गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

नारद पुराण ब्रह्म वैवर्त- पुराण और गर्गसंहिता- ते समान सन्दर्भ-

"श्रीनारायण उवाच
नित्य आत्मा नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा 
विश्वानां गोलकं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ॥५॥

भगवान नारायण बोले– नारद ! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है।
वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है। 
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ब्रह्मा की आयु इनके एक निमेष की तुलना में है। ये ही ये आत्मा परब्रह्म श्रीकृष्ण कहलाते हैं।

स कृष्णः सर्वस्रष्टाऽऽदौ सिसृक्षन्नेक एव च।
सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः॥२६।

स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ॥२७॥
श्रीकृष्ण ही आदिमें सर्वप्रपंचके स्रष्टा तथा सृष्टिके एकमात्र बीजस्वरूप हैं। उनमें जब सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके अंशभूत कालके द्वारा प्रेरित होकर स्वेच्छामय वे प्रभु अपनी इच्छासे दो रूपोंमें विभक्त हो गये। उनका वाम भागांश स्त्रीरूप तथा दक्षिणांश पुरुषरूष कहा गया है ।। 26-27 ॥
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अतिमात्रं तया सार्द्धं रासेशो रासमण्डले ।।
रासोल्लासेषु रहसि रासक्रीडां चकार ह।।३८।।

नानाप्रकारशृंगारं शृङ्गारो मूर्त्तिमानिव।।
चकार सुखसम्भोगं यावद्वै ब्रह्मणो वयः।३९।

ततः स च परिश्रान्तस्तस्या योनौ जगत्पिता ।।
चकार वीर्य्याधानं च नित्यानन्दः शुभक्षणे ।। 2.2.४० ।।
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गात्रतो योषितस्तस्याः सुरतान्ते च सुव्रत।
निस्ससार श्रमजलं श्रान्तायास्तेजसा हरेः। ४१।।

महासुरतखिन्नाया निश्वासश्च बभूव ह ।
तदाधारश्रमजलं तत्सर्वं विश्वगोलकम् । ४२५।


अथ सा कृष्णशक्तिश्च कृष्णाद्गर्भं दधार ह ।।
शतमन्वन्तरं यावज्ज्वलन्तो(ती?) ब्रह्मतेजसा ।४७।


कृष्णप्राणाधिदेवी सा कृष्णप्राणाधिकप्रिया ।
कृष्णस्य सङ्गिनी शश्वत्कृष्णवक्षस्थलस्थिता । ४८।

शतमन्वन्तरातीते काले परमसुन्दरी ।।
सुषावाण्डं सुवर्णाभं विश्वाधारालयं परम् । ४९।
 
दृष्ट्वा चाण्डं हि सा देवी हृदयेन विदूयता ।।
उत्ससर्ज च कोपेन तदण्डं गोलके जले ।। 2.2.५० ।।

दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार द।।।
शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ।। ५१ ।।

यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले सुनिष्ठुरे ।।
भव त्वमनपत्याऽपि चाद्यप्रभृति निश्चितम् ।। ५२।

या यास्त्वदंशरूपाश्च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।।
अनपत्याश्च ताः सर्वास्त्वत्समा नित्ययौवनाः ।। ५३ ।।

एतस्मिन्नन्तरे देवी जिह्वाग्रात्सहसा ततः ।।
आविर्बभूव कन्यैका शुक्लवर्णा मनोहरा ।५४ 

पीतवस्त्रपरीधाना वीणापुस्तकधारिणी ।।
रत्नभूषणभूषाढ्या सर्वशास्त्राधिदेवता । ५९।
 
अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपा बभूव ह ।।
वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका ।। ५६ ।

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह ।।
दक्षिणार्द्धस्स्याद्द्विभुजो वामार्द्धश्च चतुर्भुजः ।५७।


उन्हें देखकर रासेश्वर तथा परम रसिक श्रीकृष्ण ने उनके साथ रासमण्डलमें उल्लासपूर्वक रासलीला की। ब्रह्माके दिव्य दिवस की अवधि तक नाना प्रकारकी श्रृंगारचेष्टाओं से युक्त उन्होंने मूर्तिमान् श्रृंगाररस के समान सुखपूर्वक क्रीड़ा की। तत्पश्चात् थके हुए उन जगत्पिता ने नित्यानन्द मय शुभ मुहूर्तमें देवी के क्षेत्र में तेज का आधान किया। हे सुव्रत क्रीडा के अन्तमें हरि के तेज से परिश्रान्त उन देवी के शरीर से स्वेद निकलने लगा और महान् परिश्रम से खिन्न उनका श्वास भी वेग से चलने लगा। तब वह सम्पूर्ण स्वेद विश्वगोलक बन गया और वह निःश्वास वायु जगत् में सब प्राणियोंके जीवनका आधार बन गया ॥ 36–41
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  उस मूर्तिमान् वायु के वामांग से उसकी प्राणप्रिय पत्नी प्रकट हुईं, पुनः उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
जो जीवों के प्राणके रूपमें प्रतिष्ठित हैं। प्राण, अपान,
समान, उदान तथा व्यान-ये पाँच वायु और उनके पाँच
अधोगामी प्राणरूप पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ 42-43 ॥

 स्वेदके रूपमें निकले जलके अधिष्ठाता महान् वरुणदेव हुए। उनके वामांगसे उनकी पत्नी वरुणानी प्रकट हुई। श्रीकृष्णकी उन चिन्मयी शक्तिने उनके गर्भ को धारण किया। वे सौ मन्वन्तरोंतक ब्रह्मतेज से | देदीप्यमान बनी रहीं। वे श्रीकृष्णके प्राणों की अधिष्ठातृदेवी हैं, कृष्ण को प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं। वे कृष्णकी सहचरी हैं और सदा उनके वक्षःस्थल पर विराजमान रहती हैं। सौ मन्वन्तर बीतनेपर उन सुन्दरी ने स्वर्ण की कान्तिवाले, विश्वके आधार तथा निधानस्वरूप श्रेष्ठ बालक को जन्म दिया ॥ 44-47 ॥
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उस बालक को देखकर उन देवी का हृदय अत्यन्त दुःखित हो गया और उन्होंने उस बालक को कोपपूर्वक उस ब्रह्माण्डगोलक में छोड़ दिया। बालक के उस त्यागको देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण हाहाकार करने लगे और उन्होंने उसी क्षण उन देवी को समयानुसार शाप दे दिया- हे कोपशीले! हे निष्ठुरे ! तुमने पुत्र को त्याग दिया है, इस कारण आज से तुम निश्चित ही सन्तानहीन रहोगी तुम्हारे अंश से जो जो देवपत्नियाँ प्रकट होंगी, वे भी तुम्हारी तरह सन्तानरहित तथा नित्ययौवना रहेंगी ।
 48-51॥


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उवाच वाणीं श्रीकृष्णस्त्वमस्य भव कामिनी।।
अत्रैव मानिनी राधा नैव भद्रं भविष्यति । ५८।



एवं लक्ष्मीं संप्रदौ तुष्टो नारायणाय वै ।।
संजगाम च वैकुण्ठं ताभ्यां सार्द्धं जगत्पतिः। ५९।

अनपत्ये च ते द्वे च यतो राधांशसम्भवे।।
नारायणाङ्गादभवन्पार्षदाश्च चतुर्भुजाः ।। 2.2.६०।

तेजसा वयसा रूपगुणाभ्यां च समा हरेः ।।
बभूवुः कमलाङ्गाच्च दासीकोट्यश्च तत्समाः ।। ६१।

अथ गोलोकनाथस्य लोमाविवरतो मुने ।।
आसन्नसंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः ।। ६२।

रूपेण सुगुणेनैव वेषाद्वा विक्रमेण च ।।
प्राणतुल्याः प्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।६३।

राधाङ्गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः ।।
राधातुल्याश्च सर्वास्ता नान्यतुल्याः प्रियंवदाः ।। ६४ ।।

रत्नभूषणभूषाढ्याः शश्वत्सुस्थिरयौवनाः ।।
अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् । ६५।

एतस्मिन्नन्तरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः ।।
आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी ।६६।
 
देवी नारायणीशाना सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।।
बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।।६७।।
इसके बाद देवीके जिह्वाग्रसे सहसा ही एक सुन्दर गौरवर्ण कन्या प्रकट हुई। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था तथा वे हाथ में वीणा पुस्तक लिये हुए थीं। सभी शास्त्रोंकी अधिष्ठात्री वे देवी रत्नोंके आभूषण से सुशोभित थीं। कालान्तरमें वे भी द्विधारूपसे विभक्त हो गयीं। उनके वाम अर्धागसे कमला तथा दक्षिण अर्धागसे राधिका प्रकट हुई। ll 52-54॥
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इसी बीच श्रीकृष्ण भी द्विधारूपसे प्रकट हो गये। उनके दक्षिणार्धसे द्विभुज रूप प्रकट हुआ तथा वामार्धसे चतुर्भुज रूप प्रकट हुआ। 

तब श्रीकृष्णने उन सरस्वती देवी से कहा कि तुम इस (चतुर्भुज) विष्णुकी कामिनी बनो। ये मानिनी राधा इस द्विभुजके साथ यहीं रहेंगी।

 तुम्हारा कल्याण होगा। इस प्रकार प्रसन्न होकर उन्होंने लक्ष्मीको नारायणको समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् वे जगत्पति उन दोनों के साथ वैकुण्ठ को चले गये ।। 55-57 ॥


राधा के अंश से प्रकट वे दोनों लक्ष्मी तथा सरस्वती निःसन्तान ही रहीं।
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भगवान् नारायण के अंगसे चतुर्भुज पार्षद प्रकट हुए। वे तेज, वय, रूप और गुणोंमें नारायणके समान ही थे उसी प्रकार लक्ष्मीके अंगसे उनके ही समान करोड़ों दासियाँ प्रकट हो गयीं ॥ 58-59 ॥
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हे मुने! गोलोकनाथ श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोपगण प्रकट हुए; जो वय, तेज, रूप, गुण, बल तथा पराक्रममें उन्हींके समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्णके प्राणोंके समान प्रिय पार्षद बन गये ।। 60-61 ॥

श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधा के ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं। वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिर यौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं।
 हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं। 
वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं ॥ 62-65 ll



देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी।।
परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ।६८।



सा च संस्तूय सर्वेशं तत्पुरः समुपस्थिता ।।
रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः ।। ७९ ।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र सस्त्रीकश्च चतुर्मुखः ।।
पद्मनाभो नाभिपद्मान्निस्ससार पुमान्मुने ।। 2.2.८० ।।

कमण्डलुधरः श्रीमांस्तपस्वी ज्ञानिनां वरः।
चतुर्मुखस्तं तुष्टाव प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ।८१।

सुदती सुन्दरी श्रेष्ठा शतचन्द्रसमप्रभा ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता । ८२ ।
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रत्नसिंहासने रम्ये स्तुता वै सर्वकारणम् ।
उवास स्वामिना सार्द्ध कृष्णस्य पुरतो मुदा । ८३।

एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।।
वामार्द्धांगो महादेवो दक्षिणो गोपिकापतिः। ८४।।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे


भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’



इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण द्वि० प्रकृति खण्ड नारायणनारदसंवादे देवदेव्युत्पत्तिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ।२।




महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। 

जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।


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श्रीबृहन्नारदीय पुराण पूर्वभाग बृहदुपाख्यान तृतीयपाद पञ्चप्रकृतिमन्त्रादिनिरूपणं नामक त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

            "श्रीशौनक उवाच'
साधु सूत महाभागः जगदुद्धारकारकम् ।
महातन्त्रविधानं नः कुमारोक्तं त्वयोदितम्।१।

अलभ्यमेतत्तंत्रेषु पुराणेष्वपि मानद ।
यदिहोदितमस्मभ्यं त्वयातिकरुणात्मना ।२।

नारदो भगवान्सूत लोकोद्धरणतत्परः ।।
भूयः पप्रच्छ किं साधो कुमारं विदुषां वरम्।३।

                 "सूत उवाच।
श्रुत्वा स नारदो विप्राः युग्मनामसहस्रकम्।
सनत्कुमारमप्याह प्रणम्य ज्ञानिनां वरम् ।४।


                 "नारद उवाच ।
ब्रह्मंस्त्वया समाख्याता विधयस्तंत्रचोदिताः।
तत्रापि कृष्णमंत्राणां वैभवं ह्युदितं महत् ।५।
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या तत्र राधिकादेवी सर्वाद्या समुदाहृता ।
तस्या अंशावताराणां चरितं मंत्रपूर्वकम् ।६।

तन्त्रोक्तं वद सर्वज्ञ त्वामहं शरणं गतः।
शक्तेस्तन्त्राण्यनेकानि शिवोक्तानि मुनीश्वर।७।

यानि तत्सारमुद्धृत्य साकल्येनाभिधेहि नः।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य नारदस्य महात्मनः।८।

सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा राधापदाम्बुजम् ।

                  "सनत्कुमार उवाच ।
श्रृणु नारद वक्ष्यामि राधाञ्शानां समुद्भवम् ।९।

शक्तीनां परमाश्चर्यं मन्त्रसाधनपूर्वकम् ।।
या तु राधा मया प्रोक्ता कृष्णार्द्धांगसमुद्भवा ।१०।
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गोलोकवासिनी सा तु नित्या कृष्णसहायिनी ।
तेजोमण्डलमध्यस्था दृश्यादृश्यस्वरूपिणी।११।

कदाचित्तु तया सार्द्धं स्थितस्य मुनिसत्तम ।।
कृष्णस्य वामभागात्तु जातो नारायणः स्वयम्।१२।
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राधिकायाश्च वामांगान्महालक्ष्मीर्बभूव ह।

ततः कृष्णो महालक्ष्मीं दत्त्वा नारायणाय च।१३।
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वैकुण्ठे स्थापयामास शश्वत्पालनकर्मणि ।।
अथ गोलोकनाथस्य लोम्नां विवरतो मुने ।१४।

जातुश्चासंख्यगोपालास्तेजसा वयसा समाः।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे बभूवुः पार्षदा विभोः ।१५।

राधांगलोमकूपेभ्ये बभूवुर्गोपकन्यकाः।
राधातुल्याः सर्वतश्च राधादास्यः प्रियंवदाः।१६।

एतस्मिन्नंतरे विप्र सहसा कृष्णदेहतः।
आविर्बभूव सा दुर्गा विष्णुमाया सनातनी।१७।

देवीनां बीजरूपां च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।।
परिपूर्णतमा तेजः स्वरूपा त्रिगुणात्मिका ।१८।
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सहस्रभुजसंयुक्ता नानाशस्त्रा त्रिलोचना ।।
या तु संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी।१९ ।

रत्नसिंहासनं तस्यै प्रददौ राधिकेश्वरः।
एतस्मिन्नंतरे तत्र सस्त्रीकस्तु चतुर्मुखः।२०।

ज्ञानिनां प्रवरः श्रीमान् पुमानोंकारमुच्चरन् ।।
कमण्डलुधरो जातस्तपस्वी नाभितो हरेः ।२१।

स तु संस्तूय सर्वेशं सावित्र्या भार्यया सह।
निषसादासने रम्ये विभोस्तस्याज्ञया मुने।२२।

अथ कृष्णो महाभाग द्विधारूपो बभूव ह ।
वामार्द्धांगो महादेवो दक्षार्द्धो गोपिकापतिः।२३।
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पञ्चवक्त्रस्त्रिनेत्रोऽसौ वामार्द्धागो मुनीश्वः ।।
स्तुत्वा कृष्णं समाज्ञप्तो निषसाद हरेः पुरः ।२४ ।

अथ कृष्णश्चतुर्वक्त्रं प्राह सृष्टिं कुरु प्रभो ।
सत्यलोके स्थितो नित्यंगच्छ मांस्मर सर्वदा।२५।

एवमुक्तस्तु हरिणा प्रणम्य जगदीश्वरम् ।
जगाम भार्यया साकं स तु सृष्टिं करोति वै ।२६।

पितास्माकं मुनिश्रेष्ठ मानसीं कल्पदैहिकीम् ।
ततः पश्चात्पंचवक्त्रं कृष्णं प्राह महामते ।२७।

दुर्गां गृहाण विश्वेश शिवलोके तपेश्वर ।।
यावत्सृष्टिस्तदन्ते तु लोकान्संहर सर्वतः ।२८।

सोऽपि कृष्णं नमस्तृत्य शिवलोकं जगाम ह ।।
ततः कालान्तरे ब्रह्मन्कृष्णस्य परमात्मनः।२९।

वक्त्रात्सरस्वती जाता वीणापुस्तकधारिणी ।
तामादिदेश भगवान् वैकुण्ठं गच्छ मानदे ।३०।

लक्ष्मीसमीपे तिष्ठ त्वं चतुर्भुजसमाश्रया ।।
सापि कृष्णं नमस्कृत्य गता नारायणान्तिकम् ।३१।

एवं पञ्चविधा जाता सा राधा सृष्टिकारणम् ।
आसां पूर्णस्वरूपाणां मन्त्रध्यानार्चनादिकम् ।३२।

वदामि श्रृणु विप्रेद्रं लोकानां सिद्धिदायकम् ।
तारः क्रियायुक् प्रतिष्ठा प्रीत्याढ्या च ततः परम् ।३३ ।

ज्ञानामृता क्षुधायुक्ता वह्निजायान्तकतो मनुः।
सुतपास्तु ऋषिश्छन्दो गायत्री देवता मनोः ।३४।

राधिका प्रणवो बीजं स्वाहा शक्तिरुदाहृता ।
षडक्षरैः षडंगानि कुर्याद्विन्दुविभूषितैः ।३५।

ततो ध्यायन्स्वहृदये राधिकां कृष्णभामिनीम् ।
श्वेतचंपकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम् ।३६।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यां नीलेंदीवरलोचनाम् ।
सुश्रोणीं सुनितंबां च पक्वबिंबाधरांबराम् ।३७।

मुक्ताकुन्दाभदशनां वह्निशुद्धांशुकान्विताम् ।।
रत्नकेयूरवलयहारकुण्डलशोभिताम् ।३८।

गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।
रासमण्डलमध्यस्थां रत्नसिंहासनस्थिताम् ।३९।

ध्यात्वा पुष्पाञ्जलिं क्षिप्त्वा पूजयेदुपचारकैः ।।
लक्षषट्कं जपेन्मंत्रं तद्दशांशं हुनेत्तिलैः।४० ।

आज्याक्तैर्मातृकापीठे पूजा चावरणैः सह ।।
षट्कोणेषु षडंगानि तद्बाह्येऽष्टदले यजेत् ।४१।

मालावतीं माधवीं च रत्नमालां सुशीलिकाम् ।।
ततः शशिकलां पारिजातां पद्मावतीं तथा ।४२।

सुन्दरीं च क्रमात्प्राच्यां दिग्विदिक्षु ततो बहिः ।
इन्द्राद्यान्सायुधानिष्ट्वा विनियोगांस्तु साधयेत् ।४३।

राधा कृष्णप्रिया रासेश्वरी गोपीगणाधिपा ।
निर्गुणा कृष्णपूज्या च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।४४।

सर्वेश्वरी सर्वपूज्या वैराजजननी तथा ।
पूर्वाद्याशासु रक्षंतु पांतु मां सर्वतः सदा ।४५।

त्वं देवि जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।।
कृष्णमायादिदेवी च कृष्णप्राणाधिके शुभे।४६।

कष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मंगलप्रदे।
इति सम्प्रार्थ्य सर्वेशीं स्तुत्वा हृदि विसर्जयेत् ।४७।

एवं यो भजते राधां सर्वाद्यां सर्वमंगलाम् ।
भुक्त्वेह भोगानखिलान्सोऽन्ते गोलोकमाप्नुयात् ।४८।

अथ तुभ्यं महालक्ष्म्या विधानं वच्मि नारद ।।
यदाराधनतो भूयात्साधको भुक्तिमुक्तिमान् ।४९ ।

लक्ष्मीमायाकामवाणीपूर्वा कमलवासिनी ।
ङेंता वह्निप्रियांतोऽयं मन्त्रकल्पद्रुमः परः ।५० ।

ऋषिर्नारायणश्चास्य छन्दो हि जगती तथा ।।
देवता तु महालक्ष्मीर्द्विद्विवर्णैः षडंगकम् ।५१।

श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् ।।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकातराम् ।५२।

बिभ्रतीं रत्नमालां च कोटिचंद्रसमप्रभाम् ।।
ध्यात्वा जपेदर्कलक्षं पायसेन दशांशतः ।५३ ।

जुहुयादेधिते वह्नौ श्रीदृकाष्टैः समर्चयेत् ।।
नवशक्तियुते पीठे ह्यंगैरावरणैः सह ।५४ ।

विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्तिश्च सन्नतिः ।।
व्याष्टिरुत्कृष्टिर्ऋद्धिश्च संप्रोक्ता नव शक्तयः ।५५।

अत्रावाह्य च मूलेन मूर्तिं संकल्प्य साधकः।
षट् कोणेषु षडंगानि दक्षिणे तु गजाननम् ।५६।

वामे कुसुमधन्वानं वसुपत्रे ततो यजेत् ।।
उमां श्रीं भारतीं दुर्गां धरणीं वेदमातरम् ।५७ ।

देवीमुषां च पूर्वादौ दिग्विदिक्षु क्रमेण हि ।।
जह्नुसूर्यसुते पूज्ये पादप्रक्षालनोद्यते ।५८।

शंखपद्मनिधी पूज्यौ पार्श्वयोर्घृतचामरौ ।।
धृतातपत्रं वरुणं पूजयेत्पश्चिमे ततः ।५९।

संपूज्य राशीन्परितो यथास्थानं नवग्रहान् ।।
चतुर्दन्तैरावतादीन् दिग्विदिक्षु ततोऽर्चयेत् ।६० ।

तद्बहिर्लोकपालांश्च तदस्त्राणि च तद्बहिः ।।
दूर्वाभिराज्यसिक्ताभिर्जुहुयादायुषे नरः ।६१।

गुडूचीमाज्यसंसिक्तां जुहुयात्सप्तवासरम् ।।
अष्टोत्तरसहस्रं यः स जीवेच्छरदां शतम् ।६२।

हुत्वा तिलान्घृताभ्यक्तान्दीर्घमायुष्यमाप्नुयात् ।।
आरभ्यार्कदिनं मंत्री दशाहं घृतसंप्लुतः ।६३।

जुहुयादर्कसमिधः शरीरारोग्यसिद्धये ।।
शालिभिर्जुह्वतो नित्यमष्टोत्तरसहस्रकम् ।६४।

अचिरादेव महती लक्ष्मी संजायते ध्रुवम् ।।
उषाजा जीनालिकेररजोभिर्गृतमिश्रितैः ।६५ ।

हुनेदष्टोत्तरशतं पायसाशी तु नित्यशः ।।
मण्डलाज्जायते सोऽपि कुबेर इव मानवः ।। ८३-६६ ।।

हविषा गुडमिश्रेण होमतो ह्यन्नवान्भवेत् ।।
जपापुष्पाणि जुहुयादष्टोत्तरसहस्रकम् ।६७।

ताम्बूलरससम्मिश्रं तद्भस्मतिलकं चरेत् ।।
चतुर्णामपि वर्णानां मोहनाय द्विजोत्तमः।।६८।

एवं यो भजते लक्ष्मीं साधकेंद्रो मुनीश्वर ।।
सम्पदस्तस्य जायंते महालक्ष्मीः प्रसीदति ।६९ ।।

देहान्ते वैष्णवं धाम लभते नात्र संशयः ।।
या तु दुर्गा द्विजश्रेष्ठ शिवलोकं गता सती ।७० ।।

सा शिवाज्ञामनुप्राप्य दिव्यलोकं विनिर्ममे ।।
देवीलोकेति विख्यातं सर्वलोकविलक्षणम् ।७१ ।।

तत्र स्थिता जगन्माता तपोनियममास्थिता ।।
विविधान् स्वावतारान्हि त्रिकाले कुरुतेऽनिशम् ।७२ ।

मायाधिका ह्लादिनीयुक् चन्द्राढ्या सर्गिणी पुनः ।।
प्रतिष्ठा स्मृतिसंयुक्ता क्षुधया सहिता पुनः।७३ ।

ज्ञानामृता वह्निजायांतस्ताराद्यो मनुर्मतः ।।
ऋषिः स्याद्वामदेवोऽस्य छंदो गायत्रमीरितम् ।७४।

देवता जगतामादिर्दुर्गा दुर्गतिनाशिनी ।।
ताराद्येकैकवर्णेन हृदयादित्रयं मतम् ७५ ।।

त्रिभिर्वर्मेक्षण द्वाभ्यां सर्वैरस्त्रमुदीरितम् ।।
महामरकतप्रख्यां सहस्रभुजमंडिताम् ।७६ ।।

नानाशस्त्राणि दधतीं त्रिनेत्रां शशिशेखराम् ।।
कंकणांगदहाराढ्यां क्वणन्नूपुरकान्विताम् ।७७ ।।

किरीटकुंडलधरां दुर्गां देवीं विचिंतयेत् ।७८ 

वसुलक्षं जपेन्मंत्रं तिलैः समधुरैर्हुनेत ।।
पयोंऽधसा वा सहस्रं नवपद्मात्मके यजेत् ७९।

प्रभा माया जया सूक्ष्मा विशुद्धानं दिनी पुनः ।।
सुप्रभा विजया सर्वसिद्धिदा पीठशक्तयः ।८०।

अद्भिर्ह्रस्वत्रयक्लीबरहितैः पूजयेदिमाः।
प्रणवो वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महापदात् ।८१ ।।

सिंहाय वर्मास्त्रं हृञ्च प्रोक्तः सिंहमनुर्मुने ।।
दद्यादासनमेतेन मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।८२ ।

अङ्गावृर्त्तिं पुराभ्यार्च्य शक्तीः पत्रेषु पूजयेत् ।।
जया च विजया कीर्तिः प्रीतिः पश्चात्प्रभा पुनः।८३।

श्रद्धा मेधा श्रुतिश्चैवस्वनामाद्यक्षरादिकाः ।
पत्राग्रेष्वर्चयेदष्टावायुधानि यथाक्रमात् ।८४ ।

शंखचक्रगदाखङ्गपाशांकुशशरान्धनुः ।।
लोकेश्वरांस्ततो बाह्ये तेषामस्त्राण्यनंतरम् ।८५ ।

इत्थं जपादिभिर्मंत्री मंत्रे सिद्धे विधानवित् ।।
कुर्यात्प्रयोगानमुना यथा स्वस्वमनीषितान् ।८६ ।

प्रतिष्ठाप्य विधानेन कलशान्नवशोभनान् ।।
रत्नहेमादिसंयुक्तान्घटेषु नवसु स्थितान् ।८७ ।

मध्यस्थे पूजयेद्देवीमितरेषु जयादिकाः ।।
संपूज्य गन्धपुष्पाद्यैरभिषिंचेन्नराधिपम् ।८८ ।

राजा विजयते शत्रून्योऽधिको विजयश्रियम् ।।
प्राप्नोत्रोगो दीर्घायुः सर्वव्याधिविवर्जितः ।८९ ।

वन्ध्याभिषिक्ता विधिनालभते तनयं वरम् ।।
मन्त्रेणानेन संजप्तमाज्यं क्षुद्रग्रहापहम् ।९०।

गर्भिणीनां विशेषेण जप्तं भस्मादिकं तथा ।।
जृंभश्वासे तु कृष्णस्य प्रविष्टेराधिकामुखम् ।९१ ।

या तु देवी समुद्भूता वीणापुस्तकधारिणी ।।
तस्या विधानं विप्रेंद्र श्रृणु लोकोपकारकम् ।९२ ।।

प्रणवो वाग्भवं माया श्रीः कामः शक्तिरीरिता ।।
सरस्वती चतुर्थ्यंता स्वाहांतो द्वादशाक्षरः ।९३।

मनुर्नारायण ऋषिर्विराट् छन्दः समीरितम् ।।
महासरस्वती चास्य देवता परिकीर्तिता ।९४ ।।

वाग्भवेन षडंगानि कृत्वा वर्णान्न्यसेद् बुधः ।।
ब्रह्मरंध्रे न्यसेत्तारं लज्जां भ्रूमध्यगां न्यसेत् ।९५ ।।

मुखनासादिकर्णेषु गुदेषु श्रीमुखार्णकान् ।।
ततो वाग्देवतां ध्यायेद्वीणापुस्तकधारिणीम् ।९६।

कर्पूरकुंदधवलां पूर्णचंद्रोज्ज्वलाननाम् ।।
हंसाधिरूढां भालेंदुदिव्यालंकारशोभिताम् ।९७ ।।

जपेद्द्वादशलक्षाणि तत्सहस्रं सितांबुजैः ।।
नागचंपकपुष्पैर्वा जुहुयात्साधकोत्तमः ।९८ ।।

मातृकोक्ते यजेत्पीठे वक्ष्यमाणक्रमेण ताम् ।।
वर्णाब्जेनासनं दद्यान्मूर्तिं मूलेन कल्पयेत् ।९९ ।।

देव्या दक्षिणतः पूज्या संस्कृता वाङ्मयी शुभा ।।
प्राकृता वामतः पूज्या वाङ्मयीसर्वसिद्धिदा।१००।

पूर्वमंगानि षट्कोणे प्रज्ञाद्याः प्रयजेद्बहिः ।।
प्रज्ञा मेधा श्रुतिः शक्तिः स्मृतिर्वागीश्वरी मतिः ।१०१।

स्वस्तिश्चेति समाख्याता ब्रह्माद्यास्तदनंतरम् ।।
लोकेशानर्चयेद्भूयस्तदस्त्राणि च तद्बहिः ।१०२।

एवं संपूज्य वाग्देवीं साक्षाद्वाग्वल्लभो भवेत् ।।
ब्रह्मचर्यरतः शुद्धः शुद्धदंतनखा दिकः ।१०३।

संस्मरन् सर्ववनिताः सततं देवताधिया ।।
कवित्वं लभते धीमान् मासैर्द्वादशभिर्ध्रुवम् ।१०४।

पीत्वा तन्मंत्रितं तोयं सहस्रं प्रत्यहं मुने ।।
महाकविर्भवेन्मंत्री वत्सरेण न संशयः ।१०५ ।।

उरोमात्रोदके स्थित्वा ध्यायन्मार्तंडमंडले ।।
स्थितां देवीं प्रतिदिनं त्रिसहस्रं जपेन्मनुम् ।१०६।

लभते मंडलात्सिद्धिं वाचामप्रतिमां भुवि ।।
पालाशबिल्वकुसुमैर्जुहुयान्मधुरोक्षितैः ।१०७ ।

समिद्भिर्वा तदुत्थाभिर्यशः प्राप्नोति वाक्पतेः ।।
राजवृक्षसमुद्भूतैः प्रसूनैर्मधुराप्लुतैः ।१०८ ।

सत्समिद्भिश्च जुहुयात्कवित्वमतुलं लभेत् ।।
अथ प्रवक्ष्ये विप्रेंद्र सावित्रीं ब्रह्मणः प्रियाम् ।१०९।

यां समाराध्य ससृजे ब्रह्मा लोकांश्चराचरान् ।।
लक्ष्मी माया कामपूर्वा सावित्री ङेसमन्विता ।११०।

स्वाहांतो मनुराख्यातः सावित्र्या वसुवर्णवान् ।।
ऋषिर्ब्रह्मास्य गायत्री छंदः प्रोक्तं च देवता ।१११।

सावित्री सर्वदेवानां सावित्री परिकीर्तिता ।।
हृदंतिकैर्ब्रह्म विष्णुरुद्रेश्वरसदाशिवैः ।११२।

सर्वात्मना च ङेयुक्तैरंगानां कल्पनं मतम् ।।
तप्तकांचनवर्णाभां ज्वलंतीं ब्रह्मतेजसा ।११३।

ग्रीष्ममध्याह्नमार्तंडसहस्रसमविग्रहाम् ।।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्नभूषणभूषिताम् ।११४ ।।

बह्निशुद्धांशुकाधानां भक्तानुग्रहकातराम् ।।
सुखदां मुक्तिदां चैव सर्वसंपत्प्रदां शिवाम् ।११५।

वेदबीजस्वरूपां च ध्यायेद्वेदप्रसूं सतीम् ।।
ध्यात्वैवं मण्डले विद्वान् त्रिकोणोज्ज्वलकर्णिके ।११६ ।।

सौरे पीठे यजेद्देवीं दीप्तादिनवशक्तिभिः ।।
मूलमंत्रेण क्लृप्तायां मूर्तौ देवीं प्रपूजयेत् ।११७ ।।

कोणेषु त्रिषु संपूज्या ब्राहृयाद्याः शक्तयो बहिः ।।
आदित्याद्यास्ततः पूज्या उषादिसहिताः क्रमात् ।११८।

ततः षडंगान्यभ्यर्च्य केसरेषु यथाविधि ।।
प्रह्लादिनीं प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वंभरां पुनः ।११९।

विलासिनीप्रभावत्यौ जयां शांतां यजेत्पुनः ।।
कांतिं दुर्गासरस्वत्यौ विद्यारूपां ततः परम् ।१२०।

विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् ।।
तमोपहारिणीं सूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम्
१२१।

पद्नालयां परां शोभां ब्रह्मरूपां ततोऽर्चयेत् ।।
ब्राह्ययाद्याः शारणा बाह्ये पूजयेत्प्रोक्तलक्षणाः।१२२।

ततोऽभ्यर्च्येद् ग्रहान्बाह्ये शक्राद्यानयुधैः सह ।।
इत्थमावरणैर्देवीः दशभिः परिपूजयेत् ।१२३ ।।

अष्टलक्षं जपेन्मंत्रं तत्सहस्रं हुनेत्तिलैः ।।
सर्वपापुविनिर्मुक्तो दीर्घमायुः स विंदति ।१२४ ।।

अरुणाब्जैस्त्रिमध्वक्तैर्जुहुयादयुतं ततः ।।
महालक्ष्मीर्भवेत्तस्य षण्मासान्नात्र संशयः ।१२५ ।।

ब्रह्मवृक्षप्रसूनैस्तु जुहुयाद्बाह्यतेजसे ।।
बहुना किमिहोक्तेन यथावत्साधिता सती ।१२६ ।।

साधकानामियं विद्या भवेत्कामदुधा मुने ।।
अथ ते संप्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् ।१२७ ।।

सावित्रीपंजरं नाम सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।।
व्योमकेशार्लकासक्तां सुकिरीटविराजिताम् ।१२८।

मेघभ्रुकुटिलाक्रांतां विधिविष्णुशिवाननाम् ।।
गुरुभार्गवकर्णांतां सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।१२९ ।

इडापिंगलिकासूक्ष्मावायुनासापुटान्विताम् ।।
संध्याद्विजोष्ठपुटितां लसद्वागुपजिह्विकाम् ।१३०।

संध्यासूर्यमणिग्रीवां मरुद्बाहुसमन्वितान् ।।
पर्जन्यदृदयासक्तां वस्वाख्यप्रतिमंडलाम् ।१३१।

आकाशोदरविभ्रांतां नाभ्यवांतरवीथिकाम् ।।
प्रजापत्याख्यजघनां कटींद्राणीसमाश्रिताम् ।१३२।

ऊर्वोर्मलयमेरुभ्यां शोभमानां सरिद्वराम् ।।
सुजानुजहुकुशिकां वैश्वदेवाख्यसंज्ञिकाम् ।१३३।

पादांघ्रिनखलोमाख्यभूनागद्रुमलक्षिताम् ।।
ग्रहराश्यर्क्षयोगादिमूर्तावयवसंज्ञिकाम् ।१३४।

तिथिमासर्तुपक्षाख्यैः संकेतनिमिषात्मिकाम् ।।
मायाकल्पितवैचित्र्यसंध्याख्यच्छदनावृताम् ।१३५।

ज्वलत्कालानलप्रख्यों तडित्कीटिसमप्रभाम् ।।
कोटिसूर्यप्रतीकाशां शशिकोटिसुशीतलाम् ।१३६।।

सुधामंडलमध्यस्थां सांद्रानंदामृतात्मिकाम् ।।
वागतीतां मनोऽगर्म्या वरदां वेदमातरम् ।१३७।

चराचरमयीं नित्यां ब्रह्माक्षरसमन्विताम् ।।
ध्यात्वा स्वात्माविभेदेन सावित्रीपंजरं न्यसेत् ।१३८।

पञ्चरस्य ऋषिः सोऽहं छंन्दो विकृतिरुच्यते ।।
देवता च परो हंसः परब्रह्मादिदेवता ।१३९ ।

धर्मार्थकाममोक्षाप्त्यै विनियोग उदाहृतः ।।
षडंगदेवतामन्त्रैरंगन्यासं समाचरेत् ।१४० ।।

त्रिधामूलेन मेधावी व्यापकं हि समाचरेत् ।।
पूर्वोक्तां देवातां ध्यायेत्साकारां गुणसंयुताम्।१४१।

त्रिपदा हरिजा पूर्वमुखी ब्रह्मास्त्रसंज्ञिका ।।
चतुर्विशतितत्त्वाढ्या पातु प्राचीं दिशं मम ।१४२।

चतुष्पदा ब्रह्मदंडा ब्रह्माणी दक्षिणानना ।।
षड्विंशतत्त्वसंयुक्ता पातु मे दक्षिणां दिशम्।१४३।

प्रत्यङ्मुखी पञ्चपदी पञ्चाशत्तत्त्वरूपिणी ।।
पातु प्रतीचीमनिशं मम ब्रह्मशिरोंकिता ।१४४।

सौम्यास्या ब्रह्मतुर्याढ्या साथर्वांगिरसात्मिका ।।
उदीचीं षट्पदा पातु षष्टितत्त्वकलात्मिका।१४५।

पञ्चाशद्वर्णरचिता नवपादा शताक्षरी ।।
व्योमा संपातु मे वोर्द्ध्वशिरो वेदांतसंस्थिता।१४६।

विद्युन्निभा ब्रह्मसन्ध्या मृगारूढा चतुर्भुजा ।।
चापेषुचर्मासिधरा पातु मे पावकीं दिशम् ।१४७ ।

ब्रह्मी कुमारी गायत्री रक्तांगी हंसवाहिनी ।।
बिभ्रत्कमंडलुं चाक्षं स्रुवस्रुवौ पातु नैर्ऋतिम्।१४८।

शुक्लवर्णा च सावित्री युवती वृषवाहना ।
कपालशूलकाक्षस्रग्धारिणी पातु वायवीम् ।१४९।

श्यामा सरस्वती वृद्धा वैष्णवी गरुडासना ।।
शंखचक्राभयकरा पातु शैवीं दिशं मम।१५० ।

चतुर्भुजा देवमाता गौरांगी सिंहवाहना ।।
वराभयखङ्गचर्मभुजा पात्वधरां दिशम्।१५१।।

तत्तत्पार्श्वे स्थिताः स्वस्ववाहनायुधभूषणाः ।।
स्वस्वदिक्षुस्थिताः पातुं ग्रहशक्त्यंगसंयुताः।१५२।

मंत्राधिदेवतारूपा मुद्राधिष्ठातृदेवताः ।।
व्यापकत्वेन पांत्वस्मानापादतलमस्तकम्।१५३ ।

इदं ते कथितं सत्यं सावित्रीपंजरं मया ।।
संध्ययोः प्रत्यहं भक्त्या जपकाले विशेषतः।१५४।

पठनीयं प्रयत्नेन भुक्तिं मुक्तिं समिच्छता ।।
भूतिदा भुवना वाणी महावसुमती मही ।१५५।

हिरण्यजननी नन्दा सविसर्गा तपस्विनी ।
यशस्विनी सती सत्या वेदविच्चिन्मयी शुभा ।१५६।

विश्वा तुर्या वरेण्या च निसृणी यमुना भुवा ।।
मोदा देवी वरिष्ठा च धीश्च शांतिर्मती मही ।१५७ ।।

धिषणा योगिनी युक्ता नदी प्रज्ञाप्रचोदनी ।।
दया च यामिनी पद्मा रोहिणी रमणी जया।१५८ ।।

सेनामुखी साममयी बगला दोषवार्जिता ।।
माया प्रज्ञा परा दोग्ध्री मानिनी पोषिणी क्रिया १५९ ।

ज्योत्स्ना तीर्थमयी रम्या सौम्यामृतमया तथा ।।
ब्राह्मी हैमी भुजंगी च वशिनी सुंदरी वनी।१६० ।।

ॐकारहसिनी सर्वा सुधा सा षड्गुणावती ।।
माया स्वधा रमा तन्वी रिपुघ्नी रक्षणणी सती ।१६१।

हैमी तारा विधुगतिर्विषघ्नी च वरानना ।।
अमरा तीर्थदा दीक्षा दुर्धर्षा रोगहारिणी ।१६२ ।

नानापापनृशंसघ्नी षट्पदी वज्रिणी रणी ।।
योगिनी वमला सत्या अबला बलदा जया।१६३ ।।

गोमती जाह्नवी रजावी तपनी जातवेदसा ।।
अचिरा वृष्टिदा ज्ञेया ऋततंत्रा ऋतात्मिका ।१६४।

सर्वकामदुधा सौम्या भवाहंकारवर्जिता ।।
द्विपदा या चतुष्पदा त्रिपदा या च षट्पदा ।१६५।

अष्टापदी नवपदी सहस्राक्षाक्षरात्मिका ।।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां सावित्र्या यः पठेन्नरः ।१६६ ।।

स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ।।
एतत्ते कथितं विप्र पंचप्रकृतिलक्षणम् ।१६७ ।।

मंत्राराधनपूर्वं च विश्वकामप्रपूरणम् ।१६८।

इति श्रीबृहन्नारदीय पुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे पञ्चप्रकृतिमन्त्रादिनिरूपणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।८३।




ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ०३

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ | खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)
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अध्यायः ०३
वेदव्यासः अध्यायः ०४ →
श्रीनारायण उवाच ।।
अथाण्डं तज्जलेऽतिष्ठद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।
ततः स्वकाले सहसा द्विधारूपो बभूव सः ।।१।।
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः।।
क्षणं रोरूयमाणश्च स शिशुः पीडितः क्षुधा।।२।।
पितृमातृपरित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।।
नैकब्रह्माण्डनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ।। ३ ।।
स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ।।
परमाणुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाऽप्यसौ ।। ४ ।।
तेजसां षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः ।।
आधारोऽसंख्यविश्वानां महाविष्णुस्सुरेश्वरः ।। ५ ।।
प्रत्येकं रोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।।
अद्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः ।। ६ ।।
यथाऽस्ति संख्या रजसां विश्वानां न कदाचन ।।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ।। ७ ।।
प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।।
पातालाद्ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्त्तितम् ।। ८ ।।
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्बहिरेव सः ।।
स च सत्यस्वरूपश्च शश्वन्नारायणो यथा ।। ९ ।।
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत्कोटियोजनात् ।।
नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् ।। 2.3.१० ।।
सप्तद्वीपमिता पृथ्वी सप्तसागरसंयुता ।।
एकोनपञ्चाशदुपद्वीपाऽसंख्यवनान्विता ।। ११ ।।
ऊर्ध्वं सप्त सुवर्लोका ब्रह्मलोकसमन्विताः ।।
पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।। १२ ।।
ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परः ।।
स्वर्लोकस्तु ततः पश्चान्महर्लोकस्ततो जनः ।। १३ ।।
ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ।।
ततः परो ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चननिर्मितः ।। ।।१४ ।।
एवं सर्वं कृत्रिमं तद्बाह्याभ्यन्तर एव च ।।
तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।। १९ ।।
जलबुदुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ।।
नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ सत्यौ शश्वदकृत्रिमौ ।। १६ ।।
लोमकूपे च विध्यण्डं प्रत्येकं तस्य निश्चितम् ।।
एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा ।। १७ ।।
प्रत्येकं प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।।
तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।। १८ ।।
दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ।।
भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽधो नागाश्च चराचराः ।। १९ ।।
अथ कालेन स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ।।
डिम्भान्तरं च शून्यं च न द्वितीयं कथंचन ।। 2.3.२० ।।
चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ।।
ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।। २१ ।।
ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।।
नवीननीरदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।। २२ ।।
सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकारकम् ।।
जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।। २३ ।।
वरं तस्मै ददौ तुष्टो वरेशः समयोचितम्।।
मत्समो ज्ञानयुक्तश्व क्षुत्पिपासाविवर्जितः ।। २४ ।।
ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ।।
निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो वरः ।।
रोगमृत्युजराशोकपीडादिपरिवर्जितः ।। २५ ।।
इत्युक्त्वा तद्दक्षकर्णे महामन्त्रं षडक्षरम् ।।
त्रिः कृत्वा प्रजजापादौ वेदाङ्गमवरं परम् ।। २६ ।।
प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।।
वह्निज्वालान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ।। २७ ।।
मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै प्रभुः।।
श्रूयतां तद्ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ।। २८ ।।
प्रतिविश्वेषु नैवेद्यं दद्याद्वै वैष्णवो जनः ।।
षोडशांशं विषयिणो विष्णोः पञ्चदशास्य वै ।। २९ ।।
निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।।
नैवेद्येन च कृष्णस्य नहि किञ्चित्प्रयोजनम् ।। 2.3.३० ।।
यद्ददाति व नैवेद्यं यस्मै देवाय यो जनः ।।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीदृष्ट्या पुनर्भवेत् ।। ३१ ।।
तं च मन्त्रं वरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः ।।
अन्यो वरः क इष्टस्ते तं मे ब्रूहि ददामि ते ।। ३२ ।।
कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच महाविराट् ।।
अदन्तो बालकस्तत्र वचनं समयोचितम् ।। ३३ ।।
महाविराडुवाच ।।
वरं मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।।
सन्ततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ।। ३४ ।।
त्वद्भक्तियुक्तो यो लोके जीवन्मुक्तः स सन्ततम् ।।
त्वद्भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ।। ३५ ।।
किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन यजनेन च ।।
व्रतेनैवोपवासेन पुण्यतीर्थनिषेवया ।। ३६ ।।
कृष्णभक्तिविहीनस्य पुंसः स्याज्जीवनं वृथा ।।
येनात्मना जीवितश्च तमेव नहि मन्यते ।। ३७ ।।
यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स्याच्छक्तिसंयुतः ।।
पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्न स्वतन्त्राश्च शक्तयः ।।३८।।
स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।।
स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्म ज्योतिः सनातनः ।। ३९ ।।
इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।।
उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ।। 2.3.४० ।।
श्रीकृष्ण उवाच ।।
सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाऽहं त्वं तथा भव ।।
असंख्यब्रह्मणां पाते पातस्ते न भविष्यति ।। ४१ ।।
अंशेन प्रतिविध्यण्डे त्वं च पुत्र विराड् भव ।।
त्वन्नाभिपद्मे ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति ।। ४२ ।।
ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव तु ।।
शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंचरणाय वै ।। ४३ ।।
कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।।
पाता विष्णुश्च विषयी क्षुद्रांशेन भविष्यति।। ।। ४४ ।।
मद्भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।।
ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम् ।। ४५ ।।
मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् ।।
यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ।। ४६ ।।
गत्वा च नाकं ब्रह्माणं शङ्करं स उवाच ह ।।
स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तारं च तत्क्षणम्।।४७।।
श्रीकृष्ण उवाच ।।
सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव।।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधेः शृणु ।। ४८ ।।
गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्भवो भव ।।
अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तपः ।। ४९ ।।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुतः ।।
जगाम नत्वा तं ब्रह्मा शिवश्च शिवदायकः ।। 2.3.५० ।।
महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डे गोलके जले ।।
स बभूव विराट्क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ।। ५१ ।।
श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके।।
ईषद्धासः प्रसन्नास्यो विश्वरूपी जनार्दनः ।। ५२ ।।
तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्भवः ।।
संभूय पद्मदण्डं च बभ्राम युगलक्षकम् ।। ५३ ।।
नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनाभस्य पद्मजः ।।
नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पितामहः ।। ५४ ।।
स्वस्थानं पुनरागत्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् ।।
ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यात्वा तद्दिव्यचक्षुषा ।। ५५ ।।
शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डपिण्डमावृते ।।
यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ।। ५६ ।।
श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् ।।
तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ।। ५७ ।।
बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।।
ततो रुद्राः कपालाच्च शिवस्यैकादश स्मृताः ।। ५८ ।।
बभूव पाता विष्णुश्च वामे क्षुद्रस्य पार्श्वतः ।।
चतुर्भुजश्च भगवाञ्श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।। ५९ ।।
क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज सः ।।
स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकं सचराचरम् ।। 2.3.६० ।।
एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च ।।
प्रतिविश्वं क्षुद्रविराड् ब्रह्म विष्णुशिवादयः ।६१ ।।
इत्येवं कथितं वत्स कृष्णसङ्कीर्त्तनं शुभम् ।।
सुखदं मोक्षदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।६२ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विश्वब्रह्माण्डवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः।।३।।

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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ३ (गणपतिखण्डः)अध्यायः (७)
            "नारायण उवाच।
हरेराज्ञां समादाय हरः संहृष्टमानसः ।।
उवाच पार्वतीं प्रीत्या हरिसंलापमङ्गलम् ।।१।।

शिवाज्ञां च समादाय शिवा संहृष्टमानसा ।।
वाद्यं च वादयामास मंगलं मगलव्रते ।। २ ।।

सुस्नाता सुदती शुद्धा बिभ्रती धौतवाससी ।।
संस्थाप्य रत्नकलशं शुक्लधान्योपरि स्थिरम् ।३।

आम्रपल्लवसंयुक्तं फलाक्षतसुशोभितम् ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीकुंकुमेन विराजितम् ।। ४ ।।

रत्नासनस्था रत्नाढ्या रत्नोद्भवसुता सती ।।
रत्नसिंहासनस्थांश्च संपूज्य मुनिपुंगवान् ।।५।।

रत्नसिंहासनस्थं च संपूज्य सुपुरोहितम् ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीरत्नभूषणभूषितम् ।। ६ ।।

संस्थाप्य पुरतो भक्त्या दिक्पालान्रत्नभूषितान् ।।
देवान्नरांश्च नागांश्च समर्च्य विधिबोधितम् ।। ७ ।।

समर्च्य परया भक्त्या ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीकुंकुमेन विराजितान् ।। ८ ।।

वह्निशुद्धैस्सुवस्त्रैश्च सद्रत्नैर्भूषणैस्तथा ।।
पूजाद्रव्यैश्च विविधैः पूजितान्पुण्यके मुने ।।
समारेभे व्रतं देवी स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ।। ९ ।।

आवाह्याभीष्टदेवं तं श्रीकृष्णं मंगले घटे ।।
भक्त्या ददौ क्रमेणैव चोपचारांस्तु षोडश ।१०।

यानि व्रते विधेयानि देयानि विविधानि च ।।
प्रददौ तानि सर्वाणि प्रत्येकं फलदानि च ।। ११ ।।

व्रतोक्तमुपहारं च दुर्लभं भुवनत्रये ।।
तच्च सर्वं ददौ भक्त्या सुव्रते सुव्रता सती ।।१२ ।।

दत्त्वा द्रव्याणि सर्वाणि वेदमन्त्रेण सा सती ।।
होमं च कारयामास त्रिलक्षं तिलसर्पिषा ।।
ब्राह्मणान्भोजयामास पूजयित्वाऽतिथींस्तथा।। १३।।

भोजयामास सा देवी सुव्रते सुव्रता सती ।।
प्रत्यहं सविधानं च चक्रे सा पूर्णवत्सरम् ।। १४ ।।

समाप्तिदिवसे विप्रस्तमुवाच पुरोहितः ।।
सुव्रते सुव्रते मह्यं देहि त्वं पतिदक्षिणाम् ।। १५ ।।

इति तद्वचनं श्रुत्वा विलप्य सुरसंसदि ।।
मूर्च्छां प्राप महामाया मायामोहितचेतसा ।।१६।।

तां च ते मूर्च्छितां दृष्ट्वा प्रहस्य मुनिपुंगवाः ।।
शङ्करं प्रेषयामास ब्रह्मा विष्णुश्च नारद ।। १७ ।।

संप्रार्थितः सभासद्भिः शिवां बोधयितुं तदा ।।
शिवः समुद्यमं चक्रे प्रवक्तुं वदतां वरः ।।१८।।

                "श्रीमहादेव उवाच ।।
उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते भविष्यति न संशयः ।।
साम्प्रतं चेतनं कृत्वा मदीयं वचनं शृणु ।।१९।।

शिवःशिवां तामित्युक्त्वा शुष्ककण्ठौष्ठतालुकाम्।।
वक्षसि स्थापयामास कारयामास चेतनाम् ।।२०।।

हितं सत्यं मितं सर्वं परिणामसुखावहम् ।।
यशस्करं च फलदं प्रवक्तुमुपचक्रमे ।।२१ ।।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यद्वेदेन निरूपितम् ।।
सर्वसम्मतमिष्टं च धर्मार्थं धर्म्मसंसदि ।। २२ ।।

सर्वेषां कर्म्मणां देवि सारभूता च दक्षिणा ।।
यशोदा फलदा नित्यं धर्मिष्ठे धर्मकर्मणि ।। २३ ।।

दैवं वा पैतृकं वाऽपि नित्यं नैमित्तिकं प्रिये ।।
यत्कर्म्म दक्षिणाहीनं तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ।।
दाता च कर्म्मणा तेन कालसूत्रं व्रजेद्ध्रुवम् ।२४।

अथान्ते दैन्यमाप्नोति शत्रुणा परिपीडितः ।।
दक्षिणा विप्रमुद्दिश्य तत्कालं तु न दीयते ।।२९।।

तन्मुहूर्ते व्यतीते तु दक्षिणा द्विगुणा भवेत् ।।
चतुर्गुणा दिनातीते पक्षे शतगुणा भवेत् ।। २६ ।।

मासे पञ्चशतघ्ना स्यात्षण्मासे तच्चतुर्गुणा ।।
संवत्सरे व्यतीते तु कर्म्म तन्निष्फलं भवेत् ।।२७।।

दाता च नरकं याति यावद्वर्षसहस्रकम् ।।
पुत्रपौत्रधनैश्वर्य्यं क्षयमाप्नोति पातकात् ।।
धर्मो नष्टो भवेत्तस्य धर्म्महीने च कर्म्मणि ।।२८।।

                  "श्रीविष्णुरुवाच।।
रक्ष स्वधर्मं धर्मिष्ठे धर्मज्ञे धर्मकर्मणि ।।
सर्वेषां च भवेद्रक्षा स्वधर्मपरिपालने ।।२९ ।।
                    "ब्रह्मोवाच ।।
यश्च केन निमित्तेन न धर्मं परिरक्षति ।।
धर्मे नष्टे च धर्मज्ञे तस्य कर्ता विनश्यति ।।३०।।

                      "धर्म उवाच ।।
मां रक्ष यत्नतः साध्वि प्रदाय पतिदक्षिणाम् ।।
मयि स्थिते महासाध्वि सर्वं भद्रं भविष्यति ।।३१।।
                         "देवा ऊचुः ।।
धर्मं रक्ष महासाध्वि कुरु पूर्णं व्रतं सति ।।
वयं तव व्रते पूर्णे कुर्मस्त्वां पूर्णमानसाम् ।।३२।।
                        "मुनय ऊचुः ।।
कृत्वा साध्वि पूर्णहोमं देहि विप्राय दक्षिणाम् ।।
स्थितेष्वस्मासु धर्मज्ञे किमभद्रं भविष्यति ।।३३।।
                      "सनत्कुमार उवाच ।।
शिवे शिवं देहि मह्यं न चेद्व्रतफलं त्यज ।।
सुचिरं संचितस्यापि स्वात्मनस्तपसः फलम् ।३४।।

कर्मण्यदक्षिणे साध्वि यागस्याहं तु तत्फलम् ।।
प्राप्स्यामि यजमानस्य संपूर्णं कर्मणः फलम् ।। ३५।।
                     "पार्वत्युवाच ।।
किं कर्म्मणा मे देवेशाः किं मे दक्षिणया मुने ।।
किं पुत्रेण च धर्मेण यत्र भर्त्ता च दक्षिणा ।। ३६ ।।

वृक्षार्चने फलं किं वै यदि भूमिर्न चार्च्यते ।।
गते च कारणे कार्य्यं कुतः सस्यं कुतः फलम्।।३७।

प्राणास्त्यक्ताः स्वेच्छया चेद्देहैस्स्यात्किं प्रयोजनम्।
दृष्टिशक्तिविहीनेन चक्षुषा किं प्रयोजनम् ।।३८।।

शतपुत्रसमः स्वामी साध्वीनां च सुरेश्वराः ।।
यदि भर्त्ता व्रते देयः किं व्रतेन सुतेन वा ।।३९।।

भर्तुर्वंशश्च तनयः केवलं भर्तृमूलकः ।।
यत्र मूलं भवेद्भ्रष्टं तद्वाणिज्यं च निष्फलम् ।।४०।।

                  "श्रीविष्णुरुवाच ।।
पुत्रादपि परः स्वामी धर्मश्च स्वामिनः परः ।।
नष्टे धर्मे च धर्मिष्ठे स्वामिना किं सुतेन वा ।। ४१।।

                       "ब्रह्मोवाच ।।
स्वामिनश्च परो धर्मो धर्मात्सत्यं च सुव्रते।।
सत्यं संकल्पितं कर्म न तु भ्रष्टं कुरु व्रतम्।।४२।।
                       "पार्वत्युवाच।।
निरूपितश्च वेदेषु स्वशब्दो धनवाचकः।।
तद्यस्यास्तीति स स्वामी वेदज्ञ शृणु मद्वचः।।४३।।
________________________
तस्य दाता सदा स्वामी न च स्वस्वामितां लभेत्।।
अहोऽव्यवस्था भवतां वेदज्ञानामबोधतः ।।४४।।
                   "धर्म्म उवाच ।।
पत्नी विनाऽन्यं स्वं साध्वि स्वामिनं दातुमक्षमा ।।
दम्पती ध्रुवमेकाङ्गौ द्वयोर्दाने द्वकौ समौ ।। ४५ ।।
                     "पार्वत्युवाच ।।
पिता ददाति जामात्रे स च गृह्णाति तत्सुताम् ।।
न श्रुतं विपरीतं च श्रुतौ श्रुतिपरायणाः ।। ४६ ।।
                      "देवा ऊचुः ।।
बुद्धिस्वरूपा त्वं दुर्गे बुद्धिमन्तो वयं त्वया ।।
वेदज्ञे वेदवादेषु के वा त्वां जेतुमीश्वराः।।४७।।

निरूपिता पुण्यके तु व्रते स्वामी च दक्षिणा ।।
श्रुतौ श्रुतो यः स धर्मो विपरीतो ह्यधर्मकः ।।४८।।
                      "पार्वत्युवाच ।।
केवलं वेदमाश्रित्य कः करोति विनिर्णयम् ।।
बलवाँल्लौकिको वेदाल्लोकाचारं च कस्त्यजेत्।४९।

वेदे प्रकृतिपुंसोश्च गरीयान्पुरुषो ध्रुवम् ।।
निबोधत सुराः प्राज्ञा बालाहं कथयामि किम्।५०।

                   "बृहस्पतिरुवाच ।।
न पुमांसं विना सृष्टिर्न साध्वि प्रकृतिं विना ।।
श्रीकृष्णश्च द्वयोः स्रष्टा समौ प्रकृतिपूरुषौ।५१
                    पार्वत्युवाच ।।
सर्वस्रष्टा च यः कृष्णः सोंऽशेन सगुणः पुमान्।
पुमान्गरीयान्प्रकृतेस्तथैव न ततश्च सा ।।५२।।

एतस्मिन्नन्तरे देवा मुनयस्तत्र संसदि ।।
रत्नेन्द्रसाररचितमाकाशे ददृशू रथम् ।। ५३ ।।

पार्षदैस्संपरिवृतं युतं श्यामैश्चतुर्भुजैः ।।
वनमालापरिवृतै रत्नभूषणभूषितैः ।।
अवरुह्य मुदा यानादाजगाम सभातलम् ।। ५४ ।।

तुष्टुवुस्तं सुरेन्द्रास्ते देवं वैकुण्ठवासिनम् ।।
शंखचक्रगदापद्मधरमीशं चतुर्भुजम् ।। ५५ ।।

लक्ष्मीसरस्वतीकान्तं शान्तं तं सुमनोहरम् ।।
सुखदृश्यमभक्तानामदृश्यं कोटिजन्मभिः ।। ५६ ।।

कोटिकन्दर्पलावण्यं कोटिचन्द्रसमप्रभम् ।।
अमूल्यरत्नरचितचारुभूषणभूषितम् ।।५७ ।।

सेव्यं ब्रह्मादिदेवैश्च सेवकैः सततं स्तुतम् ।।
तद्भासा संपरिच्छन्नैर्वेष्टितं च सुरर्षिभिः ।। ५८ ।।

वासयामास तं ते च रत्नसिंहासने वरे ।।
तं प्रणेमुश्च शिरसा ब्रह्मशक्तिशिवादयः ।। ५९ ।।

तं प्रणेमुश्च शिरसा ब्रह्मशक्तिशिवादयः 
सम्पुटाञ्जलयः सर्वे पुलकाङ्गाश्रुलोचनाः ।। ६०।।

सस्मितस्तांश्च पप्रच्छ सर्वं मधुरया गिरा ।।
प्रबोधितः सुबोधज्ञः प्रवक्तुमुपचक्रमे ।। ६१ ।।

              _श्रीनारायण उवाच ।।
सह बुद्ध्या बुद्धिमन्तो न वक्तुमुचितं सुराः।।
सर्वे शक्त्या यया विश्वे शक्तिमन्तो हि जीविनः।।६२।

ब्रह्मादितृणपर्य्यन्तं सर्वं प्राकृतिकं जगत्।।
सत्यं सत्यं विना मां च मया शक्तिः प्रकाशिता ।। ६३।
आविर्भूता च सा मत्तः सृष्टौ देवी मदिच्छया ।।
तिरोहिता च सा शेषे सृष्टिसंहरणे मयि ।। ६४ ।।

प्रकृतिः सृष्टिकर्त्री च सर्वेषां जननी परा ।।
मम तुल्या च मन्माया तेन नारायणी स्मृता।।६५।।

सुचिरं तपसा तप्तं शंभुना ध्यायता च माम् ।।
तेन तस्मै मया दत्ता तपसां फलरूपिणी ।।६६।।

व्रतं च लोकशिक्षार्थमस्या न स्वार्थमेव च ।।
स्वयं व्रतानां तपसां फलदात्री जगत्त्रये ।। ६७ ।।

मायया मोहिताः सर्वे किमस्या वास्तवं व्रतम् ।।
साध्यमस्य व्रतफलं कल्पे कल्पे पुनः पुनः ।।६८।।

सुरेश्वरा मदंशाश्च ब्रह्मशक्तिमहेश्वराः ।।
कलाः कलांशरूपाश्च जीविनश्च सुरादयः ।। ६९ ।।

मृदा विना घटं कर्त्तुं कुलालश्च यथाऽक्षमः ।।
विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्त्तुमक्षमः ।। ७० ।

विना शक्त्या तथाऽहं च स्वसृष्टिं कर्तुमक्षमः ।।
शक्तिप्रधाना सृष्टिश्च सर्वदर्शनसम्मता ।। ७१ ।।

अहमात्मा हि निर्लिप्तोऽदृश्यः साक्षी च देहिनाम्।
देहाः प्राकृतिकाः सर्वे नश्वराः पाञ्चभौतिकाः ।। ७२ ।।

अहं नित्यः शरीरी च भानुविग्रहविग्रहः ।।
सर्वाधारा सा प्रकृतिः सर्वात्माऽहं जगत्सु च ।।७३।।

अहमात्मा मनो ब्रह्मा ज्ञानरूपो महेश्वरः ।।
पञ्च प्राणाः स्वयं विष्णुर्बुद्धिः प्रकृतिरीश्वरी ।। ।। ७४ ।।

मेधा निद्रादयश्चैताः सर्वाश्च प्रकृतेः कलाः ।।
सा च शैलेन्द्रकन्यैषा त्विति वेदे निरूपितम् । ७९।

अहं गोलोकनाथश्च वैकुण्ठेशः सनातनः ।।
गोपीगोपैः परिवृतस्तत्रैव द्विभुजः स्वयम् ।।
_________________________________
चतुर्भुजोऽत्र देवेशो लक्ष्मीशः पार्षदैर्वृतः ।। ७६ ।।

ऊर्ध्व परश्च वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजने ।।
ममाश्रयश्च गोलोके यत्राहं गोपिकापतिः।७७।
___________________________________
व्रताराध्यस्स द्विभुजः स च तत्फलदायकः।।
यद्रूपं चिन्तयेद्यो हि तच्च तत्फलदायकः।।७८।।

व्रतं पूर्णं कुरु शिवे शिवं दत्त्वा च दक्षिणाम्।।
पुनः समुचितं मूल्यं दत्त्वा नाथं ग्रहीष्यसि।।७९।।

विष्णुदेहा यथा गावो विष्णुदेहस्तथा शिवः ।।
द्विजाय दत्त्वा गोमूल्यं गृहाण स्वामिनं शुभे।।८०।।

यज्ञपत्नीं यथा दातुं क्षमः स्वामी सदैव तु ।।
तथा सा स्वामिनं दातुमीश्वरीति श्रुतेर्मतम्।।८१।।

इत्युक्त्वा स सभामध्ये तत्रैवान्तरधीयत ।।
हृष्टास्ते सा च संहृष्टा दक्षिणां दातुमुद्यता ।। ८२ ।।

कृत्वा शिवा पूर्णहोमं सा शिवं दक्षिणां ददौ ।
स्वस्तीत्युक्त्वा च जग्राह कुमारो देवसंसदि ।८३।

उवाच दुर्गा संत्रस्ता शुष्ककण्ठौष्ठतालुका ।।
कृत्वाञ्जलिपुटा विप्रं हृदयेन विदूयता ।८४।
                      " पार्वत्युवाच ।
गोमूल्यं मत्पतिसममिति वेदे निरूपितम्।।
गवां लक्षं प्रयच्छामि देहि मत्स्वामिनं द्विज।।८५।।

तदा दास्यामि विप्रेभ्यो दानानि विविधानि च।।
आत्महीनो हि देहश्च कर्म्म किं कर्तुमीश्वरः।।८६।।
                    "सनत्कुमार उवाच ।।
गवां लक्षेण मे देवि वल्गुना किं प्रयोजनम् ।।
दत्तस्यामूल्य रत्नस्य गवां प्रत्यर्पणेन च।।८७।।

स्वस्य स्वस्य स्वयं दाता लोकः सर्वो जगत्त्रये।।
कर्त्तुरेवेप्सितं कर्म भवेत्किं वा परेच्छया ।। ८८ ।।

दिगम्बरं पुरः कृत्वा भ्रमिष्यामि जगत्त्रयम्।।
बालकानां बालिकानां समूहस्मितकारणम्।।८९।।

इत्युक्त्वा ब्रह्मणः पुत्रो गृहीत्वा शङ्करं मुने।।
सन्निधौ वासयामास तेजस्वी देवसंसदि।।९०।।

दृष्ट्वा शिवं गृह्यमाणं कुमारेण च पार्वती।।
समुद्यता तनुं त्यक्तुं शुष्ककण्ठौष्ठतालुका।।९१ ।।

विचिन्त्य मनसा साध्वीत्येवमेव दुरत्ययम् ।।
न दृष्टोऽभीष्टदेवश्च न च प्राप्तं फलं व्रते ।।९२।।

एतस्मिन्नन्तरे देवाः पार्वतीसहितास्तदा ।।
सद्यो ददृशुराकाशे तेजसां निकरं परम् ।। ९३ ।।

कोटिसूर्य्यप्रभोर्ध्वं च प्रज्वलन्तं दिशो दश ।।
कैलासशैलपुरतः सर्वदेवादिभिर्युतम् ।। ९४ ।।

सर्वाश्रयं गणाच्छन्नं विस्तीर्णं मण्डलाकृतिम् ।।
तच्च दृष्ट्वा भगवतस्तुष्टुवुस्ते क्रमेण च ।।९५ ।।

                  "विष्णुरुवाच ।।
ब्रह्माण्डानि च सर्वाणि यल्लोमविवरेषु च ।।
सोऽयं ते षोडशांशश्च के वयं यो महाविराट् ।।९६।।
__________________
                    "ब्रह्मोवाच ।।
वेदोपयुक्तं दृश्यं यत्प्रत्यक्षं द्रष्टुमीश्वर ।।
स्तोतुं तद्वर्णितुमहं शक्तः किं स्तौमि तत्परः।९७।
                  "श्रीमहादेव उवाच ।।
ज्ञानाधिष्ठातृदेवोऽहं स्तौमि ज्ञानपरं च किम् ।।
सर्वानिर्वचनीयं तं त्वां च स्वेच्छामयं विभुम् ।९८।

                  "धर्म उवाच।
अदृश्यमवतारेषु यद्दृश्यं सर्वजन्तुभिः ।।
किं स्तौमि तेजोरूपं तद्भक्तानुग्रहविग्रहम् । ९९।

                    "देवा उचुः।।
के वयं त्वत्कलांशाश्च किं वा त्वां स्तोतुमीश्वराः ।।
स्तोतुं न शक्ता वेदा यं न च शक्ता सरस्वती ।। १००।

                     "मुनय उचुः ।।
वेदान्पठित्वा विद्वांसो वयं किं वेदकारणम् ।।
स्तोतुमीशा न वाणी च त्वां वाङ्मनसयोः परम् ।। १०१ ।।

                  "सरस्वत्युवाच ।।
वागधिष्ठातृदेवीं मां वदन्ते वेदवादिनः ।।
किञ्चिन्न शक्ता त्वां स्तोतुमहो वाङ्मनसोः परम् ।। १०२ ।।

                       "सावित्र्युवाच ।।
वेदप्रसूरहं नाथ सृष्ट्वा त्वत्कलया पुरा ।।
किं स्तौमि स्त्रीस्वभावेन सर्वकारणकारणम्।।१०३।।

लक्ष्मीरुवाच ।।
त्वदंशविष्णुकान्ताहं जगत्पोषणकारिणी।।
किं स्तौमि त्वत्कलासृष्टा जगतां बीजकारणम् ।। १०४ ।।

हिमालय उवाच ।।
हसन्ति सन्तो मां नाथ कर्मणा स्थावरं परम्।।
स्तोतुं समुद्यतं क्षुद्रः किं स्तौमि स्तोतुमक्षमः ।। १०५ ।।

क्रमेण सर्वे तं स्तुत्वा देवा विररमुर्मुने ।।
देव्यश्च मुनयः सर्वे पार्वती स्तोतुमुद्यता ।। १०६ ।।

धौतवस्त्रा जटाभारं बिभ्रती सुव्रता व्रते ।।
प्रेरिता परमात्मानं व्रताराध्यं शिवेन च ।।१०७।।

ज्वलदग्निशिखारूपा तेजोमूर्तिमती सती ।।
तपसां फलदा माता जगतां सर्वकर्मणाम् ।१०८।

पार्वत्युवाच ।।
कृष्ण जानासि मां भद्रं नाहं त्वां ज्ञातुमीश्वरी ।।
के वा जानन्ति वेदज्ञा वेदा वा वेदकारकाः ।।१०९।।

त्वदंशास्त्वां न जानन्ति कथं ज्ञास्यन्ति ते कलाः।।
त्वं चापि तत्त्वं जानासि किमन्ये ज्ञातुमीश्वराः ।। ११० ।।

सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमोऽव्यक्तः स्थूलात्स्थूलतमो महान्।
विश्वस्त्वं विश्वरूपश्च विश्वबीजं सनातनः ।।१११।

कार्य्यं त्वं कारणं त्वं च कारणानां च कारणम् ।।
तेजस्स्वरूपो भगवान्निराकारो निराश्रयः ।।११२।

निर्लिप्तो निर्गुणः साक्षी स्वात्मारामः परात्परः ।।
प्रकृतीशो विराड्बीजं विराड्रूपस्त्वमेव च ।।
सगुणस्त्वं प्राकृतिकः कलया सृष्टिहेतवे ।। ११३।

प्रकृतिस्त्वं पुमांस्त्वं च वेदाऽन्यो न क्वचिद्भवेत् ।।
जीवस्त्वं साक्षिणो भोगी स्वात्मनः प्रतिबिम्बकम् ।। ११४ ।।

कर्म त्वं कर्मबीजं त्वं कर्मणां फलदायकः ।।
ध्यायन्ति योगिनस्तेजस्त्वदीयमशरीरि यत् ।।
केचिच्चतुर्भुजं शान्तं लक्ष्मीकान्तं मनोहरम् ।। ११५ ।।

वैष्णवाश्चैव साकारं कमनीयं मनोहरम् ।।
शङ्खचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरं परम् ।।११६।।

द्विभुजं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम् ।।
शान्तं गोपाङ्गनाकान्तं रत्नभूषणभूषितम् ।।११७।।

एवं तेजस्विनं भक्ताः सेवन्ते सन्ततं मुदा ।।
ध्यायन्ति योगिनो यत्तत्कुतस्तेजस्विनं विना ।। १३।।

तत्तेजो बिभ्रतां देव देवानां तेजसा पुरा ।।
आविर्भूता सुराणां च वधाय ब्रह्मणा स्तुता ।।११९।।

नित्या तेजस्त्वरूपाऽहं धृत्वा वै विग्रहं विभो ।।
स्त्रीरूपं कमनीयं च विधाय समुपस्थिता ।१२०।

मायया तव मायाऽहं मोहयित्वाऽसुरान्पुरा ।।
निहत्य सर्वाञ्छैलेन्द्रमगमं तं हिमालयम् ।१२१।

ततोऽहं संस्तुता देवैस्तारकाक्षेण पीडितैः ।।
अभवं दक्षजायायां शिवस्त्री भवजन्मनि ।।१२२।।

त्यक्त्वा देहं दक्षयज्ञे शिवाऽहं शिवनिन्दया ।।
अभवं शैलजायायां शैलाधीशस्य कर्मणा ।१२३।

अनेकतपसा प्राप्तः शिवश्चात्रापि जन्मनि ।।
पाणिं जग्राह मे योगी प्रार्थितो ब्रह्मणा विभुः ।। १२४ ।।

शृङ्गारजं च तत्तेजो नालभं देवमायया ।।
स्तौमि त्वामेव तेनेश पुत्रदुःखेन दुःखिता।१२५।

व्रते भवद्विधं पुत्रं लब्धुमिच्छामि साम्प्रतम् ।।
देवेन विहिता वेदे सांगे स्वस्वामिदक्षिणा ।१२६ ।।

श्रुत्वा सर्वं कृपासिन्धो कृपां मे कर्तुमर्हसि ।।
इत्युक्त्वा पार्वती तत्र विरराम च नारद ।। १२७ ।।

भारते पार्वतीस्तोत्रं यः शृणोति सुसंयतः ।।
सत्पुत्रं लभते नूनं विष्णुतुल्यपराक्रमम् ।। १२८ ।।

संवत्सरं हविष्याशी हरिमभ्यर्च्य भक्तितः ।।
सुपुण्यकव्रतफलं लभते नात्र संशयः ।। १२९ ।।

विष्णुस्तोत्रमिदं ब्रह्मन्सर्वसम्पत्तिवद्धर्नम् ।।
सुखदं मोक्षदं सारं स्वामिसौभाग्यवर्द्धनम् ।।१३०।।

सर्वसौन्दर्य्यबीजं च यशोराशिविवर्द्धनम् ।।
हरिभक्तिप्रदं तत्त्वज्ञानबुद्धिसुखप्रदम् ।।१३१ ।।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रते पतिदाने पार्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रकथनं नाम सप्तमोऽध्यायः।७।


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