शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

पण्डित , ब्राह्मण और पुरोहित कौन हैं ? और ये कहाँ से आये ? विचारक:-- यादव योगेश कुमार'रोहि'

Origin and Etymology of brahman)
Middle English (Bragman )inhabitant of India,
from Latin +Bracmanus,) from Greek (Brachman,) from Sanskrit brāhmaṇa of the Brahman caste, from brahman Brahman
First Known Use: 15th century
( ब्राह्मण शब्द का मूल व उसकी व्युत्पत्ति-)
ब्राह्मण वर्ण का वाचक है । भारतीय पुराणों में ब्राह्मण का प्रयोग मानवीय समाज में सर्वोपरि रूप से निर्धारित किया है । यह शब्द सम्बद्ध है ग्रीक "ब्रचमन" तथा लैटिन "ब्रैक्समेन"  मध्य अंग्रेज़ी का "बगमन "
भारतीय पुरोहितों का मूल विशेषण ब्राह्मण है ।
इसका पहला यूरोपपीय ज्ञात प्रयोग: 15 वीं शताब्दी में है ।
अंग्रेज़ी भाषा में ब्रेन (Brain) मस्तिष्क का वाचक है ।
संस्कृत भाषा में तथा प्राचीन -- भारोपीय रूप ब्रह्म है।
मस्तिष्क ( संज्ञा ) का रूप :-----ब्रह्मण
ऋग्वेद के १०/९०/१२
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ।
उरू तदस्ययद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।।
अर्थात् ब्राह्मण विराट-पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए
और बाहों से राजन्य ( क्षत्रिय)उरु ( जंघा) से वैश्य
तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए ।
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यद्यपि यह ऋचा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष  है ।
परन्तु यहाँ ब्राह्मण को विद्वान् होने से मस्तिष्क-ब्रेन कहना सार्थक था ।
यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान ब्रेन (Brain)
उच्च अर्थ में, "चेतना और मन का अवयव," पुरानी अंग्रेजी (ब्रेजेगन) "मस्तिष्क", तथा  प्रोटो-जर्मनिक * (ब्रैग्नाम )
(मध्य जर्मन (ब्रीगेन )के स्रोत  भी यहीं से हैं ,
भौतिक रूप से ब्रेन " कोमल , भूरे रंग का पदार्थ, एक कशेरुका का कपाल गुहा है "
पुराने फ़्रिसियाई और डच में (ब्रीन), यहाँ इसका व्युत्पत्ति-अनिश्चितता से सम्बद्ध, शायद भारोपीय-मूल   * मेरगम् (संज्ञा)- "खोपड़ी, मस्तिष्क"
(ग्रीक ब्रेखमोस)
"खोपड़ी के सामने वाला भाग, सिर के ऊपर")।
लेकिन भाषा वैज्ञानिक लिबर्मन लिखते हैं कि मस्तिष्क "पश्चिमी जर्मनी के बाहर कोई स्थापित संज्ञा नहीं है ।
..."  तथा यह और ग्रीक शब्द से जुड़ा नहीं है।
अधिक है तो शायद, वह लिखते हैं, कि इसके व्युत्पत्ति-सूत्र भारोपीयमूल के हैं । * bhragno "कुछ टूटा हुआ है। परन्तु यह शब्द संस्कृत भाषा में प्राप्त भारोपीय धातु :--- ब्रह् से सम्बद्ध है ।
ब्रह् अथवा बृह् धातु का अर्थ :---- तीन अर्थों में रूढ़ है ।
१- वृद्धौ २- प्रकाशे ३- भाषे च
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बृह् :--शब्दे वृद्धौ च  - बृंहति बृंहितम बृहिर् इति दुर्गः अबृहत्, अबर्हीत् बृंहेर्नलोपाद् बृहोऽद्यतनः (?)
16वी सदी से तारीखें "बौद्धिक शक्ति" का आलंकारिक अर्थ अथवा14 सदी के अन्त से है; यूरोपीय भाषा परिवार में प्रचलित शब्द ब्रेगनॉ
जिसका अर्थ है "एक चतुर व्यक्ति"
इस अर्थ को पहली बार (1914 )में दर्ज किया गया है। मस्तिष्क पर कुछ करने के लिए "बेहद उत्सुक या रुचि रखने वाला "
मस्तिष्क की गड़बड़ी "स्मृति का अचानक नुकसान या विचार की ट्रेनिंग, तार्किक रूप से सोचने में अचानक असमर्थता" (1991) से (मस्तिष्क-विकार) (1650) से "तर्कहीन या अपवर्जित प्रयास" के रूप में रूढ़ है
"सिर" के लिए एक पुराना अंग्रेज़ी शब्द था ब्रेगमन ।ब्रैग्लोका, जिसका अनुवाद "मस्तिष्क लॉकर" के रूप में किया जा सकता है।
मध्य अंग्रेजी में, ब्रेनस्कीक (पुरानी अंग्रेज़ी ब्रैगेन्सोक) का अर्थ "पागल,स से  जुड़ता है।"
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मस्तिष्क :---
"दिमाग को निर्देशन करने के लिए,"14 वीं सदी, मस्तिष्क ।
braining।
brame
See also: Brame and bramé
English:--
Etymology:-
From Middle English brame, from Old French brame, bram (“a cry of pain or longing; a yammer”), of Germanic origin, ultimately from Proto-Germanic *bramjaną (“to roar; bellow”), from Proto-Indo-European *bʰrem- (“to make a noise; hum; buzz”).
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तुलना करें
Old High German breman (“to roar”), रवर्
Old English bremman (“to roar”).
More at brim. Compare breme.
Noun:---
brame (uncountable)...
(obsolete) intense passion or emotion; vexation....
Spenser, The Fairie Queene,
(Book III, Canto II, 52)
... hart-burning brame / She shortly like a pyned ghost became.
Part or all of this entry has been imported from the 1913 edition of Webster’s Dictionary, which is now free of copyright and hence in the public domain. The imported definitions may be significantly out of date, and any more recent senses may be completely missing.
(See the entry for brame in Webster’s Revised Unabridged Dictionary, G. & C. Merriam, 1913.)
Anagrams:---
Amber, amber, bemar, bream, embar
French:---;
Verb:----
brame....
first-person singular present indicative of bramer
third-person singular present indicative of bramer
first-person singular present subjunctive of bramer
first-person singular present subjunctive of bramer
second-person singular imperative of bramer
Anagrams:--;-
ambre, Ambre, ambré
Italian:----
Noun:---
brame ....
plural of brama
Anagrams:---
ambre
Brema
Spanish:----
Verb:----
brame
First-person singular (yo) present subjunctive form of bramar.
Third-person singular (él, ella, also used with usted?) present subjunctive form of bramar.
Formal second-person singular (usted) imperative form of bramar.
brame
यह भी देखें:
Brame and Bramé
अंग्रेजी रूप :--
व्युत्पत्ति :-
पुरानी फ्रांसीसी ब्रम से, ब्रैम ("दर्द या लालसा की एक अवस्था रूदन ,गुञ्जार ), मध्य-अंग्रेजी ब्रम से सम्बद्ध अन्ततः प्रोटो-जर्मनिक * ब्रमजान ("गर्जन करने के लिए"; प्रोटो-इंडो- यूरोपीय * बृम- ("शोर बनाने के लिए; हमचर्चा")।
पुरानी हाई जर्मन ब्रीमन की तुलना करें ("गर्जन करने के लिए"), पुरानी अंग्रेज़ी ब्रीमेन ("गर्जन करने के लिए")। सीमा पर और अधिक ब्रेमे की तुलना करें
संज्ञा :--
ब्रैम (बेशुमार)
(अप्रचलित) तीव्र जुनून या भावना; गुब्बार
स्पेंसर, फेयरी क्वीन,
(बुक III, कैंटो II, 52)
हर्ट-बर्न ब्रेम / वह जल्द ही एक झुका हुआ भूत की तरह बन गई।
भाग या इस सभी प्रविष्टि को वेबस्टर की शब्दकोश के 1 9 13 संस्करण से आयात किया गया है, जो अब कॉपीराइट से मुक्त है और इसलिए सार्वजनिक डोमेन में। आयातित परिभाषाएं काफी पुरानी हो सकती हैं, और कोई भी हाल की इंद्रियां पूरी तरह से गायब हो सकती हैं।
(वेबस्टर के संशोधित अनब्रिज्ड डिक्शनरी, जी और सी। मरियम, 1 9 13 में ब्रेग्मा के लिए प्रवेश देखें।)
अनाग्रामज़ :---
एम्बर, एम्बर, बीमर, ब्रीम, एम्बर
फ्रेंच :---
क्रिया :----
brame
ब्रैमर के पहले व्यक्ति का विलक्षण वर्तमान संकेत
ब्रामर के तीसरे व्यक्ति का विलक्षण वर्तमान संकेत
ब्रामर के पहले व्यक्ति विलक्षण वर्तमान उपनगरीय
ब्रामर के पहले व्यक्ति विलक्षण वर्तमान उपनगरीय
ब्रैमर का दूसरा व्यक्ति एकवचन आवश्यक
अनाग्रामज़ संपादित करें
अमब्रू, एम्ब्रर, एम्ब्रिए
इतालवी :-----
संज्ञा :---
ब्रेम :--
ब्रामा का बहुवचन
अनाग्रामज़ :---
ambre
Brema
स्पेनिश
क्रिया :---
brame
प्रथम व्यक्ति विलक्षण -
ब्रैमर के वर्तमान प्रकार के रूप
ब्रैमर के वर्तमान उपमहावीय रूप में तीसरे व्यक्ति के विलक्षण (ईएल, एला, का प्रयोग भी किया गया?)
ब्रैमर का औपचारिक दूसरा व्यक्ति एकवचन (उस्ताद) अनिवार्य रूप...
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bramar
Catalan-
Etymology--
From Gothic
(bramjan).
Verb:--
bramar (first-person singular present bramo, past participle bramat)
to roar, to bellow
to bray
of an animal, to make its cry
Conjugation:---
Conjugation of bramar (first conjugation)
Derived terms:-
bram
Galician:-
bramando ("troating")
Etymology:-;;
From Gothic 𐌱𐍂𐌰𐌼𐌾𐌰𐌽 (bramjan), from Proto-Germanic *bremaną (“to roar”), from Proto-Indo-European *bʰrem- (“to make noise”). Cognate with Spanish bramar, French bramer, Italian bramire, Old English bremman (“to roar, rage”).
Pronunciation----
/bɾaˈmaɾ/
Verb---
bramar (first-person singular present bramo, first-person singular preterite bramei, past participle bramado)
to roar, to bellow
to troat (a deer)
Conjugation-    Conjugation of bramar
Synonyms---
berrar, bradar, bruar
Derived terms---
brama (“Deers mating season”)
bramido (“troat”)
Related terms---
bremar
References--
“bramido” in Xavier Varela Barreiro & Xavier Gómez Guinovart: Corpus Xelmírez - Corpus lingüístico da Galicia medieval. SLI / Grupo TALG / ILG, 2006-2016.
“bramar” in Dicionario de Dicionarios da lingua galega, SLI - ILGA 2006-2013.
“bramar” in Santamarina, Antón (coord.)
“bramar” in Álvarez, Rosario (coord.)
Etymology
Borrowed from French bramer, Italian bramire, Spanish bramar, ultimately from Gothic ...
(bramjan), from Proto-Germanic *bramjaną.संस्कृत ब्राह्मण:
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Pronunciation
: /braˈmar/ब्राह्मर भ्रमर
Hyphenation: bra‧mar
Verb:-----
bramar (present tense bramas, past tense bramis, future tense bramos, imperative bramez, conditional bramus)
(intransitive) to make the characteristic call of any animal: to bellow; low; bray; bleat; neigh:--
(figuratively) to roar, yell
Conjugation Conjugation of bramar
Derived terms:----
bramo (“bellowing; lowing; braying; bleating; neighing; roaring, yelling”)
Spanish
Etymology-----------
From Gothic  (bramjan). See also Old English bremman, Old High German brëman, Middle Low German brammen, French bramer....
Verb----
bramar (first-person singular present bramo, first-person singular preterite bramé, past participle bramado)
to roar, to bellow (धौकनी ) , to trumpet (बिगुुल)🗾
Conjugation---
संस्कृत भाषा में ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति :----
ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् ।
ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः ।
  इति भरतः ॥ 
(ब्रह्मन् + अण् “ ब्राह्मोऽजातौ। “ 
६/ ४/१७१ । इति नटिलोपः । ) 
तत्पर्य्यायः ।  द्विजातिः २ अग्रजन्मा ३ भूदेवः ४ बाडवः ५ विप्रः ६ । इत्यमरः ॥  २ ।  ७ ।  ४ ।  ॥  द्बिजः ७ सूत्र- कण्ठः ८ ज्येष्ठवर्णः ९ अग्रजातकः १० द्विजन्मा ११ वक्त्रजः १२ मैत्रः १३ वेदवासः १४ नयः १५ गुरुः १६ ।  इति शब्दरत्नाबली ॥ ब्रह्मा १७ षट्कर्म्मा १८ द्विजोत्तमः १९ ।
इति राजनिर्घण्टः ॥  * ॥
अयं सर्व्ववर्णश्रेष्ठः । 
ब्रह्मणो मुखाज्जातः । 
प्लक्षद्वीपे तस्य संज्ञा हंसः ।
शाल्मलद्वीपे श्रुतिधरः । 
कुशद्वीपे कुशलः । क्रौञ्चद्वीपे गुरुः ।
शाकद्वीपे ऋतव्रतः । 
पुष्कर- द्वीपे सर्व्वे एकवर्णाः ।  अस्य शास्त्रनिरूपित- धर्म्मास्त्रयः अध्ययनं यजनं दानञ्च ।  जीविका- स्तिस्रः अध्यापनं याजनं प्रतिग्रहश्च ।  अयमा- श्रमचतुष्टयवान् भवति ।  यथा ।  ब्रह्मचारी गृहस्थः वानप्रस्थः सन्न्यासी च ।  क्षत्त्रियवैश्य- योस्तु क्रमश एकैकपादहीनत्वमिति बोध्यम् । इति श्रीभागवतम् ॥  * ॥
  ब्राह्मणीक्षत्त्रिया- वैश्यासु ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः ।  यथा   -- “ ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः । क्षत्त्रियायां तथैव स्याद्वैश्यायामपि चैव हि ॥ “ इति महाभारते अनुशासने ।  ४७ ।  २८ ॥
तस्य लक्षणं यथा   -- “ जात्या कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन च । एभिर्युक्तो हि यस्तिष्ठेन्नित्यं स द्बिज उच्यते ॥ “ इति वह्रिपुराणम् ॥ अपि च । “ न क्रुध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः । सर्व्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ अहेरिव गणाद्भीतः लौहित्यान्नरकादिव । कुणपादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥
येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः । यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ विमुक्तं सर्व्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत् स्थितम् । अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ जीवितं यस्य धर्म्मार्थं धर्म्मो रत्यर्थमेव च । अहोरात्राश्च पुण्यार्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् । अक्षीणं ज्ञीणकर्म्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ “ इति महाभारते मोक्षधर्म्मः ॥  * ॥ अपि च ।  विशाखयूप उवाच । “ विप्रस्य लक्षणं ब्रूहि त्वद्भक्तिः का च तत्कृता । यतस्तवानुग्रहेण वाग्वाणाः ब्राह्मणाः कृताः ॥ कल्किरुवाच । वेदा मामीश्वरं प्राहुरव्यक्तं व्यक्तिमत् परम् । ते वेदा ब्राह्मणमुखे नाना धर्म्माः प्रकाशिताः ॥ यो धर्म्मो ब्राह्मणानां हि सा भक्तिर्मम पुष्कला । तयाहं तोषितः श्रीशः संभवामि युगे युगे ॥ ऊर्द्धन्तु त्रिवृतं सूत्रं सधवानिर्म्मितं शनैः । तन्तुत्रयमधोवृत्तं यज्ञसूत्रं विदुर्बुधाः ॥ त्रिगुणं तद्ग्रन्थियुक्तं वेदप्रवरसस्मितम् । शिरोधरान्नाभिमध्यात् पृष्ठार्द्धपरिमाणकम् ॥ यजुर्विदां नाभिमितं सामगानामयं विधिः । वामस्कन्धेन विधृतं यज्ञसूत्रं बलप्रदम् ॥ मृद्भस्मचन्दनाद्यैस्तु धारयेत्तिलकं द्विजः । भाले त्रिपुण्ड्रं कर्म्माङ्गं केशपर्य्यन्तमुज्ज्वलम् ॥ पुण्ड्रमङ्गुलिमानन्तु त्रिपुण्ड्रं तत्त्रिधाकृतम् । ब्रह्मविष्णुशिवावासं दर्शनात् पापनाशनम् ॥ ब्राह्मणानां करे स्वर्गा वाचो वेदाः करे हरिः । गात्रे तीर्थानि यागाश्च नाडीषु प्रकृतिस्त्रिवृत् ॥ सावित्री कण्ठकुहरा हृदयं ब्रह्मसङ्गतम् । तेषां स्तनान्तरे धर्म्मः पृष्ठेऽधर्म्मः प्रकीर्त्तितः ॥ भूदेवा ब्राह्मणा राजन् ! पूज्या वन्द्याः सदु- क्तिभिः । चातुराश्रम्यकुशला मम धर्म्मप्रवर्त्तकाः ॥ बालाश्चापि ज्ञानवृद्धास्तपोवृद्धा मम प्रियाः । तेषां वचः पालयितुमवताराः कृता मया ॥ महाभाग्यं ब्राह्मणानां सर्व्वपापप्रणाशनम् । कलिदोषहरं श्रुत्वा मुच्यते सर्व्वतो भयात् ॥ “ इति कल्किपुराणे ४ अध्यायः ॥  * ॥
अपि च । “ कर्म्मणा ब्राह्मणो जातः करोति ब्रह्मभावनाम् । स्वधर्म्मनिरतः शुद्धस्तस्माद्ब्राह्मण उच्यते ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते गणेशखण्डे ३५ अध्यायः ॥  * ॥ अपि च । “ जातकर्म्मादिभिर्यस्तु संस्कारैः संस्कृतः शुचिः । वेदाध्ययनसम्पन्नः षट्सु कर्म्मस्ववस्थितः ॥ शौचाचारपरो नित्यं विघसाशी गुरुप्रियः । नित्यव्रती सत्यरतः स वै ब्राह्मण उच्यते ॥ सत्यं दानमथोऽद्रोह आनृशंस्यं कृपा घृणा । तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥  * ॥ तस्य धर्म्मो यथा   -- ब्राह्मणस्य तु यो धर्म्मस्तं ते वक्ष्यामि केवलम् । दममेव महाराज ! धर्म्ममाहुः पुरातनम् ॥ स्वाध्यायाभ्यसनञ्चैव तत्र कर्म्म समाप्यते । तञ्चेद्वित्तमुपागच्छेद्वर्त्तमानं स्वकर्म्मणि ॥ अकुर्व्वाणं विकर्म्माणि श्रान्तं प्रज्ञानतर्पितम् । कुर्व्वीतोपेत्य सन्तानमथ दद्याद्यजेत च ॥ संविभज्यापि भोक्तव्यं धनं सद्भिरितीष्यते । परिनिष्ठितकार्य्यस्तु स्वाध्यायेनैव ब्राह्मणः ॥ कुर्य्यादन्यन्न वा कुर्य्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते । “ इति पाद्मे स्वर्गखण्डे २६ अध्यायः ॥  * ॥ तस्य माहात्म्यादि यथा   -- “ सर्व्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः । तस्मै दानानि देयानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः ॥ सर्व्वदेवाग्रजो विप्रः प्रत्यक्षत्रिदशो भुवि । स तारयति दातारं दुस्तरे विश्वसागरे ॥ हरिशर्म्मोवाच । सर्व्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वया प्रोक्तः सुरोत्तम ! । तेषां मध्ये च कः श्रेष्ठः कस्मै दानं प्रदीयते ॥ ब्रह्मोवाच । सर्व्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि । अविद्या वा सविद्या वा नात्र कार्य्या विचारणा ॥ स्तेयादिदोषलिप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ! । आत्मभ्यो द्वेषिणस्तेऽपि परेभ्यो न कदाचन ॥ अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जिते- न्द्रियाः । अभक्ष्यभक्षका गावः कोलाः सुमतयो न च ॥ माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया । तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ ! निशामय समाहितः ॥ क्षत्त्रियाणाञ्च वैश्यानां शूद्राणां गुरवो द्विजाः । अन्योन्यं गुरवो ज्ञेयाः पूजनीयाश्च भूसुर ! ॥ ब्राह्मणं प्रणमेद्यस्तु विष्णुबुद्ध्या नरोत्तमः । आयुः पुत्त्राश्च कीर्त्तिश्च सम्पत्तिस्तस्य वर्द्धते ॥ न च नौति द्विजं यस्तु मूढधीर्मानवो भुवि । सुदर्शनेन तच्छीर्षं हन्तुमिच्छति केशवः ॥
“ पुष्पादिहस्तब्राह्मणस्य प्रणामनिषेधो यथा   -- “ पुष्पहस्तं पयोहस्तं देवहस्तञ्च भूसुर ! ।
न नमेद्ब्राह्मणं प्राज्ञस्तैलाभ्यङ्गितविग्रहम् ॥
जलस्थं देववेश्मस्थं ध्यानमज्जितचेतसम् । देवपूजाञ्च कुर्व्वन्तं न नमेद्ब्राह्मणं बुधः ॥
बहिष्क्रियां प्रकुर्व्वन्तं भुञ्जानञ्च द्विजोत्तम ! । तथा सामानि गायन्तं न नमेद्ब्राह्मणं बुधः ॥
ब्राह्मणा यत्र तिष्ठन्ति बहवो द्विजसत्तम ! । प्रत्येकन्तु नमस्कारस्तत्र कार्य्यो न धीमता ॥ कृताभिवादनं विप्रं भक्त्या यो नाभिवादयेत् । स चाण्डालसमो ज्ञेयो नाभिवाद्यः कदापि च ॥
कृतप्रणामं तनयं नमेतां पितरौ न च । कृतप्रणामाः सर्व्वेऽपि नमस्कार्य्या द्विजैर्द्विजाः ॥ कृतदोषान् द्बिजान् गाश्च न द्बिषन्ति विच- क्षणाः ।
द्विषन्ति वापि मीहेन तेषां रुष्टः सदा हरिः ॥
याचकान् ब्राह्मणान् यस्तु कोपदृष्ट्या प्रपश्यति । सूचीप्रक्षेपणं तस्य नेत्रयोः कुरुते यमः ॥ विप्रनिर्भर्त्सनं मूढा येन वक्त्रेण कुर्व्वते । तस्मिन् वक्त्रे यमस्तप्तं लौहपिण्डं ददाति वै ॥
ब्राह्मणो यद्गृहे भुङ्क्ते तद्गृहे केशवः स्वयम् । देवताः सकला एव पितरश्च मुरर्षयः ॥ “ तस्य पादोदकादिमाहात्मम् यथा   -- विप्रपादोदकं यस्तु कणमात्रं वहेद्बुधः ।
देहस्थं पातकं तस्य सर्व्वमेवाशु नश्यति ॥ कोटिब्रह्माण्डमध्येषु सन्ति तीर्थानि यानि वै । तीर्थानि तानि सर्व्वाणि वसन्ति द्विजपादयोः ॥
विप्रपादोदकैर्नित्यं सिक्तं स्याद्यस्य मस्तकम् । स स्नातः सर्व्वतीर्थेषु सर्व्वयज्ञेषु दीक्षितः ॥
सर्व्वपापानि घोराणि ब्रह्महत्यादिकानि च । सद्य एव विनश्यन्ति विप्रपादाम्बुधारणात् ॥
क्षयाद्या व्याधयः सर्व्वे परमक्लेशदायकाः ।
गच्छन्ति विलयं सद्यो विप्रपादाम्बुभक्षणात् ॥ पित्रर्थं यानि तोयानि दीयन्ते विप्रपादयोः ।
तैस्तृप्ताः पितरः स्वर्गे तिष्ठन्त्याचन्द्रतारकम् ॥ प्रक्षाल्य विप्रचरणौ दूर्व्वाभिर्योऽर्च्चयेद्बुधः । तेनार्च्चितो जगत्स्वामी विष्णुः सर्व्वसुरोत्तमः ॥
विप्राणां पादनिर्म्माल्यं यो मर्त्यः शिरसा वहेत् । सत्यं सत्यमहं वच्मि तस्य मुक्तिर्हि शाश्वती ॥
तस्य प्रदक्षिणफलम् । “ विप्रं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दते यो नरोत्तमः । प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ॥ “ तस्य पादसेचनफलम् ।
यो दद्यात् फलताम्बूलं विप्राणां पादसेचने । इह लोके सुखं तस्य परलोके ततोऽधिकम् ॥
पुत्त्रार्थी लभते पुत्त्रं धनार्थी लभते घनम् । मोक्षार्थी लभते मोक्षं विप्रपादस्य सेचनात् ॥
रोगी रोगात् प्रमुच्येत पापी मुच्येत पातकात् । मुच्येत बन्धनाद्वद्धो विप्राणां पादसेचनात् ॥ अनपत्याश्च या नार्य्यो मृतापत्याश्च याः स्त्रियः । बह्वपत्या जीववत्साः स्युर्विप्रपादसेचनात् ॥ “ इति पाद्मे क्रियायोगसारे २० अध्यायः ॥ तस्य सन्ध्याया अकरणे दोषो यथा   -- “ नोपतिष्टति यः पूर्ब्बां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम् ।
स शूद्रवद्वहिः कार्य्यः सर्व्वस्माद्द्विजकर्म्मणः ॥ “ तस्य सन्ध्याकरणफलं यथा   -- “ यावज्जीवनपर्य्यन्तं यस्त्रिसन्ध्यं करोति च ।
स च सूर्य्यसमो विप्रस्तेजसा तपसा सदा ॥ तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुन्धरा । जीवन्मुक्तः स तेजस्वी सन्ध्यापूतो हि यो द्बिजः ॥ तीर्थानि च पवित्राणि तस्य संस्पर्शमात्रतः ।
ततः पापानि यान्त्येव वैनतेयादिवोरगाः ॥ सन्ध्याया अकरणे दोषो यथा   -- “ न गृह्णन्ति मुरास्तेषां पितरः पिण्डतर्पणम् । स्वेच्छया त्त द्विजातेश्च त्रिसन्ध्यरहितस्य च ॥ “ तस्य निन्दितकर्म्माणि यथा   -- “ विष्णुमन्त्रविहीनश्च त्रिसन्ध्यरहितो द्विजः । एकादशीविहीनश्च विषहीनो यथोरगः ॥
हरेर्नैवेद्यभोजी न धावको वृषवाहकः ।
शूद्रान्नभोजी विप्रश्च विषहीनो यथोरगः ॥ शवदाही च शूद्राणां यो विप्रो वृषलीपतिः ।
शूद्राणां सूपकारी च शूद्रयाजी च यो द्विजः । असिजीवी मसीजीवी विषहीनो यथोरगः ॥
यो विप्रोऽवीरान्नभोजी ऋतुस्नातान्नभोजकः । भगजीवी वार्द्धुषिको विषहीनो यथोरगः ।
यः कन्याविक्रयी विप्रो यो हरेर्नामविक्रयी । यो विद्याविक्रयी विप्रो विषहीनो यथोरगः ॥ सूर्ष्योदये च द्विर्भोजी मत्स्यभोजी च यो द्बिजः ।
शिलापूजादिरहितो विषहीनो यथोरगः ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते प्रकृतिखण्डे २१ अध्यायः ॥ 
* ॥ अपि च । “ यदि शूद्रां ब्रजेद्विप्रो वृषलीपतिरेव सः । स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चाण्डालात् सोऽधमः स्मृतः ॥ विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रं तस्य च तर्पणम् । तत्पितॄणां सुराणाञ्च पूजने तत्समं सति ॥
कोटिजन्मार्जितं पुण्यं सन्ध्यार्च्चातपसार्जितम् । द्बिजस्य वृषलीभोगान्नश्यत्येव न संशयः ॥ ब्राह्यणश्च मुरापीती विड्भोजी वृषलीपतिः । हरिवासरभोजी च कुम्भीपाकं व्रजेद्ध्रुवम् ॥ “ अपि च ।
“ करोत्यशुद्धां सन्ध्याञ्च सन्ध्यां वा न करोति यः । त्रिसन्ध्यं वर्जयेद्यो वा सन्ध्याहीनश्च स द्विजः ॥ नारायणक्षेत्रादितीर्थे तस्य प्रतिग्रहदोषो यथा  “ तत्र नारायणक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे हरेः पदे ।
वाराणस्यां वदर्य्याञ्च गङ्गासागरसङ्गमे ॥
पुष्करे भास्करक्षेत्रे प्रभासे रासमण्डले । हरिद्बारे च केदारे सोमे वदरपाचने ॥ सरस्वतीनदीतीरे पुण्ये वृन्दावने वने । गोदावर्य्याञ्च कौशिक्यां त्रिवेण्याञ्च हिमालये ॥ एतेष्वन्येषु यो दानं प्रतिगृह्णाति कामतः । स च तीर्थप्रतिग्राही कुम्भीपाकं प्रयाति च ॥ “ पारिभाषिकमहापातकिब्राह्मणा यथा   -- “ शूद्रसप्तोद्रिक्तयाजी ग्रामयाजीति कीर्त्तितः । देवोपजीवजीवी च देवलश्च प्रकीर्त्तितः ॥ शूद्रपाकोपजीवी यः सूपकारः प्रकीर्त्तितः । सन्ध्यापूजाविहीनश्च प्रमत्तः पतितः स्मृतः ॥
एते महापातकिनः कुम्भीपाकं प्रयान्ति ते ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते प्रकृतिखण्डे २७ अध्यायः ॥  * ॥ विप्राणामाशीर्वचनं पूर्णस्वस्त्ययनं यथा   -- “ आशिषं कर्त्तुमर्हन्ति प्रसन्नमनसा शिशुम् । पूर्णस्वस्त्ययनं सद्यो विप्राशीर्वचनं ध्रुवम् ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डे १३ अध्यायः ॥
ब्राह्मणस्य स्वधर्म्मो यथा   -- “ ब्राह्मणस्य स्वधर्म्मश्च त्रिसन्ध्यमर्च्चनं हरेः । तत्पादोदकनैवेद्यभक्षणञ्च सुधाधिकम् ॥ अन्नं विष्ठा जलं मूत्रमनिवेद्यं हरेर्नृप ! । भवन्ति शूकराः सर्व्वे ब्राह्मणा यदि भुञ्जते ॥ आजीवं भुञ्जते विप्रा एकादश्यां न भुञ्जते ।
कृष्णजन्मदिने चैव शिवरात्रौ सुनिश्चितम् ॥ तथा रामनवम्याञ्च यत्नतः पुण्यवासरे ।
ब्राह्मणानां स्वधर्म्मश्च कथितो ब्रह्मणा नृप ! ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डे ५९ अध्यायः ॥ गृहस्थब्राह्मणनियमा यथा   -- “ वेदं वेदौ तथा वेदानधीत्य तु समाहितः ।
तदर्थमभिगम्याथ तत्र स्नायाद्द्विजोत्तमः ॥
गुरवे तु धनं दत्त्वा स्नायीत तदनुज्ञया ।
चीर्णव्रतोऽथ मुक्तात्मा ह्यशक्तः स्नातुमर्हति ॥ वैणवीन्धारयेद्यष्टिमन्तर्व्वासमथोत्तरम् । यज्ञोपवीतद्बितयं सोदकञ्च कमण्डलुम् ॥ छत्रञ्चोष्णीषममलं पादुके चाप्युपानहौ । रौक्मे च कुण्डले धार्य्ये कृत्तकेशनखः शुचिः ॥ स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्बहिर्माल्यं न धारयेत् ।
अन्थत्र काञ्चनाद्विप्रो न रक्तां बिभृयात् स्रजम् ॥ शुक्लाम्बरधरो नित्यं स्रग्गन्धः प्रियदर्शनः । न जीर्णमलवद्वासा भवेच्च विभवे सति ॥ न रक्तमुल्वणञ्चास्य घृतं वासो न कुण्डिकाम् ।
नोपानहौ स्रजं वाथ पादुके च प्रयोजयेत् ॥ उपवीतमलङ्कारं कुम्भान् कृष्णाजिनानि च । नापसव्यं परीदध्याद्वासो न विकृतं वसेत् ॥
आहरेद्विधिवद्धीमान् सदृशामात्मनः शुभाम् । रूपलक्षणसंयुक्तां योनिदोषविवर्ज्जिताम् ॥ अमातृगोत्रप्रभवामसमानार्षगोत्रजाम् ।
आहरेद्ब्राह्मणो भार्य्यां शीलशौचसमन्विताम् ॥ ऋतुकालाभिगामी स्याद्यावत् पुत्त्रोऽभिजायते । वजयेत् प्रतिषिद्धानि प्रयत्नेन दिनानि तु ॥
षष्ठ्यष्टमी पञ्चदशी द्वादशी च चतुद्दशी । ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं तद्वज्जन्मत्रयाहनि ॥
आदधीतावसथ्याग्निं जुहुयाज्जातवेदसम् । व्रतानि स्नातको नित्यं पावनानि च पालयेत् ॥
वेदोदितं स्वकं कर्म्म नित्यं कुर्य्यादतन्द्रितः । अकुर्व्वाणः पतत्याशु नरकानतिभीषणान् ॥
अभ्यसेत् प्रयतो नित्यं वेदं यज्ञान्न हापयेत् । कुर्य्याद्गृह्याणि कर्म्माणि सन्ध्योपासनमेव च ॥
सख्यं समाधिकैः कुर्य्यादुपेयादीश्वरं सदा ।
दैवतान्यपि गच्छेत्तु कुर्य्याद्भार्य्याभिपोषणम् ॥
न धर्म्मं ख्यापयेद्विद्बान् न पापं गूहयेदपि । कुर्व्वीतात्महितं नित्यं सर्व्वभूतानुकम्पकः ॥
वयसः कर्म्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च । देशवाग्बुद्धिसारूप्यमाचरन् विचरेत् सदा ॥ श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यक् साधुभिर्यश्च सेवितः । तमातरन्निषेवेत नेहेतान्यत्र कर्हिचित् ॥
येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः ।
येन याति सतां मार्गं तेन गच्छंस्तरिष्यति ॥
नित्यं स्वाध्यायशीलः स्यान्नित्यं यज्ञोपवीतिमान् । सत्यवादी जितक्रोधो ब्रह्मभूयाय कल्प्यते ॥ सन्ध्यास्नानरतो नित्यं ब्रह्मयज्ञपरायणः । अनसूयुर्मृदुर्दान्तो गृहस्थः प्रत्यवर्द्धत ॥ वीतरागभयक्रोधो लोभमोहविवर्ज्जितः । सावित्रीजापनिरतः श्रद्धावान् मुच्यते गृही ॥ मातापित्रोर्हिते युक्तो गोब्राह्मणहिते रतः ।
दाता यज्ञी देवभक्तो ब्रह्मलोके महीयते ॥
त्रिवर्गसेवी सततं देवतानाञ्च पूजनम् । कुर्य्यादहरहर्न्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान् ॥
विभागशीलः सततं क्षमायुक्तो दयात्मकः ।
गृहस्थस्तु समायुक्तो न गृहे न गृही भवेत् ॥
क्षमा दया च विज्ञानं सत्यञ्चैव दमः शमः ।
अध्यात्मं नित्यता ज्ञानमेतद्ब्राह्मणलक्षणम् ॥
एतस्मान्न प्रमाद्येत विशेषेण द्बिजोत्तमः ।
यथाशक्ति चरन् कर्म्म निन्दितानि विवर्जयेत् ॥
विधूय मोहकलिलं लब्ध्वा योगमनुत्तमम् ।
गृहस्थो मुच्यते बन्धान्नात्र कार्य्या विचारणा विगर्हातिक्रमक्षेपहिंसाबन्धवधात्मनाम् । अन्यमन्युसमुत्थानां दोषाणां वर्जनं क्षमा ॥ स्वदुःखेष्विव कारुण्यं परदुःखेषु सौहृदात् ।
दया यन्मुनयः प्राहुः साक्षाद्धर्म्मस्य साधनम् ॥ चतुर्द्दशानां विद्यानां धारणं हि यथार्थतः ।
विज्ञानमितरं विद्याद्येन धर्म्मो विवर्द्धते ॥
अधीत्य विधिवद्विद्यामर्थञ्चैवोपलभ्य तु । धर्म्मकार्य्यान्निवृत्तश्चेन्न तद्विज्ञानमिष्यते ॥
सत्येन लोकं जयति सत्यन्तत् परमं पदम् ।
यथा भूतप्रसादस्तु सत्यमाहुर्मनीषिणः ॥
दमः शरीरावनतिः शमः प्रज्ञा प्रसादजः ।
अध्यात्ममक्षरं विद्याद्यत्र गत्वा न शोचति ॥
यया स देवो भगवान् विद्यते यत्र विद्यते ।
साक्षादेव महादेव ! तज्ज्ञानमिति कीर्त्तितम् ॥ तन्निष्ठस्तत्परो विद्वान्नित्यमक्रोधनः शुचिः ।
महायज्ञपरो विप्रो लभते तदनुत्तमम् ॥
धर्म्मस्यायतनं यत्नाच्छरीरं परिपालयेत् ।
न हि देहं विना रुद्र ! पुरुषैर्विद्यते परः ॥
नित्यं धर्म्मार्थकामेषु युञ्जीत नियतो द्बिजः ।
न धर्म्मवर्जितं काममर्थं वा मनसा स्मरेत् ॥
सीदन्नपि स्वधर्म्मेण नत्वधर्म्मं समाचरेत् ।
धर्म्मो हि भगवान्देवो गतिः सर्व्वेषु जन्तुषु ।
भूतानां प्रियकारी स्यान्न परद्रोहकर्म्मधीः ॥
न वेददेवतानिन्दां कुर्य्यात्तैश्च न सम्बदेत् ।
यस्त्विमं नियतो विप्रो धर्म्माध्यायं पठेत् शुचिः । अध्यापयेच्छ्रावयेद्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ “
इति कौर्म्मे उपविभागे १४ अध्यायः ॥
अपि च ।  सूत उवाच ।
“ आनृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसा दममार्द्दवम् ।
ध्यानं प्रसादो माधुर्य्यमार्ज्जवं शौचमेव च ॥
इज्या दानं तपः सत्यं स्वाध्यायो ह्यात्मनिग्रहः । व्रतोपवासौ मौनञ्च स्नानं पैशुन्यवर्जनम् ॥
एभिर्युक्तो मुनिश्रेष्ठा यः सदा वर्त्तते द्विजः ।
हुत्वा तु पावकं सर्व्वं परं ब्रह्माधिगच्छति ॥
अविद्यो वा सविद्यो वा निरग्निः साग्निकोऽपि वा ।
यो विप्रस्तपसा युक्तः स परं स्वर्गमाप्नुयात् ॥ सर्व्वेषामुत्तमं श्रेष्ठं विमुक्तिफलदायकम् ॥
ब्राह्मणस्य तपो वक्ष्ये तन्मे निगदतः शृणु ।
सायं प्रातश्च यः सन्ध्यामुपास्ते स्कन्नमानसः ॥
जपन् हि पावनीं देवीं गायत्त्रीं वेदमातरम् ।
तपसा भावितो देव्या ब्राह्मणः पूतकिल्विषः ॥
न सीदेत् प्रतिगृह्णन् स त्वयि पृथ्वीं ससागराम् ।
द्वे सन्ध्ये ह्युपतिष्ठेत गायत्त्रीं प्रयतः शुचिः ॥
यस्तस्य दुष्कृतं नास्ति पूर्ब्बतः परतोऽपि वा । यज्ञदानरतो विद्वान् साङ्गवेदस्य पाठकः ॥ गायत्त्रीध्यानपूतस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
एवं किल्विषयुक्तस्तु विनिर्दहति पातकम् ॥
उभे सन्ध्ये ह्युपासीत तस्मान्नित्यं द्विजोत्तमः ॥
तस्य देहापवित्रत्वं यथा   -- “ यथा देहापवित्रत्वं विप्रादीनां यतो भवेत् ।
देवर्षे ! शृणु तत्सर्व्वं नराणामानुपूर्ब्बिकम् ॥
जातके मृतकेऽस्नाते जलौकाभिः क्षते तथा ।
अपवित्रो द्विजातीनां देहः सन्ध्यादिकर्म्मसु ॥ अपूततनुरुत्सर्गे नरो मूत्रपुरीषयोः ।
अस्पृश्यस्पर्शने चैव ब्रह्मयज्ञजपादिषु ॥
रक्तपाते नखशृङ्गदन्तखड्गादिभिः क्षते ।
विप्रादेरशुचिः कायः शस्त्रास्त्रैः कण्टकादिभिः ॥ भुक्तहस्ताननोच्छिष्टेऽपवित्रः कृतमैथुने ।
शयने ब्राह्मणादीनां शरीरं क्षुरकर्म्मणि ॥ ज्वरादिभिश्चतुःषष्टिरोगैर्युक्ते द्विजन्मनाम् ।
वपुरप्रयतं पूजादानहोमजपादिषु ॥ धूमोद्गारे वमौ श्राद्धपतितान्नादिभोजनैः । तथा च रेतःस्खलने मर्त्यदेहापवित्रता ॥
अपवित्रं द्विजातीनां वपुः स्याद्राहुदर्शने । गर्हितदानग्रहणे पतिते पातकादिभिः ॥
अशौचान्तेन शुद्धिः स्याज्जातके मृतके द्विज ! ॥ सर्व्ववर्णाश्रमादीनां तनोः सन्ध्यादिकर्म्मसु ॥
“ इति पाद्मोत्तरखण्डे १०९ अध्यायः ॥
अथ श्राद्धीयब्राह्मणनिर्णयः । मान्धातोवाच । “ कीदृशेभ्यः प्रदातव्यं भवेच्छ्राद्धं महामुने ! । द्बिजेभ्यः किंगुणिभ्यो वा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ नारद उवाच । ब्राह्मणान्न परीक्षेरन्नान्यवर्णास्त्रयो नृप ! । दैवे कर्म्मणि पित्रे च न्याय्यमाहुः परीक्षणम् ॥ देवताः पूजयन्तीह दैवेनैव हि तेजसा । उपेये तस्माद्भावेभ्यः सर्व्वेभ्यो दापयेन्नरः ॥ श्राद्धे त्वथ महाराज ! परीक्षेद्ब्राह्मणं बुधः । कुलशीलवयोरूपैर्विद्ययाभिजनेन च ॥ तेषामन्ये पङ्क्तिदूषास्तथान्ये पङ्क्तिपावनाः । अपाङ्क्तेयास्तु ये राजन् ! कीर्त्तयिष्यामि तान् शृणु ॥ “ अपाङ् क्तेया यथा   -- कितवो भ्रूणहा यक्ष्मी पशुपालो निराकृतिः । ग्रामप्रेष्यो वार्द्धुषिको गायनः सर्व्वविक्रयी ॥ अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी । सामुद्रिको राजदूतस्तैंलिकः कूटकारकः ॥ पित्रा विवदमानश्च यस्य चोपपतिर्गृ हे । अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पं यश्चोपजीवति ॥ पर्व्वकारश्च सूची च मित्रध्रुक् पारदारिकः । अव्रतानामुपाध्यायः काण्डपृष्ठस्तथैव च ॥ श्वभिश्च यः परिक्रामेद्यः शुना दष्ट एव च । परिवित्तिस्तु यश्च स्याद्दुश्चर्म्मा गुरुतल्पगः ॥ कुशीलवो देवलको नक्षत्रैर्यश्च जीवति । ईदृशा ब्राह्मणा ये च अपाङ्क्तेयास्तु ते मताः ॥ रक्षांसि गच्छते हव्यं यदेषान्तु प्रदीयते । श्राद्धे मुक्त्वा महाराज ! दुश्चर्म्मा गुरुतल्पगः ॥ श्राद्धं नाशयते तस्य पितरोऽपि न भुञ्जते । सोमविक्रयिणे दत्तं विष्ठातुल्यं भवेन्नृप ! ॥ भिषजे शोणितसमं नष्टं देवलके तथा । अप्रतिष्ठं बार्द्धषिके निष्फलं परिकीर्त्तितम् ॥ बहुबाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद्भवेत् । भस्मनीव हुतं हव्यं तथा पौनर्भवे द्विजे ॥ ये तु धर्म्मव्यपेतेषु चरित्रापगतेषु च । हव्यं कव्यं प्रयच्छन्ति तेषां तत्प्राय नश्यति ॥ ज्ञानपूर्ब्बन्तु ये तेभ्यः प्रयच्छन्त्य ल्पबुद्धयः । पुरीषं भुञ्जते तस्य पितरः प्रेत्य निश्चितम् ॥ एतान् विद्धि महावाहो ! अपाङ्क्तेयान् द्विजा- धमान् । शूद्राणामुपदेशन्तु ये कुर्व्वन्त्यल्पबुद्धयः ॥ षष्टिं काणः शतं खञ्जः श्वित्री यावत् प्रपश्यति । पङ्क्त्यां समुपविष्टायां तावद्दूषयते नृप ! ॥ यद्वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यद्भुङ्क्ते दक्षिणामुखः । सोपानत्कश्च यद्भुङ्क्ते सर्व्वं विद्यात्तदासुरम् ॥ असूयते च यद्दत्तं यच्च श्रद्धादिवर्जितम् । सर्व्वं तदसुरेन्द्राय ब्रह्मा भागमकल्पयत् ॥ श्वानश्च पङ्क्तिदूषाश्च नावेक्षेरन् कथञ्चन । तस्मात् परिवृते दद्यात्तिलांश्चान्ने विकीरयेत् ॥ तिलैर्विरहितं श्राद्धं कृतं क्रोधवशेन च । यातुधानाः पिशाचाश्च विप्रलुम्पन्ति तद्धविः ॥ अपाङ्क्तेयो यतः पङ्क्त्यां भुञ्जानो ननु पश्यति । तावत् फलाद्भ्रंशयति दातारं तस्य वालिशम् ॥ “ पङ्क्तिपावना यथा   -- “ इमे हि मनुजश्रेष्ठ ! विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः । विद्यावेदव्रतस्नाताः ब्राह्मणाः सर्व्व एव हि ॥ सदाचारपराश्चैव विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः । मातापित्रोर्यश्च बश्यः श्रोत्रियो दशपूरुषः ॥ ऋतुकालाभिगामी च धर्म्मपत्नीषु यः सदा । वेदविद्याव्रतस्नातो विप्रः पङ्क्तिं पुनात्युत ॥ अथर्व्वशिरसोऽध्येता ब्रह्मचारी यतव्रतः । सत्रवादी धर्म्मशीलः स्वकर्म्मनिरतश्च यः ॥ ये च पुण्येषु तीर्थेषु अभिषेककृतश्रमाः । मखेषु च समस्तेषु भवन्त्ववभृतप्लुतः ॥ अक्रोधना ह्यचपलाः क्षान्ता दान्ता जिते- न्द्रियाः । सर्व्वभूतहिता ये च श्राद्धेष्वेतान्निमन्त्रयेत् ॥ एतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पङ्क्तिपावनाः । यतयो मोक्षधर्म्मज्ञा योगाः सुचरितव्रताः ॥ ये चेतिहासं प्रयताः श्रावयन्ति द्विजोत्तमान् । ये च भाष्यविदः केचिद् ये च व्याकरणे रताः ॥ अधीयते पुराणं ये धर्म्मशास्त्राणि चाप्युत । अधीत्य च यथान्यायं विधिवत्तस्य कारिणः ॥ उपपन्नो गुरुकुले सत्यवादी सहस्रदः । अग्र्याः सर्व्वेषु वेदेषु सर्व्वप्रवचनेषु च ॥ यावदेते प्रपश्यन्ति पङ्क्त्यां तावत् पुनन्ति च । ततो हि पावनात् पङ्क्त्या उच्यन्ते पङ्क्ति- पावनाः ॥ अनृत्विगनुपाध्यायः स चेदग्रासनं व्रजेत् । ऋत्विग्भिरनमुज्ञातः पङ्क्त्या हरति दुष्कृतम् ॥ अथ चेद्वेदवित् सर्व्वैः पङ्क्तिदोषैर्विवर्जितः । न च स्यात् पतितो राजन् ! पङ्क्तिपावन उच्यते ॥ तस्मात् सर्व्वप्रयत्नेन परीक्ष्यामन्त्रयेद्द्विजान् । स्वकर्म्मनिरतान् शान्तान् कुले जातान् बहु- श्रुतान् ॥ यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च । न प्रीणाति पितॄन् देवान् स्वर्गञ्च न स गच्छति ब्राह्मणो ह्यनधीयानस्तृणादिरिव शाम्यति । तस्मिन् श्राद्धं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते ॥ ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति महीपते ! । निश्चिताः सर्व्वधर्म्मज्ञास्तान् देवा ब्राह्मणान् विदुः ॥ स्वाध्यायनिष्ठानिरता ज्ञाननिष्ठास्तथैव च । तपोनिष्ठाश्च बोद्धव्याः कर्म्मनिष्ठाश्च पार्थिव ! । कव्यानि ज्ञाननिष्ठेभ्यः प्रतिष्ठाप्यानि भूमिप ! । तत्र ये ब्राह्मणान् केचिन्न निन्दन्ति हि ते वराः ॥ ये तु निन्दन्ति जल्पेषु न तान् श्राद्धेषु योजयेत् । ब्राह्मणा निन्दिता राजन् ! हन्युस्ते पुरुषं सदा ॥ वैखानसानां वचनमृषीणां श्रूयते नृप ! । दूरादेव निरीक्षेत ब्राह्मणान् वेदपारगान् ॥ प्रियो वा यदि वा द्बेष्यस्तेषां न श्राद्धमावपेत् ॥ “ इति पाद्मे स्वर्गखण्डे श्राद्धपात्रनिर्णयो नाम ३५ अध्यायः ॥  आततायिब्राह्मणवधे दोषाभावो यथा   --“ आत्मानं हन्तुमायान्तमपि वेदान्तपारगम् । न दोषो हनने तस्य न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥ प्रायश्चित्तं हिंसकानां न वेदेषु निरूपितम् । वधे समुचिते तेषामित्याह कमलोद्भवः ॥ “ इति ब्रह्मवैवर्त्ते गणपतिखण्डे २५ अध्यायः ॥ (क्ली   मन्त्रेतरवेदभागः ।  आशङ्कोपन्यास तन्निरसनपूर्ब्बकं तल्लक्षणमाह ऋग्वेदभाष्योपद्घातप्रकरणे यथा ।  “ तत्र ब्राह्मणस्य लक्षणं नास्ति । कुतः ? वेदभागानामियत्तानवधारणेन बाह्मणभागेष्वन्यभागेषु च लक्षणस्याव्याप्त्यतिव्याप्त्योः शोधयितुमशक्यत्वात् ।  पूर्ब्बोक्तमन्त्रभाग एकः । भागान्तराणि च कानिचित् पूर्ब्बैरुदाहर्त्तुं संगृहीतानि । “ हेतुर्निर्बचनं निन्दा प्रशंसा संशयो विधिः । परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना ॥ “  इति । तेन ह्यन्नं क्रियते इति हेतुः १ ।  तद्दध्नोदधित्वमिति निर्वचनम् २ ।  अमेध्या वै माषाः इति निन्दा ३ वायुर्वै क्षेपिष्ठादेवतेति प्रशंसा ४ । तद्व्यचिकित्स जुहवानीमा हौषामिति संशयः ५ । यजमानेन सम्मितौदुम्भरी भवतीति विधिः ६ । माषानेव मह्यं पचन्तीति परकृतिः ७ पुरा ब्राह्मणा अभैषुरिति पुराकल्पः ८ ।  यावतोऽश्वान् प्रतिगृह्णीयात्तावतो वारुणांश्चतुष्कपालान्निर्वपेदिति विशेषावधारणकल्पना ९ ।  एवमन्यदपि उदाहार्य्यम् ॥  न च हेत्वादीनामन्यतमं ब्राह्मणमिति लक्षणम् ।  मन्त्रेष्वपि हेत्वादिसद्भावात् ।  इन्दवोवामुशन्तिहीति हेतुः । उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकसुच्यते इति निर्वचनम् ।  मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः इति निन्दा ।  अग्निर्मूर्द्धादिवः इति प्रशंसा ।  अधः स्विदासीदुपरिस्विदासीति संशयः वसन्ताय कपिञ्जलानालभत इति विधिः सहस्रमयुतादद्दितिपरकृतिः ।  यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा इति पुराकल्पः ।  इति करणबहुलं ब्राह्मणमिति चेत् न इत्यददा इत्ययजथा इत्यपच इति ब्राह्मणो गायेदित्यस्मिन् ब्राह्मणेन गातव्ये मन्त्रेऽतिव्याप्तेः ।  इत्याहेत्यनेन वाक्येनोपनिबद्धं ब्राह्मणमिति चेन्न राजाचिद्यं भगं भक्षीत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह इत्यनयोर्मन्त्रयोरतिव्याप्तेः आख्यायिकारूपं ब्राह्मणमिति चेन्न यमयमीसंवादसूक्तादावतिव्याप्तेः तस्मान्नास्ति ब्राह्मणस्य लक्षणमिति प्राप्ते ब्रूमः मन्त्रब्राह्मणरूपौ द्वावेव वेदभागौ इत्यङ्गीकारात् मन्त्रलक्षणस्य पूर्ब्बमभिहितत्वादवशिष्टो वेदभागोब्राह्मणमित्येतल्लक्षणं भविष्यति ।  तदेतल्लक्षणद्वयं जैमिनिः सूत्रयामास तच्चोदकेषु मन्त्राख्याशेषे ब्राह्मणशब्द इत्यादि ॥ “ विष्णुः ।  यथा   महाभारते ।  १३ ।  १४९ ।  ८४ । “ ब्रह्मविद्ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ “ शिवः ।  यथा   तत्रैव ।  १३ ।  १७ ।  १३३ । गभस्तिब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्मविद् ब्राह्मणो गतिः ॥ “ ब्रह्म जानातीति व्युत्पत्त्या परब्रह्मवेत्तरि  त्रि ॥ )
वस्तुत ब्राह्मण शब्द की ये सब रूढ़ि गत व्युत्पत्तियाँ है।
ब्राह्मण शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय धातु ब्रह् से सम्बद्ध है
जो पूर्ण रूपेण ध्वनि अनुकरण मूलक है ।
अर्थात् स्तुतियों अथवा मन्त्रों में निरन्तर ध्वनि का भाव होने से ही ब्राह्मण शब्द का जन्म हुआ ।
भृंग तथा ब्राह्मण शब्द संस्कृत भाषा में मूलत: ध्वनि अनुकरण मूलक हैं ।
भ्रमर का और ब्राह्मण का स्वभाव समान होने से ही यह समान उच्चारण मूलक है ।
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( पुरोहित ) शब्द का यूरोपीय भाषा में स्वरूप:---
ग्रीक भविष्यवक्ताओं (डोरिक प्रॉपहेत ) से, "जो व्यक्ति ईश्वर के लिए बोलता है, वह व्यक्ति जो भविष्यवाणी करता है, प्रेरित प्रचारक," पुरानी फ्रांसीसी भविष्यवाणियों से, "भविष्यद्वक्ता, सोथशेयर" (११वीं सदी आधुनिक फ्रेंच प्रोफेट) ) "एक व्याख्याता, प्रवक्ता," विशेष रूप से देवताओं से प्रेरित, प्रेरित प्रेरक या शिक्षक, "समर्थक से पहले" भारोपीयमूल धातु * प्रति - (1) "आगे," इसलिए "सामने, पहले") + धातु  फैनई  "बोलने के लिए", मूल रूप (भा ) -  "बोलने, बताने, से सम्बद्ध है"
यूनानी शब्द का उपयोग हिब्रू नबी के लिए सेप्ट्यूएजिंट में किया गया था "सोधेयय।" प्रारम्भिक लैटिन लेखकों ने लैटिन वाल्टों के साथ ग्रीक भविष्यवक्ताओं का अनुवाद किया था, लेकिन लैटिनिज़ किए गए फार्म का भविष्यकाल शास्त्रीय कालों में मुख्यतः ईसाई लेखकों के कारण होता है, संभवतः क्योंकि vates के बुतपरस्त संगठनों की वजह से। अंग्रेजी में, "ओल्ड टेस्टामेंट के भविष्यवाणकर्ता लेखक" 14 वीं सदी के अंत से है।
गैर-धार्मिक भावना 1848 से है; 1610 के दशक में मुहम्मद का प्रयोग (अरबी अल-नबीय का अनुवाद, और कभी-कभी अल-रसूल, ठीक से "दूत")।
पुरानी अंग्रेजी में विग्गा द्वारा लैटिन शब्द को ग्लॉसिड किया गया है।.…....
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prophet (noun.)
late 12c., "person who speaks for God; one who foretells, inspired preacher," from Old French prophete, profete "prophet, soothsayer" (11c., Modern French prophète) and directly from Latin propheta, from Greek prophetes (Doric prophatas) "an interpreter, spokesman," especially of the gods, "inspired preacher or teacher," from pro "before" (from PIE root *per- (1) "forward," hence "in front of, before") + root of phanai "to speak," from PIE root *bha- (2) "to speak, tell, say."
The Greek word was used in Septuagint for Hebrew nabj "soothsayer." Early Latin writers translated Greek prophetes with Latin vates, but the Latinized form propheta predominated in post-Classical times, chiefly due to Christian writers, probably because of pagan associations of vates. In English, meaning "prophetic writer of the Old Testament" is from late 14c. Non-religious sense is from 1848; used of Muhammad from 1610s (translating Arabic al-nabiy, and sometimes also al-rasul, properly "the messenger"). The Latin word is glossed in Old English by witga......
ब्राह्मण शब्द का मूल अर्थ है :--- भ्रमर के मन्त्रों का निरन्तर वाचन करते रहने वाला ।
अब विचार करते हैं ब्राह्मण कहाँ से आये भू-मध्य-रेखीय देश भारत में , और कहँ था इनका वास्तविक आवास ---- यादव योगेश कुमार 'रोहि' गवेषणाओं के आधार पर सूत्रात्मक विश्लेषण---
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स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य....
· 🌓⚡⛅............स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य .....यथार्थ के धरा तल पर प्रतिष्ठित एक आधुनिक शोध है |
...🌓⚡⛅...........................................….......
आज से दश सहस्र ( दस हज़ार )वर्ष पूर्व मानव सभ्यता की व्यवस्थित संस्था आर्य जनजाति का प्रस्थान स्वर्ग से भू- मध्य रेखीय स्थल अर्थात् आधुनिक भारत में हुआ था |
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यद्यपि अवान्तर यात्रा काल में सुमेरियन तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों से भी साक्षात्कार किया ।
यह समय ई०पू० २५०० से प्रारम्भ होकर ई०पू० १५०० के समकक्ष है।
परन्तु अपनी प्रारम्भिक स्मृतियों को ये सँजोए रखे ।
स्वर्ग और नरक की धारणाऐं सुमेरियन संस्कृति में शियोल और नरगल के रूप में अवशिष्ट रहीं ,
सुमेरियन लोगों ने शियॉल नाम से एक काल्पनिक लोक की कल्पना की थी ।
जहाँ मृत्यु के बाद आत्माऐं जाती हैं ।
और शियोल स्वर्ग जैसी ही था ।
हमारा वर्ण्य- विषय भी  विशेषत: स्वर्ग और नरक ही है
.......यह तथ्य अपने आप में यथार्थ होते हुए भी रूढ़िवादी जन समुदाय की चेतनाओं में समायोजित होना कठिन है !!
फिर भी प्रमाणों के द्वारा इस तथ्य को सिद्ध किया गया है ! यह नवीन शोध .....📚📘📝📖..... यादव योगेश कुमार रोहि की दीर्घ कालिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साधनाओं का परिणाम है .
विश्व इतिहास में यह अब तक का सबसे नवीनत्तम और अद्भुत शोध है !!!
निश्चित रूप से रूढ़िवादी जगत् के लिए यह शोध एक बबण्डर सिद्ध होगा , एेसा हमारा विश्वास है ।
बुद्धि जीवीयों तक यह सन्देश न पहँच पाए इस हेतु के लिए अनिष्ट कारी शक्तियों ने अनेक विघ्न उत्पन्न भी किए हैं । तीन वार यह विघ्न उत्पन्न हुआ है ! पूरा सन्देश डिलीट कर दिया गया है परन्तु वह कारक अज्ञात ही था जिसके द्वारा यह संदेश नष्ट किया गया था ,फिर भी ईश्वर की कृपा निरन्तर बनी रही .।
.........आर्य संस्कृति का प्रादुर्भाव देवों अथवा स्वरों { सुरों} से हुआ है | ये भारतीय संस्कृति की चिर-प्रचीन उद्घोषणा है ।
यह भारतीय संस्कृति की दृढ़ मान्यता है ,कि  सुर { स्वर } जिस स्थान { रज} पर पर रहते थे उसे ही स्वर्ग कहा गया है --- "स्वरा: सुरा:वा राजन्ते यस्मिन् देशे तद् स्वर्गम् कथ्यते ".
...जहाँ छःमहीने का दिन और छःमहीने की दीर्घ कालिक दिन और रातें होती हैं वास्तव में आधुनिक समय में यह स्थान स्वीडन { Sweden} है ।
जो उत्तरी ध्रुव पर हैमर पाष्ट के समीप है , प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन को ही स्वरगे { Svirge } कहा है ..🌓⛅🌓⛅🌑🌚🌝.
भारतीय आर्यों को इतना स्मरण था । कि उनके पूर्वज सुर { देव} उत्तरी ध्रुव के समीप स्वेरिगी में रहते थे, इस तथ्य के भारतीय सन्दर्भ भी विद्यमान् हैं बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में लिपि बद्ध ग्रन्थ मनु स्मृति में वर्णित है .......📖........📖📝....||
..अहो रात्रे विभजते सूर्यो मानुष देैविके !! देवे रात्र्यहनी वर्ष प्र वि भागस्तयोःपुनः || अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यात् दक्षिणायनं ------ मनु स्मृति १/६७ .........
..अर्थात् देवों और मनुष्यों के दिन रात का विभाग सूर्य करता है , मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन रात होता है ,अर्थात् छः मास का दिन .जब सूर्य उत्तारायण होता है ! 🌓⚡🌓⚡🌓⚡🌓⚡🌓⚡और छःमास की ही रात्रि होती है जब सूर्य दक्षिणायनहोता है ! प्रकृति का यह दृश्य केवल ध्रुव देशों में ही होता है ! वेदों का उद्धरण भी है .
......📖📝..."अस्माकं वीरा: उत्तरे भवन्ति " हमारे वीर { आर्य } उत्तर में हुए ..इतना ही नहीं भारतीय पुराणों मे वर्णन है कि ...कि स्वर्ग उत्तर दिशा में है !! वेदों में भी इस प्रकार के अनेक संकेत हैं ।
.....मा नो दीर्घा अभिनशन् तमिस्राः ऋग्वेद २/२७/१४
वैदिक काल के ऋषि उत्तरीय ध्रुव से निम्मनतर प्रदेश बाल्टिक सागर के तटों पर अधिवास कर रहे थे , उस समय का यह वर्णन है ।
......कि लम्बी रातें हम्हें अभिभूत न करें
वैदिक पुरोहित भय भीत रहते थे, कि प्रातः काल होगा भी अथवा नहीं , क्यों कि रात्रियाँ छः मास तक लम्बी रहती थीं 🌓⚡🌓⚡..रात्रि र्वै चित्र वसुख्युष्ट़इ्यै वा एतस्यै पुरा ब्राह्मणा अभैषुः --- तैत्तीरीय संहित्ता १ ,५, ७, ५ अर्थात् चित्र वसु रात्रि है अतः ब्राह्मण भयभीत है कि सुबह ( व्युष्टि ) न होगी !!! आशंका है . .......
ध्यातव्य है कि ध्रुव बिन्दुओं पर ही दिन रात क्रमशः छः छः महीने के होते है | परन्तु उत्तरीय ध्रुव से नीचे क्रमशः चलने पर भू - मध्य रेखा पर्यन्त स्थान भेद से दिन रात की अवधि में भी भेद हो जाता है ।
. और यह अन्तर चौबीस घण्टे से लेकर छः छः महीने का हो जाता है |
...... अग्नि और सूर्य की महिमा आर्यों को उत्तरीय ध्रुव के शीत प्रदेशों में ही हो गयी थी "
..अतः अग्नि -अनुष्ठान वैदिक सांस्कृतिक परम्पराओं का अनिवार्यतः अंग बन गया
.जो धार्मिक सांस्कृतिक परम्पराओं के द्वारा यज्ञ के रूप में रूढ़ हो गया है ...
.अग्निम् ईडे पुरोहितम् यज्ञस्य देवम् ऋतुज्यं होतारं रत्नधातव  ...ऋग्वेद १/१/१ ........
सम्पूर्ण ऋग्वेद में अग्नि के लिए २००सूक्त हैं ।
अग्नि और वस्त्र आर्यों की अनिवार्य आवश्यकताएें थी |
वास्तव में तीन लोकों का तात्पर्य पृथ्वी के तीन रूपों से ही था |
उत्तरीय ध्रुव उच्चत्तम स्थान होने से स्वर्ग है !
जैसा कि जर्मन आर्यों की मान्यता थी ।
.....उन्होंने स्वेरिकी या स्वेरिगी को अपने पूर्वजों का प्रस्थान बिन्दु माना ।
यह स्थान आधुनिक स्वीडन { Sweden} ही था |
प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन का ही प्राचीन नाम स्वेरिगे { Sverige } है !
यह स्वेरिगे Sverige .} देव संस्कृति का आदिम स्थल था,  वास्तव में स्वेरिगे (Sverige )..शब्द के नाम करण का कारण भी उत्तर- पश्चिम जर्मनीय आर्यों की स्वीअर { Sviar } नामकी जन जाति थी ।
विदित हो कि वाल्मीकि-रामायण मे सुर शब्द की व्युत्पत्ति भी यूरोपीय स्वीअर जर्मनिक जन-जातियाँ की संस्कृति से प्रेरित है ।
" सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा: इति अभिश्रुता:
🌋
.अतः स्वेरिगे शब्द की व्युत्पत्ति भी सटीक है Sverige is The region of sviar ....This is still the formal Names for Sweden in old Swedish Language..Etymological form ....Svea ( स्वः + Rike - Region रीजन अर्थात् रज = स्थान .. तथा शासन क्षेत्र | संस्कृत तथा ग्रीक /लैटिन शब्द लोक के समानार्थक है ....... "रज् प्रकाशने अनुशासने च"पुरानी नॉर्स Risa गौथ भाषा में Reisan अंग्रेजी Rise .. पाणिनीय धातु पाठ .देखें ...लैटिन फ्रेंच तथा जर्मन वर्ग की भाषाओं में लैटिन ...Regere = To rule अनुशासन करना ..इसी का present perfect रूप Regens ,तथ regentis आदि हैं Regence = goverment राज प्रणाली .. जर्मनी भाषा में Rice तथा reich रूप हैं !! पुरानी फ्रेंच में Regne .,reign लैटिन रूप Regnum = to rule ..... संस्कृत लोक शब्द लैटिन फ्रेंच आदि में Locus के रूप में है जिसका अर्थ होता है प्रकाश और स्थान ..तात्पर्य स्वर अथवा सुरों ( आर्यों ) का राज ( अनुशासन क्षेत्र ) ही स्वर्ग स्वः रज ..समाक्षर लोप से सान्धिक रूप हुआ स्वर्ग ..🌓⚡🌓⚡⛅🌝🌝🌝🌝🌝🌝स्वर्ग उत्तरीय ध्रुव पर स्थित पृथ्वी का वह उच्चत्तम भू - भाग है जहाँ छःमास का दिन और छःमास की दीर्घ रात्रियाँ होती हैं भौगोलिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो गया है दिन रात की एसी दीर्घ आवृत्तियाँ केवल ध्रुवों पर ही होती हैं इसका कारण पृथ्वी अपने अक्ष ( धुरी ) पर २३ १/२ ° अर्थात् तैईस सही एक बट्टे दो डिग्री अंश दक्षिणी शिरे पर झुकी हुई है | अतः उत्तरीय शिरे पर उतनी ही उठी हुई है ! और भू- मध्य स्थल दौनो शिरों के मध्य में है ..पृथ्वी अण्डाकार रूप में सूर्य का परिक्रमण करती है जो ऋतुओं के परिवर्तन का कारण है अस्तु ..स्वर्ग को ही संस्कृत के श्रेण्य साहित्य में पुरुः और ध्रुवम् भी कहा है पुरुः शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय शब्द है ********** जिसका ग्रीक / तथा लैटिन भाषाओं में Pole रूप प्रस्तावित है ** पॉल का अर्थ हीवेन Heaven या Sky है Heaven = to heave उत्थान करना उपर चढ़ना ।
संस्कृत भाषा में भी उत्तर शब्द यथावत है जिसका मूल अर्थ है अधिक ऊपर।

Utter-- Extreme = अन्तिम उच्चत्तम विन्दु ।
अपने प्रारम्भिक प्रवास में स्वीडन ग्रीन लेण्ड ( स्वेरिगे ) आदि स्थलों परआर्य लोग बसे हुए थे । , यूरोपीय भाषा में भी इसी अर्थ को ध्वनित करता है ।

हम बताऐं की नरक भी यहीं स्वीलेण्ड ( स्वर्ग) के दक्षिण में स्थित था ।----------
Narke ( Swedish pronunciation) is a swedish traditional province or landskap situated in Sviar-land in south central ...sweden
  नरक शब्द नॉर्स के पुराने शब्द नार( Nar )
से निकला है, जिसका अर्थ होता है - संकीर्ण अथवा तंग narrow
  ग्रीक भाषा में नारके Narke तथा narcotic जैसे शब्दों का विकास हुआ ।
ग्रीक भाषा में नारके Narke शब्द का अर्थ जड़ ,सुन्न ( Numbness, deadness
   है ।
संस्कृत भाषा में नड् नल् तथा नर् जैसे शब्दों का मूल अर्थ बाँधना या जकड़ना है ।
इन्हीं से संस्कृत का नार शब्द जल के अर्थ में विकसित हुआ ।
संस्कृत धातु- पाठ में नी तथा  नृ धातुऐं हैं  आगे ले जाने के अर्थ में - नये ( आगे ले जाना ) नरयति / नीयते वा इस रूप में है ।
अर्थात् गतिशीलता जल का गुण है ।
   उत्तर दिशा के वाचक  नॉर्थ शब्द नार मूलक ही है
क्योंकि यह दिशा हिम और जल से युक्त है ।
भारोपीय धातु स्नर्ग   *(s)nerg- To turn, twist
अर्थात् बाँधना या लपेटना से  भी सम्बद्ध माना जाता है
परन्तु जकड़ना बाँधना ये सब शीत की गुण क्रियाऐं हैं ।

अत: संस्कृत में नरक शब्द यहाँ से आया और इसका अर्थ है --- वह स्थान जहाँ जीवन की चेतनाऐं जड़ता को प्राप्त करती हैं ।
    वही स्थान नरक है ।
निश्चित रूप से नरक स्वर्ग ( स्वीलेण्ड)या  स्वीडन के दक्षिण में स्थित था !
स्वर्ग का और नरक का वर्णन तो हमने कर दिया
परन्तु भारतीय संस्कृति में जिसे स्वर्ग का अधिपति
माना गया उस इन्द्र का वर्णन न किया जाए तो
  पाठक- गण हमारे शोध को कल्पनाओं की उड़ान
और निर् धार ही मानेंगे ----
अत: हम आपको ऐसी अवसर ही प्रदान नहीं करेंगे
_________"___
    
यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को एण्ड्रीज (Andreas)
रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था ।
  रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था ।
       ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus)
के नाम से एण्ड्रीज  प्रायद्वीप का नामकरण हुआ ..जो अपॉलो का पुजारी था ।
परन्तु पूर्व कथन सत्य है ।
ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द  का अर्थ
शक्ति-शाली  पुरुष है ।
जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner)
शब्द से हुई है ।
जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है।
संस्कृत भाषा में अन् श्वसने प्राणेषु च
के रूप में धातु विद्यमान है ।जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ...
कालान्तरण में संस्कृत भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ....
वेल्स भाषा में भी नर  व्यक्ति का वाचक है ।
फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।
परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है ।
  वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है ।
जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा ( Abarta )
कहा है ।
जो दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है ।
  इन्द्रस् आर्यों का नायक अथवा वीर यौद्धा था ।
भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है ।

शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के
सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु
       का पुत्र कहा है ।
जिसे इन्द्र मारता है ।
ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं ।
यद्यपि कालान्तरण मे आर्यों अथवा सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ...

       अत: कालान्तरण में भी  जब आर्य भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी ...
जो भारत नाम का कारण बना ...
इन से आर्यों को युद्ध करना पड़ा ...
     भारत में भी यूरोप से आगत आर्यों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है ।
और नरक दक्षिण में है । स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ...
और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं
यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ..
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है ।
    यमीर यम ही है ।
हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है
यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim)
शब्द हिम के लिए यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir)
Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river ......
earth  from  his flesh and  from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair  the trees  from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives"
_________________________________________
                         (Norse mythology prose adda)
    अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है।

यह हिम नद से उत्पन्न ,  नदी और समुद्र का अधिपति हो गया ।
पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग  जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए ...
    ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी ।
वहाँ यम को यम रूप में ही ..नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
     जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया
उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में ...
जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है,
यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी ।
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाएें करते रहे .पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं आर्यों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था ।
आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ..*********🐌🌠🌚🌝मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् Mannus कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे !
मेन्नुस mannus थौथा (त्वष्टा)--- (Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस

(tacitus) के अनुसार----
Tacitus wrote that mannus was the son of  tuisto and
The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones ....

________________________________________
    in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god  brought forth from the earth they attributeto him a son mannus, the  source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some  people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations-
Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania
_________________________.    Chapter 2
  ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है ।
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था
जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch)
था ।
जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव पर आधारित है ।
टेकिटिस लिखता है , कि
Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples......

   ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में
   *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto---
The Core meaning -- double
अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ
   द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया
यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था ।
इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में ..
मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth)  अथवा  tehoti ,Djeheuty कहा गया
जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था ।
_________________________________________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l
जो देवता जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे ।
यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए *********** इन्हीं की उपशाखाएें वेल्स wels केल्ट celt तथा ब्रिटॉन Briton के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र ** का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है जो थौथा thuatha (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी । वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित  है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।
जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं
एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों

और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।
क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है ।
यूरोपीय
लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है ।
.......

बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ ।
आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ...भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है ।
और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।
भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के एेंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था ।
और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।
     इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है ।
  दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी
      जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे।
जिसके नाम से भारत शब्द बना।

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    प्रस्तुत शोध ---
            योगेश कुमार रोहि के द्वारा
   प्रमाणित श्रृंखलाओं पर आधारित है !
अत: इनसे सम्पर्क करने के लिए ...
   सम्पर्क - सूत्र ----8077160219 ...

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