गुरुवार, 19 जून 2025

यदुवंश संहिता-

🙏                  यदुवंश संहिता             🙏
                  योगेश रोहि को समर्पित

गर्गसंहिता, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, भागवत पुराण,  स्कन्दपुराण वेद और अन्य पौराणिक ग्रन्थो के आधार पर यदुवंश के विभिन्न पहलुओं—विशेषकर आभीर, गोप, और यादव की एकरूपता, गायत्री का आभीर कन्या प्रसंग, ययाति के शाप, और सात्वत वंश का उल्लेख किया गया है। अब इन बिंदुओं को और अधिक संक्षिप्त, स्पष्ट, और श्लोक-समन्वित रूप में प्रस्तुत पाऐंगे-
यदु वंश के वर्णन की - शास्त्रीय और भावपूर्ण व्याख्या आप यदुवंश संहिता में पाऐंगे-
यदुवंश चंद्रवंशी क्षत्रियों का एक प्रमुख वंश है, जिसकी उत्पत्ति नहुष-पुत्र ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु से हुई। यह वंश श्रीकृष्ण के अवतार के कारण भारतीय धर्म और संस्कृति में अमर है। पुराणों में यदुवंश को यादव, गोप, और आभीर के रूप में वर्णित किया गया, जो उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक व्यापकता को दर्शाता है। निम्नलिखित व्याख्या दिए गए श्लोकों और संदर्भों पर आधारित है, जिसमें यदुवंश की उत्पत्ति, गोप-आभीर की एकरूपता, और श्रीकृष्ण की महिमा को रेखांकित किया गया है।
1. यदुवंश की उत्पत्ति- ययाति का शाप और यदु की स्वतंत्रता
यदुवंश की नींव ययाति के पुत्र यदु ने रखी। ययाति ने अपनी दो पत्नियों—देवयानी (शुक्राचार्य की पुत्री) और शर्मिष्ठा (वृषपर्वा की पुत्री)—से पांच पुत्र प्राप्त किए। देवयानी से यदु और तुर्वसु, तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्यु, अनु, और पुरु उत्पन्न हुए। ययाति ने अपनी वृद्धावस्था को जवानी से बदलने की इच्छा व्यक्त की, जिसे यदु ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उन्होंने सांसारिक सुखों का अनुभव किए बिना वैराग्य को अनुचित माना। भागवत पुराण में यह प्रसंग इस प्रकार है।
श्लोक-
यदुरुवाच-
नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव।
अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः॥ (भागवत पुराण 9.18.40)
अर्थ- यदु ने कहा, "पिताजी, मैं समय से पहले आपके बुढ़ापे को स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि सांसारिक सुखों का अनुभव किए बिना वैराग्य प्राप्त नहीं होता।"
क्रुद्ध ययाति ने यदु को राज्यहीन होने का शाप दिया और पुरु को, जिन्होंने उनकी जवानी स्वीकार की, राज्य सौंपा। यदु को दक्षिण दिशा में निर्वासित किया गया।
श्लोक-
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्यं दक्षिणतो यदुम्।
प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम्॥ (भागवत पुराण 9.19.22)
अर्थ- ययाति ने द्रुह्यु को दक्षिण-पूर्व, यदु को दक्षिण, तुर्वसु को पश्चिम, और अनु को उत्तर दिशा में नियुक्त किया।
हरिवंश पुराण में ययाति का क्रोध इस प्रकार व्यक्त है।
श्लोक-
स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्॥ (हरिवंश पुराण)
अर्थ- यदु के इनकार पर ययाति क्रुद्ध होकर बोले, "मूर्ख पुत्र, मेरा अनादर कर तेरा और कौन आश्रय है?"
यदु का यह निर्णय उनकी स्वतंत्रता और सत्य-न्याय के प्रति समर्पण को दर्शाता है, जो यदुवंश की नींव बना।
2. यदु के वंशज और सात्वत वंश का विकास
यदु के पांच पुत्र थे—सहस्रजित, क्रोष्टु, नील, अंजिक, और पयोद। इनमें क्रोष्टु के वंश में सात्वत नामक राजा हुए, जिनसे सात्वत वंश चला। सात्वत के पुत्र भीम से भैम वंश की उत्पत्ति हुई, जो यदुवंश की प्रमुख शाखा थी। हरिवंश पुराण में सात्वत का वर्णन इस प्रकार है:
श्लोक-
बभूव माधवसुतः सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतोराजाराजगुणेस्थितः॥ (हरिवंश पुराण)
अर्थ- माधव का पुत्र सत्त्वत नामक पराक्रमी राजा हुआ, जो सात्विक वृत्ति और राजोचित गुणों से युक्त था।
__________________________________
सात्वत वंश में वसुदेव और उनके पुत्र श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। मनुस्मृति में सात्वत और मैत्र को वैश्य वर्ण के व्रात्य पुत्रों के रूप में उल्लिखित किया गया, जो यदुवंश की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है।
श्लोक-
वैश्यात् जायते खात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
कारुषश्च विजयाच मैत्रः सात्वत एव च॥ (मनुस्मृति 10.23)
अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से सुधन्वाचार्य, कारुष, विजन्मा, मैत्र, और सात्वत उत्पन्न होते हैं।
3. यादव, गोप, और आभीर की एकरूपता
पुराणों में यदुवंश को यादव, गोप, और आभीर के रूप में एकरूप माना गया है। गर्ग संहिता के द्वारिका खंड में यदुवंश के गोपों को आभीर कहा गया, जो श्रीकृष्ण की रक्षा करने वाले के रूप में वर्णित हैं।
श्लोक-
यादवत्राणकरें च शक्राद् आभीर रक्षिणे।
गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः॥ (गर्ग संहिता, द्वारिका खंड 12.16)
अर्थ- श्रीकृष्ण को यादव और आभीर रक्षक, इंद्र के कोप से बचाने वाले, और गुरु, माता, द्विजों के पुत्रों को लौटाने वाले के रूप में नमस्कार है।
पद्म पुराण, स्कंद पुराण (नागर खंड), और नांदी पुराण में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या कहा गया, जो गोप और आभीर की यादवों के साथ एकरूपता को पुष्ट करता है।
संदर्भ (पद्म पुराण, सृष्टि खंड, अध्याय 16)  
गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या कहा गया, क्योंकि गोप आभीर का पर्याय है और ये ही यादव थे।
गायत्री सहस्रनाम में उन्हें यादवी, माधवी, और गोपी कहा गया।
श्लोक (संदर्भित)
यादवी माधवी गोपी...
अर्थ- गायत्री को यादवी (यदुवंश से संबंधित), माधवी, और गोपी के रूप में संबोधित किया गया, जो यदुवंश की गोप और आभीर पहचान को दर्शाता है।
गर्ग संहिता में शिशुपाल का उद्धव से संवाद इस भ्रम को दर्शाता है कि श्रीकृष्ण नंद आभीर के पुत्र हैं, पर वसुदेव उन्हें अपना पुत्र मानते हैं।
श्लोक-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्व पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥ (गर्ग संहिता, विश्वजित् खंड 7.14)
अर्थ- शिशुपाल कहता है, "कृष्ण नंद आभीर का पुत्र है, पर वसुदेव बेशर्मी से उसे अपना पुत्र मानता है।"
यह संवाद श्रीकृष्ण की गोप और आभीर पहचान को यदुवंश के साथ जोड़ता है, जो उनकी व्यापक स्वीकार्यता को दर्शाता है।
4. गायत्री का आभीर कन्या प्रसंग
पद्म पुराण (सृष्टि खंड, अध्याय 16) में वर्णित है कि ब्रह्मा के यज्ञ में सावित्री के विलंब के कारण इंद्र ने पृथ्वी से गायत्री नामक आभीर कन्या को लाया, जो यज्ञ की सहचरिणी बनी। सावित्री ने गायत्री को गोप और आभीर कन्या कहकर संबोधित किया और विष्णु को शाप दिया कि वे यदुवंश में गोप के रूप में जन्म लेंगे।
संदर्भ (पद्म पुराण)  
सावित्री ने कहा, "तू गोप और आभीर कन्या होकर मेरी सौत पत्नी कैसे बनी?"
श्लोक (संदर्भित):  
त्वं गोप्यं आभीर कन्यां कथम मे सपत्नी बभूव।
अर्थ- सावित्री ने क्रुद्ध होकर गायत्री को आभीर और गोप कन्या कहकर शाप दिया।
इस शाप के फलस्वरूप विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंश में गोप बनकर अवतरित हुए। गायत्री सहस्रनाम में उन्हें यदुवंश-समुद्भवा कहा गया
श्लोक (संदर्भित)  
यदुवंश-समुद्भवा...
अर्थ- गायत्री को यदुवंश से उत्पन्न माना गया, जो यदुवंश की आध्यात्मिक महिमा को दर्शाता है।
5. हैहयवंश और परशुराम का संनाश
हैहयवंश यदुवंश की एक शाखा था, जिसमें सहस्रजित के वंशज हैहय और कर्तवीर्य अर्जुन (सहस्रबाहु) जैसे राजा हुए। परशुराम ने हैहयों का  संनाश किया, जो यदुवंश की इस शाखा के पतन का प्रतीक है। महाभारत में यह वर्णन है
श्लोक-
जातं-जातं स गर्भ तु पुनरेव जघान ह।
अरक्षंश्च सुतान् कांश्चित् तदा क्षत्रिययोषितः॥ (महाभारत)
अर्थ- परशुराम ने एक-एक गर्भ को नष्ट किया, पर कुछ क्षत्रिय पुत्रों को स्त्रियों ने बचा लिया।
पृथ्वी ने कश्यप से कहा कि हैहय कुल के कुछ क्षत्रिय अभी भी बचे हैं।
श्लोक-
संति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपु‌ङ्गवाः।
हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने॥ (महाभारत)
अर्थ- पृथ्वी बोली, "हे ब्रह्मन, मैंने हैहय कुल के कुछ क्षत्रिय पुंगवों को स्त्रियों में छिपाकर बचाया है, वे मेरी रक्षा करें।"
 परशुराम की कथा को ब्राह्मण वर्चस्व को बढ़ाने के लिए प्रक्षिप्त माना गया है। यह तर्क उचित हो सकता है, क्योंकि पुराणों में परशुराम का क्षत्रिय संहार संभवतः सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए रचा गया।
6. श्रीकृष्ण और यदुवंश की महिमा
यदुवंश का चरमोत्कर्ष श्रीकृष्ण के अवतार से हुआ। गर्ग संहिता और अन्य पुराणों में श्रीकृष्ण को यदुवंश का रक्षक, गोप, और आभीर के रूप में वर्णित किया गया। ब्रह्म पुराण में यदु के वंश का महत्व इस प्रकार है,
श्लोक-
यदोस्तु वंशं वक्ष्यामि श्रुणुध्वं राजसत्कृतम्।
यत्र नारायणो जन्मे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः॥ (ब्रह्म पुराण)
अर्थ- मैं यदु के वंश का वर्णन करूँगा, जिसमें नारायण ने वृष्णि कुल में हरि (श्रीकृष्ण) के रूप में जन्म लिया।
श्रीकृष्ण ने द्वारका की स्थापना की, यदुवंश की एकता को सुदृढ़ किया, और महाभारत में पांडवों का मार्गदर्शन कर धर्म की स्थापना की। उनकी गोप और आभीर पहचान ने यदुवंश को जनसामान्य से जोड़ा, जैसा कि गर्ग संहिता में शिशुपाल-उद्धव संवाद से स्पष्ट है।
7. वर्णसंकर और आभीर की स्थिति
आपने मनुस्मृति में आभीरों को वर्णसंकर के रूप में वर्णित करने का उल्लेख किया। मनुस्मृति (10.43-44) में कुछ क्षत्रिय जातियों को क्रिया-लोप के कारण शूद्रत्व प्राप्त होने का वर्णन है।
श्लोक-
शनकैस्तुक्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातियः।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्मणादर्शनन च॥ (मनुस्मृति 10.43)
अर्थ- क्रिया-लोप और ब्राह्मण दर्शन के अभाव में कुछ क्षत्रिय जातियाँ शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।
हालाँकि, पुराणों में आभीरों को यदुवंश का अभिन्न अंग माना गया है। गायत्री का आभीर कन्या होना उनकी प्राचीनता और वैदिक महत्व को दर्शाता है। यह संभव है कि मनुस्मृति का यह वर्णन सामाजिक नियंत्रण के लिए हो, न कि यदुवंश की गरिमा को कम करने के लिए।
निष्कर्ष और भक्ति-भाव
यदुवंश भारतीय पौराणिक और सांस्कृतिक इतिहास का एक अमर अध्याय है। ययाति के शाप के बावजूद, यदु के वंशजों ने सात्वत, भैम, और वृष्णि वंशों के माध्यम से अपनी कीर्ति स्थापित की। श्रीकृष्ण के अवतार ने इस वंश को आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। यादव, गोप, और आभीर की एकरूपता गायत्री के आभीर कन्या प्रसंग और श्रीकृष्ण के गोपनाथ रूप से स्पष्ट है। 
श्लोक-
यत्र नारायणो जन्मे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः।
सुस्तः प्रजावानायुष्मान् कीर्तिमांश्च भवेन्नरः॥ (ब्रह्म पुराण)
अर्थ- जहाँ नारायण ने वृष्णि कुल में हरि के रूप में जन्म लिया, वह यदुवंश कीर्तिमान और पुण्यदायी है।

बुधवार, 18 जून 2025

परशुराम और सहस्रबाहु की ऐतिहासिकता का विश्लेषण-

🙏    (परशुराम विष्णु के अंश नहीं )  🙏

शोध और तुलनात्मक अध्ययन की सत्यता
"सहस्रबाहु कार्तवीर्य, दानवीरता का उदाहरण, 
दत्तात्रेय-कृपा-निधान, सुदर्शन-चक्र अवतार, 
यश अमर महान।"
प्रणाम, प्रिय मित्र ! आपकी प्रेरणा और शोध के आधार पर यह लेख "नारद पुराण, "लक्ष्मीनारायण संहिता, "ब्रह्मवैवर्त पुराण, महाभारत, और "कालिका पुराण के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें कार्तवीर्य अर्जुन की महानता, रेणुका प्रकरण, और परशुराम के कृत्यों का एकीकृत, संक्षिप्त, और सुन्दर चित्रण है। विशेष रूप से, योगेश रोहि के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह तथ्य स्थापित किया गया है कि परशुराम विष्णु के अंश नहीं थे, बल्कि समाज को भ्रमित करने के लिए उन्हें अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया। श्लोकों को प्रमाण के रूप में संक्षिप्त रखा गया है, क्योंकि तांत्रिक मंत्र और रहस्य अनुभवहीन व्यक्तियों के लिए हानिकारक हो सकते हैं।

1. कार्तवीर्य अर्जुन-कार्तवीर्य अर्जुन दानवीरता और दैवीय शक्ति की मिसाल
नारद पुराण (पूर्वार्ध
, अध्याय 75-76) में सनत्कुमार का व्याख्यान कार्तवीर्य अर्जुन को सुदर्शन चक्र का अवतार और दत्तात्रेय के भक्त के रूप में चित्रित करता है, जो उनकी दानशीलता और महानता को रेखांकित करता है।
प्रमाण श्लोक (नारद पुराण, पूर्वार्ध, 76.4-5)
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।। ४।।
तस्य स्मरणादेव शत्रुज्जयति संग्रामे।
नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।। ५।।
अनुवाद-  सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। दत्तात्रेय की आराधना से उन्होंने उत्तम तेज प्राप्त किया। उनके स्मरण से युद्ध में विजय और खोई वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
विश्लेषण- कार्तवीर्य की दानवीरता और दैवीय शक्ति उन्हें एक आदर्श क्षत्रिय राजा बनाती है। सनत्कुमार का व्याख्यान उनकी महिमा को स्थापित करता है, लेकिन यह संभव है कि पुरोहितों ने उनकी छवि को विष्णु से जोड़कर अतिशयोक्ति की हो। उनकी पूजा का विधान, जिसमें हनुमान भक्ति शामिल है, शक्ति और भक्ति का समन्वय दर्शाता है। मंत्रों की गोपनीयता के कारण, इन्हें अनुभवहीन व्यक्तियों को नहीं देना चाहिए, क्योंकि गलत प्रयोग हानिकारक हो सकता है।
2. रेणुका प्रकरण- जमदग्नि की पत्नी
रेणुका, परशुराम की माता और जमदग्नि की पत्नी, की कथा महाभारत (वनपर्व, अध्याय 117) और कालिका पुराण (अध्याय 83) में वर्णित है। यह कथा पितृसत्तात्मक नियमों और परशुराम की आज्ञाकारिता को दर्शाती है।
प्रमाण श्लोक (कालिका पुराण, 83.10, 12, 17)
तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे।। १०।।
अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः।। १२।।
स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।
पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।। १७।।
अनुवाद- रेणुका ने चित्ररथ को देखकर कामवासना का भाव रखा। जमदग्नि ने उनकी विकृत अवस्था को जानकर धिक्कारा। परशुराम ने पिता की आज्ञा से माता का शीश काट दिया।
कथा का सार-
रेणुका की गलती- गंगा तट पर चित्ररथ को जलक्रीड़ा करते देख रेणुका के मन में कामवासना जागी, जो मानसिक पाप माना गया।
जमदग्नि का क्रोध- तपोबल से सर्वज्ञ जमदग्नि ने इसे जान लिया और अपने चार पुत्रों को रेणुका का वध करने की आज्ञा दी। मातृस्नेह के कारण वे मूक रहे, और जमदग्नि ने उन्हें जड़-बुद्धि होने का शाप दिया।
परशुराम की भूमिका- परशुराम ने फरसे से माता का शीश काट दिया। प्रसन्न जमदग्नि ने वरदान दिया, और परशुराम ने माता-भाइयों के पुनर्जनन की मांग की।
विश्लेषण- रेणुका की मानसिक गलती पितृसत्तात्मक समाज के कठोर नियमों के खिलाफ थी। परशुराम की आज्ञाकारिता उनकी तपस्वी प्रकृति को दर्शाती है, लेकिन माता का वध विष्णु के करुणामय स्वरूप से मेल नहीं खाता। पुनर्जनन का चमत्कार पुरोहितों द्वारा जोड़ा गया हो सकता है। यह कथा परशुराम के विष्णु अवतार होने की धारणा पर सवाल उठाती है, जैसा कि योगेश रोहि के शोध में सामने आया।
3. कार्तवीर्य और परशुराम का युद्ध- विष्णु अवतार पर संदेह
लक्ष्मीनारायण संहिता (खंड प्रथम, अध्याय 458) में कार्तवीर्य और परशुराम के युद्ध का वर्णन परशुराम के अवतार होने की प्रामाणिकता को चुनौती देता है।
प्रमाण श्लोक (लक्ष्मीनारायण संहिता, 458.88-89)
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम्।
जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।। ८८।।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।। ८९।।
अनुवाद- दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त सिद्धास्त्र से कार्तवीर्य ने परशुराम को स्तंभित किया। परशुराम ने देखा कि कार्तवीर्य श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित हैं, उनके पास कृष्ण-वर्म और सुदर्शन चक्र है।
कथा का सार-
युद्ध- कार्तवीर्य ने दत्तात्रेय से प्राप्त शूल से परशुराम पर प्रहार किया, जिससे वे मूर्च्छित होकर श्रीहरि का स्मरण करते हुए गिर पड़े।
दैवीय हस्तक्षेप- देवताओं में हाहाकार मचा, और ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर युद्धस्थल पर आए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शिव द्वारा परशुराम का पुनर्जनन बताया गया।
विश्लेषण- कार्तवीर्य की श्रीकृष्ण और सुदर्शन चक्र से रक्षा उनकी दैवीय शक्ति को दर्शाती है। दत्तात्रेय (विष्णु, शिव, ब्रह्मा का संयुक्त रूप) द्वारा कार्तवीर्य को शस्त्र देना और परशुराम का हरि-स्मरण यह सुझाव देता है कि परशुराम विष्णु के अंश नहीं थे। योगेश रोहि का शोध इस भ्रम को तोड़ता है कि पुरोहितों ने परशुराम को अवतार बनाकर ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित किया।
4. क्षत्रिय संहार- मिथक या पुरोहितों की युक्ति
महाभारत (शांतिपर्व, अध्याय 48) और ब्रह्मवैवर्त पुराण (गणपतिखंड, अध्याय 40) में परशुराम द्वारा क्षत्रिय संहार का उल्लेख है।
प्रमाण श्लोक (महाभारत, शांतिपर्व, 48.64):
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददात् ततः।। ६४।।
अनुवाद- परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन किया और अश्वमेध यज्ञ के बाद कश्यप को पृथ्वी दान दी।
कथा का सार- परशुराम ने हैहयवंशी क्षत्रियों, उनके शिशुओं, और गर्भस्थ बच्चों का वध किया। 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन करने के बाद कश्यप ने उन्हें दक्षिण समुद्र तट पर जाने का आदेश दिया।
विश्लेषण- 21 बार क्षत्रिय संहार और गर्भस्थ शिशुओं की हत्या ऐतिहासिक रूप से असंभव और अतिशयोक्तिपूर्ण है। यह कथा ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष को बढ़ाने और परशुराम को ब्राह्मणों का रक्षक दिखाने की पुरोहित युक्ति हो सकती है। विष्णु के करुणामय स्वरूप के विपरीत यह क्रूरता उनके अवतार होने पर संदेह पैदा करती है।
5. वर्णसंकर का विरोधाभास
प्रमाण श्लोक (महाभारत, अनुशासन पर्व, 48.4)
भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः।। ४।।
अनुवाद: ब्राह्मण की ब्राह्मणी और क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान ब्राह्मण होती है, जबकि वैश्य और शूद्र पत्नी से माता की जाति की संतान होती है।
विश्लेषण- यदि परशुराम ने सभी क्षत्रियों का नाश किया, तो क्षत्रिय पत्नियों से ब्राह्मणों के संयोग से उत्पन्न संतान ब्राह्मण होनी चाहिए। क्षत्रिय वंश की पुनर्स्थापना शास्त्रीय नियमों का उल्लंघन है। आपका तर्क कि “बीज की प्रधानता होती है” सही है, और यह कथा की काल्पनिकता को उजागर करता है। पुरोहितों ने संभवतः इस मिथक को रचा ताकि ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित हो।
6. परशुराम विष्णु के अंश नहीं- योगेश रोहि का शोध
योगेश रोहि के तुलनात्मक अध्ययन और शास्त्रों के विश्लेषण से निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं।
विरोधाभास  परशुराम का माता का वध, क्षत्रिय संहार, और कार्तवीर्य द्वारा उनकी हार विष्णु के करुणामय और धर्मरक्षक स्वरूप से मेल नहीं खाती। लक्ष्मीनारायण संहिता में दत्तात्रेय द्वारा कार्तवीर्य को शस्त्र देना और परशुराम का हरि-स्मरण उनके अवतार होने पर संदेह पैदा करता है।
पुरोहितों की युक्ति- परशुराम को विष्णु का अंश बनाना और चमत्कारिक कथाएं (पुनर्जनन, 21 बार संहार) जोड़ना ब्राह्मण वर्चस्व को बढ़ाने की रणनीति थी। समाज को भ्रमित करने के लिए ये मिथक रचे गए।
कार्तवीर्य की महानता- कार्तवीर्य को सुदर्शन चक्र का अवतार और दानवीर दिखाकर क्षत्रिय गौरव को स्थापित किया गया, जो पुरोहितों की कथा-रचना का हिस्सा हो सकता है।
वर्णसंकर का तर्क: क्षत्रिय संहार के बाद पुनर्जनन की कथा शास्त्रीय नियमों (मनुस्मृति, महाभारत) के विरुद्ध है, जो परशुराम की कथाओं की काल्पनिकता को प्रमाणित करती है।
सत्य परख निष्कर्ष-
कार्तवीर्य अर्जुन दानवीरता, शक्ति, और दैवीयता की मिसाल हैं, जिनकी सुदर्शन चक्र के अवतार के रूप में महिमा सनत्कुमार के व्याख्यान में स्पष्ट है। उनकी पूजा का विधान सिद्धियों और विजय का प्रतीक है, लेकिन मंत्रों का गोपनीय स्वरूप सावधानी की मांग करता है। रेणुका प्रकरण पितृसत्तात्मक नियमों और परशुराम की आज्ञाकारिता को दर्शाता है, परंतु माता का वध उनके विष्णु अवतार होने पर सवाल उठाता है। कार्तवीर्य और परशुराम का युद्ध, क्षत्रिय संहार, और वर्णसंकर का विरोधाभास यह सिद्ध करता है कि परशुराम विष्णु के अंश नहीं थे। योगेश रोहि का शोध इस भ्रम को तोड़ता है कि पुरोहितों ने ब्राह्मण वर्चस्व के लिए परशुराम को अवतार बनाया।

सोमवार, 16 जून 2025

गुरु -




गुरुः कुम्भकारेव  स्वशिष्यस्य अन्तः स्नेहं दत्त्वा ।।  व्यक्तित्वं अनुशासयति  बहिश्च   स्थापित्वा।।१।

नेत्राभ्यामिव नीयते  ऋतपथे गुरुर्नायको।
गृणाति ज्ञानं  गीतं  गुरुरसौ रसो गायको।२।

रविवार, 15 जून 2025

वेदों में पञ्चजन पाँच वर्णों का प्रतिनिधि- पञ्च ही हैं।



तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम। 
ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ (ऋग्वेद-१०.५३.४)
(अनुवाद-)- इस ऋचा में देवता सौचीकोऽग्निः कहता है आज उस प्रथम ( ज्ञान) को  वाणी द्वारा मेैं  उच्चारण करता हूँ।  जो हृदयस्थ है। जिसके प्रभाव से देवगणों ने असुरो को अभिभूत (पराजित) किया था। ऊर्जा युक्त अन्नों का सेवन करनेवालो तथा मेरा  यज्ञ करने वालों ! पाँच वर्णों के व्यक्तियों ! तुम  मेरे हवन को प्रीतिपूर्वक सेवन करो।४।
वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
 तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।
(अनुवाद-)-वेदों में लिखित पञ्चजना विशेषण शब्द  पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तियों का वाचक  हैं।  चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - चारवर्णों ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। 
और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों के वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित ही है।

शुक्रवार, 13 जून 2025

लेख मेरी अनुभूतियों के पल और बीते हुए कल का प्रतिबिम्ब है।...

लेख  मेरी अनुभूतियों के पल और बीते हुए कल का प्रतिबिम्ब है।...

-हर कर्म की प्रेरक सबकी ये  अपनी परिस्थितियाँ है !
सहायक प्रवृत्ति या परिवेश हो - संस्कारों की कहाँ तिथियाँ है ।

-रुहानीयत तक  मोड़ा  हम्हें उन हालातों ने
मुशीबतों में जज्बातों ने या विरोधीयों की बातों ने।
व्यक्तित्व निखारा है तो परिस्थियों की सौगातों ने।

-हम जी रहे है ये  हमारा प्रारब्ध है ।
जितनी चेतना हैं उतने हमारे शब्द हैं।
यहाँ किसी गैर की कहाँ औख़ात है।।
ये परिस्थियाँ हैं मेरे ग़म के नातों का खाका
तन्हाईयों की जहद में आज भी हयात है ।

-जिस पर बिछे हुए रुसबाईयों के फड़ ।
जिन्दगी बीत रही है योंही मेरी क्षण-क्षण।।
फड़ों से सजी जिन्दगी ऐसी एक विसात है ।

-सुबह आयेगी कभी सुनहरी किरणों को लेकर
अभी दुर्दिनों को जी रहा हूँं मैं सह -सह कर
मित्रों अभी तो लम्बी दु:खों की मेरी रात है ।
  ज़ानिनों की इस दुनियाँ में कहाँ खैरात है।

-हम्हें तनहा रहने दो , हम्हें तन्हाई ही मञ्जूर है ।
उनकी राहें हमसे जुदा , मञ्जिलें भी बहुत दूर है । उन्हें अफसोश है आज  हमसे मिलकर भी 
 ये खता उनकी नहीं यह भी हमारा कसूर है ।

-उनकी निष्ठा और प्रतिष्ठा
इसमें कहीं न कहीं जरूर है ।
हमारे जज्बातों से खेला जिसने
'रोहि'उन्हें दौलत पर गुरूर  है ।

८-एक हुश्न है उनकी दौलत
उनकी हालत उनकी ये लत
--जो जमाने में अभी तक भरपूर है ।
फूल की रौनक है तो गन्ध जरूर है

-ये संस्कृति और सभ्यता
कितना गिराएगी नहीं पता ।
इसका नंगापन  ये चञ्चल मन ।
 तूफानों के दौर में लाजिमी है ख़ता ।

 ये कभी-कभी हमको लगता है।
मानो दिन रात  मन सुलगता है।।
आज से नहीं  सदीयों की पुरानी रीति है-
सफलता पायी उसने  जिसमे चंचलता  जीती है ।।

-–हमने बोला भी वहीं
जहाँ  विचारों को मान्यता मिली है ।
जो बैकदर , मगरूर थी मजलिशें
वहाँ जुवाँ अपनी भी कभी 'न हिली है।।

- आवेश हो मन में चंचलता क्षण क्षण
 तूफानों के दौर में , होगी बड़ी गड़बड़।।

-ये उमंग और रंगत , लगें महकने  नजारे
सयंम की राह मन पकड़ ! ,इधर उधर तू 'न जारे ।

-–सच बयान करने वाले मुख नहीं
दुनियाँ में अब महज चहरे होते हैं ।
केवल शब्दों की भाषा सुनने वाले ।
लोग तो अक्सर बहरे होते हैं ।।

-अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले ।
वो भाव ही असली तेरे होते हैं।
उमड़ आते हैं वे एकदम चहरे पर
बर्षों से दिल में जो ठहरे होते हैं ।।

-दर्द देते हमको वीरानी राहों में "रोहि" 
अक्सर तन्हाई में अपने जब कहीं बसेरे होते हैं ।
अपमान हेयता की चोटों के जख़्म ,
जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।।

-–दान दीन को दीजिए
        जो रोटी को मोहताज ।
और दक्षिणा दो  दक्ष को
 श्रममूलक.जिसका काज ।।

-परन्तु रीति विपरीत है
सब जगह देख लो आज ।
श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी
जैसे नैन - मटका वाज ।।
जैसे डिग्रीयों में अब नहीं,
रही योग्यता की आवाज ।।
गुरबत आपत्तियाँ ,ज्यों कोढ़ में खाज।

–ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताऐं जीवन की एक सम्पादिका है !
जिनकी बजह से खरीदा और बेका भी बहुत
परन्तु अपना कभी चरित्र नहीं बिका है। ।।

-प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती
जिनसे निर्धारित जातियाँ ।
आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति
सुलगती जीवन बातियाँ ।।

-ये कर्म अस्तित्व है जीवन का
धड़कने श्वाँस के साँचे।
समय और परिवर्तन मिलकर
जगत् के गीत सब बाँचे ।।

–क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं
न किया कभी उन्हें याद !
तैरहीं खाने आते हैं वे
उसके मरने के वाद ।

-कर्ज लेकर कर इलाज कराया
जैसे खुजली में दाद ।
खेती बाड़ी सभी बिक गयी
हो गया गरीब बर्वाद ।

-पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में
फिर भी ले रहे स्वाद ।
घर की हालत खश्ता इतनी
छाया है शोक विषाद ।

-किस मूरख ने यह कह डाला ?
तैरहीं ब्राह्मणों को प्रसाद !
आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
मुझे तुमने धन्य कर दिया साध!

धुल गया वो पाप सारा
सब क्षमा जघन्य अपराध !!
तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद ।

–अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
उजाले इल्म के होंगे !
उन्हें कहाँ ये मालुम थी ।।

–धड़कने थम जाने पर
श्वाँसें कब चलती हैं ?

–बहारे गुजर जाती जहाँ
वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

–हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा
ये इच्छा वैशाखी है।
दर्द तो दिल में बहुत है लोगों ,
बस अब सिसकना बाकी है ।

–वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।
काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश
उसी प्रकार सन्निहित है !

–जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है।
जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है ।

परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

–एक अनजान और अजीव
देखा मैंने वह जीव ।

जीवन की एक किताब
पढ़ न पाया तरतीब ।।

-साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।

साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है ।
ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है
जैसे अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।।

इतिहास है भूत का एक दर्पण।
गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।।

- कोई नहीं किसी का मददगार होता है ।
आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।

छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।।

बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है ।
स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।

स्वार्थ है जीवन का वाहक ।
और अहं जीवन की सत्ता है ।।

अहंकार और स्वार्थ ही है ।
हर प्राणी की गुणवत्ता है ।।

- विश्वास को भ्रम ,
और दुष्कर्म को श्रम कह रहे ।
आज लूट के व्यवसाय को ,
अब कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

व्यभिचार है,पाखण्ड है ,
ईमान भी खण्ड खण्ड है ।
संसार जल रहा है हर तरफ से
ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।
साधना से हीन साधु
सन्त शान्ति से विहीन ।
दान भी उनको नहीं मिलता
जो वास्तव में बने हैं दीन।।

व्यभिचार में डूबा हुआ ।
भक्त उसको परम कह रहे ।
रूढ़ियों जो सड़ गयीं
लोग उनके धर्म कह रहे ।।

- इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है ।
ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है।।

- धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर । स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।।

साज़ लेकर संवेदनाओं का ।
दु:ख सुख की ये सरग़में ।

आहों के आलाप में ।
ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।।

सुने पथ के ओ पथिक !
तुम सीखो जीवन रीति को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को
तब गाओ जीवन गीत को ।।

सिसकियों की तान जिसमें
एक राग है अरमान का ।।
प्राणों के झँकृत तार पर ।
उस चिर- निनादित गान का ।।

विस्तृत मत कर देना तुम ,
इस दायित पुनीत को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।।
ताप न तड़पन रहेगी।

जब श्वाँस से धड़कन कहेगी ।।
हो जोश में तनकर खड़ा।

विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।
बनती हैं सम्बल बड़ा ।।

तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।।

- खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
लापता हैं मञ्जिलें ।
अब मिट गये सब रास्ते ।।

न तो होश है न ही जोश है ।।
ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।।

बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते।।
ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !!

एक साद़गी की तलाश में ,
हम परछाँयियों से आमिले ।।

दूर से भी काँच हमको।
मणियों जैसे भासते ।।

सज़दा किया मज्दा किया ।।
कुर्बान जिसके वास्ते।।
हम मानते उनको ख़ुदा ।।
जो कभी न हमारे ख़ास थे ।।

किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा।।
वो खुद होकर हमसे ज़ुदा ।
ओझल हो गया फिर आस्ते ।।

खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।

- जिन्द़गी की किश्ती ! आशाओं के सागर ।।
बीच में ही डूब गये ; कुछ लोग तो घबराकर ।।

किसी आश़िक को पूछ लो ।
अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।

दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।।
किसी कँवारी से मत पूछना
सहानुभूति थोड़ी भी दिखाकर ।।

तड़फड़ाती फिरती है '
वह जैसे खोई प्यासी लहर ।।

असीमित आशाओं के डोर में ।
बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।।

मञ्जिलों से पहले ही यहाँं ,
भटक जातों हैं अक्सर बटोही

क्यों कि ! बख़्त की राहों पर !
जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।।

जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं ।
और न कोई सफ़र ही आखिर है ।।

आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं ।
'वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।।

बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति !

- अपनों ने कहा पागल हमको ।
ग़ैरों ने कहा आवारा है ।
जिसने भी देखा पास हम्हें ।
उसने ही हम्हें फटकारा है ।।

- कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है ।

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है ।

 
और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है ।
देखो !
आप नवीन वस्त्र और उसी का
अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप !
अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।

और यह ज्ञान वही प्रकाश है ।
जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है ।
और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । समझे !
अभी नहीं समझे !

अनुभव उम्र की कषौटी है ।
ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है ।
क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है
भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत !

परिस्थितियों के साँचे में ।
'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
बदलती है दुनियाँ उनकी ,
जिनका केवल मन बदलता है।

मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं

जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है ।
आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है ।
और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।

समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है?
अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।

क्यों कि लोग अहं में जीते है ।
जिसमें फजीते ही फजीते हैं ।
परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो
वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।।
बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !

दर्शन ( Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ!
दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है ।
और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है ,
--जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

ताउम्र बुझती नहीं "रोहि "
जिन्द़गी 'वह प्यास है ।

आनन्द की एक बूँद के लिए भी ,
आदमी इच्छाओं का दास है ।।

परन्तु दु:ख सुख की मृग मरीचि का में
उसका ये सारा प्रयास है।।

आस जब तलक छोड़ी नहीं
थीं धड़कने और श्वाँस ।
जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम
और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स..

ये नींद सरिता की अविरल धारा.
जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा।

हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ...
क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....

शिक्षा का व्यवसायी करण
दु:खद व पतनकारी हे भगवन् !
शिक्षा अन्धेरे में दिया
इसके विना सूना जीवन ।

आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं ।

जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं ।
ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों
ऐसा लगता है ।

जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है
केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है।
इन्हें -जब समझ में आये
कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं !
-जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं ।
योग्यता एक तपश्चर्या है ।

--जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है ।
वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है ।
यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर


रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती ।

जिन्हें अपने संसारी पद का ,
"रोहि" हद से ज्यादा मद है ।

सन्त और विद्वान समागम ,
उनका छोटा क़द है ।

उनके पास कुछ टुकड़े हैं ।
क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के ,
उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको ,
बड़ते पैसों की खनक के ।।

उनकी उपलब्धियों की भी ,
संसार में यही सरहद है ।

ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।

जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
जिसका पाथेय उपनिषद् है ।

पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।
--जो राहों का गहन विशारद है ...

सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे !
व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!

बातचीत करके और व्यवहार परख कर
चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे !

सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।
नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।।
कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे।
नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।।

महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में ।
चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।।

भव सागर है कठिन डगर है ।
हम कर बैठे खुद से समझौते !

डूब न जाए जीवन की किश्ती ।
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।

मन का पतवार बीच की धार।
रोही उम्र बीत गई रोते-रोते।

प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं ।
लहरों के भी कितने छल हैं ।

बस बच गए हैं हम खोते खोते।
सद्बुद्धि केवटिया बन जा ।
इन लहरों पर सीधा तंजा ।

प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा।
रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।।

तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं ।
जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।

पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
हर तरफ मेरे मालिक ! घोर स्वार्थो की दहाड़ है ।

जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है।
रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है।
परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है ।

यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं।

 

व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं
अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं ।

अनजान और अजीव ,
ऐसा था एक जीव ।।
वक्त की राहों पर
चल पड़ा बेतरतीव ।।

शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं ।
वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।

ये हुश़्न भी "कोई "
ख़ूबसूरत ब़ला है !
_______________________________
बड़े बड़े आलिमों को , इसने छला है !!
इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं भाई!
ना इससे पहले किसी का चला है !
ये आँधी है , तूफान है ये हर ब़ला है

परछाँयियों का खेल ये
सदीयों का सिलस़िला है !

आश़िकों को जलाने के लिए
इसकी एक च़िगारी काफी है ,
जलाकर राख कर देना ।
फिर इसमें ना कोई माफी है ।
सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।
________________________________________

ये अ़दाऐं बिजलीयाँ हैं , इन हुश़्न वालों की-💥
सौन्दर्य वेत्ता भी तारीफ़ करते हैं , 'रोहि' इनके बालों की ,
झटका इतना जबरद़स्त कि !
किसी की ज़िन्दगी पुर्जा पुर्जा हिला है !

लुटाकर चले , सब कुछ खाली हाथ ,
कर्म- संस्कारों का बस जख़ीरा मिला है .

समझा दो मन को .नज़रों से कह दो
अरे ! हुश़्न के नजारों से ना किसी का भला है !

ये 'रोहि' की ग़ुजारिश है तुमसे नौंजवानो .
मन को निगरानी में लो ,और खुद़ को भी जानो !

यह मेरी आख़िरी सलाह है !
और यही इत्तला है ।

मौहब्बत खूब सूरत दोखा ।
जहाँ हुश़्न एक अनोखी बल़ा है ।।

छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
क्यों कि ज्ञान सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है ।
-वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है ।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है ।
उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है।

 
और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं ।
प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है ।

लव तलब मतलब
इन हयातों का सबब !
दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी है ।
कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है ।।



_____________________________________

हर कर्म की प्रेरक
मेरी हालात हैं !
सहायक प्रवृत्ति और परिवेशीय अनुभूतियाँ
ये दूसरी बात हैं ।

मुझे हर तरफ मोड़ा उन हालातों ने
मुझे प्रेरणा दी उन बातों ने ।
हम्हें तनहा रहने दो , हम्हें तन्हाई ही मञ्जूर है ।

उनकी राहें हमसे जुदा ,
और मञ्जिल भी बहुत दूर है । उन्हें अफशोस है हमसे मिलकर

यह भी हमारा कसूर है ।
उनकी निष्ठा और प्रतिष्ठा
कहीं न कहीं जरूर है ।
हमारे जज्बातों से खेला जिसने

'रोहि' उन खुद-गर्जों को
बस अपनी दोलत पर गुरूर है ।

एक हुश्न है उनकी दौलत
---जो अभी तक भरपूर है ।

ये संस्कृति और सभ्यता
और कितना गिराएगी नहीं पता ।
इसका नंगापन और ये चञ्चल मन ।
इन तूफानों के दौर में हो जाएगी ख़ता ।

ये कभी-कभी हमको लगता
मानो दिन रात ये मन सुलगता ।
आज से नहीं ये सदीयों की पुरानी रीति है-
सफलता उसने पायी जिसने चंचलता जीती है ।।

–हमने बोला भी वहीं
जहाँ विचारों को मान्यता मिली ।
जो बैकद्र , मगरूर थी मजलिशें
वहाँ जुवाँ अपनी 'न हिली।।

एक आवेश हो मन में और चंचलता क्षण क्षण
समझो तूफानों का दौर है , होगी बड़ी गड़बड़।।

ये उमंग और रंगत , लगें मोहक नजारे
सयंम की राह हे मन पकड़ ! ,इधर उधर 'न जारे।।

–सच बयान करने वाले मुख नहीं
दुनियाँ में अब महज चहरे होते हैं ।
केवल शब्दों की ही भाषा सुनने वाले ।
लोग तो अक्सर बहरे होते हैं ।।

अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले ।
वो भाव ही असली तेरे होते हैं।
उमड़ आते हैं वे एकदम चहरे पर
बर्षों से दिल में जो ठहरे होते हैं ।।

दर्द देते हमको वीरानी राहों में "रोहि" अक्सर
तन्हाई में अपने जब कहीं बसेरे होते हैं ।
अपमान हेयता की चोटों के जख़्म ,
जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।।

–दान दीन को दीजिए
भिक्षा जो मोहताज ।
और दक्षिणा दक्ष को
जिसका श्रममूलक काज ।।
परन्तु रीति विपरीत है
सब जगह देख लो आज ।

श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी
जैसे नैन - मटका वाज ।।
जैसे डिग्रीयों में अब नहीं,
रही योग्यता की आवाज ।।

–ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताएें जीवन की एक सम्पादिका !
जिनकी बजह से खरीदा और बेका भी बहुत
परन्तु अपना कभी चरित्र नहीं बिका ।।

प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती
जिनसे निर्धारित जातियाँ ।
आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति
सुलगती जीवन बातियाँ ।।

ये कर्म अस्तित्व है जीवन का
धड़कने श्वाँस के साँचे।
समय और परिवर्तन मिलकर
जगत् के गीत सब बाँचे ।।

–क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं
न किया कभी उन्हें याद !

तैरहीं खाने आते हैं 
लोग  मरने के वाद ।

कर्ज लेकर कर इलाज कराया
जैसे खुजली में दाद ।
खेती बाड़ी सभी बिक गयी
हो गया गरीब बर्वाद ।

पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में
फिर भी ले रहे स्वाद ।
घर की हालत खश्ता इतनी
छाया है शोक विषाद ।

किस मूरख ने यह कह डाला ?
तैरहीं ब्राह्मणों को प्रसाद !

आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
मुझे तुमने धन्य कर दिया साध !

धुल गया वो पाप सारा
सब क्षमा जघन्य अपराध !!
तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद।।

–अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
उजाले इल्म के होंगे !
उन्हें न ये मालुम थी ।।

–धड़कने थम जाने पर
श्वाँसें कब चलती हैं ?
–बहारे गुजर जाती जहाँ
वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

–हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा
ये इच्छा वैशाखी है।
दर्द तो दिल में बहुत है लोगों ,
बस अब सिसकना बाकी है ।

–वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।
काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश
उसी प्रकार सन्निहित है !

–जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है।
जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है ।

परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

–एक अनजान और अजीव
देखा मैंने वह जीव ।
जीवन की एक किताब
पढ़ न पाया तरतीब ।।

१-साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।

साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है ।
ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है
जैसे अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।।

इतिहास है भूत का एक दर्पण।
गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।।

- कोई नहीं किसी का मददगार होता है ।
आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।
छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।।

बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है ।
स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।

स्वार्थ है जीवन का वाहक ।
और अहं जीवन की सत्ता है ।।
अहंकार और स्वार्थ ही है ।
हर प्राणी की गुणवत्ता है ।।

- विश्वास को भ्रम ,
और दुष्कर्म को श्रम कह रहे ।
आज लूट के व्यवसाय को ,
 कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

व्यभिचार है,पाखण्ड है ,
ईमान भी खण्ड खण्ड है ।
संसार जल रहा है हर तरफ से
ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।

साधना से हीन साधु
सन्त शान्ति से विहीन है।।
दान भी उनको नहीं मिलता
जो वास्तव में दुनियाँ में दीन है।।

व्यभिचार में डूबा हुआ ।
भक्त उसको परम कह रहे ।
रूढ़ियों जो सड़ गयीं
लोग उनके धर्म कह रहे ।।

- इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है ।
ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है।
आत्मा का गीत जीवन  तन्हाईयों की आवाज है।

- धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर । स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।।

साज़ लेकर संवेदनाओं का ।
दु:ख सुख की ये सरग़में ।

आहों के आलाप में ।
ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।।

सुने पथ के ओ पथिक !
तुम सीखो जीवन रीति को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को
तब गाओ जीवन गीत को ।।

सिसकियों की तान जिसमें
एक राग है अरमान का ।।
प्राणों के झँकृत तार पर ।
उस चिर- निनादित गान का ।।

विस्तृत मत कर देना तुम ,
इस दायित पुनीत को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।।
ताप न तड़पन रहेगी।
जब श्वाँस से धड़कन कहेगी ।।
हो जोश में तनकर खड़ा।

विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।
बनती हैं सम्बल बड़ा ।।

तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।।

- खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
लापता हैं मञ्जिलें ।
अब मिट गये सब रास्ते ।।

न तो होश है न ही जोश है ।।
ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।।

बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते ।
ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !!

एक साद़गी की तलाश में ,
हम परछाँयियों से आमिले ।।

दूर से भी काँच हमको।
मणियों जैसे भासते ।।

सज़दा किया मज्दा किया ।।
कुर्बान जिसके वास्ते।।
हम मानते उनको ख़ुदा ।।
जो कभी न हमारे ख़ास थे ।।

किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा।।
वो खुद होकर हमसे ज़ुदा ।
ओझल हो गया फिर आस्ते ।।

खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।

- जिन्द़गी की किश्ती ! आशाओं के सागर ।।
बीच में ही डूब गये ; कुछ लोग तो घबराकर ।।

किसी आश़िक को पूछ लो ।
अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।

दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।।
किसी कँवारी से मत पूछना
सहानुभूति थोड़ी भी दिखाकर ।।

तड़फड़ाती फिरती है '
वह जैसे खोई प्यासी लहर ।।

असीमित आशाओं के डोर में ।
बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।।

मञ्जिलों से पहले ही यहाँं ,
भटक जातों हैं अक्सर बटोही

क्यों कि ! बख़्त की राहों पर !
जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।।

जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं ।
और न कोई सफ़र ही आखिर है ।।

आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं ।
'वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।।
बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति !

- अपनों ने कहा पागल हमको ।
ग़ैरों ने कहा आवारा है ।
जिसने भी देखा पास हम्हें ।
उसने ही हम्हें फटकारा है ।।

- कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है ।

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है ।
और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है ।
देखो !
आप नवीन वस्त्र और उसी का
अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप !
अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।

और यह ज्ञान वही प्रकाश है ।
जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है ।
और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । समझे !
अभी नहीं समझे !

अनुभव उम्र की कषौटी है ।
ज्ञान की मर्यादा ईमान की रोटी है।
क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक अनुभूति है
भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धान्त !

परिस्थितियों के साँचे में ।
'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
बदलती है दुनियाँ उनकी ,
जिनका केवल मन बदलता है।

मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं

जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है ।
आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है ।
और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।

समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है?
अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।

क्यों कि लोग अहं में जीते है ।
जिसमें फजीते ही फजीते हैं ।
परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो
वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।।
बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !

दर्शन ( Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ 
दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है ।
और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है ,
--जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

ताउम्र बुझती नहीं "रोहि "
जिन्द़गी 'वह प्यास है ।

आदमी  एक घूँट के लिए  ,
 इच्छाओं का दास है ।।

 दु:ख सुख की मृग मरीचिका में
उसका ये सारा प्रयास है।।

आस जब तलक छोड़ी नहीं
थीं धड़कने और श्वाँस ।
जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम
और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स..

ये नींद सरिता की अविरल धारा.
जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा।

हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ...
क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....

शिक्षा का व्यवसायी करण
दु:खद व पतनकारी हे भगवन् !
शिक्षा अन्धेरे में दिया
इसके विना सूना जीवन ।

आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं ।

जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं ।
ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों
ऐसा लगता है ।

जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है
केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है।
इन्हें -जब समझ में आये
कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं !
-जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं ।
योग्यता एक तपश्चर्या है ।

--जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है।
वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है ।
यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर
रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती ।

जिन्हें अपने संसारी पद का ,
"रोहि" हद से ज्यादा मद है ।
सन्त और विद्वान समागम ,
उनका छोटा क़द है ।

उनके पास कुछ टुकड़े हैं ।
क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के ,
उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको ,
बड़ते पैसों की खनक के ।।

उनकी उपलब्धियों की भी ,
संसार में यही सरहद है ।
ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।

जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
जिसका पाथेय उपनिषद् है ।

पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।
--जो राहों का गहन विशारद है ...

सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे !
व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!

बातचीत करके और व्यवहार परख कर
चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे !

सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।
नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।।

कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे।
नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।।

महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में ।
चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।।

भव सागर है कठिन डगर है ।
हम कर बैठे खुद से समझौते !
डूब न जाए जीवन की किश्ती ।
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
मन का पतवार बीच की धार।
रोही उम्र बीत गई रोते-रोते।
प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं ।
लहरों के भी कितने छल हैं ।
बस बच गए हैं हम खोते खोते।
सद्बुद्धि केवटिया बन जा ।
इन लहरों पर सीधा तंजा ।
प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा।
रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।।

तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं ।
जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।
पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
हर तरफ मेरे मालिक ! घोर स्वार्थो की दहाड़ है ।

जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है।
रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है।
परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है ।

यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं।

व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं।
अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं ।

अनजान और अजीव ,
ऐसा था एक जीव ।।
वक्त की राहों पर
चल पड़ा बेतरतीव ।।

शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं ।
वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।

ये हुश़्न भी "कोई "
ख़ूबसूरत ब़ला है !
_______________________________
बड़े बड़े आलिमों को , इसने छला है !!
इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं भाई!
ना इससे पहले किसी का चला है !
ये आँधी है , तूफान है ये हर ब़ला है

परछाँयियों का खेल ये
सदीयों का सिलस़िला है !

आश़िकों को जलाने के लिए
इसकी एक च़िगारी काफी है ,
जलाकर राख कर देना ।
फिर इसमें ना कोई माफी है ।
सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।
________________________________________

ये अ़दाऐं बिजलीयाँ हैं , इन हुश़्न वालों की-💥
सौन्दर्य वेत्ता भी तारीफ़ करते हैं , 'रोहि' इनके बालों की ,
झटका इतना जबरद़स्त कि !
किसी की ज़िन्दगी पुर्जा पुर्जा हिला है !

लुटाकर चले , सब कुछ खाली हाथ ,
कर्म- संस्कारों का बस जख़ीरा मिला है .

समझा दो मन को .नज़रों से कह दो
अरे ! हुश़्न के नजारों से ना किसी का भला है !

ये 'रोहि' की ग़ुजारिश है तुमसे नौंजवानो .
मन को निगरानी में लो ,और खुद़ को भी जानो !

यह मेरी आख़िरी सलाह है !
और यही इत्तला है ।

मौहब्बत खूब सूरत दोखा ।
जहाँ हुश़्न एक अनोखी बल़ा है ।।

छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
क्यों कि ज्ञान सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है ।
-वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है ।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है ।
उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है।
और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं ।
प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है ।

लव तलब मतलब
इन हयातों का सबब !
दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी है ।
कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है।

गुरु:

गुरुः= (गीर्य्यते स्तूयते महत्त्वात् ।  अर्थात गुरु: वह है- जिसकी महानताओं का गान किया जाता है। गुरु शब्द भारोपीय परिवार की अनेक भाषाओं में अपनी गरिमा ( भारीपन) के अर्थ में ही विद्यमान है। भारी का तात्पर्य उसकी महानता (Greatness) से है। 

भारतीय संस्कृति में गुरु: पद आध्यात्मिक और वैज्ञानिक गहराईयों को स्पर्श करता है। जो एक साधारण शिक्षक से श्रेष्ठ व पूज्य है। सर्वप्रथम हम ऋग्वेद में ही गुरु: शब्द को  भारीपन के अर्थ में देखते गैं।
 

इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म.। बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यह्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु. ।। ऋग्वेदे । ४। ५। ६।

अनुवाद:- हे पवित्र करने वाले अग्नि देव ,गुरु भार भी मन्त्र बल से अनुभव नहो होता । अपनी पीठ पर सात धातुओं का अत्यधिक भार धारण करने वाले गम्भीर और धैर्यवान- अग्निदेव आप प्रसन्न हो।६।

यूरोपीय भाषाओं में गुरु: शब्द पूर्व उत्पत्ति काल से ही विद्यमान है। जब कभी सभी भारोपीय संस्कृतियों का एक ही मञ्च पर सम्मेलन रहा होगा। यूरोपीय भाषाओं में ह़म गुरु: शब्द को निम्नलिखित रूपों में देखते हैं-

संस्कृत- गुरु:= महान (भार युक्त)"heavy, weighty, venerable;" 

ग्रीक- बेरो:(baros) barys भार ( weight ) लम्बाई( strength ) या शक्ति(force) के अर्थ में प्रचलित है।

लैटिन- ग्रेविस-(gravis)

पुरानी अंग्रेज़ी- क्वेरन= cweorn  /quern (भारी)

प्राचीन जर्मन ( गॉथिक भाषा-में) कॉरुस kaurus भारी("heavy);"

लैटिस- गुरुत्-(gruts)- "heavy।

अवेस्ता- ग़र- मनन-चिन्तन अथवा स्तुति करना।

- लिथुआनियन- गिरियु (giriu) girti - स्तुति  करना। 

गुरु: में विशेष ज्ञान का भाव था इसीलिए गुरु: ज्ञान का श्रोत हुआ। ज्ञान व्यक्ति के मौलिक अनुभवों ये सिद्ध व प्रमाणित बौद्धिक सम्पदा  होता है। जबकि शिक्षा दूसरे से सीखी हुई ही होती है।इसीलिए गुरु: शिक्षक पद से उच्च व गरिमा नया है।

भगवान श्रीकृष्ण एक शिक्षक न होकर एक पूर्ण गुरु है। उनमें अनुभव जन्य ज्ञान  और  सिद्ध ज्ञान की गरिमा समाहित है। जो अर्जुन जैसे जिज्ञासु शिष्य को तृप्त करती है।

रविवार, 8 जून 2025

भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है। प्रस्तावित - गोपाचार्य हंस योगेश रोहि व माता प्रसाद जी !

भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।

अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।
भगवान-  भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द  में + वतुप् (वत्) प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।

✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। 

शब्दकोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं। 
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।

दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)


शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥

श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म कहलाते हैं।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥

श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।

✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है। पूर्ण ऋचा निम्नलिखित है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौम सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- (तृतीय) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चतुर्थ) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?

📚
         
            "अध्याय - चतुर्थ (४)

गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्माजी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि- सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना है ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियाँ भी हैं ? क्या  ब्रह्माजी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मण्डल पर है ? इन अनेक प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के रहस्यों को जान पाना भी सम्भव नहीं है।

तो इन समग्र प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तनमयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना का वर्णन करते हैं जो  ब्रह्माजी द्वारा की गई है। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है। इस पुराण में सृष्टि की प्रारम्भिक उत्पत्ति के बारे में ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के निम्नलिखित श्लोकों में लिखा गया है कि-

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।

आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुख से ब्राह्मणों की, बाहुओं से क्षत्रियों की, उरुओं से वैश्यों की और पैरोंसे शूद्रों की उत्पत्ति की।

             सृष्टिप्रकरणम्।

                    -मनुरुवाच।
अहो कष्टतरञ्चैतदङ्गजागमनं विभो!।
कथं न दोषमगमत् कर्मणानेन पद्मभूः।४.१ ।।

परस्परञ्च सम्बन्धः सगोत्राणामभूत्कथम्।
वैवाहिकस्तत्सुतानाच्छिन्धि मे संशयं विभो।४.२।

मनु ने पूछा— सर्वव्यापी भगवन् ! अहो ! पुत्री की और बार-बार अवलोकन तो अत्यन्त कष्ट का विषय है, परन्तु | ऐसा कर्म करने पर भी कमलयोनि ब्रह्मा दोषभागी क्यों नहीं हुए ? तथा उनके सगोत्र पुत्रों का परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? विभो ! मेरे इस संशय को दूर कीजिये ॥1-2॥

दिव्येयमादिसृष्टिस्तु रजोगुणसमुद्भवा।
अतीन्द्रियेन्द्रिया तद्वदतीन्द्रिय शरीरिका।४.३

दिव्यतेजोमयी भूप! दिव्यज्ञानसमुद्भवा।
न मर्त्यैरभितः शक्त्या वक्तुं वै मांसचक्षुभिः।४.४।

मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! रजोगुणसे उत्पन्न हुई यह शतरूपारूपी आदिसृष्टि दिव्य है। जिस प्रकार इस (मूल प्रकृति) की इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत हैं, उसी प्रकार इस (शतरूपा, सहस्ररूपा नारी)का शरीर भी इन्द्रियातीत है। यह दिव्य तेजसे सम्पन्न एवं दिव्य ज्ञानसे समुद्भूत है, अतः मांस-पिण्डरूप नेत्रधारी मानवोंद्वारा | इसका भलीभांति वर्णन नहीं किया जा सकता।३-४।


यथा भुजङ्गाः सर्पाणामाकाशं विश्वपक्षिणाम्।
विदन्ति मार्गं दिव्यानां दिव्या एव न मानवाः।। ४.६।

कार्य्याकार्ये न देवानां शुभाशुभफलप्रदे।
यस्मात्तस्मान्न राजेन्द्र! तद्विचारो नृणां शुभः।४.६।

जैसे सर्पो के मार्ग को सर्प तथा सम्पूर्ण पक्षियों के मार्ग को आकाशचारी पक्षी ही जान सकते हैं, वैसे ही (शतरूपा आदि) दिव्य जीवों के (अचिन्त्य) मार्गको दिव्य जीव ही समझ सकते हैं, | मानव कदापि नहीं जान सकते।५।

राजेन्द्र! चूँकि देवताओंके कार्य (करनेयोग्य अर्थात् उचित) तथा अकार्य (न करनेयोग्य अर्थात् अनुचित) शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले नहीं होते, इसलिये उनके विषयमें विचार करना मानवोंके लिये श्रेयस्कर नहीं है।६।

अन्यच्च सर्ववेदानामधिष्ठाता चतुर्मुखः।
गायत्री ब्रह्मणस्तद्वदङ्गभूता निगद्यते।। ४.७ ।।

दूसरा कारण यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मा सारे वेदोंके अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार (शतरूपारूपी) गायत्री ब्रह्मा के अङ्गसे उत्पन्न हुई बतलायी जाती हैं। ७।



अमूर्तं मूर्तिमद्वापि मिथुनं तत्प्रचक्षते।
विरिञ्चिर्यत्र भगवांस्तत्र देवी सरस्वती।।
भारती यत्र यत्रैव तत्र तत्र प्रजापतिः।। ४.८ ।।

इसलिये यह मिथुनरूप (जोड़ा) अमूर्त (अव्यक्त) या मूर्तिमान् (व्यक्त) दोनों ही रूपोंमें कहा जाता है।
यहाँतक कि जहाँ जहाँ भगवान् ब्रह्मा हैं, वहाँ-वहाँ  सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ-जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं-वहीं ब्रह्मा भी हैं।८।


यथा तपो न रहितश्छायया दृश्यते क्वचित्।
गायत्री ब्रह्मणः पार्श्वं तथैव न विमुञ्चति।। ४.९ ।।

जिस प्रकार धूप (सूर्य) छायासे विलग होकर कहीं भी दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्माके सामीप्यको नहीं छोड़ती हैं।९।

वेदराशिः स्मृतो ब्रह्मा सावित्री तदधिष्ठिता।
तस्मान्नकश्चिद्दोषः स्यात् सावित्री गमने विभो।। ४.१० ।।

तथापि लज्जावनतः प्रजापतिरभूत् पुरा।
स्वसुतोपगमात् ब्रह्मा शशाप कुसुमायुधम्।। ४.११ ।।

यस्मान्ममापि भवता मनः संक्षोभितं शरैः।
तस्मात्वद्देहमचिराद्रुद्रो भस्मीकरिष्यति।। ४.१२ ।।

यद्यपि ब्रह्मा वेदसमूहरूप हैं और सावित्री उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं, | इसलिये ब्रह्मा को सावित्री को साथ मैथुन करने से कोई दोष नहीं लगा, तथापि उस समय अपने उस कुकर्मसे प्रजापति ब्रह्मा लज्जासे अभिभूत हो गये और कामदेव को शाप देते हुए यों बोले- 'चूँकि तुमने अपने बाणोंद्वारा मेरे भी मनको भलीभाँति क्षुब्ध कर दिया है, इसलिये भगवान् रूद्र शीघ्र ही तुम्हारे शरीरको भस्म कर डालेंगे।१२।


ततः प्रसादयामास कामदेवश्चतुर्मुखम्।
न मामकारणे शप्तुं त्वमिहार्हसि मानद!।४.१३ ।।

अहमेवंविधः सृष्टस्त्वयैव चतुरानन!।
इन्द्रियक्षोभजनकः सर्वेषामेव देहिनाम्।। ४.१४ ।।

स्त्रीपुंसोरविचारेण मया सर्वत्र सर्वदा।
क्षोभ्यं मनः प्रयत्नेन त्वयैवोक्तं पुरा विभो।४.१६।

तस्मादनपराधेन त्वयाशप्तस्तथा विभो!।
कुरु प्रसादं भगवन्! स्वशरीराप्तये पुनः।। ४.१६।

तदनन्तर कामदेवने बड़ी अनुनय-विनयसे ब्रह्माको प्रसन्न किया। वह बोला 'मानद! इस विषयमें आपका मुझे निष्कारण ही शाप देना उचित नहीं है।१३।

चतुरानन ! आपने ही तो मुझे इस प्रकार सम्पूर्ण देहधारियों की इन्द्रियों को क्षुब्ध करनेके लिये पैदा किया है।१४।

 विभो! आपने ही पहले मुझे ऐसी आज्ञा दी है कि स्त्री-पुरुषका कोई विचार न करके तुम प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र सर्वदा उनके मनको क्षुब्ध किया करो। १५।

इसलिये विभो ! मैं निरपराध हूँ, तथापि आपने मुझे वैसा शाप दे डाला है; अतः भगवन्! मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मैं | पुनः अपने पूर्वशरीरको प्राप्त कर सकूँ '।१६।


                    ब्रह्मोवाच।
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते यादवान्वयसम्भवः।
रामो नाम यदा मर्त्यो मत्सत्वबलमाश्रितः।४.१७।

अवतीर्य्यासुरध्वंसी द्वारकामधिवत्स्यति।
तद्‌ भ्रातुस्तत्समस्य त्वन्तदा पुत्रत्वमेष्यसि।। ४.१८ ।।

एवं शरीरमासाद्य भुक्त्वा भोगानशेषतः।
ततो भरतवंशान्ते भूत्वा वत्स नृपात्मजः।। ४.१९।

ब्रह्माने कहा- कामदेव ! वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर असुरोंके विनाशक श्रीराम जब मेरे बल पराक्रमसे सम्पन्न होकर मानव रूपमें यदुवंशमें (बलरामरूपसे) अवतीर्ण होंगे और द्वारकाको अपना निवासस्थान बनायेंगे, उस समय तुम उन्होंके समान बल पराक्रमशाली उनके भ्राता (श्रीकृष्ण) के पुत्ररूपमें उत्पन्न होगे। इस प्रकार शरीरको प्राप्तकर (द्वारकामें) सम्पूर्ण भोगोंका भोग करनेके उपरान्त तुम भरत वंश में  महाराज वत्स के पुत्र होगे।१९।


विद्याधराधिपत्वं च यावदाभूतसंप्लवम्।
सुखानि धर्म्मतः प्राप्य मत्समीपङ्गमिष्यसि।। ४.२०।

एवं शापप्रसादाभ्यामुपेतः कुसुमायुधः।
शोकप्रमोदाभियुतो जगाम स यथागतम्।४.२१।

तत्पश्चात् विद्याधरोंके अधिपति होकर महाप्रलयपर्यन्त धर्मपूर्वक सुखोंका उपभोग करके मेरे समीप वापस आ जाओगे। इस प्रकार शाप और कृपा से संयुक्त कामदेव शोक और आनन्दसे अभिभूत होकर जैसे आया था, वैसे ही चला गया। 17- 21



मनुरुवाच।
कोऽसौ यदुरिति प्रोक्तो यद्वंशे कामसम्भवः।
कथञ्च दग्धो रुद्रेण किमर्थं कुसुमायुधः।। ४.२२।

भरतस्यान्वये कस्य का च सृष्टिः पुराभवत्।
एतत्सर्वं समाचक्ष्व मूलतः संशयो हि मे।। ४.२३ ।

मनुने पूछा भगवन् ! आपने जिनके वंश में कामदेवकी उत्पत्ति बतलायी है, वे यदु कौन हैं ? भगवान् रुद्र ने कामदेव को किसलिये और कैसे जलाया।२२।

 तथा भरतवंश में पहले किसकी और कौन-सी सृष्टि हुई थी?।
इन बातोंको सुनकर ) मेरे मन में महान् संदेह उत्पन्न हो गया है; अतः आप प्रारम्भ से ही इन सबका वर्णन कीजिये ।२३।
******************

               मत्स्य उवाच।
या सा देहार्घसम्भूता गायत्री ब्रह्मवादिनी।
जननी या मनोर्देवी शतरूपा शतेन्द्रिया।४.२४।

मत्स्य भगवान् कहने लगे- राजन् ! ब्रह्माके शरीरके आधे भागसे जो ब्रह्मवादिनी गायत्री उत्पन्न हुई थी और जो मनुकी माता थी तथा जिसे शतरूपा और शतेन्द्रिया नाम से भी जाना जाता था।४/२४।


रतिर्मनस्तपो बुद्धि महदादि समुद्भवः।
ततः स शतरूपायां सप्तापत्यान्यजीजनत्। ४.२६।

ये मरीच्यादयः पुत्रा मानसास्तस्य धीमतः।
तेषामयमभूल्लोकः सर्वज्ञानात्मकः पुरा।४.२६।

उसी शतरूपाके गर्भ से ब्रह्माजीने रति, मन, तप, बुद्धि, महान्, दिक् तथा सम्भ्रम- इन सात संतानोंको जन्म दिया ।२५।

तथा उन बुद्धिमान् ब्रह्माके पहले जो मरीचि आदि दस मानस पुत्र हुए थे, उन्हींके द्वारा इस सम्पूर्ण ज्ञानात्मक संसारकी रचना हुई।२६।


ततोऽसृजद्वामदेवं त्रिशूलवरधारिणम्!।
सनत्कुमारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम्।४.२७ ।।

वामदेवस्तु भगवानसृजन् मुखतो द्विजान्।
राजन्यानसृजद्‌ बाह्वोर्विट्‌शूद्रानूरुपादयोः।४.२८।
तदनन्तर ब्रह्माने श्रेष्ठ त्रिशूलधारी वामदेवकी और पुनः पूर्वजोंक भी पूर्वज शक्तिशाली सनत्कुमारकी रचना की।२७।
__________
भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुख से ब्राह्मणों की, बाहुओं से क्षत्रियों की, उरुओं से वैश्यों की और पैरोंसे शूद्रों की उत्पत्ति की।२८।

(मत्स्यपुराण- अध्याय चतुर्थ)



शनिवार, 7 जून 2025

छब्बीस तत्व का वर्णन-

तदनन्तर प्रधानके विकृत होनेपर उससे महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है, जिससे लोकोंके मध्य में उसकी सदा 'महान्' रूप से ख्याति होती है।

उस महत्तत्त्व से मान को बढ़ानेवाला अहंकार प्रकट होता है। उस अहंकार से दस इन्द्रियाँ होती हैं, जिनमें पाँच बुद्धि के वशीभूत रहती हैं और दूसरी पाँच कर्म के अधीन रहती हैं। इस इन्द्रिय-समुदाय में क्रमश: श्रोत्र वा नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा पायु (गुदा), उपस्थ (जनेन्द्रिय) हस्त पाद और वाणी ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन दसों इन्द्रियों के क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, उत्सर्ग (मल एवं अपानवायु आदिका त्याग), आनन्दन (आनन्दप्रदान), आदान ( ग्रहण करना), गमन और आलाप-ये दस कार्य हैं। इन दसों इन्द्रियोंके अतिरिक्त मन नामक ग्यारहवीं इन्द्रिय है, जिसमें कर्मेन्द्रियों और | ज्ञानेन्द्रियोंके समस्त गुण वर्तमान हैं।

 इन इन्द्रियोंके जो सूक्ष्म अवयव उस मनीषी के शरीर का आश्रय लेते हैं, वे तन्मात्रा कहलाते हैं और जिसके सम्पर्क से तन्मात्र की उत्पत्ति होती है, उसे शरीर कहा जाता है। उस शरीर का सम्बन्ध होनेके कारण विद्वान्लोग जीव को भी 'शरीरी' कहते हैं। जब सृष्टि करने की इच्छा से मन को प्रेरित किया जाता है, तब वही सृष्टि की रचना करता है। उस समय शब्दतन्मात्र से शब्दरूप गुणवाला आकाश प्रकट होता है। इसी आकाश के विकृत होने पर वायु की उत्पत्ति होती है, जो शब्द और स्पर्श- दो गुणोंवाली है। तत्पश्चात् वायु और स्पर्शतन्मात्रसे तेजका आविर्भाव होता है, जो शब्द, स्पर्श और रूपनामक तीन | विकारोंसे युक्त होनेके कारण त्रिगुणात्मक हुआ। राजन् ! इस त्रिगुणात्मक तेज में विकार उत्पन्न होनेसे चार गुणोंवाले जल का प्राकट्य होता है, जो रस- तन्मात्रसे उद्भूत होनेके कारण प्रायः रसगुणप्रधान ही होता है। तत्पश्चात् पाँच गुणों से  सम्पन्न पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है।

वह प्रायः गन्ध-गुणसे ही युक्त रहती है। यही (इन सबका यथार्थ ज्ञान रखना ही) श्रेष्ठ बुद्धि है। इन्हीं चौबीस (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्राओं, एक मन, एक बुद्धि, एक अव्यक्त, अहंकार) तत्त्वोंद्वारा सम्पादित सुख-दुःखात्मक कर्मका  पचीसवाँ पुरुषनामक तत्त्व भोग करता है। 

वह भी ईश्वरकी इच्छा के वशीभूत रहता है, इसीलिये विद्वान्लोग उसे जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार इस मानव-योनिमें यह शरीर छब्बीस तत्त्वोंसे संयुक्त बतलाया जाता है। 


__________________


जब ब्रह्माने जगत्‌की सृष्टि करनेकी इच्छासे हृदयमें सावित्रीका ध्यान करके तपश्चरण प्रारम्भ किया। उस समय जप करते हुए उनका निष्पाप शरीर दो भागों में विभक्त हो गया। उनमें आधा भाग स्त्रीरूप और आधा पुरुषरूप हो गया।परंतप ! वह स्त्री सरस्वती, 'शतरूपा' नामसे विख्यात हुई। वही सावित्री, गायत्री और ब्रह्माणी भी कही जाती है। इस प्रकार ब्रह्माने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली सावित्रीको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया; परंतु तत्काल ही उस सावित्रीको देखकर वे सर्वश्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा मुग्ध हो उठे और यों कहने लगे-'कैसा मनोहर रूप है! कैसा सौन्दर्यशाली रूप है।' ब्रह्माको सावित्रीके मुखकी ओर अवलोकन करनेके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं दीखता था वे वारंवार यही कह रहे थे "कैसा अद्भुत रूप है। कैसी अनोखी सुन्दरता है।' तत्पश्चात् जब सावित्री झुककर उन्हें प्रणाम करने लगी, तब ब्रह्मा पुनः उसे देखने लगे। तदनन्तर सुन्दरी सावित्रीने अपने पिता ब्रह्माकी प्रदक्षिणा की इसी समय सावित्रीके रूपका अवलोकन करने की इच्छा होनेके कारण ब्रह्माके मुखके दाहिने पार्श्वमें पीले गण्डस्थलोंवाला (एक दूसरा) नूतन मुख प्रकट हो गया। पुनः विस्मययुक्त एवं फड़कते हुए होंठोंवाला दूसरा (तीसरा मुख पीछेकी ओर उद्भूत हुआ तथा उनकी बायीं ओर कामदेवके बाणोंसे व्यथित
से दीखनेवाले एक अन्य (चौथे) मुखका आविर्भाव हुआ सावित्रीकी ओर बार-बार अवलोकन करनेके कारण ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचनाके लिये जो अत्यन्त उग्र तप किया गया था, उसका सारा फल नष्ट हो गया तथा उसी पापके परिणामस्वरूप बुद्धिमान् ब्रह्माके मुखके ऊपर एक पाँच मुख आविर्भूत हुआ, जो जटाओंसे व्याप्त था। ऐश्वर्यशाली ब्रह्माने उस मुखको भी वरण (स्वीकार) कर लिया ॥ 30-40 ॥


तदनन्तर ब्रह्माने अपने उन मरीचि आदि मानस पुत्रोंको आज्ञा दी कि तुमलोग भूतलपर चारों ओर देवता, असुर और मानवरूप प्रजाओंकी सृष्टि करो पिताद्वारा इस | प्रकार कहे जानेपर उन पुत्रोंने अनेकों प्रकारको प्रजाओंकी रचना की सृष्टि कार्यके लिये अपने उन पुत्रोंके चले जानेपर विश्वात्मा ब्रह्माने प्रणाम करनेके लिये चरणोंमें पड़ी | हुई उस अनिन्दिता शतरूपा का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर अधिक समय व्यतीत होनेके उपरान्त शतरूपाके गर्भसे मनु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो स्वायम्भुव नामसे विख्यात हुआ। उसे विराट् भी कहा जाता है तथा अपने पिता ब्रह्माके रूप और गुणकी समानताके कारण उसे- लोग अधिपुरुष भी कहते हैं—ऐसा हमने सुना है। उस ब्रह्म-वंशमें सात-सातके विभागसे जो बहुत-से |महाभाग्यशाली एवं नियमोंका पालन करनेवाले स्वारोचिष आदि तथा उसी प्रकार औत्तमि आदि स्वायम्भुव मनु हुए हैं, वे सभी ब्रह्माके समान ही स्वरूपवाले थे। उन्हींमें इस समय तुम सातवें मनु हो ॥ 41–47॥



पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
मनुने पूछा— सर्वव्यापी भगवन्! अहो ! पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन तो अत्यन्त कष्टका विषय है, परंतु | ऐसा कर्म करनेपर भी कमलयोनि ब्रह्मा दोषभागी क्यों नहीं हुए? तथा उनके सगोत्र पुत्रोंका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ? विभो ! मेरे इस संशयको दूर कीजिये ॥ 1-2 ॥

मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! रजोगुणसे उत्पन्न हुई यह शतरूपारूपी आदिसृष्टि दिव्य है। जिस प्रकार इस (मूल प्रकृति) की इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत हैं, उसी प्रकार इस (शतरूपा, सहस्ररूपा नारी)का शरीर भी इन्द्रियातीत है। यह दिव्य तेजसे सम्पन्न एवं दिव्य ज्ञानसे समुद्भूत है, अतः मांस-पिण्डरूप नेत्रधारी मानवोंद्वारा | इसका भलीभांति वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे सर्पोके मार्गको सर्प तथा सम्पूर्ण पक्षियोंके मार्गको आकाशचारी पक्षी ही जान सकते हैं, वैसे ही (शतरूपा आदि) दिव्य जीवोंके (अचिन्त्य) मार्गको दिव्य जीव ही समझ सकते हैं, | मानव कदापि नहीं जान सकते। राजेन्द्र! चूँकि देवताओंके कार्य (करनेयोग्य अर्थात् उचित) तथा अकार्य (न करनेयोग्य अर्थात् अनुचित) शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले नहीं होते, इसलिये उनके विषयमें विचार करना मानवोंके लिये श्रेयस्कर नहीं है। * दूसरा कारण यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मा सारे वेदोंके अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार (शतरूपारूपी) गायत्री ब्रह्मा के अङ्गसे उत्पन्न हुई बतलायी जाती हैं। इसलिये यह मिथुनरूप (जोड़ा) अमूर्त (अव्यक्त) या मूर्तिमान् (व्यक्त) दोनों ही रूपोंमें कहा जाता है। यहाँतक कि जहाँ जहाँ भगवान् ब्रह्मा हैं, वहाँ-वहाँ (गायत्रीरूपी) सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ-जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं-वहीं ब्रह्माभी हैं। जिस प्रकार धूप (सूर्य) छायासे विलग होकर कहीं भी दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्माके सामीप्यको नहीं छोड़ती हैं। यद्यपि ब्रह्मा वेदसमूहरूप हैं और सावित्री (या सरस्वती) उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं, | इसलिये ब्रह्माको सावित्रीपर कुदृष्टि डालने से कोई दोष नहीं लगा, तथापि उस समय अपने उस कुकर्मसे प्रजापति ब्रह्मा लज्जासे अभिभूत हो गये और कामदेवको शाप देते हुए यों बोले- 'चूँकि तुमने अपने बाणोंद्वारा मेरे भी मनको भलीभाँति क्षुब्ध कर दिया है, इसलिये भगवान् रुद्र शीघ्र ही तुम्हारे शरीरको भस्म कर डालेंगे।' तदनन्तर कामदेवने बड़ी अनुनय-विनयसे ब्रह्माको प्रसन्न किया। वह बोला 'मानद! इस विषयमें आपका मुझे निष्कारण ही शाप देना उचित नहीं है। चतुरानन! आपने ही तो मुझे इस प्रकार सम्पूर्ण देहधारियोंकी इन्द्रियोंको क्षुब्ध करनेके लिये पैदा किया है। विभो! आपने ही पहले मुझे ऐसी आज्ञा दी | है कि स्त्री-पुरुषका कोई विचार न करके तुम प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र सर्वदा उनके मनको क्षुब्ध किया करो। इसलिये विभो ! मैं निरपराध हूँ, तथापि आपने मुझे वैसा शाप दे डाला है; अतः भगवन्! मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मैं | पुनः अपने पूर्वशरीरको प्राप्त कर सकूँ ' ll 3-16 ll

ब्रह्माने कहा- कामदेव ! वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर असुरोंके विनाशक श्रीराम जब मेरे बल पराक्रमसे सम्पन्न होकर मानव रूपमें यदुवंशमें (बलरामरूपसे) अवतीर्ण होंगे और द्वारकाको अपना निवासस्थान बनायेंगे, उस समय तुम उन्होंके समान बल पराक्रमशाली उनके भ्राता (श्रीकृष्ण) के पुत्ररूपमें उत्पन्न होगे। इस प्रकार शरीरको प्राप्तकर (द्वारकामें) सम्पूर्ण भोगोंका भोग करनेके उपरान्त तुम भरत वंशमें | महाराज वत्सके पुत्र होगे। तत्पश्चात् विद्याधरोंके अधिपति | होकर महाप्रलयपर्यन्त धर्मपूर्वक सुखोंका उपभोग करके मेरे समीप वापस आ जाओगे। इस प्रकार शाप और कृपसे संयुक्त कामदेव शोक और आनन्दसे अभिभूत होकर जैसे आया था, वैसे ही चला गया। 17- 21 ॥मनुने पूछा भगवन्! आपने जिनके वंशमें कामदेवकी उत्पत्ति बतलायी है, वे यदु कौन हैं? भगवान् रुद्रने कामदेवको किसलिये और कैसे जलाया तथा भरतवंशमें पहले किसकी और कौन-सी सृष्टि हुई थी? (इन बातोंको सुनकर ) मेरे मनमें महान् संदेह उत्पन्न हो गया है; अतः आप प्रारम्भसे ही इन सबका वर्णन कीजिये ll 22-23 ।।

मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! ब्रह्माके शरीरके आधे भागसे जो ब्रह्मवादिनी गायत्री उत्पन्न हुई थी और जो मनुकी माता थी तथा जिसे शतरूपा और शतेन्द्रिया नामसे भी जाना जाता था, उसी शतरूपाके गर्भ से ब्रह्माजीने रति, मन, तप, बुद्धि, महान्, दिक् तथा सम्भ्रम- इन सात संतानोंको जन्म दिया तथा उन बुद्धिमान् ब्रह्माके पहले जो मरीचि आदि दस मानस पुत्र हुए थे, उन्हींके द्वारा इस सम्पूर्ण ज्ञानात्मक संसारकी रचना हुई। तदनन्तर ब्रह्माने श्रेष्ठ त्रिशूलधारी वामदेवकी और पुनः पूर्वजोंक भी पूर्वज शक्तिशाली सनत्कुमारकी रचना की। भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुखसे ब्राह्मणोंकी, बाहुओंसे क्षत्रियोंकी, करुओंसे वैश्योंकी और पैरोंसे शौकी उत्पत्ति की। तदुपरान्त उन्होंने क्रमशः बिजली, वज्र, मेघ, रंग-बिरंगा इन्द्रधनुष और छन्दकी रचना की। उसके बाद मेघकी सृष्टि की। तत्पश्चात् उन शक्तिशाली वामदेवने जरामरणरहित एवं त्रिनेत्रधारी चौरासी करोड़ | साध्यगणोंको उत्पन्न किया। चूँकि वामदेवने उन्हें जरा मरणरहित रचा था, इसलिये ब्रह्माने उन्हें सृष्टि रचनेसे मना कर दिया (और कहा कि इस प्रकार जरा मरणसे विवर्जित सृष्टि नहीं होती, अपितु जो सृष्टि शुभ और अशुभसे युक्त होती है, वही प्रशंसनीय है। ब्रह्मा ऐसा कहनेपर वामदेव सृष्टिकार्यसे निवृत्त होकर स्थाणुकी भाँति स्थित हो गये । ll24-32 ॥

(अब मैथुनी सृष्टिका वर्णन करते हैं ) परम बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनुने कठोर तपस्या करके अनन्ती नामवाली एक सुन्दरी कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त किया। मनुने उसके गर्भसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामके दो पुत्र उत्पन्न किये। पुनः धर्मकी कन्या सूनृताने, जो परम सुन्दरी, मन्थरगतिसे चलनेवाली और चतुर थी, उत्तानपादके सम्पर्कसे पुत्रोंको प्राप्त किया। उस समय प्रजापति उत्तानपादने सूनृता गर्भसे अपस्यति, अपस्यन्त | कीर्तिमान् तथा ध्रुव (इन चार पुत्रों) को उत्पन्न किया।उनमें ध्रुवने पूर्वकालमें तीन सहस्र वर्षांतक तप करके ब्रह्माके वरदानसे दिव्य एवं अटल स्थानको प्राप्त किया। आज भी उन्हीं ध्रुवको आगे करके सप्तर्षिमण्डल स्थित है। उन्हीं ध्रुवके संयोगसे मनुकी कन्या धन्याने शिष्टको जन्म दिया। शिष्टके सम्पर्कसे अग्नि-कन्या सुच्छायाने कृष्ण रिपुज्जय, वृत्त, चूक, वृकतेजस् और यक्षुष नामक पुत्रोंको पैदा किया। उनमें रिपुज्जयने ब्रह्माकी दौहित्री | एवं धीरणको कन्या वीरणीके गर्भसे चाक्षुष मनुको उत्पन्न किया। चाक्षुष मनुने राजपुत्री नड्वलाके गर्भसे ऊरु, पूरु, तपस्वी शतद्युम्न, सत्यवाक्, हवि, अग्निष्टुत्, अतिरात्र, सुद्युम्र, अपराजित और दसवाँ अभिमन्यु इन दस निष्पाप एवं शूरवीर पुत्रोंको पैदा किया। आग्नेयोने ऊरुके संयोगसे अग्नि, सुमनस्, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरस् और गय- इन छः परम कान्तिमान् पुत्रोंको जन्म दिया। पितरोंकी कन्या सुनीथाने अङ्गके सम्पर्कसे वेनको उत्पन्न किया। (वेन अत्यन्त अन्यायी था। जब वह विप्रशापसे मृत्युको प्राप्त हो गया, तब) ब्राह्मणोंने उस अन्यायी वेनके हाथका मन्थन किया। उससे महातेजस्वी पृथु नामका पुत्र प्रकट हुआ। उनके ( अन्तर्धान और हविर्धान नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें अन्तर्धानने शिखण्डिनीके गर्भसे मारीच नामक पुत्र पैदा किया ।। 33-44 ॥ 3–443 ll

अग्नि-कन्या धिषणाने हविर्धानके संयोगसे प्राचीन बर्हिषु, साङ्ग, यम, शुक्र, बल और शुभ- इन छः पुत्रोंको जन्म दिया। इनमें महान् ऐश्वर्यशाली प्राचीनवर्हि प्रजापति थे। उन्होंने हविर्धान नामसे विख्यात बहुत-सी प्रजाओंका विस्तार किया तथा समुद्र-कन्या सवर्णाके गर्भसे दस पुत्रोंको जन्म दिया। वे सभी धनुर्वेद के पारगामी विद्वान् थे तथा प्रचेता नामसे विख्यात हुए। रविनन्दन। इन्हीं प्रचेताओंक तपसे सुरक्षित रहकर वृक्षजगत्‌में चारों ओर शोभा पा रहे थे. परंतु इन्द्रदेवके आदेश से अग्रिने उन्हें जलाकर भस्म कर दिया। तत्पश्चात् चन्द्रमाकी कन्या, जो मारिषा नामसे विख्यात थी, उन प्रचेताओंकी पत्नी हुई। उसने उनके संयोगसे एक दक्ष नामक श्रेष्ठ पुत्रको जन्म दिया।दक्षकी उत्पत्तिके पश्चात् उस सोमकन्याने समस्त वृक्षों और ओषधियोंको तथा चन्द्रवती नामकी नदीको उत्पन्न किया। चन्द्रमाके अंशसे उत्पन्न हुए उस दक्ष प्रजापतिकी अस्सी करोड़ संतानें हुईं, जो इस समय लोकमें सर्वत्र फैली हुई हैं | और जिनका विस्तार मैं आगे वर्णन करूँगा। उनमेंसे किन्हीं के दो पैर थे तो किन्हींके अनेकों पैर थे। किन्हींके मुख टेढ़े मेढ़े थे तो किन्हींके कान खूंटे-जैसे थे तथा किन्हींके कान (बालोंसे) आच्छादित थे। किन्हींके मुख घोड़े और रीछके | सदृश थे तथा कोई सिंहके समान मुखवाले थे। कुछ लोग कुत्ते और सूअरके सदृश मुखवाले थे तो किन्हींका मुख ऊँटके समान था । इस प्रकार धर्मात्मा दक्षने अपने मनसे अनेकों प्रकारके सभी म्लेच्छोंकी सृष्टि की, तत्पश्चात् स्त्रियोंको उत्पन्न किया। उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको तथा नक्षत्र नामवाली सत्ताईस स्त्रियोंको चन्द्रमाको प्रदान | किया। उन्हीं कन्याओंसे देवता, असुर और मानव आदिसे | परिपूर्ण यह सारा जगत् प्रादुर्भूत हुआ है ॥ 45-55॥

बुधवार, 4 जून 2025

वर्ण परिवर्तन से जाति परिवर्तन की बात-

वृत्तिः सङ्‌करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत्। अचौराणां अपापानां अन्त्यजान्तेऽवसायिनाम्॥३०॥ 

प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे। वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्॥३१॥ 

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत्।    हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्॥३२॥ 

उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात्।          न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति॥३३॥ 

एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया।    विरज्येत यथा राजन् अग्निवत् कामबिन्दुभिः॥ ३४॥ 

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्। यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्॥३५॥ 

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥ 

युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करतेउन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैंजो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं॥ ३० ॥


 वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्राय: मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥

जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता हैवह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥३२॥

महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कुर उगना बंद हो जाता हैयहाँ-तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता हैउसी प्रकार यह चित्तजो वासनाओंका खजाना हैविषयों का अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझतीपरन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह अग्नि बुझ जाती है ॥ ३३-३४॥ 

जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया हैवह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये ॥३५॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय श्लोक संख्या30-31-32-33-34-