तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24। (श्रीमद्भगवद्गीता)
निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट पूर्त आदि कर्मों से होनेवाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान करानेवाले इन्द्रियों में हवन कर देता है ।। 52 ।।
इन्द्रियों को दर्शनादि सङ्कल्परूप मन में, वैकारिक मन को परा वाणी में और परा वाणी को वर्णसमुदाय में, वर्णसमुदाय को 'अ उ म्' इन तीन स्वरों के रूपमें रहनेवाले ॐकार में, और ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रहा में लीन कर देता है॥ 53 ॥
भागवत पुराण का वह श्लोक जो श्रीमद्भगवद्गीता के उपर्युक्त भाव को व्यक्त करता है।
ॐकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम् अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट् विश्वोऽथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ।५४।
वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर गोलोक में स्वराट्-विष्णु के लोकमें पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक 'विश्व' अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक 'तेजस' हो जाता है फिर सूक्ष्म उपाधिको कारण में लय करके कारणोपाधिक 'प्राज्ञ' रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके 'तुरीय' रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ 54 ॥
त्वत्तौ विराट्स्वराट्सम्राट्त्वत्तश्चप्यधिपूरुषः ॥ (१,१२.५७ ॥ विष्णु पुराण)
विभुर्भूरभिभूः कृष्णः कृष्णवर्त्मा त्वमेव च ॥ ११ ॥महाभारत १२/४३/११
श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)
स्कन्ध 7, अध्याय 15 -
सदाचारनिर्णयः
श्रीनारद उवाच
कर्मनिष्ठा द्विजाः केचित्तपोनिष्ठा नृपापरे
स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने केचन ज्ञानयोगयोः ।१।
ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता
दैवे च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथार्हतः ।२।
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम् ।३।
देशकालोचितश्रद्धा द्रव्यपात्रार्हणानि च
सम्यग्भवन्ति नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात् ।४।
देशे काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदैवतम्
श्रद्धया विधिवत्पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम् ।५।
देवर्षिपितृभूतेभ्य आत्मने स्वजनाय च
अन्नं संविभजन्पश्येत्सर्वं तत्पुरुषात्मकम् ।६।
न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद्धर्मतत्त्ववित्
मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ।७।
नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम्
न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ।८।
एके कर्ममयान्यज्ञान्ज्ञानिनो यज्ञवित्तमाः
आत्मसंयमनेऽनीहा जुह्वति ज्ञानदीपिते ।९।
द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि बिभ्यति
एष माकरुणो हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृप्ध्रुवम् ।१०।
तस्माद्दैवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित्
सन्तुष्टोऽहरहः कुर्यान्नित्यनैमित्तिकीः क्रियाः ।११।
विधर्मः परधर्मश्च आभास उपमा छलः
अधर्मशाखाः पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत्त्यजेत् ।१२।
धर्मबाधो विधर्मः स्यात्परधर्मोऽन्यचोदितः
उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः ।१३।
यस्त्विच्छया कृतः पुम्भिराभासो ह्याश्रमात्पृथक्
स्वभावविहितो धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये ।१४।
धर्मार्थमपि नेहेत यात्रार्थं वाधनो धनम्
अनीहानीहमानस्य महाहेरिव वृत्तिदा ।१५।
सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम्
कुतस्तत्कामलोभेन धावतोऽर्थेहया दिशः ।१६।
सदा सन्तुष्टमनसः सर्वाः शिवमया दिशः
शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम् ।१७।
सन्तुष्टः केन वा राजन्न वर्तेतापि वारिणा
औपस्थ्यजैह्व्यकार्पण्याद्गृहपालायते जनः ।१८।
असन्तुष्टस्य विप्रस्य तेजो विद्या तपो यशः
स्रवन्तीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते ।१९।
कामस्यान्तं हि क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात्
जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः।२०।
पण्डिता बहवो राजन्बहुज्ञाः संशयच्छिदः
सदसस्पतयोऽप्येके असन्तोषात्पतन्त्यधः ।२१।
असङ्कल्पाज्जयेत्कामं क्रोधं कामविवर्जनात्
अर्थानर्थेक्षया लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ।२२।
आन्वीक्षिक्या शोकमोहौ दम्भं महदुपासया
योगान्तरायान्मौनेन हिंसां कामाद्यनीहया ।२३।
कृपया भूतजं दुःखं दैवं जह्यात्समाधिना
आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ।२४।
रजस्तमश्च सत्त्वेन सत्त्वं चोपशमेन च
एतत्सर्वं गुरौ भक्त्या पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ।२५।
यस्य साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ
मर्त्यासद्धीः श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ।२६
एष वै भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः
योगेश्वरैर्विमृग्याङ्घ्रिर्लोको यं मन्यते नरम् ।२७।
षड्वर्गसंयमैकान्ताः सर्वा नियमचोदनाः
तदन्ता यदि नो योगानावहेयुः श्रमावहाः ।२८।
यथा वार्तादयो ह्यर्था योगस्यार्थं न बिभ्रति
अनर्थाय भवेयुः स्म पूर्तमिष्टं तथासतः ।२९।
यश्चित्तविजये यत्तः स्यान्निःसङ्गोऽपरिग्रहः
एको विविक्तशरणो भिक्षुर्भैक्ष्यमिताशनः ।३०।
देशे शुचौ समे राजन्संस्थाप्यासनमात्मनः
स्थिरं सुखं समं तस्मिन्नासीतर्ज्वङ्ग ओमिति ।३१।
प्राणापानौ सन्निरुन्ध्यात्पूरकुम्भकरेचकैः
यावन्मनस्त्यजेत्कामान्स्वनासाग्रनिरीक्षणः ।३२।
यतो यतो निःसरति मनः कामहतं भ्रमत्
ततस्तत उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुधः ।३३।
एवमभ्यस्यतश्चित्तं कालेनाल्पीयसा यतेः
अनिशं तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्निवत् ।३४।
कामादिभिरनाविद्धं प्रशान्ताखिलवृत्ति यत्
चित्तं ब्रह्मसुखस्पृष्टं नैवोत्तिष्ठेत कर्हिचित् ।३५।
यः प्रव्रज्य गृहात्पूर्वं त्रिवर्गावपनात्पुनः
यदि सेवेत तान्भिक्षुः स वै वान्ताश्यपत्रपः ।३६।
यैः स्वदेहः स्मृतोऽनात्मा मर्त्यो विट्कृमिभस्मवत्
त एनमात्मसात्कृत्वा श्लाघयन्ति ह्यसत्तमाः ।३७।
गृहस्थस्य क्रियात्यागो व्रतत्यागो वटोरपि
तपस्विनो ग्रामसेवा भिक्षोरिन्द्रियलोलता ।३८।
आश्रमापसदा ह्येते खल्वाश्रमविडम्बनाः
देवमायाविमूढांस्तानुपेक्षेतानुकम्पया ।३९।
आत्मानं चेद्विजानीयात्परं ज्ञानधुताशयः
किमिच्छन्कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पटः ।४०।
आहुः शरीरं रथमिन्द्रियाणि हयानभीषून्मन इन्द्रियेशम्
वर्त्मानि मात्रा धिषणां च सूतं सत्त्वं बृहद्बन्धुरमीशसृष्टम् ।४१।
अक्षं दशप्राणमधर्मधर्मौ चक्रेऽभिमानं रथिनं च जीवम्
धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्ति शरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम् ।४२।
रागो द्वेषश्च लोभश्च शोकमोहौ भयं मदः
मानोऽवमानोऽसूया च माया हिंसा च मत्सरः ।४३।
रजः प्रमादः क्षुन्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादयः
रजस्तमःप्रकृतयः सत्त्वप्रकृतयः क्वचित् ।४४।
यावन्नृकायरथमात्मवशोपकल्पं
धत्ते गरिष्ठचरणार्चनया निशातम्
ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रुः
स्वानन्दतुष्ट उपशान्त इदं विजह्यात् ।४५।
नोचेत्प्रमत्तमसदिन्द्रियवाजिसूता
नीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निक्षिपन्ति
ते दस्यवः सहयसूतममुं तमोऽन्धे
संसारकूप उरुमृत्युभये क्षिपन्ति ।४६।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्
आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ।४७।
हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम्
दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ।४८।
एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च
पूर्तं सुरालयाराम कूपा जीव्यादिलक्षणम् ।४९।
द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च धूमो रात्रिरपक्षयः
अयनं दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुधः ।५०।
अन्नं रेत इति क्ष्मेश पितृयानं पुनर्भवः
एकैकश्येनानुपूर्वं भूत्वा भूत्वेह जायते ।५१।
निषेकादिश्मशानान्तैः संस्कारैः संस्कृतो द्विजः
इन्द्रियेषु क्रियायज्ञान्ज्ञानदीपेषु जुह्वति ।५२।
इन्द्रियाणि मनस्यूर्मौ वाचि वैकारिकं मनः
वाचं वर्णसमाम्नाये तमोङ्कारे स्वरे न्यसेत् ।५३।
ॐकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम्
अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट्
विश्वोऽथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ।५४।
देवयानमिदं प्राहुर्भूत्वा भूत्वानुपूर्वशः
आत्मयाज्युपशान्तात्मा ह्यात्मस्थो न निवर्तते ।५५।
य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते
शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ।५६।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः
गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्म का वर्णन
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में, कुछ की तपस्या में, कुछ की वेदों के स्वाध्याय और प्रवचन में कुछ की आत्मज्ञान के सम्पादन में तथा | कुछ की योग में होती है ॥1॥
गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्म का अक्षय फल प्राप्त करने के लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही हव्य- कव्य का दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचन कार आदि को यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ 2 ॥
देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ॥ 3॥
क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनों को | देने से और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ 4 ॥
देश और काल के प्राप्त होने पर ऋषि-मुनियों के भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान् को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये। वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ 5 ॥
देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने आपको भी अन्न का विभाजन करने के समय परमात्म स्वरूप ही देखे || 6 ll
धर्म का मर्म जानने वाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरोंको ऋषि-मुनियोंके योग्य हविष्यान्नसे जैसी प्रसन्नता होती है, पशु-हिंसा नहीं होती ॥ 7 ॥
जो लोग सद्धर्मपालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाय ॥ 8 ॥
इसी से कोई-कोई यज्ञ-तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी ज्ञानके द्वारा प्रज्वलित आत्म-संयमरूप अग्निमें इन कर्ममय यज्ञो का हवन कर देते है और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं ॥9॥
जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणों का पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ 10 ॥
इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्धके द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्नसे ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसी से सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥11॥
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अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल । धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ 12 ॥
जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह "विधर्म' है।
किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हुआ धर्म 'परधर्म' है।
पाखण्ड या दम्भ का नाम 'उपधर्म' अथवा 'उपमा' है।
शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना 'छल' है ॥ 13 ॥
मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह 'आभास' है।
अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ।। 14 ।।
धर्मात्मा पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकारकी चेष्टा किये अजगरकी जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृतिपरायण पुरुषको निवृत्ति ही उसकी जीविका का निर्वाह कर देती है ।। 15 ।।
जो सुख अपनी आत्मामें रमण करनेवाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुषको मिलता है, वह उस मनुष्यको भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभसे धनके लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ॥ 16 ॥
जैसे पैरों में जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता वैसे ही जिसके मन सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख ही सुख है, दुःख है ही नहीं ॥ 17 ॥
युधिष्ठिर न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पड़कर यह बेचारा घर की चौकसी करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है ॥ 18 ॥
जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और यह विवेक भी खो बैठता है ।। 19 ।।
भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता || 20 ||
अनेक विषयों के ज्ञाता, शङ्काओं का समाधान करके चित में शास्त्रोक्त अर्थ को बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओं के सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर जाते हैं ।। 21 ।।
धर्मराज! सङ्कल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्यागसे क्रोधको, संसारी लोग जिसे 'अर्थ' , कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भवको जीत लेना चाहिये ॥ 22 ॥
अध्यात्म विद्यासे शोक और मोह पर, सन्तों की उपासना( पास रहने से) दम्भपर, मौनके द्वारा योगके *विनोपर और शरीर प्राण आदिको निशेष्ट करके हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ 23॥
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आधिभौतिक दुःखको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक, दुःखको योगबलसे एवं निद्राको सात्त्विक भोजन, स्थान, सङ्ग आदिके सेवन से जीत लेना चाहिये ॥ 24 ॥
सत्वगुण के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुणपर और उपरति के द्वारा सत्त्वगुणपर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदे वकी भक्ति के द्वारा साधक इन सभी दोषोंपर सुगमता से विजय प्राप्त कर सकता है ॥ 25 ॥
हृदय में ज्ञानका दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही है जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है ।। 26 ।।
बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरण कमलों का अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेवके रूप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं ॥27॥
शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर — इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन ये छः वश में हो जायें। ऐसा होने पर भी यदि उन नियमोंके द्वारा भगवान्के ध्यान-चित्तन आदिकी प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ 28 ॥
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जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग साधना के फल भगवत्प्राप्ति या मुक्ति को नहीं दे सकते वैसे ही दुष्ट पुरुष के श्रौत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा(विपरीत) फल देते हैं ।।29।।
जो पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रह का त्याग करके संन्यास ग्रहण करे एकान्तमें अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्ति से शरीर निर्वाह मात्र के लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ।।30।।
युधिष्ठिर पवित्र और समान भूमि पर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर भावसे समान और सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐकारका जप करे ।31॥
जब तक मन सङ्कल्प-विकल्पों को छोड़ न दे, तबतक नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचक द्वारा प्राण तथा अपान की गति को रोके ॥32॥
काम (sex sence) की चोट से घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह वहाँ-वहाँ से उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदय में रोके ॥33॥
जब साधक निरन्तर इस प्रकार का अभ्यास करता है, तब ईंधन के बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समय में उसका चित्त शान्त हो जाता है ।।34।।
इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्द के संस्पर्श में मग्न हो जाता है और फिर उसका चित कभी अशान्त नहीं होता ॥35॥
जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और काम के मूल कारण गृहस्थाश्रमका परित्याग कर देता है और फिर उन्हीं का सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुए को खानेवाला कुत्ता ही है ।।36।।
जिन्होंने अपने शरीर को अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था -वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं ।।37॥
कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँवमें रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थी) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी—ये चारों आश्रम के कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमोका ढोंग करते हैं। भगवान्की मायासे विमोहित उन मूढ़ों पर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ।।38-39।।
आत्मज्ञान के द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी है और जिसने अपने आत्मा को परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषय की इच्छा और किस भोग की तृप्ति के लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीरका पोषण करेगा ? ll 40 ll
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उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान्के द्वारा निर्मित बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐ कार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐकार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये)। 41-42 ।
राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, असूया-(दूसरे के गुणों में दोष निकालना), छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक है, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्वगुणप्रधान ही होती हैं ।। 43-44।।
यह मनुष्य का शरीर रूपी रथ जबतक अपने वश में है और इसके इन्द्रिय मन आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान है, तभी तक श्रीगुरुदेव के चरणकमलो की सेवा-पूजासे शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान् के आश्रय से इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वाराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दें ॥ 45 ॥
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नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूपी दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूपी सारथि रथके स्वामी जीव को उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीवको मृत्यु से अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसार के कुएँ में गिरा देंगे || 46 ।।
वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं—एक तो वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर ले जाते हैं-प्रवृत्तिपरक, और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर से लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कार के योग्य बना देते हैं— निवृत्तिपरक।
प्रवृत्तिपरक कर्ममार्ग से बार-बार जन्म-मृत्यु की प्राप्ति होती है और निवृतिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है॥ 47॥
श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म 'इष्ट' कहलाते है और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना 'पूर्तकर्म' हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभाव से युक्त होनेपर अशान्तिके ही कारण बनते हैं ।।48-49।।
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प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर चरु पुरोडाशदि यज्ञसम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है। फिर क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके अभिमानी देवताओंके पास जाकर चन्द्रलोक में पहुँचता है।
वहाँ से भोग समाप्त होने पर अमावस्याके चन्द्रमा के समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान मार्ग से पुनः संसार में हो लेता है ॥50-51॥
युधिष्ठिर। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यत सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको 'दिन' कहते हैं। उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्ग का अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जाने वाले निवृत्तिमार्ग का )
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निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट पूर्त आदि कर्मों से होनेवाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान करानेवाले इन्द्रियों में हवन कर देता है ।। 52 ।।
इन्द्रियों को दर्शनादि सङ्कल्परूप मन में, वैकारिक मन को परा वाणी में और परा वाणी को वर्णसमुदाय में, वर्णसमुदाय को 'अ उ म्' इन तीन स्वरों के रूपमें रहनेवाले ॐकार में, और ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रहा में लीन कर देता है॥ 53 ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर गोलोक में स्वराट्- विष्णु के लोकमें पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक 'विश्व' अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक 'तेजस' हो जाता है फिर सूक्ष्म उपाधिको कारण में लय करके कारणोपाधिक 'प्राज्ञ' रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके 'तुरीय' रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ 54 ॥
इसे 'देवयान' मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसारकी ओरसे निवृत्त होकर क्रमशः एकसे दूसरे देवताके पास होता हुआ स्वराट् में जाकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्ग के समान फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता ।। 55 ।।
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ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग है। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वतः जान लेता है, वह शरीर में स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ 56 ॥
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