जन्माष्टमी के पावन अवसर पर संस्कृतियों कृष्ण भक्ति- साधकों को यादव समाज की ओर से शुभकामनाऐं - _________________________________________ कृष्ण को पुराणों से इतर वैदिक एवं उपनिषदों की धारा में प्रवाहवान देखने वाले :- यादव योगेश कुमार "रोहि" के सौजन्य से - ___________________________________. वेदों में भी राधा कृष्ण को गोप रूप में वर्णन किया गया । जिसका प्रमाण हम नीचे देते है । राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी । यह गोप शब्द वेदों में भी आया है । (यथा, ऋग वेद में गोप शब्द आभीर अथवा गोपालन करने वाले का वाचक है ।। १० । ६१ । १० । 👇 द्विबर्हसो य उप गोपम् आगुरदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् बर्ह--स्तुतौ असुन् । आस्तरणे ऋ० १ । ११४ । १० । आ + गुर्--क्विप् । प्रतिज्ञायाम् “अस्य यज्ञस्यागुर उदृचमशीय” श्रुतिः । अर्थात् जो दो वार स्तुति युक्त होकर प्रतिज्ञा कर विना गिरे हुए दक्षिणा देने के लिए गाय दुहने की इच्छा से पास आता है वह गोप धन्य है । वैदिक संहिताओं में राधा शब्द वृषभानु गोप की पुत्री का वाचक है व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग शब्द है👇 (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् + अच् । टाप् ):- राधा - अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है वह ईश्वरीय सत्ता। वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति के रूप में है । ______________________________👇 इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते | पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है । वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा तुम सोमरस पान करो। ___________________________________ विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७) _______________________________________ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। __________________________________ त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _________________________________ अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें । जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) _____________________________________ अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करें इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है । जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं। 🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃 यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं। पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशित किया है श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है । विदित हो कि भागवत महात्मय में ही राधा का वर्णन है । भागवत पुराण में नहीं ! इनमें से केवल छ : पुराणों में श्री राधा का उल्लेख है। जैसे " राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण ) राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण ) तत्रापि राधिका शाश्वत (आदि पुराण ) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने । (मत्स्य पुराण १३. ३७ (साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: ) (देवी भागवत पुराण ) राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है। गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत ) हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ). यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है । महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ? रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " (श्रीमदभागवतम १ ०. ३३.१ ६ कृष्ण रमा के संग रास करते हैं। यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है.लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं। रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं। आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १ राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी यह शब्द वेदों में भी आया है । व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् + अच् । टाप् ):- अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है । संस्कृत भाषा में रति आर: तथा रास जैसे शब्दों का जन्म ग्रीक शब्द इरॉस से हुआ है । अतः कृष्ण से रास शब्द जोड़ कर पुराण कारों ने अपनी काम भावनओं का ही अभिव्यञ्जन किया है । इरॉस शब्द को ग्रीक भाषा में देखें--- एरोस (संज्ञा) प्यार के देवता।, ग्रीक ईरोस (बहुवचन), "प्यार का भगवान या व्यक्तित्व", "प्यार से प्यार", "प्यार से प्यार", erassai संस्कृत भाषा में हर्ष् क्रिया मूल का विकास "प्यार करने के लिए, इच्छा," जो अनिश्चित मूल के है "स्व-संरक्षण और यौन सुख से आग्रह" की फ्रॉडियन भावना 1 9 22 से है। प्राचीन ग्रीक ने प्यार के चार तरीके अलग-अलग: ईराओ "प्यार में होना, जुनूनी या यौन इच्छा करना;" phileo "के लिए प्यार है;" agapao "के लिए संबंध है, के साथ संतुष्ट हो;" और स्टर्गो, विशेष रूप से माता-पिता और बच्चों या एक शासक और उनकी प्रजा के प्यार के लिए इस्तेमाल किया । erato (आरति रति ) म्यूज़ जो गृहिणी कविता की अध्यक्षता करती थी , जो ग्रीक erastos से शाब्दिक रूप से ". प्रेमिका ", "प्यारे, प्यारे, आकर्षक," ईरान के मौखिक विशेषण "प्रेम करने के लिए, प्यार में होना" औरत का मूल रूप संस्कृत आर्तवी से साम्य दर्शनीय है। अरबी भाषा में वुर( वॉर ) वुरा जैसे शब्दों का जन्म ऑराह से हुआ । -------------------------------------------------------------- अराह (अरबी: عورة) एक शब्द इस्लाम में प्रयोग किया जाता है । जो शरीर के अंतरंग भागों को दर्शाता है, पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए, जो कपड़ों के साथ कवर किया जाना चाहिए। अराह को उजागर करना इस्लाम में गैरकानूनी है और उसे पाप माना जाता है। अराह की सटीक परिभाषा इस्लामिक विचारों के विभिन्न स्कूलों के बीच भिन्न-भिन्न है। पैगंबर हजरत मौहम्मद साहिब नेे कहा, कि " किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के अराह को नज़र नहीं लेना चाहिए, और कोई औरत को दूसरी महिला के अराह को नहीं देखना चाहिए।" ______________________________________👇 मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे। पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं । वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं। इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है। द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं। इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है। ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है । परन्तु इन्द्र उपासक देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने इन्द्र को पराजयी कभी नहीं बताया। विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें--- अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् । सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र । सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० । अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० । पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है। :-आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त । द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि । वो वृषणो युध्य ताजौ ।14। अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था । उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया । इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाऐं चराता हुआ रहता है । चरन्तम् क्रिया पद देखें ! कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था । वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है । यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त वरुण , अग्नि आदि का वाचक है-'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग 105 बार हुआ है। उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'श्रेष्ठ' अर्थ में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इन्द्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परन्तु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे । अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४) शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं । (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:) ये लोग पश्चिमीय एशिया असुर लोग असीरियन रूप सुमेरियन पुराणों में वर्णित हैं । परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त के दशम् ऋचा में गोप जन-जाति के पूर्व प्रवर्तक एवम् पूर्वज यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है। _ " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (10/62/10ऋग्वेद ) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं । अत: सम्मान के पात्र हैं | यद्यपि पौराणिक कथाओं में यदु नाम के दो राजा हुए । एक हर्यश्व का पुत्र यदु तथा एक ययाति का पुत्र और तुर्वसु का सहवर्ती यदु । आभीर जन जाति का सम्बन्ध तुर्वसु के सहवर्ती यदु से है । जिसका वर्णन हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में भी है । यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है। हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
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