बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

राम एक ऐतिहासिक विवरण :---- विवेचक यादव योगेश कुमार 'रोहि'

(राम एक इतिहास )
राम के जीवन को सदियों से भारतीय ही नहीं , अपितु  माया आदि अन्य देशों की संस्कृति में भी आदर्श और पवित्र माना जाता हैं | राम शब्द हमारे अभिवादन के रूप मे समाचरित हो चुका है ।
भारतीय परम्पराओं में जीवन यात्रा का अन्तिम  विदाई शब्द राम राम शब्दावृत्ति के रूप में रूढ़ हो गया है  ।
राम उस निराकार ब्रह्म का भी वाचक शब्द है ;जो सर्वत्र व्याप्त  है।. (रमते इति ।  रम् + अण् ।  रम्यतेऽनेन सम्पूर्णेषु चराचरेषु ।
(रम् + घञ् वा  ) १:- मनोज्ञः (यथा   बृहत्संहितायाम् ।  १९ / ५  “ गावः प्रभूतपयसो नयनाभिरामा रामा रतैरविरतं रमयन्ति रामान् “ ) सितः ,असितः  इति मेदिनी कोश    २७ ॥
(रम--कर्त्तरि घञ् अण् वा ):---अर्थात् रम् धातु में कर्ता के अर्थ में अण् अथवा घञ् प्रत्यय करने पर राम:  शब्द बनता है ।
संस्कृत साहित्य में राम शब्द इन मानवों के नामीय रूप में रूढ़ है :---जो पौराणिक कथाओं में प्रसिद्ध रहे हैं ।
देखें---
१ परशुरामे २ दशरथ- ज्येष्ठपुत्रे श्रीरामे ३ बलरामे च “भार्गवो राघवो गोपस्त्रयो रामाः पकीर्त्तिता”
अग्नि सर्वत्र व्याप्त है अत: राम शब्द अग्नि का भी वाचक है ।
वह्नि:--- पु० रामशब्द- निरुक्तिः “रापब्दा विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः “विश्वानाधीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकोर्त्तित” ब्रह्मवैवर्त जन्म खण्ड ११० अध्याय
४ मनोहरे ५ सिते ६ असिते च त्रि० मेदिनी कोश
मेदिनी संस्कृत भाषा के कोश में
राम का अर्थ १- सुन्दर २- श्वेत ३- अश्वेत अर्थ भी है । ७ वास्तूकशाके ८ कुष्ठे (कुड़) न० मेदिनी कोश
तमालपत्रे न०  ।
रम् :-- क्रीडायाम् आत्मने पदीय व परस्मैपदीय दौनों क्रिया रूप
 अनुदात्तोऽनुदात्तेत् ( रमते रेमे रेमिषे रेमिध्वे ) क्रादिनियमादिट् ( रन्ता रंस्यते रमताम् अरमत रमेत रंसीष्ट अरंस्त रिरंसते रंरम्यते रंरन्ति ररंतः )
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प्रकृतिग्रहणन्यायेन "अनुदात्तोपदेश'' इत्यनुनासिकलोपः (रंरंसि रंरणिम रंरण्मः) "म्वोश्च''इति न्त्वेणत्वम् (रंरहीत्यत्र) अनुसासिकलोपस्यासिद्धत्वात् "अतो हेः'' इति लुङ् न भवति (अरंरन्) "मो नो धातोः'' इति नत्वम् ( रमयति अरीरमद् विरमति आरमति परिरमति ) "व्याङ्परिभ्यो रमः'' इति परस्मैपदम् (उपरमति) "उपाच्च'' इति परस्मैपदम्, इदं सकर्मकविषयम् अकर्मकत्वे ( उपरमति उपरमते ) "विभाषाकर्मकात्'' इति विकल्पस्योक्तत्वात् अन्तर्भावितण्यर्थोऽयं सकर्मकः ( विरराम विरेमतुः विरेमिथ विररन्थ ) थलि उपदेशेत्वतःइति उपदेशेत्वतस्तासौ नित्यानिटस्थलीणनिषेधेपि इह भारद्वाजनियमादिट् पक्षे न भवति लुङि यमरमनमातां सक् चइति परस्मैपदपरे सक् सिचश्चेट् "इट ईटि'' इति सिज्लोपः (व्यरंसीत् व्यरंसिष्टाम् रमः रामः ) "ज्वलितिकसन्तेभ्योणः'' इति णः मातन्त्वेपुदात्तोदेपशत्वात् वृद्धिनिषेधाभावः ( रमणः ) नन्द्यादित्वात् ण्यन्ताल्लुः ( स्तम्बेरमः ) स्तम्बकर्णयोरमिजपोःइति स्म्ब उपपदेच् प्रत्ययः हस्तिसूचकयोःइति वचनात् हस्तिविषयश्वायम् "तत्पुरुषे कृति'' इति सप्तम्या अलुक् ( रन्तिः ) "नक्तिचि दीर्घश्च'' इति दीघांनुनासिकलोपनिषेधः अयमुदिदिति के चित् त्क्कायामिङ्विकल्पमुदाहरन्ति तन्महान्तो न सहन्ते ( रत्नम् ) "रमेस्तश्च'' इति
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नप्रत्ययस्ताकरश्चान्तादेशः ( रमतिः स्वर्गः) "रमेर्नित्''इत्यतिप्रत्ययः (सुरतः कामः) "सौ रमे क्तः''इतिक्तः ( रमतः कृपावान् ) "रमेः पूर्वपदस्य च दीर्घः'' इति क्ते पूर्वपदस्य दीर्घः ( रथः ) "हनिकुषि'' इत्यादिना थन् ( रथ्या रथकट्या ) खलगोरथात्इनित्रकठ्यवश्चइति यत्कठ्यचौ "तस्य समूहः'' इति विषये स्वभावात् स्त्रीलिङ्गता रथस्येदं ( रथ्यम् ) रथाद्यत्"तस्येदं''विषये यत् अत्र वृत्तौ रथाङ्ग एवेष्येते इति [ रथसीताहलेभ्यो यद्विधौ तदन्तविधिः ] इत्युक्तत्वात् ( परमरथ्यम् ) इत्याद्यपि भवति ( आश्वरथम् ) पत्रपूर्वादञ्इति वाहनवाविचपूर्वपदात् रथान्तात् अञ् यतोपवादः अयमपि रथाङ्ग एवेष्यते रथं वहति ( रथ्यः ) तद्वहति रथयुगप्रासङ्गात्इति द्वितीयान्तात् वहतीत्यर्थे यत् ( रथाय हिता रथ्या) खलयवमाषतिलवृषब्रह्मणश्चइति चकारस्यानुसमुच्चयार्थत्वात् वतुर्थ्यन्ताद्धितार्थे यत वामरथस्यापत्यं (वामरथ्यम्) "कुवांदिभ्योण्यः''इति ण्यः, तत्र'वामरथस्य कण्वादिवत् स्वरवर्जम्'इति पठ्यते तस्यायमर्थः वामरथ्यशब्दस्य गर्गाद्यन्तर्गतस्य यङ्तस्य काण्वादेर्यञकार्यं तद्भवति स्वरं वर्जयित्वेति, तेन "यञञोश्च'' इति गोत्रबहुत्वे विधीयमानो लुगस्यापि भवति ( वामरथा इति ) तथत्रायं "प्राचां ष्फ तद्धितः'' इति स्त्रियां विधीयमानो ङीष्फश्चास्यापि भवतः ( वामरय्यः वामरथ्यायनी ) ष्फस्य षित्त्वान् ङीष् "हलस्तद्धितस्य'' इति यलोपः "यस्येति च'' इत्यलोपः तथा यूनि "यञञोश्च'' इति विधीयमानष्फगत्रापि भवति ( वामरथ्यायन ) इति "आत्यस्य'' इति यलोपस्तत्रैव अनातीति निषेधान्न भवतीति तथा सङ्घङ्कलक्षणेष्वञ्यञिञामण्इति यञन्तात् सङ्घाङ्कलक्षणेषु विधीयमानोऽण् अस्मादपि भवति ( वामरथानि ) सङ्घाङ्करणानीति तत्र घोषग्रहणं चोदितं तेन (वामरथोघोषः) इत्यपि भवति "आपत्यस्य'' इति यलोपः तथा कण्वादिभ्यो गोत्रेइति गोत्रापत्यवाचिभ्यः कण्वादिभ्यो विधीयमानोण् अस्मादपि भवति (वामरथाः छात्राःस्व्रवर्जमित्युक्तत्वात् "ञिनित्यादिर्नित्यम्'' इति प्रकृतेराद्यदात्तत्वं न भवति, प्रत्ययस्वर एव भवति ।
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राम के चरित्र और नाम रूप की इतनी अर्थ व्यापकता होने पर भी -
कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री राम पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं।
वाल्मीकि-रामायण में यह उत्तर- काण्ड का प्रकरण
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने शूद्रों को लक्ष्य करके यह मनगढ़न्त रूप  से  राम-कथा से सम्बद्ध कर दिया ---
ताकि लोक में इसे सत्य माना जाय  !
इतनी ही नहीं वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग ३४ वें श्लोक में जावालि ऋषि के साथ सम्वाद रूप में राम के मुख से बुद्ध को चौर तथा नास्तिक कहलवाया गया देखें---
वाल्मीकि-रामायण अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक--
यथा ही चौर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि -
परन्तु राम एक ऐतिहासिक चरित्र हैं |
संसार में अब तक ३०० रामायण की कथाएें लिखी जा चुकी हैं ।
वेदों में राम का वर्णन है ।
वेद में श्रीरामोपासना की प्राचीनता बतायी गयी है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों से १५५ मन्त्रों, एक मन्त्र वाजसनेयी संहिता से तथा एक अन्यत्र संहिता से लेकर, नीलकण्ठ-सूरि ने ’मन्त्ररामायण’ नामक एक प्रख्यात रचना की थी ।
जिस पर’मन्त्ररहस्य-प्रकाशिका’ नामक स्वोपज्ञ व्याख्या भी की थी। इससे प्रमाणित होता है कि सृष्टि के प्राचीन काल से ही श्रीरामोपासना सतत चली आ रही है। अब इस रामोपासना की अविच्छिन्नता पर विचार करते हैं। उपनिषदों में भी श्रीराम-मन्त्र का वर्णन आया है।
श्रीरामतापिनी उपनिषद की चतुर्थ कण्डिका-
श्रीरामस्यमनुंकाश्यांजजापवृषभध्वजः। मन्वन्तरसहस्रैस्तुजपहोमार्चनादिभिः॥
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के तृतीय सूक्त के तृतीय ऋचा में राम कथा का विवरण है :---
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥
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(ऋग्वेद १०।३।३)
भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होकर (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में  )जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आया था (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ( अर्थात स्वयं सीता माँ अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम जी के कहे अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि) हीं शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) |
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काशी में श्रीराममन्त्र को शिवजी ने जपा, तब भगवान् श्रीरामचन्द्र प्रसन्न होकर बोले:-
“वेत्तोवाब्रह्मणोवापियेलभन्तेषडक्षरम्।जीवन्तोमन्त्रसिद्धाःस्युर्मुक्तामांप्राप्नुवन्तिते॥
-रा. ता. उ. ।४।७॥“
अर्थात्- हे शिवजी! आप से या ब्रह्मा से जो कोई षडक्षर-मन्त्र को लेंगे, वे मेरे धाम को प्राप्त होंगे। पुराणों,पाञ्चरात्रादि ग्रन्थों में भी रामोपासना का विधिवत् वर्णन पाया जाता है। अगस्त्यसंहिता, जो रामोपासना का प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, के १९ वें अध्याय तथा २५ वें अध्याय में भी रामोपासना का वर्णन पाया जाता है। बृहद्ब्रह्मसंहिता के द्वितीय पाद अध्याय ७, पद्म पुराण उत्तर खण्ड अध्याय २३५ तथा बृहन्नारदीयपुराण पूर्व भाग के अध्याय ३७ से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामोपासना तीनों युगों में होती आयी है। इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ वाक्यों का अब हम सिंहावलोकन करते हैं। महारामायण (और ऐसे और भी ग्रन्थों में) तो स्पष्टतः- श्रीरामजी ही स्वयं भगवान् हैं ऐसा कहा है:-
भरणःपोषणाधारःशरण्यःसर्वव्यापकः।करुणःषड्गुणैःपूर्णोरामस्तुभगवान्स्वयं॥
-(महारामायण)”
इसी सन्दर्भ में याज्ञवल्क्य संहिता की यह पंक्ति भी उल्लेखनीय है:-
पूर्णःपूर्णावतारश्चश्यामोरामोरघूत्तमः।अंशानृसिंहकृष्णाद्याराघवोभगवान्स्वयं॥
-(याज्ञवल्क्यसं., ब्रह्मसंहिता)
पुराणों में तिलक स्वरूप श्रीमद्भागवतम् में इस से सम्बद्ध कुछेक प्रसङ्ग देखें:-
किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैरविरतभक्तिरुपास्ते ॥
-(श्रीमद्भा. ५।१९।१॥)
(अर्थात्, किम्पुरुष वर्ष में श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्री रामजी के चरणों की सन्निधि के रसिक परम भागवत हनुमान् जी अन्य किन्नरों के साथ अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं।) आगे श्री शुकाचार्यमहाराज श्रीरामजी को परब्रह्म तथा सबसे परे मानते हुए छः बार ’नमः’ शब्द (षडैश्वर्य युक्त सूचित करते हुए) एवं नौ विशेषणों का प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि भगवान् श्री राम पूर्ण ब्रह्म हैं:-
ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति ॥
-(श्रीमद्भा. ०५.१९.००३ ॥)
और आगे तो कह ही दिया –
“सीतापतिर्जयतिलोकमलघ्नकीर्तिः (श्रीमद्भा. ११।४।२१)” ।
इतना ही नहीं। योगीश्वर करभाजन राजा निमि को यह बताते हैं कि कलियुग में भगवान् की स्तुति इस प्रकार करते हैं-
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् । भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३३ ॥)
त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् । मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद् वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्
– (श्रीमद्भा. ११.०५.०३४ ॥)
(अर्थात्, प्रभो आप शरणागत रक्षक हैं।
आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान-करने योग्य, माया-मोहादि से उत्पन्न सांसारिक पराजयों को समाप्त करने वाले, तथा भक्तों को समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाले कामधेनु स्वरूप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले स्वयं तीर्थ स्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिए जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। भगवन्! पिताजी के वचनों से देवताओं द्वारा वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण कमलवन-वन घूमते रहे। आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। हे महापुरुष! अपनी प्रेयसी के चाहने पर जान-बूझकर मायामृग के पीछे दौड़्ते रहे।प्रभो! मैं आपकी उन्हीं चरणों की वन्दना करता हूँ।) ध्यातव्य है कि यह ध्यान किसी और का नहीं वरन् अशरण-शरण सीता पति भगवान् राम का है। अर्थात् भागवतकार का स्पष्ट निर्देश है कि कलियुग में तो केवल भगवान् श्री राम की ही स्तुति वाञ्छनीय है। पद्मपुराण में पार्वतीजी शिवजी से यह प्रश्न विष्णोःसहस्रनामैतत्प्रत्यहंवृषभध्वज ।नाम्नैकेनतुयेनस्यात्तत्फलंब्रूहिमेप्रभो ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३०)
तो महादेवजी का उत्तर है-
रामरामेतिरामेतिरमेरामेमनोरमे ।सहस्रनामतत्तुल्यंरामनामवरानने ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड ७१।३३१, २५४।२२)
स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? तो इसका भी उत्तर पद्म-पुराण में ही है-
विष्णोरेकैकनामैवसर्ववेदाधिकंमतम् ।तादृङ्नामसहस्राणिरामनामसमानिच ॥ यत्फलंसर्ववेदानांमंत्राणांजपतःप्रिये ।तत्फलंकोटिगुणितंरामनाम्नैवलभ्यते ॥
– (पद्मपु. उत्तरखण्ड२५४।२७-२८)
अर्थात्, श्रीविष्णुभगवान् के एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक माहात्म्यशाली माना गया है।ऐसे एक सहस्रनामों के तुल्य रामनाम के समान है। हे प्रिये (पार्वती)! समस्त वेदों और सम्पूर्ण मन्त्रों के जप का जो फल प्राप्त होता है, उसके अपेक्षा कोटि गुणित फल रामनाम से ही प्राप्त हो जाता है। नारद पुराण तो यहाँ तक कहता है किसी भी मन्त्रों (गाणपत्य, सौर, शाक्त, शैव एवं वैष्णव) में वैष्णव मन्त्र श्रेष्ठ है। और वैष्णव-मन्त्रों से भी राम-मन्त्र का फल अधिक है। तथा गाणपत्यादि मन्त्रों से तो कोटि-कोटि गुणा अधिक है। और सभी राममन्त्रों से भी श्रेष्ठ है षडक्षरराम-मन्त्र :-
“अथ रामस्य मनवो वक्ष्यन्ते सिद्धिदायकाः। येषामाराधनान्मर्त्यास्तरन्ति भवसागरम् ॥ सर्वेषु मन्त्रवर्येषु श्रेष्ठं वैष्णवमुच्यते ।गाणपत्येषु सौरेषु शाक्तशैवेष्वभीष्टदम् ॥ वैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः। गाणपत्यादिमन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥ विष्णुशय्यास्थितो वह्निरिन्दुभूषितमस्तकः ।रामाय हृदयान्तोऽय महाघौघविनाशनः ॥ सर्वेषु राममन्त्रेषु ह्यतिश्रेष्ठः षडक्षरः ।ब्रह्महत्या सहस्राणि ज्ञाताज्ञातकृतानि च ॥“ – (नारदपुराण।पूर्वभाग।तृतीयपाद।अध्याय ७३।१-५)
पद्म-पुराण और राम-रक्षास्तोत्र भी इस तथ्य पर अपनी सहमति इस प्रकार देते हैं:-
“श्रीरामेतिपरंजाप्यंतारकंब्रह्मसंज्ञकम्।ब्रह्महत्यादिपापघ्नमितिवेदविदोविदुः॥“
– (रामरक्षास्तोत्र)
“षडक्षरंमहामंत्रंतारकंब्रह्मउच्यते ।येजपंतिहिमांभक्त्यातेषांमुक्तिर्नसंशयः ॥ इंदीवरदलश्यामंपद्मपत्रविलोचनम् ।शंखांगशार्ङ्गेषुधरंसर्वाभरणभूषितम् ॥ पीतवस्त्रंचतुर्बाहुंजानकीप्रियवल्लभम् ।श्रीरामायनमइत्येवमुच्चार्य्यंमन्त्रमुत्तमम् ॥ षडक्षरंमहामंत्रंरघूणांकुलबर्द्धनम् ।जपन्वैसततंदेविसदानंदसुधाप्लुतम् । सुखमात्यंतिकंब्रह्मह्यश्नामसततंशुभे ॥
-(पद्मपु. उत्तरखण्ड २३५।४३-४५,६३)”
अगस्त्यसंहिता के अनुसार-
सर्वेषामवतारीनामवतारीरघूत्तमः।रामपादनखज्योत्सनापरब्रह्मेतिगीयते॥
और वाराह संहिता तो डिम-डिम घोष कर कह रहा है –
“नारायणोऽपिरामांशःशङ्खचक्रगदाधरः॥“
भगवान् श्री राम की सर्वश्रेष्ठ-भजनीयता सतत रूप से आज भी दर्शनीय है।आद्यजगद्गुरुशंकराचार्य अपने रामभुजंगप्रयास्तोत्र में भगवान् श्री राम की श्लाघनीय स्तुति की है जनके कुछ श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं :-
“विशुद्धंपरंसच्चिदानन्दरूपंगुणाधारमाधारहीनंवरेण्यम्। महान्तंविभान्तंगुहान्तंगुणान्तंसुखान्तंस्वयंधामरामंप्रपद्ये॥१॥
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(अर्थात्, जो शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मस्वरूप हैं, सर्वथा निराधार होते हुए भी सभी गुणों के आधार हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे महान् हैं, प्रत्येक प्राणी के हॄदय-गुहा में विराजमान हैं, अनन्तानन्त गुणों की सीमा हैं और सर्वोपरि सुखस्वरूप हैं, उन स्वप्रकाश स्वरूप भगवान् श्री राम की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।)
“शिवंनित्यमेकंविभुंतारकाख्यंसुखाकारमाकारशून्यंसुमान्यम्। महेशंकलेशंसुरेशंपरेशंनरेशंनिरीशंमहीशंप्रपद्ये॥२॥”
(अर्थात्, जो परम कल्याण-स्वरूप, त्रिकाल में नित्य, सर्वसमर्थ, तारक राम के नाम से प्रसिद्ध, सुख के निधान, आकार शून्य, सर्वमान्य, ईश्वर के भी ईश्वर, सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी परन्तु उनका स्वामी कोई नहीं, सम्पूर्ण मनुष्यों के स्वामी, पृथ्वी के भी स्वामी पर उनका कोई शासक नहीं है; मैं उन भगवान् श्री राम की शरण लेता हूँ।)
“पुरःप्राञ्जलीनाञ्जनेयादिभक्तान्स्वचिन्मुद्रयाभद्रयाबोधयन्तम्। भजेऽहंभजेऽहंसदारामचन्द्रंत्वदन्यंनमन्येनमन्येनमन्ये॥७॥“
(अर्थात्, भगवान् श्री राम के समक्ष अञ्जनी नन्दन हनुमान् आदि भक्त अञ्जलि बाँधे खड़े हैं और वे उन्हें अपनी चिन्मय मुद्रा से कल्याणकारी उपदेश दे रहे हैं। मैं ऐसे भगवान् श्री रामचन्द्र का सदा बार-बार भजन करता हूँ तथा आपको छोड़कर त्रिकाल (जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति) में भी किसी अन्य को नहीं मानता। श्रीयामुनाचार्य (जो आद्यजगद्गुरुरामानुजाचार्य के रामभक्ति के वास्तविक शिक्षा-दीक्षा गुरु माने जाते हैं) ने अपने ’स्तोत्ररत्नम्’ में लिखा है :-
“ननुप्रपन्नःसकृदेवनाथतवाहमस्मीतिचयाचमानः।तवानुकम्प्यःस्मरतःप्रतिज्ञांमदेकवर्जंकिमिदंव्रतंते॥“
अर्थात्, हे नाथ आप अपनी उस प्रतिज्ञा (मैं आपका हूँ यह यह कहकर यदि कोई भी मेरी शरण में एक बार आ जाता है तो मैं उसे सभी जीवों से तात्कालिक एवम् आत्यन्तिक अभय प्रदान कर देता हूँ) का स्मरण करें तथा मुझपर अनुकम्पा कर अपना लें अन्यथा क्या यह शरणागतपालक-व्रत मुझ अकिञ्चन को छोड़कर किया गया? और तो और । अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार तो करता ही है:-
“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्। अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“
(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?) उपरोक्त शास्त्रीय सन्दर्भों के आलोक में यह स्पष्ट रूपेण प्रमाणित हो रहा है कि संप्रदाय-परम्परा से निरपेक्ष चारों युगों में द्विभुज भगवान् श्री राम की अविच्छिन्न उपासना होती रही है। तभी तो कलिपावनावतार हुलसी-हर्षवर्धन गोस्वामी तुलसीदासजी ने उद्घोषणा की-
“शम्भुविरंचिविष्णुभगवाना।उपजहिंजासुअंशतेनाना॥“
-(रामचरितमानस-१।१४४।६)
अब यदि अपने सम्प्रदाय का अभिमत देखना चाहें तो जगद्गुरुआद्यरामानन्दाचार्यजी ने अपने श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर में स्पष्टतः कहा कि:-
“द्विभुजस्यैवरामस्यसर्वशक्तेःप्रियोत्तम।ध्यानमेवविधातव्यंसदारामपरायणैः॥५९॥“
अर्थात्, हे प्रियोत्तम! श्रीराम परायणों द्वारा सर्वदा सर्वशक्तिमान् दो भुजाओं वाले श्रीराम जी का ही इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। तब यह कहने को विवश कर देता है-
दक्षिणीय अमेरिका की माया सभ्यता में राम और सीता को आज भी मेक्सिको के एजटेक समाज के लोग "रामसितवा " उत्सव के रूप में स्मरण करते हैं ,
यूरोपीय इतिहास कार व पुरातात्विक विशेषज्ञ डा०मार्टिन का विवरण है कि पूर्व से लंका मार्ग से होते हुए माया सभ्यता के लोग  मैक्सिको( दक्षि़णीय अमेरिका में बसे !
एजटेक पुरातन कथाओं में वर्णन है कि उस देश में 
प्रथम:   एक लम्बी दाढ़ी ,ऊँचे कद़ तथा श्वेत वर्ण का एक पूर्वज किसी अज्ञात स्थान से आया ।
जिसने इस देश में कृषि शिल्प तथा शिक्षा एवं संस्कृति और सभ्यता का विकास किया ।
माया पुरातन कथाओं में उस महान आत्मा का नाम  क्वेट - सालकटली है ।
क्वेट सालकटली का तादात्म्य  राम के समकालिक  श्वेत साल कटंकट से प्रस्तावित है ।
गहन काल गणना के द्वारा राम का समय ७००० हजार वर्ष पूर्व निश्चित होता है ,परन्तु रूढ़ि वादी परम्परा राम का समय ९००००० वर्ष मानती है ।
श्रीरामचन्द्र जी का काल पुराणों के अनुसार करोड़ो वर्षों पुराना हैं। हमारा आर्याव्रत देश में महाभारत युद्ध के काल के पश्चात और उसमें भी विशेष रूप से पिछले २५०० वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं जैसे ईश्वरीय वैदिक धर्म का लोप होना और मानव निर्मित मत मतान्तर का प्रकट होना जिनकी अनेक मान्यतें वेद विरुद्ध थी। ऐसा ही एक मत था वाममार्ग जिसकी मान्यता थी की माँस, मद्य, मीन आदि से ईश्वर की प्राप्ति होती हैं।
वाममार्ग के समर्थकों ने जब यह पाया की जनमानस में सबसे बड़े आदर्श श्री रामचंद्र जी हैं इसलिए जब तक उनकी अवैदिक मान्यताओं को श्री राम के जीवन से समर्थन नहीं मिलेगा तब तक उनका प्रभाव नहीं बढ़ेगा। इसलिए उन्होंने श्री राम जी के सबसे प्रमाणिक जीवन चरित वाल्मीकि रामायण में यथानुसार मिलावट आरंभ कर दी जिसका परिणाम आपके सामने हैं।
महात्मा बुद्ध के काल में इस प्रक्षिप्त भाग के विरुद्ध"दशरथ जातक" के नाम से ग्रन्थ की स्थापना करी जिसमें यह सिद्ध किया की श्री राम पूर्ण रूप से अहिंसा व्रत धारी थे और भगवान बुद्ध पिछले जन्म में राम के रूप में जन्म ले चुके थे। कहने का अर्थ यह हुआ की जो भी आया उसने श्री राम जी की अलौकिक प्रसिद्धि का सहारा लेने का प्रयास लेकर अपनी अपनी मान्यताओं का प्रचार करने का पूर्ण प्रयास किया।
यही से प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना आरंभ हुई।
इस लेख को हम तीन भागों में विभाजित कर अपने विषय को ग्रहण करने का प्रयास करेगे।
१. वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग
२. रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी
३. वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी
वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग
इस समय देश में वाल्मीकि रामायण की जो भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं वह सब की सब दो मुख्य प्रतियों से निकली हैं। एक हैं बंग देश में मिलने वाली प्रति जिसके अन्दर बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध ६ कांड हैं और कूल सर्ग ५५७ और श्लोक संख्या १९७९३ हैं जबकि दूसरी प्रति बम्बई प्रान्त से मिलती हैं जिसमें बाल, अयोध्या,अरण्यक,किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध इन ६ कांड के अलावा एक और उत्तर कांड हैं, कूल सर्ग ६५० और श्लोक संख्या २२४५२८ हैं।
दोनों प्रतियों में पाठ भेद होने का कारण सम्पूर्ण उत्तर कांड का प्रक्षिप्त होना, कई सर्गों का प्रक्षिप्त होना हैं एवं कई श्लोकों का प्रक्षिप्त होना हैं।
प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार के हैं
१. वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल:- जैसे वेदों में माँस खाने की मनाही हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोक माँस भक्षण का समर्थन करते हैं अत: वह प्रक्षिप्त हैं।
२. श्री रामचंद्र जी के काल में वाममार्ग आदि का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए वाममार्ग की जितनी भी मान्यताएँ हैं , उनका वाल्मीकि रामायण में होना प्रक्षिप्त हैं।
३. ईश्वर का बनाया हुआ सृष्टि नियम आदि से लेकर अंत तक एक समान हैं इसलिए सृष्टि नियम के विरुद्ध जो भी मान्यताएँ हैं वे भी प्रक्षिप्त हैं जैसे हनुमान आदि का वानर (बन्दर) होना, जटायु आदि का गिद्ध होना आदि क्यूंकि पशु का मनुष्य के समान बोलना असंभव हैं। हनुमान, जटायु आदि विद्वान एवं परम बलशाली श्रेष्ठ मनुष्य थे।
४. जो प्रकरण के विरुद्ध हैं वह भी प्रक्षिप्त हैं जैसे सीता की अग्नि परीक्षा आदि असंभव घटना हैं जिसका राम के युद्ध में विजय के समय हर्ष और उल्लास के बीच तथा १४ वर्ष तक जंगल में भटकने के पश्चात अयोध्या वापसी के शुभ समाचार के बीच एक प्रकार का अनावश्यक वर्णन हैं।
रामायण में माँसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी
श्री राम और श्री लक्ष्मण द्वारा यज्ञ की रक्षा
रामायण के बाल कांड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के समक्ष जाकर उन्हें अपनी समस्या बताते हैं की जब वे यज्ञ करने लगते हैं तब मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते हैं एवं माँस, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुओं से यज्ञ को अपवित्र कर देते हैं। रजा दशरथ श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण जी को उनके साथ राक्षसों का विध्वंस करने के लिए भेज देते हैं जिसका परिणाम यज्ञ का निर्विघ्ड॒न सम्पन्न होना एवं राक्षसों का संहार होता हैं।
जो लोग यज्ञ आदि में पशु बलि आदि का विधान होना मानते हैं, वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि आदि का होना मानते हैं उनसे हमारा यह स्पष्ट प्रश्न हैं अगर यज्ञ में पशु बलि का विधान होता तो फिर ऋषि विश्वामित्र की तो राक्षस उनके यज्ञ में माँस आदि डालकर उनकी सहायता कर रहे थे नाकि उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे थे।
इससे तो यही सिद्ध होता हैं की रामायण में अश्वमेध आदि में पशु बलि का वर्णन प्रक्षिप्त हैं और उसका खंडन स्वयं रामायण से ही हो जाता हैं।
ऋषि वशिष्ठ द्वारा ऋषि विश्वामित्र का सत्कार
एक आक्षेप यह भी लगाया हैं की प्राचीन भारत की प्राचीन भारत में अतिथि का सत्कार माँस से किया जाता था।
इस बात का खंडन स्वयं वाल्मीकि रामायण में हैं जब ऋषि विश्वामित्र ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पधारते हैं तब ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र का सत्कार माँस आदि से नहीं अपितु सब प्रकार से गन्ने से बनाये हुए पदार्थ, मिष्ठान,भात खीर,दाल, दही आदि से किया। यहाँ पर माँस आदि का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं। वाल्मीकि कांड बाल कांड सर्ग ५२ एवं सर्ग ५३ श्लोक १-६
श्री राम जी की माँसाहार की विरुद्ध स्पष्ट घोषणा
अयोध्या कांड सर्ग २ के श्लोक २९ में जब श्री राम जी वन में जाने की तैयारी कर रहे थे तब माता कौशल्या से श्री राम जी ने कहाँ मैं १४ वर्षों तक जंगल में प्रवास करूँगा और कभी भी वर्जित माँस का भक्षण नहीं करूँगा और जंगल में प्रवास कर रहे मुनियों के लिए निर्धारित केवल कंद मूल पर निर्वाह करूँगा।
इससे स्पष्ट साक्षी रामायण में माँस के विरुद्ध क्या हो सकती हैं।
श्री राम जी द्वारा सीता माता के कहने पर स्वर्ण हिरण का शिकार करने जाना ।
एक शंका प्रस्तुत की जाती हैं की श्री रामचंद्र जी महाराज ने स्वर्ण मृग का शिकार उसके माँस का खाने के लिए किया था।
इस शंका का उचित उत्तर स्वयं रामायण में अरण्य कांड में मिलता हैं।
माता सीता श्री रामचंद्र जी से स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए इस प्रकार कहती हैं-
यदि आप इसे जीवित पकड़ लेते तो यह आश्चर्य प्रद पदार्थ आश्रम में रहकर विस्मय करेगा- अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १५
और यदि यह मारा जाता हैं तो इसकी सुनहली चाम को चटाई पर बिछा कर मैं उस पर बैठना पसंद करुँगी।-
अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १९
इससे यह निश्चित रूप से सिद्ध होता हैं की स्वर्ण हिरण का शिकार माँस खाने के लिए तो निश्चित रूप से नहीं हुआ था।
वीर हनुमान जी का सीता माता के साथ वार्तालाप
वीर हनुमान जब अनेक बाधाओं को पार करते हुए रावण की लंका में अशोक वाटिका में पहुँच गये तब माता सीता ने श्री राम जी का कुशल क्षेम पूछा तो उन्होंने बताया की
राम जी न तो माँस खाते हैं और न ही मद्य पीते हैं। :-वाल्मीकि रामायण सुंदर कांड ३६/४१
सीता का यह पूछना यह दर्शाता हैं की कहीं श्री राम जी शोक से व्याकुल होकर अथवा गलत संगत में पढ़कर वेद विरुद्ध अज्ञान मार्ग पर न चलने लगे हो।
अगर माँस भक्षण उनका नियमित आहार होता तब तो सीता जी का पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी।
इससे वाल्मीकि रामायण में ही श्री राम जी के माँस भक्षण के समर्थन में दिए गये श्लोक जैसे
अयोध्या कांड ५५/३२,१०२/५२,९६/१-२,५६/२४-२७
अरण्यक कांड ७३/२४-२६,६८/३२,४७/२३-२४,४४/२७
किष्किन्धा कांड १७/३९
सभी प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।
वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी
वेद में माँस भक्षण का स्पष्ट विरोध
ऋग्वेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋग्वेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ –तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो(वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋग्वेद ६.२८.४ –गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ –जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ –गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं ।
अथर्ववेद ७.५.५ –वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८-गोहत्यारे को प्राण दे
महाभारत में मनु स्मृति के प्रक्षिप्त होने की बात का समर्थन इस प्रकार किया हैं:-
महात्मा मनु ने सब कर्मों में अहिंसा बतलाई हैं, लोग अपनी इच्छा के वशीभूत होकर वेदी पर शास्त्र विरुद्ध हिंसा करते हैं। शराब, माँस, द्विजातियों का बली, ये बातें धूर्तों ने फैलाई हैं, वेद में यह नहीं कहा गया हैं। महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६६
माँस खाने के विरुद्ध मनु स्मृति की साक्षी
जिसकी सम्मति से मारते हो और जो अंगों को काट काट कर अलग करता हैं। मारने वाला तथा क्रय करने वाला,विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसने वाला तथा खाने वाला ये ८ सब घातक हैं। जो दूसरों के माँस से अपना माँस बढ़ाने की इच्छा रखता हैं, पितरों, देवताओं और विद्वानों की माँस भक्षण निषेधाज्ञा का भंग रूप अनादर करता हैं उससे बढ़कर कोई भी पाप करने वाला नहीं हैं।
मनु स्मृति ५/५१,५२
मद्य, माँस आदि यक्ष,राक्षस और पिशाचों का भोजन हैं। देवताओं की हवि खाने वाले ब्राह्मणों को इसेको इसे कदापि न खाना चाहिए।
मनु स्मृति ११/७५
जिस द्विज ने मोह वश मदिरा पी लिया हो उसे चाहिए की आग के समान गर्म की हुई मदिरा पीवे ताकि उससे उसका शरीर जले और वह मद्यपान के पाप से बचे। मनुस्मृति ११/९०
इसी अध्याय में मनु जी ने श्लोक ७१ से ७४ तक मद्य पान के प्रायश्चित बताये हैं।
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वैज्ञानिक तथा प्लेनिटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार राम जन्म 10 जनवरी 7,393 ई° पूर्व हुआ था, यह गणना हिन्दू कालगणना से मेल खाता है।
किन्तु जिस आधार पर यह गणना की गई है, उन ग्रह नक्षत्रों की वही स्थिति निश्चित समय अंतराल पर दोहराई जाती है और सॉफ्टवेयर द्वारा निकला गया दिनांक सबसे निकट के समय को ही संदर्भित करता है,
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अतः यह समय इससे बहुत पूर्व का भी हो सकता है क्योंकि हिन्दू काल गणना के अनुसार राम त्रेतायुग में पैदा हुए थे जो नौ (९)लाखवर्ष पूर्व हुआ था ।
वाल्मीकि पुराण के अनुसार राम जन्म के दिन पाँच ग्रह अपने उच्च स्थान में स्थापित थे, नौमी तिथि चैत्र शुक्लपक्ष तथा पुनर्वसु नक्षत्र था। जिसके अनुसार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था ।
सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं। जो कि वाद में पुष्य- मित्र सुंग के अनुयायी पुरोहित वर्ग ने रामायण के रूप में निबद्ध कर दिया है |
निश्चित रूप से राम-कथा पर आधारित वाल्मीकि-रामायण भी वर्तमान में वाल्मीकि रचित कृति नहीं है ।
यह बौद्ध धर्म की प्रति क्रिया स्वरूप लिखी हुआ ग्रन्थ है
इन्हीं लोगों ने अयोध्या काण्ड में महात्मा बुद्ध ( ई०पू० ५६६) को भी चोर और नास्तिक के रूप में उपस्थित कर दिया है
वह भी राम के मुख से  जावालि ऋषि और राम के सम्वाद रूप में वर्णित है -
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" यथा हि चोरः स तथा हि|
बुद्धस्तथागतं नास्तिकमेव विधि|| अयोध्या काण्ड २/१०९/३४  यह विचारणीय है कि राम के समय बुद्ध कब थे ?
शम्बूक वध की  काल्पनिक कथा भी इसी प्रकार हैं-
हिन्दी- अनुवाद ----
"एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धिवाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यतन कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शुम्बुक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।
उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में जन्म हुआ है
जब शम्बूक कहता है कि मैं शूद्र हूँ ..तभी राम अपनी तलवार से उसका वध कर देते है ""
वस्तुतः यह काल्पनिक कथा शूद्रों के ज्ञान तपशचर्या तथा संस्कार ग्राह्यता के निषेधीकरण को आधार मानकर रची गयी है | और इसे राम से सम्बद्ध कर दिया गया है ?
निश्चित रूप से यह घटना कृत्रिम रूप से पिरोयी गयी है
भाषा भी बुद्ध के परवर्ती काल की है ।
राम के समकालिक पात्र वेदों में वर्णित हैं ।उदाहरण
उदाहरण के तौर पर – इक्ष्वांकु (अथर्ववेद 19-39-9), दशरथ (ऋग्वेद 1-126-4), कैकेय (शतपथ ब्राह्मण 10-6-1-2) तथा जनक (शतपथ ब्राह्मण) आदि।
इस नाम के अन्य पात्र
सम्भव है कि तत्कालीन भारत में इस नाम के अन्य पात्र भी रहे हों। हालांकि कई लोग इस तर्क को नकारते हैं।
राम-जन्म की घटना
उनके साथ जुड़े गुण उन्हें रामकथा से संबंधित करते अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि राम-जन्म की घटना, वैदिक साहित्य के बहुत बाद की है।
यह भी सम्भव
यह भी सम्भव है कि कालान्तर में इन नामों से संबधित अंश वैदिक साहित्य में जोड़ दिए गए हों।
रामकथा?
वाल्मीकि रामायण के आदिकाव्य और रामकथा के प्रथम गान के बावजूद तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे आगे है।
लोकप्रिय है रामकथा
लोकभाषा में होने के कारण इसने रामकथा को जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया।
सीता राम का विवाह
इसमें भक्ति-भाव की प्रधानता है तथा राम का ईश्वरत्व पूरी तरह उभर आया है। सीता व राम का विवाह भी संभवतया तुलसीकृत रामायण के कारण ही प्रतिष्ठित और वंदित हुआ।
भक्ति रस का आस्वाद?
सीता-राम का विवाह प्रसंग पढ़ने, सुनने और भक्ति रस का आस्वाद लेने में तो अत्यंत मधुर है ही, साथ ही उसमें एक आश्वासन भी निहित है।
आश्वासन यह…
आश्वासन यह है कि जो इस मांगलिक प्रसंग का गायन, श्रवण करते हैं, उनके जीवन में आनंद उत्साह की प्राप्ति होती है। विवाह संबंधी कठिनाइयों को दूर करने के लिए श्रद्धालु इस प्रसंग का पाठ करते-कराते हैं।
यद्यपि वेदों मे कुछ तथ्य विपरीत भाव में मिलते हैं ।***वेद -शस्त्रों मे मांस -भक्षण के विधान ********
वैदिक साहित्य से पता चलता है की प्राचीन आर्य -ऋषि और याज्ञिक ब्राह्मण सूरा-पान और मांसाहार के बड़े शौकीन थे । यज्ञों मे पशु बाली अनिवार्य था बली किए पशु मांस पर पुरोहित का अधिकार होता था ,और वही उसका बटवारा भी करता था। बली पशुओ मे प्राय;घोडा ,गौ ,बैल अज अधिक होते थे.
"ऋग्वेद मे बली के समय पड़े जाने वाले मंत्रो के नमूने पड़िए;-
1- जिन घोड़ो को अग्नि मे बली दी जाती है ,जो जल पिता है जिसके ऊपर सोमरस रहता है ,जो यज्ञ का अनुष्ठाता है ,उसकी एवम उस अग्नि को मै प्रणाम करता हु।
( ऋग्वेद 10,91,14)
2- इंद्रा कहते है ,इंद्राणी के द्वारा प्रेरित किए गए यागिक लोग 15-20 सांड काटते और पकाते है । मै उन्हे खाकर मोटा होता हू । -ऋग्वेद 10,83,14
3- जो गाय अपने शरीर को देवों के लिए बली दिया करती है ,जिन गायों की आहुतियाँ सोम जानते है ,हे इंद्रा! उन गायों को दूध से परिपूर्ण और बच्छेवाली करके हमारे लिए गोष्ठ मे भेज दे ।
- ऋग्वेद 10,16,92
4- हे दिव्य बधिको!अपना कार्य आरंभ करो और तुम जो मानवीय बधिक हो ,वह भी पशु के चरो और आग घूमा चुकाने के बाद पशु पुरोहित को सौपदो। (एतरे ब्राह्मण )
5:-- एतद उह व परम अन्नधम यात मांसम। (सत्पथ ब्राह्मण 11,4,1,3)
अर्थ ;- सटपथ ब्राह्मण कहता है, की जीतने भी प्रकार के खाद्द अन्न है,उन सब मे मांस सर्वोतम है
*******इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण है जो वेदो-शास्त्रो मे मांस भक्षण के समर्थन मे आपको मिल जाएंगे ।
महर्षि याज्यावल्क्या ने षत्पथ ब्राह्मण (3/1/2/21) में कहा हैं कि: -"मैं गोमांस ख़ाता हू, क्योंकि यह बहुत नरम और स्वादिष्ट है."
आपास्तंब गृहसूत्रं (1/3/10) मे कहा गया हैं,"गाय एक अतिथि के आगमन पर, पूर्वजों की'श्रद्धा'के अवसर पर और शादी के अवसर पर बलि किया जाना चाहिए."
ऋग्वेद (10/85/13) मे घोषित किया गया है,"एक लड़की की शादी के अवसर पर बैलों और गायों की बलि की जाती हैं."
पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र
वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रियाशवोभि­ः ||
वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34)
लिखा हैं,"अगर एक ब्राह्मण'श्रद्धा'या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना क
र देता है, तो वह नरक में जाता है."पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र | वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रियाशवोभि­ः ||
वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34) लिखा हैं,"अगर एक ब्राह्मण'श्रद्धा'या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना कर देता है, तो वह नरक में जाता है."
गाय पूज्य हैं
अथर्ववेद १२.४.६-८ में लिखा हैं जो गाय के कान भी खरोंचता हैं, वह देवों की दृष्टी में अपराधी सिद्ध होता हैं. जो दाग कर निशान डालना चाहता हैं, उसका धन क्षीण हो जाता हैं. यदि किसी भोग के लिए इसके बाल काटता हैं, तो उसके किशोर मर जाते हैं.
अथर्ववेद १३.१.५६ में कहाँ हैं जो गाय को पैर से ठोकर मरता हैं उसका मैं मूलोछेद कर देता हूँ.
गाय, बैल आदि सब अवध्य हैं
ऋगवेद ८.१०१.१५ :– मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं हैं.
ऋगवेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं.
अथर्ववेद १०.१.२९ – तू हमारे गाय, घोरे और पुरुष को मत मार.
अथर्ववेद १२.४.३८ -जो (वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं.
अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलो को नहीं खाता वह कस्त में नहीं पड़ता हैं
ऋगवेद ६.२८.४ – गोए वधालय में न जाये
अथर्ववेद ८.३.२४ – जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगो को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो
यजुर्वेद १३.४३ – गाय का वध मत कर , जो अखंडनिय हैं
अथर्ववेद ७.५.५ – वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते हैं
यजुर्वेद ३०.१८- गोहत्यारे को प्राण दंड दो
वेदों से गो रक्षा के प्रमाण दर्शा कर स्वामी दयानन्द जी ने महीधर के यजुर्वेद भाष्य में दर्शाए गए अश्लील, मांसाहार के समर्थक, भोझिल कर्म कांड का खंडन कर उसका सही  है ।
विचार विश्लेषण ---यादव  योगेश कुमार " रोहि "
क्वेट ज़ालमकटली एजटेक संस्कृति के जनक माने जाते हैं ।
वाल्मीकि-रामायण में सर्ग ८श्लोक संख्या २३-२४ में वर्णन है कि आर्यों से अथवा सुरों से पराजित होकर  साल कटंकट  वंश के असुर पाताल अथवा दक्षिणीय अमेरिका में चले गये -ये लोक मूलत: लंका के निवासी थे । ये मयासुर के वंशज थे ।
जो मैक्सिको सिटी दक्षिणीय अमेरिका में रामसितवा का उत्सव ले गये
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" अशक्नुवन्तस्ते विष्णुं प्रतयोद्धं बलार्दिता :।
त्यक्त्वा लंका गता वस्तु पातालं सह पत्नय:।।
सुमालिनं समासाद्य राक्षसं रघुसत्तम् ।
स्थिता प्रख्यात वीर्यासो वंशे साल कटंकटे।।
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अर्थात् विष्णु  से युद्ध न कर सकने के कारण तथा पराजित होकर असुर लंका से पाताल लोक में सपरिवार चले गये ।
तथा श्वेत साल कटंकट वंश के असुरों ने अपना आवास वहीं बनाया ।
मैक्सिको निवासीयों की प्राचीन सभ्यता मय से सम्बद्ध होने से माया कहलाती है ।
मया सुर का वर्णन भारतीय पुराणों में वर्णित है ।
ये लोग मृतक का दाह संस्कार करते थे यूरोपीय तथा भारतीय आर्यों के समान थी ।
माया सभ्यता का आदि प्रवर्तक मय दानव आर्यों से पराजित होकर पाताल लोक अर्थात् दक्षि़णीय अमेरिका में वल गया भारत की अपेक्षा यह प्रथ्वी का पश्चिमीय गोलार्ध है ।अमेरिका की स्थित भारत के ठीक नीचे है ।
दुर्गा सप्तशती में असुरों के नाग लोक जाने का वर्णन है
दुर्गा कहती हैं :--
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"यूयं प्रयात पातालं  यदि जीवितुमिच्छथ:"
अर्थात् यदु तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लोक को चले जाओ " अत: बहुतायत से असुर लोक पाताल को चले गये ।
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A festival called Sita-Ram (Situa – Raimi) was celebrated in Mexico during Nav-Ratri or Dussehra period which has been described on page 5867 in the book ‘Hamsworth History of the World’.  ( read my post0
Both in Central and South America, there are found Sati cremation, priesthood, gurukul system, yajna, birth, marriage and death ceremonies to some extent similar to the Hindus. When Pizarro killed Peruvian King Atahualpa his 4 wives committed Sati—or self sacrifice.
इंका दक्षिण अमेरीका के मूल निवासिओं (रेड इण्डियन जाति) की एक गौरवशाली उपजाति थी। इंका प्रशासन के सम्बन्ध में विद्वानों का ऐसा मत है कि उनके राज्य में वास्तविक राजकीय समाजवाद (स्टेट सोशियलिज्म) था तथा सरकारी कर्मचारियों का चरित्र अत्यंत उज्वल था। इंका लोग कुशल कृषक थे। इन्होंने पहाड़ियों पर सीढ़ीदार खेतों का प्रादुर्भाव करके भूमि के उपयोग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था। आदान-प्रदान का माध्यम द्रव्य नहीं था, अत: सरकारी करों का भुगतान शिल्पों की वस्तुओं तथा कृषीय उपजों में किया जाता था। ये लोग खानों से सोना निकालते थे, परंतु उसका मंदिरों आदि में सजावट के लिए ही प्रयोग करते थे। ये लोग सूर्य के उपासक थे और ईश्वर में विश्वास करते थे।
इतिहास -
१४३८-१५२७ ईसवी के काल में इंका सभ्यता का विस्तार
सन् ११०० ई. तक इंका लोग अपने पूर्वजों की भान्ति अन्य पड़ोसियों के जैसा जीवन ही व्ययतीत करते थे, परंतु लगभग सन् ११०० ई. में कुछ परिवार कुसको घाटी में पहुँचे जहाँ उन्होंने आदिम निवासियों को परास्त करके कुज़्को नामक नगर का शिलान्यास किया। यहाँ उन्होंने लामा नामक पशु के पालन के साथ-साथ कृषि भी आरंभ की। कालांतर में उन्होंने टीटीकाका झील के दक्षिण पश्चिम में अपने राज्य को प्रशस्त किया। सन् १५२८ ई. तक उन्होंने पेरू, ईक्वाडोर, चिली तथा पश्चिमी अर्जेंटीना पर भी अधिकार कर लिया। परन्तु यातायात के साधनों के अभाव में तथा गृहयुद्ध के कारण इंका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
एजटेक पुरातन संस्कृति है ।
अमेरिका की प्रचीन माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। माया सभ्यता मैक्सिको की एक महत्वपूर्ण सभ्यता थी। इस सभ्यता का आरम्भ 1500 ई० पू० में हुआ। यह सभ्यता 300 ई० से 900 ई० के दौरान अपनी उन्नति के शिखर पर पहुंची इस सभ्यता के महत्वपूर्ण केन्द्र मैक्सिको, ग्वाटेमाला, होंडुरास एवं अल - सैल्वाड़ोर में थे। यद्यपि माया सभ्यता का अंत 16 वी शताब्दी में हुआ किन्तु इस पतन 11 वी शताब्दी से आरम्भ हो गया था
संस्कृत भाषा में आस्तीक नाम प्रचलित है
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विश्व पुरातन कथाओं में राम का वर्णन --
राम का वर्णन विश्व की प्राचीनत्तम संस्कृतियों में विद्यमान है ।
मिश्र की पुरातन कथाओं में राम और सीता परम्परागत राजाओं की उपाधि है :---Shri Rama in Egypt
The name Egypt is derived from Ajapati, named after Aja, Shree Rama’s grandfather. Etymologically, The title of Egypt’s ancient rulers, the dynasty of Ramesis, with the Sanskrit words "Ram Eisus," meaning "Rama-the God" means Rulers were the descendants of Shri Rama-God.
The Egyptian pharaohs had names like Ramses I, Ramses  (राम रामस् ), etc and many Egypting Kings were Vaishnavas. Egyptians king were known as Ramesis and Queens were also named after Sita sometimes. Perhaps it is because Shri Rama was universally renowned as an ideal King, and the almighty incarnated himself. The ancient Egyptians considered their rulers to be the incarnations of God.
One of the famous Egyptian queens was queen Sitamen. (सीता )
There is a picture of Egyptian statue of a man, originally produced in the book Egyptian Myth and Legend, on page 368, the Egyptian statue of a man dressed in robes and practically covered with Vishnu tilak and sandal paste, the kind which the Shri-Vaishnava sect (in which Shri Rama is the principle deity) uses in India. As well as in the book 'Long Missing Links' An image of a pharaoh of Memphis is Published in which The pharaoh is also using tilak just like the Shri-Vaishnavas.
Pharaoh with Sri Vaishnava Tilak
Shri Rama and The Egyptian God Amun
Triad of Egyptian Gods: Amun, Khonsu and Mut (wife of Amun)
Triad of Egyptian Gods: Amun (or Raman or Rama), Mut/Mat (beautiful wife of Amun, 'Mata' Sita?) and Khonsu, perhaps related to Shri Rama, Sita and Lakshmana respectively. In ancient Egyptian Civilisation, Amun was associated with Sun-god 'Ra', so he was called Amun-Ra (indicative of Rama, Raman born in sun-dynasty), Amun-Ra was the all-powerful supreme creator god of all beings and everything in this world, who was hailed as the most compassionate and the one who always comes at the voice of the poor in distress. Amun-Ra is hailed as the one whose forms are greater than every other god, from whose eyes mankind proceeded, from Whose mouth the Gods were created (almost vedic description of the supreme Purusa). Amun-Ra was the blue-complexioned god, wore Eagle or Garuda emblem on his head, and he was depicted with a “sacred river” emerging from his feet. Amun-Ra was the King of the gods and the master of the god of the wind, similarly in whole Hinduism only Shri Rama is hailed as the King of all the worlds (supreme king of the gods) as well as the Lord of Hanuman (the son of wind-god). Khonsu is decribed as the son of Amun and Mut, in Ramayana, Lakshmana Ji was asked by his mother Sumitra to serve Sita and Rama thinking them as his mother and father respectively. Lakshmana always regarded Sita as mother and Shri Rama, his elder brother as his father. In ancient Egyptian cosmology, Khonsu is described as the “Great Snake who fertilizes the Cosmic Egg for the creation of the world”. Lakshmana Ji is also described as the manifestation of Ananta-Sesha (the great serpent) who supports the entire cosmos.
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Ancient hittie and Mittani Empires of ancient Iraq,( प्राचीन हिट्टी तथा मितन्नी वेदों में वर्णित मितज्ञु कहा है ) Syria and Turkey regions
A King named Dasharatha ruled over Syria and Iraq 3300 years ago: The Arya Kingdom of Mittani comprised of what is known today as Syria and parts of south-eastern Turkey and Iraq between 1500-1300 BC. It is well-known to historians that the Mittani kingdom was founded by an Arya ruling class, whose names are of Indic origin and who worshipped Vedic Gods, such as Mitra, Varuna, Indra and Nasatya (Ashvini-Kumaras), etc. The names of some of their kings: The first Mitanni king was Sutarna I (“good sun” - सुतर्ण). He was followed by Paratarna I (“great sun” - परतर्ण), Parashukshatra (“ruler with axe” - परशुक्षत्र), Saukshatra (“son of Sukshatra, the good ruler” - सौक्षत्र), Paratarna II, Artatama or Ritadharma (“abiding in cosmic law” - ऋतधर्म), Sutarna II, Tushratta or Dasharatha (दशरथ), and finally Mativaja (Matiwazza, “whose wealth is prayer” - मतिवाज). These names indicate Vedic-past of ancient civilisations of Middile east.
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The Lion Gate at Hattusa, capital of the Hittite Empire
This Simha dwara (lion gates) still shows the Vedic connection between India and ancient Hittie empire in Turkey. Hattusha or hatti near the maryashantya river (as per hittites) which was known to greeks as halyas was the capital of hittites. A river by the name maryashantya still exists in Nepal, which was the part of ancient Bharat. There was one queen named gassuliya (misnormer of Kaushalya, the mother of Lord Shri Rama) in hittie empire. Hundreds of modern places in Turkey have still the ancient names e.g. lalanda (after Nalanda), hindua, etc which tells Vedic past and connection of ancient Turkey with India.
Shri Rama in Europe
One of the most ancient city in Europe is the capital of Italy , Rome (Roma). 'Rome' (Roma) is nothing but a misnomer of Rama, the letter 'a' in sanskrit sometimes becomes the letter 'o' like the word 'nasa' from sanskrit becomes 'nose' in English having same meaning (remember Sanskrit is the mother of Indo-European languages). 'Rome' then meant the city of Rama, the supreme god, it was founded on the 21st April 753 BC. The reason why this exact date is recorded is because 21st April is the date of Ramnavami in 753 BC. But, Who were the founders of Italy? It were the ancient Etruscans who founded Rome, once Etruscans civilization was spread almost all over Italy. In Italy, when excavation were carried out in the remains of Etruscans civilization, then various houses were found having peculiar type of paintings on their walls. On closer investigations of those paintings, anyone can say those are based upon the stories of Ramayana. Some of the paintings shows peculiar persons having tails along with two men bearing bows and arrow on their shoulders, while a lady is standing besides them. These paintings are of 7 century BC. Another proof is the another Italian city, Ravenna is named after Shri Rama's adversary Ravana, and as Ravana was the enemy of Lord Ram, the city of Rome and the city Ravenna are situated diametrically opposite to each other, one on the western coast and the other on the eastern coast.
Left Image: Italian Painting of some man (having bow & arrows), his wife (Having some plant), and follower brother (having spear), Bologna Museum, Italy. Persons in this painting closely resemble Shri Rama, Sita and Lakshmana going to forest; Along the time Ramayana was forgotten there, and Italians without knowing who were Shri Rama, Sita and Lakshmana really, they made the relief and painting as per their local arts, not so beautifully like traditional Indian paintings of Bhagavan Shri Sita-Rama and Lakshmana.
The episodes of Ramayana like (a) Kusha-lava capturing the horse of Ashvamedha Yajna of Shri Rama as described in the Ramayana story from Padma-Purana, (b) Monkey king Vali capturing the wife of Sugriva etc are founed to be sketched on ancient Italian vases and the walls of ancient Italian homes. These sketches caused a bewilderment to modern Italian archeologists, but they were unware of some thousand years ago once Ramayana and Sanatan-Vedic-dharma was prevalent there in Italy and other European countries.
People tell in Vetican, there was a temple of Lord Shiva, which was a cultural and religious center in ancient Europe along with the city of Rome (Rama) before its incumbent was forced to follow Christianity. The word 'Vatican' itself is derived from the sanskrit word Vatica which means Garden or the vedic cultural or religious center in Sanskrit. Also as per some reports, During excavation an ancient Shiva-Lingam was found which is kept for display in Etruscan Museum in Rome Italy.
Shiva Lingam at Etruscan Museum
Shri Rama in ancient Russia
Legends of Ramayana had been popular in some regions and ancient people of Russia. In mangolia near by Russia, Mangolians people had an epic that closely resembles the Ramayana.
An ancient Vishnu idol has been found during excavation in an old village in Volga region of Russia, this region
The two headed Eagle : The State Symbol Of Russia
The two headed eagle emblem has been in use in Russia for state Emblem for very long. It is also used in serbia, croatia, Yugoslavia, Austria, Italy, Spain, Greece, etc and other European nations for very long. Ancient Hittie Empire which had Vedic-connection as discussed above also used this emblem. However, western Historians didn't tell the origin and the real fact behind this two headed eagle emblem that it is related with Hinduism, to keep people away from Sanatan Vedic dharma.
Carving of Gandaberunda bird : the two headed eagle
in the Rameshwara temple at Keladi
In ancient Hindu scriptures,there is mention of Lord Narasimha (half man half lion) incarnation of Lord Vishnu taking form of Gandaberunda (the two headed eagle bird) having immense strength and power. The two headed eagle Gandaberunda, the powerful bird incarnation of Lord Vishnu (Narasimha), has been heautifully depicted on the carvings of ancient Hindu temples (as shown above), and it was used as state emblem by ancient Indian empires e.g. Mysore Kingdom; It is still used by Karnataka state govt in India.
Shri Rama in ancient South America
Connection with Incas of Peru
A very famous person Sir William Jones who studied and researched a lot over Vedic history of the world said this some 200 years back, when a lot on History was being written by the colonist powers. He said, "It is very remarkable that Peruvians, whose Incas boasted of the same descent, styled their greatest festival Rama-Sitva ; whence we may take it that South America was peopled by the same race who imported into the farthest of parts of Asia the rites and the fabulous history of Ram and Sita. " (SOURCE: Asiatic Researches Volume I. p. 426)
Thus, those who studied and researched sincerely over the vedic past of the world recognised this fact that Shri Shri SitaRama were known to the ancient people of South America to the farthest points of Asia.
The Inka Empire or Incan Empire, was the largest empire in pre-Columbian America. In Peru, during the time of the holy equinox, people were used to worship the supreme alimighty in the sun temple. Those ancient people of peru were called Incas a name derived from “Ina” which is one of the Sanskrit names of the sun god. Shri Rama was the alimighty born in sun-dynasty, so he is oftenly called as “Inakula Tilaka” in India. The Inca believed in reincarnation like Hindu, they were mostly sun-worshippers like Vedic-people. A kind of caste system prevailed amongst the Incas of Peru. In Quichua the language of the Incas, there are many words resembling Sanskrit – as Inti – the sun, while Indra is the Hindu god of the heavens.
Señor Vincente Lopez, a Spanish gentleman of Montevideo, in 1872 published a work entitled "Les Races Aryennes in Pérou," author of The Aryan Races in Peru writes:
“Every page of Peruvian poetry bears the imprint of Ramayana and Mahabharata.”
Ephraim George Squier (1821-1888) was United States Charge d'affaires to Central America in 1849 and author of Peru; Incidents of Travel and Exploration in the Land of the Incas and The Serpent Symbol, and the Worship of the Reciprocal Principles of Nature in America.
Comparing the temples of India, Java and Mexico, he wrote nearly a hundred years ago:
"a proper examination of these monuments would disclose the fact that in their interior as well as their exterior form and obvious purposes, these buildings (temples in Palanque, Mexico) correspond with great exactness to those of Hindustan..." (source: The serpent symbol, and the worship of the reciprocal principles of nature in America - By Ephraim George Squier and India: Mother of Us All - Edited by Chaman Lal p. 91).
Connection with ancient Maya civilisation of South America
Honduras or Howler Monkey God (misnormer of the name 'Hanuman'), the monkey god? was a major deity worshiped in one of the oldest civilizations, Maya civilization. This monkey god has form like Hanuman Ji, and he is holdConnection with ancient Maya civilisation of South America
Honduras or Howler Monkey God (misnormer of the name 'Hanuman'), the monkey god? was a major deity worshiped in one of the oldest civilizations, Maya civilization. This monkey god has form like Hanuman Ji, and he is holding a mace. The major deity Howler Monkey is regarded as Vayu-Devta in their civilization, and Hanuman is also the incarnation of Vayu, being the son of wind-god. This again shows a connection of Bharatvarsham (India) with ancient-civilisation of Mayas of South America.
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Howler Monkey God or Perhaps Hanuman Ji? worshipped in Maya Civilisation
In Vedic-scriptures there is story of a Mayan Architect, and Mayans of Maya civilisation were well known Architects; The Pyramids of Mexico and America have stark resemblances with the Pyramid Temples of South East Asia.
Everyone knows Zero was proposed by ancient Indians. Mayas claim that their ancestors discovered Zero, which indicates Mayans and present Indians had same ancestors i.e. Vedic people.
Maize had previously been reported in several Hoysala temples by Carl Johannessen and Anne Z. Parker, corn did not exist in that entire part of the world until 1300 except in India and Mexico. People see corn sculpted on walls of temples belonging to 12th century or older; In one of the Vishnu Temples (Chenna Keshava Temple) in South India, the Vishnu statue has a Maize (corn) in one of his hands. In one of Shiva-temple, Lord Shiva has black corn in his hands. Thus, it again indicates some story of Vedic past of Mexico or it's connection with ancient India.
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12th century carving of Lord Vishnu with corn
Elephants are often seen in Mayan Pyramids, but they are not native to the land, perhaps the people who knew elephants were from Bharatvarsh (India).
In recent excavations, Indian Statues have been resurfacing around in Mexico Sea Harbors. However, this is not covered by the main-stream media, but a book also shows this aspect about Mexico.
Shri Rama's court sculpted in Guatemala!
Eminent scholars who studied and researched over ancient civilisations remind us that the post-Columbus history of America for 300 years was the story of ruthless destruction and fanatics like Bishop Diego da Landa burnt a huge bonfire of valuable documents giving insight into the details of ancient civilisations of Latin America. Perhaps, Christianity destroyed most of the valuable things having links with the ancient civilisations once flourished in Latin-America. One of the most remarkable findings has been the deciphering of what is the archaeological sculpture 'Panel 3 of Piedras Negras' in Guatemala.
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Shri Ram's court sculpted in Guatemala
Panel No. 3 of Piedras Negras, Guatemala, depicts the coronation of the 'Hero Twins' of Twin Myth (Popul Voh). Their story has a remarkable likeness to the story of 'Luv and Kush', the twins of 'Ramayana'. In the panel, the two young boys on the right could be 'Luv' and 'Kush' and in the centre, the king on throne is Sri Rama. On their left are three princes, Lakshman, Bharat and Shatrugna (the brothers of Shri Rama).
In the context of the Twin Myth (Popul Voh), the text in Panel No. 3 of Piedras Negras has been interpreted as the depiction of the throne accession or coronation ceremony of the Hero Twins, the description of the palace and those attending the ceremony.
The Trident of Peru in Ramayana
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The Trident of Peru
The Paracas Candelabra, also called the Candelabra of the Andes or The Trident of Peru, is a well-known prehistoric geoglyph found on the northern face of the Paracas Peninsula at Pisco Bay in Peru. The reason for the Candelabra's creation is unknown to scientists, although it is most likely a representation of the trident, a lightning rod of the god Viracocha, who is seen in mythology throughout South America. This Trident was known to ancient civilization of Peru, and Vedic People during Ramayana period. This was the reason in Ramayana, when Sugreeva directs his army of vanara-attending the ceremony.
The Trident of Peru in Ramayana
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The Trident of Peru
The Paracas Candelabra, also called the Candelabra of the Andes or The Trident of Peru, is a well-known prehistoric geoglyph found on the northern face of the Paracas Peninsula at Pisco Bay in Peru. The reason for the Candelabra's creation is unknown to scientists, although it is most likely a representation of the trident, a lightning rod of the god Viracocha, who is seen in mythology throughout South America. This Trident was known to ancient civilization of Peru, and Vedic People during Ramayana period. This was the reason in Ramayana, when Sugreeva directs his army of vanara-s to go in all directions in search of Sita ji, He instructed the group of Vanaras going in east direction to go to the farthest of east-direction, and look for a Trident etched on a mountain top. Sugriva mentioned about that trident (of Peru) in following verses.।
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त्रिशिराः काञ्चनः केतुस्तालस्तस्य महात्मनः ।
स्थापितः पर्वतस्याग्रे विराजति सवेदिकः ॥
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत्त्रिदशेश्वरैः ।
ततः परं हेममयः श्रीमानुदयपर्वतः ॥
तस्य कोटिर्दिवं स्पृष्ट्वा शतयोजनमायता ।
जातरूपमयी दिव्या विराजति सवेदिका ॥
[Valmiki Ramayana 4.40.53-55]
Translation : A long golden pylon (Trident) resembling a palm tree with three limbs as its heads is established on the peak of that mountain as the insignia of that great-souled Ananta, and it will be lustrous with a golden podium. That pylon resembling a greet palm tree with three branches is constructed as the easterly compass by celestials gods, and beyond that a completely golden mountain is there, namely the august Udaya Mountain, resemblin Mt. Sunrise, beyond which it is all west. The pinnacles of Mt. Sunrise will be touching heavens for their height is hundred yojana-s and that divine mountain greatly glitters for it is completely golden, and it is pedestalled with suchlike glittering mountains.
This trident or the Paracas Candelabra, etched on mountain of Andes can be seen really glittering from the sky, It is acting as the compass for the end of eastern farthest point! Trident is called In above verses, Ramayana refers to the Andes as the ‘Udaya’ Mountains, the mountains of ‘Sunrise’.
Thus such perfect description of the trident of Peru in Ramayana indicates that people of Ramayana period had seen this Trident from sky.
Vedic names of cities or places or people worldwide after Shri Rama
Vedic Names in Iraq, Lebanon, Syria, Egypt, South America
Note names of places and people beginning with word "Ram"
1. Ram-allah - Place in Israel
2. Ramathiam - a place in Isreal called "Ramathiam", which is nothing but a corruption of "Ramadhaam", meaning place of Ram, like Akshaydhaam. Dental 'th' can become dental "dh", and in transliterating sounds, "a" can become "i" or "ai".
3. Rameshe - Male name in Iran, Iraq, Syria, Lebanon, like Navaye Rameshe.
4. Ramadi - Place in Iraq
5. Ramdiyah - Place in Iraq
6. Ramzi - Male name like Ramzi Yunus, Ramzi bin al-Shibh
7. Ramzu - Male name like Ramzu Munshir, Amr Ramzu, Ramzu Yunus,
8. Ramirej - Spanish/Latin name.
9. Rami - Jew name
10. Ramesys - The title of Egypt’s ancient rulers, the dynasty of Ramesis, with the Sanskrit words "Ram Eisus," meaning "Rama-the God" means Rulers were the descendants of Shri Rama-God.
The word "Rama" is an epithet of qualities like pleasing , pleasant , charming , lovely , beautiful, etc. - and an epithet for God Principle.
India was the motherland of our race, and Sanskrit the mother of European languages. She was the mother of our philosophy … of our mathematics … of the ideals embodied in Christianity … of self government and democracy…mother India is in many ways the mother of us all.
— William Durant. Author of the ten volume, story of civilisation.
I am convinced that everything has come down to us from the banks of the river Ganges.
मिश्र की पुरातन कथाओं में सीता माँ  को सीतीमन कह कर सम्बोधित किया है :--- देखे
(Sitamen)| King's daughter and Great Royal Wife (From Malqata)
Her name is sometimes written as Sit-Amun, Sat-Amen or Sat-Amun
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Sitamen is usually thought to have been the daughter-wife of Amenhotep III. She is said to be the daughter of Amenhotep III and Queen Tiye in some inscriptions. Some have speculated that Sitamun was actually the daughter of Tuthmosis IV and Queen Iaret, but there does not seem to be any firm evidence for this.
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Sitamun is known to have married Amenhotep in year 30, probably during the celebration of his first Hebsed festival. In some of the older literature (Hayes in 1948 f.i.) is is speculated that Sitamen was the mother of Smenkhare, Nefertiti, Mutnodjemet and Tutankhamen. There is (to my knowledge) no evidence however linking Sitamen to any of these four royal figures.
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The famous Amunhotep, son of Hapu was the Steward of Queen Sitamun, and finds at Malqata show that she must have lived in this grand palace on the west bank near Thebes. There are records of jar labels that refer to "The House of the King's Daughter, Sitamun".
Her estates produced ale and other commodities.
Some of her furniture was found in the tomb of Yuya and Tuya. The tomb contebts included several chairs that seem to have belonged to Sitamen.
It is interesting to note that on one of the chairs Sitamen is shown seated on a throne wearing rather rare regalia. Her short (nubian) wig is covered by a circlet and the wig is topped with a modius with lotus flowers. Ladies are shown offering gold to Sitamen in tribute. This scene showing a Princess-Queen receiving such gifts is rare.
Amenhotep, son of Hapu
Sitamen may have been meant to be buried in Amenhotep III's tomb (KV22) in the Valley of the Kings. There are two chambers, each with two pillars and a storeroom, leading off the king's burial chamber. One may have been intended for Queen Tiye and the other for Princess-
Queen Sitamen.
Artefacts related to Sitamun:
Chair from the tomb of Yuya and Tuya (KV 46) (now in Cairo)
On this chair she is simply called King’s Great Daughter, whom he loves Sitamen (no cartouche)
A small chair depicting Sitamen receiving tribute.
On the front we see two small sculptures in the ound depicting Sitamen
Chair from tomb of Yuya and Tuya
The great royal wife Tiye is seated on a throne on a papyrus skiff. A cat is seated below her chair, a small unnamed princess stands behind her chair and before her we see the king’s daughter, whom he loves, praised by the Lord of the Two Lands (Sitamen)|.
Sitamen is shown offering lotus flowers with her right hand, while her left hand clasps a fan. She is dresses in a short kilt. She wears a short wig with a side lock and a modius topped with water lilies.
Statue of Amenhotep-son-of-Hapu
On the pedestal Sitamen is mentioned.
Kohl Tube and Disk (Oxford)
Faience kohl tube (Metropolitan Museum of Art)
Inscribed for “the good god (Nebmaatre)|  King’s Daughter Great Royal Wife (Sitamen)| may she live,”
Calcite bowl found in Amarna.
The original inscription named Sitamen: “King’s Daughter and King’s Wife, born of the Great King’s Wife, Tiye”. The inscription was later altered and Sitamen’s name was replaced by that of Amenhotep III.
Objects related to other Princesses / Queens named Sitamen:
Stela from the royal nurse Nebetkabeny (from Abydos)
Depicted as a princess with her nurse 
Dated to the time of Tuthmosis III in Porter and Moss and by Cline and O'Connor. Refers to a daughter of Ahmose by the same name.
Queen with flywisk (Petrie Museum)
This scene comes from excavations in a western Thebes mortuary temple.
Thought by some to refer to a daughter of Amenhotep II by the same name,  or possibly an even earlier Sitamen, daughter of Ahmose?
See Digitalegypt
Sitamen: सीता माँ
Merymery (Mrjj-mrjj), Scribe of the army of the Lord of the Two Lands, Steward of the King’s daughter Sitamun (S3t-jmn)
, etc., Mention of son Huy, Scribe of the army
I had written on Aztecs , Mexico and in Central America.
I mentioned that the term Aztec ,
AZTEC OF MEXICO is derived from “worshipper of Ashtabhuja or Ashtak ( 8 armed ) ” , the eight armed God- found in Mexican temples.’
Hindu Trinity – Brahma- Vishnu- Shiva and the Mexican Trinity are Ho- Huitzilopochtli- Tlaloc …
The idols were represented with serpents round their heads, as for Lord Shiva.-basically raised Kundalini.
The Swastika sign of this area , seen on a “huaco” pot had with four dots inside, a Vedic sign .
The ancient American’s dresses (male and female) were simple and similar to those of Hindu dresses.
Aztec Kingdom.
Ayar Inoa King used to wear a turban, earring and a trishul type trident in his hand…
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A festival called Sita-Ram (Situa – Raimi) was celebrated in Mexico during Nav-Ratri or Dussehra period which has been described on…
मैक्सिको सिटी दक्षिणीय अमेरिका में माया सभ्यता की एजटेक शाखा सितुआ- रैमी के नाम से सदीयों से सीता और राम का उत्सव मनाती है ।
Categories: ancient india and mayan civilization, ancient indian science, ancient indian temples, ancient science, aztec, aztec mayan sumerian inca and
रामायण का रचनात्मक स्वरुप इतना अनूठा, सशक्त और जीवंत है कि अन्य कोई कथा उसे पचा नहीं पायी, उल्टे उसके आख्यान इसके उपाख्यान बन कर रह गये। उसकी विशिष्टता वस्तुत: उसके स्वरुप के लचीलापन में समाहित है। देश-काल के परिवर्तन के साथ राम कथा के अंतर्गत भी बदलाव आता गया। देशी-विदेशी साहित्य सर्जकों ने इसे अपने-अपने ढंग से सजाया संवारा। रामकथा जहाँ कहीं भी गयी, वहाँ के हवा-पानी में घुल-मिल गयी, किंतु अनगिनत परिवर्तनों के बीच भी उसकी सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही, अनेक शिखरों वाले धवल-उज्जवल हिमालय की तरह जिसका रंग सुबह से शाम तक बार-बार बदलता है, फिर भी उसके मूल स्वरुप में कोई बदलाव होता नहीं दीखती। संभवत: इसी कारण रामकथा पर आधारित जितनी मौलिक कृतियों का सृजन हुआ, संसार के किसी भी अन्य कथा को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका।

राम चरित अनेक देशों के प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक संदर्भ और सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरुप ढलता-सँवरता रहा। रामकथा पर आधारित विदशी कृतियाँ विविधता और विचित्रम से परिपूर्ण है। इनमें कोई बहुत संक्षिप्त है,तो कोई अत्यधिक विस्तृत। किसी को बौद्ध जातकों के सांचे में ढाला गया है, तो किसी का इस्लामीकरण हुआ है। उसका रचनात्मक स्वरुप ढीला-ढाला रेश्मी जामें जैसा है जिसे जो कोई पहन ले तो खूब फबता है और कोई यह भी नहीं कह सकता कि यह किसी दूसरे से उधार लिया गया है।

रामायण की महनीयता उस परम सौंदर्य को रुपायित करने में अंतर्निहित है जिससे परम मंगलमय सत्य उद्भाषित होता है। रामायण का महानायक राम मर्यादा पूरुषोत्तम हैं। उनकी पुरुषोत्मता यथार्थ में जीकर मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में समाहित है,तो उनकी ईश्वरीयता उस चिरंतन सत्य से अवतरित होती है जो प्राणियों के लिए हितकर है, 'सत्यं भूतहितं प्रोक्तम्'। निर्गुण निर्पेक्ष सत्य का यही सगुण-सापेक्ष रुप राम के चरित्र में उजागर हुआ है। रामायण का सत्य और सौंदर्य उसकी शिवता में समाहित है और उसका मंगलघर अपरिमित आनंद रस से परिपूर्ण -

राम निस्सन्देह विश्व में प्राचीनत्तम चरित्र है ।
   दुनियाँ में बहुत सी राम के जीवन से सम्बद्ध कथाऐं प्रचलित हैं ।
परन्तु बहुत सी काल्पनिक कथाओं का समायोजन  राम के ऊपर आरोपित करके तत्कालीन रूढ़िवादी
ब्राह्मण समाज ने समाज में विकृितियों का ही बीज-वपन किया है । विदित हो कि समाज के सभी ब्राह्मण दोषी नहीं थे । और जो दोषी थे उन्हें उनके किये की सज़ा मिली ।
वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड सर्ग (१०९) के श्लोक (३४ )में राम द्वारा महात्मा बुद्ध को चोर तथा नास्तिक कहा जाना "
भी इसी विकृति का उदहारण है ।
" यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि"
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अर्थात् जैसे चोर होता है वैसे ही तथागत बुद्ध को चोर तथा नास्तिक समझो...
जावालि ऋषि के नास्तिकता सेे पूर्ण वचन सुनकर उग्रतेज वाले श्री राम उन वचनों को सहन नहीं कर सके
और उनके वचनों की निन्दा करते हुए जावालि ऋषि से बोले :--- निन्दाम्यहं कर्म पितु: कृतं , तद्धयास्तवामगृह्वाद्विप मस्तबुद्धिम् ।
बुद्धयाsनयैवंविधया चरन्त ,
सुनास्तिकं धर्मपथातपेतम् ।।
          वाल्मीकि-रामायण अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३३ वें श्लोक---
अर्थात् हे जावालि मैं राम अपने पिता (दशरथ) के इस  कार्य की निन्दा करता हूँ ।
कि तुम्हारे जैसे वेद मार्ग से भ्रष्ट-बुद्धि धर्म-च्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।
क्योंकि बुद्ध जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते घूमा फिरा करते हैं ।
वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं अपितु धर्म -मार्ग से पतित भी हैं ।
राम :  बुद्ध के विषय में कहते हैं ।
"यथा ही चोर: स, तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धिय: शक्यतम:
प्रजानानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्ध: स्यातम्
-----------.           अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण रूप में----
अर्थात् जैसे चोर दण्ड का पात्र होता है
उसी प्रकार बुद्ध और उनके नास्तिक अनुयायी भी दण्डनीय हैं ।

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विचारणीय तथ्य है
कि बुद्ध के समकालिक राम कब थे ?
जबकि दक्षिण-अमेरिका में माया संस्कृति के अनुयायी लोग राम-सितवा के रूप में राम और सीता का उत्सव हजारों वर्षों से बुद्ध से भी पूर्व काल से मानते आरहे हैं ।
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           विचार-विश्लेषण--- यादव -योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र०---

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