रविवार, 30 मार्च 2025

परिशिष्ट-


नन्द के  परिवार का विस्तार से परिचय सात्वत वंश के चतुर्थ वृष्णि से लेकर नन्द परिवार तक-

विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है ।

सात्वत वंश में चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे। यही नन्द और वसुदेव के पूर्व- पितामह थे।

"वृष्णे: कुले उत्पन्नस्य देवमीणस्य पर्जन्यो नाम्न: सुतो। वरिष्ठो बहुशिष्टो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामह।१।
अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
"पुरा काले नन्दीश्वरे प्रदेशे  वसन्सह गोपै:।
स्वराटो विष्णो: तपयति स्म पर्जन्यो यति।।२।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।

वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी(पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।

यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
__________

नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।

मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता-( ३/५/७   )  
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥


"विशेष-  यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका के साक्ष्यों से सिद्ध है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचे वैकुण्ठ में द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा में आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय

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आदिपुराणे प्रोक्तं द्वे नाम्नी नन्दभार्याया यशोदा देवकी-इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा सनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य (ताऊ-चाचा) हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।१५।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।


   "कृष्ण की माता के परिवार का परिचय"
"यशोदा के  परिवार का परिचय-
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  

सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।

अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- (३/५/७)     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥


"विशेष-  यशोदा का वर्ण (रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही (नानी) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र (ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
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तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 
      "श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-
 में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।

"राधा के  परिवार का परिचय-
 "वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
 रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क) 

"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे  उभे।१७०(क) 
"अनुवाद:-
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)

रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
 भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१। 

अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी   ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।

"स्वसा कीर्तिमती  मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।‌१७२।।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

 श्रीराधाया:  पूर्वजो भ्राता श्रीदामा कनिष्ठा  भगिन्यानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

"रायाण  की पत्नी वृन्दा का परिचय-
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४

 -परिशिष्ट कथा१-)-
 अत्रि की‌ उत्पत्ति और उनका परिचय ] 
   

ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सम्बंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

                "मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।


आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।


अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है। 

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र कार्ष्ण गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं  जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों  में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
**
विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

"चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि  तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।

अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 (विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।

चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्व के अवसरों पर  पूजा  भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।

और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
      

गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।


अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहाँ से पाठकगण  विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते है।

इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग -एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

 
______
    
अध्याय- दशम् (१०) 
[भाग -(१) -गोप जाति के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान  पौराणिक व्यक्तियों का परिचय
यादव वंश गोप जाति का एक ऐसा रक्त समूह है।

 जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी। इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं।
(इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।)  इस लिए गोप कुल के उन सभी सदस्यपत्तियों की विस्तृत जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में गया है।


परिशिष्ट कथा २--
हरिवंश पुराण तथा देवीभागवत पुराण में वसुदेव का गोप जाति में कश्यप के अँश से जन्म लेने का प्रसंग बड़ा समीचीन रूप से प्राप्त होता है । जिसमें गोपेश्वर श्रीकृष्ण के गोप जाति में अवतरण होने की प्राचीन कथाऐं वर्णित है-

___
वसुदेव के गोपालक रूप को इन दोनों पुराणों में 
बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। 
भारतीय समाज में नन्द के गोपालक होने की बातें अधिकतर प्रचलित है  
परन्तु वसुदेव के गोपालक स्वरूप को कथाकारों की अनभिज्ञता के कारण  अथवा जान बूझकर भी प्रस्तुत न करना दु:खद है।



____
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् 
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।१७।
____
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो। 
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य  वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
__
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।   प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____

"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
____
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत 
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः 
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय 
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।

"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः 
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते 
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।

"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।

वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये 
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।

"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा 
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।


"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 - 
"अनुवाद:-
17. हे पितामह, क्या तुम्हे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूंगा।

18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे य।

19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।

20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.

21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।

24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।

23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।

24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।

35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।

फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।
43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे। और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।

47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।
49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे रौंदना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
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भगवान् हरि  अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। 
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।

राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यप ने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll

वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47। 

भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 । 

काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।

तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥

"कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥
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देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३॥           

                  "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४ ॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६ ॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७ ॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
 
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन  और प्राचीन है।

 
"पिता के मृत्यु के पश्चात  -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए  जीवन यापन किया"
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥


अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः॥४१॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२ ॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।

                    "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते॥ ४४॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ 
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।

"देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-
स्कन्ध 4, अध्याय 3 - 
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा

"देवीभागवतपुराणम्‎  स्कन्धः (४)
दित्या अदित्यै शापदानम्
             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥


वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥


किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥


भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥


मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥

                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥

                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥

                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥

अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥३०॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

 इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान  वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं
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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
 हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोक में जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यप को वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्याय को जानते हुए भी आपने दूसरे के धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपर से मधुर किंतु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ों की सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आप में कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दिति के शरीर में प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥42 ॥

उस समय वज्राघात से दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्र ने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥43 ॥

तत्पश्चात् इन्द्र ने पुनः उन सातों टुकड़ों के सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुण ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यप के | आश्वासन देने पर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
 जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम- 
     
 "हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55) 
"भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
हिन्दी-अनुवाद-सहित- 

               "वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।

विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।३।।

जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।

नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।

विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।

कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।

विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।

मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।


दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।

सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।

सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।

कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।

अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।

जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।

विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।
"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्।  तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।


पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।


अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।


ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।


कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।


मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।


कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।


प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।   त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।


यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।      न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।


यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।


या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।


त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।



इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।


येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।


या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।


ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।


वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।


तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।


देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।


तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।


छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।


गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।


विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।


त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।


वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।


जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।


अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।


योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

             "वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।


तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।


पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।

              *हिन्दी अनुवाद:-★        
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             हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।

'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।

अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।

मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।

कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।

विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।

यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।

मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।

भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।

तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।

मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।

मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।


जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।

मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।

नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
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ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।

ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- 
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।


ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।

मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।


ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।

'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे  ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।

महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।

वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा  ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।

विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।

मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।

वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।

वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२

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 "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
 


नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-

दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम्। ८०-५८।

एवं सम्पूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।

सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपाण्डुरौ।८०-६४।


दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
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"नन्द के  परिवार का परिचय-
"वृष्णे: कुले उत्पन्नस्य देवमीणस्य पर्जन्यो नाम्न: सुतो। वरिष्ठो बहुशिष्टो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामह।१।
अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
"पुरा काले नन्दीश्वरे प्रदेशे  वसन्सह गोपै:।
स्वराटो विष्णो: तपयति स्म पर्जन्यो यति।।२।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए  वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
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नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विशेष-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय


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आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु  है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।



   "कृष्ण की माता के परिवार का परिचय"
"यशोदा के  परिवार का परिचय-
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।

अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।


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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
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तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 
      "श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-
 में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।

"राधा के  परिवार का परिचय-
 "वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
 रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क) 

"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे  उभे।१७०(क) 
"अनुवाद:-
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)

रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
 भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१। 

अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी   ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।

"स्वसा कीर्तिमती  मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।‌१७२।।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

 श्रीराधाया:  पूर्वजो भ्राता श्रीदामा कनिष्ठा  भगिन्यानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

"रायाण  की पत्नी वृन्दा का परिचय-
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
"वृन्दे ! त्वं वृषभानसुता  च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।

*****
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

*******
"अनुवाद:-
तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

*********
स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
_______
उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
_____    
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री हैं उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है।
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।

और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...

और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त  श्रीलरूप गोस्वामी  द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः १३४
__________
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।

भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली ब्रज की आभीर कन्याओं में वृंदावनेश्वरी श्री राधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""

करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

 यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।

विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था। 
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।

तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है👇

अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

और गर्ग सहिता
 में लिखा है !

 यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।

अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
________
विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु 
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
 महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है

सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-

पद्मपुराण (सृष्टिखण्)अध्यायः (१७ में वर्णित आभीर कन्या गायत्री का उपाख्यान )



                 "भीष्म-उवाच।
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम।
कथं  विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।

आभीर:पुत्री गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया।
आभीरा: किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्।
आभीरैर्ब्राह्मणाचापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

            "पुलस्त्य उवाच।
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः।
निन्द्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किञ्चित्प्राधान्ये स यतःस्थितः।
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।

गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोन्तिकम्।
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च।
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हासखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी।
शाटीं निवृत्तांकृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता।
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयंहरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता।
ब्रह्मणालम्बिता बाला प्रलापं माकृथास्त्विह।११।

पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी।
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभागन त्वं शोचितुमर्हसि।
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः।
न लभन्ते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।


अनया-आभीरकन्याया तारितो गच्छ! *दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति। यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।


करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोःप्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः।
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव।
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्।
त्रपान्विता दर्शने तु बन्धूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः।
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री आभीरकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्।
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्योजगत्पतिः।
नाहंशोच्या भवत्यातु न पित्रा न च बान्धवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह।
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा।
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्।
यथेप्सितं वरं तेषां तदाब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्।
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वीदेवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा।
यज्ञवाटं कपर्दीतु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

बृहत्कपालं संगृह्य पञ्चमुण्डैरलंकृतः।
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

कथं त्वमिह सम्प्राप्तो निन्दितो वेदवादिभिः।
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निन्द्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।

उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः।
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।

कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः।
उक्तः स तैःकपर्दी तु भुक्त्वा चान्नंततो व्रज।३६।

कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः।
एवमुक्त्वा निषण्णः सकपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।

तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः।
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।

उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः।
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः।
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते।
कपालान्तान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं।
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।

तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्।
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।

पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा।
एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।

नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः।
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्।
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्।
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम।
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शम्भुं कुर्मो वै तव शासनम्।
कपालपाणिराहेशो भगवन्तं पितामहम्।४९।

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्।
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५० 1.17.50।

         "ब्रह्मोवाच।
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदःस्थितः।
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।

एवं वदन्तं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्।
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।

ततो मन्वन्तरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्।
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः।
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।

सम्भाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः।
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः।
प्रहसन्ति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।

अपरे पान्सुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः।
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्।
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चान्तिकम्।५८।

पृच्छन्ति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता।
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना।
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्येप्रधावसि।६०।

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः।
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नातिचान्यथा।६१।

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्।
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद।
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।

ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना।
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तु।६४।

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै।
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।

स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम।
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः।
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।

मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः।
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।

दण्डैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्।
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।

ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः।
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।

वेश्यायान्तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः।
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।

सर्वे च मोहिताः सन्तु सर्वेंद्रियविवर्जिताः।
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिण्डोपजीविनः।७२।

आत्मानं वर्तयन्तश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः।
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।

तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्।
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।

एवं शापं वरं चैव दत्वान्तर्द्धानमीश्वरः।
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यन्तोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा।
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्।
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतःपुनः।
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।

शान्ता दांता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराः।
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि सन्ततिः।७९।

अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमन्तो जनार्दने।
पूजयन्ति च ब्रह्माणंतेजोराशिं दिवाकरम्।८०।

नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः।
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्।
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवःपितामहः।८२।

विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतःस्थिताः।
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः।
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च।
सान्तानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।

एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्।
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्।
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।

यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः।
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वोद्विजाः।८८।

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते।
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।

कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः।
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।

बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह।
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।

मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं चभविष्यति।
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिंतामवैक्षत।९२।

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः।
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।

एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्।
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।

न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति।
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।

वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।

रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने।
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।

प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम।
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।

तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्।
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।

अतः परं प्रवक्ष्यामिसावित्र्या ब्रह्मणा सह।
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100।

सावित्रीगमने सर्वा-आगता देवयोषितः।
भृगोःख्यात्यां समुत्पन्नाविष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।

आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता।
मदिराच महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।

श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी।
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।

सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा।
त्रैलोक्यसुन्दरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।

जया च विजया चैव मधुच्छन्दामरावती।
सुप्रिया जनकान्ता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।

गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः।
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।

स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना।
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।

मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया।
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।

सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः।
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।

राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः।
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गन्तुमिच्छति।११०।

अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः।
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।

काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना।
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।

आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा।
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।

करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च।
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।

उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः।
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रंश्रृँगाटकंतथा।११५।

कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च।
अक्षोटामलकान्गृह्य जम्बीराणि तथापरा।११६।

बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना।
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुम्भकं तथा।११७।

एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः।
सावित्र्यासहिताःसर्वाः संप्राप्ताःसहसाशुभाः।११८।

सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरन्दरः।
अधोमुखः स्थितोब्रह्मा किमेषा मांवदिष्यति।११९।

त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः।
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।

पुत्राःपौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा।
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।

वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति।
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।

मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः।
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।

शक्रेणान्याहृता-आभीरादत्ता सा विष्णुनास्वयम्।
अनुमोदिताचरुद्रेणपित्राऽदत्तास्वयं तथा।१२४।

कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्।
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।

वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा।
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।

पत्नीशालास्थिता गोपी सैणश्रृँगा समेखला।
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।

पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता।
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।

द्योतयन्ती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा।
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयन्ते ऋत्विजस्तथा।१२९।

पशूनामिह गृह्णानाभागं स्वस्व चरोर्मुदा।
यज्ञभागार्थिनो देवा विलम्बाद्ब्रुवते तदा।१३०।

कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः।
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टःसर्वैर्मनीषिभिः।१३१।

प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।

उपहूतेनागते नचाहूतेषु द्विजन्मसु।
क्रियमाणे तथाभक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।

उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्।
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।१३४।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्।
नतुल्यापादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।

यद्वदन्ति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः।
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।

भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्।
पुत्रेषु नकृतालज्जा पौत्रेषुचन ते प्रभो।१३७।

कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्।
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।

कथं न ते त्रपा जाता आत्मनःपश्यतस्तनुम्।
लोकमध्येकृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।

यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते।
अहंकथंसखीनांतु दर्शयिष्यामि वैमुखम्।१४०।

भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे।
          "ब्रह्मोवाच।
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।

पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय।
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।

गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्।
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।

पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते।
        "पुलस्त्य उवाच।
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।

यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः।
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।

नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन।
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।

करिष्यन्ति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले।
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।

भोभोः! शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोन्तिकम्।
यस्मात्ते क्षुद्रकंकर्मतस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।

यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि।
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।

अकिञ्चनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः।
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०।1.17.150।

शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्।
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।

भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे।
हृतातेशत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।

न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः।
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।

यदा यदुकुले जातः•★कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।

तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः।
तदा त ॠषयः क्रुद्धाःशापं दास्यन्तिवै हर।१५५।

भोभोः !कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि।
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिङ्गंपतिष्यति।१५६।

विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः।
गङ्गाद्वारेस्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।

अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः।
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।

जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति।
अमेध्येषु च तेजिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।

ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्रीवैशशाप ह।
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रोवृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।

सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ।
परान्नेषु सदातृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च।१६१।

अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्।
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।

प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः।
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा।१६३।

ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा।
शापं दत्वा तथातेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।

ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदासा च व्यवस्थिता।
लक्ष्मींप्राह सतीं तां चशक्रभार्यां वराननाम्।१६५।

युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि सन्सदि।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।

ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्।
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।

यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः।
तासामपि तथा शापंप्रदास्येकुपिता भृशम्।१६८।

नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यतिकदाचन।
क्षुद्रा सा चलचित्ता चमूर्खेषु चवसिष्यति।१६९।

म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा।
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।

एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिःशापकारिता।
शापं दत्वाततस्तस्या इन्द्राणीमशपत्ततदा।१७१।

ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ तेदुःखभागिनि।
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वांयाचयिष्यति।१७२।

अहमिन्द्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा।
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि।१७३।

नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे।
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते।१७४।

देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत।
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ।१७५।

दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः।
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी।१७६।

रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता।
मा रोदीस्त्वंविशालाक्षि एह्यागच्छ सदाशुभे।१७७।

प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी।
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणिपादौ च प्रणमामि ते।१७८।

एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न वै ध्वनिम्।१७९।

एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता।
विष्णुस्तदग्रतःस्थित्वाबध्वा च करसम्पुटं।१८०।

तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमयास्थितः।
       "विष्णुरुवाच।
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता।१८१।

सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया।
तथापियेषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः।१८२।

स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः।
सावित्री पुष्करेनाम तीर्थानां प्रवरे शुभे।१८३।

वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी।
प्रयागे ललितादेवी कामुका गन्धमादने।१८४।

मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथाम्बरे।
गोमन्ते गोमती नाम मन्दरेकामचारिणी।१८५।

मदोत्कटा चैत्ररथे जयन्ती हस्तिनापुरे।
कान्यकुब्जे तथा गौरीरम्भा मलयपर्वते।१८६।

एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा।
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका।१८७।

नन्दा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका।
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वकेबिल्वपत्रिका।१८८।

श्रीशैले माधवीदेवी भद्राभद्रेश्वरी तथा।
जया वराहशैले तु कमलाकमलालये।१८९।

रुद्रकोट्यां तुरुद्राणी काली कालञ्जरे तथा।
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी।१९०।

शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगेजलप्रिया।
मायापुर्यां कुमारीतु सन्तानेललितातथा।१९१।

उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला।
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।१९२।

विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने।
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी।१९३।

विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले।
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने।१९४।

कुब्जाम्रके त्रिसन्ध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया।
शिवकुण्डे शिवानंदा नन्दिनी देविकातटे।१९५।

रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने तथा।
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी।१९६।

चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी।
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चन्द्रे तु चन्द्रिका।१९७।

रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती।
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके।१९८।

अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी।
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकन्दरे।१९९।

माण्डव्ये माण्डवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे।
वेगले तु प्रचण्डाथ चण्डिकामरकण्टके।२००। 1.17.200।

सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती।
देवमाता सरस्वत्यांपारापारे तटे स्थिता।२०१।

महालये महापद्मापयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी।
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी।२०२।

उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिन्धुसंगमे।
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे।२०३।

जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते।
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।२०४।

भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा।
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे।२०५।

शङ्खोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिःपिण्डारके तथा।
काला तु चन्द्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी।२०६।

वेणायाममृता देवी वदर्यामूर्वशी तथा।
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।२०७।

मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी।
अश्वत्थेवन्दनीया तु निधिर्वै श्रवणालये।२०८।

गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ।
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती।२०९।

सूर्यबिम्बे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा।
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।२१०।

चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां।
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं।२११।

अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं।
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।२१२।

येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्।२१३।

नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ।
पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः।२१४।

गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः।
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति।२१५।

एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता।
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्योभविष्यसि।२१६।

अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः।
इह चागत्य यो मां तु स्तवेनानेन संस्तुयात्।२१७।

सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति।
गच्छयज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक।२१८।

कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी।
समीपगा स्थिता भर्त्तुःकरिष्ये तव भाषितम्।२१९।

एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्।
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्।२२०।

शृण्वन्तु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ।
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता।२२१।

ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः।
तेषां वस्त्रं धनंधान्यं दाराःसौख्यं धनानि च।२२२।

अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्।
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति।२२३।

      "पुलस्त्य उवाच।
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः।
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु।२२४।

सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्।
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया।२२५।

पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप।
अनेन विधिना यस्तु विरिञ्चिं पूजयेन्नरः।२२६।

प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्।
विरिञ्चिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।

कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता।
यांकृत्वावामानवाभक्त्यासंयान्तिब्रह्मलोकताम्।२२८।

कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्।
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप।२२९।

भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः।
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप।२३०।

ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शाण्डिलेयं प्रपूज्य च।
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः।२३१।

रथाग्रे शाण्डिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः।
ब्राह्मणान्वाचयित्वातु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्।२३२।

देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं।
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः।२३३।

कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप।
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।२३४।

पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप।
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च।२३५।

ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप।
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे।२३६।

विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्।
बह्वृवृचाथर्वणैर्वीरछन्दोगाध्वर्युभिस्तथा।२३७।

भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं।
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु।२३८।

न वोढव्यो रथो वीर रूद्रेण हितमिच्छता।
न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः।२३९।

ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप।
भोजकं वामपार्श्वे तुपुरतःपंङ्कजं न्येसेत्।२४०।

एवं तूर्यनिनादैस्तु शङ्ख शब्दैश्च पुष्कलैः।
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्।२४१।

स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः।
यएवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापिपश्यति।२४२।

रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं।

  • कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं।२४३।


शालायां ब्रह्मणः कुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्।
गन्धपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः।२४४।

तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्।
महापुण्यातिथिरियं *-बलिराज्यप्रवर्तिनी।२४५।

ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता।
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः।२४६।

स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः।
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा।२४७।

तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः।
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप।२४८।

भवन्ति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्।
दिव्यं नीराजनंतद्धि सर्वरोगविनाशनं।२४९।

गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप।
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणंबाह्यतो न्यसेत्।२५०।1.17.250।


ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह।
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनन्दन।२५१।

कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप।
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप।२५२।

बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी।
         "गायत्र्युवाच।
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं।२५३।

न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यन्ति कदाचन।
मदीयं तु वचःश्रुत्वा ये करिष्यन्ति चार्चनं।२५४।

इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः।
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति।२५५।

शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे।
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्।२५६।

स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं।
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति।२५७।

मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि।
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं।२५८।

हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ।
गृहीत्वातां पुनाराज्यं कृत्वा स्वर्गंगमिष्यसि।२५९।

एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं।
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह।२६०।

सान्तानिकानाम तेषां लोका स्थास्यन्ति भाविताः।
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः।२६१।

गायत्री तु तदा रुद्रंवरदा प्रत्यभाषत।
पतितेपिच ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः।२६२।

ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः।
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके।२६३।

यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्।
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव।२६४।

पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः।
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः।२६५।

त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः।
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयिध्रुवम्।२६६।

भुञ्जते नात्र सन्देहो वेदोक्तं वचनं यथा।
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं।२६७।

युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः।
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः।२६८।

अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः।
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवन्ति ते।२६९।

ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः।
भुञ्जते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैवपितामहाः।२७०।

यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः।
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ।२७१।

विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं।
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः।२७२।

पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः।
एकस्मिन्भोजिते विप्रेकोट्याः फलमवाप्स्यते।२७३।

ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च।
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्।२७४।

मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः।
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।२७५।

दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं।
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हन्ति किल्बिषं।२७६।

एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते।
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा।२७७।

प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धंजप्त्वा विशेषतः।
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वामां शिरसा सह।२७८।

अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं।
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता।२७९।

जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः।
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति।२८०।

गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः।
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।२८१।

यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तःसदस्यथ।
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।

दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः।
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।

स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः।
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।

ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्।
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणःपार्श्वगाऽभवत्।२८५।

चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्।
युवतीनाञ्च सर्वासां शापाञ्ज्ञात्वापृथक्पृथक्।२८६।

लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया।
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना।२८७।

शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी।
ये त्वया वीक्षिताःपुत्रि सर्वेते पुण्यभोजनाः।२८८।

परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः।
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने।२८९।

सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः।
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः।२९०।

सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः।
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना।२९१।

त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना।
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते।२९२।

एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः।
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः।२९३।

इन्द्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति।
त्वद्दृष्ट्या तु हतःपापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्।२९४।

सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः।
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव।२९५।

वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः।
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति।२९६।

उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनन्दनः।
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति।२९७।

तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि।
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्।२९८।

प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने।
      "पुलस्त्य उवाच।
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः।२९९।

अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति।
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता।३००। 1.17.300।

बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी।
समाप्तिंतस्य यज्ञस्य काञ्क्षन्तीब्रह्मणःप्रिया।३०१।

वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्।
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह।३०२।

        "रुद्र उवाच।
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते।
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा।३०३।

सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च।३०४।

भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते।३०५।

श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना।
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ।३०६।

एणश्रृँगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्।
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा।३०७।

शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता।
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता।३०८।

चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे।
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता।३०९।

भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः।
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ।३१०।

जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता।
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी।३११।

विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने।
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा।३१२।

त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना।
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी।३१३।

पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति।
ज्येष्ठे मासेपौर्णमास्यामग्र्यांपूजां च लप्स्यसे।३१४।

ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः।
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा।३१५।

कान्तारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे।
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।३१६।

त्वं सिद्धिःश्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः।
संध्या रात्रिःप्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च।३१७।

अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी।
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना।३१८।

जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया।
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे।३१९।

बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी।
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।३२०।

नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने।
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च।३२१।

ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता।
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः।३२२।

अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा।
सिद्धिस्त्वंहि नृपाणांच वेला सागरजा मता।३२३।

ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता।
ज्योतिषांच प्रभा देवीलक्ष्मीर्नारायणे स्थिता।३२४।

क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी।
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च।३२५।

पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः।
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी।३२६।

इन्द्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा।
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा।३२७।

कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा।
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा।३२८।

व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि।
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यांसुपूजिता।३२९।

सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे।
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।३३०।

सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः।
       "गायत्र्युवाच।
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्३३१।

विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः।१७।



पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का हिन्दी अनुवाद- 

यादव  योगेश कुमार रोहि ( अलीगढ़) 
____________________________     
               पद्मपुराणम्- 
            (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
   (पदान्वय अर्थसमन्विता सात्वती टीका)
        पद्मपुराणम्‎ -खण्डः प्रथम (सृष्टिखण्डम्)
___________________________________

                         "भीष्म उवाच"
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।
"शब्दार्थ-★
१-तस्मिन्यज्ञे= उस यज्ञ में ।  २-किमाश्चर्यम तदासीत् द्विजसत्तम = क्या आश्चर्य तब हुआ द्विजों मे श्रेष्ठ पुलस्त्य जी ३- कथंरूद्र: स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तम: = कैसे रूद्र और विष्णु भी जो देवों में उत्तम हैं वहाँ स्थित रहे  । 
अनुवाद:-
हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ?  और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
_______________ऊं________________

गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
अनुवाद:-
ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ?  और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।

_______________ऊं________________
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
अनुवाद:-
आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।

_______________ऊं________________
                       पुलस्त्य उवाच
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
अनुवाद:-
                ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)
हे राजन्  उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है  उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा  । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४। 

_______________ ऊं________________
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
अनुवाद:-
उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मय कार्य किया  वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।

_______________ऊं________________
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
अनुवाद:-
इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की  वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने  यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी  ।६।

_______________ऊं________________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
अनुवाद:-
और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।

_______________ऊं________________
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
अनुवाद:-
यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे  उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८। 

_______________ऊं________________
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
अनुवाद:-
और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर ( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌?
 ।९।

_______________ऊं________________
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।
१०।
अनुवाद:-
हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे  केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।

_______________ऊं________________
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
अनुवाद:-
यहाँ यह  हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त  किया गया है । अर्थात ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है  अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है 
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।

_______________ऊं________________
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
अनुवाद:-
यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।

_______________ऊं________________
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३। 
अनुवाद:-
इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों  शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को( पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३  

_______________ऊं________________
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
अनुवाद:-
तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले  वेद पारंगत  ब्राह्मण  भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।

_______________ऊं________________
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
अनुवाद:-
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा  यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा  ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।

_______________ऊं________________
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले  चापि  देवकार्यार्थसिद्धये अवतारं करिष्येहं ।१६।
अनुवाद:-
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(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया  गया है  तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अवतरण करुँगा ।।१६। - 
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
अनुवाद:-
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सा क्रीडा तु भविष्यति यदा   नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद:-
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।

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करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
अनुवाद:-
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।

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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
अनुवाद:-
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा  उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।

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न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।।२०।
अनुवाद:-
इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा 
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।

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एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
अनुवाद:-
उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति कुल ( वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए आप अवतार करने योग्य ही है ।२१।

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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
अनुवाद:-
आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।

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एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
अनुवाद:-
हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को  अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।

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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये  हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो !
उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही  थी ।२४।

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कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
अनुवाद:-
किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को गये  देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली २५।

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वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
अनुवाद:-
बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको  सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता  के पास जाकर  कहा ! 

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भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
अनुवाद:-
मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता  और बान्धवों । मेरे विषय में अब कोई चिन्ता नहीं करनी  चाहिए ।२७।

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सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
अनुवाद:-
मेरी सखीयाँ' मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं(देवीयों) के साथ हूँ। २८।

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गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।

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याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
अनुवाद:-
इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें !
इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।

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तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
अनुवाद:-
गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।

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दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
अनुवाद:-
वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञ शाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।

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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।
अनुवाद:-
वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।

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कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।
अनुवाद:-
अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस उन पुरोहितों द्वारा  उनको दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए भी ।३४।

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उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।
अनुवाद:-
शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ  सभी को सन्तुष्ट करने वाले  ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।
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कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।
अनुवाद:-
हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात ्हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।

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कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।
अनुवाद:-
इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।

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तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।

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उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
अनुवाद:-
उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये  ।३९।

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वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।
अनुवाद:-
वे देवताओं को मोहित करके  आकाश में वहीं स्थित हो गये  कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०। 

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कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।
अनुवाद:-
जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; तो फिर होम कैसे किया जा  सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था

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विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।
अनुवाद:-
उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ । और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।

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तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।   
अनुवाद:-
वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ
भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।

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पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।
अनुवाद:-
पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते हैं 
 थे ।४४।

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नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

अनुवाद:-
इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।

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तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।
अनुवाद:-
परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ।४५-४६।

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उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।
अनुवाद:-
उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।

विशेष----
यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। 
विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
 वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था  आटे की चौंसी 

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कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।
अनुवाद:-
हे ब्राह्मणों मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८। 

विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।)  इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।

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तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।
अनुवाद:-
तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु  !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें। अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे  हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।

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वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०। 
1.17.50
अनुवाद:-
हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।।५०।

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                           ब्रह्मोवाच
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ ।
 यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।

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एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।
अनुवाद:-
उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।

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ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।
अनुवाद:-
इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।

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चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।
अनुवाद:-
चारों वेदोंं के जानकार  ब्राह्मण उस समय  निश्चय ही वे  तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४। 

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संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।
अनुवाद:-
शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करत देखा।५५।

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प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।
अनुवाद:-
शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने  उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।

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अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।
अनुवाद:-
दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे । बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे  कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।

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प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।
अनुवाद:-
कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से  प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्म चारी (वटव) वहाँ  उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।
 ।५८। 

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पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।
अनुवाद:-
यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।

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केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।
अनुवाद:-
तुम्हें यह वृतचर्या किस पाप दर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ?  किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान  बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो ।६०।

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शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।
अनुवाद:-
शंकर ने कहा मेरा लिंग ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है  अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता ।६१।
विशेष-
जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति  रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
(जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि)

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मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२। 
अनुवाद:-
मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई ।६२।

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उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।
अनुवाद:-
उमा का विवाह शंकर से हुआ  बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।
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ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृते न तु।६४।
अनुवाद:-
इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले  देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं! ।६४।

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कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।
अनुवाद:-
अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५। 

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स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।
अनुवाद:-
हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।

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यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
अनुवाद:-
आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  इस तरह से कहते हुए बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर  को ।६७।

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मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।
अनुवाद:-
शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को  हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८। 

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दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।
अनुवाद:-
 उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे  तब  उन सबके द्वारा पीटे  जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये । ६९। 

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ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।
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अनुवाद:-
इसके बाद  ने उन ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि तुम
 सब वेदज्ञान विहीन ऊपर की ओर जटा रखने वाले  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ । ७०। 

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वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।
अनुवाद:-
वेश्या प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी और माता-पिता से रहित हो जाओगे तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।

_______________ऊं________________
सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताः
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२।
अनुवाद:-

तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रिय हो जाओगे रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२। 

_______________ऊं________________
आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।
अनुवाद:-
केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले निर्मम और अधार्मिक हो जाओगे जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है।७३। 
 

_______________ऊं________________
तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी 'दास बकरी" भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४। 

_______________ऊं________________
एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।
इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्ध नारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५। 

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अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।
उनका अन्वेषण करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मण जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ।७६।

_______________ऊं________________
स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।
वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके  शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जपकरके  अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।

_______________ऊं________________
अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।
 मेरे द्वारा   असत्य नहीं कहा गया और स्वैच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या निग्रह का विषय बन जाने पर मैं  दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।

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शान्ता दान्ता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराःन तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।
जो ब्राह्मण शान्त दान्त हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।

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अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।
अग्निहोत्रकरने वाले भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०। 

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नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।
 जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है  इतना  कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१। 

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लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।
अनुवाद:-
देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के वहीं आगये सभी के साथ जहाँ ब्रह्माजी पहले विद्यमान थे ।८२। 

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विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।
अनुवाद:-
वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३। 

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ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
अनुवाद:-
ब्रह्मा जी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये  उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय! ।८४।



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ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः।
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च।
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।
एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्।
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।
नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्।
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।८७।
यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः।
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वोद्विजाः।८८।
उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते।
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९।
कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः।
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।
बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह।
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।
मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं चभविष्यति।
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिंतामवैक्षत।९२।
ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः।
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते।९३।
एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्।
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।
न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति।
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे।९५।
वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।९६।
रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने।
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।
प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम।
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।
तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्।
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।
अतः परं प्रवक्ष्यामिसावित्र्या ब्रह्मणा सह।
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्।१००। 1.17.100।
सावित्रीगमने सर्वाआगता देवयोषितः।
भृगोःख्यात्यां समुत्पन्नाविष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।
आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता।
मदिराच महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।
श्रीःकमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी।
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः।१०३।
सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा।
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।
जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती।
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।
गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः।
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।
स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना।
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।
मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया।
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।१०८।
सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः।
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।

राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः।
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।
अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः।
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।
काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना।
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।
आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा।
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।
करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च।
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।
उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः।
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रंश्रृँगाटकंतथा।११५।
कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च।
अक्षोटामलकान्गृह्य जम्बीराणि तथापरा।११६।
बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना।
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुम्भकं तथा।११७।
एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः।
सावित्र्यासहिताःसर्वाः संप्राप्ताःसहसाशुभाः।११८।
सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरन्दरः।
अधोमुखः स्थितोब्रह्मा किमेषा मांवदिष्यति।११९।
त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः।
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।
पुत्राःपौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा।
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।
वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति।
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।
मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः।
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।
शक्रेणान्याहृताआभीरादत्ता सा विष्णुनास्वयम्।
अनुमोदिताचरुद्रेणपित्राऽदत्तास्वयं तथा।१२४।
कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्।
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।
वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा।
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
पत्नीशालास्थिता गोपी सैणश्रृँगा समेखला।
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता।
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।
द्योतयन्ती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा।
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयन्ते ऋत्विजस्तथा।१२९।
पशूनामिह गृह्णानाभागं स्वस्व चरोर्मुदा।
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः।
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टःसर्वैर्मनीषिभिः।१३१।
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।१३२।
उपहूतेनागते नचाहूतेषु द्विजन्मसु।
क्रियमाणे तथाभक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।१३३।

उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्।
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।१३४।
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्।
नतुल्यापादरजसा ममैषा या शिरः कृता।१३५।
यद्वदन्ति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः।
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्।
पुत्रेषु नकृतालज्जा पौत्रेषुचन तेप्रभो।१३७।
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्।
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनःपश्यतस्तनुम्।
लोकमध्येकृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते।
अहंकथंसखीनांतु दर्शयिष्यामि वैमुखम्।१४०।
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे।
।ब्रह्मोवाच।
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।१४१।
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय।
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना।१४२।
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्।
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।१४३।
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते।
।पुलस्त्य उवाच।
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः।
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।१४५।
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन।
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।१४६।
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले।
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।१४७।
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोन्तिकम्।
यस्मात्ते क्षुद्रकंकर्मतस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।१४८।
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि।
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः।
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।१५०।1.17.150।
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्।
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।
भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे।
हृतातेशत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः।
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।
यदा यदुकुले जातः•★कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।१५४।
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः।
तदा त ॠषयः क्रुद्धाःशापं दास्यंतिवै हर।१५५।
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि।
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगंपतिष्यति।१५६।
विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः।
गंगाद्वारेस्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति।१५७।

अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः।
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्।१५८।
जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति।
अमेध्येषु च तेजिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति।१५९।
ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्रीवैशशाप ह।
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रोवृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।
सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ।
परान्नेषु सदातृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च।१६१।
अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्।
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा।१६२।
प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः।
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा।१६३।
ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा।
शापं दत्वा तथातेषां निष्क्रांता सदसस्तथा।१६४।
ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदासा च व्यवस्थिता।
लक्ष्मींप्राह सतीं तां चशक्रभार्यां वराननाम्।१६५।
युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि सन्सदि।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न च ध्वनिम्।१६६।
ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्।
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता।१६७।
यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः।
तासामपि तथा शापंप्रदास्येकुपिता भृशम्।१६८।
नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यतिकदाचन।
क्षुद्रा सा चलचित्ता चमूर्खेषु चवसिष्यति।१६९।
म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा।
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि।१७०।
एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिःशापकारिता।
शापं दत्वाततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा।१७१।
ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ तेदुःखभागिनि।
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वांयाचयिष्यति।१७२।
अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा।
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि।१७३।
नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे।
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते।१७४।
देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत।
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ।१७५।
दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः।
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी।१७६।
रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता।
मा रोदीस्त्वंविशालाक्षि एह्यागच्छ सदाशुभे।१७७।
प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी।
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणिपादौ च प्रणमामि ते।१७८।
एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव।
तत्रचाहं गमिष्यामि यत्रश्रोष्ये न वै ध्वनिम्।१७९।
एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता।
विष्णुस्तदग्रतःस्थित्वाबध्वा च करसम्पुटं।१८०।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः।
।विष्णुरुवाच।
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता।१८१।
सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापियेषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः।१८२।
स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः।
सावित्री पुष्करेनाम तीर्थानां प्रवरे शुभे।१८३।
वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी।
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने।१८४।
मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथाम्बरे।
गोमन्ते गोमती नाम मन्दरेकामचारिणी।१८५।
मदोत्कटा चैत्ररथे जयन्ती हस्तिनापुरे।
कान्यकुब्जे तथा गौरीरम्भा मलयपर्वते।१८६।
एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा।
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका।१८७।
नन्दा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका।
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वकेबिल्वपत्रिका।१८८।
श्रीशैले माधवीदेवी भद्राभद्रेश्वरी तथा।
जया वराहशैले तु कमलाकमलालये।१८९।
रुद्रकोट्यां तुरुद्राणी काली कालन्जरे तथा।
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी।१९०।
शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगेजलप्रिया।
मायापुर्यां कुमारीतु सन्तानेललितातथा।१९१।
उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला।
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।१९२।
विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने।
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी।१९३।
विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले।
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने।१९४।
कुब्जाम्रके त्रिसन्ध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया।
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे।१९५।
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने तथा।
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी।१९६।
चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी।
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चन्द्रे तु चन्द्रिका।१९७।
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती।
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके।१९८।
अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी।
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे।१९९।
माण्डव्ये माण्डवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे।
वेगले तु प्रचण्डाथ चण्डिकामरकण्टके।२००। 1.17.200।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती।
देवमाता सरस्वत्यांपारापारे तटे स्थिता।२०१।
महालये महापद्मापयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी।
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी।२०२।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे।
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे।२०३।
जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते।
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।२०४।
भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा।
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे।२०५।
शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिःपिण्डारके तथा।
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी।२०६।
वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा।
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।२०७।
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी।
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये।२०८।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ।
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती।२०९।
सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा।
अरुन्धती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा।२१०।
चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां।
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं।२११।
अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं।
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।२१२।
येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्।२१३।
नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः।२१४।
गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः।
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति।२१५।
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता।
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्योभविष्यसि।२१६।
अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः।
इह चागत्य यो मांतु स्तवेनानेन संस्तुयात्।२१७।
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति।
गच्छयज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक।२१८।
कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी।
समीपगा स्थिता भर्त्तुःकरिष्ये तव भाषितम्।२१९।
एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्।
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्।२२०।
शृण्वन्तु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ।
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता।२२१।
ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः।
तेषां वस्त्रं धनंधान्यं दाराःसौख्यं धनानि च।२२२।
अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्।
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति।२२३।
।पुलस्त्य उवाच।
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः।
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु।२२४।
सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्।
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया।२२५।
पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप।
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः।२२६।
प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्।
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः।२२७।
कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता।
यांकृत्वावामानवाभक्त्यासंयान्तिब्रह्मलोकताम्।२२८।
कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्।
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप।२२९।
भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः।
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप।२३०।
ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शाण्डिलेयं प्रपूज्य च।
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः।२३१।
रथाग्रे शाण्डिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः।
ब्राह्मणान्वाचयित्वातु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्।२३२।
देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं।
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः।२३३।
कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप।
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।२३४।
पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप।
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च।२३५।
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप।
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे।२३६।
विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्।
बह्वृवृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा।२३७।
भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं।
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु।२३८।

न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः।२३९।
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप।
भोजकं वामपार्श्वे तुपुरतःपंङ्कजं न्येसेत्।२४०।
एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः।
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्।२४१।
स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः।
यएवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापिपश्यति।२४२।
रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं।
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं।२४३।
शालायां ब्रह्मणःकुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्।
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः।२४४।
तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्।
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी।२४५।
ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता।
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः।२४६।
स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः।
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा।२४७।
तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः।
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप।२४८।
भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्।
दिव्यं नीराजनंतद्धि सर्वरोगविनाशनं।२४९।
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप।
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणंबाह्यतो न्यसेत्।२५०।1.17.250।
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह।
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन।२५१।
कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप।
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप।२५२।
बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी।
।गायत्र्युवाच।
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं।२५३।
न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यन्ति कदाचन।
मदीयं तु वचःश्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं।२५४।
इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः।
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति।२५५।
शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे।
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्।२५६।
स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं।
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति।२५७।
मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि।
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं।२५८।
हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ।
गृहीत्वातां पुनाराज्यं कृत्वा स्वर्गंगमिष्यसि।२५९।
एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं।
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह।२६०।
सान्तानिकानाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः।
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः।२६१।
गायत्री तु तदा रुद्रंवरदा प्रत्यभाषत।
पतितेपिच ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः।२६२।
ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः।
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके।२६३।
यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्।
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव।२६४।
पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः।
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः।२६५।
त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः।
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयिध्रुवम्।२६६।
भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा।
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं।२६७।
युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः।
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः।२६८।
अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः।
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते।२६९।
ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः।
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैवपितामहाः।२७०।
यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः।
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ।२७१।
विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं।
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः।२७२।
पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः।
एकस्मिन्भोजिते विप्रेकोट्याः फलमवाप्स्यते।२७३।
ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च।
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्।२७४।
मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः।
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।२७५।
दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं।
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हन्ति किल्बिषं।२७६।
एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते।
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा।२७७।
प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धंजप्त्वा विशेषतः।
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वामां शिरसा सह।२७८।
अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं।
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता।२७९।
जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः।
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति।२८०।
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः।
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी।२८१।
यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तःसदस्यथ।
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।
दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः।
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।
स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः।
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्।
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणःपार्श्वगाऽभवत्।२८५।
चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्।
युवतीनाञ्च सर्वासां शापाञ्ज्ञात्वापृथक्पृथक्।२८६।
लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया।
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना।२८७।
शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी।
ये त्वया वीक्षिताःपुत्रि सर्वेते पुण्यभोजनाः।२८८।
परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः।
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने।२८९।
सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः।
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः।२९०।
सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः।
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना।२९१।
त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना।
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते।२९२।
एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः।
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः।२९३।
इन्द्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति।
त्वद्दृष्ट्या तु हतःपापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्।२९४।
सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः।
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव।२९५।
वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः।
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति।२९६।
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनन्दनः।
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति।२९७।
तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि।
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्।२९८।
प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने।
।पुलस्त्य उवाच।
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः।२९९।
अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति।
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता।३००। 1.17.300।
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी।
समाप्तिंतस्य यज्ञस्य काञ्क्षन्तीब्रह्मणःप्रिया।३०१।
वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्।
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह।३०२।
।रुद्र उवाच।
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते।
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा।३०३।
सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च।३०४।
भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा।
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते।३०५।
श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना।
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ।३०६।
एणश्रृँगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्।
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा।३०७।
शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता।
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता।३०८।
चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे।
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता।३०९।
भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः।
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ।३१०।
जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता।
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी।३११।
विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने।
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा।३१२।
त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना।
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी।३१३।
पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति।
ज्येष्ठे मासेपौर्णमास्यामग्र्यांपूजां च लप्स्यसे।३१४।
ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः।
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा।३१५।
कान्तारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे।
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।३१६।
त्वं सिद्धिःश्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः।
संध्या रात्रिःप्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च।३१७।

अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी।
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना।३१८।
जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया।
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे।३१९।
बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी।
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।३२०।
नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने।
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च।३२१।
ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता।
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः।३२२।
अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा।
सिद्धिस्त्वंहि नृपाणांच वेला सागरजा मता।३२३।
ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता।
ज्योतिषांच प्रभा देवीलक्ष्मीर्नारायणे स्थिता।३२४।
क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी।
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च।३२५।
पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः।
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी।३२६।
इन्द्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा।
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा।३२७।
कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा।
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा।३२८।
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि।
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यांसुपूजिता।३२९।
सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे।
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।३३०।
सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः।
।गायत्र्युवाच।
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्३३१।
विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि।


इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्री विवादगायत्री वरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७।

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75-93. इस प्रकार शाप और वरदान देकर भगवान अन्तर्धान हो गये। जब वह चला गया, तो ब्राह्मणों ने उसे भगवान शंकर समझकर उसकी तलाश करने की कोशिश की; लेकिन जब उन्हें वह नहीं मिला, तो वे आत्म-निर्धारित धार्मिक अनुष्ठानों से संपन्न होकर, पुष्कर वन में आये। प्रमुख सरोवर में स्नान करके ब्राह्मणों ने रुद्र के सैकड़ों (नामों) का उच्चारण किया। प्रार्थना के बुदबुदाने के अंत में, भगवान (अर्थात शिव) ने उनसे दिव्य वाणी में कहा: “यहां तक ​​कि मुक्त बातचीत में भी मैंने कभी झूठ नहीं बोला; फिर जब मैंने अपनी इंद्रियों पर अंकुश लगा लिया है तो मैं ऐसा कैसे करूंगा? मैं तुम्हें फिर से खुशियाँ प्रदान करूँगा। वेद (अर्थात् वैदिक ज्ञान), उन ब्राह्मणों का धन और संतान नहीं छीनी जाएगी जो शांत, संयमित, मेरे प्रति समर्पित और मुझमें स्थिर हैं। उन (ब्राह्मणों) के लिए कुछ भी अशुभ नहीं है जो पवित्र अग्नि को बनाए रखने में लगे हुए हैं,   जनार्दन. (अर्थात विष्णु),के प्रति समर्पित हैं ब्रह्मा (और) सूर्य की पूजा करें - चमक का ढेर, और जिनके मन संतुलन में स्थिर हैं। यह कहकर वह चुप हो गये। सभी (ब्राह्मण) महान देवता (अर्थात शिव) से वरदान और अनुग्रह प्राप्त करके एक साथ (उस स्थान पर) गए जहां ब्रह्मा (रहते थे)। वे सब मिलकर ब्रह्मा को प्रसन्न करते हुए उनके सामने रुके। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर उनसे कहा, "मुझसे भी कोई वर मांग लो।" ब्रह्मा के इन वचनों से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रसन्न हुए। (उन्होंने एक-दूसरे से कहा:) “हे ब्राह्मणों, ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर हमें कौन सा वरदान माँगना चाहिए? आइए, इस वरदान के अनुदान के परिणामस्वरूप, पवित्र अग्नि, वेदों, विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और संतानों से संबंधित (अर्थात) लोकों का रखरखाव करें। जब ब्राह्मण इस प्रकार बात कर रहे थे (आपस में) तो वे क्रोधित हो गये; "आप कौन हैं? यहाँ प्रमुख कौन हैं? हम यहां श्रेष्ठ हैं।” अन्य ब्राह्मणों ने कहा: "नहीं, (ऐसा नहीं है)।" ब्रह्मा ने वहां मौजूद ब्राह्मणों को क्रोध से भरा हुआ देखकर उनसे कहा, "चूंकि आप यज्ञ सभा से बाहर तीन समूहों में रह गए हैं, इसलिए, ब्राह्मण, आप में से एक समूह को बुलाया जाएगा।"अमूलिका ; जो तटस्थ रहे, वे उदासीन कहलाएँगे ; हे ब्राह्मणों, तीसरा समूह उन लोगों का होगा जिनके पास हथियार हैं और उन्होंने खुद को तलवारों से सुसज्जित किया है और उन्हें कौशिकी कहा जाएगा । इस प्रकार तीन प्रकार से (तीनों समूहों द्वारा) कब्ज़ा किया गया यह स्थान पूर्णतः आपका होगा। यहाँ की प्रजा (जीवित) को बाहर से (अर्थात बाहरी लोगों द्वारा) 'संसार' कहा जायेगा; विष्णु निश्चित ही इस अज्ञात स्थान की देखभाल करेंगे। मेरे द्वारा दिया गया यह स्थान अनन्त काल तक रहेगा और पूर्ण रहेगा।” ऐसा कहकर ब्रह्मा ने यज्ञ के समापन के बारे में सोचा। ये सभी ब्राह्मण (कुछ समय पहले) क्रोध और ईर्ष्या से भरे हुए थे, उन्होंने मिलकर मेहमानों को भोजन कराया और वैदिक अध्ययन में तल्लीन हो गए।

94-99. यह पुष्कर, जिसे ब्रह्मा भी कहा जाता है, एक महान पवित्र स्थान है। उस पवित्र स्थान पर रहने वाले शान्त ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मा की दुनिया में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है। हे श्रेष्ठ राजा, जो वस्तु अन्य पवित्र स्थानों पर बारह वर्षों के बाद होती है वह इन पवित्र स्थानों पर छह महीने के भीतर ही हो जाती है। कोकामुख , कुरूक्षेत्र , नैमिषा जहां ऋषियों की मंडली है, वाराणसी , प्रभास , बदरिकाश्रम भी, और गंगाद्वार , प्रयाग , और वह स्थान जहां गंगा सागर से मिलती है, रुद्रकोटि , विरूपाक्ष, इसी प्रकार मित्रवन [4] ; (मनुष्य के उद्देश्य की पूर्ति के विषय में) यदि मनुष्य धार्मिक अध्ययन का इच्छुक है तो इसमें कोई संदेह नहीं है। पुष्कर सभी पवित्र स्थानों में सबसे महान और सबसे अच्छा है; यह हमेशा पोते (अर्थात ब्रह्मा) को समर्पित सम्मानित लोगों द्वारा पूजनीय है।

100-118. इसके बाद मैं आपको सावित्री और ब्रह्मा के बीच (सावित्री और ब्रह्मा के बीच) मजाक के कारण हुए महान विवाद के बारे में बताऊंगा ।

सावित्री के जाने के बाद सभी दिव्य देवियाँ वहाँ आईं। भृगु की पुत्री ख्याति से उत्पन्न हुई । लक्ष्मी , (हमेशा) सफल, हमेशा (सावित्री) द्वारा आमंत्रित, जल्दी से वहाँ आई। अत्यंत गुणी मदिरा , योगनिद्रा (नींद और जागने के बीच की स्थिति) और समृद्धि की दाता ; श्री, कमल में रहने वाली, भूति , कीर्ति और उच्च-मन वाली श्रद्धा : पोषण और संतुष्टि देने वाली ये सभी देवियाँ (वहाँ) आ गई थीं; सती , दक्ष की पुत्री, शुभ पार्वतीया उमा, तीनों लोकों में सबसे सुंदर महिला, महिलाओं को सौभाग्य (विधवापन का अभाव) देती है; जया और विजया , मधुछंदा, अमरावती , सुप्रिया , जनककांता (सभी एकत्रित हुए थे) सावित्री के शुभ निवास में। वे, जिन्होंने बढ़िया पोशाकें और आभूषण पहन रखे थे, गौरी के साथ आये थे । (ऐसी देवियाँ थीं) मकरानी, ​​पुलोमन की बेटी, दिव्य अप्सराओं के साथ; स्वाहा , स्वधा और धुमोर्ना , सुंदर चेहरे वाली; यक्षी और राक्षसी और अत्यंत धनी गौरी; मनोजवा , वायु की पत्नी, और ऋद्धि , कुबेर की प्रेमिका (पत्नी) ; इसी प्रकार देवताओं की पुत्रियाँ और दनु की प्रिय दानव देवियाँ भी वहाँ आई थीं। सप्तर्षियों की महान सुंदर पत्नियाँ, [5] उसी प्रकार बहनें, बेटियाँ और विद्याधारियों की सेनाएँ ; राक्षसियाँ , पितरों की बेटियाँ और अन्य विश्व-माताएँ । सावित्री युवा विवाहित महिलाओं और बहुओं के साथ (यज्ञ स्थल पर) जाना चाहती थी; अदिति की तरह दक्ष की सभी पुत्रियाँ भी इसी प्रकार हैंऔर अन्य आये थे. पवित्र महिला अर्थात. ब्रह्मा की पत्नी (सावित्री), जिनका निवास स्थान कमल था, उनसे घिरी हुई थीं। कोई सुन्दर स्त्री हाथ में मिठाइयाँ लिये थी, कोई फलों से भरी टोकरी लिये ब्रह्मा के पास पहुँची। इसी प्रकार अन्य लोग फटे अनाज का उपाय कर रहे हैं; इसी प्रकार एक सुन्दर स्त्री भी नाना प्रकार के अनार, नींबू आदि ले कर आई; दूसरे ने बाँस की कोंपलें, और कमल, केसर, जीरा, खजूर भी लिये; दूसरे ने सारे नारियल ले लिये; (दूसरे) ने अंगूर (-रस) से भरा बर्तन लिया; इसी तरह शृंगाटक पौधा, विभिन्न प्रकार के कपूर-फूल और शुभ गुलाब; इसी तरह किसी और ने अखरोट, एम्ब्लिक हरड़ और नींबू भी लिया; एक सुन्दर स्त्री ने पके हुए बिल्व -फल और चपटे चावल लिए; किसी और ने कपास ले ली-बाती और केसरिया रंग का वस्त्र। सभी शुभ और सुन्दर स्त्रियाँ ये सब वस्तुएँ टोकरी में रखकर सावित्री के साथ वहाँ पहुँचीं।

119-120. पुरन्दर , सावित्री को वहाँ देखकर भयभीत हो गया; ब्रह्मा भी मुँह लटकाये वहीं बैठे रहे (सोचते रहे) 'अब वह मुझसे क्या कहेगी?' विष्णु और रुद्र शर्मिंदा थे, वैसे ही अन्य सभी ब्राह्मण भी; (यज्ञ सभा के) सदस्य और अन्य देवता भयभीत हो गये।

121-122. पुत्र, पौत्र, भतीजे, मामा, भाई, इसी प्रकार ऋभु तथा अन्य देवता भी - सभी इस बात से लज्जित रहे कि सावित्री (तब) क्या कहेगी।

123-124. चरवाहे की बेटियाँ ब्रह्मा के पास चुपचाप बैठी रहीं और वहां बात कर रहे सभी लोगों की बातें सुनती रहीं। 'सबसे अच्छे रंग-रूप वाली महिला, हालांकि (मुख्य) पुजारी द्वारा बुलाई गई थी, नहीं आई; (इसलिए) इंद्र एक और चरवाहा लाए (और) विष्णु ने स्वयं उसे ब्रह्मा के सामने प्रस्तुत किया।

125-129. वह बलिदान के समय कैसा (व्यवहार) कर रही होगी? यज्ञ कैसे पूरा होगा?' जब वे इस प्रकार सोच रहे थे, तो कमल में रहने वाली (ब्रह्मा की पत्नी) ने प्रवेश किया। ब्रह्मा उस समय (यज्ञ सभा के), पुजारियों और देवताओं से घिरे हुए थे। वेदों में पारंगत ब्राह्मण अग्नि में आहुति दे रहे थे। चरवाहा, कक्ष में रहकर (बलिदान की गई पत्नी के लिए) और हिरण का सींग और करधनी पहने हुए, और रेशमी वस्त्र पहने हुए, सर्वोच्च पद पर ध्यान कर रही थी। वह अपने पति के प्रति वफादार थी, उसका पति ही उसका जीवन था; वह प्रमुखता से बैठी थी; वह सौन्दर्य से सम्पन्न थी; चमक में वह सूर्य के समान थी: उसने वहां की सभा को सूर्य की चमक के समान प्रकाशित किया।

130. याजक बलि के पशुओं के धधकते हुए अग्नि (भेंट) भाग की भी पूजा करते थे।

131-136. तब यज्ञ में आहुति का अंश प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले देवताओं ने कहा: “(बलि) में देरी नहीं करनी चाहिए; (किसी कार्य के लिए) देर से किया हुआ, उसका (वांछित) फल नहीं देता; यही नियम वेदों में सभी विद्वानों द्वारा देखा गया है।” जब दो दूध के बर्तन तैयार हो गए, तो भोजन संयुक्त रूप से पकाया गया, और जब ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया, तो अध्वर्युजिसे आहुति दी गई थी, वह वहां आया था, और प्रवर्ग्य वेदों में कुशल ब्राह्मणों द्वारा किया गया था; खाना बन रहा था. देवी (सावित्री) ने यह देखकर क्रोध से ब्रह्मा से कहा, जो (यज्ञ) सत्र में चुपचाप बैठे थे: “तुम यह क्या दुष्कर्म करने जा रहे हो, कि वासना के कारण तुमने मुझे त्याग दिया और पाप किया? वह, जिसे तुमने अपने सिर पर रखा है (अर्थात जिसे तुमने इतना महत्व दिया है) वह मेरे पैर की धूल से भी तुलनीय नहीं है। (यज्ञ-सभा में एकत्र हुए लोग यही कहते हैं।) यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा हो तो उन देवताओं की आज्ञा का पालन करो।

137-141. सौन्दर्य की अभिलाषा के द्वारा तू ने वह किया है, जिसकी लोग निन्दा करते हैं; हे प्रभु, तू न तो अपने बेटों से लज्जित हुआ और न अपने पोतों से; मैं समझता हूं कि तुमने आवेश में आकर यह निंदनीय कार्य किया है; आप देवताओं के पौत्र और ऋषियों के प्रपौत्र हैं! जब तुमने अपना शरीर देखा तो तुम्हें शर्म कैसे नहीं आई? तुम लोगों के लिए हास्यास्पद बन गये हो और तुमने मुझे हानि पहुंचायी है। यदि यह तुम्हारी दृढ़ भावना है, तो हे भगवान, (अकेले) जियो; तुम्हें नमस्कार (अलविदा); मैं अपने दोस्तों को अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊंगा? मैं लोगों को कैसे बताऊं कि मेरे पति ने (दूसरी महिला को) अपनी पत्नी बना लिया है?”

ब्रह्मा ने कहा :
142-144. दीक्षा के तुरंत बाद, पुजारियों ने मुझसे कहा: पत्नी के बिना यज्ञ नहीं किया जा सकता; अपनी पत्नी को जल्दी लाओ. यह (दूसरी) पत्नी इंद्र द्वारा लाई गई थी, और विष्णु द्वारा मुझे प्रदान की गई थी; (तो) मैंने उसे स्वीकार कर लिया; हे सुंदर भौहों वाले, मैंने जो किया उसके लिए मुझे क्षमा करें। हे उत्तम प्रतिज्ञा करने वाले, मैं फिर तुझ पर ऐसा अन्याय न करूंगा। मुझे क्षमा करना, जो तुम्हारे चरणों पर गिर पड़ा हूं; आपको मेरा प्रणाम.

पुलस्त्य ने कहा :
इस प्रकार संबोधित करने पर वह क्रोधित हो गयी और ब्रह्मा को श्राप देने लगी:

145-148. "यदि मैंने तपस्या की है, यदि मैंने ब्राह्मणों के समूहों में और विभिन्न स्थानों पर अपने गुरुओं को प्रसन्न किया है, तो ब्राह्मण कभी भी आपकी पूजा नहीं करेंगे, सिवाय कार्तिक के महीने में आपकी वार्षिक पूजा (जो कि ब्राह्मणों द्वारा की जाती है) को छोड़कर (अकेले) ) पेशकश करें, लेकिन पृथ्वी पर किसी अन्य स्थान पर अन्य पुरुषों को नहीं।” ब्रह्मा से ये शब्द कहते हुए, उसने पास में मौजूद इंद्र से कहा: "हे शक्र , आप चरवाहे को ब्रह्मा के पास ले आए। चूँकि यह नीच कर्म था इसलिए तुम्हें इसका फल मिलेगा।

149. जब तुम युद्ध में खड़े होगे (लड़ने को तैयार होगे) तो शत्रुओं द्वारा बाँध दिये जाओगे और बहुत (दयनीय) दुर्दशा में पहुँच जाओगे।

150. बिना किसी संपत्ति के होने के कारण, अपनी ऊर्जा खोकर, आप एक बड़ी हार का सामना करने के बाद, अपने दुश्मन के शहर में रहेंगे, (लेकिन) जल्द ही रिहा कर दिए जाएंगे।

151-153. इंद्र को (इस प्रकार) शाप देने के बाद देवी ने विष्णु से (ये शब्द) बोले: "जब, भृगु के शाप के कारण तुम नश्वर संसार में जन्म लोगे, तो तुम्हें वहां (अर्थात उस अस्तित्व में) अलगाव की पीड़ा का अनुभव होगा।" अपनी पत्नी से. तेरी पत्नी को तेरा शत्रु महान महासागर के पार ले जाएगा; दुःख से व्याकुल मन के कारण तुम्हें पता नहीं चलेगा (किसके द्वारा उसे ले जाया गया है) और तुम एक महान विपत्ति का सामना करने के बाद अपने भाई के साथ दुखी होगे।

154-156. जब तुम यदु -कुल में जन्म लोगे तो तुम्हारा नाम कृष्ण रखा जायेगा ; और पशुओं का सेवक होकर बहुत दिन तक भटकता रहेगा।” तब क्रोधित होकर उसने रुद्र से कहा: “हे रुद्र, जब तुम दारुवन में रहोगे , तब क्रोधित ऋषि तुम्हें शाप देंगे; हे खोपड़ीवाले, नीच, तू हमारे बीच में से एक स्त्री को छीन लेना चाहता है; अत: तुम्हारा यह अभिमानी जनन अंग आज भूमि पर गिर पड़ेगा।

157-160. पुरुषत्व से रहित होकर तुम ऋषियों के शाप से पीड़ित होओगे। गंगाद्वार पर रहने वाली आपकी पत्नी आपको सांत्वना देगी। “हे अग्नि , तुम्हें पहले मेरे पुत्र भृगु ने सर्वभोक्ता बनाया था, जो सदैव धर्मात्मा था। मैं (तुम्हें) कैसे जलाऊँगा जो पहले ही उसके द्वारा जल चुके हैं? हे अग्नि, वह रुद्र तुम्हें अपने वीर्य से डुबा देगा, और यज्ञ के योग्य न होने वाली वस्तुओं का सेवन करते समय तुम्हारी जीभ (अर्थात तुम्हारी लौ) और अधिक भड़क उठेगी।'' सावित्री ने उन सभी ब्राह्मणों और पुजारियों को श्राप दिया, जो उसके पति को लूटने के लिए यज्ञ-याजक बन गए थे, और जो बिना कुछ लिए जंगल में चले गए थे:

161. “केवल लालच के कारण ही सभी पवित्र और पवित्र स्थानों का सहारा लें; तुम सदैव दूसरों का भोजन पाकर ही संतुष्ट होगे; परन्तु अपने घर में बने भोजन से सन्तुष्ट न होगे।

162-164. जो त्यागने योग्य नहीं है उसका त्याग करने से और जो तुच्छ है उसे स्वीकार करने से, धन कमाने और उसे निरुद्देश्य खर्च करने से - इससे (तुम्हारे) मृत शरीर केवल बिना किसी संस्कार के दिवंगत आत्माएं (उन्हें अर्पित की जा रही) होंगी। इस प्रकार क्रोधित (सावित्री) ने इंद्र को, विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा और सभी ब्राह्मणों को भी शाप दे दिया।

165-166. इस प्रकार उन्हें शाप देकर वह (यज्ञ) सभा से बाहर चली गयी। वह सर्वोच्च पुष्कर पहुँचकर (वहाँ) बस गयी। उसने लक्ष्मी से, जो हंस रही थी, और इंद्र की सुंदर पत्नी से और युवतियों से भी (वहां) कहा: "मैं वहां जाऊंगी जहां मुझे कोई आवाज नहीं सुनाई देगी।"

167. फिर वे सब स्त्रियां अपने अपने निवास को चली गईं। क्रोधित होकर सावित्री ने उन्हें भी शाप देने की ठानी।

168. “चूँकि ये दिव्य स्त्रियाँ मुझे त्यागकर चली गई हैं, मैं, जो अत्यंत क्रोधित हूँ, मैं भी उन्हें शाप दूँगा :

169-171. लक्ष्मी कभी एक स्थान पर नहीं टिकेंगी. वह, नीच और चंचल मन वाली, मूर्खों के बीच, बर्बर लोगों और पर्वतारोहियों के बीच, मूर्खों और घमंडियों के बीच रहेगी; इसी प्रकार (मेरे) श्राप के परिणामस्वरूप, आप (अर्थात लक्ष्मी) शापित और दुष्ट जैसे नीच व्यक्तियों के साथ रहेंगी।

172-174. इस प्रकार (लक्ष्मी को) श्राप देने के बाद, उन्होंने इंद्राणी को श्राप दिया: "जब तुम्हारा पति इंद्र, एक ब्राह्मण की हत्या के (पाप के) कारण दुखी होगा, दुखी होगा, और जब उसका राज्य नहुष द्वारा छीन लिया जाएगा, तो वह , तुम्हें देखकर, तुमसे पूछता हूँ। (वह कहेगा) 'मैं इंद्र हूं; ऐसा कैसे है कि यह बचकानी (महिला) मेरी प्रतीक्षा नहीं करती? यदि मुझे शची (अर्थात इन्द्राणी) प्राप्त नहीं हुई तो मैं सभी देवताओं को मार डालूँगा ।' तब तुम्हें भागना होगा, और भयभीत और शोकित होना होगा, मेरे शाप के परिणामस्वरूप, हे दुष्ट आचरण और अभिमानी (एक) तुम बृहस्पति के घर में रहोगे।

175-1 78. तब उसने देवताओं की सभी पत्नियों को श्राप दिया: “इन सभी (महिलाओं) को बच्चों से स्नेह नहीं मिलेगा; वे दिन-रात (दुख से) झुलसते रहेंगे और उनका अपमान किया जाएगा और उन्हें 'बांझ' कहा जाएगा। उत्कृष्ट रंग वाली गौरी को भी सावित्री ने शाप दिया था। वह, जो रो रही थी, विष्णु ने देखा और उन्होंने उसे शांत किया: “हे बड़ी आँखों वाली, मत रोओ; आप सदैव शुभ हैं, (कृपया) आइए; (बलि) सभा में प्रवेश करते हुए, अपनी करधनी और रेशमी वस्त्र सौंप दो; हे ब्रह्मा की पत्नी, दीक्षा प्राप्त करें, मैं आपके चरणों को नमस्कार करता हूँ।

179. इस प्रकार सम्बोधित करके उस ने उस से कहा, तू जैसा कहेगा मैं वैसा ही करूंगी; और मैं वहां जाऊंगा जहां मैं (कोई) आवाज नहीं सुनूंगा।

180-215. इतना कहकर वह वहाँ से (जाकर) एक पर्वत पर चढ़ गयी और वहीं रह गयी। विष्णु ने बड़ी भक्ति से उसके सामने रहकर हाथ जोड़कर और झुककर उसकी स्तुति की।

[ सावित्री के 108 नाम देखें ]

216-219. अच्छे व्रत वाली सावित्री ने विष्णु से, जो इस प्रकार उसकी स्तुति कर रहे थे, कहा: “पुत्र, तुमने मेरी उचित स्तुति की है; तुम अजेय रहोगे; तेरे कार्नेशन में तू अपनी पत्नी समेत, अपने पिता और माता का प्रिय होगा; और जो यहाँ आकर इस स्तवन से मेरी स्तुति करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त होगा। हे पुत्र, ब्रह्मा के यज्ञ में जाओ और इसे पूरा करो। कुरूक्षेत्र और प्रयाग में मैं अन्नदाता बनूँगा; और अपने पति के पास रह कर जो कुछ तू ने कहा है वैसा ही करूंगी।

220. इस प्रकार संबोधित करके विष्णु, ब्रह्मा की उत्कृष्ट (यज्ञ) सभा में गए। जब सावित्री चली गई। गायत्री ने (ये) शब्द कहे:

221. “मेरे पति की उपस्थिति में बोले गए मेरे शब्दों को ऋषि सुनें - मैं प्रसन्न होकर और वरदान देने के लिए तैयार होकर जो भी कहूं।

222-223. (वे) मनुष्य (जो) भक्ति से युक्त होकर ब्रह्मा की पूजा करते हैं, उनके पास वस्त्र, धान्य, पत्नी, सुख और धन होगा; इसी प्रकार (उनके) घर में अखण्ड सुख रहेगा तथा (उनके) पुत्र-पौत्र होंगे। लंबे समय तक (सुख) भोगने के बाद, वे (अपने जीवन के) अंत में मोक्ष प्राप्त करेंगे।

पुलस्त्य ने कहा :
224-225. पूरी सावधानी से और पवित्र नियम के अनुसार ब्रह्मा की (छवि) स्थापित करने के बाद जो फल मिलता है, उसे एकाग्र मन से सुनो। इस स्थापना से मनुष्य को वह फल प्राप्त होता है, जो समस्त यज्ञों, समस्त तप, दान, तीर्थों तथा वेदों के फल से करोड़ गुना अधिक है।

226-227. हे राजन, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक पूर्णिमा के दिन व्रत करता है और पहले दिन (अर्थात पूर्णिमा के अगले दिन) ब्रह्मा की पूजा करता है, वह हे महाबाहु (अर्थात् पराक्रमी) लोक में जाता है। ब्राह्मण ; और जो पुजारियों के माध्यम से उनकी पूजा करता है वह विशेष रूप से विरिञ्ची (या) वासुदेव (अर्थात् आत्माओं के स्वामी) के पास जाता है।

228-239. कार्तिक माह में भगवान की रथयात्रा का विधान है; जिसे करने से (अर्थात लेने से) भक्तिपूर्वक मनुष्य ब्रह्मा के लोक को प्राप्त होते हैं। हे श्रेष्ठ राजा, कार्तिक की पूर्णिमा के दिन अनेक वाद्ययंत्रों के साथ रास्ते में सावित्री सहित ब्रह्मा की बारात निकालनी चाहिए। उसे लोगों (यानी नागरिकों) के साथ पूरे शहर में घूमना चाहिए (अर्थात ब्रह्मा की प्रतिमा का जुलूस निकालना चाहिए)। फिर इस प्रकार बारात निकालकर उसे नहलाना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराकर और सबसे पहले अग्नि की पूजा करके, उसे मंगल वाद्ययंत्रों की ध्वनि के साथ भगवान की छवि को रथ पर स्थापित करना चाहिए। पवित्र नियम के अनुसार, रथ के सामने अग्नि की पूजा करके, और ब्राह्मणों का आशीर्वाद लेकर, और 'यह एक शुभ दिन है' तीन बार दोहराते हुए, और भगवान की (प्रतिमा) को रथ में रखकर, उसे रात्रि में अनेक कार्यक्रमों तथा वेदों की ध्वनि के द्वारा जागरण करना चाहिए। हे राजा, भगवान का जागरण करके, प्रातःकाल अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी सामग्री खिलाई, और हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके और घी से पूजा की। और दूध, और पवित्र नियमों के अनुसार; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी वस्तुएँ खिलाईं और, हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके, घी और दूध से, और पवित्र नियमों के अनुसार पूजा करके; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन की बहुत-सी वस्तुएँ खिलाईं और, हे राजा, पवित्र सूत्र का पाठ करके, घी और दूध से, और पवित्र नियमों के अनुसार पूजा करके; इसी प्रकार, पवित्र नियम के अनुसार, ब्राह्मणों के आशीर्वाद का आह्वान करके, और इसे एक शुभ दिन घोषित करके उसे शहर के माध्यम से रथ चलाना चाहिए (यानी जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है और उसे शुभ दिन घोषित करके रथ को नगर में घुमाना चाहिए (अर्थात् जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता है और उसे शुभ दिन घोषित करके रथ को नगर में घुमाना चाहिए (अर्थात् जुलूस निकालना चाहिए)। ब्रह्मा के रथ को चार वेदों के विद्वान ब्राह्मणों द्वारा चलाया जाना चाहिए (अर्थात् खींचा जाना चाहिए); हे वीर, कुशल लोगों द्वारा भी ऐसा ही किया जाता हैअथर्ववेद , जिसमें कई छंद हैं (अर्थात जानने वाले) और सामवेद के मंत्रोच्चार करने वाले पुरोहितों द्वारा । इस प्रकार उसे सर्वोच्च देवता के रथ को बहुत ही समतल रास्ते से शहर के चारों ओर ले जाना चाहिए। हे वीर, अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले शूद्र द्वारा रथ को नहीं चलाया जाना चाहिए; और भोजक को छोड़ कर कोई बुद्धिमान पुरूष रथ पर न चढ़े।

240-253. हे राजा, उसे ब्रह्मा के दाहिनी ओर सावित्री, बाईं ओर भोजक और अपने सामने कमल रखना चाहिए। इस प्रकार हे वीर, तुरहियों और शंखों की अनेक ध्वनियों के साथ, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह रथ को पूरे शहर में घुमाकर, आराधना के रूप में उसके आगे रोशनी लहराकर (भगवान की छवि) को उचित स्थान पर स्थापित करे। जो ऐसा जुलूस निकालता है, या जो उसे भक्तिभाव से देखता है या जो रथ खींचता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर जाता है। जो व्यक्ति कार्तिक माह की अमावस्या के दिन ब्रह्मा के कक्ष (अर्थात मंदिर) में रोशनी करता है और पहले दिन (कार्तिक के) चंदन, फूल और नए वस्त्रों से स्वयं की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के स्थान पर पहुंचता है। यह बहुत ही पवित्र दिन है, जिस दिन बाली का [6]राज्य की स्थापना हुई. ब्रह्मा को दिन सदैव अत्यंत प्रिय है। इसे बालेयी कहा जाता है . जो इस दिन ब्रह्मा और विशेष रूप से स्वयं की पूजा करता है, वह असीमित तेज वाले विष्णु के सर्वोच्च स्थान पर जाता है। हे पराक्रमी भुजाओं, चैत्र का पहला दिन शुभ और सर्वोत्तम है। वह श्रेष्ठ मनुष्य, जो इस दिन चांडाल को छूकर स्नान करता है, उसे कोई पाप नहीं होता, उसे कोई मानसिक कष्ट या शारीरिक रोग नहीं होता; इसलिए व्यक्ति को (इस दिन) स्नान करना चाहिए या किसी मूर्ति के सामने दिव्य रोशनी लहरानी चाहिए, जो सभी रोगों को नष्ट कर देती है। हे राजा, सारी गाय-भैंसें निकाल ले; फिर (घर के) बाहर उसे सभी वस्त्रों आदि से युक्त एक धनुषाकार द्वार बनाना चाहिए। इसी प्रकार, हे कुरु के पालनकर्ता-परिवार को ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। हे कुरु-परिवार के वंशज, हे राजा, मैंने पहले कार्तिक, आश्विन और चैत्र महीनों में इन तीन दिनों के बारे में बताया था ; इन दिनों स्नान, दान देने से सौ गुना पुण्य मिलता है। हे राजन, कार्तिक का (पहला) दिन राजा बलि के लिए शुभ और जानवरों के लिए लाभदायक है!

गायत्री ने कहा :
254-255. हे कमल से जन्मे, (यद्यपि) सावित्री ने ऐसे शब्द कहे कि ब्राह्मण कभी भी आपकी पूजा नहीं करेंगे, (फिर भी) मेरे शब्दों को सुनकर वे आपकी पूजा करेंगे; वे यहां (अर्थात् इस लोक में) सुख भोगकर परलोक में मोक्ष प्राप्त करेंगे। वह इसे श्रेष्ठ दृष्टि (-बिंदु) जानकर प्रसन्न होकर उन्हें वर देगा।

256. हे इंद्र, मैं तुम्हें वरदान दूंगा: जब तुम अपने शत्रुओं द्वारा गिरफ्तार कर लिये जाओगे, तब ब्रह्मा, शत्रु के लोक में जाकर तुम्हें मुक्त कर देंगे।

257. शत्रु के नाश से तुम्हें बड़ा हर्ष होगा और तुम्हारा खोया हुआ (राजधानी) नगर तुम्हें वापस मिल जायेगा। तीनों लोकों में तुम्हारा बिना किसी द्वेष के एक महान राज्य होगा।

258-259. हे विष्णु, जब आप पृथ्वी पर अवतार लेंगे, तो आप अपने भाई के साथ अपनी पत्नी के अपहरण आदि के कारण महान दुःख का अनुभव करेंगे। आप अपने शत्रु को मारकर देवताओं की उपस्थिति में अपनी पत्नी को बचाएंगे। उसे स्वीकार करके और फिर से राज्य पर शासन करके, तुम स्वर्ग जाओगे।

260. तुम ग्यारह हजार वर्ष तक (शासन) करोगे और (फिर) स्वर्ग जाओगे। तुम संसार में बहुत प्रसिद्धि पाओगे और लोगों से प्रेम करोगे।

261. हे भगवान, जिन पुरुषों को राम के रूप में (अर्थात अवतार) आपके द्वारा मुक्ति मिलेगी , वे संतानिका नामक प्रसिद्ध लोक को प्राप्त करेंगे (अर्थात् जाएंगे) ।

262-265. तब वरदान देने वाली गायत्री ने रुद्र से कहा: “जो मनुष्य तुम्हारे गुप्तांग (लिंग के रूप में) की पूजा करेंगे, भले ही वह गिर गया हो, शुद्ध होकर पुण्य अर्जित करेंगे, वे स्वर्ग में भाग लेंगे (यानी आनंद लेंगे)। वह स्थिति जो पुरुषों को आपके जननांग अंग (फाल्लस के रूप में) की पूजा करने से मिलती है, वह पवित्र अग्नि को बनाए रखने या उसमें आहुति देने से नहीं मिल सकती है। जो लोग प्रातःकाल बिल्वपत्र से आपके जननेन्द्रिय (फाल्लस के रूप में) की पूजा करेंगे, वे रूद्र लोक का आनन्द उठायेंगे।”

266-267. “हे अग्नि, तुम भी शिवभक्त का दर्जा प्राप्त कर पतितपावन बनो। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब आप प्रसन्न होते हैं तो देवता भी प्रसन्न होते हैं। आपके द्वारा ही देवताओं को प्रसाद प्राप्त होता है। निश्चय जब तू प्रसन्न होगा, तो वे प्रसन्न होकर (प्रसाद का) भोग करेंगे; इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि वैदिक कथन यही है।''

तब गायत्री ने उन सभी ब्राह्मणों से ये शब्द कहे :

268-284. इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी पवित्र स्थानों पर आपको प्रसन्न करने वाले पुरुष वैराज नामक स्थान पर जाएंगे।(अर्थात् ब्रह्मा का)। नाना प्रकार के भोजन और नाना प्रकार के दान देकर तथा (पित्तों को) प्रसन्न करके वे देवताओं के देवता बन जाते हैं। देवता तुरंत प्रसाद का आनंद लेते हैं और पितर उन सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों के मुख से (अर्थात्) प्रसाद का तुरंत आनंद लेते हैं, क्योंकि आप अकेले ही तीनों लोकों को बनाए रखने में सक्षम हैं - इसमें कोई संदेह नहीं है। श्वास के संयम से तुम सब शुद्ध हो जाओगे; हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, विशेष रूप से पुष्कर में स्नान करने और वेदों की माता (अर्थात गायत्री) का (नाम) जपने के बाद उपहार प्राप्त करने से आपको पाप नहीं लगेगा। पुष्कर में (ब्राह्मणों को) भोजन कराने से सभी देवता प्रसन्न होते हैं। यदि (कोई मनुष्य) एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है, तो उसे एक करोड़ (भोजन कराने) का फल प्राप्त होता है। मनुष्य ब्राह्मण के हाथ में धन देकर अपने सभी पापों जैसे ब्राह्मण की हत्या और अपने द्वारा किए गए अन्य बुरे कर्मों को नष्ट कर देते हैं। मेरे सम्मान में बुदबुदाते हुए प्रार्थनाओं का उपयोग करके उनकी तीन बार पूजा की जानी है। उसी क्षण ब्राह्मण हत्या जैसा पाप भी नष्ट हो जाता है। गायत्री दस अस्तित्वों के दौरान (या) हजारों अस्तित्वों और तीन युगों के हजारों समूहों के दौरान भी किए गए पाप को नष्ट कर देती है। इस प्रकार जानने और मेरे सम्मान में प्रार्थना करने से तुम सदैव के लिए शुद्ध हो जाओगे। इसमें कोई संदेह या झिझक नहीं है. गुनगुनाते हुए, सिर झुकाकर, (मेरी) प्रार्थना विशेषकर तीन अक्षरों वाले 'ओम' के उच्चारण के साथ, आप निस्संदेह शुद्ध हो जाएंगे। मैं (गायत्री छंद के) आठ अक्षरों में रह चुका हूं। यह संसार मुझसे व्याप्त है। समस्त शब्दों से सुशोभित मैं वेदों की जननी हूं। श्रेष्ठ ब्राह्मण भक्तिपूर्वक मेरे नामों का जप करके सफलता प्राप्त करेंगे। मेरे नाम का उच्चारण करने से आप सभी को श्रेष्ठता प्राप्त होगी। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे। एक संयमित ब्राह्मण जिसके पास केवल गायत्री का सार है, वह चारों वेदों को जानने वाले, सब कुछ खाने और सब कुछ बेचने वाले से बेहतर है। चूँकि सभा में सावित्री ने ब्राह्मणों को श्राप दिया था, अत: यहाँ जो कुछ भी दिया या चढ़ाया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। इसलिए, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, मैंने (यह) वरदान दिया है। जो ब्राह्मण पवित्र अग्नि के रख-रखाव में समर्पित रहते हैं और तीन समय (अर्थात सुबह, दोपहर और शाम) बलिदान देते हैं, वे अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ स्वर्ग जाएंगे।

285-293. इस प्रकार, पुष्कर में इंद्र, विष्णु, रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा और ब्राह्मणों को एक उत्कृष्ट वरदान देकर, गायत्री ब्रह्मा के पक्ष में रहीं। तब भाटों ने लक्ष्मी को श्राप का कारण बताया। ब्रह्मा की प्रिय पत्नी गायत्री को जब इन सभी युवतियों और लक्ष्मी को दिए गए कई शापों के बारे में पता चला, तो उन्होंने उन्हें वरदान दिया: "सभी को हमेशा प्रशंसनीय बनाने वाली, और धन से आकर्षक दिखने वाली, आप सभी को प्रसन्न करती हैं।" , चमकेगा. हे बेटी, तुम जिसे भी देखोगी, वे सभी धार्मिक गुण साझा करेंगे (अर्थात उनमें) होंगे; परन्तु तुम्हारे द्वारा त्याग दिए जाने पर वे सब दुःख भोगेंगे। केवल वे ही (जिन पर आप कृपा करते हैं) (अर्थात उच्च) जाति और (कुलीन) परिवार में जन्म लेंगे, (उनके पास) धार्मिकता होगी, हे आकर्षक चेहरे वाले! वे ही सभा में चमकेंगे और (उन्हीं की) राजाओं की (अनुकूल दृष्टि) होगी॥ श्रेष्ठ ब्राह्मण केवल उन्हीं की याचना करेंगे और उन्हीं के प्रति विनम्र रहेंगे। 'आप हमारे भाई, पिता, गुरु और रिश्तेदार भी हैं। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. जब मैं तुम्हें देखता हूं तो मेरी दृष्टि स्पष्ट और सुंदर हो जाती है; मेरा मन बहुत प्रसन्न है, मैं तुमसे सत्य-सत्य ही कहता हूं।' ऐसी बातें लोगों को प्रसन्न करती हैं, क्या वे अच्छे लोग सुनेंगे, जिन पर आपकी दृष्टि (अनुकूल दृष्टि से) पड़ी है।

294-299. नहुष ने इन्द्रपद प्राप्त करके तुमसे याचना की है। आपके द्वारा अगस्त्य के शब्दों में वर्णित पापी , सर्प में परिवर्तित होने के बाद, उनसे अनुरोध करेगा: 'हे ऋषि, मैं अहंकार के कारण नष्ट हो गया हूं; मेरा आश्रय बनो (अर्थात् मेरी सहायता करो)'। तब पूज्य ऋषि, उसके (अर्थात् नहुष के) शब्दों से हृदय में दया करके (प्रेरित होकर) उससे ये शब्द कहेंगे: 'तुम्हारे परिवार का सम्मान करने वाला एक राजा, तुम्हारे परिवार में पैदा होगा। वह तुम्हें (अर्थात्) सर्प के रूप में देखकर तुम्हारे शाप को नष्ट कर देगा। तब तुम सर्प का राज्य त्याग कर पुनः स्वर्ग को जाओगे।' हे सुन्दर आँखों वाली, मेरे वरदान के फलस्वरूप तुम अपने पति के साथ, जिसने अश्व-यज्ञ किया होगा, पुनः स्वर्ग पहुँचोगी।

पुलस्त्य बोले :
300-302. तब देवताओं की सभी पत्नियों (गायत्री) ने प्रसन्न होकर उन्हें संबोधित किया: "भले ही आपके कोई संतान नहीं होगी, फिर भी आप दुखी नहीं होंगी"। तब गायत्री ने प्रसन्न होकर गौरी को भी सलाह दी। ब्रह्मा की उच्च विचारधारा वाली प्रिय पत्नी ने वरदान देते हुए यज्ञ की सिद्धि की कामना की। वर देने वाली गायत्री को इस प्रकार देखकर रुद्र ने उन्हें नमस्कार किया और इन शब्दों से उनकी स्तुति की-

रुद्र ने कहा :
303-317. वेदों की माता तथा आठ अक्षरों से पवित्र, आपको मेरा नमस्कार है। आप मनुष्यों को संकटों से पार कराने वाली गायत्री तथा सात प्रकार की वाणी हैं।, सभी ग्रंथों में स्तुतियाँ हैं, इसी तरह सभी छंद हैं, इसी तरह सभी अक्षर और संकेत हैं, सभी ग्रंथ जैसे शब्दावलियाँ हैं, इसलिए सभी उपदेश भी हैं, और सभी अक्षर भी हैं। हे देवी, तुम्हें मेरा नमस्कार है। आप गोरे और गौर वर्ण के हैं तथा आपका मुख चंद्रमा के समान है। आपकी भुजाएँ बड़ी हैं, केले के पेड़ों के अंदरूनी भाग की तरह नाजुक; आपके हाथ में हिरण का सींग और अत्यंत निर्मल कमल है; तू ने रेशमी वस्त्र पहिने हैं, और ऊपरी वस्त्र लाल है। आपके गले में चन्द्रमा की किरणों के समान तेजस्वी हार सुशोभित है। आप दिव्य कुण्डलों से युक्त कानों से सुशोभित हैं। आप चंद्रमा के प्रतिद्वंदी मुख से चमकते हैं। आप अत्यंत शुद्ध मुकुट वाले हेयर-बैंड के साथ आकर्षक दिखते हैं। आपकी भुजाएँ साँपों के फनों के समान स्वर्ग को सुशोभित करती हैं। आपके आकर्षक और गोलाकार स्तनों के निपल्स भी एक समान हैं। पेट पर ट्रिपल गुना बेहद निष्पक्ष कूल्हों और कमर के साथ विभाजन पर गर्व है। आपकी नाभि गोलाकार है, गहरी है और शुभता का संकेत देती है। आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगी आपके विशाल कूल्हे और कमर और आकर्षक नितंब हैं; आपकी जोड़ी जाँघें बहुत सुंदर और गोल हैं; आपके घुटने और पैर अच्छे हैं। आप जैसे हैं, आप तीनों लोकों का पालन करते हैं, और आपके लिए अनुरोध सत्य हैं (अर्थात निश्चित रूप से अनुग्रहपूर्ण हैं)। तुम अत्यंत भाग्यशाली, वरदान देने वाले और उत्तम वर्ण वाले होगे। आपके दर्शन से पुष्कर की यात्रा फलदायी होगी। आपको पहली आराधना इस महीने की पूर्णिमा के दिन प्राप्त होगीज्येष्ठा ; और जो मनुष्य तुम्हारे पराक्रम को जानकर तुम्हारी पूजा करेंगे, उन्हें पुत्र और धन की कोई कमी नहीं रहेगी। जो लोग जंगल में या विशाल समुद्र में डूबे हुए हैं, उनके लिए आप ही सर्वोच्च सहारा हैं; या जिन्हें डाकुओं ने पकड़ रखा है। आप ही सफलता, धन, साहस, यश, लज्जा, विद्या, नमस्कार, बुद्धि, संध्या, प्रकाश, निद्रा और संसार के अंत में विनाश की रात भी हैं। आप अम्बा , कमला , माता, ब्रह्माणी और दुर्गा हैं ।

318-331. आप सभी देवताओं की माता, गायत्री और एक उत्कृष्ट महिला हैं। आप जया, विजया (अर्थात दुर्गा), और पुष्टि (पोषण) और तुष्टि हैं(संतुष्टि), क्षमा और दया। तुम सावित्री से छोटी हो और ब्रह्मा को सदैव प्रिय रहोगी। आपके अनेक रूप हैं, एक विश्वरूप; आपकी आंखें आकर्षक हैं और आप ब्रह्मा के साथ विचरण करते हैं; आप सुन्दर रूप वाली, बड़ी-बड़ी आँखों वाली और अपने भक्तों की महान रक्षक हैं। हे महान देवी, आप शहरों में, पवित्र आश्रमों में और जंगलों और पार्कों में रहती हैं। आप उन सभी स्थानों पर जहां ब्रह्मा रहते हैं, उनके बाईं ओर रहते हैं। ब्रह्मा के दाहिनी ओर सावित्री है, और ब्रह्मा (सावित्री और आपके) बीच में है। तुम ही यज्ञवेदी में हो, और याजकों के बलिदान का शुल्क भी तुम ही हो; आप राजाओं की विजय और समुद्र की सीमा हैं। हे ब्रह्मचारिणी!, आप (वह जो कि) दीक्षा हैं, और महान सुंदरता के रूप में देखी जाती हैं; आप प्रकाशकों की चमक हैं और नारायण में रहने वाली देवी लक्ष्मी हैं । आप ऋषियों की क्षमा शक्ति हैं और रोहिणी हैंनक्षत्रों के बीच. तुम राजद्वारों, पवित्र स्थानों और नदियों के संगम पर रहते हो। आप पूर्णमासी में पूर्णिमा के दिन हैं, और विवेक में बुद्धि हैं, और क्षमा और साहस हैं। आपका रंग अत्यंत उत्तम है, आप देवियों के बीच देवी उमा के नाम से विख्यात हैं। तुम इन्द्र की मनोहर दृष्टि हो और इन्द्र के निकट हो। आप ऋषियों के धर्मात्मा और देवताओं के प्रति समर्पित हैं। आप कृषकों की भूमि हैं और प्राणियों की भूमि हैं। आप (विवाहित) स्त्रियों को वैधव्य से वंचित कर देते हैं तथा सदैव धन-धान्य देते हैं। जब आपकी पूजा की जाती है, तो आप बीमारी, मृत्यु और भय को समाप्त कर देते हैं। हे मंगल प्रदान करने वाली देवी, यदि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन आपकी विधिपूर्वक पूजा की जाए तो आप सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। जो मनुष्य इस स्तुति को बार-बार पढ़ता या सुनता है। अपने सभी उपक्रमों में सफलता पाता है; इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

गायत्री ने कहा :
हे पुत्र, तूने जो कहा है वह अवश्य पूरा होगा। आप विष्णु के साथ सभी स्थानों पर उपस्थित रहेंगे।
___________________
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :

यज्ञवत : यज्ञ के लिए तैयार और घिरा हुआ स्थान।

[2] :

कपार्डिन : शंकर का एक विशेषण। कपरदा: गूंथे हुए और उलझे हुए बाल, विशेषकर शंकर के।

[3] :

पुरोधाशा : पिसे हुए चावल से बनी एक बलि जो कपाल या बर्तन में दी जाती है।

[4] :

मित्रवन : एक जंगल का नाम.

[5] :

सप्तर्षि : सात ऋषि अर्थात् मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।

[6] :

बाली : प्रसिद्ध राक्षस, विरोचन का पुत्र, प्रह्लाद का पुत्र। जब विष्णु, कश्यप और अदिति के पुत्र के रूप में, बाली के पास आए, तो उसकी उदारता पर ध्यान दिया, और उससे प्रार्थना की कि वह तीन कदमों में जितनी धरती कवर कर सके उतनी पृथ्वी दे दे, और जब उसने पाया कि तीसरे कदम रखने के लिए कोई जगह नहीं है। कदम, उन्होंने इसे बाली के सिर पर स्थापित किया और उसे अपनी सभी सेनाओं के साथ पाताल भेज दिया और उसे वहां का शासक बनने की अनुमति दी।

[7] :

सप्तविधा वाणी : भारतीय सरगम ​​के सात स्वरों का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है।



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