रविवार, 15 अक्टूबर 2023

शास्त्र में कुछ सिद्धान्त हीन बातें -स्वप्न और पर्वत के पंख-

इन्द्रोपासक पुरोहित मूढ़ प्रवृति के हो गये थे। इस लिए उन्होंने कहा कि 

"यदि इन्द्र ने पर्वतों के पँख न काटे होते तो वो आज भी पर्वत आसमान में उड़ते हुए विचरण कर रहे होते ?
वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड सर्ग-अध्याय-श्लोक- 1/108/122)  के अनुसार

लंका जा रहे हनुमान को विश्राम देने आए मैनाक पर्वत ने सुनाया यह प्रसंग !
पर्वत का तात्पर्य पहाड़ अथवा पाषाण समुच्चय से है जो जड़ और निहायत निर्जीव होता है। 

क्या वास्तव में यह कथानक लिखने वाले जड़ और चेतन का ही भेद-विभाजन नहीं कर पाये। घोड़ो के पंख होना तो सम्भव है परन्तु पर्वतों के पंख होना अथवा पर्वतों का बलात्कार करना बड़ी बैतुकी बाते  हैं।
किस दार्शनिक सिद्धान्त पर इन बातों को स्वीकार किया जाए ये भारी धर्म संकट की बात है।

"कथाऐं जब  बिना किसी  दार्शिनिक सिद्धान्त के आधार पर  शास्त्रों में समायोजित हो जाऐं तो समझना चाहिए मनुष्य की मनन शीलता का लोप और मूढता का प्रकोप ही हो चला है। 

कालान्तर में मूढताऐं धर्म में इस कदर शामिल हुई कि समाज में अन्ध विश्वास फैलाने वाले पुरोहित अपनी वासना और लोलुप प्रवृति की तुष्टि हेतु समाज का हर स्तर पर दोहन कर रहे थे। 
भारतीय समाज के मध्य काल में भी कुछ इसी प्रकार हुआ।
(पहले हम "वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड-सर्ग-अध्याय-श्लोक- 1/108/122)से वही नमूना पेश करते हैं।

"पूर्व कृतयुगे तात ! पर्वताः पक्षिणोऽभवन् ।
तेऽपि जग्मुर्दिशः सर्वा गरुडा इव वेगिनः।१२२।
अनुवाद:-'तात ! पूर्वकालके सत्ययुग की बात है। उन दिनों पर्वतों के भी पंख होते थे। वे भी गरुड़के समान वेगशाली होकर सम्पूर्ण दिशाओं में उड़ते फिरते थे।

"ततस्तेषु प्रयातेषु देवसङ्घाः महर्षिभिः ।
भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनशङ्कया ।१२३।
अनुवाद:-'उनके इस तरह वेगपूर्वक उड़ने और आने-जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों को उनके गिरने की आशङ्का से बड़ा भय होने लगा।१२३।

"ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः।
पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः ।। १२४ ।।
अनुवाद:-'इससे सहस्र( हजार) नेत्रों वाले देवराज इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपने वज्र से लाखों पर्वतों के पंख काट डाले ।।१२४ ।।

"स मामुपगतः क्रुद्धो वज्रमुद्यम्य देवराट् । ततोऽहं सहसा क्षिप्तः श्वसनेन महात्मना ।१२५।
अनुवाद:-'उस समय कुपित हुए देवराज इन्द्र वज्र उठाये मेरी ओर भी आये, किन्तु महात्मा वायु ने सहसा मुझे इस समुद्र में गिरा दिया ॥ १२५ ॥

"अस्मिल्लवणतोये च प्रक्षिप्तः प्लवंगोत्तम । गुप्तपक्षः समग्रश्च तव पित्राभिरक्षितः ।१२६ ।
अनुवाद:-'वानरश्रेष्ठ ! इस क्षार समुद्र में गिराकर आपके पिता ने मेरे पंखों की रक्षा कर ली और मैं अपने सम्पूर्ण अंश से सुरक्षित बच गया ।। १२६ ॥
ऋग्वेद में भी इसी प्रकार का वर्णन है ।

"यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात् 
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ॥२॥

अनुवाद:-“जिसने,जिसने चलती हुई पृथ्वी को स्थिर किया; जिसने क्रोधित पर्वतों को शान्त किया; जिसने विशाल आकाश फैलाया; जिसने स्वर्ग को स्तम्भित किया; मनुष्यो वह, इंद्र है।
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
जिसने क्रोधित पर्वतों को शांत किया: =यः पर्वतान् प्रकुप्तान् अरम्णात् = जब तक उनके पंख थे, तब तक वे इधर-उधर जाते रहे, इंद्र ने पंख काट कर पर्वतों को शांत अथवा स्थिर  किया।
विवरण:
ऋषि (ऋषि/द्रष्टा): गृत्समदः शौनकः [ 
देवता : इंद्र: 
"छन्द- : त्रिष्टुप ;

ऋग्वेद की बहुस्तरीय व्याख्या
[ऋग्वेद 2.12.2 व्याकरण का विश्लेषण]

१-यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"; यत् [सर्वनाम]।" जो 

पृथ्वीं <  [संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, स्त्रीलिंग-पृथ्वी को
व्यथमानम् < व्यथ्= कम्पने।
+ शानच् [क्रिया संज्ञा], कर्मवाचक, एकवचन
हिलते -जुलते हुए को 
अदृंहद < अदृंहत् < दृह्- वृद्धौ
[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण
दृढ़ किया; को मजबूत किया।"

यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
; यत् [सर्वनाम]।" जो

पर्वतान् < पर्वतों को
[संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

प्रकुपितां < प्रकुप् < √कुप्
[क्रिया संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन
अरमणात् < रम्- क्रीडायां
[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण
; स्थिर किया; शांत किया;"
यो < यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
"; यत् [सर्वनाम]।" जो 

अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्षम् < अन्तरिक्ष को
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

विममे < विमा < √मा-लिट्लकार- शब्दे माने च। प्रथम पुरुष एकवचन। शब्द किया मापा अथवा निर्माण किया।

वरियो < वरियः < वरियस्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
"चौड़ा; आगे।"

यो < यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; जो- यत् [सर्वनाम]।"

 दयाम्  < द्यो - स्वर्ग पद का 
[संज्ञा रूप], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग
"आकाश; को स्वर्ग; को

अस्तभनात <  ष्कभि( ष्कम्भ-प्रतिबन्धे
 - स्तम्भते ।[क्रिया], एकवचन, अपूर्ण
“स्थर किया स्तम्भित किया ।

सा < तद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग वह, "

जनास: < जनास: < जना: वैदिक रूप
[संज्ञा] सम्बोधन-, बहुवचन, पुल्लिंग "लोगो!; 

इन्द्रः < [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग “इन्द्र; 
हे (जनासः) लोगो ! (यः) जो (व्यथमानाम्) चलती हुई (पृथिवीम्) पृथिवी को (अदृंहत्)अदर्हत्वृद्धौ = विस्तार किया। (यः) जो (प्रकुपितान्) कोपयुक्तों के  समान (पर्वतान्) पर्वतों को (अरम्णात्)रमु क्रीडायाम्- स्थिर किया (यः) जो (वरीयः) अत्यन्त बहुत विस्तारवाले (अन्तरिक्षम्) को (विममे) विममे च विशेषेण निर्ममे - विशेषता से निर्माण किया  (यः) जो (द) स्वर्ग को (अस्तभ्नात्) ।स्तम्भित किया है (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र है॥२॥

अनुवाद:-१-हे जनाः य इन्द्रो व्यथमानां =चलन्तीं पृथिवीमदृंहत । हे लोगो जिसने हिलती हुई पृथ्वी को रोक दिया वह इन्द्र है।

२-शर्करादिभिर्दृढामकरोत् ॥ दृह दृहि वृद्धौ दृह् दृहि वा वृद्धौ क्तः “स्थूलबलयोः” इडभावः इदितोऽपि नि० नलोपः । १ स्थूले २ अशिथिले प्रगाढे ३ वलवति च मेदिनी कोष   ॥
 यश्च प्रकुपितान् =शर्करा आदि के द्वारा दृढ़ कर दिया। जो इधर उधर चलते थे। पंखयुक्त पर्वतों को स्थिर कर दिया। अर्थात अपने अपने स्थान पर स्थापित कर दिया।
इतस्ततश्चलितान्पक्षयुक्तान्पर्वतानरम्णात्। नियमितवान्। स्वे स्वे स्थाने स्थापितवान्। अरम्णात् रमु क्रीडायां। अंतर्भावितण्यर्थस्य व्यत्ययेन श्नाप्रत्ययः। यश्च वरीय उरुतममंतरिक्षं विममे। निर्ममे। विस्तीर्णं चकारेत्यर्थः । यश्च द्यां दिवमस्तभ्नात् । स्तंभनिरुद्धामकरोत ॥ स्तंभु रोधन इति सौत्रो धातुः॥ स ऐवेंद्रो नाहमिति ॥ २. 

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रूढ़िवादी पुरोहित केवल कर्मकाण्ड को ही अपना कर्तव्य समझता है। इनकी दार्शनिक बौद्धिक चेतना प्राय: लुप्त ही रहती है। इन्हीं लोगों ने हनुमान के मुख में पृथ्वी से साढ़े तेरह लाख गुना बड़ा सूर्य घुसा दिया। और सम्पूर्ण सृष्टि में अंधेरा हो गया था ।

इनकी कल्पना का एक दूसरा नमूना भी  तो देखें कि जब किसी जाति की उत्पत्ति का ज्ञान न हो तो ये  उसे चमत्कारिक ढंग से गाय के गोबर से ही  उत्पन्न कर देते हैं ।
और पर्वतों का नदीयों से बलात्कार करना भी ये  देख लेते हैं। परन्तु उसे रोक नहीं सकते है।
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महाभारत में एक काल्पनिक कथा सृजित करके जोड़ देना इनकी कुशलता है।
 महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय(174) के अनुसार वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के सन्दर्भ में  विश्वामित्र का पराभव को दर्शाते हुए कहा है और कथाकार लिखता है कि  --
 कि जब एक बार  विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध हुआ तो वशिष्ठ की गाय नन्दिनी ने  
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अपनी पूँछ से बांरबार अंगारों की भारी वर्षा करते हुए अपनी  पूंछ से ही पल्हवों की सृष्टि की, थनों से द्रविडों और शकों को उत्‍पन्‍न किया, इतना ही नहीं योनिदेश से यवनों (यूनानीयों) और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्‍म दे दिया।

कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए। उसके पार्श्‍वभाग से पौण्‍ड्र, किरात, यवन, सिंहल सि़घल), बर्बर और खसों की सृष्टि हुई।

इसी प्रकार उस गाय ने फेन( झाग) से चिबुक, पुलिन्‍द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकार के ग्‍लेच्‍छों की सृष्टि की।

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छों के गणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्‍छादित थीं।
सबने भाँति-भाँति के आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। उन्‍होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया। विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को म्लेच्‍छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था। उस समय अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले।

भरतश्रेष्‍ठ! क्रोध में भरे हुए होने पर वशिष्ठ सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे। इस प्रकार नंदिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया।
विचार करना चाहिए की उपर्युक्त सिद्धान्त में मानव जातियों की उत्पत्ति क्या प्रमाणित है,?

क्या प्रजनन का यह सिद्धान्त भी प्रमाणित है ?
अन्धों पर शासन करने के लिए कानों (काणों) ने ये कपोल कल्पित कथाऐं बना धर्मग्रन्थों में  जोड़ दीं  .
अर्थात् शबर जन-जाति का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व में हुआ है। और लिखा कि यह एक म्लेच्छ जाति थी, जो वशिष्ठ जी की नंदिनी नामक गाय के गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न हुई थी।

काशी के असी- घाट पर शास्त्रार्थ महारथी
ब्राह्मण विद्वानों के मुखार- बिन्दु से सुना है कि महाभारत पञ्चम् वेद है। जबकि 
महाभारत काल्पनिक देवता गणेश ने लिखा !
जो स्वयं पार्वती के शरीर के मैले से पार्वती ने अपने प्रहरी के रूप में बनाया है ।

और तो और महाभारत में दार्शनिक मूढ़ता  की मर्यादाऐं भंग होगयी हैं।
इसका कुछ नमूना आगे भी प्रस्तुत करेंगे-

 पहली बात  तो ये कि महाभारत किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है यह पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल में रचित रचना है ; जिसका लेखक इसे अपौरुषेय सिद्ध करने के लिए गणेश जी को इसका लेखक बना देता है।
अब महाभारत में वर्णित दार्शनिक विवेचनाओं की वैज्ञानिकता ही देखें 👹
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संस्वेदजा अण्डजाश्चोद्भिदश्च
सरीसृपा : कृमयो८थाप्सु मत्स्य:।
तथा अश्मानस्तृण काष्ठं च
सर्वे दिष्टक्षये स्वयं प्रकृतिं भजन्ति ।११।
 (महाभारत आदि पर्व २९ वाँ अध्याय )
स्वेदज पसीने से उत्पन्न होने वाले
,अण्डज , उद्भिज्ज, सरीसृप, कृमि तथा जल में रहने वाले मत्स्य आदि । 

जीव तथा (पर्वत तृण, काष्ठ) - ये सभी प्रारब्ध भोग का सर्वथा क्षय होने पर अपनी प्रकृति (मूल रूप) को प्राप्त होते हैं।
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अब यहाँ जड़ पदार्थ भी प्रारब्ध भोग के भागी मान लिये गये ।

परन्तु प्रारब्ध तो जीवन का परिमाण ( मात्रा) तथा कर्म का प्रतिरूप है ।

और  फिर पत्थर, तिनका तथा लकड़ी का भाग्य से क्या सम्बन्ध ?  परन्तु मूढ़ ब्राह्मणों ने यहाँ भी भाग्य को जोड़ दिया।

परन्तु महाभारत के भीष्म पर्व में जो श्रीमद्भगवत् गीता 700 श्लोकों में वर्णित है । उसमें भी केवल 75 या उससे कुछ ज्यादा जो दूसरे तीसरे अध्याय में हैं।ये श्लोक ही कृष्ण के विचारों का अनुमोदन करते हैं
और तो बाद में जोड़े गयीं कल्प - कलाप मात्र हैं।

दुर्भाग्य से महाभारत में अच्छी तथा बुरी दौनों बातें का समायोजन हो गया है।

परन्तु अधिकतर सारहीन तथा गल्प मात्र हैं ।

और महाभारत में यह कथन भी  मिथ्या है !

कि स्त्रीयों का दामाद में पुत्र से अधिक स्नेह होता है ।
यह भी सामाजिक व्यवहारिक कषौटी पर खरा नहीं है ।


अधिका किल नारीणां प्रीतिर्जामातृजा भवेत् ।१२।
(महाभारत आदि पर्व ११४वाँ अध्याय)
स्त्रीयों का दामाद में पुत्र से अधिक स्नेह होना चाहिए ।

वास्तविक रूप में यह स्नेह केवल लड़की के कारण से है ;अन्यथा दामाद तो सुसराल मे पिटते भी देखे गये हैं ।
और जिस समय ये ग्रन्थ लिखे गये उस समय समाज में राजा कामी विलासी ही अधिक थे ।

 अत: उनके पुरोहित भी इसी प्रकार  के थे ।
कामुकता भी हर चीज में इन्हें नजर आयी ।
देखें--- 👇

वे पर्वत में भी यह देखते हैं।
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पुरोपवाहिनी तस्य नदीं शुक्तिमतीं गिरि:।
अरोत्सीच्चेतना युक्त:  कामात् कोलाहल: किल ।।३५।।
अनुवाद:-
अर्थात् राजा उपरिचर की राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी वहती है। एक समय 'कोलाहल' नामक पर्वत ने  सचेतन होकर  काम (sex) के वश होकर नदी को पकड़ लिया  और उसके साथ बलात्कार कर दिया !
(महाभारत आदि पर्व ६३ वाँ अध्याय )
                                                             💆
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"तस्यां नद्याम् अजनयत् मिथुनं पर्वत: स्वयम् ।
तस्माद्धि विमोक्षणात् प्रीति नदी राज्ञेन्यवेदयत् ।।३७।
अनुवाद:-
अर्थात् और उस नदी के साथ बलात्कार करने पर उस पर्वत ने नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या जुँड़वा रूप से उत्पन्न की ।
पर्वत के अवरोध से मुक्त कराने के कारण राजा उपरिचर को नदी ने अपनी दौनो सन्तान भेंट में दे दी ।
अब पर्वत ही बलात्कार करते हैं तो आदमी क्यों नहीं करेगा ?
अब मूसल पर्व में भी देखें---
की सृष्टी का प्रजनन - सिद्धान्त भी कितना अवैज्ञानिक है
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"व्यजानयन्त खरा गोषु करभाऽश्वतरीषु च ।
शुनीष्वापि बिडालश्च मूषिका नकुलीषु च।९।

अनुवाद:-
अर्थात् गायों के पेट से गदहे , तथा खच्चरियों के पेट से हाथी ।और कुतिया से बिलोटा 'और नेवलियों के गर्भ से चूहा उत्पन्न होने लगे ।
 (महाभारत मूसल पर्व द्वित्तीय अध्याय)
महाभारत मूसल पर्व में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का का वर्णन भी है 
             -षोडश स्त्रीसहस्राणि वासुदेव परिग्रह ।६।
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असृजत् पह्लवान् पुच्छात्  प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।
योनिदेशाच्च यवनान् शकृत: शबरान् बहून् ।३६।
मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।
नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये । तथा धनों से द्रविड और शकों को । योनि से यूनानीयों को  और गोबर से शबर उत्पन्न हुए। कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की -सृष्टि ।३७।

चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।
इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक  पुलिन्द चीन हूण केरल आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय

भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।

भारत में तोप का प्रचलन सौलहवीं सदी के पूर्वार्ध में होने लगा था ।
और सन् (1313) ई. से यूरोप में तोप के प्रयोग का पक्का प्रमाण मिलता है। भारत में बाबर ने पानीपत की लड़ाई (सन् 1526 ई.) में तोपों का पहले-पहले प्रयोग किया।
संस्कृत में इसे शतघ्नी कहते हैं ।
शतं हन्ति हन--टक्  इति शतघ्नी।
१ अस्त्रभेदे “अयःकण्ट- कसंछन्ना शतघ्नी महती शिला” विजयरक्षितः ।
२ वृश्चिकाल्यां ३ करञ्जे च मेदिनीकोश ।
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प्राचीन काल का एक प्रकार का शस्त्र। विशेष—किसी बड़े पत्थर या लकड़ी के कुंद में बहुत से कीलकाँटे ठोंककर यह शस्त्र बनाया जाता था और इसका व्यवहार युद्ध केसमय शत्रुओं पर फेंकनें में होता था।
लोग इसे तोप या राकेट जैसा शस्त्र कहते हैं जिससे सैकड़ों व्यक्ति मारे जा सकते थे।
२. वृश्चिकाली। बिछाती।
३. एक प्रकार की घास। ४. करंज या कंजे का पेड़।
इसी से सम्बद्ध शब्द संस्कृत में भुशुण्डी भी है ।
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पाषाणक्षेपणार्थे चर्ममययन्त्ररूपे अस्त्रभेदे “भुशुण्ड्युद्यतबाहव..........

तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है
महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय ।

महाभारत में भी कहीं कहीं दार्शनिक विमूढ़ता प्रतिबिम्बित हुई है ।
कारण कुछ मूर्खों ने भी महाभारत में जोड़ गाँठ की है।
👇"स्वप्नयोगे यथैवात्मा पञ्चेन्द्रियसमायुत:। देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्मोपलभ्यते।44। (शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व  (210) वाँ अध्याय। पृष्ठ संख्या 4964 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण-
अनुवाद:-
-जैसे स्वप्न में ज्ञानेन्द्रियों सहित जीवात्मा इस स्थूलशरीर को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है । वैसे ही मृत्यु के बाद भी 'वह इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेता है।44। 

महाभारत का उपर्युक्त श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्त की अवहेलना करता है। यह योग और साँख्य दर्शन की भी अवहेलना करता है।

क्योंकि लौकिक प्रायौगिक दृष्टि से 
यद्यपि स्वप्न तीन प्रकार से प्रकट होते हैं ।

१- दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति ,
२- प्रारब्ध भावी घटना की अभिव्यक्ति, --जो प्राय: रात्रि के अन्तिम प्रहर में आते हैं ।

परन्तु शरीर से जीवात्मा का निकला असम्भव है । क्योंकि मन स्वयं ही स्वप्न की सृष्टि करता है।

सही व्याख्या -परन्तु बात ये नहीं बात तो ये है कि जब जीवात्मा स्वप्न काल में निकल जाती है तो वह स्वप्न दृश्य असल में होते ही नहीं क्यों की कभी कभी हम दससाल पुरानी उस हवेली को देखते हैं --जो पिछले पाँच साल में तोड़ कर ईंटैं निकाल ली गयीं हो स्वप्न की सृष्टि स्वयं मन करता है।
जो वस्तु अस्तित्व में ही नहीं तो जीवात्मा वहाँ कैसे पहुच सकती है।

१- कुछ स्वप्न दमित इच्छाओं का स्फुरण होते हैं २-कुछ भावी घटित होने वाली घटना के सूचक  --जो रात्रि के अन्तिम प्रहर में आते है । 
३-और कुछ जन्मजन्मानतरण के संस्कारों का स्फुरण होते हैं। 

मन का अवचेतन स्तर ही स्वप्न का  कारण है । महाभारत में एक उपमा बड़ी सार्थक है । 

"एवमेता : शिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्। तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम् ।18। 

मध्ये च हृदस्यैका शिरा तत्र मनोवहा । शुक्रं संकल्पजं नृणासर्वगातैर्विमुञ्चति।।19। 
जैसे-नदियाँ अपने जलसे यथासमय समुद्र को तृप्त करती रहती हैं। उसी प्रकार रस को लगाने वाला ये नाड़ी रूपी नदियाँ इस देह सागर को तृप्त करती रहती हैं ।18। 
हृदय के मध्य भाग में मनोवहा नाम की नाड़ी है --जो पुरुष के काम-विषयक संकल्प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है ।19। ___________________________________

 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 216 श्लोक 1-11
महाभारतम्-12-
शांतिपर्व-(216)भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शिष्याय गुरूक्तवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।।

                    "गुरुरुवाच।
निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छताचरितुं सदा।
निद्रा सर्वात्मना त्याज्या स्वप्नदोषमवेक्षता।1।

स्वप्ने हि रजसा देही तमसा चाभिभूयते। देहान्तरमिवापन्नश्चरत्यपगतस्मृतिः।2।

ज्ञानाभ्यासाज्जागरिता जिज्ञासार्थमनन्तरम्। विज्ञानाभिनिवेशात्तु स जागर्त्यनिशं सदा।3।

अत्राह कोन्वयं भावःस्वप्ने विषयवानिव। प्रलीनैरिन्द्रियैर्देही वर्तते देहवानिव।4।

अत्रोच्यते यथा ह्येतद्वेद योगेश्वरो हरिः। तथैतदुपपन्नार्थं वर्णयन्ति महर्षयः। 5।

इन्द्रियाणां श्रमात्स्वप्नमाहुः सर्वगतं मनः। `तन्मयानीन्द्रियाण्याहुस्तावद्गच्छन्ति तानि वै।6।

अत्राहुस्त्रितयं नित्यमतथ्यमिति चेच्च न।
प्रथमे वर्तमानोऽसौ त्रितयं चेति सर्वदा,।7।

नेतरावुपसंगम्य विजानाति कथंचन। स्वप्नावस्थागतो ह्येष स्वप्न इत्येव वेत्ति च।8।

तदप्यसदृशं युक्त्या त्रितयं मोहलक्षणम्। यदात्मत्रितयान्मुक्तस्तदा जानात्यसत्कृतः।9।

मनसस्त्वप्रलीनत्वात्तत्तदाहुर्निदर्शनम्। कार्ये चासक्तमनसः संकल्पो जाग्रतो ह्यपि। यद्वन्मनोरथैश्चर्यं स्वप्ने तद्वन्मनोगतम्।10।

संसाराणामसंख्यानां कामात्मा तदवाप्नुयात्। मनस्यन्तर्हितं सर्वं वेद सोत्तमपूरुषः।11।

गुणानामपि यद्येतत्कर्मणा चाप्युपस्थितम्। तत्तच्छंसन्ति भूतानि मनो यद्भावितं यथा।12।

ततस्तमुपसर्पन्ति गुणा राजसतामसाः।
सात्विका वा यथायोगमानन्तर्यफलोदयम्।13।

ततः पश्यन्त्यसंबन्धान्वातपित्तकफोत्तरान्। रजस्तमोभवैर्भावैस्तदप्याहुर्दुरत्ययम्।14।

प्रसन्नैरिन्द्रियैर्यद्यत्संकल्पयति मानसम्। तत्तत्स्वप्नेप्युपरते मनो बुद्धिर्निरीक्षते।15।

व्यापकं सर्वभूतेषु वर्तते दीपवन्मनः। आत्मप्रभावात्तं विद्यात्सर्वा ह्यात्मनि देवताः।16।

मनस्यन्तर्हितं द्वारं देहमास्थाय मानुषम्। यत्तत्सदसदव्यक्तं स्वपित्यस्मिन्निदर्शनम्।17।

व्यक्तभेदमतीतोऽसौ चिन्मात्रं परिदृश्यते।' सर्वभूतात्मभूतस्थं तमध्यात्मगुणं विदुः।18।

लिप्सेन मनसा यश्च संकल्पादैश्वरं गुणम्। आत्मप्रसादात्तं विद्यात्सर्वा ह्यात्मनि देवताः।19।

एवं हि तपसा युञ्ज्यादर्कवत्तमसः परम्। त्रैलोक्यप्रकृतिर्देही तमसोन्ते महेश्वरम्।।20।

तपो ह्यधिष्ठितं देवैस्तपोघ्नमसुरैस्तमः। एतद्देवासुरैर्गुप्तं तदाहुर्ज्ञानलक्षणम्।21।

सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान्विदुः।
सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ।22।

सत्त्वं मनस्तथा बुद्धिर्देवा इत्यभिशंब्दिताः।
तैरेव हि वृतस्तस्माज्ज्ञात्वैवं परमं।23।

निद्राविकल्पेन सतां---- विशति लोकवत्।
स्वस्थो भवति गूढात्मा कलुषैः परिवर्जितः।24।

निशादिका ये कथिता लोकानां कलुषा मताः। तैर्हीनं यत्पुरं शुद्धं बाह्याभ्यन्तरवर्तिनम्। सदानन्दमयं नित्यं भूत्वा तत्परमन्वियात्।25।

एवमाख्यातमत्यर्थं ब्रह्मचर्यमकल्मषम्। सर्वसंयोगहीनं तद्विष्ण्वाख्यं परमं पदम्। अचिन्त्यमद्भुतं लोके ज्ञानेन परिवर्तते।26।

ब्रह्म तत्परमं ज्ञानममृतं ज्योतिरक्षरम्।
ये विदुर्भावितात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम्।27।

हेतुमच्छक्यमाख्यातुमेतावज्ज्ञानचक्षुषा।
प्रत्याहारेण वा शक्यमव्यक्तं ब्रह्म वेदितुम्।28।
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"इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।218।

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