शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

जादौन पठान राजपूतों का इतिहास

==वीर राजपूत यौद्धा वजीर रामसिंह पठानिया=========== वजीर राम सिंह पठानिया महान सपूतों में गिने जाते हैं।ईस्वी 1846 में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ क्रांति का ध्वजारोहण करने वाले त्याग, तपस्या व अद्भुत साहस के प्रतीक इस 24 वर्षीय नवयुवक ने अपने मुट्ठी भर साथियों के बल पर अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी थी।किन्तु दुर्भाग्य से देशवासी इस महान राजपूत यौद्धा के बारे में नही जानते. जीवन परिचय----- वजीर राम सिंह पठानिया के पिता नूरपुर रियासत के राजा वीर सिंह (1789-1846) के वजीर थे।इस वीर सपूत का जन्म नूरपुर रियासत के वजीर श्याम सिंह के घर 10 अप्रैल 1824 को हुआ था। अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष का कारण----- इतिहास के अनुसार नौ मार्च 1846 में अंग्रेज-सिक्ख संधि के कारण वर्तमान हिमाचल प्रदेश की अधिकांश रियासतें सीधे अंग्रेजी साम्राज्य के आधीन आ गई थीं। राजा वीर सिंह अपने दस वर्षीय बेटे राज कुमार जसवंत सिंह को नूरपुर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी छोड़कर स्वर्ग सिधार गए, अंग्रेजों ने राजकुमार जसवंत सिंह की अल्पावस्था का लाभ उठाते हुए उन्हें केवल पांच हजार रुपये वार्षिक देकर उनके सारे अधिकार ले लिए और इस रियासत को अपने शासन में मिलाने की घोषणा कर दी।वीर राम सिंह पठानिया बाल्यकाल से ही पराक्रमी थे, अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को सहन नहीं कर सका और उसने गुप्त रूप से रियासत के पठानिया व कटोच राजपूत नवयुवकों की एक सेना तैयार कर ली। रामसिंह पठानिया की वीरगाथा------- 1846 में जब दूसरा अंग्रेज-सिख युद्ध आरंभ हुआ, तो राम सिंह पठानिया ने अपने साथियों संग 14 अगस्त की रात्रि ममून कैंट लूटकर शाहपुरकंडी के दुर्ग पर धावा बोल दिया। इस आक्रमण से अंग्रेज बुरी तरह घबराकर भाग खड़े हुए। 15 अगस्त 1846 की सुबह राम सिंह पठानिया ने अपना केसरिया ध्वज यहां लहरा दिया और नूरपुर रियासत से अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का ऐलान कर दिया। इसके साथ ही राजकुमार जसवंत सिंह को रियासत का राजा तथा खुद को उनका वजीर घोषित कर दिया। इस घोषणा से पहाड़ी राजाओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई तथा जसरोटा के करीब पांच सौ राजपूत योद्धा मंगल सिंह मिन्हास के नेतृत्व में वीर पठानिया के झंडे तले आ गए। स्थिति को गंभीरता से लेते हुए जालंधर के कमिश्नर हेनरी लारेंस तथा कांगड़ा के डिप्टी कमिश्नर वनिस फैजी दल-बल के साथ शाहपुरकंडी पहुंचे और आक्रमण कर दिया। ये युद्ध कुछ दिनों तक चलता रहा, परंतु अंत में वीर राम सिंह पठानिया को खाद्य सामग्री के अभाव में दुर्ग को खाली करना पड़ा तथा रानीताल अपने साथियों सहित निकलकर वह माओफोर्ट के जंगलों में चले गए और गोरिल्ला युद्ध करते रहे। अंग्रेजी सेना ने उनका बहुत पीछा किया, लेकिन वह उन्हें चकमा देकर गुजरात(पंजाब के)जा पहुंचे। वहां उन्होंने सिख सेना से फौजी दस्ते व गोला-बारूद लेकर अपनी ताकत को बढ़ाया। राम सिंह ने अन्य राजाओं व सिखों के साथ मिलकर अंग्रेजों को मैदानों व पहाड़ी इलाकों में अलग-अलग उलझाए रखने की योजना बनाई। इसी दौरान जसवान के राजा उमेद सिंह, दतारपुर के राजा जगत सिंह व ऊना के राजा संत सिंह बेदी ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अंग्रेजों में खलबली मच गई और उसी साल उन्होंने पठानकोट पर आक्रमण कर दिया, लेकिन वीर राम सिंह ने साहस नहीं छोड़ा तथा अपना मोर्चा पठानकोट से उत्तर पश्चिम की ओर समुद्र तल से 2772 फुट की ऊंचाई पर स्थित डल्ले की धार पर लगाया। कुछ दिनों तक यहां पर भीषण युद्ध चला, इसमें अंतत: अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। रानी विक्टोरिया के एक रिश्तेदार राबर्ट पील के भतीजे जान पील ने वाहवाही बटोरने के लिए वीर राम सिंह के समीप पहुंचने का दु:स्साहस किया,लेकिन राम सिंह ने लैफ्टिनेंट जॉन पील व उसके अंग रक्षकों को मौत के घाट उतार दिया। डल्ले की धार पर जान पील की कब्र पर स्थित शिलालेख आज भी उस घटना की ऐतिहासिकता को दर्शाता है। रामसिंह पठानिया की गिरफ्तारी और दुखद अंत------ कहा जाता है कि वीर राम सिंह को अंग्रेजों ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वह पूजा पाठ में व्यस्त थे।गिरफ्तार करके उन्हें कांगड़ा किले में रखा तथा घोर यातनाएं दी गईं। सशस्त्र क्रांति का अभियोग लगाकर उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेज दिया गया, इस वीर की अंतिम इच्छा थी कि यदि अंग्रेजी सरकार उसे छोड़ दे तो भी वह आजादी के लिए तब तक लड़ता रहेगा, जब तक शरीर में प्राण बाकी हैं, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें रंगून जेल भेज दिया तथा रंगून जेल की यातनाएं सहते हुए यह वीर सपूत 11 नवंबर, 1849 को मातृभूमि की रक्षा करते हुए मात्र 24 वर्ष की आयु में ही देश की खातिर वीरगति को प्राप्त हो गया। "कोई किल्हा पठानिया जोर लडेया', 'कोई बेटा वजीर दा खूब लड़ेया' जैसी लोकगाथाओं के जरिये वीर शिरोमणी वजीर राम सिंह पठानिया को आज भी प्रथम सशस्त्र क्रांति के नायक के रूप में याद किया जाता है।1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भी दस वर्ष पूर्व यह चिराग अंग्रेजी साम्राज्य के सामने चुनौती देकर बुझ गया,परंतु उस वीर योद्धा की राख में वे चिंगारियां थीं,जो आगे चलकर विस्फोटक बनकर तब तक फूटती रहीं, जब तक भारत आजाद नहीं हो गया. उनकी वीरता और लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें प्रथम स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर पंजाब सरकार ने हर साल इस दिन को डल्ले की धार में वजीर राम सिंह पठानिया की याद में शहीदी दिवस मनाने की परंपरा शुरू की। मातृभूमि के चरणों में अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस शूरवीर की वीर गाथाएं आज तक पूरे क्षेत्र में बड़े आदर से गाई जाती है। समस्त भारत के राजपूत समाज की और से वीर रामसिंह पठानिया को शत शत नमन..... जय राजपूताना........ सन्दर्भ सूची----- 1-http://en.wikipedia.org/wiki/Nurpur,_India 2-https://www.google.co.in/url… 3-http://m.jagran.com/news/other-11765197.html 4-http://www.fallingrain.com/world/IN/11/Nurpur.html
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चन्द्रवंशी पठानिया राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास

मित्रों आज हम आपको पंजाब,जम्मू,हिमाचल प्रदेश के चंद्रवंशी पठानिया राजपूतो(Tanwar/tomar rajput Clan Pathania) के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे.यह वंश ईस्वी 1849 तक विदेशी आक्रमणकारियों के विरुध अपने संघर्षों के लिए जाना जाता है आक्रमणकारी चाहे मुसलमान हो या अंग्रेज। इस वंश के राम सिंह पठानिया अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी वीरता के लिए विख्यात हैं.यह वंश इतना बहादुर व झुझारू है के आजादी के बाद भी पठानिया राजपूतों ने सेना में 3 महावीर चक्र प्राप्त किये.....
-------------------पठानिया वंश की उत्पत्ति-------------------

इस वंश की उत्पत्ति पर कई मत हैं,
श्री ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 181-182 के अनुसार पठानिया राजपूत बनाफर वंश की शाखा है,उनके अनुसार बनाफर राजपूत पांडू पुत्र भीम की हिडिम्बा नामक नागवंशी कन्या से विवाह हुआ था हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच के वंशज वनस्पर के वंशज बनाफर राजपूत हैं,पंजाब के पठानकोट में रहने वाले बनाफर राजपूत ही पठानिया राजपूत कहलाते है.....
किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होता ,क्योंकि पठानिया राजपूतो के बनाफर राजपूत वंश से सम्बंधित होने का कोई प्रमाण नही मिलता है,

श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाडी कृत क्षत्रिय राजवंश के पृष्ठ संख्या 270-271 व 373 के अनुसार पठानिया राजपूत तंवर वंश की शाखा है,
नूरपुर के तंवर वंशी राजा बासु (1580-1613) ने अपने पुरोहित व्यास के साथ महाराणा मेवाड़ अमर सिंह से मुलाकात की थी,इसी व्यास का वंशज सुखानंद सम्वत 1941 वि० को उदयपुर आया था,बासु के समय के ताम्र पत्र के आधार पर सुखानंद के रिकॉर्ड में लिखा था कि "दिल्ली का राज छूटने के बाद राजा दिलीप के पुत्र जैतमल ने नूरपुर को अपनी राजधानी बनाया.
(वीर विनोदभाग-2 पृष्ठ संख्या 228)
निष्कर्ष---सभी वंशावलियों के रिकार्ड्स से भी यह वंश तंवर वंश की शाखा ही प्रमाणित होता है,,पंजाब में पठानकोट में रहने के कारण तंवर वंश की यह शाखा पठानिया के नाम से प्रसिद्ध हुई.वस्तुत: पठानकोट का प्राचीन नाम भी संभवत: पैटनकोट हो सकता है.
--------------पठानकोट एवं नूरपुर राज्य का इतिहास------------
Dynasty--Tanwar rajput Clan(Pathania)

Area--180 km² (1572)

राज्य का नाम--नूरपुर(पुराना नाम धमेरी)

------------इतिहास---------
पठानिया राजपूत तंवर राजा अनंगपाल तंवर के अनुज राजा जैतपाल के वंशज है जिन्होंने उत्तर भारत में धमेरी नाम के राज्य की स्थापना की और पठानकोट नामक शहर बसाया। धमेरी राज्य का नाम बाद में जा कर नूरपुर पड़ा। सं० 1849 में नूरपुर अंग्रेजो के अधीन हो गया।
इस राज्य कि स्थापना 11 वी सदी में (1095 ईस्वी)में दिल्ली के राजा अनंगपाल तंवर द्वित्य के छोटे भाई जैतपाल द्वारा की गई थी,जिन्होंने खुद को पठानकोट में स्थापित किया,उन्होंने यहाँ गजनवी काल से स्थापित मुस्लिम गवर्नर कुजबक खान को पराजित कर उसे मार भगाया और पठानकोट किला और राज्य पर अधिकार जमाया,इसके बाद जैतपाल तंवर और उनके वंशज पठानिया राजपूत कहलाने लगे,उनके बाद क्रमश: खेत्रपाल,सुखीनपाल,जगतपाल,रामपाल,गोपाल,अर्जुनपाल,वर्शपाल,जतनपाल,विदुरथपाल,किरतपाल,काखोपाल पठानकोट के राजा हुए.....
उनके बाद की वंशावली निम्नवत है------

राजा जसपाल(1313-1353)---इनके नो पुत्र हुए जिनसे अलग अलग शाखाएँ चल.
राजा कैलाश पाल(1353-1397)
राजा नागपाल(1397-1438)
राजा पृथीपाल(1438-1473)
राजा भीलपाल(1473-1513)
राजा बख्त्मल(1513-1558) ये अकबर के विरुद्ध शेरशाह सूरी के पुत्र सिकन्दर सूर के विरुद्ध लडे और 1558 ईस्वी में इनकी मृत्यु हुई.
राजा पहाड़ी मल(1558-1580)
राजा बासु देव(1580/1613)-----------
राजा बासु देव के समय उनसे पठानकोट का परगना छिन गया और राजधानी धमेरी स्थान्तरित हो गई,किन्तु बाद में राजा बासु ने अपनी स्थिति को मजबूत किया और अकबर के समय उन्हें 1500 का मंसब मिला जो जहाँगीर के समय बढ़कर 3500 हो गया.हालाँकि राजा बासु पर जहाँगीर को पूरा विश्वास नहीं था जिसका जिक्र तुजुक ए जहाँगीरी में मिलता है,राजा बासु ने नूरपुर धामेरी में बड़ा दुर्ग बनवाया जो आज भी स्थित है,शाहबाद के थाने में राजा बासु की ईस्वी 1613 में मृत्यु हो गई.
राजा सूरजमल(1613-1618)---राजा बासु ने अपने बड़े पुत्र जगत सिंह को राजा बनाया पर जहाँगीर ने उसके छोटे पुत्र सूरजमल को धमेरी का राजा बनाकर तीन हजार जात और दो हजार सवार का मनसबदार बना दिया,उनकी ईस्वी 1618 में चंबा में मृत्यु हो गई.
मियां माधो सिंह को जहागीर ने राजा का ख़िताब दिया उनकी ईस्वी 1623 में मृत्यु हो गई.
राजा जगत सिंह (1618-1646)---
शाहजहाँ के समय राजा जगत सिंह फिर से धामेरी के राजा बन गये.इन्हें पहले 300 का मनसब मिला बाद में बढ़कर 1000 आदमी और 500 घोड़े का थे
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