चौहानों का गूजरों ,जाटों से लेकर राजपूत संघ तक का सफर (गुर्जर पृथ्वीराज बनाम राजपूत पृथ्वीराज...)
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यद्यपि चौहान शब्द मूलत: चीनी भाषा परिवार मैण्डोरिन का है।
चौहानों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में भारतीय इतिहास में विभिन्न उल्लेख मिलते हैं ।
अठारहवीं सदी तक सम्पादित भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व के अनुसार अशोक के पुत्रों के समय राजस्थान के आबू पर्वत पर कान्यकुब्ज(कन्नौज ) के ब्राह्मणों द्वारा ब्रह्म-होम( यज्ञ) किया गया और उसमें वेद मन्त्रों के प्रभाव से चार क्षत्रिय उत्पन्न हुए।
इनमें चौहान वंश भी एक था ।👇
वीरगाथा काल के कवि चन्द्रवरदाई भी पृथ्वीराजरासो में चौहानों की उत्पत्ति आबू पर्वत की यज्ञ से बताते हैं ।
विदेशी विद्वान कुक आदि 'ने यज्ञ से उत्पन्न होने का तात्पर्य निर्धारण किया है ; कि यज्ञ से विदेशियों को शुद्ध कर हिन्दू बनाया जाना अतः ये विदेशी थे ।
'परन्तु कौन देशी है और कौन विदशी इसका निर्णय कौन करेगा ?
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति के अनुसार यज्ञ किये जाते थे और यज्ञ के रक्षक को क्षत्रिय के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता था ।
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(क्षतस्त्रायते त्रै+क पञ्चमी तत्पुरुष ( विनाश से रक्षा करता है वह क्षत्रिय हैै ) क्षद--संभृतौ कर्त्तरि त्र वा अर्द्धर्चा० ।
१ क्षत्रिये “यस्य ब्रह्म च क्षत्त्रं च उमे भवति ओदनः” श्रुतिः “यत्र ब्रह्म च क्षत्त्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह” यजुर्वेद२० । २५ ।
“क्षत्त्रं क्षतयजातिः” – “क्षतात् किल त्रायते इत्युग्रः क्षत्त्रस्य शब्दोभुवनेषु रूढः” रघुवंश महाकाव्य ।
अत्र मल्लिनाथ टीका “क्षणु हिंसायामिति धातोः सम्पदादित्वात् क्विप् गमादीनामिति वक्तव्यादनुनासिकलोपे तुगागमे च क्षदिति रूपं सिद्धम् क्षतः न शात् त्रायते इति क्षत्त्रः सुपीति योगविभागात् कः
तामेतां व्युत्पत्तिं कविरर्थतोऽनुक्रामति क्षतादित्यादिना ।
उदग्रः उन्नतः क्षत्त्रस्य क्षत्त्रवर्णस्य वाचकः शब्दः
क्षत्त्रशब्द इत्यर्थः क्षतात् त्रायते इति
अर्थात् जो विनाश ( क्षद् ) से रक्षा (त्राण ) करता है वही क्षत्रिय या क्षत्त्र है ।
अतः संभव लगता है आबू पर्वत पर जो अशोक के पुत्रों के समय यज्ञ किया गया उनमें चार क्षत्रिय वीरों को यज्ञ रक्षा के लिए तैनात किया गया ताकि यज्ञ में विघ्न न हो या वैदिक धर्म के अनुसार चलने वाले क्षत्रिय (व्रात्य) या सम्भवत: बौद्धधर्म मानने वाले चार क्षत्रियों को यज्ञ द्वारा वैदिकधर्म का संकल्प कराया होगा।
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इन क्षत्रियों के वंशज आगे चलकर उन्हीं के नाम से चौहान, परमार, प्रतिहार, चालुक्य हुए ।
अन्यथा अग्नि से आदमी कब उत्पन्न होता है ?
इसी प्रकार सूर्य और चन्द्र वंश की भारतीय मिथकों में जो परिकल्पना की गयी उसका मूलाधार साम और हाम का ही वंश है ।
जो एब्राहम के पुत्र थे ।🌸
सूर्यवंश या अग्नि वंश के उपवंश चौहानवंश में गुर्जर राजा विजयसिंह हुए डॉ. परमेश्वर सोलंकी का हरपालीया कीर्तिस्तम्भ का मूल शिलालेख सम्बन्धी लेख (मरू भर्ती पिलानी) अचलेश्वर शिलालेख (विक्रम संवत् 1377) है जिसमें चौहान आसराज के प्रसंग में लिखा है –
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राघर्यथा वंश करोहिवंशे सूर्यस्यशूरोभूतिमण्डलाग्रे |
तथा बभूवत्र पराक्रमेणा स्वानामसिद्ध: प्रभुरामासराजः | 16 ||
अर्थात पृथ्वीतल पर जिस प्रकार पहले सूर्यवंश में पराक्रमी (राजा) रघु हुए उसी प्रकार यहाँ पर (इस वंश) में अपने पराक्रम से प्रसिद्ध कीर्तिवाला आसराज (नामक) राजा हुआ |
इन शिलालेखों व साहित्य से मालूम होता है कि चौहान सूर्यवंशी रघु के कुल में थे ।
'परन्तु यह मात्र एक स्थापना ही है सूर्य या रघु वंश का सत्य अभी भी अन्वेषणीय है ।
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सोमेश्वर प्रथम प्रसिद्ध
चालुक्यराज जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल का पुत्र जो 1042 ई. में सिंहासन पर बैठा।
पृथ्वीराज के पूर्वजों सोमेश्वर प्रथम को गुर्जर कहा है।
और पिता का समृद्ध राज्य प्राप्त कर उसने दिग्विजय करने का निश्चय किया।
चोल और परमार दोनों उसके शत्रु थे।
पहले वह परमारों की ओर बढ़ा। राजा भोज धारा और मांडू छोड़ उज्जैन भागा और सोमेश्वर दोनों नगरों को लूटता उज्जैन जा चढ़ा।
हमीर महाकाव्य, और अजमेर के शिलालेख आदि भी चौहानों को सूर्यवंशी ही सिद्ध करते है।
और कालान्तरण में अग्नि से सूर्य की तरफ अग्रसर हो गया ये वंश ।
परवर्ती इतिहास कारों ने चौहानों को राजपूत लिखा
(अ) राजपूताने के चौहानों का इतिहास प्रथम भाग- ओझा पृ. 64 (ब) हिन्दू भारत का उत्कर्ष सी. वी. वैद्य पृ. 147) इन आधारों पं० गौरीशंकर ओझा, सी. वी. वैद्य आदि ने चौहानों को सूर्यवंशी क्षत्रिय सिद्ध किया है।
(हिन्दू भारत का उत्कर्ष पृष्ठ संख्या 140)
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'परन्तु यह तथ्य भी पूर्ण रूप से प्रमाणित नहीं है ।
क्योंकि चौहान शब्द भारत में लगभग चतुर्थ सदी के बाद में उदय हुआ है ।
श्वेत- हूणों को चाउ-हूण के नामान्तरण से भी सम्बोधित किया गया है ।
यूरोपीय इतिहास में चाउ-हूण चोल या चॉहल्स के वंशज हैं ।
चौहल्स नाम लेबनान, इज़राइल और मध्य एशियाई देशों के मूल निवासीयों में भी पाया जाता है।
यही वह अवधि थी जब चहल गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान पर कब्जा कर रहे थे।
यह वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासीयों के साथ अंतःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की है।
इस चौहान शब्द का प्रयोग आज भी विभिन्न देशों में विभिन्न जातियों में प्रचलित है ।
जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात , पाकिस्तान, कन्या ,कनाडा ,औमान , फिजी ,आदि ।
चाउ-हूण कबीले के लोग चतुर्थ सदी में कैस्पीयन समुद्र के पूर्व में वस गये थे ।
भारत में लगभग छठवीं और सातवीं सदी में इस चौहान शब्द का भारत में आगमन भी हुआ।
भारत में चौहानों का प्राचीन इतिहास का प्रारम्भ...👇
चौहानों के राज्य :-
1. अजमेर राज्य :-
पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र अजयराज हुए ; उन्होंने ही उज्जैन पर आक्रमण कर मालवा के परमार शासक नरवर्मन को पराजित किया था ।
अपनी सुरक्षा के लिए उन्होनें विक्रम संवत् 1113 से 1170 के लगभग अजमेर नगर की स्थापना की
यही से सांभर-अजमेर राजवंश का उदय हुआ
जिसमे वासुदेव प्रथम राजा थे ।👇
१-वासुदेव २-सामंत ३-नरदेव ४-जयराज ५-विग्रहराज ६-चन्द्रराज (प्रथम) ७-गोपेन्द्रराज (प्रथम) ८-दुर्लभराज ९-गोपेन्द्रराज (गुहक)
१०-चन्द्रराज (चन्दनराज)
११-गुहक
१२-चन्द्रराज
१३-वाक्पतिराज (प्रथम)
१४-सिंहराज
१५-सिंहराज (950)
१६-विग्रहराज द्वितीय (973)
१७-दुर्लभराज (973-997)
१८-गोविन्दराज
१९-वाक्पतिराज
२०-वीर्यराज
२१-चामुंडराज
२२-सिंहट
२३दुर्लभराज (1075-1080)
२४-विग्रहराज (1080-1105)
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✍२५-पृथ्वीराज ( प्रथम)1105-1113)
२६-अजयराज (1113-1133)
२७-अर्णोराज (1133-1151)
२८-विग्रहदेव (विसलदेव)(1152-1163)
२९-अपर गांगये (1163-1166)
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✍३०-पृथ्वीराज (द्वितीय )(1167-1169)
३१-सोमेश्वर (1170-1177)👇
✍३२-पृथ्वीराज (तृत्तीय) (1179-1192)
३३-गोविन्दराज (1192-)
३४-हरिराज (1192-1194)
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2. रणथम्भौर राज्य :-👇
पृथ्वीराज चौहान(तृत्तीय) (सन् 1179-1192) गुर्जरों के चाउ-हूण कबीले के ही राजा थे ।
चौहान चैची गुर्जरों का गोत्र है ।
12 वीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थान(अजमेर) और दिल्ली पर राज्य किया।
रासो ग्रन्थों में पृथ्वीराज को 'राय पिथौरा' भी कहा गया है।
वह गुर्जरों के चौहान गौत्र के प्रसिद्ध राजा थे। 👇
पृथ्वीराज चौहान का जन्म अजमेर राज्य के वीर गुर्जर महाराजा सोमश्वर के यहाँ हुआ था।
वही सोमेश्वर जो चालुक्यराज जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल के पुत्र थे।
इनकी माता का नाम कपूरी देवी था जिन्हें पूरे बारह वर्ष के बाद पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई थी।
पृथ्वीराज के जन्म से राज्य में राजनैतिक खलबली मच गई उन्हें बचपन में ही मारने के कई प्रयत्न किए गए 'परन्तु वे बचते गए।
पृथ्वीराज चौहान जो कि मूलत: गुर्जर ही थे बचपन से ही तीर और तलवारबाजी के शौकिन थे।
उन्होंने बाल अवस्था में ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फार डाला।
पृथ्वीराज के जन्म के समय ही महाराजा सोमेश्वर को एक अनाथ बालक मिला जिसका नाम चन्दबरदाई रखा गया।
जिसे कविताऐं लिखने का शौक था ; चन्दबरदाई और पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही अच्छे मित्र और परस्पर भाई के समान व्यवहार करते थे।
पृथ्वीराज की ननिहाल दिल्ली में ही थी ।
नाना अनंगपाल द्वितीय 1046 (1052 महरौली के लौह स्तंभ पर शिलालेख) से पृथ्वीराज को विरासत में दिल्ली का राज्य मिला ।
दिल्ली नामकरण भी दिल्लों नाम के गुर्जर या जाट राजाओं के आधार पर हुआ ।
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आज ढिल्लों एक जाट गोत्र है।✍
सन्दर्भ:-👇
✍↑ डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया (2010). जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु. जयपाल एजेन्सीज. पृ॰ 42. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-86103-96-1.
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विदित हो की तोमर भी जाट और गुर्जर गोत्र हैं
जो कालान्तरण में राजपूत संघ में भी समाहित हो गये
एक समय दिल्ली में अनंगपाल तंवर ( तोमर) गुर्जर राजा शासन करते थे ।
यद्यपि तोमर गुर्जरों के सहवर्ती ही थे ।
पृथ्वीराज के नाना तोमर थे ।
लोहाया तौंबर अभंग मुहर सब्ब सामंत ।—पृथ्वीराजसो, ४ । १९ ।
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चौहान और तोमर जाटों के गौत्र भी हैं ।👇
तोमर जाटों का वह समूह, जो राजस्थान में बधाल नामक स्थान पर बसा था, वह बधाला गोत्र के नाम से मशहूर हुआ।
तोमर जाट जो भिण्ड शहर से फैल उन्हें भिण्ड तोमर कहा गया तोमर जाट गोत्र का उप गोत्र भिंडा (भिण्ड तोमर) है।
भिण्ड मध्य प्रदेश में एक जिला है
तोअर (तुअर) जाट गोत्र हिन्दी में तोमर और पंजाबी और देसी बोली में (तुअर जट) कहा जाता है।
जब दिल्ली के अंतिम तोमर राजा अनंगपाल ने अपने राज्यों को खो दिया तो सलाक्शपाल तोमर फिर से अपने परिवार के 84 गांवों के 84 तोमर देश खाप की स्थापना की , ।
राजा सलाक्शपाल तोमर की समाधि स्थल बदोत नई ब्लॉक कृषि प्रसार विभाग से सटे दिल्ली सहारनपुर रोड पर है।
महाभारत में तोमर जाति का उल्लेख है :-
महाभारत के भीष्म पर्व । 👇
प्रोषकाश्च कलिङ्गाश्च किरातानां च जातयः।
तोमरा हन्यमानाश्च तथैव करभञ्जकाः ॥
6-9-69 (39002)
ये किरात जातियों के जनपद, तोमर, हन्यमान् और करभञ्जक इत्यादि है।
कालान्तरण में ये राजपूतों में या गूजरों मेंं समाहित हो गये ।
वायु पुराण (47/56) का कहना है कि नदी नलिनी बिंदुसारा से मध्य एशिया में बढ़ती है तोमर की भूमि के माध्यम से पारित वे वायु ब्रह्माण्ड, और विष्णु पुराण में नाम हैं.
1337 ई.के बोहर शिलालेख के अनुसार तोमर दिल्ली में चौहान से पहले सत्तारूढ़ थे पेहोवा शिलालेख में एक तोमर जायूला राजा से उतरते परिवार का उल्लेख है.
महाभारत में भीष्म पर्व, महाभारत / खण्ड छठे में 68वें श्लोक में उल्लेख तोमर (VI.68.17)
कर्ण पर्व महाभारत खण्ड अष्टम के 17 अध्याय विभिन्न श्लोकों में तोमर जाति का वर्णन 👇
VIII.17.3, VIII.17.4, VIII.17.16, VIII.17.20, VIII.17.22, VIII.17.104
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-an eastern hill tribe; फलकम्:F1: Br. II. १६. ५१; M. १२१. ५८; वा. ४५. १२०; ४७. ५६.फलकम्:/F an eastern kingdom; फलकम्:F2: Br. II. १६. ६८.फलकम्:/F country of the, watered by the नलिनी. फलकम्:F3: Ib. II. १८. ५९.फलकम्:/F
TOMARA : A place of habitation situated on the north- east part of Bhārata. (Śloka 69, Chapter 9, Bhīṣma Parva).
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संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'तोमर' ५ । उ०— कमध्वज कूरम गोड़ तँबर परिहार अमानो ।— ह० रासो०, पृ० १२२ ।
पृथ्वीराज को नाना से विरासत में दिल्ली का राज्य भी मिल गया ।
एक देश का नाम जिसका उल्लेख कई पुराणों में है । ४. इस देश का निवासी ।
ये किरात जातियों के जनपद, तोमर, हन्यमान् और करभञ्जक इत्यादि है।
कालान्तरण में ये राजपूतों में या गूजरों मेंं समाहित हो गये ।
यह एक प्राचीन राजवंश जिसका राज्य दिल्ली में आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक था ।
विशेष—प्रसिद्ध राजा अनंगपाल (पृथ्वीराज के नाना) इसी वंश को थे ।
पीछे से तोमरों ने कन्नौज को अपना राजनगर बनाया था
कन्नौज में इस वंश के प्रसिद्ध राजा जयपाल हुए थे । आजकल इस वंश के बहुत ही कम राजपूत पाए जाते हैं
उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग हो गया था।
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पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का निर्माण नये सिरे से किया।
तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने सबसे पहले इसे विशाल रूप देकर पूर्ण किया।
वह उनके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाता है औरआज भी दिल्ली के पुराने क़िले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।
कई इतिहासकारों के अनुसार अग्निकुल गुट मूल रूप से गुर्जर थे और चौहान गुर्जर के प्रमुख कबीले था।
चौहान गुर्जर के चेची कबीले से मूल निकाले जाते हैं।
यह बता चुके हैं।
मुब्बई गजेटियर के अनुसार चेची गुर्जर ने अजमेर पर 700 साल राज किया।
इससे पहले मध्य एशिया में तारिम बेन (झिंजियांग प्रांत) के रूप में जाना जाता था; ये उस क्षेत्र में रहते थे।
हूण गुर्जरों से सम्बद्ध थे।
या गूजरों का सम्बन्ध हूणों से था।
यह विषय अलग-अलग है।
(चीन के झिंजियांग प्रांत) से (Chau- han) शब्द का प्रकाशन हुआ ।
यह समय लगभग (200 ईसा पूर्व)का है ।
चीन के "चू" (चाउ) राजवंश और चीन के "हान" राजवंश के बीच वर्चस्व की लड़ाई जिसमे (yuechis / Gujars) भी इस विवाद का हिस्सा थे।
ये लोग चाउ औरहूण के संयोजन थे।
वहाँ ये गुर्जर कजर कहलाते थे।
गुर्जर जब भारत में अरब सैनिकों से लड़ते थे ।
जब वे "चू-हान" (चाउ-हून) शीर्षक अपने बहादुर सैनिकों को सम्मानित करने के लिए प्रयोग किया जाता था जो बाद मे चौहान कहा जाने लगा।
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पृथ्वीराज चौहान की माता कपूरी देवी, एक कलचुरी (चेडी) की राजकुमारी, (त्रपूरी के अचलराजा की पुत्री) थीं
मुहम्मद गौरी ने भारत पर कई बार हमला किया था । पहली लड़ाई 1178 ईसवी में माउंट आबू के पास कायादर्रा पहाड़ी पर लड़ी गयी और पृथ्वीराज ने गौरी को पूर्ण हराया था।
इस हार के बाद गौरी गुजरात के माध्यम भारत में कभी नही घुसा । 1191 में तारोरी की पहली लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान ने घुड़सवार सेना और गोरी पर कब्जा कर लिया।
गोरी ने अपने जीवन की भीख मांग ली ।
पृथ्वीराज ने उसे दोबारा ना घुसने की चेतावनी देकर उसको सेनापतियों के साथ जाने की अनुमति दी।
मोहम्मद गोरी और गयासुद्दीन गजनी ने 1175. में भारत आक्रमण शुरू कर दिया।
और 1176 में मुल्तान पर कब्जा कर लिया ..
1178 ईस्वी में मोहम्मद गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया और गुर्जरेश्वर भीमदेव सौलंकी ने अच्छी तरह से हरा दिया और गुजरात से वापस भगा दिया ।
यह वही समय था जब पृथ्वीराज चौहान अजमेर और दिल्ली के सिंहासन पर चढ़े थे ।
उस समय तक"गुर्जर शासक " गोरी के आगामी खतरे से अच्छी तरह परिचित थे।
गुर्जरेश्वर भीमदेव सोलंकी ने "गुर्जर मंडल" नामक एक संघ के तहत सभी "क्षत्रिय" शासकों को एकत्र किया ।
गोरी 1186 ईस्वी में पंजाब पर कब्जा कर लिया।
चौहान इस समय तक सुप्रीम लॉर्ड्स बन गया था ।
.. 1187-88 ईस्वी सन् में गुर्जरेश्वर भीमदेव और पृथ्वीराज भी रक्त के द्वारा एक दूसरे से संबंधित थे ।
तो भीमदेव ने इस समूह का नेतृत्व करने के लिए पृथ्वीराज से पूछा।पृथ्वीराज ने तारेन (1191 ईस्वी) में गोरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
जिसमे गुर्जरों की अन्य शाखा खोखर, घामा, भडाना, सौलंकी, प्रतिहार और रावत ने भाग लिया।
खांडेराव धामा (पृथ्वीराज की पहली पत्नी का भाई) के आदेश के तहत गुर्जरो और खोखर के संयुक्त सैनिकों ने मुसलिमों को बुरी तरह हराया और सीमा तक उनका पीछा किया।
गौरी बुरी तरह घायल हो गया था और उसकी घुड़सवार द्वारा युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया था।
"पृथ्वीराज विजय" और "पृथ्वीराज रासो" में कहा कि उन्हें पृथ्वीराज द्वारा कब्जा कर लिया गया था बल्कि वह भाग खडा हुआ और एक साल (1192 ईस्वी) के बाद गौरी दोगुने सैनिकों के साथ लौट आया इस समय तक खोखार गुर्जर से चला गया , सोलंकी और चौहान के बीच एक अजीब प्रतिद्वंद्विता शुरू हो गई।
यह पृथ्वीराज की एकल सैनिकों की हार थी ।
और घामा को तार्रेन युद्ध के पहले दिन में मौत की सजा दे दी गई ।
पृथ्वीराज को भी गौरी के दास द्वारा हार का नेत्रृत्व करना पडा ।
जिसका कुतुब-उद-दीन-ऐबक नाम दिया है।
जिसको बाद मे दिल्ली की गद्दी इनाम के रूप मे दी गई पृथ्वीराज अपनी मौत से मिलने के लिए स्पष्ट रूप से अपनी अदालत में गोरी को मारता है और कैसे यह है।
पृथ्वीराज चौहान की कब्र गोरी की कब्र के बगल में आज तक मौजूद है।
और 1200 के आसपास चौहान की हार के बाद राजस्थान का एक हिस्सा मुस्लिम मुगल शासकों के अधीन आ गया।
और इसी समय से भारत में राजपूती करण का नया तुर्क-मंगोली संस्करण उत्पन्न हुआ ।
अब ये गुजरों के वंशज राजपूत संघ में सम्मिलित होकर स्वयं को राजपूत कहने लगे ।
शक्तियों का प्रमुख केन्द्रों नागौर और अजमेर ही थे।
पृथ्वीराज भी 1195 ईस्वी में हार के बाद गुर्जरेश्वर का ताज अजमेर के हमीर सिंह चौहान ( पृथ्वीराज का भाई) ने लिया इसके बाद कन्नौज (1193 ईस्वी), अजमेर (1195), अबध, बिहार (1194), ग्वालियर (1196), अनहीलवाडा (1197), चंदेल (1201 ईस्वी) पर मुसलमानों द्वारा कब्जा कर लिया गया और "गुर्जर मंडल" उस के बाद ही समाप्त हो गया
राजपूत संघ का उदय 👇✍
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यह केवल 1400 ईस्वी के बाद एक नए नाम "राजपूत" के साथ इतिहास में दिखा ।
1398 ईस्वी में हिंदू योद्धाओं को लैंग की 'आमिर तैमूर' द्वारा 'राजपूत' के रूप में संबोधित कर रहे थे।
राजपूत, राजा का पुत्र या बेटे से मतलब नहीं है।
राजपूत"राज्य-पुत्र" जिसका मतलब "राज्य के बेटे" से है।
और आक्रमणकारियों से अपने राज्य वापस पाने के लिए आयोजित किया जाता था
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विदित हो कि राजपूत संघ तत्कालीन पुरोहितों के द्वारा राजस्थान(मारवाड़ क्षेत्र में) 13 वीं सदी के दौरान मुस्लिम और, बौद्ध आक्रमणकारियों से लड़ने के लिए बनाई गई थी।
यह प्रसिद्ध गुर्जर कुलों यानी (प्रतिहार, पंवार, चालुक्य, चौहान, गुहीलोट, गेहडवाल, चंदेल, तोमर/तंवर, छावडा, घामा) आदि का समन्वय था ।
गुर्जर भी जातियों का संघ था ।
जाट, गूजर और राजपूत तीनों में हैं ।
य
अहीर एक ही जाति थी
राजपूत संघ के लिए इसी समय जैसलमेर और देवगिरि , करौली आदि रियासतों से
अहीर या पाल यादवों के संयोग से दहिया और खोखरस तरह के कुछ चयनित जाट यौद्धा जनजातियों से राजपूत संघ का निर्माण हुआ ।
यद्यपि सत्रहवीं सदी के भरत पुर के राजा सूरज मल यदुवंशी जाट थे
'परन्तु उन्होंने राजपूत संघ को स्वीकार नहीं किया ।
गुर्जर जाति के चौहान पश्चिमी उत्तर प्रदेश (कलश्यान चौहान), मैनपुरी उत्तर प्रदेश में और राजस्थान के नीमराना अलवर जिले में हैं, जो अव स्वयं को राजपूत ही मानते हैं ।
गुर्जर शब्द को भूल गये ।
चौहान आज मुसलिमों सुखों और हिन्दुओं का जन समुदाय भी है ।
यहां के चौहान मुख्यतः हिंदू हैं ।
जो गुर्जर और राजपूत दो पुराने और नये संस्करण में विद्यमान हैं ।
और एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वीयों में सुमार हैं ।
चौहान पंजाब में वे सिख हैं।
पाकिस्तान में चौहानों मुख्य रूप से मुसलमान हैं।
अनंगपाल तंवर और पृथ्वीराज चौहान मूलत: गुर्जर ही थे।
गुर्जर शब्द गौश्चर मूलक विशेषण है ।
जो गोपालन वृत्ति वाले कई समुदाय थे।
मध्य कालीन इतिहास कारों ने गुर्जरों कोअहीरों की उपजाति बताया है ।👇🌸
तीन गाँव गुर्जर तंवरों के आज भी दिल्ली के महरौली में स्थित हैं ,
दक्षिण दिल्ली में 40 से अधिक गांव गुर्जर तंवरों (मुस्लिम) के गुड़गांव में हैं।
और अभी भी तंवरो को दिल्ली का राजा कहा जाता है।
पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध लेखक (राणा अली हसन चौहान) जिनका परिवार विभाजन के दौरान पाकिस्तान चला गया, वह पृथ्वीराज की 37 वीं पीढ़ी से हैं।
'परन्तु वे आज मुसलिमों में सुमार हैं ।
दिल्ली के समीप वर्ती
प्रवासन और गुर्जर चौहान के तुपराना, कैराना, नवराना और यमुना नदी के तट पर अन्य गुर्जर चौहानों के गांव अभी भी मौजूद हैं,
इसके अलावा दापे चौहान और देवड़ा चौहान के 84 गांव यूपी में हैं।
इस लिए प्रतिहार, सौलंकी और तंवर के साथ पृथ्वीराज के संबंध थे।
1178 ईस्वी में गुर्जर मंडल का उनका गठन और उनकी वर्तमान पीढी अजमेर के चौहान शासकों अजय पाल, पृथ्वीराज ,जगदेव, विग्रहराज पंचम ,अपरा गंगेया, पृथ्वीराज द्वितीय, और सोमेश्वर हैं।
मैनपुरी के चौहान शासकों में प्रताप रुद्र, वीर सिंह, घारक देव, पूरन चंद देव, करण देव और महाराजा तेज सिंह चौहान अब राजपूत संघ सम्बद्ध हैं।
गुर्जर समाज में जन्मे महापुरुषों में सुमार भगवान देवनारायण चौहान थे और 24 बगडावत राजा भी गुर्जर चौहान थे ,
इसी वंश से आगे चलकर पैदा हुए थे पृथ्वीराज चौहान
पृथ्वीराज रासो में जिन चौहानो की चौरासी गाँव का वर्णन है वो 84 गाँव आज भी गुर्जरो के है शामली कैराना में ।
दिल्ली के राजा रहे गुर्जर अनंगपाल तंवर जिन्होने अपनी बेटी का विवाह गुर्जर के चौहान गौत्र मे किया ।
उनकी बेटी के पुत्र का नाम था पृथ्वीराज चौहान ही कहलाया ।
राजा अनंपाल तंवर ने अपना राजपाठ अपनी बेटी के पुत्र पृथ्वीराज चौहान को दिया ।
अनंगपाल तंवर के राजपाठ मे बहुत ज्यादा संख्या मे तंवरो के गाव थे जहा अाज भी दिल्ली के तंवरो के गाव मे बहुत ज्यादा संखंया मे तंवर गुर्जर रहते है।
उस वक्त राजपूत थे भी नही तो पृथ्वीराज का राजपूत होने का तो सवाल ही नही पैदा होता क्योकि राजपूत शब्द का पुराने ग्रथो में कही भी कोई उससे ख नही है , ये शब्द ग्याहरवीं शताब्दी के बाद दिखाइ देता है।
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जिसे पुराणों तथा स्मृति कारों''ने इस प्रकार से वर्ण संकर (Hybrid) रूप में वर्णित किया है ।👇
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
1/10।।111
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇
( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।
विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं ।
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में
वर्णित है ।
शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१
तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।
कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।
ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
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स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः”
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है ।
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं; ।
कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है ।
कि जब राजा,
अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे। 7-8👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009
[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.
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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं है क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है कि राजपूतों के अन्तर्गत कुछ वर्ण संकर जातियों या भी समावेश हुआ ।
परन्तु राजपूत सत्यनिष्ठा पर दिनचर्या वितीत करने वाले
आन पर कुर्बान होने वाले और दु:खियों के रक्षक होते थे और आज हैं भी वे ही प्राचीन राजाओं के वंशज हैं
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गया
जिसमें कुछ अनेक चारण' भाट तथा विदेशी जातियों शक सीथियन का समावेश हो गया।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो ;
राजपूत एक संघ है ।
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में समायोजन हुआ है ।
ये चारण और भाट ब्रजभाषा की पिंगल और डिंगल शैली में गायन और कविताओं की रचना करते थे ।
करणी माता एक चारण कन्या थीं
आज राजपूतों कि गठन करणी सेना के बैनर तले हो रहा है
मुगल काल से राजपूत शब्द प्रकाश में आया
कुछ प्रसिद्ध इतिहास भी कहते हैं ।
कि पृथ्वीराज चौहान गुर्जर चौहान गोत्र के थे ।
जबकि गुर्जरो के पूज्य भगवान देवनारायण भी स्वयं चौहान वंशीय थे सवाई भोज अजमेर के राजा बीसलदेव के भाई (चचेरे भाई) थे।
बीसलदेव के बाद अजमेर की गद्दी पर महेंद्र सिंह चौहान आसीन हुए जो की भगवान देवनारायण का भाई थे।
अब ऐसा कैसे हो सकता है की एक भाई गुर्जर एक भाई राजपूत हो
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भारतीय पुराणों में मिथकीय रूप में गुर्जरों से उत्पन्न चौहान प्रतिहार सौलंकी परहार आदि का राजपूती करण इस प्रकार किया गया 👇
और एक काल्पनिक रूप से कथा या आख्यानक बनाया गया
चह्वान (चतुर्भुज)
अग्निवंश के सम्मेलन कर्ता ऋषि
१.वत्सन ऋषि,२.भार्गव ऋषि,३.अत्रि ऋषि,४.विश्वामित्र,५.च्यवन ऋषि ।
विभिन्न ऋषियों ने प्रकट होकर अग्नि में आहुति दी तो विभिन्न चार वंशों की उत्पत्ति हुयी जो इस इस प्रकार से है-
१.पाराशर ऋषि ने प्रकट होकर आहुति दी तो परिहार की उत्पत्ति हुयी (पाराशर गोत्र)
२.वशिष्ठ ऋषि की आहुति से परमार की उत्पत्ति हुयी (वशिष्ठ गोत्र)
३.भारद्वाज ऋषि ने आहुति दी तो चालुक्य
(सोलंकी )की उत्पत्ति हुयी (भारद्वाज गोत्र)
४.वत्सन ऋषि ने आहुति दी तो चतुर्भुज चौहान की उत्पत्ति हुयी (वत्स गोत्र)
चौहानों की उत्पत्ति आबू शिखर मे हुयी इस विषय में ब्राह्मणों 'ने कालान्तरण में हिन्दी में एक दोहा भी रच दिया
जिसमें बताया की बौद्धों को परास्त करने के लिए यज्ञकुण्ड से चार क्षत्रिय ब्राह्मणों 'ने उत्पन्न किये ।👇
दोहा-
चौहान को वंश उजागर है,जिन जन्म लियो धरि के भुज चारी,
बौद्ध मतों को विनास कियो और विप्रन को दिये वेद सुचारी॥
चौहान की कई पीढियों के बाद अजय पाल पैदा हुये
जिन्होने आबू पर्वत छोड कर अजमेर शहर बसाया
अजमेर मे पृथ्वी तल से १५ मील ऊंचा तारागढ किला बनाया जिसकी वर्तमान में १० मील ऊंचाई है,महाराज अजयपाल जी चक्रवर्ती सम्राट हुये.।
इसी में कई वंश बाद माणिकदेवजू हुये,जिन्होने सांभर झील बनवाई थी।
सांभर बिन अलोना खाय,माटी बिके यह भेद कहाय"
इनकी बहुत पीढियों के बाद माणिकदेवजू उर्फ़ लाखनदेवजू हुये
इनके चौबीस पुत्र हुये और इन्ही नामो से २४ शाखायें चलीं
चौबीस शाखायें इस प्रकार से है-
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यद्यपि भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व में अनुसार
चौहान शब्द की काल्पनिक व्युत्पत्ति कर डाली है ।
चापिहान के रूप में 👇
ऐैतिहासिक घटनाओं का वर्णन प्रतिसर्ग पर्व में वर्णित है।
---जो बड़ी चालाकी से भविष्य की घटना निर्धारित कर दी
परन्तु इसे पुराण में अनेक शब्द व्युत्पत्ति मूलक रूप से प्रक्षिप्त हैं ।
जैसे पृथ्वीराज चौहान को चापिहान लिखना जैसे चौहान शब्द चापिहान का ही तद्भव रूप हो !
परन्तु मूर्ख लेखक को शब्द व्युत्पत्ति का कोई ऐैतिहासिक ज्ञान नहीं था ।
की चाउ-हून से चौहान शब्द बना है।
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१. मुहुकर्ण जी उजपारिया या उजपालिया चौहान पृथ्वीराज का वंश
२.लालशाह उर्फ़ लालसिंह मदरेचा चौहान जो मद्रास में बसे हैं।
३. हरि सिंह जी धधेडा चौहान बुन्देलखंड और सिद्धगढ में बसे है।
४. सारदूलजी सोनगरा चौहान जालोर झन्डी ईसानगर मे बसे है।
५. भगतराजजी निर्वाण चौहान खंडेला से बिखराव ।
६. अष्टपाल जी हाडा चौहान कोटा बूंदी गद्दी सरकार से सम्मानित किया २१ तोपों की सलामी से ।
७.चन्द्रपाल भदौरिया चौहान चन्द्रवार भदौरा गांव नौगांव जिला आगरा से सम्बद्ध है ।
. शूरसेन जी देवडा चौहान सिरोही (सम्मानित)
१०.सामन्त जी साचौरा चौहान सन्चौर का राज्य टूट गया
११.मौहिल जी मौहिल चौहान मोहिल गढ का राज्य टूट गया
१२.खेवराज जी उर्फ़ अंड जी वालेगा चौहान पटल गढ का राज्य टूट गया बिखराव
१३. पोहपसेन जी पवैया चौहान पवैया गढ गुजरात
१४. मानपाल जी मोरी चौहान चान्दौर गढ की गद्दी
१५. राजकुमारजी राजकुमार चौहान बालोरघाट जिला सुल्तानपुर में
१६.जसराजजी जैनवार चौहान पटना बिहार गद्दी टूट गयी
१७.सहसमल जी वालेसा चौहान मारवाड गद्दी
१८.बच्छराजजी बच्छगोत्री चौहान अवध में गद्दी टूटगयी.
१९.चन्द्रराजजी चन्द्राणा चौहान अब यह कुल खत्म हो गया है
२०. खनगराजजी कायमखानी चौहान झुन्झुनू मे है लेकिन गद्दी टूट गयी है,मुसलमान बन गये है
२१. हर्राजजी जावला चौहान जोहरगढ की गद्दी थे लेकिन टूट गयी.
२२.धुजपाल जी गोखा चौहान गढददरेश मे जाकर रहे.
२३.किल्लनजी किशाना चौहान किशाना गोत्र के गूजर हुये जो बांदनवाडा अजमेर मे है
२४.कनकपाल जी कटैया चौहान सिद्धगढ मे गद्दी (पंजाब)
उपरोक्त प्रशाखाओं में अब करीब १२५ हैं
बाद में आनादेवजू पैदा हुये
आनादेवजू के सूरसेन जी और दत्तकदेवजू पैदा हुये
सूरसेन जी के ढोडेदेवजी हुये जो ढूढाड प्रान्त में था,यह नरमांस भक्षी भी थे.
ढोडेदेवजी के चौरंगी-—सोमेश्वरजी--—कान्हदेव जी हुये
सोम्श्वरजी को चन्द्रवंश में उत्पन्न अनंगपाल की पुत्री कमला ब्याही गयीं थीं
सोमेश्वरजी के पृथ्वीराजजी हुये
पृथ्वीराजजी के-
रेनसी कुमार जो कन्नौज की लडाई मे मारे गये
अक्षयकुमारजी जो महमूदगजनवी के साथ लडाई मे मारे गये
बलभद्र जी गजनी की लडाई में मारे गये
इन्द्रसी कुमार जो चन्गेज खां की लडाई में मारे गये
पृथ्वीराज ने अपने चाचा कान्हादेवजी का लडका गोद लिया जिसका नाम राव हम्मीरदेवजू था
हम्मीरदेवजू के-दो पुत्र हुये रावरतन जी और खानवालेसी जी
रावरतन सिंह जी ने नौ विवाह किये थे और जिनके अठारह संताने थीं,
सत्रह पुत्र मारे गये
एक पुत्र चन्द्रसेनजी रहे
चार पुत्र बांदियों के रहे
खानवालेसी जी हुये जो नेपाल चले गये और सिसौदिया चौहान कहलाये.
रावरतन देवजी के पुत्र संकट देवजी हुये
संकटदेव जी के छ: पुत्र हुये
१. धिराज जू जो रिजोर एटा में जाकर बसे इन्हे राजा रामपुर की लडकी ब्याही गयी थी
२. रणसुम्मेरदेवजी जो इटावा खास में जाकर बसे और बाद में प्रतापनेर में बसे
३. प्रतापरुद्रजी जो मैनपुरी में बसे
४. चन्द्रसेन जी जो चकरनकर में जाकर बसे
५. चन्द्रशेव जी जो चन्द्रकोणा आसाम में जाकर बसे इनकी आगे की संतति में सबल सिंह चौहान हुये जिन्होने महाभारत पुराण की टीका लिखी.
मैनपुरी में बसे राजा प्रतापरुद्रजी के दो पुत्र हुये
१.राजा विरसिंह जू देव जो मैनपुरी में बसे
२. धारक देवजू जो पतारा क्षेत्र मे जाकर बसे
मैनपुरी के राजा विरसिंह जू देव के चार पुत्र हुये
१. महाराजा धीरशाह जी इनसे मैनपुरी के आसपास के गांव बसे
हूणों में कुछ बंजारे लोग थे जिनका मूल स्थान वोल्गा के पूर्व में था।
वे ३७० ई में यूरोप में पहुँचे और वहाँ विशाल हूण साम्राज्य खड़ा किया।
हूण वास्तव में चीन के पास रहने वाली एक जाति थी। इन्हें चीनी लोग "ह्यून यू" अथवा "हून यू" कहते थे।
कालान्तर में इसकी दो शाखाएँ बन गईँ जिसमें से एक वोल्गा नदी के पास बस गई तथा दूसरी शाखा ने ईरान पर आक्रमण किया और वहाँ के सासानी वंश के शासक फिरोज़ को मार कर राज्य स्थापित कर लिया।
बदलते समय के साथ-साथ कालान्तर में इसी शाखा ने भारत पर आक्रमण किया इसकी पश्चिमी शाखा ने यूरोप के महान रोमन साम्राज्य का पतन कर दिया।
यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों का नेता अट्टिला था। भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को श्वेत हूण तथा यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों को अश्वेत हूण कहा गया भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों के नेता क्रमशः तोरमाण व मिहिरकुल थे तोरमाण ने स्कन्दगुप्त को शासन काल में भारत पर आक्रमण किया था।
संज्ञा पुं० [देश० या सं०] एक प्राचीन मंगोल जाति जो पहले चीन की पूरबी सीमा पर लूट मार किया करती थी, पर पीछेअत्यंत प्रबल होकर अशिया और योरप के सभ्य देशों पर आक्रमण करती हुई फैली।
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विशेष—हूणों का इतना भारी दल चलता था कि उस समय के बड़े बड़े सभ्य साम्राज्य उनका उवरोध नहीं कर सकते थे।
चीन की ओर से हटाए गए हूण लोग तुर्किस्तान पर अधिकार करके सन् ४०० ई० से पहले वंक्षु नद (आक्सस नदी) के किनारे आ बसे।
यहाँ से उनकी एक शाखा ने तो योरप के रोम साम्राज्य की जड़ हिलाई और शेष पारस साम्राज्य में घुसकर लूटपाट करने लगे।
पारस वाले इन्हें 'हैताल' कहते थे।
कालिदास के समय में हूण वंक्षु के ही किनारे तक आए थे, भारतवर्ष के भीतर नहीं घुसे थे; क्योंकि रघु के दिग्विजय के वर्णन में कालिदास ने हूणों का उल्लेख वहीं पर किया है।
कुछ आधुनिक प्रतियों में 'वंक्षु' के स्थान पर 'सिंधु' पाठ कर दिया गया
पर वह ठीक नहीं क्योंकि कि प्राचीन मिली हुई रघुवंश की प्रतियों में 'वंक्षु' ही पाठ पाया जाता है।
वंक्षु नदी के किनारे से जब हूण लोग फारस में बहुत अपद्रव करने लगे,
तब फारस के प्रसिद्ध बादशाह बहराम गौर ने सन् ४२५ ई० में उन्हें पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया।
पर बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा।
वे धीरे धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे। फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था।
जब फारस में हूण साम्राज्य स्थापित न हो सका, तब हूणों ने भारतवर्ष की ओर रुख किया।
पहले उन्होंने सीमांत प्रदेश कपिश और गांधार पर अधिकार किया, फिर मध्यदेश की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे।
गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारा गया।
इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा।
कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे।
सन् ४५७ ई० तक अंतर्वेद, मगध आदि पर स्कंदगुप्त का अधिकार बराबर पाया जाता है।
सन् ४६५ के उपरांत हुण प्रबल पड़ने लगे और अंत में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युद्ध करने में मारे गए।
सन् ४९९ ई० में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (सं० तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया।
इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए।
तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल
(सं० मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ।
पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ।
गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् से उसने सन् ५३२ ई० मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया। हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए।
कहने की आवश्यकता नहीं कि हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए।
राजपूतों में एक शाखा हूण भी है।
कुछ लोग अनुमान करते हैं कि राजपूताने और गुजरात के कुनबी भी हूणों के वंशज हैं।
२. एक स्वर्णमुद्रा। दे० 'हुन' (को०)।
३. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम जहाँ हूण रहते थे।
—बृहत्०, पृ० ८६।
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✍ डाक्टर आर. के. सिन्हा और डाक्टर राम के द्वारा लिखित हिस्ट्री आफ इंडिया में स्पष्ट लिखा है कि मैत्रिक, प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान आदि वंश गुर्जर हैँ।
✍ ए. एम. टी. जैक्सन ने साफ साफ लिखा है कि प्रतिहार, चालुक्य और चौहान कहलाने वाले सभी गुर्जर हैं।
✍इतिहासकार भगवान लाल इंद्र जी कहते हैं कि राजपूतों के श्रेष्ठ वंश गुर्जर संतान हैँ।
✍ ठाकुर यशपाल सिहं राजपुत, एम.ए पूर्व सांसद यतीन्द्र कुमार वर्मा के गुर्जर इतिहास कि महिमा लिखते हुए कहते है
गुर्जर दुनिया की महान जाति है ।
गुर्जर जब उपमहाद्विप मे शासन कर रहे थे , मध्यकाल मे उन्ही के कुछ परिवार राजपूत कहलाए इन सब के अतिरिक्त ये कोई क्षत्रिय जाति नही है ।
विदेशी वेवसाइट पर चौहानों का उल्लेख भी देखें 👇
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चौहान उपनाम उपयोगकर्ता सबमिशन: चौथी शताब्दी ईस्वी में व्हाइट हंस, चहल्स (यूरोपीय इतिहास की चोल) के वंशज, कैस्पियन समुद्र के पूर्व में बस गए थे।
यही वह अवधि थी जब चहल गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान पर कब्जा कर रहे थे।
वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासी के साथ अंतःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की है। इस उपनाम के बारे में और पढ़ें ।
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डीएनए परीक्षण जानकारी उपयोगकर्ता द्वारा प्रस्तुत संदर्भ चौथी शताब्दी ईस्वी में व्हाइट हंस, चहल्स (यूरोपीय इतिहास की चोल) के वंशज, कैस्पियन समुद्र के पूर्व में बस गए थे।
यही वह अवधि थी जब चहल गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान पर कब्जा कर रहे थे। वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासी के साथ अंतःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की है।
हालांकि, नाम चहल को एक और कबीले द्वारा साझा किया जाता है और अंतर मिश्रण होता है; इसलिए वंश मिश्रित है।
चाहल नाम लेबनान, इज़राइल और मध्य एशियाई देशों के मूल निवासी पाया जा सकता है। -
hsingh1861 ध्वन्यात्मक रूप से समान नाम उपनाम समानता घटना Prevalency Chaouhan 93 307 / Chauahan 93 253 / Chauhaan 93 243 / Chauhana 93 94 / Chauhanu 93 60 / Chauehan 93 46 / Chauohan 93 35 / Chauhann 93 21 / Chaauhan 93 18 / Chauhani 93 15 /
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सभी समान सुरनाम देखो चौहान उपनाम लिप्यंतरण घटनाओं का लिप्यंतरण आईसीयू लैटिन प्रतिशत
बंगाली में चौहान চৌহান cauhana -
हिंदी में चौहान चौहान cauhana 98.92 सभी अनुवाद दिखाएं मराठी में चौहान चौहान cauhana 77.03 चौहाण cauhana 16.16 छगन chagana 1.99 चोहान cohana 1.23 सभी अनुवाद दिखाएं तिब्बती में चौहान ཅུ་ ཝཱན ་. chuwen 66.67 ཅུ་ ཧན ་. chuhen 33.33 उडिया में चौहान େଚୗହାନ ecahana 60.75 େଚୗହାନ୍ 14.52 ecahan ଚଉହାନ ca'uhana 6.99 େଚୖହାନ ecahana 4.84 େଚୖାହାନ ecaahana 3.23 େଚୗହାଣ ecahana 2.15 େଚୗହନ ecahana 2.15 େଚୗାନ ecaana 2.15
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Chauhan Surname User-submission:
Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history) in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea. This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area. Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish.
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India1,592,3341:48253
England9,1501:6,076861
United States3,7301:96,85010,829
United Arab Emirates2,6791:3,425428
Saudi Arabia2,0921:14,7512,095
Pakistan1,7191:101,4743,310
Canada1,6771:21,9433,006
Oman1,5491:2,547505
Kenya1,3491:34,1284,126
Fiji9431:948108
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Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history) in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea. This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area. Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish.
However, the name Chahal is shared by another clan and inter mixing has occurred; so ancestry is mixed. The name Chahal can be found native to Lebanon, Israel and Central Asian countries.
- hsingh1861
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Chauhan in Bengali
চৌহানcauhana-
Chauhan in Hindi
चौहानcauhana98.92
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Chauhan in Marathi
चौहानcauhana77.03
चौहाणcauhana16.16
छगनchagana1.99
चोहानcohana1.23
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Chauhan in Tibetan
ཅུ་ཝཱན།chuwen66.67
ཅུ་ཧན།chuhen33.33
Chauhan in Oriya
େଚୗହାନecahana60.75
େଚୗହାନ୍ecahan14.52
ଚଉହାନca'uhana6.99
େଚୖହାନecahana4.84
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गुर्जर और अहीरों का सम्बन्ध भी सदीयों पुराना है।__________________________________________गुर्जर शब्द की व्युत्पति
____
गुर् शत्रुकृतताडनंबधोद्यमादिकंवा उज्जरयतियोदेशः।
कलिङ्गाःसाहसिका इतिवद्देशस्थजनेलक्षणेतिज्ञेयम्
गुज्जराटदेशः।
इतिशब्दरत्नावलि॥
____
शब्दरत्नी वली के रचयिता ने काल्पनिक रूप से गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति की है :---
'शत्रु का वध करने वाला '
यद्यपि गुर्जर वीर और निर्भीक होते हीे हैं , इसमें कोई सन्देह नहीं ,परन्तु व्युत्पत्ति-आनुमानिक रूप से ही की गयी है ।
संस्कृत भाषा में और भी गुर्जर जन-जाति के उद्धरण ---
प्राप्त हैं ।
परन्तु बहुत बाद के जो गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति पर स्पष्ट प्रकाश - प्रक्षेपण नहीं करते हैं ।
गुर्जर :--( गुर्+जॄ + णिच् + अच्)।
गुरितिशत्रुकृतताडनादिकंतज्जीर्य्यत्यत्रइतिअधिकरणे
अप्।
गुर्ज्जरःदेशःतस्यप्रियेतिङीष्।यद्वागुर्ज्जरदेशःप्रियोऽस्याइतिअण्ङीप्च।गुर्ज्जरदेशवासिनीअतोगुर्ज्जरीतिकेचित्।) रागिणीविशेषः।
इतिहलायुधः॥
इयन्तुभैरवरागस्यरागिणीतिबोध्यम्।
यथा सङ्गीतदर्पणेरागविवेकाध्याये।१६। “भैरवीगुर्ज्जरीरामकिरीगुणकिरीतथा।वाङ्गालीसैन्धवीचैवभैरवस्यवराङ्गनाः॥” अस्यागानवेलानिर्णयोयथा तत्रैव।२०। “वेलावलीचमल्लारीवल्लारीसोमगुर्ज्जरी।” इयंहिग्रीष्मऋतौस्वस्वामिनाभैरवरागेणसहगीयते।यथा तत्रैव।२७।
“भैरवःससहायस्तुऋतौग्रीष्मेप्रगीयते।” इतिसोमेश्वरमतम्।हनूमन्मतेतु।इयमेवमेघरागस्यस्त्री।यथा तत्रैव।३७।
“मल्लारीदेशकारीचभूपालीगुर्ज्जरीतथा।टङ्काचपञ्चमीभार्य्यामेघरागस्ययोषितः॥” इयंपुनारागार्णवमतेपञ्चमरागाश्रयारागिणीत्यवधेयम्।यथा तत्रैव।४०।
“ललितागुर्ज्जरीदेशीवराडीरामकृत्तथा।मतारागार्णवेरागाःपञ्चैतेपञ्चमाश्रयाः॥)
__________________________________________
चौदहवीं सदी की रचना योग वाशिष्ठ महारामायण में वर्णित है 👇
वैराग्य- प्रकरण 37 वें सर्ग के श्लोक संख्या 19 में
गुर्जरानीकनाशेन गुर्जरीकेशलुञ्चनम् ।19।
अर्थात् गुर्जर सेना के विनाश होने पर गुर्ज्जरः नारीयों ने अपने केश काट लिए -
तथा इसी सर्ग में 21 वें श्लोक में
आभीरेष्वरय: पातेर्गोगणा हरितेषु इव ।।21।
अहीरों के उस देश में 'वह शत्रु सेना उसी प्रकार टूट पड़ी जैसे हरी घास पर गायों का समूह
वस्तुत यहाँं गौश्चर :(गुर्ज्जरः) विशेषण आभीर का प्रतिनिधित्व करते हुए समानार्थक रूप से प्रयुक्त है ।
वैसे भी संस्कृत कोश कारों ने गुर्ज्जरः अहीरों की एक शाखा के रूप में वर्णित है ।
आज गुर्जर एक संघ है
जिसमें अनेक जन-जातियों का समावेश है
_________ ___________. _________
गुर्जर शब्द का यह प्रयोग केवल काव्य-गत है ।
जो राज शेखर से सम्बद्ध है ।
राजशेखर का समय (विक्रमाब्द 930- 977 तक) है ये काव्यशास्त्र के पण्डित थे।
वे कान्यकुब्ज के गुर्जरवंशीय नरेश महेंद्रपाल एवं उनके बेटे महिन्द्र पाल के गुरू एवं मंत्री थे।
उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्य मनीषी रहे थे।
काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है।
समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं।
राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं, और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं।
राजशेखर महाराष्ट्र देशवासी थे और यायावर वंश में उत्पन्न हुए थे किन्तु उनका जीवन बंगाल में बीता। इनकी माता का नाम शिलावती तथा पिता का नाम दुहिक या दुर्दुक था , और वे महामंत्री थे।
इनके प्रपितामह अकालजलद का विरद 'महाराष्ट्रचूड़ामणि' था।
राजशेखर की पत्नी चौहान कुल की क्षत्राणी विदुषी महिला थी जिसका नाम अवन्तिसुन्दरी था।
महेंद्रपाल के उपाध्याय होने के साथ ये उसके पुत्र महीपाल के भी कृपापात्र बने रहे।
इन दोनों नरेशों के शिलालेख दसवीं शताब्दी के प्रथम चरण (९०० ई. और ९१७ ई.) के प्राप्त होते हैं अत: राजशेखर का समय ८८०-९२० ई० के लगभग मान्य है।
परन्तु इनके समय तक प्राकृत भाषाओं का बोल-बाला था ।
गुर्जर शब्द प्रारम्भिक चरण गौश्चर के रूप में रहा जो कालान्तरण में गुर्जर रूप हो गया ।
गौश्चर शब्द गोपों का विशेषण था ।
परन्तु यह शब्द ऐैतिहासिक सन्दर्भों में ही रहा है, साहित्यिक सन्दर्भों में नहीं -
________________________________________
हिन्दी व्रज भाषाओं के कवियों ने गूजर शब्द अहीरों के लिए किया है । जैसे ---
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] [स्त्री० गूजरी, गुजरिया] १. अहीरों की एक जाति ग्वाला ।
२. क्षत्रियों का एक भेद ।
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजरी] १. गूजर जाति की स्त्री । ग्वालिन । गोपी ।
२. धोबियों के नृत्य में स्त्री के रूप में नाचनेवाला । उ०—लो छनछन, छनछन, छनछन, छनछन, नाच गुजरिया हरती मन ।—ग्राम्या०, पृ० ३१
संस्कृत भाषा के विद्वान् मदन- मोहन झा
ने अपने हिन्दी कोश में ये उद्धृत किया है।
________________________________________
मीरा वाई ने गोपिकाओं के लिए अहीरिणी शब्द का प्रयोग अपने पदों में किया है ---
जो ठेठ राजस्थानी रूप है । देखें--👇
_______________________________________
अच्छे मीठे चाख चाख, बेर लाई भीलणी।।
ऐसी कहा अचारवते, रूप नहीं एक रती;
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हें राम, प्रेम की प्रतीत जाण;
ऊच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऐसी कहा वेद पढ़ी, छिन में बिमाण चढ़ी;
हरि जूँ सूँ बाँध्यो हेत बैकुण्ठ मैं झूलणी।
दासी मीराँ तरै सोइ ऐसी प्रीति करै जोई;
पतित-पावन प्रभु गोकुल अहीरणी।।222।।
________________________________________
शब्दार्थ-अचारवती = अचार-विचार से रहने वाली। एक रती = रत्ती भर भी। कुचीलणी = मैंले-कुचैले वस्त्रों वाली। प्रतीति = प्रतीत, विश्वास। रस की रसीलणी = भक्ति का प्रेम-रस की रसिकता। छिन में विमाण चढ़ी = स्वर्ग चली गई। हेत = प्रेम। गोकुल = अहीरणी = गोकुल की ग्वालिन; पूर्व जन्म की गोपी।
अब रीति कालीन व्रज के कवियों ने राधा आदि गोपिकाओं को गुजरिया शब्द से सम्बोधित करते हुए वर्णन किया है ।
इसे भी देखें---
________________________________________
" खातिर करले नई गुजरिया
रसिया ठाडो तेरे द्वार ।।
ये रसिया नित द्वार न आवे,
प्रेम होय तो दरसन पावे।
अधरामृतको भोग लगावे,
कर महेमानी अब मत चूक
समय न वारंवार ।।
_________________________________________
निश्चित रूप से ये पक्तियाँ श्रृंगारिकता की पराकाष्ठा का भी अतिक्रमण करते हुए, अश्लीलता की उद्भावक हो गयी हैं ।
जो रीति कालीन हैं ।
गुर्जर जन-जाति का ऐैतिहासिक सन्दर्भों में जो वर्णन है वह यथार्थ की सीमाओं से परे है ।
देखें---
गुर्जर मुख्यत: उत्तर भारत, पाकिस्तान और अफ़्ग़ानिस्तान में बसे हैं।
इस जाति का नाम अफ़्ग़ानिस्तान के राष्ट्रगान में भी आता है।
गुर्जरों के ऐतिहासिक प्रभाव के कारण उत्तर भारत और पाकिस्तान के बहुत से स्थान गुर्जर जाति के नाम पर रखे गए हैं,
जैसे कि भारत का गुजरात राज्य, पाकिस्तानी पंजाब का गुजरात ज़िला और गुजराँवाला ज़िला और रावलपिंडी ज़िले का गूजर ख़ान शहर।👇
इसको उदाहरण- है ।
आधुनिक स्थिति में गुर्जर जन-जाति -
" प्राचीन काल में युद्ध कला में निपुण रहे गुर्जर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
निश्चित रूप से ये आभीर जन-जाति से सम्बद्ध हैं " गुर्जर अच्छे योद्धा माने जाते थे ,और इसीलिए भारतीय सेना में अभी भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।👇
अभीर शब्द भी अपने इसी निर्भीकता के अर्थ को ध्वनित करता है ।
अ नकारात्मक उपसर्ग (Prefix) + भीर -- कायर /डरपोंक अर्थात् जो कायर (भीर) नहीं है ।
वह अभीर है ।
भारत मे गुर्जर की जनसंख्या लगभग 20 करोड की है। गुर्जर महाराष्ट्र (जलगाँव जिला), दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं।
राजस्थान में सारे गुर्जर हिंदू हैं।
सामान्यत: गुर्जर हिन्दू, सिख, मुस्लिम आदि सभी धर्मो मे देखे जा सकते हैं।
वर्ण-व्यवस्था के समर्थकों ने गुर्जर जन-जाति को शूद्र घोषित करने की चेष्टा की तो ये अपने स्वाभिमान की खातिर मुसलमान ,सिक्ख और ईसाई हो गये ।
ईसाई मुस्लिम तथा सिख ,गुर्जर, हिन्दू गुर्जरो से ही परिवर्तित हुए थे।
पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।
गुर्जर और अहीरों का सम्बन्ध - अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः अथवा आभीरः संज्ञा से अभिहित किया गया ।
संस्कृत भाषा में इस शब्द की व्युपत्ति
" अभित: ईरयति इति अभीरः" अर्थात् चारो तरफ घूमने वाली निर्भीक जनजाति " अभि एक धातु ( क्रियामूल ) से पूर्व लगने वाला उपसर्ग (Prifix)..तथा ईर् एक धातु है । परन्तु कुछ संस्कृत कोश कारों ने 👇☘
(अभीरयति गा अभिमुखीकृत्य गोष्ठं नयति इति अभीर
अभि + ईर + णिच् + अच् ।)
आभीरः । गोपः ।
इत्यमरटीकायां रमानाथः ॥
अमर कोश के अभीर शब्द की टीका ( व्याख्या-)
परन्तु यह व्युत्पत्ति केवल आनुमानिक अवधारणाओं पर अवलम्बित है ।
अभि उपसर्ग + ईर् धातु -
जिसका अर्थ :- चारो ओर गमन करना (जाना)है इसमें कर्तरिसंज्ञा भावे में अच् प्रत्यय के द्वारा निर्मित विशेषण -शब्द अभीरः विकसित होता है |
और इस अभीरः शब्द में श्लिष्ट अर्थ है... जो पूर्णतः भाव सम्पूर्क है
..."अ" निषेधात्मक उपसर्ग तथा भीरः/ भीरु कृदन्त शब्द जिसका अर्थ है कायर ..अर्थात् जो भीरः अथवा कायर न हो वीर पुरुष ।
(अ)नञ् भीरव: कायरा: असौ अभीर: तत्पश्चात् सन्तति अथवा समूह वाची रूप में तद्धित प्रत्यय अण् होने से आभीर: शब्द बनता है ।
ईज़राएल के यहूदीयो की भाषा हिब्रू में भी अबीर शब्द है
_______
महाभारत में मिलाबट कब कब हुई जिसमें ईसा पूूर्व की जन-जातियों का वर्णन है महाभारत के रचियता गणेशदेवता बना दिये गये देखें👇
महाभारत के रचियता गणेशदेवता "भाग तृत्तीय" "यादव योगेश कुमार "रोहि"
महाभारत के कर्ण पर्व में कुछ प्राचीनत्तम जन-जातियों वर्णन है जो कि
👇गुर्जर और जाट संघ में समाहित है
और कुछ राजपूत संघ में 👇
मालाव ,मद्रक , द्राविड़ ,यौधेय ( जोझे) ललित्थ, शूद्रक , (क्षुद्रक),उशीनर ,माबेल्लक,तुण्डकेर,
कम्बोज(कम्बोडिया निवासी) आवंतिका ,गांधार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त ,तंगण,शक ,पाञ्चाल ,विदेह, कुलिन्द काशी ,कौशल, सुह्म, अंग,वंग, निषाद , पुण्ड्र,चीरक (चीनक) वत्स,कलिंग, तरल, अश्मक, तथा ऋषिक,(रूस) इन सभी देशों पर तथा शबर , परहूण, प्रहूण,कारस्कर (कक्कड़) , माहिषक, केरल ,कर्कोटक और वीरक।
महाभारत में कुछ काल्पनिक प्रकाशन भी है निम्नलिखित जनजातियों में बहुतों का समायोजन अब गुर्जर ,राजपूत और जाट संघ में भी है।👇____________________________________
"मालवा मद्रकाश्चैव द्राविडाश्चग्रकर्मिण: ।
यौधेयाश्च ललित्थाश्च क्षुद्रकाश्चप्युशीनरा: ।47।
माबेल्लकास्तुण्डिकेरा: सावित्रीपुत्रकाश्च ये ।
प्राच्योदीच्या:प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च मारिष।48।
पत्तीनां निहता: संघा हयानां प्रयुतानि च।
रथव्रजाश्च निहता हताश्च वरवारणा ।49।
मालाव ,मद्रक ,भयंकर कर्म करने वाले द्राविड़ ,यौधेय
( जोझे) ललित्थ, शूद्रक , (क्षुद्रक),उशीनर ,माबेल्लक,तुण्डकेर,(तेन्दुलकर)
सावित्रीपुत्र, प्राच्य, प्रतीच्य, उदीच्य,दक्षिणात्य,पैदल समूह ,दसलाख घोड़े ,रथोके समूह और बड़े बड़े गजराज अर्जुुन के हाथ से मारे गये 47-49।
यो८जयत् सर्वकाम्बोजानावन्त्यान् केकयै: सह ।
गान्धारान्मद्रकान्मत्स्यांस्त्रिगर्तोस्तंगणाञ्शकान्18
पाञ्चालांश्च विदेहांश्च कुलिन्दान् काशिकोसलान्।
सुह्मानंगाश्च वंगांश्च निषादान् पुण्ड्रचीरकान्
19।
वत्सान् कलिंगांस्तरलािनश्मकाननृषिकानपि।
( शबरान् परहूणांश्च प्रहूणान् सरलानपि।
म्लेच्छराष्ट्राधिपांश्चैव दुर्गानाट विकांस्तथा ।
जित्वैतान् समरे वीरश्चक्रे बलिभृत: पुरा ।20।
जिस वीर ने पहले समस्त कांबोज(कम्बोडिया निवासी) आवंतिका ,गांधार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त ,तंगण,शक ,पाञ्चाल विदेह, कुलिन्द काशी ,कौशल, सुह्म, अंग,वंग, निषाद , पुण्ड्र,चीरक, वत्स,कलिंग, तरल अश्मक, तथा ऋषिक,(रूस) इन सभी देशों पर तथा शबर , परहूण, प्रहूण और सरल जाति के लोगों पर म्लेच्छ राज्यों के अधिपतियों और दुर्ग एवं वनों में रहने वाले योद्धाओं को समर-भूमि में जीतकर "कर" (टेक्स) देने वाला बना दिया था।18-20।
__________________________________________
महाभारत में शब्द -व्युत्पत्ति के सिद्धान्तों की किस प्रकार धज्जियाँ उड़ाई गयीं हैं; इसका अन्दाजा तो महाभारत में वर्णित इन शब्दों की व्युत्पत्ति से लगाया जा सकता है ।👇
मित्रं मिन्देर्नन्दते: प्रीयतेर्वा ।
संत्रायतेर्मिनुतेर्मोदतेर्वा ।।31।
ब्रवीमि ते सर्वंमिदं ममास्ति ।
तच्चापि सर्वे मम वेत्ति राजा ।
जबकि वाचस्पत्यम् कोश में मिद् धातु से ''मि(त्त्र)त्र' नपुंसकलिङ्ग मिद्यति स्निह्यति इति मित्र।
१- स्नेहान्विते सुहृदि,[पृष्ठ संख्या-4753-b+ 38]
शब्दकल्पद्रुमके अनुसार-
२-माययति जानाति सर्व्वं मित्रं मी कि गत्यां नाम्नीति डित्रः मित्रमजहल्लिङ्गम् ।
निपातात्तस्य द्वित्वे द्वितकारञ्च ।
इति तट्टीकायां भरतः
शत्रु: शदे, शासतेर्वा श्यतेर्वा
श्रृणातेर्वा श्वसते: सीदतेर्वा 32।
उपसर्गाद् बहुधा सूदतेश्च।
प्रायेण सर्व त्वयि तच्च मह्यम्।
मिद, नन्द,प्री, त्रा,मि,अथवा मुद् धातुओं से निपातन द्वारा मित्र शब्द की सिद्धि होती है।
मैं तुमसे सच कहता हूं इन सभी धातुओं का पूरा पूरा अर्थ मुझ में मौजूद हैं राजा दुर्योधन इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं ।31।
शद्, शास् , शो, श्रृ ,श्वस् , अथवा षद् तथा नाना प्रकार की उपसर्गों से युक्त सूद धातु से भी शत्रु शब्द की सिद्धि होती है ।
मेरे प्रति इन सभी धातुओं का सारा तात्पर्य तुममें संघटित होता है।32।
विदित हो कि महर्षि पाणिनि ने भी योगज अथवा धातुज शब्दों के नियम में एक धातु का विधान किया है ;
परन्तु महाभारत कार एक साथ कई धातुओं से एक शब्द की व्युत्पत्ति कर डाली है ।
यद्यपि महाभारत भी एक काव्यात्मक उपन्यास है
जिसमें कल्पना अतिरञ्जना और अलंकात्मक वर्णन है ।
एक प्रसंग में
ब्राह्मण लोगों ने बाह्लीक जन-जाति का वर्णन
लूटेरों के रूप में किया देखें---महाभारत के कर्ण पर्व में जैसा कि ये गुर्ज्जरों और आभीरों का भी करते रहे ।
👇
__________________________________________
अपूपान् सक्तुपिण्डांश्च प्राश्नन्तो मथितान्वितान् ।
पथि सुप्रबला भूत्वा कदा सम्पततो ८ध्वगान्।21।
चेलापहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयस:।
अर्थात् मार्ग में तक्र(मट्ठा) के साथ पुए और सत्तू के पिण्ड खाकर अत्यन्त प्रबल हो कब चलते हुए बहुत से राहगीरों को उनके कपड़े छीन कर हम अच्छी तरह पीटेंगे ।21।
इस प्रकार कोई बाह्लीक अपने मन्तव्य को प्रकट करता हुआ मन ही मन कहता है ।
भारतीय पुरोहितों ने बाहीक लोगें के व्यवहार का वर्णन पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित होकर ही किया है ।
और यह वर्णन मात्र ई०पू० द्वितीय सदी का है ।
इसे अधिक प्राचीनत्तम रूप देने का कोई औचित्य नहीं
______________________________________
बाहीक देश के लोगों का वर्णन करते हुए ब्राह्मण कहते हैं। कि
एवं शीलेषु व्रात्येषु वाहीकेषु दुरात्मसु।22।
कशचेतयानो निवसेन्मनहूर्तमपि मानव:।
संस्कार शून्य दुरात्मा बाहीक ऐसे ही स्वभाव के होते हैं उनके पास कौन सचेत मनुष्य दो घड़ी निवास करेगा ?
ईदृशा ब्राह्मेणनोक्ता वाहीका मोघचारिण:।23
येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयो : शुभपापयो: ।
ब्राह्मण ने निरर्थक आचार विचार वाले वाहीकों को ऐसा ही बताया जिनके पुण्य और पाप दोनों का छठा भाग हे शल्य तुम लिया करते हो।23।
बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में महाभारत आदि ग्रन्थों का निर्माण हुआ।
उस समय ईरानीयों के प्रति या अन्य जन-जातियों के प्रति ब्राह्मणों की धारणा हेय व संकुचित ही थी ।
जिसमें जाट संघ की उपजाति थीं जैसा कि उन्होंने शाकल नगर का वर्णन करते हुए लिखा– 👇
_____________________________________________
तत्र स्म राक्षसी गाति सदा कृष्णचतुर्दशीम् ।25।
नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम् ।
कदा वाहेयिका गाथा : पुनर्गास्यति शाकले ।26।
गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं सुरासवम्।
गौरीभि: सह नारीभिर्बृहतीभिर् स्वलंकृता :।27।
पलाण्डु गंडूषयुतान् खादन्ती चैडकान् बहून्।
उस देश में एक राक्षसी रहती है ; जो सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को समृद्धशाली शाकल नगर में रात के समय दुन्दुभि बजा कर इस प्रकार गाती है ।25।
"मैं वस्त्र आभूषण से विभूषित हो ।
गौ मांस खाकर और गुड़ की बनी हुई शराब पीकर तृप्त हो ; अञ्जलि भर प्याज के साथ बहुत सी भेड़ों को खाती हुई
"गोरे रंग की लम्बी युवती स्त्रियों के साथ मिलकर इस शाकल नगर में पुनः कब इस तरह की बाहीक संबंधी गाथा का गान करुँगी ।।25-26।
अब जाट समाज को कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण जर्तिका जन-जाति से जोड़ते हैं।
परन्तु ये वर्णन एकाकी है ।
परन्तु ये भी यदु कबीले के लोग थे।
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राजपूती काल में सूरजमल जाट के विषय में तो जानते हैं
जिन्हें शिलालेखों पर यादव वीर कहा गया है ।
जाट जन-जाति के लोग बहुतायत से पंजाब के पार्श्ववर्ती स्थलों में रहते थे-
कालान्तरण में जिनकी सीमाऐं पंजाब,हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में अधिक विस्तृत हुईं ।
महाभारत के कर्ण पर्व में वर्णित है कि
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पञ्च नद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवानान्युत।31।
शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैरावती तथा ।
चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा बहिर्गिरे:।32।
आरट्टा नाम ते देशा नष्टधर्मा न तान् व्रजेत्।
पुत्रसंकरिणो जाल्मा: सर्वान्नक्षीरभोजना: ।37।
आरट्टा नाम वाहीका वर्जनीया विपश्चिता।
पञ्च नद्यो यत्र नि:सृत्य पर्वतात् ।40।
आरट्टा नाम वाहीका न तेष्वार्योद्वि अहं वसेत्।
जहां सतद्रु अर्थात् सतलज बिपाशा अर्थात् व्यास तीसरी इरावती (रावी) चन्द्रभागा (चिनाव) और वितस्ता अर्थात् झेलम ये पांच नदी सिन्धु नदी के साथ वहती हैं जहां पीलू नामक वृक्षों के कई जंगल हैं ;
वह हिमालय की सीमा से बाहर के प्रदेश "आरट्ट" नाम से विख्यात हैं वहां का धर्म-कर्म नष्ट हो गया है ।
उन देशों में कभी न जाऐं ।31-32।
वे जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले "आरट्ट" नामक बाहीक सबका अन्न खाते और सभी पशुओं का दूध पीते हैं ।
अत: विद्वान् पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिए।।37।
किसी विद्वान ने कहा कि वह जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले नीचा "आरट्ट" नामक वाहिक सब का अन्न खाते और सभी पशुओं के दूध पीते हैं इसलिए विद्वान पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिए।38।
अब -जब जाटों के विषय में इन रूढ़िवादीयों ने ही अपने ग्रन्थों में जाटों को चोर तथा निम्न घोषित किया हो तो आज इनकी जाटों के प्रति भावनाऐं पवित्र कैसे हो सकती हैं ।
जहाँ पर्वत से निकल कर ये पूर्वोक्त पाँचो नदियाँ वहती हैं
वे "आरट्ट "नाम से प्रसिद्ध बाहीक प्रदेश हैं।
उनमें श्रेष्ठ पुरुष दो दिन भी निवास न करे ।40।
वास्तव में बाहीक शब्द बाह्लीक का तद्भव रूप है --जो कालान्तरण में ईरानी भाषा
"बल्ख" बन गया ।
परन्तु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने बाहीक को बाह्लीक से अलग मानते हुए काल्पनिक व्युत्पत्ति कर डाली 👇
कि व्यास नदी में दो पिशाच रहते हैं एक का नाम "बहि" और दूसरे का नाम "हीक" है।
इन्हीं दोनों की संताने वाहीक कहलाती हैं।
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बहिश्च नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचकौ ।41।
तयोरपत्यं वाहीका नैषा सृष्टि: प्रजापते :।
ते कथं विविधान् धर्मान् ज्ञास्यन्ते हीनयोनय:।।
महाभारतेकर्णपर्वणि पञ्चचत्वारिंशो८ध्याय: पृष्ठ संख्यायाम् –3895 गीता प्रेस संस्करण।
अर्थ– बिपाशा अर्थात व्यास नदी में दो पिशाच रहते हैं एक का नाम "वही" और दूसरे का नाम "हीक" है इन्हीं दोनों की संताने वाहीक कहलाती हैं।
ब्रह्मा जी ने इनकी सृष्टि नहीं की है ; ये नीच योनि में उत्पन्न हुए मनुष्य नाना प्रकार के धर्मों को कैसे जानेंगे ?
कारस्करान्माहिषिकान् कुरण्डान् केरलांस्तथा ।
कर्कोटकान् वीरकांश्च दुर्धर्माश्च विवर्जयेत् ।43।
कारस्कर (कक्कड़) , माहिषक, केरल ,कर्कोटक और वीरक रख इन देशों के धर्म ( आचार-विचार) दूषित हैं अतः उनका त्याग कर देना चाहिए ।43।
"आरट्टा" नाम ते देशा वाहीकं नाम तज्जलम् ।
ब्राह्मणापसदा यत्र तुल्यकाला: प्रजापते :।45।
जहाँ ब्रह्मा के समकालीन वेद विरुद्ध आचरण वाले नीच ब्राह्मण निवास करते हैं 'वह आरट्ट नामक देश है ।
वहाँ के जल का नाम वाहीक है ।45।
(सम्भवत ये "आरट्ट" लोग ईरानीयों की असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे )
वेदा न तेषां वेद्यश्च यज्ञा यजनमेव च।
व्रात्यानां दासमीयानामन्नं देवा न भुञ्जते ।46।
उन अधर्मी ब्राह्मणों को न तो वेदों का ज्ञान है ; ना वहां यज्ञ की विधियां है और ना उनके यहां यज्ञ - याग ही होते हैं वह संस्कार हीन एवं दासों से समागम करने वाली कुलटा स्त्रियों की संताने हैं ।
इसलिए देवता उनका अन्न ग्रहण नहीं करते हैं।46।
प्रस्थला मद्रगान्धारा आरट्टा, नामत: खशा:।
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो८तिकुत्सिता: 47।
प्रस्थल अर्थात "पश्तो" मद्र अर्थात मीदिया गांधार(कान्धार) आरट्ट (जाट ) खस , वसाति,सिंधु तथा सौवीर( हौविर) यह देश प्राय: अत्यंत निन्दित हैं।47।
(कर्ण पर्व चालीसवाँ अध्याय )
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अधिक क्या कहें महाभारत बुद्ध के परवर्ती काल की संस्कृतियों और घटनाओं को अंकित करता है ।
क्यों कि
महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं?
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
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दानवांस्तु वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
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महाभारत भीष्म पर्व में निम्नलिखित जनजातियों में बहुतों का समायोजन अब गुर्जर ,राजपूत और जाट संघ में भी है।👇तोमर,पुण्डीर,बरबारा,कुन्तल,कारस्कर,आभीर(यादव)
आदि निम्न देखें
👇
कुमारीमृषिकुल्यां च मारिषां
च सरस्वतीम्।
मन्दाकिनीं सुपुण्यां च सर्वां गङ्गां च भारत ॥
6-9-36 (38969)
विश्वस्य मातरः सर्वाः सर्वाश्चैव महाफलाः।
तथा नद्यस्त्वप्रकाशाः शतशोऽथ सहस्रशः॥
6-9-37 (38970)
इत्येताः सरितो राजन्समाख्याता यथास्मृति।
अत ऊर्ध्वं जनपदान्निबोध गदतो मम ॥
6-9-38 (38971)
______
तत्रेमे कुरुपाञ्चालाः शाल्वा माद्रेयजाङ्गलाः ।
शूरसेनाः पुलिन्दाश्च बोधा मालास्तथैव च ॥
6-9-39 (38972)
मत्स्याः कुशल्याः सौशल्याः कुंतयः कांतिकोसलाः । चेदिमत्स्यकरूशाश्च भोजाः सिन्धुपुलिन्दकाः ॥
6-9-40 (38973)
उत्तमाश्च दशार्णाश्च मेकलाश्चोत्कलैः सह ।
पञ्चालाः कोसलाश्चैव नैकपृष्ठा धुरन्धराः ॥
6-9-41 (38974)
गोधा मद्रकलिङ्गाश्छ काशयोऽपरकाशयः ।
जठराः कुकुराश्चैव सदशार्णाश्च भारत ॥
6-9-42 (38975)
कुन्तयोऽवन्तयश्चैव तथैवापरकुन्तयः ।
गोमन्ता मन्दकाः सण्डा विदर्भा रूपवाहिकाः ॥
6-9-43 (38976)
अश्मकाः पाण्डुराष्ट्राश्च गोपराष्ट्राः करीतयः।
अधिराज्यकुशाद्यश्च मल्लराष्ट्रं च केवलम् ॥
6-9-44 (38977)
वारवास्यायवाहाश्च चक्राश्चक्रातयः शकाः।
विदेहा मगधाः स्वक्षा मलजा विजयास्तथा ॥
6-9-45 (38978)
अङ्गा वङ्गाः कलिङ्गाश्च यकृल्लोमान एव च।
मल्लाः सुदेष्णाः प्रह्लादा माहिकाः शशिकास्तथा ॥
6-9-46 (38979)
______
बाह्लीका वाटधानाश्च आभीराः कालतोयकाः।
अपरान्ताः परान्ताश्च पञ्चालाश्चर्ममण्डलाः ॥
6-9-47 (38980)
अटवीशिखराश्चैव मेरुभूताश्च मारिष ।
उपावृत्तानुपावृत्ताः स्वराष्ट्राः केकयास्तथा ॥
6-9-48 (38981)
कुन्दापरान्ता माहेयाः कक्षाः सामुद्रनिष्कुटाः ।
अन्ध्राश्च बहवो राजन्नन्तर्गिर्यास्तथैव च ॥
6-9-49 (38982)
बहिर्गिर्याङ्गमलजा मगधा मानवर्जकाः ।
समन्तराः प्रावृषेया भार्गवाश्च जनाधिप ॥
6-9-50 (38983)
_______
✍पुण्ड्रा भर्गाः किराताश्च सुदृष्टा यामुनास्तथा।
शका निषादा निषधास्तथैवानर्तनैर्ऋताः ॥ 6-9-51 (38984) ✍(पुण्डीर)
___
✍दुर्गालाः प्रतिमत्स्याश्च कुन्तलाः कोसलास्तथा।
तीरग्रहाः शूरसेना ईजिकाः कन्यका गुणाः ॥
6-9-52 (38985) ✍दुग्गल_
तिलभारा मसीराश्च मधुमन्तः सकुन्दकाः।
काश्मीराः सिन्धुसौवीरा गान्धारा दर्शकास्तथा ॥
6-9-53 (38986)
अभीसारा उलूताश्च शैवला बाह्लिकास्तथा ।
दार्वी च वानवा दर्वा वातजामरथोरगाः ॥
6-9-54 (38987)
बहुवाद्याश्च कौरव्य सुदामानः सुमल्लिकाः।
वध्राः करीषकाश्चापि कुलिन्दोपत्यकास्तथा ॥
6-9-55 (38988)
वनायवो दशापार्श्वरोमाणः कुशबिन्दवः।
कच्छा गोपालकक्षाश्च जाङ्गलाः कुरुवर्णकाः ॥
6-9-56 (38989) जाँगडा
__
किराता ✍बर्बराः सिद्धा वैदेहास्ताम्रलिप्तकाः।
ओण्ड्रा म्लेच्छाः सैसिरिध्राः पार्वतीयाश्च मारिष ॥ 6-9-57 (38990) ✍( बरबारा)
अथापरे जनपदा दक्षिणा भरतर्षभ ।
द्रविडाः केरलाः प्राच्या भूषिका वनवासिकाः ॥
6-9-58 (38991)
कर्णाटका महिषका विकल्पा मूषकास्तथा । ______
झिल्लिकाः ✍कुन्तलाश्चैव सौहृदानभकाननाः ॥
6-9-59 (38992) ✍(कुन्तलजाटगौत्र)__
कौकुट्टकास्तथा चोलाः कोङ्कणा मालवा नराः ।
समङ्गाः करकाश्चैव कुकुराङ्गारमारिषाः ॥
6-9-60 (38993)
ध्वजिन्युत्सवसंकेतास्त्रिगर्ताः साल्वसेनयः।
व्यूकाः कोकबकाः प्रोष्ठाः सर्मवेगवशास्तथा ॥
6-9-61 (38994)
___
तथैव विन्ध्यचुलिकाः पुलिन्दा वल्कलैः सह।
मालवा बल्लवाश्चैव तथैवापरबल्लवाः ॥
6-9-62 (38995)
कुलिन्दाः कालदाश्चैव कुण्डलाः करटास्तथा । मूषकास्तनबालाश्च सनीपा घटसृञ्जयाः॥
6-9-63 (38996)
अठिदाः पाशिवाटाश्च तनयाः सुनयास्तथा ।
ऋषिका विदभाः काकास्तङ्गणाः परतङ्गणाः ॥
6-9-64 (38997)
_____
उत्तराश्चापरे म्लेच्छाः क्रूरा भरतसत्तम। यवनाश्चीनकाभ्योजा दारुणा म्लेच्छजातयः ॥
6-9-65 (38998)
_____
सकृद्ग्रहाः कुलत्थाश्च हूणाः पारसिकैः सह।
तथैव रमणाश्चीनास्तथैव दशमालिकाः ॥
6-9-66 (38999)
___
क्षत्रिकयोपनिवेशाश्च वैश्यशूद्रकुलानि च।
शूद्राभीराश्च दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह ॥
6-9-67 (39000)
खाशीराश्चान्तचाराश्च पह्लवा गिरिगह्वराः।
आत्रेयाः सभरद्वाजास्तथैव स्तनपोषिकाः ॥
6-9-68 (39001)
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प्रोषकाश्च कलिङ्गाश्च किरातानां च जातयः।
✍तोमरा हन्यमानाश्च तथैव करभञ्जकाः ॥
6-9-69 (390)0 ✍तोमर जाति
एते चान्ये जनपदाः प्राच्योदीच्यास्तथैव च।
उद्देशमात्रेण मया देशाः संकीर्तिता विभो ॥
6-9-70 (39003)
यथागुणबलं चापि त्रिवर्गस्य महाफलम् ।
दुह्याद्धेनुः कामधुक्क भूमिः सम्यगनुष्ठिता ॥
6-9-71 (39004)
तस्यां गृद्ध्यन्ति राजानः शूरा धर्मार्थक्रोविदाः ।
ते त्यजन्त्याहवे प्राणान्वसुगृद्धास्तरस्विनः ॥
6-9-72 (39005)
देवमानुषकायानां कामं भूमिः परायणम् ।
अन्योन्यस्यावलुम्पन्ति सारमेया यथाऽऽमिषम् ॥
6-9-73 (39006)
राजानो भरतश्रेष्ठ भोक्तुकामा वसुन्धराम्।
न चापि तृप्तिः कामानां विद्यतेऽद्यापि कस्यचित् ॥
6-9-74 (39007)
तस्मात्परिग्रहे भूमेर्यतन्ते कुरुपाण्डवाः ।
साम्ना भेदेन दानेन दण्डेनैव च भारत ॥
6-9-75 (39008)
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भाई यह महाभारत भी पुष्यमित्र सुंग ईसा० पूर्व द्वितीय सदी में सम्पादित हुआ जिसमें महात्मा बुद्ध की स्तुति भीष्म करते हैं
बुद्ध का समय ईसा० पूर्व 566 है ।
अब समझे कि भीष्म का समय कितना पुराना होगा ?👇
दानवांस्तु वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार
जो विष्णु अभी तक क्षत्रिय के रूप में अवतार लेता वह अब ब्रह्माण के घर कैसे?
उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
जनश्रुतियों को प्रचारित करने में चतुर अति उत्सुक रहते हैं...
प्रायः मिथ्या प्रचार प्रसार के समय उसके श्रोत का पता नहीं चलता अथवा भोले भाले लोग बिना पुष्टि किये मिथ्या प्रस्तुति पर नेत्र बंद करके विश्वास कर लेते हैं।
और यदि प्रमाण मांगो तो कह देंगे की बाल्यकाल से सुनते आ रहे हैं तो सत्य ही होगा।
ये बातें उस भीड़ के द्वारा कही गयी होती हैं जिसका मुख ना हो ।
और बिना पुष्टि किये मिथ्या प्रचार पर विश्वास कर लेना बिल्कुल भी युक्ति संगत नही है
निम्नलिखित तथ्य पढ़कर आप स्वयं जान जाएेंगे कि सत्य क्या है? और मिथ्या क्या यदि अभी भी आपको लगता है कि जो मिथ्या प्रचार करने वाले है वे ही उचित है तो उनसे भी इसी प्रकार के प्रमाण
माँगे !
हालांकि निम्न तथ्य देखने के उपरांत कुछ विद्वान् गुर्जर व गुज्जर शब्द को स्थानसूचक कहेंगे
'परन्तु यह व्यक्ति सूचक हैे ।
गुर्जर व गुज्जर जातिसूचक भी है
क्योंकि "भोजकृत "सरस्वतीकण्ठाभरणम्" के द्वितीय परिच्छेद के श्लोक संख्या १३ में "स्वेन गुर्जरजातीयेन" वाक्याँश लिखा है अर्थात् "अपनी गुर्जर जातीय लोगों के द्वारा " क्योंकि यहाँ तृत्तीया विभक्ति करण-कारक का रूप है;
तो इससे सिद्ध होता है कि गुर्जर जातिसूचक शब्द भी है...
दूसरा गुज्जर के लिए तो (Ādikālīna Hindī rāso kāvya paramparā evaṃ Bhāratīya saṃskr̥ti )नामक पुस्तक के पृष्ठ 88--
में उक्त पंक्ति देखने को मिलती है जिससे सिद्ध होता है कि गुज्जर जातिसूचक भी है...
गुर्जर अहीर असि जाति दोई
तिन लीह लोप सबकै न कोई।
(अभिषेक चौहान )
क्षत्रात् करण कन्यायां राजपुत्रो बभूव ह |
राजपुत्र्यां तु करणादागरिति प्रकीर्तित: ||१०३|
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में राजपुत्र (राजपूत)जाति की उत्पत्ति हुई है ; और राजपुत्र जाति की कन्या और करण पुरुष से आगरी जाति की उत्पत्ति हुई ||१०३|
ब्रह्मवैवर्तपुराण दशवाँ अध्याय |
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पुराणों में ये सन्दर्भ है जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा 'परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित 'न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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'परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण अध्याय 26 )
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शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा प्रजायते ।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम-कुशलो भवेत् ।47।
तया वृत्या स जीवेद् यो शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध-कर्म्म विशारद : ।48।
हिन्दी अनुवाद:-👇
क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण अध्याय 26 )
दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है जो हम पूर्व में बता चुके हैं ।👇
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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राजपूत्र क्षत्रिय का शुद्धत्तम मानक नहीं है
ये आपने पौराणिक सन्दर्भों से जाना है
प्रस्तुति-करण :-यादव योगेश कुमार'रोहि'
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