गुरुवार, 19 जून 2025
यदुवंश संहिता-
बुधवार, 18 जून 2025
परशुराम और सहस्रबाहु की ऐतिहासिकता का विश्लेषण-
सोमवार, 16 जून 2025
गुरु -
रविवार, 15 जून 2025
वेदों में पञ्चजन पाँच वर्णों का प्रतिनिधि- पञ्च ही हैं।
शुक्रवार, 13 जून 2025
लेख मेरी अनुभूतियों के पल और बीते हुए कल का प्रतिबिम्ब है।...
गुरु:
इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म.। बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यह्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु. ।। ऋग्वेदे । ४। ५। ६।
अनुवाद:- हे पवित्र करने वाले अग्नि देव ,गुरु भार भी मन्त्र बल से अनुभव नहो होता । अपनी पीठ पर सात धातुओं का अत्यधिक भार धारण करने वाले गम्भीर और धैर्यवान- अग्निदेव आप प्रसन्न हो।६।
यूरोपीय भाषाओं में गुरु: शब्द पूर्व उत्पत्ति काल से ही विद्यमान है। जब कभी सभी भारोपीय संस्कृतियों का एक ही मञ्च पर सम्मेलन रहा होगा। यूरोपीय भाषाओं में ह़म गुरु: शब्द को निम्नलिखित रूपों में देखते हैं-
संस्कृत- गुरु:= महान (भार युक्त)"heavy, weighty, venerable;"
ग्रीक- बेरो:(baros) barys भार ( weight ) लम्बाई( strength ) या शक्ति(force) के अर्थ में प्रचलित है।
लैटिन- ग्रेविस-(gravis)
पुरानी अंग्रेज़ी- क्वेरन= cweorn /quern (भारी)
प्राचीन जर्मन ( गॉथिक भाषा-में) कॉरुस kaurus भारी("heavy);"
लैटिस- गुरुत्-(gruts)- "heavy।
अवेस्ता- ग़र- मनन-चिन्तन अथवा स्तुति करना।
- लिथुआनियन- गिरियु (giriu) girti - स्तुति करना।
गुरु: में विशेष ज्ञान का भाव था इसीलिए गुरु: ज्ञान का श्रोत हुआ। ज्ञान व्यक्ति के मौलिक अनुभवों ये सिद्ध व प्रमाणित बौद्धिक सम्पदा होता है। जबकि शिक्षा दूसरे से सीखी हुई ही होती है।इसीलिए गुरु: शिक्षक पद से उच्च व गरिमा नया है।
भगवान श्रीकृष्ण एक शिक्षक न होकर एक पूर्ण गुरु है। उनमें अनुभव जन्य ज्ञान और सिद्ध ज्ञान की गरिमा समाहित है। जो अर्जुन जैसे जिज्ञासु शिष्य को तृप्त करती है।
रविवार, 8 जून 2025
भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है। प्रस्तावित - गोपाचार्य हंस योगेश रोहि व माता प्रसाद जी !
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।
भगवान- भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द में + वतुप् (वत्) प्रत्यय करने पर = भगवान् शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।
अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।
✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है।
शब्दकोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं।
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।
दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)
"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति, अनन्तज्ञान, अनन्तसौंदर्य, कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)
शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है। इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण वह भगवान परब्रह्म कहलाते हैं।
एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।
✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है। पूर्ण ऋचा निम्नलिखित है।
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)
भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।
विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।
पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥
इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौम सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- (तृतीय) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चतुर्थ) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?
📚
"अध्याय - चतुर्थ (४)
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।
यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्माजी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि- सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना है ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियाँ भी हैं ? क्या ब्रह्माजी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मण्डल पर है ? इन अनेक प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के रहस्यों को जान पाना भी सम्भव नहीं है।
तो इन समग्र प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तनमयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना का वर्णन करते हैं जो ब्रह्माजी द्वारा की गई है। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है। इस पुराण में सृष्टि की प्रारम्भिक उत्पत्ति के बारे में ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के निम्नलिखित श्लोकों में लिखा गया है कि-
"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।
आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।
आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।
ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।
आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।
शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।
आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।
आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।
शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।
भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुख से ब्राह्मणों की, बाहुओं से क्षत्रियों की, उरुओं से वैश्यों की और पैरोंसे शूद्रों की उत्पत्ति की।
-मनुरुवाच।
अहो कष्टतरञ्चैतदङ्गजागमनं विभो!।
कथं न दोषमगमत् कर्मणानेन पद्मभूः।४.१ ।।
परस्परञ्च सम्बन्धः सगोत्राणामभूत्कथम्।
वैवाहिकस्तत्सुतानाच्छिन्धि मे संशयं विभो।४.२।
अतीन्द्रियेन्द्रिया तद्वदतीन्द्रिय शरीरिका।४.३
दिव्यतेजोमयी भूप! दिव्यज्ञानसमुद्भवा।
न मर्त्यैरभितः शक्त्या वक्तुं वै मांसचक्षुभिः।४.४।
यथा भुजङ्गाः सर्पाणामाकाशं विश्वपक्षिणाम्।
विदन्ति मार्गं दिव्यानां दिव्या एव न मानवाः।। ४.६।
कार्य्याकार्ये न देवानां शुभाशुभफलप्रदे।
यस्मात्तस्मान्न राजेन्द्र! तद्विचारो नृणां शुभः।४.६।
अन्यच्च सर्ववेदानामधिष्ठाता चतुर्मुखः।
गायत्री ब्रह्मणस्तद्वदङ्गभूता निगद्यते।। ४.७ ।।
अमूर्तं मूर्तिमद्वापि मिथुनं तत्प्रचक्षते।
विरिञ्चिर्यत्र भगवांस्तत्र देवी सरस्वती।।
भारती यत्र यत्रैव तत्र तत्र प्रजापतिः।। ४.८ ।।
यथा तपो न रहितश्छायया दृश्यते क्वचित्।
गायत्री ब्रह्मणः पार्श्वं तथैव न विमुञ्चति।। ४.९ ।।
वेदराशिः स्मृतो ब्रह्मा सावित्री तदधिष्ठिता।
तस्मान्नकश्चिद्दोषः स्यात् सावित्री गमने विभो।। ४.१० ।।
तथापि लज्जावनतः प्रजापतिरभूत् पुरा।
स्वसुतोपगमात् ब्रह्मा शशाप कुसुमायुधम्।। ४.११ ।।
यस्मान्ममापि भवता मनः संक्षोभितं शरैः।
तस्मात्वद्देहमचिराद्रुद्रो भस्मीकरिष्यति।। ४.१२ ।।
ततः प्रसादयामास कामदेवश्चतुर्मुखम्।
न मामकारणे शप्तुं त्वमिहार्हसि मानद!।४.१३ ।।
अहमेवंविधः सृष्टस्त्वयैव चतुरानन!।
इन्द्रियक्षोभजनकः सर्वेषामेव देहिनाम्।। ४.१४ ।।
स्त्रीपुंसोरविचारेण मया सर्वत्र सर्वदा।
क्षोभ्यं मनः प्रयत्नेन त्वयैवोक्तं पुरा विभो।४.१६।
तस्मादनपराधेन त्वयाशप्तस्तथा विभो!।
कुरु प्रसादं भगवन्! स्वशरीराप्तये पुनः।। ४.१६।
ब्रह्मोवाच।
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते यादवान्वयसम्भवः।
रामो नाम यदा मर्त्यो मत्सत्वबलमाश्रितः।४.१७।
अवतीर्य्यासुरध्वंसी द्वारकामधिवत्स्यति।
तद् भ्रातुस्तत्समस्य त्वन्तदा पुत्रत्वमेष्यसि।। ४.१८ ।।
एवं शरीरमासाद्य भुक्त्वा भोगानशेषतः।
ततो भरतवंशान्ते भूत्वा वत्स नृपात्मजः।। ४.१९।
विद्याधराधिपत्वं च यावदाभूतसंप्लवम्।
सुखानि धर्म्मतः प्राप्य मत्समीपङ्गमिष्यसि।। ४.२०।
एवं शापप्रसादाभ्यामुपेतः कुसुमायुधः।
शोकप्रमोदाभियुतो जगाम स यथागतम्।४.२१।
मनुरुवाच।
कोऽसौ यदुरिति प्रोक्तो यद्वंशे कामसम्भवः।
कथञ्च दग्धो रुद्रेण किमर्थं कुसुमायुधः।। ४.२२।
भरतस्यान्वये कस्य का च सृष्टिः पुराभवत्।
एतत्सर्वं समाचक्ष्व मूलतः संशयो हि मे।। ४.२३ ।
******************
मत्स्य उवाच।
या सा देहार्घसम्भूता गायत्री ब्रह्मवादिनी।
जननी या मनोर्देवी शतरूपा शतेन्द्रिया।४.२४।
रतिर्मनस्तपो बुद्धि महदादि समुद्भवः।
ततः स शतरूपायां सप्तापत्यान्यजीजनत्। ४.२६।
ये मरीच्यादयः पुत्रा मानसास्तस्य धीमतः।
तेषामयमभूल्लोकः सर्वज्ञानात्मकः पुरा।४.२६।
ततोऽसृजद्वामदेवं त्रिशूलवरधारिणम्!।
सनत्कुमारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम्।४.२७ ।।
वामदेवस्तु भगवानसृजन् मुखतो द्विजान्।
राजन्यानसृजद् बाह्वोर्विट्शूद्रानूरुपादयोः।४.२८।
शनिवार, 7 जून 2025
छब्बीस तत्व का वर्णन-
बुधवार, 4 जून 2025
वर्ण परिवर्तन से जाति परिवर्तन की बात-
वृत्तिः सङ्करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत्। अचौराणां अपापानां अन्त्यजान्तेऽवसायिनाम्॥३०॥
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे। वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्॥३१॥
वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत्। हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्॥३२॥
उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात्। न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति॥३३॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया। विरज्येत यथा राजन् अग्निवत् कामबिन्दुभिः॥ ३४॥
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्। यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्॥३५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥
युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते—उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं॥ ३० ॥
वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्राय: मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥
जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥३२॥
महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ-तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है—उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह अग्नि बुझ जाती है ॥ ३३-३४॥
जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये ॥३५॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय श्लोक संख्या30-31-32-33-34-
गुरुवार, 22 मई 2025
संस्कारों से जो उच्चकुलीन है।
बुधवार, 14 मई 2025
वेद में कृष्ण
- इयानः) चलता हुआ (अंशुमतीम्) यमुना नदी को। (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। (नृमणाः) नरों के समान मनवाले अथवा धनों का (इन्द्रः) इन्द्र ने (तम् धमन्तम्) उस हुकारते हुए को (शच्या) शचि के साथ (आवत्)- युद्ध किया।
- लङ्(अनद्यतन भूत)
- एकवचनम्
- द्विवचनम्
- बहुवचनम्
- प्रथमपुरुषः
- आवत्=युद्ध किया
- युद्ध किया और (स्नेहितीः) भिगो दिया (अप अधत्त) नीचे छोड़ दिया ॥७॥
- टिप्पणी:-
- (धमन्तम्) हुङ्कृतम्कुुर्वन्तम् । (स्नेहितीः) स्नेहतिः क्लेदयते।क्लिद आर्द्रीभावे
(क्लिद्यति(नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् ॥
- 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैर्गोपेभि: “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोगोपालक: "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या=सह इन्द्रण्या 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं हुंकृतम् कुरुवन्तम्वा “तं =कृष्णं “इन्द्रः मरुद्भिः सह = इन्द्र मरुतों के साथ- 5-“आवत् = युद्धं अकरोत् । । “नृमणाः -नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः आर्द्रीकर्मसु । “अप “अधत्त । 6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् गोपान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् इत्यर्थे-॥
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आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥७॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥८॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥९॥