माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभा-मध्ये हंस-मध्ये बको यथा ॥ ३७
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१-प्राप्तवानस्मि भवतोऽऽश्रयम्।
परित्यज्य कामनानि सर्वाणि।
मह्यम दत्वा चरणेषु स्थानम्।।
अनुग्रहाण मयि हे चक्रपाणि !
अनुवाद:-सभी सांसारिक कामानाओं को त्याग कर मैंने आपकी शरण ली है ; मुझे अपने चरणो में स्थान देकर हे चक्रधारी ! मुझ पर कृपा करे।
२-सर्वज्ञं सर्वरूपं सर्वकार्य-कारणम्।
शरणं प्रपद्ये हरे ! तापत्रयं हारणम् ।।
अनुवाद:- सबकुछ जानने वाले, सभी रूपों में व्याप्त, सर्वरूपमयी, सम्पूर्ण कार्य और कारण रूप में विद्यमान तीन तापों का हरण करने वाले हरि नाम वाले भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण में जाता हूँ।
३-यदुपुङ्गवं केशवं , गोलोके विराजितम्।।
विधायकं नायकं शरणं प्रपद्ये मार्जितम्।
अनुवाद:-यादव-श्रेष्ठ , केशव, जो हृदय के कमल पर विराजमान हैं। संसार का सञ्चालन विधान करने वाले ,भक्तों का मार्गदर्शन करने वाले कामदेव को जीतने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम शरण लेते हैं।
आवश्यकताऐं शरीर की पोषिकाऐं हैं ; जो भोजन ,वस्त्र और आवास शरीर अस्तित्व की अनुरूपताऐं (अनुकूलताऐं) के रूप में होती हैं।जबकि इच्छाऐं मन के सुख की व्यवस्थापिकाऐं हैं। सुख -दु:ख मन की अनुकूल और प्रतिकूल अवस्थाओं का दूसरा नाम है।
आनन्द आत्मा का मौलिक गुण है। और आनन्द अनुभूति-ज्ञेय है। जबकि सुख अनुभव ज्ञेय है।
प्रभु की चिन्तन मूलक भक्ति ही भक्त के अन्त:करण में ज्ञान का उदय करती है।
अन्यथा जो नाम -मात्र के कार्मकाण्डी भक्त होते हैं उन्हें अपने जीवन में कभी सत्य का ज्ञान नहीं होता है। स्वयं उनका व्यवहार ही इस बात की व्याख्या करता है। कि उनके जीवन में कुछ आध्यात्मिक बोध नहीं है । उसकी अभिरुचियों( पसन्दों) से भी उसके मानसिक धरातल को नाम सकते हो।
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