स्वनिमों (ध्वनि समूहों)का ऐसा न्यूनतम अनुक्रम है जो व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है।
स्वनिम के बाद रूपिम भाषा का महत्वपूर्ण तत्व व अंग है।
(रूपिम को 'रूपग्राम' और 'पदग्राम' भी कहते हैं। जिस प्रकार स्वन-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई स्वनिम (ध्वनि है
उसी प्रकार रूप-प्रक्रिया की आधारभूत इकाई रूपिम है।
रूपिमवाक्य-रचना और अर्थ-अभिव्यक्ति की सहायक इकाई है।
स्वनिम -भाषा की अर्थहीन इकाई है, किन्तु इसमें अर्थभेदक क्षमता होती है।
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(रूपिम- लघुत्तम अर्थवान इकाई है, किन्तु रूपिम को अर्थिम का पर्याय नहीं मान सकते हैं;
यथा-" परमात्मा" एक अर्थिम पद है, जबकि इसमें ‘परम’ और ‘आत्मा’ दो रूपिम पद हैं।
परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-
"ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
"ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
"आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है।
स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
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परिभाषा - विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों ने रूपिम को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विद्वानों के अनुसार पदग्राम पदों का समूह (रूपिम) वस्तुतः परिपूरक वितरण या मुक्त वितरण मे आये हुए सहपदों (शब्दों) का समूह है। रूप भाषा की लघुतम अर्थपूर्ण इकाई होती है जिसमें एक अथवा अनेक ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है।
डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के मतानुसार, भाषा या वाक्य की लघुतम सार्थक इकाई रूपग्राम है।
डॉ॰ जगदेव सिंह ने लिखा है, रूप-अर्थ से संश्लिष्ट भाषा की लघुतम इकाई को रूपिम कहते हैं।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ:-
"ब्लॉक का रूपिम के विषय में विचार है- कोई भी भाषिक रूप, चाहे मुक्त अथवा आबद्ध हो और जिसे अल्पतम या न्यूनतम अर्थमुक्त (सार्थक) रूप में खण्डित न किया जा सके, रूपिम होता है।
"ग्लीसन का विचार है- रूपिम न्यूनतम उपयुक्त व्याकरणिक अर्थवान रूप है।
"आर. एच. रोबिन्स ने व्याकरणिक संदर्भ में रूपिम को इस प्रकार परिभाषित किया है- न्यूनतम व्याकरणिक इकाईयों को रूपिम कहा जाता है।
स्वरूप- रूपिम के स्वरूप को उसकी अर्थ-भेदक संरचना के आधार पर निर्धारित कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा में रूपिम व्यवस्था उसकी अर्थ-प्रवृति के आधार पर होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूपिमों में भिन्नता होना स्वभाविक है।
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"वाक्य विज्ञान --
दो या दो से अधिक पदों के सार्थक समूह जिसका पूरा अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं।
--
उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।
शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --
- वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है।
क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो
विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में
(१) आकांक्षा,
(२) योग्यता और
(३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों।
जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय( सम्बन्ध) है।
'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।
दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं-
उदाहरण के लिए 'सत्य की विजय होती है।'
यह एक वाक्य है क्योंकि इसका पूरा पूरा अर्थ निकलता है किन्तु 'सत्य विजय होता।' परन्तु यइस प्रकार यह वाक्य नहीं है क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है।
शब्दकोशीय अर्थ की दृष्टि से --
- वह पद -समूह जिससे श्रोता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो।
भाषा के भाषा-वैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है और क्रिया का होना भी आवश्यक है।
क्रियापद और कारक पद से युक्त सेच्छिक ( इच्छा-सहित) अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। जो उद्देश्यांश और विधेयांश वाले सार्थक पदों का समूह हो
विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार वाक्य में
(१) आकांक्षा,
(२) योग्यता और
(३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए।
'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्य अथवा इच्छा का बोध कराते हों।
जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा।
जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। क्यों कि इसमें ऐच्छिकता का क्रमिक अन्वय( सम्बन्ध) है।
'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो।
जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा क्योंकि पानी में हाथ जलाने की योग्यता का अभाव है।
'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का अधिक व्यवधान अथवा दूरी न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है।
इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा।
काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है।
दर्शनशास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद मानते हैं-
"विधि-वाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद -वाक्य किए गए हैं ; इनमें अंतिम के चार भेद- १-स्तुति, २-निंदा, ३-परकृति और ४-पुराकल्प बताए गए हैं।
(वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।
भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।
आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—
२-मिश्रित वाक्य और
३-संयुक्त वाक्य।
तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं ।________________________________________
वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |
वाक्य किसे कहते हैं?
सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।
उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।
2. आप की इच्छा क्या है ?
वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।
शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया।
अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया।
अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ? शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया।
शुभम् बाजार गया।
उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई।
उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।
शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया।
अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
मेरे साथ ढेर सारा सामान है।
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी। शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।
______________
जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।
अब रेखांकित वाक्यों को देखें।
रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं।
_________
सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -
1. अर्थ की दृष्टि से
2. रचना की दृष्टि से
__________
हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।
1. 'ज' का अर्थ, द्विज का अर्थ
2. भिज्ञ और अभिज्ञ में अन्तर
3. किन्तु और परन्तु में अन्तर
4. आरंभ और प्रारंभ में अन्तर
5. सन्सार, सन्मेलन जैसे शब्द शुद्ध नहीं हैं क्यों
6. उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, वाचक शब्द क्या है.
7. 'र' के विभिन्न रूप- रकार, ऋकार, रेफ
8. सर्वनाम और उसके प्रकार
__________________
अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–
अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।
(अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अशोक राजनगर में रहता है।
(ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।
इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं आज नहीं जाऊंगा।
(स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
क्या तुम आज ही वापस जाओगे?
(द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अरे! शुभम् तुम!!
इन प्रकरणों 👇 को भी पढ़ें।
1. हिंदी गद्य साहित्य की विधाएँ
2. हिंदी गद्य साहित्य की गौण (लघु) विधाएँ
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास चार काल
4. काव्य के प्रकार
5. कवि परिचय हिन्दी साहित्य
6. हिन्दी के लेखकोंका परिचय
7. हिंदी भाषा के उपन्यास सम्राट - मुंशी प्रेमचंद
(ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
तुम बाजार चले जाओ।
(फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
(ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
शायद मैं आज देर से लौटूँ।
(ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।
___________________________
अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–
आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।
जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–
"अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।
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1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।
2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।
3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?
4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।
5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।
6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।
7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।
8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।
वाक्यांश--
शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -
'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
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कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
वाक्य के दो भेद होते हैं-
उद्देश्य और
विधेय
वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
________________________________________
वाक्य के भेद
वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-
१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-
विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत एक देश है।
राम के पिता का नाम दशरथ है।
दशरथ अयोध्या के राजा हैं।
निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
मैंने दूध नहीं पिया।
मैंने खाना नहीं खाया।
प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत क्या है?
राम के पिता कौन है?
दशरथ कहाँ के राजा है?
आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
बैठो।
बैठिये।
कृपया बैठ जाइये।
शांत रहो।
कृपया शांति बनाये रखें।
इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।
विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
ओह! कितनी ठंडी रात है।
बल्ले! हम जीत गये।
इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्यों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
नववर्ष मंगलमय हो।
संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
राम का मकान उधर है।
सोनु उधर रहता है।
संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्यों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण-
क्या वह यहाँ आ गया ?
क्या उसने काम कर लिया ?
रचना के आधार पर वाक्य के भेद---
रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-
(१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
जैसे- मुकेश पढ़ता है।
राकेश ने भोजन किया।
(२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।
(३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।
इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।
जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।
प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
संस्कृत में लकार — एक चिन्तन →
उससे निकली देवनागरी वर्णमाला के वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ ( स्वर ) और वे वर्ण जो इन ध्वनियों से अभिव्यञ्जित हुए — व्यञ्जन
इन सभी स्वर और व्यञ्जन में एक ऐसा वर्ण भी था जो न पूर्ण स्वर था और न पूर्ण व्यञ्जन ।
वह वर्ण था — ल् ।
पहले किसी पोस्ट पर मैंने कहा था कि सृष्टि के पूर्व अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही स्वर गुञ्जायमान था — ॐ ! देवनागरी वर्णमाला के जो वर्ण महादेव के डमरू-निनाद से प्रकट हुए, यह उनमें भी नहीं था क्योंकि यह तो अनादिकाल से ब्रह्माण्ड में था ही, सतत सनातन ध्वनि । जब ब्रह्म में सृष्टि की उत्पत्ति की स्फुरणा हुई तो प्रकृति ने ब्रह्म की अध्यक्षता में त्रिविध गुणमयी सृष्टि की रचना की, वह ब्रह्म निमित्त होकर भी अपनी ही स्वभावभूता प्रकृति के संयोग से संसार के रूप में प्रकट भासने लग गया ।
वह ही भासने लग गया, यह कहने का तात्पर्य है कि वह ही इस सम्पूर्ण दृश्यमान सृजन का उपादान कारण था, सृष्टि में समाया हुआ होकर भी सृष्टि का संचालक नियामक ।
क्रिया का आरोपण तो प्रकृति पर गया परन्तु वह भी उस चेतना रूपी ब्रह्म के बिना संचालित नहीं थी ।
– स्वर अर्थात् ध्वनियाँ सीधे-सीधे ब्रह्म की द्योतक हैं और व्यञ्जन प्रकृति के द्योतक ।
बिना स्वर के प्रकृति कैसे अपने को व्यक्त कर पाती ।
बिना स्वर के प्रकृति के कार्य-व्यापार कैसे संचालित हो पाते।
प्रकृति तो ब्रह्म के बिना सर्वथा अधूरी थी । इसलिए स्वर-स्वरूप ब्रह्म के संयोग से ही प्रकृति-स्वरूप व्यञ्जन अपने को व्यञ्जित कर पाए । तभी तो सारे व्यञ्जन हलन्त ( हल् + अन्त ) हैं । पाणिनि के माहेश्वर सूत्र से व्युत्पन्न प्रत्याहार ‘हल्’ में आने वाले समस्त वर्ण जो बिना स्वर-संयोग के उच्चारण नहीं किये जा सकते थे, हलन्त अर्थात् व्यञ्जन कहलाए ।
— ल् , जो स्वर भी था और व्यञ्जन भी । अत: प्रकृति के कार्य-व्यापार के संचालन को निर्देशित करने के लिए ‘ल्’ ( लकार ) का प्रयोग सर्वथा सम्यक् प्रतीत हुआ ।
संस्कृत में क्रिया के Mood को बताने के लिए 10 लकार नियत किये गये । इसमें छ: लकार ‘ट्’–अन्त्यक हैं, लट्, लृट्, लोट्, लिट्, लुट् और लेट् — ये छ: लकार । ट् वर्ण धनुष् की टंकार का वाचक है । टंकार से संकल्प ध्वनित होता है और बिना संकल्प के क्रिया हो नहीं सकती है । ट्-अन्त्यक लकार क्रियाओं में संकल्प को ध्वनित करते हैं ।
शेष चार लकार ‘ङ्’–अन्त्यक हैं, लङ्, लिङ्, लृङ् और लुङ् — ये चार लकार । ङ् वर्ण इच्छा का बोधक है । किसी इच्छा या इच्छा के भाव ( अपूर्णतार्थ में ) को निर्देशित करने के लिए ‘ङ्’ का उपयोग समीचीन और सम्यक् है ।
इस प्रकार संकल्प और विषयेच्छा से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित हैं ।
(वक्ता का अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है।इसी की पृष्ठ भूमि में संस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है।वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है।
भाषावैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक तत्व होते हैं।
आधुनिक व्याकरण की दृष्टि से वाक्य के संरचना के आधार पर तीन भेद होते हैं—
२-मिश्रित वाक्य और
३-संयुक्त वाक्य।
तथा अर्थ की दृष्टि से वाक्यों के आठ भेद होते हैं ।________________________________________
वाक्य – अर्थ की दृष्टि से वाक्य के प्रकार |
वाक्य किसे कहते हैं?
सार्थक शब्दों का ऐसा समूह जो व्यवस्थित हो तथा पूरा आशय प्रकट करता हो, वाक्य कहलाता है।
उदाहरण– 1. सोहन विद्यालय जाता है।
2. आप की इच्छा क्या है ?
वाक्यों के प्रकार के संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने के लिए नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और रेखांकित वाक्य पर गौर करें।
शुभम के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
शुभम् उनसे मिलने राजनगर गया।
अचानक शुभम् को देखकर अशोक ने कहा- अरे ! शुभम् तुम ! शुभम् ने बताया कि आपसे मिलने का मन हुआ तो चला आया।
अशोक ने पूछा- क्या तुम आज ही वापस जाओगे ? शुभम ने उत्तर दिया- मैं आज नहीं जाऊँगा। अशोक ने कहा ठीक है। शायद आज मैं देर से लौटू। तुम बाजार चले जाओ लो ये पैसे, माया के लिए एक अच्छा सूट खरीद लेना। अशोक ने शुभम के साथ भोजन किया और अपने काम पर चला गया।
शुभम् बाजार गया।
उसने एक छोर से दूसरे छोर तक बाजार का चक्कर लगाया किन्तु उसे कपड़ों को कोई अच्छी दुकान दिखाई नहीं दी। आखिरकार एक कोने में उसे कपड़े की एक दुकान नजर आई।
उसने वहाँ से माया के लिए एक सूट खरीदा और लौट आया। शाम को अशोक ने बताया कि कल उसकी छुट्टी रहेगी।
शुभम् ने उसे अपना लाया हुआ मोबाइल दिखाया।
अमित ने कहा- मैं चाहता हूँ कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
मेरे साथ ढेर सारा सामान है।
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी। शुभम् ने कहा- कल हम साथ ही घर चलेंगे।
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जैसे– शुभम् के बड़े भाई अशोक राजनगर में रहते हैं।
यह शब्द समूह सार्थक है, व्याकरण के नियमों के अनुरूप व्यवस्थित है तथा पूरा आशय प्रकट कर रहा है। अतः यह एक वाक्य है।
अब रेखांकित वाक्यों को देखें।
रेखांकित वाक्य अर्थ की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं।
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सामान्यतः वाक्य भेद दो दृष्टियों से किया जाता है -
1. अर्थ की दृष्टि से
2. रचना की दृष्टि से
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अर्थ के आधार पर वाक्य के भेद–
अर्थ के आधार पर वाक्यों के निम्नलिखित आठ भेद होते हैं।
(अ) विधानवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी क्रिया के करने या होने की सामान्य सूचना मिलती है, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते हैं। किसी के अस्तित्व का बोध भी इस प्रकार के वाक्यों से होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अशोक राजनगर में रहता है।
(ब) निषेधवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से किसी कार्य के निषेध (न होने) का बोध होता हो, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं।
इन्हें नकारात्मक वाक्य भी कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं आज नहीं जाऊंगा।
(स) प्रश्नवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में प्रश्न किया जाए अर्थात् किसी से कोई बात पूछी जाए, उन्हें प्रश्नवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
क्या तुम आज ही वापस जाओगे?
(द) विस्मयादिवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आश्चर्य (विस्मय), हर्ष, शोक, घृणा आदि के भाव व्यक्त हों, उन्हें विस्मयादिवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अरे! शुभम् तुम!!
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(ई) आज्ञावाचक वाक्य– जिन वाक्यों से आज्ञा या अनुमति देने का बोध हो, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
तुम बाजार चले जाओ।
(फ) इच्छावाचक वाक्य– वक्ता की इच्छा, आशा या आशीर्वाद को व्यक्त करने वाले वाक्य इच्छावाचक वाक्य कहलाते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
मैं चाहता कि मैं भी कल तुम्हारे साथ ही घर चलूँ।
(ग) संदेहवाचक वाक्य– जिन वाक्यों में कार्य के होने में सन्देह अथवा संभावना का बोध हो, उन्हें संदेहवाचक वाक्य कहते हैं।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
शायद मैं आज देर से लौटूँ।
(ह) संकेतवाचक वाक्य– जिन वाक्यों से एक क्रिया के दूसरी क्रिया पर निर्भर होने का बोध हो, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। इन्हें हेतुवाचक वाक्य भी कहते हैं। इनसे कारण, शर्त आदि का बोध होता है।
ऊपर के गद्यांश में वाक्य का उदाहरण –
अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मुझे सुविधा होगी।
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अर्थ की दृष्टि से वाक्य में परिवर्तन–
आप पढ़ चुके हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य आठ प्रकार के होते हैं। इनमें से विधानवाचक वाक्य को मूल आधार माना जाता है। अन्य वाक्य भेदों में विधानवाचक वाक्य का मूलभाव ही विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता है। किसी भी विधानवाचक वाक्य को सभी प्रकार के भावार्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है।
जैसे– उपरोक्त अनुच्छेद का विधानवाचक वाक्य–
"अशोक राजनगर में रहता है।" को लेते हैं– इस वाक्य को सभी प्रकार के वाक्यों में निम्नानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।
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1. विधानवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में रहता है।
2. विस्मयादिवाचक वाक्य - अरे! अशोक राजनगर में रहता है।
3. प्रश्नवाचक वाक्य - क्या अशोक राजनगर में रहता है?
4. निषेधवाचक वाक्य - अशोक राजनगर में नहीं रहता है।
5. संदेहवाचक वाक्य - शायद अशोक राजनगर में रहता है।
6. आज्ञावाचक वाक्य - अशोक! तुम राजनगर में रहो।
7. इच्छावाचक वाक्य- काश, अशोक राजनगर में रहता!।
8. संकेतवाचक वाक्य - यदि अशोक राजनगर में रहना चाहता है तो रह सकता है।
वाक्यांश--
शब्दों के ऐसे समूह को जिसका अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता, वाक्यांश (Phrase) कहते हैं। उदाहरण -
'दरवाजे पर', 'कोने में', 'वृक्ष के नीचे' आदि का अर्थ तो निकलता है किन्तु पूरा पूरा अर्थ नहीं निकलता इसलिये ये वाक्यांश हैं।
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कर्ता और क्रिया के आधार पर वाक्य के भेद करें
वाक्य के दो भेद होते हैं-
उद्देश्य और
विधेय
वाक्य में जिसके बारे में कुछ बात की जाय उसे उद्देश्य कहते हैं।
और जो बात उद्देश्य के वाले में की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग में रहता है'।
इसमें उद्देश्य है - 'मोहन' , और विधेय है - 'प्रयाग में रहता है।'
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वाक्य के भेद
वाक्य -भेद दो प्रकार से किए जा सकते हँ-
१- अर्थ के आधार पर वाक्य भेद
२- रचना के आधार पर वाक्य भेद
अर्थ के आधार पर वाक्य के तीन भेद हैं ।
अर्थ के आधार पर आठ प्रकार के वाक्य होते हँ-
विधानवाचक सूचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है,
वह विधानवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत एक देश है।
राम के पिता का नाम दशरथ है।
दशरथ अयोध्या के राजा हैं।
निषेधवाचक वाक्य : जिन वाक्यों से कार्य न होने का भाव प्रकट होता है, उन्हें निषेधवाचक वाक्य कहते हैं। जैसे-
मैंने दूध नहीं पिया।
मैंने खाना नहीं खाया।
प्रश्नवाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार प्रश्न किया जाता है, वह प्रश्नवाचक वाक्य कहलाता है।
उदाहरण -
भारत क्या है?
राम के पिता कौन है?
दशरथ कहाँ के राजा है?
आज्ञावाचक वाक्य - वह वाक्य जिसके द्वारा किसी प्रकार की आज्ञा दी जाती है या प्रार्थना की जाती है, वह आज्ञा वाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
बैठो।
बैठिये।
कृपया बैठ जाइये।
शांत रहो।
कृपया शांति बनाये रखें।
इस प्रकार के हिन्दी वाक्यों के अन्त में ओ अथवा ए की ध्वनि निकलती है ।
विस्मयादिवाचक वाक्य - वह वाक्य जिससे किसी प्रकार की गहरी अनुभूति का प्रदर्शन किया जाता है, वह विस्मयादिवाचक वाक्य कहलाता हैं।
उदाहरण -
अहा! कितना सुन्दर उपवन है।
ओह! कितनी ठंडी रात है।
बल्ले! हम जीत गये।
इच्छावाचक वाक्य - जिन वाक्यों में किसी इच्छा, आकांक्षा या आशीर्वाद का बोध होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण- भगवान तुम्हेँ दीर्घायु करे।
नववर्ष मंगलमय हो।
संकेतवाचक वाक्य- जिन वाक्यों में किसी संकेत का बोध होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं। उदाहरण-
राम का मकान उधर है।
सोनु उधर रहता है।
संदेहवाचक वाक्य - जिन वाक्यों में सन्देह का बोध होता है, उन्हें सन्देह वाचक वाक्य कहते हैं।
उदाहरण-
क्या वह यहाँ आ गया ?
क्या उसने काम कर लिया ?
रचना के आधार पर वाक्य के भेद---
रचना के आधार पर वाक्य के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-
(१)सरल वाक्य/साधारण वाक्य :-
जिनमें एक ही विधेय होता है, उन्हें सरल वाक्य या साधारण वाक्य कहते हैं, इन वाक्यों में एक ही क्रिया होती है;
जैसे- मुकेश पढ़ता है।
राकेश ने भोजन किया।
(२) संयुक्त वाक्य - जिन वाक्यों में दो-या दो से अधिक सरल वाक्य समुच्चयबोधक अव्ययों से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है;
जैसे- वह सुबह गया और शाम को लौट आया।
प्रिय बोलो पर असत्य नहीं।
(३) मिश्रित/मिश्र वाक्य - जिन वाक्यों में एक मुख्य या प्रधान वाक्य हो और अन्य आश्रित उपवाक्य हों, उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं।
इनमें एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक से अधिक समापिका क्रियाएँ होती हैं।
जैसे - ज्यों ही उसने औषधि सेवन किया, वह सो गया।
यदि परिश्रम करोगे तो, उत्तीर्ण हो जाओगे।
मैं जानता हूँ कि तुम्हारे कार्यअच्छे नहीं होते।
प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
संस्कृत में लकार — एक चिन्तन →
उससे निकली देवनागरी वर्णमाला के वर्णों की विभिन्न ध्वनियाँ ( स्वर ) और वे वर्ण जो इन ध्वनियों से अभिव्यञ्जित हुए — व्यञ्जन
इन सभी स्वर और व्यञ्जन में एक ऐसा वर्ण भी था जो न पूर्ण स्वर था और न पूर्ण व्यञ्जन ।
वह वर्ण था — ल् ।
पहले किसी पोस्ट पर मैंने कहा था कि सृष्टि के पूर्व अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही स्वर गुञ्जायमान था — ॐ ! देवनागरी वर्णमाला के जो वर्ण महादेव के डमरू-निनाद से प्रकट हुए, यह उनमें भी नहीं था क्योंकि यह तो अनादिकाल से ब्रह्माण्ड में था ही, सतत सनातन ध्वनि । जब ब्रह्म में सृष्टि की उत्पत्ति की स्फुरणा हुई तो प्रकृति ने ब्रह्म की अध्यक्षता में त्रिविध गुणमयी सृष्टि की रचना की, वह ब्रह्म निमित्त होकर भी अपनी ही स्वभावभूता प्रकृति के संयोग से संसार के रूप में प्रकट भासने लग गया ।
वह ही भासने लग गया, यह कहने का तात्पर्य है कि वह ही इस सम्पूर्ण दृश्यमान सृजन का उपादान कारण था, सृष्टि में समाया हुआ होकर भी सृष्टि का संचालक नियामक ।
क्रिया का आरोपण तो प्रकृति पर गया परन्तु वह भी उस चेतना रूपी ब्रह्म के बिना संचालित नहीं थी ।
– स्वर अर्थात् ध्वनियाँ सीधे-सीधे ब्रह्म की द्योतक हैं और व्यञ्जन प्रकृति के द्योतक ।
बिना स्वर के प्रकृति कैसे अपने को व्यक्त कर पाती ।
बिना स्वर के प्रकृति के कार्य-व्यापार कैसे संचालित हो पाते।
प्रकृति तो ब्रह्म के बिना सर्वथा अधूरी थी । इसलिए स्वर-स्वरूप ब्रह्म के संयोग से ही प्रकृति-स्वरूप व्यञ्जन अपने को व्यञ्जित कर पाए । तभी तो सारे व्यञ्जन हलन्त ( हल् + अन्त ) हैं । पाणिनि के माहेश्वर सूत्र से व्युत्पन्न प्रत्याहार ‘हल्’ में आने वाले समस्त वर्ण जो बिना स्वर-संयोग के उच्चारण नहीं किये जा सकते थे, हलन्त अर्थात् व्यञ्जन कहलाए ।
— ल् , जो स्वर भी था और व्यञ्जन भी । अत: प्रकृति के कार्य-व्यापार के संचालन को निर्देशित करने के लिए ‘ल्’ ( लकार ) का प्रयोग सर्वथा सम्यक् प्रतीत हुआ ।
संस्कृत में क्रिया के Mood को बताने के लिए 10 लकार नियत किये गये । इसमें छ: लकार ‘ट्’–अन्त्यक हैं, लट्, लृट्, लोट्, लिट्, लुट् और लेट् — ये छ: लकार । ट् वर्ण धनुष् की टंकार का वाचक है । टंकार से संकल्प ध्वनित होता है और बिना संकल्प के क्रिया हो नहीं सकती है । ट्-अन्त्यक लकार क्रियाओं में संकल्प को ध्वनित करते हैं ।
शेष चार लकार ‘ङ्’–अन्त्यक हैं, लङ्, लिङ्, लृङ् और लुङ् — ये चार लकार । ङ् वर्ण इच्छा का बोधक है । किसी इच्छा या इच्छा के भाव ( अपूर्णतार्थ में ) को निर्देशित करने के लिए ‘ङ्’ का उपयोग समीचीन और सम्यक् है ।
इस प्रकार संकल्प और विषयेच्छा से सृष्टि की समस्त क्रियाएँ संचालित हैं ।
"लकार -"
संस्कृत में लट् , लिट् , लुट् , लृट् , लेट् , लोट् , लङ् , लिङ् , लुङ् , लृङ् – ये दस लकार होते हैं। वास्तव में ये दस प्रत्यय ही हैं जो धातुओं में जोड़े जाते हैं।
इन दसों प्रत्ययों के प्रारम्भ में 'ल' है इसलिए इन्हें 'लकार' कहते हैं ।
इन दस लकारों में से आरम्भ के छः लकारों के अन्त में 'ट्' है- लट् लिट् लुट् आदि इसलिए ये टित् लकार कहे जाते हैं ।
और अन्त के चार लकार (ङित् )कहे जाते हैं क्योंकि उनके अन्त में 'ङ्' है।
व्याकरणशास्त्र में जब धातुओं से पिबति, खादति आदि रूप सिद्ध किये जाते हैं तब इन टित्" और ङित् "शब्दों का बहुत बार प्रयोग किया जाता है।
इन लकारों का प्रयोग विभिन्न कालों की क्रिया बताने के लिए किया जाता है।
जैसे – जब वर्तमान काल की क्रिया बतानी हो तो धातु से 'लट् लकार' जोड़ देंगे, अनद्यतन परोक्ष भूतकाल की क्रिया बतानी हो तो लिट् लकार जोड़ेंगे।
(१) लट् लकार (= वर्तमान काल) जैसे :- श्यामः खेलति । ( श्याम खेलता है।)
(२) लिट् लकार (= अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो । जैसे :-- रामः रावणं ममार। ( राम ने रावण को मारा ।)
(३) लुट् लकार (= अनद्यतन भविष्यत् काल) जो आज का दिन छोड़ कर आगे होने वाला हो । जैसे :-- सः श्वः विद्यालयं गन्ता। ( वह कल विद्यालय जायेगा ।)
(४) लृट् लकार (= अद्यतन भविष्यत् काल - सामान्य भविष्य काल) जो आने वाले किसी भी समय में होने वाला हो आज से लेकर कभी भी । जैसे :--रामः इदं कार्यं करिष्यति । (राम यह कार्य करेगा।)
(५) लेट् लकार (= यह लकार केवल वेद में प्रयोग होता है, ईश्वर की प्रार्थना के लिए, क्योंकि वह किसी काल में बंधा नहीं है।)
(६) लोट् लकार (= ये लकार आज्ञा, अनुमति लेना, प्रशंसा करना,प्रार्थना आदि में प्रयोग होता है ।) जैसे :-भवान् गच्छतु । (आप जाइए ) ; सः क्रीडतु । (वह खेले) ; त्वं खाद । (तुम खाओ ) ; अहं किं वदानि । ( मैं क्या बोलूँ ?)
(७) लङ् लकार (= अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- भवान् तस्मिन् दिने भोजनमपचत् । (आपने उस दिन भोजन पकाया था।)
(८) लिङ् लकार = इसमें दो प्रकार के लकार होते हैं :--
- (क) आशीर्लिङ् (= किसी को आशीर्वाद देना हो) जैसे :- भवान् जीव्यात् (आप जीओ ) ; त्वं सुखी भूयात् । (तुम सुखी रहो।)
- सामान्य भूतकाल’ का अर्थ है कि जब भूतकाल के साथ ‘कल’ ‘परसों’ सप्ताह वर्ष" आदि विशेषण न लगे हों तब यदि ये समय निर्धारण सूचक विशेषण हैं तो लङ् -लकार का प्रयोग होगा ।
- बोलने वाला व्यक्ति चाहे अपना अनुभव बता रहा हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति का, अभी बीते हुए का वर्णन हो या पहले बीते हुए का, सभी जगह लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है।
- भले ही घटना साल भर पहले की हो किन्तु यदि कोई विशेषण नहीं लगा है तो लुङ् लकार का ही प्रयोग होगा।।
- ___________
- (२) ‘आज गया’ , ‘आज पढ़ा’ , ‘आज हुआ’ आदि अद्यतन (आज वाले) भूतकाल के लिए भी लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है, लङ् या लिट् लकार का नहीं।
- लुङ् लकार के रूप के साथ यदि ‘माङ्’ अव्यय ( मा शब्द ) लगा दें तो उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है और तब इसका प्रयोग भूतकाल के लिए नहीं अपितु ‘आज्ञा’ या ‘विधि’ अर्थ हो जाता है जैसे –
- ” दुःखी मत होओ” = “खिन्नः मा भूः”
- ________________________________
- एक बात ध्यान रखनी है कि जब माङ् का प्रयोग करेंगे तो लुङ् लकार के रूप के "अकार" का लोप हो जाएगा। अभूत् के अ का लोप होकर – मा अभूत् का मा-भूत् रूप, मा-अभूः का मा-भू: रूप हो जाता है
_________________________________
लकारों के क्रम में लिङ् लकार के विषय में समझाते हुए हमने इसके दो भेदों का उल्लेख किया था- विधिलिङ् और आशीर्लिङ्। विधिलिङ् लकार के प्रयोग के नियम तो आपने जान लिये। अब आशीर्लिङ् के विषय में बताते हैं। आपने यह वेदमन्त्र तो कभी न कभी सुना ही होगा –
"मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् ‘भूयासं’ मधुसंदृशः॥( मेरा जाना मधुर हो, मेरा आना मधुर हो। मैं मधुर वाणी बोलूँ, मैं मधु के सदृश हो जाऊँ। अथर्ववेद १।३४।३॥ )
इसमें जो ‘भूयासम्’ शब्द है, वह भू धातु के आशीर्लिङ् के उत्तमपुरुष एकवचन का रूप है। भू धातु के आशीर्लिङ् में रूप देखिए –___________________________
भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः
भूयाः भूयास्तम् भूयास्त
भूयासम् भूयास्व भूयास्म१) इस लकार का प्रयोग केवल आशीर्वाद अर्थ में ही होता है। इसके सन्दर्भ में पाणिनि ने एक सूत्र लिखा है – “आशिषि लिङ्लोटौ।३।३।१७२॥” अर्थात् आशीर्वाद अर्थ में आशीर्लिङ् लकार और लोट् लकार का प्रयोग करते हैं। जैसे –
२) इस लकार के प्रयोग बहुत कम दिखाई पड़ते हैं, और जो दिखते भी हैं वे बहुधा भू धातु के ही होते हैं। अतः आपको भू धातु के ही रूप स्मरण कर लेना है।
________________________________________शब्दकोश :
‘गर्भवती’ के पर्यायवाची शब्द –
(१) आपन्नसत्त्वा
(२) गुर्विणी
(३) अन्तर्वत्नी
(४) गर्भिणी
(५) गर्भवतीपतिव्रता स्त्री के पर्यायवाची-
(१) सुचरित्रा
(२) सती
(३) साध्वी
(४) पतिव्रतास्वयं पति चुनने वाली स्त्री के लिए संस्कृत शब्द –
(१) स्वयंवरा
(२) पतिंवरा
(३) वर्यावीरप्रसविनी – वीर पुत्र को जन्म देने वाली
बुधप्रसविनी – विद्वान् को जन्म देने वालीउपर्युक्त सभी शब्द स्त्रीलिंग में होते हैं।
________________________________________वाक्य अभ्यास प्रयोग-:
यह गर्भिणी वीर पुत्र को उत्पन्न करने वाली हो !
= एषा आपन्नसत्त्वा वीरप्रसविनी भूयात्।ये सभी स्त्रियाँ पतिव्रताएँ हों!
= एताः सर्वाः योषिताः सुचरित्राः भूयासुः।ये दोनों पतिव्रताएँ प्रसन्न रहें!
= एते सुचरित्रे मुदिते भूयास्ताम्।हे स्वयं पति चुनने वाली पुत्री ! तू पति की प्रिय होवे।
= हे पतिंवरे पुत्रि ! त्वं भर्तुः प्रिया भूयाः।तुम दोनों पतिव्रताएँ होवो ।
= युवां सत्यौ भूयास्तम् ।वशिष्ठ ने दशरथ की रानियों से कहा –
= वशिष्ठः दशरथस्य राज्ञीः उवाच –तुम सब वीरप्रसविनी होओ।
= यूयं वीरप्रसविन्यः भूयास्त ।मैं मधुर बोलने वाला होऊँ।
= अहं मधुरवक्ता भूयासम्।सावित्री ने कहा –
सावित्री उवाचमैं स्वयं पति चुनने वाली होऊँ।
= अहं वर्या भूयासम्।माद्री और कुन्ती ने कहा –
माद्री च पृथा च ऊचतुः –हम दोनों वीरप्रसविनी होवें।
= आवां वीरप्रसविन्यौ भूयास्व ।हम सब राष्ट्रभक्त हों।
वयं राष्ट्रभक्ताः भूयास्म ।हम सब चिरञ्जीवी हों।
= वयं चिरञ्जीविनः भूयास्म।
_______________________________________श्लोक :
एकः स्वादु न भुञ्जीत नैकः सुप्तेषु जागृयात्।
एको न गच्छेत् अध्वानं नैकः चार्थान् प्रचिन्तयेत्॥
(पञ्चतन्त्र)स्वादिष्ट भोजन अकेले नहीं खाना चाहिए, सोते हुए लोगों में अकेले नहीं जागना चाहिए, यात्रा में अकेले नहीं जाना चाहिए और गूढ़ विषयों पर अकेले विचार नहीं करना चाहिए।
इस श्लोक में जितने भी क्रियापद हैं वे सभी विधिलिङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन के हैं।
सः चिरञ्जीवी भूयात् = वह चिरञ्जीवी हो।
(ख) विधिलिङ् (= किसी को विधि बतानी हो ।) जैसे :- भवान् पठेत् । (आपको पढ़ना चाहिए।) ; अहं गच्छेयम् । (मुझे जाना चाहिए।
(९) लुङ् लकार (= अद्यतन भूत काल) आज का भूत काल) जो आज कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- अहं भोजनम् अभक्षत् । (मैंने खाना खाया।)
(१०) लृङ् लकार हेतुहेतुमद्भविष्य काल(= ऐसा भविष्य काल जिसका प्रभाव वर्तमान तक हो जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तुम पढ़गे तो विद्वान् बनोगे।)
इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्नलिखित श्लोक स्मरण कर लीजिए-
- लट् -वर्तमाने लेट् -वेदे भूते- लुङ् लङ् लिटस्तथा ।
- विध्याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥
- (अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है।)
- लकारों के नाम याद रखने की विधि-
ल् में प्रत्याहार के क्रम से ( अ इ उ ऋ ए ओ ) जोड़ दें और क्रमानुसार 'ट' जोड़ते जाऐं । फिर बाद में 'ङ्' जोड़ते जाऐं जब तक कि दश लकार पूरे न हो जाएँ । जैसे लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ् लुङ् लृङ् ॥ इनमें लेट् लकार केवल वेद में प्रयुक्त होता है । लोक के लिए नौ लकार शेष रहे|
"समास:"
१) द्वन्द्व
२) तत्पुरुष
३) कर्मधारय
४) बहुव्रीहि
५) अव्ययीभाव
६) द्विगु समास क्रिया पदों में नहीं होता। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।
समास मुख्य क्रियापद में नहीं होता गौण क्रियापद में होता है। समास के पहले पद को 'पूर्व पद' कहते हैं, बाकी सभी को 'उत्तर पद' कहते हैं।
समास के तोड़ने को विग्रह कहते हैं, जैसे -- "रामश्यामौ" यह समास है और रामः च श्यामः च (राम और श्याम) इसका विग्रह है।
संस्कृत व्याकरण शब्दावली-
संस्कृत शब्द | तुल्य अंग्रेजी | पाणिनि द्वारा प्रयुक्त शब्द |
---|---|---|
विशेषण/ क्रिया विशेषण- | adjective | — |
adverb | ||
agreement | ||
महाप्राण | aspirated | — |
आत्मनेपद | ātmanepada | — |
विभक्ति/ कारक | case | — |
प्रथमा | case 1 (subject) | — |
द्वितीया | case 2 (object) | — |
तृतीया | case 3 ("with") | — |
चतुर्थी | case 4 ("for") | — |
पञ्चमी | case 5 ("from") | — |
षष्ठी | case 6 ("of") | — |
सप्तमी | case 7 ("in") | — |
संबोधन | case 8 (address) | — |
causal verb | णिजन्त | |
आज्ञा | command mood | लोट् |
समास | compound (word) | — |
संध्यक्षर | compound vowel | एच् |
संकेत | conditional mood | लृङ् |
व्यञ्जन | consonant | हल् |
desiderative | सन्नन्त | |
अनद्यतन | distant future tense | लुट् |
परोक्षभूत | distant past tense | लिट् |
अभ्यास | doubling | — |
द्विवचन | dual (number) | — |
द्वन्द्व | dvandva | — |
स्त्रीलिङ्ग | feminine gender | — |
उत्तम | first person | — |
लिङ्ग | gender | — |
gerund | क्त्वान्त | |
grammatical case | ||
व्याकरण | grammar | |
तालु | hard palate | — |
गुरु | heavy (syllable) | — |
intensive | यणन्त | |
लघु | light (syllable) | — |
ओष्ठ | lip | — |
दीर्घ | long vowel | — |
पुंलिङ्ग | masculine gender | — |
गुण | medium vowel | — |
अनुनासिक | nasal | — |
नपुंसकलिङ्ग | neuter gender | |
noun ending | सुप् | |
नामधातु | noun from verb | |
noun | सुबन्त | |
वचन | number | |
कर्मन् | object | — |
विधि | option mood | लिङ् |
भविष्यन् | ordinary future tense | |
अनद्यतनभूत | ordinary past tense | लङ् |
परस्मैपद | parasmaipada | — |
participle | ||
पुरुष | person | पुरुष |
बहुवचन | plural (number) | |
स्थान | point of pronunciation | |
prefix | ||
वर्तमान | present tense | लट् |
कृत् | primary (suffix) | |
सर्वनामन् | pronoun | — |
भूत | recent past tense | लुङ् |
ऊष्मन् | "s"-sound | — |
— | sandhi | — |
मध्यम | second person | मध्यम |
तद्धित | secondary (suffix) | — |
अन्तःस्थ | semivowel | |
ह्रस्व | short vowel | — |
समानाक्षर | simple vowel | — |
एकवचन | singular (number) | — |
कण्ठ | soft palate | |
प्रातिपदिक | stem (of a noun) | — |
अङ्ग | stem (of any word) | — |
स्पर्श | stop | |
वृद्धि | strong vowel | |
कर्तृ | subject | |
प्रत्यय | suffix | — |
अक्षर | syllable | |
प्रथम | third person | — |
दन्त | tooth | |
उभयपद | ubhayapada | |
अल्पप्राण | unaspirated | |
अव्यय | uninflected word | अव्यय |
अघोष | unvoiced | |
गण | verb class | — |
verb ending | तिङ् | |
उपसर्ग | verb prefix | उपसर्ग |
धातु | verb root | — |
verb | तिङन्त | |
verbless sentence | ||
घोषवत् | voiced | — |
स्वर | vowel | अच् |
_________________________ "गम्=जाना" लट्(वर्तमान) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गच्छति | गच्छतः | गच्छन्ति |
मपु० | गच्छसि | गच्छथः | गच्छथ |
उप० | गच्छामि | गच्छावः | गच्छामः |
लिट्-(अनद्यतनपरोक्षभूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | जगाम | जग्मतुः | जग्मुः |
मपु० | जगमिथ/जगन्थ | जग्मथुः | जगम |
उपु० | जगम/जगाम | जग्मिव | जग्मिम |
लुट्(जो आज का भविष्य न हो-अनद्यतन भविष्यत्काल) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गन्ता | गन्तारौ | गन्तारः |
मपु० | गन्तासि | गन्तास्थः | गन्तास्थ |
उपु० | गन्तास्मि | गन्तास्वः | गन्तास्मः |
लृट्लकार(आज का -अद्यतन भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गमिष्यति | गमिष्यतः | गमिष्यन्ति |
मपु० | गमिष्यसि | गमिष्यथः | गमिष्यथ |
उपु० | गमिष्यामि | गमिष्यावः | गमिष्यामः |
लोट् लकार(आज्ञार्थ) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गच्छतु/गच्छतात् | गच्छताम् | गच्छन्तु |
मपु० | गच्छ/गच्छतात् | गच्छतम् | गच्छत |
उपु० | गच्छानि | गच्छाव | गच्छाम |
लङ्(जो आज का भूत न हो।=अनद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अगच्छत् | अगच्छताम् | अगच्छन् |
मपु० | अगच्छः | अगच्छतम् | अगच्छत |
उपु० | अगच्छम् | अगच्छाव | अगच्छाम |
विधिलिङ् लकार- | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गच्छेत् | गच्छेताम् | गच्छेयुः |
मपु० | गच्छेः | गच्छेतम् | गच्छेत |
उपु० | गच्छेयम् | गच्छेव | गच्छेम |
आशीर्लिङ् लकार- | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | गम्यात् | गम्यास्ताम् | गम्यासुः |
मपु० | गम्याः | गम्यास्तम् | गम्यास्त |
उपु० | गम्यासम् | गम्यास्व | गम्यास्म |
लुङ्(आज का-अद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अगमत् | अगमताम् | अगमन् |
मपु० | अगमः | अगमतम् | अगमत |
उपु० | अगमम् | अगमाव | अगमाम |
लृङ्(हेतुहेतुमद्भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अगमिष्यत् | अगमिष्यताम् | अगमिष्यन् |
मपु० | अगमिष्यः | अगमिष्यतम् | अगमिष्यत |
उपु० | अगमिष्यम् | अगमिष्याव | अगमिष्याम |
- लट् लकार (Present Tense)
- लोट् लकार (Imperative Mood)
- लङ्ग् लकार (Past Tense)
- लृट् लकार (Second Future Tense)
- विधिलिङ्ग् लकार (Potential Mood)
- आशीर्लिङ् लकार (Benedictive Mood)
- लिट् लकार (Past Perfect Tense)
- लुट् लकार (First Future Tense or Periphrastic)
- लृङ् लकार (Conditional Mood)
- लुङ् लकार (Perfect Tense)
उनमें से सबसे मुख्य पाँच लकार होते हैं। (लट् लकार, लङ् लकार, लोट् लकार, लृट् लकार तथा विधि लिङ् लकार) ही प्रचलन में है और इन्ही संस्कृत लाकर का सबसे ज्यादा प्रयोग भी किया जाता है।
इस बात को स्मरण रखने के लिए कि धातु से कब किस लकार को जोड़ेंगे, निम्न श्लोक स्मरण कर लीजिए-
"लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा
विध्याशिषोर्लिङ् लोटौ च लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥
अर्थात् लट् लकार वर्तमान काल में, लेट् लकार केवल वेद में, भूतकाल में लुङ् लङ् और लिट्, विधि और आशीर्वाद में लिङ् और लोट् लकार तथा भविष्यत् काल में लुट् लृट् और लृङ् लकारों का प्रयोग किया जाता है
लट् लकार (Present Tense)
लट् लकार – (वर्तमान काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत वर्तमान काल में लट् लकार का प्रयोग होता है। क्रिया के जिस रूप से कार्य का वर्तमान समय में होना पाया जाता है, उसे वर्तमान काल कहते हैं, जैसे- राम घर जाता है- रामः गृहं गच्छति। इस वाक्य में ‘जाना’ क्रिया का प्रारम्भ होना तो पाया जाता है, लेकिन समाप्त होने का संकेत नहीं मिल रहा है। ‘जाना’ क्रिया निरन्तर चल रही है। अतः यहाँ वर्तमान काल है। क्रिया सदैव अपने कर्ता के अनुसार ही प्रयुक्त होती है। कर्त्ता जिस पुरुष, वचन तथा काल का होता है, क्रिया भी उसी पुरुष, वचन तथा काल की ही प्रयुक्त होती है। यह स्पष्ट ही किया जा चुका है कि मध्यम पुरुष में युष्मद् शब्द (त्वम्) के रूप तथा उत्तम पुरुष में अस्मद् शब्द (अहम्) के रूप ही प्रयुक्त होते हैं। शेष जितने भी संज्ञा या सर्वनाम के रूप हैं, वे सब प्रथम पुरुष में ही प्रयोग किये जाते हैं।
2. वर्तमान काल की क्रिया के आगे ‘स्म‘ जोड़ देने पर वह भूतकाल की हो जाती है, जैसे– रामः गच्छति। (राम जाता है), वर्तमान काल- रामः गच्छति स्म। (राम जाता था) भूत काल।
लोट् लकार (Imperative Mood)
लोट् लकार – (आज्ञार्थक), वाक्य, उदाहरण, अर्थ, आज्ञा, प्रार्थना अनुमति, आशीर्वाद आदि का बोध कराने के लिये लोट् लकार का प्रयोग किया जाता है।
लङ् लकार – (अनद्यतन भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. अनद्यतन भूत में लङ् लकार होता है, जो कार्य आज से पूर्व हो चुका है अर्थात् क्रिया आज समाप्त नहीं हुई बल्कि कल या उससे भी पूर्व हो चुकी है, वह अनद्यतन भूत-काल होता है।
लृट् लकार – (सामान्य भविष्यत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. सामान्य भविष्यत काल में ‘लुट् लकार’ का प्रयोग किया जाता है। क्रिया के जिस रूप से उसके भविष्य में सामान्य रूप से होने का पता चले, उसे ‘सामान्य भविष्यत काल’ कहते हैं; जैसे – विमला पुस्तकं पठिष्यति। (विमला पुस्तक पढ़ेगी।)
विधिलिङ् लकार – (चाहिए के अर्थ में), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत विधि (चाहिये)निमन्त्रण, आदेश, विधान, उपदेश, प्रश्न तथा प्रार्थना आदि अर्थों का बोध कराने के लिये विधि लिङ् लकार का प्रयोग किया जाता है ।
आशीर्लिङ्-लकार – (आशीर्वादात्मक), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. आशीर्वाद के अर्थ में आशीलिङ् लकार का प्रयोग किया जाता है, जैसे– रामः विजीयात्। (राम विजयी हो।)
लिट् लकार (Past Perfect Tense)
लिट् लकार –(परोक्ष अनद्यतन भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ –संस्कृत. ‘परोक्ष भूत काल’ में लिट् लकार का प्रयोग होता है। जो कार्य आँखों के सामने पारित न होता है, उसे परोक्ष भूतकाल कहते हैं।
______________________________
उत्तम पुरुष में लिट् लकार का प्रयोग केवल स्वप्न या उन्मत्त अवस्था में ही होता है; जैसे– सुप्तोऽहं किल विललाप। (मैंने सोते में विलाप किया।)
या जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो ।
जैसे :– रामः रावणं ममार । ( राम ने रावण को मारा ।)
लुट् लकार – (अनद्यतन भविष्यत काल) में लुट् लकार का प्रयोग होता है। बीती हुई रात्रि के बारह बजे से, आने वाली रात के बारह बजे तक के समय को ‘अद्यतन’ (आज का समय) कहा जाता है।
आने वाली रात्रि के बारह बजे के बाद का जो समय होता है उसे अनद्यतन भविष्यत काल कहते हैं; जैसे – अहं श्व: गमिष्यामि। (मैं कल जाऊँगा)यद्यपि यह वाक्य व्याकरण की दृष्टि से सम्यक् नहीं हैं।
लृङ् लकार – (हेतु हेतुमद भूतकाल/ भविष्य काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. क्रियातिपत्ति में लृङ् लकार होता है।
जहाँ पर भूतकाल की एक क्रिया दूसरी क्रिया पर आश्रित होती है, वहाँ पर हेतु हेतुमद भूतकाल होता है। इस काल के वाक्यों में एक शर्त सी लगी होती है; जैसे– यदि अहम् अपठिष्यम् तर्हि विद्वान अभविष्यम्। (यदि मैं पढ़ता तो विद्वान् हो जाता।). जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो । जैसे :- यदि त्वम् अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् भवितुम् अर्हिष्यत् । (यदि तू पढ़ता तो विद्वान् बनता।)
लुङ् लकार – (सामान्य भूत काल), वाक्य, उदाहरण, अर्थ – संस्कृत. लुङ् लकार में सामान्य भूत काल का प्रयोग होता है। क्रिया के जिस रूप में भूतकाल के साधारण रूप का बोध होता है, उसे सामान्य भूत काल कहते हैं। सामान्य भूत काल का प्रयोग प्रायः सभी अतीत कालों के लिये किया जाता है; जैसे– अहं पुस्तकम् अपाठिषम्। (मैंने पुस्तक पढ़ी।)
लट्(वर्तमान) डी =विहायसा गतौ- आत्मनेपदीय | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डयते | डयेते | डयन्ते |
मपु० | डयसे | डयेथे | डयध्वे |
उपु० | डये | डयावहे | डयामहे |
लिट्(परोक्ष अनद्यतनभूत काल) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डिड्ये | डिड्याते | डिड्यिरे |
मपु० | डिड्यिषे | डिड्याथे | डिड्यिध्वे/डिड्यिढ्वे |
उपु० | डिड्ये | डिड्यिवहे | डिड्यिमहे |
लुट्(अनद्यतन भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डयिता | डयितारौ | डयितारः |
मपु० | यितासे | डयितासाथे | डयिताध्वे |
उपु० | डयिताहे | डयितास्वहे | डयितास्महे |
लृट्(अद्यतन भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डयिष्यते | डयिष्येते | डयिष्यन्ते |
मपु० | डयिष्यसे | डयिष्येथे | डयिष्यध्वे |
उपु० | डयिष्ये | डयिष्यावहे | डयिष्यामहे |
लोट्(आज्ञार्थ) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | (डयताम्) | (डयेताम्) | डयन्ताम् |
मपु० | डयस्व | डयेथाम् | डयध्वम् |
उपु० | डयै | डयावहै | डयामहै |
लङ्(अनद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अडयत | अडयेताम् | अडयन्त |
मपु० | अडयथाः | अडयेथाम् | अडयध्वम् |
उपु० | अडये | अडयावहि | अडयामहि |
विधिलिङ् | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डयेत | डयेयाताम् | डयेरन् |
मपु० | डयेथाः | डयेयाथाम् | डयेध्वम् |
उपु० | डयेय | डयेवहि | डयेमहि |
आशीर्लिङ् | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | डयिषीष्ट | डयिषीयास्ताम् | डयिषीरन् |
मपु० | डयिषीष्ठाः | डयिषीयास्थाम् | डयिषीढ्वम्/डयिषीध्वम् |
उपु० | डयिषीय | डयिषीवहि | डयिषीमहि |
लुङ्(अद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अडयिष्ट | अडयिषाताम् | अडयिषत |
मपु० | अडयिष्ठाः | अडयिषाथाम् | अडयिध्वम्/अडयिढ्वम् |
उपु० | अडयिषि | अडयिष्वहि | अडयिष्महि |
लृङ्(हेतुहेतमद्-भविष्यत्काल) | |||
एकव | द्विव | बहुव | |
प्रपु० | अडयिष्यत | अडयिष्येताम् | अडयिष्यन्त |
मपु० | अडयिष्यथाः | अडयिष्येथाम् | अडयिष्यध्वम् |
उपु० | अडयिष्ये | अडयिष्यावहि | अडयिष्यामहि |
★-हे बालक तुम कल विद्यालय जाओगे।
-भो बालक: ! त्वं श्व: विद्यालयं गन्तासि।
★-हे मित्र हम कल वृन्दावन में सन्तों के पास जाऐंगे-
-भो मित्र! वयं श्वो वृन्दावने सताम् समीपं गन्तास्म:
सत् -साधुओं की परिभाषा में वह संप्रदायमुक्त साधु या संत जो विवाह करके गृहस्थ बन गया हो। यद्यपि सन्त: शब्द "सत् का बहुवचन रूप है।संस्कृत भाषा तथा कोशों में सन्त: शब्द मूल रूप से नहीं है । सम्मान देने के लिए बहुवचन का ही प्रयोग होता है।
सन्त:=१-संहतलः अथवा अञ्जलि। इति शब्दचन्द्रिका ॥ २-सच्छब्दस्य ( सत्-शब्दस्य) प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥ (यथा रघुःवंश महाकाव्यं। १ । १० ।
रघुवंशमहाकाव्यं-१.१०
तं सन्तःश्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः। हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
तं सन्तः श्रोतुम् अर्हन्ति सद्-असद्-व्यक्तिहेतवः । हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिःश्यामिकाअपि वा॥
अन्वयःकर्तृवाच्य-
सदसद्व्यक्ति-हेतवः (सन्तः तं श्रोतुम् अर्हन्ति) हि (यतः) हेम्नः विशुद्धिः वा श्यामिका अपि अग्नौ संलक्ष्यते ॥1.10॥
वाच्यपरिवर्तनम्-कर्मवाच्य-
सदसद्व्यक्तिहेतुभिः (सद्भिः स श्रोतुं अर्हते)। हि हेम्नः विशुद्धि वा श्यामिकाम् अपि अग्नौ (जनाः) संलक्षयन्ति ॥
सरलार्थः
यथा हि सुवर्णस्योत्कृष्टता वह्नितापेन निर्णीयते तथा काव्यस्य गुणो दोषो वा सहृदयानां पण्डितानां विचारेणैव निर्णीयते। अत एव मदीयं काव्यमिदं सहृदयैः सद्भिरेव श्रोतव्यम्। हेमतुल्यं काव्यं वह्नितुल्ये सहृदयहृदये परीक्षणीयम् ॥
तात्पर्यम्
उस वंश को सुनने को सत्य- असत्य का निर्णय करने वाले (सन्त ही योग्य होते हैं)। सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥
saint (n.)early 12c. as an adjective, seinte, "holy, divinely inspired, worthy of worship," used before proper names (Sainte Marian Magdalene, etc.),
from Old French saint, seinte "holy, pious, devout,"
from Latin sanctus "holy, consecrated," past participle of sancire!
"consecrate" (see -sacred).
It displaced or altered Old Englishsanct, which is directly from Latin sanctus.
From an adjective prefixed to the name of a canonized person, it came to be used in English by c. 1200 as a noun,
"a specific canonized Christian," also "one of the elect, a member of the body of Christ, one consecrated or set apart to the service of God," also in an Old Testament sense "a pre-Christian prophet."
It is attested by late 13c. as "moral or virtuous person, one who is pure or upright in heart and life."
The adjectives also were used as nouns in Late Latin and Old French: "a saint; a holy relic.
_________
"The Latin word also is the source of Spanish santo, santa, Italian san, etc.,
__________
and also ultimately the source of the word in most Germanic languages (Old Frisian sankt, Dutch sint, German Sanct).
Perhaps you have imagined that this humility in the saints is a pious illusion at which God smiles.
_______
That is a most dangerous error. It is theoretically dangerous, because it makes you identify a virtue (i.e., a perfection) with an illusion (i.e., an imperfection), which must be nonsense. It is practically dangerous because it encourages a man to mistake his first insights into his own corruption for the first beginnings of a halo round his own silly head. No, depend upon it; when the saints say that they—even they—are vile, they are recording truth with scientific accuracy. [C.S. Lewis, "The Problem of Pain," 1940]
saint (v.)
_______
"to enroll (someone) among the saints," c. 1200, in beon isontet "be sainted," from saint (n.) or from Old French santir. Related: Sainted; sainting.
Entries linking to saint
sacred (adj.)
late 14c., "hallowed, consecrated, or made holy by association with divinity or divine things or by religious ceremony or sanction," past-participle adjective from a now-obsolete verb sacren "to make holy" (c. 1200), from Old French sacrer "consecrate, anoint, dedicate" (12c.) or directly from Latin sacrare= "to make sacred, consecrate; hold sacred; immortalize; set apart, dedicate," from sacer (genitive sacri) "sacred, dedicated, holy, accursed." OED writes that, in sacred, "the original ppl.
notion (as pronunciation indicates) disappeared from the use of the word, which is now nearly synonymous with L. sacer."
This is from Old Latin saceres, from PIE root *sak= "to sanctify." Buck groups it with Oscan sakrim, Umbrian sacra and calls it "a distinctive Italic group, without any clear outside connections." De Vaan has it from a PIE root =*shnk- "to make sacred, sanctify," and finds cognates in Hittite= šaklai "custom, rites," zankila "to fine, punish." Related: Sacredness. The Latin nasalized form is sancire "make sacred, confirm, ratify, ordain" (as in saint, sanction).
An Old English word for "sacred" was godcund.
The meaning "of or pertaining to religion or divine things" (opposed to secular or profane) is by c. 1600.
The transferred sense of "entitled to respect or reverence" is from 1550s. Sacred cow as an object of Hindu veneration is by 1793;
its figurative sense of "one who or that which must not be criticized" is in use by 1910 in U.S. journalism, reflecting Western views of Hinduism. Sacred Heart "the heart of Jesus as an object of religious veneration" is by 1823, short for Sacred Heart of Jesus or Mary.
sainthood (n.)
"state or condition of being a saint," 1540s, from saint (n.) + -hood. Saintship is attested from c. 1600; saintdom from 1842 (Tennyson).
saintly
sanctification
sanctify
sanctimony
sanction
sanctitude
sanctity
sanctuary
sanctum
Sanctus
sangrail
santa
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Others are reading
______________
Definitions of saint
saint (n.)
a person who has died and has been declared a saint by canonization;
saint (n.)
___
person of exceptional holiness;
Synonyms: holy man / holy person / angel
saint (n.)
model of excellence or perfection of a kind; one having no equal;
Synonyms: ideal / paragon / nonpareil / apotheosis / nonesuch / nonsuch
2
saint (v.)
hold sacred;
Synonyms: enshrine
saint (v.)
declare (a dead person) to be a saint;
Synonyms: canonize / canonise
From wordnet.princeton.edu
Dictionary entries near saint
sail-cloth
_____________
संत (सं.)
12 सदी की शुरुआत एक विशेषण के रूप में, seinte,शब्द "पवित्र, दैवीय रूप से प्रेरित, पूजा के योग्य," उचित नामों से पहले उपयोग किया जाता है (जैसे-सैंट मैरियन मैग्डलीन, आदि),
पुराने फ्रांसीसी संत, सिन्ते से इसका विकास हुआ जिसका अर्थ है । "पवित्र, भक्त,"
लैटिन सैंक्टस से "पवित्र," पवित्रता के पिछले कृदंत!
"पवित्र" (पवित्र देखें)।
यह विस्थापित या पुरानी अंग्रेज़ी में बदल दिया, जो सीधे लैटिन अभयारण्य से है।
एक विहित व्यक्ति के नाम से पहले संज्ञा के रूप में एक विशेषण , यह अंग्रेजी में 1200 सदी के द्वारा उपयोग किया जाने लगा।
"एक विशिष्ट विहित ईसाई," भी "चुने हुए लोगों में से एक, मसीह के शरीर का एक सदस्य, एक पवित्रा या भगवान की सेवा के लिए अलग किया गया ," एक पुराने नियम के अर्थ में "एक पूर्व-ईसाई भविष्यवक्ता।" को सन्त कहा गया है ।
यह देर से 13 वीं सदी द्वारा प्रमाणित है। "नैतिक या गुणी व्यक्ति के रूप में, जो दिल और जीवन में शुद्ध या सीधा है। वह सन्त है"
देर से लैटिन और पुरानी फ्रांसीसी में विशेषणों को संज्ञा के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था: "एक संत; एक पवित्र अवशेष।
_________
"लैटिन शब्द भी स्पेनिश सैंटो, सांता, इटालियन सान, आदि का स्रोत है,
__________
और अंततः अधिकांश जर्मनिक भाषाओं में शब्द का स्रोत (ओल्ड फ़्रिसियाई सांक्ट, डच सिंट, जर्मन सैंक्ट) है।
शायद आपने सोचा होगा कि संतों में यह विनम्रता एक पवित्र भ्रम है जिस पर भगवान मुस्कुराते हैं।
_______
यह सबसे खतरनाक त्रुटि है। यह सैद्धांतिक रूप से खतरनाक है, क्योंकि यह आपको एक भ्रम (यानी, एक अपूर्णता) के साथ एक गुण (यानी, एक पूर्णता) की पहचान कराता है, जो बकवास होना चाहिए। यह व्यावहारिक रूप से खतरनाक है क्योंकि यह एक व्यक्ति को अपने स्वयं के मूर्ख सिर के चारों ओर एक प्रभामंडल की पहली शुरुआत के लिए अपने स्वयं के भ्रष्टाचार में अपनी पहली अंतर्दृष्टि को गलती करने के लिए प्रोत्साहित करता है ऐसा नहीं है।,
इस पर निर्भर; जब संत कहते हैं कि वे—यहां तक कि—वे भी नीच हैं, वे वैज्ञानिक सटीकता के साथ सत्य को दर्ज कर रहे हैं।सन्दर्भ [सी.एस. लुईस, "द प्रॉब्लम ऑफ़ पेन," 1940]
संत (वि.)
_______
"संतों के बीच (किसी को) नामांकन करने के लिए, 1200,वी सदी में बीन आइसोनेट में "बी संत", संत (एन.) से या पुराने फ्रांसीसी संतिर से। संबंधित: संत;
संत से जुड़ने वाली प्रविष्टियां
पवित्र (सं.)
देर से 14वी सदी "पवित्र, या दिव्यता या दैवीय चीजों के साथ या धार्मिक समारोह या स्वीकृति के द्वारा पवित्र बनाया गया," अतीत-कृदंत विशेषण अब-अप्रचलित क्रिया पवित्र से "पवित्र बनाने के लिए" 1200)वी सदी, से पुराने फ्रांसीसी संत "अभिषेक, , समर्पण" (12 सी।) या सीधे से लैटिन सेकर-sacrare = "पवित्र बनाने के लिए, पवित्र करना; पवित्र रखना; अमर करना; अलग करना, समर्पित करना," (यौगिक पवित्र) "पवित्र, समर्पित, पवित्र, शापित।" ओईडी लिखता है कि, पवित्र में, "मूल पीपीएल।
धारणा (जैसा कि उच्चारण इंगित करता है) शब्द के उपयोग से गायब हो गया, जो अब लगभग एल सेसर का पर्याय बन गया है।"
यह पुराने लैटिन सेसेरेस से है, पीआईई रूट *sak= "पवित्रीकरण" से। buck इसे Oscan sakrim, Umbrian sacra के साथ समूहित करता है और इसे "एक विशिष्ट इटैलिक समूह, बिना किसी स्पष्ट बाहरी कनेक्शन के" कहता है। दे वान ने इसे एक पीआईई रूट = * शंक- "पवित्र, पवित्र बनाने के लिए" से प्राप्त किया है और हित्ती = aklai "कस्टम, संस्कार," ज़ंकिला "ठीक करने, दंडित करने के लिए" में संज्ञेय पाता है।
संबंधित: पवित्रता। लैटिन नासिकाकृत रूप पवित्र है "पवित्र बनाओ, पुष्टि करें, आदेश दें" (संत, स्वीकृति के रूप में)।
"पवित्र" के लिए एक पुराना अंग्रेज़ी शब्द गॉडकुंड था।
अर्थ "या धर्म या दैवीय चीजों से संबंधित" (धर्मनिरपेक्ष या अपवित्र के विपरीत)1600 वी सदी द्वारा है। .
"सम्मान या सम्मान के हकदार" की स्थानांतरित भावना 1550 के दशक से है। हिंदू पूजा की वस्तु के रूप में पवित्र गाय 1793 तक है;
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1910 तक अमेरिकी पत्रकारिता में " सन्त वह है जो या जिसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए" का लाक्षणिक अर्थ हिंदू धर्म के पश्चिमी विचारों को दर्शाता है।
पवित्र हृदय "धार्मिक पूजा की वस्तु के रूप में यीशु का हृदय" 1823 तक, यीशु या मैरी के पवित्र हृदय के लिए छोटा है।
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संत की परिभाषा
संत (सं.)
एक व्यक्ति जो मर गया है और संत घोषित कर दिया गया है
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असाधारण पवित्रता के व्यक्ति;
समानार्थी: पवित्र व्यक्ति / पवित्र व्यक्ति / देवदूत
संत (सं.)
एक प्रकार की उत्कृष्टता या पूर्णता का मॉडल; जिसका कोई समाना न हो;
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( लुङ् लकार )
लट् वर्तमाने लेट् वेदे भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा
विध्याशिषोस्तु लिङ्लोटौ लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥
इस श्लोक को आप ठीक से स्मरण रखिए। वर्तमान काल के लिए प्रयुक्त होने वाले (लट् लकार) के विषय में बता दिया गया।
लेट् लकार केवल और केवल वेद में ही पाया जाता है ।
अब भूतकाल के लिए प्रयुक्त होने वाले लकारों के विषय में समझते हैं।
भूतकाल के लिए तीन लकार प्रयुक्त होते हैं- “भूते लुङ् लङ् लिटस्तथा”
सबसे पहला है लुङ् लकार, इसी के विषय पहले चर्चा करते हैं। सामान्य रूप से आप भूतकाल के लिए इन तीनों में से किसी का भी प्रयोग कर सकते हैं किन्तु कुछ विशेष नियम जान लीजिए जिससे भाषा में उत्कृष्टता आ जाएगी।
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भू (होना), लुङ् लकार
अभूत् (वह हुआ)/ अभूताम् (वे दोनों हुए) /अभूवन् (वे सब हुए)
अभूः (तू हुआ)/ अभूतम् ( तुम दोनों हुए)/ अभूत (तुम सब हुए)
अभूवम् (मैं हुआ)/ अभूव (हम दोनों हुए)/ अभूम (हम सब हुए)
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लुङ् लकार के विषय में निम्नलिखित नियम स्मरण रखिए –
(१) सबसे पहली बात तो यह स्मरण रखिए कि लुङ् लकार का प्रयोग ‘सामान्य भूतकाल’ अद्यतन के लिए होता है।
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सामान्य भूतकाल’ का अर्थ है कि जब भूतकाल के साथ ‘कल’ ‘परसों’ सप्ताह वर्ष" आदि विशेषण न लगे हों तब यदि ये समय निर्धारण सूचक विशेषण हैं तो लङ् -लकार का प्रयोग होगा ।
बोलने वाला व्यक्ति चाहे अपना अनुभव बता रहा हो अथवा किसी अन्य व्यक्ति का, अभी बीते हुए का वर्णन हो या पहले बीते हुए का, सभी जगह लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है।
भले ही घटना साल भर पहले की हो किन्तु यदि कोई विशेषण नहीं लगा है तो लुङ् लकार का ही प्रयोग होगा।।
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(२) ‘आज गया’ , ‘आज पढ़ा’ , ‘आज हुआ’ आदि अद्यतन (आज वाले) भूतकाल के लिए भी लुङ् लकार का ही प्रयोग करना है, लङ् या लिट् का नहीं।
(३) लुङ् लकार के रूप के साथ यदि ‘माङ्’ अव्यय ( मा शब्द ) लगा दें तो उसका अर्थ निषेधात्मक हो जाता है और तब इसका प्रयोग भूतकाल के लिए नहीं अपितु ‘आज्ञा’ या ‘विधि’ अर्थ हो जाता है जैसे – ” दुःखी मत होओ” = “खिन्नः मा भूः”
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एक बात ध्यान रखनी है कि जब माङ् का प्रयोग करेंगे तो लुङ् लकार के रूप के "अकार" का लोप हो जाएगा। अभूत् के अ का लोप होकर – मा अभूत् का मा-भूत् रूप, मा-अभूः का मा-भू: रूप हो जाता है ।____________________________________
ज्ञातव्यम् - एतत् सूत्रम् लृट् शेषे च ( ३.३.१३ ) इत्यस्य अपवादरूपेण आगच्छति ।
(लृट्-शेषे च इत्यनेन शुद्ध-भविष्यकालार्थम् सर्वत्र लृट्-प्रत्ययः विधीयते ।
तस्य बाधकरूपेण अनेन सूत्रेण अनद्यतन-भविष्यकालार्थम् लुट्-लकारः पाठ्यते ।
"अतः यदि क्रियायाः 'अनद्यनत्वम्' वाक्ये स्पष्टमस्ति, तर्हि लुट्-लकारस्यैव प्रयोगः करणीयः, लृट्-लकारस्य न ।
अतः 'सः श्वः विद्यालयं गमिष्यति' इति वाक्यम् व्याकरणदृष्ट्या असाधु अस्ति ।
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"यत्र कालः स्पष्टः नास्ति, तत्र तु लृट्-लकारः एव प्रयोक्तव्यः ★–
जहाँ समय स्पष्ट न हो वहाँ लृट् लकार का प्रयोग करना चाहिए और जहाँ समय( दिन)की अवधि निश्चित हो जैसे कल" परसौं अथवा एक सप्ताह एक वर्ष तो वहाँ लुट् लकार का प्रयोग होता है।
यथा - सः विद्यालयं गमिष्यति । सः अद्य श्वः वा विद्यालयं गमिष्यति ।।
वह विद्यालय जाएग। वह आज या कल विद्यालय जाएगा।
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लकार
अभ्यास: 1
प्रश्न 1.अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृति-प्रत्ययौ लिखतु- (निम्नलिखित पदों में प्रकृति-प्रत्यय लिखिए-)
(i) नीत्वा, (ii) आगम्य, (iii) पठित्वा, (iv) सम्भूय, (v) अर्चितः, (vi) स्नातवत्, (vii) त्यक्तः, (xiii) गच्छत्, (ix) ददानः, (xi) कुर्वाण:, (xii) द्रष्टव्यम्, (xiii) भनीयम्, (xiv) पातुम्, (xv) कारकः, (xvi) ज्ञेयः, (xii) मन्त्री, (xviii) स्तुतिः।
उत्तर:
(i) नी + क्त्वा (ii) आ + गम् + ल्यप् (iii) पठ् + क्त्वा (iv) सम् + भू + ल्यप् (v) अर्च + क्त (vi) स्नात् + क्तवतु (vii) त्यज् + क्त (viii) गम् + शतृ (ix) दा + शानच् (x) हृ + शतृ (xi) कृ + शानच् (xii) दृश् + तव्यत् (xiii) भू + अनीयर् (xiv) पा + तुमुन् (xv) कृ + ण्वुल् (xvi) ज्ञा + यत् (xvii) मन्त्र + णिनि (xviii) स्तुत् + ङीष्।
अभ्यास: 2
प्रश्न-अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृति-प्रत्ययौ योजयित्वा पद-निर्माणं कुरुत
(i) कृ+तृय्, (ii) दण्ड + इनि, (iii) रेवती + ठक्, (iv) शिव + अण्, (v) भस्म + मयट्, (vi) पटु + तर, (vii) लघु + तमप्, (viii) कोकिल + टाप्, (ix) नर्तक + क्ती, (x) भव + क्ती, (xi) मूषक + टाप्, (xii) गोप + ङीष्।
उत्तर:
(i) कर्तृ (ii) दण्डिन (iii) रैवतिकः (iv) शैवः (v) भस्ममयम् (vi) पटुतरः (vii) लघुतमः (viii) कोकिला (ix) नर्तकी (x) भवानी (xi) मूषिका (xii) गोपी।
अभ्यास- 3
प्रश्न
प्रकृति-प्रत्ययं योजयित्वा पदरचनां कुरुत। (प्रकृति प्रत्यय को मिलाकर पद-रचना कीजिये।)
(क) जन् + क्त।
(ख) क्रीड् + शतृ
(ग) त्यज् + क्त्वा
(घ) वि + श्रम् + ल्यप्
(ङ) भक्ष् + तुमुन्।
(च) नि + वृत् + क्तिन्।
(छ) प्र + यत् + तव्यत्
(ज) भुञ्ज + शान
(झ) गुह् + क्ते + टाप्।
(अ) जि + अच्।
(ट) ग्रह् + ण्वुल्।
(ठ) लभ् + क्तवतु।
(ड) अधि + वच् + तृच्।
(ढ) कृ + क्तवतु + ङीप्।
(ण) कृ + अनीयर्।
उत्तर:
(क) जातः, (ख) क्रीडन्, (ग) त्यक्त्वा, (घ) विश्रम्य, (ङ) भक्षितुम्, (च) निवृत्तिः, (छ) प्रयतितव्यम्, (ज) भुञ्जानः, (झ) गूढा, (अ) जयः, (ट) ग्राहकः, (ठ) लब्धवान्, (ड) अधिवक्ता, (ढ) कृतवती, (ण) करणीयः।
अभ्यास-4
प्रश्न
अधोलिखितपदेषु प्रकृति-प्रत्यय विभागः क्रियताम्(निम्नलिखित पदों में प्रकृति-प्रत्यय पृथक् कीजियें-)
(क) प्रयुक्तम्,
(ख) भवितव्यम्,
(ग) गन्तुम्,
(घ) पर्यटन्तः ,
(ङ) वहमानस्य,
(च) क्रीत्वा,
(छ) दृष्टिः ,
(ज) कर्ता,
(झ) अतितराम्,
(अ) प्रतीक्षमाणः,
(ट) करणीया,
(ठ) प्रत्यभिज्ञाय,
(ड) कारकः,
(ढ) कृतवती,
(ण) विक्रेता।
उत्तर:
(क) प्रयुक्तम् = प्र + युज् + क्त,
(ख) भवितव्यम् = भू + तव्यत्,
(ग) गन्तुम् = गम् + तुमुन्,
(घ) पर्यटन्तः = परि + अट् + शत् (प्र.ब.व.),
(ङ) वहमानस्य = वह् + शानच् (ष.ए.व.),
(च) क्रीत्वा = क्री + क्त्वा,
(छ) दृष्टिः = दृश् + क्तिन्,।
(ज) कर्ता = कृ + तृच्,
(झ) अतितराम् = अति + तरप् + टाप् (द्वि.ए.व.),
(ज) प्रतीक्षमाणः = प्रति + ईक्ष् + शनिच्,
(ट) करणीया = कृ + अनीयर् + टार्,
(ठ) प्रत्यभिज्ञाय = प्रति + अभि + ज्ञा + ल्यप्,
(ड) कारकः = कृ + ण्वुल्,
(ढ) कृतवती = कृ + क्तवतु + ङीप्,
(ण) विक्रेता = वि + क्री + तृच्।
प्रश्न
रिक्तस्थानानि यथानिर्दिष्टपदेन पूरयत-(रिक्त-स्थानों की पूर्ति निर्देशानुसार कीजिए-)
(क) रूपं यथा ………………………………… महार्णवस्य। (शम् + क्त)
(ख) ………………………………… नृत्यन्ति। (शिखा + इनि)
(ग) सलिलतीरं ………………………………… पक्षिणः वायसगणाः च। (वस् + णिनि)
(घ) अपयानक्रमो नास्ति ………………………………… अप्यन्यत्र को भवेत्। (नी + तृच्)
(ङ) तत्किमत्र प्राप्तकालं स्यादिति। ………………………………… समहात्मास्वकीय सत्यतपोबलमेव तेषां रक्षणोपायम् अमन्यत्। (वि + मृश् + शतृ)
(च) स्मरामि न प्राणिवधं यथाहं ………………………………… कृच्छ्रे परमेऽपि कर्तुम्। (सम् + चिन्त् + ल्यप् )
(छ) अतः शील विशुद्धौ ………………………………… (प्र + यत् + तव्यत्)
(ज) ………………………………… राज संसत्सु श्रुतवाक्या बहुश्रुता (वि + श्रु + क्त + टाप्)
(झ) स लोके लभते कीर्ति परत्र च शुभां ………………………………… (गम् + क्तिन्)
(ज) ततः प्रविशति दारकं ………………………………… रदनिका। (ग्रह् + क्त्वा)
(ट) उष्णं हि ………………………………… स्वदते। (भुज् + कर्म + शानच्)
(ठ) कालोऽपि नो ………………………………… यमो वा। (नश् + णिच् + तुमुन्)
(ड) अस्ति कालिन्दीतीरे ………………………………… पुरं नाम नगरम्। (योग + इनि + ङीप्)
(ढ) हम्मीरदेवेन साकं युद्धं …………………………………। (कृ + क्तवतु)
(ण) सः पराक्रमं ………………………………… दुर्गान्नि:सृत्य सत्ग्रामभूमौ निपपात्। (कृ + शानच्)
उत्तर:
(क) शान्तम् (ख) शिखिनः (ग) वासिनः (घ) नेता (ङ) विमृशन् (च) सञ्चिन्त्य (छ) प्रयतितव्यम् (ज) विश्रुता (झ) गतिम् (ञ) गृहीत्वा (ट) भुज्यमानं (ठ) नाशयितुम् (ड) योगिनी (ढ) कृतवान् (ण) कुर्वाणः।
अभ्यास- 6
प्रश्न
प्रकृतिप्रत्ययं योजयित्वा पदरचनां विधाय रिक्तस्थानं पूरयत। (प्रकृति-प्रत्यय को जोड़कर पद-रचना करके रिक्त-स्थान की पूर्ति कीजिये।)
(क) (सम् + उद् + बह् + शतृ) सलिलाऽतिभारं बलाकिनो वारिधरा: नदन्तः।
(ख) शालिवनं (वि + पच् + क्त)
(ग) तान् मत्स्यान् (भक्ष् + तुमुन्) चिन्तयन्ति।
(घ) (मुह् + क्त) मुखेन अतिकरुणं मन्त्रयसि। (क्त) जीवितार्थं कुलं (त्यज् + क्त्वा) यो जनोऽतिदूरं व्रजेत् किं तस्य जीवितेन?
(च) तेन (रक्ष् + अनीयर्) रक्षा भविष्यन्ति।
(छ) भृत्यौ (हस् + शतृ) गृहाभ्यन्तरं पलायेते।
(ज) भो कि (कृ + क्तवतु) सिन्धु।
(झ) स्वपुस्तकालये (नि + सद् + क्त) दूरभाषयन्त्रं बहुषः प्रवर्तयति।
(ज) वत्स सोमधर मित्रगृहान्नैव (गम् + तव्यत्)
(ट) देवागारे (अपि + धा + क्त) द्वारे भजसे किम्?
(ठ) ध्यानं (हा + क्त्वा) बहिरेहित्वम्।
(ड) शाकफल (वि + क्री + तृच्) दारकः कथं त्वामतिशेते।
(ढ) स लोके लभते (कृ + क्तिन्)।
(ण) तद् ग्रहाण एतम् (अलम् + कृ + ण्वुल्)।
उत्तर:
(क) समुद्वहन्तः (ख) विपक्वम् (ग) भक्षितुम् (घ) मुग्ध्न (ङ) त्यक्त्वा (च) रक्षणीय (छ) हसन्तौ (ज) कृतवान् (झ) निषण्णः (अ) गन्तव्यम् (ट) पिहित (ठ) हित्वा (ड) विक्रेतुः (ढ) कीर्तिम् (ण) अलंकारकम्।
प्रश्न
कोष्ठकात् उचितपदं चित्वा रिक्तस्थानं पूरयतः (कोष्ठक से उचित पद चुनकर रिक्तस्थान भरिये।)
(क) इति दारकमादाय ………………………………… रदनिका। (निष्क्रान्तः/निष्क्रान्ता)
(ख) मम हृदये नित्य ………………………………… स्तः। (सन्निहिता/सन्निहित:)
(ग) किन्तु अनुज्ञां ………………………………… गन्तुं शक्येत्। (प्राप्त्वा/प्राप्य)
(ध) वार्तालाप ………………………………… भृत्यौ रत्ना च बहिरायान्ति। (श्रुतौ/श्रुत्वा)
(ङ) दारकस्य कर्णमेव ………………………………… प्रवृत्तोऽसि। (भक्तुम्/भञ्जयितुम्)
(च) ………………………………… अस्मि तवे न्यायालये। (पराजित:/पराजितम्)
(छ) रामदत्तहरणौ आगच्छतः। (धावन्त:/धावन्तौ)
(ज) देवस्य शत्रु ………………………………… प्रभोर्मनोरथं साधयष्यामः। (हनित्वा/हत्वा)
(झ) रे रे ………………………………… अहं यवनराजेन समं योत्स्यामि। (योद्धा:/योद्धार:)
(ब) रक्ष स्व ………………………………… परहा भवाऽर्यः। (जातिम्/जात्याः)
(ट) नशक्तो कालोपि नो ………………………………… (नष्टुम्/नाशयितुम्)
(ठ) अतिविलम्बितं हि ………………………………… न तृप्तिमधिगच्छति। (भुञ्जन्/भुञ्जानो)
(ड) ………………………………… चाग्निमौदर्यमुदीयति। (भुक्तम्/भुक्त:)
(ढ) स्वबाहुबलम् ………………………………… योऽभ्युज्जीवति सः मानवः। (आश्रित्य/आश्रित्वा)
(ण) निर्जितं सिन्धुराजेन ………………………………… दीनचेतसम्। (शयमानम्/शयानम्)
उत्तर:
(क) निष्क्रान्ता (ख) सन्निहितौ (ग) प्राप्य (घ) श्रुत्वा (ङ) भञ्जयितुम् (च) पराजितः (छ) धावन्तौ (ज) हत्वा (झं) योद्धार: (ञ) जातिम् (ट) नाशयितुम् (ठ) भुञ्जानो (ड) भुक्तम् (ढ) आश्रित्य (ण) शयानम्।
प्रत्यय की परिभाषा- धातु अथवा प्रातिपादिक के बाद जिनका प्रयोग किया जाता है, उन्हें प्रत्यय कहते हैं। अर्थात् किसी धातु अथवा शब्द के बाद किसी विशेष अर्थ को प्रकट करने के लिए जो शब्द या शब्दांश जोड़ा जाता है, उसे ‘प्रत्यय कहते हैं। ये प्रत्यय मूलरूप से निरर्थक से प्रतीत होते हैं, किन्तु किसी शब्द के अन्त में प्रयुक्त प्रत्यय अत्यन्त सार्थक होकरे शब्द निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
(प्रत्यय के भेद-प्रत्ययों के मुख्यतः तीन भेद होते हैं-)
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जैसे–
(कृ + तव्यत् = कर्त्तव्यम्,
पठ् + अनीयर् = पठनीयम्।
[टिप्पड़ी -‘कृत् प्रत्ययों’ में शतृ, शानच्, तव्यत्, अनीयर, क्तिन्, ल्युट् तथा तृच् प्रत्ययों का अध्ययन अपेक्षित है।।
जैसे–
उपगु + अण् = औपगवः,
दशरथ + इ = दाशरथिः,
धन + मतुप् = धनवान्।।
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(1) कृत् प्रत्यय
(i) क्त्वा प्रत्यय-‘क्त्वा’ प्रत्यय में से प्रथम वर्ण ‘क’ का लोप होकर केवल ‘त्वा’ शेष रहता है।
‘समान कर्तृकयो: पूर्व काले” पूर्णकालिक क्रिया को बनाने के लिए ‘कर’ या ‘करके अर्थ में उपसर्गरहित क्रियाशब्दों में ‘क्त्वा’ प्रत्यय जोड़ा जाता है।
इस प्रत्यय से बना हुआ शब्द अव्यय शब्द होता है। अतः उसके रूप नहीं चलते हैं, अर्थात् वह सभी विभक्तियों, सभी वचनों, सभी लिंगों तथा सभी पुरुषों में एक जैसा ही रहता है और उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। जैसे–’वह पुस्तक पढ़कर खेलता है।’ इस वाक्य का संस्कृत में अनुवाद करने पर ‘सः पुस्तक पठित्वा क्रीडति’ बना।
इस वाक्य में दो क्रियाएँ हैं-प्रथम क्रिया ‘पढ़कर’ (पठित्वा) तथा दूसरी क्रिया ‘खेलता है’ (क्रीडति) है। दोनों क्रियाओं का कर्ता एक ही ‘वह’ (सः) है। यहाँ पठ् मूलक्रिया में क्त्वा’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘क्त्वा’ में ‘क्’ का लोप करने पर त्वा’ शेष रहा। ‘पठ् + त्वा’ धातु और प्रत्यय के मध्य ‘इ’ जोड़ने पर ‘पठित्वा’ पूर्वकालिक क्रिया का रूप बना, जिसका अर्थ- हुआ‘पढ़कर’ या ‘पढ़ करके ।
धातु और प्रत्यय के मध्य सब जगह ‘इ’ नहीं जुड़ता है। ‘‘सेट् धातुओं में ‘इट्(इ)’ जुड़ता है।’ ‘इ’ केवल वहीं जुड़ता है, जहाँ क्रिया में ‘इ’ के जोड़े जाने की आवश्यकता होती है। यहाँ सन्धि के सभी नियम भी लगते हैं।
जैसे–
अन्य उदाहरण-
क्त्वा प्रत्यय रूप
अन्य उदाहरण-
ल्यप् प्रत्ययान्त रूप
(iii-iv) क्त एवं क्तवतु प्रत्यय-
(i) किसी कार्य की समाप्ति का ज्ञान कराने के लिए अर्थात् भूतकाल के अर्थ में क्त और क्तवतु प्रत्यय होते हैं।
(ii) क्त प्रत्यय धातु से भाववाच्य या कर्मवाच्य में होता है और इसको ‘त’ शेष रहता है। क्तवतु प्रत्यय कर्तृवाच्य में होता है और उसका ‘तवत्’ शेष रहता है।
(iii) क्त और क्तवतु के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं। क्त प्रत्यय के रूप पुल्लिंग में राम के समान, स्त्रीलिंग में ‘आ’ लगाकर रमा के समान और नपुंसकलिंग में फल के समान चलते हैं। क्तवतु के रूप पुल्लिंग में भगवत् के समान, स्त्रीलिंग में ‘ई’ जुड़कर नदी के समान तथा नपुंसकलिंग में जगत् के समान चलते हैं।
जैसे–
अन्य उदाहरण
क्त प्रत्ययान्त रूप
क्तवतु प्रत्ययान्त रूप
(v- vi) शतृ एवं शानच्-प्रत्यय (लट् शतृशानचाव प्रथमा समानाधिकरणे)-वर्तमान काल में हुआ’ अथवा रहा’, ‘रहे’ अर्थ का बोध कराने के लिए ‘शतृ’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ‘शतृ’ प्रत्यय सदैव परस्मैपदी धातुओं (क्रिया-शब्दों) से ही जुड़ता है। ‘शतृ’ के ‘श्’ और तृ के ‘ऋ’ का लोप होकर ‘अत्’ शेष रहता है। शतृ प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं, यहाँ ‘शतृ’ प्रत्यय से बने कुछ क्रियापदों के उदाहरण पुल्लिंग में दिये जा रहे हैं। छात्र इन्हें समझें और कण्ठाग्र कर लें।
उदाहरण-
अन्य उदाहरण-
शानच् प्रत्यय-‘शतृ’ प्रत्यय के ही समान ‘शानच्’ प्रत्यय वर्तमान काल में हुआ’ अथवा ‘रहा’, ‘रही’, ‘रहे’ अर्थ का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे–‘शतृ’ प्रत्यय केवल परस्मैपदी धातुओं (क्रिया-शब्दों) से ही जुड़ता है, उसी प्रकार ‘शानच्’ प्रत्ययं केवल आत्मनेपदी धातुओं में ही जुड़ता है। शानच् प्रत्यय में से ‘श्’ और ‘च’ का लोप होकर ‘आन’ शेष रहता है। आन’ के स्थान पर अधिकतर ‘मान’ हो जाता है। यहाँ ‘शानच्’ प्रत्यय से बने कुछ क्रियापदों के उदाहरण पुल्लिंग में ही दिये जा रहे हैं। छात्र इन्हें समझें और कण्ठाग्र कर लें।
अन्य उदाहरण-
(vii) तव्यत् प्रत्यय (तव्यत्तव्यानीयरः)- ‘तव्यत्’ प्रत्यय ‘चाहिए’ अथवा ‘योग्य’ अर्थ में प्रयुक्त होता है। ‘तव्यत्’ प्रत्यय में से ‘त्’ का लोप होने पर ‘तव्य’ शेष रहता है। ‘तव्यत्’ प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं। यहाँ केवल पुल्लिंग के ही रूप दिये जा रहे हैं। छात्र इन्हें समझें और स्मरण कर लें।
उदाहरण-
अन्य उदाहरण-
(viii) ‘अनीयर् प्रत्यय-‘अनीयर् प्रत्यय भी ‘चाहिए’ अथवा ‘योग्य’ अर्थ में प्रयुक्त होता है। ‘अनीयर् प्रत्यय में से र का लोप होने पर ‘अनीय’ शेष रहता है। अनीयर् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं। यहाँ केवल पुल्लिंग के. ही रूप दिये जा रहे हैं। छात्र इन्हें समझे और कण्ठाग्र कर लें।
उदाहरण-
अन्य उदाहरण-
(ix-x) तुमुन्, ण्वुले-“तुमुनण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्”-
जिस क्रिया को करने के लिए अन्य क्रिया की जाती है। तब (उसी धातु में) धातु का भविष्यत् अर्थ प्रकट करने के लिए तुमुन्–ण्वुल प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसे–‘रामं द्रष्टुं दर्शको यान्ति’ इस वाक्य में दो क्रियाएँ हैं-देखना और जाना। जाने की क्रिया देखने की क्रिया के हेतु होती है, अतः दृश् (देखना) धातु में तुमुन् जोड़ दिया गया है। तुमुनन्त क्रिया जिस क्रिया के साथ आती है वह क्रिया सदा बाद में आती है।
तुमुन् प्रत्यय-‘तुमुन् प्रत्यय में से ‘मु’ के उ एवं अन्तिम अक्षर न् का लोप हो जाने पर तुम्’ शेष रहता है। ‘तुमुन्’ प्रत्यय से बना रूप अव्यय होता है। अत: उसके रूप नहीं चलते हैं। ‘तुमुन् प्रत्यय से बने कतिपय शब्दों के उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं-
अन्य उदाहरण-
(नोट-जिस क्रिया के साथ तुमुनन्त क्रिया आती है, उस क्रिया का और तुमुनन्त क्रिया का कर्ता एक ही होना चाहिए।
भिन्न-भिन्न कर्ता होने पर तुमुनन्त क्रिया का प्रयोग नहीं हो सकता।
ण्वुल् प्रत्यय-धातु से धातु का कर्ता बनाने के लिए इसका ‘व’ लगाया जाता है जो ‘अक’ में परिवर्तित हो जाता है।
इससे बने शब्दों के रूप तीनों लिंगों में क्रमशः राम, रमा और फल की तरह चलते हैं। धातु के अन्तिम अ इ उ ऋ की वृद्धि होकर क्रमश: आ, ऐ, औ तथा आर् हो जाता है।
धातु की उपधा के अ इ उ ऋ का क्रमशः आ, ए, ओ, आर् होता है। अकारान्त में युक् (य्) लगता है तथा कुछ धातुओं में गुण-वृद्धि न होकर सीधा जुड़ जाता है। जैसे–
अन्य उदाहरण-
नी--ण्वुल् । १ प्रापके
नी + ण्वुल् = नायकः (नी = ने + ण्वुल् (अक) = नै+अक: = नायकः, श्रु + ण्वुल् = श्रावक, लिख् + ण्वुल् = लेखकः, युज् + ण्वुल् = योजकः, गै + ण्वुल् = गायकः, रक्ष् + ण्वुल् = रक्षकः, हन् + ण्वुल् = घातकः।
(xi) तृच् प्रत्यय-कर्ता अर्थ में अर्थात् हिन्दी भाषा में करने वाला’ इस अर्थ में धातु के साथ तृच् प्रत्यय होता है। इसका ‘तृ’ भाग शेष रहता है और ‘च्’ का लोप हो जाता है।
तृच्-प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं। यहाँ केवल पुल्लिंग के ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
अन्य उदाहरण-
(xii) यत् प्रत्यय-यह भी कृत्- प्रत्यय है जो कर्म एवं भाववाच्य में ‘चाहिए’ अथवा ‘योग्य’ के अर्थ में प्रयोग होता है। यत्’ का स्वरान्त धातुओं से केवल ‘य’ लगाया जाता है। ऋकारान्त धातुओं से नहीं लगता। यह ‘अ’ उपधा वाली ‘प’. वर्गान्त धातुओं से भी लगाया जाता है। धातु के अन्तिम आ, इ, ई, का, ए तथा उ का अत् हो जाता है। ‘अ’ उपधा वाली ‘प’ वर्गान्त धातुओं से इसका सीधा ‘य’ लगता है।
जैसे–
(xiii) णिनि प्रत्यय-ग्रह आदि गण के शब्दों (ग्राही, उत्साही, मन्त्री, अयाची, अवादी, विषयी, अपराधी आदि) में णिनि का इन् लगता है।
जैसै-
ग्रह् + णिनि = ग्राहिन्, ग्राही, उत्साह् + णिनि = उत्साही, मन्त्र + णिनि = मन्त्री, अयाच् + णिनि = अयाची, अवद् + णिनि = अवादी, विषम् + णिनि = विषयी, अपराध् + णिनि = अपराधी। इसी प्रकार-वासी = वस् + णिनि। कारिणम् = कृ + णिनि। दर्शिन् = दृश् + णिनि।
(xiv) अच् प्रत्यय-
(i) पच् आदि धातुओं के अनन्तर ‘अच्’ प्रत्यय का ‘अ’ लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।
जैसे–
पच् + अच् = पचः,
वद् + अच् = वदः,
चल् + अच् = चलः।
(ii) कर्म के योग में ‘अर्ह’ धातु के अनन्तर अच् प्रत्यय लगता है।
यथा-
पूजा + अर्ह + अच् = पूजार्हः।
(iii) इकारान्त धातुओं से अच् जोड़ा जाता है। जैसे–जि + अच् = जयः, नी + अच् = नयः, भी + अच् = भयम्। सरः = सृ + अच्। करः = कृ + अच्। रसः = रस् + अच्।
(xv) क्तिन प्रत्यय-स्त्रियां क्तिन्-भाववाचक शब्द की रचना के लिए सभी धातुओं से ‘क्तिन्’ प्रत्यय होता है। इसका ‘ति’ भाग शेष रहता है, ‘कृ’ और ‘न्’ का लोप हो जाता है। ‘क्तिन्’ प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिंग में ही होते हैं। इनके रूप ‘मति’ के समान चलते हैं।
उदाहरण-
अन्य उदाहरण-
(2) तद्धित प्रत्यय
जो प्रत्यय शब्दों के योग में प्रयुक्त किये जाते हैं, वे तद्धित प्रत्यय कहे जाते हैं।
1. इनि प्रत्यय-अत इनिठनौ’-अकारान्त शब्दों से ‘वाला’ या ‘युक्त’ अर्थ में इनि और ‘ठन्’ प्रत्यय होते हैं। इनि का ‘इन्’ और ‘ठन्’ का ‘ठ’ शेष रहता है।
(i) ‘इनि’ प्रत्यय अकारान्त के अतिरिक्त आकारान्त शब्दों में भी लग सकता है। जैसे–माया + इनि = मायिन्, शिखा + इनि = शिखिन्, वीणा + इनि = वीणिन् आदि।
(ii) इनि प्रत्ययान्त शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘करिन्’ के समान, स्त्रीलिंग में ‘ई’ लगाकर ‘नदी’ के समान और ‘ नपुंसकलिंग में ‘मनोहारिन्’ शब्द के समान चलते हैं।
(iii) ‘ठन्’ प्रत्यय के ‘ठ’ को ‘इक’ हो जाता है, जैसे–दण्ड + ठन् = दण्ड + इक् = दण्डिकः (दण्ड वाला), धन+ ठन् = धन + इ = धनिकः (धन वाला)।
अन्य उदाहरण-
2. ठक् प्रत्यय-रेवतादिभ्यष्ठक्-रेवती, अक्ष, दधि, मरीच आदि शब्दों में अपत्य अर्थ में ठक् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ‘ठक्’ प्रत्यय में से ककार का लोप होने पर ‘ठ’ शेष रहती है। ‘ठ’ के स्थान पर ‘ठस्येकः’ सूत्र से ‘इक्’ हो जाता है।
‘जानकार’, ‘करने वाला’ या ‘सम्बन्धी’ अर्थ में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए संज्ञा या विशेषण शब्दों में ठक् प्रत्यय का ‘इक’ लगाया जाता है। इससे बने शब्दों का प्रयोग पुल्लिंग में राम की तरह होता है। प्रत्यय लगाते समय शब्द की ‘ति’ अर्थात् अन्तिम स्वर सहित उसके बाद वाले हल वर्ण का लोप हो जाता है। शब्द के आरम्भ में ‘अ’, का, ‘आ’, ‘इ’, का ‘ऐ’ तथा ‘उ’, का ‘औ’ हो जाता है।
जैसे–
3. अण् प्रत्यय-अश्वपत्यादिभ्यश्च-अश्वपति, गणपति, कुलपति, गृहपति, धर्मपति, सभापति, प्राणपति, क्षेत्रपति, इत्यादि शब्दों से अपत्य अर्थ बताने के लिए ‘अर्’ प्रत्यय होता है। ‘अण’ का ‘अ’ शेष रहता है,
जैसे–
अश्वपतेः अपत्यम् = अश्वपत्यम्,
गणपतेः अपत्यम् = गणपत्यम्।
(i) इसी तरह अपत्य या सन्तान, पुत्र, पौत्र, वंश आदि अर्थ को बताने के लिए षष्ठी विभक्त्यन्त शब्दों से ‘अर्’ प्रत्यय होता है।
जैसे–
उपगोः अपत्यं पुमान् = औपगवः (उपगु का पुत्र),
वसुदेवस्य अपत्यं पुमान् = वासुदेवः (वसुदेव का पुत्र)।
मनोः अपत्यं = मानवः।
(ii) शिव, मगध, पर्वत, पृथा, मनु आदि (शिवादि गण के शब्दों) से अपत्य अर्थ में ‘अर्’ प्रत्यय होता है।
जैसे–
(iii) नदी वाचक तथा मनुष्य जाति के स्त्रीवाचक जो शब्द संज्ञाएँ (नाम) हों तथा जिनके आदि में दीर्घ वर्ण न हो, उनसे अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। जैसे–
(iv) ऋषिवाचक, कुलवाचक, वृष्णि कुलवाचक, कुरुवंश वाचक, शब्दों से अपत्य अर्थ में ‘अण्’ प्रत्यय होता है।
जैसे–
(v) इसी प्रकार सन्तान अर्थ के समान ही अन्य अर्थों को बताने के लिए भी ‘अण्’ प्रत्यय होता है।
जैसे–
4. मयट् प्रत्यय-‘मयड्वैतयोभषायामभक्ष्याच्छादनयो:”-विकार और अवयव के अर्थ में ‘मयट्’ प्रत्यय का। प्रयोग किया जाता है। ‘मयट्’ प्रत्यय में से टकार का लोप होने पर ‘मय’ शेष रहता है।
जैसे–
5. तमप् प्रत्यय-बहुतों में से एक को श्रेष्ठ या निकृष्ट बताने के लिए शब्द के साथ ‘तमप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसमें ‘तम’ शेष रहता है। ‘तमप्’ प्रत्ययान्त शब्दों के रूप तीनों लिंगों में चलते हैं-पुल्लिंग में ‘राम’ के समान, स्त्रीलिंग में ‘रमा’ के समान तथा नपुंसकलिंग में ‘फल’ के समान।
जैसे–
6. ‘तरप् प्रत्यय-दो वस्तुओं में से एक को श्रेष्ठ या निकृष्ट बताने के लिए शब्द में ‘तरप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसमें से ‘तर’ शेष रहता है और इसके तीनों लिंगों में रूप चलते हैं।
‘तरप’ प्रत्यय विशेषण शब्दों में लगता है। पुल्लिंग में इस प्रत्यय से बने शब्दों के रूप ‘राम’ के समान, स्त्रीलिंग में ‘रमा’ के समान तथा नपुंसलिंग में ‘फल’ के समान चलते हैं।
जैसे–
(3) स्त्री प्रत्यय
जो प्रत्यय पुल्लिंग शब्दों से स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिए लगाए जाते हैं, उन्हें स्त्री प्रत्यय कहते हैं। टाप्, ङीप्, ङीष्, छीन् , ऊङ , ति इत्यादि स्त्री प्रत्यय हैं।
1. टाप् प्रत्यय-पुल्लिंग से स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिए अजादिगण के शब्दों से, अकारान्त शब्दों से तथा प्रत्यय के ‘अक’ अन्त वाले शब्दों से टाप् प्रत्यय लगाया जाता है। टाप् का ‘आ’ शेष रहता है। जैसे–
(i) अजादिगण शब्दों से-
(ii) अकारान्त शब्दों से
(iii) जिन शब्दों के अन्त में प्रत्यय का ‘अक’ हो उनमें टाप् लगाने पर अक’ का ‘इक’ करके ‘आ’ लगाया जाता है।
जैसे–
2. ङीष् प्रत्यय-षिद्गौरादिभ्यश्च-जहाँ ‘ष’ का लोप हुआ हो (षित्) तथा गौर, नर्तक, नट, द्रोण, पुष्कर आदि गौरादिगण में पठित शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीष्’ (ई) प्रत्यय होता है।
जैसे–
अन्य उदाहरण
निम्नलिखित शब्दों से ङीप् के स्थान पर ङीष् प्रत्यय लगता है। इसमें भी ‘ई’ ही लगता है। जैसे–
(i) गौरादि गण के शब्दों में-
(ii) गुणवाचक ‘उ’ अन्त वाले शब्दों से
(iii) निम्नलिखित शब्दों में शब्द के पश्चात् आनुक् (आन्) लगाकर ङीष् का ‘ई’ लगाया जाता है
______________
"ल्यप्" और "त्य" प्रत्यय के विधान-
ल्यप्” का “य” शेष रहता है । ल् और प् लोप हो जाते हैं ।
(2.) इसका भूतकाल में ही प्रयोग होता है ।
(3.) इसका भी अर्थ “करके” होता है।
(4.) वाक्य में इसका प्रयोग भी प्रथम पूर्वकालिक और गौण क्रिया के साथ ही होता है।
(5.) यह भी दो वाक्यों को जोड़ने का काम करता है ।
(6.) इसका केवल एक ही परिस्थिति में प्रयोग होता है, जो महत्त्वपूर्ण है, और वह यह है कि जब धातु से पूर्व कोई उपसर्ग आ जाए तो “क्त्वा” के स्थान पर इस (ल्यप्) प्रयोग उसी अर्थ में होता है ।
क्त्वा का प्रयोगः—जब हम "हस्" धातु के साथ क्त्वा का प्रयोग करते हैं तो हसित्वा बनता है—
हस्+क्त्वा हसित्वा
अब इसी "हस् धातु से पूर्व “वि” उपसर्ग लाते हैं तो “विहस्य” बनेगाः–
वि +हस् +ल्यप्–विहस्य
हसित्वा और विहस्य इन दोनों शब्दों का अर्थ समान हैः–“हँस करके”
विहस्य केशव: उवाच= हंसकर के केशव बोले
क्त्वा+
पठित्वा
ल्यप्+
सम्पठ्य
क्त्वा+
स्नात्वा
ल्यप्+
प्रस्नाय
क्त्वा+
जित्वा
ल्यप्+
विजित्य
क्त्वा+
त्यक्त्वा
ल्यप्+
परित्यज्यः—
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यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।.
विशेष-
नञ् अव्यय यदि क्त्वा-प्रत्ययान्त शब्द के पूर्व में आयेगा तो क्त्वा के स्थान पर ल्यप् नहीं होगा—“समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्—7.1.35
उदा–पठित्वा—पढ़ करके
अपठित्वा–न पढ करके
इदम् औषधं माम् अनुक्त्वा खलु ना भोक्ता ।
(यह दवाई मुझे विना बताये नहीं खाना।
पाठं सम्पठ्य बालकोऽत्रागतः।
(बालक पाठ पढ करके यहाँ आया)
लेखम् उल्लिख्य रामः गतः ।
( लेख लिखकर राम गया)
रामम् आहूय गुरुः पृष्टवान् ।
(राम को बुलाकर गुरु ने पूछा)
आरुणिः वेदम् अधीत्य अत्र आगतः ।
(आरुणि वेद को पढ़कर यहाँ आया)
परीक्षाम् उत्तीर्य शिष्यः गृहम् आगतवान् ।
(परीक्षा को पास करके शिष्य घर को आया)
जलम् आनीय गुरुम् प्रयच्छ।=(जल लाकर गुरु को दो)
शोकम् परित्यज्य वार्ताम् कुरु।=(शोक को त्याग कर बात करो)
वाक्यम् अनूद्य लिख।=वाक्य को अनुवाद कर लिख
वाक्यम् प्रोच्य हृषीकेशः उवाच।=वाक्य को बोलकर हृषीकेश बोला-
धनं संगृह्य अत्रागच्छ। = (धन का संगृह करके यहाँ आओ )
(2.) गम् धातु से दो रूप बनेंगे—आगम्य और आगत्य । परन्तु आगत्य ही शुद्ध व्याकरणिक प्रयोग है ।
इसी प्रकार—प्रणम्य और प्रणत्य।
विषयः— प्रणम्य/प्रणत्य
प्रश्नः
उत्तरम्
"देवं प्रणम्य" अथवा "देवं प्रणत्य" - उभौ अपि साधू प्रयोगौ स्तः |
उपसर्गरहित नम्-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे नम् + क्त्वा -> नत्वा इति क्त्वान्त-रूपम् |
- प्र-उपसर्गपूर्वकस्य नम्-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे ल्यबादेशः भवति "समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्" इति सूत्रेण |
- अतः प्र + नम् + क्त्वा -> प्र + नम् + ल्यप् | इत्संज्ञानां लोपानन्तरं प्र + नम् + य |
- सम्प्रति "वा ल्यपि" इति सूत्रेण विकल्पेन अनुनासिकस्य लोपः ल्यपि परे | तस्मात् नम्-धातोः मकारस्य लोपः विकल्पेन | तदा प्र + न + य |
- "ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्" इत्यनेन तुगागामः -> प्र + न + त् + य |
- नस्य णत्वं भूत्वा प्र + ण + त् + य -> प्रणत्य इति रूपम् सिध्यति |
प्र + नम् + य इत्यस्यां स्तिथौ अनुनासिकस्य लोपः विकलेपेन एव भवति इत्यतः मकारस्य लोपाभावे प्रणम्य इति अपि रूपं भवितुम् अर्हति
तस्मात् प्रणम्य प्रणत्य इति रूपद्वयेपि नास्ति दोषः
तथैव अवगम्य-अवगत्य, प्रयम्य-प्रयत्य, प्ररम्य-प्ररत्य अपि | एषां चतुर्णां धातूनां (गम्,यम्,रम्,नम्) ल्यपि समाना व्यवस्था |
शिष्यम् आहूय गुरुः उक्तवान्।
मातापितरौ प्रणम्य पुत्रः विदेशं गच्छति।
छात्राः पुस्तकानि अधीत्य पाठं स्मरन्ति।
भक्तः शिवं सम्पूज्य सुखं लभते।
सेवकः स्वामिनं प्रशस्य सुखं लभते।
मालिनी सुरेखायै पुष्पगुच्छं प्रदाय जन्मदिने वर्धापनम् अर्पयति ।
__________________
(3.) ल्यप् प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता हैः—
(क) शिष्यः विद्यालयं प्रविशति । सः गुरुं प्रणमति।
शिष्यः विद्यालयं प्रविश्य गुरुं प्रणमति।
(ख) छात्रा खटिकाम् आनयति । सा श्यामपट्टे लिखति ।
छात्रा खटिकाम् आनीय श्यामपट्टे लिखति।
(ग) वानरः वृक्षम् आरोहति । सः जम्बुफलानि पातयति ।
वानरः वृक्षम् आरुह्य जम्बुफलानि पातयति।
(घ) आरक्षकाः सीमाप्रदेशं प्राप्नुवन्ति । ते देशं रक्षन्ति ।
आरक्षकाः सीमाप्रदेशम् प्राप्य देशं रक्षन्ति
(ङ) देशभक्ताः मातृभूमिं प्रणमन्ति । ते सुखं लभन्ते ।
देशभक्ताः मातृभूमिं प्रणम्य सुखं लभन्ते ।
संस्कृत भाषा में तुमुन् एक कृदन्त प्रत्यय है। अर्थात् यह प्रत्यय धातुओं से होता है। इस प्रत्यय के बारे में संस्कृत ग्रन्थों मे कहा गया है –क्रियार्थायां क्रियायाम् उपपदे भविष्यति अर्थे। यानी जब एक कर्ता दो क्रिया करें, उनमें से पहली वर्तमान काल में और दूसरी भविष्यकाल में हो, तो दूसरी क्रिया को संस्कृत भाषा में तुमुन् प्रत्यय लगा सकते हैं।
कई शिक्षक इस प्रत्यय को आसानी से समझाने के लिए धातुओं की चतुर्थी विभक्ति भी कहते हैं। क्योंकि हिन्दी में अनुवाद करते समय तुमुन् प्रत्यय का अर्थ – के लिए ऐसा लेते हैं।
जैसे कि –
- पठितुम् – पढ़ने के लिए
- चलितुम् – चलने के लिए
- दातुम् – देने के लिए
- वक्तुम् – बोलने के लिए
- द्रष्टुम् – देखने के लिए
तुमुन् प्रत्यय (संस्कृत) के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लेख को पढ़ना जारी रखिए।
तुमुन् प्रत्यय का अर्थ
तुमुन् प्रत्यय का अर्थ होता है –
- के लिए
- for
इस अर्थ को देख कर लगता है कि यह तो चतुर्थी विभक्ति का अर्थ है।
जैसे कि –
- बालकाय – बालक के लिए
- रामाय – राम के लिए
परन्तु तुमुन् प्रत्यय धातु के लिए होता है।
- पठति
- पठ् + तुमुन्
- पठितुम्
- पठितुम् – पढ़ने के लिए
यह हुआ सामान्य अर्थ। लेकिन मूलतः संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थो में तुमुन् प्रत्यय को इस प्रकार से दिखाया है –
जब कोई एक कर्ता दो क्रिया करें, जिसमें पहली क्रिया वर्तमान (लट् लकार) में हो, और दूसरी क्रिया भविष्यकाल (लृट् लकार) में हो, तो भविष्यकाल की क्रिया को तुमुन् प्रत्यय होता है।
जैसे कि –
- बालकः गच्छति।
- बालकः खेलिष्यति।
- बालकः खेलितुम् गच्छति।
यहाँ पहले तो बालक जा रहा है। और जाने के बाद बालक खेलेंगा। अर्थात् बालक खेलने के लिए जा रहा है। इस अर्थ में खेल् धातु से तुमुन् प्रत्यय हो कर खेलितुम् ऐसा रूप बनता है।
तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग कैसे करते हैं?
किसी भी धातु से तुमुन् प्रत्यय करने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना पड़ता है –
- अनुबन्धलोप
- इडागम
- गुण
1. तुमुन् प्रत्यय का अनुबन्धलोप-
वैसे तो हम इस प्रत्यय को – तुमुन् ऐसे लिखते हैं। परन्तु इसका असली नाम तुमुँन् यह है। इस प्रत्यय के नाम में कुल पाँच वर्ण हैं। त् + उ + म् + उँ + न् । इनमें से दो वर्ण – उँ + न् ये दोनों अनुबन्ध कहलाते हैं।
इनका लोप करना होता है। लोप करने का अर्थ होता है गुप्त करना। यानी तुमुन् प्रत्यय में अनुबन्ध लोप करने के बाद केवल त् + उ + म् ये तीन वर्ण बाकी बचते हैं। इस बात को इस प्रकार से समझते हैं –
तुमुन् प्रत्यय के क्या बाकी बचता है?
तुमुन् इस नाम में पांच वर्ण हैं –
- त् + उ + म् + उ + न्
- त् + उ + म् +
उ + न् - त् + उ + म्
- तुम्
अर्थात् तुमुन् प्रत्यय में तुम् इतना ही भाग बाकी बचता है।
2. तुमुन् प्रत्यय में इडागम
तुमुन् प्रत्यय की प्रक्रिया में प्रायः इडागम होता है।
इडागम क्या है?
प्रकृति और प्रत्यय के बीच जो आता है उसे आगम कहते हैं। तुमुन् प्रत्यय की प्रक्रिया में इट् नाम का आगम आता है। इसे ही इडागम कहते हैं। (इट् + आगम – इडागम) यह इट् धातु और प्रत्यय के बीच आता है।
इडागम का अनुबन्धलोप
इट् इस आगम में दो वर्ण हैं –
- इ + ट्
- इ +
ट् - इ
यानी सिर्फ इ बचता है।
कुछ कुछ धातुओं में इडागम नहीं होता है।
कुछ कुछ धातु ऐसे भी होते हैं जिन में इडागम नहीं होता है। छात्रों को चाहिए की ऐसे धातुओं को स्मरण (याद) रखे।
ऐसे धातुओं को उदाहरण में पढिए।
तुमुन् प्रत्यय का उदाहरण
पढ़ने के लिए = पठ् + तुमुन्
- पठ् + तुमुन्
- पठ् + तुम् …. अनुबन्धलोप
- पठ् + इट् + तुम् …. इडागम
- पठ् + इ + तुम् …. इडागम का अनुबन्धलोप
- पठितुम्
बालकाः पठितुं विद्यालयं गचछन्ति।
चलने के लिए – चल् + तुमुन्
- चल् + तुमुन्
- चल् + तुम्
- चल् + इट् + तुम्
- चल् + इ + तुम्
- चलितुम्
शिशुः चलितुं न जानाति।
बालकाः चलितुम् उत्तिष्ठन्ति।
इडागम न होनेवाले धातु
गम् – गन्तुम्
- अहं गन्तुम् इच्छामि।
वच् – वक्तुम्
- छात्रः उत्तरं वक्तुम् हस्तं उपरि करोति।
प्रच्छ् – प्रष्टुम् (to ask)
- छात्रः प्रश्नं प्रष्टुं शिक्षकस्य गृहं गच्छति।
दृश् – द्रष्टुम् (to look)
- जनाः नाटकं द्रष्टं नाट्यगृहं गच्छन्ति।
कृ – कर्तुम्
- सैनिकाः युद्धं कर्तुम् इच्छन्ति।
दा – दातुम् (to give)
- धनिकः याचकेभ्यः धनं दातुं मन्दिरं गच्छति।
पा – पातुम् (to drink)
- प्राणिनः जलं पातुं जलाशयं गच्छन्ति।
तुमुन् प्रत्यय का अभ्यास-
यहाँ हम तुमुन् प्रत्यय के प्रयोग से कुछ वाक्य बना रहे हैं। तुमुन् प्रत्यय के इन उदाहरणों से आप का बहुत अच्छा अभ्यास होगा।
- छात्रः विद्यालयं गच्छति। छात्र विद्यालय जाता है।
- छात्रः विद्यालये पठिष्यति। छात्र विद्यालय में पढ़ता है।
- छात्रः पठितुं विद्यालयं गच्छति। छात्र पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है।
- छात्रः लिखति। छात्र लिखता है।
- छात्रः लेखनीं स्वीकरिष्यति। छात्र कलम लेगा।
- छात्रः लिखितुं लेखनीं स्वीकरोति। छात्र लिखने के लिए कलम लेता है।
- छात्रः विद्यालयं गच्छति। छात्रः विद्यालय जाता है।
- छात्रः द्विचक्रिकां क्रेक्ष्यति। छात्र साईकल खरीदेगा।
- छात्रः विद्यालयं गन्तुं द्विचक्रिकां क्रीणाति। छात्र विद्यालय जाने के लिए साईकल खरीदता है।
- शिक्षकः पुस्तकस्य प्रयोगं करोति। शिक्षक पुस्तक का प्रयोग करता है।
- शिक्षकः पाठयिष्यति। शिक्षक पढ़ाएगा।
- शिक्षकः पाठयितुं पुस्तकस्य प्रयोगं करोति। शिक्षक पढाने के लिए पुस्तक का प्रयोग करता है।
- बालकः इच्छति। बालक चाहता है।
- बालकः रोटिकां खादिष्यति। बालक रोटी खाएंगा।
- बालकः रोटिकां खादितुं इच्छति। बालक रोटी खाना चाहता है।
श्लोक में तुमुन् के उदाहरण
हम यहाँ एक ऐसा श्लोक दे रहे हैं जिसमें बहुत सारे पद तुमुन् प्रत्यय से बने हुए हैं। इनको समझने का प्रयत्न करें।
श्रोतुं कर्णौ वक्तुम् आस्यं सुहास्यं, घ्रातुं घ्राणं पादयुग्मं विहर्तुम्। द्रष्टुं नेत्रे हस्तयुग्मं च दातु, ध्यातुं चित्तं येन सृष्टं स पातु॥
श्लोक का अर्थ
सुनने के लिए कान, बोलने के लिए सुहास्य मुख,
सूंघने के लिए नाक, दो पैर घूमने के लिए।
देखने के लिए आँखे और दो हाथ (दान) देने के लिए,
ध्यान करने के लिए मन जिसने बनाएं हैं वह (ईश्वर) रक्षा करें (हमारी)॥
क्त प्रत्यय-
संस्कृत व्याकरण में, आम संस्कृत संभाषण में क्त और क्तवतु इन दोनों प्रत्ययों का बहुत प्रयोग किया जाता है। इन दोनों प्रत्ययों का प्रयोग भूतकाल व्यक्त करने के लिए करते हैं। हम इस लेख में क्त इस संस्कृत प्रत्यय का अभ्यास करने वाले हैं। क्तवतु प्रत्यय के अध्ययन हेतु इस…
"कृदन्त"
क्त प्रत्यय
संस्कृत व्याकरण में, आम संस्कृत संभाषण में क्त और क्तवतु इन दोनों प्रत्ययों का बहुत प्रयोग किया जाता है। इन दोनों प्रत्ययों का प्रयोग भूतकाल…
रविवार- 19 फरवरी 2022
कृदन्त और तद्धित प्रत्यय- एवं संस्कृत व्याकरण के सामान्य नियम-★
रम् धातुना सह कृदन्त-घञ् प्रत्ययं संयोज्य राम-प्रातिपदिक शब्द:।
(रम् धातु से कृदन्त घञ् प्रत्यय लगाकर राम शब्द की निष्पत्ति) राम प्रातिपदिक है ;परन्तु राम: एक पद है।
़धातुं, प्रत्ययं, प्रत्ययान्तं च विहाय अन्येषां सार्थकशब्दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।
(हिन्दी - धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त को छोडकर अन्य सार्थक शब्दों की प्रातिपदिक संज्ञा होती है अर्थात् उक्त को छोडकर अन्य को प्रातिपदिक कहते हैं ।
प्रातिपदिकम् (व्याकरणे -
क्रियापदानां मूलं धातुः तद्वत् नामपदानां मूलं प्रातिपदिकम् इत्युच्यते।
धातुं, प्रत्ययं, प्रत्ययान्तं च विहाय अन्येषां सार्थकशब्दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।
"अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपदिकम्" इति सूत्रे) =अर्थवत् अधातु अप्रत्यय प्रातिपदिकम्
अर्थात् अर्थसहितं किन्तु धातुः नास्ति प्रत्यय अपि नास्ति। राम: इत्यस्य शब्दस्य प्रातिपदिकम् अस्ति राम इति।
(पदानां बीजं भवति प्रातिपदिकम्)।
एकः वर्ण अपि अर्थपूर्णः सन् शब्दो भवितुमर्हति यथा ‘ अ ‘ इति विष्णुपर्यायः ।शक्तं पदं इति खलु तत्र प्रातिपदिकस्य तथा प्रत्ययस्य योजनेन शक्तिं प्राप्यते।।
प्रातिपदिकम् (व्याकरणे
विद्वान् कीदृग् वचो ब्रूते?
को रोगी? कश्च नास्तिकः?
कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति?
सूत्रं तत् पाणिनेर्वद ॥
इति काचन प्रहेलिका प्रसिद्धा।
★"अर्थवदधातुरप्रत्ययःप्रातिपदिकम्"★ इत्युत्तरम्
१-(विद्वान्) (कीदृग्) वचो ब्रूते ? अर्थवत्।
२-को (रोगी) ? अधातुः (धातुहीनः) ।
३- कश्च नास्तिकः? अप्रत्ययः (प्रत्ययो विश्वासस्तवद् हीन: ) ।
४-कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति ? प्रातिपदिकम् (प्रतिपत्तिथौ वर्तमानम्) । तच्चतुर्योगात् पूर्वोक्तं पाणिनिसूत्रम्।
लोके प्रातिपदिकशब्दस्य बहवोर्थाः सन्ति। प्रतिपदिति शब्दात् "कालाट्ठञ्" इति सूत्रेण निष्पन्नः प्रातिपदिकशब्दस्त्रिलिङ्गी प्रतिपत्तिथिजातार्थप्रतिपत्तिकरः । तयैव निष्पत्त्या वह्निशब्देपि शक्तिरस्ति शब्दस्यास्य । वैयाकरणास्तु प्रत्ययहीनस्य नामशब्दस्य नाम वदन्ति प्रातिपदिकमिति नपुंसकलिङ्गि। पदं पदं प्रति सम्बन्धात्तस्य तादृङ् नाम। तल्लक्षणं च पाणिनिना सूत्रद्वयेनोक्तम् – *"अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्"" "कृत्तद्धितसमासाश्च"* इति ।तत्र प्रथमेन धात्वन्यः प्रत्ययहीनोर्थवाञ्च्छब्द आम्नातः। धातोस्तिङ्भिन्नप्रत्यययोजनेन निष्पन्नाः पठनगत्यादिशब्दाः, नामशब्देभ्यः प्रत्यययोजनेन निष्पन्ना दाशरथ्यादयो नामान्तरशब्दाः, अनेकपदयोजनानन्तरं सुब्लोपेन निष्पन्ना राजपुरुषादयः समस्तशब्दाश्च द्वितीयेन सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञया सङ्गृह्यन्ते। "अपदं न प्रयोक्तव्यम्" इति विधिः। अतश्च केवलप्रातिपदिकस्य प्रयोगो निषिद्धः । किं तर्हि?
"सुप्तिङन्तं पदम्"। प्रातिपदिकात् प्रकृतेः सुप्प्रत्यययानां नामशब्दानां धातोः प्रकृतेस्तिङ्प्रत्ययानां च योजनेनार्थवन्ति पदानि सम्भवन्ति।
प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे स्वौजस्-प्रत्ययास्तद्भिन्नार्थेष्वमादयश्च युज्यन्ते। एवमर्थवन्ति पदानि प्रयोगार्हाणि सम्भवन्ति।
संस्कृत- में मूल शब्द या मूल धातु का प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है वहाँ मूल शब्द को प्रातिपदिक कहते हैं। परन्तु जब प्रातिपदिक में सुप् और तिङ् प्रत्यय लगाते हैं तो उनकी पद संज्ञा बन जाती है।
किन्तु हर मूल शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा (प्रातिपदिक नाम) नहीं होता है। प्रातिपदिक संज्ञा करने के लिए महर्षि पाणिनि ने दो सूत्र लिखे हैं –
___________________________________
(१)-अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् –
अर्थात्- वैसे शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा होती है जो अर्थवान् (सार्थक) हो, किन्तु धातु या प्रत्यय नहीं हों।
(२) -कृत्तद्धितसमासाश्चर -
—कृत्प्रत्ययान्त (धातु के अन्त में जहाँ ‘तव्यत्’, ‘अनीयर’, ‘ण्वुल्(अक)’, ‘तृच’ आदि कृत्प्रत्यय लगे हों) तथा तद्वितप्रत्ययान्त (शब्द के अन्त में जहाँ ‘घञ्’, ‘अण्’ आदि तद्धित प्रत्यय हों) तथा समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
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इन प्रातिपदिकसंज्ञक शब्दों के अन्त में सु, औ, जस् आदि (२१) सुप् विभक्तियाँ लगती हैं, तब वह सुबन्त होता है और उसकी पदसंज्ञा होती है।
इन पदों का ही वाक्यों में प्रयोग होता है, क्योंकि जो पद नहीं होता है उसका प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है – ‘अपदं न प्रयुञ्जीत’।
संस्कृत भाषा में सात विभक्तियाँ होती हैं तथा प्रत्येक विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में अलग-अलग रूप होने पर २१ रूप होते हैं।७×३=२१।
ये सुप् कहे जाते हैं। सुप में ‘सु’ से आरम्भ कर ‘प्’ तक २१ प्रत्यय (विभक्ति) हैं।
जिस वर्ण अथवा वर्ण समूह को शब्द के अन्त में जोड़कर नये शब्दों या निर्माण करते हैं; उसे प्रत्यय कहते हैं।
जिन प्रत्ययों को धातुओं(शब्द अथवा क्रिया के मूल रूप) )से जोड़कर उनसे "विशेषण" अव्यय और क्रिया विशेषण" बनाए जाते हैं, उन्हें कृत-प्रत्यय कहते हैं, तथा इस प्रकार कृत्-प्रत्ययों से बनने वाले "विशेषण या अव्यय और क्रियाविशेषण" कृदन्त कहलाते हैं।
(कृदन्त प्रत्ययों के द्वारा -
१-अपूर्ण वर्तमान काल, (जिसमें "शतृ" अथवा "शानच्" प्रत्यय द्वारा निर्मित कृदन्तपद "क्रियाविशेषण" की भूमिका का ही निर्वहन करते हैं।)
२-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त,
३-कर्म वाच्य आदि प्रकार के वाक्य बनाए जाते हैं।
कृदन्त के प्रमुख प्रकार निम्न हैं-
- १-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृन्दत।
- २-वर्तमानकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
- ३-भूतकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
- ४-हेतुवाचक कृदन्त।
- ५-विधिवाचक कृदन्त।
पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त-★,
जब काई क्रिया पहले हो चुकी हो और उसके बाद दूसरी क्रिया हो, तब पहल होने वाली क्रिया को पूर्वाकालिक.( (Absolutive Verb)-निरपेक्ष क्रिया Antecedent verb) क्रिया कहते हैं।
पूर्वकालिक क्रिया को बतलाने के लिए पूर्वकालिक कृदन्त का प्रयोग करते हैं।
इसका प्रयोग (अव्यय) की तरह होता है। अतः इसके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
(" क्त्वा और ल्यप् पूर्वकालिक कृदन्त के उदाहरण है। ये ‘करके’ के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
___________________
अनुबन्ध = शब्द का अर्थ है (बंध या सातत्य अथवा संबंध जोड़नेवाला)
व्याकरण में एक सांकेतिक अक्षर जो किसी शब्द के (स्वर या विभक्ति में किसी विशेषता का द्योतक हो, जिसके साथ वह जुड़ा हुआ हो।
पाणिनि ने जिसे "इत्" कहा है उसका व्याकरण में प्राचीन नाम अनुबंध या इत् है जिसका प्रयोग व्याकरणिक वर्णन में एकरूपता लाने के लिए किया जाता है।
प्रातिपदिकों से प्रत्ययों कें अनुबंध में दोनों के योग से नए शब्द की रचना होती है जिसका अर्थ बदल जाता है, यथा स्त्रीलिंग बनाने के लिए
"" इसी प्रकार -
अश्व+टाप्=अश्वा,
बाल+टाप्=बाला,
वत्स+टाप्=वत्सा।
२-(ङीप् तथा "ङीष्" प्रत्यय का "ई" अंश अनुबंध से पुल्लिंग शब्दों में स्त्रीत्व का बोध कराता है, यथा-
इसी तरह "पच्" में "ल्युट्" प्रत्यय के अनुबंध में ल्, ट् व्यंजन ध्वनियाँ लुप्त हो जाती है, "उ" बदलकर "अन" आदेश बन जाता है, यथा पच्+ल्युट् =पचनम्।
एक ही अर्थ की प्रतीति होने पर भी यह शब्द नपुंसक लिङ में होता हैं। भिन्न प्रत्यय के अनुबंध से लिंगपरिवर्तन हो जाता है।
जैसे-★
- ज्ञा + क्त्वा= ज्ञात्वा
इसमें ‘क’ अनुबंध है, इसलिए जुड़ते समय इसका लोप हो गया। क्त्वा प्रत्यय-‘क्त्वा’ प्रत्यय जोड़ते समय धातु में केवल ‘त्वा’ जुड़ता है।
जैसे-
त्वा जोड़ते समय कुछ धातुओं में ‘इकार’ (इ या ई की मात्रा) भी जुड़ता है।
जैसे-
जैसे-
जैसे-
" हेतुवाचक "तुमुन्" कृदन्त प्रत्यय-‘करने के लिए’ या ‘ करने को’ के अर्थ में ‘तुमुन्’ प्रत्यय जोड़ते हैं। ‘तुमुन्’ जोड़ते समय प्रायः ‘तुम’ ही धातुओं में जुड़ता है। ये शब्द अव्यय होते हैं। इनके अंत में ‘म्’ रहता है।
जैसे-
‘("तुमुन्=करने के लिए)
जैसे-
- सः खेलितुं इच्छति। = वह खेलना चाहता है।/ वह खेलने के लिए इच्छा करता है ।
- सः खेलितुं शक्नोति। = वह खेल सकता है।
- __________________________________
- (विधिवाचक कृदन्त-)‘चाहिए’ अथवा ‘योग्य’ के अर्थ को प्रकट करने के लिए धातु में- (अनीयर, या तव्यत् या यत्) -प्रत्यय लगाकर विधिवाचक कृदन्त बनाते हैं। यह विशेषण होता है।
अतः इसका लिंग, वचन और कारक विशेष्य के अनुसार रहता है।
जैसे-
(भूतकालिक कृदन्त-(क्त और क्त्वतु) प्रत्यय भूतकालिक कृदन्त हैं।
‘क्त’ प्रत्यय-धातुओं के साथ कर्तृवाच्य (Active Voice) में तथा भूतकालिक कृदन्त(past participle )का प्रयोग भूतकाल की क्रिया के स्थान पर किया जा सकता है।
इसका लिंग, कारक और वचन कर्ता के समान होता है। धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ते समय प्रायः केवल ‘त’ शेष रहता है।
जैसे-
‘क्त’ प्रत्यय से युक्त शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘देव’ शब्द के समान, स्त्रीलिंग में ‘माला’ शब्द के समान और नपुंसकलिंग में ‘जल’ शब्द के समान होते हैं। इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है।
__________________
रामः गतः। = राम गया।
सीता गता। = सीता गई।
बालकौ गतौ। = दो बालक गये।
बालिकाः गताः। = सभी बालिका गईं।
जैसे-
इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है-
- हरीश: ग्रामात् आगतवान्। = हरीश गाँव से आया।
- मार्जार: मूषक हतवान्। = बिल्लोटे ने चूहे को मार डाला।
विशेषणरूप में प्रयोग = (गतवन्तं)/गतं रामं शोचति = ( विशेषण- गए हुए राम को )शोक करता है।
(ख)कर्मवाच्य में (क्त) प्रत्यय =
यदि (क्त) प्रत्ययान्त शब्द क्रिया के रूप में प्रयुक्त है, तब कर्त्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा तथा क्तान्त क्रिया शब्द के लिङ्ग-वचन-विभक्ति कर्म के अनुसार होंगे, और यदि क्तान्त शब्द के विशेषण होने पर उसके लिङ्ग-वचन-विभक्ति विशेष्य के अनुसार होंगे।)
अहं पाठं लिखामि = मैं पाठ लिखता हूं। (कतृवाच्य)
मया पाठः लिखितः = मेरे द्वारा पाठ लिखा गया। (कर्म वाच्य)
रामः रोटिकां खादति = राम रोटी खाता है।
रामेण रोटिका खादिता = राम के द्वारा रोटी खाई गई।
चित्रकारः चित्रं करोति = चित्रकार चित्र बनाता है।
चित्रकारेण चित्रं कृतम् = चित्रकार के द्वारा चित्र किया गया।
(करता हुआ, करते हुए’ आदि अर्थ के लिए धातु में शतृ या शानच् प्रत्यय लगाए जाते हैं।
शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय का सदैव परस्मैपदी क्रिया पद को रूप में धातुओं में जुड़कर प्रयोग होता है। धातु के साथ जुड़ते समय केवल ‘अत्’ शेष रहता है। इनके रूप "अत्" अंत वाले शब्दों के समान चलते हैं।
जैसे-
शानच् प्रत्यय आत्मनेदी धातुओं में जोड़े जाते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (शानच् )का केवल ‘आन्’ या ‘मान’ शेष रहता है।
जैसे-
शतृ के समान यह भी शानच् प्रत्यय युक्त क्रिया पद भी विशेषण होता है। अतः इसका लिंग, वचन और कारक "विशेष्य" के अनुसार रहता है।
पुल्लिंग में इसकी कारक रचना "देव के समान, स्त्रीलिंग में "लता के समान तथा नपुंसकलिंग में "फल के समान होती है।
_______________
इससे भाववाचक संज्ञा पद बनाए जाते हैं। ये पद स्त्रीलिंगी होते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (क्तिन्) का केवल ‘ति’ शेष बचता है।
जैसे-
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और अव्यय-पदों में जिन "प्रत्ययों" के योग से नये शब्द बनाए जाते हैं, उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं।
प्रत्यय के साथ कोष्टक में दिए गए शब्द ही प्रायः शब्दों के साथ जुड़ते हैं।
जैसे-
1. अण् (कारः) प्रत्यय-कुंभ + कारः = कुंभकारः
(इसी प्रकार भाष्यकारः ग्रन्थकारः)
2. तत् (ता) प्रत्यय-भाव के अर्थ में
सुन्दर + तल् = सुन्दरता – गुरु + तल् = गुरुता।
3. तरप् (तर) प्रत्यय-जब दो में से एक को गुण में दूसरे से अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तरप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है।
यह "विशेषण" की उत्तरावस्था ( तुलनात्मक अवस्था )है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तर’ जुड़ता है।
अल्प + तरप् = अल्पतरः (से थोड़ा)
लघु + तरप् = लघुतरः (से छोटा)
स्थूल + तरप् = स्थूलतरः (से मोटा)
कृश + तरप् = कृशतरः (से दुबला)
दूर + तरप् = दूरतरः (से दूर)
4. तमप् (तम) प्रत्यय-जब अनेक में से एक के गुण को सबसे अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तमप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। यह विशेषण की उत्तमावस्था है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तुम’ जुड़ता है।
जैसे-
अल्प + तमप् = अल्पतमः (सबसे थोड़ा)
लघु + तमप् = लघुतमः (सबसे छोटा)
स्थूल + तमप = स्थूलतमः (सबसे मोटा)
कृश + तमप् = कृशतमः (सबसे दुबला)
दूर + तमप् = दूरतमः (सबसे दूर)
5. मतुप् (मत्, वत्) प्रत्यय-वह इसमें है या वह इसका है-इस अर्थ में मतुप का प्रयोग होता है। मतुप् के पहले ‘अ’ स्वर रहने पर ‘म’ का ‘व’ हो जाता है।
इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘मान्’ जुड़ता है।
जैसे-
अंशु + मतुप् = अंशुमान् (किरणों वाला)
बुद्धि + मतुप् = बुद्धिमान् (बुद्धि वाला)
बल + मतुप् = बलवान् (बल वाला)
गुण + मतुप् = गुणवान् (गुण वाला)
जैसे-
बल + इनि = बली (बलवान)
गुण + इनि = गुणी (गुणवान)
स्त्री प्रत्यय
टाप् (आ) और ङीप् (ई), इका, ई ङीष् (ई), डीन् (ई) प्रत्यय लगाकर रत्रीलिंग शब्द बनाए जाते हैं।
1. अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में टाप् (आ) प्रत्यय लगाकर
पंडित + टाप् (आ) = पंडिता
अज + टाप् (आ) = अजा
2. पुल्लिंग शब्दों के अंत में अक हो, तो इका हो जाता है।
जैसे-
बालक = बालिका, गायक = गायिका
3. ऋकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
अभिनेतृ + ङीप् (ई) = अभिनेत्री
कर्तृ + ङीप् (ई) = की
4. व्यंजनांत पुल्लिंग शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
तपस्विन् = तपस्विनी,
श्रीमत् = श्रीमती
स्वामिन् = स्वामिनी
5. उकारांत गुणवाचक पुल्लिंक शब्दों और षित् आदि वाले शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
नर्तकः = नर्तकी,
रजकः = रजकी
6. नु, नर आदि पुल्लिंग शब्दों के अंत में छीन् (ई) प्रत्यय लगाकर
नृ (ना) + ङीन् = नारी,
नर (नरः) + ङीन् = नारी
ब्राह्मण + ङीन् = ब्राह्मणी
अभ्यास-★
1. निम्नलिखित में कृत प्रत्यय पहचानिए-
गत्वा, कृत्वा, दृष्टवा, पठितम्, पुष्टवा, कोपितुम्, नत्वा, नेतुम्, याचितुम्।
2. निम्नलिखित में धातु और प्रत्यय अलग-अलग कीजिए-
पठितुम्, करणीयम्, दृष्टवा, पठित्वा, त्यक्तवा, जितुम्, विस्मृत्य, उपकृत्य।
3. निम्नलिखित उपसर्गयुक्त धातुओं में ल्यप् प्रत्यय जोड़िए-
प्र + पा,
- वि + जि,
- प्र + नृत्,
- सम् + भाष,
- प्र + भाष,
- प्र + नश्,
- प्र + स्था,
- प्र + नम्,
- वि + स्मृ,
- सम् + कृत,
- सम् + भू,
- प्र + हस्,
- सम् + भ्रम्,
- वि + हृ,
- वि + लिख,
धातु या शब्द के पीछे जुड़ने वाले अंश को प्रत्यय कहते हैं।
धातु के बाद जुड़ने वाले प्रत्यय को कृत् तथा संज्ञा, विशेषण, क्रिया, अव्यय के पीछे जुड़नेवाले अंश को तद्धित प्रत्यय कहते हैं।
(i) कृत्-प्रत्यय –
इसमें क्त, क्तवतु, क्त्वा, ल्यप् , तुमुन्, शतृ, शानच्, क्तिन्, तव्यत्, अनीयर् आदि प्रत्यय आते हैं।
_____________________
1. क्त प्रत्यय – यह भूतकालिक कृत् प्रत्यय है। अधिकतर कर्मवाच्य में प्रयुक्त होता है।
उदाहरण –)
2.क्तवतु- यह भी भूतकालिक कृत् प्रत्यय है। अधिकतर कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है।
उदाहरण –
उदाहरण –
4. ल्यप् – धातु से पूर्व उपसर्ग होने पर धातु के बाद ‘ल्यप् ‘ (य) का प्रयोग होता है।
उदाहरण –
उदाहरण –
6. तव्यत् –‘विधिलिङ् लकार’ के अर्थ में विधि कृदन्त अर्थात् तव्यत्, अनीयर् का प्रयोग होता है। ‘तव्यत्’ का ‘तव्य’ शेष रहता है।
उदाहरण –
7. तुमुन्- जिस क्रिया के लिए कोई अन्य क्रिया की जाती है उसकी धातु से भविष्यत् काल के अर्थ को प्रकट करने के लिए ‘तुमुन्’ का प्रयोग होता है। ‘तुम’ का ‘तुम्’ शेष रह जाता है।
उदाहरण –
8. क्तिन् प्रत्यय – स्त्रीलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए धातु के साथ ‘क्तिन्’ प्रत्यय लगता है। ‘क्तिन्’ का ‘तिः’ शेष रहता है।
उदाहरण –
9. शतृ प्रत्यय – परस्मैपदी धातुओं से ‘शतृ’ का अपूर्णकाल में प्रयोग होता है। ‘शतृ का’ ‘अत्’ शेष रह जाता है। पुं० में ‘त्’ को ‘न्’ हो जाता है।
उदाहरण –
उदाहरण –
(ii) तद्धित प्रत्यय
(मतुप्, इन्, ठक्, ठञ्, त्व, तल्)
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण तथा अव्यय में ( = क्रियाओं से भिन्न शब्दों में) प्रत्यय लगाकर जो नए शब्द बनते हैं वे ‘तद्धित प्रत्ययान्त’ शब्द कहलाते हैं तथा उन प्रत्ययों को ‘तद्धित’ प्रत्यय कहते हैं।
तद्धित प्रत्यय लगने पर नए शब्दों के अर्थ भी मूल शब्दों से भिन्न हो जाते हैं। जैसे- ‘दशरथ’ में इञ् (इ) तद्धित प्रत्यय लगाकर ‘दाशरथिः’ शब्द बना तथा ‘दाशरथिः’ शब्द का अर्थ ‘दशरथ की सन्तान’ होता है।
(इञ्’ (इ) -प्रत्यय के लगने से उसकी सन्तान’ ऐसा अर्थ निकलता है अतः वह अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय है।
इस तरह सभी तद्धित प्रत्ययों को कुल मिलाकर अपत्यार्थक, देवार्थक, समूहार्थक, अध्ययनार्थक, शैषिक, विकारार्थक, मतुपर्थक, स्वार्थक तथा अनेकार्थक- इनको, नौ भागों में बाँटा गया है। प्रत्ययों की संख्या भी बहुत अधिक है, किन्तु पाठ्यक्रम में मतुप्, इन्, ठक्, ठ, त्व, तल् इन सात तद्धित प्रत्ययों को ही रखा गया है।
अत: निम्न पंक्तियों में केवल इन प्रत्ययों का ही सोदाहरण परिचय दिया जा रहा है।
(क) मतुप् प्रत्यय को विधान - ★
इस प्रत्यय का प्रयोग किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु में होना सूचित करने के लिए होता है। ‘मतुप्’ प्रत्यय का केवल ‘मत्’ ही शेष रह जाता है।
1. जिन शब्दों के अन्त में अ, आ के अतिरिक्त कोई स्वर होता है। उनसे यह जैसे को तैसा जुड़ जाता है। जैसे – गो + मत् = गोमत् (= जिसकी गौएँ हैं- गावः अस्य सन्ति, इति)। यहाँ ‘गो’ ओकारान्त शब्द है अतः इसके साथ मतुप् प्रत्यय का ‘मत्’ जुड़ जाने से ‘गोमत्’ रूप बना।
इकारान्त शब्दों के उदाहरण –
इकारान्त शब्दों के उदाहरण –
उकारान्त शब्दों के उदाहरण –
ऊकारान्त शब्द –
वधू + मतुप् = वधूमत् (वधू युक्त), वधूमान् (पुं॰)
ओकारान्त शब्द –
गो , + मतुप् = गोमत्। (गौओं वाला), गोमान् (पुं॰)
कुछ हलन्त शब्दों के बाद भी मतुप् के ‘मत्’ का प्रयोग होता है; जैसे –
2. जिन शब्दों के अन्त में तथा उपधा में ‘म्’ हो अथवा ‘अ’ या ‘आ’ हो, तो उनके पश्चात् ‘मतुप्’ के ‘म्’ को ‘व्’ होकर ‘मत्’ के स्थान पर “वत्’ का प्रयोग होता है; जैसे –
अकारान्त शब्द –
आकारान्त शब्द –
____________
हलन्त शब्द –
निम्न हलन्त शब्दों में भी मतुपु के ‘म’ को ‘व’ होकर ‘वत्’ का प्रयोग होता है, क्योंकि इनकी उपधा (अन्तिम वर्ण से पूर्व) में ‘अ’ विद्यमान है; जैसे –
_________________
अपवाद –Exception
विशेष–‘मतुप्’ लगने से बने हुए सभी शब्द विशेषण रूप में प्रयुक्त होते हैं। अतः इनके रूप विशेष्य के अनुसार तीनों लिंगों में अलग-अलग बनते हैं; जैसे –
अकारान्त शब्दों के अनन्तर ‘मतुप्’ के अर्थ में अर्थात् किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु में होना सूचित करने के लिए (‘तद् अस्य अस्ति’ अथवा ‘तद् अस्मिन् अस्ति’) इनि (इन्) का प्रयोग किया जाता है; जैसे –
‘ज्ञानिन्’ या ‘ज्ञानी’ की व्याख्या होगी ‘ज्ञानम् अस्य अस्ति इति’ अर्थात् ज्ञानवान्। इसी प्रकार सभी ‘इन्’ प्रत्ययान्त शब्दों की व्याख्या समझनी चाहिए।
(ग) ठक् (इक) प्रत्यय-
ठक् प्रत्यय का प्रयोग विभिन्न शब्दों के साथ निम्नलिखित पृथक्-पृथक् अर्थों में होता है।
(ठक्, ठन्, ठञ् आदि प्रत्ययों के स्थान पर "इक" आदेश हो जाता है)
– ठक् प्रत्यय परे होने पर शब्द के प्रथम स्वर की वृद्धि (अ को आ, इ, ई, ए, को ऐ, उ, ऊ, ओ को औ) हो जाती है;
जैसे- दिन + ठक् (इक) = दैनिकःदैनिकम्।
वर्ष + ठक् = वार्षिक:; वार्षिकम्।
मूल + ठक् = मौलिकम्।
देव + ठक् = दैविकः।
भूत + ठक् = भौतिकः।
देह + ठक् = दैहिकः।
अध्यात्मक + ठक् = अध्यात्मिकः।
अधिभूत + ठक् = आधिभौतिकः।
अधिदेच + ठक् = आधिदैविकः।
लक्ष + ठक् = लाक्षिकः इत्यादि।
1. अपत्य (सन्तान) अर्थ में –
2. संस्कृतम् अर्थ में –
3. चरति (जाता है, खाता है) अर्थ में –
4. रक्षति (रक्षा करता है) के अर्थ में –
समाज + ठक् (इक) = । सामाजिकः (समाज की रक्षा करने वाला)
5. करोति (करता है) के अर्थ में –
6. हन्ति (मारता है) के अर्थ में –
7. ‘मतिः यस्य’ (जिसकी मान्यता है) के अर्थ में –
8. नियुक्त अर्थ में –
आकर + ठक् (इक) = आकरिकः (आकर में नियुक्त)
9. गच्छति (गमन करना) अर्थ में –
10. ‘अधीते’ या ‘वेद’ (पढ़ता है या जानता है) के अर्थ में –
(घ) ठञ् ( इक) प्रत्यय
(ङ) “त्व’ प्रत्यय
भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘त्व’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ‘त्व’ प्रत्ययान्त पद नपुंसकलिंग में होता है।
(च) तल् (ता) प्रत्यय
भाववाचक संज्ञा (स्त्रीलिंग) बनाने के लिए तल् प्रत्यय भी लगाया जाता है। तल् के स्थान पर ‘ता’ हो जाता है; जैसे –
† † †
(तल् प्रत्यय ग्राम, जन, बन्धु, गज तथा सहाय शब्दों के साथ समूह के अर्थ में भी किया जाता है; जैसे –
(iii) स्त्री प्रत्यय
(क) टाप् प्रत्ययः
अजादिगण में परिगणित पुंल्लिग शब्दों को तथा अकारान्त आदि पुंल्लिग शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्रायः टाप् प्रत्यय का प्रयोग होता है। टाप् प्रत्यय के (ट् )और (प्) का लोप होकर केवल ‘आ’ रूप शेष बच जाता है।
1. अजादिगण शब्द –
2. अकारान्त शब्द –
विशेष–कुछ शब्द अजादिगण में न होने पर भी उनके साथ "टाप् प्रत्यय लगता है; जैसे –
आचार्य + टाप् (आ) = आचार्या उपाध्याय + टाप् (आ) = उपाध्याया
3.जिन शब्दों के अन्त में ‘अक’ होता है उनको स्त्रीलिंग बनाते समय भी ‘आ’ प्रत्यय लगता है, किन्तु शब्द के अन्तिम ‘क’ से पूर्व ‘इ’ लगाई जाती है; (अक) का रूप (इका) हो जाता है।जैसे –
(ख) ङीप् प्रत्ययः
ङीप् प्रत्यय में (ङ्) और (प्) का लोप होकर केवल ‘ई’ शेष रहता है। ङीप् प्रत्यय का प्रयोग निम्नलिखित स्थानों पर किया जाता है
1. ऋकारान्त शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने के लिए ङीप् प्रत्यय का प्रयोग होता है; जैसे –
2.(इन्)-नकारात्मक शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने के लिए ङीप् प्रत्यय का प्रयोग होता है; जैसे –
3. प्रथम वय: के वाचक अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है; जैसे –
4. ईयसुन् प्रत्यय वाले शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है; जैसे –
(5. मतुप् (मत्) प्रत्यय वाले शब्दों में स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है; जैसे –
—★–
6. मतुप् (वत्) प्रत्यय वाले शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय लगता है; जैसे –
7. क्वस् (वस्) प्रत्यय वाले शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है; जैसे –
विद्वस् + ङीप् (ई) = विदुषी जग्मिवस् + ङीप् (ई) = जामुषी।
8. शतृ (अत्) प्रत्यय वाले शब्दों से स्त्रीलिंग में ङीप् (ई) प्रत्यय लगता है और न् का आगम होता है; जैसे –
9. गुणवाचक उकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग में विकल्प से ङीप् (ई) लगती है; जैसे –
10. पतिबोधक अकारान्त शब्दों से पत्नीबोधक शब्द बनाने के लिए ङीप् (ई) प्रत्यय लगता है; जैसे –
11. निम्नलिखित अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग बनाने के लिए ङीप् (ई) प्रत्यय लगता है; जैसे –
12. निम्नलिखित अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग बनाने के लिए ङीप् (ई) प्रत्यय से पूर्व आन् का आगम होता है; जैसे –
_______________
कुछ विशेष प्रत्ययः युक्त संज्ञा और क्रिया पदरूप।
ऊपर लिखे गए प्रत्ययों के अलावा कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण प्रत्यय भी दिए जा रहे हैं जो कि पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं है।
1. ल्युट् (अनम्) 2. क्तिन् (ति:) 3. तृच् (तृ) 4. तसिल् (त:)
1. ल्युट् प्रत्यय- यह प्रत्यय धातु के पीछे लगाकर उन्हें भाववाचक नपुंसकलिंग एकवचन शब्द रूप में परिवर्तित कर देता है। यथा –
2. क्तिन् प्रत्यय- यह प्रत्यय से धातु को स्त्रीलिंग (भाववाचक) एकवचन इकारांत वाले शब्द बनाए जाते है; यथा –
3. तृच् प्रत्यय- इस प्रत्यय का प्रयोग धातु से ऋकारान्त शब्दों (करने वाला) का निर्माण करने के लिए किया जाता है; जैसे –
4. तसिल् प्रत्यय- ये प्रत्यय शब्दों से पञ्चमी विभक्ति के रूप में उसी अर्थ को प्रकट करने के लिए लगाए जाते हैं। ये शब्द अव्यय के रूप में बने हैं; जैसे –
____________________________________
- कृदन्त
वर्तमानकालिक कृदन्त
धातुओं के बाद आने वाले प्रत्यय ‘’कृत’’ कहे जाते है। - शब्द के अन्त में लगने के रुप में जाने जाते है। अर्थ होता है – ‘हुए’ कहते हुए , जाते हुए।
वर्तमान कालिक कृदन्त –
मूलधातु पुल्लिंग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग कृ कुर्वन् कुर्वन्ती कुर्वत् गम् गच्छन् गच्छती गच्छत् स्था (तिष्ठ) तिष्ठन् तिष्ठती तिष्ठत्
इसी प्रकार धाव्, वद्, जि(जय), नम्, नृत्य्, दृश्(पश्य), पा(पिब्), लिख् आदि धातुएँ।
वर्तमान कालिक कृदन्त रुप में चलती है और इनका अर्थ होता है – जाते हुए, नाचते हुए, खाते हुए, पीते हुए, देखते हुए।
गच्छन् सिंह: श्यति – जाता हुआ शेर देखता है।
आत्मने पदी धातुओं के वर्तमान कालिक कृदन्त के (अन्त में ) (आन) होता है - करता हुआ।
मूल धातु वर्तमान कालिक
कृदन्त( शानच्)मुद् मोदमान सह् सहमान मृ मृयमान धृ धृयमान वृध् वर्धमान जय् जयमान दीप् दीप्यमान
इसी प्रकार दृश् , हन्, सेव् , अधि, धातु के भी प्रयोग किये जा सकते है।
वाक्य प्रयोग- मोदमानः छात्रः लिखति - प्रसन्न होता हुआ विद्यार्थी लिखता है।
म्रियमाण: श्यानः शयति - मरता हुआ कुत्ता शयन करता है।`
भूतकालिक कृदन्त~
कर्म का विशेषण होता है।
मूलधातु कृदन्त-(क्तवत्)(क्त) अस् अस्त कथ् कथित कुप् कुपित ज्ञातृ ज्ञातृवत् आप्त् आप्तवत् शक्त् शक्तवत् कृ कृतवत् गत् गतवत्
वाक्य प्रयोग -(कर्ता विशेषण में= क्तवत् और कर्म विशेषण में=( क्त)प्रत्यय)
विध्यर्थ कृदन्त -
होना चाहिए , जाना चाहिए के अर्थ में
मूलधातु- तव्यत्
प्रत्ययअनीयर् प्रत्यय
यत्
प्रत्ययदा (देना) दातव्य दानीय देय गम् (जाना) गन्तव्य गमनीय गम्य प्राप् (प्राप्त करना) प्राप्तव्य प्रापणीय प्राप्य ग्रह् ग्रहीतव्य ग्रहणीय ग्राह्य नम् नन्तव्य नमणीय नम्य
धातुओं के अव्ययभूत रूप कृदन्त (करके)-धातु - अव्ययभूतरूप पठ् (पढ़ना) पठित्वा भू (होना) भूत्वा वद् (बोलना) वदित्वा हस् (हँसना) हँसकर- हसित्वा क्षिप् (फेंकना) क्षिप्तवा लिख् (लिखना) लिखित्वा गृह् (लेना) गृहित्वा
वाक्य में प्रयोग- पुस्तकम् गृहीत्वा सः विद्यालयम् गच्छति ।- _______________________________,
हेतु वाचक कृदन्त (तुमुन् प्रत्यय)
(१) तुमुन् प्रत्यान्त शब्दों का प्रयोग ‘को’ अथवा )‘करने के’ लिए) का अर्थ देता है। -
(२) जब कोई क्रिया किसी दूसरी क्रिया के लिए की जाती है उस निमित्तार्थक क्रिया में तुम (तुमुन् प्रत्यय) हुआ करता है ।
(३) तुमुन का ‘तुम्’ शेष रहा करता है
(४)तुमुन प्रत्यान्त शब्द के रुप नही चलते क्योंकि यह ‘अव्यय’ अथवा अविकारी पद होता है ।
मूल धातु तुमुन् प्रत्यय अधि अध्येतुम् ईक्ष् ईक्षितुम् कथ् कथयितुम् कृ कर्तुम् लभ् लब्धुम् शी शयितुम् त्यज् त्यक्तुम् सह् सोढुम्
इसी प्रकार हन्तुम् , प्रापयितुम् , रोदितुम् , हसितुम् , स्पृष्ठुम् , भवितुम् , गन्तुम् पठितुम्
प्रघर्षयितुम् ( अपमानित करने के लिए ) , आहर्तुम् , क्रीडितुम् आदि हेतु- अर्थक प्रत्ययान्त क्रियाओं के रूप हैं। - अहम् संस्कृतम् अध्येतुम् इच्छामि । -मैं संस्कृत अध्ययन की इच्छा करता हूँ।
- ______
★ –प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार रोहि" 8077160219-)
"ष्था"=ठहरना धातु(भ्वादिः) |
परस्मैपदी |
लट्(वर्तमान) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | तिष्ठति | तिष्ठतः | तिष्ठन्ति |
मपु० | तिष्ठसि | तिष्ठथः | तिष्ठथ |
उपु० | तिष्ठामि | तिष्ठावः | तिष्ठामः |
लिट्- परोक्ष अनद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | तस्थौ | तस्थतुः | तस्थुः |
मपु० | तस्थाथ/तस्थिथ | तस्थथुः | तस्थ |
उपु० | तस्थौ | तस्थिव | तस्थिम |
लुट्(अनद्यतन भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | स्थाता | स्थातारौ | स्थातारः |
मपु० | स्थातासि | स्थातास्थः | स्थातास्थ |
उपु० | स्थातास्मि | स्थातास्वः | स्थातास्मः |
लृट्(अद्यतन भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | स्थास्यति | स्थास्यतः | स्थास्यन्ति |
मपु० | स्थास्यसि | स्थास्यथः | स्थास्यथ |
उपु० | स्थास्यामि | स्थास्यावः | स्थास्यामः |
लोट्(आज्ञार्थ) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | तिष्ठतु/तिष्ठतात् | तिष्ठताम् | तिष्ठन्तु |
मपु० | तिष्ठ/तिष्ठतात् | तिष्ठतम् | तिष्ठत |
उपु० | तिष्ठानि | तिष्ठाव | तिष्ठाम |
लङ्(अनद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अतिष्ठत् | अतिष्ठताम् | अतिष्ठन् |
मपु० | अतिष्ठः | अतिष्ठतम् | अतिष्ठत |
उपु० | अतिष्ठम् | अतिष्ठाव | अतिष्ठाम |
विधिलिङ् | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | तिष्ठेत् | तिष्ठेताम् | तिष्ठेयुः |
मपु० | तिष्ठेः | तिष्ठेतम् | तिष्ठेत |
उपु० | तिष्ठेयम् | तिष्ठेव | तिष्ठेम |
आशीर्लिङ् | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | स्थेयात् | स्थेयास्ताम् | स्थेयासुः |
मपु० | स्थेयाः | स्थेयास्तम् | स्थेयास्त |
उपु० | स्थेयासम् | स्थेयास्व | स्थेयास्म |
लुङ्(अद्यतन भूत) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अस्थात् | अस्थाताम् | अस्थुः |
मपु० | अस्थाः | अस्थातम् | अस्थात |
उपु० | अस्थाम् | अस्थाव | अस्थाम |
लृङ्(हेतुहेतुमद्-भविष्यत्) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रपु० | अस्थास्यत् | अस्थास्यताम् | अस्थास्यन् |
मपु० | अस्थास्यः | अस्थास्यतम् | अस्थास्यत |
उपु० | अस्थास्यम् | अस्थास्याव | अस्थास्याम |
(१) आज आपको इदम् और अदस् सर्वनामों के रूप बताते हैं।
इदम् ( यह, इस, इन आदि)
अदस् (वह, उस, उन आदि)
(२) अब आपको एक श्लोक बता देते हैं जिससे आपको यह बात पक्की हो जाएगी कि इदम् , एतद् , अदस् और तद् का प्रयोग कब और कहाँ करना चाहिए।
“इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥”
(इदम् अस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति च एतदः रूपम्।
अदसः तु विप्रकृष्टे तद् इति परोक्षे विजानीयात् ॥)
अर्थात् –
१] इदम् = समीपस्थ वस्तु के लिए
२] एतद् = अत्यन्त समीपस्थ वस्तु के लिए
३] अदस् = दूरस्थ वस्तु के लिए
४] तद् = परोक्ष अर्थात् जो आपको दिखाई न दे ऐसी वस्तु के लिए।
इदम् पुँल्लिंग :
अयम् इमौ इमे।
इमम् इमौ इमान्।
अनेन आभ्याम् एभिः।
अस्मै आभ्याम् एभ्यः।
अस्मात् आभ्याम् एभ्यः।
अस्य अनयोः एषाम्।
अस्मिन् अनयोः एषु।
________________________
इदम् नपुसंकलिंग :★
इदम् इमे इमानि
इदम् इमे इमानि (शेष पुँल्लिंगवत्)
_______________________________
इदम् स्त्रीलिंग :★
इयम् इमे इमाः
इमाम् इमे इमाः
अनया आभ्याम् आभिः
अस्यै आभ्याम् आभ्यः
अस्याः आभ्याम् आभ्यः
अस्याः अनयोः आसाम्
अस्याम् अनयोः आसु
_______________________
अदस् पुँल्लिंग :★
असौ अमू अमी
अमुम् अमू अमून्
अमुना अमूभ्याम् अमीभिः
अमुष्मै अमूभ्याम् अमीभ्यः
अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः
अमुष्य अमुयोः अमीषाम्
अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु
_______________________
अदस् नपुसंकलिंग :
अदः अमू अमूनि
अदः अमू अमूनि (शेष पुँल्लिंगवत्)
_____________
अदस् स्त्रीलिंग :★
असौ अमू अमूः
अमुम् अमू अमूः
अमुया अमूभ्याम् अमूभिः
अमुष्यै अमूभ्याम् अमूभ्यः
अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः
अमुष्याः अमुयोः अमूषाम्
अमुष्याम् अमुयोः अमूषु
★ध्यानपूर्वक देखिए , आप पाएँगे कि स्त्रीलिंग के द्विवचन के सभी रूप पुँल्लिंग की भाँति ही हैं। एकवचन और बहुवचन में भी थोड़ा सा ही अन्तर है।
________________________________________
श्लोक : अयम् = यह (इदम् का पुँल्लिंग एकवचन)
(१)अब आपको इदम् और अदस् सर्वनामों के रूप बताते हैं।
इदम् ( यह, इस, इन आदि)
अदस् (वह, उस, उन आदि)
(२) अब आपको एक श्लोक बता देते हैं जिससे आपको यह बात परिपक्व हो जाएगा कि इदम् , एतद् , अदस् और तद् का प्रयोग कब और कहाँ करना चाहिए।
“इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।
अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ॥”
(इदम् अस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति च एतदः रूपम्।
अदसः तु विप्रकृष्टे तद् इति परोक्षे विजानीयात् ॥)
अर्थात् –
१] इदम् = समीपस्थ वस्तु के लिए
२] एतद् = अत्यन्त समीपस्थ वस्तु के लिए
३] अदस् = दूरस्थ वस्तु के लिए
४] तद् = परोक्ष अर्थात् जो आपको दिखाई न दे ऐसी वस्तु के लिए।
इदम् पुँल्लिंग :
अयम् इमौ इमे
इमम् इमौ इमान्
अनेन आभ्याम् एभिः
अस्मै आभ्याम् एभ्यः
अस्मात् आभ्याम् एभ्यः
अस्य अनयोः एषाम्
अस्मिन् अनयोः एषु
इदम् नपुसंकलिंग :
इदम् इमे इमानि
इदम् इमे इमानि (शेष पुँल्लिंगवत्)
इदम् स्त्रीलिंग :
इयम् इमे इमाः
इमाम् इमे इमाः
अनया आभ्याम् आभिः
अस्यै आभ्याम् आभ्यः
अस्याः आभ्याम् आभ्यः
अस्याः अनयोः आसाम्
अस्याम् अनयोः आसु
अदस् पुँल्लिंग :
असौ अमू अमी
अमुम् अमू अमून्
अमुना अमूभ्याम् अमीभिः
अमुष्मै अमूभ्याम् अमीभ्यः
अमुष्मात् अमूभ्याम् अमीभ्यः
अमुष्य अमुयोः अमीषाम्
अमुष्मिन् अमुयोः अमीषु
अदस् नपुसंकलिंग :
अदः अमू अमूनि
अदः अमू अमूनि (शेष पुँल्लिंगवत्)
अदस् स्त्रीलिंग :
असौ अमू अमूः
अमुम् अमू अमूः
अमुया अमूभ्याम् अमूभिः
अमुष्यै अमूभ्याम् अमूभ्यः
अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः
अमुष्याः अमुयोः अमूषाम्
अमुष्याम् अमुयोः अमूषु
________________________________________
(१ ) अस्मद् और युष्मद् के रूप तीनों लिंगों में एक जैसे होते हैं ।
अस्मद्★
अहम् आवाम् वयम्
माम्/मा आवाम्/नौ अस्मान्/नः
मया आवाभ्याम् अस्माभिः
मह्यम्/मे आवाभ्याम्/नौ अस्मभ्यम्/नः
मत् आवाभ्याम् अस्मत्
मम/मे आवयोः/नौ अस्माकम्/नः
मयि आवयोः अस्मासु
_______________________________
युष्मद्★
त्वम् युवाम् यूयम्
त्वाम्/त्वा युवाम्/वाम् युष्मान्/वः
त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः
तुभ्यम्/ते युवाभ्याम्/वाम् युष्मभ्यम्/वः
त्वत् युवाभ्याम् युष्मत्
तव/ते युवयोः/वाम् युष्माकम्/वः
त्वयि युवयोः युष्मासु
______________________________________
मिठाइयाँ, खाद्य /मिष्टान्नानि, खाद्याः
(1) रसगुल्ला – रसगोलक
(2) लड्डू – मोदकम्( ल्हादक)
(3) जलेबी – कुण्डलिका,
(4) खीर – पायसम्
(5) बर्फी – हैमी
(6) रबड़ी – कूर्चिका
(7) श्रीखंड – श्रीखण्डम्
____________________________________
(१) जब हम किसी धातु से कोई लकार जोड़ते हैं तब उस लकार का लोप हो जाता है और उसके स्थान पर अट्ठारह प्रत्ययों का प्रयोग होता है।
इन प्रत्ययों को संक्षेप में तिङ् कहा जाता है। जैसे हम हिन्दी आदि भाषाओं में संक्षिप्त नामों का प्रयोग करते हैं वैसे ही संस्कृतभाषा में भी संक्षिप्त नामों का प्रयोग होता था।
आप कह सकते हैं कि यह प्रवृत्ति संस्कृत से ही आयी। चूँकि इन अट्ठारह प्रत्ययों में से पहला है ‘तिप्’ और अन्तिम है ‘महिङ्’ तो तिप् का (ति) ले लिया और महिङ् का (ङ्) ले लिया जिससे ‘तिङ्’ यह संक्षिप्त नाम हो गया!
इन प्रत्ययों का सारा खेल इन तिङ् प्रत्ययों का ही है। कोई भी क्रियापद इन तिङ् प्रत्ययों के बिना नहीं बन सकता।
धातु के अन्त में तिङ् जोड़ना ही होता है अतः इस प्रकरण को तिङन्त-प्रकरण कहा जाता है। तिङन्त अर्थात् तिङ् प्रत्यय हैं जिनके अन्त में ‘तिङ्+अन्त’।
________________________________
(२) इन अट्ठारह प्रत्ययों के आरम्भिक नौ प्रत्यय ‘परस्मैपद’ और अन्तिम नौ प्रत्यय ‘आत्मनेपद’ कहलाते हैं।
यह भी स्मरण रखिए कि जिन धातुओं से परस्मैपद प्रत्यय होते हैं उन धातुओं को ‘परस्मैपदी’ कहा जाता है और जिन धातुओं से आत्मनेपद प्रत्यय जुड़ते हैं उन्हें ‘आत्मनेपदी’ कहा जाता है और जिन धातुओं से दोनों प्रकार के प्रत्यय होते हैं उन धातुओं को ‘उभयपदी’ धातु कहा जाता है।
______________________________
परस्मैपद प्रत्यय
(१) (२) (३)(४)(५…)
प्रथमपुरुष तिप् तस् झि
मध्यमपुरुष सिप् थस् थ
उत्तमपुरुष मिप् वस् मस्
____________________________
आत्मनेपद प्रत्यय
(१) (२) (३)(४)(५…)
प्रथमपुरुष- ता आताम् झ
मध्यमपुरुष- थास् आथाम् ध्वम्
उत्तमपुरुष -इट् वहि महिङ्
पुरुष और वचन के विषय में आपको पहले ही बताया जा चुका है। पुरुष और वचन के अनुसार ही इन प्रत्ययों को धातु से जोड़ा जाता है। यह तो आपको लकार, तिङ् प्रत्ययों और आत्मनेपद परस्मैपद के विषय में समझाया।
कौन सी धातुएँ आत्मनेपदी होती है और कौन परस्मैपदी अथवा उभयपदी, यह आप तभी जान पायेंगे जब आप धातुपाठ का अध्ययन करेंगे।
किन्तु जब हम आपको धातुओं के रूपों का अभ्यास करायेंगे तब आपको उस धातु के विषय में यह सभी बातें बताते चलेंगे।
अब दसों लकारों के प्रयोग से सम्बन्धित नियमों के विषय में बतायेंगे। सबसे पहला है लट् लकार। इसके विषय में निम्नलिखित
नियम स्मरण रखिए-
(१) लट् लकार वर्तमान काल में होता है। क्रिया के आरम्भ से लेकर समाप्ति तक के काल को वर्तमान काल कहते हैं। जब हम कहते हैं कि हरि पुस्तक पढ़ता है या पढ़ रहा है’ तो पढ़ना क्रिया वर्तमान है अर्थात् अभी समाप्त नहीं हुई।
और जब कहते हैं कि ‘ हरि ने पुस्तक पढ़ी’ तो पढ़ना क्रिया समाप्त हो चुकी अर्थात् यह भूतकाल की क्रिया हो गयी।
_____________
ठहरना
(२) यदि लट् लकार के रूप के साथ ‘स्म’ लगा दिया जाय तो लट् लकार वाले रूप का प्रयोग भूतकाल के लिए हो जायेगा। जैसे – ‘पठति स्म’ = पढ़ता था।
(३) सर्वप्रथम हम आपको ‘भू’ धातु के रूप बतायेंगे। ‘भू’ धातु का अर्थ है ‘होना’ , किसी की सत्ता या अस्तित्व को बताने के लिए इस धातु का प्रयोग होता है।
यह धातु परस्मैपदी है अतः इसमें तिङ् प्रत्ययों में से प्रथम नौ प्रत्यय लगेंगे।
देखिए –
प्रथमपुरुष भू+ तिप् भू+ तस् भू+ झि
मध्यमपुरुष भू+सिप् भू+थस् भू+ थ
उत्तमपुरुष भू+मिप् भू+वस् भू+मस्
__________________________________
व्याकरणशास्त्र की रूपसिद्धि प्रक्रिया को न बताते हुए आपको सिद्ध रूपों को बतायेंगे। रूपसिद्धि की प्रक्रिया थोड़ी जटिल है।
लट् लकार में निम्नलिखित रूप बनेंगे, पुरुष वचन आदि पूर्ववत् रहेंगे-
भवति भवतः भवन्ति
भवसि भवथः भवथ
भवामि भवावः भवामः
इन रूपों का वाक्यों में अभ्यास करने पर आपको उपर्युक्त नियम अभ्यस्त हो जायेंगे।
वाक्य अभ्यास
:-------
जब मैं यहाँ होता हूँ तब वह दुष्ट भी यहीं होता है।
= यदा अहम् अत्र भवामि तदा सः दुष्टः अपि अत्रैव भवति।
जब हम दोनों विद्यालय में होते हैं…
= यदा आवां विद्यालये भवावः …
तब तुम दोनों विद्यालय में क्यों नहीं होते हो ?
= तदा युवां विद्यालये कथं न भवथः ?
जब हम सब प्रसन्न होते हैं तब वे भी प्रसन्न होते हैं।
= यदा वयं प्रसन्नाः भवामः तदा ते अपि प्रसन्नाः भवन्ति।
प्राचीन काल में हर गाँव में कुएँ होते थे।
= प्राचीने काले सर्वेषु ग्रामेषु कूपाः भवन्ति स्म।
सब गाँवों में मन्दिर होते थे।
= सर्वेषु ग्रामेषु मन्दिराणि भवन्ति स्म।
मेरे गाँव में उत्सव होता था।
= मम ग्रामे उत्सवः भवति स्म।
आजकल मनुष्य दूसरों के सुख से पीड़ित होता है।
= अद्यत्वे मर्त्यः परेषां सुखेन पीडितः भवति।
जो परिश्रमी होता है वही सुखी होता है।
= यः परिश्रमी भवति सः एव सुखी भवति।
केवल बेटे ही सब कुछ नहीं होते…
= केवलं पुत्राः एव सर्वं न भवन्ति खलु…
बेटियाँ बेटों से कम नहीं होतीं।
= सुताः सुतेभ्यः न्यूनाः न भवन्ति।
________________________________
लङ् लकार अनद्यतन भूतकाल के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ‘अनद्यतन भूतकाल’ अर्थात् ऐसा भूतकाल जो आज से पहले का हो।
जैसे –
वह कल हुआ था = सः ह्यः अभवत्।
वे दोनों परसों हुए थे = तौ परह्यः अभवताम्।
वे सब गतवर्ष हुए थे = ते गतवर्षे अभवन्।
जहाँ आज के भूतकाल की बात कही जाए वहाँ लङ् लकार का प्रयोग नहीं करना।
(२) यदि लङ् लकार के रूप के साथ “मा स्म” का प्रयोग कर दिया जाय तो यह निषेध अर्थ वाला हो जाता है। जैसे – दुःखी मत होओ = खिन्नः मा स्म भवः।
ध्यान रहे जब “मा स्म” का प्रयोग करेंगे तो लङ् लकार के रूप के अकार का लोप हो जाएगा।
__________
प्राचीन ग्रन्थों में “मा स्म” के साथ लुङ् लकार का भी प्रयोग देखा जाता है, जैसे – “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ” (श्रीमद्भगवद्गीता २.३)
_____________
भू धातु लङ् लकार★
अभवत् अभवताम् अभवन्
अभवः अभवतम् अभवत
अभवम् अभवाव अभवाम
____________________________________
वाक्याभ्यास-
कल मेरे पैर बहुत थक गए थे।
= ह्यः मम चरणौ भूरि श्रान्तौ अभवताम्।
परसों मेरे टखनों में बहुत पीड़ा हुई।
= परह्यः मम गुल्फयोः महती पीडा अभवत्।
इस कारण तुम भी दुःखी हुए।
= अनेन कारणेन त्वम् अपि दुःखी अभवः।
अब दुःखी मत होओ।
= सम्प्रति दुःखी मा स्म भवः।
तुम दोनों बीते वर्ष प्रथमश्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे।
= युवां व्यतीते वर्षे प्रथमश्रेण्याम् उत्तीर्णौ अभवतम्।
मैं तो अनुत्तीर्ण हो गया था भाई !!
= अहं तु अनुत्तीर्णः अभवं भ्रातः !!
तुम सब प्रसन्न हुए थे,
= यूयं प्रसन्नाः अभवत,
हम सब दुःखी हुए थे।
= वयं खिन्नाः अभवाम।
मेरे दोनों घुटनों में बहुत दर्द हुआ।
= मम जान्वोः महती पीडा अभवत्।
परसों मेरे गायन से सब लोग प्रसन्न हुए थे।
= परह्यः मम गायनेन सर्वे जनाः प्रसन्नाः अभवन्।
___________________________
लिट् लकाल का प्रयोग-
आपने कभी न कभी “व्यास उवाच” या गीता के “श्रीभगवान् उवाच” या “अर्जुन उवाच” या “सञ्जय उवाच” आदि वाक्यों को तो सुना ही होगा ? इन वाक्यों में जो ‘उवाच’ शब्द है वह ‘ ब्रू ‘ ( ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि ) धातु के लिट् लकार प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।
लिट् लकार के रूप पुराणों और इतिहासग्रन्थों में बहुलता से मिलते हैं।
भू धातु के रूप इस लकार में निम्नलिखित हैं –
___________
बभूव (वह हुआ) बभूवतुः (वे दो हुए) बभूवुः (वे सब हुए)
बभूविथ (तू हुआ ) बभूवथुः (तुम दोनों हुए) बभूव (तुम सब हुए )
बभूव (मैं हुआ ) बभूविव (हम दो हुए ) बभूविम(हम सब हुए )
लिट् लकार के विषय में कुछ स्मरणीय बातें-
(१) लिट् लकार का प्रयोग परोक्ष भूतकाल के लिए होता है। ऐसा भूतकाल जो वक्ता की आँखों के सामने का न हो।
प्रायः बहुत पुरानी घटना को बताने के लिए इसका प्रयोग होता है। जैसे – रामः दशरथस्य पुत्रः बभूव। = राम दशरथ के पुत्र हुए। यह घटना कहने वाले ने देखी नहीं अपितु परम्परा से सुनी है अतः लिट् लकार का प्रयोग हुआ।
(२) लिट् लकार के प्रथम पुरुष के रूपों का ही प्रयोग बहुधा होता है। आप ढूँढते रह जाएँगे मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष के रूप नहीं मिलेंगे। अतः आपको प्रथमपुरुष के रूप ही याद करना है।
_________________________________________
शब्दकोश :
युवावस्था के नाम –
(१] तारुण्यम् ( नपुंसकलिंग )
(२] यौवनम् ( नपुंसकलिंग )
बुढ़ापे के नाम –
(१] स्थाविरम् ( नपुंसकलिंग )
(२] वृद्धत्वम् ( नपुंसकलिंग )
(३] वार्द्धकम् ( नपुंसकलिंग ) इसका प्रसिद्ध प्रयोग – “वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम्” (रघुवंशम्)।
(४] वार्द्धक्यम् ( नपुंसकलिंग )
*वार्द्धकम् का अर्थ ‘वृद्धों का समूह’ भी होता है।
बड़े भाई के नाम-
(१] पूर्वजः ( पुँल्लिंग )
(२] अग्रियः ( पुँल्लिंग )
(३] अग्रजः ( पुँल्लिंग )
छोटे भाई के नाम –
(१] जघन्यजः
(२] कनिष्ठः
(३] यवीयः
(४] अवरजः
(५] अनुजः
(सभी पुँल्लिंग में)
_________________
वाक्य अभ्यास :
अज के पुत्र दशरथ हुए।= अजस्य पुत्रः दशरथः बभूव।
वृद्धावस्था में दशरथ के चार पुत्र हुए।= स्थाविरे दशरथस्य चत्वारः सुताः बभूवुः।
राम सब भाइयों के अग्रज हुए।= रामः सर्वेषां भ्रातॄणाम् अग्रियः बभूव।
लक्ष्मण और शत्रुघ्न जुड़वा हुए।= लक्ष्मणः च शत्रुघ्नः च यमलौ बभूवतुः।
युवावस्था में राम और लक्ष्मण अद्भुत धनुर्धर हुए।= यौवने रामः च लक्ष्मणः च अद्भुतौ धनुर्धरौ बभूवतुः।
भारतवर्ष में आश्वलायन नामक ऋषि हुए थे।= भारतवर्षे आश्वलायनः नामकः ऋषिः बभूव।
वे शारदामन्त्र के उपदेशक हुए।= सः शारदामन्त्रस्य उपदेशकः बभूव।
अभिमन्यु तरुणाई में ही महारथी हो गया था।= अभिमन्युः तारुण्ये एव महारथः बभूव।
एक दुर्वासा नाम वाले ऋषि हुए।= एकः दुर्वासा नामकः ऋषिः बभूव।
जो अथर्ववेदीय मन्त्रों के उपदेशक हुए।= यः अथर्ववेदीयानां मन्त्राणाम् उपदेशकः बभूव।
भारत में शंख और लिखित ऋषि हुए।= भारते शंखः च लिखितः च ऋषी बभूवतुः।
भारत में ही रेखागणितज्ञ बौधायन हुए।= भारते एव रेखागणितज्ञः बौधायनः बभूव।
भारत में ही शस्त्र और शास्त्र के वेत्ता परशुराम हुए।= भारते एव शस्त्रस्य च शास्त्रस्य च वेत्ता परशुरामः बभूव।
भारत में ही वैयाकरण पाणिनि और कात्यायन हुए।= भारते एव वैयाकरणौ पाणिनिः च कात्यायनः च बभूवतुः।
पाणिनि के छोटे भाई पिङ्गल छन्दःशास्त्र के उपदेशक हुए।= पाणिनेः अनुजः पिङ्गलः छन्दःशास्त्रस्य उपदेशकः बभूव।
धौम्य के बड़े भाई उपमन्यु हुए।= धौम्यस्य अग्रियः उपमन्युः बभूव।
उपमन्यु शैवागम के उपदेशक हुए।= उपमन्युः शैवागमस्य उपदेशकः बभूव।
वे कृष्ण के भी गुरु थे।= सः कृष्णस्य अपि गुरुः बभूव
भारत में ही शिल्पशास्त्र के अट्ठारह उपदेशक हुए।= भारते एव शिल्पशास्त्रस्य अष्टादश उपदेशकाः बभूवुः
____________________________
आज आपको भूतकाल के लिए ही प्रयुक्त होने वाले लिट् लकार के विषय में बतायेंगे। यह लकार बहुत रोचक भी है और सरल भी। आपने कभी न कभी “व्यास उवाच” या गीता के “श्रीभगवान् उवाच” या “अर्जुन उवाच” या “सञ्जय उवाच” आदि वाक्यों को तो सुना ही होगा ?
इन वाक्यों में जो ‘उवाच’ शब्द है वह ‘ ब्रू ‘ ( ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि ) धातु के लिट् लकार प्रथमपुरुष एकवचन का रूप है।
लिट् लकार के रूप पुराणों और इतिहासग्रन्थों में बहुलता से मिलते हैं।
(२) लिट् लकार के प्रथम पुरुष के रूपों का ही प्रयोग बहुधा होता है। आप ढूँढते रह जाएँगे मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष के रूप नहीं मिलेंगे। अतः आपको प्रथमपुरुष के रूप ही याद करना है।
_________________________________________
लकारों के क्रम में अभी तक आपने लट् लेट् लुङ् लङ् लिट् लिङ् और लोट् लकार के विषय में समझा।
अब “लुट् लृट् लृङ् च भविष्यति ॥” अर्थात् लुट् लृट् और लृङ् लकारों के विषय जानना शेष रह गया है। ये तीनों लकार भविष्यत् काल के लिए प्रयुक्त होते हैं।
किन्तु इनमें थोड़ी थोड़ी विशेषता है। अतः पृथक् पृथक् समझाते हैं। सर्वप्रथम लुट् लकार के विषय में चर्चा करते हैं।
(१) यह लकार अनद्यतन भविष्यत् काल के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा भविष्यत् जो आज न हो। कल, परसों या उसके भी आगे। आज वाले कार्यों के लिए इसका प्रयोग प्रायः नहीं होता। जैसे – ” वे कल विद्यालय में होंगे” = ते श्वः विद्यालये भवितारः।
_______________
भू धातु , लुट् लकार
भविता भवितारौ भवितारः
भवितासि भवितास्थः भवितास्थ
भवितास्मि भवितास्वः भवितास्मः
___________________
आने वाला कल = श्वः
आने वाला परसों = परश्वः
* ये दोनों अव्यय हैं। अव्यय ज्यों के त्यों प्रयोग में लाये जाते हैं। विभक्ति द्वारा इनका रूप नहीं बदलता और न ही किसी लिङ्ग में रूप बदलता है, न ही वचन में।
______________
वाक्य अभ्यास :
यह मुनि कल उस झोपड़ी में होगा।= अयं मुनिः श्वः तस्यां पर्णशालायां भविता।
वे दोनों वेदपाठी परसों उस यज्ञभवन में होंगे।= अमू छान्दसौ परश्वः अमुष्मिन् चैत्ये भवितारौ।
वे वेदपाठी कल इन यज्ञशालाओं में होंगे।= अमी श्रोत्रियाः श्वः एषु आयतनेषु भवितारः।
तुम परसों अध्यापक के साथ पर्णशाला में होगे।= त्वं परश्वः उपाध्यायेन सह उटजे भवितासि।
तुम दोनों कल यज्ञशाला में होगे।= युवां श्वः चैत्ये भवितास्थः।
वहाँ वेदपाठियों का सामगान होगा।= तत्र छान्दसानां सामगानं भविता।
तुम सब परसों कुटिया में होगे।= यूयं परश्वः उटजे भवितास्थ।
वहाँ अगदतन्त्र का व्याख्यान होगा।= तत्र अगदतन्त्रस्य व्याख्यानं भविता।
मैं कल उस कुटी में होऊँगा।= अहं श्वः तस्मिन् उटजे भवितास्मि।
उसी में दो उपाध्याय होंगे।= तस्मिन् एव द्वौ उपाध्यायौ भवितारौ।
हम दोनों परसों उस चैत्य में नहीं होंगे।= आवां परश्वः तस्मिन् चैत्ये न भवितास्वः।
हम सब कल वेदपाठियों की कुटी में होंगे।= वयं श्वः छान्दसानाम् उटजेषु भवितास्मः ।
वहीं ऋग्वेद का जटापाठ होगा।= तत्र एव ऋग्वेदस्य जटापाठः भविता।
उपाध्याय लोग भी वहीं होंगे।= अध्यापकाः अपि तत्र एव भवितारः।
हम लोग भी वहीं होंगे।= वयम् अपि तत्र एव भवितास्मः।
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आशीर्लिङ् अभ्यास
भू धातु, आशीर्लिङ्
भूयात् भूयास्ताम् भूयासुः
भूयाः भूयास्तम् भूयास्त
भूयासम् भूयास्व भूयास्म
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सभी शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं अतः तीनों लिंगों में रूप चलेंगे। स्त्रीलिंग में आयुष्मती, कीर्तिमती, दीर्घजीविनी आदि।
शब्दरूप प्रकरण में रूप किस प्रकार चलते हैं यह बतायेंगे, अभी आप लकारों पर ध्यान दीजिए।
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वाक्य अभ्यास :
तेरा पुत्र यशस्वी हो।= तव पुत्रः यशस्वी भूयात्।
तुम्हारी दोनों पुत्रियाँ यशस्विनी हों।= तव उभे सुते कीर्तिमत्यौ भूयास्ताम्।
आपके सभी पुत्र दीर्घायु हों।= भवतः सर्वे तनयाः चिरञ्जीविनः भूयासुः।
तू आयुष्मान् हो।= त्वं जैवातृकः भूयाः।
तुम दोनों यशस्वी होओ।= युवां समज्ञावन्तौ भूयास्तम्।
तुम सब दीर्घायु होओ।= यूयं जैवातृकाः भूयास्त।
मैं दीर्घायु होऊँ।= अहं चिरजीवी भूयासम्।
हम दोनों यशस्वी होवें।= आवां समज्ञावन्तौ भूयास्व ।
हम सब आयुष्मान् हों।= वयम् आयुष्मन्तः भूयास्म।
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श्लोक :
पठन् द्विजः वागृषभत्वम् ईयात्
स्यात् क्षत्त्रियः भूमिपतित्वम् ईयात्।
वणिग्जनः पण्यफलत्वम् ईयात्
जनः च शूद्रः अपि महत्त्वम् ईयात्॥
( रामायणम् बालकाण्डम् १।७९ )
ब्राह्मण इस काव्य को पढ़ता हुआ वाणी में निपुणता प्राप्त करे, क्षत्रिय हो तो भूमिपति होवे, वैश्य व्यापार का फल पाये और शूद्र भी महत्त्व को प्राप्त हो।
ईयात् = इण् गतौ ( जाना ) आशीर्लिङ्, प्रथमपुरुष एकवचन ( ‘प्राप्त हो’ ‘जाये’ ऐसा अर्थ होगा )
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श्लोक :
पठन् द्विजः वागृषभत्वम् ईयात्स्यात् क्षत्त्रियः भूमिपतित्वम् ईयात्।
वणिग्जनः पण्यफलत्वम् ईयात्जनः च शूद्रः अपि महत्त्वम् ईयात्॥
( रामायणम् बालकाण्डम् १।७९ )
ब्राह्मण इस काव्य को पढ़ता हुआ वाणी में निपुणता प्राप्त करे, क्षत्रिय हो तो भूमिपति होवे, वैश्य व्यापार का फल पाये और शूद्र भी महत्त्व को प्राप्त हो।
ईयात् = इण् गतौ ( जाना ) आशीर्लिङ्, प्रथमपुरुष एकवचन ( ‘प्राप्त हो’ ‘जाये’ ऐसा अर्थ होगा )
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लृट् लकार
आज लृट् लकार की बात करते हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लकार है। सामान्य भविष्यत् काल के लिए लृट् लकार का प्रयोग किया जाता है। जहाँ भविष्यत् काल की कोई विशेषता न कही जाए वहाँ लृट् लकार ही होता है। कल, परसों आदि विशेषण न लगे हों। भले ही घटना दो पल बाद की हो अथवा वर्ष भर बाद की, बिना किसी विशेषण वाले भविष्यत् में लृट् का प्रयोग करना है। ‘आज होगा’ – इस प्रकार के वाक्यों में भी लृट् होगा।
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भू धातु, लृट् लकार
भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति
भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ
भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः
आज मैं विद्यालय में होऊँगा।= अद्य अहं विद्यालये भविष्यामि।
मैं विद्यालय में होऊँगा।= अहं विद्यालये भविष्यामि।
कल मैं विद्यालय में होऊँगा।= श्वः अहं विद्यालये भवितास्मि। (लुट् लकार)
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वाक्य अभ्यास :
आज सन्ध्या को वह उद्यान में होगा।= अद्य सायं सः उद्याने भविष्यति।
प्रातः वे दोनों मन्दिर में होंगे।= प्राह्णे तौ मन्दिरे भविष्यतः।
दिन में वे कहाँ होंगे ?= दिवसे ते कुत्र भविष्यन्ति ?
आज दोपहर तुम कहाँ होगे ?= अद्य मध्याह्ने त्वं कुत्र भविष्यसि ?
आज दोपहर मैं विद्यालय में होऊँगा ।= अद्य मध्याह्ने अहं विद्यालये भविष्यामि।
तुम दोनों सायंकाल कहाँ होगे ?= युवां प्रदोषे कुत्र भविष्यथः ?
हम दोनो तो सन्ध्यावन्दन में होंगे।= आवां तु सन्ध्यावन्दने भविष्यावः।
क्या तुम वहाँ नहीं होगे ?= किं त्वं तत्र न भविष्यसि ?
हाँ, मैं भी होऊँगा।= आम्, अहम् अपि भविष्यामि।
हम सब दिन में वहीं होंगे।= वयं दिवा तत्र एव भविष्यामः।
तुम सब तो सायंकाल में अपने घर होगे।= यूयं तु रजनीमुखे स्वगृहे भविष्यथ।
और हम अपने घर होंगे।= वयं च स्वभवने भविष्यामः।
तो उत्सव कैसे होगा ?= तर्हि उत्सवः कथं भविष्यति ?
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लृट् लकार अभ्यास
भू धातु, लृट् लकार
भविष्यति भविष्यतः भविष्यन्ति
भविष्यसि भविष्यथः भविष्यथ
भविष्यामि भविष्यावः भविष्यामः
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वाक्य अभ्यास :
आप आज दोपहर में कहाँ होंगे ?
= भवान् अद्य मध्याह्ने कुत्र भविष्यति ?
आज दोपहर मैं खेल के मैदान में होऊँगा।
= अद्य मध्याह्ने अहं क्रीडाक्षेत्रे भविष्यामि।
तुम कहाँ होओगे ?
= त्वं कुत्र भविष्यसि ?
मैं भी वहीं होऊँगा।
= अहम् अपि तत्र एव भविष्यामि।
वहाँ नटों का खेल होगा।
= तत्र शैलूषाणां कौतुकं भविष्यति।
उसके बाद बच्चों का खेल होगा।
= तत्पश्चात् बालकानां खेला भविष्यति।
वहाँ तो बहुत से नट होंगे।
= तत्र तु बहवः रङ्गजीवाः भविष्यन्ति खलु।
तुम दोनों भी वहाँ होगे कि नहीं ?
= युवाम् अपि तत्र एव भविष्यथः वा न वा ?
हाँ हम दोनों भी वहीं होंगे।
= आम्, आवाम् अपि तत्र एव भविष्यावः।
हम सब भी अध्यापकों के साथ वहाँ होंगें।
= वयम् अपि उपाध्यायैः सह तत्र भविष्यामः।
बच्चों का खेल कब होगा?
= बालानां कूर्दनं कदा भविष्यति ?
नटों के खेल के बाद ही होगा।
= भरतानां कुतकस्य पश्चात् एव भविष्यति।
तब तो बहुत आनन्द होगा।
= तर्हि तु भूरि मोदः भविष्यति।
हाँ, आओ चलते हैं।
= आम्, एहि चलामः।
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Old English hwæðer, hweðer
लृङ् लकार★
लृङ् लकार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लकार है। कारण और फल के विवेचन के सम्बन्ध में जब किसी क्रिया की असिद्धि हो गई हो अर्थात् क्रिया न हो सकी हो तो ऐसे भूतकाल में लृङ् लकार का प्रयोग होता है। “यदि ऐसा होता तो वैसा होता” -इस प्रकार के भविष्यत् के अर्थ में भी इस लकार का प्रयोग होता है।
जैसे –
“यदि तू विद्वान् बनता तो सुख पाता।”= यदि त्वं विद्वान् अभविष्यः तर्हि सुखं प्राप्स्यः।
यदि अच्छी वर्षा होती तो अच्छा अन्न होता।= सुवृष्टिः चेत् अभविष्यत् तर्हि सुभिक्षः अभविष्यत्।
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लृङ् लकार भूत या भविष्यत् अर्थ में प्रयुक्त होता है। चन्द्र ऋषि द्वारा बनाये गये व्याकरण को मानने वाले वैयाकरण भविष्यत् काल के लिए लृङ् का प्रयोग नहीं करते अपितु लृट् का ही प्रयोग करते हैं।
भू धातु , लृङ् लकार★
अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन्
अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत
अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम
यदि आप ध्यानपूर्वक देखेंगे तो पायेंगे कि ये रूप लङ् लकार की भाँति ही हैं, केवल ‘इष्य’ अधिक जुड़ गया है। तुलना करके देखिए –
अभवत् अभवताम् अभवन्
अभवः अभवतम् अभवत
अभवम् अभवाव अभवाम
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भक्ष् (खाना) धातु, लृङ् लकार★
अभक्षयिष्यत् अभक्षयिष्यताम् अभक्षयिष्यन्
अभक्षयिष्यः अभक्षयिष्यतम् अभक्षयिष्यत
अभक्षयिष्यम् अभक्षयिष्याव अभक्षयिष्याम
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शब्दकोश :
फलों के नाम
कैथा-
१] कपित्थः
२] ग्राही
३] मन्मथः
४] दधिफलः
५] पुष्पफलः
६] दन्तशठः
७] दधित्थः
गूलर-
१] उदुम्बरः
२] हेमदुग्धः
३] जन्तुफलः
४] यज्ञाङ्गः
५] यज्ञयोग्यः
नींबू-
१] दन्तशठः
२] जम्भः
३] जम्भीरः
४] जम्भलः
५] जम्भी
६] रोचनकः
७] शोधी
८] जाड्यारिः
९] दन्तहर्षणः
१०] गम्भीरः
११] जम्बिरः
१२] दन्तकर्षणः
१३] रेवतः
१४] वक्त्रशोधी
१५] दन्तहर्षकः
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वाक्य अभ्यास :
यदि वह कच्चा कैथा खाता तो कफ न होता।= यदि असौ आम-कपित्थम् अभक्षयिष्यत् तर्हि कफः न अभविष्यत्।
यदि तुम कैथा खाते तो हिचकी ठीक हो जाती।= यदि त्वं दधित्थम् अभक्षयिष्यः तर्हि हिक्का सुष्ठु अभविष्यत्।
यदि वे पके गूलर खाते तो उनका दाह ठीक हो जाता।= यदि अमी पक्वान् उदुम्बरान् अभक्षयिष्यन् तर्हि तेषां दाहः सुष्ठु अभविष्यत्।
यदि तुम गूलर खाते तो पुष्ट हो जाते।= यदि त्वं हेमदुग्धान् अभक्षयिष्यः तर्हि पुष्टः अभविष्यः।
तुम सब यदि नींबू खाते तो मुँह में दुर्गन्ध न होती।= यूयं यदि जम्भलम् अभक्षयिष्यत तर्हि मुखे दुर्गन्धः न अभविष्यत्।
यदि मैं नींबू खाता तो मन्दाग्नि न होती।= यदि अहं जम्बीरम् अभक्षयिष्यम् तर्हि मन्दाग्निः न अभविष्यत्।
यदि तुम दोनों भी नींबू खाते तो हृदयशूल न होता।= यदि युवाम् अपि रेवतम् अभक्षयिष्यतम् तर्हि हृदयशूलः न अभविष्यत्।
यदि हम दोनों खेत में होते तो कैथे खाते।= यदि आवां क्षेत्रे अभविष्याव तर्हि दधिफलान् अभक्षयिष्याव।
हम सब वहाँ होते तो गूलर खाते।= वयं तत्र अभविष्याम तर्हि जन्तुफलान् अभक्षयिष्याम।
तुम होते तो तुम भी खाते।= त्वम् अभविष्यः तर्हि त्वम् अपि अभक्षयिष्यः।
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श्लोक :
अभक्षयिष्यं यदि दुग्धदाधिकं घृतं रसालं ह्यपि हेमभस्मकम्।
बताभविष्यं न कदापि दुर्बलः यथा त्विदानीं तनुविग्रहोऽभवम्॥
यदि मैंने दूध-लस्सी, घी, रसीले आम और सुवर्णभस्म खाया होता तो हाय ! मैं कभी दुर्बल न होता जैसे आज सुखड़े शरीर वाला मैं हो गया हूँ।
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लृङ् लकार अभ्यास
भू धातु , लृङ् लकार
अभविष्यत् अभविष्यताम् अभविष्यन्
अभविष्यः अभविष्यतम् अभविष्यत
अभविष्यम् अभविष्याव अभविष्याम
भक्ष् (खाना) धातु, लृङ् लकार
अभक्षयिष्यत् अभक्षयिष्यताम् अभक्षयिष्यन्
अभक्षयिष्यः अभक्षयिष्यतम् अभक्षयिष्यत
अभक्षयिष्यम् अभक्षयिष्याव अभक्षयिष्याम
पा (पीना) धातु, लृङ् लकार
अपास्यत् अपास्यताम् अपास्यन्
अपास्यः अपास्यतम् अपास्यत
अपास्यम् अपास्याव अपास्याम
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शब्दकोश :
‘दुग्ध’ के पर्यायवाची शब्द –
१] दुग्धम् (नपुंसकलिंग )
२] क्षीरम् (नपुंसकलिंग )
३] पयस् (नपुंसकलिंग )
४] उधस्यम् (नपुंसकलिंग )
दूध से बनी वस्तुओं का नाम-
१] पयस्यम् (नपुंसकलिंग )
घी के पर्यायवाची शब्द –
१] घृतम् (नपुंसकलिंग )
२] आज्यम् (नपुंसकलिंग )
३] हविः { हविष् } (नपुंसकलिंग )
४] सर्पिः { सर्पिष् } (नपुंसकलिंग )
मक्खन के नाम –
१] नवनीतम् (नपुंसकलिंग )
२] नवोद्धृतम् (नपुंसकलिंग )
एक दिन के बासी दूध से निकाले गए घी का नाम-
१] हैयङ्गवीनम् (नपुंसकलिङ्ग)
गोरस (मठ्ठे) के नाम –
१] दण्डाहतम् (नपुंसकलिंग )
२] कालशेयम् (नपुंसकलिंग )
३] अरिष्टम् (नपुंसकलिंग )
४] गोरसः (पुँल्लिंग )
५] तक्रम् (नपुंसकलिंग )
६] उदश्वित् (नपुंसकलिंग )
७] मथितम् (नपुंसकलिंग ). ८] मस्तुम्( मट्ठा)(नपुंसकलिंग )
(मस्यति परिणमतीति । मस् +“ सितनिगमिमसिसच्यविधाञ् क्रुशिभ्यस्तुन् । “ उणादि सूत्र -१। ७० । इति तुन् । ) दधिभवमण्डम् । दधिर मात् इति भाषा ॥ इत्यमरः २ । ९ । ९४ ॥ दधिजलम् । द्विगुणवारियुतं दधि । अस्य गुणाः ।
“ उष्णाम्लं रुचिपित्तदं श्रमहरं बल्यं कषायं सरं भुक्तिच्छन्दकरं तृषोदरगदप्लीहार्शसां नाशनम् । श्रोतःशुद्धिकरं कफानिलहरं विष्टम्भशूलापहं पाण्डुश्वासविकारगुल्मशमनं मस्तु प्रशस्तं लघु ॥ “ इति राजनिर्घण्टः ॥
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अपि च । “ मस्तु क्लमहरं स्वल्पं लघु भुक्ताभिलाषकृत् । श्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णाविलापहम् ॥ अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसंग्रहम् ॥ “ इति भावप्रकाशः ॥
'Mastu''' in the [[यजुर्वेद|Yajurveda]] Saṃhitās and the Brāhmaṇas denotes ‘sour curds.’
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वाक्य अभ्यास :
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यदि वह दूध पीता तो मोटा हो जाता।
= यदि असौ क्षीरम् अपास्यत् तर्हि स्थूलः अभविष्यत्।(हेतुहेतुमद्भूत-)
यदि तुम घी खाते तो बलवान् होते ।
= यदि त्वं घृतम् अभक्षयिष्यः तर्हि बलवान् अभविष्यः ।
यदि घर में घी होता तो मैं खाता।
= गृहे आज्यम् अभविष्यत् चेत् तर्हि अभक्षयिष्यम्।
यदि वे छाछ पीते तो उनका दाह ठीक हो जाता।
= यदि अमी कालशेयम् अपास्यन् तर्हि तेषां दाहः सुष्ठु अभविष्यत्।
यदि तुम मक्खन खाते तो पुष्ट हो जाते।
= यदि त्वं नवनीतम् अभक्षयिष्यः तर्हि पुष्टः अभविष्यः।
तुम सब यदि दूध पीते तो दुर्बलता न होती।
= यूयं यदि पयः अपास्यत तर्हि दौर्बल्यं न अभविष्यत्।
यदि मैं लवण युक्त छाछ पीता तो मन्दाग्नि न होती।
= यदि अहं लवणान्वितं तक्रम् अपास्यम् तर्हि मन्दाग्निः न अभविष्यत्।
यदि तुम दोनों भी छाछ पीते तो हृदयशूल न होता।
= यदि युवाम् अपि गोरसम् अपास्यतम् तर्हि हृदयशूलः न अभविष्यत्।
हम दोनों के घर गाय होती तो छाछ भी होता।
= यदि आवयोः गृहे धेनुः अभविष्यत् तर्हि तक्रम् अपि अभविष्यत्।
यदि हम दोनों घर में होते तो मक्खन खाते।
= यदि आवां भवने अभविष्याव तर्हि नवोद्धृतम् अभक्षयिष्याव।
हम सब वहाँ होते तो दूध से बनी वस्तुएँ खाते।
= वयं तत्र अभविष्याम तर्हि पयस्यम् अभक्षयिष्याम।
तुम होते तो तुम भी खाते।
= त्वम् अभविष्यः तर्हि त्वम् अपि अभक्षयिष्यः।
यदि घर में घी होता तो बच्चे बुद्धिमान् होते।
= यदि गृहे सर्पिः अभविष्यत् तर्हि बालाः मेधाविनः अभविष्यन्।
हमारे देश में गोरक्षा होती तो कुपोषण न होता।
= अस्माकं देशे यदि गोरक्षा अभविष्यत् तर्हि कुपोषणं न अभविष्यत्।
सोंठ और सेंधा नमक से युक्त छाछ पीते तो वात रोग न होता।
= शुण्ठीसैन्धवयुतं तक्रम् अपास्यः तर्हि वातरोगः न अभविष्यत्।
हींग और जीरा युक्त छाछ पीते तो अर्शरोग न होता।
= हिङ्गुजीरयुतं मथितम् अपास्यः तर्हि अर्शः न अभविष्यत्।
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श्लोक :
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न तक्रसेवी व्यथते कदाचित्
न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः।
यथा सुराणाममृतं सुखाय
तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः ॥
छाछ का सेवन करने वाला कभी व्यथित नहीं होता, छाछ द्वारा दूर हुए रोग पुनः नहीं होते। जैसे देवताओं के सुख लिए अमृत होता है उसी प्रकार मनुष्यों के लिए धरती पर छाछ को (अमृततुल्य) कहा गया है।
आत्मनेपदी धातुएँ
श्रमेण चित्रयोधित्वं श्रमेण प्राप्यते जयः। तस्माद् गुरुसमक्षं हि श्रमः कार्यो विजानता॥
श्रम से ही अद्भुत योद्धा बना जा सकता है, श्रम से ही विजय प्राप्त होती है, इसलिए सिद्धान्तों को जानते हुए, गुरु के समक्ष ही अभ्यास करना चाहिए।( सौवाँ श्लोक)
(1) आपको स्मरण होगा कि प्रारम्भिक पाठों में हमने बताया था कि जब ‘भू’ आदि धातुओं से भवति भवतः भवन्ति आदि क्रियापद बनाते हैं तो उनमें ‘तिङ्’ प्रत्यय जोड़कर ही ये रूप बनते हैं।
(2) उन तिङ् प्रत्ययों में से पहले नौ प्रत्यय ‘परस्मैपदी’ कहे जाते हैं और अन्तिम नौ प्रत्यय ‘आत्मनेपदी’। यह परस्मैपद और आत्मनेपद महर्षि पाणिनि जी के द्वारा बनाये गये पारिभाषिक शब्द हैं। जैसे पाण्डु के सभी पुत्रों को ‘पाण्डव’ कहकर काम चला लिया जाता है वैसे ही परस्मैपद और आत्मनेपद कहकर नौ नौ प्रत्ययों का नाम ले लिया जाता है, अलग अलग अट्ठारहों प्रत्यय नहीं गिनाना पड़ता।
(3) परस्मैपद प्रत्ययों के जुड़ने पर जिस प्रकार के रूप बनते हैं वह आपने भू धातु के अभ्यास से जान लिया। भू धातु परस्मैपदी होती है, अतः उसमें परस्मैपद प्रत्यय तिप् तस् झि आदि जुड़े। अब एक धातु आत्मनेपदी बतायेंगे। उसके रूप किस प्रकार से चलते हैं यह आप देख लीजिएगा। ऊपर जो वशिष्ठधनुर्वेद से श्लोक उद्धृत किया है, उसमें ‘प्राप्यते’ क्रियापद आत्मनेपदी है। आत्मनेपद प्रत्यय देख लीजिए –
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त आताम् झ
थास् आथाम् ध्वम्
इट् वहि महिङ्
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जब किसी धातु में इन्हें जोड़ते हैं तो इनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है, देखिए ये इस प्रकार हो जाते हैं-
ते एते अन्ते
असे एथे अध्वे
ए आवहे आमहे
मुद् हर्षे (प्रसन्न होना) धातु, आत्मनेपदी
लट् लकार
मोदते मोदेते मोदन्ते
मोदसे मोदेथे मोदध्वे
मोदे मोदावहे मोदामहे
लुङ् लकार
अमोदिष्ट अमोदिषाताम् अमोदिषत
अमोदिष्ठाः अमोदिषाथाम् अमोदिध्वम्
अमोदिषि अमोदिष्वहि अमोदिष्महि
लङ् लकार
अमोदत अमोदेताम् अमोदन्त
अमोदथाः अमोदेथाम् अमोदध्वम्
अमोदे अमोदावहि अमोदामहि
लिट् लकार (केवल प्रथम पुरुष)
मुमुदे मुमुदाते मुमुदिरे
आपको लगता होगा कि हे भगवान् इतने सारे क्लिष्ट उच्चारण वाले रूप कैसे और कितने सारे याद करने पड़ेंगे ? तो डरिये मत ! मा भैषीः ! आपको किसी एक प्रतिनिधि धातु के रूप किसी प्रकार याद कर डालने हैं बाकी सभी आत्मनेपदी धातुओं के रूप इसी प्रकार चलेंगे। यदि आप प्रत्येक रूप पर आधारित कम से कम एक दो वाक्य बनाकर अभ्यास कर डालें तो ये शीघ्र याद हो जाएँगे। फिर तो आपको आनन्द ही आनन्द आयेगा।
4) आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह कैसे पता चलेगा कि कौन सी धातु परस्मैपदी है और कौन सी आत्मनेपदी अथवा उभयपदी ? तो यह पता चलता है धातुपाठ को पढ़ने से। उभयपदी धातुएँ वे होती हैं जिनके रूप दोनों प्रकार से चलते हैं। अगले पाठों में धातुओं के विषय में यह सब निर्देश कर दिया करेंगे।
5) आगे के पाठों में हम केवल रूपों का संकेत मात्र कर दिया करेंगे, उसी प्रकार से बहुत सी धातुओं के रूप चलेंगे।
_____________________________________
वाक्य अभ्यास :
===========
बच्चे लड्डुओं से प्रसन्न होते हैं।= बालकाः मोदकैः मोदन्ते।
मैं सेवइयों से प्रसन्न होता हूँ।= अहं सूत्रिकाभिः मोदे।
तुम किससे प्रसन्न होते हो ?= त्वं केन मोदसे ?
मुझे देखकर तुम प्रसन्न हुए थे।= मां दृष्ट्वा त्वम् अमोदिष्ठाः।
मैं भी प्रसन्न हुआ था।= अहम् अपि अमोदिषि।
वे भी मेरे आगमन से प्रसन्न हुए थे।= ते अपि मम आगमनेन अमोदिषत।
कल बच्चों का खेल देखकर तुम क्यों प्रसन्न नहीं हुए ?= ह्यः खेलां दृष्ट्वा त्वं कथं न अमोदथाः ?
मैं तो कल बहुत प्रसन्न हुआ था।= अहं तु ह्यः बहु अमोदे।
वे बच्चे भी कल बहुत प्रसन्न हुए थे।= ते बालकाः अपि ह्यः बहु अमोदन्त।
हनुमान् को देखकर सीता प्रसन्न हुईं।= हनूमन्तं दृष्ट्वा सीता मुमुदे।
राम और लक्ष्मण को देखकर ऋषि प्रसन्न हुए।= रामं लक्ष्मणं दृष्ट्वा ऋषयः मुमुदिरे।
सैद्धान्तिक प्रयोग-
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विषयः--पक्वः/पक्तः
प्रश्नः
"पाचकेन तण्डुलः पक्वः" उत "पाचकेन तण्डुलः पक्तः" -- अनयोः कः प्रयोगः साधुः ?
उत्तरम्
"पाचकेन तण्डुलः पक्वः" इत्येव साधुः प्रयोगः |
- डुपचष् पाके इति भ्वादिगणीयः, अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपानन्तरं पच् इति लौकिकधातुः अवशिष्यते |
- क्त-प्रत्ययः आर्धधातुकः, सेट् च कित् प्रत्ययः | क्तक्तवतू निष्ठा (१.१.२६) इत्यनेन सूत्रेण क्त-प्रत्ययस्य क्तवतु-प्रत्ययस्य च निष्ठासंज्ञा |
- पच्-धातुतः झलादि-क्त-प्रत्यये विहिते चोः कुः (८.२.३०) इत्यनेन सूत्रेण पच्-धात्वाङ्गे चकारस्य स्थाने ककारादेशः, पच् + क्त → पक् + त |
- पक् + त इत्यस्यां दशायां पचो वः (८.२.५२) इत्यनेन निष्ठासंज्ञकस्य क्त-प्रत्ययस्य तकारस्य स्थाने वकारादेशः, पक् + त → पक् + व |
- आहत्य पच्-धातोः क्त-प्रत्यये परे पच् + क्त → पक् + त → पक् + व → पक्व इति प्रातिपदिकं निष्पन्नम्। स्त्रीलिङ्गे पक्वा, पुंलिङ्गे पक्वः, नपुंसकलिङ्गे पक्वम् |
- अत्र पच् + क्त इति स्थितौ चोः कुः, पचो वः द्वयोः अपि सूत्रयोः युगपत् प्रसक्तिः | द्वे अपि त्रिपादिसूत्रे इत्यतः पूर्वत्रासिद्धम् (८.२.१) इत्यनेन परशास्त्रम् असिद्धं भवति |
- तस्मात् पूर्वसूत्रस्य, नाम चोः कुः इत्यस्य कार्यं प्रथमम् आयाति |
- यदि पचो वः इत्यस्य कार्यं प्रथमम् अभविष्यत् तर्हि पच्-धतोः चकारस्य वकारपरत्वात् चोः कुः इति अप्रसक्तम् अभविष्यत्, वकारः झलि नास्ति इत्यतः | अनेन पक्व इति इष्टं रूपं नासेत्स्यत् |
- अतः पक्व इति इष्टं रूपं साधयितुं चोः कुः इत्यनेन चकारस्य स्थाने ककारः इति सन्धिकार्यं प्रथमं भवति | तदनन्तरम् एव पचो वः इत्यनेन क्त-प्रत्ययस्य तकारस्य वकारदेशः |
- अनया एव रीत्या पच्-धातुतः निष्ठासंज्ञके क्तवतु-प्रत्यये विहिते पक्ववत् इति प्रातिपदिकम्, स्त्रीलिङ्गे पक्ववती, पुंलिङ्गे पक्ववान् |
- निष्ठासंज्ञकप्रत्ययौ विहाय अपरेषु प्रत्ययेषु परेषु पचो वः (८.२.५२) इत्यनेन वकारादेशः नास्ति; एषु अपरेषु झलादि-प्रत्ययेषु चोः कुः इत्यनेन च-कारस्य स्थाने क-कारः इति सन्धिकार्यमेव |
- यथा, पच् + तुमुन् → पक्तुम्, पच् + क्त्वा → पच् + त्वा '→' पक्त्वा, पच् + तव्यत् → पक्तव्य इत्यादीनि रूपाणि |
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–ग्रहीतुम् /गृहितुम्
विषयः — ग्रहीतुम् /गृहितुम्
प्रश्नः
"बालकः कन्दुकं ग्रहीतुम् उद्युक्तः" उत "बालकः कन्दुकं गृहितुम् उद्युक्तः" ? कः प्रयोगः साधुः ?
उत्तरम्
"बालकः कन्दुकं ग्रहीतुम् उद्युक्तः" इत्येव साधुः प्रयोगः |
- ग्रह् धातोः तुमुन् प्रत्यये परे ग्रह् + तुमुन्
- उकार-नकारयोः इत्सज्ञालोपानन्तरं ग्रह् + तुम् | उपदेशेऽजनुनासिक इत् , हलन्त्यम् - इत्यनयोः उकार-नकारयोः इत्सज्ञा | तस्य लोपः इत्यनेन इत्सज्ञालोपः |
- इडागमे ग्रहोलिटि दीर्घः इत्यनेन इटः दीर्घे ग्रह + ई + तुम्-> ग्रहीतुम् इति भवति न तु ग्रहितुम् इति
- गृहीत्वा इत्यादिषु तु सम्प्रसारणेन गृहीत्वा इति भवति | तुमुन्प्रत्यये परे सम्प्रसारणाभावः (तुमुन् न कित् न वा ङित् इति कारणेन) | सम्प्रसारणाभावात् ग्रहीतुम् इत्येव भवति |
परिशिष्टम्
धातुः -> ग्रह् । तथापि कुत्रचित् गृह् इति दृश्यते (तन्नाम सम्प्रसारणभूतं रूपं पश्यामः , सम्प्रसारणसज्ञाविधेयकं सूत्रं तु इग्यणः सम्प्रसारणम् ) । कदा ग्रह् , कदा गृह् इत्येव प्रश्नः प्रायः बाधते । तदर्थम् अधः किञ्चिद् निरूप्यते ।
ङिति परे / किति परे च सम्प्रसारणं (गृह् इति ) भवति । (६।१।१६ ग्रहिज्या...... ) । किति => क्त्वा , क्तवतु , क्तः इत्यादयः ।
अन्यच्च , सार्वधातुकलकारेष्वपि सम्प्रसारणम् यतः ङित्वद्भादेशः वर्तते । (तत् कथम् ? सार्वधातुकमपित् इति सूत्रम्) । श्ना इति अपित् सार्वधातुकम् अतः ङित्वत् । तस्मात् गृह्णाति इत्यादीनि रूपाणि ।
सम्भाषणोपयोगिनां मुख्यभूतानां धातूनां सूची अधः वर्तते (धातुसङ्कीर्तनं त्वत्र --> ६।१।१५ , ६।१।१६)
____________________________________
- प्रच्छ् --> पृच्छ् (पृष्ट्वा , प्रष्टुम् )
- वह् --> उह् (निर्वहति किन्तु निरूह्यते [कर्मणि])
- वस् --> उष् (वसति , वस्तुम् किन्तु उषित्वा )
- ग्रह् --> गृह् (गृह्णाति / ग्रहीतुम् ) ६।१।१६ इति सूत्रे न सर्वे सम्प्रसारणिधातव उल्लिखिताः ।
६।१।१६ इति सूत्रे न सर्वे सम्प्रसारणिधातव उल्लिखिताः ।
अन्यच्च , श्रु इति परिचितो धातुरेव । अस्यापि शृणोति इति रूपं दृष्ट्वा आशङ्कामहे यत् अस्य धातोरपि ग्र्ह्-धातुवद् रूपाणि भवेयुः किन्तु श्रु इति न सम्प्रसारणिधातुः (न चात्र सम्प्रसारणम्) । अयं विशेषः , केवलं सार्वधातुकलकारेषु (शतृरूपेषु च) शृ इति धात्वादेशः । (३।१।७४ श्रुवः शृ च) ।
(परिशिष्टं मनीषमहोदयेन विरचितम्)(परिशिष्टं मनीषमहोदयेन विरचितम्)
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विषयः - अवगत्य / अवगम्य
प्रश्नः
"बालकः पठित्वा विषयम् अवगत्य परीक्षायाम् उत्तीर्णः अभूत्" उत "बालकः पठित्वा विषयम् अवगम्य परीक्षायाम् उत्तीर्णः अभूत्" -- अनयोः कः प्रयोगः साधुः?
उत्तरम्
"बालकः पठित्वा विषयम् अवगत्य परीक्षायाम् उत्तीर्णः अभूत्" च "बालकः पठित्वा विषयम् अवगम्य परीक्षायाम् उत्तीर्णः अभूत्" -- उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |
- गम्लृ गतौ इति भ्वादिगणीयः सकर्मकः परस्मैपदी अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपानन्तरं गम् इति अनुनासिकान्तः लौकिकधातुः निष्पन्नः |
- अव-उपसर्गसहित-गम्-धातुतः समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७.१.३७) इत्यनेन ल्यपि विहिते अवगत्य च अवगम्य इति रूपद्वयस्यापि सिद्धता |
- अव + गम् + ल्यप् इत्यस्यां दशायां वा ल्यपि (६.४.३८) इत्यनेन सूत्रेण अनुनासिकान्तस्य गम्-धातोः अनुनासिकलोपः भवति विकल्पेन |
- अनुनासिकस्य मकारस्य लोपः न भवति चेत्, अव + गम् + ल्यप् → अव + गम् + य → अवगम्य इति ल्यबन्तं रूपं सिद्धम् |
- अयं वैकल्पिकः अनुनासिकलोपः भवति चेत्, अव + गम् + ल्यप् → अव + ग + य इति स्तिथिः
- तदा ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् (६.१.७०) इत्यनेन ह्रस्वस्वरस्य तुक्-आगमः | ल्यप्-प्रत्ययः कृत् च पित् प्रत्ययः |
- अतः ल्यपि परे ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् इत्यनेन अव + ग + य → अव + ग् अ + य → अव + ग् अ त् + य → अवगत्य इति सिध्यति |
- अनेन अव-उपसर्गपूर्वकस्य गम्-धातोः अवगत्य च अवगम्य इति रूपद्व्यमपि साधु | तथैव, आगत्य च आगम्य इत्यनयोः सिद्धत्वम् |
।
- गम्-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते गम् + क्त्वा इत्यस्यां दशायाम्, अनुदात्तोपदेश-वनति-तनोत्यादीना-मनुनासिकलोपो झलि क्ङिति (६.४.३७) इत्यनेन अनुनासिकलोपे सति गत्वा इति क्त्वान्तं रूपम्
- धेयं यत् 'अनुदात्तोपदेश-वनति-तनोत्यादीना-मनुनासिकलोपो झलि क्ङिति' (६.४.३७) इत्यस्य कार्यं किति, ङिति, झलादि प्रत्यये परे एव | यथा, गम् + क्तवतु → ग + तवत् → गतवान्/गतवती, गम् + क्त → ग + त → गतः/गता |
- ल्यप्-प्रत्ययः कित्-ङित्-भिन्नः, न झलादिः | अतः उपरितनेन सूत्रेण नित्यानुनासिकलोपो न भवति | अपि तु वा ल्यपि (६.४.३८) इत्यनेन ल्यपि परे गम्-धातोः अनुनासिकलोपः वैकल्पिकः | अस्मिन् 'अनुनासिकलोपो' इत्यस्य अनुवृत्तिः तस्मादेव पूर्वसूत्रात् ।
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'विषयः-'उषित्वा/वसित्वा/वस्त्वा
प्रश्नः"छात्रः विदेशे उषित्वा विद्याभ्यासं करोति", "छात्रः विदेशे वसित्वा विद्याभ्यासं करोति", "छात्रः विदेशे वस्त्वा विद्याभ्यासं करोति" -- एषु प्रयोगेषु कः साधुः ?
उत्तरम्
"छात्रः विदेशे उषित्वा विद्याभ्यासं करोति" इत्येव साधुः प्रयोगः |
वस्-धातोः किति प्रत्यये परे इडागमः, सम्प्रसारणं च
- वस्-धातुः भ्वादिगणीयः, अकर्मकः, अनिट् धातुः | तस्य लटि वसति, वसतः, वसन्ति इत्यादीनि रूपाणि |
- वस्-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये परे वस् + क्त्वा इत्यस्यां दशायाम् इडागमस्य विचारः करणीयः |
- क्त्वा-प्रत्ययः वलादिः, आर्धधातुकः प्रत्ययः; अतः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन सूत्रेण तस्य इडागमः विधीयते |
- क्त-प्रत्ययोऽपि, क्तवतु-प्रत्ययोऽपि च वलादी, अतः अनयोः अपि प्रत्यययोः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन सूत्रेण इडागमः विधीयते |
- वस्-धातुः अनिट् इत्यतः इडानुकूल्यम् अस्य धातोः नास्ति | यत्र धातु-प्रत्यययोः मध्ये एकोऽपि इडनुकूलो नास्ति, तत्र इडागमो न भवति |
- किन्तु वस्-धातोः क्त्वा-प्रत्यये परे उषित्वा, क्त-प्रत्यये परे उषितः, क्तवतु-प्रत्यये परे उषितवान्, इति इडागमघटितानि रूपाणि सन्ति |
- वस्-धातुः इडननुकूलः | तथापि इडनुकूलेषु क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्यादिषु प्रत्ययेषु परेषु इडागमः दृश्यते |
- अस्य कारणं किम् इति प्रश्ने कृते उत्तरम् अधः |
- वसतिक्षुधोरिट् (७.२.५२) इत्यनेन वस्-धतूत्तरस्य क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्येषाम् इडागमः नित्यः | अनेन वस्-धातुः अनिट् चेदपि एषाम् इडागमो भवति |
- वस् + क्त्वा → वस् + इ + क्त्वा, वस् + क्त → वस् + इ + क्त, वस् + क्तवतु → वस् + इ + क्तवतु |
- क्त्वा, क्त, क्तवतु -- एते प्रत्ययाः कितः | क् इत् यस्य सः कित् | कित्-प्रत्यये परे वस्-धातोः सम्प्रसारणं विधीयते |
- किति प्रत्यये परे वस्-धातौ वचिस्वपियजादीनां किति (६.१.१५) इत्यनेन सूत्रेण सम्प्रसारणं भवति |
- सम्प्रसारणं नाम यणः स्थाने इक्-आदेशः | वस्-धातोः यत्र सम्प्रसारणं भवति, तत्र वस् → उस् इति परिवर्तनं विद्यते |
- वस् + इ + क्त्वा → उस् + इ + क्त्वा, वस् + इ + क्त → उस् + इ + क्त, वस् + इ + क्तवतु → उस् + इ + क्तवतु |
- सम्प्रसारणे जाते, शासिवसिघसीनाम् च (८.३.६०) इत्यनेन वस्-धातोः इण्-प्रत्याहारे स्थितस्य उकारोत्तरस्य सकारस्य षत्वम् |
- उष् + इ + क्त्वा → उषित्वा, उष् + इ + क्त → उषितः, उष् + इ + क्तवतु → उषितवान् |
- कर्मणि प्रयोगे यः यक्-प्रत्ययः, सोऽपि कित्; कित्त्वात् सम्प्रसारणम् | अस्य इडागमः किन्तु न भवति, यतोहि प्रथमतया यक्-प्रत्ययः वलादिः एव नास्ति |
- ततः अग्रे च यक्कृते किमपि अपवादभूतसूत्रं नास्ति | (वसतिक्षुधोरिट् (७.२.५२) इति सूत्रेण वस्-धतूत्तरस्य क्त्वा, क्त, क्तवतु इत्येषाम् एव इडागमः |)
- अतः यकि परे केवलं सम्प्रसारणं, षत्वं च | वस् + यक् + ते → उस् + य + ते → उष्यते |
क्त्वा-प्रत्यये विहिते प्रक्रिया काचित् भिन्ना
- वस्-धातोः विहितस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य वसतिक्षुधोरिट् (७.२.५२) इत्यनेन सूत्रेण इडागमः नित्यः |
- न क्त्वा सेट् (१.२.१८) इत्यनेन यदा क्त्वा सेट्, नाम यदा तस्य इडागमो भवति, तदा अयं क्त्वा कित् नास्ति इति आरोपो भवति | इदम् अतिदेशसूत्रम् |
- किमर्थम् इदं कृतम् इति चेत्, यत्र इडागमो नास्ति तत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वम् अपेक्षितं गुणस्य निवारणार्थम् | कृ → कृत्वा, हु → हुत्वा |
- किन्तु यत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य इडागमो भवति, तत्र गुणः अपेक्षितः | गुणस्य रक्षणार्थं कित्त्वं बाधितं न क्त्वा सेट् (१.२.१८) इत्यनेन सूत्रेण |
- उदाहरणत्वेन एषु प्रसङ्गेषु गुणः अपेक्षितः, कित्त्वं बाधितं च -- स्विद् → स्वेदित्वा | दिव् → देवित्वा | वृत् → वर्तित्वा | **
- किन्तु मृड-मृद-गुध-कुष-क्लिश-वद-वसः क्त्वा (१.२.७) इत्यनेन इडागमे विहितेऽपि क्त्वा-प्रत्यये कित्त्वम् आरोपितम् |
- कित्त्वम् आरोपितम् येन वचिस्वपियजादीनां किति (६.१.१५) इत्यनेन सूत्रेण किति प्रत्यये परे वस्-धातौ सम्प्रसारणं स्यात् |
- सम्प्रसारणे जाते, उकारोत्तरवर्तिनः सकारस्य शासिवसिघसीनाम् च (८.३.६०) इत्यनेन षत्वम् |
- वस् + क्त्वा → वस् + इ + त्वा → उस् + इ + त्वा → उष् + इ + त्वा → उषित्वा |
- आहत्य वस्-धातोः क्त्वान्तरूपम् उषित्वा इति | न तु वसित्वा, वस्त्वा वा |
- पुनः कुत्रचित् इदं कित्त्वं वैकल्पिकम् | रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च (१.२.२६) इत्यनेन हलन्तधातोः उपधायाम् इकारः अथवा उकारः चेत्, अपि च अन्ते यकारं वकारं वर्जयित्वा कोऽपि हल्-वर्णः चेत्, तस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं, गुणकार्यं च वैकल्पिकम् | यथा लिख्-धातुतः क्त्वा-प्रत्ययः एकवारं कित्, एकवारं च अकित् | अनेन रूपद्वयं सिध्यति, लिखित्वा, लेखित्वा च |
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विषयः -हित्वा' कस्य धातोः?'
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प्रश्नः
"लोभं हित्वा सुखी भवेत्" -- अस्मिन् 'हित्वा' इति कस्य धातोः रूपम्, अर्थश्च कः ?
उत्तरम्- हित्वा इति क्त्वान्तरूपं द्वयोः धात्वोः भवति-- हा-धातोः, धा-धातोः च | उभयत्र अर्थः भिन्नः, अतः सावधानतया इदं रूपं प्रयोक्तव्यम् |
- उपरितने वाक्ये 'हित्वा' इति हा-धातोः क्त्वान्तरूपम् | 'ओहाक् त्यागे' इति जुहोत्यादिगणीयः परस्मैपदी, अनिट् धातुः | अनुबन्धलोपे हा अवशिष्यते |
- लट्-लकारे अस्य जहाति, जहीतः, जहति इत्यादीनि रूपाणि | वाक्ये प्रयोगः -- सज्जनः दुर्जनसंसर्गं जहाति (त्यजति) |
- हा-धातोः क्त्वा-प्रत्यये विहिते, हा + क्त्वा → हा + त्वा | समानकर्तृकयोः पूर्वकाले (३.४.२१) इति क्त्वा-विधायकं सूत्रम् |
- हा + त्वा इत्यस्यां दशायां जहातेश्च क्त्वि (७.४.४३) इत्यस्मात् हा-धातोः हि-आदेशः भवति क्त्वा-प्रत्यये परे |
- अनेन, हा + क्त्वा → हा + त्वा → हि + क्त्वा → हित्वा इति हा-धातोः क्त्वान्तरूपं निष्पन्नम् |
- 'हित्वा' इति जुहोत्यादिगणीयस्य 'डुधाञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य धातोः अपि क्त्वान्तरूपम् |
- 'डुधाञ्' इत्यस्य अनुबन्धलोपानन्तरं धा इति अवशिष्यते | दधाति, धत्तः, दधति इत्यादीनि लटि रूपाणि |
- धा-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते दधातेर्हि (७.४.४२) इत्यनेन धा-धातोः हि-आदेशः तकारादि-किति प्रत्यये परे |
- अनेन, धा + क्त्वा → धा + त्वा → हि + त्वा → हित्वा इति धा-धातोः क्त्वान्तरूपं निष्पन्नम् |
- धा-धातोः हि-आदेशो भवति कस्मिन्नपि तकारादि-किति प्रत्येये परे, अतः वि-उपसर्गपूर्वक-क्तान्तरूपं भवति 'विहितः' |
- यथा-- 'कृ-धातोः यदा तृच्-प्रत्ययः विहितः तदा कर्तृ इति तृजन्तरूपं निष्पद्यते' इति प्रयोगः |
- दधातेर्हि (७.४.४२) इति सूत्रात् एव 'हि' इति अनुवर्तते जहातेश्च क्त्वि (७.४.४३) इत्यस्मिन् |
- उभयोः धात्वोः हि-आदेशो भवति क्त्वान्तरूपस्य निर्माणस्य समये येन रूपसाम्यम् अस्ति |
- अतः वाक्ये हित्वा इति पदस्य प्रयोगं परिशील्य, वाक्यार्थस्य बलेन अस्य अर्थः निर्णेतव्यः |
- "लोभं हित्वा सुखी भवेत्" इत्यस्य "लोभं त्यक्त्वा सुखी भवेत्" इति अर्थः |
- त्यक्त्वा इति अर्थः चेत् हा-धातोः एव क्त्वान्तरूपम् अस्ति न तु धा-धातोः |
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विषयः - अकृत्वा / अकृत्य
प्रश्नः
"बालकः भोजनम् अकृत्वा शालां गतवान्" उत "बालकः भोजनम् अकृत्य शालां गतवान्" उत्तरम्
उत्तरम्
"बालकः भोजनम् अकृत्वा शालां गतवान्" इत्येव साधुः प्रयोगः | - कृ-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते कृत्वा इति सुबन्तपदं निष्पन्नं भवति | *
- कृ-धातुतः क्त्वा-प्रत्यये विहिते कृत्वा इति सुबन्तपदं निष्पन्नं भवति | *
- नञ् (२.२.६) इत्यनेन सूत्रेण नञ् इति अव्ययं सुबन्तेन सह समस्यते | अयं नञ्-समासः |
- नञा सह समासे जाते नञः नकारस्य लोपः भवति समस्तपदे नलोपो नञः (६.३.७३) इत्यनेन; अकारः अवशिष्यते |
- उदाहरणत्वेन, नञ् + धर्मः → न + धर्मः → अ + धर्मः → अधर्मः इति नञ्-तत्पुरुषः समासः |
- एवमेव, नञ् + कृत्वा → न + कृत्वा → अ + कृत्वा → अकृत्वा इति नञ्-तत्पुरुषः समासः |
- अत्र प्रश्नः उदेति यत् अ-पूर्वक-कृ-धातोः क्त्वा-विवक्षायां ल्यप्-प्रत्ययः किमर्थं न स्यात् इति |
- यथा, आनी + ल्यप् → आनीय, विस्मृ + ल्यप् → विस्मृत्य, प्रपठ् + ल्यप् → प्रपठ्य, स्वीकृ + ल्यप् → स्वीकृत्य |
- अव्ययपूर्वकाणां धातूनां समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७.१.३७) इत्यनेन क्त्वा-स्थाने ल्यप् विधीयते | धेयं यत् उपसर्गाः अपि अव्ययानि |
- किन्तु समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् इत्यस्मिन् 'अनञ्पूर्वे' इत्यस्य विद्यमानत्वात् नञ्-समासे ल्यप् न विधीयते | समासस्य पूर्वपदं नञ्-भिन्न-अव्ययं चेदेव ल्यपः विधानम् |
- अकृत्वा इत्यस्मिन् कृत्वा इत्यस्मात् पूर्वं यः अकारः दृश्यते सः नकारस्य लोपानन्तरं नञः अवशेषः, न तु नञ्-भिन्नम् अव्ययम् |
- अनेन अस्मात् ल्यपः विधानं निषिद्धम् | अकृत्य इति रूपं न सिध्यति | अकृत्वा इति क्त्वान्तरूपमेव साधु |
- एवमेव अश्रुत्वा, अज्ञात्वा, अदृष्ट्वा, अपृष्ट्वा, अलिखित्वा इत्यादीनि नञ्-समासानां क्त्वान्तरूपाणि सिध्यन्ति |
- कृत्वा इति अव्ययं वस्तुतः सुबन्तमेव | 'कृत्वा' कृदन्तम् इति कारणतः कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) इत्यनेन तस्य प्रातिपदिकसंज्ञा |
- ङ्याप्प्रातिपदिकात् (४.१.१) इत्यनेन यस्य प्रातिपदिकसंज्ञा, तस्मात् स्वौजस... (४.१.२) इत्यनेन सु, औ, जस् इत्यादयः सुप्-प्रत्ययाः विधीयन्ते |
- क्त्वातोसुन्कसुनः (१.१.४०) इत्यनेन क्त्वान्तपदम् अव्ययं भवति | तदा अव्ययादाप्सुपः (२.४.८२) इत्यनेन अव्ययपदात् सुप्-प्रत्ययस्य लुक् (लोपः) |
- लोपे सत्यपि प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् (१.१.६२) इत्यनेन लुप्त-प्रत्ययस्य लक्षणं मत्वा तस्य (सुप्-प्रत्ययस्य) द्वारा विहितं कार्यं भवति |
- कार्यं किम् ? सुबन्तं मत्वा सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन पद-संज्ञा |
- अत्र धेयं यत् 'कृत्वा + सु' इति स्थितौ सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन यत् कार्यं विधीयते, तत् अङ्गकार्यं नास्ति यतोहि "सुप् निमित्तीकृत्य पूर्वविद्यमाने अङ्गे कार्यम्" इति स्थितिः नास्ति |
- अपि तु 'कृत्वा + सु' इति समग्रसमुदाये नामकरणं नाम्ना कार्यम् | इत्युक्तौ अत्र "सुप्-प्रत्ययः निमित्तं मत्वा कार्यात् परः" इति नास्ति अपि तु स्वयं कार्ये भागी |
- तस्मात् न लुमताऽङ्गस्य (१.१.६३) इत्यनेन प्रत्ययलक्षणस्य निषेधो नास्ति | अङ्गकार्ये एव 'लुक्' इत्यनेन प्रत्ययलक्षणं निषिद्धम्; अत्र अङ्गकार्यं नास्ति अपि तु समुदायकार्यम् अतः प्रत्ययलक्षणम् अस्ति |
- तदर्थं 'कृत्वा' इति प्रातिपदिकात् सुप्-विहिते सुप्तिङ्गन्तं पदम् (१.४.१४) इत्यनेन सुपः लुक् चेदपि 'कृत्वा' इति सुबन्तम् |
- अतः 'कृत्वा' सुबन्तं, येन नञा सह समस्यते |
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विषयः--अधेतुम् /अध्येतुम् /अधीतुम्
प्रश्नः"छात्रा व्याकरणम् अधीतुम् इच्छति", "छात्रा व्याकरणम् अध्येतुम् इच्छति", "छात्रा व्याकरणम् अधेतुम् इच्छति" -- एषु कः प्रयोगः साधुः ?
उत्तरम्
"छात्रा व्याकरणम् अध्येतुम् इच्छति" इत्येव साधुः प्रयोगः |
- इङ् अध्ययने इति अदादिगणीयः, अनिट् धातुः | अयं नित्यम् अधि-उपसर्गपूर्वकः धातुः |
- अस्मात् धातोः तुमुन् प्रत्यये परे, अधि + इ + तुमुन् → अधी + तुम् → अधेतुम् इति रूपं स्यात्, इति शङ्का उदेति |
- पुनश्च अधीतावान्/अधीतवती, अधीतः/अधीता इत्यादिषु कित्-प्रत्ययान्तेषु इकारस्य दैर्घ्यं दृष्ट्वा अधीतुम् इति तुमुनन्तरूपम् इत्यपि सन्देहः स्यात् |
- वस्तुतः व्याकरणे अङ्गकार्यं क्रियते प्रथमं, तदा उपसर्गस्य संयोजनम् | अनेन अधि + इ + तुमुन् इत्यस्यां दशायां तुमुन्-प्रत्ययनिमित्तिकम् अङ्गकार्यं प्रथमम् |
- तुमुन्-प्रत्ययस्य आर्धधातुकत्वात् धात्वाङ्गे सार्वधातुकार्धधातुकयोः (७.३.८४) इत्यनेन गुणकार्यम् | अधि + इ + तुमुन् → अधि + ए + तुमुन् |
- अधुना उपसर्गस्य संयोजनम् | अधि + ए + तुमुन्, इत्यस्यां स्थित्याम् इको यणचि (६.१.७७) इत्यनेन उपसर्ग-अङ्गयोः मध्ये यण्-सन्धिः, अधि + ए + तुमुन् → अध्ये + तुम् → अध्येतुम् |
- अपरेषु तुमुन्-भिन्न-प्रसङ्गेषु, यत्र गुणः निषिद्धः तत्र उपसर्ग-अङ्गयोः मध्ये अकः सवर्णे दीर्घः (६.१.१०१) इत्यनेन सवर्णदीर्घ-सन्धिः भवति |
- यथा, अधि + इ + क्तवतु; अत्र क्तवतु-प्रत्ययस्य कित्त्वात् गुणः निषिध्यते | अनेन इ-धातुः यथावत् तिष्ठति, अधि + इ + क्तवतु → अधी + तवत् → अधीतवान्/अधीतवती इति रूपम् |
- तथैव क्त-प्रत्यये परे अपि गुणनिषेधः, सवर्णदीर्घसन्धिः च | अधि + इ + क्त → अधी + त → अधीतः/अधीता/अधीतम् इति दीर्घ-इकारयुक्तं रूपम् |
- अयं धातुः नित्यम् उपसर्गपूर्वकः इत्यतः अस्य क्त्वान्त-रूपम् नास्ति | ल्यपि अधीत्य इति रूपम्
––––––––––––––
: विषयः— आपाय/आपीय
प्रश्न
"सः जलम् आपाय रोटिकां खादति" इति प्रयोगः उत "सः जलम् आपीय रोटिकां खादति" इति प्रयोगः साधुः ?
उत्तरम्
भ्वादिगणीयस्य पा-धातोः आपाय इति ल्यबन्तरूपम् | दिवादिगणीयस्य पीङ्-धातोः आपीय इति ल्यबन्तरूपम् |
आपाय-आपीययोः मध्ये अर्थकृद्भेदः न | एकः भ्वादिगणीयः पा पाने अपरः दिवादिगणीयः पीङ् पाने | अतः उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |
आङ्-उपसर्गपूर्वकस्य भ्वादिगणस्थस्य पा-धातोः क्त्वाप्रत्यये परे क्त्वास्थाने ल्यप्-आदेशः "समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्" इति सूत्रेण |
ल्यपि परे इत्साज्ञानां लोपानन्तरं आ + पा + य |
"घुमास्थागापाजहातिसां हलि" इति सूत्रेण पाधातोः आकारस्य ईकारादेशः भवति स्म | यथा कर्मणि प्रयोगे पीयते |
किन्तु "न ल्यपि" इति सूत्रात् ईकारादेशस्य निषेधः | तेन आपाय इत्येव भवति भ्वादिगणीयस्य पा-धातोः न तु आपीय इति |
अपरः एकः धातुः अस्ति दिवादिगणे | दिवादिगणस्थस्य पानार्थक-पीङ्-धातोः ल्यबन्तरूपम् आपीय इत्येव भवति | अत्र ईकारः धातौ एव | ईकारस्य आदेशः नास्ति|अपरः एकः धातुः अस्ति दिवादिगणे | दिवादिगणस्थस्य पानार्थक-पीङ्-धातोः ल्यबन्तरूपम् आपीय इत्येव भवति | अत्र ईकारः धातौ एव | ईकारस्य आदेशः नास्ति|
: ______________
विषयः— सततम्, सन्ततम्
प्रश्नः
"सः सततं कार्यं करोति" उत "सः सन्ततं कार्यं करोति"? कः प्रयोगः साधुः?
उत्तरम्
- सततम् इति प्रयोक्तव्यम् उत सन्ततम् इति संशये सति उभयथापि प्रयोगः नैव दोषाय |
उभयत्र च अर्थः समानः-- "सः निरन्तरं कार्यं करोति" |
- सम् + तत इति दशायां समो वा हितततयोः इति वार्तिकेन 'तत' परे विकल्पेन मलोपः | तेन सतत इति भवति |
- मलोपाभावे सम् + तत इति दशायां मस्य अनुस्वारः नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) सूत्रेण | सम् + तत -> संतत |
- तदनन्तरं परसवर्णादेशः च अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः (८.४.५८) सूत्रेण | संतत -> सन्तत इति भवति |
- अतः उभयथापि प्रयोगे नास्ति क्लेशः | "सः सततं कार्यं करोति" च "सः सन्ततं कार्यं करोति" उभावपि साधू प्रयोगौ |
- धेयं यत् सतत, सन्तत इति पदद्वयं विषेष्यनिघ्नम् | अतः त्रिषु लिङ्गेषु, त्रिषु वचनेषु, सप्तसु विभक्तिषु च रूपाणि भवन्ति |
किन्तु 'सः सततं कार्यं करोति' इत्यस्मिन् वाक्ये सततं-पदं क्रियाविशेषणत्वात् अव्ययम्
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विषयः--लिखित्वा/लेखित्वा
प्रश्नः
"सः भाषणं लिखित्वा पठति" उत "सः भाषणं लेखित्वा पठति" -- अनयोः कः साधुः ?
उत्तरम्
"सः भाषणं लिखित्वा पठति", "सः भाषणं लेखित्वा पठति" -- उभौ प्रयोगौ साधू स्तः |
- लिख्-धातुः, अक्षरविन्यासे इति तुदादिगणीयः, सेट् धातुः | अयं हलादिः, रलन्तः, इदुपधः धातुः च
- क्त्वा-प्रत्ययः वलादिः, आर्धधातुकः प्रत्ययः; अतः आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७.२.३५) इत्यनेन तस्य इडागमः विधीयते |
- क्त्वा-प्रत्ययः कित्; अस्य कित्त्वात् क्त्वा-प्रत्यये परे धात्वङ्गे गुणस्य निषेधः भवति इति सामान्यः नियमः |
- अधुना लिख् + क्त्वा इत्यस्यां दशायां लिख् सेट्, क्त्वा अपि सेट् इत्यतः इडनुकूलता वर्तते | लिख् + क्त्वा → लिख् + इ + त्वा |
- इडनुकूलतायां सत्यां न क्त्वा सेट् (१.२.१८) इत्यनेन 'क्त्वा कित् नास्ति' इति आरोपो भवति | इदम् अतिदेशसूत्रम् |
- यत्र क्त्वा-प्रत्ययस्य इडागमो भवति, तत्र गुणः अपेक्षितः | गुणस्य रक्षणार्थं कित्त्वं बाधितं न क्त्वा सेट् इत्यनेन सूत्रेण |
- यथा, स्विद् → स्वेदित्वा, दिव् → देवित्वा, वृत् → वर्तित्वा - एषु इडागमः विहितः, गुणः इष्टः च | अतः क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं बाधितम् |
- एवं रीत्या लिख् सेट् अतः न क्त्वा सेट् इत्यनेन क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्वाभावे लिख्-धातौ अपि गुणः सम्भवति पुगन्तलघूपधस्य च (७.३.८६) इत्यनेन | लिख् + इ + क्त्वा → लेखित्वा |
- पुनः, केषुचित् स्थलेषु इदं गुणकार्यं वैकल्पिकं भवति रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च (१.२.२६) इत्यस्य सूत्रस्य कारणेन |
- रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च इत्यनेन इकारोपधात् उकारोपधात् च हलादेः रलन्तात् धातोः परस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं वैकल्पिकम् |
- अनेन हलादि-इदुपध-रलनत-लिख्-धातूत्तरस्य क्त्वा-प्रत्ययस्य कित्त्वं वैकल्पिकम् | लिख्-धातुतः विहितः क्त्वा-प्रत्ययः विकल्पेन कित् |
- कित्त्वं न बाधितं चेत् गुणकार्यं बाधितम् | तदा लिख् + इ + क्त्वा → लिखित्वा इति रूपम् | कित्त्वं बाधितम् चेत् गुणत्वात् लेखित्वा इति रूपम् |
- अतः लिख्-धातोः लिखित्वा-लेखित्वा इति क्त्वान्तरूपद्वयं सिध्यति | उभे रूपे सधू स्तः |
- कृ-धातुः सेट् नास्ति इत्यतः न क्त्वा सेट् (१.२.१८) इत्यस्य प्रसक्तिर्नास्ति; कित्त्वात् गुणनिषेधः | कृ + क्त्वा → कृत्वा |
- लिख्-धातुतः क्तवतु-प्रत्यये परे, यद्यपि लिख्-धातुः सेट्, किन्तु क्तवतौ न क्त्वा सेट् (१.२.१८) इत्यस्य प्रसक्तिर्नास्ति; कित्त्वात् गुणनिषेधः | लिख् + इ + क्तवतु → लिखितवान् |
- तुमुन्-प्रत्यये परे तु गुणः न निषिध्यते यतोहि तुमुन् कित् नास्त्येव | लिख् + तुमुन् → लिख् + इ + तुमुन् → लेखितुम् |
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विषयः— कुर्वती / कुर्वन्ती
प्रश्नः
"सा कार्यं कुर्वती भाषते |" उत "सा कार्यं कुर्वन्ती भाषते |" कः प्रयोगः साधुः ?
उत्तरम्
"सा कार्यं कुर्वती भाषते |" इत्येव साधुः प्रयोगः |
- डुकृृञ् करणे इति धातोः शतृप्रत्यये परे कृ + शतृ -> कुर्वत् इति प्रातिपदिकं निष्पन्नम् |
- स्त्रीलिङ्गस्य विवक्षायाम् उगितश्च (४.१.६) इति सूत्रेण उगित्-प्रातिपदिकेभ्यः ङीप्-प्रत्यये विहिते कुर्वत् + ङीप् |
- उक् इत् यस्य तत् प्रातिपदिकम् उगित् | उक् प्रत्याहारे उ, ऋ, लृ एते वर्णाः अन्तर्भूताः | अतः शतृ प्रत्ययेन निर्मितं प्रातिपदिकम् अपि उगित् |
- अग्रे ङीप्-प्रत्ययस्य ङकार-पकारयोः इत्संज्ञा लोपानन्तरं कुर्वत् + ई -> कुर्वती |
- सम्प्रति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण नुमागमं कृत्वा "कुर्वन्ती" इति रूपं साधयन्ति जनाः सामान्यतया परन्तु नुमागमः न कार्यः अस्मिन् प्रसङ्गे |
- यतोहि अवर्णान्तानाम् एव नुमागमो भवति | शतृप्रत्यययोजनात् पूर्वं ये अवर्णान्ता: (अ, आ) भवन्ति तेषामेव नुमागमः आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) सूत्रेण |
यथा - तुद + शतृ , वद + शतृ इत्यादीनि | अकारान्तानाम् अङ्गे एव नुमागमः कार्यः |
- अत्र शतृप्रत्ययस्य योजनात् पूर्वं 'तुद' व 'वद' अकारान्तमस्तीति कारणेन ङीप्-प्रत्यये परे नुमागमः भवति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण |
- कृ-धातुः तु तनादिगणीयः | 'उ' विकरणप्रत्ययः अस्य गणस्य | कृ + शतृ -> कृ +उ + शतृ -> कुरु + शतृ इति कार्यम् | शतृ-प्रत्ययात् पूर्वं 'कुरु' इति उकारान्तम् अङ्गम् भवति |
- तस्मात् कृ-धातोः ङीप्-प्रत्यये परे नुमागो न भवति | अतः कुर्वती इत्येव तस्य शत्रन्तस्त्रीलिङ्गरूपं न तु कुर्वन्ती इति | शत्रन्तपदनिर्माणे नुमागम-व्यवस्था एवं भवति
शत्रन्तपदनिर्माणे नुमागम-व्यवस्था एवं भवति
- शप्-विकरणप्रत्ययः येषां धातूनां (भ्वादिगणे, चुरादिगणे च) भवति तेषां नित्यः नुमागमः शप्-श्यनोर्नित्यम् (७.१.८१) इति सूत्रेण स्त्रीत्वस्य विवक्षायाम्
यथा - भवन्ती, गच्छन्ती, पिबन्ती, चोरयन्ती इत्यादीनि.
- श्यन्-विकरणप्रत्ययः येषां धातूनां (दिवादिगणे) भवति तेषां नित्यः नुमागमः शप्-श्यनोर्नित्यम् (७.१.८१) इति सूत्रेण स्त्रीत्वस्य विवक्षायाम् |
यथा - दीव्यन्ती, सीव्यन्ती,ष्ठीव्यन्ती इत्यादीनि |
- अन्येषामवर्णान्तानाम् अङ्गानां ङीप्-प्रत्यये परे नुमागमः विकल्पः भवति आच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८०) इति सूत्रेण |
ते च तुदादीयाः अदादीयाः (१४ आकारान्तः धातवः अदादिगणे) च अकारान्ताः धातवः | तेषां वैकल्पिकः नुमागमः | यथा - तुदती/तुदन्ती (तुदादिगणे), याती/यान्ती (अदादिगणे) इत्यादीनि।
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