बुधवार, 19 मार्च 2025

स्वराट- की सत्ता

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः।

तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।
अनुवाद:- जो ब्रह्म 
सृष्टि के जन्म आदि का कारण है अर्थात जिससे ( इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो अन्य स्थान गोलोक आदि से सम्बन्धित होने पर भी सांसारिक वस्तुओं में व्याप्त तथा  सबको जानने वाला और स्वयंपरिपूर्णतम स्वरूप है। 
उसी परमेश्वर के द्वारा संकल्प से आदिकवि ब्रह्माजी के लिए वेदादि का प्रादुर्भाव हुआ।
जो विद्वान गण हैं वे भी परमेश्वर की माया से  मोहित हो जाते हैं । जैसे तेजोमय सूर्यरश्मि  में जल का और जल में स्थल का और पुन: स्थल में जल का भ्रम होता है। जिसके कारण इस संसार में यह त्रिगुणमयी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा अवस्थाऐं मिथ्या सृष्टि होने पर भी प्रत्यक्ष प्रतीत होती हैं। वह परमेश्वर अपनी स्वयंप्रकाश ज्योति से सर्वदा माया रूपी कोहरा से पूर्णतः मुक्त रहनेवाला और परम सत्यरूप है  हम उस परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।१।

भागवतपुराण- (1/1/1)

श्रीमद्भागवत महापुराण का मंगलाचरण का प्रथम श्लोक अद्भुत रहस्यों से परिपूर्ण परम- ब्रह्म परमात्मा की सर्वोच्च सत्ता का निरूपण करता  है । निम्नलिखित रूप से हम इसके अन्वयार्थ को प्रस्तुत करते हैं।

अन्वय-
ब्रह्म = परं ब्रह्म  ।
जन्माद्यस्य = जन्म आदि का।
यतः = जिससे । अर्थात्- ( जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, और जो )

इतरतः = अन्य स्थान  से।
अन्वयात् = सम्बन्धित होने से। 

अर्थेषु = सांसारिक वस्तुओं में।
अभिज्ञः = जानने वाला ।
च=और, 
स्वराट् = स्वयं में ही रमण करने वाला ( स्वाप्त)परमात्मा ।
तेन =उसके द्वारा,
हृदा = संकल्प से अथवा, हृदय से ही।
आदिकवये= आदिकवि ब्रह्माजी के लिए ।
यत्सूरयः= जो  विद्वानगण।
मुह्यन्ति= मोहित हो जाते हैं ।
यथा =जैसे, 
तेजोवारिमृदां विनिमयो =तेजोमय सूर्यरश्मी (तेज) में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है।
यत्र त्रिसर्गोऽमृषा = जिसके कारण इस संसार में जहाँ यह त्रिगुणमयी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा मिथ्या सृष्टि होने पर भी प्रत्यक्ष प्रतीत होती है ।

धाम्ना स्वेन= अपनी ज्योति से।
सदा=सर्वदा,
निरस्तकुहकं = माया रूप कोहरा को पूर्णतः मुक्त करने वाला उसको।
परं सत्यम् = परम सत्यरूप को।
धीमहि = हम ध्यान करते हैं।


सम्पूर्ण सृष्टि का सञ्चालन सैद्धान्तिक है और यह सिद्धान्त कर्म-फल आधारित है। और कर्म का अस्तित्व भी  अहं, संकल्प और इच्छाओं की दृढ़ता पर अवलम्बित है । अहं से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का उदय चेतना के स्रोत चित्त के धरातल पर ही हुआ है। इस लिए चित्त ही जीवन का निर्माता तत्व है।

"स्वरेषु अटति इति स्वराट्- जो स्वरों में गमन करता है नाद-ब्रह्म का वाचक है।
अथवा जो स्वयं को ही  प्राप्त है। वह परमेश्वर का वाचक स्वराट् है। अथवा एक अन्य व्युत्पत्ति के स्वमेव राजयति  इति स्वराज्-स्वराट्।

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