सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

कृष्ण द्वारा दुर्गा स्तुति-

  1. ब्रह्मवैवर्तपुराण-खण्डः(२)(प्रकृतिखण्डः)अध्यायः (६६) 
  1. "नारद उवाच"श्रुतं सर्वं नावशिष्टं किञ्चिदेव हि निश्चितम् ।प्रकृतेः कवचं स्तोत्रं ब्रूहि मे मुनिसत्तम ।१।
  2. नारायण उवाच ।पुरा स्तुता सा गोलोके कृष्णेन परमात्मना ।संपूज्य मधुमासे च संप्रीते रासमण्डले ।मधुकैटभयोर्युद्धे द्वितीये विष्णुना पुरा ।२।
  3. तत्रैव काले सा दुर्गा ब्रह्मणा प्राणसङ्कटे ।चतुर्थे संस्तुता देवी भक्त्या च त्रिपुरारिणा ।३।
  4. पुरा त्रिपुरयुद्धे च महाघोरतरे मुने ।पञ्चमे संस्तुता देवी वृत्रासुरवधे तथा ।४।
  5. शक्रेण सर्वदेवैश्च घोरे च प्राणसङ्कटे ।तदा मुनीन्द्रैर्मनुभिर्मानवैः सुरथादिभिः। ५ ।
  6. संस्तुता पूजिता सा च कल्पे कल्पे परात्परा ।स्तोत्रं च श्रूयतां ब्रह्मन्सर्वविघ्नविनाशकम्।सुखदं मोक्षदं सारं भवसन्तारकारणम् ।६।
  7. "श्रीकृष्ण उवाच । त्वमेव सर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका । ७।
  8. कार्य्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम् ।।परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी ।८।
  9. तेजस्स्वरूपा परमा भक्तानुग्रविग्रहा ।सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा ।९।
  10. सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया ।सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमंगलमंगलः ।2.66.१०।
  11. सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।।सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी ।११।
  12. त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम् ।।दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।१२।
  13. निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मनः प्रिया ।।क्षुत्क्षान्तिः शान्तिरीशा च शान्तिः सृष्टिश्च शाश्वती। १३।
  14. श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा ।सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह ।१४।
  15. प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा ।शश्वत्कर्ममयी शक्तिः सर्वदा सर्वजीविनाम् ।१५।
  16. देवेभ्यः स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी ।।हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी ।१६।
  17. योगिनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम् ।सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धयोगिनी।१७।
  18. ब्रह्माणी माहेश्वरी च विष्णुमाया च वैष्णवी ।भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी ।१८।
  19. ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे ।सतां कीर्त्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा।१९।
  20. महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी ।रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी ।2.66.२०।
  21. वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा ।ब्रह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम् । २१ ।
  22. विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम् ।।मेधा स्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम् ।२२।
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  24. राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी ।सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने ।२३।
  25. तथाऽन्ते त्वं महामारी विश्वे विश्वैश्च पूजिते।कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी।२४।
  26. दुरत्यया मे माया त्वं यया संमोहितं जगत्।यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्गं न पश्यति।२५।
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  28. इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम् ।पूजाकाले पठेद्यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्छिता ।२६।
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  30. वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा।।श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते धुवम्।२७।
  31. कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने।श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते धुवम् ।२८।
  32. यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी ।।श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात्प्रमुच्यते ।२९ ।
  33. पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्नीभेदे च दुर्गतः ।।श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशयः। 2.66.३०।
  34. राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले ।।हिंस्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते ।३१।
  35. गृहदाहे च दावाग्नौ दस्युसैन्यसमन्विते ।।स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशयः।३२।
  36. महादरिद्रो मूर्खश्च वर्षं स्तोत्रं पठेत्तु यः ।।विद्यावान्धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशयः।३३।
  37. इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने दुर्गास्तोत्रं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ।६६।

ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड : अध्याय 66-67 दुर्गा जी का दुर्गनाशनस्तोत्र तथा प्रकृतिकवच या ब्रह्माण्डमोहनकवच एवं उसका माहात्म्य नारद जी ने कहा– मुनिश्रेष्ठ! मैंने सब कुछ सुन लिया।

अवश्य ही अब कुछ भी सुनना शेष नहीं रहा। केवल प्रकृतिदेवी के स्तोत्र और कवच का मुझसे वर्णन कीजिये।

श्री नारायण बोले– नारद! सबसे पहले गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण ने वसन्त-ऋतु में रासमण्डल के भीतर प्रसन्नतापूर्वक देवी की पूजा करके उनकी स्तुति की थी। दूसरी बार मधु और कैटभ के साथ युद्ध के अवसर पर भगवान विष्णु ने देवी का स्तवन किया। तीसरी बार वहीं प्राण संकट का अवसर आया जान ब्रह्मा जी ने दुर्गा देवी की स्तुति की थी।

मुने! चौथी बार त्रिपुरारि शिव ने त्रिपुरों के साथ अत्यन्त घोरतर युद्ध का अवसर आने पर भक्तिभाव से देवी का स्तवन किया था और पाँचवी बार वृत्रासुर वध के समय घोर प्राण संकट की बेला में सम्पूर्ण देवताओं सहित इन्द्र ने दुर्गा देवी की स्तुति की थी। तबसे मुनीन्द्रों, मनुओं और सुरथ आदि मनुष्यों ने प्रत्येक कल्प में परात्परा परमेश्वरी का स्तवन एवं पूजन करना आरम्भ किया। ब्रह्मन! अब तुम देवी का स्तोत्र सुनो, जो सम्पूर्ण विघ्नों का नाश करने वाला, सुखदायक, मोक्षदायक, सार वस्तु तथा भवसागर से पार होने का साधन है।

ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड : अध्याय 66-67

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श्रीकृष्ण बोले– देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टि कार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो।

कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो। वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेजःस्वरूपा हो। भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो।

तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेशा, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मंगलमयी), सर्वमंगलमंगला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्तिस्वरूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दान यज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्तियाँ तुम्हारा ही स्वरूप हैं।

तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो।

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सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में विपत्ति भी तुम्हीं हो।

तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अंकुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो।

देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा) का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो।

तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो।

ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो।

तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो। गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो।

तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है।

तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो।

ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है।

ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या, बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो।

प्रकृतिखण्ड : अध्याय 66-67

विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो।

तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लंघ्य माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्ष मार्ग को नहीं देख पाता।

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इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र का जो पूजा काल में पाठ करता है, उसे मनोवांछित सिद्धि प्राप्त होती है।

जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है।

जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ़ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ़, महाभयंकर शूल और महान ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है।

पुत्र, प्रजा और पत्नी के भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है।

यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढ़े तो निस्संदेह विद्वान और धनवान हो जाता है।

नारद जी ने कहा– समस्त धर्मों के ज्ञाता तथा सम्पूर्ण ज्ञान में विशारद भगवन! ब्रह्माण्ड-मोहन नामक प्रकृतिकवच का वर्णन कीजिये।

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भगवान नारायण बोले– वत्स! सुनो। मैं उस परम दुर्लभ कवच का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में साक्षात श्रीकृष्ण ने ही ब्रह्मा जी को इस कवच का उपदेश दिया था।

फिर ब्रह्मा जी ने गंगा जी के तट पर धर्म के प्रति इस सम्पूर्ण कवच का वर्णन किया था।

फिर धर्म ने पुष्कर तीर्थ में मुझे कृपापूर्वक इसका उपदेश दिया, यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में धारण करके त्रिपुरारि शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और ब्रह्मा जी ने जिसे धारण करके मधु और कैटभ से प्राप्त होने वाले भय को त्याग दिया था।

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