सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

महाविष्णु के तीन रूप-कारणार्णवशायी - गर्भोदकशायी- क्षीराब्धिशायी


पुरुषावतार-
भगवान ने आदि में लोकसृष्टि की इच्छा से महत्तत्त्वादि-सम्भूत षोडशकलात्मक पुरुषावतार धारण किया था।
भगवान के चतुव्र्यूह- श्रीवासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध।
 ‘भगवान’ शब्द श्रीवसुदेव के लिये प्रयुक्त होता है। इन्हीं को ‘आदिदेव नारायण’ भी कहा जाता है। पुरुषावतार के तीन भेद हैं। इनमें आद्यपुरुषावतार उपर्युक्त षोडशकलात्मक पुरुष हैं, ये ही ‘श्रीसंकर्षण’ हैं। 
इन्हीं को ‘कारणार्णवशायी’ या ‘महाविष्णु’ कहते हैं। पुरुषसूक्त में वर्णित ‘सहस्रशीर्षा पुरुष’ ये ही हैं। ये अशरीरी प्रथम पुरुष कारण-सृष्टि अर्थात् तत्त्वसमूह के आत्मा हैं।
आद्य पुरुषावतार भगवान ब्रह्माण्ड में अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट होते हैं, वे द्वितीय पुरुषावतार ‘श्रीप्रद्युम्न’ हैं ये ही ‘गर्भोदकशायी’ हैं।
 इन्हीं पद्मनाभ भगवान के नाभिकमल से हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव होता है-

"यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः।
नाभिहदाम्बुजादासीद् ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः।।
तृतीय पुरुषावतार ‘श्रीअनिरुद्ध’ हैं, जो प्रवेश मात्र विग्रह से समस्त जीवों में अन्तर्यामी रूप से स्थित हैं, प्रत्येक जीव में अधिष्ठत हैं। ये क्षीराब्धिशायी सबके पालन कर्ता हैं।

"केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम्।
चतुर्भुजं कंजरथांगशंखगदाधरं धारणया स्मरन्ति ।2
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"गुणावतार श्रीविष्णु, श्रीब्रह्मा और श्रीरुद्र गुणावतार ( सत्त्व, रज और तम की लीला के लिये ही प्रकट) हैं। इनका आविर्भाव गर्भोदकशायी द्वितीय पुरुषावतार ‘प्रद्युम्न’ से होता है। द्वितीय पुरुषावतार लीला के लिये स्वयं ही इस विश्व की स्थिति, पालन तथा संहार के निमित्त तीनों गुणों को धारण करते हैं; परंतु उनके अधिष्ठाता होकर ‘विष्णु’, ‘ब्रह्मा’ और ‘रुद्र’ नाम ग्रहण करते हैं। वस्तुतः ये कभी गुणों के वश नहीं होते। नित्य स्वरूप स्थित होते हुए ही त्रिविधगुणमयी लीला करते हैं।
 लीलावतार भगवान जो अपनी मंगलमयी इच्छा से विविध दिव्य मंगल-विग्रहों द्वारा बिना किसी प्रयास के अनेक विविध विचित्रताओं से पूर्ण नित्य-नवीन रसमयी क्रीड़ा करते हैं, उस क्रीड़ा का नाम ही ‘लीला’ है। ऐसी लीला के लिये भगवान जो मंगल विग्रह प्रकट करते हैं, उन्हें ‘लीलावतार’ कहा जाता है। चतुस्सन (सनकादि चारों मुनि), नारद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हंस, धु्रवप्रिय विष्णु, ऋषभदेव, पृथु, श्रीनृसिंह, कुर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, श्रीराम, व्यासदेव, श्रीबलराम, बुद्ध और कल्कि लीलावतार है।  इन्हें ‘कल्पावतार’ भी कहते हैं। मन्वन्तरावतार स्वायम्भुव आदि चौदह मन्वन्तरों में होने वाले मन्वन्तरावतार माने गये हैं। प्रत्येक मन्वन्तर के काल तक प्रत्येक अवतार का लीला कार्य होने से उन्हें ‘मनवन्तरावतार’ कहा गया है।

शक्ति-अभिव्यंक्ति के भेद से नामभेद
भगवान के सभी अवतार परिपूर्णतम हैं, किसी में स्वरूपतः तथा तत्त्वतः न्यूनाधिकता नहीं है; तथापि शक्ति की अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता को लेकर उनके चार प्रकार माने गये हैं- ‘आवेश’, ‘प्राभव’, ‘वैभव’ और ‘परावस्थ’। उपर्युक्त अवतारों में चतुस्सन, नारद, पृथु और परशुराम आवेशावतार हैं। कल्कि को भी आवेशावतार कहा गया हैं।
‘प्रभाव’ अवतारों के दो भेद हैं, जिनमें एक प्रकार के अवतार तो थोड़े ही समय तक प्रकट रहते हैं- जैसे ‘मोहिनी- अवतार’ और ‘हंसावतार’ आदि, जो अपना-अपना लीला कार्य सम्पत्र करके तुरंत अन्तर्धान हो गये। दूसरे प्रकार के प्राभव अवतारों में शास्त्रनिर्माता मुनियों के सदृश चेष्टा होती है। जैसे महाभारत-पुराणादि के प्रणेता भगवान वेदव्यास, सांख्यशास्त्र प्रणेता भगवान कपिल एंव दत्तात्रेय, धन्वन्तरि और ऋषभदेव- ये सब प्राभव अवतार हैं इनमें अवेशावतारों से शक्ति-अभिव्यक्ति की अधिकता तथा प्राभवावतारों की अपेक्षा न्यूनता होती है। वैभवावतार ये हैं- कूर्म, मत्स्य, नर-नारायण, वराह, हयग्रीव, पृश्रिगर्भ, बलभद्र और चतुर्दश मन्वन्तरावतार। इनमें कुछ की गणना अन्य अवतार-प्रकारों में भी की जाती है। परावस्थावतार प्रधानतया तीन हैं- श्रीनृसिंह, श्रीराम और श्रीकृष्ण। 
ये षडैश्वर्यपरिपूर्ण हैं।
नृसिंहरामकृष्णेषु षाड्गुण्यं परिपूरितम्।
परावस्थास्तु ते.............................
इनमें श्रीनृसिंहावतार का कार्य एक मात्र प्रहृाद-रक्षण एवं हिरण्यकशिपु-वध ही है तथा इनका प्राकट्य भी अल्पकालस्थायी है। अतएव मुख्यतया श्रीराम और श्रीकृष्ण ही परावस्थावतार हैं। इनमें भगवान श्रीकृष्ण को ‘एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम’ कहा गया हैं। अर्थात उपर्युक्त सनकादि-लीलावतार भगवान के अशं-कला-विभूति रूप हैं। श्रीकृष्ण साक्षात स्वयं भगवान हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु पुराण में ‘सित-कृष्ण-केश’ कह कर पुरुषावतार के केश रूप अंशावतार बताया गया है।


(श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार)

वे नारायण रथ से उतर कर महेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो जाते हैं- ‘गत्वा नारायणो देवो विलीनः कृष्णविग्रहे।’ परंतु महाविष्णु के विलीन होने पर भी श्रीकृष्णावतार का स्वरूप पूर्णतया नहीं बना तब एक दूसरे स्वर्णरथ पर आरुढ़ पृथ्वी पति श्रीविष्णु वहाँ दिखायी दिये और वे भी श्रीराधिकेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलिन हो गये- ‘स चापि लीनस्तत्रैव राधिकेश्वरविग्रहे।’

अब अवतार के लिये पार्थिक मानुषी तत्त्व की आवश्यकता हुई। नारायण- ऋषि वहाँ थे ही वे भी उन्हीं में विलीन हो गये। यों महाविष्णु विष्णु-नारायण रूप स्वयं महेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तथा नारायण के सभी नर-ऋषि अर्जुन रूप से अवतार-लीला में सहायतार्थ अवतरित हुए।

श्रीमद्भागवत के अनुसार असुर रूप दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त दुःखिनी पृथ्वी गोरूप धारण करके करुण क्रन्दन करती हुई ब्रह्माजी के पास जाती है। और ब्रह्माजी भगवान शंकर तथा अन्याय देवताओं को साथ लेकर क्षीरसागर पर पहुँचते हैं और क्षीराब्धिशायी पुरुष रूप भगवान का स्तवन करते हैं। ये क्षीराब्धिशायी पुरुष ही व्यष्टि पृथ्वी के राजा हैं, अतएव पृथ्वी अपना दुःख इन्हीं को सुनाया करती है।
ब्रह्मादि देवताओं के स्तवन करने पर ब्रह्माजी ध्यानमग्र हो जाते हैं और उन समाधिस्थ ब्रह्माजी का क्षीराब्धिशायी भगवान की आकाशवाणी सुनायी देती है। तदनन्तर वे देवताओं से कहते हैं-

"गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुन-
र्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम्।।
पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरो
भवद्धिरंशैर्यदुषूपजन्यताम् ।
स यावदुव्र्या भरमीश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद् भुवि।।
वसुदेवगृह साक्षाद् भगवान पुरुषः परः।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रियः।।

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