★-प्राक्कथन-★
पुस्तिका "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं उनके चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणियों का सम्यक शास्त्रीय पद्धति से समाधान उत्तरों को त्वरित खोजकर प्रस्तुत करना ही है। इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।
इस लिए भी इस पुस्तिका का आकार न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा निर्धारित किया गया है, ताकि इसे आसानी से पाठक कहीं भी समाज में अन्यत्र ले जाकर जनसाधारण के समक्ष कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा उनके चरित्रों का बोध करा सके।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त-गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर स्थापित कर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित विधि से यथावत् वर्णन किया गया है।
इस पुस्तिका के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज की महती भूमिका रही हैं। जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में यह पुस्तिका अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।
-: अनुनीत- विनीत :-
लेखक गण-
गोपाचार्य हँस- योगेश कुमार रोहि
एवं
गोपाचार्य हँस- माता प्रसाद
लेखक- आत्मानन्द लेखक-
फोटो- 🔲 फोटो - 🔲 फोटो - 🔲
★-विषय सूची-★
अध्याय- ( प्रथम )
१ - गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना के विधि विधान एवं गलत कथाओं को
सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] - तैतीस कोटि देवताओं में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।
[घ] - शिव पूजा के लाभ।
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा का वाचन कौन कर सकता हैं ?
[झ] - गलत कथाओं के कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।
-: अनुनीत- विनीत :-
लेखक गण-
गोपाचार्य हँस- योगेश कुमार रोहि
एवं
गोपाचार्य हँस- माता प्रसाद
लेखक- आत्मानन्द लेखक-
फोटो- 🔲 फोटो - 🔲 फोटो - 🔲
★-विषय सूची-★
अध्याय- ( प्रथम )
१ - गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना के विधि विधान एवं गलत कथाओं को
सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] - तैतीस कोटि देवताओं में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।
[घ] - शिव पूजा के लाभ।
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा का वाचन कौन कर सकता हैं ?
[झ] - गलत कथाओं के कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।
अध्याय- ( द्वित्तीय )
२- श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनके गोलोक की स्थूल और सूक्ष्म स्थितियों का वर्णन।
२- श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनके गोलोक की स्थूल और सूक्ष्म स्थितियों का वर्णन।
अध्याय- ( तृतीय )
३- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नहीं है।
अध्याय- ( चतुर्थ )
४- गोलोक में गोप- गोपियों सहित- नारायण,शिव , ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।
अध्याय- ( पञ्चम )
५- यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र का वर्णन-
भाग- (१) जातियों की मौलिकता
(Originality of phyla) एवं
आभीर जाति की उत्पत्ति।
भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना में पाँच वर्णों के प्रतिनिधियों की भूमिका।
[क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
[ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
[ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
[१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
[३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
भाग- (३) यादवों का वंश।
भाग- (४) यादवों का कुल।
भाग- (५) यादवों का गोत्र।
अध्याय- ( षष्ठम )
६- यादवों का वास्तविक गोत्र "कार्ष्ण" है या अत्रि इस विषय पर एक सम्यक विवेचना ?
अध्याय- ( सप्तम )
७- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -
भाग- [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञता) कर्म-
(क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
(ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
(ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
(घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
भाग-[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
भाग-[३] गोपों का वैश्यत्व कर्म।
भाग-[४] गोपों का शूद्रत्व कर्म।
अध्याय- ( अष्टम )
८- वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक उत्तराधिकार (विरासत) अथवा योगदान।
भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
आभीर जाति की उत्पत्ति।
भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना में पाँच वर्णों के प्रतिनिधियों की भूमिका।
[क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
[ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
[ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
[१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
[२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
[३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।
भाग- (३) यादवों का वंश।
भाग- (४) यादवों का कुल।
भाग- (५) यादवों का गोत्र।
अध्याय- ( षष्ठम )
६- यादवों का वास्तविक गोत्र "कार्ष्ण" है या अत्रि इस विषय पर एक सम्यक विवेचना ?
अध्याय- ( सप्तम )
७- वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -
भाग- [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञता) कर्म-
(क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
(ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
(ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
(घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
भाग-[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
भाग-[३] गोपों का वैश्यत्व कर्म।
भाग-[४] गोपों का शूद्रत्व कर्म।
अध्याय- ( अष्टम )
८- वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक प्रशंसा एवं
सांस्कृतिक उत्तराधिकार (विरासत) अथवा योगदान।
भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
अध्याय- ( नवम )
९- भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण
अध्याय- ( दशम )
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय -
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय।
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।
अध्याय- ( एकादश )
११- गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति -
भाग- (१) यादवों के आदि पूर्वज यदु का परिचय
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
अध्याय- ( द्वादश )
१२- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता
एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का
खण्डन।
भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय -
भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय।
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय।
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।
अध्याय- ( एकादश )
११- गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति -
भाग- (१) यादवों के आदि पूर्वज यदु का परिचय
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
अध्याय- ( द्वादश )
१२- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन
भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता
एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का
खण्डन।
भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
"श्रीकृष्ण- अभ्यर्चना"
अग्रं पृष्ठञ्च सर्वतोमुखं
सच्चिदानन्दं सर्वतोखं।
नमोऽस्तु य: विनष्यन्ति
दारि द्रवं दुर्दीर्घदु:खं।।१।
जले तरङ्गैव नवनीता
पुनीता प्रसूयते दुग्धैव च।
इदं जगद् हिमवद्
वाष्परूपाय प्रभवे नम:।।
ज्ञानपुञ्जञ्च प्रवासिकुञ्जम्
मुरलीमधुरं कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम्
गीतां पुनीतां सुवक्तारम्
अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।
अनुवाद:- १-२-३
▪️सर्वत्र गमन करने वाले, भय, ताप और लम्बे घोर दु:खों को नष्ट करने वाले, आगे, पीछे सब ओर से विराजमान सच्चिदानन्द स्वरूप वाले प्रभु को नमस्कार है।१।
▪️जल में तरंगों के समान दुग्ध में नवनीत (मक्खन) के समान और वाष्प में हिम के समान जिस परमेश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है हम उस प्रभु को नमस्कार करते हैं।२।
▪️ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ।३।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि-
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त- ॐ श्रीकृष्णाय नमः
प्रभो ! तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !
के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किन्तु ध्यान रहे उपर्युक्त मन्त्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मन्त्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है वहाँ से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से मन्त्रों के साथ श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त-
"अहं सर्वस्वं श्रीकृष्णाय समर्पयामि विद्माहे श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ) के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मन्त्रों को भक्तिभाव से हिंदी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा।
किन्तु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।
ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि, मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि -
भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं। भाव और विचारों की शुद्धता ईश्वर प्राप्ति की प्रथम अनिवार्यता है।
(३)- अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की स्तुति कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्तिभाव से मन्त्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगी। यह भक्ति की प्रारम्भिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण सहित सेवा का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहाँ बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है।
तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रह जाता।
इसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
✴️श्रीकृष्ण स्तुति✴️
वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम् सर्व लोकै रभिनन्दनीयम्। कर्मस्यफल इतितेनियम कर्मेच्छा सङ्कल्पोवयम्।।१।
अनुवाद:- १-२-३
▪️सर्वत्र गमन करने वाले, भय, ताप और लम्बे घोर दु:खों को नष्ट करने वाले, आगे, पीछे सब ओर से विराजमान सच्चिदानन्द स्वरूप वाले प्रभु को नमस्कार है।१।
▪️जल में तरंगों के समान दुग्ध में नवनीत (मक्खन) के समान और वाष्प में हिम के समान जिस परमेश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है हम उस प्रभु को नमस्कार करते हैं।२।
▪️ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ।३।
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भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि-
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यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त- ॐ श्रीकृष्णाय नमः
प्रभो ! तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !
के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किन्तु ध्यान रहे उपर्युक्त मन्त्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मन्त्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है वहाँ से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से मन्त्रों के साथ श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त-
"अहं सर्वस्वं श्रीकृष्णाय समर्पयामि विद्माहे श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ) के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मन्त्रों को भक्तिभाव से हिंदी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा।
किन्तु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।
ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि, मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि -
भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं। भाव और विचारों की शुद्धता ईश्वर प्राप्ति की प्रथम अनिवार्यता है।
(३)- अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की स्तुति कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्तिभाव से मन्त्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगी। यह भक्ति की प्रारम्भिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण सहित सेवा का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहाँ बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है।
तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रह जाता।
इसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।
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✴️श्रीकृष्ण स्तुति✴️
वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम् सर्व लोकै रभिनन्दनीयम्। कर्मस्यफल इतितेनियम कर्मेच्छा सङ्कल्पोवयम्।।१।
भक्त-भाव सुरञ्जनम् राग-रङ्ग त्वं सञ्जनम्।
बोधशोध मनमञ्जनम् नमस्कार खलभञ्जनम्।। २ ।
मयूर पक्ष तव मस्तकम् मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्। ज्ञानरश्मि त्वंप्रभाकरम्।
गुणातीत गुरुगुणाकरम्।। ३
नमामि याम: त्वमष्टकम् हरि शोक अति कष्टकम्
भवबन्ध मम मोचनम् सर्व भक्तगण रोचनम् ।। ४।
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम् लभेमहि जीवन धनम्। रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम् सकलसिद्धी: त्वमर्जकम्।। ५ ।
नमामि याम: त्वमष्टकम् हरि शोक अति कष्टकम्
भवबन्ध मम मोचनम् सर्व भक्तगण रोचनम् ।। ४।
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम् लभेमहि जीवन धनम्। रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम् सकलसिद्धी: त्वमर्जकम्।। ५ ।
कृपासिन्धु गुरुधर्मकम् नमामि प्रभु उरुकर्मकम् ।
इन्द्रयजन त्वंनिवारणम् पशुहिंसा तस्यकारणम् ।। ६।
स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् सदा विराजसे त्वं व्रजम् ।दधान ग्रीवायां मालकम् नमामि आभीर बालकम्।।७।
कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् ते आपीड केकीपणम् ।
कृषाणु शाण हल कर्पणम् वन्दे कृष्णसंकर्षणम्।। ८।
गोप-गोपयोरधिनायकम् वैष्णवधर्मस्यविधायकम्।
व्रजरज ते प्रभु भूषणम् नमामि कोटिश: पूषणम्।। ९।
निष्काम कर्मं निर्णायकम् सुतान वेणुलयगायकम्। दीनबन्धो: त्वंसहायकम् नमामि यादवविनायकम्।१०।
किशोर वय- सुव्यञ्जितम् राग रङ्ग शोभित नितम्। नमस्कार प्रभु सद्व्रतम पेय ज्ञान गीतामृतम् ।। ११।
वन्यमाल कण्ठे धारिणम् नमामि व्रज विहारिणम्। वैजयन्ती लालित्यहारिणं लीलाविलोल विस्तारिणं।१२।
"अनुवाद:- वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत ) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय (वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व सुनिश्चित किया।१।
अनुवाद:- भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले ,राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले, खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले प्रभु को हम नमस्कार करते हैं। २।
अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य)है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार है।३
अनुवाद:- हे मनमोहन ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो ! सन्सार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे मोहन ! मैं तुझे नमन करता हूँ। ४।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।
अनुवाद:- कृपा के समुद्र, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु ! महान कर्मों के कर्ता प्रभु ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। तूमने इन्द्र के यजन- पूजन बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिन्सा का कारण थे। ६।
अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज (मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज (गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार कर हूँ। ७।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम गोप और गोपियों के अधिनायक ( मार्गदर्शन करने वाले), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले,तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो ! प्रभु तुम्हें हम कोटि -कोटि नमस्कार करते हैं। ९।
अनुवाद:- संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले , दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले, यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं। १०।
अनुवाद:- गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग-रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले, हे प्रभु! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने योग्य है।११
अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले, भगवान कन्हैया को हम नमस्कार करते हैं।१२।
जय श्रीकृष्ण
अध्याय (१)👇🏽
ववव 📒अध्याय प्रथम (१)
पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणाम-
इस अध्याय के सम्पूर्ण प्रसंगों को क्रमबद्ध तरीके से जानने व समझने के लिए निम्नलिखित- (दस) उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है -
[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] -(तृतीय ) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।
[घ] - शिव पूजा के लाभ।
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम।
[ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।
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[क]- परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
आध्यात्मिक जीवन में कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो सक्षम और सामर्थ्यवान हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे सबकुछ प्राप्त हो सकता ? तो इसका जवाब है सर्वशक्तिमान परिपूर्णतम् परब्रह्म, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी से कुछ पानें की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि परिपूर्णतम् "परब्रह्म" कौन है ?
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किन्तु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से परमात्मा परिपूर्णतम् "परब्रह्म" की विशेषताएँ और परिभाषाएँ निर्धारित की हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में मनता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।
यदि उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित सीमा में रखकर कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किन्तु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनन्त गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि है न अन्त है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प, निर्लिप्त, प्रारम्भ, अन्त, अनन्त, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय बहुत ही कम है। जिसका नाम है श्रीकृष्ण।
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सबकुछ हैं तो इस माया नगरी मे अनेकों छद्म- भेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से (३३) करोड़ देवी-देवता को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों। तो ऐसी विकट और आडम्बर पूर्ण एवं भ्रान्त स्थिति में अनन्त गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं ?
✳️ तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय- (दो) और अध्याय (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहाँ से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
फिर भी यहाॅ पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परमप्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनन्त गुण है और उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
जहाँ तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है, तो वे ही परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किन्तु जब वे सृष्टि का सृजन करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय-( ४ ) के श्लोक-( ७) में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- (१२ ) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने बारे में बताते हैं कि-
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। १८।
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ।
इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ। (१६-१७-१८)
इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- ४२ में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- (33) कोटि देवी-देवता तो उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश- भूत शक्तियाँ, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या- (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।१७।
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।१८।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।१९।
अनुवाद- १७,१८,१९
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हँसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।४३।
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक- (६ ) से (८) में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।६।
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।७।
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।८।
अनुवाद - जिनके नेत्रों की पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विंद का अत्यन्त आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
• सहस्र शिरों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई है। जो श्रीकृष्ण और राधा सम्वाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-
"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।
अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी (३३) करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियाँ हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।
[ख] -तैतीस कोटि देवताओं में किसकी पूजा करें ?
तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देवी- देवताओं की पूजा क्यों करता है ? तो इसका जबाब है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखण्डवाद के भ्रम जाल में फँसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करें या उनसे उत्पन्न (३३ )करोड़ देवी-देवताओं की।
इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता है कि- किस देवी- देवों की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर यों ही मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस बात को प्रमुख देवताओं ने भी स्वीकार किया। जैसे -
शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८)के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। जो शिव पार्वती सम्वाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -
"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।
अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। क्या इससे भी बड़ी और कोई देव वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं।
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
अनुवाद - • वह परमेश्वर सान्सारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।
किन्तु सवाल यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या (३३) करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जवाब है लाभ अवश्य है, किन्तु सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजनें वाले भूतों और प्रेतों को प्राप्त होगें और जो परमेश्वर को पूजेगा वह निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- (७) के श्लोक - (२३) में स्वयं कहें हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और ६६ में कहते हैं कि -
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे। ६५।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। ६६।
अनुवाद - (६५-६६)
• तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो, तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
• सभी धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।२६।
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।
व्याख्या - देवताओं की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम (भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर-उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है? तो इसका निस्तारण- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -(३०) में किया गया है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवताओं से मिलने वाले लाभों को जानेंगे।
[ ग ]- श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ-
श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -
"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद् ध्रुवम्॥७०।
अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है।
अर्थात् वह अभी भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका जवाब इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।
'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥८७।
क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से वे भक्त, श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे इसमें सन्देह नहीं है।
✳️ ज्ञात हो मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। इसके बारे में विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (८) के भाग- दो में दी गई है। जहाँ रास की आध्यात्मिक महत्ता को बताता गया है।
किंतु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -
[घ] -शिव पूजा के लाभ-
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।
शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७२।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।
चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्करं योऽर्चयेद्व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।
मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥७५।
शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्गं च पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११०।
मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्॥ १११।
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१।
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र (बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है, और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।
• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।
• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव (मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किन्तु वह उस लोक तक नहीं पहुँच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ उपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किन्तु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहाँ स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है)।
[ङ]-विष्णु पूजा के लाभ-
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय-(३०) के श्लोक- (१०५) और (१०६) में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?
विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः ।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते ॥१०५।
युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥ १०६।
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है, और वहाँ से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
विष्णु भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होता है और वह विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करता है। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उसे पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है।
✳️ यहाँ पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। वास्तविकता यह है कि कुल तीन विष्णु होते हैं-
(१) स्वराट विष्णु (२) विराट विष्णु (३) शूद्र विष्णु।
इन तीनों विष्णुओं में अन्तर जानने के बाद ही यह निश्चय किया जा सकता है कि इनमें परिपूर्णतम परब्रह्म विष्णु कौन? इसके लिए नीचे देखें -
▪️(१) स्वराट विष्णु-
श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म एवं स्वयं में ही स्वराट और महाविराट दोनों हैं। किन्तु वे सबसे पहले परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण हैं, उसके बाद ही स्वराट या महाविराट विष्णु हैं जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि के आधार हैं। जिनका निवास गोलोक में है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों से उपर स्थिति है।
▪️(२) विराट विष्णु-
गोलोक में श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से एक शिशु उत्पन्न हुआ जो स्थूल से भी स्थूलतम् था। उसके इसी विशेषण से उसका नाम विराट विष्णु या विराट पुरुष नाम पड़ा। तथा श्रीराधा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण उस शिशु को गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा गया जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के केवल १६ वें अंश को धारण कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर लिया। तत्पश्चात उसके अनन्त रोम कूपों में अनन्त ब्रह्माण्ड स्थापित हुआ और उनमें भी उतने ही ब्रह्मा, शिव और छूद्र (छोटा) विष्णु स्थापित हुए।
▪️(३)- छूद्र (छोटा) विष्णु-
परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक (१) अंश को धारण करके अनन्त छूद्र (छोटे-छोटे) विष्णु हैं जो गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोम कूपों में स्थित अनन्त ब्रह्माण्डों में रहते हुए परमेश्वर श्रीकृष्ण का प्रतिनिधित्व किया करते हैं।
इस बात को कम ही लोग जानते हैं। इसी अज्ञानता के कारण अधिकांश- कथावाचक और अधिकांश पुराण भी श्रीकृष्ण को विष्णु से उत्पन्न बताकर ज्ञान की उल्टी धारा बहाते हैं।
[कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।]
[च]-श्रीराम पूजा के लाभ-
"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥
अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।
अब यहाँ पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किन्तु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है।
किन्तु यहाँ पर यदि विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुँच कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से उपर है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
✳️ ज्ञात हो उपरोक्त श्रीराम भक्तों के श्लोकों से सिद्ध होता है कि श्रीराम और विष्णु में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी हिसाब से रामभक्त विष्णु लोक तक जाता है। जैसे अन्य देवताओं के भक्त उन्हीं के लोक तक जातें हैं। जैसे शिव भक्त- शिव लोक को, तथा श्रीकृष्ण भक्त गोलोक को प्राप्त होते हैं। यहीं श्रीकृष्ण और अन्य देवताओं की भक्ति में अन्तर है इसको जानना चाहिए।
इसी अन्तर को ध्यान में रखकर भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में अर्जुन को अपने और देवताओं की भक्ति में भेद को बताते हुए कहते हैं कि -
"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। ९ / २५।।
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
और इस बात को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं और इसी अज्ञानता के कारण कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं। इसी अज्ञानता के कारण कभी-कभी श्रीकृष्ण को (छूद्र विष्णु) से उत्पन्न करा देते हैं। जबकि वास्तव में देखा जाए तो छूद्र विष्णु से श्रीराम का अधिक नजदीकी सम्बन्ध है। तभी तो श्रीराम भक्त विष्णु लोक तक जाता है, वह गोलोक में नहीं जाता। इस सम्बन्ध के हिसाब से छोटे विष्णु ही राम हैं और राम ही छोटे विष्णु हैं, कहना बिल्कुल सत्य है। इसके सापेक्ष श्रीकृष्ण ही छोटे विष्णु हैं और छोटे विष्णु ही कृष्ण हैं कहना उचित नहीं है। इस तरह के समस्त संशयों का सम्पूर्ण समाधान इस पुस्तक के अध्याय- २, ३, और ४ का अध्ययन करने से हो जाएगा।
अब हमलोग इसी क्रम में कुछ देवियों के पूजा अर्चना से होने वाले लाभों को जानेंगे-
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ-
"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्मा जी की पत्नियां मानीं जाती हैं। जिनकी उत्पत्ति पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (९७ से ९९) में बताया गया है कि- देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?
"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥ ९६।
महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ९७।
चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।
संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥ ९९।
अनुवाद - ९६-९९
• जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक (ब्रह्मा जी के लोक) में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।
• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती को पूजा करता है, वह ब्रह्माके आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त ब्रह्मा जी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते है जो शिव लोक और बैकुण्ठ लोक से बहुत नीचे है। किन्तु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।
अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं और अल्प समय तक उन्हीं के लोक में रहकर पुनः अपने लोक (भूलोक) में वापस आ जाते हैं। अर्थात वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते।
किन्तु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति को प्राप्त कर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है, और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।
[ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है, तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त (३३) करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल (चार) लोगों को ही है- पहला पञ्चमुखी शिव, दूसरा- श्रीराधा जी, तीसरा- गोलोक वासी, चौथा- गोप और गोपियाँ।
बाकी ३३ करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।।९।
• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों एवं रहस्यों को जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके, पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है या कहें श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को जानता हो, वहीं इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल चार लोग- (१)- शिव जी (२)- श्रीराधा (३)- गोलोकवासी (४)- गोप- गोपियाँ ही जानते हैं, बाकी कोई नहीं।
अतः इन चारों के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कर सकता और ना ही बता सकता है। क्योंकि श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान रखने वाला उनके सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे बता सकता है?
अब इन तीनों में देखा जाए तो पहले नम्बर पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्री कृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताएं हैं। वो भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर।
इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - (४८) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जो पार्वती शिव सं
सम्वाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।१४।
आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल ।१५।
कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः ।१६।
पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।
सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः ।१८।
निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना ।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः ।१९।
मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि । २०।
मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ।२१।
जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए। भक्तवत्सल! मैं आपकी भक्त हूँ अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)
• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिन्ता में पड़ गए।१७।
• तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण(स्वराट्- विष्णु) का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपने अर्धांग स्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था। १८-१९।
• परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरुपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। २०-२१।
• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ सुनो।२२।
(पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहाँ से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।)
अतः इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के सम्पूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?
• अब रही बात दूसरी श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के सम्पूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सान्सारिक प्रक्रिया के मूल द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही ब्रह्म रूप हैं। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
• अब रही बात तीसरे नम्बर पर गोलोक वासियों की।
तो आजतक कभी ऐसा नहीं सुना गया कि गोलोक वासी भी कभी भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहे हों। और यह सम्भव भी नहीं है क्योंकि गोलोक वासी श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं और वे श्रीकृष्ण के मर्म को जानते भी हैं। किन्तु उनको इतनी समय नहीं है कि श्रीकृष्ण को एकपल के लिये छोड़कर भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहें।
• अब रही बात चौथे क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भलि भांँति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियाँ श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं, और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर गोलोक से लेकर भूलोक तक अपने लीलाएँ किया करते हैं।
और जब भगवान श्रीकृष्ण भूतल का भार उतारने के लिए जब भी भूलोक पर अवतरित होते हैं, तो वे भूतल पर अपने गोप कुल में ही अवतरित होते और उन्हीं को साथ लेकर भूतल का भार भी उतारते हैं तथा उन्हीं के साथ तरह-तरह की लीलाएँ किया करते। यहीं कारण है कि भूतल के गोप और गोपियाँ जितना श्रीकृष्ण के मर्म को जानतीं हैं उतना और कोई नहीं जानता है।
(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहाँ से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।)
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधर पर सिद्ध होता है कि - "श्रीकृष्ण कथा" केवल गोप और गोपियाँ ही कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। अतः सम्यक तर्कों से सिद्ध होता है कि- "श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हो सकते हैं, क्योंकि उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्री कृष्ण का सम्पूर्ण चरित्रों एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है। बस उसे श्री कृष्ण का ध्यान व योग से उस सुषुप्त ज्ञान को अपने अन्दर से जगाने की जरूरत है। और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागृत होगा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएँगे। चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो जाए। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये। ८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।
अनुवाद - ८२,८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
✳️ किन्तु सवाल यह है कि गोलोक के ये गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा की इतनी सारी विशेषताओं को लेकर भूतल पर कैसे आये? क्या वास्तव में गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरुप हैं? क्या गोलोकवासी गोप ही भूतल के गोप,आभीर और यादव हैं? गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा क्यों नहीं कह पाता ? ऐसे ही बहुत सारे प्रश्न और विचार मन में अवश्य उठ रहे होंगे। अतः इन सभी का समाधान किए बिना यह प्रसंग अधुरा ही रहेगा।
तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले गोप और गोपियों की उत्पत्ति और उनके वास्तविक स्वरूप एवं स्थिति इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- ४ में दी गई है, किन्तु उसे संक्षेप में यहाँ भी बताना आवश्यक है।
गोपों की उत्पत्ति या जन्म के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ में मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद - ४० से ४२
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
✳️ ज्ञात हो यह बात गोलोक की है, जहाँ सर्वप्रथम गोप और गोपियों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों अर्थात् उनकी सूक्ष्मतम इकाई क्लोन से समरुपण विधि से हुई। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है। इसके साथ ही उसके गुण, ज्ञान और व्यवहार भी उसी के अनुरुप होते हैं। यह ध्रुव सत्य है, क्योंकि इस बात को आज विज्ञान भी मानता है।
किन्तु सवाल यह है कि- गोलोक के ये गोप और गोपियाँ भूतल पर कैसे और क्यों आये?
तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि कि भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से जब भी भू-तल पर भूमि भार हरण के लिए अवतरित होते हैं, तो वे अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ भूतल पर भी अपने गोकुल के गोपों के यहाँ ही अवतरित होते हैं।
इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर गोलोक में भगवान श्री कृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों को बुलाकर कहा-
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे।६९।।
अनुवाद - भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोप और गोपियों! तुम सब भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो।
तब श्रीकृष्ण का आदेश पाकर सभी गोप-गोपियाँ भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ-शुभ घरों में अवतरित हुए। इसकी पुष्टि- उस समय भी होती है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-
"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।
अनुवाद-
नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक के गोपालगण (आभीर) जो साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियाँ जो श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहाँ (भूतल के ) ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएँ हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
इसी तरह से समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी श्रीकृष्ण के अँश से गोलोक में उत्पन्न हुए थे उन सभी को भू-तल पर गोपकुल के यादव वंश में भगवान श्रीकृष्ण के ही अँश रूप में अवतरित या जन्म लेने की पुष्टि- गर्गसंहिता के विश्वजित्खण्ड के अध्याय (२) के श्लोक- ७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण यादवों के विश्वजीत युद्ध होने से पहले उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अतः उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ कि समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों (कोशिकाओं) से या कहें उनके अँश से उत्पन्न हुए थे, वे सभी भूतल पर गोपकुल के यादव वंश में श्रीकृष्ण के ही अँश से प्रकट हुए हैं। ऐसी बात भगवान श्रीकृष्ण ने उपरोक्त श्लोकों में स्वयं कहें हैं कि "समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं"।
इतने प्रमाणों के बाद मुझे लगता है कि अब कोई यह नहीं कहेगा कि गोलोकवासी" गोप-गोपियाँ- भूतल की गोप-गोपियाँ नहीं हैं।
किन्तु एक बात अभी भी कुछ लोग कह सकते है कि- क्या प्रमाण है कि भूतल के गोप-गोपियों को श्रीकृष्ण भक्ति का पूर्णरूपेण ज्ञान है और वे ही लोग श्रीकृष्ण कथा कहने के पात्र हैं?
तो इसका सीधा जवाब है कि जो गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अँश से या कहें उनके रोम कूपों अर्थात् उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हों और जो उनका सहचर बनकर सदैव उनके सन्निकट रहते हों, तथा उनके ही साथ भूतल पर आते-जाते हों और उनके प्रत्येक कार्यों में एक साथ मिलकर हाथ बंटाते हों, तो ये गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों और रहस्यों को नहीं जानेंगे, तो क्या ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, देवी देवता या ब्रह्मा जी के- मुख, हाथ, पेट और पैर से उत्पन्न चातुर्वर्ण्य के लोग जानेंगे? निश्चित रूप से इसका जवाब होगा- नहीं।
क्योंकि रह ध्रुव सत्य है कि जितना एक पुत्र अपनी माता-पिता के जितने गुणों को लेकर जन्म धारण करता है, और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हुए अपने माता-पिता के गुण, ज्ञान और व्यवहार बारे में जानता है, शायद ही दूसरा कोई दूसरा जानता है। इसी को विज्ञान की भाषा में आनुवंशिक गुण कहा जाता हैं जो माता-पिता से स्वाभाविक और पैतृक रूप से प्राप्त होता है।
शायद इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) में लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः। राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।
किञ्चित्स नत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा। किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।
ज्ञात हो उपरोक्त श्लोक -८२ में गोपों के बारे में जो बात लिखी गई है कि "श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानती हैं। वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर ही लिखी गई है क्योंकि सभी गोप-गोपियां श्रीकृष्ण की कोशिकाओं (रोम कूपों) अर्थात् उनके क्लोन यानी समरूपण से उत्पन्न हुए। इस बात को उपर बताया जा चुका है।
श्रीकृष्ण और श्रीराधा के द्वारा समरुपण विधि से उत्पन्न होने से ही सभी गोप-गोपियाँ रुप और वेष रचना में श्रीकृष्ण और श्रीराधा समान हुए। इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ के आधार पर उपर बताया गया है। इसी गुण विशेष के कारण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२ में यह बात लिखी गई है कि-"श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानतीं हैं। जो वैज्ञानिक आधार पर ध्रुव सत्य है। और इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण मर्म जानता हो वही श्रीकृष्ण की सम्पूर्ण कथा कह सकता है।
ऐसे में देखा जाए तो श्रीकृष्ण कथा की सभी पात्रताओं से युक्त केवल गोप और गोपियाँ ही हैं। इसलिए श्रीकृष्ण कथा के वास्तविक अधिकारी केवल गोप और गोपियाँ हैं।
किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण कथा के लिए सभी गोप-गोपियाँ पात्र हैं। इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण कथा कहने का केवल वहीं गोप और गोपियाँ पात्र हो सकतीं हैं, जिन्होंने भक्ति, तप और योग साधना से भगवान श्रीकृष्ण के जनेटिक गुणों को अपने अन्दर जागृत कर श्रीकृष्ण का मर्म भलि-भाँति जान लिया है, जो उनके अन्दर पहले से ही आनुवंशिक रूप से विद्यमान है। क्योंकि सभी गोप श्रीकृष्ण के क्लोन से उत्पन्न हुए हैं इस लिए उनके अन्दर श्रीकृष्ण का तत्व गुण पहले से ही सुशुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, बस उसे जगाने की जरूरत है।
धूर्त, अज्ञानी, पाखंडी और छद्मवेषधारी, श्रीकृष्ण गुणों से रहित "गोप-गोपियाँ" कभी श्रीकृष्ण कथा के अधिकारी नहीं हो सकते। फिर भी यदि वे श्रीकृष्ण कथा कहते हैं तो निश्चय ही शास्त्रोचित दण्ड के भागी होंगे। इस बात को भी इसी अध्याय में आगे बताया गया है।
अतः श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी केवल श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोप और गोपियाँ ही हो सकतें हैं, अज्ञानी गोप नहीं।
तब पुनः प्रश्न उठता है कि क्या श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोपों के अतिरिक्त और कोई श्रीकृष्ण कथा नहीं कह सकता? तो इसका जवाब है अवश्य कह सकता हैं किन्तु वह श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पाएगा क्योंकि वह जब भी श्रीकृष्ण कथा कहेगा तो वह पुराणों के आधार पर अल्प ज्ञान से ही कथा कहते हुए कभी भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारें जाने की बात कहेगा, तो कभी गान्धारी और ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण को शापित होने की बात बताएगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी कहेगा कि- श्रीकृष्ण की उत्पत्ति विष्णु से हुई है। या वह यह कहेगा कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही श्रीकृष्ण हैं। क्योंकि उसे विष्णु और श्रीकृष्ण में भेद का ज्ञान ही नहीं है। इसके अतिरिक्त वह परम प्रभु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तरह तरह-तरह के देवी-देवताओं
को पूजने की बात कहेगा। क्योंकि हमने आजतक जिस किसी कथावाचक की कथा सुना हैं, सभी ने उपरोक्त बातों को ही बताया है। इससे अधिक वह कुछ नहीं बता पाया।
उनकी कथाओं में हमने कभी नही भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के बारे में सुना। जिसे हमने इस पुस्तक के अध्याय २,३ और ४ में बताया है। ऐसे में जो कथावाचक अपनी कथाओं में आधी-अधूरी और अल्प ज्ञान से श्रीकृष्ण कथा कहते हैं। उनका अन्ततोगत्वा क्या परिणाम होता है? इसके लिए अगला प्रसंग देखें।
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम-
शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण सम्वाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धुर्त कथावाचकों के बारे में कहते हैं कि-
कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु।
असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः। १९५।
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि।
मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः ।
पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
अनुवाद- (१९२-१९८)
• विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्रे (ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा/ दींमक) होता है।१९३।
• उसके बाद क्रमश: शूद्र ,वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला ब्राह्मण (विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
• तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद माँस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६।
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम (श्रीकृष्ण) आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है। १९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो, कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो अपने आप ही विद्वान समझकर स्वार्थ व धनार्जन के लिए भगवान श्रीकृष्ण की ग़लत व झूठी कथा कहता है, वह अन्ततोगत्वा नरकगामी होता है। ऐसी बात शास्त्रों में लिखी गयी है।
[ञ]-सच्चे गुरु की पहचान-
इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमन्त्र नहीं बल्कि कृष्ण मन्त्र देने वाला हो। जो शिष्यों से स्वयं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो, यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बन्धु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएँ देवीभागवतपुराण- स्कन्ध (९) अध्याय (४८)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-
यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।
दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७।
आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥ ६८।
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२।
अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे। गुरू वही है, जो विष्णु (श्रीकृष्ण) का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।
• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत (उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है। और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है। ६९-७०।
• वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे, और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।७१-७२।
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएँ बताई गई है- (वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बन्धन से मुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखण्डी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरन्त त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हँसाई है।
और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्ड से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ इस प्रकार कहा-
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ।।१४ ।।
अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रों को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल ज्ञानी गोप और गोपियों ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्री कृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है। यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं, श्री कृष्ण कथा कहते समय श्री कृष्ण के साथ गोप और गोलोक की चर्चा नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनके द्वारा की गई श्रीकृष्ण कथा अधुरी मानी जाती है। और इस सम्बन्ध में उपर बताया गया है कि कैसे आधी अधूरी श्रीकृष्ण कथा कहने वाले नरकगामी होते हैं।
इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए? इन सभी की जानकारी के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहाँ स्थापित है"।
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