मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023

महाविष्णु के तीन रूप -कारणार्णवशायी विष्णु - - गर्भोदशायी विष्णु और क्षीरोदशायी विष्णु- श्रीकृष्णसर्वस्वम्"

विष्णु के विषय मे शास्त्रों के अनेक कथानक हमें यह एहसास दिलाते हैं कि भगवान श्री कृष्ण और भगवान विष्णु एक ही हैं। 

कुछ कथानक यह संकेत ​ करते हैं कि श्री कृष्ण महाविष्णु के अवतार हैं, जैसे भगवान श्री कृष्ण के प्रकट होने से पहले कारागार में देवकी और वसुदेव के समक्ष महाविष्णु स्वयं प्रकट हुए थे, बाद में उन्होंने बालक श्रीकृष्ण  का रूप धारण कर लिया। 
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कुछ कथानक यह भी संकेत करते हैं कि श्रीकृष्ण ही परात्पर ब्रह्म हैं ।
अन्य सभी उनके अवान्तर अवतार हैं जैसा कि ब्रह्म संहिता में भी लिखा है--:
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"यस्यैक निःश्वसितकालमथावलम्ब्य​ जीवन्ति लोमविलजाः जगदण्डनाथा ।
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो,
गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि ॥
अनुवाद:-“अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के संचालक भगवान श्री कृष्ण के ही अंश हैं और उनका अस्तित्व भगवान श्री कृष्ण की एक श्वास से प्रतिपालित है।  इससे अधिक और क्या इस तथ्य को पुष्ट किया जा सकता है कि ("महाविष्णु स्वयं भगवान श्री कृष्ण की  एक कला के अवतार हैं। )
 सन्दर्भ:- ब्रह्म संहिता

उपर्युक्त कथानक साधकों में यह भ्रम पैदा करता है कि क्या भगवान श्री कृष्ण और महाविष्णु  दो पृथक व्यक्तित्व हैं या एक होते हुए भी विभिन्न अवतार हैं ?
आइए इस गुत्थि को सुलझायें। 
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय परब्रह्म ने अपनी एक प्रथम शक्ति को कारणार्णवशायी महाविष्णु के रूप में प्रकट किया। जो सृष्टि रूपी समुद्र का कारण बनी।
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"आद्योऽवतार: पुरुष: परस्य
काल: स्वभाव: सदसन्मनश्च।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
विराट् स्वराट् स्थास्‍नु चरिष्णु भूम्न:॥४२॥
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१-आद्यावतार:= the primary manifestation। प्रथम अवतार-
२-पुरुष: परस्य= (is)Purusha, of the Supreme। परमपुरुष( परात्परब्रह्म)
३-काल: स्वभाव: Time, Nature,
४-सत्-असत्-मन:-च  =अस्तित्व (existence )  अभाव-absence , and mind -मन।
५-द्रव्यम् विकार: - the elements, ego,
६-गुण: इन्द्रियाणि the gunas, senses
७-विराट् स्वराट् the Cosmic Body, the Cosmic Being
८-स्थास्नु चरिष्णु भूम्न: inanimate, animate of the all-pervading Lord।

सर्वोच्च की प्राथमिक अभिव्यक्ति पुरुष है। फिर समय, स्वभाव सद्-असद्, मन  द्रव्यविकार गुण इन्द्रिय प्रकृति अपने कारण और प्रभाव के साथ, और, पांच तत्व, अहंकार, तीन गुण, दस इंद्रियां, ब्रह्मांडीय शरीर, ब्रह्मांडीय अस्तित्व, निर्जीव और चेतन, वे सभी रूप हैं जो  सर्वव्यापी भगवान के रूप हैं।.

१-कारणार्णवाशायी विष्णु सर्वोच्च भगवान के पहले अवतार हैं, और वे शाश्वत समय, स्थान, कारण और प्रभाव, मन, तत्वों, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुणों, इंद्रियों, भगवान के सार्वभौमिक रूप के स्वामी हैं यही अनेक ब्रह्माण्डों का कारण है। यह निमित्त कारण है।
कारणार्णवशायी महाविष्णु को परब्रह्म के प्रथम अवतार होने के कारण​ प्रथम पुरुष भी कहा जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड-नारदपुराण पूर्वाद्ध- देवीभागवतपुराण नवम स्कन्ध गर्ग संहिता आदि ग्रन्थों में परमेश्वर कृष्ण से गोलोक धाम में महाविष्णु का प्रथम रूप वामांग से नारायण नाम से उत्पन्न हुआ।
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गोलोकवासिनी सा तु नित्या कृष्णसहायिनी ।
तेजोमण्डलमध्यस्था दृश्यादृश्यस्वरूपिणी।११।
अनुवाद:- गोलोक में नित्य उसने वाली कृष्ण की सहायता करने वाली ते जो मण्डल के मध्य में स्थित साकार और निराकार रूप वाली राधा जी। 

कदाचित्तु तया सार्द्धं स्थितस्य मुनिसत्तम ।।
कृष्णस्य वामभागात्तु जातो नारायणः स्वयम्।१२।
अनुवाद:-हे मुनि श्रेष्ठ राधा कृष्ण की आदि शक्ति हैं कृष्ण के  बायें भाग से नारायण उत्पन्न हुए।
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राधिकायाश्च वामांगान्महालक्ष्मीर्बभूव ह।
ततः कृष्णो महालक्ष्मीं दत्त्वा नारायणाय च।१३।
अनुवाद:-राधिका के बायें भाग से महालक्ष्मी उत्पन्न हुई। तब महालक्ष्मी को कृष्ण ने नारायण को दे दिया।
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वैकुण्ठे स्थापयामास शश्वत्पालनकर्मणि ।।
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।१४।
जातुश्चासंख्यगोपालास्तेजसा वयसा समाः।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।१५।

राधांगलोमकूपेभ्ये बभूवुर्गोपकन्यकाः।
राधातुल्याः सर्वतश्च राधादास्यः प्रियंवदाः।१६।

विशेष—नारायण इस शब्द की व्युत्पत्ति ग्रथों में कई प्रकार से बतलाई गई हैं।
मनुस्मृति में लिखा है कि 'नर' परमात्मा का नाम है। परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने का कारण जल को 'नारा' कहते हैं। जल जिसका प्रथम अयन या अधिष्ठान है उस परमात्मा का नाम हुआ 'नारायण'। 
महाभारत के एक श्लोक के भाष्य में कहा गया है कि नर नाम है आत्मा या परमात्मा का। 
आकाश आदि सबसे पहले परमात्मा से उत्पन्न हुए इससे उन्हें नारा कहते हैं। 
यह 'नारा' कराणस्वरूप होकर सर्वत्र व्याप्त है इससे परमात्मा का नाम नारायण हुआ। 
कई जगह ऐसा भी लिखा है कि किसी मन्वतंर में विष्णु 'नर' नामक ऋषि के पुत्र हुए थे जिससे उनका नाम नारायण पड़ा। 
ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में और भी कई प्रकार की व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हैं।
 तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण की गायत्री है जो इस प्रकार है—'नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है। जैन लोग नरनारायण को ९ वासुदेवों में से आठवाँ वासुदेव कहते 
नारायण ही कारणार्णव महाविष्णु हैं। यह महाविष्णु का प्रथम रूप है।
द्वितीय रूप महाविराट् जो राधा जी के गर्भ से हुआ।
और तृतीय विष्णु जो महा वराट् से उत्पन्न है। जिनसे ब्रह्मा का जन्म होता है।
 
२-गर्भोदकशायी विष्णु, यह कारणार्णवशायी से उदित द्वितीय वह रूप है जो सर्वत्र संसार के गर्भ में शयन किए हुए है। और सभी जीवित प्राणियों का कुल योग, दोनों जंगम और स्थावर इन सब में यह महाविष्णु व्याप्त है। यह उपादान कारण है।
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“कारणार्णवशायी विष्णु परब्रह्म के प्रथम अवतार माने जाते हैं। वे शाश्वत काल, पंच महाभूत की माया एवं उसमें व्याप्त अहंकार, परब्रह्म का सर्वव्यापक​ रूप हैं। जबकि
गर्भोदकशायी महाविष्णु तथा संपूर्ण जगत के चराचर​ जीवात्माओं के स्वामी संसार के भीतर समाए हुए  हैं”।-गर्भोदशायी महाविष्णु ने अनंत ब्रह्माण्डों को प्रकट किया और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मा, एक विष्णु तथा एक शंकर को प्रकट किया । गर्भोदशायी महाविष्णु को द्वितीय पुरुष भी कहा जाता है 

 
३-क्षीरोदशायी महाविष्णु या तृतीय पुरुष कहते हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के विष्णु का यह पृथक उपाधि है।

इनको परमात्मा भी कहते हैं जो अनंत कोटि ब्रह्माण्डों के सभी जीवों के हृदय में बैठकर उनके प्रत्येक क्षण के प्रत्येक कर्मों का साक्षी बन तत्पश्चात उसका फल प्रदान करते हैं।
इन्हीं का नाम नारायण है।
अतः यह स्पष्ट है कि भगवान श्री कृष्ण की शक्ति (कारणार्णवशायी विष्णु) की शक्ति (गर्भोदशायी महाविष्णु) की शक्ति का प्राकट्य क्षीरोदशायी महाविष्णु ही हैं । इसीलिए कहा गया है -
"विष्णुर्महान्स इह  यस्य  कलाविशेषो ॥
(ब्रह्म संहिता) महाविष्णु जिनकी एक कला है वह परात्पर ब्रह्म कृष्ण ही हैं।

कारण तीन प्रकार के होते है— समवायि (जैसे तन्तु वस्त्र का), असमवाय (तन्तुओं का संयोग वस्त्र का) । और निमित्त (जैसे जुलाहा, ढरकी आदि वस्त्र के द्वारा वस्त्र सीना  । 
 इति रजोगुणः । सत्त्वेन सर्वमेतद्वहत्येव । अतो रजोगुणसंवलितसत्त्वो महाविष्णुः । अतएव विशुद्धसत्त्वः श्रीकृष्णचन्द्रः । तथा हि ब्रह्मसंहितायां यः कारणार्णवजले भजति इत्यादि, यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य इत्यादि।
अनुवाद:-सत्व के द्वार यह महाविष्णु सर्वत्र वहन करते हैं। अत: रजोगुण समन्वित ( युक्त)सत्व महाविष्णु हैं। इसलिए ही विशुद्ध सत्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। इस लिए ब्रह्म संहिता में जो कारणार्णव जल में भेजते हैं। कि जिस के एक कला से महाविष्णु  उत्पन्न होते हैं।
ततः सच्चिदानन्दस्वरूपो विशुद्धसत्त्वो गोविन्दः । स एव श्रीकृष्णचन्द्रः स्वप्रकाशो दिव्यवृन्दावनेशो नित्यवृन्दावने प्रकाशोऽभूदिति वेदवेदान्तादिभिर्निर्दिष्टम् । तथा हि ब्रह्मसंहितायां
अनुवाद:- तत्पश्चात सच्चिदानंद स्वरूप विशुद्ध सत्व धारक गोविन्द हैं। वे ही श्री श्रीकृष्ण चन्द स्वयं प्रकाश है दिव्य वृन्दावन के स्वामी नित्य वृन्दावन में प्रकाश होता है।

ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥२३॥ इति ।
या या विभूतयोऽचिन्त्याः शक्तयश्चारुमायिनः ।
परेशस्य महाविष्णोस्ताः सर्वास्ते कलाकलाः ॥५४॥


इति सर्वाः शक्तयः श्रीराधायां विद्यन्ते ।

अथ केनचिदुक्तम्—आद्याशक्तिर्भगवतो दुर्गेति सर्वत्र ख्यातिः । कथमन्या ? तदत्रावधीयतां वराहसंहितायां (२.३१२, ७८९)

ब्रह्मवैवर्ते—
एवं प्रत्यण्डकं ब्रह्मा कोऽहं जानामि किं विभो 
रजोगुणप्रभावोऽहं सृजाम्येतत्पुनः पुनः ॥६०॥
सत्त्वस्थो भगवान्विष्णुः पाति सर्वं चराचरम् ।
रुद्ररूपी च कल्पान्ते संहरत्येतदेव हि ॥६१॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नित्यं चानित्यवन्मुने ॥६२॥

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"महाविष्णुर्यथा ब्रह्मसंहितायां
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा महाविष्णुः सनातनः ।
वामाङ्गादसृजद्विष्णुं  दक्षिणाङ्गात्प्रजापतिम् ॥६३॥

"अनुवाद:- महाविष्णु का स्वरूप अनेक हजार मुख वाले विश्व  की आत्मा़ के रूप में है।महाविष्ण सनातन हैं। उस महाविष्णु के  बायें अंग से विष्णु उत्पन्न होते हैं। । और दक्षिण अंग से प्रजापति ।६३।

ज्योतिर्लिङ्गमयं शम्भुं कूर्चदेशादवासृजत।
अहङ्कारात्मकं विश्वं तस्मादेतद्व्यजायत ॥६४॥

अनुवाद ज्योतिर्लिंग मय शम्भु को कूर्चदेश से ( दौनों भौहों के बीच के स्थान से )अहंकार मय विश्व को इस प्रकार सृजित किया।
नारायणो, यथा द्रुमिल उवाच—
भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानम्
अवाप नारायण आदिदेवः ॥६५॥

नरायण सम्पूर्ण नरों के अयन ( मस्तिष्क अथवा हृदय में अयन करने से नारायण सभी भूतों जो पंचात्मक सृष्टि है से निर्मित पुर में प्रवेश कर शयन करने से ये पुरुष संज्ञा से जाना गया है।
"अयमेव महाविष्णुः श्रीकृष्णस्य कलाः, यथा—
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ इति 

अनुवाद:- यह महाविष्णु श्रीकृष्ण की कला का एक रूप जैसे महाविष्णु जिस कृष्ण की एक कला विशेष हैं। उस गोविन्द आदि पुरुष को हम भजन करते हैं।९१।

"यस्यैकनिश्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान्स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥९१॥

सन्दर्भ:-इति श्रीकृष्णभक्तिरत्नप्रकाशेश्रीमन्नन्दकिशोरस्वरूपकृष्णचन्द्रप्रकाशनिरूपणं नामपञ्चमं रत्नम्"

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भागवत में गोलोक का वर्णन-

ब्रह्मा जी ने भगवान श्री कृष्ण के चरणकमलों में गिरकर क्षमा याचना की तथा उनकी स्तुति की -
"क्वाहं त्मोमहदहं खचराग्निवार्भू संवेष्टितांडघटसप्तवितस्तिकायः ।
क्वेदृग्विधाऽविगणिताण्डपराणुचर्या वाताध्वरोम विवरस्य च ते महित्वम्।
(भागवत पुराण १०.१४.११)

दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 7-13 का हिन्दी अनुवाद

परन्तु भगवन ! जिन समर्थ पुरुषों ने अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के हिमकण तथा उसमें चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन डाला है - उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके? प्रभो! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन! आपकी महिमा का ज्ञान तप बड़ा ही कठिन है। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भली-भाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है - इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र!

प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा ! प्रभो ! मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है? भगवन! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। 

इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ - इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है - मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये।

मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा। वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ - इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप भी बतलाइये, प्रभो ! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ?

दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद


प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण [1] हैं। आप समस्त जगत के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिए भी नारायण [2] हैं। आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण [3] हैं। नर से उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण [4] कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दीखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है।

भगवन! यदि आपका विराट स्वरूप सचमुच उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय क्यों नहीं देखा, जबकि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय में उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणों में वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अंतर्धयान क्यों गया? माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे - अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर दीखने वाले जगत को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं। इससे यही सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदर में भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है।

उस दिन की बात जाने दीजिये, आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डों का रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूप से ही शेष रह गये हैं।

"जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित जीव के रूप से प्रतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के समय मेरे (ब्रह्मा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और संहार के समय रुद्र के रूप में प्रतीत होते हैं। प्रभो! आप सारे जगत के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं, इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें।

भगवन आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है। इसलिए यह सम्पूर्ण जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःखदेने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी आपमें आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है।

दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 23-31 का हिन्दी अनुवाद:-

प्रभो ! आज ही एकमात्र सत्य हैं। क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों से रहित हैं। आप स्वयं प्रकाश है; इसलिये देश, काल और वस्तु - जो पर प्रकाश हैं - किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण, एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है।

जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं। जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है।

संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष - ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं।

भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है।

फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है - वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।

इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं




अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान श्रीकृष्ण के दो प्रकार के अवतार होते हैं । एक युगावतार श्री कृष्ण और एक स्वयं श्री कृष्ण।

युगावतार श्रीकृष्ण प्रत्येक द्वापर में अवतारित होते हैं जबकी स्वयं श्री कृष्ण एक कल्प में केवल एक बार आते हैं ।

युगावतार तथा महाविष्णु दोनों अवतार हैं । जबकि स्वयं श्री कृष्ण अन्य सभी अवतारों के स्रोत हैं। 
यद्यपि अवतारी और सभी अवतारों में अनंत दिव्यानंद है तथा श्री कृष्ण के समकक्ष शक्तियां होती हैं परन्तु अवतार उन परम शक्तियों के अध्यक्ष नहीं होते ।
 स्वयं श्री कृष्ण ही समस्त  दिव्य शक्तियों के स्वामी और नियंत्रण कर्ता हैं ।
आपके शरीर के रोम-रोम  में अनंत ब्रह्मा, विष्णु शंकर और उनके ब्रह्मांड समाए हुए हैं
आपके शरीर के रोम-रोम में अनंत ब्रह्मा, विष्णु शंकर और उनके ब्रह्मांड समाए हुए हैं
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ही अपनी शक्तियाँ अपने सभी अवतारों को देते हैं और श्री कृष्ण अपनी शक्ति निस्पंद भी कर सकते हैं क्योंकि वे स्वयं ही समस्त शक्तियों के नियन्त्रक​ हैं ।

नाहं न यूयं यद‍ृतां गतिं विदु- र्न वामदेव: किमुतापरे सुरा: । 
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ भागवतपुराण २.६.३७ ॥
"न ही भगवान शंकर, न ही तुम और न ही मैं दिव्यानंद की सीमाओं का अंत पा सकते हैं तो देवी देवता की क्या बिसात ? और हम सभी लोग भगवान की माया से मोहित​ हैं अतः व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार ही हम लोग ब्रह्माण्डों को देख सकते हैं।


यह सभी प्रमाण सिद्ध करते हैं कि एक ही परमेश्वर परमब्रह्म है और सभी अवतार उसी की शक्तियों से या उसकी शक्ति की शक्ति से शक्ति प्राप्त करते हैं।



वैष्णववाद की एक शाखा,गौड़ीयवैष्णववाद में , सात्वत-तन्त्र में विष्णु के तीन अलग-अलग मानकों  का वर्णन किया गया है, महाविष्णु को कर्णोदकयी विष्णु के रूप में भी जाना जाता है (वह रूप सांस से भिन्न उत्पन्न होता है और सांस से, पदार्थ से बना होता है)। (प्रत्येक ब्रह्माण्ड के आधार के रूप में गर्भोदक्षायी- विष्णु हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के आधार के रूप में क्षीरोदकशायी-विष्णु हैं), 

क्षीरोदक्षायी-विष्णु प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में चतुर्भुज विस्तार के रूप में निवास करते हैं । इन्हें परमात्मा,  भी कहा जाता है। उनका निवास स्थान वैकुण्ठ है। उनका निजी निवास क्षीर सागर (गाढ़ा दूध का महासागर) है और उन्हें नारायण के अनिरुद्ध विस्तार के रूप में जाना जाता है ।



महाविष्णु  'महान विष्णु' वैष्णववाद के प्रमुख देवताविष्णुका एक सुझाव है । महाविष्णु के रूप में उनकी क्षमता, देवता को सर्वोच्च पुरुष , ब्रह्मांड के पूर्ण रक्षक और निर्वाहक के रूप में जाना जाता है, जो मानव समझ और सभी गुणों से परे है।



ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्डीय क्षेत्र) में समस्त संसार से ब्रह्मा के गुण सम्मिलित हैं, ऐसे क्षेत्रों में ऐश्वर्य (समृद्धि और शक्ति) प्रदान करने वाले अनुभव प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन वे विनाशकारी हैं और जो लोग उन्हें प्राप्त करते हैं वे वापस लौट आते हैं। 
इसलिए ऐश्वर्य के आकांक्षी के लिए विनाश, यानी वापसी है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में इसे प्राप्त किया जाता है वे नष्ट हो जाते हैं। इसके विपरीत, उन लोगों का कोई जन्म नहीं होता है जो मुझे सर्वज्ञ प्राप्त करते हैं, जिनके पास सात संकल्प होते हैं, एक साथ पूरे ब्रह्मांड की रचना होती है, पालन और विलय होता है, जो परम दयालु होते हैं और जो हमेशा एक ही रूप में होते हैं। 
इन उद्देश्यों से मुझे प्राप्त करने वालों का कोई विनाश नहीं होता। अब वह ब्रह्मा के ब्रह्माण्डीय क्षेत्र और उनके अन्तर्निहित विश्वों के विकास और विघटन के संबंध में सर्वोच्च व्यक्ति की इच्छा से तय समय-अवधि को स्पष्ट करता है।
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श्रीमद्भागवतमेंये भी कहा गया है कि कृष्णसर्वोच्च व्यक्ति हैं, जो पहले बलराम के रूप में विस्तारित हुए, फिर संकर्षण,वासुदेव,प्रद्युम्नऔरअनिरुद्धके पहले चतुर्भुज विस्तार में।
 संकर्षण का विस्तार नारायण होता है, फिर नारायण का विस्तार कर्णोदकशायी-विष्णु (महा-विष्णु) में होता है, जो महत-तत्व के भीतर स्थित होते हैं, छिद्रों से असंख्य ब्रह्मांडों का निर्माण होता है। उसका शरीर पर. फिर वह गर्भोदकशायी-विष्णुके रूप में प्रत्येक ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है, जहाँ सेब्रह्माप्रकट होते हैं।
यहां प्रथम विस्तार पुरुष का प्रयोग महाविष्णु के संवाद के लिए किया गया है।
सत्व से विष्णु (गर्भोदक्षायी) और तमस से शंकर का उदय होता है । विचित्र कृष्ण के गुण अवतारों के रूप में जाना जाता है।

वैष्णववाद के एक संप्रदाय,गौड़ीयवैष्णववाद में , सात्वत-तंत्र में महाविष्णु के तीन अलग-अलग सिद्धांत या सिद्धांत का वर्णन किया गया है: कर्णार्णवसाय विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु और क्षीरोदकशायी विष्णु ।

महाविष्णु शब्द का पूर्ण सत्य, ब्रह्म (अवैयक्तिक अदृश्य दृश्य) फिर परमात्मा (मानव आत्मा की समझ से परे) और अंत में सर्वात्मा (पूर्णता का अवतार) के रूप में है।
 

गर्भोद्क्षायी विष्णु★

गर्भोद्क्षायी विष्णुमहाविष्णुका विस्तार है ।गौड़ीय वैष्णववादसात्वत-तंत्र में विष्णु के तीन अलग-अलग सिद्धांतों का वर्णन किया गया है:महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु औरक्षीरोदकशायी विष्णु(परमात्मा. ब्रह्माण्ड और उसके निवासी के लेखांकन में प्रत्येक रूप की अलग-अलग भूमिका होती है।


भौतिक कृष्ण के लिए, कृष्ण का पूर्ण विस्तार तीन विष्णुओं को दर्शाया गया है। सबसे पहले, महाविष्णु, कुल भौतिक ऊर्जा का निर्माण करते हैं, जिसे महत्-तत्व के रूप में जाना जाता है। दूसरा, गर्भोदकशायी विष्णु, विभिन्न जन्मों के लिए सभी ब्रह्मांडों में प्रवेश किया जाता है और तीसरा, क्षीरोदकशायी विष्णु, सभी ब्रह्मांडों में सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में प्रवेश किया जाता है;
प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में, परमात्मा के रूप में जाना जाता है। उसके अंदर परमाणु भी मौजूद है।
जीवन का लक्ष्य कृष्ण को पता है, जो हर जीवित प्राणी के हृदय में परमात्मा, चतुर्भुज विष्णु रूप में स्थित हैं।

श्रीमद्भागवतमें , इसे इस प्रकार दर्शाया गया है: करणवशायी विष्णुसर्वोच्च भगवान के पहले अवतार हैं, और वह शाश्वत समय, स्थान, कारण और प्रभाव, मन, कार्य, भौतिक व्यवहार, प्रकृति के गुण, के स्वामी हैं।
 इंद्रियाँ, भगवान का सार्वभौमिक रूप, गर्भोदकशायी विष्णु, और सभी जीवित प्राणियों का कुल योग, दोनों जंगम और गैर-जंगम।

गर्भोधकशायी विष्णु महाविष्णुका विस्तार या अधिकार है ( दूसरे चतुर्व्यूह के संकर्षण का विस्तार, जो वैकुण्ठलोक में नारायण से निम्नतर है ). गर्भोद्शायी विष्णु को भौतिक ब्रह्मांड के अंदर प्रद्युम्न के रूप में महसूस किया जाता है। वह ब्रह्मा के पिता हैं जो अपने नाभि से प्रकट हुए थे और इसलिए गर्भोदकशायी विष्णु को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है।

ब्रह्म संहिता | 
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥1॥

सहस्रपत्रकमलं गोकुलाख्यं महत्पदम् ।
तत्कर्णिकारं तद्धाम तदनन्ताशसम्भवम् ॥ 2 ॥

कर्णिकारं महद्यन्त्रं षट्कोणं वज्रकीलकम्
षडङ्ग षट्पदीस्थानं प्रकृत्या पुरुषेण च ।
प्रेमानन्दमहानन्दरसेनावस्थितं हि यत्
ज्योतीरूपेण मनुना कामबीजेन सङ्गतम्॥3॥

नारायणः स भगवानापस्तस्मात्सनातनात् ।
आविरासीत्कारणार्णो निधिः सङ्कर्षणात्मकः 
योगनिद्रां गतस्तस्मिन् सहस्रांशः स्वयं महान् ॥ 12 ॥


प्रत्यण्डमेवमेकांशादेकांशाद्विशति स्वयम् ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा महाविष्णुः सनातनः ॥ 14 ॥
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वामाङ्गादसृजद्विष्णुं दक्षिणाङ्गात्प्रजापतिम् ।
ज्योतिर्लिङ्गमयं शम्भुं कूर्चदेशादवासृजत् ॥ 15 ॥


जीवन्ति लोमबिलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ 48 ॥
(सन्दर्भ:- ब्रह्म संहिता)

श्रीगोविन्दस्तोत्रम् 
चिन्तामणिप्रकरसह्यसु कल्पवृक्ष- लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्त्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १ ॥
अनुवाद:-
मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द (श्रीकृष्ण) की शरण लेता हूँ, जिनकी लाखों कल्पवृक्षोंसे आवृत एवं चिन्तामणिसमूहसे निर्मित भवनोंमें लाखों लक्ष्मी-सदृश युवतियोंके द्वारा निरन्तर सेवा होती रहती है और जो स्वयं वन-वनमें घूम-घूमकर गौओंकी सेवा करते हैं।

वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम् ।
कंदर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २ ॥
अनुवाद:-
जो वंशीमें स्वर फूँक रहे हैं, कमलकी पंखुड़ियोंके समान बड़े-बड़े जिनके नेत्र हैं, जो मोरपंखका मुकुट धारण किये रहते हैं, मेघके समान श्यामसुन्दर जिनके श्रीअङ्ग हैं, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवोंके द्वारा भी स्पृहणीय है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशी-
रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् । श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ३ ॥
अनुवाद:-
जो हवासे अठखेलियाँ करते हुए मोरपंख, सुन्दर वनमाला, वंशी एवं रत्नमय बाजूबंदसे सुशोभित हैं, जो प्रणयकेलि-कला- विलासमें दक्ष हैं, जिनका त्रिभङ्गललित श्यामसुन्दर विग्रह है और जिनका प्रकाश कभी फीका नहीं होता- सदा स्थिर रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय लेता हूँ।

अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति । आनन्दचिन्मय सदुज्ज्वलविग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ४ ॥
अनुवाद:-
जिनका सच्चिदानन्दमय प्रकाशयुक्त श्रीविग्रह है तथा सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियोंसे युक्त जिनके श्रीअङ्ग दीर्घकालतक विभिन्न लोकोंपर दृष्टि रखते हैं, उनकी रक्षा करते हैं तथा उनका ध्यान रखते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप-
माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ५ ॥
अनुवाद:-
जो द्वैतसे रहित हैं, अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि हैं, परंतु जिनका कहीं आदि नहीं है और जो अनन्त रूपोंमें प्रकाशित हैं, जो पुराण (सनातन) पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, जिनका स्वरूप वेदोंमें भी प्राप्त नहीं होता (निषेधमुखसे ही वेद जिनका वर्णन करते हैं,) किंतु अपनी भक्ति प्राप्त हो जानेपर जो दुर्लभ नहीं रह जाते – अपने भक्तोंके लिये जो सुलभ हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

पन्थास्तु सोऽप्यस्ति
कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो
वायोरधापि मनसो मुनिपुंगवानाम् ।
यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। ६ ।।
अनुवाद:-
(भगवत्प्राप्तिके) जिस मार्गको बड़े-बड़े मुनि प्राणायाम तथा चित्तनिरोधके द्वारा अरबों वर्षोंमें प्राप्त करते हैं, वही मार्ग जिनके अचिन्त्य माहात्म्ययुक्त चरणोंके अग्रभागकी सीमामें स्थित रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं
यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः ।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ७ ॥
अनुवाद:-
जो यद्यपि सर्वथा एक हैं— उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है, फिर भी जो (अपनी महिमासे) करोड़ों ब्रह्माण्डोंको रचनेकी शक्ति रखते हैं—यही नहीं, ब्रह्माण्डोंके समूह जिनके भीतर रहते हैं; साथ ही जो ब्रह्माण्डोंके भीतर रहनेवाले परमाणु-समूहके भी भीतर स्थित रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ ।

यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः ।
निगमप्रथितैः स्तुवन्ति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ८ ॥
अनुवाद:-
जिनकी भक्तिसे भावित बुद्धिवाले मनुष्य उनके रूप, महिमा, आसन, यान (वाहन) अथवा भूषणोंकी झाँकी प्राप्त करके वेदप्रसिद्ध सूक्तों (मन्त्रों) द्वारा स्तुति करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-
सूक्तैर्यमेव गोलोक
ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः ।
एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ९ ॥
अनुवाद:-
जो सर्वात्मा होकर भी आनन्दचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं (गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोकमें ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन
यं सन्तः सदैव हृदयेऽपि विलोकयन्ति ।
श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १० ॥
अनुवाद:-
संतजन प्रेमरूपी अञ्जनसे सुशोभित भक्तिरूपी नेत्रोंसे सदा-सर्वदा जिनका अपने हृदयमें ही दर्शन करते रहते हैं, जिनका श्यामसुन्दर विग्रह है तथा जिनके स्वरूप एवं गुणोंका यथार्थरूपसे चिन्तन भी नहीं हो सकता, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किंतु । 
कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ११ ॥
अनुवाद:-
जिन्होंने श्रीरामादि-विग्रहोंमें नियत संख्याकी कलारूपसे स्थित रहकर भिन्न-भिन्न भुवनोंमें अवतार ग्रहण किया, परंतु जो परात्पर पुरुष भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णका मैं भजन करता हूँ।

यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि-
कोटिष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १२ ॥
अनुवाद:-
जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में पृथिवी आदि समस्त विभूतियोंके रूपमें भिन्न-भिन्न दिखायी देता है, वह निष्कल (अखण्ड), अनन्त एवं अशेष ब्रह्म जिन सर्वसमर्थ प्रभुकी प्रभा है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

माया हि यस्य जगदण्डशतानि
सूते त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना
सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वविशुद्धसत्त्वं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १३ ॥
अनुवाद:-
सत्त्व, रज एवं तमके रूपमें उन्हीं तीनों गुणोंका प्रतिपादन करनेवाले वेदोंके द्वारा विस्तारित जिनकी माया सैकड़ों ब्रह्माण्डोंका सर्जन करती है, उन सत्त्वगुणका आश्रय लेनेवाले, सत्त्वसे परे एवं विशुद्धसत्त्वस्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ । 

आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनस्सु
यः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्त्रं
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १४ ॥
अनुवाद:-
जो स्मरण करनेवाले प्राणियोंके मनोंमें अपने आनन्द- चिन्मयरसात्मक-स्वरूपसे प्रतिबिम्बित होते हैं तथा अपने लीलाचरित्रके द्वारा निरन्तर समस्त भुवनोंको वशीभूत करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
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गोलोकनाम्नि निजधानि तले च तस्य
देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु च ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १५ ॥
अनुवाद:-
जिन्होंने गोलोक नामक अपने धाम में तथा उसके नीचे स्थित देवीलोक, कैलास तथा वैकुण्ठ नामक विभिन्न धामोंमें विभिन्न ऐश्वर्योकी सृष्टि की, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका
छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। १६ ।।
अनुवाद:-
सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयकारिणी शक्तिरूपा भगवती दुर्गा, जिनकी छायाकी भाँति समस्त लोकोंका धारण-पोषण करती हैं और जिनकी इच्छाके अनुसार चेष्टा करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

क्षीरं यथा दधिविकारविशेषयोगात्
संजायते नहि ततः पृथगस्ति हेतोः ।
यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद्
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १७ ॥
अनुवाद:-
जावन( खमीर,) आदि विशेष प्रकारके विकारोंके संयोगसे दूध जैसे दहीके रूपमें परिवर्तित हो जाता है, किंतु अपने कारण (दूध) से फिर भी विजातीय नहीं बन जाता, उसी प्रकार जो (संहाररूप) प्रयोजनको लेकर भगवान् शंकरके स्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य
दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादृगेव च विष्णुतया विभाति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १८ ॥
अनुवाद:-
जैसे एक दीपककी लौ दूसरी बत्तीका संयोग पाकर दूसरा दीपक बन जाती है, जिसमें अपने कारण (पहले दीपक) के गुण प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार जो अपने स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही विष्णुरूपमें दिखायी देने लगते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
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यः कारणार्णवजले भजति स्म योग-
निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्ति
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। १९ ।।
अनुवाद:-
आधारशक्तिरूपा अपनी (नारायणरूप) श्रेष्ठ मूर्तिको धारण करके जो कारणार्णवके जलमें योगनिद्राके वशीभूत होकर स्थित रहते हैं और उस समय उनके एक-एक रोमकूपमें अनन्त ब्रह्माण्ड समाये रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।
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यस्यैकनिश्श्वसितकालमथावलम्ब्य
जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २० ।।
अनुवाद:-
जिनके रोमकूपोंसे प्रकट हुए विभिन्न ब्रह्माण्डोंके स्वामी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) जिनके एक श्वास जितने कालतक ही जीवन धारण करते हैं तथा सर्वविदित महान् विष्णु जिनकी एक विशिष्ट कलामात्र हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

भास्वान् यथाश्मसकलेषु निजेषु तेजः
स्वीयं कियत् प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २१ ॥
अनुवाद:-
जैसे सूर्य सूर्यकान्त नामक सम्पूर्ण मणियोंमें अपने तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उसी प्रकार एक ब्रह्माण्डका शासन करनेवाले ब्रह्मा भी अपने अंदर जिनके तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भ-
द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।
विघ्नान् निहन्तुमलमस्य जगत्त्रयस्य
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २२ ।।
अनुवाद:-
प्रणाम करते समय जिनके चरणयुगलको अपने मस्तकके दोनों भागोंपर रखकर सर्वसिद्ध भगवान् गणपति इन तीनों लोकोंके विघ्नोंका विनाश करनेमें समर्थ होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

अग्निर्महीगगनमम्बुमरुद्दिशश्च
कालस्तथाऽऽत्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २३ ।
अनुवाद:-
अग्नि, पृथिवी, आकाश, जल, वायु एवं चारों दिशाएँ; काल बुद्धि, मन, पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, समृद्ध (पुष्ट) होते हैं तथा जिनमें पुनः लीन हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

यच्चक्षुरेव सविता सकलग्रहाणां
राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्री
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २४ ॥
अनुवाद:-
जिनके नेत्ररूप सूर्य, जो समस्त ग्रहोंके अधिपति, सम्पूर्ण देवताओंके प्रतीक एवं सम्पूर्ण तेजःस्वरूप तथा कालचक्रके प्रवर्तक होते हुए भी जिनकी आज्ञासे लोकोंमें चक्कर लगाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि
ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः ।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २५ ।।
अनुवाद:-
धर्म एवं पाप-समूह, वेदकी ऋचाएँ, नाना प्रकारके तप तथा ब्रह्मासे लेकर कीटपतङ्गतक सम्पूर्ण जीव जिनकी दी हुई शक्तिके द्वारा ही अपना-अपना प्रभाव प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म-
बद्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्तिभाजां
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ।। २६ ।।
अनुवाद:-
जो एक वीरबहूटीको एवं देवराज इन्द्रको भी अपने-अपने कर्म-बन्धनके अनुरूप फल प्रदान करते हैं, किंतु जो अपने भक्तोंके कर्मोंको निःशेषरूपसे जला डालते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति-
वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः
संचिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २७ ॥
अनुवाद:-
क्रोध, काम, सहज स्नेह आदि, भय, वात्सल्य, मोह (सर्वविस्मृति), गुरु- गौरव (बड़ोंके प्रति होनेवाली गौरव बुद्धिके सदृश महान् सम्मान) तथा सेव्य बुद्धिसे (अपनेको दास मानकर) जिनका चिन्तन करके लोग उन्हींके समान रूपको प्राप्त हो गये, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।
।।श्री गोविंदस्तोत्र सम्पूर्ण।। 

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श्रीमद्भागवतपुराण/
स्कन्धः १०/
पूर्वार्द्ध/अध्यायः (१)
श्रीकृष्णावतारोपक्रमः, ब्रह्मकर्तृकं पृथिव्या आश्वासनं कंसस्य देवकीवधोद्योगाद्
वसुदेववचनेन निवृत्तिः, षण्णां देवकीपुत्राणां कंसकतृको वधश्च -

श्रीराजोवाच ।
( अनुष्टुप् )
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।
 राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्‍भुतम् ॥ १ ॥
 यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम।
तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः॥२॥
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 अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः ।
 कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात्॥३॥
( उपेंद्रवज्रा )

निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्
     भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात् ।
 क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्
पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ४ ॥

( वंशस्थ )
पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैः
     देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्‌गिलैः ।
 दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं
  कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥५॥

( इन्द्रवज्रा )
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्‌गं
     सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
 जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो
     मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६ ॥
 वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजां
     अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।
 प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च
     मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥
____________________
( अनुष्टुप् )
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया ।
 देवक्या गर्भसंबंधः कुतो देहान्तरं विना ॥ ८ ॥

 कस्मात् मुकुन्दो भगवान् पितुर्गेहाद् व्रजं गतः ।
 क्व वासं ज्ञातिभिःसार्धं कृतवान् सात्वतां पतिः॥९।

 व्रजे वसन् किं अकरोत् मधुपुर्यां च केशवः ।
 भ्रातरं चावधीत् कंसं मातुः अद्धा अतदर्हणम् ॥ १० ॥

 देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः ।
 यदुपुर्यां सहावात्सीत् पत्‍न्यः कत्यभवन् प्रभोः ॥ ११ ॥
 एतत् अन्यच्च सर्वं मे मुने कृष्णविचेष्टितम् ।
 वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम्॥१२॥

 नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदं अपि बाधते ।
 पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज अच्युतं हरिकथामृतम् ॥ १३ ॥

 सूत उवाच ।
( वसंततिलका )
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं ।
     वैयासकिः स भगवान् अथ विष्णुरातम् ।
 प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं ।
     व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः ॥ १४ ॥
__________________

       श्रीशुक उवाच ।
          ( अनुष्टुप् )
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम ।
 वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः॥ १५॥

 वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि ।
 वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा ॥१६ ॥
___________________
 भूमिः दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः ।
 आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १७ ॥
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 गौर्भूत्वा अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः 
 उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत ॥१८॥

 ब्रह्मा तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
 जगाम स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १९ ॥

 तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम् ।
 पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः ॥ २० ॥

( वंशस्थ )
गिरं समाधौ गगने समीरितां
     निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
 गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनः
 विधीयतां आशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥

 पुरैव पुंसा अवधृतो धराज्वरो
  भवद्‌भिः अंशैः यदुषूपजन्यताम् ।
 स यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरः
 स्वकालशक्त्या क्षपयन् चरेद् भुवि ॥ २२ ॥

________    
( अनुष्टुप् )
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
 जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥२३॥
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 वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट् ।
अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया ॥ २४ ॥
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 विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति ॥२५॥

 श्रीशुक उवाच ।
 इत्यादिश्यामरगणान् प्रजापतिपतिः विभुः ।
 आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ ॥२६॥

 शूरसेनो यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम् ।
 माथुरान् शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा ।२७।

राजधानी ततः साभूत् सर्व यादव भूभुजाम् ।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ २८ ॥

 
इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे प्रथमोध्याऽयः॥१॥
 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्मा जी की शरण में गयी।

पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थी। ब्रह्मा जी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी। ब्रह्मा जी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये। भगवान देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत के एक मात्र स्वामी हैं। क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माणकर्ता ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा - ‘देवताओं! मैंने भगवान की वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा[1] की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं [2]और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझा कर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। 
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श्रीमद्‍भागवते महापुराण 10/3/ ८-९-१०-.....

निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः।८।
 
तमद्‍भुतं बालकमम्बुजेक्षणं
     चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम् ।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभि कौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥ ९ ॥

महार्हवैदूर्यकिरीट कुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्रकुन्तलम् ।
उद्दाम काञ्च्यङ्‍गद कङ्कणादिभिः
 विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥ १०॥

स विस्मयोत्फुल्ल विलोचनो हरिं
     सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा।
कृष्णावतारोत्सव संभ्रमोऽस्पृशन् मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम् ॥११॥

अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं
 परं नताङ्‌गः कृतधीः कृताञ्जलिः।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित् ॥१२॥

"श्रीवसुदेव उवाच।
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १३॥

स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥१४॥

यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ १५ ॥

सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः ॥ १६ ॥

एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः
     ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्‍गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते
     सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ १७ ॥

य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
     व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं
     सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ १८ ॥

त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभो
    वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
     त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः ॥ १९॥

स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
     बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं
     कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये ॥ २०॥

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुः
     गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्य संज्ञासुरकोटि यूथपैः
     निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः ॥ २१॥
अनुवाद:-
हे व्यापक! हे अखिलेश्वर! इस लोक के रक्षण की इच्छा से आप इस समय मेरे गृह में (श्रीकृष्णमूर्ति धारणकर) अवतीर्ण हुए हैं, इस कारण (साधुओं की रक्षा करने के लिए) आप राजा नामधारी जो कोटिशः दैत्यसमूह के सेनापति हैं, उनसे इधर-उधर नियत करके भेजी जाने वाली सेनाओं का संहार करेंगे।।21।।

____________       
जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो।

वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न - अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है।

जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया। 

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे। 

जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने की।

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स्कन्दपुराणम्/खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)/वासुदेवमाहात्म्यम्/अध्यायः( १६)

          ।। स्कन्द उवाच ।।
मेरुशृंगं समारूढो नारदो दिव्यया दृशा ।।
श्वेतद्वीपं च तत्रस्थान्पश्यन्मुक्तान्सहस्रशः ।। १ ।।
वासुदेवे भगवति दृष्टिमाबध्य तत्क्षणम् ।।
उत्पपात महायोगी सद्यः प्राप च धाम तत् ।। २ ।।
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं नारदो हृष्टमानसः ।।
ददर्श भक्तांस्तानेव श्वेतांश्चन्द्रप्रभाञ्छुभान् ।। ३ ।।
पूजयामास शिरसा मनसा तैश्च पूजितः ।।
दिदृक्षुर्ब्रह्म परमं स च कृच्छ्रपरः स्थितः ।। ४ ।।
भक्तमेकान्तिकं विष्णोर्बुद्ध्वा भागवतास्तु ते ।।
तमूचुस्तुष्टमनसो जपन्तं द्वादशाक्षरम् ।। ५ ।।
श्वेतमुक्ता ऊचुः ।।
मुनिवर्य भवान्भक्तः कृष्णस्याऽस्ति यतोऽत्र नः ।।
दृष्टवान्देवदुर्दृश्यान्किमिच्छन्नथ तप्यति ।। ६ ।।
नारद उवाच ।।
भगवन्तं परं ब्रह्म साक्षात्कृष्णमहं प्रभुम् ।।
द्रष्टुमुत्कोऽस्मि भक्तेन्द्रास्तं दर्शयत तत्प्रियाः ।।७।।
स्कन्द उवाच ।।
तदैकः श्वेतमुक्तस्तु कृष्णेन प्रेरितो हृदि ।।
एहि ते दर्शये कृष्णमित्युक्त्वा पुरतोभवत् ।।८।।
प्रहृष्टो नारदस्तेन साकमाकाशवर्त्मना ।।
पश्यन्धामानि देवानां तत ऊर्द्ध्वं ययौ मुनिः ।।९।
सप्तर्षींश्च ध्रुवं दृष्ट्वाऽनासक्तः कुत्रचित्स च ।।
महर्जनतपोलोकान्व्यतीयाय द्विजोत्तम।।2.9.16.१०।।
ब्रह्मलोकं ततो दृष्ट्वा श्वेतमुक्तानुगो मुनिः ।।
कृष्णस्यैवेच्छयाऽध्वानं प्रापाष्टावरणेष्वपि।।११।।
भूम्यप्तेजोनिलाकाशाहम्महत्प्रकृतीः क्रमात् ।।
क्रान्त्वा दशोत्तरगुणाः प्राप गोलोकमद्भुतम् ।।१२।।
धाम तेजोमयं तद्धि प्राप्यमेकान्तिकैर्हरेः।।
गच्छन्ददर्श विततामगाधां विरजां नदीम्।।१३।।
गोपीगोपगणस्नानधौतचन्दनसौरभाम्।।
पुण्डरीकैः कोकनदै रम्यामिन्दीवरैरपि।।१४।।
तस्यास्तटं मनोहारि स्फटिकाश्ममयं महत्।।
प्राप श्वेतहरिद्रक्तपीतसन्मणिराजितम्।।१५।।
कल्पवृक्षालिभिर्ज्जुष्टं प्रवालाङ्कुरशोभितम्।।
स्यमन्तकेन्द्रनीलादिमणीनां खनिमण्डितम् ।१६ ।
नानामणीन्द्रनिचितसोपानततिशोभनम् ।।
कूजद्भिर्मधुरं जुष्टं हंसकारण्डवादिभिः ।। १७ ।।
वृन्दैः कामदुघानां च गजेन्द्राणां च वाजिनाम् ।।
पिबद्भिर्न्निर्मलं तोयं राजितं स व्यतिक्रमत् ।। १८।
उत्तीर्याऽथ धुनी दिव्यां तत्क्षणादीश्वरेच्छया ।।
तद्धामपरिखाभूतां शतशृङ्गागमाप सः ।। १९ ।।
हिरण्मयं दर्शनीयं कोटियोजनमुच्छ्रितम् ।।
विस्तारे दशकोट्यस्तु योजनानां मनोहरम् ।। 2.9.16.२० ।।
सहस्रशः कल्पवृक्षैः पारिजातादिभिर्द्रुमैः ।।
मल्लिकायूथिकाभिश्च लवङ्गैलालतादिभिः ।२१।
स्वर्णरम्भादिभिश्चान्यैः शोभमानं महीरुहैः ।।
दिव्यैर्मृगगणैर्न्नागैः पक्षिभिश्च सुकूजितैः ।। २२ ।।
दुर्गायितस्य तद्धाम्नस्तस्य रम्येषु सानुषु ।।
मनोज्ञान्विततानैक्षद्भगवद्रासमण्डपान् ।। २३ ।।
वृतानुद्यानततिभिः फुल्लपुष्पसुगन्धिभिः ।।
कपाटै रत्ननिचितैश्चतुर्द्वारसुशोभनान् ।। २४ ।।
चित्रतोरणसंपन्नै रत्नस्तम्भैः सहस्रशः ।।
जुष्टांश्च कदलीस्तम्भैर्मुक्तालम्बैर्वितानकैः ।। २५ ।।
दूर्वालाजाक्षतफलैर्युक्तान्माङ्गलिकैरपि ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीकेशरोक्षित चत्वरान् ।। २६ ।।
सुश्राव्यवाद्यनिनदैर्हृद्यान्बहुविधैरपि ।।
तेषु यूथानि गोपीनां कोटिशः स ददर्श ह ।। २७ ।।
अनर्घ्यवासोभूषाभिः सद्रत्नमणिकङ्कणैः ।।
काञ्चीनूपुरकेयूरैः शोभितान्यङ्गुलीयकैः ।। २८ ।।
तारुण्यरूपलावण्यैः स्वरैश्चाऽप्रतिमानि हि ।।
राधालक्ष्मीसवर्णानि शृङ्गारिककराणि च ।। २९ ।।
भोगद्रव्यैर्बहुविधैर्मण्डपेषु युतेषु च ।।
विलसन्ति च गायन्ति मनोज्ञाः कृष्णगीतिकाः ।। 2.9.16.३० ।।
उपत्यकासु तस्याद्रेरथ वृन्दावनाभिधम् ।।
वनं महत्तदद्राक्षीत्सावर्णे नारदो मुनिः ।। ३१ ।।
कृष्णस्य राधिकायाश्च प्रियं तत्क्रीडनस्थलम्।।
कल्पद्रुमालिभी रम्यं सरोभिश्च सपङ्कजैः।।३२ ।।
आम्रैराम्रातकैर्नीपैर्बदरीभिश्च दाडिमैः ।।
खर्जूरीपूगनारंगैर्न्नालिकेरैश्च चन्दनैः ।। ३३ ।।
जम्बूजम्बीरपनसैरक्षोदैः सुरदारुभिः ।।
कदलीभिश्चम्पकैश्च द्राक्षाभिः स्वर्णकेतकैः ।३४ ।
फलपुष्पभरानम्रैर्न्नानावृक्षैर्विराजितम् ।।
मल्लिका माधवीकुन्दैर्ल्लवंगैर्यूथिकादिभिः ।३५।
मन्दशीतसुगन्धेन सेवितं मातरिश्वना ।।
शतशृङ्गस्नुतैरार्द्रं निर्झरैश्च समन्ततः ।। ३६ ।।
सदा वसन्त शोभाढ्यं रत्नदीपालिमण्डितैः ।।
शृङ्गारिकद्रव्ययुतैः कुञ्जैर्जुष्टमनेकशः ।। ३७ ।।
गोपानां गोपिकानां च कृष्णसंकीर्त्तनैर्मुहुः ।।
गोवत्स पक्षिनिनदैर्न्नानाभूषणनिस्वनैः ।।
दधिमन्थनशब्दैश्च सर्वतो नादितं मुने ।। ३८ ।।
फुल्लपुष्पफलानम्रनानाद्रुमसुशोभनैः ।।
द्वात्रिंशतवनैरन्यैर्युक्तं पश्यमनोहरैः ।। ३९ ।।
तद्वीक्ष्य हृष्टः स प्राप गोलोकपुरमुज्वलम् ।।
वर्तुलं रत्नदुर्गं च राजमार्गोपशोभितम् ।। 2.9.16.४० ।।
राजितं कृष्णभक्तानां विमानैः कोटिभिस्तथा ।।
रथै रत्नेन्द्रखचितैः किंकिणीजालशोभितैः ।। ४१ 
महामणीन्द्रनिकरै रत्नस्तम्भालिमण्डितैः ।।
अद्भुतैः कोटिशः सौधैः पंक्तिसंस्थैर्मनोहरम् ।। ४२।

विलासमण्डपै रम्यै रत्नसारविनिर्मितः ।।
रत्नेन्द्रदीपततिभिः शोभनं रत्नवेदिभिः ।। ४३ ।।
केसरागुरुकस्तूरीकुंकुमद्रवचर्चितम् ।।
दधिदूर्वालाजपूगै रम्भाभिः शोभिताङ्गणम् ।। ४४ ।
वारिपूर्णैर्हेमघटैस्तोरणैः कृतमंगलम् ।।
मणिकुट्टिमराजाध्वचलद्भूरिगजाश्वकम् ।। ४५ ।।
श्रीकृष्णदर्शनायातैर्न्नैकब्रह्माण्डनायकैः ।।
विरिञ्चिशंकराद्यैश्च बलिहस्तैः सुसंकुलम् ।।४६।।
व्रजद्भिः कृष्णवीक्षाथ गोपगोपीकदम्बकैः ।।
सुसंकुलमहामार्गं मुमोदालोक्य तन्मुनिः ।।४७।।
कृष्णमन्दिरमापाऽथ सर्वाश्चर्यं मनोहरम् ।।
नन्दादिवृषभान्वादिगोपसौधालिभिर्वृतम् ।। ४८ ।।
चतुर्द्वारैः षोडशभिर्दुर्गैः सपरिखैर्युतम्।।
कोटिगोपवृतैकैकद्वारपालसुरक्षितैः ।। ४९ ।।
रत्नस्तम्भकपाटेषु द्वार्षु स्वाग्रस्थितेषु सः ।।
उपविष्टान्क्रमेणैव द्वारपालान्ददर्श ह ।।2.9.16.५०।।
वीरभानुं चन्द्रभानुं सूर्यभानुं तृतीयकम् ।।
वसुभानुं देवभानुं शक्रभानुं ततः परम् ।। ५१ ।।
रत्नभानुं सुपार्श्वं च विशालमृषभं ततः ।।
अंशुं बलं च सुबलं देवप्रस्थं वरूथपम् ।। ५२ ।।
श्रीदामानं च नत्वाऽसौ प्रविष्टोंतस्तदाज्ञया ।।
महाचतुष्के वितते तेजोऽपश्यन्महोच्चयम् ।। ५३ 
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये गोलोकवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।

अध्याय 16 - गोलोक का वर्णन

नोट: गोलोक दिव्य लोकों में सबसे ऊपर है। इसे विष्णु का ऊपरी होंठ माना जाता है , निचला होंठ ब्रह्म-लोक है ( महाभारत , शांति 347.52)। महाभारत, अनुशासन 83.37-44 में गोलोक का वर्णन यहां दिए गए वर्णन से कुछ अलग है। यह गोलोक वृन्दावन क्षेत्र की प्रतिकृति है जहाँ कृष्ण ने अपना बचपन चरवाहा समुदाय में बिताया था। वही व्यक्ति - ग्वालिन राधा , उनकी सखियाँ, कृष्ण की सहेलियाँ, उनका रास नृत्य, गायें आदि, इस पुराण के गोलोक में अति-दिव्य हैं ।

स्कंद ने कहा :

1. मेरु के शिखर पर चढ़ते हुए , नारद ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्वेत द्वीप और उसकी हजारों मुक्त आत्माओं को देखा ।

2. भगवान वासुदेव पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके , महान योगी उसी क्षण ऊपर उठे और तुरंत उस स्थान पर पहुंचे।

3. महान द्वीप श्वेत में पहुँचकर नारद मन में प्रसन्न हुए। उन्होंने उन परम शुभ भक्तों को देखा जो श्वेत वर्ण वाले तथा चन्द्रमा के समान कांति वाले थे।

4. उस ने सिर झुकाकर उनको दण्डवत् किया, और मन ही मन उन से बहुत प्रसन्न हुआ। परब्रह्म के दर्शन की इच्छा से वह लज्जित (कठिन परिस्थिति में) वहीं खड़ा रहा।

5. यह जानकर कि वह (नारद) विशेष रूप से विष्णु का भक्त था, वे भागवत ('भगवान के अनुयायी') मन में प्रसन्न (अर्थात् संतुष्ट) हुए। बारह अक्षरों वाले ( भगवान के मंत्र ) को बुदबुदाते हुए, उन्होंने उससे कहा:

श्वेत-मुक्तस ('मुक्त श्वेतस') ने कहा :

6. हे प्रमुख ऋषि! आप कृष्ण के भक्त हैं. अत: आप हम लोगों को देख सकते हैं जिन्हें देवताओं द्वारा भी देखना कठिन है । तुम्हें कौन सी इच्छा सताती है?

नारद ने कहा :

7. मैं (ब्रह्मांड के) शासक, स्वयं परम ब्रह्म, भगवान कृष्ण को देखने के लिए बहुत उत्सुक हूं। हे उनके प्रिय महान भक्तों, उन्हें (मुझे) दिखाओ।

स्कंद ने कहा :

8. तब एक श्वेत मुक्त आत्मा ने अपने हृदय में कृष्ण द्वारा निर्देशित होकर कहा, "आओ, मैं तुम्हें कृष्ण दिखाऊंगा"। ṃis कहकर वह आगे बढ़ गया।

9. तब अत्यंत प्रसन्न नारद मुनि देवताओं के निवास स्थान को देखकर आकाश के मार्ग से उनके साथ चले।

10. सप्तऋषियों ( उरसा मेजर ) और ध्रुव तारे को देखकर उसका वहां कहीं भी मोह नहीं रहा। हे उत्कृष्ट ब्राह्मण, उन्होंने महर्लोक , जनलोक , तपोलोक नामक क्षेत्रों को पार किया ।

11. फिर, भगवान ब्रह्मा के क्षेत्र को देखकर , श्वेत- मुक्त का पालन करने वाले ऋषि । कृष्ण की इच्छा के कारण उन्होंने (ब्रह्मांड के) आठों आवरणों में भी अपना रास्ता खोज लिया।

12. तत्वों को क्रमिक रूप से पार करना, अर्थात। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, अहंकार ( अहं ), महत और प्रकृति , जिनमें से प्रत्येक पिछले एक से दस गुना (बड़ा) है, [1] वह अद्भुत गोलोक में पहुंचे।

13. यह एक गौरवशाली निवास स्थान था, जो केवल हद के प्रति समर्पित लोगों के लिए ही सुलभ था। जाते समय उन्होंने अत्यंत विस्तृत और अथाह विराजा नदी देखी । [2]

14. अनेक ग्वालों और ग्वालबालों द्वारा स्नान करने के कारण इसमें चंदन की सुगंध आती है। यह सफेद, टेड और नीले रंग के कमलों के साथ सुंदर दिखाई दे रहा था।

15 वह उसके तट पर पहुंचा, जो विस्तृत, मन को मोहनेवाला और स्फटिक मणियों से भरा हुआ था। इसे सफेद, हरे, लाल और पीले रंग के उत्कृष्ट बहुमूल्य पत्थरों से सुशोभित किया गया था।

16. वह कामना फल देने वाले वृक्षों की कतारों से भरा हुआ था। इसे मूंगा-अंकुरों से सुशोभित किया गया था। यह स्यमंतक , नीलमणि और अन्य जैसे कीमती पत्थरों की खानों से सुशोभित था ।

17. वह विभिन्न प्रकार के उत्कृष्ट रत्नों से जड़ी हुई ( घाट की) सीढ़ियों से अत्यंत सुंदर था । इसमें हंस, करंडव बत्तख (और अन्य जलीय पक्षी) मधुर स्वर में बोल रहे थे।

18-19. उसके भव्य, पारभासी जल को असंख्य इच्छाधारी गायें, उत्कृष्ट हाथी और घोड़े पी रहे थे। उसने इसे पार कर लिया. भगवान की इच्छा से, भगवान के निवास के चारों ओर खाई बनाने वाली स्वर्गीय नदी को एक क्षण में पार करने के बाद, वह शतश्रंग पर्वत ('सौ चोटियों वाले') पर पहुंचे।

20. वह सोने का और सुन्दर था। इसकी ऊंचाई दस लाख योजन थी। इसका विस्तार सौ करोड़ योजन था और मन को मोहने वाला था।

21-22. यह हजारों इच्छा-प्राप्ति वाले वृक्षों और पारिजात और अन्य जैसे वृक्षों और मल्लिका , युथिका (चमेली की विभिन्न किस्मों), लौंग और इलायची जैसी लताओं से सुशोभित था। यह सुनहरे केले जैसे वृक्षों तथा असंख्य स्वर्गीय हिरणों, हाथियों तथा मीठे-मीठे पक्षियों से सुशोभित था।

23. सुंदर चोटियों पर अपने महल जैसे निवास में, उन्होंने मन को आकर्षित करने वाले भगवान के रास - मंडपों (अर्थात नृत्य के लिए हॉल जिन्हें रास कहा जाता है) को फैला हुआ देखा।

24. वे खिले हुए फूलों से सुगन्धित बगीचों की शृंखला से घिरे हुए थे। वे चारों दिशाओं में रत्नजटित पैनल वाले दरवाजों से सुन्दर लग रहे थे।

25. वे अद्भुत मेहराबदार द्वारों, और रत्नजटित हजारों खम्भों से सुसज्जित थे। उन्हें केले के पेड़ों के खंभे और खिड़कियां प्रदान की गईं जिन पर मोतियों की माला लटकी हुई थी।

26. उन्हें शुभ दूर्वा घास, तले हुए अनाज, अखंडित चावल के दाने और फल प्रदान किए गए। उसके चतुर्भुज स्थानों को चंदन, एगैलोकम, कस्तूरी और केसर से छिड़का गया था।

27. वे मन को लुभानेवाले, और भाँति-भाँति के बाजों की मधुर ध्वनि कानों को भानेवाली (अतः सुनने योग्य) थीं। उन्होंने वहाँ करोड़ों की संख्या में ग्वालों की भीड़ देखी।

28-30. वे अमूल्य वस्त्राभूषणों तथा उत्तम रत्नों से जड़ी चूड़ियों, करधनी, पायल, बाजूबंद तथा अंगूठियों से सुशोभित थे। वे यौवन, रूप-सौन्दर्य, सुन्दरता और अतुलनीय मधुर वाणी से सम्पन्न थे। उनका रंग राधा और लक्ष्मी जैसा था और उनके हाथ कामुक थे। आनंद की विभिन्न वस्तुओं से सुसज्जित हॉल में, वे अपना मनोरंजन कर रहे थे और कृष्ण के बारे में मनभावन गीत गा रहे थे।

31. हे सावर्णि , ऋषि नारद ने उस पर्वत की तलहटी में वृन्दावन नामक एक महान वन देखा ।

32. यह कृष्ण और राधा का पसंदीदा खेल का मैदान था। यह मनोकामना पूर्ण करने वाले वृक्षों की कतारों और खिले हुए कमलों वाली झीलों के कारण सुंदर था।

33-37. इसे आम, हॉग-प्लम, कदंब , बेर के पेड़, अनार, खजूर के पेड़, सुपारी के पेड़, नारंगी के पेड़, नारियल के पेड़, चंदन के पेड़, गुलाब-सेब, नींबू के पेड़, ब्रेड-फल जैसे पेड़ों से सुशोभित (प्रकाशित) किया गया था । पेड़, अखरोट के पेड़, केले के पेड़, कैपक के पेड़, अंगूर की बेलें, सुनहरे केतक । ये सभी वृक्ष फलों और फूलों के भार से झुक रहे थे।

इसमें मल्लिका, माधवी , कुंदा, लौंग और चमेली के फूलों की ठंडी और मीठी खुशबू बिखेरते हुए, एक हल्की हवा चल रही थी। चारों ओर शतशृंग से निकलने वाले झरने के पानी से गीलापन था। यह वसंत ऋतु के सौंदर्य से भरपूर था। यह असंख्य धनुषों से सुसज्जित था, रत्नजड़ित दीपकों की पंक्तियों से सुशोभित था और आमोद-प्रमोद के लिए उपयुक्त सामग्री से सुसज्जित था।

38. हे ऋषि, यह ग्वालों और ग्वालों द्वारा कृष्ण की स्तुति (या नाम की पुनरावृत्ति) की ध्वनि, गायों और बछड़ों की हिनहिनाहट, पक्षियों की चहचहाहट और विभिन्न आभूषणों की झनकार ध्वनि और की ध्वनि से गूंज रहा था। दही मथना.

39. इसमें बत्तीस अन्य वन थे, जो विभिन्न प्रकार के वृक्षों से अत्यंत सुंदर थे, पूरी तरह से खिले हुए फूलों और फलों के (वजन से) झुके हुए थे, जो दर्शकों के मन को आकर्षित करते थे।

40-43. यह देख कर उसे बहुत ख़ुशी हुई. वह गोलोक की देदीप्यमान नगरी (राजधानी) में पहुंचे। वह रत्नों से भरा हुआ एक गोलाकार गढ़ था। इसे राजसी मार्गों से सुशोभित किया गया। यह कृष्ण के भक्तों के करोड़ों भवनों, उत्कृष्ट रत्नों से सुसज्जित रथों और अनेक छोटी-छोटी झनकारती घंटियों से सुशोभित भव्य दिखाई देता था। यह करोड़ों अद्भुत भवनों के कारण सुंदर था, जो उत्कृष्ट कीमती पत्थरों के खजाने से भरे हुए थे, कीमती पत्थरों के खंभों से सुशोभित थे - सभी पंक्तियों में व्यवस्थित थे।

यह खेल के खूबसूरत हॉलों के साथ शानदार दिखाई देता था। इसका निर्माण उत्कृष्ट बहुमूल्य पत्थरों से किया गया था [3] और यह रत्न-जटित वेदियों या उत्कृष्ट रत्नों से जड़ित दीपकों की चतुष्कोणीय (रोशनी वाली) पंक्तियों से सुसज्जित था।

44. इसके आंगन को फूलों, एगैलोकम, कस्तूरी और केसर के तंतुओं के साथ तरल (मिश्रित) और दही, दुर्वा घास, तले हुए अनाज और केले के पेड़ों के ढेर (बर्तनों से युक्त) के साथ छिड़का गया था।

45. जल से भरे सोने के घड़े तथा मेहराबों के निर्माण से मंगल होता था। इसमें काफी संख्या में हाथी और घोड़े कीमती पत्थरों से पक्की शाही सड़कों पर चल रहे थे।

46. ​​यह ब्रह्मांड के कई देवताओं से भरा हुआ था जो श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए आए थे और ब्रह्मा और शंकर जैसे महान देवताओं के हाथों में पूजा की सामग्री थी।

47. यह ग्वालों और ग्वाल-बालों की भीड़ से भरा हुआ था जो कृष्ण को देखने के लिए जा रहे थे। ऋषि उस महान मार्ग को (इनसे) इतना भरा हुआ देखकर प्रसन्न हुए।

48. फिर, वह कृष्ण के भवन में पहुंचा, जो सुंदर था और सभी को अद्भुत लग रहा था। यह नंद , वृषभानु और अन्य ग्वालों के मकानों की कतारों से घिरा हुआ था ।

49. इसमें चार द्वार थे और इसमें सोलह गढ़ थे जिनके चारों ओर खाइयाँ थीं। इसके प्रत्येक द्वार पर एक करोड़ ग्वाले द्वारपाल के रूप में उसके चारों ओर पहरा देते थे।

50. अपने साम्हने रत्नजटित खम्भों और तख्तोंवाले द्वारोंपर, उस ने बारी बारी से द्वारपालोंको देखा, जो वहां (कार्य पर) बैठे हुए थे।

51-53. (वे थे) वीरभानु, चंद्रभानु , सूर्यभानु तीसरा (द्वारपाल), वसुभानु, देवभानु और उसके बाद शक्रभानु; रत्नभानु, सुपार्श्व , विशाल , और फिर वृषभ , अंशु , बाला , सुबाला , देवप्रस्थ , वरूथपा और श्रीदामन । उन्होंने उन्हें (श्रीदामन को) प्रणाम किया और उनकी अनुमति से प्रवेश किया। (अपने सामने) विशाल चौड़े चतुर्भुज में उसने वैभव का एक विशाल समूह देखा।

फ़ुटनोट और संदर्भ:

[1] :

यह एक पौराणिक अवधारणा है कि हमारा ब्रह्मांड पांच तत्वों, अहंकार, महत और प्रकृति से घिरा हुआ है। एक योगी को ब्रह्म (यहाँ गोलोक के रूप में दर्शाया गया है) प्राप्त करने से पहले उनमें से अपना रास्ता भेदना पड़ता है।

[2] :

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार , विराजा एक ग्वालिन (कृष्ण की प्रेमिका) थी जो राधा के श्राप के कारण नदी में परिवर्तित हो गई थी। वैष्णव वेदांत में यह नदी है जिसे पार करने के बाद व्यक्ति भगवान के दर्शन करता है।

[3] :


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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद:-
ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! तुम बड़े भाग्यवान हो। भगवान के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो। रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें। ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है।

परीक्षित! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यद्यपि भगवान की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं। यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुना जी के पुलिन पर ले आये और उनसे कहने लगे - ‘मेरे प्यारे मित्रों! यमुना जी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हम लोगों के लिए खेलने की तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें।'

ग्वालबालों ने एक स्वर से कहा - ‘ठीक है, ठीक है!’ उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान के साथ बड़े आनन्द से भोजन करने लगे। सबके बीच में भगवान श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्द से खिल रहीं थीं। वन-भोजन के समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमल की कर्णिका के चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पंखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों। कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरों के पात्र बनाकर भोजन करने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचि का प्रदर्शन करते। कोई किसी को हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे।[1] उन्होंने मुरली को तो कमर की फेंट में आगे की ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथ में बड़ा ही मधुर घृत मिश्रित दही-भात का ग्रास था और अँगुलियों में अदरक, नीबू आदि के अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओर से घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीच में बैठकर अपनी विनोद भरी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान ग्वालबालों के साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्ग के देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे।


शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

देवी भागवत पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोलोक का वर्णन-


  • देवीभागवतपुराण /स्कन्धः (९)अध्यायः (३)ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनम्
  • श्रीनारायण उवाच अथ डिम्भो जले तिष्ठन्यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।ततः स काले सहसा द्विधाभूतो बभूव ह ॥ १ ॥
  • तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः ।क्षणं रोरूयमाणश्च स्तनान्धः पीडितः क्षुधा ॥ २ ॥
  • पित्रा मात्रा परित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।ब्रह्माण्डासंख्यनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ॥ ३ ॥
  • स्थूलास्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ।
  • परमा्णुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाप्यसौ ॥ ४ ॥
  • तेजसा षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः ।आधारः सर्वविश्वानां महाविष्णुश्च प्राकृतः ॥ ५ ॥
  • प्रत्येकं लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।अस्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः ॥ ६ ॥
  • संख्या चेद्‌रजसामस्ति विश्वानां न कदाचन ।ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ॥ ७ ॥
  • प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।पातालाद्‌ ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम् ॥ ८ ॥
  • तत ऊर्ध्वं च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्‌ बहिरेव सः । तत ऊर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः ॥ ९ ॥
  • नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् ।सप्तद्वीपमिता पृध्वी सप्तसागरसंयुता ॥ १० ॥
  • ऊनपञ्चाशदुपद्वीपासंख्यशैलवनान्विता ।ऊर्ध्वं सप्त स्वर्गलोका ब्रह्यलोकसमन्विताः ॥ ११ ॥
  • पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परम् ॥ १२ ॥
  • ततः परश्च स्वर्लोको जनलोकस्तथा परः ।ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ॥ १३ ॥
  • ततः परं ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।एवं सर्वं कृत्रिमं च बाह्याभ्यन्तरमेव च ॥ १४ ॥
  • तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।जलबुद्‌बुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ॥ १५ ॥
  • नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ प्रोक्तौ शश्वदकृत्रिमौ ।प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डं परिनिश्चितम् ॥ १६ ॥
  • एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा ।प्रत्येकं प्रतिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ १७ ॥
  • तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ॥ १८ ॥
  • भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽप्यधो नागाश्चराचराः ।अथ कालेऽत्र स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ॥ १९ ॥
  • डिम्भान्तरे च शून्यं च न द्वितीयं च किञ्चन ।चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ॥ २० ॥
  • ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ २१ ॥
  • नवीनजलदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकातरम् ॥ २२ ॥
  • जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।वरं तदा ददौ तस्मै वरेशः समयोचितम् ॥ २३ ॥
  • मत्समो ज्ञानयुक्तश्च क्षुत्पिपासादिवर्जितः ।ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ॥ २४ ॥
  • निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो भव ।जरामृत्युरोगशोकपीडादिवर्जितो भव ॥ २५ ॥
  • इत्युक्त्वा तस्य कर्णे स महामन्त्रं षडक्षरम् ।त्रिःकृत्वश्च प्रजजाप वेदाङ्‌गप्रवरं परम् ॥ २६ ॥
  • प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।वह्निजायान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ २७ ॥
  • मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः ।श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥ २८ ॥
  • प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै ॥ २९ ॥
  • निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्ये चैव कृष्णस्य न हि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥ ३० ॥
  • यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा ॥ ३१ ॥
  • तं च मन्त्रवरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः ।वरमन्यं किमिष्टं ते तन्मे ब्रूहि ददामि च ॥ ३२ ॥
  • कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच विराड् विभुः ।कृष्णं तं बालकस्तावद्वचनं समयोचितम् ॥ ३३ ॥
  • बालक उवाच वरो मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।सततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ॥ ३४ ॥
  • त्वद्‍भक्तियुक्तलोकेऽस्मिञ्जीवन्मुक्तश्च सन्ततम् ।त्वद्‍भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ३५ ॥
  • किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन पूजनेन च ।व्रतेन चोपवासेन पुण्येन तीर्थसेवया ॥ ३६ ॥
  • कृष्णभक्तिविहीनस्य मूर्खस्य जीवनं वृथा ।येनात्मना जीवितश्च तमेव न हि मन्यते ॥ ३७ ॥
  • यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स शक्तिसंयुतः ।पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्स्वतन्त्राः सर्वशक्तयः ॥ ३८ ॥
  • स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्मज्योतिः सनातनः ॥ ३९ ॥
  • इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ॥ ४० ॥
  • श्रीकृष्ण उवाच-सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाहं त्वं तथा भव ।ब्रह्मणोऽसंख्यपाते च पातस्ते न भविष्यति ॥ ४१ ॥
  • अंशेन प्रतिब्रह्माण्डे त्वं च क्षुद्रविराड् भव ।त्वन्नाभिपद्माद्‌ ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति ॥ ४२ ॥
  • ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव ते ।शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंहरणाय वै ॥ ४३ ॥
  • कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।पाता विष्णुश्च विषयी रुद्रांशेन भविष्यति ॥ ४४ ॥
  • मद्‍भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम् ॥ ४५ ॥
  • मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् ।यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ॥ ४६ ॥
  • गत्वा स्वलोकं ब्रह्माणं शङ्‌करं समुवाच ह ।स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तुं चैव तत्क्षणम् ॥ ४७ ॥
  • श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ॥ ४८ ॥
  • गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्‍भवो भव ।अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तप ॥ ४९ ॥
  • इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुत ।जगाम ब्रह्मा तं नत्वा शिवश्च शिवदायकः ॥ ५० ॥
  • महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डगोलके जले ।बभूव च विराट् क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ॥ ५१ ॥
  • श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके ।ईषद्धास्यः प्रसन्नास्यो विश्वव्यापी जनार्दनः ॥ ५२ ॥
  • तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्‍भवः ।सम्भूय पद्मदण्डे च बभ्राम युगलक्षकम् ॥ ५३ ॥
  • नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनालस्य पद्मजः ।नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पिता तव ॥ ५४ ॥
  • स्वस्थानं पुनरागम्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् ।ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यानेन दिव्यचक्षुषा ॥ ५५ ॥
  • शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डगोलकाप्लुते ।यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ॥ ५६ ॥
  • श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् ।तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ॥ ५७ ॥
  • बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।ततो रुद्रकलाश्चापि शिवस्यैकादश स्मृताः ॥ ५८ ॥
  • बभूव पाता विष्णुश्च क्षुद्रस्य वामपार्श्वतः ।चतुर्भुजश्च भगवान् श्वेतद्वीपे स चावसत् ॥ ५९ ॥
  • क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज ह ।स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकीं सचराचराम् ॥ ६० ॥
  • एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च ।प्रतिविश्वे क्षुद्रविराड् ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ६१ ॥
  • इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कृष्णसङ्‌कीर्तनं शुभम् ।सुखदं मोक्षदं ब्रह्मन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६२ ॥
  • इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
  • ____________________
  • देवी भागवत महापुराण स्कन्ध 9, अध्याय 3 -
  • परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  • श्रीनारायण बोले- वह बालक जो पहले जलमें छोड़ दिया गया था, ब्रह्माजीकी आयुपर्यन्त जलमें ही पड़ा रहा। उसके बाद वह समय आनेपर अचानक ही दो रूपोंमें विभक्त हो गया ॥ 1 ॥
  • उनमेंसे एक बालक शतकोटि सूर्योकी आभासे युद्ध था; माताके स्तनपानसे रहित वह भूखसे व्याकुल होकर बार-बार रो रहा था ॥ 2 ॥
  • माता-पितासे परित्यक्त होकर आश्रयहीन उस बालकने जलमें रहते हुए अनन्त ब्रह्माण्डनायक होते हुए भी अनाथकी भाँति ऊपरकी ओर दृष्टि डाली ॥ 3 ॥
  • जैसे परमाणु सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म होता है, वैसे ही वह स्थूलसे भी स्थूल था। स्थूलसे भी स्थूलतम होनेसे वे देव महाविराट् नामसे प्रसिद्ध हुए परमात्मा श्रीकृष्णके तेजसे सोलहवें अंशके रूपमें तथा प्रकृतिस्वरूपा राधासे उत्पन्न होनेके कारण यह सभी लोकोंका आधार तथा महाविष्णु कहा गया ।। 4-5 ॥
  • उसके प्रत्येक रोमकूपमें अखिल ब्रह्माण्ड स्थित थे, उनकी संख्या श्रीकृष्ण भी बता पानेमें समर्थ नहीं हैं जैसे पृथिवी आदि लोकोंमें व्याप्त रजकणोंकी संख्या कोई निर्धारित नहीं कर सकता, उसी प्रकार -उसके रोमकूपस्थित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिकी संख्या भी निश्चित नहीं है। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विद्यमान हैं ॥ 6-73
  • ॥पातालसे ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है।
  • उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्डसे बाहर है।उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तारवाला गोलोक है जैसे श्रीकृष्ण नित्य और सत्यस्वरूप हैं, वैसे ही यह गोलोक भी है ll 8- 93 ॥
  • यह पृथ्वी सात द्वीपोंवाली तथा सात महासागरोंसे समन्वित है। इसमें उनचास उपद्वीप हैं और असंख्य वन तथा पर्वत हैं। इसके ऊपर सात स्वर्गलोक हैं, जिनमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है। इसके नीचे सात पाताल लोक भी हैं; यह सब मिलाकर ब्रह्माण्ड कहा जाता है ॥ 10-113 ॥
  • पृथ्वीसे ऊपर भूलक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। उसके भी ऊपर तप्त स्वर्णकी आभावाला ब्रह्मलोक है। ब्रह्माण्डके बाहर-भीतर स्थित रहनेवाले ये सब कृत्रिम हैं। हे नारद! उस ब्रह्माण्डके नष्ट होनेपर उन सबका विनाश हो जाता है; क्योंकि जलके बुलबुलेकी तरह यह सब लोक-समूह अनित्य है ॥ 12-15
  • गोलोक और वैकुण्ठ सनातन, अकृत्रिम और नित्य बताये गये हैं महाविष्णुके प्रत्येक रोमकूपमें ब्रह्माण्ड स्थित रहते हैं। इनकी संख्या श्रीकृष्ण भी नहीं जानते, फिर दूसरेकी क्या बात ? प्रत्येक ब्रह्माण्डमें अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विराजमान रहते हैं। हे पुत्र ! देवताओंकी संख्या वहाँ तीस करोड़ है। दिगीश्वर, दिक्पाल, ग्रह, नक्षत्र आदि भी ब्रह्माण्डमें विद्यमान रहते हैं। पृथ्वीपर चार वर्णके लोग और उसके नीचे पाताललोकमें नाग रहते हैं; इस प्रकार ब्रह्माण्डमें चराचर प्राणी विद्यमान हैं । ll 16-183 ।।
  • तदनन्तर उस विराट्स्वरूप बालक ने बार-बार ऊपर की ओर देखा; किंतु उस गोलाकार पिण्डमें शून्यके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं था। तब वह चिन्तित हो उठा और भूखसे व्याकुल होकर बार बार रोने लगा ॥ 19-20 ॥
  • चेतनायें आकर जब उसने परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान किया तब उसे सनातन ब्रह्मज्योतिके दर्शन हुए।नवीन मेघके समान श्याम वर्ण, दो भुजाओंवाले, पीताम्बर धारण किये, मुसकानयुक्त, हाथमें मुरली धारण किये, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये व्याकुल पिता परमेश्वरको देखकर वह बालक प्रसन्न होकर हँस पड़ा । ll 21-22॥
  • तब वरके अधिदेव प्रभुने उसे यह समयोचित वर प्रदान किया- हे वत्स! तुम मेरे समान ही ज्ञानसम्पन्न, भूख-प्यास से रहित तथा प्रलयपर्यन्त असंख्य ब्रह्माण्डके आश्रय रहो। तुम निष्काम, निर्भय तथा सभीको वर प्रदान करनेवाले हो जाओ; जरा, मृत्यु, रोग, शोक, पीडा आदिसे रहित हो जाओ ।। 23 - 25 ॥
  • ऐसा कहकर उसके कानमें उन्होंने वेदोंके प्रधान अंगस्वरूप श्रेष्ठ षडक्षर महामन्त्रका तीन बार उच्चारण किया। आदिमें प्रणव तथा इसके बाद दो अक्षरोंवाले कृष्ण शब्दमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें स्वाहासे संयुक्त यह परम अभीष्ट मन्त्र (ॐ कृष्णाय स्वाहा ) सभी विघ्नोंका नाश करनेवाला है ।। 26-27 ॥
  • मन्त्र देकर प्रभुने उसके आहारकी भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोकमें वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णुका होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुषके होते हैं ।। 28-29 ॥
  • उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्णको तो नैवेद्यसे कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं । 30-31 ॥
  • उस बालकको श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करके प्रभुने उससे पुनः पूछा कि तुम्हें दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, उसे मुझे बताओ; मैं देता हूँ। श्रीकृष्णकी बात | सुनकर बालकरूप उन विराट् प्रभुने कृष्ण से समयोचित बात कही ll32-33 ll
  • बालक बोला- मेरा वर है आपके चरणकमलमें | मेरी अविचल भक्ति आयुपर्यन्त निरन्तर बनी रहे। मेरी आयु चाहे क्षणभरकी ही हो या अत्यन्त दीर्घ । इस | लोकमें आपकी भक्तिसे युक्त प्राणी जीवन्मुक्त ही है। | और जो आपकी भक्तिसे रहित है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरेके समान है ।। 34-35 ॥
  • उस जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य तथा तीर्थसेवनसे क्या लाभ है; जो आपकी भक्तिसे रहित है। कृष्णभक्तिसे रहित मूर्खका जीवन ही व्यर्थ है जो कि वह उस परमात्माको ही नहीं भजता, | जिसके कारण वह जीवित है ॥ 36-37 ॥
  • जबतक आत्मा शरीरमें है, तभीतक प्राणी शक्ति सम्पन्न रहता है। उस आत्माके निकल जानेके बाद वे सारी शक्तियाँ स्वतन्त्र होकर चली जाती हैं ॥ 38 ॥
  • हे महाभाग ! वे आप सबकी आत्मारूप हैं तथा प्रकृतिसे परे हैं। आप स्वेच्छामय, सबके आदि, सनातन तथा ब्रह्मज्योतिस्वरूप हैं ॥ 39 ॥
  • हे नारदजी ! यह कहकर वह बालक चुप हो गया। तब श्रीकृष्णने मधुर और कानोंको प्रिय लगनेवाली वाणीमें उसे प्रत्युत्तर दिया ॥ 40 ॥
  • श्रीकृष्ण बोले- तुम बहुत कालतक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ। असंख्य ब्रह्माके नष्ट होनेपर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें तुम अपने अंशसे क्षुद्रविराट्रूपमें स्थित रहोगे। तुम्हारे नाभिकमलसे उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्वका सृजन करनेवाले होंगे। सृष्टिके संहारकार्यक लिये ब्रह्माके ललाटमें शिवांशसे वे ग्यारह रुद्र प्रकट होंगे। उनमेंसे एक कालाग्नि नामक रुद्र विश्वका संहार करनेवाले होंगे। तत्पश्चात् विश्वका पालन करनेवाले भोक्ता विष्णु भी रुद्रांशसे प्रकट होंगे। मेरे वरके प्रभावसे तुम सदा ही मेरी भक्तिसे युक्त रहोगे। तुम मुझ परम सुन्दर [जगत्पिता) तथा मेरे वक्ष:स्थलमें निवास करनेवाली मनोहर जगन्माताको ध्यानके द्वारा निश्चितरूपसे निरन्तर देख सकोगे। हे वत्स! अब तुम यहाँ रहो, मैं अपने लोकको जा रहा हूँ-ऐसा कहकर वे प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। अपने लोकमें जाकर उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको सृष्टि करनेके लिये तथा [संहारकर्ता] शंकरजीको संहार करनेके लिये आदेश दिया । 41-47 ll
  • श्रीभगवान् बोले- हे वत्स ! सृष्टिकी रचना करनेके लिये जाओ हे विधे! सुनो, महाविराट्के एक रोमकूपमें स्थित क्षुद्रविराट्के नाभिकमलसे प्रकटहोओ। हे वत्स! (हे महादेव !) जाओ, अपने अंशसे ब्रह्माके ललाटसे प्रकट होओ। हे महाभाग ! स्वयं भी दीर्घ कालतक तपस्या करो ।। 48-49 ।।
  • हे ब्रह्मपुत्र नारद! ऐसा कहकर जगत्पति श्रीकृष्ण चुप हो गये। तब उन्हें नमस्कार करके ब्रह्मा तथा कल्याणकारी शिवजी चल पड़े ॥ 50 ॥
  • महाविराट्के रोमकूपमें स्थित ब्रह्माण्डगोलकके जलमें वे विराट्पुरुष अपने अंशसे ही अब क्षुद्रविराट् पुरुषके रूपमें प्रकट हुए। श्याम वर्ण, युवा, पीताम्बर धारण किये वे विश्वव्यापी जनार्दन जलकी शय्यापर शयन करते हुए मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उनका मुखमण्डल प्रसन्नतासे युक्त था ॥ 51-52 ॥
  • उनके नाभिकमलसे ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्डमें एक लाख युगोंतक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनालके अन्ततक नहीं जा सके, [ हे नारद!]तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।। 53-54॥
  • तब अपने पूर्वस्थानपर आकर उन्होंने श्रीकृष्णके चरणकमलका ध्यान किया। तत्पश्चात् ध्यानद्वारा दिव्य चक्षुसे उन्होंने ब्रह्माण्डगोलकमें आप्लुत जलशय्यापर शयन करते हुए उन क्षुद्रविराट् पुरुषको देखा, साथ ही जिनके रोमकूपमें ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट् पुरुषको तथा उनके भी परम प्रभु श्रीकृष्णको और गोप-गोपियोंसे समन्वित गोलोकको भी देखा। तत्पश्चात् श्रीकृष्णकी स्तुति करके उन्होंने उनसे वर प्राप्त किया और सृष्टिका कार्य प्रारम्भ कर दिया ।। 55-57॥
  • सर्वप्रथम ब्रह्माजीके सनक आदि मानस पुत्र उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् शिवकी सुप्रसिद्ध ग्यारह | रुद्रकलाएँ प्रादुर्भूत हुईं। तदनन्तर क्षुद्रविराट्के वामभागसे | लोकोंकी रक्षा करनेवाले चतुर्भुज भगवान् विष्णु प्रकट हुए, वे श्वेतद्वीपमें निवास करने लगे ।। 58-59 ॥
  • क्षुद्रविराट्के नाभिकमलमें प्रकट हुए ब्रह्माजीने सारी सृष्टि रची। उन्होंने स्वर्ग, मृत्युलोक, पाताल, चराचरसहित तीनों लोकोंकी रचना की। इस प्रकार महाविराट्के सभी रोमकूपोंमें एक-एक ब्रह्माण्डकी सृष्टि | हुई। प्रत्येक ब्रह्माण्डमें क्षुद्रविराट्, ब्रह्मा, विष्णु एवंशिव आदि भी हैं। हे ब्रह्मन् ! मैंने श्रीकृष्णका शुभ चरित्र कह दिया, जो सुख और मोक्ष देनेवाला है। हे ब्रह्मन् ! आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ।। 60-62 ॥                                                                                                                        
  • ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्डः४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्यायः ७३
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  • अथ त्रिसप्ततितमोध्यायः                       नारायण उवाच.                                                          
  • अथ कृष्णश्च सानन्दं नन्दं तं पितरं बलः ।बोधयामास शोकार्तं दिव्यैराध्यात्मिकादिभिः ।।१।।
  • उच्चै रुदन्तं निश्चेष्टं पुत्रविच्चेदकातरम् ।दत्त्वा तस्मै मणिश्रेष्ठमित्युवाच जगत्पतिः ।।२।।
  • श्रीभगवानुवाच निबोध नन्द सानन्दं त्यज शोकं मुदं लभ । ज्ञानं गृहाण मद्दत्तं यद्दतं ब्रह्मणे पुरा ।। ३ ।।
  • यद्यद्दत्तं च शोषाय गणेशायेश्वराय च ।दिनेशाय मुनीशाय योगीशाय च पुष्करे।४।
  • कः कस्य पुत्रः कस्तातः का माता कस्यचित्कुतः। आयान्ति यान्ति संसारं परं स्वकृतकर्मणा ।।५।।
  • कर्मानुसाराज्जन्तुश्च जायते स्थानभेदतः ।कर्मणा कोऽपि जन्तुश्च योगीन्द्राणां नृपस्त्रियाम् ।। ६ ।।
  • द्विजापत्न्यां क्षत्रियाणां वैश्यायां शूद्रयोनिषु , तिर्यग्योनिषु कश्चिच्च कश्चित्पश्वादियोनिषु ।। ७ ।।
  • ममैव मायया सर्वे सानन्दा विषयेषु च ।देहत्यामे विषण्णाश्च विच्छेदे बान्धवस्य च ।।८।।
  • प्रजाभूमिधनादीनां विच्छेदो मरणाधिकः।नित्यं भवति मूढश्च न च विद्वाञ्छुचा युतः ।। ९ ।।
  • मद्भक्तो भक्तियुक्तश्च मद्याजी विजितेन्द्रियः । मन्मन्त्रोपासकश्चैव मत्सेवानिरतः शुचिः ।। १० ।।
  • मद्भयाद्वाति वातोऽयं रविर्भाति च नित्यशः । भाति चन्द्रो महेन्द्रश्च कालभेदे च वर्षति ।। ११ ।।
  • वह्निर्वहति मृत्युश्च चरत्येव हि जन्तुषु ।बिभर्ति वृक्षः कालेन पुष्पापि च फलानि च ।। १२ ।।
  • निराधारश्च वायुश्च वाय्वाधारश्च कच्चिपः ।शेषश्च कच्छपाधारः शेषाधारश्च पर्वतः ।। १३ ।।
  • तदाधाराश्च पातालाः सप्त एव हि पङ्क्तितः । निश्चलं च जलं तस्माज्जलस्था च वसुंधरा ।। १४ ।।
  • सप्तस्वर्ग धराधारं ज्योतिश्चकं ग्रहाश्रयम् ।निराधारश्च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डेभ्य: परो वरः ।। १५ ।।
  • तत्परश्चापि गोलोकः पञ्चाशत्को टियोजनात् । ऊर्ध्व निराश्रयश्चापि रत्नसारविनिर्मितः ।। १६ ।।
  • सप्तद्वारः सप्तसारः परिखासप्तसंयुतः ।लक्षप्राकारयुक्तश्च नद्या विरजया युतः ।। १७ ।।
  • वेष्टितो रत्नशैलेन शतशृङ्गेण चारुणा ।योजनायुतमानं च यस्यैकं शृङ्गमुज्ज्वलम् ।। १८ ।।
  • शतकोटियोजनश्च शैल उच्छ्रित एव च । दैर्ध्यं तस्य शतगुणं प्रस्थं च लक्षयोजनम् ।।१९।।
  • योजनायुतविस्तीर्णस्तत्रैव रासमण्डलः ।अमूल्यरत्ननिर्माणो वर्तुलश्चन्द्रबिम्बवतु ।। २० ।।
  • पारिजातवनेनैव पुष्पितेन च वेष्टितः ।कल्पवृक्षसहस्रेण पुष्पोद्यानशतेन च ।। २१।।
  • नानाविधैः पुष्पवृक्षैः पुष्पितेन च चारुणा ।त्रिकोटिरत्नभवनो गोपीलक्षैश्च रक्षितः ।। २२ ।।
  • रत्नप्रदीपयुक्तश्च रत्नतल्पसमन्वितः ।नानाभोगसमायुक्तो सधुवापीशतैर्वृतः ।। २३ ।।
  • पीयूषवापीयुक्तश्च कामभोगसमन्वितः ।गोलोकगृहसंख्यानवर्णने वा विशारदः ।। २४ ।।
  • न कोऽपि वेद विद्वान्वा वेदविद्वान्व्रजेश्वरः । अमूल्यरत्ननिर्माणभवनानां त्रिकोटिभिः ।। २५ ।।
  • शोभितं सुन्दरं रम्यं राधाशिविरमुत्तमम् ।अमूल्यरत्नकलशैरुज्ज्वलं रत्नदर्पणैः ।। २६ ।।
  • असूल्यरत्नस्तमभानां राजिभिश्च विराजितम् । नानाचित्रविचित्रैश्च चित्रितं श्वेतचामरैः ।। २७ ।।
  • माणिक्यमुक्तासंसक्तं हीरावारसमन्वितम् ।रत्नप्रदीपसंसक्तं रत्नसोपानसुन्दरम् ।। २८ ।।
  • अमूल्यरत्नपत्रैश्च तल्पराजिविराजितम् ।अमूल्यरत्नचित्रैश्च त्रिभिश्चित्रविचित्रितैः ।। २९।
  • तिसृभिः परिखाभिश्च त्रिभिर्द्वारैश्च दुर्गमैः ।युक्तं षोडशकक्षाभिः प्रतिद्वारेषु वाऽन्तरम् ।।३०।।
  • गोपीषोडशलक्षैश्च संनियुक्तैरितस्ततः ।वह्निशुद्धांशुकाधानै रत्नभूषणभूषितैः ।। ३१ ।।
  • तप्तकाञ्चनवर्णाभैः शतचन्द्रसमन्वितैः ।राधिकारिंकरीवर्गैर्युक्तमभ्यन्तरं वरम् ।। ३२ ।।
  • अमूल्यरत्ननिर्माणप्रङ्गणं सुमनोहरम् ।अमूल्यरत्नस्तम्भानां समूरैश्च सुशोभितम् ।। ३३ ।।
  • रत्नमङ्गलकुम्भैश्च फलपल्लवसंयुतैः । संयुतं रत्नवेदीभिर्मुक्ता युक्ताभिरीप्सितम् ।। ३४ ।।
  • अमूल्यरत्नमुकुरैः शोभितं सुन्दरैरहो ।अमूल्यरत्ननिर्माणं भवनानां वरं गृहम् ।। ३५ ।।
  • रत्नसिंहासनस्था च गोपीलक्षैश्च सेविता ।कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्या श्वेतचम्पकसंनिभा ।। ३६ ।।
  • अमूल्यरत्ननिर्माणभूषणैश्च विभूषिता ।अमूल्यरत्नवसना बिभ्रती रत्नदर्पणम् ।। ३७ ।।
  • रत्नपद्मं च रुचिरं सव्यदक्षिणहस्ततः ।दाडिम्बकुसुमाकारं सिन्दूरं सुमनोहरम् ।। ३८ ।।
  • सुशोभितं सृगमदैरिष्टैश्चन्दनबिन्दुभिः ।दधती कबरीभारं मालतीमल्यमण्डितम् ।। ३९ ।।
  • रचितं वामभगेन मुनीन्द्राणां मनोहरम् ।एवंभूतं (ता) तत्र राधा गोपीभिः परिसेविता ।। ४० ।।
  • श्वेतचामरहस्ताभिस्तत्तुल्याभिश्च सर्वतः ।अमूल्यरत्ननिर्माणैर्भूषिताभिश्च भूषणैः ।। ४१ ।।
  • मत्प्राणाधिष्ठातृदेवी देवीनां प्रवरा वरा ।सुदाम्नः सा च शापेन वृषभानसुताऽधुना ।। ४२ ।।
  • शताब्दिको हि विच्छेदो भविष्यति मया सह । तेन भारावतरणं करिष्यसि भुवः पितः ।। ४३ ।।
  • तदा यास्यामि गोलोकं तया सार्धं सुनिश्चतम् । त्वया यशोदया चाऽपि गोपैर्गोपीभिरेव च ।। ४४ ।।
  • वृषभानेन तत्पत्न्या कलावत्या च बान्धवैः । एवं च नन्दं सानन्दं यशोदां कथयिष्यसि ।। ४५ ।।
  • त्यज शोक्रं महाभाग व्रजैः सार्धं व्रजं व्रज ।अहमात्मा च साक्षी च निर्लिप्तः सर्वजीविषु ।। ४६ ।।
  • जीवो मत्प्रतिबिम्बश्च इत्येवं सर्वसंमतम् ।प्रकृतिर्मद्विकारा च साऽप्यहं प्रकृतिः स्वयम् ।। ४७ ।।
  • यथा दुग्धे च धावल्यं न तर्योर्भैद एव च ।यथा जले तथा शैत्यं यथा वह्नौ च दाहिका ।। ४८ ।।
  • यथाऽऽकाशे तथा शब्दो भूमौ गन्धो यथा नृप । यथा शोभा च चन्द्रे च यथा दिनकरे प्रभा ।। ४९ ।।
  • यथा दीवस्तथाऽऽत्माहं तथैव राधया सह ।त्यज त्वं गोपिकाबुद्धिं राधायां मयि पुत्रताम् ।।५०।।
  • अहं सर्वस्य प्रभावः सा च प्रकृतिनीश्वरी ।श्रूयतां नन्द सानन्दं मद्विभूतिं सुखावहाम् ।। ५१ ।।
  • पुरा या कथिता तात ब्रह्मणे व्यक्तजन्मने ।कृष्णोऽहं देवतानां च गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।। ५२ ।।
  • चतुर्भुजोऽहं वैकुण्ठे शिवलोके शिवः स्वयम् ।ब्रह्मलोके च ब्रह्माऽहं सूयस्तेजस्विनामहम् ।। ५३ ।।
  • पवित्राणामहं वह्निर्जलमेव द्रवेषु च ।इन्द्रियाणां मनश्चास्मि समीरः शीघ्रगामिनाम् ।। ५४ ।।
  • यमोऽहं दण्डकर्त णां कालः कलयतामहम् ।अक्षराणामकारोऽस्मि साम्नां च साम एव च ।। ५५ ।।
  • इन्द्रश्चतुर्दशेन्द्रेषु कुबेरो धनिनामहम् ।ईशानोऽहं दिमीशानां व्यापकानां नभस्तथा ।। ५६ ।।
  • सर्वान्तरात्मा जीवेषु ब्राह्मणश्चाऽऽश्रमेषु च ।धनानां च रत्नमहममूल्यं सर्वदुर्लभम् ।। ५७ ।।
  • तैजसानां सुवर्णोऽहं मणीनां कौस्तुभः स्वयम् ।वैष्णवानां कुमारोऽहं योगीन्द्राणां गणेश्वरः ।। ५८ ।।
  • पुष्पाणां पारिजातोऽहं तीर्थानां पुष्करः स्वयम् । शालग्रामस्तथाऽर्च्यानां पत्राणां तुलसीति च ।। ५९ ।।
  • सेनापतीनां स्कन्दोऽहं लक्ष्मणोऽहं धनुष्मताम् । राजेन्द्राणां च रामोऽहं नक्षत्राणामहं शशी ।। ६० ।।
  • मासानां मर्गशीर्षोऽहमृतूनामस्मि माधवः ।वारेष्वादित्यवारोऽहं तिथिष्वेकादशीति च ।। ६१ ।।
  • सहिष्णूनां च पृथिवी माताऽहं बान्धवेषु च । अमृतं भक्ष्यवस्तूनां गव्येष्वाज्यमहं तथा ।। ६२ ।।
  • कल्पवृक्षश्च वृक्षाणां सुरभिः कामधेनुषु ।गङ्गाऽहं सरितां मध्ये कृतपापविनाशिनी ।। ६३ ।।
  • वाणीति पण्डितानां च मन्त्राणां प्रणवस्तथा । विद्यासु बीजरूपोऽहं सस्यानां धान्यमेव च ।। ६४ ।।
  • अश्वत्थः फलिनामेव गुरूणां मन्त्रदः स्वयम् । कश्यपश्च प्रजेशानां गरुडः पक्षिणां तथा ।। ६५ ।।
  • अनन्तोऽहं च नागानां नराणां च नराधिपः ।ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं देवर्षीणां च नारदः ।। ६६ ।।
  • राजर्षीणां च जनको महर्षीणां शुकस्तथा ।गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनीः ।। ६७ ।।
  • बृहस्पतिर्बुद्धिमतां कवीनां शुक्र एव च ।ग्रहाणां च शनिरहं विश्वकर्मा च शिल्पिनाम् ।। ६८ ।।
  • मृगाणां च मृगेन्दोऽहं वृषाणां शिववाहनम् । ऐरावतो गजेन्द्राणां गायत्री छन्दसामहम् ।। ६९ ।।                                             ___________________     
  • वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् 
  • ________________________
  • । उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।। ७० ।।
  • सुमेरुः पर्वतानां च रत्नवत्सु हिमालयः ।दुर्गा च प्रकृतीनां च देवीनां कमलालया ।। ७१ ।।
  • शतरूपा च नारीणां मत्प्रियाणां च राधिका । साध्वीनामपि सावित्री वेदमाता च निश्चितम् ।। ७२ ।।
  • प्रह्लादश्चापि दैत्यानां बलिष्ठानां बलिः स्वयाम् ।नारायणर्षिर्भगवाञ्ज्ञानिनां मध्य एव च ।। ७३ ।।
  • हनुमान्वानराणां च पाण्डवानां धनंजयः ।मनसा नागकन्यानां वसूनां द्रोण एव च ।। ७४ ।।
  • द्रोणो जलधराणां च वर्षाणां भारतं तथा ।कामिनां कामदेवोऽहं रम्भा च कामुकीषु च ।। ७५ ।।
  • गोलोकश्चास्मि लोकानासुत्तमः सर्वतः परः ।मातृकासु शान्तिरहं रतिश्च सुन्दरीषु च ।। ७६ ।।
  • धर्मोऽहं साक्षिणां मध्ये संध्या च वासरेषु च ।देवेष्वहं च माहेन्दो राक्षसेषु विभीषणः ।। ७७ ।।
  • कालाग्निरुद्रो रुद्राणां संहारो भैरवेषु च ।शङ्खेषु पाञ्चजन्योऽहमङ्गेष्वपि च मस्तकः ।। ७८ ।।
  • परं पुराणसूत्रेषु चाहं भागवतं वरम् । भारतं चेतिहासेषु पञ्चरात्रेषु कापिलम् ।। ७९ ।।
  • स्वायंभुवो मनूनां च मुनीनां व्यासदेवकः ।स्वधाऽहं पितृपत्नीषु स्वाहा वङ्निप्रियासु च ।। ८० ।।
  • यज्ञानां नाजसूयोऽहं यज्ञपत्नीषु दक्षिणा ।शस्त्रास्त्रज्ञेषु रामोऽहं जमदग्निसुतो महान् । ८१।
  • पौराणिकेषु सूतोऽहं नीतिमत्स्वङ्गिरा मुनिः ।विष्णुव्रतं व्रतानां च बलानां दैवमेव च ।। ८२ ।।
  • ओषधीनामहं दूर्वा तृणानां कुशमेव च ।धर्मकर्मसु सत्यं च स्नेहपात्रेषु पुत्रकः।८३।
  • अहं व्याधिश्च शत्रूणां ज्वरो व्याधिष्वहं तथा ।मद्भक्तिष्वपि मद्दास्यं वरेषु च वरः स्मृतः ।। ८४ ।।
  • आश्रमाणां गृहस्थोऽहं संन्यासी च विवेकिनाम् ।सुदर्शनं च शस्त्राणां कुशलं च शुभाशिषाम् ।। ८५ ।।
  • एश्वर्याणां महाज्ञानं वैराग्यं च सुखेष्वहम् ।मि (इ)ष्टवाक्यं प्रीतिदेषु दानेषु चाऽऽत्मदानकम् ।। ८६ ।।
  • संचयेषु धर्मकर्म कर्मणां च मदर्चनम् ।कठोरेषु तपश्चाहं फलेषु मोक्ष एव च। ८७।
  • अष्टसिद्धिषु प्राकाम्यमहं काशीपुरीषु च ।नगरेषु तथा काञ्ची स देशो यत्र वैष्णवः। ८८ ।
  • सर्वाधारेषु स्थूलेषु अहमेव महान्विराट् ।परमाणुरहं विश्वे महासूक्ष्मेषु नित्यशः ।। ८९ ।
  • वैद्यानामश्विनीपुत्रौ औषधीषु रसायनम् ।धन्वन्तरीर्मन्त्रविदां विषादः क्षयकारिणाम् ।। ९० ।।
  • रागाणां मेघमल्लारः कामोदस्तत्प्रियासु च । मत्पार्षदेषु श्रीदामा मद्वन्वुष्वहमुद्धवः ।। ९१ ।।
  • पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः । ९२ ।
  • न वैष्णवात्परः प्राणी मन्मन्त्रोपासकश्च यः । वृक्षेष्वङ्कुररूपोऽहमाकारः सर्ववस्तुषु ।। ९३ ।।
  • अहं च सर्वभूतेषु मयि सर्वे च संततम् ।यथा वृक्षे फलान्येव फलेषु चाङ्कुरस्तरोः ।। ९४ ।।
  • सर्वकारणरूपोऽहं न च मत्कारणं परम् ।सर्वेशीऽहं न मेऽपीशो ह्यहं कारणकारणम् ।। ९५ ।।
  • सर्वेषां सर्वबीजानां प्रवदन्ति मनीषिणः ।मन्मायामोहितजना मां न जानन्ति पापिनः ।। ९६ ।।
  • पापग्रस्तेन दुर्बुद्ध्या विधिना वञ्चितेन च ।स्वात्माऽहं सर्वजन्तूनां स्वाम्यहं नादृतः स्वयम् ।। ९७ ।।
  • यत्राहं शक्तयस्तत्र क्षुत्पिपासादयस्तथा ।गते मयि तथा यान्ति नरदेहे (वे) यथाऽनुगाः ।। ९८ ।।
  • हे व्रजेश नन्द तात ज्ञानं ज्ञात्वा व्रजं व्रज ।कथयस्व च तां राधां यशोदां ज्ञानमेव च ।। ९९ ।।
  • ज्ञात्वा ज्ञानं व्रजेशश्च जगाम स्वानुगैः सह ।गत्वा च कथयामास ते द्वे च योषितां वरे ।। १०० ।।
  • ते च सर्वे जहः शोकं महाज्ञानेन नारद ।कृष्णो यद्यपि निर्लिप्तो मायेशो मायया रतः ।। १०१ ।।
  • यशोदया प्रेरितश्च पुनरागत्य माधवम् ।तुष्टाव परमानन्दं नन्दश्च नन्दनन्दनम् ।। १०२ ।।
  • सामवेदोक्तस्तोत्रेण कृतेन ब्रह्मणा पुरा ।पुत्रस्य पुरतः स्थित्वा रुरोद च पुनः पुनः ।। १०३ ।।
  • _____________
  • इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तर नारदनाo नन्दादिणोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । ७३ ।

  • ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 73
  • श्रीकृष्ण का नन्द को अपना स्वरूप और प्रभाव बताना; गोलोक, रासमण्डल और राधा-सदन का वर्णन; श्रीराधा के महत्त्व प्रतिपादन तथा उनके साथ अपने नित्य संबंध का कथन और दिव्य विभूतियों का वर्णन-

  • श्रीनारायण कहते हैं- नारद! तदनन्तर शोक से आतुर और पुत्रवियोग से कातर हो फूट-फूटकर रोते हुए चेष्टाशून्य पिता नन्द को श्रीकृष्ण और बलराम ने आध्यात्मिक आदि दिव्य योगों द्वारा सानन्द समझाना आरंभ किया।
  • श्रीभगवान बोले- बाबा! प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनो। शोक छोड़ो और हर्ष को हृदय में स्थान दो। मैं जो ज्ञान देता हूँ, इसे ग्रहण करो। यह वही ज्ञान है, जिसे पूर्वकाल में मैंने पुष्कर में ब्रह्मा, शेष, गणेश, महेश (शिव), दिनश (सूर्य), मुनीश और योगीश को प्रदान किया था। यहाँ कौन किसका पुत्र, कौन किसका पिता और कौन किसकी माता है ? यह पुत्र आदि का संबंध किस कारण से है? जीव अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित हो इस संसार में आते और परलोक में जाते हैं। कर्म के अनुसार ही उनका विभिन्न स्थानों में जन्म होता है। कोई जीव अपने शुभकर्म से प्रेरित हो योगीन्द्रों के कुल में जन्म लेता है और कोई राज रानियों के पेट से उत्पन्न होता है। कोई ब्रह्माणी, क्षत्रिया, वैश्या अथवा शूद्राओं के गर्भ से जन्म ग्रहण करता है; किसी-किसी की उत्पत्ति पशु, पक्षी आदि तिर्यक योनियों में होती है। सब लोग मेरी ही माया से विषयों में आनन्द लेते हैं और देहत्याग काल में विषाद करते हैं। बान्धवों के साथ बिछोह होने पर भी लोगों को बड़ा कष्ट होता है। संतान, भूमि और धन आदि का विच्छेद मरण से भी अधिक कष्टदायक प्रतीत होता है। मूढ़ मनुष्य ही सदा इस तरह के शोक से ग्रस्त होता है; विद्वान पुरुष नहीं। जो मेरा भक्त है, मेरे भजन में लगा है, मेरा यजन करता है, इंद्रियों को वश में रखता है, मेरे मंत्र का उपासक है और निरंतर मेरी सेवा में संलग्न रहता है; वह परम पवित्र माना गया है। मेरे भय से ही यह वायु चलती है, सूर्य और चंद्रमा प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं, इंद्र भिन्न-भिन्न समयों में वर्षा करते हैं, आग जलाती है और मृत्यु सब जीवों में विचरती है।
  • मेरा भय मानकर ही वृक्ष समयानुसार पुष्प और फल धारण करता है। वायु बिना किसी आधार के चलती है। वायु के आधार पर कच्छप, कच्छप के आधार पर शेष और शेष के आधार पर पर्वत टिके हुए हैं। पंक्तिबद्ध विद्यमान सात पाताल पर्वतों के सहारे स्थित हैं।
  • पातालों से जल सुस्थिर है और जल के
  • ऊपर पृथ्वी टिकी हुई है। 
  • पृथ्वी सात स्वर्गों की आधारभूमि है।           
  • ज्योतिश्चक्र अथवा नक्षत्रमण्डल ग्रहों के आधार पर स्थित हैं; परंतु वैकुण्ठ बिना किसी आधार के ही प्रतिष्ठित है। वह समस्त ब्रह्माण्डों से परे तथा श्रेष्ठ है। उससे भी परे गोलोकधाम है।  
  • वह वैकुण्ठधाम से पचास करोड़ योजन
  • ऊपर बिना आधार के स्थित है।
  • उसका निर्माण दिव्य चिन्मय रत्नों के सारतत्त्व से
  • हुआ है। उसका सात दरवाजे हैं।
  •  सात सार हैं। वह सात खाइयों से घिरा हुआ है। 
  • उसका चारों ओर लाखो परकोटे हैं। 
  • वहाँ विरजा नदी बहती है।
  •  वह लोक मनोहरा रत्नमय पर्वत शतश्रृंग से आवेष्टित है।
  •  

  • श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 73 शतश्रृंग का एक-एक उज्ज्वल शिखर दस-दस हजार योजन लंबा-चौड़ा है। वह पर्वत करोड़ो योजन ऊँचा है। उसकी लंबाई उससे सौगुनी है और चौड़ाई एक लाख योजन है। उसी धाम में बहुमूल्य दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित चंद्रमण्डल के समान गोलाकार रासमण्डल है; जिसका विस्तार दस हजार योजन है। वह फूलों से लदे हुए पारिजात वन से, एक सहस्र कल्पवृक्षों से और सैकड़ों पुष्पोद्यानों से घिरा हुआ है। वे पुष्पोद्यान नाना प्रकार के पुष्प संबंधी वृक्षों से युक्त होने के कारण फूलों से भरे रहते हैं; अतएव अत्यंत मनोहर प्रतीत होते हैं। उस रासमण्डल में तीन करोड़ रत्ननिर्मित भवन हैं, जिनकी रक्षा में कई लाख गोपियाँ नियुक्त हैं। वहाँ रत्नमय प्रदीप प्रकाश देते हैं। प्रत्येक भवन में रत्ननिर्मित शय्या बिछी हुई है। नाना प्रकार की भोग सामग्री संचित है। रासमण्डल के सब ओर मधु की सैकड़ों बावलियाँ हैं। वहाँ अमृत की भी बावलियाँ हैं और इच्छानुसार भोग के सभी साधन उपलब्ध हैं। गोलोक में कितने गृह हैं, यह कौन बता सकता है? वहाँ केवल राधा का जो सुन्दर, रमणीय एवं उत्तम निवास-मंदिर है, वह बहुमूल्य रत्ननिर्मित तीन करोड़ भव्य भवनों से शोभित है। जिनकी कीमत नहीं आँकी जा सकती, ऐसे रत्नों द्वारा निर्मित चमकीले खम्भों की पंक्तियाँ उस राधा भवन को प्रकाशित करती हैं। वह भवन नाना प्रकार के विचित्र चित्रों द्वारा चित्रित है। अनेक श्वेत चामर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। माणिक्य और मोतियों से जटित, हीरे के हारों से अलंकृत तथा रत्नमय प्रदीपों से प्रकाशित राधामंदिर रत्नों की बनी हुई सीढ़ियों से अत्यंत सुन्दर जान पड़ता है। बहुमूल्य रत्नों के पात्र और शय्याओं की श्रेणियाँ उस भवन की शोभा बढ़ाती हैं। तीन खाइयों, तीन दुर्गम द्वारा और सोलह कक्षाओं से युक्त राधा भवन के प्रत्येक द्वार पर और भीतर नियुक्त हुई सोलह लाख गोपियाँ इधर-उधर घूमती रहती हैं। उन सबके शरीर पर अग्रि शुद्ध दिव्य वस्त्र शोभा पाते हैं। वे रत्नमय अलंकारों से अलंकृत हैं। उनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान उद्भासित होती है। वे शत-शत चंद्रमाओं की मनोरम आभा से संपन्न हैं। राधिका के किंकर भी ऐसे ही इतने ही हैं। इन सबसे भरा हुआ उस भवन का अंतःपुर बड़ा सुंदर लगता है। उस भवन का आँगन बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित है। वह राधा भवन अत्यंत मनोहर, अमूल्य रत्नमय खम्भों के समुदाय से सुशोभित, फल-पल्लव संयुक्त, रत्ननिर्मित मंगल कलशों से अलंकृत और रत्नमयी वेदिकाओं से विभूषित है। सुंदर एवं बहुमूल्य रत्नमय दर्पण उसकी शोभा बढ़ाते हैं। अमूल्य रत्नों से निर्मित वह सुंदर सदन सब भवनों में श्रेष्ठ हैं। वहाँ श्रीराधारानी रत्नमय सिंहासन पर विराजमान होती हैं। लाखों गोपियाँ उनकी सेवा में रहती हैं। वे करोड़ों पूर्ण चंद्रमाओं की शोभा से संपन्न हैं। श्वेत चम्पा के समान उनकी गौर कान्ति है। वे बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित आभूषणों से विभूषित हैं। अमूल्य रत्नजटित वस्त्र पहने, बायें हाथ में रत्नमय दर्पण तथा दाहिने में सुंदर रत्नमय कमल धारण करती हैं। उनके ललाट में अनार के फूल की भाँति लाल और अत्यंत मनोहर सिन्दूर शोभित होता है। उसके साथ ही कस्तूरी और चंदन के सुन्दर बिंदु भी भालदेश का सौंदर्य बढ़ाते हैं।

  • ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 73 वे सिर पर बालों का चूड़ा धारण करती हैं, जो मालती की माला से अलंकृत होता है। ऐसी राधा गोलोक में गोपियों द्वारा सेवित होती हैं। उनकी सेवा में रहने वाली गोपियाँ भी उन्हीं के समान हैं। वे हाथ में श्वेत चँवर लिये रहती हैं और बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित आभूषणों से विभूषित होती हैं। समस्त देवियों में श्रेष्ठ वे राधा ही मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे सुदाम के शाप से इस समय भूतल पर वृषभानुनन्दिनी के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। मेरे साथ उनका अब सौ वर्षं तक वियोग रहेगा। पिता जी! इन्हीं सौ वर्षों की अवधि में मैं भूतल पर भार उतारूँगा। तदनन्तर निश्चय ही श्रीराधा, तुम, माता यशोदा, गोप, गोपीगण, वृषभानु जी, उनकी पत्नी कलावती तथा अन्य बान्धवजनों के साथ मैं गोलोक को चलूँगा। बाबा! यही बात तुम प्रसन्नतापूर्वक मैया यशोदा से भी कह देना। महाभाग! शोक छोड़ो और व्रजवासियों के साथ व्रज को लौट जाओ। मैं सबका आत्मा और साक्षी हूँ। संपूर्ण जीवधारियों के भीतर रहकर उनके निर्लिप्त हूँ। जीव मेरा प्रतिबिम्ब है; यही सर्वसम्मत सिद्धांत है। प्रकृति मेरा ही विकार है अर्थात वह प्रकृति भी मैं ही हूँ। जैसे दूध में धवलता होती है। दूध और धवलता में कभी भेद नहीं होता। जैसे जल में शीतलता, अग्नि में दाहिका शक्ति, आकाश में शब्द, भूमि में गन्ध, चंद्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभा और जीव में आत्मा है; उसी प्रकार राधा के साथ मुझको अभिन्न समझो। तुम राधा को साधारण गोपी और मुझे अपना पुत्र न जानो. मैं सबका उत्पादक परमेश्वर हूँ और राधा ईश्वरी प्रकृति है[1]। बाबा! मेरी सुखदायिनी विभूति का वर्णन सुनो, जिसे पहले मैंने अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा जी को बताया था। देवताओं में श्रीकृष्ण हूँ। गोलोक में स्वयं ही द्विभुजरूप से निवास करता हूँ और वैकुण्ठ में चतुर्भुज विष्णुरूप से। शिवलोक में मैं ही शिव हूँ। ब्रह्मलोक में ब्रह्मा हूँ। तेजस्वियों में सूर्य हूँ। पवित्रों में अग्नि हूँ। द्रव-पदार्थों में जल हूँ। इंद्रियों में मन हूँ। शीघ्र गामियों में समीर (वायु) हूँ। दण्ड प्रदान करने वालों में मैं यम हूँ। कालगणना करने वालों में काल हूँ। अक्षरों में आकार हूँ। सामों में साम हूँ, चौदह इंद्रों में इंद्र हूँ। धनियों में कुबेर हूँ। दिक्पालों में ईशान हूँ। व्यापक तत्त्वों में आकाश हूँ। जीवों में सबका अन्तरात्मा हूँ। आश्रमों में ब्रह्मतत्त्वज्ञ संन्यास आश्रम हूँ। धनों में मैं सर्वदुर्लभ बहुमूल्य रत्न हूँ। तैजस पदार्थों में सुवर्ण हूँ। मणियों में कौस्तुभ हूँ। पूज्य प्रतिमाओं में शालग्राम तथा पत्तों में तुलसीदल हूँ। फूलों में पारिजात, तीर्थों में पुष्कर, वैष्णवों में कुमार योगीन्द्रों में गणेश, सेनापतियों में स्कन्द, धनुर्धरों में लक्ष्मण, राजेंद्रों में राम, नक्षत्रों में चंद्रमा, मासों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसन्त, दिनों में रविवार, तिथियों में एकादशी, सहनशीलों में पृथ्वी, बान्धवों में माता, भक्ष्य वस्तुओं में अमृत, गौ से प्रकट होने वाले खाद्यपदार्थों में घी, वृक्षों में कल्पवृक्ष, कामधेनुओं में सुरभि, नदियों में पापनाशिनी गंगा, पण्डितों में पाण्डित्यपूर्ण वाणी, मंत्रों में प्रणव, विद्याओं में उनका बीजरूप तथा खेत में पैदा होने वाली वस्तुओं में धान्य हूँ।



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  • फलवान वृक्षों में पीपल, गुरुओं में मन्त्रदाता गुरु, प्रजापतियों में कश्यप, पक्षियों में गरुड़, नागों में अनन्त (शेषनाग), नरों में नरेश, ब्रह्मर्षिओं में भृगु, देवर्षियों में नारद, राजर्षियों में जनक, महर्षियों में शुक, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिलमुनि, बुद्धिमानों में बृहस्पति, कवियों में शुक्राचार्य, ग्रहों में शनि, शिल्पियों में विश्वकर्मा, मृगों में मृगेंद्र, वृषभों में शिववाहन नन्दी, गजराजों में ऐरावत, छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण,
  • ______________________
  •  अप्सराओं में उर्वशी,
  • ____________     
  •  समुद्रों में जलनिधि, पर्वतों में सुमेरु, रत्नवान शैलों में हिमालय, प्रकृतियों में देवी पार्वती तथा देवियों में लक्ष्मी हूँ।

  • मैं नारियों में शतरूपा, अपनी प्रियतमाओं में राधिका तथा साध्वी स्त्रियों में निश्चय ही वेदमाता सावित्री हूँ। दैत्यों में प्रह्लाद, बलिष्ठों में बलि, ज्ञानियों में भगवान नारायण ऋषि, वानरों में हनुमान, पाण्डवों में अर्जुन, नागकन्याओं में मनसा, वसुओं में द्रोण, बादलों में द्रोण, जम्बूद्वीप के नौ खण्डों में भारत वर्ष, कामियों में कामदेव, कामु की स्त्रियों में रम्भा और लोकों में गोलोक हूँ, जो समस्त लोकों में उत्तम और सबसे परे हैं। मातृकाओं में शान्ति, सुंदरियों में रति, साक्षियों में धर्म, दिन के क्षणों में संध्या, देवताओं में इंद्र, राक्षसों में विभीषण, रुद्रों में कालाग्निरुद्र, भैरवों में संहारभैरव, शंखों में पाञ्चजन्य, अंगों में मस्तक, पुराणों में भागवत, इतिहास में महाभारत, पाञ्चरात्रों में कापिल, मनुओं में स्वायम्भुव, मुनियों में व्यासदेव, पितृ पत्नियों में स्वधा, अग्निप्रियाओं में स्वाहा, यज्ञों में राजसूय, यज्ञपत्नियों में दक्षिणा, अस्त्र-शस्त्रज्ञों में जन्मदग्निन्दन महात्मा परशुराम पौराणिकों में सत, नीतिज्ञों में अंगिरा, व्रतों में विष्णुव्रत, बलों में दैवबल, औषधियों में दूर्वा, तृणों में कुश, धर्मकर्मों में सत्य, स्नेहपात्रों में पुत्र, शत्रुओं में व्याधि, व्याधियों में ज्वर, मेरी भक्तियों में दास्य-भक्ति, वरों में वर, आश्रमों में गृहस्थ, विवेकियों में संन्यासी, शस्त्रों में सुदर्शन और शुभाशीर्वादों में कुशल हूँ।

  • ऐश्वर्यो में महाज्ञान, सुखों में वैराग्य, प्रसन्नता प्रदान करने वालों में मधुर वचन, दानों में आत्मदान, संचयों में धर्म कर्म का संचय, कर्मों में मेरा पूजन, कठोर कर्मों में तप, फलों में मोक्ष, अष्ट सिद्धियों में प्राकाम्य, पुरियो में काशी, नगरों में काञ्ची, देशों में वैष्णवों का देश और समस्त स्थूल आधारों में मैं ही महान विराट् हूँ। जगत में जो अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ हैं; उनमें मैं परमाणु हूँ। वैद्यों में अश्विनीकुमार, भेषजों में रसायन, मंत्रवेत्ताओं में धन्वन्तरि, विनाशकारी दुर्गुणों में विषाद, रागों में मेघ-मलार, रागिनियों में कामोद, मेरे पार्षदों में श्रीदामा, मेरे बन्धुओं में उद्धव, पशुजीवों में गौ, वनों में चन्दन, पवित्रों में तीर्थ और निःशंकों में वैष्णव हूँ; वैष्णव से बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है।

  •  विशेषतः वह जो मेरे मंत्र की उपासना करता है, सर्वश्रेष्ठ है। मैं वृक्षों में अंकुर तथा संपूर्ण वस्तुओं में उनका आकार हूँ। समस्त भूतों में मेरा निवास है, मुझमे सारा जगत फैला हुआ है।



  • ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 73 जैसे वृक्ष में फल और फलों में वृक्ष का अंकुर है, उसी प्रकार मैं सबका कारण रूप हूँ; मेरा कारण दूसरा नहीं है। मैं सबका ईश्वर हूँ; मेरा ईश्वर दूसरा कोई नहीं है। मैं कारण का भी कारण हूँ। मनीषी पुरुष मुझे ही सबके समस्त बीजों का परम कारण बताते हैं। मेरी माया से मोहित हुए पापीजन मुझे नहीं जान पाते हैं। मैं सब जन्तुओं का आत्मा हूँ; परंतु दुर्बुद्धि और दुर्भाग्य से वञ्चित पापग्रस्त जीव मुझ अपने आत्मा का भी आदर नहीं करते। जहाँ मैं हूँ, उसी शरीर में सब शक्तियाँ और भूख-प्यास आदि हैं; मेरे निकलते ही सब उसी तरह निकल जाते हैं, जैसे राजा के पीछे-पीछे उसके सेवक। व्रजराज नन्द जी! मेरे बाबा! इस ज्ञान को हृदय में धारण करके व्रज को जाओ और राधा तथा यशोदा मैया को इसका उपदेश दो। इस ज्ञान को भलीभाँति समझकर नन्द जी अपने अनुगामी व्रजवासियों के साथ व्रज को लौट गये। वहाँ जाकर उन्होंने उन दोनों नारी शिरोमणियों से उस ज्ञान की चर्चा की। नारद! वह महाज्ञान पाकर सब लोगों ने अपना शोक त्याग दिया। श्रीकृष्ण यद्यपि निर्लिप्त हैं, तथापि माया के स्वामी हैं; इसलिए माया से अनुरक्त जान पड़ते हैं। यशोदा जी ने पुनः नन्दराय जी को माधव के पास भेजा। उनकी प्रेरणा से फिर आकर नन्द जी ने ब्रह्मा जी के द्वारा किए गये सामवेदोक्त स्तोत्र से परमानन्दस्वरूप नन्दनन्दन माधव की स्तुति की। तत्पश्चात वे पुत्र के सामने खड़े हो बार-बार रोदन करने लगे।



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    व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन

    महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 81 में व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

    व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन

    गौऐं दिव्य एवं महान तेज हैं। उनके दान की प्रशंसा की जाती है। जो सत्पुरुष मात्सर्य का त्याग करके गौओं का दान करते हैं, वे पुण्यात्मा कहे गये हैं। वे सम्पूर्ण दानों के दाता माने गये हैं। निष्पाप शुकदेव। उन्हें पुण्यमय गोलोक की प्राप्ति होती है। द्विजश्रेष्ठ! गोलोक के सभी वृक्ष मधुर एवं सुस्वादु फल देने वाले हैं। वे दिव्य फल-फूलों से सम्पन्न होते हैं। उन वृक्षों के पुष्प दिव्य एवं मनोहर गंध से युक्त होते हैं। वहाँ की भूमि मणिमयी है। वहाँ बालू का कांचनचूर्ण रूप है। उस भूमि का स्पर्श सभी ऋतुओं में सुखद होता है। वहाँ धूल और कीचड़ नाम भी नहीं है। वह भूमि सवर्था मंगलमयी है।[1]

    वहाँ के जलाशय लाल कमल वनों से तथा प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान मणिजनित सुवर्णमय सोपानों से सुशोभित होते हैं। वहाँ की भूमि कितने ही सरावरों से शोभा पाती है। उन सरावरों में नीलोत्पल मिश्रित बहुत से कमल खिले रहते हैं। उन कमलों के दल बहुमूल्य मणि में होते हैं और उनके केसर अपनी सुवर्णमयी प्रभा से प्रकाशित होते हैं। उस लोक में बहुत-सी नदियां हैं, जिनके तटों पर खिले हुए कनेरों के वन तथा विकसित संतानक (कल्पवृक्ष विशेष) के वन एवं अनान्य वृक्ष उनकी शोभा वढाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भाग में सहस्रों आवर्तों से घिरे हुए हैं। उन नदियों के तटों पर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं। कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभाग के द्वारा उन नदियों के जल में प्रविष्‍ट दिखाई देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत से वृक्ष प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होते हैं। वहाँ सोने पर्वत तथा मणि और रत्नों के शैल समूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊंचे तथा सर्व रत्नमय शिखरों से सुशोभित होते हैं। भरतश्रेष्ठ। वहाँ के वृक्षों में सदा ही फूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियों से भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलों में दिव्य सुगंध और दिव्य रस होते हैं। युधिष्ठिर! वहाँ पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित, पूर्ण काम एवं सफल मनोरथ होते हैं।

    गौओं की महत्ता का वर्णन

    भरतनन्दन! वहाँ के यशस्‍वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ठ विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। राजन! उनके साथ सुन्दर अप्सराऐं क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर! गोदान करके मनुष्य इन्हीं लोकों में जाते हैं। नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और वलवान वायु जिन लोकों के अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकों के एश्‍वर्य पर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकों में जाता है। गौऐं युगन्धरा एवं स्वरूपा, बहुरूपा, विश्‍वरूपा तथा सबकी माताऐं हैं। शुकदेव। मनुष्य संयम-नियम के साथ रहकर गौओं के इन प्रजापति कथित नामों का प्रतिदिन जप करे। जो पुरुष गौओं की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौऐं उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं। गौओं के साथ मन से कभी द्रोह न करें, उन्हें सदा सुख पहुँचाऐं उनका यथोचित सत्कार करें और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करते रहें। जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त्त होकर नित्य गौओं की सेवा करता है, वह समृद्धि का भागी होता है। मनुष्य तीन दिनों तक गरम गोमूत्र पीकर रहे, फिर तीन दिनों तक गरम गोदुग्ध पीकर रहे। गरम गोदुग्ध पीने के पश्चात तीन दिनों तक गरम-गरम गोघृत पीयें। तीन दिन तक गरम घी पीकर फिर तीन दिनों तक वह वायु पीकर रहे। देवगण भी जिस पवित्र घृत के प्रभाव से उत्तम-उत्तम लोक का पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं में सबसे बढ़कर पवित्र है, उससे घृत को शिरोधार्य करें। गाय के घी के द्वारा अग्नि में आहुति दें। घृत की दक्षिणा देकर ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन करायें। घृत भोजन करें तथा गौ घृत का ही दान करें। ऐसा करने से मनुष्य गौओं की समृद्धि एवं अपनी पुष्टि का अनुभव करता है।[2]                  

    टीका टिप्पणी और संदर्भ

    1. ↑ इस तक ऊपर जायें:1.0 1.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 1-20
    2. ऊपर जायें महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47

    कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
    वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥
    स्कन्दपुराण- नागर खण्ड अध्याय-१९२

    वासुदेवमनाराध्य को हि मोक्षमवाप्स्यति।
    यद्रूपं मनसा ग्राह्यं यद्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः ।३८।

    कन्यामभिलषन्ति स्म ततो ब्रह्मा उवाच ह।
    वासुदेव त्वमेवैनां मया दत्तां गृहाण वै।६५।

    प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्।
    विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।

    वासुदेव विशेषण कृष्ण का पैत्रिक नाम है वसुदेव+अण्= वासुदेव वसुदेवस्यापत्यमिति ।  वसुदेव +“ ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च । “  ४ ।  १ ।  ११४ । इति अण् ।  यद्वा   सर्व्वत्रासौ वसत्यात्मरूपेण विश्वम्भरत्वादिति ।  वस् + बाहुलकात् उण् वासुः ।  वासुश्चासौ देवश्चेति कर्म्मधारयः । अस्य नामनिरुक्तिस्तु परतो ज्ञेया । )  श्रीकृष्णः । इत्यमरःकोश।


    माधवीमिति लोकोयमभिधत्ते ततो हि माम्।
    एवं संस्तूयमानस्तु पृथिव्या पृथिवीधरः ४०।
    सामस्वरध्वनिः श्रीमान्जगर्ज परिघर्घरम्।
    ततः समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया महावराहः स्फुटपद्मलोचनः।
    रसातलादुत्पलपत्रसन्निभः समुत्थितो नील इवाचलो महान् ।४१।


    "अनुवाद:-  प्रजापति ब्रह्माने  भेडें  वक्ष से उत्पन्न की  और मुख से अजा ( बकरी) उदर से गाय और भैंस दौनों उत्पन्न सृजित कीं।। १०५

    पद्भ्यां चाश्वान्स मातंगान्रासभान्गवयान्मृगान्।
    उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ।१०६।

    ओषध्यः फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
    त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ नृपोत्तम ।१०७।

    सृष्ट्वा पश्वोषधीस्सम्यक्युयोज स तदाध्वरे।
    गामजं महिषम्मेषमश्वाश्वतरगर्दभान् ।१०८।
    "अनुवाद:-  गाय ,बकरी, भैंस, भेड़ ,अश्व और खच्चर   गदहे पशु भी तथा औषधि को  भी सृष्टि करके ब्रह्मा ने सम्यक् रूप से तब यज्ञ कार्य में जोड़ दिया।१०८।
    __________________________________
    एतान्ग्राम्यपशूनाहुरारण्यांश्च निबोधमे।
    श्वापदो द्विखुरो हस्ती वानरः पञ्चमः खगः ।१०९।

    उष्ट्रकाः पशवष्षष्ठास्सप्तमास्तु सरीसृपाः।
    गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्सोमं रथन्तरम् ।११०।

    अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्
    यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दः स्तोमं पञ्चदशं तथा ।१११।

    बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात्।
    सामानि जगतीच्छन्दः स्तोमं सप्तदशं तथा ।११२।

    वैरूपमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात्।
    एकविंशमथर्वाणमप्तोर्यामाणमेव च ।११३।

    आनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात्।
    उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।११४।

    सुरासुरपितॄन्सृष्ट्वा मनुष्यांश्च प्रजापतिः।
    ततः पुनः ससर्जासौ स कल्पादौ पितामहः ।११५।

    यक्षान्पिशाचान्गंधर्वांस्तथैवाप्सरसां गणान्।
    सिद्धकिन्नररक्षांसि सिंहान्पक्षिमृगोरगान् ।११६।

    अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजंगमम्।
    तत्ससर्ज तदा ब्रह्मा भगवानादिकृद्विभुः ।११७।

    पद्भ्यामन्याः प्रजा ब्रह्मा ससर्ज कुरुसत्तम।
    तमःप्रधानास्ताः सर्वाश्चातुर्वर्ण्यमिदं ततः ।१२९।


    ___________________________________
    वर्णो  की उत्पत्ति ब्रह्मा ने सतयुग में की तो महाभारत में हंस वर्ण का उल्लेख क्या प्रक्षिप्त है

    एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
    भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९॥


    देवीभागवतपुराण  ★ स्कन्धः नवम अध्याय द्वित्तीय -★
         (पञ्चप्रकृतितद्‍भर्तृगणोत्पत्तिवर्णनम्)

                     "नारद उवाच
    समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं प्रभो ।
    विबोधनाय बोधस्य व्यासेन वक्तुमर्हसि ॥१॥

    सृष्टेराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।
    कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदांवर ॥ २॥

    भूता ययांशकलया तया त्रिगुणया भवे।व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥३॥

    तासां जन्मानुकथनं पूजाध्यानविधिं बुध ।
    स्तोत्रं कवचमैश्वर्यं शौर्यं वर्णय मङ्‌गलम्॥४॥

                  "श्रीनारायण उवाच
    नित्य आत्मा नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा ।
    विश्वानां गोलकं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ॥५॥

    तदेकदेशो वैकुण्ठो नम्रभागानुसारकः ।
    तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीला सनातनी।६॥

    यथाग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।
    शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि॥ ७॥

    विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।
    विना मृदा घटं कर्तुं कुलालो हि नहीश्वरः।८॥

    न हि क्षमस्तथात्मा च सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।
    सर्वशक्तिस्वरूपा सा यया च शक्तिमान्सदा॥ ९॥

    ऐश्वर्यवचनः शश्चक्तिः पराक्रम एव च ।
    तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्तिः परिकीर्तिता ॥१०॥

    ज्ञानं समृद्धिः सम्पत्तिर्यशश्चैव बलं भगः ।
    तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा॥ ११॥

    तया युक्तः सदात्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
    स च स्वेच्छामयो देवः साकारश्च निराकृतिः॥ १२॥

    तेजोरूपं निराकारं ध्यायन्ते योगिनः सदा ।
    वदन्ति च परं ब्रह्म परमानन्दमीश्वरम् ॥१३॥

    अदृश्यं सर्वद्रष्टारं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।
    सर्वदं सर्वरूपं तं वैष्णवास्तन्न मन्वते॥१४॥

    वदन्ति चैव ते कस्य तेजस्तेजस्विना विना।
    तेजोमण्डलमध्यस्थं ब्रह्म तेजस्विनं परम्॥ १५॥

    स्वेच्छामयं सर्वरूपं सर्वकारणकारणम् ।
    अतीव सुन्दरं रूपं बिभ्रतं सुमनोहरम् ॥१६।

    किशोरवयसं शान्तं सर्वकान्तं परात्परम् ।
    नवीननीरदाभासधामैकं श्यामविग्रहम् ॥१७।

    शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचनलोचनम् ।
    मुक्ताच्छविविनिन्द्यैकदन्तपंक्तिमनोरमम्॥ १८॥

    मयूरपिच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ।
    सुनसं सस्मितं कान्तं भक्तानुग्रहकारणम् । १९॥

    ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ।
    द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्‍नभूषणभूषितम् ।२०।

    सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ।
    सर्वैश्वर्यप्रदं सर्वस्वतन्त्रं सर्वमङ्‌गलम् ।२१।

    परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धेशं सिद्धिकारकम् ।
    ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वद्देवदेवं सनातनम्।२२।

    जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ।
    ब्रह्मणो वयसा यस्य निमेष उपचर्यते।२३।

    स चात्मा स परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।
    कृषिस्तद्‍भक्तिवचनो नश्च तद्दास्यवाचकः।२४।

    भक्तिदास्यप्रदाता यः स च कृष्णः प्रकीर्तितः 
    कृषिश्च सर्ववचनो नकारो बीजमेव च।२५॥

    स कृष्णः सर्वस्रष्टाऽऽदौ सिसृक्षन्नेक एव च।
    सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः॥२६।

    _______________________________

    स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
    स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ॥२७॥

    तां ददर्श महाकामी कामाधारां सनातनः ।
    अतीव कमनीया च चारुपङ्‌कजसन्निभाम् ॥ २८॥
    चन्द्रबिम्बविनिन्द्यैकनितम्बयुगलां पराम् ।
    सुचारुकदलीस्तम्भनिन्दितश्रोणिसुन्दरीम् ॥ २९॥
    श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् ।
    पुष्पजुष्टां सुवलितां मध्यक्षीणां मनोहराम् ॥ ३०॥
    अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् 
    वह्निशुद्धांशुकाधारां रत्‍नभूषणभूषिताम् ॥ ३१ ॥
    शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्तीं सततं मुदा ।
    कृष्णस्य मुखचन्द्रं च चन्द्रकोटिविनिन्दितम् ॥ ३२ ॥
    कस्तूरीबिन्दुना सार्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।
    समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम् ॥ ३३ ॥
    वक्रिमं कबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ।
    रत्‍नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् ॥ ३४ ॥
    कोटिचन्द्रप्रभामृष्टपुष्टशोभासमन्विताम् ।
    गमनेन राजहंसगजगर्वविनाशिनीम् ॥ ३५ ॥
    दृष्ट्वा तां तु तया सार्धं रासेशो रासमण्डले ।
    रासोल्लासे सुरसिको रासक्रीडाञ्चकार ह ॥ ३६ ॥
    नानाप्रकारशृङ्‌गारं शृङ्‌गारो मूर्तिमानिव ।
    चकार सुखसम्भोगं यावद्वै ब्रह्मणो दिनम् ॥ ३७ ॥

    ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।
    चकार वीर्याधानं च नित्यानन्दे शुभक्षणे ॥ ३८ ॥

    गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत ।
    निःससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः ॥ ३९ ॥

    महाक्रमणक्लिष्टाया निःश्वासश्च बभूव ह ।
    तदा वव्रे श्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् ॥४०।

    स च निःश्वासवायुश्च सर्वाधारो बभूव ह ।
    निःश्वासवायुः सर्वेषां जीविनां च भवेषु च ॥ ४१ ॥

    बभूव मूर्तिमद्वायोर्वामाङ्‌गात्प्राणवल्लभा ।
    तत्पत्‍नी सा च तत्पुत्राः प्राणाः पञ्च च जीविनाम् ॥ ४२ ॥

    प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ च वायवः ।
    बभूवुरेव तत्पुत्रा अधः प्राणाश्च पञ्च च॥४३।

    घर्मतोयाधिदेवश्च बभूव वरुणो महान् ।
    तद्वामाङ्‌गाच्च तत्पत्‍नी वरुणानी बभूव सा ॥ ४४ ॥

    अथ सा कृष्णचिच्छक्तिः कृष्णगर्भं दधार ह ।
    शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्ती ब्रह्मतेजसा ॥ ४५।

    _________________

    कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।
    कृष्णस्य सङ्‌गिनी शश्वत्कृष्णवक्षःस्थलस्थिता ॥ ४६ ॥

    शतमन्वन्तरान्ते च कालेऽतीते तु सुन्दरी ।
    सुषाव डिम्भं स्वर्णाभं विश्वाधारालयं परम् ॥ ४७ ॥

    दृष्ट्वा डिम्भं च सा देवी हृदयेन व्यदूयत ।
    उत्ससर्ज च कोपेन ब्रह्माण्डगोलके जले ॥ ४८ ॥

    दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार ह ।
    शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ॥ ४९ ॥

    यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले च निष्ठुरे ।
    भव त्वमनपत्यापि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ॥ ५० ॥

    या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।
    अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ॥ ५१ ॥

    एतस्मिन्नन्तरे देवी जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।
    आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ॥ ५२ ॥

    श्वेतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।
    रत्‍नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता ।५३।

    अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपो बभूव ह ।
    वामार्धाङ्‌गाच्च कमला दक्षिणार्धाच्च राधिका ॥ ५४ ॥

    एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
    दक्षिणार्धश्च द्विभुजो वामार्धश्च चतुर्भुजः ॥ ५५ ।

    उवाच वाणीं कृष्णस्तां त्वमस्य कामिनी भव 
    अत्रैव मानिनी राधा तव भद्रं भविष्यति ॥ ५६ ॥

    एवं लक्ष्मीं च प्रददौ तुष्टो नारायणाय च ।
    स जगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्धं जगत्पतिः ॥ ५७ ॥

    अनपत्ये च ते द्वे च जाते राधांशसम्भवे ।
    भूता नारायणाङ्‌गाच्च पार्षदाश्च चतुर्भुजाः ॥ ५८ ॥

    तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः ।
    बभूवुः कमलाङ्‌गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः ॥ ५९ ॥

    अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।
    भूताश्चासंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ॥ ६० ॥

    रूपेण च गुणेनैव बलेन विक्रमेण च ।
    प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ॥ ६१ ॥

    राधाङ्‌गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।
    राधातुल्याश्च ताः सर्वा राधादास्यः प्रियंवदाः ॥ ६२ ॥

    रत्‍नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।
    अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् ॥ ६३ ॥

    एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेवता ।
    आविर्बभूव दुर्गा सा विष्णुमाया सनातनी ॥ ६४ ॥

    देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
    बुद्ध्यधिष्ठात्री देवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ६५ ॥

    देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
    परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ॥ ६६ ॥

    तप्तकाञ्चनवर्णाभा कोटिसूर्यसमप्रभा ।
    ईषद्धास्यप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ॥६७।

    नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना ।
    वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषिता।६८ ॥

    यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः ।
    सर्वे विश्वस्थिता लोका मोहिताः स्युश्च मायया ॥ ६९ ॥

    सर्वैश्वर्यप्रदात्री च कामिनां गृहवासिनाम् ।
    कृष्णभक्तिप्रदा या च वैष्णवानां च वैष्णवी ॥ ७० ॥

    मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी ।
    स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीश्च गृहलक्ष्यीर्गृहेषु च ॥७१।

    तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा तु नृपेषु च ।
    या वह्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे ॥ ७२ ॥

    शोभारूपा च चन्द्रे च सा पद्मेषु च शोभना ।
    सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥ ७३ ॥

    यया च शक्तिमानात्मा यया च शक्तिमज्जगत् 
    यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ॥ ७४ ॥

    या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी ।
    स्थितिरूपा वृद्धिरूपा फलरूपा च नारद ॥ ७५ ॥

    क्षुत्पिपासादयारूपा निद्रा तन्द्रा क्षमा मतिः ।
    शान्तिलज्जातुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी ॥ ७६ ॥

    सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुवास ह ।
    रत्‍नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः ॥ ७७।

    एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।
    पद्मनाभेर्नाभिपद्मान्निःससार महामुने ॥ ७८।

    कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः ।
    चतुर्मुखैस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ ७९।

    सा तदा सुन्दरी सृष्टा शतचन्द्रसमप्रभा ।
    वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषणा ॥ ८०।

    रत्‍नसिंहासने रम्ये संस्तूय सर्वकारणम् ।
    उवास स्वामिना सार्धं कृष्णस्य पुरतो मुदा ॥ ८१॥

    एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
    वामार्धाङ्‌गो महादेवो दक्षिणे गोपिकापतिः ॥ ८२ ॥

    शुद्धस्फटिकसंकाशः शतकोटिरविप्रभः ।
    त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्माम्बरो हरः॥८३ ॥


    तप्तकाञ्चनवर्णाभो जटाभारधरः परः ।
    भस्मभूषितगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः।८४ ॥


    दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्पभूषणभूषितः ।
    बिभ्रद्दक्षिणहस्तेन रत्‍नमालां सुसंस्कृताम् ॥ ८५ ॥

    प्रजपन्पञ्चवक्त्रेण ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।
    सत्यस्वरूपं श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८६ ॥

    कारणं कारणानां च सर्वमङ्‌गलमङ्‌गलम् ।
    जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् ॥ ८७ ॥

    संस्तूय मृत्योर्मृत्युं तं यतो मृत्युञ्जयाभिधः ।
    रत्‍नसिंहासने रम्ये समुवास हरेः पुरः ॥ ८८ ॥

     "इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चप्रकृतितद्‍भर्तृगणोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥"


    "सरल हिन्दी अनुवाद:- 
    देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)
    स्कन्ध 9, अध्याय 2 - 
    ____________________
    परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन:-
    __________________    
    नारदजी बोले - हे प्रभो ! देवियोंका सम्पूर्ण चरित्र मैंने संक्षेप में सुन लिया, अब सम्यक् प्रकार से बोध प्राप्त करने के लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ 1॥

    सृष्टिप्रक्रिया में सृष्टि की आद्या देवी का प्राकट्य कैसे हुआ? हे वेदज्ञों में श्रेष्ठ ! वे प्रकृति पुनः पाँच रूपों में कैसे आविर्भूत हुईं; यह बतायें। इस संसार में उन त्रिगुणात्मिका प्रकृति के कलांशोंसे जो देवियाँ उत्पन्न हुईं, उनका चरित्र मैं अब विस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥2-3॥
    ______________________
    हे विज्ञ! उनके जन्म की कथा, उनके पूजा ध्यान की विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य और मंगलमय शौर्यका वर्णन कीजिये ॥ 4 ॥

    श्रीनारायण बोले- जैसे आत्मा नित्य है, आकाश नित्य है, काल नित्य है, दिशाएँ नित्य हैं, ब्रह्माण्डगोलक नित्य है, गोलोक नित्य है तथा उससे थोड़ा नीचे स्थित वैकुण्ठ नित्य है; उसी प्रकार ब्रह्मकी सनातनी लीलाशक्ति प्रकृति भी नित्य है ॥ 5-6 ॥

    जैसे अग्निमें दाहिका शक्ति, चन्द्रमा तथा कमलमें शोभा, सूर्यमें दीप्ति सदा विद्यमान रहती और उससे अलग नहीं होती है; उसी प्रकार परमात्मामें प्रकृति विद्यमान रहती है ॥ 7 ॥

    जैसे बिना स्वर्णके स्वर्णकार कुण्डलादि आभूषणोंका निर्माण करनेमें असमर्थ होता है और बिना मिट्टीके कुम्हार घड़ेका निर्माण करनेमें सक्षम नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके सहयोगके बिना परमात्मा सृष्टिकी रचनामें समर्थ नहीं होता। वे प्रकृति ही सभी शक्तियोंकी अधिष्ठात्री हैं तथा उनसे ही परमात्मा सदा शक्तिमान् रहता है। 8-9 ॥


    'श' ऐश्वर्यका तथा 'क्ति' पराक्रमका वाचक है। जो इनके स्वरूपवाली है तथा इन दोनोंको प्रदान करनेवाली है; उस देवीको शक्ति कहा गया है ॥ 10 ॥
    ____    

    ज्ञान, समृद्धि, सम्पत्ति, यश और बल को 'भग' कहते हैं। उन गुणों से सदा सम्पन्न रहनेके कारण ही शक्ति को भगवती कहते हैं तथा वे सदा भग रूपा हैं। उनसे सम्बद्ध होनेके कारण ही परमात्मा भी भगवान् कहे जाते हैं। वे परमेश्वर अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होनेके कारण साकार और निराकार दोनों रूपों से अवस्थित रहते हैं ।11-12॥


    उस तेजस्वरूप निराकार का योगीजन सदा ध्यान करते हैं तथा उसे परमानन्द, परब्रह्म तथा ईश्वर कहते हैं ॥ 13 ॥ अदृश्य, सबको देखनेवाले, सर्वज्ञ, सबके कारणस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सर्वरूप उस परब्रह्मको वैष्णवजन नहीं स्वीकार करते ॥ 14 ॥

     वे कहते हैं कि तेजस्वी सत्ताके बिना किसका तेज प्रकाशित हो सकता है ? अतः तेजोमण्डलके मध्य अवश्य ही तेजस्वी परब्रह्म विराजते हैं ॥ 15 ॥


    वे स्वेच्छामय, सर्वरूप और सभी कारणों के भी कारण हैं। वे अत्यन्त सुन्दर तथा मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं, वे किशोर अवस्थावाले, शान्तस्वभाव, सभी मनोहर अंगोंवाले तथा परात्पर हैं। वे नवीन मेघ की कान्ति के एकमात्र धामस्वरूप श्याम विग्रहवाले हैं, उनके नेत्र शरद् ऋतुके मध्याह्न में खिले कमलकी शोभा को तिरस्कृत करनेवाले हैं और उनकी मनोरम दन्तपंक्ति मुक्ताकी शोभाको भी तुच्छ कर देनेवाली है ॥ 16-18 ।

    उन्होंने मयूरपिच्छ का मुकुट धारण किया है, उनके गलेमें मालती की माला सुशोभित हो रही है। उनकी सुन्दर नासिका है, उनका मुखमण्डल मुसकानयुक्त तथा सुन्दर है और वे भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। 
    वे प्रज्वलित अग्निके सदृश विशुद्ध तथा देदीप्यमान पीताम्बरसे सुशोभित हो रहे हैं। उनकी दो भुजाएँ हैं, उन्होंने मुरली को हाथ में धारण किया है, वे रत्नोंके आभूषणों से अलंकृत हैं। वे सर्वाधार, सर्वेश, सर्वशक्तिसे युक्त, विभु, सभी प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सब प्रकारसे स्वतन्त्र तथा सर्वमंगलरूप हैं । 19 - 21 ॥
    ________     

     वे परिपूर्णतम सिद्धावस्थाको प्राप्त, सिद्धोंके स्वामी तथा सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले हैं। वे जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भयको दूर करते हैं, ऐसे उन सनातन परमेश्वर का वैष्णवजन सदा ध्यान करते रहते हैं ।। 22ll

    ब्रह्माजीकी आयु जिनके एक निमेषको तुलनामें है, उन परमात्मा परब्रह्मको 'कृष्ण' नामसे पुकारा जाता है। 'कृष्' उनकी भक्ति तथा 'न' उनके दास्यके वाचक शब्द हैं। इस प्रकार जो भक्ति और दास्य प्रदान करते हैं, उन्हें कृष्ण कहा गया है अथवा 'कृष्' सर्वार्थका तथा 'न' कार बीजका वाचक है, अतः श्रीकृष्ण ही आदिमें सर्वप्रपंचके स्रष्टा तथा सृष्टिके एकमात्र बीजस्वरूप हैं। उनमें जब सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके अंशभूत कालके द्वारा प्रेरित होकर स्वेच्छामय वे प्रभु अपनी इच्छासे दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम भागांश स्त्रीरूप तथा दक्षिणांश पुरुषरूष कहा गया है ।। 23-27 ॥
    __________    
    उन [वामभागोत्पन्न ] काम की आधारस्वरूपा को उन सनातन महाकामेश्वर ने देखा। उनका रूप अतीव मनोहर था। वे सुन्दर कमलकी शोभा धारण किये हुए थीं। उन परादेवीका नितम्बयुगल चन्द्रबिम्बको तिरस्कृत कर रहा था और अपने जघन प्रदेशसे सुन्दर कदली स्तम्भको निन्दित करते हुए वे मनोहर प्रतीत हो  रही थीं। शोभामय श्रीफलके आकारवाले स्तनयुगलसे वे मनोरम प्रतीत हो रही थीं। वे मस्तकपर पुष्पोंकी सुन्दर माला धारण किये थीं, वे सुन्दर वलियों से युक्त थीं, उनका कटिप्रदेश क्षीण था, वे अति मनोहर थीं,वे अत्यन्त सुन्दर, शान्त मुसकान और कटाक्षसे सुशोभित थीं। उन्होंने अग्निके समान पवित्र वस्त्र धारण कर रखा था और वे रत्नोंके आभूषणोंसे सुशोभित थीं ॥ 28-31 ॥

    वे अपने चक्षुरूपी चकोरों से करोड़ों चन्द्रमाओं को तिरस्कृत करनेवाले श्रीकृष्णके मुखमण्डल का प्रसन्नतापूर्वक निरन्तर पान कर रही थीं। 
    वे देवी ललाट के ऊपरी भागमें कस्तूरी की बिन्दीके साथ-साथ नीचे चन्दन की बिन्दी तथा ललाट के मध्यमें सिन्दूर की बिन्दी धारण किये थीं। अपने प्रियतम में अनुरक्त चित्तवाली वे देवी मालती की मालासे भूषित घुँघराले केश से शोभा पा रही थीं तथा श्रेष्ठ रत्नोंकी माला धारण किये हुए थीं। कोटि चन्द्रकी प्रभाको लज्जित करनेवाली शोभा धारण किये वे अपनी चाल से राजहंस और गजके गर्वको तिरस्कृत कर रही थीं ॥ 32-35 ॥
    _____________________
    उन्हें देखकर रासेश्वर तथा परम रसिक श्रीकृष्ण ने उनके साथ रासमण्डलमें उल्लासपूर्वक रासलीला की। ब्रह्माके दिव्य दिवस की अवधि तक नाना प्रकारकी श्रृंगारचेष्टाओं से युक्त उन्होंने मूर्तिमान् श्रृंगाररस के समान सुखपूर्वक क्रीड़ा की। तत्पश्चात् थके हुए उन जगत्पिता ने नित्यानन्द मय शुभ मुहूर्तमें देवी के क्षेत्र में तेज का आधान किया। हे सुव्रत क्रीडा के अन्तमें हरि के तेज से परिश्रान्त उन देवी के शरीर से स्वेद निकलने लगा और महान् परिश्रम से खिन्न उनका श्वास भी वेग से चलने लगा। तब वह सम्पूर्ण स्वेद विश्वगोलक बन गया और वह निःश्वास वायु जगत् में सब प्राणियोंके जीवनका आधार बन गया ॥ 36–41
    ______________________
      उस मूर्तिमान् वायु के वामांग से उसकी प्राणप्रिय पत्नी प्रकट हुईं, पुनः उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
    जो जीवों के प्राणके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। प्राण, अपान,
    समान, उदान तथा व्यान-ये पाँच वायु और उनके पाँच
    अधोगामी प्राणरूप पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ 42-43 ॥

     स्वेदके रूपमें निकले जलके अधिष्ठाता महान् वरुणदेव हुए। उनके वामांगसे उनकी पत्नी वरुणानी प्रकट हुई। श्रीकृष्णकी उन चिन्मयी शक्तिने उनके गर्भ को धारण किया। वे सौ मन्वन्तरोंतक ब्रह्मतेज से | देदीप्यमान बनी रहीं। वे श्रीकृष्णके प्राणों की अधिष्ठातृदेवी हैं, कृष्ण को प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। वे कृष्णकी सहचरी हैं और सदा उनके वक्षःस्थल पर विराजमान रहती हैं। सौ मन्वन्तर बीतनेपर उन सुन्दरी ने स्वर्ण की कान्तिवाले, विश्वके आधार तथा निधानस्वरूप श्रेष्ठ बालक को जन्म दिया ॥ 44-47 ॥
    ______________________
    उस बालक को देखकर उन देवी का हृदय अत्यन्त दुःखित हो गया और उन्होंने उस बालक को कोपपूर्वक उस ब्रह्माण्डगोलक में छोड़ दिया। बालक के उस त्यागको देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण हाहाकार करने लगे और उन्होंने उसी क्षण उन देवी को समयानुसार शाप दे दिया- हे कोपशीले! हे निष्ठुरे ! तुमने पुत्र को त्याग दिया है, इस कारण आज से तुम निश्चित ही सन्तानहीन रहोगी तुम्हारे अंश से जो जो देवपत्नियाँ प्रकट होंगी, वे भी तुम्हारी तरह सन्तानरहित तथा नित्ययौवना रहेंगी ।
     48-51॥
    ______________________
    इसके बाद देवीके जिह्वाग्रसे सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथ में वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥
    _______________________


    इसी बीच श्रीकृष्ण भी द्विधारूपसे प्रकट हो गये। उनके दक्षिणार्धसे द्विभुज रूप प्रकट हुआ तथा वामार्धसे चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ। 

    तब श्रीकृष्णने उन सरस्वती देवी से कहा कि तुम इस (चतुर्भुज) विष्णुकी कामिनी बनो। ये मानिनी राधा इस द्विभुजके साथ यहीं रहेंगी।

     तुम्हारा कल्याण होगा। इस प्रकार प्रसन्न होकर उन्होंने लक्ष्मीको नारायणको समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् वे जगत्पति उन दोनों के साथ वैकुण्ठ को चले गये ।। 55-57 ॥


    राधा के अंश से प्रकट वे दोनों लक्ष्मी तथा सरस्वती निःसन्तान ही रहीं।
    _____________________
    भगवान् नारायण के अंगसे चतुर्भुज पार्षद प्रकट हुए। वे तेज, वय, रूप और गुणोंमें नारायणके समान ही थे उसी प्रकार लक्ष्मीके अंगसे उनके ही समान करोड़ों दासियाँ प्रकट हो गयीं ॥ 58-59 ॥
    _____________________
    हे मुने! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रममें उन्हींके समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्णके प्राणोंके समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥

    श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधा के ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिर यौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं।
     हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं। 
    वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ 62-65 ll
    ___________    

    सभी शक्तियोंकी बीजरूपा वे मूलप्रकृति ही ईश्वरी, परिपूर्णतमा तथा तेजपूर्ण त्रिगुणात्मिका हैं। वे तपाये हुए स्वर्णकी कान्तिवाली, कोटि सूर्योकी आभा धारण करनेवाली, किंचित् हास्यसे युक्त प्रसन्नवदनवाली तथा सहस्र भुजाओंसे शोभायमान हैं। वे त्रिलोचना भगवती नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र समूहोंको धारण करती हैं, अग्निसदृश विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए हैं और रत्नाभरणसे भूषित हैं ।। 66-68 ॥

    उन्हींकी अंशांशकलासे सभी नारियाँ प्रकट हुई हैं। उनकी माया से विश्व के सभी प्राणी मोहित हो जाते हैं। वे गृहस्थ सकामजनों को सब प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली, वैष्णवजनोंको वैष्णवी कृष्णभक्ति देनेवाली, मोक्षार्थी-जनोंको मोक्ष देनेवाली तथा सुख चाहनेवालोंको सुख प्रदान करनेवाली हैं ।69-70 ।।
    ___________________

    वे देवी स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहोंमें गृहलक्ष्मी, तपस्वियोंमें तप तथा राजाओंमें राज्यलक्ष्मीके रूपमें स्थित हैं। वे अग्निमें दाहिका शक्ति, सूर्यमें प्रभारूप, चन्द्रमा तथा कमलोंमें शोभारूपसे और परमात्मा श्रीकृष्णमें सर्वशक्तिरूपसे विद्यमान हैं ॥ 71-73 ॥
    ___________
    हे नारद! जिनसे परमात्मा शक्तिसम्पन्न होता है तथा जगत् भी शक्ति प्राप्त करता है और जिनके बिना सारा चराचर विश्व जीते हुए भी मृतकतुल्य हो जाता है, जो सनातनी संसाररूपी बीजरूपसे वर्तमान हैं, वे ही समस्त सृष्टिकी स्थिति, वृद्धि और फलरूपसे स्थित हैं ।। 74-75 ॥

    वे ही भूख-प्यास, दया, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति तथा कान्तिरूपसे सर्वत्र विराजती हैं।

     सर्वेश्वर प्रभुकी स्तुति करके वे उनके समक्ष स्थित हो गयीं। राधिका के ईश्वर श्रीकृष्ण ने उन्हें रत्नसिंहासन प्रदान किया । ll 76-77 ।।
    _____________
    हे महामुने! इसी समय वहाँ सपत्नीक ब्रह्माजी पद्मनाभ भगवान्के नाभिकमलसे प्रकट हुए। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा परम तपस्वी वे ब्रह्मा कमण्डलु धारण किये हुए थे। देदीप्यमान वे ब्रह्मा चारों मुखोंसे श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे।78-79 ।।

    सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिवाली, अग्निके समान चमकीले वस्त्रोंको धारण किये और रत्नाभरणोंसे भूषित प्रकट हुई वे सुन्दरी सबके कारणभूत परमात्माकी स्तुति करके अपने स्वामी श्रीकृष्णके साथ रमणीय रत्नसिंहासनपर उनके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक बैठ गर्यो ।। 80-81 ll
    _______________________
    उसी समय वे श्रीकृष्ण दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम अर्धांग महादेवके रूप में परिणत हो गया और दक्षिण अधग गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण ही बना रह गया। 
    वे महादेव शुद्ध स्फटिकके समान प्रभायुक्त थे, शतकोटि सूर्यकी प्रभासे सम्पन्न थे, त्रिशूल तथा पट्टिश धारण किये हुए थे तथा बाघाम्बर पहने हुए थे। वे परमेश्वर तप्त स्वर्णके समान कान्तिवाले थे, वे जटाजूट धारण किये हुए थे, उनका शरीर भस्मसे विभूषित था, वे मन्द मन्द मुसकरा रहे थे। उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण कर रखा था। वे दिगम्बर नीलकण्ठ सपके आभूषण से अलंकृत थे। उन्होंने दाहिने हाथमें सुसंस्कृत रत्नमाला धारण कर रखी थी ll 82 - 85।

    वे पाँचों मुखोंसे सनातन ब्रह्मज्योतिका जप कर रहे थे। उन सत्यस्वरूप, परमात्मा, ईश्वर, सभी कारणों के कारण, सभी मंगलोंके भी मंगल, जन्म मृत्यु, जरा-व्याधि-शोक और भयको दूर करनेवाले, कालके काल, श्रेष्ठ श्रीकृष्णकी स्तुति करके मृत्युंजय नामसे विख्यात हुए वे शिव विष्णुके समक्ष रमणीय रत्नसिंहासनपर बैठ गये॥ 86–88 ॥

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    ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः) /अध्यायः।२।

                     "नारद उवाच"
    समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं विभो ।।
    विबोधनार्थं बोधस्य व्यासतो वक्तुमर्हसि ।१।।

    सृष्टेराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।।
    कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदां वर ।२ ।।

    भूता या याश्च कलया तया त्रिगुणया भवे ।।
    व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ।३।

    तासां जन्मानुकथनं ध्यानं पूजाविधिं परम् ।।
    स्तोत्रं कवचमैश्वर्य्यं शौर्यं वर्णय मङ्गलम् ।। ४ ।

                  श्रीनारायण उवाच ।।
    नित्यात्मा च नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा।
    विश्वेषां गोकुलं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ।। ५ ।

    तदेकदेशो वैकुण्ठो लम्बभागः स नित्यकः ।।
    तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीना सनातनी ।। ६ ।

    यथाऽग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।।
    शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि ।। ७ ।।

    विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।।
    विना मृदा कुलालो हि घटं कर्तुं न हीश्वरः ।। ८।

    नहि क्षमस्तथा ब्रह्मा सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।।
    सर्वशक्तिस्वरूपा सा तया स्याच्छक्तिमान्सदा ।९।

    ऐश्वर्य्यवचनः शक् च तिः पराक्रमवाचकः ।।
    तत्स्वरूपा तयोर्दात्री या सा शक्तिः प्रकीर्तिता ।। 2.2.१० ।।

    समृद्धिबुद्धिसम्पत्तियशसां वचनो भगः ।।
    तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा ।। ११।

    तया युक्तः सदाऽऽत्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
    स च स्वेच्छामयः कृष्णः साकारश्च निराकृतिः ।१२।

    तेजोरूपं निराकारं ध्यायन्ते योगिनः सदा ।।
    वदन्ति ते परं ब्रह्म परमात्मानमीश्वरम् ।१३।

    अदृश्यं सर्व द्रष्टारं सर्वज्ञं सर्वकारणम् ।।
    सर्वदं सर्वरूपान्तमरूपं सर्वपोषकम्।। १४ ।।

    वैष्णवास्ते न मन्यन्ते तद्भक्ताः सूक्ष्मदर्शिनः।।
    वदन्ति कस्य तेजस्ते इति तेजस्विनं विना ।१५।।

    तेजोमण्डलमध्यस्थं ब्रह्म तेजस्विनं परम्।।
    स्वेच्छामयं सर्वरूपं सर्वकारणकारणम्।।१६।।

    अतीवसुन्दरं रूपं बिभ्रतं सुमनोहरम् ।।
    किशोरवयसं शान्तं सर्वकान्तं परात्परम् ।।१७।।

    नवीननीरदाभासं रासैकश्यामसुन्दरम् ।।
    शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचकलोचनम् ।१८।

    मुक्तासारमहास्वच्छदन्तपङ्क्तिमनोहरम् ।।
    मयूरपुच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ।।१९।।

    सुनासं सस्मितं शश्वद्भक्तानुग्रहकारकम् ।।
    ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ।।2.2.२०।

    द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्नभूषणभूषितम् ।।
    सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ।२१।

    सर्वैश्वर्य्यप्रदं सर्वं स्वतन्त्रं सर्वमङ्गलम् ।।
    परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धि दं सिद्धिकारणम् ।। २२।

    ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वदेवंरूपं सनातनम् ।।
    जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् । २३।

    ब्रह्मणो वयसा यस्य निमेष उपचार्य्यते ।।
    स चात्मा परमं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।। २४ ।।

    कृषिस्तद्भक्तिवचनो नश्च तद्दास्यकारकः ।।
    भक्तिदास्यप्रदाता यः स कृष्णः परिकीर्तितः ।२५।

    कृषिश्च सर्ववचनो नकारो बीजवाचकः ।।
    सर्वबीजं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।। २५।

    असंख्यब्रह्मणा पाते कालेऽतीतेऽपि नारद ।।
    यद्गुणानां नास्ति नाशस्तत्समानो गुणेन च ।२७।
    ___________________
    स कृष्णः सर्वसृष्ट्यादौ सिसृक्षुस्त्वेक एव च ।।
    सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः। २८।

    स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।।
    स्त्रीरूपा वामभागांशाद्दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ।। २९ ।।
    ____________________
    तां ददर्श महाकामी कामाधारः सनातनः ।।
    अतीव कमनीयां च चारुचम्पकसन्निभाम् ।। 2.2.३० ।।

    पूर्णेन्दुबिम्बसदृशनितम्वयुगलां पराम् ।।
    सुचारुकदलीस्तम्भसदृशश्रोणिसुन्दरीम् ।। ३१ 

    श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् ।।
    पुष्ट्या युक्तां सुललितां मध्यक्षीणां मनोहराम् ।। ३२ ।।

    अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् ।
    वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।३३।

    शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्तीं सन्ततं मुदा ।।
    कृष्णस्य सुन्दरमुखं चन्द्रकोटिविनिन्दकम् ।३४।

    कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना ।।
    समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम् ।३५ ।।

    सुवक्रकबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् ।।
    रत्नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् ।। ३६ ।।

    कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टशोभासमन्विताम् ।।
    गमने राजहंसीं तां दृष्ट्या खञ्जनगञ्जनीम् ।३७।

    अतिमात्रं तया सार्द्धं रासेशो रासमण्डले ।।
    रासोल्लासेषु रहसि रासक्रीडां चकार ह।।३८।।

    नानाप्रकारशृंगारं शृङ्गारो मूर्त्तिमानिव।।
    चकार सुखसम्भोगं यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।३९।।

    ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।।
    चकार वीर्य्याधानं च नित्यानन्दः शुभक्षणे ।। 2.2.४० ।।

    गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत ।।
    निस्ससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः । ४१।।

    महासुरतखिन्नाया निश्वासश्च बभूव ह ।।
    तदाधारश्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् ।। ४२५।

    स च निःश्वासवायुश्च सर्वाधारो बभूव ह ।।
    निश्श्वासवायुः सर्वेषां जीविनां च भवेषु च।४३।

    बभूव मूर्त्तिमद्वायोर्वामाङ्गात्प्राणवल्लभा ।।
    तत्पत्नी सा च तत्पुत्राः प्राणाः पञ्च च जीविनाम् ।। ४४ ।।

    प्राणोऽपानः समानश्चैवोदानो व्यान एव च ।।
    बभूवुरेव तत्पुत्रा अधःप्राणाश्च पञ्च च ।। ४९ ।।

    घर्मतोयाधिदेवश्च बभूव वरुणो महान् ।।
    तद्वामाङ्गाच्च तत्पत्नी वरुणानी बभूव सा । ४६ ।
    ______________________
    अथ सा कृष्णशक्तिश्च कृष्णाद्गर्भं दधार ह ।।
    शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्तो(ती?) ब्रह्मतेजसा ।। ४७ ।।

    __________________

    कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।।
    कृष्णस्य सङ्गिनी शश्वत्कृष्णवक्षस्थलस्थिता । ४८।

    शतमन्वन्तरातीते काले परमसुन्दरी ।।
    सुषावाण्डं सुवर्णाभं विश्वाधारालयं परम् । ४९।
     
    दृष्ट्वा चाण्डं हि सा देवी हृदयेन विदूयता ।।
    उत्ससर्ज च कोपेन तदण्डं गोलके जले ।। 2.2.५० ।।

    दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार द।।।
    शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ।। ५१ ।।

    यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले सुनिष्ठुरे ।।
    भव त्वमनपत्याऽपि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ।। ५२।

    या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।।
    अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ।। ५३ ।।

    एतस्मिन्नन्तरे देवी जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।।
    आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ।५४ 

    पीतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।।
    रत्नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता । ५९।
     
    अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपा बभूव ह ।।
    वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका ।। ५६ ।।
    _________________________
    एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह ।।
    दक्षिणार्द्धस्स्याद्द्विभुजो वामार्द्धश्च चतुर्भुजः ।५७।

    उवाच वाणीं श्रीकृष्णस्त्वमस्य भव कामिनी।।
    अत्रैव मानिनी राधा नैव भद्रं भविष्यति ।। ५८।

    एवं लक्ष्मीं संप्रदौ तुष्टो नारायणाय वै ।।
    संजगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्द्धं जगत्पतिः। ५९।

    अनपत्ये च ते द्वे च यतो राधांशसम्भवे।।
    नारायणाङ्गादभवन्पार्षदाश्च चतुर्भुजाः ।। 2.2.६०।

    तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः ।।
    बभूवुः कमलाङ्गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः ।। ६१।

    अथ गोलोकनाथस्य लोमाविवरतो मुने ।।
    आसन्नसंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ।। ६२।

    रूपेण सुगुणेनैव वेषाद्वा विक्रमेण च ।।
    प्राणतुल्याः प्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।६३।

    राधाङ्गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।।
    राधातुल्याश्च सर्वास्ता नान्यतुल्याः प्रियंवदाः ।। ६४ ।।

    रत्नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।।
    अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् । ६५।

    एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः ।।
    आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी ।६६।
     
    देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।।
    बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।।६७।।

    देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी।।
    परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ।। ६८ ।।

    तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्य्यकोटिसमप्रभा ।।
    ईषद्धासप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ।। ६९ ।।

    नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना ।।
    वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता । 2.2.७०।

    यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः ।।
    सर्वविश्वस्थिता लोका मोहिता मायया यया ।७१।

    सर्वैश्वर्य्यप्रदात्री च कामिनां गृहमेधिनाम् ।।
    कृष्णभक्ति प्रदात्री च वैष्णवानां च वैष्णवी । ७२।
     
    मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी।।
    स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीः सा गृहलक्ष्मीर्गृहेष्वसौ।।७३।।

    तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा सा नृपेषु च ।।
    या चाग्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे ।७४।

    शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मेषु च सुशोभना ।।
    सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ।७९।

    यया च शक्तिमानात्मा यया वै शक्तिमज्जगत् ।
    यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ।७६।

    या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी ।।
    स्थितिरूपा बुद्धिरूपा फलरूपा च नारद ।७७।
    क्षुत्पिपासा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा क्षमा धृतिः ।।
    शान्तिर्लज्जातुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी ।। ७८ ।।

    सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुपस्थिता ।।
    रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः । ७९ ।

    एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।।
    पद्मनाभो नाभिपद्मान्निस्ससार पुमान्मुने ।। 2.2.८० ।।

    कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः।
    चतुर्मुखस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ।८१।

    सुदती सुन्दरी श्रेष्ठा शतचन्द्रसमप्रभा ।।
    वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता ।। ८२ ।।

    रत्नसिंहासने रम्ये स्तुता वै सर्वकारणम् ।।
    उवास स्वामिना सार्द्ध कृष्णस्य पुरतो मुदा । ८३।

    एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।।
    वामार्द्धांगो महादेवो दक्षिणो गोपिकापतिः। ८४।।

    शुद्धस्फटिकसङ्काशः शतकोटिरविप्रभः ।।
    त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्मधरो हरः ।। ८९ ।।

    तप्तकाञ्चनवर्णाभ जटाभारधरः परः ।।
    भस्मभूषणगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः ।८६ ।

    दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्प भूषणभूषितः ।।
    बिभ्रद्दक्षिणहस्तेन रत्नमालां सुसंस्कृताम् ।। ८७ ।।

    प्रजपन्पञ्चवक्त्रेण ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ।।
    सत्यस्वरूपं श्रीकृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ।८८।

    कारणं कारणानां च सर्वमङ्गलमङ्गलम् ।।
    जन्ममृत्युजराव्याधिशोकभीतिहरं परम् । ८९।

    संस्तूय मृत्योर्मृत्युं तं जातो मृत्युञ्जयाभिधः।
    रत्नसिंहासने रम्ये समुवास हरेः पुरः ।2.2.९०।

    इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण द्वि० प्रकृति खण्ड नारायणनारदसंवादे देवदेव्युत्पत्तिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ।२।

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    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2

     परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रकट चिन्मय देवी और देवताओं के चरित्र 

    नारदजी ने कहा– प्रभो! देवियों के सम्पूर्ण चरित्र को मैंने संक्षेप में सुन लिया। अब सम्यक प्रकार से बोध होने के लिये आप पुनः विस्तारपूर्वक उसका वर्णन कीजिये।

     सृष्टि के अवसर पर भगवती आद्यादेवी कैसे प्रकट हुईं? वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन! देवी के पंचविध होने में क्या कारण है? यह रहस्य बताने की कृपा करें। देवी की त्रिगुणमयी कला से संसार में जो-जो देवियाँ प्रकट हुईं, उनका चरित्र मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। सर्वज्ञ प्रभो! उन देवियों के प्राकट्य का प्रसंग, पूजा एवं ध्यान की विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य तथा मंगलमय शौर्य– इन सबका वर्णन कीजिये। भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है। यह परब्रह्म में लीन रहने वाली उनकी सनातनी शक्ति है। जिस प्रकार अग्नि में दाहिका शक्ति, चन्द्रमा एवं कमल में शोभा तथा सूर्य में प्रभा सदा वर्तमान रहती है, वैसे ही यह प्रकृति परमात्मा में नित्य विराजमान है। जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के अभाव में कुण्डल नहीं तैयार कर सकता तथा कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा बनाने में असमर्थ है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा को यदि प्रकृति का सहयोग न मिले तो वे सृष्टि नहीं कर सकते। जिसके सहारे श्रीहरि सदा शक्तिमान बने रहते हैं, वह प्रकृति देवी ही शक्तिस्वरूपा हैं। ‘शक्’ का अर्थ है ‘ऐश्वर्य’ तथा ‘ति’ का अर्थ है ‘पराक्रम’; ये दोनों जिसके स्वरूप हैं तथा जो इन दोनों गुणों को देने वाली है, वह देवी ‘शक्ति’ कही गयी है। ‘भग’ शब्द समृद्धि, बुद्धि, सम्पत्ति तथा यश का वाचक है, उससे सम्पन्न होने के कारण भक्ति को ‘भगवती’ कहते हैं; क्योंकि वह सदा भगस्वरूपा हैं। परमात्मा सदा इस भगवती प्रकृति के साथ विराजमान रहते हैं, अतएव ‘भगवान’ कहलाते हैं। वे स्वतन्त्र प्रभु साकार और निराकार भी हैं। उनका निराकार रूप तेजःपुंजमय है।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-)
    योगीजन सदा उसी का ध्यान करते और उसे परब्रह्म परमात्मा एवं ईश्वर की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका द्रष्टा है। वह सर्वज्ञ, सबका कारण, सब कुछ देने वाला, समस्त रूपों का अन्त करने वाला, रूपरहित तथा सबका पोषक है। परन्तु जो भगवान के सूक्ष्मदर्शी भक्त वैष्णवजन हैं, वे ऐसा नहीं मानते हैं। वे पूछते हैं– यदि कोई तेजस्वी पुरुष– साकार पुरुषोत्तम नहीं है तो वह तेज किसका है?

    योगी जिस तेजोमण्डल का ध्यान करते हैं, उसके भीतर अन्तर्यामी तेजस्वी परमात्मा परमपुरुष विद्यमान हैं। वे स्वेच्छामयरूपधारी, सर्वस्वरूप तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं। वे प्रभु जिस रूप को धारण करते हैं, वह अत्यन्त सुन्दर, रमणीय तथा परम मनोहर है। इन भगवान की किशोर अवस्था है, ये शान्त-स्वभाव हैं। इनके सभी अंग परम सुन्दर हैं। इनसे बढ़कर जगत में दूसरा कोई नहीं है। इनका श्याम विग्रह नवीन मेघ की कान्ति का परम धाम है। इनके विशाल नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में खिले हुए कमलों की शोभा को छीन रहे हैं। मोतियों की शोभा को तुच्छ करने वाली इनकी सुन्दर दन्तपंक्ति है। मुकुट में मोर की पाँख सुशोभित है।

    मालती की माला से ये अनुपम शोभा पा रहे हैं। इनकी सुन्दर नासिका है। मुख पर मुस्कान छायी है। ये परम मनोहर प्रभु भक्तों पर अनुग्रह के समान विशुद्ध पीताम्बर से इनका विग्रह परम मनोहर हो गया है। इनकी दो भुजाएँ हैं। हाथ में बाँसुरी सुशोभित है। ये रत्नमय भूषणों से भूषित, सबके आश्रय, सबके स्वामी, सम्पूर्ण शक्तियों से युक्त एवं सर्वव्यापी पूर्ण पुरुष हैं। समस्त ऐश्वर्य प्रदान करना इनका स्वभाव ही है। ये परम स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण मंगल के भण्डार हैं। इन्हें ‘सिद्ध’, ‘सिद्धेश’, ‘सिद्धिकारक’ तथा ‘परिपूर्णतम ब्रह्म’ कहा जाता है। इन देवाधिदेव सनातन प्रभु का वैष्णव पुरुष निरन्तर ध्यान करते हैं। इनकी कृपा से जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय सब नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मा की आयु इनके एक निमेष की तुलना में है। ये ही ये आत्मा परब्रह्म श्रीकृष्ण कहलाते हैं।

    ‘कृष्’ का अर्थ है भगवान की भक्ति और ‘न’ का अर्थ है, उनका ‘दास्य’। अतः जो अपनी भक्ति और दास्यभाव देने वाले हैं, वे ‘कृष्ण’ कहलाते हैं। ‘कृष्’ सर्वार्थवाचक है, ‘न’ से बीज अर्थ की उपलब्धि होती है। अतः सर्वबीजस्वरूप परब्रह्म परमात्मा ‘कृष्ण’ कहे गये हैं।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-

    नारद! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे। उनका स्वरूप स्वेच्छामय है। वे अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गये। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में। वे सनातन पुरुष उस दिव्यस्वरूपिणी स्त्री को देखने लगे। उसके समस्त अंग बड़े ही सुन्दर थे।

    मनोहर चम्पा के समान उसकी कान्ति थी। उस असीम सुन्दरी देवी ने दिव्य स्वरूप धारण कर रखा था। मुस्कराती हुई वह बंकिम भंगिमाओं से प्रभु की ओर ताक रही थी। उसने विशुद्ध वस्त्र पहन रखे थे। रत्नमय दिव्य आभूषण उसके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। वह अपने चकोर-चक्षुओं के द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीमुखचन्द्र का निरन्तर हर्षपूर्वक पान कर रही थी। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल इतना सुन्दर था कि उसके सामने करोड़ों चन्द्रमा भी नगण्य थे। उस देवी के ललाट के ऊपरी भाग में कस्तूरी की बिन्दी थी।

    नीचे चन्दन की छोटी-छोटी बिंदियाँ थीं। साथ ही मध्य ललाट में सिन्दूर की बिन्दी भी शोभा पा रही थी। प्रियतम के प्रति अनुरक्त चित्तवाली उस देवी के केश घुँघराले थे। मालती के पुष्पों का सुन्दर हार उसे सुशोभित कर रहा था। करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से सुप्रकाशित परिपूर्ण शोभा से इस देवी का श्रीविग्रह सम्पन्न था। यह अपनी चाल से राजहंस एवं गजराज के गर्व को नष्ट कर रही थी। श्रीकृष्ण परम रसिक एवं रास के स्वामी हैं। उस देवी को देखकर रास के उल्लास में उल्लसित हो वे उसके साथ रासमण्डल में पधारे। रास आरम्भ हो गया। मानो स्वयं श्रृंगार ही मूर्तिमान होकर नाना प्रकार की श्रृंगारोचित चेष्टाओं के साथ रसमयी क्रीड़ा कर रहा हो। एक ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयुपर्यन्त यह रास चलता रहा।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-


    तत्पश्चात् जगत्पिता श्रीकृष्ण को कुछ श्रम आ गया। उन नित्यानन्दमय ने शुभ बेला मे देवी के भीतर अपने तेज का आधान किया।

    उत्तम व्रत का पालन करने वाले नारद! रासक्रीड़ा के अन्त में श्रीकृष्ण के असह्य तेज से श्रान्त हो जाने के कारण उस देवी के शरीर से दिव्य प्रस्वेद बह चला और जोर-जोर से साँस चलने लगी। उस समय जो श्रमजल था, वह समस्त विश्व गोलक बन गया तथा वह निःश्वास वायु रूप में परिणत हो गया, जिसके आश्रय से सारा जगत वर्तमान है। संसार में जितने सजीव प्राणी हैं, उन सबके भीतर इस वायु का निवास है। फिर वायु मूर्तिमान हो गया। उसके वामांग से प्राणों के समान प्यारी स्त्री प्रकट हो गयी।

    उससे पाँच पुत्र हुए, जो प्राणियों के शरीर में रहकर 'पंचप्राण' कहलाते हैं। उनके नाम हैं– प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यों पाँच वायु और उनके पुत्र पाँच प्राण हुए। पसीने के रूप में जो जल बहा था, वही जल का अधिष्ठाता देवता वरुण हो गया। वरुण के बायें अंग से उनकी पत्नी ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं।

    उस समय श्रीकृष्ण की वह चिन्मयी शक्ति उनकी कृपा से गर्भस्थिति का अनुभव करने लगी। सौ मन्वन्तर तक ब्रह्म तेज से उसका शरीर देदीप्यमान बना रहा। श्रीकृष्ण के प्राणों पर उस देवी का अधिकार था। श्रीकृष्ण प्राणों से भी बढ़कर उससे प्यार करते थे। वह सदा उनके साथ रहती थी।

    श्रीकृष्ण का वक्षःस्थल ही उसका स्थान था। सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर उसने एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान बालक उत्पन्न किया। उसमें विश्व को धारण करने की समुचित योग्यता थी, किन्तु उसे देखकर उस देवी का हृदय दुःख से संतप्त हो उठा। उसने उस बालक को ब्रह्माण्ड-गोलक के अथाह जल में छोड़ दिया। इसने बच्चे को त्याग दिया– यह देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण ने तुरंत उस देवी से कहा- ‘अरी कोपशीले! तूने यह जो बच्चे को त्याग दिया है, यह बड़ा घृणित कर्म है। इसके फलस्वरूप तू आज से संतानहीनता हो जा। यह बिलकुल निश्चित है। यही नहीं, किंतु तेरे अंश से जो-जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी, वे सभी तेरे समान ही नूतन तारुण्य से सम्पन्न रहने पर भी संतान का मुख नहीं देख सकेंगी।’

    इतने में उस देवी की जीभ के अग्रभाग से सहसा एक परम मनोहर कन्या प्रकट हो गयी। उसके शरीर का वर्ण शुक्ल था। वह श्वेतवर्ण का ही वस्त्र धारण किये हुए थी। उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे। सम्पूर्ण शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-

    तदनन्तर कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् वह मूल प्रकृति देवी दो रूपों में प्रकट हुईं। आधे वाम-अंग से ‘कमला’ का प्रादुर्भाव हुआ और दाहिने से ‘राधिका’ का। उसी समय श्रीकृष्ण भी दो रूप हो गये। आधे दाहिने अंग से स्वयं ‘द्विभुज’ विराजमान रहे और बायें अंग से ‘चार भुजावाले विष्णु’ का आविर्भाव हो गया।

    तब श्रीकृष्ण ने सरस्वती से कहा- ‘देवी! तुम इन विष्णु की प्रिया बन जाओ। मानिनी राधा यहाँ रहेंगी। तुम्हारा परम कल्याण होगा।’ इसी प्रकार संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने लक्ष्मी को नारायण की सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा प्रदान की। फिर तो जगत की व्यवस्था में तत्पर रहने वाले श्री विष्णु उन सरस्वती और लक्ष्मी देवियों के साथ वैकुण्ठ पधारे। मूल प्रकृतिरूपा राधा के अंश से प्रकट होने के कारण वे देवियाँ भी संतान प्रसव करने में असमर्थ रहीं। फिर नारायण के अंग से चार भुजावाले अनेक पार्षद उत्पन्न हुए। सभी पार्षद गुण, तेज, रूप और अवस्था में श्रीहरि के समान थे। लक्ष्मी के अंग से उन्हीं– जैसे लक्षणों से सम्पन्न करोड़ों दासियाँ उत्पन्न हो गयीं।

    मुनिवर नारद! इसके बाद गोलोकेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूप से असंख्य गोप प्रकट हो गये। अवस्था, तेज, रूप, गुण, बल और पराक्रम में वे सभी श्रीकृष्ण के समान ही प्रतीत होते थे। प्राण के समान प्रेम भाजन उन गोपों को परम प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना पार्षद बना लिया। ऐसे ही श्रीराधा के रोमकूपों से बहुत-सी गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सभी राधा के समान ही जान पड़ती थीं। उन मधुरभाषिणी कन्याओं को राधा ने अपनी दासी बना लिया। वे रत्नमय भूषणों से विभूषित थीं। उनका नया तारुण्य सदा बना रहता था। परम पुरुष के शाप से वे भी सदा के लिये सन्तानहीना हो गयी थीं।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2

    विप्र! इतने में श्रीकृष्ण के शरीर से देवी दुर्गा का सहसा आविर्भाव हुआ। ये दुर्गा सनातनी एवं भगवान विष्णु की माया हैं। इन्हें 'नारायणी', 'ईशानी' और 'सर्व शक्तिस्वरूपिणी' कहा जाता है। ये परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। सम्पूर्ण देवियाँ इन्हीं से प्रकट होती हैं। अतएव इन्हें देवियों की 'बीजस्वरूपा मूलप्रकृति' एवं 'ईश्वरी' कहते हैं। ये परिपूर्णतमा देवी तेजःस्वरूपा तथा त्रिगुणात्मिका हैं।

    तपाये हुए सुवर्ण के समान इनका वर्ण है। प्रभा ऐसी है, मानो करोड़ों सूर्य चमक रहे हों। इनके मुख पर मन्द-मन्द मुस्कराहट छायी रहती है। ये हजारों भुजाओं से सुशोभित हैं। अनेक प्रकार के अस्त्र और शस्त्रों को हाथ में लिये रहती हैं। इनके तीन नेत्र हैं। ये विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुई हैं। रत्ननिर्मित भूषण इनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। सम्पूर्ण स्त्रियाँ इनके अंश की कला से उत्पन्न हैं। इनकी माया जगत के समस्त प्राणियों को मोहित करने में समर्थ है। सकामभाव से उपासना करने वाले गृहस्थों को ये सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। इनकी कृपा से भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति उत्पन्न होती है। विष्णु के उपासकों के लिये ये भगवती वैष्णवी (लक्ष्मी) हैं। मुमुक्षुजनों को मुक्ति प्रदान करना और सुख चाहने वालों को सुखी बनाना इनका स्वभाव है। स्वर्ग में ‘स्वर्गलक्ष्मी’ और गृहस्थों के घर ‘गृहलक्ष्मी’ के रूप में ये विराजती हैं। तपस्वियों के पास तपस्या रूप से, राजाओं के यहाँ श्रीरूप से, अग्नि में दाहिका रूप से, सूर्य में प्रभा रूप से तथा चन्द्रमा एवं कमल में शोभा रूप से इन्हीं की शक्ति शोभा पा रही है। सर्वशक्तिस्वरूपा ये देवी परमात्मा श्रीकृष्ण में विराजमान रहती हैं। इनका सहयोग पाकर आत्मा में कुछ करने की योग्यता प्राप्त होती है। इन्हीं से जगत शक्तिमान माना जाता है। इनके बिना प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान हैं।

    नारद! ये सनातनी देवी संसार रूपी वृक्ष के लिये बीजस्वरूपा हैं। स्थिति, बुद्धि, फल, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति और कान्ति आदि सभी इन दुर्गा के ही रूप हैं।

    ये देवी सर्वेश श्रीकृष्ण की स्तुति करके उनके सामने विराजमान हुईं। राधिकेश्वर श्रीकृष्ण ने इन्हें एक रत्नमय सिंहासन प्रदान किया। महामुने! इतने में चतुर्मुख ब्रह्मा अपनी शक्ति के साथ वहाँ पधारे। विष्णु के नाभि कमल से निकलकर उनका पधारना हुआ था।


    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)

    परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन

    भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।

    परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है? ऊपर वैकुण्ठलोक है।

    यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)

    ब्रह्मलोक ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है। गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।

    बेटा नारद! देवताओं की संख्या तीन करोड़ है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।

    नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था। दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया। तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।

    पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। कहा- ‘बेटा! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ। जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण

    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3

    ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।

    विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।

    बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है। जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है। प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।

    नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके
    वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।


    ब्रह्म वैवर्त पुराण-
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3


    भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'

    इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।

    भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’

    नारद! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। 

    जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण
    प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3)

    नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।

    ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।

    सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।

    नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?


    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3 )

    परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन
    भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
    परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
    यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।

    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3 )
    ब्रह्मलोक ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है। गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
    बेटा नारद! देवताओं की संख्या तीन करोड़ है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
    नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था। दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया। तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
    पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। कहा- ‘बेटा! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ। जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं। अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3 )
    ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।
    विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।
    बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है। जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है। प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।
    नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।
    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3 Prev.png
    भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
    इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।
    भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
    नारद! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
    ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3 Prev.png नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
    ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
    सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।
    नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं। ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

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