मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

{आत्मा का रहस्य और जीवन का स्वरूप } यादव योगेश कुमार'रोहि' विचार विश्लेषक -)

                 { आत्मा का रहस्य }
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सृष्टि - सञ्चालन का
            सिद्धान्त  बडा़ अद्भुत है ।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि  नहीं समझ सकती है ।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।
और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम
सर्व प्रथम  आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें !
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सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें !
तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान है...
और  मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होना भी चाहिए
..मैं योगेश कुमार रोहि इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ, जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के प्रणाम द्वारा प्राप्त किए हैं ।

...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु आर्य साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा उपनिषदों को उद्धृत किया है ।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत का ही अंग है ।
परन्तु यह महाभारत में परवर्ती काल खण्ड में समायोजित की गयी ।
गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के अनुमोदक है । तथा अन्य मत कृष्ण पर आरोपित करके वर्णित किए गये हैं ।
फिर भी कृष्ण के मत
..📕📗📘📙📓📔📒📚📖✏...... तथा विश्व की प्राचीन संस्कृतियों से भी कुछ मुख्य
तथ्य उद्धृत किए हैं ;जो समीचीन और प्राचीन भी हैं ।
विशेषत: ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों से तथा यूनानी संस्कृति से प्राचीन दार्शनिकों के मत .
जिनकी एक शाखा भारतीय धरा पर द्रविड कहलाती है
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प्राचीन ग्रीक के आर्य दार्शनिकों की यह प्रबल अवधारणा थी ;
और आज भी भौतिकी की सैद्धान्तिक कषौटी पर यह तथ्य प्रमाणित भी हो गया है, कि परमाणु अविनाशी है  , और संसार की निर्माण इकाई है ।
परमाणु सृष्टि की पूर्ण इकाई अर्थात् व्यष्टि रूप है ।
संस्कृत साहित्य में अणु शब्द जीव का वाचक है ।
अन् धातु से व्युत्पन्न है ।
"अण्यते येन असौ अणु कथ्यते "
अण् :- शब्दे प्राणने च आत्मने पदीय क्रिया रूप
(अण--उन् ) क्षुद्रे, सूक्ष्मपरिमाणवति, द्रव्ये, लेशे च । (चिना, काङनी, श्यामा) प्रभृति सूक्ष्मधान्ये पु० ।
“अनणुषु दशमांशोऽणुष्वथैकादशांश” इति लीला० । अणुशब्दोहि परिमाणविशेषवाची । तत्र परिमाणस्य चतस्रोविधा स्थृलसूक्ष्मदीर्घह्रस्वत्वरूपाः “अथादेशोनेतिनेति” इत्युपक्रम्य “अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमित्यादि” श्रुत्या चतुर्विधपरिमाणस्यैव ब्रह्मणि निषेधेन परिमाणचातु- र्विध्यलाभः एतन्मूलकमेव शारीरकभाष्ये, वैशेषिकसूत्रे, न्यायकदल्याञ्च उक्तभेदमादायैव परिमाणचातुर्विध्यमुक्तम् । तत्रारम्भकद्रव्यभूयस्त्वाभूयस्त्वाभ्यां स्थूलसूक्ष्मत्वे ह्रस्वदीर्घत्वे तु तत्तच्छब्दे वक्ष्येते । एवञ्च सूक्ष्मपदार्थे आरम्भकाल्प- त्वात् अणुत्व यत्र चारम्भकद्रव्यान्तरं नास्ति स तादृशपरिमाणवत्त्वात् परमाणुरित्युच्यते । एवञ्च अणुशब्दस्य शुक्लादिशब्दवत् अणुत्वपरिमाणविशिष्टद्रव्य- वाचकत्वम् । अणुत्वञ्च सूक्ष्मत्वम् अतिसूक्ष्मत्वञ्च । तत्र सूक्ष्मपरत्वेन सर्षपचीनकादिद्रव्याणामारम्भकद्रव्याल्प- त्वात् तत्र प्रवृत्तिः । तदभिप्रायेणैव “अनणुषु दशमांशोऽ- णुष्यथैकादशांश” इति लीला० । श्रुतौ च “अणोर- णीयानिति” निर्द्देशः । अतिसूक्ष्मपरत्वे च “नित्या स्यादणु लक्षणेति” भाषा० तस्य नित्यत्वञ्च आरम्भकावयवा भावात् “अनित्या च भवेदन्या सैवावयवयोगिनीति” भाषापरिच्छेदेऽवयवयोगेनैवानित्यत्वकथनात् परमाणोस्तद- भावेनैव नित्यत्वं भङ्क्योक्तमिति नैयायिकाः । वेदा- न्तिनस्तु सूक्ष्मभूतानामपि ब्रह्मण उत्पत्तिमुररीचक्रुः । यथा च एतन्मतयीः युक्तायुक्तत्वे तथा आरम्भवादशब्दे वक्ष्यते । सूक्ष्मार्थग्राहित्वेन अणुबुद्धिरित्यादौ, अणुर्जीव इत्यादौ च दुर्ज्ञेयत्वेन तत्रैतस्य भाक्तत्वम् । एवञ्च अणुत्वपरिमाणरूपगुणमादाय तद्वत्येवास्य प्रवृत्तिः तेन तत्र त्रि० स्त्रियान्तु गुणवचनतया वा ङीप् । अण्वी । “अण्व्योमात्राविनाशिन्यो दशार्द्धानाञ्च यः स्मृता इति मनुः । “अस्थूलमनणु इत्यादि” श्रुतिः अत्र नञ्तत्पुरुष समासनिष्पन्नस्य अनणुशब्दस्य “परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयो- रिति” पाणिन्युक्तेः परवल्लिङ्गत्वेन अणुशब्दस्यापि नपुंसकत्व--------

शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी.. ग्रीक भाषा में भी ऐटम {Atom}शब्द का अभिधेय अर्थ है-------×----अकाट्य तत्व ---अर्थात् जिसे काटा नहीं जा सकता है वही ऐटम है -----
    ✳⛔. Atom--a particle of matter so small that so far as the older chemistry goes..Cannot be Cut (Temnein) or divided...
अर्थात् पदार्थ का सबसे शूक्ष्मत्तम कण जिसे और काटा नहीं जा सकता है , वही एटम atom है संस्कृत भाषा में ऐटम शब्द का भाषान्तरण परमाणु शब्द के रूप में किया है, परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में  अभिधात्मक अर्थ होता है... सबसे शूक्ष्म जीव (अणुः) ...ऐटम शब्द A नकारात्मक उपसर्ग तथा Tomos क्रियात्मक विशेषण से बना हुआ रूप है ..Tomos का भी धातु रूप (क्रिया का मूल रूप) Temnein =to cut अर्थात् काटना ...है
....Atoms -A priv.and tomos----Verbal adjective form of Temnein Rootword ...A=-privation of tomos..A tomos ...
इस शब्द के अतिरिक्त ग्रीक भाषा में सत्तावान् तत्व का वाचक ऐटिमॉन Etymon..शब्द भी है,
जिसका मूल रूप (Etymos) है , ..इसी सन्दर्भ में हम यह भी स्पष्ट कर दें की ग्रीक भाषा में ऐटमॉस (Atmos) शब्द का मूल अर्थ वायु तथा बाष्प और शूक्ष्म तत्व भी है।
और तो अॉटोस् (Autos) शब्द भी आत्मा का वाचक है ।
जिसका तादात्म्य संस्कृत स्वत: शब्द से प्रस्तावित है ।
atom (n.)
late 15c., as a hypothetical indivisible extremely minute body, the building block of the universe, from Latin atomus (especially in Lucretius) "indivisible particle," from Greek atomos "uncut, unhewn; indivisible," from a- "not" (see a- (3)) + tomos "a cutting," from temnein "to cut" (from PIE root *tem- "to cut"). An ancient term of philosophical speculation (in Leucippus, Democritus); revived scientifically 1805 by British chemist John Dalton. In late classical and medieval use also a unit of time, 22,560 to the hour. Atom bomb is from 1945 as both a noun and a verb; compare atom

अवेस्ता ए जन्द में संस्कृत स्वत: (ख़ुद) बन गया और इसी से ख़ुदा शब्द का भी विकास हुआ है ।
...अब हम यह प्रतिपादित करेंगे कि आत्मा और ऐटम Atom वास्तव में क्या है ?
परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में मूल अर्थ है ।(सबसे छोटी आत्मा )सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ के निर्माण की शू्क्ष्मत्तम इकाई परमाणु है ।
जिसे काटा नहीं जा सकता -
संस्कृत भाषा में प्राचीन काल से आत्मा का वाचक प्रेत शब्द है ।
जो भारोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध है ।
spirit (v.)
1590s, "to make more active or energetic" (of blood, alcohol, etc.), from spirit (n.). The meaning "carry off or away secretly" (as though by supernatural agency) is first recorded 1660s. Related: Spirited; spiriting.
spirit (n.)
mid-13c., "animating or vital principle in man and animals," from Anglo-French spirit, Old French espirit "spirit, soul" (12c., Modern French esprit) and directly from Latin spiritus "a breathing (respiration, and of the wind), breath; breath of a god," hence "inspiration; breath of life," hence "life;" also "disposition, character; high spirit, vigor, courage; pride, arrogance," related to spirare "to breathe," perhaps from PIE *(s)peis- "to blow" (source also of Old Church Slavonic pisto "to play on the flute"). But de Vaan says "Possibly an onomatopoeic formation imitating the sound of breathing. There are no direct cognates."
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Meaning "supernatural immaterial creature; angel, demon; an apparition, invisible corporeal being of an airy nature" is attested from mid-14c.; from late 14c. as "a ghost" (see ghost (n.)). From c. 1500 as "a nature, character"; sense of "essential principle of something" (in a non-theological context, as in Spirit of St. Louis) is attested from 1680s, common after 1800; Spirit of '76 in reference to the qualities that sparked and sustained the American Revolution is attested by 1797 in William Cobbett's "Porcupine's Gazette and Daily Advertiser."
From late 14c. in alchemy as "volatile substance; distillate;" from c. 1500 as "substance capable of uniting the fixed and the volatile elements of the philosopher's stone." Hence spirits "volatile substance;" sense narrowed to "strong alcoholic liquor" by 1670s. This also is the sense in spirit level (1768). Also from mid-14c. as "character, disposition; way of thinking and feeling, state of mind; source of a human desire;" in Middle English freedom of spirit meant "freedom of choice." From late 14c. as "divine substance, divine mind, God;" also "Christ" or His divine nature; "the Holy Ghost; divine power;" also, "extension of divine power to man; inspiration, a charismatic state; charismatic power, especially of prophecy." Also "essential nature, essential quality." From 1580s in metaphoric sense "animation, vitality."

According to Barnhart and OED, originally in English mainly from passages in Vulgate, where the Latin word translates Greek pneuma and Hebrew ruah. Distinction between "soul" and "spirit" (as "seat of emotions") became current in Christian terminology (such as Greek psykhe vs. pneuma, Latin anima vs. spiritus) but "is without significance for earlier periods" [Buck]. Latin spiritus, usually in classical Latin "breath," replaces animus in the sense "spirit" in the imperial period and appears in Christian writings as the usual equivalent of Greek pneuma. Spirit-rapping is from 1852

Ifrit
This article is about the supernatural creature. For other uses, see Ifrit (disambiguation).
"Afrit" and "Efreet" redirect here. For the compiler of crossword "puzzles of Afrit", see Alistair Ferguson Ritchie. For the Dungeons & Dragons creature, see Efreeti (Dungeons & Dragons).
Ifrit, efreet, efrite, ifreet, afreet, afrite and afrit (Arabic: ʻIfrīt: عفريت, pl ʻAfārīt: عفاريت) are supernatural creatures in some Middle Eastern stories. In Islam, this term refers to the most powerful and dangerous Jinn.

Ifrit एफ्रित -----

An Ifrit named Arghan Div brings the chest of armor to Hamza
GroupingJinn
RegionMiddle East
DescriptionEdit

The Ifrits are a class of infernal spirits, classified as a djinn and also held to be a death spirit drawn to the life-force (or blood) of a murdered victim seeking revenge on the murderer. As with ordinary djinn, an Ifrit may be either a believer or an unbeliever, good or evil,[1] but it is most often depicted as a wicked, ruthless and evil being; a powerful Shaitan.[2] Ifrits are believed to inhabit the layers of the underworld[3] or desolated places on the surface, such as in ruins or caves. According to Islamic sources, the ifrit has a fiery appearance with flames leaping from his mouth and may endanger people, but can be destroyed if someone recites a Du'a (Islamic prayer) near it.[4] In folklore, they are commonly thought to take the shape of the deceased at the moment of death, or the appearance of Satan.
Etymology
Makhan embraced by an ifrit. Illustration to Nizami's poem Hamsa. Bukhara, 1648.
Traditionally, Arab philologists trace the derivation of the word to عفر (afara, "to rub with dust").[citation needed] Some Western philologists, such as Johann Jakob Hess and Karl Vollers, attribute it to Middle Persian afritan which corresponds to Modern Persian آفريدن (to create).
Islamic scripture
An Ifrit is mentioned in the Qur'an, Sura An-Naml (27:38-40):
[Solomon] said, "O assembly [of jinn], which of you will bring me her [the Queen of Sheba's] throne before they come to me in submission?" An ifrit (strong one) from the jinn said: "I will bring it to you before you rise from your place. And verily, I am indeed strong, and trustworthy for such work." One with whom was knowledge of the Scripture said: "I will bring it to you within the twinkling of an eye!" Then when Solomon saw it placed before him, he said: "This is by the Grace of my Lord - to test me whether I am grateful or ungrateful! And whoever is grateful, truly, his gratitude is for (the good of) his own self; and whoever is ungrateful, (he is ungrateful only for the loss of his own self). Certainly, my Lord is Rich (Free of all needs), Bountiful."
According to a hadith from Bukhari, an Ifrit tried to interrupt the prayers of Muhammed. Muhammed overpowered the Ifrit and wanted to fasten him to a pillar so everyone could see him in the morning. Then, he remembered the statement of Solomon and he dismissed the Ifrit.[5][6]
According to a narration about Muhammeds Night Journey, an Ifrit sought Muhammed with a fiery torch. To get rid of him, he asked Jibraʾil for help. Jibraʾil then taught him how to seek refuge from God, whereupon the Ifrit get away from him.[7]
An Ifrit, meeting Imam Ali, is mentioned in different shi'i accounts. According to the Shabak community, Imam Ali became incensed against an Ifrit for his unbelieving. Consequently, he bound the Ifrit in chains. The Ifrit appealed to all prophets since Adam for his release. But no one was able to free him, until Muhammed found him and took the Ifrit to Imam Ali. He freed him on the condition that he would profess his faith for Islam.[8]
Arabic literatureEdit
In One Thousand and One Nights, in a tale called "The Porter and the Young Girls", there is a narrative about a prince who is attacked by pirates and takes refuge with a woodcutter. The prince finds an underground chamber in the forest leading to a beautiful woman who has been kidnapped by an ifrit. The prince
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प्रेतः, पुं, (प्र + इ गतौ + क्तः ।) नरकस्थप्राणी । इत्यमरः । ३ । ३ । ५९ ॥ भूतभेदः । मृते, त्रि । इति मेदिनी । ते, ३७ ॥ (यथा, मनुः । २ । २४७ । “आचार्य्ये तु खलु प्रेते गुरुपुत्त्रे गुणान्विते । गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुवत् वृत्तिमाचरेत् ॥”) वैदिकविधानेन और्द्धदेहिकाभावात् विष्णुद्बेषाच्च बहुनरकभोगान्ते प्रेतशरीरं भवति । यथा, -- लोमश उवाच । “ततो बहुतिथे काले स राजा पञ्चतां गतः । वैदिकेन विधानेन न लेभे सौर्द्धदेहिकम् ॥ विष्णुप्रद्वेषमात्रेण युगानां सप्तविंशतिम् । भुक्त्वा च यातनां यामीं निस्तीर्णनरको नृपः ॥ समया गिरिराजन्तु पिशाचोऽभूत्तदा महान् ॥” तस्य रूपं यथा, -- “देवद्युतिरधीयानः शुश्राव करुणामयः । समागत्य ततस्तत्र तं पिशाचं ददर्श सः ॥ विकरालमुखं दीनं पिशङ्गनयनं भृशम् । ऊर्द्ध्वमूर्द्धजकृष्णाङ्गं यमदूतमिवापरम् ॥ चलज्जिह्वञ्च लम्बोष्ठं दीर्घजङ्घशिराकुलम् । दीर्घाङ्घ्रिं शुष्कतुण्डञ्च गर्त्ताक्षं शुष्कपञ्जरम् ॥” इति पाद्मोत्तरखण्डे १६ अध्यायः ॥ * ॥ सेवकायापद्रुतो यः सेवकस्त्वपरिग्रहः । ताबुभावपि जायेते प्रेतौ कालान्नकिंप्रदः ॥ द्विजानुमन्त्रितो भुङ्क्ते शूद्रान्नं वा द्बिजस्य तु । शूद्रेणैव द्बिजः प्रेतो निरयानुपगच्छति ॥ गीतवाद्यरतो नित्यं मद्यपस्त्रीनिषेवणात् । द्यूतमांसप्रियो यस्तु स प्रेतो जायते नरः ॥ वृथारेतो वृथामांसो वृथावादी वृथामतिः । निन्दको द्बिजदेवानां स प्रेतो जायते नरः ॥ वृद्धं बालं गुरुं विप्रं योऽवमन्य भुनक्ति वै । कन्यां ददाति शुल्केन स प्रेतो जायते नरः । न्यासापहर्त्ता मित्रध्रुक् परपाकरतस्तथा । विश्रम्भघाती कूटश्च स प्रेतो जायते नरः ॥ निर्द्दोपान् सुहृदो नारीस्त्यजेत् कालान्न पाति यः । धनमीहेत यस्तेषां स प्रेतो जायते नरः ॥ हस्त्यश्वरथयानानि मृतशय्यासनादि यः । कृष्णाजिनञ्च गृह्णाति अनापत्सु गतो द्विजः ॥ तथोभयमुखीं कालं सशैलां मेदिनीं द्बिजः । कुरुक्षेत्रस्य यद्दानं चाण्डालात् पतितात्तथा । मासिकेऽपि नवश्राद्धे भुञ्जन् प्रेतान्न मुच्यते ॥ ब्रह्महा गोवधी स्तेयी सुरापो गुरुतल्पगः । भूमिकन्यापहर्त्ता यः स प्रेतो जायते नरः ॥ लालासङ्करकृन्नित्यं वर्णसङ्करकृत्तथा । योनिसङ्करकृच्चापि स प्रेतो जायते नरः ॥ विक्रीणाति विषं शङ्खं तिलानां लवणस्य तु । गवां केशरिणां मोहात् विक्रयात् प्रेततां व्रजेत् ॥ कूटमाप्ये च तौल्येन क्रयं क्रीणाति विक्रयात् । मद्यतक्रपयोदध्नां स प्रेतो जायते नरः ॥ स्त्रीरक्तो मद्यमाने तु मृगयामनुधावति । नित्यनैमित्तिकेऽदाता स प्रेतो जायते नरः ॥” इत्यग्निपुराणम् ॥ * ॥ मनुष्याणां आतिवाहिकदेहानन्तरं प्रेतदेहो भवति । यथा, विष्णुधर्म्मोत्तरे । “तत्क्षणादेव गृह्णाति शरीरमातिवाहिकम् । आतिवाहिकर्संज्ञोऽसौ देहो भवति भार्गव ! ॥ केवलं तन्मनुष्याणां नान्येषां प्राणिनां क्वचित् । प्रेतपिण्डैस्ततो दत्तैर्देहमाप्नोति भार्गव ! ॥ भोगदेहमिति प्रोक्तं क्रमादेव न संशयः । प्रेतपिण्डा न दीयन्ते यस्य तस्य विमोक्षणम् ॥ श्माशानिकेभ्यो देवेभ्य आकल्पं नैव विद्यते । तत्रास्य यातना घोराः शीतवातातपोद्भवाः ॥ ततः सपिण्डीकरणे बान्धवैः स कृते नरः । पूर्णे संवत्सरे देहमतोऽन्यं प्रतिपद्यते ॥ ततः स नरके याति स्वर्गे वा स्वेन कर्म्मणा ॥” इति शुद्धितत्त्वम् ॥
अमरकोशः
प्रेत पुं। 
नरकस्थप्राणी 
समानार्थक:नारक,प्रेत 
1।9।2।2।1 
सङ्घातः कालसूत्रं चेत्याद्याः सत्त्वास्तु नारकाः। प्रेता वैतरणी सिन्धुः स्यादलक्ष्मीस्तु निरृतिः॥ 
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्येतरः, अलौकिकप्राणी
प्रेत वि। 
मृतः 
समानार्थक:परासु,प्राप्तपञ्चत्व,परेत,प्रेत,संस्थित,मृत,प्रमीत 
2।8।117।1।4 
परासुप्राप्तपञ्चत्वपरेतप्रेतसंस्थिताः। मृतप्रमीतौ त्रिष्वेते चिता चित्या चितिः स्त्रियाम्.। 
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, अचलनिर्जीववस्तु
वाचस्पत्यम्
'''प्रेत'''¦ त्रि॰ प्र--इ--क्त। 
१ मृते अमरः। 
२ नरकस्थे जीवभेदे
३ प्रिशाक्षभेदे आतिवाहिकदेहोत्तरं 
४ जायमानदेहभेद्र-[Page4533-b+ 38] युते और्द्ध्वदेहिकक्रियाऽभावे तद्रूपप्राप्तिकथा पाद्मोत्त॰ ख॰
_________________________________________
१६ अ॰ यथा 
“ततो बहुतिथे काले स राजा पञ्चता-ङ्गतः। वैदिकेन विधानेन न लेभे चौर्द्ध्वदोहकम्। विष्णु-प्रद्वेषमात्रेण युगानां सप्तविंशतिम्। भुक्त्वा च यातनांथामीं निस्तीर्णनरको नृपः। समया गिरिराजन्तु पि-शाचोऽभूत्तदा महान्”। तस्य रूपं यथा 
“देवद्युतिर-वीयानः शुश्रा{??}णस्वनम्। सभ्रागत्य ततस्तत्र त” पिशाचं ददर्श सः। विकरालमुखं दीनं पिशङ्गनयनंभृशम्। ऊर्द्ध्वमूर्द्ध्वजकृष्णाङ्गं यमदूतमिवापरम्। चल-जिह्वञ्च लम्बोष्ठं दीर्घजङ्घसिराकुलम्। दीर्घाङ्घ्रि-शुष्कतुण्डञ्च गर्त्ताक्षं शुष्कपञ्चरम्”। और्द्ध्वदेहिककरणेऽपि केषाञ्चित् कर्मविशेषेण प्रेतत्वप्रा-प्तिस्तत्रोक्ता यथा 
“हविर्जुह्वति नाग्नौ ये गोविन्द”{??}र्चयन्ति ये। लभन्ते नात्मविद्याञ्च सुतीर्थविमुखाश्चये। सुवर्णं वस्त्रताम्बूलं रत्नमन्नं फलं जलम्। आ-र्स्तेभ्यो न प्रयच्छन्ति सर्वेषु कृतदारकाः। ब्रह्मस्वञ्चस्त्रीधनानि लोभादेव हरन्ति वे। बलेन छद्मनावापि धूर्त्ताश्च परवञ्चकाः। नास्तिकाः कुहका-श्चौरा ये चान्ये बकवृत्तयः। बालवृद्धातुरस्त्रीषु नि-र्दयाः सत्यवर्जिताः। अग्निदा गरदा ये च ये चान्येकूटमाक्षिणः। अगम्यागामिनः सर्वे ये चान्ये ग्राम-याजिनः। व्याधाचरणसम्पन्ना वर्णादिधर्मवर्जिताः। ये चोपदेवदनुजरक्षीयक्षादिसेविनः। सर्वदा मादकद्रव्य-पानमत्ता हरिद्विषः। देवतोद्दिष्टपतितनृपश्राद्धान्नभो-जिनः। असत्कर्मरता नित्यं सर्वपातकपापिनः। पाषण्दधर्माचरणाः पुरोधोवृत्तिजीविनः। पितृमातृ-स्नषापत्यस्वदारत्यागिनश्च ये। ये कदर्य्याश्च लुब्धाश्चनास्तिका धर्मदूषकाः। त्यजन्ति स्वामिनं युद्धे त्यजन्तिशरणागतम्। गवां भूमेश्च हर्त्तारो ये चान्ये रत्न-दूषकाः। महाक्षेत्रेषु सर्वेषु प्रतिग्रहरताश्च ये। परद्रोहरता ये च तथा ये प्राणिहिंसकाः। परापवा-दिनः पापा देवतागुरुनिन्दकाः। कुप्रतिग्राहिणः सर्वेसम्भवन्ति पुनःपुनः। प्रेतराक्षसपैशाच्यतिर्य्यग्वृक्षकुयो-निषु। न तेषां सुखलेशोऽस्ति इह लोके परत्र च”। पाद्मोत्तरखण्डे 
१८ अ॰। पञ्चप्रेतोपख्यानं तत्रैव यथा 
“ब्राह्मण उवाच प्रेतानां नाम जातीनां युष्माकं सम्भवःकथम्। किं तत् कारणमुद्दिश्य यूयमीदृशनामसाः”। प्रेता उचुः 
“अहं स्त्राद् सदा भुक्त्वा दद्यां पर्युषितं
[Page4534-a+ 38] सदा। एतत्कारणमुद्दिश्य नाम पर्य्युषितं 
१ मम। सूचिता बहवोऽनेन विप्राद्या ह्यन्नकाङ्क्षिणः। एतत्-कारणमुद्दिश्य सूचीमुख 
२ मिमं विदुः। शीघ्रं गच्छतिविप्रेण याचितः क्षुधितेन वै। पश्चाद्भुङ्क्ते द्विजःशिष्टमेष शीघ्रक 
३ उच्यते। गृहोपरि सदा भुङ्क्तेस्वाद् द्विजभयेन हि। द्विजाय कुत्सितं दत्त्वा एषरोहक 
४ उच्यते। मौनेनापि स्थिरो नित्यं याचितोविलिखन्महीम्। अस्माकमपि पापिष्ठो लेखको 
५ नामएष वै। मेढ्रेण लेखको याति रोहकः पार्श्वतःशिराः। शीघ्रकः पङ्गुतां प्राप्तः सूची सूचीमुखोऽभवत्”। प्रेताःहारस्तत्रोक्तो यथा 
“द्विज उवाच 
“ये जीवा भुवि तिष्ठन्तिसर्वे आहारमूलकाः। युष्माकमपि चाहारं श्रोतु-मिच्छामि तत्त्वतः” प्रेता ऊचुः 
“शृणु आहारमस्माकंसर्वसत्त्वविगर्हितम्। श्लेष्ममूत्रपुरीषेण योषितान्तु मलेनच। गृहाणि त्यक्तशौचानि प्रेता भुञ्जन्ति तत्र वै। स्त्रीभिर्जग्धानि जीर्णानि संकीर्णापहतानि च। मले-नातिजुगुप्सानि प्रेता भुञ्जन्ति तत्र वै। भयलज्जा-बिहीनानि पतितैः सेवितानि च। अन्योन्यदस्यु युक्तानिप्रेता भुञ्जन्ति तत्र वै। कलहान्वितशोकानि त्यक्तशो-भानि मण्डनैः। सवर्चस्कानि भाण्डानि प्रेता भुञ्जन्तितत्र वै। बलिमन्त्रविहीनानि द्विजादृष्टानि यानि तु। नियमव्रतहीनानि प्रेता भुञ्जन्ति तत्र वै। गुरवो नैवपूज्यन्ते स्त्रीजितानि मलानि च। सक्रोधान्यपवित्राणिप्रेता भुञ्जन्ति तत्र वै। भुञ्जन्ति भिन्नभाण्डेषु मर्य्यादा-रहितेषु च। अन्योन्योच्छिष्टयुक्तेषु तत्र प्रेतास्तु भु-ञ्जते। सकेशमाक्षिकोच्छिष्टं पूति पर्युषितं तथा। सक्रो-धञ्च सशोकञ्च तच्च प्रेतेषु भोजनम्। सनग्नं भोजनंयच्च नोत्तरीयं पदासनम्। सोष्णीषं सासुरीकक्षं तच्चप्रेतेषु भोजनम्। अर्द्धग्रासं महाग्रासं सोत्क्षिप्तंपतितं तथा। दुर्भुक्तं गोष्ठिकञ्चैव तच्च प्रेतेषु भोजनम्। सौतिकं गृतकञ्चैव राजसं कलुषीकृतम्। निर्दीपं कृमि-वच्चाग्रे यद्भुक्तं प्रैतिकन्तु तत्। एतत्ते कथित्त सर्वंयत् प्रेतेष्येव भोजनम्। निर्वाणाः प्रेतजात्या बैकृच्छामस्थां द्विजोत्तम”। प्रेतत्वाभावकारणं यथान षेतो जायते येन येन चैवेह जायते। एतत्सर्वं समा-सेन प्रकूहि वदतां वर!” ब्राह्मण उवाच 
“एकरात्रंत्रिरात्रं वा कृच्छ्रं चान्द्रायणादिकम्। व्रतेष्वप्यु षितोयख क ऐतो जायते नरः। मिष्टान्नपानदाताथ सततं[Page4534-b+ 38] श्रद्धयान्वितः। देवपूजापरो नित्यं न ष्रेतो जायते नरः। त्रिरग्निरेकपञ्चाग्निर्निरग्निर्वाप्युपासकः। सर्वभूतद-यापन्नो न प्रेतो जायते नरः। तुल्यमानापमानश्चतुल्यः काञ्चनलोष्टयोः। तुल्यः शत्रौ च मित्रे च नप्रेतो जायते नरः। देवतातिथिपूजासु गुरुजातिषुनित्यशः। वेदशास्त्ररतो नित्यं न प्रेतो जायते नरः। जितक्रोधो मदैश्वर्य्यतृष्णासङ्गविवर्जितः। क्षमाऽक्रोधसुशीलश्च न प्रेतो जायते नरः। देवतातिथिपूजास्तुपर्वतांश्च नदीस्तथा। पश्येद्देवालयांश्चैव न प्रेतो जायतेनरः”। प्रेतत्वकारणं यथा 
“शूद्रान्नं यो द्विजो भुङ्क्तेयः क्रामति द्विजोत्तमम्। वृत्तिहा द्विजदेवेषु स प्रेतोजायते नरः। मातरं पितरं वृद्धं ज्ञातिं साधुजनं तथा। लोभात् त्यजति यः स्निग्धं स प्रेतो जायते नरः। अ-याज्ययाजकश्चैव याज्यञ्च परिवर्जयेत्। शूद्रानुग्रहकर्त्ताच स प्रेतो जायते नरः। कुज्योतिषी कुविद्यस्तु कुज-नेषु कुदेशकः। शूद्रसेवाकरो राज्ञां स प्रेतो जायतेनरः। सेवनायापद्रुतो यः सेवकस्त्वपरिग्रहः। तावु-भावपि जायेते प्रेतौ कालान्न किंप्रदौ। द्विजानुम-न्त्रितो भुङ्क्ते शूद्रान्नं वा द्विजस्य तु। शूद्रेणैव द्विजःपेतो निरयानुपगच्छति। गीतवाद्यरतो नित्यं मद्यप-स्त्रीबिषेषणात्। द्यूतमांसप्रियो यस्तु स प्रेतो जायतेनरः। वृथारेता वृथामांसो वृथावादो वृथामतिः। निन्दको द्विजदेवानां स प्रेतो जायते नरः। वृद्धं बालंगुरुं विप्रं योऽवमन्य भुनक्ति वै। कन्यां ददाति शु-ल्केन स प्रेतो जायते नरः। न्यासापहर्त्ता मित्रध्रुकपरपाकरतस्तथा। विश्रम्भघाती कूटश्च स प्रेतो जा-यते नरः। निर्दोषान् सुहृदो नारीस्त्यजेत् कालान्नपाति यः। धनमीहेत यस्तेषां संप्रेतो जायते नरः। हस्त्यश्वरथयानानि मृतशय्यासनादि यः। कृष्णाजि-नञ्च गृह्णानि अनापत्सुगतो द्विजः। तथोभयमुखींकालं सशैलां मेदिनीं द्विजः। कुरुक्षेत्रस्य यद्दानं चा-ण्डालात् पतितात्तथा। मासिकेऽपि नवश्राद्धे भुञ्जन्प्रेतान्नभुङ्मतः। ब्रह्महा गोबधी स्तेयी सुरापो गुरु-तल्पगः। भूमिकन्यापहर्त्ता यः स प्रेतो जायते नरः। नानासङ्करकृन्नित्यं वर्णसङ्करकृत्तथा। योनिसङ्करकृ-च्चापि स प्रेतो जायते नरः। विक्रीणाति विषं शङ्खंतिलानां लवणस्य तु। गवा कशरिणां मोहात् विक्र-यात् प्रेततां व्रजेत्। कूटमाप्येन तौल्येन क्रयं क्री-[Page4535-a+ 38] णाति विक्रयात्। मद्यतक्रपयोदध्नां स प्रेतो जायतेनरः। स्त्रीरक्तो मद्यपाने तु मृगयामनुधावति। नि-त्यनैमित्तिकेऽदाता स प्रेतो जायते नरः” अग्निपु॰। मनुष्याणाञ्च दाहादिक्रिययाऽतिवाहिकदेहानन्तरं प्रेत-देहो भवति यथाह विष्णुधर्मोत्तरे( 
“तत्क्षणादेव गृह्णाति शरीरमातिवाहिकम्। षातिवाहिकसंज्ञोऽसौ देहो भवति भार्गव!। केवलंतन्मनुष्याणां नान्येषां प्राणिनां क्वचित्। प्रेतपिण्डै-स्ततो दत्तैर्देहमाप्नोति भार्गव!। भोगदेहमिति प्रोक्तंक्रमादेव न संशयः। प्रेतपिण्डा न दीयन्ते यस्य तस्यविमोक्षणम्। श्माशानिकेभ्यो देवेभ्य आकल्पं नैवविद्यते। तत्रास्य यातना घोराः शीतवातातपोद्भवाः। ततः सपिण्डीकरणे बान्धवैः स कृते नरः। पूर्णे संवत्सरेदेहमतोऽन्यं प्रतिपद्यते। ततः स नरके याति स्वर्गेवा स्वेन कर्मणा” शु॰ त॰। 
५ प्राप्तपितृलोके 
“अत ऊर्द्ध्वंसंवत्सरे संवत्सरे प्रेतायान्नं दद्यात्” गोभिलः 
“प्रेतलोकंपरित्यज्य आगता ये महालये” ति॰ त॰।
शब्दसागरः
प्रेत¦ mfn. (-तः-ता-तं) Dead, deceased. m. (-तः) 
1. A ghost, a goblin, a spirit, an evil being, especially animating the carcases of the dead. 
2. The spirit before obsequial rites are performed. E. प्र be- fore, इत gone.
Apte
प्रेत [prēta], p. p. [प्र-इ-क्त] Departed from this world, dead, deceased; स्वजनाश्रु किलातिसंततं दहति प्रेतमिति प्रचक्षते R.8.86.
तः The departed spirit, the spirit before obsequial rites are performed.
A ghost, evil spirit; प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः Bg.17.4; Ms.12.71.
The inhabitant of hell (नारक); शुश्रुवुर्दारुणा वाचः प्रेतानामिव भारत Mb.6.46.19.
The manes (पितर); प्रथिता प्रेतकृत्यैषा पित्र्यं नाम विधुक्षये । तस्मिन् युक्तस्यैति नित्यं प्रेतकृत्यैव लौकिकी ॥ Ms.3.127. -Comp. -अधिपः an epithet of Yama. -अन्नम् food offered to the manes. -अयनः N. of a particular hell. -अस्थि n. the bone of a dead man. ˚धारिन् an epithet of Śiva. -आवासः a burialground, cemetery. -ईशः, -ईश्वरः an epithet of Yama.-उद्देशः an offering to the manes. -कर्मन् n., -कृत्यम्, -कृत्या obsequial or funeral rites; Ms.3.127. -कायः a corpse. -कार्यम् see प्रेतकर्मन्; तस्य स प्रेतकार्याणि कृत्वा सर्वाणि भारत Mb.3.138.7. -गत a. dead. -गृहम् a cemetery.-गोपः the keeper of the dead. -चारिन् m. an epithet of Śiva. -दाहः the burning of the dead, cremation.-धूमः the smoke issuing from a funeral pile. -नदी the river वैतरिणी. -नरः a goblin, ghost. -निर्यातकः, -निर्हारकः a man employed to carry dead bodies; प्रेतनिर्यातकश्चैव वर्जनीयाः प्रयत्नतः Ms.3.166. -पक्षः 'the fortnight of the manes', N. of the dark half of Bhādrapada when offerings in honour of the manes are usually performed; cf. पितृपक्ष. -पटहः a drum beaten at a funeral. -पतिः Yama (the Indian 'Pluto'). -पात्रम् a vessel used in a Śrāddha ceremony. -पुरम् the city of Yama. -भावः death. -भूमिः f. a cemetery. -मेधः a funeral sacrifice. -राक्षसी the holy basil (तुलसी). -राजः an epithet of Yama. -लोकः the world of the dead; प्रेत- लोकं परित्यज्य आगता ये महालये Ulkādānamantra. -वनम् a cemetery. -वाहित a. possessed by a ghost. -शरीरम् the body of the departed spirit. -शुद्धिः f., -शौचम् purification after the death of a relative. -श्राद्धम् an obsequial offering made to a departed ralative during the year of his death.
हारः one who carries a dead body.
a near relative.
प्रेत [prēta] प्रेति [prēti] प्रेत्य [prētya], प्रेति प्रेत्य &c. See under प्रे.
Monier-Williams
प्रेत/ प्रे mfn. departed , deceased , dead , a dead person S3Br. Gr2S3rS. MBh.
प्रेत/ प्रे m. the spirit of a dead person ( esp. before obsequial rites are performed) , a ghost , an evil being Mn. MBh. etc. . 241 , 271 MWB. 219 ).
प्रेत/ प्रे etc. See. p. 711 , col. 3.
Vedic Index of Names and Subjects
'''Preta,''' ‘departed,’ is used to denote a ‘dead man’ in the Śatapatha [[ब्राह्मण|Brāhmaṇa]], x. 5, 2, 13;
Bṛhadāraṇyaka [[उपनिषद्|Upaniṣad]], v. 11, 1, etc. but not in the sense of ‘ghost,’ which only appears later, in post-Vedic literature.
Vedic Rituals Hindi
प्रेत पु.
(प्र + इण् गतौ + क्त) बिछुड़ा हुआ अथवा मृत, भा.पि.मे. 1.1.15।
ghost (n.)
Old English gast "breath; good or bad spirit, angel, demon; person, man, human being," in Biblical use "soul, spirit, life," from Proto-Germanic *gaistaz (source also of Old Saxon gest, Old Frisian jest, Middle Dutch gheest, Dutch geest, German Geist "spirit, ghost"). This is conjectured to be from a PIE root *gheis-, used in forming words involving the notions of excitement, amazement, or fear (source also of Sanskrit hedah "wrath;" Avestan zaesha- "horrible, frightful;" Gothic usgaisjan, Old English gæstan "to frighten").
Ātman (/ˈɑːtmən/) is a Sanskrit word that means inner self or soul.[1][2][3] In Hindu philosophy, especially in the Vedanta school of Hinduism, Ātman is the first principle,[4] the true self of an individual beyond identification with phenomena, the essence of an individual. In order to attain liberation (moksha), a human being must acquire self-knowledge (atma jnana), which is to realize that one's true self (Ātman) is identical with the transcendent self Brahman.[2][5]
The six orthodox schools of Hinduism believe that there is Ātman (soul, self) in every being, a major point of difference with Buddhism, which does not believe that there is either soul or self.[6]
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         (Etymology and meaning)

"Ātman" (Atma, आत्मा, आत्मन्) is a Sanskrit word which means "essence, breath, soul."[7][8] It is related to the PIE *etmen (a root meaning "breath"; cognates: Dutch adem, Old High German atum "breath," Modern German atmen "to breathe" and Atem "respiration, breath", Old English eþian).[7]
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Ātman, sometimes spelled without a diacritic as atman in scholarly literature,[9] means "real self" of the individual,[10][11] "innermost essence",[12] and soul.[10][13] Atman, in Hinduism, is considered as eternal, imperishable, beyond time, states Roshen Dalal, "not the same as body or mind or consciousness, but is something beyond which permeates all these".[14][15][16] Atman is a metaphysical and spiritual concept for the Hindus, often discussed in their scriptures with the concept of Brahman.[17][18][19]
Development of the concept
Schools of thought
Influence of Atman theory on Hindu Ethics
Atman – the difference between Hinduism and Buddhism
यूरोपीय भाषा परिवार में ब्रीथ (breath)
शब्द का साम्य संस्कृत रूप भृ भर्जने भरणे च से प्रस्तावित है :--एतदादयो वयत्यन्ता अनुदात्ता उभयपदिनः ।
भृञ् भरणे (पालन करना)
 एतदादयो वयत्यन्ता अनुदात्ता उभयपदिनः ( भरति बभर बभ्रतुः बभर्थ बभृव ) क्रादिनियमादिडभावः पिति गुणः, वृद्धिः, अन्यत्राजादौ यण् ( भर्त्ता भरिष्यति ) "ऋद्धनोः स्ये'' इतीट् ( भिरतु अभरत् भरेत ) आशिषि ( भषीष्ट ) "उश्च'' इति आत्मनेपदविषययोर्ज्ञलाद्योर्लिङ्सिचोः कित्त्वान्न गुणः ( अभृत ) "हस्वादङ्गात्'' इति सिचो लोपः सिजाश्रायो गुणः "उश्च'' इति कित्त्वान्न् भवति ( बिभरिषति )"सनीवन्त'' इत्यादिना वेट् इडभावे सनो ज्ञलदित्वात् "इको ज्ञल्'' इति कत्त्वे"अजज्ञनगमाम्'' इति दीर्घे "उदोष्ठ्याप्'' इति लोपे ( अबर्भः ) एवं रिग्रीकोरपि "सनीवन्त'' इत्यत्रभरेति शपा निर्देशात् यङ्लुकि नेङ्विकल्प इति ( बर्भरिषति ) इत्येवं भवति अत एव शपो निर्देशात् आचार्याः शब्विकरणं नेच्छन्तोति मतं प्रत्युक्तम् तथा च वर्द्धमानसुधाकरशिवस्वाम्यादयो भरेति
शपा निर्देशाद्भृञ् भरण इति भौवादिकस्य ग्रहणमिच्छन्ति ( भारयति अबीभात् भर्त्ता ) भर्त्तुर्भावकर्मणी, ( भार्त्रम् ) उद्गात्रादित्वादञ् ग्रामभर्त्ता ) याजकादित्वात् समासः जारं भरति इति ( जारभरः ) जारभरेति वचादिपाठादच् ( भूत्यः ) भरणपीयः "भृञोसंज्ञायाम्'' इति क्यपि तुक् संपूर्वाद् विभाषेत्युक्तत्वात् ण्यदपि भवतीति ( संभृत्यः संभार्य इति ) क्यब्ण्यतौ भवतः संज्ञायां ण्यदेव (भार्येति) पाणिगृहीतीत्यर्थः ( संभार्यं ) गवामयनो हविर्विशेषः भृत्या भरणविशेषः "संज्ञायां समज'' इत्यादिना स्त्रियां भावे क्यप्, "कर्मणि भूतौ''इति निर्देशात् ( भूतिरिति ) क्तिन् भवति ( आत्मम्भरिः "फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च'' इति इन्प्रत्ययान्तो निपातितः चकारात् ( कुक्षिम्भरिश्चेति ) वृत्तौ अत एव चकारात् ज्योत्स्राकरम्भमुदरम्भरयश्चकोरा इत्यपि निर्वाह्मः ( विश्वम्भरिः "फलेग्रहिरात्मत्मम्भरिश्च'' इति इन्प्रत्ययान्तो निपातितः चकारात् ( कुक्षिम्भरिश्चेति ) वृत्तौ अत एव चकारात् ज्योत्स्राकरम्भमुदरम्भरयश्चकोरा इत्यपि निर्वाह्मः ( विश्वम्भरा ) "संज्ञायां भृतॄवृजि'' इत्यादिना खचि मुमागमः ( भारः ) घञ् वंशभारं व इति, ( वांशभारिकः ) तद्धरतिवहत्त्यावइति भाराद्वंशादिभ्यः'' वंशादिपूर्वपदाद् भारातात् प्रातिपदिकात् द्वितीयासमर्थात्वहत्यादिष्वर्थेषु ठगितिठक् अपो भरतीति (अभ्रम् ) मूलविमूजादित्वात् कः अभ्रं करोति, ( अभ्रायते ) शब्दवैरकलाभ्रकण्वमेघेभ्यःकरणेइति द्वितीयान्तात्.करणे क्यङ् करणं क्रिया "अकृत्सार्वधातुकयोः'' इति दीर्घः ( भरुः,भर्त्ता ) भृमशीत्युप्रत्ययः ( बभ्रुः ) पिङ्गललोचनो नकुलश्च "कुर्भुश्च'' इति कुप्रत्यये द्वत्वम् ( भरतः ) "पृशियज्'' इत्यतच् ड्विदयं जुहोत्यादौ, ऋकारान्तो भर्त्सनादौ क्र्यादौ 882
संस्कृत भाषा में भी  (भय) तथा भृ  परस्पर विकसित रूप हैं ।
bear (v.)
Old English beran "to carry, bring; bring forth, give birth to, produce; to endure without resistance; to support, hold up, sustain; to wear" (class IV strong verb; past tense bær, past participle boren), from Proto-Germanic *beran (source also of Old Saxon beran, Old Frisian bera, Old High German beran, German gebären, Old Norse bera, Gothic bairan "to carry, bear, give birth to"), from PIE root *bher- (1) "carry a burden, bring," also "give birth" (though only English and German strongly retain this sense, and Russian has beremennaya "pregnant").
Old English past tense bær became Middle English bare; alternative bore began to appear c. 1400, but bare remained the literary form till after 1600. Past participle distinction of borne for "carried" and born for "given birth" is from late 18c.
Many senses are from notion of "move onward by pressure." From c. 1300 as "possess as an attribute or characteristic." Meaning "sustain without sinking" is from 1520s; to bear (something) in mind is from 1530s; meaning "tend, be directed (in a certain way)" is from c. 1600. To bear down "proceed forcefully toward" (especially in nautical use) is from 1716. To bear up is from 1650s as "be firm, have fortitude."
bear (n.)
"large carnivorous or omnivorous mammal of the family Ursidae," Old English bera "a bear," from Proto-Germanic *bero, literally "the brown (one)" (source also of Old Norse björn, Middle Dutch bere, Dutch beer, Old High German bero, German Bär), usually said to be from PIE root *bher- (2) "bright; brown." There was perhaps a PIE *bheros "dark animal" (compare beaver (n.1) and Greek phrynos "toad," literally "the brown animal").
Greek arktos and Latin ursus retain the PIE root word for "bear" (*rtko; see Arctic), but it is believed to have been ritually replaced in the northern branches because of hunters' taboo on names of wild animals (compare the Irish equivalent "the good calf," Welsh "honey-pig," Lithuanian "the licker," Russian medved "honey-eater"). Others connect the Germanic word with Latin ferus "wild," as if it meant "the wild animal (par excellence) of the northern woods."
Symbolic of Russia since 1794. Used of rude, gruff, uncouth men since 1570s. Stock market meaning "speculator for a fall" is 1709 shortening of bearskin jobber (from the proverb sell the bearskin before one has caught the bear); i.e. "one who sells stock for future delivery, expecting that meanwhile prices will fall." Paired with bull from c. 1720. Bear claw as a type of large pastry is from 1942, originally chiefly western U.S. Bear-garden (1590s) was a place where bears were kept for the amusement of spectators.
संस्कृत भाषा में भालू को भल्लुक बाद में कहा गया है ।
स्त्री भल्ल--उ(ऊ) क । (भालूक) १ जन्तुभेदे अमरः स्त्रियां ङीष् । २ श्योनाकभेदे राजनि० । स च वीरभल्लादिगणे सुश्रुते उक्तः । द्रव्यगणशब्दे दृश्यम् । ३ कोषस्थे जलजन्तुभेदे “शङ्खशङ्खनखशुक्तिशम्बूकभल्लूक- प्रभृतयः कोशस्थाः” सुश्रुतः ।
श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक प्रमाण रूप में है
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक
चैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:
अर्थात् शस्त्राणि जिसे काट नहीं सकता ,अग्नि जला नहीं सकती और जल भिगोय नहीं सकता,
और न वायु जिसे सुखा सकती है , वह आत्मा है ।
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यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल Neutral है।
परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा बीटा गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध हुए ⚪⚪⚪⚪⚪⚪⚪
भौतिक शास्त्री लेप्टॉन क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं ।
केवल उसके अवयव रूप हैं ।।
परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक Nucleusभी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो......
.क्यों कि ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है।
परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है । अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है ।
..विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है ।
और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं ,जो  कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं ।
इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है ।
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है
इलेक्ट्रॉन ही   वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है
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परमाणु के द्रव्यमान का ९९.९४% से अधिक भाग नाभिक में होता है ।
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है ।
तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक आवेश होता है ।
और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता
तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओरआकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल  अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है ।
परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है
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यूरोपीय पुरातन भाषाओं में  विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द ---अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है ।
    जैसे पुरानी अंगेजी में--Aedm ..,
डच( Dutch) भाषा में Adem रूप..
प्राचीन उच्च जर्मन में *Atum---breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस--
..डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप
(Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना
परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है ।
     जो की Hotos रूप में था ।
जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है ।
श्री मद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है ।
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है । आत्मा में मूलत:  अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति अौर यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है ।
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है ।
ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द
परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है ।
ज्ञा धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है ।
सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है
सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं ।
जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध
और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है ।
क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है ।
एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ;
ठीक उसी प्रकार उस अनन्त  सच्चिदानन्द ब्रह्म
अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म
लीला रत है । यह संसार लीला है ।
और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है ।
अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है
....यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है ।
क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है ।
अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है । स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से ... भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं , और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है।
इसके परोक्ष में सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है ।
वह भी विज्ञान - संगत
क्योंकि व्यक्ति
इन्हीं दौनों  विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।
अन्यथा नहीं ,
...वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है ।
..और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :-----जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।
---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।
जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित  है , वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में
जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है ।
परन्तु इन  सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है ।
और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है !
जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है ।
परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :-
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ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।
पर खोज अभी तक जारी है ।
अपने स्वरूप से मिलने की
     सबकी अपनी तैयारी है ।
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर
हार का हार स्वीकार न कर
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है
शोक मोह में तू  क्यों खिन्न
कुछ पल के रिश्ते हैं यहाँ पर
'रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है ।
   
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शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है ।
जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है ।
परन्तु परछाँईयों में , परन्तु सबकी समाधान और निदान
आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है ।और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है । और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी । यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है ।
जबकि स्व: मे अात्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है ।

व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ; परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,
अज्ञानता है ।
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो
ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है ।

संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी  हैं जैसे :----
१--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है।
:---मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum )के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है , कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप Aten याAton के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया ,प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे
मिश्र की संस्कृति में अातुम atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था ।
और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक हुआ🎎🎎🎎🎎🎎🎎
...और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ ।
जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है
मिश्र वालों की अवधारणा थी की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है ।
जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है ।
.. इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा के विषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है--- " 🐥🌸🌸🌸🌸🌸?🐥🐥 ~~~
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पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उद्च्यते । . पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् इव अवशिष्यते .।।
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..ईशावास्योपनिषद...अर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है ।
..इधर श्रीमद भगवद् गीता उद्घोष करती है..🌷🌷🌷 ~ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
नैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुतः ||..
....... भारतीयों की धारणा के समान जर्मन आर्यों की अवधारणा भी यही थी ..जर्मन वर्ग की प्राचीन भाषाओं में आज भी आत्मा को एटुम (Atum) कहते हैं ।
पुरानी उच्च जर्मन O.H.G. भाषा में (Atum) शब्द प्रेत एवम् प्राण का वाचक है ।
अर्थात्
(Breath&Ghost )यही आत्मा शब्द मध्य उच्च जर्मन M.H.G. भाषा में Atem शब्द के रूप में हुआ ।
जर्मन आर्यों की सांस्कृतिक भाषा डच में यह शब्द (Adem )के रूप में प्रतिष्ठित है ।
और पुरानी अंग्रेजी (ऐंग्लो-सेक्शन)में यह शब्द ईड्म (Aedm) कहीं कहीं यही आत्मा शब्द आल्मा Alma के रूप में भी परवर्तित हुआ है ।
Atum (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है)
Atum (also known as Tem or Temu) was the first and most important Ancient Egyptian god to be worshiped in Iunu (Heliopolis, Lower Egypt), although in later times Ra rose in importance in the city, and eclipsed him to some extent. He was the main deity of Per-Tem ("house of Atum") in Pithom in the eastern Delta.
Although he was at his most popular in the Old Kingdom in Lower Egypt, he is often closely associated with the Pharaoh all over Egypt. During the New Kingdom, Atum and the Theban god Montu (Montju) are depicted with the king in the Temple of Amun at Karnak. In the Late Period, amulets of lizards were worn as a token of the god.
Atum was the creator god in the Heliopolitan Ennead. The earliest record of Atum is the Pyramid Texts (inscribed in some of the Pyramids of the Pharaohs of dynasty five and six) and the Coffin Texts (created soon after for the tombs of nobles).
In the beginning there was nothing (Nun). A mound of earth rose from Nun and upon it Atum created himself. He spat Shu (air) and Tefnut (moisture) from his mouth. Atum's two offspring became separated from him and lost in the dark nothingness, so Atum sent his "Eye" to look for them (a precursor to the "Eye of Ra", an epithet given to many deities at different times). When they were found, he named Shu as "life" and Tefnut as "order" and entwined them together.
Atum became tired and wanted a place to rest, so he kissed his daugther Tefnut, and created the first mound (Iunu) to rise from the waters of Nun. Shu and Tefnut gave birth to the earth (Geb) and the sky (Nut) who in turn give birth to Osiris, Isis, Set, Nephthys and Horus the elder. In later versions of the myth, Atum produces Shu and Tefnut by masturbation and splits up Geb and Nut because he is jealous of their constant copulation.
However, his creative nature has two sides. In the Book of the Dead, Atum tells Osiris that he will eventually destroy the world, submerging everything back into the primal waters (Nun), which were all that existed at the beginning of time. In this nonexistence, Atum and Osiris will survive in the form of serpents.
Atum, Ra, Horakhty and Khepri made up the different aspects of the sun. Atum was the setting sun which travelled through the underworld every night. He was also linked with solar theology, as the self-developing scarab who represented the newly created sun. As a result he is combined with Ra (the rising sun) in both the Pyramid and Coffin Texts as Re-Atum he who "emerges from the eastern horizon" and "rests in the western horizon". In other words as Re-Atum he died every night at dusk before resurrecting himself at dawn. The combined with the ruler of the gods. In this form, Atum also symbolized the setting sun and its journey through the underworld to its rising in the east.
Atum was the father of the gods, creating the first divine couple, Shu and Tefnut, from whom all the other gods are descended. He was also considered to be the father of the Pharaohs. Many Pharaohs used the title "Son of Atum" long after the power base moved from Iunu. Atum's close relationship to the king is seen in many cultic rituals, and in the coronation rites. A papyrus dating to the Late period shows that the god was of central importance to the New Year's festival in which the king's role was reconfirmed. From New Kingdom onwards, he often made an appearance inscribing royal names on the leaves of the sacred ished tree, and in some Lower Egyptian inscriptions Atum is shown crowning the Pharaoh (for example the shrine of Ramesses II in Pithom).
Texts in the New Kingdom tombs of the Valley of the Kings near Thebes depict Atum as an aged, ram-headed man who supervises the punishment of evildoers and the enemies of the sun god. He also repels some of the evil forces in the netherworld such as the serpents Nehebu-Kau and Apep (Apophis). He also provided protection to all good people, ensuring their safe passage past the Lake of Fire where there lurks a deadly dog-hea

आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष है .🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻..~
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न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||
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     (श्रीमद्भागवत् गीता .)..
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...वास्तव में सृष्टि का १/४ भाग ही दृश्यमान् ३/४ पौन भाग तो अदृश्य है ।
परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व -व्यापक व अपरिवर्तनीय है .
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. 🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ||
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🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻 अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है ।
.ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी  पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है ।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।

मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |(4)

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |
प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना एक सतत्  
कर्मों का रूप ही तो है ।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।

जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।

किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |(7)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(1
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता
प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)
कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे
यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ...
इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
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Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean "
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The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal    
, and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body "
ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
------------------------------------. Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13..
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कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है ।

( Philosophyof Druids About Soul)
Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean":

"The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body."
Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote:

With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion.
— Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13
इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती 
द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic)
थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी
ईश्वर को एक मानते थे ।
तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है ।
सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं ।
तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा  एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत ..
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🐴🐑🐘🐼🐴🐒🐻🐨🐣🐤🐛🐝🐜🐞🐌🐙🐍🐼.
...सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है,
हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी
..स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है ।
सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं ,
आत्मा की नहीं है.. प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है ..जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है ।
जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं ,उसी प्रकार प्रवृत्तियों के  (System Software ) तथा
(Application Software )हमारे मन /चित्त के सी. पी.यू. में समायोजित हैं.।
जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं ।  वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं ।
और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से होता है ,

जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न .....
जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से
आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन किया गया है ।
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आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
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बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।
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इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् ।
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आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।।
____________________________ कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४
अर्थात् आर्य मनीषियों ने आत्मा को  रथेष्ठा ही कहा है ।
अर्थात् (केवल प्रेरक (प्रेत.-- Spirit ) जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है ,
वह भी
अक्रिय रहकर ..)और यह शरीर रथ है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि है ।
और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है ।
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि ।
वस्तुत: -आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर उपभोग करने वाला भोक्ता है ।
ऐसी मनीषियों ने कहा है ।
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अत: मन को आत्मा बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करना चाहिए ।
    आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है ।
अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण कहा,
इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द है ।
जो अंगेजी में स्प्रिट (Spirit) है ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से  "espirit" शब्द है
जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing)
अथवा inspiration----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया Spirare---to breathe से है
भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् *(s)peis
से निर्धारित करते हैं ।
*bher- (1) संस्कृत रूप भृ
Proto-Indo-European root meaning "to carry," also "to bear children."
It forms all or part of: Aberdeen; amphora; anaphora; aquifer; auriferous; bairn; barrow (n.1) "frame for carrying a load;" bear (v.); bearings; Berenice; bier; birth; bring; burden (n.1) "a load;" Carboniferous; Christopher; chromatophore; circumference; confer; conference; conifer; cumber; cumbersome; defer (v.2) "yield;" differ; difference; differentiate; efferent; esophagus; euphoria; ferret; fertile; Foraminifera; forbear (v.); fossiliferous; furtive; indifferent; infer; Inverness; Lucifer; metaphor; odoriferous; offer; opprobrium; overbear; paraphernalia; periphery; pestiferous; pheromone; phoresy; phosphorus; Porifera; prefer; proffer; proliferation; pyrophoric; refer; reference; semaphore; somniferous; splendiferous; suffer; transfer; vociferate; vociferous.
It is the hypothetical source of Sanskrit
(भरति ) भृ भर्जने भरणे च  भृ ढोना भार शब्द का विकास
अंगेजी का ब्रीथ( breath )तथा बर्थ(birth )
यम मूलक है , प्रेत शब्द का सम्बन्ध भृ धातु से मान्य है
bharati "he carries, brings," bhrtih "a bringing, maintenance;" Avestan baraiti "carries;" Old Persian barantiy "they carry;" Armenian berem "I carry;" Greek pherein "to carry," pherne "dowry;" Latin ferre "to bear, carry," fors (genitive fortis) "chance, luck," perhaps fur "a thief;" Old Irish beru/berim "I catch, I bring forth," beirid "to carry;" Old Welsh beryt "to flow;" Gothic bairan "to carry;" Old English and Old High German beran, Old Norse bera "barrow;" Old Church Slavonic birati "to take;" Russian brat' "to take," bremya "a burden," beremennaya "pregnant."

महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में  आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की है जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार  करते हैं
एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।
नास्तिक कौन होता है?
अष्टाध्यायी के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिं’ इस सुप्रसिद्ध सूत्र के अनुसार जो परलोक और पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार करता है वह आस्तिक है और जो इन्हें नहीं मानता वह नास्तिक कहाता है। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) ‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। गृह निर्माण करनेवाले की खोज में। बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने  लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहां उन्होंने कहा है–भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ; जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है—“मैं  इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहां मरकर वहां उत्पन्न हुआ। वहां भी मैं इस नाम का था। सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“ इत्यादि। अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है। श्लोक है- ’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि। सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं। विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।‘
इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया। इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है। जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे?
महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण
के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ? सायद कदापि नहीं
यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है , तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?
बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया ।
इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।
   वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।
संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।
अन्त में ---------------------- 
     ये शरीर केवल एक रथ है ।
                   और रोहि आत्मा जिसमें  रथी है ।
इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
             बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।
मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
             घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
         यहाँ मञ्जिलों से पहले दुर्गति है ।।
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अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा  ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है !
मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा ,
केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !
अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
   अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।
    जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं ।
अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ; तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है। यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है। मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।
मनैव मनुष्या: मन ही मनुष्य है ।मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।
मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ;
अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं। उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।
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       विचार-विश्लेषण --- यादव योगेश कुमार रोहि ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़
दूरभाष संख्या ---8077160219..
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