मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023

विष्णु के चौबीस अवतार-

श्रीमद्भागवतपुराण-स्कन्धः (१)अध्यायः (३) विष्णु के चौबीस अवतार-


एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम्।
यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः॥५॥

स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमाश्रितः।
चचार दुश्चरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥६॥

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम्।
उद्धरिष्यन् उपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ॥७॥

तृतीयं ऋषिसर्गं वै देवर्षित्वमुपेत्य सः ।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः॥८॥

तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणौ ऋषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतं अकरोद् दुश्चरं तपः॥९॥

पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् ।
प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥१०॥

षष्ठे अत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया।
आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्लादादिभ्य ऊचिवान्॥११।

ततः सप्तम आकूत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत ।
स यामाद्यैः सुरगणैः अपात् स्वायंभुवान्तरम्।१२॥

अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः
दर्शयन्वर्त्म धीराणां सर्वाश्रम नमस्कृतम् ॥१३॥

ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः ।
दुग्धेमामोषधीर्विप्राः तेनायं स उशत्तमः॥१४॥

रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसंप्लवे।
नाव्यारोप्य महीमय्यां अपाद् वैवस्वतं मनुम्॥१५॥

सुरासुराणां उदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ॥१६॥

धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च।
अपाययत्सुरान्अन्यान् मोहिन्या मोहयन्स्त्रिया॥१७॥

चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रद् दैत्येन्द्रमूर्जितम् ।
ददार करजैरूरौ एरकां कटकृत् यथा॥१८॥

पञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः।
पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम्॥१९॥
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अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान् ।
त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रां अकरोन्महीम्॥२०॥

ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः॥२१॥

नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया ।
समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम्॥२२॥

एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी ।
रामकृष्णाविति भुवो भगवान् अहरद्भरम्॥२३॥

ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नां जनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥२४॥

अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु ।
जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः॥२५॥

अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः ।
यथाविदासिनःकुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः॥२६॥

ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः।
कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः तथा ॥२७॥

एते चांशकलाः पुंसःकृष्णस्तु भगवान्स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे॥२८॥
_     
जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः।
सायंप्रातर्गृणन्भक्त्या दुःखग्रामाद् विमुच्यते॥ २९॥

प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद :-

भगवान के अवतारों का वर्णन श्रीसूत जी कहते हैं- सृष्टि के आदि में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थीं। 
उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। 
भगवान के उस विराट् रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है। योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। 
हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है।
 
भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है-

इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है। 
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उन्हीं प्रभु ने पहले कौमार सर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया।

दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकर रूप ग्रहण किया। 
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ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया;

उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है। धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया।  इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की। 

पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्त्वों का निर्णय करने वाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया। 

अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान- दत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया। 

सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र यम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की।
राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया।

इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया। ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए।
शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ।

प्रथम स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद


चाक्षुस मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्वन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की। 

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छप रूप से भगवान ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।

बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और 

तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया। 

चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनाने वाला सींक को चीर डालता है। 

पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये।

 वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी। सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजा लोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया।

 इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए, उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति का देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं। 

अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं।

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उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा। उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगध देश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा।

 इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतीर्ण होंगे।

शौनकादि ऋषियों! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं। 

ऋषिमनुदेवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही अंश हैं। ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान (अवतारी) ही हैं।

 जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान उनकी रक्षा करते हैं। भगवान के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है। 

प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान में ही कल्पित है। जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसर पना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं- वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं।


यहाँ बाईस अवतारों की गणना की गयी है, परन्तु भगवान् के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीस की संख्या यों पूर्ण करते हैं- राम कृष्ण के अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही, शेष चार अवतार श्रीकृष्ण के ही अंश हैं।

स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। 

अतः श्रीकृष्ण को अवतारों की गणना में नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं- एक तो केश का अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्नि पर कृपा करने वाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म।

 इस प्रकार इन अवतारों से विशिष्ट पाँचवे साक्षात् भगवान् वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं- हंस और हयग्रीव।


प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्त्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णुब्रह्मा और रुद्र- ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। 

फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है। 

जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि- क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देने वाला है- वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान का दर्शन कराने वाला है।

प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान विष्णु की आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याण भाजन होते हैं। जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोर रूप वाले- तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णु भगवान और उनके अंश- कला स्वरूपों का ही भजन करते हैं। परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और सन्तान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है। वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है।

ब्रह्माशंकर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझ पर अपने अनुग्रह की-प्रसाद की वर्षा करें।

 जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवी के पति हैं, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजा के रक्षक हैं, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकों के पालनकर्ता हैं तथा पृथ्वी देवी के स्वामी हैं, जिन्होंने यदुवंश में प्रकट होकर अन्धकवृष्णि एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमात्र आश्रय रहे हैं- वे भक्तवत्सल, संतजनों के सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों।

विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलों के चिन्तनरूप समाधि से शुद्ध हुई बुद्धि के द्वारा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शन के अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचि के अनुसार जिनके स्वरूप का वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्ति के लुटाने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रह्मा के हृदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागरित करने के लिये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रूप में उनके मुख से प्रकट हुईं, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे हृदय में प्रकट हों। भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन-इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें। संत पुरुष जिनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान व्यास के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार है।

परीक्षित! वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्मा ने नारद के प्रश्न करने पर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान नारायण ने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कर रहा हूँ)।

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श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 14-25


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