रविवार, 6 अप्रैल 2025

कठोपनिषद् दिव्यामृत - प्रथम अध्याय द्वितीय -तृतीय वल्ली


मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

कठोपनिषद् दिव्यामृत - प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली

अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

शब्दार्थः श्रेयः = कल्याण का साधन; अन्यत् = अलग है, दूसरा है; उत = तथा; प्रेयः = प्रिय प्रतीत होनेवाले भोगों का साधन; अन्यत् एव = अलग ही है, दूसरा ही है; ते उभे = वे दोनों; नाना अर्थे = भिन्न अर्थों में, भिन्न प्रयोजनों में; पुरुषम् = पुरुष को; सिनीतः = बाँधते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; तयोः= उन दोनों में; श्रेयः = कल्याण के साधन को; आददानस्य= ग्रहण करनेवाले पुरुष का; साधु भवति= कल्याण (शुभ) होता है; उ यः = और जो; प्रेयः वृणीते = प्रेय को स्वीकार करता है; अर्थात् = अर्थ से, यथार्थ से; हीयते = भ्रष्ट हो जाता है।

वचनामृतः श्रेयस् अन्य है, प्रेयस् अन्य है। ये दोनों पुरुष को भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से आकर्षित करते हैं। उनमें श्रेयस् को ग्रहण करनेवाले पुरुष का कल्याण होता है और जो प्रेयस् का वरण करता है, वह यथार्थ से भ्रष्ट हो जाता है।

सन्दर्भः मन्त्र १ तथा २ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यहां से ब्रह्मविद्या के उपदेश का प्रारंभ हो रहा है।

दिव्यामृतः संसार में मनुष्य के लिए दो ही मार्ग हैं--एक श्रेयमार्ग, दूसरा प्रेयमार्ग। श्रेयमार्ग मनुष्य के लिए सब प्रकार से कल्याणकारी सिद्ध होता है तथा प्रेयमार्ग मनुष्य को संसार में भटकाकर उसे जीवन के मूल उद्देश्य से ही हटा देता है। श्रेयमार्ग आत्मकल्याण का मार्ग है तथा मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति की ओर उन्मुख कर देता है। प्रेयमार्ग सांसारिक सुखभोग का मार्ग है तथा अन्त में वह मनुष्य के सुख-शान्ति को विनष्ट कर देता है। ये दोनों ही मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मनुष्य अपने मार्ग का चयन करने और उसका अनुसरण करने में स्वतन्त्र हैं।

कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की प्रथम वल्ली में इस उपनिषद् की भूमिका है तथा यमदेव आचार्य के रूप में नचिकेता की परीक्षा लेकर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह आत्मज्ञान-प्राप्ति का सुपात्र है। नचिकेता कर्मकाण्ड (यज्ञ आदि) की सीमा को जानता है तथा वह असीम ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्नद्ध है। यमाचार्य स्वयं भी कर्मकाण्ड को आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा तुच्छ मानते हैं। इस दूसरी वल्ली से ज्ञानोपदेश का प्रारंभ होता है। ब्रह्मविद्या का उपदेश उत्तम अधिकारी को ही दिया जा सकता है, अनधिकारी को कदापि नहीं।

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

शब्दार्थः श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यम् एतः=श्रेय और प्रेय मनुष्य को प्राप्त होते हैं, मनुष्य के सामने आते हैं; धीरः = श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; तौ = उन पर; सम्परीत्य = भली प्रकार विचार करके; विविनक्ति = छानबीन करता है, पृथक्-पृथक् समझता है; धीरः= श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; प्रेयसः = प्रेय की अपेक्षा; श्रेयः हि अभिवृणीते= श्रेय को ही ग्रहण करता है, श्रेय का ही वरण करता है; मन्दः= मन्द मनुष्य; योगक्षेमात्= सांसारिक योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त की रक्षा) से; प्रेयः वृणीते = प्रेय का वरण करता है।

वचनामृतः श्रेय और प्रेय (दोनों) मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (की इच्छा) से प्रेय का ग्रहण करता है।

सन्दर्भः इस मंत्र को कण्ठस्थ कर लेना चाहिए। उपनिषदों तथा भगवद् गीता में अनेक स्थानों पर धीरपुरुष (विवेकशील पुरुष) की प्रशंसा की गयी है। धीर को ज्ञानी एवं विद्वान भी कहा गया है।

दिव्यामृतः संसार में मनुष्य के सामने जीवन के दो मार्ग होते हैं-श्रेय तथा प्रेय। श्रेय मनुष्य के विकास का मार्ग है तथा प्रेय ह्रास का मार्ग है। श्रेय से दूरगामी, स्थायी, सकारात्म एवं सारमय फल प्राप्त होते हैं तथा प्रेय से तत्काल कुछ क्षणिक, लौकिक सुख प्राप्त होते हैं। श्रेयमार्ग मनुष्य को शारीरिक सुखों एवं इन्द्रिय-सुखों के आकर्षण से दूर हटाकर तथा आत्मा की ओर उन्मुख कर, उसे जीवन के उच्चतर स्तर पर स्थित कर देता है। श्रेयमार्ग मनुष्य को इन्द्रियों की दासता से ऊपर उठा देता है तथा जीवन को प्रकाशमय बना देता है। प्रेयमार्ग मनुष्य को भौतिक सुखभोगों में निमग्र कर उसे अन्तहीन अन्धकार में धकेल देता है। मन्द, अदूरदर्शी मनुष्य भौतिक सुखभोग के साधनों को प्राप्त करने (योग) तथा उनकी सुरक्षा करने (क्षेम) में चिन्तित एवं व्यग्र रहता है। विवेकशील पुरुष श्रेय का तथा मन्द पुरुष प्रेय का वरण करते हैं। मनुष्य अपने मार्ग का चयन करने में स्वतंत्र होता है। मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता होता है।

मनुष्य को संसार के विषय-सागर को कुशलतापूर्वक पार करके ही परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुष विवेक द्वारा इसे पार कर लेता है, किन्तु मन्दबुद्धि इसमें डूबकर विनष्ट हो जाता है। बुद्धिमान् पुरुष अविद्या के क्षेत्र में विवेक द्वारा भोगादि की तृप्ति करके, विद्या के क्षेत्र में प्रविष्ट होकर आत्यन्तिक तृप्ति करता है, अर्थात् विषयसुख से निवृत्त होकर परमानन्द प्राप्ति की ओर उन्मुख हो जाता है। बुद्धिमीन् मनुष्य को गंभीरतापूर्वक श्रेय तथा प्रेय मार्ग पर गंभीरतापूर्वक चिन्तन करके श्रेय का वरण तथा प्रेय का त्याग करना चाहिए। जैसे हंस नीर-क्षीर विवेक में निपुण होता है तथा नीर को त्यागकर क्षीर (दुग्ध) को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार धीर पुरुष प्रेय को त्यागकर श्रेय का वरण कर लेता है। (इस मंत्र का गूढार्थ समझने के लिए भगवद् गीता के अध्याय २ के श्लोक ६४, ६५ तथा अध्याय ३ के श्लोक ६, ७ के देखना चाहिए। योगक्षेम की चर्चा गीता-९.२२ तथा तैत्ति० उप०-३.१० में भी है)

स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥

शब्दार्थः नचिकेतः = हे नचिकेता; स त्वम् =वह तुम हो; प्रियान् च प्रियरूपान् कामान् = प्रिय (प्रतीत होनेवाले) और प्रिय रूपवाले भोगों को; अभिध्यायन् = सोच-समझकर; अत्यस्त्राक्षीः = छोड़ दिया; एताम् वित्तमयीम् सृडकाम् = इस धनसम्पत्तिस्वरूप सृडका (रत्नमाला एवं बन्धन अथवा मार्ग) को; न अवाप्तः = प्राप्त नहीं किया; यस्याम् = जिसमें; बहवः मनुष्याः मज्जन्ति = बहुत लोग फँस जाते हैं, मुग्ध हो जाते हैं। (सृडका के अन्य अर्थ मार्ग तथा बन्धन हैं। सृडका अर्थात् रत्नमाला, धन-लोभ का मार्ग, धन का बन्धन। )

वचनामृतः वह तू है (ऐसे तुम हो कि) प्रिय प्रतीत होनेवाले और प्रिय रूपवाले (समस्त) भोगों को सोच-समझकर (तुमने) छोड़ दिया, इस बहुमूल्य रत्नमाला को भी स्वीकार नहीं किया जिसमें (जिसके प्रलोभन में) अधिकांश लोग फँस जाते हैं।

सन्दर्भः गुरु यमाचार्य उपदेश-ग्रहण की पात्रता के परीक्षण में नचिकेता को पूर्णतः उत्तीर्ण देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

दिव्यामृतः शिक्षण-कार्य में कुशल गुरु शिष्य की उपदेश-ग्रहण की पात्रता की परीक्षा लेते हैं तथा उसे उत्तम विद्या का अधिकारी देखकर उसका प्रोत्साहन करते हैं। यमाचार्य नचिकेता से कहते हैं-नचिकेता, तुम धन्य हो। मैंने परीक्षा करके स्वयं को सन्तुष्ट कर लिया है कि तुम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सच्चे अधिकारी हो। तुम वैराग्य और विवेक से संपन्न हो। विवेकशील व्यक्ति दूरदर्शी होता है तथा वह क्षणिक सुखभोग के प्रलोभन में नहीं फँसता। तुमने तो बहुमूल्य रत्नमाला के उपहार को (एवं धन के बन्धन को) तुच्छ मानकर तिरस्कृत कर दिया। सांसारिक सुखभोगों में लिप्त होनेवाला व्यक्ति भले और बुरे को विवेचन नहीं करता तथा येनकेन प्रकारेण सुखभोगों के साधनरूप धन को संगृहीत करने में जुटा रहता है। धनसंचय के लिए वह कुमार्ग का अनुसरण करने में किंचिन्मात्र भी संकोच नहीं करता। प्रारंभ में अन्तरात्मा की ध्वनि उसे कुमार्गगामी होने से रोकती है, किन्तु वह पुनः पुनः उसकी उपेक्षा कर देता है और उसकी अनसुनी कर देता है तथा वह मन्द हो जाती है जैसे अग्नि राख के ढेर से दबने पर तेज खो देती है। नचिकेता ने स्वयं को परमात्मतत्त्व के श्रवण और ग्रहण करने के लिए सुयोग्य अधिकारी प्रमाणित करके गुरु यमाचार्य को सन्तुष्ट कर दिया।

दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥

शब्दार्थः या अविद्या = जो अविद्या; च विद्या इति ज्ञाता = और विद्या नाम से ज्ञात है; एते = ये दोनों; दूरम् विपरीते = अत्यन्त विपरीत (हैं); विषूची = भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं, नचिकेतसम् विद्या अभीप्सितम् मन्ये = (मैं) नचिकेता को विद्या की अभीप्सा (अभिलाषा) वाला मानता हूँ; त्वा = तुम्हें; बहवः कामाः न अलोलुपन्त= बहुत से भोग लोलुप (लुब्ध) न कर सके।

वचनामृतः जो अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं, ये (परस्पर) अत्यन्त विपरीत हैं। (ये) भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं। मैं तुम नचिकेता को विद्या का अभिलाषी मानता हूँ, तुम्हें बहुत से भोगों ने प्रलुब्ध नहीं किया।

सन्दर्भः यमाचार्य नचिकेता के परीक्षा-परिणाम से प्रसन्न हैं।

दिव्यामृतः विद्या श्रेयमार्ग और अविद्या प्रेयमार्ग है तथा दोनों मार्ग परस्पर विरुद्ध तथा भिन्न-भिन्न फल देनेवाले हैं। गुरु यमाचार्य पात्र-परीक्षा में नचिकेता को धनादि के प्रलोभन के मुक्त और ज्ञानप्राप्ति के लिए आस्था में अविचल पाकर सन्तुष्ट हो गये। नचिकेता ने स्वयं को सर्वोच्च अध्यात्मविद्या के अधिकारी के रूप में प्रमाणित कर दिया। आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ होनेवाला विवेकशील पुरुष सावधान रहता है तथा प्रचुर भोगसामग्री को देखकर भी विचलित नहीं होता, भटकता नहीं है। वह लक्ष्य पर अपनी दृष्टि को स्थिर रखता है। संसार की भौतिक सामग्री का उचित उपभोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढते रहना विवेक है तथा उसके प्रलोभन में फँसकर अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की सुरक्षा अर्थात् उसके योगक्षेम में व्यग्र और व्यस्त रहना और सांसारिक चिन्ता, भय एवं क्लेश में ही जीवन का क्षय कर देना अविवेक है।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥

शब्दार्थः अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानः = अविद्या के भीतर ही रहते हुए; स्वयं धीराः पण्डितम् मन्यमानाः = स्वयं को धीर और पण्डित माननेवाले; मूढ़ाः = मूढ जन; दन्द्रम्यमाणाः = टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलते हुए, ठोकरें खाते हुए, भटकते हुए; परियन्ति = घूमते रहते हैं, स्थिर नहीं होते; यथा- जैसे, अन्धेन एव नीयमानाः अन्धाः = अन्धे से ले जाए हुए अन्धे मनुष्य।

वचनामृतः अविद्या के भीतर ही रहते हुए, स्वयं को धीर, पण्डित माननेवाले मूढजन, भटकते हुए चक्रवत् घूमते रहते हैं, जैसे अन्धे से ले जाते हुए अन्धे।

सन्दर्भः अविद्या में फँसे हुए मनुष्य अधोगति को प्राप्त होते हैं। यह मंत्र मुण्डक उपनिषद् (१.२.८) में भी है।

दिव्यामृतः विद्या का अर्थ आध्यात्मिक प्रकाश को उत्पन्न करनेवाला उत्तम ज्ञान है तथा अविद्या का अर्थ अन्धकार उत्पन्न करनेवाला निकृष्ट ज्ञान है। आध्यात्मिक दृष्टि से मात्र भौतिक उन्नति एवं भौतिक सुखभोग-संबंधी ज्ञान विद्या नहीं होता, वह निकृष्ट स्तर कर ज्ञान होता है। विद्या मनुष्य को भौतिक बन्धन (आकर्षण) से मुक्त करा देती है। बुद्धिमान् पुरुष अविद्या से विद्या की ओर चला जाती है। श्रेयमार्ग विद्या का मार्ग है तथा प्रेयमार्ग अविद्या का मार्ग है। भौतिक सुखभोग को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाले भौतिकतावादी (भोगवादी) मनुष्य की शक्तियों का क्षय हो जाता है और उसके जीवन का सौन्दर्य विनष्ट हो जाता है। १ वह जीवन में उच्च स्तरों के लाभ से वंचित रहता है और पशु-स्तर पर भोगरत रहने के कारण उसका आन्तरिक विकास नहीं होता। भोगों की इच्छा मनुष्य को भटकाकर अन्त में उसकी दुर्गति कर देती है। इन्द्रिय-

——————————————————

१. प्रख्यात वैज्ञानिक आर० ए० मिलकन ने भौतिक सुखभोग पर केन्द्रित भौतिकवादी जीवन-दर्शन को बुद्धि की मन्दता का शिखर कहा है तथा डार्विन के सहयोगी एवं महान् चिन्तक टी० एच० हक्सले ने भी भौतिकता की निन्दा की है। स्वयं डार्विन ने जीवन के अन्त में मात्र भौतिकवाद के अनुसरण को जीवन-सौन्दर्य के अनुभव से वंचित रहना कहा है।

सुखों की दासता निकृष्ट बन्धन होती है। जिस प्रकार एक अन्धे के निर्देश पर चलनेवाले अन्धे व्यक्ति भटकते हुए ठोकर खाते रहते हैं और लक्ष्य को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार भोगों का अनुसरण करनेवाले मनुष्य भी जीवन के उच्चतर लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। अंधी अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़न्त।

न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे॥ ६॥

शब्दार्थ: वित्तमोहेन मूढम् = धन के मोह से मोहित; प्रमाद्यन्तम् बालम् = प्रमाद करनेवाले अज्ञानी को; साम्परायः= परलोक, लोकोत्तर-अवस्था, मुक्ति; न प्रतिभाति = नहीं सूझता; अयं लोक: = यह लोक (ही सत्य है); पर न अस्ति = इससे परे (कुछ) नहीं है; इति मानी = ऐसा माननेवाला, अभिमानी व्यक्ति; पुनः पुनः = बार-बार; मे वशम् = मेरे वश में; आपद्यते = आ जाता है।

वचनामृतः धन सम्पत्ति से मोहित, प्रमादग्रस्त अज्ञानी को परलोक (अथवा लोकोत्तर-अवस्था) नहीं सूझता। यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला लोक (ही सत्य) है, इससे परे (अतिरिक्त) कुछ नहीं है, ऐसा माननेवाला अभिमानी मनुष्य पुनः पुनः मेरे (यमराज के) वश में आ जाता है।

सन्दर्भः भोगासक्त व्यक्ति दूरदर्शी नहीं होता।

दिव्यामृतः संसार के प्रपंच में फँसा हुआ मनुष्य समझता है कि यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ नहीं है। धन के मोह से मोहित अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती। वह प्रमाद (गंभीर चिन्तन, स्वाध्याय तथा यम-नियम आदि का पालन न करना) के कारण इस जगत्प्रपंच में ऐसा फँसा रहता है कि उसे इससे परे कुछ नहीं सूझता। वह सोचता है कि यह संसार ही सत्य है और इससे सुखभोगों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ऐसा माननेवाला मनुष्य अभिमानग्रस्त होता है तथा किसी के ज्ञानमय उपदेश को नहीं सुनता।

वास्तव में मनुष्य को आध्यात्मिक प्रबोध होने पर लोकोत्तर-अवस्था की प्राप्ति अपने भीतर ही हो जाती है। मानव की चेतना के अनेक स्तर होते हैं तथा चेतना के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार की उच्चावस्थाओं की अनुभूति हो जाती है। सारा संसार सूक्ष्मरूप से अपने भीतर ही है। १ मनुष्य का आत्मा चिदंश अथवा परमात्मा का ही अंश




--------------------------------------------------------------------------------





१. चित्तमेव हि संसारः तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। (मैत्रेयी उप०)

—चित्त ही संसार है, उसका शोधन प्रयत्न से करना चाहिए।

होता है। विमूढ व्यक्ति भोगासक्त रहकर चेतना के उच्च स्तरों के अलौकिक आनन्द से वंचित रह जाता है। वह पशुओं की भाँति निम्नस्तरीय भोगों में रत रहकर जीवन के सौन्दर्य का अनुभव नहीं कर पाता। मनुष्य के भीतर भी वह सब कुछ है, जो समस्त बहिर्जगत् में है।

श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः॥ ७॥

शब्दार्थः यः बहुभिः श्रवणाय अपि न लभ्यः = जो (आत्मतत्त्व) बहुतों को सनने के लिए भी नहीं मिलता; यम् बहवः श्रृण्वन्तः अपि न विद्युः = जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते; अस्य वक्ता = इसका वक्ता; आश्चर्य = आश्चर्यमय (है)। लब्धा कुशलः = (इसका) ग्रहण करनवाला कुशल (परम बुद्धिमान्); कुशलानुशिष्टः = कुशल (जिसे उपलब्धि हो गई है) से अनुशिष्ट (शिक्षित); ज्ञाता = (आत्मतत्त्व का) जाननेवाला; आश्चर्यः = आश्चर्यमय (है)।

वचनामृतः = जो (आत्मतत्त्व) बहुत से मनुष्यों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता, जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते, इसका कहनेवाला आश्चर्यमय है, ग्रहण करनेवाला परम बुद्धिमान् है, उससे शिक्षित ज्ञाता पुरुष आश्चर्यमय है।

सन्दर्भः = आत्मतत्त्व की गूढता का निरूपण किया गया है।

दिव्यामृत: आत्मतत्त्व अत्यन्त गूढ एवं आश्चर्यप्रद है। १ इसको सुनने में भी रुचि लेनेवाले दुर्लभ होते हैं। प्रायः सभी मनुष्य जगत्प्रपंच में फँसे हुए रहते हैं तथा आत्मकल्याण की चर्चा के लिए उनमें न रुचि होती है और न इसके लिए अवकाश (फुर्सत) ही होता है। आत्मतत्त्व का विषय इतना गंभीर है कि प्रायः मनुष्य उसके विवेचन को सुनकर भी उसे नहीं समझ पाते। इस गूढ आत्मतत्त्व का वक्ता महापुरुष आश्चर्यमय होता है। उसकी जीवनशैली असामान्य होती है। मनुष्य उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। आत्मतत्त्व के विवेचन को समझने और ग्रहण करनेवाला मनुष्य भी एक दुर्लभ महापुरुष होता है। ऐसे ज्ञानमार्गी धीर (परम बुद्धिमान्) होते हैं।




--------------------------------------------------------------------------------





१.आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यिवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ (गीता, २.२९)

—कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई अन्य आश्चर्य से कहता है, कोई आश्चर्यचकित

होकर सुनता है और इसे सुनकर भी कोई समझता नहीं है।

आत्मतत्त्व को उपलब्ध करनेवाले किसी महाज्ञानी को गुरु मानकर उसकी कृपा से आत्मतत्त्व का ग्रहण करनेवाला पुरुष भी आश्चर्य ही होता है। १ गूढ आत्मतत्त्व का समर्थ वक्ता और जिज्ञासु श्रोता तो दुर्लभ होते ही हैं, आत्मज्ञान से मण्डित आत्मदर्शी एवं अनुभवी ज्ञानी गुरु और ज्ञानी शिष्य भी दुर्लभ होते हैं। ये सभी श्रेष्ठ महापुरुष आश्चर्यमय एवं दुर्लभ होते हैं।

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र अमीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्॥ ८॥

शब्दार्थ: अवरेण नरेण प्रोक्तः = अवर (अल्पज्ञ, तुच्छ) मनुष्य से कहे जाने पर; बहुधा चिन्त्यमानः = बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी); एष = यह आत्मा, यह आत्मतत्त्व; न सुविज्ञेय: =सुविज्ञेय (भली प्रकार से जानने के योग्य) नहीं है; अनन्यप्रोक्ते = किसी अन्य आत्मज्ञानी के द्वारा न बताये जाने पर; अत्र = यहाँ, इस विषय में; गतिः न अस्ति = पहुँच नहीं है; हि = क्योंकि, अणुप्रमाणात् = अणु के प्रमाण से भी; अणीयान् = छोटा अर्थात् अधिक सूक्ष्म; अतर्क्यम् = तर्क या कल्पना से भी परे।

वचनामृत: तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्य से कहे जाने पर, बहुत प्रकार से चिन्तन करने पर भी, यह आत्मतत्त्व समझ में नहीं आता। किसी अन्य ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में प्रवेश नहीं होता, क्योंकि यह (विषय) अणुप्रमाण (सूक्ष्म) से भी अधिक सूक्ष्म है, तर्क से परे है।

सन्दर्भ: इस मंत्र में आत्मतत्त्व की गूढता कही गई है। (इस मंत्र के अनेक अन्वय और अर्थ किए गए हैं)।

दिव्यामृत: एक सामान्य बुद्धिवाले मनुष्य से बहुत समझाये जाने पर भी आत्मतत्त्व गूढता के कारण समझ में नहीं आ सकता, भले ही इस पर बहुत प्रकार से चिन्तन भी कर लिया जाए। जब तक इसे किसी ऐसे




--------------------------------------------------------------------------------





१. मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥ (गीता, ७.३)

—सहस्त्रों में कोई एक सिद्धता के लिए यत्न करता है, यत्न करनेवाले सिद्धों में भी कोई एक परमात्मा को ठीक प्रकार से जान पाता है।

नर सहस्त्र महुँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रतधारी।
धर्मसील कोटिक महँ कोई, बिषय बिमुख बिराग रत होई।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई, सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ, जीवनमुक्त सकृत-जग सोऊ।
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी, दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी। (रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)

ज्ञानी पुरुष से न समझाया जाए, जो इसे भली प्रकार से जान चुका है और स्वयं इसका अनुभव कर चुका है, इसका ग्रहण नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि यह सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म है तथा तर्क से परे है।

आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय और दुरूह है। यह समस्त सूक्ष्म तत्त्वों से भी अधिक सूक्ष्म है। प्रखर बुद्धिवाला मनुष्य भी इसे बुद्धि द्वारा समझ नहीं सकता। आत्मतत्त्व बुद्धि एवं इन्द्रियों का विषय नहीं है तथा गहन आन्तरिक अनुभूति का विषय है।

मनुष्य की बुद्धि और उसकी तर्कशक्ति की एक सीमा होती है। मनुष्य किसी सूक्ष्मतत्त्व को बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकता। परमात्मा तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। मात्र बुद्धि का अवलम्बन लेकर मनुष्य ब्रह्मज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर सकता। आत्मानुभूतिसंपन्न महापुरुष ही एक सच्चे जिज्ञासु एवं श्रद्धालु अधिकारी (सत्पात्र) को इसका ग्रहण करा सकता है तथा उसका मार्ग-निर्देशन कर सकता है। ज्ञानी महात्मा परमात्मा तथा अपने आत्मा की एकता की अनुभूति करके परमानन्द की प्राप्ति कर लेता है और तर्कपूर्ण शब्दों को पीछे छोड़ देता है। साक्षात्कार का स्वानुभव न होने पर मनुष्य आत्मतत्त्व का प्रतिपादन नहीं कर सकता। यथार्थज्ञानसंपन्न महात्मा ही अधिकारी पुरुष को यथार्थज्ञान का सम्यक् ग्रहण करा सकता है। आत्मा अनुभवगम्य है तथा आत्मदर्शी महापुरुष एक साधनसम्पन्न सुयोग्य व्यक्ति को आत्मप्रकाश का अनुभव सहज ही सुलभ कर देता है। आत्मदर्शी तत्त्वज्ञानी ही प्रवचन करने में समर्थ होता है, कोई अन्य साधारण व्यक्ति नहीं।

नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥ ९॥

शब्दार्थः प्रेष्ठ = हे परमप्रिय; एषा मतिः याम् त्वम् आपः = यह मति, जिसे तुमने प्राप्त किया है; तर्केण न आपनेया = तर्क से प्राप्त नहीं होती; अन्येन प्रोक्ता एव सुज्ञानाय = अन्य के द्वारा कहे जाने पर सुज्ञान (भली प्रकार ज्ञानप्राप्ति) के लिए; (भवति = होती है); बत = वास्तव में ही; नचिकेतः सत्यधृति असि नचिकेता, तुम सत्यधृति (श्रेष्ठ धैर्यवाला, सत्य में निष्ठावाला) हो; त्वादृक् प्रष्टा नः भूयात् = तुम्हारे जैसै प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।

वचनामृत: हे परमप्रिय, यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो (अथवा सच्चे निश्चयवाले हो)। तुम्हारे सदृश जिज्ञासु हमें मिला करें।

सन्दर्भ: आत्मज्ञान बुद्धि की तर्कपूर्ण युक्तियों से प्राप्त नहीं होता।'नैषा तर्केण मतिरापनेया' को कण्ठस्थ कर लें।

दिव्यामृत: यमाचार्य कहते हैं कि मात्र तर्क करते रहने से ऐसी निर्मल बुद्धि प्राप्त नहीं होती, जो वैराग्यपूर्ण हो तथा धन-सम्पत्ति एवं सांसारिक वैभव के प्रलोभन से विचलित न हो। निर्मल बुद्धि मनुष्य को ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी बना देती है। सांसारिक सुखभोग के आकर्षण एवं मोह में फँसी हुई बुद्धि में एकाग्रता एवं दृढ़ता नहीं होती। आध्यात्मिक ज्ञान अत्यन्त गूढ़ अर्थात् रहस्यपूर्ण होता है तथा सत्यनिष्ठ मनुष्य उच्चस्तरीय चेतना में स्थित होकर ही इसे प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है। विशुद्ध बुद्धि इसके लिए अपेक्षित आवश्यकता होती है।

मात्र तर्क द्वारा आत्मतत्त्व को नहीं समझा जा सकता है। तर्क की एक सीमा होती है तथा परमात्मा तर्कातीत (तर्क से परे) है। परमात्मा अतर्क्य है। १ वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म है तथा तर्कपूर्ण युक्तियों से न उसके अस्तित्व को प्रमाणित किया जा सकता है, न उसका ग्रहण ही किया जा सकता है। तर्क अप्रतिष्ठ होता है अर्थात् मात्र तर्क से तत्त्व की प्रस्थापना करना संभव नहीं है। २

प्रायः तर्क में शब्दों की भरमार होती है तथा केवल तर्क का आधार जिज्ञासु को तत्त्व के ग्रहण से दूर कर देता है। ३ परमात्म-तत्त्व तर्कों से परे है।

वह अनुभव और आन्तरिक अनुभूति से सहज सुलभ है। अनुमान और तर्क प्रमाण के साधारण साधन हैं। आन्तरिक अनुभूति श्रेष्ठ प्रमाण होती है। गहन आन्तरिक अनुभूति को शिरोधार्य करना चाहिए। ४




--------------------------------------------------------------------------------





१. राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी, मत हमार अस सुनहु सयानी।
२. तर्कोप्रतिष्ठः।
३. शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नात् ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञैस्तत्त्वमात्मनः॥ (विवेकचूडामणि ६२)

—शङ्कराचार्य कहते हैं कि ग्रन्थों का शब्दजाल चित्त को भटकानेवाला घना जंगल होता है। अतः मनुष्य को सबसे दूर हटकर आत्मतत्त्व को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।

४. कार्ल जुंग कहता है कि हमें आन्तरिक अनुभूति के महत्त्व को स्वीकार करना चाहिए। कान्ट को Critique of Pure Reason के बाद Critique of Practical Reason लिखना पड़ा.

वास्तव में उचित तर्क ही मनुष्य को तर्कातीत अवस्था की ओर ले जाता है और अनुभव-प्रमाण की सर्वोच्चता को सिद्ध कर देता है। सूक्ष्मबुद्धि अथवा सूक्ष्म दृष्टि होने पर ही सूक्ष्म तत्त्व का अनुभव होना संभव होता है। १

जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्॥ १०॥

शब्दार्थ: अहं जानामि = मैं जानता हूँ; शेवधिः = धननिधि, कर्मफलरूप प्राप्त निधि; अनित्यम् इति = अनित्य है; हि अध्रुवैः = क्योंकि अध्रुव (विनाशशील) वस्तुओं से; तत् ध्रुवम् = वह नित्य तत्त्व; हि न प्राप्यते = निश्चय ही प्राप्त नहीं हो सकता; ततः = अतएव, तथापि; मया = मेरे द्वारा; अनित्यैः द्रव्यैः = अनित्य पदार्थों से; नाचिकेतः अग्निः चितः = नाचिकेतनात्मक अग्नि का चयन किया गया; (और उसके द्वारा) नित्यम् प्राप्तवान् अस्मि = मैं नित्य को प्राप्त हो गया हूँ.

वचनामृत: मैं जानता हूँ कि धन अनित्य है। निश्चय ही अनित्य वस्तुओं से नित्य वस्तु को प्राप्त नहीं किया जा सकता। तथापि मेरे द्वारा अनित्य पदार्थों के द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और (उसके बाद) मैं नित्यप्रद को प्राप्त है गया हूँ।

सन्दर्भ: इस मंत्र के अनेक अर्थ किये गये हैं। मैक्समूलर और ह्यूम आदि ने तो इसे नचिकेता की उक्ति कह दिया, जो अत्यन्त भ्रान्त है।'नित्यम् प्राप्तवान् अस्मि' का अर्थ यह भी किया गया—मैंने मनुष्यपद की अपेक्षा अधिक नित्य देवत्वपद को प्राप्त कर लिया। यह उक्ति यमाचार्य की ही है।

दिव्यामृत: विनाशशील वस्तुओं तथा धन के आकर्षण एवं मोह में फँसकर मनुष्य नित्य तत्त्व परमात्मा की प्राप्ति से विमुख हो जाता है। दान आदि पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त सुख भी क्षणिक अथवा नश्वर ही होते हैं। उनसे भी आत्मसाक्षात्कार का लाभ संभव नहीं होता। यज्ञादि के फल भी अनित्य, अस्थायी होते हैं।

कर्म के दो अर्थ होते हैं—साधारण कर्म तथा यज्ञ आदि कर्मकाण्ड। कर्तव्य-कर्म और कर्मकाण्ड का उद्देश्य चित्तशुद्धि होता है। चित्तशुद्धि होने पर, बुद्धि के निर्मल होने पर, अपने भीतर ही परमात्मा का दर्शन हो जाता है, जैसे मेघ हटने पर सूर्य का दर्शन हो जाता है। परमात्मा तो हमारे भीतर ही निरन्तर प्रकाशमान है, किन्तु अहंकार,

१. सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभः। (कठ०, १.३.१२)

कामना आदि दोषों के दूर होने पर अर्थात् चित्तशुद्धि होने पर परमात्मा का दर्शन एवं उसकी अनुभूति हो जाते हैं। इस प्रकार निष्काम भाव से किये हुए कर्म एवं कर्मकाण्ड भगवत्प्राप्ति के साधन हो जाते हैं। १

यमराज ने नश्वर पदार्थों से नाचिकेत अग्नि के चयन और यज्ञादि किए किन्तु कर्तव्यभावना से तथा निष्काम (अनासक्त) होकर किए। परिणामतः यमराज ने परमात्मा को प्राप्त कर लिया। मनुष्य निष्कामभाव से सम्पन्न कर्तव्यकर्म द्वारा चित्तशुद्धि होने पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। निष्कामभाव से अथवा अनासक्त होकर कर्म करने पर वह कल्याणकारक हो जाता है। भगवद्भाव में स्थित होकर, अध्यात्मबुद्धि से, अपने कर्मों का समर्पण करने से, मनुष्य मानो कर्म द्वारा भगवान् की अर्चना कर लेता है और उसका भगवान् के साथ योग हो जाता है। १

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतोत्यस्त्राक्षीः॥ ११॥

शब्दार्थ: नचिकेत: = हे नचिकेता; कामस्य आप्तिम् = भोग-विलास की प्राप्ति को; जगत: प्रतिष्ठाम् = संसार की प्रतिष्ठा को, यश को; क्रतो: अनन्त्यम् =यज्ञ के फल की अनन्तता को; अभयस्य पारम् = निर्भीकता की सीमा को; स्तोममहत् = स्तुति के योग्य और महान्; उरुगायम् = वेदों में जिसके गुण गाए गए हैं; (अथवा, स्तोमम् = स्तुति एवं प्रशंसा को; महत् उरुगायम् = महान् स्तुतिसहित जयजयकार के गान को); प्रतिष्ठाम् = दीर्घ काल तक स्थिति, स्थिर रहने की स्थिति; दृष्ट्वा = देखकर, सोचकर; धृत्या = धृति से धैर्य से; धीरः = ज्ञानी तुमने; अत्यस्त्राक्षीः= छोड़ दिया।

वचनामृत्: हे नचिकेता, तुमने भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले स्वर्ग को (अथवा भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति को), यज्ञ की अनन्तता (अनन्त फल) से प्राप्त स्वर्ग को (अथवा यज्ञ के अनन्त फल को), निर्भीकता की पराकाष्ठावाले स्वर्ग को (अथवा निर्भीकता की पराकाष्ठा को), स्तुति को




--------------------------------------------------------------------------------





१. कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता, ३.२०)—जनक आदि ने निष्काम कर्म के माध्यम से ही सिद्धता प्राप्त की।

२ योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्ग त्यक्त्वात्मशुद्धये (गीता, ५.११)—योगी आसक्ति त्यागकर, निष्काम होकर, अपनी चित्तशुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

मनःप्रसादे, परमात्मदर्शनम् (विवेकचूडामणि)—मन के निर्मल होने पर पमात्मा का दर्शन हो जाता है।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा (गीता, ३.३०)—भगवान् को सब कर्मों का अर्पण करके अध्यात्मभाव से कर्तव्यकर्म करते रहें।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता, १८.४६)—अपने कर्मों द्वारा अर्चना करने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है।

योग्य एवं महान् और वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, स्थिर स्थितिवाले स्वर्ग को (अथवा लोकप्रतिष्ठा को), धीर होकर, विचार करके छोड़ दिया है (तुमने स्वर्ग का मोह छोड़ दिया है)।

सन्दर्भ: यमाचार्य नचिकेता के वैराग्यभाव की प्रशंसा करके से ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी घोषित करते हैं। (इस मंत्र के अनेक अर्थ किए गए हैं। )

दिव्यामृत: अधिकांश मनुष्य अपने सारे जीवनकाल में भोगैश्वर्य से प्रलुब्ध रहकर भोग-विलास की सामग्री के अर्जन और संग्रह में व्यस्त और व्यग्र रहते हैं। उनके लिए धन-प्राप्ति से बढ़कर कुछ नहीं होता। प्रायः मनुष्य तीन एषणाओं से ग्रस्त रहते हैं—पुत्रैषणा अर्थात् पुत्र र परिवार की संवृद्धि की एषणा (कामना), लोकैषणा अर्थात् लोक में पूजित होने की एषणा, सत्ता, यश और प्रतिष्ठा की एषणा तथा वित्तैषणा—धन तथा भोगैश्वर्य की सामग्री की एषणा। अनेक मनुष्य अनन्त फल देनेवाले अनन्त यज्ञ करते हैं। अनेक मनुष्य निर्भयता की सीमा को प्राप्त करने की कामना करते हैं। अभय की सीमा के लिए वे स्वर्गलोक की प्राप्ति की कामना करते हैं। स्वर्गलोक अनन्त सुखभोगों की चरम सीमा के रूप में प्रख्यात है तथा अनेक मनुष्य सदा सुखमय रहने की कामना से प्रेरित होकर उसकी प्राप्ति के लिए तप, दान और यज्ञ करते हैं। प्रायः मनुष्य अपने स्तुतिगान के लिए लालायित रहते हैं तथा अपनी जयजयकार के गान की कामना करते हैं। सभी लोक में अपनी प्रतिष्ठा अर्थात् सम्मान तथा दीर्घकाल तक स्थिर स्थिति (आधार) की कामना करते हैं। स्वर्ग को भी दीर्घ काल तक स्थिति का आधार कहा जाता है। भाव यह है कि प्रायः सभी मनुष्य सदा सुख और सम्मान-प्राप्ति की कामना करते हैं। संसार के भौतिक सुखभोगों की कामना से ग्रस्त होने के कारण मनुष्य जगत्प्रपंच में फँसा रहता है तथा अपने भीतर ही संस्थित परमात्मा की ओर अभिमुख नहीं होता तथा परमानन्द की अनुभूति नहीं कर पाता। यह मनुष्य का परम दुर्भाग्य होता है कि वह कामनापूर्ति की मृगतृष्णा में भटकते हुए अमूल्य जीवन को विनष्ट कर देता है। विवेकी पुरुष क्षणिक एवं तुच्छ दैहिक सुखों के कुचक्र में नहीं फँसते तथा जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उनका त्याग कर देते हैं।

नचिकेता धीर है अर्थात् ब्रह्मज्ञान के प्रति उसकी सच्ची निष्ठा है। उसमें अदम्य जिज्ञासा तथा असाधारण वैराग्यभाव है, जो ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के लिए अत्यावश्यक होते हैं। उसने स्वर्ग के वैभव को भी तुच्छ समझ लिया तथा अपनी प्रतिष्ठा एवं जयजयकार को भी महत्त्वहीन एवं हेय मान लिया। यमाचार्य उसकी सत्पात्रता देखकर चकित हो गए और उन्होंने उसकी अनेक प्रकार से प्रशंसा की।

गुरु-शिष्य में आन्तरिक तारतम्य स्थापित हो गया तथा यमाचार्य ने उपदेश का प्रारंभ कर दिया।

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥

शब्दार्थ: तम् दुर्दर्शम् = उस कठिनता से जानने के योग्य; गूढम्=अप्रत्यक्ष, छिपे हुए; अनुप्रविष्टम् =भीतर प्रविष्ट, सर्वत्र विद्यमान, सर्वव्यापी, सबके अन्तर्यामी; गुहाहितम् = (हृदयरूपी) गुहा में स्थित; गव्हरेष्ठम् = गव्हर मॆं रहनेवाला, गहरे प्रदेश में अर्थात् हृदयकमल में रहनेवाला, अथवा संसाररूपी गव्हर में रहनेवाला; पुराणम् = सनातन, पुरातन; अध्यात्मयोग अधिगमेन = अध्यात्मयोग (आत्मज्ञान) की प्राप्ति अथवा उसकी ओर गति होने से, अन्तर्मुखी वृत्ति होने से; देवम् = दिव्यगुणों से संपन्न, द्युतिमान्, परमात्मा को; मत्वा = मनन कर, समझकर; धीर: = ज्ञानी, विद्वान्; हर्षशोकौ जहाति = हर्ष और शोक (सुख-दुःख) को छोड़ देता है।

वचनामृत: उस दुर्दर्श (दर्शन में कठिन, जानने में कठिन), गूढ (छिपे हुए, अदृश्य), सर्वत्र विद्यमान (सर्वव्यापी), बुद्धिरूप गुहा में स्थित, हृदयरूप गव्हर में (अथवा संसाररूप गहन गव्हर में) रहनेवाले, सनातन देव (परमात्मा) को अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा, मनन कर (समझकर), धीर पुरुष हर्ष और शोक को छोड़ देता है।

सन्दर्भ: इस मंत्र से यमाचार्य के उपदेश का प्रारंभ होता है। मंत्र १२, १३ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं तथा परस्पर जुड़े हुए हैं।

दिव्यामृत: प्रकृति ने विकासक्रम में सर्वोच्च मनुष्य को बुद्धि प्रदान कर दी, जिससे वह चिन्तन-मनन द्वारा पुण्य और पाप, भले और बुरे, सुन्दर और बीभत्स, सत्य और असत्य का भेद कर सके तथा संसार में विषयभोगों के सागर को विवेकपूर्वक पार करके और भौतिक सुखभोगों की क्षणभंगुरता एवं निस्साहस को देखकर तथा अन्तर्मुखी होकर अपने भीतर ही स्थित परमात्मा की दिव्यानुभूति प्राप्त कर सकता है।

ऐसे महापुरुष, जो संसार के अनेकानेक आकर्षणों एवं प्रलोभनों से मुक्त होकर आत्मसाक्षात्कार की राह पर चल पड़ते हैं, धीर पुरुष कहलाते हैं। उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता ने अल्पायु में ही भौतिक सुखों एवं वैभवों की निस्सारता को देख लिया तथा वह उत्कट जिज्ञासा एवं प्रखर वैराग्यभाव से सम्पन्न होकर ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के लिए तत्पर हो गया। नचिकेता को ब्रह्मविद्या का अधिकारी मानकर यमराज ने उसे 'धीर' कह दिया।

ब्रह्मविद्या तथा ब्रह्म की अनुभूति के द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हुए हैं, किन्तु अधिकारी पुरुष ही इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकत हैं। इसके लिए अदम्य जिज्ञासा, वैराग्यभाव तथा श्रद्धा की प्रमुख आवश्यकता होती है तथा शास्त्रीय ज्ञान गौण होता है।

परब्रह्म परमात्मा दुर्दर्श होता है अर्थात् उसका दर्शन एवं अनुभव अत्यधिक कठिन होता है। वह इन्दियगोचर नहीं होता तथा वह बुद्धिगम्य भी नहीं होता। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने के कारण गूढ तथा सर्वत्र अनुप्रविष्ट है अर्थात् सर्वव्यापक है।

परमात्मा मनुष्य के भीतर हृदयरूपी गुहा में बसता है। १ वह गहरे हृदय के भीतर ही सूक्ष्म अन्तराकाश में अधिष्ठित है तथा वहाँ ब्रह्म की प्राप्ति का अधिष्ठान है। ज्ञानी दहर (सूक्ष्म अन्तराकाश) में ही परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। २ वे ध्यान में स्थित होने पर हृदयरूपी गुहा में प्रवेश करके दहर में परमात्मा की ज्योति का दर्शन करते हैं।

परमात्मा सनातन अर्थात् अनादि, अनन्त और शाश्वत है। उसे अध्यात्मयोग से प्राप्त किया जाना संभव है अर्थात् अपने भीतर ही उसका अनुभव ही सकता है। इन्द्रियों का संचालन मन से, मन का संचालन बुद्धि से और बुद्धि का संचालन आत्मा से होता है। मनुष्य अन्तर्मुखी होने पर अपने भीतर ही आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।

परमात्मा दिव्य है, अलौकिक है, ज्योति:स्वरूप है। धीर अर्थात् ज्ञानी पुरुष उसका मनन करते हैं तथा उसका ध्यान करते हैं। परमात्मा को प्राप्त होनेवाला महात्मा चेतना के सर्वोच्च स्तर पर स्थित रहता है तथा वह देह, मन और बुद्धि के हर्ष-शोक अर्थात् सुख-दु:ख तथा पुण्य-पाप के द्वन्द्व से ऊपर उठ जाता है। ३ ऐसा महापुरुष आनन्दावस्था में स्थित रहता

१. निहितं गुहायाम् (मुण्डक उप०, ३.१.७)
निहितं गुहायाम् (तै० उप०, २.१.१), गुहायां निहितो (श्वेत० उप०, ३.२०)

२. अस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोस्मिन् अन्तराकाशः तस्मिन् यदन्तः तद् अन्वेष्टव्यम् (छ० उप०, ८.१.१)

—इस ब्रह्मपुर में (शरीर के भीतर, हृदय के अन्दर) स्थित दहरनामक कमल जैसे सूक्ष्म आकाश में ब्रह्म का (अथवा उसकी प्राप्ति का) अधिष्ठान है।

हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता, १३.१७)
सर्वस्य चाहं हृदिसन्निविष्टो (गीता, १५.१५)
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति (गीता १८.६१)

३. तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय (मुण्डक उप०, ३.१.३)

है।

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥

शब्दार्थ: मर्त्य: = मनुष्य; एतत् धर्म्यम् श्रुत्वा = इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर; सम्परिगृह्यि = भली प्रकार से धारण (ग्रहण) करके; प्रवृह्य = भली प्रकार विचार करके, विवेचना करके; एतम् अणुम् आप्य = इस सूक्ष्म (आत्मतत्त्व) को; आप्य = जानकर; स: = वह; मोदनीयम् लब्ध्वा = आनन्दस्वरूप परमात्मा को पाकर; मोदते हि = निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है; नचिकेतसम् = (तुम) नचिकेता के लिए; विवृतम् सद्म मन्ये =मैं परमधाम (ब्रह्मपुर) का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।

वचनामृत: मरणधर्मा मनुष्य इस धर्ममय उपदेश को सुनकर, धारण कर (तथा) विवेचना कर (तथा) इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर (इसका अनुभव कर लेता है), वह आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। मैं नचिकेता के (तुम्हारे) लिए परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।

सन्दर्भ: यमाचार्य नचिकेता को ब्रह्मविद्या का अधिकारी मानते हैं।"स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा" को कण्ठस्थ कर लें।

दिव्यामृत: ब्रह्मविद्या का आध्यात्मिक उपदेश मननीय होता है। कोई ज्ञानी एवं अनुभव महापुरुष ही परमात्मा-संबंधी उपदेश करने का अधिकारी होता है। कुछ ग्रन्थों का अध्ययन करके, बिना कुछ ग्रहण किये हुए ही, उपदेश करना निष्प्रभावी होता है। जिस मनुष्य ने स्वयं अनुभव नहीं किया, वह किसी जिज्ञासु को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। अनुभवशून्य ज्ञान निरर्थक होता है।

वही जिज्ञासु आध्यात्मिक उपदेश का लाभ उठा सकता है, जिसमें उत्सुकता, वैराग्यभाव, श्रद्धा तथा विनम्रता हो। आत्मज्ञान गुढ तथा रहस्यमय होता है। मनुष्य देहाध्याय से छूटकर अर्थात् देह को आत्मा से पृथक् समझकर तथा देह के बन्धन से मुक्त होकर, आत्मा के शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप में स्थित होने पर परमानन्द का अनुभव कर लेता है। आत्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है तथा दिव्य है। जड इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि उसका ग्रहण नहीं कर सकती। सद्गुरु से सूक्ष्म आत्मतत्त्व का उपदेश सुनकर, उत्तम शिष्य उस पर चिन्तन-मनन करके उसका ग्रहण कर लेता है। आध्यात्मिक साधना का मार्ग ही परमानन्द-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है तथा ब्रह्मविद्या ही मरणधर्मा मनुष्य को अमृत्व प्रदान करने में सक्षम है। आनन्द का स्त्रोत एवं निधान मनुष्य के भीतर उसका आत्मा ही है। १

१. यञ्ज्ञाता मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति। (नारदसूत्र, ६)
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद॥ १४॥

शब्दार्थ: यत् तत् = जिस उस (परमात्मा) को; धर्मात् अन्यत्र अधर्मात् अन्यत्र = धर्म से अतीत (परे), अधर्म से भी अतीत; च = और; अस्मात् कृताकृतात् अन्यत्र = इस कृत और अकृत से भिन्न, कार्य और कारण से भी भिन्न, कृत-क्रिया से संपन्न, अकृत-क्रिया से संपन्न न हो; च भूतात् भव्यात् अन्यत्र =और भूत और भविष्यत् अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों से भी परे, भिन्न अथवा पृथक्; पश्यसि = आप जानते हैं; तत् वद = उसे कहें

वचनामृत: (नचिकेता ने कहा) आप जिस उस आत्मतत्त्व को धर्म और अधर्म से परे और कृत और अकृत से भिन्न, भूत और भविष्यत् से परे जानते हैं, उसे कहें।

सन्दर्भ: नचिकेता आत्मतत्त्व को जानना चाहता है, वह उसकी मात्र भूमिका और अपनी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता।

दिव्यामृत: नचिकेता की उत्सुकता आत्मा के संबंध में है तथा उसे अपनी प्रशंसा सुनने में रुचि नहीं है। वह उस परमतत्त्व को जानने में उत्सुक और आतुर है जो निस्सीम है। वह परमात्मा, जो धर्म और अधर्म अथवा पुण्य और पाप से परे है तथा जो कार्य और कारण के सिद्धान्त से भी परे है और तीनों कालों से परे अर्थात् त्रिकालाबाधित, अनादि और अनन्त है, ऐसा वह अद्भुत तत्त्व क्या है? यह ब्रह्म की जिज्ञासा है। १ परब्रह्म परमात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। वह इस दृश्यमान जगत् में सर्वत्र व्यापक होकर भी इससे परे है। बुद्धि द्वारा उसका ग्रहण तथा वाणी द्वारा उसका वर्णन करना संभव नहीं है।

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥

शब्दार्थ: सर्वे वेदा: यत् पदम् आमनन्ति = सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं, जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं; च सर्वाणि तपांसि यत् वदन्ति = और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, वे जिसकी प्राप्ति के साधन हैं; यत् इच्छन्त: ब्रह्मचर्यं चरन्ति = जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; तत् पदम् ते




--------------------------------------------------------------------------------





—जिसे जानकर मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, अपने भीतर रमण करता है।

मूकस्वादनवत् (नारदसूत्र, ५२)—गूँगे का गुड़ जैसा, अनिर्वचनीय सुख।

१.अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ब्रह्मसूत्र, १.१.१)

संग्रहेण ब्रवीमि = उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप से कहता हूँ; ओम् इति एतत् = ओम् ऐसा यह (अक्षर) है।

वचनामृत: सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् ऐसा यह अक्षर है।

सन्दर्भ: = ओम् की महिमा का गान है।

दिव्यामृत: यमाचार्य नचिकेता से संक्षेप में परमपद का कथन करते हैं। सब वेद जिस परमपद का प्रतिपादन करते हैं और जिस पद की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के कठोर तप किए जाते हैं, वह प्राप्य परमपद एक ही है। उसकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। ब्रह्मचर्य-पालन का अर्थ ब्रह्मप्राप्ति को लक्ष्य मानकर स्वाध्याय और आध्यात्मिक साधना करना है।

वह परमपद ओम् है। यह अक्षरब्रह्म तथा शब्दब्रह्म है। यह एक अक्षऱ ब्रह्म का वाचक अथवा प्रतीत है। यह तीन मूल ध्वनियों अ, उ, म्, का संयोजन है। नाम तथा नामी में अभेद होता है तथा वे एक होते हैं, नाम से नामी का उल्लेख होता है। ओम् ब्रह्म का नाम है, साक्षात् ब्रह्म ही है। ओम् की साधना करने से ब्रह्म की प्राप्ति एवं अनुभूति संभव हो जाती है। ओम प्रणव है। १ 'ॐ तत्सत्' की महिमा तथा 'ॐ' की महिमा का गान भगवद्गीता में भी किया गया है। ओम् का उच्चारण करके यज्ञ-दान-तप आदि का प्रारंभ किया जाता है। २ अनेक उपनिषदों में अनेक स्थानों पर ओम् के अद्भुत प्रभाव की चर्चा की गयी है। ३ ओंकार परब्रह्म और अपरब्रह्म




--------------------------------------------------------------------------------





१. तस्य वाचक: प्रणव: (योगदर्शन, १.२७)—ॐ परमात्मा का वाचक है।

२. ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (गीता, १७.२३)

तस्मादेमित्युदाहत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम्॥ (गीता, १७.२४)

३. ओमित्येतदक्षर मुद्गीथमुपासीत।
ओमिति हि उद्गयति तस्योपव्याख्यानम्॥ (छान्दोग्य उप०, १.१.१.)

—ॐ परब्रह्म का प्रतीक है। ॐ कहकर उद्गान करता है। उद्गाता ॐ इस अक्षर से प्रारंभ करके उद्गान करता है। ॐकार उद्गीथ है। ॐ उद्गीथसंज्ञक प्रकृत अक्षर है। इससे परमात्मा की अपचिति (उपासना) होती है। तेनेयं.…रसेन (छान्दोग्य उप०, १.१.९) इसकी अर्चना परमात्मा की ही अर्चना है।

है। इसकी तीन मात्राओं की उपासना के पृथक्-पृथक् अनेक फल हैं। १ ॐ ब्रह्म है, ॐ समस्त जगत् है। ॐ से ब्रह्म को प्राप्त करता है। २

हरि: ॐ का उच्चारण परमात्मा का स्मरण है। ३ ॐ का उच्चारण करके उपनिषदों का प्रारंभ किया जाता है।

ॐ ऐसा यह अक्षर है अर्थात् अविनाशी परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् उसका ही उपव्याख्यान अर्थात् उसकी ही महिमा का गान है। जो भूत, वर्तमान, भविष्यत् है, वह सब ओंकार है तथा त्रिकालातीत इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ४

ध्यानयोग में ॐ को धनुष, आत्मा को बाम मानकर तथा परब्रह्म परमात्मा को लक्ष्य मानकर वेधन करने अर्थात् ॐ के सहारे से आत्मा को परमात्मा में निमग्न करने का उपदेश किया गया है। ५

यदि मनुष्य अपने जीवन में ॐ का जप तथा उसकी उपासना करता है तथा अन्तकाल में एकाक्षर ब्रह्म ॐ का जप करते हुए प्राणविसर्जन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। ६

ओम् की लयपूर्ण (आरोह-अवरोह, स्वरसंक्रमसहित) ध्वनि शंख-ध्वनि के सदृश होती है तथा वह महाविस्फोट की महाध्वनि की प्रतिध्वनि है, जिससे सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था तथा उससे असाध्य रोगों की सफल चिकित्सा होना संभव है। ७ श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंखनाद की ध्वनि में मेघों की गड़गड़ाहट के समान ऐसा अद्भुत कम्पन था, जो शत्रु- के महारथियों के हृदयों को विदीर्ण कर देता था। श्रीकृष्ण की वंशी की सप्ततारक ध्वनि में भी वही दिव्य आकर्षण था, जिसमें वशीकरण की




--------------------------------------------------------------------------------





१. परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः। …स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव…संवेदितस्तूर्णमेव जगत्यामभिसंपद्यते। तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया समपन्नो महिमानमनुभवति। (प्रश्नोपनिषद्, ५)

२. ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम्…ब्रह्मैवोपाप्रोति। (तैत्ति० उप०, १.८)

३. हरिः ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति (श्वेताश्वतर उप०, १.१)

४. ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवत् भविष्यत् इति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव। (माण्डूक्य उप०, १)

५. प्रणवोधनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ (मुण्डक उप०, २.२.४)

६. ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्॥
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ (गीता, ८.१३)

७. सृष्टि के आदि के जो भयंकर महाविस्फोट हुआ, उसकी लयात्मक अनुगूँज सृष्टि की समस्त गतिमयता का आधार है तथा वह सृष्टि के अन्त तक निरन्तर प्रवहमान रहेगी। (हमने ध्यानयोग में इसका रहस्यमय अनुभव किया तथा इसको ग्रहण कर तथा संकेन्द्रित कर, इसके अनेक सफल प्रयोग किए। यह गवेषण का विषय है। )

अद्भुत क्षमता थी.

ओम् का जप, ध्यान और उसकी उपासना निस्सन्देह ब्रह्मप्राप्ति एवं ब्रह्मानन्द की अनुभूति का उत्तम साधन है।

एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥ १६॥

शब्दार्थ: एतत् अक्षरम् एव हि ब्रह्म = अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) ब्रह्म है; एतत् अक्षरम् एव हि परम = यह अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) परब्रह्म है; हि एतत् एव अक्षरम् ज्ञात्वा = इसीलिए इसी अक्षर को जानकर; य: यत् इच्छति तस्य तत् =जो जिसकी इच्छा करता है, उसको वही (मिल जाता है)।

वचनामृत: यह अक्षर ही तो ब्रह्म है, यह अक्षर ही परब्रह्म है। इसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिसकी इच्छा करता है, उसे वही मिल जाता है।

सन्दर्भ: ॐ की महिमा का गान किया गया है।

दिव्यामृत: ॐ ब्रह्म का वाचक अविनाशी अक्षर है तथा ब्रह्म ही है। १ यह सोपाधि ब्रह्म और परब्रह्म (अथवा अपर ब्रह्म और ब्रह्म) दोनों का द्योतक है। ॐ की उपासना और साधना करके, इसके गूढ (रहस्यपूर्ण) स्वरूप को समझकर, मनुष्य सिद्ध पुरुष हो जाता है तथा लौकिक (भौतिक) एवं पारलौकिक (आध्यात्मिक) संकल्पों को पूर्ति में समर्थ हो जाता है। इस महान् अक्षर का वर्णन विश्व के अनेक प्रचलित धर्मों में अनेक प्रकार से किया गया है। २

ब्रह्म एक ही है, वह अद्वैत है। किन्तु दार्शनिक दृष्टि से अपरब्रह्म और परब्रह्म दो रूप हैं। मायारहित, शुद्ध ब्रह्म को परब्रह्म तथा मायासहित




--------------------------------------------------------------------------------





१.शब्द और अर्थ सम्पृक्त होते हैं, पृथक् नहीं किए जा सकते हैं। कालिदास कहते हैं—"वागर्थाविव संपृक्तौ" वाक् और अर्थ की भाँति संपृक्त (पार्वती और शिव)।"गिरा अर्थ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न" वाणी और अर्थ जल और वीचि (लहर) की भाँति अभिन्न (सीता और राम) यद्यपि देखने में भिन्न हैं। ॐ अपने लक्ष्यभूत ब्रह्म से भिन्न नहीं है तथा दोनों एक ही हैं।

२. " In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God." (Bible, १.१)

सन्त जॉन ने कहा— 'प्रारंभ में शब्द था, वह शब्द परमात्मा के साथ था, और वह शब्द ही परमात्मा था।' यही लौगोस (Lgs) अथवा शब्द है।

ब्रह्म को अपरब्रह्म कह दिया जाता है। ॐ से दोनों परिलक्षित होते हैं१
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥ १७॥

शब्दार्थ: एतत् श्रेष्ठम् आलम्बनम् = यह श्रेष्ठ आलम्बन है, आश्रय, सहारा है; एतत् परम् आलम्बनम् = यह सर्वोच्च आलम्बन है; एतत् आलम्बनम् ज्ञात्वा = इस आलम्बन को जानकर; ब्रह्मलोके महीयते = ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।

वचनामृत: ॐकार ही श्रेष्ठ आलम्बन है, ॐकार सर्वोच्च (अन्तिम) आलम्बन अथवा आश्रय है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में महिमामय होता है।

सन्दर्भ: ॐकार मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है।

दिव्यामृत: भारतीय मूल के समस्त धर्मों में ॐ को मङ्गलदाता एवं अमङ्गलहर्ता माना जाता है। यह मनुष्य की वाणी की स्वाभाविक एवं सहज महिमामय विस्फोट है। यह विश्व की सूक्ष्म एवं दिव्य परमसत्ता का वाचक अथवा प्रतीत है। वाचक और वाच्य अथवा नाम और नामी एक होते हैं। ॐकार भगवत्प्राप्ति का माध्यम अथवा सोपान है। यह मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है। वास्तव में अपने भीतर संस्थित परमात्मा ही मनुष्य की अन्तिम तथा सर्वोच्च आलम्बन (आश्रय, सहारा) है। प्रतीक को माध्यम मानने के कारण ॐ मनुष्य का स्थायी और श्रेष्ठ आलम्बन है। संसार के सारे अवलम्बन अस्थिर और अस्थायी होते हैं। केवल परमात्मा का सहारा ही सच्चा सहारा होता है। संसार कर्मभूमि है तथा मनुष्य को पुरुषार्थ भी करना चाहिए, किन्तु दृढ आलम्बन तो परमात्मा और उसके नाम का ही होता है।

ॐ की महिमा को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाता है। सभी उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक का अधिकारी हो जाता है अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। २ ब्रह्म का उपासक




--------------------------------------------------------------------------------





१. परं चापरं च यदोङ्कार: (प्रश्न उप०, ५)—पर और अपरब्रह्म ओंकार है। अ उ म् को ईश्वर, जीव, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीन वेद (वेदत्रयी), स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीर, कर्म, भक्ति, ज्ञान आदि के संयोजन का प्रतीक भी कहा गया है।

२. ज्ञात्वा अथवा विदित्वा अर्थात् जानने पर अथवा ज्ञान होने पर ब्रह्म की प्राप्ति का उल्लेख सभी उपनिषदों में अनेक प्रकार से किया गया है। उसकी गणना करना अत्यन्त कठिन है।

वेदाहमेतं पुरुष महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यते अयनाय॥ (यजुर्वेद, ३१.१८, श्वेत० उप०, ३.८)

— मनुष्य परमात्मा को जानकर मृत्यु को पार कर लेता है।

ब्रह्मलोक का उल्लेख भी उपनिषदों में अनेक प्रकार से तथा अनेक अर्थों में किया गया है। उसकी विस्तृत चर्चा करना भी अत्यन्त कठिन है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति का अर्थ ब्रह्म की प्राप्ति

ब्रह्म के ज्योतिर्मय स्वरूप को प्राप्त होता है। ॐ प्रतीक है। प्रतीकोपासना लक्ष्य प्राप्ति का श्रेष्ठ माध्यम होती है।

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥

शब्दार्थ: विपश्चित् = ज्ञानस्वरूप आत्मा (आत्मा परब्रह्म परमात्मा); न जायते वा न म्रियते = न जन्म लेता है और न मरता है; अयम् न कुतश्चित् बभूत = यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है, न किसी उपादान कारण से उत्पन्न हुआ; (न) कश्चित् (बभूत) = (न) इससे कोई उत्पन्न हुआ है। (अयम् न कुतश्चित् बभूत, कश्चित् न बभूत— यह न किसी से, कहीं से, उत्पन्न हुआ, न यह उत्पन्न हुआ। आत्मा का जन्म नहीं हुआ, उसे दो प्रकार से कहा गया तथा यह भी एक अर्थ किया गया है। ) अयम् = यह आत्मा; अज: नित्य; शाश्वत: पुराण: = अजन्मा (जन्मरहित), नित्य, सदा एकरस रहनेवाला, सनातन (अनादि) है, (पुरातन—पुराना होकर भी नया अर्थात् सनातन); शरीरे हन्यमाने न हन्यते = शरीर को मार दिये जाने पर, नष्ट हो जाने पर, इसकी हत्या नहीं होती, इसका नाश नहीं होता।

वचनामृत: ज्ञानस्वरूप आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न किसी का कार्य है, न किसी का कारण है। यह अजन्मा, नित्यस शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता। १

सन्दर्भ: आत्मा अजर-अमर है। आत्मा विकारी नहीं है, वह सदा एकरस है।




--------------------------------------------------------------------------------





करना ही विवेकसम्मत है। लोक्यते प्रकाशयते इति लोक:। प्रकाश करनेवाला लोक कहलाता

है। प्रकाशित करने के कारण ब्रह्म स्वयं भी ब्रह्मलोक है।

१ भगवद्गीता (२.२०) में भी यह मंत्र है, किन्तु वहाँ कुछ भिन्न है—

न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

'विपश्चित्' का अर्थ विवेकशील प्राणी मानने पर कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष ज्ञान द्वारा जन्म-मरण से ऊपर उठ जाता है तथा वह आत्मस्वरूप में संस्थित हो जाता है। वह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह 'अहं ब्रह्मास्मि' की स्थिति है। ज्ञानी मात्र द्रष्टा नहीं होता है, अहंकारशून्य। किन्तु 'विपश्चित्' का अर्थ आत्मा (ब्रह्म) ही किया जाना उचित है (तै० उप०, २.१)

दिव्यामृत: आत्मा दिव्य एवं अमूर्त है। आत्मा अज है, नित्य और शाश्वत है तथा अनादि है। देह में स्थित आत्मा परम सूक्ष्म एवं चैतन्य स्वरूप है तथा वह परमात्मा का दिव्य अंश होने के कारण परमात्मा ही है। आत्मा को परमात्मा भी कहा जाता है। मनुष्य के देहनाश होने पर भी अजर-अमर आत्मा नष्ट नहीं होता। घट फूट जाता है तथा उसके भीतर का आकाश (घटाकाश) व्यापक आकाश (महाकाश) के साथ एक हो जाता है। १

दार्शनिक दृष्टि से परब्रह्म मायारहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूप होता है तथा न उसका जन्म होता है और न वह किसी को जन्म देता है, किन्तु अपरब्रह्म (ईश्वर) मायासहित होता है तथा दृष्टि की उत्पत्ति करता है, उसका संचालन करता है, संहार करता है और वही भक्तों का उपास्य होता है। इसी प्रकार, देह में स्थित आत्मा मायारहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही होता है, किन्तु वही मायासहित (माया से आवृत) होने पर जीवात्मा कहलाता है। २ वास्तव में शुद्ध ब्रह्म और मायासहित ब्रह्म एक ही हैं तथा देह में स्थित आत्मा अथवा जीवात्मा भी एक ही हैं। जीवो ब्रह्मैव नापर: अर्थात् मनुष्य का जीवात्मा तत्त्वत: आत्मा अथवा ब्रह्म ही है। दार्शनिक दृष्टि के पारिभाषिक भेद केवल कुछ सिद्धान्तों को समझाने के लिए ही हैं तथा वास्तव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म एक ही है।

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥

शब्दार्थ: चेत् = यदि; हन्ता हन्तुं मन्यते = मारनेवाला (स्वयं को) मारने में समर्थ मानता है; चेत् हत: हतम् मन्यते = यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है; तौ उभौ न विजानीत:= वे दोनों नहीं जानते; अयम् न हन्ति न हन्यते = यह (आत्मा) न मारता है, न मारा जाता है।




--------------------------------------------------------------------------------





१. जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यौ ग्यानी॥ (कबीर)

२. भूमि परत भा ढाबर पानी, जिमि जीवहि माया लपटानी। — जैसे वर्षा का शुद्ध जल भूमि पर गिरने से, मिद्टी से मिलकर कुछ अशुद्ध हो जाता है, ऐसे ही शुद्ध आत्मा माया से आवृत होकर जीवात्मा का रूप ले लेता है। जैसे अशुद्ध जल को पुनः शुद्ध किया जा सकता है, वैसे ही (तप द्वारा) जीवात्मा के माया से मुक्त होने पर वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही होता है। दोनों एक ही हैं।

वचनामृत: यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मार दिया जाता है।

सन्दर्भ: आत्मा अविनाशी है। १

दिव्यामृत: मनुष्य का देह स्थूल पंचतत्त्वों (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के संयोग से बनता है तथा वह प्राणों के निर्गमन होने पर विनष्ट हो जाता है। आत्मा मूल स्वरूप में नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। वह अजर-अमर है तथा उसका विनाश नहीं होता। यदि कोई स्वयं को किसी के मारने में समर्थ समझता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया हुआ मानता है तो वे दोनों अज्ञानी ही हैं। यह आत्मा एक शाश्वत दिव्यतत्त्व है तथा इसका विनाश संभव नहीं है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है। वह अविनाशी, अजर और अमर है। जडतत्त्व परिवर्तनशील और विनाशशील होता है, किन्तु चेतनतत्त्व परिवर्तनरहित और शाश्वत होता है।

मनुष्य का देह मरणशील है, किन्तु यह साधना द्वारा मोक्ष का द्वार खोल देता है। देह संरक्षणीय होता है, किन्तु मनुष्य भोगैश्वर्य में फँसकर इसका दुरुपयोग कर लेता है। २ देह का सदुपयोग मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति करा देता है।

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:॥ २०॥

शब्दार्थ: अस्य जन्तो: गुहायाम् निहितः आत्मा = इस जीवात्मा के (अथवा देहधारी मनुष्य के) हृदयरूप गुहा में निहित आत्मा (परमात्मा); अणो: अणीयान् महत: महीयान् = अणु से सूक्ष्म, महान् से भी बड़ा (है); आत्मन: तम् महिमानम् = आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को, उसके स्वरूप को; अक्रतु: = संकल्परहित, कामनारहित; धातुप्रसादात् = मन तथा इन्द्रियों के प्रसाद अर्थात् उनकी शुद्धता होने से; (धाता—विधाता, भगवान्;




--------------------------------------------------------------------------------





१.भगवद्गीता (२.१९) में यही मंत्र इस प्रकार से है—

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥

If the red slayer thinks he slays
Or if the slain thinks he is slain,
They know not well the subtle ways
I Keep and pass and turn again (Brahma' poem by R. W. Emerson)

२.'साधन' धाम मोक्ष कर द्वारा'

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् (कालिदास)—शरीर धर्म का प्रथम साधन है।

धातु: प्रसादात्— भगवान् की कृपा से—यह अन्य अर्थ भी किया गया है। ) पश्यति —साक्षात् देख लेता है, स्वयं अनुभव कर लेता है; वीतशोक: = समस्त दुःखों से परे चला जाता है, परम सुखी हो जाता है। (अक्रतु: वीतशोक: धातुप्रसादात् पश्यति—निष्काम शोकरहित होकर इन्द्रियों की शुद्धि से अथवा भगवान् की कृपा से देख लेता है, यह एक भिन्न अन्वय तथा अन्वयार्थ है। )

वचनामृत: इस जीवात्मा की हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। परमात्मा की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर देख लेता है और (समस्त) शोक से पार हो जाता है।

सन्दर्भ: यह मंत्र उपनिषद्-प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय है। यह श्वेताश्वतर उपनिषद् (३.२०) में भी है।'अणोरणीयान् महतो महीयान्' को कण्ठस्थ कर लें।

दिव्यामृत: परमात्मा संसार में छोटे-से-छोटे कण से भी छोटा तथा बड़ी-से-बड़ी वस्तु से भी बड़ा (लघु से भी लघुतर, महान् से भी महत्तर) है। वह सर्वव्यापक है तथा सर्वत्र समाया हुआ है। वह समस्त सत्ता का आधार है। उसके बिना किसी की सत्ता नहीं है। वह विश्व की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है।

इन्द्रियों, मन और बुद्धि से युक्त तथा माया से आवृत होकर मनुष्य का आत्मा जीवात्मा के रूप में मानो बद्ध हो जाता है, किन्तु वह मुक्त होकर, माया के आवरण से मुक्त होकर, अपने मूल स्वरूप में तो शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ही होता है। आत्मा ही परमात्मा है। बद्धावस्था में आत्मा को जीवात्मा कहा जाता है। यहाँ जीवात्मा को जन्तु कहा गया है। यद्यपि वह परब्रह्म पुरुषोत्तम के समीप ही स्थित रहता है, मायामोहवश वह उसे देखता नहीं है।

ज्ञान का उदय होने पर, ज्ञान के प्रकाश में, जीवात्मा अपने शुद्ध चेतनस्वरूप को समझकर, परमात्मा की महिमा को जान लेता है और सदा के लिए सब प्रकार के शोक अर्थात् सब प्रकार के दु:ख से मुक्त हो जाता है तथा आनन्दावस्था में स्थित हो जाता है। १

१. उपनिषदों तथा भगवद्गीता में इतने अधिक स्थानों पर वीतशोक (शोकरहित) होने तथा अक्षयसुख पाने की चर्चा है कि उनकी गणना करना कठिन है। उपनिषदों का उद्देश्य मनुष्य को भय, चिन्ता और शोक से मुक्त करके आनन्दावस्था में प्रस्थापित करना है। वीतशोक (मुण्डक उप०, ३.१.२., श्वेत० उप०, २.१४ तथा ४.७)

मनुष्य इन्द्रियों तथा मन के विषयानुरक्त अथवा विषयभोगरत होने पर अर्थात् इन्द्रियों और मन के दूषित होने पर, सत्य का दर्शन एवं अनुभव नहीं कर पाता। इन्द्रियों तथा मन के शुद्ध होने पर अर्थात् भोगौश्वर्य के आकर्षण से मुक्त होने पर, काम, क्रोध और लोभ के प्रभाव से मुक्त होने पर, मनुष्य परमात्मा की महिमा को जान सकता है तथा परमात्मा की कृपा का पात्र हो जाता है। संसार के सुख क्षणभंगुर तथा भटकानेवाले होते हैं, आध्यात्मिक सुख स्थायी और सच्चा होता है। आध्यात्मिक मनुष्य अर्थात् अन्तर्मुखी होकर परमात्मा की ओर अभिमुख होनेवाला मनुष्य ही आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। परमात्मा मनुष्य के हृदयक्षेत्र में अधिष्ठित होने के कारण समीप ही होता है, किन्तु विषयानुरागी मनुष्य उसे नहीं देखता तथा परमात्मा की महिमा को नहीं जानता। परमात्मा के स्वरूप को देखकर अर्थात् समझकर मनुष्य वीतशोक हो जाता है। १

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति॥ २१॥

शब्दार्थ: आसीन: = बैठा हुआ; दूरम् व्रजति = दूर पहुँच जाता है; शयान:= सोता हुआ; सर्वत: याति = सब ओर चला जाता है; तम् मदामदम् देवम् = उस मद से युक्त होकर भी अमद (अनुन्मत्त) देव को; मदन्य: क: ज्ञातुम् अर्हित = मुझसे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?

वचनामृत: परमात्मा बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से मदान्वित न होनेवाले देव को, मुझसे अतिरिक्त कौन जानने के योग्य है?

सन्दर्भ: परमात्मा के ज्ञान का उत्तम अधिकारी होना कठिन है।

दिव्यामृत: परमात्मा की शक्ति अचिन्त्य है। उसका वर्णन परस्पर विरोधी गुणों से किया जाता है। २ परमात्मा दुर्विज्ञेय है। उसे बुद्धि के तर्कों से नहीं समझा जा सकता। परमात्मा नितान्त रहस्यमय, दिव्य सत्ता है




--------------------------------------------------------------------------------





१ 'पश्यति' (देखता है, अर्थात् साक्षात् अनुभव करता है) का प्रयोग उपनिषदों में अनेक स्थानों पर है। (मुण्डक उप०, ३.२ श्वेत० उप०, ४.७)

आ पश्यति प्रति पश्यति परा पश्यति पश्यति,
दिवमन्तरिक्षमाद् भूमिं सर्वं तद् देवि पश्याति॥ (अथर्व०, ४.२०.१)

—हे दवि, तू जिसे मिल जाय, वह सब कुछ दूर-दूर तक देख लेता है। यह एक श्रेष्ठ मंत्र है। अथर्ववेद के इस मंत्र के अनेक अर्थ किए गए हैं।

२.ईशावास्य उपनिषद् के मंत्र ४, ५ में भी परमात्मा को विरोधी धर्मों से युक्त अर्थात् अचिन्त्य कहा गया है।

तथा उसका ज्ञान अत्यन्त गूढ है। निस्सन्देह, आध्यात्मिक साधना करने पर अपने भीतर ही उसकी अनुभूति होती है। उसका अनुभव करने पर मनुष्य आनन्दमय हो जाता है तथा उस अनुभव का वर्णन शब्दों द्वारा करना संभव नहीं है। ग्रन्थों से प्राप्त ज्ञान पथ-प्रदर्शन कर सकता है तथा अनुभव व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है। यात्राचित्र मार्गदर्शन करा देते हैं, किन्तु वे गन्तव्य तक नहीं पहुँचा सकते। निश्चय ही, ऐसे महापुरुष, जो परमात्मा का अनुभव कर चुके हैं, अत्यन्त सहायक हो सकते हैं।

परमात्मा मानो बैठा हुआ दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है। वह आनन्द के मद से पूर्ण होकर भी मदोन्मत्त नहीं होता। सन्तजन भी अकथ्य शक्तियों से भरपूर होकर शान्त और सम ही रहते हैं। परस्पर विरोधी धर्मवाले परमात्मा की महिमा को ज्ञानी महात्मा ही समझ सकते हैं।

यमाचार्य निरहंकार और निरभिमान होकर, सहज भाव से कहते हैं कि उनसे भिन्न अन्य कोई परमात्मा के स्वरूप और उसकी महिमा को नहीं जान सकता, अर्थात् परमात्मा के स्वरूप और उसकी महिमा को नहीं जान सकता, अर्थात् परमात्मा को जानना और प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। परमात्मा दुर्विज्ञेय है, किन्तु वह सूक्ष्म बुद्धिवाले ज्ञानी पुरुषों के लिए सुविज्ञेय है।

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥

शब्दार्थ: अनवस्थेषु शरीरेषु = स्थिर न रहनेवाले अर्थात् विनश्वर शरीरों में; अशरीरम् = शरीररहित; अवस्थितम् = स्थित; महान्तम् विभुम् = (उस) महान् सर्वव्यापक; आत्मानम् = परमात्मा को; मत्वा = मनन करके, जानकर; धीर: = विवेकशील पुरुष, बुद्धिमान् पुरुष; न शोचति = कोई शोक नहीं करता।

वचनामृत: अस्थिर शरीरो में संस्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर धीर शोक नहीं करता।

सन्दर्भ: वह सर्वव्यापक परमात्मा अपने भीतर ही संस्थित है

दिव्यामृत: परमात्मा से संचालित एवं नियंत्रित प्रकृति ने मनुष्य को चेतना-शक्ति एवं बुद्धि से संपन्न करके उसे अपने भीतर ही परमात्मा को खोजने और पाने की क्षमता प्रदान कर दी, किन्तु मनुष्य बाह्य जगत् के भौतिक आकर्षणों से प्रलुब्ध होने के कारण अपने भीतर झाँकने और परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव करने में प्रवृत्त नहीं होता। परमात्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक है तथा नश्वर शरीरों में संस्थित रहता है। बुद्धिमान् मनुष्य उसे सूक्ष्म बुद्धि से जानकर उच्चस्तरीय आनन्दावस्था को प्राप्त कर लेता है तथा सदा के लिए शोकमुक्त हो जाता है अर्थात् मोह एवं शोक के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। १

मनुष्य के अनित्य एवं विनश्वर देह में जीवन के स्त्रोत एवं आधार के रूप में घटघटवासी परमात्मा स्वयं विराजमान रहता है तथा उसे प्राप्त होना जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥

शब्दार्थ: अयम् आत्मा न प्रवचनेन न मेधया न बहुना श्रुतेन लभ्य: = आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है; यम् एष: वृणुते तेन एव लभ्य: = जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त होता है; एष: आत्मा = यह आत्मा; तस्य स्वाम् तनूम् विवृणुते = उसके लिए स्व-स्वरूप को प्रकट कर देता है।

वचनामृत: यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। २




--------------------------------------------------------------------------------





१. तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:। (ईशावास्य उप०, ७) नानुशोचितुमर्हसि (गीता, २.२५), नैवं शोचितुमर्हसि (२.२६), न त्वं शोचितुमर्हसि (२.२७, २.३०) 'शोक' का व्यापक अर्थ समस्त दुःख, भय और चिन्ता है।

२. शङ्कराचार्यजी इस मंत्र का अन्वय और अर्थ इस प्रकार करते हैं —

नायमात्मा प्रवचनेनानेकवेदस्वीकरणेन लभ्यो ज्ञेयो नापि मेधया ग्रन्थार्थधारणशक्त्या। न बहुना श्रुतेन केवलेन। केन तर्हि लभ्य इच्युच्यते—यमेव स्वात्मानमेष साधको वृणुते प्रार्थयते तेनैवात्मना वरित्रा स्वयमात्मा लभ्यो ज्ञायत एवमित्येतत्। निष्कामस्यात्मानम् एव प्रार्थयत आत्मनैवात्मा लभ्यत इत्यर्थ:। कथं लभ्यत इत्युच्यते—तस्यात्मकामस्यैष आत्मा विवृणुते प्रकाशयति पारमार्थिकीं तनूं स्वां स्वकीयां स्वयाथात्म्यम् इत्यर्थ:। यह आत्मा प्रवचन अर्थात् अनेक वेदों को स्वीकार करने से प्राप्त अर्थात् विदित होने योग्य नहीं है, न मेधा अर्थात् ग्रन्थार्थ-धारण की शक्ति से ही जाना जा सकता है और न केवल बहुत-सा श्रवण करने से ही; तो फिर किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, इस पर कहते हैं—यह साधक जिस अपने आत्मा का वरण—प्रार्थना करता है, उस वरण करनेवाले आत्मा द्वारा यह आत्मा स्वयं ही प्राप्त किया जाता है, अर्थात् उससे ही 'यह ऐसा है' इस प्रकार जाना जाता है। तात्पर्य यह है कि केवल आत्मलाभ के लिए ही प्रार्थना करनेवाले निष्काम पुरुष को आत्मा के द्वारा ही आत्मा की उपलब्धि होती है। किस प्रकार वह उपलब्ध होता है, इस पर कहते हैं—उस आत्मकामी के प्रति यह आत्मा अपने पारमार्थिक स्वरूप अर्थात् अपने याथात्म्य को विवृत—प्रकाशित कर देता है।

सन्दर्भ: यह मंत्र कठोपनिषद् के श्रेष्ठ मंत्रों में परिगणित होता है। यह मुण्डक उपनिषद् (३.२.३) में भी है। इसे कण्ठस्थ कर लेना चाहिए। इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है।

दिव्यामृत: परमात्मा मनुष्य के भीतर ही प्राप्य है। बाह्य साधन उपयोगी तो होते हैं, किन्तु वे मनुष्य को साध्य तक नहीं पहुँचा सकते। प्रवचन अर्थात् वेदादि का अध्ययन और विवेचनापूर्ण व्याख्यान तथा चर्चा-परिचर्चा करना पर्याप्त नहीं होता। बुद्धि द्वारा परमात्म-तत्त्व को जानना संभव नहीं होता, क्योंकि परमात्मा मात्र बुद्धि का विषय नहीं है। बौद्धिक तर्क की एक सीमा होती है तथा परम सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण मात्र कुशाग्र बुद्धि से भी नहीं हो सकता। तर्कशील व्यक्ति तर्क-वितर्क के जाल में फँसकर उलझे रह जाते हैं और किसी निर्णय एवं निश्चय तक नहीं पहुँच पाते। तीव्र बुद्धि होने का अहंकार सत्य की प्राप्ति के मार्ग में बाधक हो जाता है। श्रुत अर्थात् विद्वत्ता से तथा ज्ञानग्रन्थों के श्रवण से भी स्थायी लाभ नहीं होता।

परमात्मा ही जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में परमात्मा स्वयं ही स्वयं को प्रकट करता है। परमात्मा का दर्शन एवं अनुभव परमात्मा के प्रसाद से अथवा उसकी कृपा से ही होता है। १ किन्तु परमात्मा किसी भी उस महात्मा के लिए सुलभ हो जाता है, जो उसका अधिकारी अथवा सत्पात्र हो जाता है। परमात्मा को जानने के लिए तथा उसकी दिव्यानुभूति प्राप्त करने के लिए उत्कट इच्छा, अहंकारशून्यता, चित्त की निर्मलता तथा वैराग्यभाव मनुष्य को भगवत्कृपा का अधिकारी बना देते हैं।

सूर्य का प्रकाश तो हमारे द्वार तक स्वयं ही आता है, किन्तु द्वार खोलने पर ही हम उसका दर्शन कर सकते हैं। मन को निर्मल करने पर अथवा मन के द्वार खोल देने पर परमात्मा का दिव्य प्रकाश प्रकट हो जाता है, जो मनुष्य के हृदय की गुहा में निगूढ रहता है तथा जीवन का स्त्रोत एवं आधार होता है। २

१. सो जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।

२. ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवञ्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ (गीता, ५.१६)

—अज्ञान का अन्धकार निवृत्त होने पर, ज्ञान सूर्य के सदृश परमात्मा को प्रकाशित कर देता है, परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करा देता है। (अनेक प्रवचनकर्त्ता मात्र मूलग्रन्थों एवं व्याख्याग्रन्थों को पढ़कर, बिना उन्हें आत्मसात् किए हुए ही, रटकर प्रवचन करते हैं तथा प्रवचनों को मात्र लौकिक कामनापूर्ति का साधन बना लेते है। आध्यात्मिक तत्त्वों को ग्रहण करके ही अनुभवी मनुष्य सहज भाव से सार्थक एवं सुन्दर प्रवचन कर सकता है। )

श्रेष्ठ पुरुष प्रार्थना और ध्यान के अभ्यास से मन को निर्मल कर लेते हैं अर्थात् उसे राग, द्वेष आदि विकारों से मुक्त कर देते हैं तथा सुरदुर्लभ दिव्यानुभूति प्राप्त कर लेते हैं। हमारे अपने भीतर ही आनन्द का स्त्रोत एवं अक्षय कोश है तथा वह सबके लिए सदा सुलभ है। मनुष्य अपने मार्ग एवं लक्ष्य का निर्धारण एवं वरण करने में स्वतन्त्र है। दिव्य प्रकाश की एक झलक पाकर ही मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। दिव्यानुभूति होने पर भय और भ्रम निवृत्त हो जाते हैं।

सोद्देश्य मौनधारण, जप, चिन्तन और प्रार्थना द्वारा चित्त की निर्मलता होने पर मनुष्य की चेतना ऊर्ध्वमुखी हो जाती है तथा वह विश्व की विराट् चेतना में संस्थित हो जाता है। बिन्दु में सिन्धु की अनुभूति होने पर मनुष्य को आत्यन्तिक तृप्ति हो जाती है तथा उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥

शब्दार्थ: प्रज्ञानेन अपि = सूक्ष्म बुद्धि से भी, आत्मज्ञान से भी; एनम् = इसे (परमात्मा को); न दुश्चरितात् अविरत: आप्नुयात् = न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो कुत्सित आचरण से (दुष्कर्म से) अविरल अर्थात् निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त: = न अशान्त मनुष्य (प्राप्त कर सकता है); न असमाहित: = न वह प्राप्त कर सकता है, जो असमाहित अर्थात् एकाग्र न हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; न अशान्तमानस: = न अशान्त मनवाला ही (उसे प्राप्त कर सकता है); आप्नुयात् = प्राप्त कर सकता है। (प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्—प्रज्ञान से इसे प्राप्त किया जा सकता है, यह एक अन्य अर्थ है। )

वचनामृत: इसे (परमात्मा को) सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो दुराचार से निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकता है, जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। (एक अन्य अर्थ है कि प्रज्ञान से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। )

सन्दर्भ: परमात्मा की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना आवश्यक है। नैतिकता अध्यात्म-मार्ग का प्रथम सोपान है। अनैतिक एवं कुमार्गगामी सत्पात्र नहीं होता। यह मंत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में यह मंत्र पूर्ववर्ती मंत्र २३ के साथ जुड़ा हुआ अथवा उसका पूरक है।

दिव्यामृत:मनुष्य दुष्कर्म में प्रवृत्त रहकर कभी गहन शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता और जिसका मन शान्त नहीं है, वह न सांसारिक सुख का अनुभव कर सकता है और न आध्यात्मिक आनन्द का ही। वास्तव में अशान्त रहनेवाला व्यक्ति जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं कर सकता।

जिस मनुष्य का मन भौतिक सुखभोग की वासना तथा सांसारिक पदार्थों की तृष्णा से ग्रस्त रहता है, जिसका मन राग और द्वेष में फँसा रहता है और भौतिक आकर्षणो के बन्धन में रहता है, वह सदा अशान्त ही रहता है। अशान्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है?

वास्तव में मनुष्य के मन और इन्द्रियों की चंचलता उसे शान्त नहीं रहने देती। जिसका मन शान्त और समाहित नहीं होता, वह स्थिर और एकाग्र भी नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति सांसारिक सुखभोगों को प्राप्त करके भी दुःखी रहता है।

परमात्मा मनुष्य के भीतर हृदय में ही विराजमान रहता है, किन्तु सदा सुलभ और समीप होने पर भी वह दर्लभ और दूर रहता है। मनुष्य समाहित और शान्त होकर अपने भीतर ही उसकी दिव्यता का अनुभव कर सकता है।

जिस मनुष्य का मन भोगासक्ति के कारण सत्य के मार्ग को छोड़कर दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है, वह तीर्थयात्रा, व्रत, दान, पूजा-पाठ आदि करके भी अशान्त अथवा उद्विग्न ही रहता है।

दुष्कर्म (अनैतिक कर्म) मनुष्य के मन में अपराध-बोध उत्पन्न कर देते हैं तथा मनुष्य अपने भीतर अशान्त और दु:खी रहने लगता है। उसे जीवन भारमय एवं दुःखमय प्रतीत होने लगता है। चारित्रिक गुणों (सच्चाई, ईमानदारी) को छोड़ने पर अन्य सब उपलब्धियाँ (विद्वत्ता, धनार्जन, सत्ता और सम्मान के पदों पर आसीन होना इत्यादि) विषमय अर्थात् अशान्तिप्रिय सिद्ध होते हैं। चारित्रिक गुणों (नैतिक मूल्यों) की कीमत पर महान् सफलता अथवा उपलब्धि भी सच्चा सुख नहीं दे सकती। रेत की दीवार कदापि स्थिर नहीं रहती।

दुष्कर्षों में प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य केवल ज्ञान के माध्यम से ही परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसका मन अनेक प्रकार के विकारों, दोषों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है और उसमें शान्ति एवं एकाग्रता नहीं होते। वह अन्तर्मुखी नहीं होता। दुष्कर्म में प्रवृत्त, अशान्त मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। १ अशान्त मनुष्य ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं होता। २

मनुष्य को अपने मन को दिशा बदलकर, दृढता से भी उन सभी दुष्कर्मों का त्याग कर देना चाहिए, जो उसे परमात्मा से विमुख करते हों और घोर अशान्ति एवं दु:ख उत्पन्न करते हों। साधारण अशान्ति तो मानव-स्वभाव का अंग है तथा केवल योगी ही सदा शान्त रहते हैं, किन्तु दुष्कर्म में रत मनुष्य अत्यधिक अशान्त अथवा उद्विग्न रहते हैं। दुष्कर्म को त्यागकर परमात्मा की शरण में जाने पर मनुष्य परम शान्त हो जाता है। अविचल शांति में स्थित होकर मनुष्य सत्य का संदर्शन करता है। ३

आध्यात्मिक मार्ग के पथिक को आचरण में उत्कृष्ट रहना चाहिए तथा दुष्कर्मों से विरत होकर, सच्चे मन से भगवत्प्राप्ति की दिशा में प्रवृत्त होना चाहिए, क्योंकि दुष्कर्मों में रत रहकर वह प्रखरबुद्धि होते हुए भी तथा आत्मज्ञान प्राप्त करके भी परमात्मा का अनुभव कदापि नहीं कर सकता। आचारहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। ४

सच्चे भाव से भगवान् की शरण में जाने पर घोर पापी भी महात्मा हो जाता है। ५

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥

शब्दार्थ: यस्य = जिस (परमेश्वर) के; ब्रह्म च क्षत्रम् च उभे = ब्रह्म और क्षत्र दोनों अर्थात् बुद्धिबल और बाहुबल दोनों; ओदन: भवत: = पके हुए चावल अर्थात् भोजन हो जाते हैं; मृत्यु: यस्य उपसेचनम् = मृत्यु




--------------------------------------------------------------------------------





१. न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:। (गीता, ७.१५)

२. नाप्रशान्ताय दातव्यम् (श्वेत० उप०, ६.२२)

—अशान्त व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना चाहिए।

३.आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता, २.७०)

विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥ (गीता, २.७१)

—कामना के त्याग से शान्ति प्राप्त होती है।

४.आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:।

५. अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यक् व्यवसितो हि स:॥ (गीता, ९.३०)

सम्मुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।

जिसका उपसेचन (भोजन के साथ खाये जानेवाले व्यंजन, चटनी इत्यादि) (भवति—होता है); स: यत्र इत्था कः वेद = वह परमेश्वर जहाँ (या कहाँ), जैसा (या कैसा), कौन जानता है?

वचनामृत: जिस परमात्मा के लिए बुद्धिबल और बाहुबल दोनों भोजन हो जाते हैं, मृत्यु जिसका उपसेचन होता है, वह परमात्मा जहाँ कैसा है, कौन जानता है?

सन्दर्भ: परमात्मा दुर्विज्ञेय है।

दिव्यामृत: मनुष्य जिन शक्तियों को अत्यधिक महत्त्व देते हैं, वे भी कालरूप परमेश्वर के समक्ष तुच्छ हैं। बुद्धिबल और बाहुबल तथा उनसे संपन्न मनुष्य काल के लिए मानो मात्र भोजन ही हैं। मृत्यु जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य प्रकम्पित हो जाते हैं, काल के लिए मात्र उपसेचन है जिसे व्यंजन के रूप में भोजन के साथ खाया जाता है। १ परमात्मा काल का भी काल है, महाकाल है तथा वह स्वयं काल से अप्रभावित अकाल पुरुष है। सम्पूर्ण व्यक्त जगत् काल का एक ग्रास ही है। जो मनुष्य बुद्धिबल अथवा बाहुबल पाकर मदोन्मत्त एवं गर्वित हो जाते हैं, वे मूढ जाते हैं। मूढ जन ऐसा व्यवहार करते हैं मानो वे अमर हैं तथा वे अन्तर्मुखी होकर गंभीर चिन्तन नहीं करते।

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ १८ ॥

है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,
यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।
क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,
आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायँ हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥

यहाँ कोई मरता है नहीं,और न ही कोई मारता,
ऐसा समझता यदि कोई वह तथ्य को नहीं जानता।
इस नित्य चेतन आत्मा का जड़ अनित्य शरीर से,
ना ही कोई सम्बन्ध ना ही बंधे जड़ प्राचीर से॥ [ १९ ]

अणोरणीयान्महतो महीया-
नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ २० ॥

जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,
अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।
परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,
द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः ।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति ॥ २१ ॥

सर्वत्र सब रूपों में व्यापक, प्रेम पद्म जगत्पते,
महे दिव्य परम एश्वैर्मय, अभिमान शून्य महामते।
आसीन पर गतिमान प्रभुवर दूर हैं पर पास हैं,
उस दिव्य तत्व की दिव्यता बस धर्मराज को भास है॥ [ २१ ]

अशरीरँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम् ।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ २२ ॥

यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,
सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।
अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,
सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ॥ २३ ॥

परब्रह्म ना ही बुद्धि ना ही वचन, श्रुति अतिरेक से,
ना तर्क गर्व प्रमत्त से, अथ ना सुलभ प्रत्येक से।
करते स्वयम स्वीकार जिसको, प्रभु उन्हें उपलब्ध है,
जो विकल व्याकुल भक्त जिनके भक्तिमय प्रारब्ध हैं॥ [ २३ ]

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ २४ ॥

ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,
कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।
है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,
नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५ ॥

संहारकाले स्वयम मृत्यु व प्राणी जिसका भोज हों,
अहम कालोअस्मि कथ, अथ का विदित क्या ओज हो।
उस मृत्यु संहारक परम प्रभु को भला कैसे कोई,
क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]



इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये द्वितीया वल्ली ॥


आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥

नचिकेता प्रिय जीवात्मा को, रथ का स्वामी मान लो,
एस पान्च्भौतिक देह को तुम रथ का स्वामी जान लो।
जीवात्मा स्वामी है रथ का, बुद्धि समझो सारथी,
रथ रथी और सारथी का मन नियंत्रक महारथी॥ [ ३ ]

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥

सब इंद्रियों को ज्ञानियों ने, रूप अश्वों का कहा,
विषयों में जग के विचरने का, मार्ग अति मोहक महा।
मनचंचला और देह इन्द्रियों से युक्त है जीवात्मा,
बहु भोग विषयों में लीन हो, भूला है वह परमात्मा॥ [ ४ ]

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५ ॥

मन वृत्तियाँ जिसकी हैं चंचल, वह विवेकी है नहीं,
हैं बुद्धि विषयक प्रवण पर वे, ब्रह्म पा सकते नहीं।
अति दुष्ट अश्वों की भांति, उनकी इन्द्रियों वश्हीं हैं,
वे लक्ष्य हीन भटकते, जिनका सारथी न प्रवीण है॥ [ ५ ]

यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६ ॥

वश में हैं जिसकी इन्द्रियाँ, मन से वही संपन्न है,
मन से ही लौकिक और भौतिक, लक्ष्य सब निष्पन्न हैं।
अति कुशल सारथि की तरह से, इन्द्रियाँ जिसकी सदा,
हो वश में जिसके वह विवेकी, दिव्य पाये संपदा॥ [ ६ ]

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः ।
न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति ॥ ७ ॥

जो विषय विष को मान अमृत, लिप्त उसमें ही रहें,
उनके असंयमित मन विकारी, लेश न सतगुन गहें।
उस परम पद को ऐसे प्राणी, पा नहीं सकते कभी,
पुनि पुनि जनम और मरण के दुष्चक्र न रुकते कभी॥ [ ७ ]

यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः ।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८ ॥

पर जो सदा संयम विवेकी, शुद्ध भाव से युक्त हैं,
पद परम अधिकारी वही और मरण जन्म से मुक्त हैं। निष्काम भाव से कर्म,कर्मा की जन्म मृत्यु भी शेष है,
निःशेष शेष हों कर्म जिसके भक्त प्रभु का विशेष है॥ [ ८ ]

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः ।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९ ॥

जो बुद्धि रूपी सारथी से है नियंत्रित सर्वदा,
स्व मन स्वरूपी डोर उसके हाथ में रहती सदा।
है वह मनुज सम्यक विवेकी, पार हो संसार से,
फ़िर भोग से उपरत हो रत हो, परम करुनागार से॥ [ ९ ]

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १० ॥

इन्द्रियों से अति अधिक तो शब्द विषयों में वेग है,
विषयों से भी बलवान मन का, प्रबल अति संवेग है| इस मन से भी बुद्धि परम और बुद्धि से है आत्मा,
अतः मानव आत्म बल संयम से हो परमात्मा॥ [ १० ]


महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ ११ ॥

जीवात्मा से तो बलवती, अव्यक्त माया शक्ति है,
अव्यक्त माया से परम उस परम प्रभु की शक्ति है।
उस दिव्य गुण गण प्रभो की परम प्रभुता से परे,
नहीं सृष्टि में कोई भी किंचित,साम्यता प्रभु से करे॥ [ ११ ]

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ १२ ॥

प्रभु सर्वभूतेषु तथापि माया के परिवेश में,
हैं स्वयम को आवृत किए ,रहते अगोचर वेष में।
अति सूक्ष्म दर्शी भक्त ज्ञानी ही दया की दृष्टि से,
हैं देख पाते परम प्रभु और विश्व को सम दृष्टि से॥ [ १२ ]

यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ १३ ॥

वाक इन्द्रियों को मनस में और मनस को शुचि ज्ञान में,
शुचि ज्ञान को फ़िर आत्मा और आत्मा महिम महान में।
इस भांति जो भी जो भी निरुद्ध और विलीन करते आत्मा,
स्थिर वे स्थित प्रज्ञ हैं और पाते हैं परमात्मा॥ [ १३ ]

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ १४ ॥

लाभान्वित हो मानवों तुम ज्ञानियों के ज्ञान से,
तुम उठो जागो और जानो ब्रह्म विधान से।
यह ज्ञानं ब्रह्म का गहन दुष्कर, बिन कृपा अज्ञेय ही,
ज्यों हो छुरे की धार दुस्तर, ज्ञानियों से ज्ञेय है॥ [ १४ ]

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥ १५ ॥

प्रभु,रूप,रस,स्पर्श,शब्द व गंध हीन महिम महे,
आद्यंत हीन असीम अद्भुत,नित्य अविनाशी रहे।
यह ब्रह्म तो जीवात्मा से श्रेष्ठतर ध्रुव सत्य है,
पुनरपि जनम और मरण शेष हों, ज्ञात जब प्रभु नित्य हो॥ [ १५ ]

नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तँ सनातनम् ।
उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥ १६ ॥

शुचि उपाख्यान सनातनम, यमराज से जो कथित है,
यह ज्ञानियों द्वारा जगत में, कथित है और विदित है।
इस नाचिकेतम अग्नि तत्व का श्रवण, अथवा जो कहे,
महिमान्वित होकर प्रतिष्ठित, ब्रह्म लोक का पद गहें॥ [ १६ ]

य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते ।
तदानन्त्याय कल्पत इति ॥ १७ ॥

जो ब्राह्मणों की सभा आदि में , शुद्ध होकर सर्वथा
परब्रह्म विषयक परम गूढ़ के मर्म की कहते कथा।
है श्राद्ध काले श्रवण करवानें का फल अक्षय महे,
वे अंत में होते अनंत हैं,जो अनंता को गहें॥ [ १७ ]



ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः ।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ।
तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन ।
एतद्वै तत् ॥ १ ॥

ब्रह्माण्ड रूप है, वृक्ष पीपल का सनातन काल से,
उर्ध्व मूल अधो है शाखा,मूल ब्रह्म विशाल से।
ब्रह्म तत्व विशुद्ध अमृत, लोक उसके आधीन है,
नचिकेता यही वह ब्रह्म जो ब्रह्माण्ड में आसीन है॥ [ १ ]

यदिदं किं च जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम् ।
महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २ ॥

इस दृश्यमान जगत का कारण ब्रह्म पुरुषोत्तम अहे,
अतिशय दयालु प्रभु तथापि, भय स्वरूप भी है महे।
परब्रह्म का यह महत भय मय रूप जो भी जानते,
तत्वज्ञ वे होते अमर, विधना की विधि पहचानते॥ [ २ ]

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥ ३ ॥

भय स्वरूप के भय से ही तो तप्त होती अग्नि है,
भय से ही तो सूर्य तपता और धरा में ध्वनि है।
इसी भय से इन्द्र वायु मृत्यु देव भी प्रवृत हैं,
सब ध्रुव नियम नियमित इसी से सृष्टि में आवृत हैं॥ [ ३ ]

इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्षरीरस्य विस्रसः ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥ ४ ॥

शेष मानव जन्म होने से पूर्व अति, अति पूर्व ही,
यदि भजन साधक कर सके तो जन्म पाये अपूर्व ही।
बिन भजन साक्षात्कार के,यह जन्म व्यर्थ है सिद्ध है,
पुनि विविध योनी लोक में, वह कल्पों तक आबद्ध है॥ [ ४ ]

यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके ।
यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके
छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥ ५ ॥

दर्पण में आकृति यथा बिम्बित, ब्रह्म अंतःकरण में,
गन्धर्व लोक में,ब्रह्मलोक में, और दिवि संवरण में।
धुप और छाया की तरह परमात्मा दृष्टव्य है,
यथा स्वप्न में और जल में, दृश्य दिव्य के भव्य हैं॥ [ ५ ]

इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत् ।
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥ ६ ॥

बहु विविध रूपों में इन्द्रियों की जो पृथक सत्ता मही,
उनकी उदय लय की प्रवृति अति पृथक न जाए कही।
पर आत्मा का स्वरूप उनसे है विलक्षण सर्वथा,
शुचि, नित्य, चेतन, एक रस और न बदलने की प्रथा॥ [ ६ ]

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ॥ ७ ॥

मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ अति तो मन से बुद्धि श्रेष्ठ है,
है श्रेष्ठ बुद्धि से आत्मा , जीवात्मा अति श्रेष्ठ है।
जीवात्मा से श्रेष्ठ अतिशय ,प्रकृति का वह अंश है,
अव्यक्त शक्ति और प्रकृति से ही बंधा जीवंश है॥ [ ७ ]

अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ॥ ८ ॥

आकार हीन अव्यक्त व्यापक दिव्य पुरुषोत्तम महे,
को जान, बन्धन मुक्त जीव हो, दिव्य सुख कैसे कहें।
आनंदमय अमृत स्वरूपी ब्रह्म ईशानं महा,
है सर्वदा अन्तःसमाहित, मूढ़ मति कहता कहों॥ [ ८ ]

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ ९ ॥

प्रत्यक्ष रूप में विषय चक्षु का,ब्रह्म तो न कदापि है,
अनुपम, अगोचर, ब्रह्म, नित, सर्वत्र व्याप्त तथापि है।
वह सतत चिंतन, ह्रदय निर्मल,बुद्धि ध्यान के योग से,
मिलता जिसे ,छूटे वही, बहु जन्म मृत्यु के भोग से॥ [ ९ ]



शनिवार, 5 अप्रैल 2025

★-श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★

..✍
             

      ★-श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★


पुस्तक "श्रीकृष्ण साराङ्गिणी" को लिखने का मुख्य उद्देश्य भक्त और भक्ति की यथार्थता तथा परं प्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा सृष्टि रचना और उसके विस्तार को बताते हुए सर्वव्यापी श्रीकृष्ण के गुणातीत व निर्विकल्प स्वरूपों और उनके लौकिक व पारलौकिक यथार्थ जीवन के गूँढ़ रहस्यों को बताना है। इसके साथ ही भूतल पर उनकी अद्भुत लीलाओं का वर्णन करना है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों का गोलोक से भूतल पर आगमन और प्रस्थान की वास्तविक घटनां क्रम का वर्णन, भूतल पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण सहित गोपों की जाति विषयक- वंश, वर्ण एवं कुल की वास्तविक जानकारी देना ही है।
इसका सम्पूरक उद्देश्य श्रीकृष्ण जीवन के लौकिक व पारलौकिक चरित्र विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक मिथक टिप्पणियों का शास्त्रीय विधि से उत्तर देकर सम्यक समाधान करना है। इस हेतु यह पुस्तक अपने बहुआयामी उद्देश्यों की प्राप्ति में एक सफल प्रयास है।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तक वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त-गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा-स्थल पर रखकर उनकी उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इस पुस्तक में श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का सचित्र वर्णन किया गया है, जो अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई उन परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।
इस पुस्तक के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय, सन्त हृदय गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज भूमिकात्मक रूप में सदैव उपस्थित रहे हैं। एतदर्थ उनका साधुवाद।

निर्देशक एवं मार्गदर्शक- गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज
        
              फोटो - 🔲

लेखक- गोपाचार्य हंस- माताप्रसाद

               फोटो - 🔲

गोपाचार्य हंस- योगेश कुमार रोहि-
       
             फोटो - 🔲




               

            
_______
             

              ✴️ श्रीकृष्ण- स्तुति ✴️
         (   praise of shri krishna )

वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम् सर्व लोकै रभिनन्दनीयम्।  कर्मस्यफल इतितेनियम कर्मेच्छा सङ्कल्पोवयम्।।१               
भक्त-भाव सुरञ्जनम् राग-रङ्ग त्वं सञ्जनम्।
बोधशोध मनमञ्जनम् नमस्कार खलभञ्जनम्।। २।

मयूर पक्ष तव मस्तकम् मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्।
ज्ञानरश्मि त्वंप्रभाकरम् गुणातीत गुरुगुणाकरम्।। ३।   

नमामि याम: त्वमष्टकम् हरि शोक अति कष्टकम्।
भवबन्ध मम मोचनम् सर्व भक्तगण रोचनम् ।। ४।    
  
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम् लभेमहि जीवन धनम्।
रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम् सकलसिद्धी: त्वमर्जकम्।। ५।
    
कृपासिन्धु गुरुधर्मकम् नमामि प्रभु उरुकर्मकम्    
इन्द्रयजन त्वंनिवारणम् पशुहिंसा तस्याकारणम् ।। ६।

स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् सदा विराजसे त्वं व्रजम्।
दधान ग्रीवायां मालकम् नमामि आभीर बालकम्।। ७

कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् ते आपीड केकीपणम् । 
कृषाणु शाण हल कर्पणम् वन्दे कृष्णसंकर्षणम्।। ८।   

गोप-गोपयो रधिनायकम् वैष्णवधर्मस्यविधायकम्।
 व्रजरज ते प्रभु भूषणम् नमामि कोटिश: पूषणम्।। ९।   

निष्काम कर्मं निर्णायकम् सुतान वेणुलयगायकम्। दीनबन्धो: त्वंसहायकम् नमामि यादवविनायकम्।१०              
किशोर वय- सुव्यञ्जितम् राग रङ्ग शोभित नितम्।
नमस्कार प्रभु सद्व्रतम पेय ज्ञान गीतामृतम् ।। ११
   
वन्यमाल कण्ठे धारिणम् नमामि  व्रज विहारिणम्।
वैजयन्ती लालित्यहारिणं लीलाविलोल विस्तारिणं।१२।

"अनुवाद:- १-१२
वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय (वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया। १।

अनुवाद:- भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले, राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले, खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले सुदर्शनधारी प्रभु श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।२।

अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य) है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार हो।३।

अनुवाद:- हे गिरधारी ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो। संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे गोविन्द ! मैं तुझे नमन करता हूँ।४।

अनुवाद:- हे कृष्ण ! तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।

अनुवाद:- कृपा के सागर, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु और महान कर्मों के कर्ता प्रभु गोविन्द को हम नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र का यजन (पूजा) बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का  कारण था।६।

अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज (मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज (गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ।७।

अनुवाद:- हे कृष्ण ! तुम गोप और गोपियों के अधिनायक
(मार्गदर्शन करने वाले), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले, तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो। प्रभु तुम्हें हम कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं।९।

अनुवाद:-  संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले, दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं।१०।

अनुवाद:-  गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग-रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले हे गोपेश्वर श्रीकृष्ण ! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने  योग्य है।११।

अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले भगवान केशव को हम नमस्कार करते हैं।१२।

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖  

                     
            ( श्रीकृष्ण- वन्दना )


अग्रं पृष्ठञ्च सर्वतोमुखं सच्चिदानन्दं सर्वतोखं।
नमोऽस्तु य: विनष्यति दारिद्रवं दुर्दीर्घदु:खं।।१।।

अनुवाद:- आगे-पीछे और सब ओर विराजमान सत चिद् और आनन्द स्वरूप वाले सर्वत्र गमन शील प्रभु को नमस्कार है। जो भय, ताप, और दीर्घ दु:खों को नष्ट करता है।१।

जडजङ्गम चेतन स्थावरम् आद्यन्ताश्च न्यूनञ्च पुरुम्।
अमूनि सर्वाणि तवेव ह त्वमेव सहर्षेण स्वीकुरु।।२।।

अनुवाद :- हे परमेश्वर श्रीकृष्ण ! जड़-चेतन, चल-अचल, आदि-अन्त, कम और अधिक, सब कुछ तुम्हारा ही है। उसे  सहर्ष स्वीकार करो।

ज्ञानपुञ्जं  प्रवासिकुञ्जम् मुरलीमधुरं तत्र कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम् अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।

अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब-वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान्- श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।।३।

सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्।।
जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता: अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।

अनुवाद :- हे केशव ! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन) संसार के सभी प्राणियों में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किन्तु बकवादी और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते हैं।४।

जले तरङ्गैव नवनीता पुनीता प्रसूयते दुग्धैव च।
इदं जगद् हिमवद् वाष्परूपाय प्रभवे नुम:।।५।

अनुवाद- जल में तरङ्गों के समान दुग्ध में नवनीत (मक्खन) के समान और वाष्प से हिम के समान जिस परमेश्वर से यह संसार उत्पन्न हुआ है हम उसे नमस्कार करते हैं।५।



➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
 
✴️ परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना व ध्यान कैसे करें ✴️
 How to worship and meditate on Lord  Krishna.
 

परमेश्वर की भक्ति में वन्दना और ध्यान एक ही उद्देश्य के दो साधन हैं। जिसमें वन्दना भक्ति की प्रथम सीढ़ी या कहें वह पाठशाला है जहाँ भक्त विविध क्रियाओं से परमेश्वर को साकार मानकर अपना तन, मन, धन, सबकुछ अर्पित करता है। इन क्रियाओं से भक्त के अन्दर समर्पण और प्रेम का भाव जागृत होता है, और यही भाव जब पराकाष्ठा को पहुँच जाता है तब भक्त परमेश्वर को अपने ध्यान में लेने का प्रयास करता है। यह भगवत् प्राप्ति का दूसरा व अन्तिम साधन है, जो साधना में परिवर्तित हो जाता है। जिसमें भक्त गोपाचार्य गुरुओं की सहायता से परमेश्वर श्रीकृष्ण को ध्यान में लेने का अभ्यास करते हुए अन्ततोगत्वा श्रीकृष्ण को प्राप्त कर ही लेते हैं।

क्योंकि ध्यान ही परमेश्वर श्रीकृष्ण को पाने का अन्तिम विकल्प है। पूजा-पाठ, वन्दना, स्तुतियाँ इत्यादि ध्यान के प्ररम्भिक व सहयोगी साधन हैं। इससे निश्चय ही परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रति भक्ति और समर्पण की भावना का उदय होता है। इसलिए प्रारम्भिक स्तर पर ये सब करना भी चाहिए।
किन्तु ध्यान रहे ये सब करते समय किसी तरह का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहें हैं कैसे कर रहें हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि- भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं किन्तु बिना भाव व प्रेम के चढ़ाया गया कुछ भी नहीं स्वीकार करते।
इसीलिए कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की भक्ति अत्यन्त सहज और स्वाभाविक है। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक -(२६) में स्वयं कहे हैं कि -
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।।


अर्थात् - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, इत्यादि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात् स्वीकार कर ही लेता हूँ।२६।

कुल मिलाकर परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति को पाने की  प्रथम अनिवार्यता हृदय की भावनाओं और मन के विचारों की पवित्रता ही है। इसके लिए निस्वार्थ व शुद्ध मन से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करके निम्नलिखित तीन मन्त्रों का बार-बार उच्चारण करना चाहिए।


               🔆 श्रीकृष्ण मन्त्र 🔆

(१)- प्राप्तवानस्मि भवतोऽऽश्रयम्,परित्यज्य कामानानि सर्वाणि।
 मह्यम दत्वा चरणेषु स्थानम्, अनुग्रहाण मयि हे चक्रपाणि ।।

(२)- सर्वज्ञं सर्वरूपं  सर्वकार्य-कारणम्।
      शरणं प्रपद्ये हरे ! तापत्रयं  हारणम् ।।

(३)- यदुपुङ्गवं केशवं, गोलोके  विराजितम्।।
       विधायकं नायकं शरणं प्रपद्ये मार्जितम्।

अनुवाद:- १,२,३
(१)- हे चक्रधारी ! मैंने सभी सांसारिक कामानाओं को त्याग कर आपकी शरण ली है; मुझे अपने चरणो में स्थान देकर अनुग्रहीत करें।

(२)- सबकुछ जानने वाले, सभी रूपों में व्याप्त, सम्पूर्ण कार्य और कारण में विद्यमान, तीन तापों का हरण करने वाले सर्वरूपमयी हरि नाम वाले भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण में जाता हूँ।

(३)- गोलोक में विराजमान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन और विधान करने वाले, भक्तों का मार्गदर्शन करने वाले।यादव श्रेष्ठ विशुद्धत्तम भगवान श्रीकृष्ण की हम शरण लेते हैं।

✴️  यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता है; तो वह मन्त्रों के हिन्दी अनुवाद को ही भक्तिभाव से पढ़कर श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता है। ऐसा करने से उस पर कोई दोषारोपित नहीं होगा।
किन्तु ध्यान रहे उपर्युक्त तीनों मन्त्रों या उसके अनुवादों को किसी ऐसे से न पढ़वायें जो परमेश्वर के ध्यान और ज्ञान से रहित हो जैसे 
विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥

"अनुवाद:- वेद ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से स्वयं श्राद्ध कार्य कर लेना उचित है। किन्तु मूर्ख (अज्ञानी) ब्राह्मण से कभी श्राद्ध या कोई धार्मिक कार्य नहीं कराना चाहिए ।३७।
देवी भागवतपुराण तृतीय स्कन्ध के अध्याय-(१०) के निम्नलिखित श्लोकों में कही गई है कि-

कोई धार्मिक कार्य  उनसे कुछ करवायें क्योंकि इन मन्त्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है ; जानकारी प्राप्त कर पाठकगण वहाँ से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]
ऐसा करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह श्रीकृष्ण का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर परमेश्वर श्रीकृष्ण का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
ईश्वर: पादौ विना गच्छति, कर्णौ विना श्रृणोति, हस्ताभ्यां न कृत्वा अपि, सः विविधं कार्याणि करोति।
अर्थात् कार्यं अत्र किमपि कारणं विना क्रियते।
"वह परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहाँ बिना किसी कारण के ही कार्य होता है।
यही परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति की वास्तविकता और भक्त की वास्तविक स्थिति है।

                  जय श्रीकृष्ण

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

विषय सूची

                         अध्याय-
(१)- पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।
     [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
     [ख] -तैंतीस (३३) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
     [ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।            
     [घ] - शिव पूजा के लाभ।    
     [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
     [च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
     [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
     [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
     [झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन।
     [ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।

(२)- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन।

(३)- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या  परमशक्ति नही है।

(४)- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा   आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

(५)- भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल  में उनका अवतरण।

(६)- गोप-कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक   व्यक्तियों का परिचय।
     भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय।
     भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
     भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय।
     भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय।

(७)- गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपतियों का परिचय।
      भाग- (१) महाराज यदु का परिचय।
      भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
      भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज।

(८)- यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक               गमन।
     भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
     भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।

(९)- यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र।
     भाग- (१) जातियों की मौलिकता (Originality) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति।

   भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।
       [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
       [ख]- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
       [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।      
  भाग- (३) यादवों का वंश।
  भाग- (४) यादवों का कुल।
  भाग- (५) यादवों का गोत्र।

(१०)- यादवों का वास्तविक गोत्र कार्ष्ण है या अत्रि ?

(११)- वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व।
     भाग- [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ) कर्म-
        (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
        (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
         (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
         (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।
      भाग-[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
      भाग-[३] गोपों का वैश्य कर्म।
      भाग-[४] गोपों का शूद्र कर्म।

(१२)- वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा एवं सांस्कृतिक विरासत।
       भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।

       भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।
          (क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
          (ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
          (ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की देन है। 
          (घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
          (ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।


➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

                      "अध्याय- प्रथम (१)

पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को  सुनने व कहने के दुष्परिणामों का वर्णन।

इस अध्याय के सम्पूर्ण प्रसंगों को क्रमबद्ध पद्धति से जानने व समझने के लिए निम्नलिखित- (दस) प्रमुख शीर्षकों में विभाजित किया गया है -

[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] - तैंतीस (३३) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।            
[घ] - शिव पूजा के लाभ।    
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन।
[ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।

➖➖➖➖➖➖➖➖

  ✴️ परमेश्वर की सार्थकता व पहचान ✴️      
                           
आध्यात्मिक जीवन में कुछ पाने की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो सक्षम और सामर्थ्यवान हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे सबकुछ प्राप्त हो सकता ? तो इसका सम्यक उत्तर है सर्वशक्तिमान परिपूर्णतम परंब्रह्म, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी से कुछ पानें की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि परिपूर्णतम "परंब्रह्म" कौन है ?
                   
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किन्तु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से उस परमात्मा परिपूर्णतम "परंब्रह्म" की विशेषताऐं और परिभाषाऐं निर्धारित की हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण मानता है, तो कोई उसे सगुण मानता है।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही  में मानता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।

इन उपर्युक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे (वृत्त) में परिबद्ध करके कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण है या दोनों है। किन्तु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनन्त गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि (प्रारम्भ) है न अन्त है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प सविकल्प, निर्लिप्त, लिप्त, प्रारम्भ, अन्त, अनन्त, शून्य, सर्वज्ञ, और सर्वव्यापी इत्यादि जितने भी विशेषण पद हैं  वे सभी अपूर्णार्थी व बहुत ही कम है। शास्त्रों का अनुशीलन (गहन अध्ययन) करने के पश्चात निष्कर्षत: भगवान श्रीकृष्ण में ये परिपूर्णताऐं परिलक्षित होती हैं।
            
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सब-कुछ हैं तो इस माया नगरी में जहाँ अनेकों छद्म- वेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों। तो ऐसी विकट-आडम्बरपूर्ण एवं भ्रान्त स्थिति में अनन्त गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यही परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं ?
             
✳️ तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय-(दो) और (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परम-प्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही हैं। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहाँ से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
               
फिर भी यहाँ पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्रीकृष्ण ही परम प्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनन्त गुण हैं; और उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
                      
जहाँ तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है, तो वे ही परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किन्तु जब वे सृष्टि का सृजन करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-(४) के श्लोक संख्या- (७) में होती है- जब परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। ७।

अनुवाद:- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ। अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।७।
                
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति कहते हैं कि-

परंब्रह्म  परंधाम  पवित्रंपरमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।
            

अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
               
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।              
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७) और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने विषय में बताते हुए कहते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।१६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। १८।
         
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ। (१६-१७-१८)

इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (४२) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-

अथवा बहुनैतेन  किं ज्ञातेन  तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।


अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है ? मैं अपने किसी एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
             
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- तैंतीस (33) कोटि देवी-देव सभी उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश-भूत शक्तियाँ, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या- (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।१९।
                                    
अनुवाद- १७-१८-१९
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेषधारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही  शरीर धारण करते हैं।१७।
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनिगणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हास्य (हंसी) और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाला है।१९।                
▪️कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गईं हैं जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।४३।     
     
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
                  
▪️कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - (३०) के श्लोक संख्या- (६ ) से (८) में भगवान श्रीकृष्ण को परंप्रभु परमेश्वर के रूप में बतायी गयी हैं। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट-विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं। देखें निम्नलिखित श्लोक-

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।६।

यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।७।

सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम्।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।८।
                
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विन्द का अत्यन्त आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष हैं और विराट- विष्णु और छुद्र विष्णु भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

• सहस्र शिरों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठा हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
                   
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई हैं। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-

"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।
                     
अनुवाद -उस विराट-विष्णु के रोम-कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवगण, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
                      
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परंब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देव उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियाँ हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।

[ख] -तैंतीस कोटि देवों में किसकी पूजा करें ?  

तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परंब्रह्म हैं तथा सर्व सामर्थ्यवान हैं। तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देव- देवीयों की पूजा क्यों करता है ? तो इसका उत्तर है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखण्डवाद के भ्रमजाल में फँसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करें या उनसे उत्पन्न तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों की।
इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता है कि- किस देवी-अथवा देव की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर सहज ही मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस बात को प्रमुख देवों ने भी स्वीकार किया। जैसे -

शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। जो शिव-पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परं-ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्हीं की आराधना करो।४९।

इस प्रकार  यहाँ उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। क्या इससे भी बड़ी और कोई देव वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है जो भगवान श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम होने को प्रतिपादित करे ? तो एक ही उत्तर होगा नहीं।
         
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक संख्या- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।
            
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे, निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।

परन्तु प्रश्न यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवों के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका भी सम्यक उत्तर है कि - लाभ अवश्य है, किन्तु वह लाभ सीमित व क्षणिक ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवों को

पूजने वाले देवों को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजनें वाले भूतों और प्रेतों को पूजने वाले प्रेतों को ही प्राप्त होंगे और जो परमेश्वर को पूजेगा वह निश्चय ही परंब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को ही प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय- (७) के श्लोकसंख्या - (२३) में स्वयं कहा हैं कि -

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।

अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवों की आराधना का फल भी अन्त वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवों का पूजन करने वाले देवों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।

ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

अनुवाद - देवों का पूजन करने वाले देवों को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।
      
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय नवम (९) के श्लोक-संख्या -३४ में कहते हैं कि -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। ३४।।

अनुवाद - हे अर्जुन ! तुम मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (मुझको समर्पित) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।३४।

और इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१८) के श्लोक संख्या (६५) और (६६) में भी कहा है कि-

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे। ६५।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। ६६।

• तू मेरा भक्त होजा, मुझ में मनवाला होजा, तू मेरा पूजन करने वाला होजा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।६५।
• सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।६६।
     
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।२६।


अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ।२६।

व्याख्या - देवों की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्रीकृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम (भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।

अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपर्युक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर-उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है ? तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवीयों की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
         
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवों से मिलने वाले लाभों को भी जानेंगे।

[ ग ]- श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ- 
श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और ( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के विषय में बताया गया है कि -

"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।

वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद्‌ ध्रुवम्॥७०।

अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जब तक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठ लोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।

यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घकाल के लिए वैकुण्ठधाम को तो प्राप्त कर लेतें हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि वे दीर्घकाल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेते हैं।
अर्थात् वह अभी भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकतें है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका उत्तर इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।*
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।*
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।

अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
              
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से वे भक्त, श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे इसमें सन्देह नहीं है।

✳️- ज्ञात हो मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। इसके बारे में विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (११) के भाग- दो में दी गई है।
          
किन्तु देवी-देवों को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवों के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -     
  
[घ] -शिव पूजा के लाभ-            
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।

शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥७२।

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।

चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्‌करं योऽर्चयेद्‌व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।

मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥७५।

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं च पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥११०।

मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्॥१११।
              
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१।
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र (बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है, और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।

• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।

• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव (मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
        
उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किन्तु वह उस लोक तक नहीं पहुँच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किन्तु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहाँ स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है)।

[ङ]-विष्णु पूजा के लाभ-
 
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय-(३०) के श्लोक- (१०५) और (१०६) में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?

विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते॥१०५।

युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥१०६।
               
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्रीहरि (छुद्र विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है, और वहाँ से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
              
विष्णु भक्तों से समन्धित उपर्युक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होते हैं और वे विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करते हैं। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उन्हें पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक को प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते हैं।

✳️-"यहाँ पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। देखा जाए तो गुण विशेष के आधार पर विष्णु के तीन रुप हैं या कहें तीन प्रकार के विष्णु हैं-

(१)- स्वराट विष्णु (परिपूर्णतम् विष्णु)- जो गोलोक में श्रीकृष्ण नाम से अपने परिपूर्णतम् अंशों के साथ विराजमान हैं। उन्हें ही परिपूर्णतम् परंब्रह्म या स्वराट विष्णु कहा गया है।
परमेश्वर श्रीकृष्ण को स्वराट अर्थात् परिपूर्णतम् परंब्रह्म होने की पुष्टि- भागवत पुराण- (७/१५/५३-५४) से होती है।

ॐकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम्।। ५३ (उत्तरार्द्ध)
अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट्।
विश्वोऽथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ।।५४।


अनुवाद- वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर गोलोक में स्वराट्-विष्णु अर्थात् परमेश्वर श्रीकृष्ण के लोकमें पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक 'विश्व' अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक 'तेजस' हो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधिको कारण में लय करके कारणोपाधिक 'प्राज्ञ' रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूप में कारणोपाधि का लय कर के 'तुरीय' रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जाने पर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ ५४


इसी तरह से परमेश्वर श्रीकृष्ण को स्वराट अर्थात् परिपूर्णतम् परंब्रह्म होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध का प्रथम अध्याय (मंगलाचरण) के प्रथम श्लोक से भी होती है।

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ते यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।।१।


अनुवाद:- स्वराट् जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं- क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत (समाया हुआ है) और असत् पदार्थों से पृथक् है। वह जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वतन्त्र (परिपूर्णत्तम) है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें भी अपने संकल्प से ही जिसने  वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में

बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्र सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं की ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परंब्रह्म का हम ध्यान करते हैं ॥१॥  
(सम्पूर्ण सृष्टि का सञ्चालन सैद्धान्तिक है और यह सिद्धान्त कर्म-फल आधारित है। और कर्म का अस्तित्व भी अहं, संकल्प और इच्छाओं की दृढ़ता पर अवलम्बित है । अहं से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का उदय ( प्रवृत्तिगत होकर चेतना के स्रोत चित्त के धरातल पर ही हुआ है। इस लिए चित्त ही जीवन का निर्माता तत्व है।)
प्रवृत्तियों की तुष्टिमूलक प्रेरणाओं से मनुष्य की इच्छाऐं उत्पन्न होती हैं। मनुष्य इन्हीं इच्छाओं की तुष्टि और पुष्टि के लिए जीवन पर्यन्त कर्म करता है। इन कर्मों के सम्पादन में मनुष्य से अनेक अच्छे - बुरे कर्म होते हैं जिनका फल भोगने के लिए ही उसे पुन: जन्म लेना पड़ता है।

उपर्युक्त श्लोक में स्वराट् शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ–
"स्वरेषु अटति इति स्वराट्- जो स्वरों में अर्थात् ॐकार में स्थित है। वही परंब्रह्म का वाचक है।
अथवा जो स्वयं को ही प्राप्त है। वह परमेश्वर का वाचक स्वराट् है। अथवा एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार-" स्वमेव राजयति इति स्वराज्-स्वराट्।


(२)- विराट विष्णु (परिपूर्ण विष्णु)- इन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है क्योंकि ये परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से उत्पन्न हुए हैं। ये स्थूल से भी स्थूलतम् हैं। इसीलिए इन्हें विराट पुरुष या विराट विष्णु कहा गया। इनकी विशाल शरीर के अनन्त रोमकूपों में उतने ही ब्रह्माण्ड स्थिति हैं। फिर भी ये गर्भोदकशायी विष्णु अनन्त अंश वाले परमेश्वर श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु के सोलहवें अंश के बराबर हैं।

✴️ विराट विष्णु और छुद्र विराट् विष्णु में प्रमुख अन्तरों के
बारे में गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने श्रीराधा जी को ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६६) के श्लोक संख्या (५५ और ५६) में कुछ इस तरह से बताएं हैं-
भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।


अर्थात्- वह महाविराट् ही मेरा (सोलहवां) अँश है और तुम (राधा) अपने (सोलहवें अंश) से "महतीलक्ष्मी" के रुप में उसकी पत्नी (कामिनी) भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह छुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५५।
छुद्र विराट् विष्णु के रोमकूपों में मेरा आंशिक (एक वंश) से निवास है। तुम्हीं अपने एकांश से वहाँ अर्थात् क्षीरसागर
में (लक्ष्मी) रूप से उसकी पत्नी हो।५६।।

(३)- छुद्र विष्णु (पूर्ण विष्णु)- गर्भोदकशायी विष्णु यानी विराट विष्णु के अनन्त रोमकूपों में जितने ब्रह्माण्ड स्थिति हैं उनमें उतने ही क्षुद्र विष्णु यानी पूर्ण विष्णु- परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक-एक अंश को धारण किए हुए रहते हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। इनकी संख्या अनन्त है।

✴️ ज्ञात हो- तीन प्रकार के विष्णु के भेद और उसी क्रम में उनकी तीन पत्नियाँ- परमा लक्ष्मी (राधा), महतीलक्ष्मी तथा लक्ष्मी। के बारे में अधिकांश लोगों को पता नहीं हैं। यही कारण है कि सौरमण्डल के अधिकांश पृथ्वीवासी विशेषकर ऐसे अज्ञानी कथावाचक श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु को छुद्र विष्णु से उत्पन्न बताकर ज्ञान की उल्टी धारा बहाते हैं।

उपर्युक्त तीनों प्रकार के विष्णु की तुलनात्मक स्थिति तथा कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है, इत्यादि की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय-
(३ और ४) में दी गई है। वहाँ से पाठक गण अपने समस्त संशयों को दूर कर सकते हैं।


[च]-श्रीराम पूजा के लाभ- 

"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥

अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।

अब यहाँ पर श्रीराम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक यानी छुद्र विष्णु के लोक
को प्राप्त होता है। किन्तु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किन्तु यहाँ पर यदि विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुँच कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है जहाँ परिपूर्णतम् परंब्रह्म श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु रहते हैं। जो सभी लोकों से उपर है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।   
 
✳️ ज्ञात हो उपर्युक्त श्रीराम भक्तों के श्लोकों से सिद्ध होता है कि श्रीराम और छुद्र विष्णु यानी पूर्ण विष्णु में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी हिसाब से रामभक्त विष्णु लोक तक जाता है। जैसे अन्य देवताओं के भक्त उनके ही लोक तक जातें हैं। जैसे शिव भक्त- शिव लोक को, तथा श्रीकृष्ण भक्त गोलोक को प्राप्त होते हैं। यहीं श्रीकृष्ण और अन्य देवों की भक्ति में अन्तर है इसको जानना चाहिए।
इसी अन्तर को ध्यान में रखकर भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में अर्जुन को अपने और देवताओं की भक्ति में भेद को बताते हुए कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। २५।।

अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२५।

और इस बात को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं कि परमेश्वर श्रीकृष्ण कौन से विष्णु हैं। और इसी अज्ञानता वश कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं। इसी अज्ञानता वश कभी-कभी श्रीकृष्ण को छुद्र विष्णु से उत्पन्न करा देते हैं।
इस तरह के समस्त संशयों का सम्पूर्ण समाधान इस पुस्तक के अध्याय- (२)- (३) और (४) का अध्ययन करने से हो जाएगा।

अब हमलोग इसी क्रम में कुछ देवियों के पूजा अर्चना से होने वाले लाभों को जानेंगे-

[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ-

"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्माजी की पत्नियाँ मानीं जाती हैं। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (९७ से ९९) में बताया गया है कि- देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥९६।

महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥९७।

चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।

संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥९९।
                
अनुवाद - ९६-९९ • जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।

• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के आयुपर्यन्त मणिद्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
           
उपर्युक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्माजी की दोनों पत्नियों के भक्त- ब्रह्माजी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते हैं जो शिवलोक और वैकुण्ठलोक से बहुत नीचे है। किन्तु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।

अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं और अल्प समय तक उन्हीं के लोक में रहकर पुनः अपने लोक (भूलोक) में वापस आ जाते हैं। अर्थात वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते।

किन्तु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति को प्राप्त कर गोलोक वासी हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है, और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है। 


[ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?

तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवों को पूजने का परिणाम अल्प ही है, तो मनुष्य परिपूर्णतम परंब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त (३३) तैतीस करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परंब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना ही है। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परंब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल चार लोगों को ही है- पहला पञ्चमुखी शिव, दूसरा- श्रीराधा और तीसरा-  गोलोकवासी और  चौथे गोप- गोपियाँ।
बाकी तैंतीस (३३) करोड़ देवी-देवों सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।।८२।


किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।         

                                  
अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा, गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानतीं हैं।

✴️ प्रस्तुत श्लोक में 'च' अव्यय पद का प्रयोग और अथवा ( and) के अर्थ में पदों के समाहार के लिए हुआ है। इस लिए (च) का अर्थ- "और" होता है। गोपी-गोप और गोलोकवासी " ही कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गोपी और गोप के अतिरिक्त गोलोक वासी कौन हैं ?
तो इसका समुचित उत्तर होगा कि गोलोक वासी से तात्पर्य उन तपस्वियों से है जो अपने तपोबल से गोलोक में  पहुँचते हैं। किन्तु गोप और गोपियाँ - श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उत्पन्न होने के कारण पहले से ही गोलोक वासी हैं। और भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों के साथ सदैव गोप भेष में रहते भी हैं और इन्हीं गोपियों को लेकर भगवान श्रीकृष्ण भूतल पर आते-जाते हैं।

• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।  
              
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -ब्रह्मखण्ड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।९।

अनुवाद:- गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। अर्थात् कमल-मुखवाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमलमुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
             
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों एवं रहस्यों को बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्रीकृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है ? या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
                     
तो इसका समुचित समाधान है- जो सदैव श्रीकृष्ण के सान्निध्य (पास) में रहता हो, जो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को जानता हो, वही इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। इस प्रकार ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल चार लोग- (१)- शिव जी (२)- श्रीराधा (३)-गोलोकवासी और (४)गोप- गोपियाँ ही जानते हैं।
           
अब इन सब में देखा जाए तो प्रथम क्रम पर भगवान शिवजी आते हैं, जो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को सम्यक रूप से जानते हैं। तो क्या शिवजी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्रीकृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्रीकृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है कि- शिव ने भक्तों को कृष्ण कथा सुनायी है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्रीकृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताते हैं। वह भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर। इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के

अध्याय - (४८) के निम्नलिखित प्रमुख श्लोकों में मिलती है। जो पार्वती -शिव संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती जी शिवजी से कहतीं हैं कि -

तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम्।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम्।१४।

आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल।१५।

कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः।१६।

पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।

सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च सम्प्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः।१८।

निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः।१९।

मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि। २०।

मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम्।२१।

जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।

              
अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए। भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्ता (भक्तिनी) हूँ अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताऐं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)

• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिन्ता में पड़ गए।१७।

•  तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धांगस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था।१८-१९।

• परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है।२०-२१।

• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ सुनो।२२।

✳️ पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहाँ से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।
               
अतः इस उपर्युक्त प्रसंग से तो यही सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्रीकृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?

अब रही बात श्रीराधा जी की। क्योंकि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्रीराधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूल द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही परंब्रह्म रूप हैं। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। दूसरी बात यह कि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो। अर्थात् भूतल पर श्रीकृष्ण कथा कहते हुए श्रीराधा को कभी नहीं देखा गया।

अब रही बात तीसरे क्रम पर गोलोक वासियों की।  तो आज तक कभी ऐसा नहीं सुना गया कि गोपों के अतिरिक्त और कोई गोलोक वासी भी कभी भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहें हों। और यह सम्भव भी नहीं है क्योंकि गोलोक वासी श्रीकृष्ण के गोलोक में अपने तपोबल और ज्ञानबल से ही पहुँचते हैं। और वे श्रीकृष्ण के मर्म को जानते भी हैं। किन्तु वे भूतल पर श्रीकृष्ण के साथ कभी नहीं आते है। केवल गोप और गोपियाँ ही श्रीकृष्ण के लीलासहचर बनकर भूतल पर आते हैं। इसके विषय में आगे यथास्थान बताया गया है।
          
अब रही बात चतुर्थ क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भली-भाँति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीकृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। और भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपनी लीलाऐं किया करते हैं।

(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहाँ से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।
             
अतः उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि - "श्रीकृष्ण कथा" को केवल गोप और गोपियाँ ही भावपूर्ण विधि से कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। अतः सम्यक तर्कों से सिद्ध होता है कि- "श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हो सकते हैं।

क्योंकि उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। बस आवश्यकता है- उन्हें श्रीकृष्ण का ध्यान व योग से उस सुषुप्त ज्ञान को अपने अन्त:करण में प्रकाशित करने की। और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में प्रकाशित होगा, उसी क्षण वह श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएँगे। चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो जाए। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -

"कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।
                        

अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा, गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानतीं हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कृष्ण भक्ति का कुछ ही ज्ञान है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३। 

✳️ किन्तु प्रश्न यह है कि गोलोक के ये गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा की इतनी सारी विशेषताओं को लिए हुए भूतल पर कैसे आये ? क्या वास्तव में गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप हैं ? क्या गोलोकवासी गोप ही भूतल के गोप,आभीर और यादव हैं ? गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा क्यों नहीं कह पाता ? ऐसे ही बहुत सारे प्रश्न और विचार मन में अवश्य उठ रहे होंगे। अतः इन सभी का समाधान किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा।

तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले गोप और गोपियों की उत्पत्ति और उनके वास्तविक स्वरूप एवं स्थिति इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है, किन्तु उसे संक्षेप में यहाँ भी बताना आवश्यक है।

गोपों की उत्पत्ति या जन्म के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-( ४० और ४२) में वर्णन मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव  रूपेण वेशेनैव  च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद - ४० से ४२
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

✳️ ज्ञात हो यह बात गोलोक की है, जहाँ सर्वप्रथम गोप और गोपियों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों अर्थात् उनकी सूक्ष्मतम इकाई कोशिकाओं से क्लोन विधि ( समरूपण विधि ) से हुई। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूपणी उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समान रूप वाला होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है। इसके साथ ही उसके गुण, ज्ञान और व्यवहार भी उसी के अनुरूप होते हैं। यह ध्रुव सत्य है।
कालान्तरण में जलवायु और तापमान के न्यूनाधिक अनुपातीय प्रभाव से स्थान परिवर्तन होने से गोप गोपियों की अर्वाचीन सन्तानें बाह्य शारीरिक रूप से परस्पर भिन्न हो गयी हैं परन्तु उनकी प्रवृत्तियाँ अब भी समान व प्राचीनतर हैं।

किन्तु सवाल यह है कि-  गोलोक के ये गोप और गोपियाँ भूतल पर कैसे और क्यों आये?

तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से जब भी भू-तल पर भूमि भार हरण के लिए अवतरित होते हैं, तो वे अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ ही गोपकुल में गोपों के यहाँ ही अवतरित होते हैं।

इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवों के निवेदन पर गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों को बुलाकर कहते हैं-

जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले।।
गोपानामुत्तमानां च मन्दिरे मन्दिरे शुभे।६९।।

अनुवाद - भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -गोप और गोपियों ! तुम सब भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो ।

तब श्रीकृष्ण का आदेश पाकर सभी गोप-गोपियाँ भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ-शुभ घरों में अवतरित हुए। इसकी पुष्टि- उस समय होती है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भू-तल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दुष्ट राजा से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(११ ) के श्लोक संख्या-(२१ और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहते हैं कि -

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।

अनुवाद-
नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक के गोपालगण (आभीर) जो साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियाँ जो श्रीराधा के रोमकूप से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहाँ (भूतल के ) व्रज में उतर आईं हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाऐं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुईं हैं।२१-२२।

इसी तरह से समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी श्रीकृष्ण के अँश से गोलोक में उत्पन्न हुए थे उन सभी को भू-तल पर गोपकुल के यादव वंश में भगवान श्रीकृष्ण के ही अँश रूप में अवतरित या जन्म लेने की पुष्टि- गर्गसंहिता के विश्वजित्खण्ड के अध्याय (२) के श्लोक- ७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण यादवों के विश्वजीत युद्ध होने से पहले उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

अतः उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ कि समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण के रोमकूपों (कोशिकाओं) से या कहें उनके अँश से उत्पन्न हुए थे, वे सभी भूतल पर गोपजाति के यादव वंश में श्रीकृष्ण के ही अँश से यदुवंश के एक सौ एक कुलों में प्रकट हुए हैं। ऐसी बात भगवान श्रीकृष्ण ने उपरोक्त श्लोकों में स्वयं कही हैं कि "समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं"।

इतने प्रमाणों के बाद अब कोई यह नहीं कहेगा कि गोलोकवासी" गोप-गोपियाँ- भूतल की गोप-गोपियाँ नहीं हैं।

किन्तु एक बात अभी भी कुछ लोग कह सकते हैं कि- क्या प्रमाण है कि भूतल के गोप-गोपियों को श्रीकृष्ण भक्ति का पूर्णरूपेण ज्ञान है और वे ही लोग श्रीकृष्ण कथा कहने के पात्र हैं?

तो इसका सीधा जवाब है कि जो गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अँश से या कहें उनके रोम कूपों अर्थात् उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हों और उनका सहचर बनकर सदैव सन्निकट रहते हों, तथा उनके ही साथ भूतल पर आते-जाते हों और उनके प्रत्येक कार्यों में एक साथ मिलकर हाथ बँटाते हों, तो ये गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों और रहस्यों को नहीं जानेंगे, तो क्या ब्रह्माजी के मानस पुत्र, देव और देवियाँ या ब्रह्मा जी के- मुख, हाथ, पेट और पैर से उत्पन्न चातुर्वर्ण्य के लोग जानेंगे ?
निश्चित रूप से इसका जवाब होगा- नहीं। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जितना एक पुत्र अपनी माता-पिता के जितने गुणों को लेकर जन्म धारण करता है, और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हुए अपने माता-पिता के गुण, ज्ञान और व्यवहार के बारे में जानता है, शायद ही दूसरा कोई  जानता होगा। इसी को विज्ञान की भाषा में आनुवांशिक गुण कहा जाता है जो माता-पिता से स्वाभाविक और पैतृक रूप से  प्राप्त होते हैं।

शायद इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय- (९४ ) के श्लोक-( ८२) और (८३) में लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।        

                                  
अनुवाद - ८२-८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप- गोपियाँ ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।  

ज्ञात हो उपर्युक्त श्लोक -८२ में गोपों के बारे में जो बात लिखी गई है कि- श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानती हैं। वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर ही लिखी गई है क्योंकि सभी गोप-गोपियाँ श्रीकृष्ण की कोशिकाओं (रोमकूपों) अर्थात् उनके क्लोन यानी समरूपण से उत्पन्न हुए हैं। जिसको ऊपर बताया जा चुका है।

श्रीकृष्ण और श्रीराधा के द्वारा समरूपण विधि से उत्पन्न होने से ही सभी गोप-गोपियाँ रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समान हुए थे। परन्तु आज उनमें अनेक संक्रमणों से विकृतियाँ हुईं हैं। फिर भी  वे गोप अल्प मनस्-साधनाओं के द्वारा श्रीकृष्ण कथा की पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।

इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ के आधार पर ऊपर बताया गया है। इसी गुण विशेष के कारण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२ में यह बात लिखी गई है कि-"श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियाँ ही जानतीं हैं। जो वैज्ञानिक आधार पर ध्रुव सत्य है।

गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण के पूर्ण मर्म को इस लिए भी जानती हैं क्योंकि गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय-(५९) में गोपेश्वर श्रीकृष्ण के एक हजार (१०००) नामों को बताया गया है। उसमें श्लोक- (५४, ५८ और ७२) में तीन (३) ऐसे नाम को बताया गया हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि श्रीकृष्ण गोप और गोपिकाओं को व्यक्तिगत रूप से रहस्यमयी ज्ञान दिया करते थे, जो दूसरों के लिए अति दुर्लभ एवं असम्भव है। इसीलिए श्रीकृष्ण को *"गोपिकाज्ञानदेशी"  *"रह गोपिकाज्ञानदो,"- "ज्ञानदो यादवानां," तथा "गोपमुख्यं," नाम से भी जाना जाता है। इसके लिए निम्नलिखित श्लोक देखें -

गुरोः पुत्रदो ब्रह्मविद्ब्रह्मपाठी 
महाशङ्‌खहा दण्डधृक्पूज्य एव ।
 व्रजे ह्युद्धवप्रेषितो गोपमोही
 यशोदाघृणी गोपिकाज्ञानदेशी *॥५४॥

✴️ गोपिकाज्ञानदेशी- अर्थात्= गोपिकाओं को ज्ञान देने  वाला।


स्तुतो देवकीरोहिणीभ्यां सुरेन्द्रो
     रहो गोपिकाज्ञानदो * मानदश्च ।
 तथा संस्तुतः पट्टराज्ञीभिराराद्-
     धनी लक्ष्मणाप्राणनाथः सदा हि ॥८८॥

✴️ रह गोपिकाज्ञानदो- अर्थात्=  गोपिकाओं को रहस्यमयी ज्ञान देने वाले।

नृगं मुक्तिदो ज्ञानदो यादवानां *
     रथस्थो व्रजप्रेमपो गोपमुख्यः* ।
 महासुन्दरीक्रीडितः पुष्पमाली
     कलिन्दाङ्‌गजाभेदनः सीरपाणिः ॥ ७२ ॥

✴️ ज्ञानदो यादवानां - अर्थात्= यादवों को ज्ञान व मुक्ति  देने वाले।
✴️ गोपमुख्यः - अर्थात्= गोप शिरोमणि।


इसी ध्रुव सत्य के कारण श्रीकृष्ण कथा के वास्तविक अधिकारी केवल गोप और गोपियाँ हैं बाकी कोई नहीं।


किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण कथा के लिए सभी गोप-गोपियाँ पात्र हैं। इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण कथा कहने के केवल वहीं गोप और गोपियाँ पात्र हो सकतीं हैं, जिन्होंने भक्ति, तप और योग साधना से भगवान श्रीकृष्ण के जनेटिक गुणों को अपने अन्दर जागृत कर श्रीकृष्ण का तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो उनके अन्दर पहले से ही आनुवाँशिक रूप से विद्यमान है। क्योंकि सभी गोप श्रीकृष्ण के क्लोन से उत्पन्न हुए हैं इस लिए उनके अन्दर श्रीकृष्ण का तत्व गुण पहले से ही आनुवंशिक रूप में सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, बस उसे जगाने की जरूरत है।
✳️ किन्तु ध्यान रहे- धूर्त, अज्ञानी, पाखण्डी और छद्मवेषधारी, श्रीकृष्ण गुणों से रहित "गोप-गोपियाँ" कभी भी श्रीकृष्ण कथा के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। यानी
श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी केवल श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोप और गोपियाँ ही हो सकतें हैं, अज्ञानी गोप नहीं।
            
तब पुनः प्रश्न उठता है कि क्या श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोपों के अतिरिक्त और कोई श्रीकृष्ण कथा नहीं कह सकता ? तो इसका जवाब है अवश्य कह सकता हैं किन्तु वह श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पाएगा क्योंकि वह जब भी श्रीकृष्ण कथा कहेगा तो वह अल्प ज्ञान से ही कथा कहते हुए कभी भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारें जाने की बात कहेगा, तो कभी गान्धारी और ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण को शापित होने की बात बताएगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी बताएगा कि- श्रीकृष्ण की उत्पत्ति छुद्र विष्णु से हुई है। या वह यह कहेगा कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही श्रीकृष्ण हैं। क्योंकि उसे विष्णु और श्रीकृष्ण में भेद का ज्ञान ही नहीं है किस विष्णु को श्रीकृष्ण कहा जाता है। इसके अतिरिक्त वह परंप्रभु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तरह-तरह के देव-देवियों को पूजने की बात कहेगा। क्योंकि हमने आजतक जिस किसी कथावाचक की कथा सुनी हैं, सभी ने उपर्युक्त बातों को ही बताया है। इससे अधिक वे कुछ नहीं बता पाये।
उनकी कथाओं में हमने कभी भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के बारे में नहीं सुना। जिसे हमने इस पुस्तक के अध्याय- २-३ और ४ में विस्तार पूर्वक बताया है। ऐसे में जो कथावाचक अपनी कथाओं में आधी-अधूरी और अल्प ज्ञान से आवेशित होकर श्रीकृष्ण कथा कहते हैं। उनका अन्ततोगत्वा क्या परिणाम होता है ? इसके लिए अगला प्रसंग देखें।


[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणामों का वर्णन-

शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धूर्त कथावाचकों के विषय में कहते हैं कि-
                                    
'कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु।
असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।  
                                         
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।                                            
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।  
               
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः।१९५।      
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि।
मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
                    
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः ।
पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।                           
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
                   

अनुवाद- (१९२-१९८)
• विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्रे (ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा / दींमक) होता है।१९३।
•  उसके बाद क्रमश: शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला ब्राह्मण (विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
•  तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धन्धा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों ) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६।
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम (श्रीकृष्ण) आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है।१९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढ़ा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महाचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो, कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।

अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो अपने आप ही विद्वान समझकर स्वार्थ व धनार्जन के लिए अल्पज्ञान से भगवान श्रीकृष्ण की ग़लत व झूठी कथा कहता है, वह अन्ततोगत्वा नरकगामी होता है। ऐसी बात शास्त्रों में लिखी गयी है।


[ञ]-सच्चे गुरु की पहचान-  

इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमन्त्र नहीं बल्कि कृष्णमन्त्र देने वाला हो। जो शिष्यों से स्वयं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो, यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बन्धु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताऐं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (९) अध्याय (४८)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-

यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।

दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।

गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥६७।

आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥६८।

तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।

ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।

स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।

न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥७२।

            
अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे।  गुरु वही है, जो  श्रीकृष्ण का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।

• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत (उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको  दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है। और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु (स्वराट विष्णु) अर्थात् मेरे में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है।६९-७०।
• वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यम-यातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे, और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।७१-७२।
            
उपर्युक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताऐं बताईं गई हैं- (वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बन्धनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखण्डी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरन्त त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हँसाई है।

और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्ड से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ  इस प्रकार कहता है-

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।

अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रों को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल ज्ञानी गोप और गोपियाँ ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्रीकृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है। यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं, श्रीकृष्ण कथा कहते समय श्रीकृष्ण के साथ गोप और गोलोक की चर्चा नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनके द्वारा की गई श्रीकृष्ण कथा अधुरी मानी जाती है। और इस सम्बन्ध में ऊपर बताया गया है कि कैसे आधी अधूरी श्रीकृष्ण कथा कहने वाले नरकगामी होते हैं।

इस प्रकार से परम-प्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए ? इन सभी की जानकारीयों के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहाँ स्थापित है"?।

📚

                "अध्याय द्वितीय (२)

"श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन।

यह अध्याय श्रीकृष्ण भक्तों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा तो करते हैं, किन्तु वे उनके वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक की सूक्ष्म एवं स्थूल स्थिति की चर्चा नहीं करते हैं।

इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि या तो उन्हें श्रीकृष्ण और उनके गोलोक का ज्ञान नहीं है, तथा दूसरा यह कि वे लोग अपनी कथाओं में यदि श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक के बारे में बतानें लगेंगे तो उन्हें अपने तैंतीस (३३) करोड़ देवताओं को पीछे करके श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों को आगे करना होगा। किन्तु वे लोग ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इन्हीं तैतीस (३३) करोड़ देवताओं के भ्रमजाल से अपनी कथाओं में कभी इस देव को पूजवाते हैं तो कभी उस देव को पूजवाते हुए नाना प्रकार के चमत्कार से अपने आप स्वयं भटकतेे हुए दूसरों को भी भटकाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप एवं उनके गोलोक की शूक्ष्म  एवं स्थूल स्थितियों को जानना आवश्यक हो जाता है।

गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः (४ से २१) तक के श्लोकों में कुछ इस तरह से बताया गया है -

"ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४॥

स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम्।५॥

तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।
त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६॥

तेजःस्वरूपं   सुमहद्रत्नभूमिमयं  परम्।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७॥

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण-ब्रह्मखण्डःअध्यायः(२) के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम्।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम्।९।

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम्।१०।

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण -ब्रह्मखण्डः अध्यायः२ के तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम्।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।

तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम्।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम्।१५।

नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम्।१६।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम्।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।

रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम्।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।२०।

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।

अनुवाद- ४-२१

• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।

• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।

• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी ओर से मण्डलाकार है। ६।

• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों (श्रीकृष्ण भक्तों) के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है।७।

• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।

• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्रीकृष्ण ही मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वह लोक गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक-९ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते ही नहीं हैं। ]

• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।

• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।

• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।

• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही  निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रूप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।

• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।

• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है, जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।

• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन हैं और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वनमाला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।

•  वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।   

✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (२१) की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों- के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।

तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च।।४०।।

लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम्।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा।।४१।।

सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया।।४२।

ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम्।।४३।


अनुवाद ( ४०- ४३)      
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मण्डलाकार तेज पुञ्ज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।

• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है।४१।

• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।

• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुण्ठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहाँ गायें, गोप और गोपियाँ निवास करती हैं। वहाँ कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (४३) की बात नहीं बाताते हैं।]

वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने।४४।।

शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम्।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः।४५।।

शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम्।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।४६।

कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम्।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।४७।।

मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम्।४८।।

षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते।४९।

नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम्।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम्।५०।

शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम्।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम्।५१।

कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम्।५२।

सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम्।५३।

वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम्। ५४।

अनुवाद- (४४-५४)
• मुने ! वह वृन्दावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहाँ सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम हैं।४४-४५।

• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यन्त दीप्तिमान एवं श्रीसम्पन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।

• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है। इसलिए वह उत्तम ज्योति पुञ्ज से जाज्वल्यमान रहते हैं।

उन भवनों में जो सीढ़ियाँ हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है।४७।

• मणीन्द्रसार से निर्मित वहाँ के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भाँति सुसज्जित हैं।४८।

• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यन्त उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।

• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंककान्ति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।

• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१।

• उनका मुखमण्डल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को ढ़क देता है। उनका सौन्दर्य कोटि कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ो चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।

• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाऐं उन्हें सदा सादर निहारती रहती हैं।५३।

• वे गोपांगनाऐं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मन्द मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक -५२-५३ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते ही नहीं हैं ]

भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१॥

सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम्।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।६२।।

स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम्।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च।६३।।

सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम्।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम्।६४।

गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।

अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है।६१-६२।

• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान हैं। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्वस्वरुप है।६३।।

• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा सम्पूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।

•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों (अहीरों) के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों (गोपों) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी (श्रीराधा) के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोकों (६५) की बात भी नहीं बाताना चाहतें हैं।]

इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (१५४) की ऋचा (६) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती हैं। इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात्  गायों का लोक कहा जाता है।

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
पदों के अर्थ व अन्वय:-
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को  (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो।  (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान  (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।

अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि श्रीकृष्ण का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु (श्रीकृष्ण) वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्)= धारण करता हुआ ।  (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥

अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित है कि - परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहाँ वे गोप-वेष में अपनी गायों तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना बारम्बार करते हैं।
           
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में ऋग्वेद की ऋचा १/२२/१८ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

पुराणों में वर्णन है कि गोलोक सुरभि आदि गायों का भी लोक है। भागवत पुराण में भी दशम स्कन्ध  के सत्ताईसवें अध्याय में गोवर्द्धन पर्वत के पूजन प्रकरण में गोलोक से सुरभि गाय के पृथ्वी पर आने का वर्णन है।

                -श्रीशुक उवाच -
        ( अनुष्टुप् वार्णिक छन्द )
गोवर्धने धृते शैले आसाराद् रक्षिते व्रजे ।
गोलोकादाव्रजत् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- हे परीक्षित् ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण कर मूसलाधार वर्षा से व्रज की रक्षा की तब गोलोक धाम से सुरभि गाय तथा स्वर्ग से इन्द्र बधाई देने के लिए आये।१।

इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानकारी दी गई कि- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।

📚

               "अध्याय तृतीय- (३)  

श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य परमेश्वर श्रीकृष्ण की परंप्रभुता को बताना है कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र परंप्रभु या परमेश्वर हैं।

श्रीकृष्ण ही एकमात्र परंप्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है।
जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराटविष्णु, छूद्र विष्णु इत्यादि दैवीय सत्ताऐं श्रीकृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं - जैसा कि निम्नलिखित श्लोकों में दर्शाया गया है।

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम्।।६।
 
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।। ७।  
   
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ।।८।

गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।।९।


अनुवाद -
• जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्रीहरि के चरणारविन्द का अत्यन्त आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष (गर्भोदकशायी विष्णु) भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

•सहस्र शिरो वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।

• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में वेद और पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। श्रीकृष्ण की महिमा बताने में ब्रह्मा आदि देवता भी समर्थ नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का ही मुख्यरुप से भजन करो।९।
           
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३।
अनुवाद -
• वह परमेश्वर  सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं (जिसका न कोई आदि है और नाहीं अन्त है)। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।

और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।

अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।

परम् ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनिगणों के साथ करते हैं।१८।

• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।

उपर्युक्त श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-

"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि।४९।

अनुवाद-  हे राधे !  मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्रीकृष्ण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं, वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"

▪️इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत संवाद के रूप में  है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-

"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
अनुवाद:-
गङ्गा के समान कोई तीर्थ नहीं है। श्रीकृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं है। और शंकर (शिव) से बड़ा कोई वैष्णव नहीं और पृथ्वी से बढ़कर कोई सहनशील इस भू-मण्डल में नहीं है।१६।           
  
▪️इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-

"देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः।।४२।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः।।४४।

"अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।

"सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।

"भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।

"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।

अनुवाद:-
• हे देवो ! मैं काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।

• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।

• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ।४४।

• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।

• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।

• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।

• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक (डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८।
                      
▪️ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम-स्कन्ध के चतुर्थ-अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाले परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज।    साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
                        
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४

अनुवाद-
• मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।

•ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी राधा को।६४।
                 
▪️इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम्। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम्।४१।

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम्।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम्।४२।

अनुवाद-
• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।

• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकृष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।

▪️इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है।
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं कि

"आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा। ५०।

केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा।५१।

सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः।५२।

अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।

अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः।५४‌।

भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।

अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चाञ्शतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वाञ्शेन सुभगा तथा । ५७।

तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।५८।

मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९।।

अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में। कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति  सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ हैं ।५०-५१।

• प्रधान मूर्ति तुम राधा, वेदमाता गायत्री, दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्तिधारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।

• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देहधारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।

• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।

• प्राकृतिक सृष्टि में मैं (स्वराज विष्णु) ही वह महान विराट (गर्भोदकशायी विष्णु) हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।

• वह महाविराट् ही मेरा (सोलहवां) अँश है और तुम (राधा) अपने (सोलहवें अंश) से "महाविराट लक्ष्मी" के रुप में उसकी पत्नी (कामिनी) भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह छुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५५।

• छुद्र विराट् विष्णु के रोमकूपों में मेरा आंशिक (एक वंश) से निवास है। तुम्हीं अपने (एक) अंश से वहाँ (लक्ष्मी) रूप से उसकी पत्नी हो।५६।।

• उस विराट विष्णु के रोमकूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।

• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।  

▪️इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में सृष्टि-सर्जन का कार्य करते हैं। उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियाँ, उनके  जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
       
इस बात की पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(३४) के श्लोक संख्या-(५७) (५- ५९) और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -

"चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः।५७।।

"लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः।५८।

"रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने।५९।

"ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः।
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।६०।

"तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्व शक्तयः।६१।

सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।

श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते।६३।

गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।

सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।

गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।

अनुवाद:- (५७ - ६६)
• उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र -निमीलन (आँखें बन्द करने पर) प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले  ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७।

•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदकशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु  गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।

•  रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।

• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।

• सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।

• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामि कार्तिकेय उनके वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं।६२।

• सुव्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।

• गोपियाँ तथा सम्पूर्ण देवपत्नियाँ भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।

• सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।

• गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६।

इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥

*दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥७॥

"लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥८॥

अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे।५-६।
• उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उस पर निरन्तर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाऐं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में विलीन हो गए।७-८।

अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह (शरीर) से जिस तरह से सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी तरह से करते हैं।
जैसे मकड़ी अपने शरीर की आन्तरिक रेशम ग्रन्थियों से  जाले का निर्माण करती है। और फिर कुछ समय पश्चात अपनी इच्छा अनुसार वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में पुनः समेट लेती है।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति।
(मुण्डकोपनिषद-1.1.7।।)
अनुवाद:-
ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर के अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत (घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है। वैसे ही वह परंब्रह्म संसार का निर्माण और विनाश करता है। यही
परमात्मा श्रीकृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ-साथ आदि, अन्त और अनन्त तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, और संहारकर्ता भी है।

क्योंकि यह सृष्टि-जगत परमात्मा श्रीकृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।

• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।

पुनः भगवान शिव-ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या-६३) में कहते हैं -

"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।६३।     
  
अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
           
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परंप्रभु हैं, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उनमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित हैं। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है। इसलिए वे ही  प्रथम सर्जन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी हैं। इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता है कि-

"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२।।

अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और  सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं, उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।

ध्यान रहे उपर्युक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमरकोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम  जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।

नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद  का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-

‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय- (२) श्लोक संख्या-९)
 
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख  प्राप्त करता है।९।

इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं  और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं- जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।।

अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।।

अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।

परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।

"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।

अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
              
अतः उपर्क्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि  भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु हैं, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।

✳️ श्रीकृष्ण की भगवत्ता लोक प्रमाणित है- कृष्ण की भगवत्ता को निरूपित करने के लिए हम भक्त-भक्ति और  भगवान की सम्पूरकता पर भी अपेक्षित विमर्श करते हैं।
"भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।

अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।
भगवान-  भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द  में + वतुप् प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त  शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।

✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। 

शब्दकोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं। 
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।

दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म कहलाते हैं।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।

✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौम सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- (तृतीय) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चतुर्थ) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?

📚

         
            "अध्याय - चतुर्थ (४)

    गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।


यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्माजी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना है ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियाँ भी हैं ? क्या  ब्रह्माजी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मण्डल पर है ? इन अनेक प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना भी सम्भव नहीं है।

तो इन समग्र प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना का वर्णन करते हैं जो  ब्रह्माजी द्वारा की गई है। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है। इस पुराण में सृष्टि की प्रारम्भिक उत्पत्ति के बारे में ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के निम्नलिखित श्लोकों में लिखा गया है कि-

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।

आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।

• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।

• सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राऐं तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द-ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।

• तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कान्ति श्याम थी वे नित्य तरुण पीताम्बर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाऐं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः शञ्ख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।

• तत्पश्चात परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाऐं ही उनके लिए वस्त्र थीं अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।

• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महातपस्वी ब्रह्माजी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु लिया था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी श्वेत (सफेद) थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
  
✳️ इन उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्रीकृष्ण के लोक - गोलोक में परमप्रभु श्रीकृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्माजी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्माजी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपनी सामर्थ्य से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्माजी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किन्तु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अन्त में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                 
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों (आभीरों) की भी उत्पत्ति हुई। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

इसी प्रकार से गोपों की उत्पत्ति के बारे में श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध अध्याय-(२) के श्लोक- ६०-६१ में लिखा गया है कि -
अथगोलोकनाथस्य लोमनां विवरतो मुने।
भूताश्चासंख्यगोपाश्च वयसा तेजसा समाः।। ६०

रुपेण च गुणेनैव बलेन विक्रमेण च।
प्राणतुल्यप्रियाः सर्वे भभूवः पार्षदा विभोः।। ६१

अनुवाद- ६०-६१
हे मुने ! गोलोकनाथ श्रीकृष्ण के रोमकूपों (कोशिकाओं) से असंख्य गोपगण प्रकट हुए, जो वय, तेज, रुप, गुण, बल तथा पराक्रम में उन्हीं के समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गये।

✳️ ज्ञात हो कि- गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्रीराधा की सूक्ष्मतम इकाई (कोशिका) अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।
और विज्ञान के इस समरूपण सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा ने पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप-गोपियों की उत्पत्ति कीं थीं।

इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवों सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है। जैसे-
गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिवजी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों (आभीरों) का प्रादुर्भाव हुआ है।

▪️इस प्रकार से देखा जाए तो शिवजी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है।
▪️इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद:-
हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

और ऐसी ही बात भगवान श्रीकृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं। और इसके कुछ समय पश्चात उग्रसेन भगवान श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- "सभी यादव मेरे अंश हैं"। श्रीकृष्ण के इस कथन की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय (२) के श्लोक संख्या- (५-६ और- ७) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि-

"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति॥५॥

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- ५,६,७
• तब श्रीकृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी।
• प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये कि-
• समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।

▪️ इसके अतिरिक्त गोपों की उत्पत्ति के विषय में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दुष्ट राजा से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्रीकृष्ण  के पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१ और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।
अनुवाद- २१-२२।
नन्दराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोपकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण (आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहाँ व्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाऐं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्रीकृष्ण को प्राप्त हुईं हैं।
                
▪️इस प्रकार से इन अनेक पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टिकर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए उन्हें भूतल पर आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार-हरण करके पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
           
गोलोक में जब भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवों की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-

"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ।७१।

इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ।७२।

अनुवाद-
• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्माजी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को एक मनोरमा माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृन्दावन है। यहाँ उसी वृन्दावन का वर्णन है )
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्माजी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करते हैं।
इसलिए ब्रह्माजी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्माजी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अनन्त लोकों की रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना करते हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि के चातुर्यवर्णों की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों  की सामाजिक स्थितियाँ बनी है।
      
किन्तु ब्रह्माजी सबसे ऊपर वाले गोलोक और उससे क्रमशः नीचे स्थित शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्माजी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में  भी होती है
जो इस प्रकार है-

"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय।१२।

"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः।१३।

"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः।१४।

"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।

'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।

"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।१७।
  
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी (पृथ्वी) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराहकल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) हैं  उसकी  रचना की। किन्तु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।    
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किन्तु उनकी भी कुछ मर्यादाऐं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिर-स्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते।

क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्माजी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्माजी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान अध्याय- १०,११ और १२ में किया गया है। वहाँ से इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी मिलेगी।
      इस प्रकार से यह अध्याय इस दुर्लभ जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्माजी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
   अब इसके अगले अध्याय- (५) भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके जन्म इत्यादि के बारे में बताया गया है।

📚

             अध्याय- पञ्चम (५)

भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण।

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य भगवान श्रीकृष्ण को धराधाम पर गोपों के यहाँ अवतरित होने तथा उनकी प्रमुख लीलाओं की जानकारी देना है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
             (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय- ४/७)
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ"।
       
इसी सत्य को चरितार्थ करने के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने गोलोक से धरा-धाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।     
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
इसी तरह से श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रूपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविंशाधिकं प्रभो।।२५।
            
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएँ कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पचीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
       
▪️इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- (५५) के श्लोक-१७ में गोपेश्वर श्रीकृष्ण, ब्रह्माजी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूँगा ? इस पर ब्रह्माजी श्लोक संख्या- (१८ से २०) में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।

ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।।२०।

अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मेरे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ सुनिए।१८-१९-२०।
▪️इसी तरह से गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (१४) के श्लोक संख्या- (४१) से होती है। जिसमें त्रेता-युग के रावण का भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक जीवित था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी समय दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।।४१।
यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२


अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएँ करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है।४१-४२/२।       
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के समय मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर को भी भगवान श्रीकृष्ण को यादव कुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बताया है। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।

भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।


अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए सम्पूर्ण जगत को जीतने के निमित्त

अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५- ४६।

▪️यादवों के उसी विश्वजित् युद्ध के समय जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनि मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा ने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से जो कुछ कहा उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण गोप जाति के यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (४२) के श्लोक संख्या- (६) और (७) में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामितुभ्यम्।।६।
मदात्मजं पालय भीत-भीतममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।।७।
  

अनुवाद- (६-७)
प्रभो आदि देव ! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलयकाल आनेपर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किन्तु आप कभी भी गुणों में लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ। मेरा पुत्र बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।

▪️इसी तरह से जब सभी देव मिलकर ब्रह्माजी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से भगवान् विष्णु के निर्देशन में कराते हैं, तब ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करती हैं। उसी समय वहाँ उपस्थित विष्णु को भी सावित्री शाप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से भी गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ता। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-

यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।

अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगें। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करोगे।१६१।
▪️इसी तरह से बलरामजी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के श्लोक संख्या -(१३) और (१४) से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३।

भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा, हे वासुक्यादिनागेन्द्रा, हे निवातकवचा हे वरुण, हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।

अनुवाद - हे हल और मुसल! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।
हे कवच ! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि, व्यास  तथा कुमुद आदि मुनियों ! हे कोटि-कोटि रूद्रों ! गिरिजापति शंकर जी ! ग्यारह रुद्रों ! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों ! हे वरूण और कामधेनु! मैं भूमण्डल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहाँ आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना।१३-१४।

✳️ अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण  गोप अथवा आभीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में हुआ है। किन्तु इस सम्बन्ध में ज्ञात हो कि- यदुवंश - वैष्णव वर्ण के गोपजाति का ही प्रमुख वंश  है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किन्तु जब भगवान श्रीकृष्ण को जाति में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपजाति या आभीर (आहिर) जाति का नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण को अनेक बार यदुवंश के साथ-साथ गोपजाति में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपजाति में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

▪️भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्माजी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को लेकर ब्रह्माजी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए थे। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लकुटि- दण्ड (लाठी- डण्डा) के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा के यज्ञ स्थल में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहाँ लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अन्दाजा लगाकर वहाँ उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहाँ उपस्थित विष्णु भगवान्  गोपों के सामने उपस्थित हो गए और उस अवसर पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या -(१६) से (२०) में मिलता है। जिसमें भगवान्- विष्णु  यज्ञ-स्थल में सबके समक्ष गोपों से कहते हैं कि -

युष्माभिरनया आभीरकन्याया
तारितो गच्छ ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६ ।   
        
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।   
       
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।। १८।    

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।।१९।    

न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा ।।२०।


अनुवाद:- हे आभीरों (गोपों) इस तुम्हारी आभीर कन्या गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।
• और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।
• तब मैं उनके बीच रहूँगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ ही रहेंगी।१८।
• तब वहाँ कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। गोप (आभीर) लोग भी किसी को भय नहीं देंगे।१९।   
•  इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहाँ से चले गए।२०।  
             
किन्तु जाते समय गोपगणों ने भी विष्णु से यह वचन करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण  भगवान-विष्णु से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१।

अनुवाद - हे देव ! यहीं हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन के कर्तव्य के लिए अवश्य अवतार लेंगे।२१।
तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही वचन दिया। तत्पश्चात सभी गोप प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घर चले गए।
उसी समय अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि- हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -
तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यंन्ति मद्वं शप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥


अनुवाद -(१४-१५)
• आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! (श्रीकृष्ण) तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में होगी।
•  पुन: गायत्री विष्णु से कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहाँ भी रहेंगे वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१५।

✳️ ज्ञात हो उपर्युक्त श्लोकों में गायत्री द्वारा जिस विष्णु को सम्बोधित किया जा रहा है वह छूद्र (छोटे) विष्णु हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक अंश से भूतल पर श्रीकृष्ण का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ऐसे ही अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छूद्र (छोटे) विष्णु हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक-एक अंश से प्रतिनिधित्व किया करते हैं। अतः गायत्री द्वारा भूलोक पर विष्णु नाम का वास्तविक सम्बोधन परमेश्वर श्रीकृष्ण के लिए ही है।
अतः उपर्युक्त सभी महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  गोपों में श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है और धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप जाति (अहीर जाति) के यादव वंश में ही होता है जहाँ उनके रक्त सम्बन्धी हैं। अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण, चाहे गोलोक में हों या भूलोक में हों, वे सदैव गोपवेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएँ उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला भी कहा जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोपवेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय -(३) के श्लोक -(३४) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने  जन्म से पूर्व योग माया से कहते हैं कि-
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।

अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही सम्पूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी व्रज में गौओं के बीच में रहकर गोपों के समान ही अपना व्यवहार बनाऊँगा।

ये तो रही बात भूलोक की। किन्तु गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोपवेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय
(२)- के श्लोक -(२१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्।।२१।

अनुवाद- वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर) भेष में रहते हैं।२१।
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण चाहे गोलोक में हों या भूलोक, दोनों स्थानों पर वे सदैव गोपवेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।

इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- (१००) के श्लोक - (२६) और (४१) में भगवान श्रीकृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि पौण्ड्रक-श्रीकृष्ण के समय होती है। उस युद्ध के मध्य श्रीकृष्ण से पौण्ड्रक कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।

अनुवाद - ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहाँ चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूंँ।२६।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक  से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूँ,  प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूँ, तथा सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ। ४१
                     
इसी प्रकार से एक बार श्रीकृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देव हैं या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को श्रीकृष्ण अपने गोपों से गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल-लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक- (११) में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।
       
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बन्धु ही हूँ।
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोपवेष में अपने गोपकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- छः में गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे जानकारी दी गई है।

📚

               वअध्याय खष्टम् (६)    

गोप-कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।

इस अध्याय का मुख्य श्रीकृष्ण और श्रीराधा तथा उनके रक्त सम्बन्धी गोप जाति के कुछ अति प्राचीन महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय देना है। इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिये इस अध्याय को क्रमशः चार भागों में विभाजित किया गया है।

भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय
भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
भाग-(३) पुरुरवा और उर्वशी का परिचय
भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय


➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

      भाग-(१) गोपेश्वर श्रीकृष्ण का परिचय-
                    
ज्ञात हो - परमेश्वर श्रीकृष्ण किसी परिचय के मोहताज (अभावग्रस्त) नहीं है। परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा एक सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव भी नही है। क्योंकि-
जिनके नेत्रों की पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्मों का वर्णन करने में भू-तल पर कोई सामर्थ्य नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनकी कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।
जिनकी निर्मल प्रसिद्धि और महिमा बताने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं तथा देवता भी उस भगवान के परम स्वरूप को नहीं जानते हैं। तो उस परमेश्वर का परिचय देना मेरे जैसा तुक्ष (अत्यन्त साधारण) प्राणी के लिए तो और भी सम्भव नहीं है। फिर भी यह असम्भव कार्य उनके द्वारा ही शौपा गया है यह मानकर ही परमेश्वर के गुणों का वर्णन कर रहा हूँ।
किन्तु ध्यान रहे परमेश्वर श्रीकृष्ण का इस अध्याय में जो परिचय बताया गया है वह भू-तल पर उनके लौकिक जीवन एवं उनकी लीलाओं से ही सम्बन्धित है। उनका आध्यात्मिक और अलौकिक परिचय अध्याय- (दो) और (तीन) में दिया जा चुका है।

सर्वविदित है कि भूलोक से गोलोक तक श्रीकृष्ण को ही गोप-कुल का प्रथम सदस्यपति माना गया हैं। उन्हें ही परमप्रभुप परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपभेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में ही समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब-तब उसको दूर करने के लिए वे ही प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल (अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं। भगवान के इस कार्य हेतु श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक ४/७) प्रसिद्ध है -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
  इस कार्य हेतु भगवान श्री कृष्ण गोप कुल में ही अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ अवतरित होते हैं। उनको गोपकुल में अवतरित होने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्रीकृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(५) में बताया जा चुका है।}

भगवान श्रीकृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएँ वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहाँ वर्णन किया गया है। जैसे -


(१)- श्रीकृष्ण के लिए अष्टमी का महत्व :---

भगवान श्रीकृष्ण के लिए भूतल पर अष्टमी का  बहुत महत्व है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन भूतल पर गोपकुल में अवतरित हुए हैं। तभी से वह शुभ मुहूर्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
वही दूसरी तरफ "राधा-अष्टमी" भगवान श्रीकृष्ण की प्राणप्रिय राधारानी का जन्मोत्सव है। यह उत्सव भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
और भगवान श्रीकृष्ण जब (६) वर्ष की उम्र के हो गए तब
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को शुभ मानकर उन्हें पहली बार गावें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस शुभ मुहूर्त को गोपाष्टमी नाम से जाना जाता है।

इस सम्बन्ध में देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण का अष्टमी से गहरा सम्बन्ध है। भाद्रमास कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, वही दूसरी तरफ भाद्र-मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को श्रीराधा रानी का जन्म हुआ।
तथा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के शुभ मुहूर्त में गोपालन कर्तव्य का सूत्रपात किया। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- १५ के श्लोक- (१) से होती जिसमें लिखा गया है कि-

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर् वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। १

अनुवाद- जब भगवान बलराम और भगवान कृष्ण पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छठे वर्ष में प्रवेश किया, तब उन्हें गौवें चराने की स्वीकृति मिल गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गौवें चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। १
  
(२) कुस्ती लड़ना -: गोपों (अहीरों) में कुश्ती लड़ने का अनुवांशिक गुण पाया जाता है। इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण भी बचपन से ही कुश्ती लड़ा करते थे। यह कार्य गौवें चराते समय अपने बाल गोपाल के साथ करते थे। इस बात की पुष्टि - श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- १५ के श्लोक- १६ और १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
क्वचित् पल्लवतल्पेषु नियुध्दश्रमकर्शितः।
वृक्षमूलाश्रयः शेते    गोपोत्संगोपबर्हणः।। १६
पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन्।। १७

अनुवाद - १६-१७
• कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वाल-बालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते, जब थक जाते तब किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे कोमल पत्तों की सेज पर किसी गोप बाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। १६
• उस समय कोई कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वाल-बाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोछियों से पंखा झलने लगते।

(३) श्रीकृष्ण के उपनाम :-
(क)- गोपकृत - गोपेश्वर श्रीकृष्ण के (एक हजार नामों) में  गोपकृत भी है। जिसका अर्थ होता है - गोपों को उत्पन्न करने वाला।

(ख)- वन्शीधारी - भगवान श्रीकृष्ण सदैव एक हाथ में वन्शी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वन्शी धारण करने की वजह से ही उनको वन्शीधारी कहा गया। उनकी वन्शी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’है। यह ‘महानन्दा’नाम से भी विख्यात है।

(ग)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’है। इसका बचपन में (धन्व) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।

(घ)- सारङ्गधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम सारङ्ग है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’है। जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारङ्ग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्रीकृष्ण को  सारङ्गधारी भी कहा जाता है। युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की प्रसन्शा उस समय की थी जब कृष्ण ने जरासंध को हराने के लिए सारङ्ग धनुष को उठाया था।

(ड)- चक्रधारी— भगवान श्रीकृष्ण जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।

(च)- गोपभेषधारी — भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, वह दोनों जगहों पर सदैव गोपों के साथ गोपभेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपभेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।

अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
(छ)-  गिरधारी और गोविन्द- श्रीकृष्ण का गिरधारी और गोविन्द नाम भी है। यह दोनों नाम एक ही घटनाक्रम में उस समय पड़ा जब गोपों ने इन्द्र पूजा का बहिष्कार कर गोवर्धन पूजा को करना प्रारम्भ किया। जिसके प्रतिशोध में इन्द्र ने गोपों की सभी गायों को मेघ वर्षा करके मारना चाहा किन्तु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन -गिरि (पर्वत) को धारण कर गौवों की रक्षा की। उसी समय श्रीकृष्ण का गिरधारी नाम पड़ा।
उसी समय वहांँ उपस्थित इन्द्र शरणागत होकर श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा -
अहं   किलेन्द्रो   देवानां   त्वं  गवामिन्द्रतां   गतः।
गोविंद इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।। ४५।
           (हरिवंश पुराण- २/१९/४५)
अनुवाद- मैं देवताओं का इन्द्र हूँ और आप गौओं के इन्द्र हो गए ! आज से इस भूतल पर सब लोग आप सनातन प्रभु को "गोविन्द" (गौवों का इन्द्र) कहकर आपका स्तवन करेंगे। ४५
तभी से श्रीकृष्ण का एक और नाम गोविन्द हुआ।
✴️ ज्ञान हो- कभी-कभी भगवान श्रीकृष्ण को यादवेन्द्र भी कहा जाता है जिसका अर्थ है यादवों के इन्द्र अर्थात् यादवों के देवता या रक्षक।
इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को यदुपुङ्गव भी कहा जाता है जिसका अर्थ है- यादवों में श्रेष्ठ।

(ज)- केशव- गोपेश्वर श्रीकृष्ण का एक नाम केशव भी है। यह नाम मुख्यतः गोपों द्वारा तब दिया गया जब गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने केशी नामक दैत्य का वध किया। उसी समय गोपों ने श्रीकृष्ण की स्तुति करते समय सर्वप्रथम केशव नाम से सम्बोधित किया। तभी से श्रीकृष्ण का एक नाम केशव भी हुआ।
यशमात्तयैष दुष्टात्मा हतः केशी जनार्दन।
तस्मात्केशवनाम्ना त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि।।२३
            (विष्णु पुराण- ५/१७/२३)
अनुवाद- हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशी को मारा है इसलिए आप लोकों में केशव नाम से विख्यात होंगे।
 (विशेष- केशव नाम गोपों द्वारा दिया गया है इसलिए जब भी गोप (अहीर) लोग श्रीकृष्ण की स्तुति करें केशव नाम से ही करें। क्योंकि यह नाम गोपों के लिए विकट परिस्थितियों से मुक्ति प्रदान करने वाला है)
वैसे केशव नाम की व्युत्पत्ति- दो प्रकार से शास्त्रों में की गयी है।
केशाः प्रशस्ताः सन्त्यस्य “केशाद्वोऽन्यतरस्माम्” पा० व०  प्रशस्तकेशयुक्त होने से भी श्रीकृष्ण का एक नाम केशव है। तथा अन्य दूसरी मान्यता के अनुसार केशं--केशिनं वाति हन्ति वा--क - केशि दैत्य को मारने वाला होने के कारण भी श्रीकृष्ण का नाम केशव है।

ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएँ। किन्तु उनकी कुछ सामूहिक व सामाजिक विशेषताएँ भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएँ अधूरी ही मानी जाएगी। जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-

  [४] श्रीकृष्ण की सामाजिक व व्यक्तिगत विशेषताएंँ -:

(क)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B)  सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।

(ख) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।

(ग)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।
• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।

(घ)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य— इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करके अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।
इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा "नन्दन" के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए  स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।

(च)-  प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं। ये सभी सखा ऐसे हैं जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।
✳️ राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

•  अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को। जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नींचे विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
 
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
श्रीकृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- (2) में दी गई है।
विस्तृत जानकारी के लिए परिशिष्ट कथाऐं देखें-


भाग-(२) श्रीराधा का परिचय
                        ____

श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं हैं। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से ६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -

त्वं मे  प्राणाधिका  राधे   प्रेयसी   च   वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।

अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और बिना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
              
अतः  श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरीं हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देव है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा  सर्वाभ्यः  सुन्दरी  परा।। ४४।
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्‌गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।
परावरा   सारभूता   परमाद्या   सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
     
अनुवाद- जो पञ्चप्राणों की अधिष्ठात्री, पञ्च प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुन्दरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं।  वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं। ४४-४६।

रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥ ४७।
रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
परमाह्लादरूपा  च  सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।

अनुवाद - वे परमात्मा श्रीकृष्ण के रासक्रिडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, सन्तोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
        
यदि उपर्क्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
          
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
         
और ऐसा ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
       
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।  
      
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियाँ- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां  श्रेष्ठा   राधा  वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
          
अनुवाद- आभीर (गोप) कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्रीराधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।

✴️ अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-

▪️ पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
▪️ पितामह- महिभानु गोप (आभीर)
▪️ पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का 
     भी उल्लेख मिलता है।
▪️ पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु।
▪️भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमञ्जरी।
▪️फूफा — काश,
▪️बुआ — भानुमुद्रा,
▪️मातामह — इन्दु,
▪️मातामही — मुखरा।
▪️मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
▪️मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
▪️मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
▪️धात्री — धातकी।
▪️राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।

✴️ सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
इन सभी की विशेषताओं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -

(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमञ्जरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।

(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियम्वदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।   
✳️ इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।

(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मञ्जुकेशी, मञ्जुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममञ्जरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।

(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ-
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५)   चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।

(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।

(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य

(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ थी जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।

(I)- मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी शतचन्द्रानना।

वाटिका — कन्दर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)।
कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य कथनस्थली है)।

राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।


         ✳️  श्रीराधा जी का विवाह -

श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

'राधे  स्मरसि  गोलोकवृत्तान्तं  सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये। ५७

अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
                 
ये कथोपकथन (संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ आ गये।
तब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः। ९६।।

अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
                             
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु - तत्पर हुए-
'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।

अनुवाद - १२-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।        
अतः उपर्युक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- (६) का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?

भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय-


इस भाग में भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों के बारे में क्रमशः भाग (क) और (ख) में बताया गया है।

                     [क] - पुरूरवा
                              ____

भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष व सम्राट पुरूरवा था। उनकी पत्नी का नाम उर्वशी था। ये दोनों ही वैष्णव वर्ण की अभीर जाति से सम्बन्धित थे। जिनका साम्राज्य भूलोक से स्वर्गलोक तक था। इन दोनों को वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) जाति से सम्बन्धित होने की पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल के (९५) वें सूक्त की ऋचा- (३) से होती है, जो पुरूरवा-उर्वशी संवाद के रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष (घोष-गोप) तथा गोपीथ हैं। नीचे सन्दर्भ देखें-

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।
(ऋग्वेद-10/95/3)

            
अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के बिना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाः शतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना वेगवान भी नहीं हूँ। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग (बल) प्रकाशित नहीं होता है। और शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश (वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।

ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा का हम नीचे संस्कृत भाष्य हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत कर रहे हैं।

भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
"अनया उर्वश्या प्रति पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं ब्रूते।
हिन्दी अर्थ- उस उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है-
“इषुधेः। इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन का रूप इषुधे:= तीरकोश से )
इषु: - (वाण ) धारण करने वाला निषंग या तीरकोश। इषुधि )

ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये = विजयार्थम्। ( विजयश्री के लिए) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान (सहारे) के द्वारा  तथा “रंहिः= वेगवानहं= (मैं वेगवान्/ बलवान्) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:( गवां संभक्ता:) =(गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम् - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन- (मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक सामर्थ्य वान न हो सका)। किञ्च= और तो क्या“ अवीरे = अभीरे !   हे गोपिके ! वा  हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा  सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम्। (यज्ञ या  कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।) किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः =(और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी )  ।
मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः। 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण्। सिंहनादं =(मेरी (मायु) हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा=(नहीं समझते हैं) ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्॥

अब हम लोग ऋग्वेद की इस रिचा में आये प्रमुख (दो) शब्दों- "गोषा:" और "अवीरे" की व्याकरणीय व्याख्या करके यह जानेंगे कि इन दोनों शब्दों का वैदिक और लौकिक संस्कृत में क्या अर्थ होता है ? जिसमें पहले "गोषा:" शब्द की व्याकरणीय व्याख्या करेंगे उसके बाद "अवीरे" की।

• गोषः शब्द की व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् ) धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) = भक्ति करना दान करना पूजा करना  + विट् ङा। सनोतेरनः” पाणिनीय षत्वम् सूत्र ।

अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर (गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है। गो सेवक अथवा पालक। गोष: का वैदिक रूप गोषा: है।
           
उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा: शब्द गोसेवक के वाचक हैं। वैदिक संस्कृत का यही गोषः शब्द लौकिक संस्कृत में घोष हुआ जो कालान्तर में गोप, गोपाल, अहीर, और यादव का पर्यायवाची शब्द बन गया। क्योंकि ये सभी गोपालक थे।
और जग जाहिर है कि सभी पुराण लौकिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इस हेतु पुराणों में भी देखा जाए तो वैदिक शब्द "गोषः" लौकिक संस्कृत में "घोष" गोपालक अथवा अहीर जाति के लिए ही प्रयुक्त होता है  अन्य किसी जाति के लिए नहीं। अतः घोष शब्द पुरूरवा के गोप, गोपालक और अहीर होने की पुष्टि करता है।
श्रीमद्‍भागवत महापुराण के नवम-स्कन्ध के प्रथम अध्याय के श्लोक संख्या-(४२) से भी पुष्टि होती है कि पुरूरवा  गोप (गोपालक) थे -
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२।

अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गो-समुदाय देकर वन को चला गया।४२।

उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है। यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।  

अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष) शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ वैदिक और लौकिक संस्कृत में - गायों का दान करने वाला तथा गोसेवा करने वाला होता है।
अत: उपरोक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि भू-तल का प्रथम सम्राट पुरूरवा गो-पालक (गोप,आभीर) ही था। जिनका सम्पूर्ण भूतल ही नहीं अपितु स्वर्ग तक साम्राज्य स्थापित था।


                       [ख] -  उर्वशी
                               ____
उर्वशी पूर्व काल की एक धन्या और मान्या अहीर कन्या थी। जो कभी अपने तपोबल से स्वर्ग की अप्सराओं की अधिश्वरी हुई। इस ऐतिहासिक अहीर कन्या के धन्या एवं मान्या होने की पुष्टि उस समय होती है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण प्रमुख विभूतियों की तुलना करते हुए ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ में कहते हैं-

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।

अनुवाद:-  मैं सभी शास्त्रों में वेद हूँ समुद्र के प्राणीयों में  वरुण हूँ। अप्सराओं में उर्वशी हूँ। समुद्रों में जलार्णव हूँ।७०।
        
वास्तव में उर्वशी एक अहीर कन्या थी इस बात की पुष्टि- ऋग्वेद की ऋचा- 10/95/3 से होती है जिसमें उसके पति पुरुरवा द्वारा उसके लिए अवीरे शब्द से सम्बोधन हुआ है।

"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३।।

  इस ऋचा में आये सम्बोधन पद- 'अवीरे' की व्याकरणीय व्याख्या करके जानेंगे कि "अवीरे" शब्द का वैदिक और लौकिक संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा, पालि आदि भाषाओं में क्या रूप और अर्थ होता है ?

वास्तव में देखा जाए तो उपरोक्त ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे ! है, जो लौकिक संस्कृत के अभीरा शब्द का ही वैदिक पूर्व रूप है। लौकिक संस्कृत में अभीर तथा आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन (समूह-वाची) हैं।
वैदिक भाषा का एक नियम है कि उसमें उपसर्ग कभी भी क्रियापद और संज्ञापद के साथ नहीं आते हैं। इसलिए ऋग्वेद में आया हुआ अवीरे सम्बोधन-पद मूल तद्धित विशेषण शब्द है-
(अवीर=(अवि+ईर्+अच्)= अवीर: की स्त्रीलिंग रूप अवीरा है, जो सम्बोधन काल में अवीरे ! हो जाता है।)

अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर का स्त्रीलिंग रूप है। तथा अभीर का समूह वाची रूप आभीर प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हो गया। यह सब कैसे हुआ ? यह नींचे सन्दर्भ देखें-
        
वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि = गाय, भेड़ आदि पशु + ईर:=  चराने वाला। हाँ करने वाला , निर्देशन करने वाला, के रूप में हुई है।
परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र  ही है। क्योंकि अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति ऋग्वेद में प्राप्त लौकिक अवीरा शब्द की व्युत्पत्ति से अलग ही है।

वैदिक ऋचा में अवीर (अवि+ ईर:) शब्द दीर्घ सन्धि  के रूप में तद्धित पद है। जबकि लौकिक संस्कृत में अवीर (अ + वीर) के रूप में वीर के पूर्व में अ (नञ्) निषेधवाची उपसर्ग लगाने से बनता है।
वैदिक भाषा नें लौकिक संस्कृत भाषा सी व्याकरणिक प्रक्रिया अमान्य ही है।
परन्तु कुछ लोग इसी कारण इसका अर्थ- "जो वीर न हो" निकालते हैं। किन्तु यह ग़लत है क्योंकि उर्वशी के लिए इस अर्थ में अवीरा शब्द अनुपयुक्त व सिद्धान्त विहीन ही है। अत: अवीरा शब्द को अवि + ईरा के रूप में ही सही माना जाना चाहिए। क्योंकि अवीर शब्द का मूल सहचर हिब्रू भाषा का अबीर (अवीर) शब्द है। जो ईश्वर का एक नाम है। हिब्रू भाषा में अबीर अर्थ वीर ही होता है।

वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषा में अवीर तथा अभीर शब्द अहीरों की पशुपालन वृत्ति (व्यवसाय) के साथ साथ अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को भी सूचित करता है। वीर शब्द ही सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया। इस सम्बन्ध में विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही वाचक था।

यदि अवीर शब्द का विकास क्रम देखा जाए तो-
वैदिक कालीन अवीर शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास गाय भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।
यह वीर अहीरों का वाचक था। परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर हुआ जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्दकोशकार  अमर सिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अपने अमरकोष में कुछ इस तरह से बतायी है।

आभीरः= पुंल्लिंग (आ समन्तात् भियं राति (आ+भी+ रा + क:) रा=दाने आत इति कः।)
अर्थात जो चारों तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय दे या भरे। आभीर- गोपः। इत्यमरःकोश - आभीर प्राकृत भाषा में आहिर हो गया है। अभीर- अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । अर्थात् जो सामने मुख करके गायें हाँकता या चराता है।

और आगे कालक्रम से यही आभीर शब्द एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट पूर्व हिन्दी भाषा के विकास काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से आहीर हो गया। ज्ञात हो कि लौकिक संस्कृत में जो आभीर शब्द प्रयुक्त होता है उसका तद्भव रुप आहीर होता है।

दूसरी बात यह कि- ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु का क्रियात्मक लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन का  रूप ' ईर्ते ' विद्यमान है। जैसे -
'रुशद्- ईर्त्ते पयो गोः ”प्रकाशित होती हुई दूध वाली गाय करती है। (ऋग्वेद-9/91/3 )

यह तो सर्वविदित है कि- "उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम स्वाभाविक ही था। इस बात की भी पुष्टि- देवी भागवत पुराण  के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के श्लोक- संख्या-(८) से होती है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।

"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८।


अनुवाद -वह वरांगना इस प्रकार की शर्त रखकर वहीं रहने लगी। उसने पुरूरवा से कहा - हे राजन ! यह दोनों भेंड़ के बच्चे मैं आपके पास धरोहर के रूप में रखती हूँ।
ध्यान रहे अमरकोश - 2/9/76/2/3 - भेंड़ के पर्याय निम्नांकित बताए गए हैं। "उरण पुं। मेषः"
समानार्थक- मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,एडक,अवि
अतः सिद्ध होता है कि उर्वशी के पास दो भेंड़ के बच्चे थे।
             
कुछ समय बाद उर्वशी के दोनों भेड़ के बच्चों के साथ एक घटना घटी जिसमें इन्द्र के कहने पर गन्धर्वों ने उर्वशी के दोनों भेंड़ के बच्चों को चुरा कर आकाश मार्ग से ले जाने लगे, तब दोनों भेंड़ के बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे। इस घटना का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के अध्याय- (१३) के  श्लोक - १७ से २० में कुछ इस प्रकार लिखा हुआ मिलता है।

इत्युक्तास्तेऽथ गन्धर्वा विश्वावसुपुरोगमाः।
ततो गत्वा महागाढे तमसि  प्रत्युपस्थिते॥१७।।

जह्रुस्तावुरणौ देवा रममाणं विलोक्य तम्।
चक्रन्दतुस्तदा तौ तु ह्रियमाणौ विहायसा॥१८।।

उर्वशी   तदुपाकर्ण्य  क्रन्दितं  सुतयोरिव।
कुपितोवाच राजानं समयोऽयं कृतो मया॥ १९।।

नष्टाहं  तव  विश्वासाद्धृतौ  चोरैर्ममोरणौ।
राजन्पुत्रसमावेतौ त्वं किं शेषे स्त्रिया समः॥२०।।

अनुवाद- १७-२०
• तब इन्द्र के ऐसा कहने पर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वों ने वहाँ से जाकर रात्रि के घोर अन्धकार में राजा पुरुरवा को बिहार करते देख उन दोनों भेंड़ों को चुरा लिया तब आकाश मार्ग से जाते हुए चुराए गए वे दोनों भेंड़ जोर से चिल्लाने लगे। १७-१८।
• अपने पुत्र के समान पाले हुए भेड़ों का क्रन्दन सुनते ही उर्वशी ने क्रोधित होकर राजा पुरूरवा से कहा-  हे राजन ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गई आपके विश्वास पर मैं धोखे में पड़ी, क्योंकि पुत्र के समान मेरे प्रिय भेंड़ों को चोरों ने चुरा लिया फिर भी आप घर में स्त्री की तरह शयन कर रहे हैं।१९-२०।

अतः इन उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि पुरूरवा और उर्वशी दोनों पशुपालक अहीर जाति से सम्बन्धित थे।

उर्वशी को अहिर कन्या होने की पुष्टि- मत्स्यपुराण- के (६९) वें अध्याय के श्लोक- ६१-६२ से भी होती है। जिसमें उर्वशी के द्वारा  "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने का प्रसंग है। इसी प्रसंग में भगवान श्री कृष्ण भीम से कल्याणिनी व्रत के बारे में कहते हैं कि -

"त्वा च यामप्सरसामधीशा वैश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे॥ ६१

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा॥६२
          
अनुवाद- ६१-६२
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह वैश्य पुत्री अप्सराओं की अधीश्वरी हुई।  वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। ६१।
• इसी प्रकार इसी वैश्यकुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी। उसके अनुष्ठान काल में जो उसकी सेविका थी, वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है। ६२

अतः वैदिक और पौराणिक सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है। कि उर्वशी अहीर कन्या थी। जिसके पति का नाम पुरुरवा था वह भी गोप (अहीर) था। उस समय उसके जैसा धर्मवत्सल राजा तीनों लोकों में नहीं था। उन्होंने बहुत काल तक अपनी पत्नी उर्वशी के साथ सुख भोगा। इन सभी बातों की पुष्टि- हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- (२६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें पुरूरवा के बारे में लिखा गया है कि -

"ब्रह्मवादी  पराक्रान्तः  शत्रुभिर्युधि  दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।।२।

सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव  त्रिषु  लोकेषु  यशसाप्रतिमस्तदा।।३।

तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी।।४।

तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।।५।

वने चैत्ररथे   रम्ये   तथा   मन्दाकिनीतटे।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे।। ६।

उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान्।
गन्धमादनपादेषु   मेरुपृष्ठे  तथोत्तरे।। ७।

एतेषु  वनमुख्येषु   सुरैराचरितेषु    च।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।। ८।

देशे   पुण्यतमे   चैव  महर्षिभिरभिष्टुते।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।। ९।


अनुवाद-  २-९
• वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये। २।
• वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन-भूख( कामवासना) पर पूरा नियंत्रण था। उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था। ३।
•  अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति  के रूप में चुना। ४।
• राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पाँच साल तक मन्दाकिनी नदी के तट पर , पाँच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल आदि स्थानों में उर्वशी के साथ रहे।
सर्वोत्तम उद्यान नन्दन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रान्त में आठ वर्षों तक जहाँ पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गन्धमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं। ५-७।
•  देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुन्दर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया। ८।
• पृथ्वीपति पुरूरवा (उर्वशी के साथ) महर्षियों से प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागराज में राज्य करते थे। ९।

इस प्रकार से सिद्ध होता है कि पुरूरवा एक धर्मवत्सल तथा प्रजापालक सम्राट थे। वह अपनी पत्नी उर्वशी के साथ बहुत दिनों तक भू-तल पर सुखपूर्वक रहे
          
अब हम लोग यह जानेंगे कि पुरूरवा और उर्वशी से किस नाम के कौन-कौन से पुत्र हुए।
पुरूरवा और उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों का वर्णन हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय -२६ के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जिसमें वैशम्पायनजी जन्मेजय के पूछने पर कहते हैं कि -

"तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।

विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।

अनुवाद- उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम- आयु , धीमान , अमावसु , धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु , वनायु और शतायु थे। इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था। १०-११।

अतः हरिवंशपुराण के उपर्युक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि आभीर पुरुरवा की पत्नी उर्वशी से कुल सात देवतुल्य पुत्र हुए। उन सभी का विस्तार पूर्वक वर्णन भाग- (४) में किया गया है।

इस प्रकार से अध्याय- (६) का भाग- (३) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - भू-तल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष पुरूरवा व उनकी पत्नी उर्वशी दोनों ही वैष्णव वर्ण के गोपकुल के अभीर जाति से सम्बन्धित हैं। अब इस अध्याय- के अगले भाग -(चार) में आपलोग जानेंगे कि- पुरूरवा और उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र आयु की पीढ़ी में आगे चलकर नहुष और ययाति की वैष्णव वर्ण के गोपकुल में क्या भूमिका रही ?

भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का परिचय-

इस भाग में पुरूरवा, उर्वशी, और ययाति का परिचय क्रमशः- (क), (ख) और (ग) में दिया गया है।


           ‌‌           [क] - आयुष :-

पुरूरवा के  सात पुत्रों-  (आयुष , अमावसु , विश्वायु , श्रुतायु , दृढ़ायु , वनायु और शतायु ) में ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे; जिनका सम्बन्ध गोप जाति से ही है। क्योंकि इनके पिता- पुरुरवा और माता उर्वशी गोप जातीय थे। अतः उनसे उत्पन्न पुत्र गोप ही होगें। अतः इस नियमानुसार आयुष भी गोप ही हुए। (पुरूरवा और उर्वशी को गोप होने के बारे में इसके पिछले खण्ड -(३) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है।)
         
गोप पुरूरवा एवं गोपी (अहीराणी) उर्वशी के सात पुत्रों में विशेष रूप से आयुष को ही लेकर आगे तक वर्णन किया जाएगा क्योंकि इनकी ही पीढ़ी में आगे चलकर यादव वंश का उदय हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का भी अवतरण हुआ, जिनका सम्बन्ध गोलोक के साथ ही भू-तल पर भी गोप जाति से ही रहा है।
(भगवान श्रीकृष्ण को सदैव गोप होने के बारे में अध्याय- (५) में प्रमाण सहित बताया जा चुका है )
         
आभीर कन्या उर्वशी के ज्येष्ठ पुत्र- आयुष (आयु ) का विवाह स्वर्भानु (सूर्यभानु) गोप की पुत्री इन्दुमती से हुआ था। इन्दुमती का दूसरा नाम- लिंगपुराण में "प्रभा" भी मिलता है।
ज्ञात हो कि इन्दुमती के पिता स्वर्भानु गोप वहीं हैं जो भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक में सदैव तीसरे द्वार के द्वारपाल रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के चतुर्थ  श्रीकृष्णजन्म खण्ड के अध्याय-५ के श्लोक- १२ और १३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

'द्वारे नियुक्तं ददृशुः  सूर्यभानुं  च  नारद ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं श्यामसुन्दरम् ।। १२।

मणिकुण्डलयुग्मेन कपोलस्थलराजितम् ।
रत्नदण्डकरं श्रेष्ठं  प्रेष्यं  राधेशयोः परम्।। १३।

अनुवाद - देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गए, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर ,विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था। नारद ! वहाँ द्वारा की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखाई दिए, जो दो भुजाओं से युक्त मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुन्दर थे। उनके दोनों गालों पर दो मणियय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्री राधा और श्री कृष्ण के  परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। १२-१३
           
इसी सुर्यभानु गोप की पुत्री- इन्दुमती (प्रभा) का विवाह भू-तल पर गोप पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष से हुआ था। इस बात की पुष्टि लिंग पुराण के (६६ )वें अध्याय के श्लोक संख्या- ५९ और ६० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"आयुषस्तनया वीराः पञ्चैवासन्महौजसः।
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः।। ५९।

अनुवाद - आयुष के पाँच वीर और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। इन नहुष आदि पाँचो राजाओं का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानु (सूर्यभानु ) की पुत्री प्रभा की कुक्षा (उदर) से हुआ था। ५९।



                    [ख] -  नहुष :-
                   
उपर्युक्त श्लोक से ज्ञात होता है कि आयुष के पुत्र "नहुष" थे। जिनका विवाह पार्वती की पुत्री  अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में भी मिलता है।
         
✴️ ज्ञात हो- नहुष श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अतः इनका भी सम्बन्ध वैष्णव वर्ण के गोप कुल से ही था। जिसमें नहुष को श्रीकृष्ण का अंशावतार होने की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय संख्या -(१०३) से होती है जिसमें नहुष के पिता- आयुष (आयु ) की तपस्या से प्रसन्न होकर दत्तात्रेय ने वर दिया कि तेरे घर में विष्णु के अंश वाला पुत्र होगा। उस प्रसंग को नीचे देखें।

'देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो। १३५।
             
               'दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः।१३६।

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः।
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः।१३७।

अनुवाद- 
• सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन यदि आप मुझे वर देना चाहते हों तो वर दें। १३५।
• दत्तात्रेय ने कहा - ऐसा ही हो ! तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य-कर्मा और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
•  जो इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त-सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा।१३७।
         
अतः उपर्युक्त श्लोकों से ज्ञात होता है कि नहुष भगवान श्रीकृष्ण के ही अंशावतार थे। वहीं दूसरी तरफ नहुष की पत्नी विरजा (अशोक सुन्दरी) भी गोलोक की गोपी तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी थी। इसके पहले इस विरजा और श्रीकृष्ण से गोलोक में कुल सात पुत्र उत्पन्न हुए थे।

इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता- वृन्दावनखण्ड के अध्याय-२६ के श्लोक - १७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा।
निकुञ्जं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया॥ १७।

अनुवाद - श्रीकृष्ण के तेज से विरजा के गर्भ से सात पुत्र उत्पन्न हुए। वे सातों शिशु अपनी बाल- क्रीड़ा से निकुञ्ज की शोभा बढ़ाने लगे।
      
ज्ञात हो कि श्रीकृष्ण की प्रेयसी गोलोक की विरजा कालान्तर में भू-तल पर अशोक सुन्दरी नाम से पार्वती जी के अंश से पुत्री रूप में प्रकट हुई। फिर उसका विवाह भू-तल पर किसी और से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के अंश नहुष से ही हुआ।

इन सभी बातों की पुष्टि- श्रीपद्मपुराण के भूमिखण्ड के अध्याय संख्या -(१०२) के श्लोक संख्या - (७१ से ७४) में होती है। जिसमें पार्वती जी अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी (विरजा) को वरदान देते हुए कहती हैं कि -

"वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा।७१।

अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः।। ७२।

सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति।। ७३।

एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता।। ७४।

अनुवाद- पार्वती  ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा-  इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे ! तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी। राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इन्द्र के समान चन्द्रवंशी परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही तुम्हारे पति होंगे।७१-७४।

इस प्रकार पार्वती ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इन श्लोकों से एक बात और निकल कर सामने आती है कि - पार्वती जी के वरदान के अनुसार अशोक सुन्दरी का विवाह चन्द्रवंशी सम्राट नहुष से होने की बात निश्चित होती है।

अतः यहाँ सिद्ध होता है कि "नहुष" गोप- कुल के चन्द्रवंशी सम्राट थे। यह बात उस समय की है कि- जब भू-तल पर अभी यादवंश का उदय नहीं हुआ था। किन्तु  श्रीकृष्ण अंश नहुष को चन्द्रवंशी होने का प्रमाण यहाँ मिलता है। और चन्द्रवंश के अंतर्गत आनेवाला यादव वंश अब बहुत दूर नहीं रहा, जल्द ही उसका भी क्रम आएगा।

अब आगे श्रीकृष्ण अंश नहुष और विरजा (अशोक सुन्दरी) से गोलोक की ही भाँति भू-तल पर भी कुल छह पुत्र हुए। जिसकी पुष्टि - भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -१८ के श्लोक (१) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

'यतिर्यायातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निद्रयाणीव  देहिनः।।१।

अनुवाद- जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति, और कृति। १

जिसमें ययाति सबसे छोटे थे। फिर भी नहुष ने ययाति को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और राजा बनाया।
✴️ ज्ञात हो कि ययाति ने अपने पिता नहुष की इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने छोटे पुत्र- पुरु को राजा बनाया था। इसका विवरण आगे दिया गया है।)


           ‌‌             [ग] -  ययाति :-

ययाति श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र थे और उनकी माता "विरजा" गोलोक की गोपी थीं। ऐसे में ययाति अपने माता-पिता के गुणों एवं ब्लड रिलेशन से गोप ही थे। इसी वजह से वे राजा होते हुए भी बड़े पैमाने पर गोपालन किया करते थे। और यज्ञ आदि के समय अधिक से अधिक गायों का भी दान किया करते थे। ययाति और उनके पिता नहुष को एक ही साथ गोपालक होने की पुष्टि- महाभारत अनुशासनपर्व के अध्याय -८१ के श्लोक संख्या-५-६ से भी होती है।

"मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।।५।

गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। ६।

अनुवाद - युवनाश्‍व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये। ५-६।
अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण अंशावतार नहुष के पुत्र "ययाति" भी गोप (अहीर) थे। ययाति की तीन पत्नियाँ थीं, जिनके क्रमशः नाम हैं - देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमति। उसमें देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री थी और शर्मिष्ठा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री थी। तथा अश्रुबिन्दुमति कामदेव की पुत्री थी।  जिसमें ययाति की दो पत्नियों का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय- १८ के श्लोक- ४ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

'चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातृन् भ्राता यवीयशः।
कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वणः।। ४।

अनुवाद - ययाति अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे।४।
               
(ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमति कब ययाति की पत्नी हुईं इस बात को इसी प्रसंग में आगे बताया गया है।)
       
आगे ययाति की इन दो पत्नियों से कुल पाँच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्यु, अनु, और पुरु हुए।  किन्तु अश्रुबिन्दुमति सदा पुत्रहीन रही।
       
ज्ञात हो कि - ययाति अपनी तीनों पत्नियों में कभी सामञ्जस्य नहीं बैठा पाए। क्योंकि ये तीनों आपसी सौत होने की वजह से हमेशा एक दूसरे से (ईर्ष्या) करती थीं। विशेष रूप से अश्रुबिन्दुमति से तो देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों और अधिक ईर्ष्या करती थीं। जिसका परिणाम यह हुआ कि कलह बढ़ता ही गया, अन्ततोगत्वा ययाति ने क्रुद्ध होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को बेवजह (बिनाकारण) ही शाप दे दिया। किन्तु पिता का यही शाप आगे चलकर यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ। वह शाप कैसा था और क्यों दिया गया ? इसका विस्तार वर्णन पद्मपुराण के खण्ड (२) के अध्याय- (८०) के श्लोक -३ से लेकर १४ तक  मिलता है। जिसका श्लोक और अनुवाद दोनों नीचे दिया गया है।

• यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।। ३।

• तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।। ४।

• रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
  शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।। ५।

• दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
  राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।। ६।

• अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
  शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।। ७।

• सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
  एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा।। ८।

• प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं  पितरं  प्रति   मानद ।
   नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।। ९।

• मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
  तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।। १०।

• दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत्।
  भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।। ११।

• पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
  एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।। १२।

• यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह।
  शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।।१३।

• यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि।
  मातुरंशं भजस्व त्वं  मच्छापकलुषीकृतः।।१४।

  अनुवाद- (३- से १४ तक)
• सुकर्मा ने कहा– जब वह राजा (ययाति) कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।३।

•इस कारण ययाति ने क्रोध के वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) जो देवयानी से उत्पन्न थे; उनको शाप दे दिया। और राजा ने दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर ये शब्द कहे। ४।
• शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों रूप, तेज और दान के द्वारा उस अश्रु- बिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा करती हैं। ५
• तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना तो उसने राजा को वह सब बातें उसी समय कह सुनायीं।६।
• तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७।
• हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो तो। अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा। ८।

• मान्यवर ! पिता श्री ! मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा। ९।
क्योंकि- वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है। इसलिए महाराज ! मैं इन दोनों माताओं का बध नहीं करुँगा। १०।

• हे राजन ! (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक पुत्री पर हजार दोष लगें हो। ११।
• तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए ! यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा। १२।
• उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये। इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दे दिया। १३।
• चूंकि तुमने आज मेरे आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम सदा मातृभक्त बने रहो और अपनी माँ के अंश का ही भक्ति भजन करो।१४।

पिता की इतनी बातें सुनने के बाद यदु ने अपने पिता राजा ययाति से विनम्रता पूर्वक उस राज्य का नागरिक होने के नाते से पूछा था-

हे महाराजा! मैं तो निर्दोष हूँ।, फिर भी आपने मुझे क्यों शाप दिया ? कृपया मुझ निर्दोष का पक्ष लें और मुझ पर दया करने की कृपा करें।

तब यदु के इस प्रकार निवेदन करने पर ययाति नें यदु से जो कुछ कहा उसका वर्णन- पद्मपुराण के भूमि खण्ड के अध्याय- ७८ के श्लोक संख्या- ३४ में है-
                    "राजोवाच-
'महादेवः कुले ते वै स्वांशेनापि हि पुत्रक।
करिष्यति विसृष्टिं च तदा पूतं कुलं तव।। ३४।

तब राजा ने कहा- हे पुत्र ! जब महान देवता श्रीकृष्ण (स्वराट विषषणु) अपने अंश सहित तेरे कुल में जन्म लेंगे तब तेरा कुल शुद्ध हो जाएगा। ३३-३४।

✳️ ज्ञात हो- अनन्त ब्रह्माण्ड में अनन्त छोटे विष्णु, ब्रह्मा, और महेश हैं। किन्तु स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) एक हैं जिन्हें परमेश्वर कहा जाता है। जो सभी देवताओं के भी ईश्वर और महान देवता हैं। उनका निवास स्थान सभी लोकों से ऊपर है। उसका नाम है गोलोक, उसी गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) रहते है। इस बात की सम्पूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय दो और तीन को अवश्य पढें।)
   
और आगे चलकर ययाति का यहीं शाप यदु के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि ययाति के कथनानुसार कालान्तर में यदु के वंश में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। इस बात की सम्पूर्ण जानकारी के लिए इस पुस्तक के अध्याय- (४-५) को पुनः देखें।

इस प्रकार से अध्याय- (६) गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों के परिचय के साथ समाप्त हुआ। जिसमें आप लोगों ने वैष्णव वर्ण के गोप राजाओं पुरुरवा, आयुष, नहुष, ययाति तथा उनकी पत्नियों व पुत्रों इत्यादि को भी जाना। इसी क्रम में इसके अगले अध्याय-(७) में-"यदुवंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपत्तियों के बारे में बताया गया है। इसके साथ ही यादवों के वंश वृक्ष को विधिवत बताया गया है। उसे भी इस अध्याय के साथ जोड़ कर अवश्य पढ़ें।



     .   "अध्याय- सप्तम् (७)

गोप कुल के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपतियों का परिचय।

इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य गोप कुल के प्रमुख सदस्यों के चरित्रों एवं विशेषताओं को बताते हुए यादवों के वंश वृक्ष को बताना है। इसलिए इस अध्याय को तीन (३) भागों में विभाजित किया है -

भाग- (१) महाराज यदु का परिचय
भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज

________

      भाग- (१) महाराज यदु का परिचय-
                         _____
महाराज यदु, यादवों के आदिपुरुष या कहें पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११) वें स्कन्ध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -

  यदुनैवं  महाभागो  ब्रह्मण्येन   सुमेधसा।
  पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।


अनुवाद-  हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति भक्ति थी। ३१।

अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।


✴️ यदु शब्द की व्युत्पत्ति-

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है।
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है।
जैसे-
संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
[ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में  "पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्'
(६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
      
ये तो रही यदु शब्द की ब्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण, दानेषु] इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है -
यज् = १- यजन करना।
        २- न्याय (संगतिकरण) करना।
        ३- दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)- हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)- वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि) भी प्रखर हो गयी थी।

तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के ११वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- श्लोक- ३१ में उद्धव जी से कहते हैं कि
                'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।३१।
अनुवाद:-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे। ३१।महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१०
में ऋषियों ने उनकी भूरि-भूरी प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
    
अनुवाद:- वे दोनों यदु और तुर्वसु दास- (दाता) कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
                
ऋग्वेद की उपर्क्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच  अपि च, और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ। वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि
    वाले।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ । गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।

४- दासा = दासतः दानकुरुत: =  दान करने वाले वे दोनों  
    (यदु और तुर्वसु)। (ज्ञात हो- "दासा" बहुवचन शब्द है जो यदु 
  और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त है।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ =
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहाँ पर यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
अब विचार यह करना है कि यदु को दास क्यों कहा गया? तथा दास शब्द का अर्थ यदु के समय में क्या था ?
तो इसका समाधान इस प्रकार है-

[ उपर्युक्त श्लोक में आया "दासा" शब्द वैदिक शब्द निघण्टु में द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]

क्योंकि पाणिनीय धातुपाठ में दास् धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।
महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे") है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता (दानी) के अर्थ में चरितार्थ था।

किन्तु समय और परिस्थिती के साथ दास शब्द के अर्थ में भी उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै परिवर्तन हुआ। क्योंकि वैदिक काल में घृणा शब्द दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।  ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - "दाता" था। उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसीलिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियां और प्रशंसा किया करते थे। जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में यदु और तुर्वसु को दास (दाता) के रूप में स्तुतियाँ की गईं है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।

वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में "वैष्णव" वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती से होती है। जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए राजा "ययाति" वैष्णव भगवान विष्णु से वर माँगते हैं कि- हे प्रभु !  मुझे दासत्व प्रदान करो। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक-
                   विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।

अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।

                     राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
 
अनुवाद-
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दें। ८०।।

                 'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।

यदि उपर्युक्त श्लोक- ८१ को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास  इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
 किन्तु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहितवाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञानी लोग यादवों के पुर्वज यदु को दास अथवा शूद्र कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति किया ? जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना मूर्खता पूर्ण बातें हैं।
 और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। इस बात को गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में स्वयं अपने को वैष्णव होने की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।। ९२


अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ । और वनों में चन्दन हूँ।
पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ। और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२

अतः वैष्णव वर्ण के गोपों को ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि में स्थापित करना सिद्धान्त विहीन होगा, क्योंकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के  सिद्धान्तानुसार-  ब्राह्मण- ब्रह्माजी के मुँख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं।

जबकि गोप और गोपियाँ गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्माजी के चार वर्णों में शूद्र या और कुछ कहना निराधार होगा।
          [इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (९ और १०) में बताया गया है कि कैसे गोप ब्रह्माजी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।]

अब वही दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है। चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किन्तु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हुआ।
इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो।

--------------------------
✴️ यदु का जीवन परिचय-

यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके घर से ही प्रारम्भ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियाँ देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पाँच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र- द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए। ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पाँच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वञ्चित कर पशुपालक होने का शाप दिया और सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं  प्राह  शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।

अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे शाप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।

पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे। ७६।

यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारम्भ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वञ्चित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारम्भ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने बल एवं पौरुष से राजतन्त्र के विकल्प में प्रजातन्त्र की स्थापना की और प्रजातान्त्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।
            ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे रखा था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतन्त्र के विकल्प में प्रजातन्त्र की खोज किया और प्रजातान्त्रिक तरीके से राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातन्त्र का जनक माना जाता है।
             
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादवंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपतियों को यादव कहा गया। इस सम्बन्ध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर  यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है।

[यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]

यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत विख्यात थी, जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में  मिलता है।

[ इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक का सहवर्ती ग्रन्थ "श्रीकृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चमवर्ण "में किया गया है। वहाँ से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।]

आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा  श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्घ- ९ के अध्याय- २३ में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥

चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥२१॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥

अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।

इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य रूप में अवतार लेते  हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय। ।२०-२१।
 इस प्रकार से यह अध्याय- (७) का भाग-(१) यदु के सम्पूर्ण चरित्रों व पुत्रों इत्यादि की सामान्य जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई। जिसमें  सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहु अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।

भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
                          _

जैसा की इसके पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि
यदु के चार प्रमुख पुत्र - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु नाम से थे। जिसमें सहस्रजित यदु के पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। उसके आगे- सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र- महाहय, वेणुहय और हैहय हुए। जिसमें यदु के प्रपौत्र हैहय से धनक हुए और धनक के कुल चार पुत्र- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा, और कृतौजा हुए। कृतवीर्य के पुत्र - सहस्त्रबाहु अर्जुन हुए। सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय की दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। राजा कृतवीर्य की सन्तान होने के कारण इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय से हजार बाहुबल के वरदान के उपरान्त उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन कहा गया।  
महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। इसी तिथि को उनकी जयन्ती मनाई जाती है। इसके साथ ही कार्तवीर्य अर्जन सुदर्शन चक्र के अवतार भी थे। इसके बारे में आगे बताया गया है।      
सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने समय के सबसे बलशाली,  धर्मवत्सल, कुशल कृषक, प्रजापालक और गोपालक चक्रवर्ती अहीर सम्राट थे। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-४३ के- १८ से २८ तक के श्लोकों से होती है। जिसमें कार्तवीर्यार्जुन के महत्व को एक नारद नामक गन्धर्व नें उनके यज्ञ में कुछ इस प्रकार गुणगान किया था -

'तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।।१८।।

जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।।१९ ।।

दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।। २० ।।

सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।।२१।।

सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२ ।

तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।।२३ ।।

न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।।२४ ।।

स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।।२५।।

पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।।

स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।

योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।। २८ ।।

अनुवाद- १८-२८
भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञान के द्वारा कार्तवीर्यार्जुन की समकक्षता को नहीं प्राप्त होंगे। योगी कार्तवीर्यार्जुन रथ पर आरूढ़ हो हाथ में खङ्ग, चक्र और धनुष धारण करके सातों दीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों- डाकुओं पर कड़ी दृष्टि रखता था। राजा कार्तवीर्यार्जुन पचासी हजार वर्षों तक भू-तल पर शासन करके समस्त रत्नों से परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट बना रहा। राजा कार्तवीर्यार्जुन ही अपने योग बल से पशुपालक (गोप) था। वही खेतों का भी रक्षक था और वही समयानुसार मेंघ बनकर वृष्टि भी करता था। प्रत्यञ्चा के आघात से कठोर हुई त्वचाओं वाली अपनी सहस्र भुजाओं से वह उसी प्रकार शोभा पता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणों से युक्त शारदीय सूर्य शोभित होता है। १८-२८।
         
ज्ञात हो- अयोध्यापति श्रीराम, लंकापति रावण और महिष्मतिपुरी (आधुनिक नाम मध्यप्रदेश का महेश्वर जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है।) के चक्रवर्ती अहीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन लगभग एक ही समय के राजा थे। और
जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए श्रीराम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था, उस रावण को अभीर सम्राट कार्तवीर्यार्जुन ने मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया था।

इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय-(४३) के- (३७ से ३९) तक के श्लोकों से होती है। जिसमें एक नारद नाम का एक गंधर्व कार्तवीर्यार्जुन का गुणगान करते हुए कहा -

एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ३७।  
                             
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो  गत्वा  पुलस्त्यस्तु अर्जुनं सम्प्रसादयत्।। ३८।   
                        
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।    तस्य  बाहुसहस्रेण  बभूव ज्यातलस्वनः।।३९।

अनुवाद- ३७-३९
इसी प्रकार अर्जुन ने एक बार लंका में जाकर अपने पाँच बाणों द्वारा सेना सहित रावण को मोहित कर दिया, और उसे बलपूर्वक जीत कर अपने धनुष की प्रत्यञ्चा में बांँध लिया, फिर माहिष्मती पुरी में लाकर उसे बन्दी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्य (रावण के पितामह) ने माहिष्मती पुरी में जाकर अर्जुन को अनेकों प्रयास से समझा बुझाकर प्रसन्न किया। तब सहस्रबाहु- अर्जुन ने  महर्षि पुलस्त्य को सान्त्वना देकर उनके पौत्र  राक्षस राज रावण को बन्धन मुक्त कर दिया।३७-३९।               
                 
कार्तवीर्यार्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के अवतार थे। इस बात की पुष्टि- नारदपुराणम्- पूर्वभाग अध्यायः (७६) के श्लोक-( ४ ) से होती है। जिसमें नारद जी कार्तवीर्यार्जुन के बारे में कहते हैं कि -

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।। ४।

अनुवाद- ये (कार्तवीर्यार्जुन) पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया। ४

कार्तवीर्यार्जुन सुदर्शन चक्र का अवतार होने के साथ-साथ दत्तात्रेय का वर पाकर अजेय हो गये थे। उस समय कार्तवीर्यार्जुन और परशुराम से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें दिव्य शक्ति सम्पन्न कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का बध भी कर दिया था।
किन्तु यह बात कथाकारों को बर्दाश्त नहीं हुई। परिणामतः  इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन को ही परशुराम द्वारा वध करने की पुराणों में एक नई कथा जोड़ दिया।
      
कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन का वध किया, इसकी सच्चाई तभी उजागर हो सकती है जब दोनों के बीच युद्धों का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।

क्योंकि कि इसमें बहुत घाल- मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणपतिखण्ड के अध्याय- ४० के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धत किया जा रहा है -

"पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।

सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।

समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।
रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः ।।५।।

रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।
चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।

राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।

ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।

उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।

नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।।१०।

चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।

चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।

चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।

माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।।१४ ।।

ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।। १५ ।।

दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।

शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।

पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।।१८।।

पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।१९।

शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।

भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः।।२१ ।।

राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।

तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।२३।

भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।

ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।

सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।।२६।

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।
नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।

राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।
गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।।२९ ।।

तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।
श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। ३०।।

भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।
शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१।।

रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह ।।
नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन् ।।७२ ।।

अनुवाद- ३ से ७२ तक
• सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया।

•वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथपर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया।

• इसके बाद वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए।

•उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना भी नहीं दिख रही थी।

• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अन्त में राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।

• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।

• तदनन्तर भगवान शिव ने वहाँ जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।

• इसी समय वहाँ युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुँचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परन्तु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) पाशुपत अस्त्र सहित रणभूमि में स्तम्भित (जड़वत्) हो गये।

• तब रणके मुहाने पर स्तम्भित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वँशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा के लिए अपने प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं।

•और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।

• इसी समय वहाँ यूं आकाशवाणी हुई- दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण का कवच उत्तम रत्न की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतः योगियो के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को माँग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।

• नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर  एक ब्राह्मण का रूप धारण करके गए और राजा से याचना करके उसका कवच माँग लाये। फिर शम्भू ने श्रीकृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया।

• तत्पश्चात परशुराम ने श्रीहरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।
   
                  (युद्ध विश्लेषण)

यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२५ से २८) पर विचार किया जाए तो रणभूमि में कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा परमेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने सैकड़ो गोपों एवं पार्षदों के साथ कर रहे होते हैं। तो उस स्थिति में ब्रह्माण्ड का न दैत्य, न देवता, न किन्नर, न गन्धर्व, और ना ही कोई मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन का बाल बाँका कर सकता था। परशुराम की बात करना तो बहुत दूर है।

• दूसरी बात यह कि- श्लोक संख्या - (१८ से २०) में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि- युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन के भयंकर शूल के आघात से परशुराम मारे जाते हैं। किन्तु शिव जी द्वारा उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाता है।
यहाँ सोचने वाली बात है कि कोई मरने के बाद पुनः जीवित होता है क्या ? जवाब होगा नहीं। तो फिर परशुराम  जीवित कैसे हो गये ? यह बात भी हजम नहीं होती।

• तीसरी बात यह कि- श्लोक संख्या (२८ से २९) में लिखा गया है कि- परमात्मा श्रीकृष्ण का कवच जो कार्तवीर्यार्जुन की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ था उसी से कार्तवीर्यार्जुन की रणभूमि में रक्षा हो रही होती है, और उसे शिवजी ब्राह्मण वेष में आकर भिक्षा के रूप में माँगते हैं और राजा कार्तवीर्यार्जुन उस कवच को सहर्ष दे देते हैं।

यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि- क्या राजा को उस समय इतना ज्ञान नहीं था कि युद्धभूमि में अचानक एक ब्रह्मण भिखारी भिक्षा में धन दौलत न माँगकर रक्षा कवच क्यों माँग रहा है ? और सोचने वाली बात यह है की जिस कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कर रहे हों उस समय कोई भिखारी उसके प्राणों के समान कवच माँगे और अन्तर्यामी भगवान मूकदर्शक बने रहे। यह सम्भव नहीं लगता ? और ना ही

यह बात किसी भी तरह से हजम हो सकती है।      
अतः इन तमाम तर्कों के आधार पर सिद्ध होता है कि निश्चय ही कार्तवीर्यार्जुन नें परशुराम का वध कर दिया था। किन्तु यह बात कथाकारों को गले से नींचे नहीं उतरी। परिणाम यह हुआ कि कथाकारों नें एक नई कहानी जोड़कर इसके उलट कार्तवीर्यार्जुन का वध परशुराम से करा दिया।

• चौथी बात यह कि- अगर कार्तवीर्यार्जुन का वध हुआ होता तो शास्त्रों में उनकी पूजा का विधान कभी नहीं होता।  जबकि कार्तवीर्यार्जुन का विधिवत पूजा करने का शास्त्रों में विधान किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि सहस्रबाहु अर्जुन का बध नहीं हुआ था।
पूराणों में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने के विधान की पुष्टि- श्रीबृहन्नारदीयपुराण पूर्वभागे बृहदुपाख्यान तृतीयपाद कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नामक - (७६) वें अध्याय से होती है। परन्तु परशुराम कि पूजा का विधान किसी पुराण में नहीं है।
नारद पूराण में सहस्रबाहू अर्जुन की पूजा करने का विधान
नारद और सनत्कुमार संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें नारद के पूछे जाने पर सनत्कुमार जी कहते हैं-

                  "नारद उवाच।
"कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः।। १।

तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।। २।
अनुवाद:-
• देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं।
• तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार सन्सार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है। १-२।

             "सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु  नारद !  वक्ष्यामि सन्देहविनिवृत्तये।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।।३

अनुवाद:- सनत्कुमार ने कहा ! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय (सेव्यमान) कहे गये हैं सुनो ! । ३।

यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।। ४।

तस्य  क्षितीश्वरेंद्रस्य  स्मरणादेव  नारद।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम्।। ५।

तेनास्य मन्त्रपूजादि  सर्वतन्त्रेषु  गोपितम्।
तुभ्यं प्रकाबशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम्।। ६।

अनुवाद:- ४ से ६
• ये सहस्रबाहु अर्जुन पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।
हे नारद ! कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से ही पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।

• कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। ४ से ६।

वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिन्दुयुक्।। ७।

पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ।। ८।

मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।। ९।

दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम्।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो  बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत्।। १०।

शेषाढ्यबीजयुग्मेन   हृदयं   विन्यसेदधः।
शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्। ११।

इन्द्वाढ्यं  वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत्।।१२।

वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः।
हृदये  जठरे  नाभौ  जठरे  गुह्यदेशतः।। १३।

दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः। विन्यसेद्बीजदशकं  प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।

ताराद्यानथ   शेषार्णान्मस्तके   च   ललाटके।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।

सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६।।

उद्यद्रर्कसहस्राभं  सर्वभूपतिवन्दितम् ।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च।।१७ ।।

दधतं स्वर्णमालाढ्यं  रक्तवस्त्रसमावृतम्।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।

अनुवाद- ७ से १८
इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। सन्सार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के (500) दक्षिणी हाथों में वाण और (500) उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र (लाल वस्त्र) से समावृत (लिपटे हुए) हैं। ऐसे श्रीविष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।

• इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌ यह मूल में श तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें।  शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्य
म् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुँ फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर (लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१८।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि कार्तवीर्यार्जुन का वध एक कपोल-कल्पित मात्र है।
जिसे बाद में जोड़कर एक नई कहानी उसी तरह से गढ़ दी गई जैसे भगवान श्रीकृष्ण को एक बहेलिया से मारे जाने की रची गई है।
अगर परशुराम द्वारा कार्तवीर्यार्जुन के वध की धटना सत्य होती तो पुराणों में कार्तवीर्यार्जुन के पूजा का विधान नहीं किया जाता और नाही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी जयन्ती मनाई जाती।
       
उपर्युक्त दर्शायी गयी ब्रह्मवैवर्तपुराण की पौराणिक घटना के समान तथ्य अन्य पौराणिक ग्रन्थों में भी मिलता है। जैसे-
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है। वहाँ से भी इसकी जानकारी ली जा सकती है।

 इस प्रकार से अध्याय- (७) का भाग- (२) यदु के ज्येष्ठ पुत्र से उत्पन्न हैहय वंशी अहीर चक्रवर्ती सम्राट कार्तवीर्यार्जुन की महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ समाप्त हुआ। अब इस अध्याय के अगले भाग-(३) में महाराज यदु के पुत्र क्रोष्टा की पीढ़ी में आगे चलकर महान अन्धक और वृष्णि यादवों की उत्पत्ति कैसे हुई ? और उसमें आगे चलकर वृष्णि कुल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण कैसे हुआ ?इत्यादि इत्यादि घटनां को बताया गया है।।

भाग- (३)
यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज
                               ___

इस अध्याय के भाग- (३) का मुख्य उद्देश्य यादव वंश की चारित्रिक वंशावली का व्याख्यान करते हुए गोपेश्वर श्रीकृष्ण के लौकिक चरित्र को भी स्पष्ट करना है। तो उसके लिए यदु के पुत्र क्रोष्टा को ही लेकर चलेंगे जहांँ क्रोष्टा की ही पीढ़ी में आगे चलकर अन्धक और वृष्णि नामक दो महान विभूतियों का उदय हुआ। जिसमें वृष्णि के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ तथा अन्धक के वंशजों में गोपेश्वर श्रीकृष्ण की ननिहाल (माता का कुल हुआ)।
 इसके पिछले भाग में यदु के प्रथम व ज्येष्ठ पुत्र हैहय वंशी यादवों के बारे में बताया जा चुका है। उसी क्रम में यदु के दूसरे पुत्र- क्रोष्टा के पुत्र वृजिनीवान हुए। इसी वृजिनीवान की पीढ़ी में में आगे चलकर ज्यमाघ हुए  जिनकी पत्नी शैब्या से विदर्भ हुए। फिर विदर्भ की पत्नी भोज्या से तीन पुत्र- कुश, क्रथ और रोमपाद हुए। जिसमें रोमपाद के दो पुत्र- बभ्रु और कृति हुए। इनमें से कृति के  पुत्र- चेदि हुए जिनसे यादवों की शाखा में चेदि वंश का उदय हुआ। फिर इसी चेदि की पीढ़ी में दमघोष हुए। जिनका विवाह श्रीकृष्ण की बुआ श्रुतिश्रवा से हुआ था। फिर इसी श्रुतिश्रवा और दमघोष से शिशुपाल का जन्म हुआ, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रतिद्वन्द्वी  था।
  
              
अब हम लोग विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ को लेकर आगे बढ़ेंगे। तो विदर्भ के दूसरे पुत्र- क्रथ के कुन्ति हुए। फिर कुन्ति के वृष्णि (प्रथम) हुए। फिर वृष्णि के निवृत्ति, निवृत्ति के दशार्ह हुए। दशार्ह के व्योम, व्योम के जीमूत, जीमूत के पुत्र विकृति हुए। विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ, नवरथ के दशरथ, दशरथ के शकुनि, शकुनि के करम्भ, करम्भि के पुत्र देवरात हुए।
देवरात के मधु, मधु के कुरुवश, कुरुवश के अनु, अनु के पुरूहोत्र, पुरूहोत्र के आयु (सात्वत) हुए। इस सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
देखा जाए तो यादव वंश में कुल चार वृष्णि थे। जिनको इस तरह से भी समझा जा सकता है -

(१)- प्रथम वृष्णि- हैहय वंशी यादवों के सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशज मधु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
(२)- द्वितीय वृष्णि- विदर्भ के पौत्र कुन्ति के एक पुत्र का नाम भी वृष्णि था। यह सात्वत से पूर्व के यादव वृष्णि हैं।
३- तृतीय वृष्णि- सात्वत के कनिष्ठ (सबसे छोटे) पुत्र का नाम वृष्णि था। यह वृष्णि अन्धक के ही भाई थे।
    (विदित हो सातवीं पीढ़ी पर गोत्र बदल जाता है।)
४- चतुर्थ वृष्णि- सात्वत पुत्र वृष्णि के पौत्र (नाती) थे । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम भी वृष्णि ही था यही अन्तिम वृष्णि सात्वत शाखा में थे।

इन चारो वृष्णियों में से हम प्रमुख रूप से सात्वत पुत्र वृष्णि (तृतीय) को ही लेकर आगे चलेंगे जो क्रोष्टा की पीढ़ी में सात्वत पुत्र वृष्णि (द्वितीय) हैं।
इनके पूर्व सहस्रबाहु के पुत्र जयध्वज के वंशजों में मधु यादव राजा हुए। सौ पुत्रों में वृष्णि नाम से भी एक राजा हुए। तभी यादव माधव और वार्ष्णेय यादवों का विशेषण  हुआ और उन्हीं के नाम और मधु के गुणों तथा यदु के कारण यादव वंश के सदस्यपतियों को यादव, माधव और वार्ष्णेय नाम से जाना गया। इसकी पुष्टि- भागवत पुराण - (9/23/30) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिताः।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो वृजिनवांस्ततः॥


अनुवाद- परीक्षित् ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।३०।  
 
पुनः सात्वत के सात पुत्रों में वृष्णि (द्वितीय) के दो पुत्र- सुमित्र और युद्धाजित हुए। जिसमें युद्धाजित के शिनि और अनमित्र दो पुत्र हुए। फिर अनमित्र के तीन पुत्र- निघ्न, शिनि (द्वितीय), और वृष्णि (तृतीय) हुए। इस तृतीय वृष्णि के भी दो पुत्र- श्वफलक और चित्ररथ हुए।
जिसमें श्वफलक की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर जी का जन्म हुआ जो यादवों की सुरक्षा को लेकर सदैव तत्पर रहते थे। उसी क्रम में श्वफलक के भाई चित्ररथ के भी दो पुत्र - पथ और विदुरथ हुए। फिर इस विदुरथ के शूर, हुए। शूर के भजमान (द्वितीय), भजमान (द्वितीय) के शिनि (तृतीय), शिनि (तृतीय) के स्वयमभोज, स्वयमभोज के हृदीक, हृदीक के देवमीढ हुए।
            
देवमीढ की तीन पत्नियाँ- अश्मिका, सतप्रभा और गुणवती थीं। जिसमें देवमीढ की पत्नी अश्मिका से शूरसेन का जन्म हुआ। इस शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था, जिससे कुल दस पुत्र हुए। उन्हीं दस पुत्रों में धर्मवत्सल वसुदेव जी भी थे। जिसमें वसुदेव जी की बहुत सी पत्नियाँ थीं किन्तु मुख्य रूप से दो ही पत्नियाँ- देवकी और रोहिणी प्रसिद्ध थीं। जिसमें वसुदेव और देवकी से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। तथा वासुदेव जी की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम जी का जन्म हुआ।

इस प्रकार से हम लोग भक्तिभाव के साथ गोपेश्वर श्रीकृष्ण के यहांँ पहुंँच गए।

किन्तु बिना नन्दबाबा के यहांँ पहुंँचे श्रीकृष्ण की बात अधूरी ही रहेगी। तो नन्दबाबा के यहांँ पहुंँचने के लिए हमें पुनः देवमीढ की दूसरी पत्नी गुणवती तक जाना होगा। किन्तु इसके पहले देवमीढ की दूसरी पत्नी सतप्रभा को भी जान लें कि- देवमीढ की पत्नी सतप्रभा से एक कन्या- सतवती हुई।
     
अब हम पुनः देवमीढ की पत्नी गुणवती की तरफ रुख करते हैं जहाँ नन्दबाबा मिलेंगे। तो देवमीढ की तीसरी पत्नी गुणवती से- अर्जन्य, पर्जन्य और राजन्य नामक तीन पुत्र हुए। इन पुत्रों में से हम पर्जन्य को ही लेकर आगे बढ़ेंगे।

तो पर्जन्य की पत्नी  का नाम वरियसी था। इसी वरियसी और पर्जन्य से कुल पाँच पुत्र- उपनन्द, अभिनन्द, नन्द (नन्दबाबा), सुनन्द, और नन्दन हुए।
पर्जन्य के कुल पाँच पुत्रों में नन्दबाबा अधिक लोकप्रिय थे। पारिवारिक दृष्टिकोण से नन्दबाबा और वासुदेव जी आपस के भाई ही थे, क्योंकि ये दोनों देवमीढ के परिवार से ही सम्बन्धित थे। नन्दबाबा की पत्नी का नाम यशोदा था। जिससे विन्ध्यवासिनी (योगमाया) अथवा एकानशा नाम की एक अद्भुत कन्या का जन्म हुआ। इसकी पुष्टि- श्रीमार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य अध्याय- ११ के श्लोक- ४१-४२ से होती है। जिसमें योगमाया स्वयं अपने जन्म के बारे में कहती हैं कि -

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ॥४१॥

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ ४२॥

अनुवाद- ४१-४२
• वैवस्वत मन्वन्तर में अठाईसवां द्वापर युग आने पर शुम्भ और निशुम्भ जैसे दूसरे महासुर उत्पन्न होंगे ।
• तब नन्दगोप के घर में यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विन्ध्याचल निवासिनी के रूप में उन दोनों का नाश करुँगी।
✴️ ज्ञात हो- योगमाया को जन्म लेते ही वसुदेव जी अपने नवजात शिशु श्रीकृष्ण को योगमाया के स्थान पर रखकर योगमाया को लेकर कंस के बन्दीगृह में पुनः पहुँच गए। और जब कंस को यह पता चला कि देवकी को आठवीं सन्तान पैदा हो चुकी है तो वह बन्दीगृह में पहुँच कर योगमाया को ही देवकी का आठवाँ पुत्र समझकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा, किन्तु योगमाया उसके हाथ से छुटकर कंस को यह कहते हुए आकाश मार्ग से विन्ध्याचल पर्वत पर चली गईं कि- तुझे मारने वाला पैदा हो चुका है। वही योगमाया विन्ध्याचल पर्वत पर आज भी यादवों की प्रथम कुल देवी के रूप विराजमान है।
       
 इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हँस श्रीमाता प्रसाद जी कहना है कि- "कुलदेवी या कुल देवता उसी को कहा जाता है जो कुल की रक्षा करते हैं।

योगमाया विन्ध्यवासिनी को श्रीकृष्ण सहित समस्त यादवों की रक्षा करने वाली कुल देवी और श्रीकृष्ण को कुल देवता होने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय- ४ के श्लोक- ४६, ४७ और ४८ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णिसंघसुपूजिता ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा।४६ ।

विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः ।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ।४७ ।

तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः ।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ।४८।

अनुवाद- ४६ से ४८
• वहाँ (विन्ध्याचल पर्वतपर) वृष्णी वंशी यादवों के समुदाय से भली-भाँति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी। वसुदेव की आज्ञा से उसका पुत्रवत पालन होने लगा।
• इस देवी (विंध्यवासिनी) को प्रजा पलक भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुई समझो। वह एक होती हुई अनंंशा (अंश रहित) अर्थात अविभक्त थी, इसीलिए एकानंशा कहलाती थी। योग बल से कन्या रूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी।
• यदुकुल में उत्पन्न सभी लोग उस देवी को आराध्य देव के समान पूजन करते थे, क्योंकि उसने अपनी दिव्यदेह से श्रीकृष्ण की भी रक्षा की थी।
तभी से समस्त यादव समाज विंध्यवासिनी योगमाया को प्रथम कुल देवी तथा गोपेश्वर श्रीकृष्ण को कुल देवता मानकर परम्परागत रूप से पूजते हैं।
✴️ ज्ञात हो- नन्दबाबा को योगमाया विन्ध्यवासिनी के अतिरिक्त एक भी पुत्र नहीं हुआ। इसलिए उनका वंश आगे तक नहीं चल सका। इस लिए किसी को नन्दवंशी यादव कहना उचित नहीं है।
        
इस प्रकार से अब तक हम लोग क्रोष्टा के पीढ़ी की कठिन डगर को पार करते हुए वसुदेव जी तथा उनके भाई नन्दबाबा के यहाँ से होते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और योगमाया विन्ध्यवासिनी के यहाँ पहुँच गये।
        
अब हमलोग यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के ननिहाल को जानेंगे कि- क्रोष्टा की किस पीढ़ी में श्रीकृष्ण का ननिहाल था।

तो इस बात को पहले ही बताया जा चुका है कि - सात्वत के कुल सात पुत्र - भजि, दिव्य, वृष्णि (द्वितीय), अन्धक, और महाभोज हुए।
जिसमें हमलोग सात्वत के पुत्र वृष्णि (द्वितीय) के कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण को जाना। अब हमलोग सात्वत के पुत्र- अन्धक के कुल को जानेंगे जहाँ भगवान श्रीकृष्ण का ननिहाल मिलेगा।

सात्वत पुत्र अन्धक के कुल चार पुत्र- कुकुर, भजमान, सुचि और कम्बलबर्हिष हुए। जिसमें अन्धक के ज्येष्ठ पुत्र वह्नि थे। इस वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा, कपोतरोमा के अनु और अनु के अन्धक (द्वितीय) हुए। इस अन्धक (द्वितीय) के दुन्दुभि हुए और दुन्दुभि के अरिहोत्र, अरिहोत्र के पुनर्वसु हुए।
      
  फिर पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी नाम की थी। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र आहुक की पत्नी का नाम शैव्या था। इसी पुनर्वसु और शैव्या से दो पुत्र - देवक और उग्रसेन हुए। जिसमें पुनर्वसु के पुत्र देवक की सात कन्याएं - पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी थीं। देवी तुल्य इन सातो पुत्रियों का विवाह वृष्णिवंशी वासुदेव जी से हुआ था।
इन्हीं सातों में से देवकी के उदरगर्भ से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस तरह से गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ननिहाल मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र देवक के यहाँ था। और इसी देवक के सगे भाई उग्रसेन थे, जो मथुपुरा के प्रजापालक राजा थे। उनकी की पत्नी का नाम पद्मावती था। इसी पद्मावती और उग्रसेन से महत्वाकांक्षी कंस का जन्म हुआ। कंस अपने पिता अग्रसेन को बन्दी बनाकर स्वयं मथुरा का राजा बना और प्रजा पर नाना प्रकार का अत्याचार करने लगा। कंस बल और पराक्रम में अजेय था। वह अपने समय में बड़े-बड़े दैत्य को पराजित कर अधिक शक्ति सम्पन्न होकर समस्त देवों को भी जीत लिया था।
उस समय भूतल पर उसके जैसा बलवान राजा कोई नहीं था। किन्तु जब कंस के पापों का घड़ा भर गया, तब किशोर श्रीकृष्ण उसके ही दरबार में उसका वध करके पुनः अग्रसेन को मथुरा का राजा बनाकर स्वयं मथुरा की रक्षा करते हुए पृथ्वी के भार को दूर किया।
     
             
इस प्रकार से यह अध्याय- अध्याय-(७) का भाग- (तीन) यादव वंश के अन्तर्गत क्रोष्टा कुल के भगवान श्रीकृष्ण सहित प्रमुख सदस्यपतियों तथा उनके वंश क्रम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
          
अब इसके अगले अध्याय-(८) के भाग- (१)-  में यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन तथा भाग- (२) में श्रीकृष्ण का गोलोक गमन इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।

📚

अध्याय- अष्टम् (८)

यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।

श्रीकृष्ण साराङ्गिणी पुस्तक का यह सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता को बताना तथा श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जानें का खण्डन करते हुए श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविक घटनाक्रम को बताना है। इन सभी जानकारियों को क्रमबद्ध तरीके से बताने के लिए इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है -

भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता  एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।

भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।


➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

                      [भाग- १]-

यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
        
 समाज में आये दिन सुनने को मिलता है कि- गान्धारी और ऋषियों के शाप के कारण यादवों का मौसल युद्ध हुआ जिसमें सभी यादवों का अन्त तथा एक बहेलिए से मारे जाने से श्रीकृष्ण का भी अन्त हो गया। यह कथन कितना सत्य और कितना असत्य है। इसका समाधान इस भाग में किया गया है।
         
         
 इस बात को तो सभी जानते हैं कि पौराणिक कथाओं में शाप और आशीर्वाद को आधार बनाकर सभी अप्राकृतिक अथवा असैद्धान्तिक बातों को सत्य बनाया जाता है। परन्तु आध्यात्मिक और दार्शनिक मानकों में दोषी व्यक्ति कभी किसी निर्दोष को शाप नहीं दे सकता है।
और जहाँ दोषी व्यक्ति किसी निर्दोष को शाप देने का भय दिखाकर उसके साथ गलत व्यवहार करे अथवा उसे शापित करे तो समझना चाहिए वह घटना ही झूँठी है।

इस कार्य हेतु कारक कभी देवताओं को आधार बनाया गया तो कभी ऋषियों को, तो कभी तपस्या विहीन पुत्र मोह से पीड़ित गान्धारी जैसी स्त्री को भी।
        
 किन्तु परमेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) इस तरह के खेल में कभी शामिल नहीं हुए। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो श्रीकृष्ण की विशेषता रही कि- उन्होंने आशीर्वाद के अतिरिक्त कभी किसी को शाप नहीं दिया।
इसीलिए उन्हें पालनहार कहा गया, यह ब्रह्म सत्य है। किन्तु यह विडम्बना ही है कि कथाकारों ने जिनकी शक्ति से शाप और आशीर्वाद प्रभावी होता है उन्हीं श्रीकृष्ण को शाप के मकड़जाल में फँसा कर एक बहेलिया से मरवा दिया। जबकि इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि भगवान श्रीकृष्ण को कोई बहेलिया अथवा सृष्टि का कोई प्राणी नहीं मार सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के पश्चात अपने गोप- गोपियों के साथ स्वेच्छा से बड़े ही ऐश्वर्य रुप से अपने गोलोक धाम को गये थे। क्योंकि वे कर्म बन्धन से रहित सभी भौतिक अभौतिक इच्छाओं से परे थे।
इस बात को विस्तार पूर्वक इसी अध्याय के दूसरे भाग में बताया गया है।

ये शाप और आशीर्वाद का खेल किस परिस्थिति में प्रभावी और निष्प्रभावी होता है इसको अच्छी तरह से जानना होगा तभी इसकी सच्चाई पकड़ में आ सकती है अन्यथा नहीं।

कोई भी शाप कब प्रभावी और कब निष्प्रभावी होता है इसको इस तरह से समझा जा सकता है जैसे-
• किसी का शाप तभी प्रभावी होता है जब उसपर परमेश्वर की कृपा हो तथा वह उस योग्य हो, और सदैव सत्य के मार्ग पर चलने वाला हो, जिसमें तनिक भी पापबुद्धि एवं व्यक्तिगत हित न हो। ऐसे में यदि वह व्यक्ति निष्पक्ष भाव से व्यक्तिगत हित को त्याग कर किसी भी अहितकारी एवं दोषी
व्यक्ति को शाप देता है तो उसके शाप को निश्चय ही परमेश्वर प्रभावी कर देते हैं।

इसके विपरीत यदि शाप देने वाला पूर्वाग्रह से ग्रसित किसी निर्दोष को दोषी मानकर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत हित के लिए शाप देता है, तो उसके शाप को परमेश्वर निष्प्रभावी कर कर देते हैं। साथ ही उसकी सारी तपस्या और पुण्य को सदा-सदा के लिए समाप्त भी कर देते हैं ताकि वह इसका पुनः प्रयोग न कर सके।
महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के अध्याय- (५३) के कुछ प्रमुख श्लोकों में इस तरह का उदाहरण मिलता है, जब उत्तंक ऋषि भगवान श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध न रोक पाने की वजह से उन्हें दोषी ठहराते हुए शाप देने के लिए उद्धत (उत्तेजित) हो जाते हैं। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण उन्हें ज्ञान की बातें बता कर उन्हें शाप देने से रोक देते हैं।

"या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत।
अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति॥१४॥

               "श्रीभगवान उवाच"
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान् प्रति।
नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा ॥१५॥

ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः।

अनुवाद- १४-१५
•  उतंक  ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा- तात ! मैं सदा तुमसे इस बातकी सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्न से कौरव-पाण्डवों में मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियों के सम्बन्ध में तुमने वह सफल तो किया है न ? ॥ १४ ।।

• श्रीभगवान ने कहा— महर्षे ! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हें शान्त करने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परन्तु वे किसी भी तरह सन्धि के लिये तैयार न हो सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्ग में स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित युद्ध में मारे गये॥१५॥

"इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः।
उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥१९॥

                उत्तङ्क उवाच
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः।
सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २०॥

न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः।
तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥२१॥

शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन।
गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥२३ ॥

श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै।
न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥२४॥
न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः॥ २५ ॥

कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम।
दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
            
  अनुवाद - १९-२६
• भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोष से आँखें  फ़ाड़- फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा॥१९॥
श्रीकृष्ण ! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
• मधुसूदन ! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोध में भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
• श्रीकृष्ण ने कहा— भृगुनन्दन ! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तार पूर्वक सुनिये। भार्गव ! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
• मैं आपको आध्यात्म तत्व सुना रहा हूँ। उसे सुनने के पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ महर्षे ! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। और मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या भी नष्ट हो जाय॥२४॥
• आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपनें गुरुजनों को भी सेवा से सन्तुष्ट किया है। द्विज श्रेष्ठ ! आपने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर सञ्चित किये हुए आपके तप का मैं नाश कराना नहीं चाहता हूँ॥२५-२६॥

✴️ यदि उपर्युक्त श्लोक संख्या- (२४) को देखा जाए तो उसमें भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि- "कोई भी पुरुष तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता।"
इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या- (२६) में कहते हैं
कि- यदि मैं चाहूँ तो आपकी सभी तपस्या के फलों का नाश कर सकता हूँ। किन्तु मैं ऐसा नहीं करना चाहता क्योंकि आपने इन्हें अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किया हैं।
        
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्रीआत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -
"तपस्याओं का फल परमात्मा श्रीकृष्ण की ही उपज है। क्योंकि उनकी इच्छा से ही शाप प्रभावी और निष्प्रभावी होते हैं। किन्तु परमेश्वर शाप-ताप से परे निर्लिप्त और निर्विकल्प हैं। अतः उनको कोई शाप नहीं लगता और नाही कोई उन्हें शाप दे सकता है।"
 वहीं दूसरी ओर गान्धारी ने भी श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए तथा युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के दुख से पीड़ित होकर ही यह शाप दिया कि - जिस प्रकार मेरी गोद सूनी हो गई है और जिस प्रकार कुरुकुल का संहार हो चुका है उसी प्रकार तुम्हारे यादव कुल का संहार होगा। वे आपस में एक दूसरे से लड़कर अपना ही संहार कर लेंगे।
हे केशव ! तुमने दूसरों का वध किया है इसलिए तुम्हारा भी वध होगा और अधर्म से होगा।

       अब देखा जाए तो गान्धारी जिस आधार पर श्रीकृष्ण को श्राप दिया उसका कोई औचित्य ही नहीं बनता। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध रोकने के लिए बहुत प्रयास किए थे किन्तु  दुर्योधन की हठधर्मीता के कारण भगवान का प्रयास सफल नहीं हो सका।
फिर भी गान्धारी अपने पुत्र को दोषी न मानकर श्रीकृष्ण को ही दोषी ठहराते हुए शाप दे दी। इससे सिद्ध होता है कि गान्धारी के शाप में नेक नियति नहीं थी।
दूसरी बात यह की गान्धारी के शाप में निजी स्वार्थ था क्योंकि गान्धारी के पुत्रों के ही समान अनेकों पुत्र महाभारत युद्ध में मारे गए थे, उनका दुख गान्धारी को नहीं था, वह केवल अपने पुत्र शोक से क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को शाप दी थी।
गान्धारी के शाप में तीसरी बात यह है कि- गान्धारी जब श्रीकृष्ण को व्यक्तिगत रूप से दोषी मान चुकी थी तो फिर अपने शाप में निर्दोष यादवों को क्यों आड़े हाथ लिया जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना दुर्योधन के ही पक्ष में युद्ध कर रही थी जिसके समस्त योद्धा यादव थे। उनको

भी वह अपने शाप में घसीट लिया। अतः ऐसे शापों को परमेश्वर कभी प्रभावी नहीं होने देते।

  किन्तु इसी शाप को आधार बनाकर पौराणिक ग्रन्थों में यादव वंश के सम्पूर्ण विनाश और श्रीकृष्ण को एक बहेलिए से मारे जाने की एक मनगढ़न्त कहानी लिखी गई। इस बात को आगे विस्तार से बताया गया है।

         किन्तु उसके पहले यह भी जान लीजिए कि यादवों को एक और शाप मिला था जिसका वर्णन श्रीमद् भागवत महापुराण स्कंध -(११,) अध्याय- (१) के प्रमुख श्लोकों में किया गया है। जिसमें बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा निर्दोष यादव बालकों को शाप देने का कार्य किया गया था जो इस प्रकार है-

विश्वामित्रोऽसित: कण्वो दुर्वासा भृगुरंगिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः ।।१२।

अनुवाद -
विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा,  भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्री, वशिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारिका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे। १२।

क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमार यदुनन्दनाः ।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्।। १३।

ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा।।१४।

प्रष्टुं  विलज्जती  साक्षात्   प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् संजनयिष्यति।। १५।

एवं प्रलब्धा  मुनयस्तानूचुः  कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मूसलं कुलनाशनम्।। १६।

              अनुवाद- १३- १६
• एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले, उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया। १३।

• वे जामवन्ती नन्दन साम्ब को स्त्री के भेष में सजा कर ले गए और कहने लगे, ब्राह्मण ! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूँछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूँछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ- अबाध है, आप सर्वज्ञ है। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइए यह कन्या जनेगी या पुत्र ? ।१४-१५।
• परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा मूर्ख यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।

अब इन ऋषियों को देखा जाए तो इनकी गणना बड़े-बड़े ऋषि मुनियों में होती है। किन्तु इनमें जरा भी सद्बुद्धि और सन्त स्वभाव नहीं था। क्योंकि सन्त का पहला स्वभाव- दया एवं क्षमाशीलता होती है। किन्तु उस समय इन ऋषियों में सन्त स्वभाव का थोड़ा भी गुण नहीं दिखा। परिणाम यह हुआ कि सभी ने मिलकर खेल रहे अबोध एवं निर्दोष बालकों को उदण्ड कहकर भयंकर शाप दे दिया। इनको सन्त कैसे कहा जा सकता है, जिन्हें इतना समझ नहीं कि ये बालक खेल के समय ही ऐसा व्यवहार कर रहे हैं उनमें तनिक भी पाप बुद्धि नही है। ऐसे में उन ऋषियों को चाहिए था कि उन्हें बालक बुद्धि समझ कर क्षमा कर दें। किन्तु इन ऋषियों ने बालकों को क्षमा करना तो दूर रहा उन्हें भयंकर शाप दे दिया।
             देखा जाए तो  इन ऋषि- मुनि और देवताओं का श्राप केवल भोली-भाली  जनता के लिए ही होता है, रावण, कंस तथा बड़े-बड़े बलशाली असुर और दैत्यों के लिए नहीं होता। क्या आपने कभी सुना है कि रावण, कंस, तथा बड़े-बड़े दैत्यों इत्यादि को किसी ऋषि मुनि या कोई देवता कभी शाप दिया है ? नहीं।

इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्रीयोगेश रोही जी महाराज का कथन है कि-
"शाप दिया नहीं जाता, शाप वास्तविक स्थिति में अन्तरात्मा से स्वत उत्पन्न होता है, जो परमेश्वर की कृपा से प्रभावी होता है। शाप दु:ख निवृत्ति की प्रतिक्रियात्मक प्रवाह है। दु:खी व्यक्ति ही शाप दे सकता है। सुखी अथवा आनन्दित व्यक्ति शाप नहीं दे सकता है।"
      इस शाप के बारे में सन्त शिरोमणि कबीर दास जी का भी कुछ ऐसा ही कहना हैं कि-
"दुर्बल  को न  सताइए,   जाकी  मोटी   हाय।
मुई खाल की स्वाँस सो, सार भसम है जाय।।

भावार्थ-
सन्त कबीर जी यह सन्देश दे रहे है कि हमे कभी भी किसी कमजोर या दुर्बल मनुष्य को सताना नहीं चाहिए। यदि हम किसी दुर्बल को परेशान करेंगे तो वह दुःखी होकर हमें शाप दे सकता है तथा दुर्बल की हाय बहुत प्रभावशाली होती है जैसे मरे हुए किसी जानवर की चमड़ी से बनाई गई भांथी (धौंकनी) की स्वांस लेने और छोड़ने से लोहा तक भस्म हो जाता है।

किन्तु शाप और वरदान के मकड़जाल से कथाकार ग्रन्थों में कहानियों की दिशा और दशा तय करते हैं।  जिसमें वे कभी घोड़ी से बकरा और बकरी से घोड़ा पैदा करवाते हैं। तो कभी बालकों के पेट से मूसल पैदा करवा कर यादवों के विनाश और श्रीकृष्ण को बहेलिए से मारे जाने की कहानी रचते हैं। जो हास्यास्पद और वास्तविकता से कोसों दूर है।

क्योंकि संसार की प्रत्येक घटना प्राकृतिक विधानों के ही अनुरूप घटित होती है। किसी के वरदान अथवा शाप के प्रभाव से अग्नि शीतल नहीं हो सकती है। ताप अथवा ऊष्मा तो उसका मौलिक गुण है। वह तो जलाऐगी ही।
         जहाँ तक बात है यादवों के विनाश की, तो यादवों का विनाश अवश्य हुआ, किन्तु सम्पूर्ण नहीं केवल आन्शिक हुआ। उसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण अपने धाम अवश्य गए। किन्तु उनके धाम जाने में गान्धारी का शाप व बहेलिए से मारे जाने की घटना को उनके साथ जोड़ना निराधार एवं कपोल-कल्पित है।

       क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के सभी कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। उसके लिए गीता के अध्याय-(४) का यह  श्लोक प्रसिद्ध है।
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। ७ ।।
       
       अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।
        इसी को चरितार्थ करने के लिए ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा धाम पर अपने ही गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं। और कार्य पूर्ण होने के पश्चात अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ पुनः अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
यास्यामि पृथिवीं देवा यात यूयं स्वमालयम् ।।
यूयं चैवांशरूपेण शीघ्रं गच्छत भूतलम् ।।६१।।

इत्युक्त्वा जगतां नाथो गोपाना हूय गोपिकाः ।।
उवाच मधुरं वाक्यं सत्यं यत्समयोचितम् ।।६२ ।।

गोपा गोप्यश्च शृणुतयात नंदव्रजं परम् ।।
वृषभानुगृहे क्षिप्रं गच्छ त्वमपि राधिके ।। ६३ ।।

वृषभानुप्रिया साध्वी नंदगोपकलावती ।।
सुबलस्य सुता सा च कमलांशसमुद्भवा ।।६४ ।।

पितॄणां मानसी कन्या धन्या मान्या च योषिताम् ।।
पुरा दुर्वाससः शापाज्जन्म तस्या व्रजे गृहे ।।६५।।

तस्या गृहे जन्म लभ शीघ्रं नंदव्रजं व्रज ।।
त्वामहं बालरूपेण गृह्णामि कमलानने ।। ६६ ।।

त्वं मे प्राणाधिका राधे तव प्राणाधिकोऽप्यहम्।।
न किंचिदावयोर्भिन्नमेकांगं सर्वदैव हि ।।६७।।

श्रुत्वैवं राधिका तत्र रुरोद प्रेमविह्वला ।।
पपौ चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचंद्रं हरेर्मुने ।।६८।।

जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे ।।६९।।

अनुवाद - ६१-६९
• देवताओं ! मैं पृथ्वी पर जाऊँगा । अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो।
• ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं-
गोपों और गोपियों ! सुनो। तुम सब के सब नन्दराय जी का जो उत्कृष्ट ब्रज है वहाँ जाओ। (उस ब्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी पत्नी बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई है।
• यह सुनकर श्रीराधा प्रेम से विह्वल होकर वहाँ रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चन्द्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो। ६१-६९

उवाच कमलां कृष्णः स्मेराननसरोरुहः ।।
त्वं गच्छ भीष्मकगृहं नानारत्नसमन्वितम् ।१२०।

वैदर्भ्या उदरे जन्म लभ देवि सना तनि ।।
तव पाणिं ग्रहीष्यामि गत्वाऽहं कुंडिनं सति।१२१।

ता देव्यः पार्वतीं दृष्ट्वा समुत्थाय त्वरान्विताः ।।
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामासुरीश्वरीम् ।। १२२।।

विप्रेंद्र पार्वतीलक्ष्मीवागधिष्ठातृदेवताः ।।
तस्थुरेकासने तत्र संभाष्य च यथोचि तम् ।।१२३।।

ताश्च संभाषयामासुः संप्रीत्या गोपकन्यकाः ।।
ऊचुर्गोपालिकाः काश्चिन्मुदा तासां च संनिधौ ।। १२४ ।।

श्रीकृष्णः पार्वतीं तत्र समुवाच जगत्पतिः ।।
देवि त्वमंशरूपेण जन नंदव्रजे शुभे ।। १२५ ।।

उदरे च यशोदायाः कल्याणी नंदरेतसा ।।
लभ जन्म महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।। १२६ ।।

ग्रामे ग्रामे च पूजां ते कारयिष्यामि भूतले ।।
कृत्स्ने महीतले भक्त्या नगरेषु वनेषु च ।।१२७ ।।

तत्राधिष्ठातृदेवीं त्वां पूजयिष्यंति मानवाः ।।
द्रव्यैर्नानाविधैर्दिव्यैर्बलिभिश्च मुदाऽन्विताः ।।१२८।।

त्वद्भूमिस्पर्शमात्रेण सूतिकामंदिरे शिवे ।।
पिता मां तत्र संस्थाप्य त्वामादाय गमिष्यति।१२९।

कंसदर्शन मात्रेण गमिष्यसि शिवांतिकम् ।।
भारावतरणं कृत्वा गमिष्यामि स्वमाश्रमम् ।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
• इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण लक्ष्मी से बोले- सनातनी देवी तुम नाना रत्न से सम्पन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहाँ विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुँगा।
• जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहाँ पार्वती (दुर्गा) से कहा-  सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामाया स्वरुपिणी देवी ! शुभे ! तुम अंशरूप से नन्द के ब्रज में जाओ और वहाँ नन्द के घर यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गाँव-गाँव में तुम्हारी पूजा करवाऊँगा। समस्त भूमण्डल में नगरों और वनों में मनुष्य वहाँ की अधिष्ठात्री देवी (विन्ध्यवासिनी ) के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनन्दपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहाँ स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊँगा। १२०-१३०।
    
        उपर्युक्त  श्लोकों से स्पष्ट होता है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए अपने समस्त गोप- गोपियों के साथ भू-तल पर अवतरित होते हैं, और भूमि का भार उतारने के पश्चात पुनः गोप और गोपियों के साथ अपने धाम को चले जाते हैं। यहीं उनका सत्य सनातन नियम है।
भूतल पर भगवान के साथ आए गोप और गोपियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सभी गोप अपार शक्ति सम्पन्न तथा सभी कार्यों में दक्ष होते हैं। और उसी हिसाब से ये सभी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के हिसाब से भगवान श्रीकृष्ण के निर्धारित कार्यों में लग जाते हैं। इसीलिए गोपों को भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं सहचर (साथी) कहा जाता है।
       चुँकि ये गोप भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं इसलिए ये दैवीय और मानवीय शाप, ताप से मुक्त होते हैं। इसके साथ ही ये गोप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अजेय एवं अपराजित हैं। इन्हें न कोई देवता न दानव न गन्धर्व और नाही कोई मनुष्य पराजित कर सकता है, और नाहीं इन्हें कोई मार सकता है। इस बात को भगवान श्रीकृष्ण स्वयं- श्रीमद् भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कन्ध, अध्याय-(एक) के श्लोक संख्या- (४) में कहते हैं कि -
"नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥४॥

"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
१- न एव अन्तः परिभवः अस्य=  नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव ( पराजय/ विनाश)
२- भवेत् =  हो सकता है ।
३- कथञ्चिद् =  किसी प्रकार भी।
४- मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है।
५- उन्नहनस्य  नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है।
६- अन्तः कलिं यदुकुलस्य = आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश (शमन) होगा।
७- विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव = जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है।
८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा।
॥४॥
अनुवाद:-
इसका (यदुवंश का) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है। (यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं।) फिर इसके विनाश में ऋषि -मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ?
कृष्ण कहते हैं- यह यदुवंश मेरे आश्रित है एवं सभी बन्धनों से रहित है। अतः जैसे बाँसों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है। उसी प्रकार इस यदुवंश में भी परस्पर कलह से ही इसका शमन (नाश) होगा। शान्ति स्थापित करने के उपरान्त मैं अपने  गोलोक-धाम को जाऊँगा ॥४॥
    कहने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वी पर धर्म स्थापना के उपरान्त श्रीकृष्ण और उनके गोप-गोपियों का कार्य जब समाप्त हो जाता है। इसके बाद भगवान स्वयं तथा अपने समस्त गोप गोपियों के साथ गोलोक प्रस्थान की तैयारी में लग जाते हैं। इसके लिए सबसे पहले श्रीकृष्ण जो अजेय एवं अपराजित गोप योद्धा हैं, उनको आपस में ही युद्ध करा कर उनकी आत्मा को ग्रहण कर लेते हैं। क्योंकि यह सर्वविदित है कि सशरीर कोई गोलोक में नहीं जा सकता। इसलिए उनकी आत्मा को लेने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने मौसल युद्ध की लीला रची और उस युद्ध में मारे गए वीर जांबाज यादव (गोपों) की आत्मा को लेकर बाकी अन्य गोपों की आत्मा को लेनें के लिए प्रभु दूसरी योजना बनाई। जिसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस अध्याय के भाग- (२) में किया गया है।

[भाग- २]

श्रीकृष्ण का गोलक गमन।


इसके पिछले भाग में बताया जा चुका है कि गोपों को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई पराजित नहीं कर सकता ना ही उनका कोई वध कर सकता और ना ही उन्हें कोई शापित कर सकता है। तब भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वे मौसल युद्ध में आपस में ही लड़कर नश्वर शरीर को त्याग देते हैं। तब भगवान श्रीकृष्ण उनकी विशुद्ध आत्मा को गोलोक में ले जाने के लिए ग्रहण कर लेते हैं।
(ज्ञात हो- कोई भी सशरीर गोलोक में नहीं जा सकता)
           तत्पश्चात बाकी बचे हुए गोप और गोपियों के नश्वर शरीर से आत्मा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ किया उसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्री कृष्ण जन्म  खण्ड के अध्याय-१२७ में मिलता है। जिसको संक्षेप में नींचे उद्धृत किया गया है।

              "नारायण उवाच
श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
भाण्डीरे   वटमूले  च   तत्र  स्वयमुवास  ह ।।१।।

पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
उवास राधिका देवी वामपार्श्वे  हरेरपि ।।२।।

दक्षिणे नन्दगोपश्च  यशोदासहितस्तथा ।
तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।

अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं  समयोचितम्।।४।।

अनुवाद - १-४
श्रीनारायण कहते हैं- नारद ! जहाँ पहले ब्राह्मण पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था ; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलावा भेजा। श्रीहरि के वाम भाग में राधिका देवी, दक्षिण भाग में यशोदा सहित नन्द, और नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बाएँ कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपियाँ भाई- बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सब से समयोचित यथार्थ वचन कहा। १-४

गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं  कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।

अनुवाद- अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलयुग का आगमन सन्निकट है अतः तुम सभी शीघ्र ही गोकुल वासियों के साथ गोलोक को चले जाओ । ११।

एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।

शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।

मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।

मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।

सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।

कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।

गोलोकादगता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।

सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः।।४४।

ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।

नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।

सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।

रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।

अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।

अनुवाद - ३७-४९
• इसी बीच वहाँ ब्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आए हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था, बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
• उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उसपर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से सामवृत (घिरा हुआ) था।
• नारद! राधा और धन्यवाद की पात्रा कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहांँ तक की गोलक से जितनी भी गोपियाँ आईं थीं, वह सभी आयोनिजा थीं। उनके रूप में श्रुति पत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथपर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गईं। साथ ही राधा भी गोकुल वासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुई। ३७-४९

       फिर इसके आगे की घटना का वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(१२८) में मिलता है। जिसको संक्षेप में नीचे उद्धृत किया जा रहा है।

                 "नारायण उवाच
श्रीकृष्णो  भगवांस्तत्र  परिपूर्णतम: प्रभुः।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।। १।।

उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।। २।

अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३।

गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४।

गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः ।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् ।। ५ ।

अनुवाद - १ से ५ तक
नारद ! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुल वासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीर वन में वट वृक्ष के नींचे पाँच गोपों के साथ ठहर गए। वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो- समुदाय व्याकुल है।
रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है। तब उन कृपा सागर को दया आ गई। फिर तो उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से व्रज को पुन: परिपूर्ण कर दिया (पुनः जीवित कर दिया)
साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बंँधाया।
तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले-

          "श्री भगवानुवाच
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।।

तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
अनुनाद - ६-७
• हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पूण्यवन में मुझ श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा जब तक संसार में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।
✴️ विशेष:- इस प्रसंग से एक बात और सिद्ध होती है कि-वर्तमान में जो गोप (अहीर) हैं वे सब गोलोकवासी गोपों के ही वन्शज हैं।

                     "पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले ।
रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।

गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् ।
परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।

पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।
रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।

अनुवाद - ८६, ८७ और ९८
• वहाँ उपस्थित पार्वती ने कहा- प्रभो !  गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिका रूप से रहती हूँ। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है, अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर अरुण हो वहाँ जाइए और उसे परिपूर्ण कीजिए।८६-८७।

• नारद ! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर रासधारी श्रीकृष्ण हँसे और रत्न-निर्मित विमानपर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गए। ९८

▪️इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण को गोलोक जाने का वर्णन गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय- (६०) में भी मिलता है। जिसको जाने बिना श्रीकृष्ण के गोलक गमन का प्रसंग अधूरा ही रह जाएगा। इसलिए उसको भी जानना आवश्यक है।

बलः शरीरं मानुष्यं त्यक्त्वा धाम जगाम ह ।
देवाँस्तत्रागतान्दृष्ट्वा हरिरंतरधीयत ॥ १३ ॥

व्रजे गत्वा हरिर्नंदं यशोदां राधिकां तथा ।
गोपान्गोपीर्मिलित्वाऽऽह प्रेम्णा प्रेमी प्रियान्स्वकान् ॥ १४।

अनुवाद - बलराम जी मानव शरीर को छोड़कर अपने धाम को चले गए। वहाँ देवताओं को आया देख श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए। ब्रज में जाकर श्रीहरि नन्द, यशोदा, राधिका तथा गोपियों सहित गोपों से मिले और उन प्रेमी भगवान ने अपने प्रिय जनों से प्रेम पूर्वक इस प्रकार कहा। १३-१४

      किन्तु भगवान श्रीकृष्ण के अगले कथन को बताने से पहले यहाँ कुछ बताना चाहुँगा कि- देवताओं के आने पर गोपेश्वर श्रीकृष्ण क्यों अन्तर्धान हो गए ?

तो उस समय गोपेश्वर श्रीकृष्ण तीन कारणों से देवताओं के आने पर अन्तर्धान हो गए।
(१)- पहला कारण यह कि - गोलोक के आवागमन की अलौकिक घटनाक्रम में गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। इस लिए भगवान श्रीकृष्ण देवताओं को वहाँ आते ही अन्तर्धान हो गये।
(२)- दूसरी कारण यह कि - भगवान श्रीकृष्ण भूमि का भार दूर करने के लिए गोलोक से अपने गोप और गोपियों के साथ आते हैं और कार्य पूर्ण हो जाने पर भगवान उन्हीं गोप और गोपियों को लेकर पुनः गोलोक को चले जाते हैं। इस घटनाक्रम से देवताओं का कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए वहाँ पर देवताओं के आनें पर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये।
(३)- तीसरी कारण यह कि- भगवान श्रीकृष्ण सहित गोपों के इस आवागमन की धटना गुप्त एवं रहस्य पूर्ण है। इसे केवल गोप और गोपियाँ ही जानते हैं। और इस घटना को गोपेश्वर श्रीकृष्ण सदैव गुप्त ही रखना चाहते हैं। इसीलिए गोपेश्वर श्रीकृष्ण देवताओं के आने पर वहाँ से अन्तर्धान हो गए।
      उपर्युक्त तीनों कारणों से भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन की वास्तविकता को गोपों के अतिरिक्त पूर्ण रूप से न तो देवता और न ही ऋषि-मुनी जानते हैं।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।              [ब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड ९४/ ८२- ८३]               
अनुवाद - ८२-८३
श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँ ही जानती हैं।
•  ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३।
                  
▪️इतना ही नहीं परमेश्वर श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में वेद और पुराण भी सक्षम नहीं हैं-
गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।।९।
[ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड- ३०/ ९ ]
अनुवाद- गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। ९।

   इसी अज्ञानता के कारण पुराणों में भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के प्रसंग में श्रीकृष्ण को बहेलिए से मरवा कर गोलोक गमन की हास्यास्पद कथा लिखी गई है और अधिकांश कथा वाचक इसी झूठी घटनां को सत्य जानकार श्रीकृष्ण कथा कहते हुए भक्तों को भ्रमित करते।
       
अब हम पुनः अपने मूल प्रसंग गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड के अध्याय- (६०) पर आते हैं- उपस्थित नन्द आदि गोपों से भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
   
              "श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नन्द यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥

अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः ।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः।१६।

स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्‌गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम् ॥१७ ॥

इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्‌भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम् ॥ १८ ॥

वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्‍नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥ १९ ॥

सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम्॥ २०॥

गोलोकादागतं गोपा ददृशुस्ते मुदान्विताः।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः।। २१ ।।

देवश्चचतुर्भजो राजन् कोटिमन्मथसन्निभः।
शङ्खचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः ॥२२॥

क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥२३॥

अनुवाद - १५-२३
• श्रीकृष्ण बोले - नन्द और यशोदे ! अब तुम मुझमें पुत्र बुद्धि छोड़कर समस्त गोकुल वासियों के साथ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ। क्योंकि अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलयुग आएगा, जिसमें मनुष्य प्राय: पापी हो जाएँगे इसमें संशय नहीं है। १५-१६
• श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि गोलोक से एक परम अद्भुत रथ उतर आया जिसे गोपों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ देखा। उसका विस्तार पाँच योजन का था और ऊँचाई भी उतनी ही थी। वह बज्रमणि (हीरे) के समान निर्मित और मुक्ता - रत्नों से विभूषित था। उसमें नौ लाख मन्दिर थे और उन घरों में मणिमय दीप जल रहे थे। उस रथ में दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े जुते हुए थे। उस रथपर महीन वस्त्र का पर्दा पड़ा था। करोड़ों सखियाँ उसे घेरे हुए थीं। १८- २०- १/२।

• राजन ! उसी समय श्रीकृष्ण के शरीर से करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर चारभुजा धारी विष्णु प्रकट हुए, जिन्होंने शङ्ख और चक्र धारण कर रखे थे। वे श्रीमान विष्णु लक्ष्मी के साथ एक सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो शीघ्र ही क्षीरसागर को चल दिए। २१-२३,

लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥२४ ॥

कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥ २५ ॥

गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः ।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः ॥ २६।

त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
स्थापयित्वा रथे दिव्ये नन्दादीन् भगवान् हरिः।।२७।

गोलोकं प्रययौ शीध्रं गोपालो गोकुलान्वितः।
ब्रह्माणडेभ्यो बहिर्गत्वा ददर्श विरजां नदीम्।। २८।

अनुवाद - २४-२८
• इसी प्रकार नारायण रूपधारी भगवान श्रीकृष्ण हरि महालक्ष्मी के साथ गरुण पर बैठकर वैकुण्ठ धाम को चले गए। नरेश्वर ! इसके बाद श्रीकृष्ण हरि नर और नारायण दो ऋषियों के रूप में विभक्त हो मानव के कल्याणार्थ बद्रीकाआश्रम को चले गए। तदनन्तर साक्षात परिपूर्तम् जगतपति भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोक से आए हुए रथ पर आरूढ़ हुए।

• नन्द आदि समस्त गोप तथा यशोदा आदि व्रजांगनाएँ सब के-सब वहाँ भौतिक शरीरों का त्याग करके दिव्यदेहधारी हो गए। तब गोपाल भगवान श्रीकृष्ण नन्द आदि को उस दिव्य रथपर बिठाकर गोकुल के साथ ही शीघ्र गोलोक धाम को चले गए। ब्रह्माण्डों से बाहर जाकर उन सब ने विरजा नदी को देखा साथ ही शेषनाग की गोद में महा लोक गोलोक दृष्टिगोचर हुआ, जो दुखों का नाशक तथा परम सुखदायक है। २३- २८,१/२

दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः ॥२९॥

विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतश्रङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम् ॥ ३० ॥

ततो ययौ कियद्‌दूरं श्रीमद्‌वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम् ॥ ३१ ॥

नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमंडितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥

तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥३३ ॥

अनुवाद - उसे देखकर गोकुल वासियों सहित श्रीकृष्ण उस रथ से उतर पड़े और श्रीराधा के साथ अक्षयवट का दर्शन करते हुए उस परमधाम में प्रविष्ट हुए। गिरिवर शतश्रङ्ग (सात सींगों वाला पर्तत) था रासमण्डल को देखते हुए वह कुछ दूर स्थित वृन्दावन  में गए, जो बारह वनों से संयुक्त तथा कामपूरक वृक्षों से भरा हुआ था।
• यमुना नदी उसे छूकर बह रही थी। वसन्त ऋतु और मलयानिल उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ फूलों से भरे कितने ही कुञ्ज और निकुञ्ज थे। वह वन गोप और गोपियों से भरा हुआ था। जो पहले सूना- सा लगता था, उस गोलोक धाम में श्रीकृष्ण के पधारने से जय-जयकर की ध्वनि गूँज उठी। २९-३३।
  
ज्ञात हो कि - भगवान श्रीकृष्ण धर्मस्थापना हेतु भूतल पर- (१२५) वर्ष तक रहे। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध -१०, अध्याय- ६ के श्लोक- २५ से होती है। जिसमें ब्रह्माजी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।। २५
अनुवाद - पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किया एक-सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।

इसी प्रकार श्रीकृष्ण की आयु (भूतल पर रहने के समय) का प्रमाण ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय- (१२९) में भी मिलता हैं। जिसमें ब्रह्मा जी स्वयं श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-

                     "ब्रह्मवाच-
" यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।१८ ।।
अनुवाद:-
ब्रह्माजी बोले ! हे प्रभु ! इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गये। विरह से आतुर रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।

 इस प्रकार से इस अध्याय के दोनों खण्डों के साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि- "जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही श्रीकृष्ण धर्म की पुनः स्थापना के लिए अपने समस्त गोप और गोपियों के साथ भूतलपर अवतरित होते हैं। और धर्म स्थापना के उपरान्त वे ही प्रभु गोप और गोपियों के साथ अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
किन्तु प्रथम बार गोलोक की ही भाँति भूतल पर भी एक दूसरा वृन्दावन तथा गोलोक की ही भाँति गोप-गोपियों को स्थापित कर जाते हैं। और जब भी भूतल का भार उतारने के लिये दुबारा आते हैं, तो भूतल के इन्हीं गोप-गोपियों के यहाँ अवतरित होते हैं। यहीं गोपेश्वर श्रीकृष्ण का सत्य सनातन नियम है। इस कार्य में ना तो गान्धारी के शाप की कोई भूमिका है और ना ही किसी ऋषि मुनि के शाप का सम्बन्ध है और नही भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारे जाने की कोई सच्चाई है। यह सब भगवान श्रीकृष्ण की पूर्व निर्धारित लीला का ही परिणाम है। इसमें शाप और आशीर्वाद को लाना भगवान श्रीकृष्ण की वास्तविक जानकारियों से लोगों को भ्रमित करना है।

         
इसीलिए कहा जाता है कि जो भगवान श्रीकृष्ण और उनके गोपों के गोलोक जाने की "सत्य कथाओं" को सुनता है वह निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त होता है।" बाकी भ्रामक एवं असत्य कथा कहने व सुनने वाले को कभी भी पापों से मुक्ति नहीं मिलती।
इस बात की पुष्टि- गर्गसंहिता के अश्वमेध खण्ड अध्याय- (७) के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

यः शृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः ।
मुक्तिं यदूनां गोपानां सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
अनुवाद:-
जो श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा यादव (गोपों) की मुक्ति का वृतान्त पढ़ते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। ४१ ।

किन्तु यहाँ पर उन लोगों को जानकारी देना आवश्यक हो जाता है जो अक्सर कुछ अधूरी जानकारी रखते हैं और आएदिन कहा करते हैं कि- मौसल युद्ध में सम्पूर्ण यादवों का विनाश हो गया था।

किन्तु ऐसा वे लोग कहते हैं जिनको इस बात की जानकारी नहीं है कि सम्पूर्ण यादवों का विनाश नहीं हुआ था। क्योंकि उस युद्ध के उपरान्त बहुत सी स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यादव
तथा भगवान श्री कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ बच गए थे।
इन सभी बातों की पुष्टि-
श्रीविष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- (३७) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण दारूक से सन्देश भिजवाते समय कहते हैं कि-

"दृष्ट्वा बलस्य निर्याणं दारुकं प्राह केशवः ।
इदं सर्वं   समाचक्ष्व  वसुदेवोग्रसेनयोः ।। ५७ ।

निर्याणं बलभद्र स्य यादवानां तथा क्षयम् ।
योगे स्थित्वाहमप्येतत्परित्यक्ष्ये कलेवरम् ।। ५८ ।

वाच्यश्च द्वारकावासी जनस्सर्वस्तथाहुकः ।
यथेमां नगरीं सर्वां समुद्र: ! प्लावयिष्यति ।। ५९ ।

तस्माद्भवद्भिस्सर्वैस्तु प्रतीक्ष्यो ह्यर्जुनागमः ।
न स्थेयं द्वारकामध्ये निष्क्रान्ते तत्र पाण्डवे ।। ६०।

तेनैव सह गन्तव्यं यत्र याति स कौरवः ।। ६१।

गत्वा च ब्रूहि कौन्तेयमर्जुनं वचनान्मम ।
पालनीयस्त्वया शक्त्या जनोऽयं मत्परिग्रहः।। ६२।

त्वमर्जुनेन सहितो द्वारवत्यां तथा जनम् ।
गृहीत्वा यादि वज्रश्च यदुराजो भविष्यति ।। ६३।


अनुवाद - ५७-६३
• इस प्रकार बलराम जी का प्रयाण (गोलोकगमन) देखकर श्रीकृष्णचन्द्र ने  सारथि दारूक से कहा- तुम यह सब वृत्तान्त उग्रसेन और वसुदेव जी से जाकर कहो। ५७।

• बलभद्रजी का निर्याण, यादवों का क्षय और मैं भी योगस्थ होकर नश्वर शरीर को छोड़कर अपने धाम को जाऊँगा। यह सब समाचार भी वसुदेव जी और उग्रसेन को जाकर सुनाओ। ५८।

• सम्पूर्ण द्वारिका वासी और आहुक (उग्रसेन) से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरी को समुद्र डुबो देगा।५९।
• इसलिए आप सब केवल अर्जुन के आगमन की प्रतिक्षा और करें तथा अर्जुन के यहाँ से लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारिका में न रहे, जहाँ वे कुन्ती नन्दन जाएं वहीं सब लोग चले जायं। ६०-६१।
कुन्ती पुत्र अर्जुन से तुम मेरी ओर से कहना कि- अपने सामर्थ्य अनुसार तुम मेरे परिवार के लोगों की रक्षा करना। ६२।
• और तुम द्वारिका वासी सभी लोगों को लेकर अर्जुन के साथ चले जाना। हमारे पीछे वज्रनाभ ही यदुवंश का राजा-होगा। ६३।

  ये तो रही बात मौसल युद्ध में कुछ खास बचे हुए यादवों की जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ भी हैं। इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन में समस्त गोप और गोपियों की मृत शरीर को पुनः जीवित कर दिया था वे सभी यादव ही थे।

"अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।। ३ ।।

गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४ ।।
अनुवाद:-
उन्हें जीवित करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-
हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव ।
रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।। ६ ।

तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।
अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ७ ।।
      ( ब्रह्मवैवर्तपुराण/ श्रीकृष्णजन्मखंड/१२८)

अनुवाद - हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ व्रज में निवास करो, क्योंकि प्रिया के साथ विहार सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पूण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक ही रहेगा जब तक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। ६-७।

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता हैं कि- लाख ऋषि मुनियों और गान्धारी के शाप के बावजूद भी  यदुवंश का अन्त नहीं हो सका। और यहाँ पर यह भी सिद्ध हुआ कि- इस यदुवंश को शाप के मकडजाल में फँसा कर यदुवंश के विनाश की झूठी कहानियाँ रची गई।
हद तो तब हो गई जब पौराणिक कथाकारों ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को भी बहेलिए से मरवाकर उनकी परम् प्रभुता को छिन्न-भिन्न करने का अथक प्रयास किया। किन्तु ध्यान रहे ऐसे लोगों को परमप्रभु परमेश्वर कभी क्षमा नहीं करते जो झूठी कथा कहते हैं और लिखते हैं।
  
इस प्रकार से इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय अपने दोनों खण्डों में "श्रीकृष्ण सहित गोप-गोपियों के गोलक गमन" की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
           इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन- "गोपेश्वर श्रीकृष्णस्य पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में किया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए उस पुस्तक का भी अध्ययन अवश्य करें।
   अब इसके अगले अध्याय- (९) में यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र को विस्तार पूर्वक बताया गया है।

📚

अध्याय- नवम् (९)
यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र।


इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality) एवं इसकी उत्पत्ति सिद्धान्त को बताते हुए  यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्रों की जानकारी देना है।
इन सभी बातों की क्रमबद्ध जानकारी के लिए इस अध्याय को निम्नलिखित- (५) भागों में विभाजित किया गया है।


भाग- (१) जातियों की मौलिकता (Originality) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति।

भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।

       [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
       [ख]- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
       [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।      

भाग- (३) यादवों का वंश।
भाग- (४) यादवों का कुल।
भाग- (५) यादवों का गोत्र।

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

भाग-(१)

जातियों की मौलिकता (Originality) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति-


जातियों का निर्धारण मनुष्य के एक ही तरह के रक्त सम्बन्धी आनुवांशिक प्रवृत्तियों से होता है। जिसमें प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की जन्मजात होती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जाति समूहों में संचारित होती रहती है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरुप ही व्यक्ति का स्वभाव और गुण बनता है, जो उस जाति समूह को उसी अनुरूप कार्य करने को प्रेरित करता है। और इसी गुण विशेष के आधार पर जाति का निर्धारण होता है।
अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण और व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं।

इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है। जैसे वणिक समाज का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) खरीद-फरोख्त करना है। और उसी अनुसार उनकी स्वभावगत गहराई- लोलुपता और मितव्यता है। यही उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है।
कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को छोटी-छोटी इकाईयों के विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे -
किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। अर्थात् वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। इसी  को जाति का विकास क्रम कहा जाता है।

किसी भी जाति के विकास क्रम में मनुष्यों की प्रवृत्तियों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है क्योंकि मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर अन्ततोगत्वा वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण (चयन) करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उस जाति का वर्ण निर्धारित होता है।
व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है।
    अब यह सब कैसे सम्भव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी।

अब इसी क्रम में हमलोग जानेंगे कि आभीर जाति की उत्पत्ति कैसे हुई और किस आधार पर यादवों की जाति "अहीर" हुई़ ? जिसे- आभीर को गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष, वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?

तो इस सम्बन्ध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्वकाल से ही कृषि और पशु पालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी हों। चुँकि गोपालक अहीर अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आँधी तूफान, ठण्ढ़ और बारिश की तमाम प्राकृतिक झन्झावातों को निर्भीकता पूर्वक झेलते हुए पशुओं के बीच रहते हैं। इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इनको आभीर (अहीर) कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन की वजह से इन्हें - गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष और वल्लभ कहा गया जो इनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान हैं।

ये तो रही अहीर जाती की वृत्ति एवं प्रवृत्ति मूलक पहचान।
किन्तु जबतक गोप (अहीर) जाति के (Blood relation) रक्त सम्बन्धों को न जान लिया जाए, तबतक अहीर जाति की जानकारी अधुरी ही मानी जाएगी। इसलिए अहीर (गोप) जाति के रक्त सम्बन्धों को जानना आवश्यक है कि अहीर जाति के मूल में किसका प्रारम्भिक रक्त सम्बन्ध विद्यमान है।

तो इसके लिए बता दें कि अहीर जाति के मूल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४ और १५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यन्ति  मद्वंशप्रभवा नराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में  होगी। तथा मेरे गोप वंश (कुल) के लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १४-१५।

अब सवाल यह है कि गायत्री स्वयं अपने को गोप कुल का तथा गोपों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) किस आधार पर कहीं ? इसको भी जानना आवश्यक है।
चुँकि भूतल पर देवी गायत्री गोप कुल की सनातनी एवं आदि देवी हैं। इसलिए उन्हें स्वयं तथा अपने गोपों की मूल उत्पत्ति का ज्ञान था कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों अर्थात उनके क्लोन से हुई है। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- अहीर जाति के मूल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त विद्यमान है। इसी लिए स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के श्लोक-(१४) में ज्ञान की देवी गायत्री ने भी गोपों अर्थात् आभीरों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) कहीं हैं।

✴️ आभीर जाति को यदि शब्द ब्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो तरह से भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-

ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमर सिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।

आ= समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु =  जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।

किन्तु वहीं पर अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके की है। नींचे देखें।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है।

अगर देखा जाय तो उपरोक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नही है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे नें अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है।
 अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है। अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिन्दी में आये हैं, 'तद्भव' कहलाते हैं। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किन्तु कालान्तर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिन्दी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी

उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
किन्तु यहाँ पर हमें अहीर और आभीर, शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिन्दी और संस्कृत ग्रन्थों में कब, कहाँ और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले अहीर शब्द के बारे में जानेंगे कि हिन्दी ग्रन्थों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ।

अहीर शब्द का प्रयोग हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं-



इसी  ग्रन्थ "सुजानरसखान" में अन्यत्र भी रसखान श्रीकृष्ण को अहीर  लिखते हैं ।

देस बदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।
तातें तिन्‍हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्‍याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।

बाँकी धरै कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान कटै रस बीर के।

कुंडल कान लसैं रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।

डारि ठगौरी गयौ चित चोरि लिए है सबैं सुख सोखि सरीर के।

जात चलावन मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।88।।

_____

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांँव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रन्थ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर
हूँ चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८

अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्रीकृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (उद्धारक) हो, मैं चारण आप श्रीहरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर गुणों के क्षीर से भरा हुआ है। ५८

 और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्रीकृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर के दशमस्कन्ध-(पृष्ठ ४७९) में लिखा है-

सूरसागर.पृष्ठ/
(४७९)
दशमस्कन्ध-१०

चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ।८१॥जैतश्री॥ 

सखीरी काके मीत अहीर ।
 काहे को भरि भरि ढारति हो इन नैन राह के नीर।।

आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुनके क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरतहै जो यमुनाके तीर।। ॥ 

मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे पीर ।।८२॥ 
 

ये उपर्युक्त सभी उदाहरण श्रीकृष्ण के  अहीर जाति का होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रन्थों प्रयुक्त हुए हैं। अब हम लोग आभीर शब्द को जानेंगे जो अहीर का तद्भव रूप है, वह संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रन्थों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।

सबसे पहले हम गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय ७ के श्लोक संख्या- १४ को लेते हैं जिसमें में भगवान श्रीकृष्ण और नन्दबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहाँ गए। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।। १४

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए  कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा। १६

 उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बन्धित थे।   
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।। ६।   

यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।। ७।
             
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६।

अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

 इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।१६।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । १७।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। १८।
     
                 
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८

▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों (अहिरों) को अजेय योद्धा के रूप में वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

 अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
           
इसी तरह से जब भगवान श्रीकृष्ण  इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्रीकृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इन्द्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५

अनुवाद- ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमण्ड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
•  कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।

उपर्युक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।

इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के
श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४

अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सर्वसम्मति श्रीकृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना गया। किन्तु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्रीकृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से सम्बोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।।१८।

अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९।

यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०।
             
  अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९।
•  यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४

अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४

उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार यदि शिशुपाल के कथनों पर  विचार किया जाए तो वह श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्रीकृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८

अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
     अतः शिशुपाल भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किन्तु वह भगवान श्रीकृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया।

इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्रीकृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के बीच पौण्ड्रक भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।

अनुवाद-  राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहाँ चले गए थे? २६
• तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौंड्रक से कहा- राजन ! मैं सर्वदा गोप हूँ, अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूँ , सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।

देखा जाए तो इन उपर्युक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूँ।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
    
✳️  ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द के ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
     जैसे भगवान श्रीकृष्ण को तो सभी जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनके कुल रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें आभीर या अहीर कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें, गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
                    
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय- (५) में बताया गया है।
और जहाँ तक बात रही आभीर जाति की वंश मूलक पहचान की, तो इनके वंश मूलक पहचान को इसी अध्याय के भाग (३) में आगे बताया गया है।

अब हमलोग इसके अगले भाग-(दो) में आभीर जाति के यादवों के वर्ण को जानेंगे। क्योंकि जाति के बाद वर्ण का निर्धारण होता है।

भाग (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।

इस भाग का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना को बताते हुए, भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में वैचारिक अन्तर और कुछ मूलभूत विशेषताओं की जानकारी देना है। इसके लिए इस अध्याय को (तीन) शीर्षकों और उप शीर्षकों में विभाजित किया गया है -

(१)- भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।
   [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
   [ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
   [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।      

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖


(१)- भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।

देखा जाए तो प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च-पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्च - प्रथा के ही सूचक थे। जो परम्परागत रूप से आज भी ग्रामीण समाज में पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायतों के रूप में प्रचलित हैं। जिसे भारत की पञ्चायत राज प्रणाली में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्योंकि भारत में पञ्चायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक ग्राम संस्थाओं पर ही आधारित है। ग्राम पञ्चायत, गाँव की मन्त्रिपरिषद का काम करती है। जिनके सदस्यों का चुनाव जनता करती है और इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पञ्च के रूप में उपस्थित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।

इस तरह की संकल्पना हमारे समाज में पूर्व काल से ही रही है। जिसकी पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद से होती है जिसमें बताया गया है कि- पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के सूचक व पञ्चों का रूपान्तरण है।

आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान।
सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१०

तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ ऋग्वेद-१०.५३.४।

पदों का  अर्थ-
(अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को   (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ। है (येन) = जिससे  (देवाः) = और देव (असुरान्) = आसुरों का (अभि असाम) = अभिभव करते हैं।
(ऊर्जादः) = पौष्टिक ही अन्नों का सेवन करनेवाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण( जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो।
उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च पञ्चकृष्टी और पञ्च जन जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं कि समाज में पाँच प्रकार के व्यक्ति थे जिनका समाज में वर्चस्व होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का ही वाचक है। जैसे-

स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा में काष्टा शब्द जाति नसल का सूचक है, जो भारोपीय भाषा परिवार के शब्द "काष्टा और कास्ट शब्द से निर्मित वैदिक कृष्टि के रूपान्तरण हैं । संस्कृत में भी कृष्टि शब्द कृषि- फसल (फलस्) और  सन्तान आदि का- वाचक है।

वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।

अनुवाद:-
वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है।

✳️  चातुर्वर्ण्य की महत्ता कम न हो जाए  इसलिए इस महत्वपूर्ण जानकारी को पुरोहितों ने छुपा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश लोग पञ्चमवर्ण (वैष्णव वर्ण) को नहीं जान सके।

✳️ दूसरी बात यह कि- अधिकांश लोग वर्ण और जाति में अन्तर नहीं जानते हैं, इसलिए अपने वर्ण को ही जाति कहते हैं और जाति को ही वर्ण कहते हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं-
• पहला यह कि या तो उन्हें जाति और वर्ण में अन्तर का ज्ञान नहीं है या-
• दूसरा यह कि पौराणिक ग्रन्थों में अधिकांश लोगों की जातियों का वर्णन नहीं मिलता है, ऐसी स्थिति में वे लोग अपने वर्ण को जाति कहनें लगते हैं। ‌जैसे किसी ब्राह्मण से पूछा जाए कि आपकी जाति क्या है? तो वह अपनी जाति के स्थान पर अपने "वर्ण" ब्राह्मण को ही जाति बताएगा।

इसी तरह से ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के किसी क्षत्रिय वर्ण से यदि पूछा जाए कि आपकी जाति क्या है? तो वह अपनी जाति के स्थान पर अपने वर्ण को ही बताते हुए कहेगा कि मेरी जाति क्षत्रिय है। जबकि उसे पता होना चाहिए कि क्षत्रिय जाति नहीं बल्कि एक वर्ण है।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बहुत से लोगों की जातियों का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों में नहीं मिलता है जिसके कारण अधिकांश लोग अपने वर्ण को जाति और जाति को ही वर्ण बताने लगते हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि पौराणिक या ऐतिहासिक ग्रन्थों में जिन जातियों का स्पष्ट रूप से वर्णन मिलता है वे सभी या तो वैश्य वर्ण के हैं या किसी अन्य वर्ण के हैं। जैसे- तेली, कायस्थ, कुम्हार, कोहार, गोंड, लोहार, सोनार, बंजारा, मुण्डा, भुइया, खोंड, भील, मिहाल, बिरहोर, गडावां, कमार, गडावां, कमार, नट, बन्जारा, बड़होर, चेंचू, गड़ाबा, गोंड, होस, जटायु, जुआंग, खरिया, कोल, खोंड, कोया, उरांव, संथाल, सओरा, गद्दी, स्वागंला, इत्यादि और भी बहुत सी जातियां हैं, जिनके सदस्यपत्तियों से यदि उनकी जाति का नाम पूछा जाए तो ये लोग स्पष्ट रूप से अपनी जाति को बता पाते हैं। किन्तु वे लोग जिनकी जाति का अता-पता नहीं, पौराणिक ग्रन्थों या इतिहास में जिनका उल्लेख नहीं है, वे ही लोग अपनी जाति के स्थान पर अपने वर्ण को बताया करते हैं।

किन्तु यहाँ पर पाठक गणों को यह संशय अवश्य हुआ होगा कि उपरोक्त जातियों में "अहीर" जाति का नाम क्यों नहीं लिया गया ? तो इस सम्बन्ध में बताना चाहुँगा कि - उपरोक्त सभी जातियाँ, जिसमें ब्रह्मण भी आते हैं वे सभी ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के चातुर्वर्ण्य की जातियाँ हैं। जबकि अहीर जाति एक ऐसी जाति है जो ब्रह्माजी की सृष्टि रचना नहीं है। इस बात को पहले ही जाति वाले प्रकरण में तथा अध्याय (चार) में पहले ही बताया जा चुका है कि गोपों यानी आभीरों की उत्पत्ति गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के रोम कूपों अर्थात उनके क्लोन से हुई है। इस लिए ब्रह्माजी से उत्पन्न जातियों में अहीर जाति का नाम नहीं लिया गया है।


✳️ ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल का भार उतारने के लिए भूमि पर अवतरित होते हैं, तो वें इसी स्वतन्त्र और निर्भीक "अहीर" जाति के यादव वंश के गोपकुल में ही अवतरित होते हैं। इसकी पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

(भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (५,६) में दी गई है वहाँ से पाठक गण इस प्रसंग पर और अधिक जानकारी ले सकते हैं।)


  [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।


जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हूँ कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। ठीक इसी तरह से यादवों यानी गोपों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।

किन्तु पुराण कारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। जबकि देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का ही माना जा सकता है।

इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चमवर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही हैं। अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंग हैं ना की पञ्चमवर्ण के।

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चमवर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।

अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ, और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ, और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२

"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)

नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो कभी भयभीत नहीं होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का ही पर्याय है, जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं।
अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो स्वराट
विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

जो वैष्णव सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।

महेश्वर उवाच-
शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।               
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।                                                   
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।   

अनुवाद:-
१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
                    
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                 
३-चूँकि वह विराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।        

यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की ब्युत्पत्ति बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।

अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।
अब हमलोग इसी क्रम में जानेंगे कि ब्रह्माजी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई ?



    [ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति।

  
सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्माजी से "चातुर्यवर्ण" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक- (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -

ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।।

अनुवाद:-
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।

फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि-

पद्मपुराण  सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०। 

अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।

इस सम्बन्ध में अत्रि संहिता का (१४० वाँ) श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०

अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति (वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)

ज्ञात हो ब्रह्माजी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥

अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।७।

अतः इस खण्ड के सभी उपर्युक्त श्लोकों एवं साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण यानी स्वराट विष्णु के रोम कूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई, और उनकी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इन्हें आभीर कहा गया। इनकी यहीं निर्भीक प्रवृत्ति ने ही गोपाल और कृषि वृत्ति यानी व्यवसाय का वरण किया जिसके परिणाम स्वरूप उनका वर्ण- वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ। जो उत्पत्ति विशेष के कारण ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से परे हैं।

अब हमलोग जानेंगे कि इन दोनों वर्णों (वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य) में मूलभूत अन्तर और विशेषताएँ क्या हैं ?

[ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-

इस भाग का मुख्य उद्देश्य ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य और विष्णुजी के वैष्णव वर्ण में मूलभूत अन्तरों एवं उनकी तुलनात्मक विशेषताओं को बताना है। इस प्रसंग को क्रमबद्ध तरीके से जानने के लिए निम्नलिखित उप-शीर्षकों में विभाजित किया गया है -
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।   
  
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖


  [१]  जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-


▪️"ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्मगत है"-
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्माजी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण- विभाजन की एक विचित्र (अजीब) सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। जिसमें रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।

यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। पर ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्योंकि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता है। मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता-पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ ही करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में भी बहुतायत लोग तामसिक व राजसी प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी वीर तथा साहसी नहीं होती ।
वैश्य और शूद्रों के विषय में भी इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।

कुछ प्रवृत्तियों का निर्धारण माता-पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है। इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।

कुल मिलाकर - कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत अथवा जन्म के आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह हैं। जबकि इसके विपरित वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं बल्कि कर्मगत है। इसके लिए नींचे देखें-


▪️ वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।


ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। और यही सत्य और न्याय सम्मत भी है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत ही माना है जन्मगत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता -(४/१३) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्"।।१३।।

अर्थात्- मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के आधार पर विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फलों में मेरी कोई स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है ।१३

✳️ ज्ञात हो- उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- ब्रह्मा ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के निर्देश पर निश्चय ही गुण और कर्म के आधार पर ही व्यक्तियों का वर्ण निर्धारित किया होगा।
अत: इस सृष्टि में ब्रह्मा के नाम से ही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है न की श्रीकृष्ण के नाम से। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण उपादान कारण हैं और ब्रह्मा निमित्त कारण हैं। जो बाद के समय में यह व्यवस्था कर्मगत के स्थान पर जन्मगत हो गई।

जबकि देखा जाए तो श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था ही
सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे-बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों (शरीरों) में होता है। यहीं इस संसार का सनातन नियम है।
कर्म का फल" फल का भोग।
जीवन जगत् का यह संयोग

कर्मा: फलानि उत्पादयन्ते तानि फलानि परिणामानि रूपाणि भोक्तुं प्राणीनि जन्मानि लभन्ते ये च जायन्ते ते अवश्यं म्रियन्ते जन्ममरणं च जगत्।

अर्थ:- कर्म फल उत्पन्न करते हैं और उन फलों, परिणामों और रूपों का आनन्द लेने के लिए प्राणियों का जन्म होता है और जो पैदा होते हैं उन्हें मरना ही पड़ता है, जन्म और मृत्यु ही संसार है।

देखा जाए तो भक्ति- ज्ञानयोग और कर्मयोग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नींचे श्लोक- देखें।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।2.47।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं !  तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् (कर्म मार्ग में) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा (इच्छा) होगी तो तू कर्मफल प्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल प्राप्ति का कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने  लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।

इसी सिद्धान्त के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
अब हमलोग ब्राह्मी और वैष्णवी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर को जानेंगे।

  [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर-
       

▪️ ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर आधारित है-

जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥

अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।

वास्तव में देखा जाए तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इन्द्र से पूछा कि -

                  "सूत उवाच।
                 "ऋषय ऊचुः!
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।

अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।।२।

औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।

वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।

एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-

अनुवाद- १-४
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के
कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुग (सत्युग) के साथ उसकी सन्ध्या (तथा सन्ध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की सन्धि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि (वर्षा) होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्तावृत्ति (बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत रूप से आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?
हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥
                

                 "सूत उवाच !
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।।५।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।

विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।

आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५।

उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।

तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६।

अनुवाद- ५-१६
सूत जी कहते हैं- ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।
उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देव तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले आदिदेव (पूर्वदेव) थे, देवगण उन्हीं अपने पूर्वजों का यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ (समूह के समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।
सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगमविहित धर्म का अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञके बीजभूत  त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।'

तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।

तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।

किन्तु इन्द्र  शक्ति सम्पन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परम्परागत के रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परम्परा प्रारम्भ हुई। जिसमें पशुओं के माँस को भी खाना परम्परागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को माँस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -

"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।

अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज माँस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित माँस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।

ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -

मत्स्यान स शल्कान भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च । निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा  ।।३६।।

मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।। ३७।।

शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः ।।३८।।

प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।

भक्षयेन्नैव  मांसानि   शेषभोजी  न   लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।

आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो  नरकान्  व्रजेत् ॥४१॥

अनुवाद- ३६ से ४१
• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का माँस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
• मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा या , कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हँस सभी  जानवर शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७।
• शफरी-मछली तथा  सिंहतुण्ड (शेर जेसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन (पढिना),मछली रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
• धो पौंछ कर ही ब्राह्मण को माँस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके माँस का भक्षण करना चाहिए ।३९।
• यज्ञ के पश्चात बचा हुआ माँस खाकर ‌व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०।
• यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति माँस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१

इन उपरोक्त श्लोक से यह सिद्ध होता है कि पूर्वकाल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख अवसरों (मौकों) पर पशु बलि एवं माँस खाने और खिलाने की प्रथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को माँस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो मौके पर नहीं खाता, वह नर्कगामी होता था। क्योंकि ये सभी बातें पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होती हैं।

✴️ दूसरी बात यह कि- उपर्युक्त श्लोक में यज्ञ विधानों के अन्तर्गत जो आगम और निगम शब्द आये हैं - उनका शास्त्रीय अर्थ जानना भी उचित है।
इस सम्बन्ध में तान्त्रिक ग्रन्थों में आगम का लक्षण निम्नलिखित है।
आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजानने ।
मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते”
    (रघुवंश महाकाव्य- १०/२६)

अनुवाद:- शिव के मुँख से आया हुआ और पार्वती को  मुख में पहुँचा हुआ तथा वासुदेव कृष्ण का मत (माना हुआ ) उसी को आगम कहा जाता है।
आगम की ही एक अपर संज्ञा "तन्त्र" है। तन्त्र और आगम, समानार्थी अर्थों में  शास्त्रों में प्रयुक्त होते रहे हैं।

आगम इन सात लक्षणों से समन्वित होता है- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शान्ति,
वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। ये आगम ग्रन्थ के लक्षण हैं।

▪️तन्त्रशास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, उनका साधन, पुरश्चरण-(हवन आदि के समय किसी विशिष्ट देवता का नाम जप अथवा किसी मन्त्र, स्तोत्र आदि को किसी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये किसी निश्चित समय और परिमाण तक नियमपूर्वक जपना या पाठ करना) और चार प्रकार का ध्यानयोग होता है ।

आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजान
ने। मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” ॥
इति (एतल्लक्षणं यथा -“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्च्चनं । साधनञ्चैव सर्व्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तमिर्लक्षणैर्युक्तं त्वागमं तद्विदुर्बुधाः”॥ इति इति यथा रघुवंशे ।१० / २६

कुल मिलाकर वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं और शास्त्रों के उस स्वरूप को आगम कहते हैं जो व्यवहार अथवा आचरण में उतारने वाले उपायों का रूप होता है।। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है।

आगमात् शिववक्त्राद् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेनागमः इति कथ्यते ॥
जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है। [वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी व्याख्या]
उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पञ्चरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धान्त, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम।
द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं।
आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं।
यह शास्त्र साधारणतया तन्त्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम (तन्त्र) भी है। दोनों स्वतन्त्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक व सन् पूरक भी हैं। जिसमें निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। अत: (निगम  सैद्धान्तिक है तो आगम प्रायौगिक)
  
किन्तु इन सबके विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि  एवं माँस खाने का विधान है। क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डो से कोसों दूर पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नींचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।

▪️  वैष्णवी वर्ण व्यवस्था- भक्तिमूलक है -
                   
जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इन्द्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान किया गया था। जिसमें पशुओं के माँस खाने का भी विधान था। किन्तु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः वैष्णव भक्ति पर आधारित है। क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वां श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।

द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३

अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले वैष्णव यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर- स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।

इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगभद्गीता के अध्याय - (४ के श्लोक- २८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पाँच भेद बताए हैं।

"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।२८।

व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।

विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पाँच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं।

(१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सान्सारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमन्दों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।

(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।

(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है।

(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।

(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।

देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पाँच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों, जिसमें पशु बलि का प्रावधान है  उसका वर्णन नहीं किया है।
अतः मत्स्यपुराण के उपर्क्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इन्द्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत दु:खद व पशुसंरक्षण की समस्या थी। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी।

क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है।

क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। दूसरी बात यह कि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इसलिए यज्ञ वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है। क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति के निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं; यही  वैष्णवों का परम धर्म और कर्तव्य हैं। इस सम्बन्ध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।

क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का भी आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित कर्म होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण  प्रकृति खण्ड- अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) से होती है। जिसमें यहाँ पर देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) के श्लोक दिया जा रहा है-
जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण विराट विष्णु से कहते हैं कि -

"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते॥२८॥

"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥

"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।

"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥

"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् छूद्र विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् विष्णु के होते हैं ।।२८-२९॥
• उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट विष्णु और छुद्र विष्णु ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता में कहते हैं कि -

'अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४।
                           {श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४}
अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सरल रूप से प्राप्त हो जाता हूँ।१४।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।
                         (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६)
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।

✴️ अब यहाँ पर यह जानना आवश्यक हो जाता है कि भक्तों द्वारा चढ़ावा या नैवेद्य परमेश्वर श्रीकृष्ण- विराट विष्णु और छुद्र विष्णु के माध्यम से औपचारिक रूप से अवश्य ग्रहण करते हैं, किन्तु भक्त के वास्तविक भाव को परमेश्वर श्रीकृष्ण ही ग्रहण करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही हैं क्रिया या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम की, अपनेपन की और मन की पवित्रता की ही प्रधानता है, किसी कर्मकाण्डीय विधि की नहीं। यह बात श्रीकृष्ण भक्तों को सदैव ध्यान में रखनी चाहिए।

दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं की किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए; किसकी नहीं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि -

"अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।

                  श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला अर्थात् (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
  
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।२५।

                       (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

वैष्णव भक्तों के लिए तीसरी बात यह कि - वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाएं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-

अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।। २४।।
               [श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)

अनुवाद- सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ,। परन्तु वे अर्थात् देवताओं को पूजने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।

पुनः भगवान श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८ कहते हैं कि -

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।१६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।१७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।१८।
 
अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ मन्त्र मैं हूँ घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ऊँकार, ऋग्वेद, सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६,१७-१८।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥२५॥
                 [श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)

अनुवाद- जो मनुष्य तत्त्वज्ञ" जीवन्मुक्त महापुरुषों से सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनने के परायण हुए मनुष्य मृत्यु को तर जाते हैं।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।१४।
              {श्रीमद्भगवद्गीता- १३/१४}

अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।

देखा जाए तो वैष्णव भक्ति का वास्तविक भेद- भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस सम्बन्ध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्ध- {७} अध्याय- {५ }के श्लोक- {२३} में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-

              श्रीप्रह्लाद उवाच -
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।२३।
अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विराट विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं। (१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण। (२)- उनका ही कीर्तन। (३) उनके रूप आदि का स्मरण। (४)- उनके चरणों की सेवा। (५)- पूजा एवं अर्चन (६)- वन्दन।  (७)- दास्य (८)- सख्य और (९)- आत्मनिवेदन।

अतः उपरोक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित, समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।


        [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर

  
▪️ ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।

भारतीय समाज में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है कि - ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें उंँच-नींच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है। जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक (२७०) और (२७७) से होती है। जिसमें आचरणगत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दण्ड का आदेश दिया है। जिसमें यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। वहीं दूसरी तरफ उच्च वर्गों के लिए न्युनतम दण्ड का प्रावधान किया गया है इसके लिए निम्नलिखित श्लोक देखें -

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥

विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।

अनुवाद:-
• शूद्र लोग यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पापी कहे तो उसे जिव्हाछेदन का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य (सबसे नींचे) के स्थान से है।२७०।
• वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७।
   
कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय- के श्लोक- (१) से (६) में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।

शूद्रो द्विजातीनभिसन्धायाभिहत्य च वाग्‌दण्ड।
पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥

आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥

गोप्ता चेद्वधोऽधिकः॥३॥

अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर
णमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥

आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥

शतं क्षत्र्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे ॥६॥

अनुवाद- १-६
• शूद्र यदि द्विजातीय वर्ण के व्यक्ति से अपशब्द बोले तो उसकी जिह्वा खींच लेनी चाहिए जिस अँग से कुछ परुषता (अपराध) या कठोरता होने पर उसको भी काट देना चाहिए।१।
• यदि शूद्र तीनों वर्ण की किसी स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो उसका लिंग काट देना चाहिए और उसकी सब सम्पत्ति छींन लेनीं चाहिए।२।
• यदि उसके रक्षक के वध की जिससे अधिक सम्भावना हो तो उनकी भी निगरानी रखनी चाहिए।३।
• वेदों को सुनने वाले शूद्रों के कानों में पिघलता हुआ सीसा (lead) धातु उसके कानों में डलवा देना चाहिए।४।
अर्थात्- वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, वेदों की ऋचाओं को बोलने पर उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए तथा उसे अंगभंग कर देना चाहिए ।।४।
और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।
• यदि शूद्र आसन शयन वाणी और मार्ग में बराबरी करता है तो वह दण्ड पाने योग्य है।५।

कुछ इसी तरह का विधान मनु ने भी अपनी मनुस्मृति में किए हैं। नींचे देखें-

शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।३७४।
      (मनुस्मृति के अध्याय - ८ /३७४)

अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ सम्भोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ सम्भोग करता है तो उसे अपने प्राण गंवानें पड़ते हैं।३७४।

ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥१३५)
      (मनुस्मृति के अध्याय - २/ १३५)

अर्थात्- दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।

मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -२७७ में भी मिलता है। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दण्ड का प्रावधान किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।८४।

केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च।८५।

अनुवाद- ८४-८५
• यदि कोई नींच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट जाति वाले व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसके गुदा (नितम्ब) भाग को कटवा दे।८४।
• इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दण्ड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोष (वृषण) के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५।


✴️  कुछ इसी तरह की बातें मूर्ख, पाखण्डी और कर्महीन ब्राह्मणों के लिए भी देवी भागवतपुराण तृतीय स्कन्ध के अध्याय-(१०) के निम्नलिखित श्लोकों में कहीं गई है कि-

'यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३॥

"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण शूद्र-तुल्य होता है। क्योंकि वह न तो सम्मान (पूजा) के ही योग्य होता है। और न ही वह दान देने का पात्र ही होता है। वह सभी धार्मिक शुभ कार्यों में निन्दनीय होता है। ।३३।

देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा ॥३४॥

"अनुवाद:- किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्र विहीन ब्राह्मण कर (टेक्स) देने वाले शूद्र की भाँति राजा द्वारा  समझा जाना चाहिए।३४।

नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता ॥३५॥

अनुवाद:-  फल की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि वह पितृ कार्य और देव पूजा के अवसर पर उस मूर्ख ब्राह्मण को आसन पर न बिठाऐ ।३५।

राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु ।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः॥३६॥

"अनुवाद:- राजा भी वेदज्ञान विहीन ब्राह्मण को शूद्रतुल्य समझे और उसे धार्मिक शुभ कार्यों में नियुक्त न करे अपितु उसे खेती बाड़ी के कार्य में लगा दे।३६।

विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥

"अनुवाद:- वेद ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से स्वयं श्राद्ध कार्य कर लेना उचित है। किन्तु मूर्ख (अज्ञानी) ब्राह्मण से कभी श्राद्ध कार्य नहीं कराना चाहिए ।३७।

आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते ।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः॥३८॥

"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण को भाेजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिए ! क्यों की दान देने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। और दान लेने वाला तो घोर नरकों में ही जाती है।३८।

धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि ॥३९॥

"अनुवाद:- उस राजा के राज्य को धिक्कार है जिसके राज्य में मूर्ख लोग निवास करते हैं। और मूर्ख ब्राह्मण भी ‌दान सम्मान आदि से पूजित होते हैं।३९।

आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि ।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै ॥४०॥

"अनुवाद:- जहाँ मूर्ख और विद्वान के बीच आसन-पूजन और दान में किञ्चित्मात्र भी भेद नहीं माना जाता है। अत: विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञानी और मूर्ख की अवश्य पहचान कर ले।३९-४०।

मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन ॥४१॥

"अनुवाद:-
जहाँ दान' मान और परिग्रह में मूर्ख व धूर्त लोग महान गौरवशाली माने जाते हैं। उस देश में विद्वानों को किसी भी प्रकार नहीं रहना चाहिए।४१।

असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते ॥४२॥

"अनुवाद:- दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जन व्यक्तियों के उपभोग के लिए ही होती हैं। जैसे नीम के फल (निबोरीयों) से अधिक लदे हुए नीम के वृक्ष पर बैठकर केवल कौए ही निबोरियाें को खाते  हैं।४२।

ये उपर्युक्त सभी बातें ब्राह्मीवर्ण व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद भाव के आधार पर दण्ड और तिरस्कार का विधान निर्धारित किया गया है जो किसी भी तरह से न्याय संगत नहीं है। किन्तु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अन्तर को नींचे देखें -

▪️ वैष्णवी वर्ण- व्यवस्था समतामूलक है-  

ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाँति, ऊँच-नींच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है। इस सम्बन्ध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-(९) के श्लोक- (३२) में अर्जुन से कहते हैं कि -

'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।

अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।

इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में उँच-नींच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥२१।
            (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।

न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रमजातिभिः।
सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः।।५१।।

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
     (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)

अनुवाद -५१-५२
• भागवत धर्म (वैष्णव वर्ण) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है। ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१।
• जो धन संपत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।५२।

न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः।
यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ४४ ॥           
               (श्रीमद्भागवत पुराण-१६/६/४४)
अनुवाद -
भगवान् ! आप के दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षींण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है।४४।

भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊँच-नींच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-

यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
                 (भागवत पुराण- ३/१६/६)
अनुवाद:-
मेरी निर्मल सुयश सुधा में गोता लगाने से चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित हो जाता है। इसलिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इसलिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों न हो।६।

और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज को स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
                        (श्रीमद्भागवत गीता- ४/७)
अनुवाद:-
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।७।
अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरो में भटकते हुए व्यक्ति को कहीं शान्ति और सत्य के दर्शन नहीं होते तो भगवान श्रीकृष्ण यह सार्वजनिक घोषणा करते हैं कि-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।
                  (श्रीमद्भागवत गीता (१८/६६)
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर।६६।
(व्याख्या)- भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के प्रति यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरन्त छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखण्डपूर्ण समाज से मुफ्त करके अवश्य उनका कल्याण करूँगा।

सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव-वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अन्तर भी देखे जाते हैं।

(१) पहला यह की ब्राह्मी वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य एकसमान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।
वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई !  जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"

(२)- दूसरा अन्तर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने-अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते  हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो। जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।

(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों (ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है।
जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्राह्मणत्व कर्म हो।

(४) - चौथा सबसे बड़ा अन्तर यह है कि- श्रौत और स्मार्त (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त (स्मृति- मूलक) ब्राह्मण, (धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवत धर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्यवस्था का आधार है। जबकि स्मृतियाँ- ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है।

(५) पाँचवां इन दोंनो व्यवस्थाओं में अन्तर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य (जीविका-उपार्जन के व्यवसाय) करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह पुरोहित- कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।
इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से भी होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए परिव्राट् मुनि कहते है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥

सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।

अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।३०-३६।

विशेष:-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कारुष वंश के एक राजा नाभाग जो दिष्ट के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा उक्त पुराण में इस प्रकार है—जब ये युवावस्था को प्राप्त हुए तब एक वैश्य की कन्या को देखकर मोहित हो गए और उस कन्या के पिता द्धारा अपने पिता से विवाह की आज्ञा माँगी। ऋषियों की सम्मति से पिता ने आज्ञा दी कि पहले एक क्षत्रिय कन्या से विवाह करके तब वैश्य कन्या से विवाह करे तो कोई दोष नहीं होगा। नाभाग ने पिता की बात न मानी। पिता पुत्र में युद्ध छिड़ गया। परिव्राट् मुनि ने यह युद्ध शान्त किया। नाभाग वैश्य कन्या का पाणिग्रहण करके वैश्यत्व को प्राप्त हुए।

इन उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्माजी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
       
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबन्ध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन  अध्याय- (११) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतन्त्र रूप से बिना किसी प्रतिबन्ध के करते हैं।

(६)- और अन्त में सबसे महत्वपूर्ण छठवाँ अन्तर यह है कि -
ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- (३१ और ३२) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥३१।

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥३२।

अनुवाद- ३१-३२
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत्- (यज्ञ में पशु बलि करने से सम्बन्धित अथवा मूलक) होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से सम्बन्धित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से सम्बन्धित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१।
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् , क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२।

जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं। या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगता।
      
वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुई।
क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा।
इस सत्य की पुष्टि -पद्मपुराण-भूमिखण्ड के अध्याय-( ८३) के श्लोक- (८०) से होती है।
                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी ! हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए। ८०।

अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में परमोदार ( दाता ) और दानी  के रूप में भी हुई है। दास शब्द दान देने (दासृ= दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न ऋचा को देख  लें-
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥  
                             (ऋग्वेदः सूक्तं ४/२/७)

▪️हे अग्निदेव ! उसके यहाँ एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान्सा- यणभाष्यम्)
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि- वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। जिसमें दास शब्द अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण करता हुआ आज वैष्णव भक्तों का वाचक है।। इस सम्बन्ध में और विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय -(७) के भाग- (१) "महाराज यदु के परिचय" में दी गई है।

इस प्रकार से यह भाग (दो) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब हमलोग इसी क्रम में भाग (तीन) में भारतीय समाज में वंश की अवधारणा एवं यादवों के वंश को जानेंगे।

भाग-(३) यादवों का वंश।

जाति और वंश में बस इतना ही अन्तर है कि जाति एक सामूहिक नाम है और वंश उस जाति समूह का व्यक्तिगत नाम है। वास्तव में देखा जाए तो वंश- दो प्रकार के होते हैं।
(१) प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश।
(२) टोटम या आध्यात्मिक वंश

   ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

(१) प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश-:

जब किसी जाति के अन्तर्गत किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर सर्वप्रथम पहचान स्थापित होती है तो उस व्यक्ति के नाम पर उस जाति का एक वंश स्थापित होता है। इस तरह के वंश को प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश कहा जाता है।
इस तरह के वंश के लिए कोई जरुरी नहीं है कि वह विशेष व्यक्ति जिसके नाम पर वंश बना है, वह राजा ही हो। क्योंकि ऐसे बहुत से वंश हैं जो किसी ऋषि-मुनि के नाम से ही बनें हैं। जैसे ब्राह्मण जाति में जो वंश बनें हैं वे सभी किसी न किसी ऋषि मुनि के नाम से ही हैं।
इस तरह के वंश में उस जाति का ब्लड रिलेशन होता है।
जैसे यादवों का वंश "यदुवंश" सर्वप्रथम महाराज यदु से स्थापित हुआ जिसमें यादवों का ब्लड रिलेशन है। इसके बारे में आगे विस्तार से बताया गया है।


(२) टोटम या आध्यात्मिक वंश -:

जब किसी जाति के लोग सामूहिक रूप से किसी प्राकृतिक वस्तु जैसे तारे, ग्रह या उपग्रह को आध्यात्मिक प्रतीक या चिन्ह के रूप स्वीकार करते हुए उसको अपना ईष्ट देव मानकर उसी के नाम पर अपना एक वंश स्थापित करते हैं तो इस तरह के वंश को टोटम या आध्यात्मिक वंश कहा जाता है। इस तरह के वंश में उस जाति का किसी भी तरह से ब्लड रिलेशन नहीं होता है। जैसे चंद्रवंश और सूर्यवंश।

हो सकता है कि जो लोग अपने को सूर्यवंशी मानते हों उनका सूर्य से ब्लड रिलेशन होता होगा किन्तु जितने चन्द्रवंशी हैं उनका चन्द्रमा से ब्लड रिलेशन नहीं है। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि तारे और ग्रहों से पुत्र इत्यादि पैदा करके किसी जाति की जन्मगत वंशावली बताकर उनमें ब्लड रिलेशन स्थापित करना महामूर्खता होगी क्योंकि चन्द्रमा कोई मानव नहीं है कि उससे पुत्र या पुत्री उत्पन्न होंगी। वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए चन्द्रमा से पुत्र इत्यादि उत्पन्न करना अवैज्ञानिक एवं कोरी कल्पना ही है। जिसे वर्तमान समय में किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसा वंश अर्थात् आकाशीय पिण्डों वाला वंश केवल आस्था, टोटम और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही स्वीकार्य किये जा सकतें हैं। इसी आस्था और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यादवों का प्रथम वंश "चन्द्रवंश" हुआ है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि यादव चन्द्रमा से उत्पन्न हुए हैं। जबकि इस सम्बन्ध में वास्तविकता यह है कि सभी यादव चन्द्रमा से नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं। इसकी पुष्टि- गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अतः उपरोक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि समस्त यादवों की उत्पत्ति चन्द्रमा से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण से हुई है।

और जिस तरह से यादवों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से हुई, उसी तरह से प्रारम्भिक काल में चन्द्रमा की भी उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से उत्पन्न विराट विष्णु से हुई। इसकी पुष्टि ऋग्वेद के १०/९०/१३ की ऋचा से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अर्थात् - परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि, उत्पन्न हुई।

✳️ ज्ञात हो पूर्व काल से ही चन्द्रमा और यादवों की उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों और चन्द्रमा में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। जिसके परिणाम स्वरूप यादवों ने भूतल पर चन्द्रमा को अपना प्रथम ईष्ट देव मानकर चन्द्रमा के नाम पर अपना आध्यात्मिक एवं प्राथमिक वंश "चन्द्रवंश" को स्थापित किया।

और हर द्वापर युग में भूतल पर इसी चन्द्रवंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ करता है। इसकी पुष्टि- विष्णु पुराण के पञ्चंम अंश के अध्याय-२३ के श्लोक सं- २४ में कहते हैं कि-
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः कुले।
वसुदेवस्य    तनयो  यदोर्वंशसमुद्भवः।।२४।

अनुवाद - मैं चन्द्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।

और आगे चलकर इसी चन्द्रवंश में महाराज यदु के नाम पर यदुवंश का उदय हुआ जिसके समस्त सदस्यपत्तियों को यादव कहा जाता है। इसकी पुष्टि-
विष्णु पुराण के चौथे अंश के अध्याय- ग्यारह के श्लोक २८ से ३० से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

यतो वृष्णिसंज्ञामेतद्  गोत्रमवाप।। २८।।
मधुसंज्ञाहेतुश्च      मधुरभवत्।। २९।।
यादवाश्च यदुनामोपलक्षणादिति।। ३०।।

अनुवाद - २८-३०
मधु के कारण इसकी संज्ञा मधु हुई और यदु के नामानुसार  इस वंश के लोग यादव कहलाए।

• जिस तरह से भगवान श्रीकृष्ण को चन्द्रवंश में अवतरित होने की पुष्टि होती है उसी तरह से उनको यादव वंश में भी अवतरित होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को अहीर जाती के यादव वंश के गोकुल में जन्म लेने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों (आभीरों) में अवतार ग्रहण किया है।

(यादव वंश को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय (७) में बताया गया है। जहाँ आपको यादवों के आदि पुरुष महाराज यदु का जीवन परिचय एवं यादव वंशावली की क्रमिक जानकारी मिलेगी।)

अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि आभीर जाति के विकास क्रम में चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुवंश का उदय हुआ। यदुवंश में भगवान श्रीकृष्ण को अवतरित होने से ही उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप कुल में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनके कुल रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए अभीर या अहीर कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण सहित आभीरो को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
                    
अब हमलोग इसी क्रम में यादवों के कुल के बारे में जानेंगे। जो इस अध्याय के भाग (४) में वर्णित है।

भाग- (४) कुल

ज्ञात हो कि- कुल और गोत्र में बहुत अन्तर नहीं होता है। क्योंकि कुल और गोत्र दोनों ही रक्त सम्बन्ध के ही प्रतीक हैं। दोनों में केवल भाव और भावनाओं का अन्तर है किन्तु दोनों का मूल आधार रक्त सम्बन्ध ही है। जिसमें गोत्र परिवारों एवं परिवारों का एक सामूहिक रूप है, जिसमें उनका एक जनन अर्थात् (Genetic) गोत्र होता है, जो सदैव निर्देशित करता है कि सात पीढ़ी तक एक ही कुल या परिवार में विवाह वर्जित है।
वास्तव में देखा जाए तो गोत्र नाम की आवश्यकता विवाह इत्यादि के समय होती है। बाकी अपनी पहचान इत्यादि के समय गोत्र और कुल का नाम एक ही सन्दर्भ में प्रयुक्त होता। इस भिन्नता को समझने की आवश्यकता है तभी भगवान श्रीकृष्ण सहित यादवों के जन्म और उनके कुल, गोत्र, वर्ण, और वंश की वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो पाएगा। जैसे-

पौराणिक ग्रन्थों में कहीं-कहीं यादवों के वंश "यदुवंश" को ही "कुल" तथा कहीं-कहीं यादवों के वर्ण "वैष्णव" को कुल और कहीं पर यादवों के कुल "गोप कुल" को मुख्य कुल मानकर भगवान श्रीकृष्ण को भूतल पर जन्म लेने को बताया गया है। किन्तु सभी तरह से कही गई बातें एक ही है, इसको अच्छी तरह से समझनें की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित (तीन) उदाहरण प्रस्तुत है।

(१)- श्रीकृष्ण का जन्म यदुकुल में -

(क)- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) में सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।

अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदुकुल में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर गोप रुप में लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करते रहोगे।१६१।

(ख)- गर्ग संहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में श्रीकृष्ण का जन्म यदुकुल में होने की पुष्टि होती है।

राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।

भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।

अनुवाद - ४५-४६
• राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ४५
• पृथ्वी का भार उतारने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए सम्पूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४६।

(उपरोक्त श्लोकों में श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेने की बात कही गई है। ऐसे ही बहुत से उदाहरण हैं उन सभी को  दोहराना उचित नही है।)


(२)- श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में -

(क)- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में होने की पुष्टि होती है। जिसमें ब्रह्माजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-

अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५।
    
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएँ कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पचीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
       
(ख)- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ में श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में होने की पुष्टि होती है।

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।

(उपरोक्त श्लोकों में श्रीकृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की बात कही गई है। ऐसे ही बहुत से उदाहरण हैं।)


(३)- श्रीकृष्ण का जन्म गोप कुल या आभीर जाति में -

हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में श्रीकृष्ण का जन्म गोप कुल या आभीर जाति में होने को बताया गया है। जिसकी पुष्टि स्वयं श्रीकृष्ण ने ही किये हैं।

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

(हरिवंश पुराण उपरोक्त श्लोकों में श्रीकृष्ण को गोकुल या आभीर जाति में जन्म लेने की बात कही गई है। ऐसे ही बहुत से उदाहरण हैं।)

अतः भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से सम्बन्धित उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है किसी भी जाति में एक वंश होता है और वंश में अनेकों कुल और गोत्र होते हैं।

महाभारत काल में यादवों के कुलों की संख्या एक सौ से भी अधिक थी। उन सभी का एक ही मुख्य कुल था जिसका नाम था "वैष्णव कुल" इसी वैष्णव कुल में यादवों के अनेकों कुल- अन्धक, वृष्णि, कुकुर, भोज इत्यादि थे।
जिनको कुल या खानदान के नाम से जाना भी जाता था। इसकी पुष्टि- वायुपुराण उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-३४ के श्लोक- २५५ और २५६ से होती है।

कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।

अनुवाद:- २५५-२५६
• यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
•  उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

इसी तरह से मत्स्यपुराण के अध्यायः (४७) के श्लोक २८और २९ में यादवों के मुख्य वैष्णव कुल में सौ से अधिक उपकुल होने  को बताया गया है-

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।२८।

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।२९।

अनुवाद - २८-२९
• अनुवाद -  इन महाभाग यादवों के एक सौ एक कुल थे। जो सब-के सब श्रीकृष्ण से सम्बन्धित वैष्णव कुल के अन्दर ही विद्यमान थे।। २८।
• भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) उनके नेता और स्वामी थे। तथा वे सभी यादव श्रीकृष्ण की आज्ञा के अधीन रहते थे। ऐसा कहा जाता है।।२९

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि यादवों का एक मुख्य कुल है जिसका नाम है "वैष्णव कुल" इसी वैष्णव कुल में अनेकों उपकुल हैं जो वैष्णव नाम से ही जानें जातें हैं, क्योंकि उन सभी में प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित रहते हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं। इस बात की प्रमाणिकता के लिए नीचे वर्णित वायुपुराण उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-३४ के श्लोक- २५६ को देख सकते हैं-

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।

अनुवाद:-  उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

अब हमलोग इसके अगले भाग- (५) में यादवों के प्रमुख गोत्रों के बारे में जानेंगे कि यादवों में कितने प्रकार के गोत्र होते हैं।

भाग- (5) यादवों का गोत्र-


इस भाग का मुख्य उदेश्य किसी जाति के अन्तर्गत गोत्रों का निर्धारिण कब और कैसे होता है की जानकारी देना है। इसी क्रम में यादवों के प्रमुख गोत्रों के बारे में भी जानकारी देना है कि यादवों में कितने गोत्र और उप गोत्र हैं ?

तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि किसी भी जाति में व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार या कहें तीन तरह से स्थापित होता है-

(१)- जनन या (Genetic) गोत्र।
(२)- स्थानीय गोत्र।
(३)- गुरु गोत्र।

उपरोक्त तीनों प्रकार के गोत्रों के बारे नीचे क्रमबद्ध बताया गया है।

(१)- जनन या (Genetic) गोत्र।

जनन गोत्र को मूल गोत्र भी कहा जाता है। शास्त्रों में जनन गोत्र को ही पिण्ड गोत्र कहा गया है। यह गोत्र अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करते हुए यह पहचान कराता है कि किसी व्यक्ति का जन्मगत आधार क्या है और उसकी प्रारम्भिक उत्पत्ति किससे हुई है। अर्थात उसके प्रथम जनक कौन हैं।
जनन गोत्र में किसी जाति के समस्त व्यक्तियों का रक्त सम्बन्ध होता है जिनके प्रत्येक सदस्यों की D.N.A. संरचना लगभग एक समान होती है। जैसे गोपों (यादवों) का जनन गोत्र "कार्ष्ण" है। जो कृष्ण पद में सन्तान वाचक अण् प्रत्यय लगाने पर कृष्ण से "कार्ष्ण" पद बना है। (कृष्णस्येदम् + अण् = कार्ष्ण) जिसका अर्थ है श्रीकृष्ण की सन्तान अर्थात् जो श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ हो।
और इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि यादवों (गोपों) का जन्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण के क्लोन (Clone) से हुआ है, इसलिए समस्त यादवों का जनन गोत्र कार्ष्ण है। इसके बारे में आगे विस्तार बताया गया है कि कैसे यादवों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण से होने की वज़ह से उनका जनन गोत्र "कार्ष्ण" है।

किन्तु जनन गोत्र की बात तब तक अधूरी रहेगी जब तक भारतीय संस्कृति और शास्त्रों के आधार पर इसकी जानकारी न हो जाए।

भारतीय संस्कृति व पौराणिक ग्रन्थों में मुख्यतः तीन प्रकार के जनन गोत्रों की जानकारी मिलती है -
(१) गोत्र
(२) प्रवर गोत्र
(३) पिण्ड गोत्र

ये तीनों ही प्रकार के गोत्र सन्निकट रक्त सम्बन्धों की श्रृंखला है। इन तीनों के बारे जानना आवश्यक है।

(१)- "गोत्र" शब्द से तात्पर्य विवाह इत्यादि के अवसरों पर अपने किसी आदि पुरुष के नाम पर अपना परिचय देना या उसके नाम का आह्वान करना है।
गोत्र के बारे में भरत मुनि का कहना हैं कि - "गोत्रम्- गवते शब्दयति पूर्व्व पुरुषान् यतिति"।

अर्थात्- जिसके द्वारा अपने "कुल" के पूर्व पुरुष का आह्वान किया जाए वह गोत्र है।
ध्यान रहे अमरकोश के अनुसार गोत्र कुल का भी पर्याय है।


(२)- प्रवर गोत्र

प्रवर का मतलब प्रधान, सर्वश्रेष्ठ या पूज्य होता है। इसी आधार पर "प्रवर" गोत्र की स्थिति बनी है। इस प्रकार के गोत्र श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों के नाम पर ही आधारित होते हैं। जो अधिकांशतः ब्राह्मणों के ही गोत्र हैं।
भारतीय विवाहों में प्रवर गोत्र का भी ध्यान रखा जाता है, अर्थात् समान प्रवर वालों में विवाह वर्जित है। देखिए गौतम, नारद तथा आपस्तम्ब के वचन-
" समान एकः प्रवरो येषां तैः सह न विवाहः।" (1.23.12)

प्रारम्भ में 'प्रवर' का अर्थ याज्ञिक कार्य से सम्बद्ध अग्नि का आवाहन करने वाले ऋषियों से ही था। वरणीय/ प्रार्थनीय/ आवाहनीय श्रेष्ठ ऋषि 'प्रवर' कहलाते थे। ये ऋषि उद्गाता भी कहे जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान में पुरोहित अपने सर्वश्रेष्ठ पूर्वज ऋषि का नाम-स्मरण करते थे, जो उनके समुदाय या समाज के प्रतीक थे। कालान्तर में ये ऋषि अपने वंशजों की सामाजिक, सांस्कारिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था से जुड़ते चले गए। ये ही ऋषि आगे चलकर प्रवर-प्रवर्तक हुए और उनके नामों पर अनेकों प्रवर गोत्र बना जो सभी ब्राह्मणों के लिए ही हैं।

(३)- पिण्ड गोत्र।

दरअसल देखा जाए तो जनन गोत्र और पिण्ड गोत्र का रक्त सम्बन्धी उत्पति सिद्धान्त एक ही है। बस इन दोनों में थोड़ा बहुत अन्तर है उसे जानना आवश्यक है। इसके लिए नीचे देखें -
(क)- जनन गोत्र-  
जनन गोत्र उस प्रारम्भिक स्थिति को दर्शाता है जहाँ से किसी जाति विशेष लोगों की प्रारम्भिक उत्पत्ति हुई है। जैसे- गोपों की प्रारम्भिक उत्पत्ति पूर्व काल में गोलोक में श्रीकृष्ण से हुई है। इस लिए गोपों का जनन गोत्र श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण है। यह गोपों का मूल व प्रारम्भिक गोत्र है। इसके बारे में आगे विस्तार से बताया गया है।

(ख)- जनन गोत्र की ही तरह पिण्ड गोत्र भी हैं। किन्तु पिण्ड गोत्र "जनन" गोत्र के बाद की उत्पत्ति को दर्शाता है। पिण्ड गोत्र को पित्र गोत्र भी कहा जाता है, जो किसी जाति विशेष के पूर्वजों के नाम से होता है जिसके कारण अनेक पिण्ड गोत्रों की उत्पत्ति होती है। इसी पित्र गोत्र को ध्यान में रखकर सगोत्र विवाह वर्जित है। किन्तु माता की पाँचवीं तथा पिता की सातवीं पीढ़ियों के बाद सपिण्डता का दोष नहीं रहता है। वर्तमान समय में यादवों में उनके पूर्वजों के नाम पर बहुत से पिण्ड

गोत्र हैं जिनका यहाँ पर वर्णन करना सम्भव नहीं है।
इसी तरह से कुछ लोग अपनी प्रारम्भिक उत्पत्ति या जन्म को किसी ऋषि-मुनि से मानते हुए उनके नाम पर जनन गोत्र का निर्धारण करते हुए अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का सन्तान हूँ।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा की सन्तान मानते हैं। उन सभी का जनन गोत्र कहें या मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।

अब आप लोगों यहाँ पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों ? सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं ? तो इसका जवाब है नहीं। क्योंकि सभी ब्राह्मण ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। वास्तविकता यह है कि- प्रारम्भ में ब्रह्माजी के मुख से केवल ब्राह्मण पुरुष वर्ग ही उत्पन्न हुआ था न की ब्राह्मणी स्त्रियाँ। क्योंकि किसी भी पौराणिक ग्रन्थों में यह नहीं लिखा गया है कि ब्रह्माजी के मुख से ब्राह्मणों के साथ-साथ ब्राह्मणी स्त्रियाँ भी उत्पन्न हुईं थीं।

यहीं कारण है कि कुछ पौराणिक ग्रन्थों में ब्राह्मणों के जन्म विस्तार को अन्य तरह से बताया गया है। किन्तु यहाँ पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति या उनका गोत्र बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई इन बातों को जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण खण्ड- (३) के अध्याय- ३९ के प्रसंगों को पढ़कर इस विषय की जानकारी ले सकता है कि कुछ ब्राह्मणों का जनन का विस्तार कैसे हुआ है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि जनन गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की व्यक्ति की प्रारम्भिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसी के नामानुसार उस व्यक्ति का जनन गोत्र निर्धारित होता है।


✴️ यादवों का जनन गोत्र- "कार्ष्ण"

जनन गोत्र सिद्धान्त के अनुसार यादवों का जनन गोत्र कार्ष्ण है। क्योंकि कृष्ण पद में सन्तान वाचक अण् प्रत्यय लगाने पर "कार्ष्ण" पद बना है। (कृष्णस्येदम् + अण् = कार्ष्ण) जिसका अर्थ है श्रीकृष्ण की सन्तान अर्थात् जो श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ हो।
इस हिसाब से देखा जाए तो आभीर जाति के अन्तर्गत समस्त गोप-गोपियों अर्थात् यादवों का जन्म प्रारम्भिक काल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से हुआ है। तो ऐसे में जाहिर सी बात है कि- गोपों में श्रीकृष्ण का तथा गोपियों में श्रीराधा का रक्त अवश्य ही विद्यमान होगा। और रक्त सम्बन्ध ही किसी जाति या जनन गोत्र का मूल आधार है कि उसमें प्रारम्भिक रक्त किसका है।
इस हिसाब से भी देखा जाए तो समस्त गोपों में श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कुछ कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) में मिलता है। जिसमें आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

अनुवाद - हे विष्णो (कृष्ण)! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे।१४

देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में देवी गायत्री बड़े ही स्पष्ट रूप से गोपों (आभीरों) को श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्धी (blood relative) होने को कहतीं हैं।
और जहाँ तक गोप और गोपियों का जन्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से होने की बात है तो इसकी पुष्टि के लिए निम्नलिखित साक्ष्य प्रस्तुत हैं-

(१)-  ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) केश्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों (कोशिकाओं) से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों  (कोशिकाओं) से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(ध्यान रहे रोम कूपों को ही आज विज्ञान की भाषा में कोशिका कहा जाता है)

(२)- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-५ के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)-  ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४) - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्याय- (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों (यादवों) का जन्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से ही हुआ है। तो जाहिर सी बात है कि गोपों अर्थात् यादवों का जनन (Genetic) गोत्र सिद्धान्त के अनुसार इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार "कार्ष्ण" ही हुआ। यह वैज्ञानिक और ध्रुव सत्य है।

✳️ किन्तु आश्चर्य है कि अधिकांश यादव लोग अपने जनन गोत्र "कार्ष्ण" के स्थान पर एक ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम पर अपना जनन गोत्र स्थापित कर अपने मूल जनन गोत्र को ही भूल गए।
यादवों का जनन गोत्र "कार्ष्ण" है या अत्रि इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (१०) में दी गई है। तथा संक्षेप में यहाँ भी (गुरु गोत्र) वाले प्रसंग में दी गई है।

अब हमलोग स्थानीय गोत्रों के बारे में जानेंगे।



✴️ (२)- स्थानीय गोत्र-


स्थानीय गोत्र को कभी-कभी कुल या खानदान भी कहा जाता है। स्थानीय गोत्र वे होते हैं- जो किसी व्यक्ति समूह की भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचाँन कराते हैं। इस तरह के गोत्रों की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति और वंश के लोग किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से पलायन (Migrate) कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनका एक उपगोत्र बन जाता हैं। किन्तु उनका मूल जनन गोत्र पूर्ववत बना रहता है।
इस तरह के स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रान्तों में यादवों की पहचान अलग-अलग स्थानीय गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" जिसमें श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है वह पूर्ववत बना रहता है।
महाभारत काल में यादवों के स्थानीय गोत्र (कुल) एक सौ से भी अधिक थे। जिनको कुल या खानदान के नाम से जाना भी जाता था। इनके सभी कुलों को श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव कुल कहा गया है, क्योंकि उनमें भी श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि- वायुपुराण उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-३४ के श्लोक- २५५ और २५६ से होती है।

कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।

अनुवाद:- २५५-२५६
• यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
•  उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

इसी तरह से श्रीमद्भागवतपुराण उत्तरार्द्ध स्कन्ध १० अध्याय-९० के श्लोक- ४४ में यादवों के स्थानीय गोत्रों एवं कुलों की संख्या के बारे में लिखा गया कि-

तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप॥४४॥

अनुवाद :- उन दैत्यों का निग्रह (दमन) करने के लिए ही यादव वंश के कुलों में हरि (श्रीकृष्ण ) के कहने पर देवों ने अवतार लिया था। उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थीं।४४

इसी तरह से मत्स्यपुराण के अध्यायः (४७) के श्लोक २८और २९ में यादवों के गोत्रों (कुलों) की संख्या के बारे में लिखा गया है कि

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।२८।

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।२९।

अनुवाद - २८-२९
• अनुवाद -  इन महाभाग यादवों के एक सौ एक कुल थे। जो सब-के सब श्रीकृष्ण से सम्बन्धित वैष्णव कुल के अन्दर ही विद्यमान थे।। २८।
• भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) उनके नेता और स्वामी थे। तथा वे सभी यादव श्रीकृष्ण की आज्ञा के अधीन रहते थे। ऐसा कहा जाता है।।२९

इसी तरह से विष्णु पुराण के चौथे अंश के अध्याय- १५ के श्लोक ४७,४८ और ४९ में यादवों के गोत्रों (कुलों) की संख्या के बारे में लिखा गया है कि-

देवासुरे हता ये तु दैतेयास्मुमहाबलाः।
उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥४७।

तेषामुत्सादनार्थाय  भुविदेवा यदो: कुले।
अवतीर्णा: कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज:।४८।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेश्षस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥४९।

अनुवाद:-४७-४८,४९
• देवासुर संग्राम में महाबली दैत्यगण मारे गये थे।
वे मनुष्य लोक में उपद्रव करने वाले राजालोग बनकर उत्पन्न हुए।४७।
• उनका नाश करने के लिए देवों ने यदुवंश में जन्म लिया उस यदुवंश में एक सौ एक कुल थे।४८।
• विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।४९।

तब ऐसे में प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि यादवों में इतनें कुल या स्थानीय गोत्र क्यों और कैसे हुए ?
तो यादवों में इतनें कुल (परिवार) या स्थानीय गोत्र होने का मुख्य कारण यह रहा कि- यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। देखा जाए तो पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए।
इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहाँ पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृन्दावन में रहने लगे।
इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहाँ पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा छोड़कर द्वारकापुरी में रहने लगे।
कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप यादवों के अनेकों स्थानीय गोत्रों (परिवारों) कुलों का उदय हुआ। जैसे- अन्धक, वृष्णि, कुकुर, भोज इत्यादि जितने भी हुए उन सभी का जनन गोत्र "कार्ष्ण" या कहें उनका मुख्य कुल-खान्दान "वैष्णव ही था। क्योंकि (स्वराट विष्णु) अर्थात् श्रीकृष्ण उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित थे ऐसी बात उपर्युक्त श्लोकों में लिखी गई है।

ठीक उसी तरह से आज वर्तमान समय में भी यादवों  की पहचान हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों, परिवारों, या कुलों से होती हैं। किन्तु उनका मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण गोत्र" ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है, उन सभी को यहाँ बता पाना सम्भव नहीं है।
इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत से स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के वैष्णव कुल के ही स्थानी गोत्र, उपगोत्र, परिवार या कुल हैं। और इन सभी में किसी न किसी रूप में भगवान श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है। और रक्त सम्बन्ध ही इनके मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को सिद्ध करता है। क्योंकि अभीर जाति के समस्त यादवों यानी समस्त गोपों की उत्पत्ति पूर्व काल में श्रीकृष्ण के रोम कूपों से ही हुई है। इस बात को जनन गोत्र वाले प्रसंग में पहले ही बताया गया है।

अब हमलोग तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र के बारे में जानेंगे।


✴️ (३)- गुरु गोत्र- 


तीसरे प्रकार के गोत्र का नाम  "गुरुगोत्र" है। इस तरह का गोत्र तब निर्धारित होता है, जब कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने मनपसन्द के विश्वसनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर उसका अनुयायी बनकर उसके नाम पर अपने गोत्र का निर्धारण करता हैं तब उस ऋषि या गुरु के नाम उसका गोत्र निर्धारित होता है। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि) और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त सम्बन्ध न  होकर केवल गुरु शिष्य का सम्बन्ध रहता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना होता है। जैसे यादवों का "गुरुगोत्र" अत्रि है। किन्तु इस अत्रि गोत्र से यादवों का किसी भी तरह से रक्त सम्बन्ध नहीं है।

यादवों के इस वैकल्पिक "गुरुगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारण से सम्पन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के

प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्नता का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से गुरुगोत्र स्वीकार किया।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को यह जानकारी लेना है वहाँ से ले सकता है।

किन्तु अज्ञानता वश 99 % यादव समाज "अत्रि" को ही अपना जनन गोत्र मान लिया, और अपने मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को ही भूल गया कि गोपों अर्थात् यादवों का जन्म किसी  ऋषि-मुनियों न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से हुआ है।

किन्तु आश्चर्य है कि कुछ लोग ऋषि अत्रि को भी यादव ही मानते हैं। यह एक हास्यास्पद स्थिति है, क्योंकि किसी को भी यादव होने से पहले उसे अभीर और गोप होना पड़ेगा तभी वह यादव हो सकता है। इस स्थिति में ऋषि अत्रि गोप और अभीर तभी हो सकते जब उनका भी जन्म श्रीकृष्ण  से हुआ होता। किन्तु ऋषि अत्रि तो ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। इसलिए ऋषि अत्रि ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण हो सकते हैं किन्तु गोप और अहीर कभी नहीं हो सकते। और जब ऋषि अत्रि गोप, अहीर नहीं हो सकते तो निश्चित रूप से वह यादव भी नहीं हो सकते। यह ध्रुव सत्य है।
इसलिए ऋषि अत्रि को यादव कहना और उनसे यादवों की उत्पत्ति करना तथा उनके नाम पर यादवों का जनन गोत्र स्थापित करना महा मूर्खता होगी।
यादवों का जनन गोत्र श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण है या अत्रि ? इसके बारे विस्तृत जानकारी इसके अगले अध्याय (१०) में भी दी गई है।

इस प्रकार से यह अध्याय- (५) जातियों की मौलिकता एवं आभीर जाति की उत्पत्ति तथा भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना सहित यादवों के गोत्र, कुल , वंश,
और वर्ण व्यवस्था की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसके अगले अध्याय (१०) में जानकारी दी गई है कि "यादवों का जनन गोत्र- अत्रि है या वैष्णव ?

अध्याय - दशम् (१०)

यादवों का वास्तविक गोत्र कार्ष्ण है या अत्रि ?
  
                __   __

जैसा कि इसके पिछले-(९) अध्याय में बताया जा चुका है कि गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई, तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं।
उसी क्रम में इस अध्याय में बताया गया है कि यादवों का वास्तविक गोत्र अत्रि है या श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण ?  क्योंकि अधिकांश यादव अज्ञानता वश अत्रि गोत्र को ही अपना जनन व वास्तविक गोत्र मान बैठे हैं। इसी अज्ञानता को दूर करना  इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य है।


  तो इस सम्बन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रन्थों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वे वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- २९६ के कुछ प्रमुख श्लोक से होती है। जिसमें  - पराशर ऋषि राजा जनक से कहते हैं कि-

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। १८।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।

अनुवाद:
अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं। १८

                   जनक उवाच ।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम ।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि ॥ १९ ॥

जनक ने पूछा - वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्‍पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।

यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः ॥ २ ॥

आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह सन्तान उत्‍पन्‍न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्‍मदाता पिता ही नूतन जन्‍म धारण करता है। ऐसी दशा में प्रारम्‍भ में ब्रह्माजी से उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्‍म हुआ है।२।

तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
              "पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।

सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।

अनुवाद:- ३-४
जिससे जो जन्‍म लेता है, उसी का वह स्‍वरूप होता है तथापि तपस्‍या की न्‍यूनता के कारण लोग निकृष्‍ट जाति को प्राप्‍त हो गये हैं । उत्‍तम क्षेत्र (खेत) और उत्‍तम बीज से जो जन्‍म होता है, वह पवित्र ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्‍नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्‍न सन्तान की ही उत्‍पत्ति होती है ।

धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्‍यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।

तात ! जो मुख से उत्‍पन्‍न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्‍पन्‍न होने वाले मनुष्‍यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्‍पन्‍न हुए, वे धनवान (वैश्‍य) कहे गये; जिनकी उत्‍पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्‍पत्ति हुई।

इनसे भिन्‍न जो दूसरे-दूसरे मनुष्‍य हैं, वे इन्‍हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्‍पन्‍न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं।     इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्‍ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्‍म दिया है, तब मनुष्‍यों के भिन्‍न-भिन्‍न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्‍यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।

ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्‍म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्‍पन्‍न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्‍व को कैसे प्राप्‍त हुए ? पराशर जी ने कहा - राजन ! तपस्‍या से जिनके अन्‍त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्‍मा पुरूषों के द्वारा जिस सन्तान की उत्‍पत्ति होती है, अथवा वे स्‍वेच्‍छा से जहाँ-कहीं भी जन्‍म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि से निकृष्‍ट होने पर भी उसे उत्‍कृष्‍ट ही मानना चाहिये । नरेश्‍वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्‍पन्‍न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया ।

      उपरोक्त सम्वादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था। उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त

होता था। किन्तु इस सिद्धान्त का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों- अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु  से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया नियम बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
       
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनी जिनसे सन्तानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी सन्तानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करते हैं।

ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर जनन गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का सन्तान हूँ।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही सन्तान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों द्वारा अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नींचे देखें।

(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात उनकी उत्पत्ति किससे हुई है का पता नहीं। ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यंत किसी ऋषि-मुनियों की सन्तान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की सन्तान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्धों का संकेत करता है। इसी को जनन गोत्र कहा जाता है।

(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है जिसे गुरु गोत्र कहा जाता है। जैसे यादवों का गुरु गोत्र अत्रि है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि ऋषि अत्रि से यादवों का ब्लड रिलेशन हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि- यादवों की दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराना है।

इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "कार्ष्ण" गोत्र" है।

क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्माजी या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।

इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियाँ प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।

इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट् विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।  तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्माजी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्माजी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश  पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "कार्ष्ण" गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।

जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्मे ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर  यादवों में कैसे कूद पड़े ? यह एक विचारणीय विषय है।

इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कहना है कि -
"गोप श्रीकृष्ण से उत्पन्न हैं न कि ऋषि अत्रि से। इसलिए रक्त सम्बन्ध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "कार्ष्ण" ही मान्य व स्वीकार्य है।"

गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हँस श्रीमाता प्रसाद जी का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।

गोपों के इस वैकल्पिक गुरु गोत्र "अत्रि" की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्माजी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारण से सम्पन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों की सम्पन्नता का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहाँ से ले प्राप्त कर सकता है।

फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।

अनुवाद- १२०-१३०
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।      

अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का गुरु गोत्र "अत्रि" केवल पौरोहित्य कर्म अर्थात् पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "कार्ष्ण" को विकृत करने के समान होगा।

क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका जनन गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार यादवों का जनन गोत्र "अत्रि" तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।

किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारम्भिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की भी

उत्पत्ति हुई है।

फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य यहाँ देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से ही हुई है।

(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

और यह ध्रुव सत्य है कि- श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध गोपों में है। इसको झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४ और १५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यन्ति  मद्वंशप्रभवा नराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में  होगी। तथा मेरे गोप वंश के लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १४-१५।

यदि उपरोक्त श्लोक में गायत्री के कथन पर विचार किया जाए तो गायत्री स्पष्ट रूप से गोपों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी मानते हुए ही कहतीं हैं कि - तुम्हारे रक्त सम्बन्ध (blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हें प्राप्त कर , विना कुछ कर्म के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४।

अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है और उनका रक्त सम्बन्ध भी उन्हीं से है, तो जाहिर सी बात है कि इनका जनन गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत होगा।
  
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हँस श्रीयोगेश रोही जी का कथन है कि - "यादवों का जनन गोत्र"अत्रि" तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किन्तु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्माजी से हुई है। ऐसे में गोपों का जनन गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"

इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्रीयोगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रन्थों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्माजी से ही बतायी गई है।

मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्माजी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-

विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।

दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।

अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।

इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्माजी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।

भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।। ९०।

ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो  यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।। ९१।

अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।

अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि- ऋषि अत्रि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्माजी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
तब ऐसे में गोपों का जनन गोत्र-"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी सम्भव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किन्तु अत्रि तो ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए हैं।

इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल जनन गोत्र- "कार्ष्ण" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को भूलकर  ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए और अपने मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को सदा-सदा के लिए भूल जाए।

और इस सम्बन्ध में मेरा मानना है कि पुरोहितों का यह प्रयोग (Experiment) यादवों पर 99% सफल रहा। इन्हीं सभी बातों को सोच कर कभी-कभी मुझे बहुत दुख होता है कि जिन गोपों की उत्पत्ति परमेश्वर श्रीकृष्ण से हुई हो भला वह कैसे ब्रह्मजाल में फँसकर आज अपने मूल गोत्र कार्ष्ण को ही भूल गया।
इस सम्बन्ध में यादव समाज से मेरा यही सुझाव और निवेदन है कि जब भी कोई ब्राह्मण पुरोहित पूजा-पाठ या विवाह के अवसर पर आपको अपने गोत्र का नाम लेने को कहे तो आप लोग उस समय अपने जनन गोत्र- "कार्ष्ण" का ही नाम ले या फिर अपने किसी स्थानीय गोत्र का नाम लें और उस ब्राह्मण पुरोहित को भी बताएँ कि पुरोहित जी आपका गोत्र अत्रि हो सकता है क्योंकि अत्रि ब्राह्मण थे और आप भी ब्राह्मण हैं। किन्तु मेरा मूल गोत्र तो कार्ष्ण है क्योंकि मेरी उत्पत्ति तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण से गोलोक में उसी समय हो चुकी थी, जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए आप जो भी मेरे लिए कृत्य करें वह सब श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण गोत्र के नाम से ही करें अन्यथा मेरा यह कार्य व्यर्थ ही जाएगा।

ऋषि अत्रि को लेकर यादवों को (दो) आश्चर्य होना  स्वाभाविक है-

(१)- पहला यह कि-  यादवों को जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सन्बन्धित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

               । मत्स्य उवाच ।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।

अनुवाद- १-११
मत्स्यभगवान ने  कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रिके वंशके उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्रकर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दोगेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
  
( विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा)
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया गया है उनका वाकायदा एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से सम्बन्धित है।

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के वंश एवं उनके मूल गोत्र "कार्ष्ण" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

(२)- ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं है।
    जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

✳️ ज्ञात हो- विराट विष्णु, गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोधकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोधकशायी विष्णु के अनन्त रोम कूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चन्द्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना किये हैं। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ?

अर्थात यह सम्भव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर, इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में यादवों को निराधार और बेवजह सम्मिलित करना एक सोची-समझी साजिश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इस बात को प्रत्येक यादवों को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए।

दूसरी बात यह कि- विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ११ के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपने विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उस विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।
              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूँ।१९।
 
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।

अतः उपर्युक्त तमाम साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

✳️ - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी माहा मूर्खता होगी।

चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।
और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
और भगवान श्रीकृष्ण अपने आपको गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

✳️  गोपेश्वर  श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- (५) में किया गया है। वहाँ से विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" है तथा इनका वर्ण "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक गुरू गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पूरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (१०) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - यादवों का मुख्य जनन गोत्र "कार्ष्ण " है किन्तु विकल्प के रूप में उनका "अत्रि नाम का एक गुरु गोत्र" भी हैं, जिसका उदेश्य पुरोहित्यकर्म- पूजा-पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना है।

अब इसके अगले अध्याय- (११) में वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्वों के बारे में जानकारी दी गई है।

📚


आत्मानन्द जी:
अध्याय- एकादश (११)

वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व


इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य- वैष्णव वर्ण के कुछ प्रमुख आध्यात्मिक पुरुषों का परिचय देते हुए वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य के सदस्यों के कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी देना है। इसके लिए इस अध्याय को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया गया है।

भाग- [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ) कर्म-
        (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं।
        (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
         (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी-                      स्वाहा और स्वधा का परिचय।
         (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का
               परिचय।

भाग-[२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
भाग-[३] गोपों का वैश्य कर्म।
भाग-[४] गोपों का शूद्र (सेवा) कर्म।

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

भाग [१] गोपों का ब्राह्मणत्व कर्म-
                       

ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रमुख कर्म- पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना ही होता है। और ये सभी धार्मिक कृत्य के लिए वैष्णव वर्ण के अहीर (गोप) किसी भी ब्राह्मण पुरोहित से किसी भी मायने में कम नहीं हैं और नाही
ये इस विषय में किसी के आश्रित हैं। यह ध्रुव सत्य है।
क्योंकि स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक कृत्य करते आए हैं। इस सम्बन्ध में देखा जाए तो सदियों से परम्परागत रूप से चली आ रही सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर ही रहें हैं, जिन्होंने अपनी सत्यनारायण व्रत कथा से कइयों को तार दिया।
    
गोपों के इसी धर्मज्ञ स्वभाव और धार्मिक कृत्यों की वजह से इन्हें पौराणिक ग्रन्थों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है। ये समय-समय पर शस्त्र और शास्त्र दोनों उठा लेते हैं। इसका सबसे बड़े उदाहरण गोपेश्वर श्रीकृष्ण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान की देवी अहीर कन्या- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा तथा ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि इसके उदाहरण हैं जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप कुल के प्रारम्भिक सदस्य हैं। इन सभी के बारे में क्रमशः नींचे जानकारी दी गई है की ये सभी कैसे सबसे बड़े धर्मवत्सल एवं धर्मज्ञ हैं।

  (क) "सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर हैं"
                  

सर्वप्रथम भूतल पर गोपों को ही - सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया। इस सम्बन्ध में कई पौराणिक साक्ष्य और प्रसंग सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उनमें से एक सत्यनारायण व्रत कथा भी है जो श्रीस्कन्दपुराण के अवन्ति खण्ड के उपखण्ड  रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से लेकर युगों-युगों से सत्यनारायण अर्थात् भगवान विष्णु की कथा के रूप में प्रचलित रही है। जिसे हम और आप बचपन से ही इस विष्णु कथा को सुनते आयें हैं। किन्तु इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि इस सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र गोप ही हैं, जो इस कथा के माध्यम से अनेकों भक्तों का तारण करते हैं। इस बात की पुष्टि सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य स्रोत श्रीस्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३) से (२३७ ) पाँच अध्यायों से होती है। जो सत्यनारायण व्रत कथा में अध्याय- (५) के रूप में स्थापित है। जानकारी के लिए उसे नीचे उद्धृत किया गया है।

                      "सूत उवाच"
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः।
आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः।
एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥२॥

आगत्य वटमूलं च  दृष्ट्वा   सत्यस्य  पूजनम्।
गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः॥३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः।
ततो गोपगणाः सर्वे  प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्।
ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः॥५॥

"अनुवाद- १-५
• श्रीसूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप उसे सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर (तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।
• उसने सत्यदेव (सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओं को मारकर।२।
• वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ सन्तुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा करतें हैं।३।
• राजा यह देखकर भी अहंकार (दर्प) वश न तो वह वहाँ गया और न ही उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का प्रसाद राजा के समीप में।४।
• रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुःख भोगना पड़ा ॥ ५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्।
सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम्॥६॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्।
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह।
भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥

सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥ ९॥

"अनुवाद  ६-९
•उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।

•इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों (अहीरों) के समीप गया।७।

•और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।

• भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥

य इदं कुरुते  सत्यव्रतं  परमदुर्लभम्      
शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः।
दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥ ११॥

भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः।
ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्॥ १२॥

इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्।
यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥

"अनुवाद:- १०- १३
• सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।१०।
• उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११।
• डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है। यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोक में वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।
• हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है॥१३॥

विशेषतः कलियुगे  सत्यपूजा  फलप्रदा।
केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥

सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे।
नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः।
श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः।
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥

व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च।
तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥

"अनुवाद:- १४-१८
• कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। स्वराट विष्णु (परमेश्वर श्रीकृष्ण) को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।
•  और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।
• कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६।
• हे श्रेष्ठ मुनियो ! जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।
• हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८।

"शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥

"काष्ठभारवहो   भिल्लो   गुहराजो   बभूव ह।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥२०॥

"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्।
श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह॥२२॥

"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल।
सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्॥ २३॥

अनुवाद:- १९-२३
• महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।
• लकड़‌हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।
• महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ (विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।
• इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [ पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में ] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।

• महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। २३।
"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे  व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४॥

अनुवाद -
और जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके भगवान के शाश्वतधाम- गोलोक को प्राप्त किया ॥ २४॥

श्लोक २४ का शब्दार्थ :-
सत्यनारायण की वन में कथा करने वाले वे सभी गोपगण ही  व्रजमण्डल में (भूत्वा = जन्म लेकर /होकर )
गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी।
निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को ।

✳️ किन्तु आश्चर्य इस बात यह है कि- इस सत्यनारायण व्रत कथा में गोपों से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण श्लोक- ।२४ को-
"भूत्वा गोपाश्च  ते  सर्वे  व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः"॥२४।

स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३६) से कथाकारों
ने इर्ष्या बस निकलवा दिया है। अब वहाँ पर (२४) श्लोक न होकर केवल (२३) श्लोक ही शेष रह गए हैं। गोपों के इस (२४ वें) महत्वपूर्ण श्लोक अब वर्तमान समय में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "सत्यनारायण व्रत कथा" में मिलता है। इसके अलावा "शब्द कल्पद्रुम" (खण्ड- ५ पृष्ठ संख्या- २२९) में गोपों का यह महत्वपूर्ण श्लोक आज भी सुरक्षित है।

कुल मिलाकर सत्यनारायण व्रत कथा से यह सिद्ध होता है कि गोप प्रारम्भ से ही धार्मिक, धर्मवत्सल, तथा वैष्णव धर्म के प्रबल प्रचारक रहे हैं।
गोपों के इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्रीकृष्ण के सामने श्रीराधा जी ने गोपों को सबसे बड़ा धर्मवत्सल कहा इस बात की पुष्टि - गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ से होती है। जिसमें राधा जी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि-

"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।

अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की  गङ्गा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़ कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।

इसके अतिरिक्त गोपों के धर्मवत्सल होने के और कई महत्वपूर्ण उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से प्रमुख हैं -
(१) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री।
(२) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा।
(३) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि।

अब हम इन तीनों महत्वपूर्ण गोप कन्याओं को एक-एक करके बताऊँगा की सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
इनसे बड़ा धर्मवत्सल व धर्मज्ञ कोई नहीं है।


(ख) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री-
               

देवी गायत्री सहित समस्त गोपों को धर्म वत्सल एवं धर्मज्ञ होने की पुष्टि-पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७ के श्लोक- १५-१६ और १७) से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्माजी को कन्यादान के उपरान्त गोपों से कहते हैं कि-

भोभोगोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्यााषतेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।।१५।

योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणाबेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।१६।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरंचयते।।१७।

अनुवाद - १५ से १७
•  हे गोपगण ! तुम यहाँ वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धुगण के लिए आनन्दप्रदा है। इस बाला को हम यहाँ लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलम्बन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों ? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी यह भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है। १५।
• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६।
• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
              
✳️ उपर्युक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है-
• पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्माजी से हुआ। जिनके मन्त्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मन्त्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।

जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इन्द्र से कहती है -

गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।।१५५।

अनुवाद- हे वीर ! मैं गोप कन्या हूँ। यहाँ दुग्ध विक्रय करने के लिए आई हूँ । यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो ! यह मण्डराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५।

• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्माजी को कन्यादान किया। और ब्रह्माजी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया।
ब्रह्मा की पत्नी गायत्री केवल यज्ञ सम्पादन और संसार में आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसारण के लिए ही है। सांसारिक सृष्टि उत्पादन के लिए नहीं।
• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है।
• चौथी बात यह कि- देवी गायत्री महती विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थीं। जिसकी भूरि-भूरि प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी के यज्ञ-सत्र में की और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।

और गोपों से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि- गोपों अर्थात् आभीरों में श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है। इस बात की पुष्टि गायत्री संग ब्रह्मा के विवाह के मध्य उस समय होती है, जब ब्रह्माजी की पहली पत्नी सावित्री क्रुद्ध होकर वहाँ उपस्थित सभी देवताओं को शाप दे दिया। तब उसके शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- १९३ के श्लोक -(१४) और (१५) में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यन्ति  मद्वंशप्रभवा नराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे। और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में  होगी। तथा मेरे गोप वंश के लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १४-१५

अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण और गोपों में रक्त सम्बन्ध है।


▪️पारिवारिक परिचय-

देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनो ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायणी-संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -

"ब्रह्मणं यज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।

श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता।६५।

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता।।६६।

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे।।६८।

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।।६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह गायत्री नाम्ना।। ७०।

अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति (अभीर जाति) की है।६२।
• श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।

• सुनो ! मैं जानाता हूँ वह वृत (इतिहास) कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।।६५।
• उस परमात्मा के द्वारा अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या को गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।
• सावित्री श्रीहरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्माजी को प्रदान की गयीं ।६८।
• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अवतरित  हुईं।६९।
• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको गायत्री नाम से जानना चाहिए।७०।
        
✳️ ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रन्थ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।

           
▪️(ग) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
      

देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के उपरान्त विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुण्डों में नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिणा दोनों ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है। जो कभी गोलोक में श्रीराधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।

जिसमें सुशीला के गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला को
यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा।२।

अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती॥३।

अनुवाद - प्राचीन काल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परमधन्या, मान्या तथा मनोहरा वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतों वाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूप से अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥७॥

सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥८।

अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक (बगल) में बैठ गयी ॥ ७-८।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥

वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः॥१०॥

अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥

पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥ १५॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥

  अनुवाद-  १५-१६
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि-  यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।

✳️ इस सम्बन्ध में ज्ञात होगा कि भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिणा रखा इसके लिए नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम्।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम्॥३७॥

दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः॥३८॥

विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम्॥ ३९॥

अनुवाद -  जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्माजी को सौंप दिया। तब ब्रह्माजी ने यज्ञ सम्बन्धी समस्त कार्यों की सम्पन्नता के लिए देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया।३७-३८-३९।
            
तब यज्ञपुरुष ने देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिणा से कहा कि-

पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा॥ ७१॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया।

अनुवाद - हे महाभागे! तुम पूर्वकाल में गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परमश्रेष्ठा थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधा के समान ही उन श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थीं।७१।

कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥७२॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।

पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।

गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।


अनुवाद-७३,७३,७४
एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसर पर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थीं, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया। हे शोभने ! इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थी तुम भगवती राधिका के शाप से गोलोक से च्युत (पतित) होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो। अब देवी दक्षिणाके रूप में मेरे सौभाग्यसे मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो॥ ७२,-७४।

फिर यज्ञपुरुष ने उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा॥७५॥

त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम्।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते॥७६॥ 

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७॥

अनुवाद- ७५,७६,७७
तुम्हीं यज्ञ करने वालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं।

अतः यहाँ सिद्ध होता है कि गोपकन्या- दक्षिणा ही कर्म फलों की विधायिका हैं।
और इस सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय-(४३) के श्लोक संख्या-(३८) में लिखी गई है, जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के मध्य गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-

दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।३८।

स्वाहान्तं मन्त्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे।
स्वाहायुक्तं च मन्त्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम्।।३९।

अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मन्त्र के अन्त में स्वहा शब्द जोड़कर मन्त्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त प्रशस्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है।



(घ) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय-
                    

शतचन्द्रानना गोलोक  की एक धन्या और मान्या विदुषी गोपी है, जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को ब्रह्माण्ड विदुषी होने का परिचय उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान करते हैं। किन्तु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुँचे तो वहाँ द्वार की रक्षा में नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अन्दर जाने से रोक दिया। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तान्त गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता है।
तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः।
द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।२०।

अनुवाद - वहाँ कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुन्दर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।

             "श्रीदेवा ऊचुः
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह॥२१॥

अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा" विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ यहाँ आए हैं।

तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम्॥२२॥

तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान्॥ २३॥

अनुवाद - २२-२३
देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्रीकृष्ण की द्वारपालिकाऐं थी, श्रेष्ठ अन्तःपुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनाईं। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयीं और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा।२२-२३।

                श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥

अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्ड के अधिपति हैं ? यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्रीकृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊँगी। २४

                     "श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे॥२५॥

अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो ! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं।२५।

              "श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक्॥ २६॥

नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः॥२७॥

ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै॥२८॥

अनुवाद - २६-२८
तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोलीं - ब्रह्मदेव ! यहाँ (गोलोक) में करोड़ों  ब्रह्माण्ड  इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आप लोग अपना नाम गाँव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहाँ आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्माण्ड समझते हैं। २६-२८।

                 "श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत्॥२९॥

                   श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम्॥ ३०॥

                   "श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम्॥३१॥

अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते॥३२॥

अनुवाद - २९- ३२
• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्माण्ड़ में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्माण्ड़ में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं।२९-३०।
• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओं ने परम सुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहाँ गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२।

अतः उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी अन्य से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।

इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियाँ ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामिका हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म- विधान इन्हीं के द्वारा सम्पन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप-गोपियों को आधार मानकर ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के

कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किन्तु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड  के अध्याय (६०) के श्लोक -संख्या (४०) में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।।४०।

अनुवाद - जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।

और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्रीकृष्ण हैं, जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध है। इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्रीकृष्ण को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय- (५) में दी गई है।
        
✳️ वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (९) में किया गया है वहाँ से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।

अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते रहते हैं।


भाग- [२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म-
                       
वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था। भगवान श्रीकृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
     
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।

अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
 
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से। और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताएं हैं-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
           
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।

✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण  विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
        
अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
    
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।

कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
    
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात्  देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।७।    
   
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
         
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।


भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
           
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।

जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की  ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
             
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।

इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं  नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-

कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।
        
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
           
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
           
श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-

"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।

वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।

          
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।

इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।



भाग [४] गोपों का शूद्रत्व कर्म-
      
देखा जाए तो  ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किन्तु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबन्ध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और भक्तों के कल्याणार्थ व समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
   
भगवान श्रीकृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।

गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।

युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।

अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे, सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
( ज्ञात हो यह घटना महाभारत युद्ध से पहले की है।)

    
इन उपर्युक्त श्लोक को यदि शुद्ध अन्तरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किया जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्रीकृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप होकर पांव- पखार (धोकर) कर यह सिद्ध कर दिया कि-  वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से सेवा कर्म को निंदनीय माना गया है।

जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबन्ध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।      
        
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (१२) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
  
इस प्रकार से यह अध्याय-(११) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अध्याय- द्वादश (12)

वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा एवं सांस्कृतिक विरासत।


इस अध्याय के महत्वपूर्ण प्रसंगों को अच्छी तरह से समझने के लिए इसको प्रमुख रूप से (दो) भागों में विभाजित किया गया है-

भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।

भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।

       (क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
       (ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
       (ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की 
            देन है। 
        (घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
        (ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।
   
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

▪️भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
          
पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्माजी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चय ते।।१७।

अनुवाद-  तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७। 

अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।

(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और  विशेषताओं को कंस स्वयं करता है। यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -

"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।

कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।

यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।

प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।

एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।

ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।

व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।

अनुवाद -
आप (यादव) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ताव में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवों के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल हैं। १२-१३।
• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रणाओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत हैं।१४।

• आपके यशस्वी रूप प्रदीप सम्पूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।

✳️ ज्ञात हो श्लोक- १५ में जो बात कही गई है वह यादवों के अतिरिक्त अन्य किसी पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में  जन्मगत आधार पर यह प्रतिबंधित कर दिया गया है कि (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) लोग अपने ही वर्ण में रहकर कार्य करें दूसरे वर्ण का कार्य कदापि न करें। जबकि वैष्णव वर्ण में इस तरह कोई प्रतिबन्ध नहीं है इस लिए वैष्णव वर्ण के गोप सभी तरह के कर्म बिना बन्धन के स्वतन्त्रता पूर्वक करते हैं। इसलिए कंस यह बात कहा कि-" आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।

• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।१६।
• आपके सदाचार में कभी आँच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों का नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ?।१७।

• आपका (यादवों का) आचार ऋषियों के,  प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुद्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों नें इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।

उपर्क्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए पाँच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-

(१)- यादव- पाखण्डपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और   आज भी दूर रहते हैं।
(२)- यादव- वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान हैं।   
(३)- यादव- नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रो के, और तेज अग्नि के समान होता है।

दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इसपर नारद जी विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी ने बताया हैं -

स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान्।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।।६।

अनुवाद- तदनन्तर वीर्यदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि- पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।

इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे वृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।

अनुवाद -  नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस व्रजभूमि में जो गोपियाँ हैं, उनके रूप में वेदों की ऋचाएँ यहाँ निवास करती हैं।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।

(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्माजी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-

"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।

अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊँ। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जानें की इच्छा करते हैं।

(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्रीराधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्रीकृष्ण से- गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या -२२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गङ्गा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों  की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।
ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्। ७८।

अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाऐं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्रीराधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।

पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -

"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।

गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।

ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।

राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।

किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।

मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५।।

न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।

अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण-कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।
• गोलोक- वासिनी राधाजी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की १६ (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।
• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहाँ गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।

पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।

न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।

अनुवाद -
• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।               
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।

गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।

ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।

अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यंत गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।

गोपों कि इन्हीं सब आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण इनको पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है। इसकी पुष्टि-  गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड़ के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।

अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।

कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-

"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४।

अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।

✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्ण कथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण कथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।

इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्रीआत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान तथा बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हैं।"
     
गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों की जानकारी अध्याय- १ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

              

  
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान-


भारतीय संस्कृति में गोपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि समय-समय पर गोपों द्वारा कुछ न कुछ विशेष होता रहा जिसकी छाप भारतीय संस्कृति में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जैसे -
(क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
(ख)-गोपों की देन पञ्चम वर्ण।
(ग)-किसान शब्द कृष्ण से सम्बन्धित गोपों की देन है- 
(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
(ङ)-आभीर- छन्द और आभीर राग के जनक गोप हैं।
   


[क]- हल्लीसं नृत्य एवं 'रास' नृत्य :-


हल्लीसं और 'रास' नृत्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हल्लीसं क्या है ? और इसका मतलब क्या है ? और रास का क्या मतलब है ? तभी हल्लीसं और 'रास' नृत्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
हल्लीषम् शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो -
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल्- धातु का मूल अर्थ- खेत जोतना या हल चलाना है।

हल वह यन्त्र है जिससे खेतों की जुताई का कार्य किया जाता है। हल के प्रमुख भागों में एक "ईषा" है, जो संस्कृत का शब्द है - (हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठ)अथवा (लाङ्गलदण्ड) अर्थात्  हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - ईषा कहलाता है। हल और ईषा इन दोनों शब्दों से मिलकर तद्धित शब्द बनता है- हल्लीषा- (हल्लीषक)।

✳️  सर्वप्रथम द्वापरयुग में बलराम जी ने "हल" को खेतों की जुताई के लिए तथा फसलों की मड़ाई के लिए "मूसल" का आविष्कार किया। उस समय बलराम जी हल और मूसल को युद्ध के समय शस्त्र के रूप मे भी प्रयोग करते थे। बलराम जी सदैव हल को धारण करते थे इसलिए उनका एक नाम हलधर हुआ जो आज हलधर चित्र और नाम दोनों ही किसानों का प्रतीक है। बलराम जी द्वारा हल और मूसल की खोज किए जाने के बाद उस युग में कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आई। सभी से गोप किसान हल को खुशियों और क्रान्ति का देवता मानकर प्रमुख त्योहारों और उत्सवों पर हल और मूसल को भूमि पर रखकर उसके ईषा (दण्ड) के समानान्तर दृश्य में मण्डलाकार आकृति में नृत्य किया करते थे। उसी समय से इस विशेष नृत्य का नाम हल्लीषा हुआ।

इसके अतिरिक्त गोप किसान शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हल, मूसल और ओखली (उलूखल) को मण्डप में रखकर शुभ कार्य को सम्पन्न करते थे तथा विशेष आगन्तुकों के आगमन पर अन्न, दही और मूसल से परीक्षण करके उनका स्वागत करते थे। जो आज भी भारतीय संस्कृति में देखी जाती है, जो गोपों की ही देन है।
  
इसी क्रम में देखा जाए तो हल्लीषं नृत्य का भी प्रारम्भ सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने ही किया। इसकी पुष्टि हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक- (68) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम्।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८।
अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी।  नरदेव पार्थ ! स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।

इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास" के रुप में प्रतिष्ठित हुआ। जो अहीरों का ही सांस्कृतिक नृत्य है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और संकर्षण (बलराम) हैं।

हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो "रास" उसकी आत्मा है। हल्लीसं कला है, तो रास प्रभु की लीला है। जिसमें गोप और गोपियाँ कृष्ण को केंद्र बिन्दु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं हैं। तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास में बदल जाता है। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है।

गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास का आयोजन अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय:(अक्सर) किया करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग भौतिक दृष्टि से एक सामान्य नृत्य के रूप में देखते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रचित रास भक्ति की वह पराकाष्ठा है जहाँ आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध मिलन से मोक्ष की दिशा और दशा तय होती है।

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अन्तर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग-अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने तीन भेद बताए हैं -

१. मण्डल रासक
२. लकुट रासक तथा
३. ताल रासक।

मण्डलाकार नृत्य मण्डल रासक, हाथों से दण्डा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दण्ड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना सम्भवतः ताल रासक था। यह रासक परम्परा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई। जिसका परिचय यहाँ देना सम्भव नहीं है। बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मन्दिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया।

कालान्तर में भूतल पर श्रीकृष्ण द्वारा रचित रास द्वारका के यदुवंशियों का राष्ट्रीय नृत्य बना, जो आज भी अहीर समाज में देखने को मिलता है। गुजरात के अहीर समाज इसे परम्परागत रूप से निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इनका मानना है कि- द्वारका में रास के विकास क्रम में श्रीकृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध की पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं रास नृत्य में पारंगत थी। उषा पार्वती जी की शिष्या थी। उसने पार्वती जी से ही रास नृत्य की शिक्षा लेकर द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास नृत्य में प्रशिक्षित किया था।
उसी परम्परा का निर्वहन करते हुए आज के वर्तमान समय की जानी-मानी श्रीकृष्ण भक्त "जाहल" अहिरानी हैं, जिन्होंने २४ दिसम्बर २०२४ को गुजरात के द्वारका में ५७ हजार अहिराणियों (यादव महिलाओं) को एक साथ लेकर महारास का आयोजन करके विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। श्रीकृष्ण भक्त "जाहल" अहिरानी गुजरात के जिला भावनगर, तहसील महुवा, ग्राम- भगुड़ा की निवासी हैं।
वर्तमान में ये भारत के अन्य प्रान्तों में भी जाकर बड़े पैमाने पर रास का आयोजन किया करतीं हैं। इनका जीवन ही श्रीकृष्ण रास लीला को सतत जीवन्त रखना और सामाजिक कल्याण के लिए समर्पित है। मोबाइल नं - 9427751071 पर सम्पर्क कर सकते है।

✳️ ज्ञात हो- "रास" भारत का वह मञ्च है जो कृष्णकाल से आज तक निरन्तर जीवित है। भारत में दूसरा कोई ऐसा मञ्च नहीं जो इतना दीर्घजीवी रहा हो।

✳️ ज्ञात हो- श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भी अपने भक्तों की मुक्ति के लिए रास का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय करते थे। इसीलिए इन दोनों समयों में की जाने वाली रास को ही मोक्षदायिनी माना गया है। क्योंकि गोपेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं इन विशेष अवसरों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के- १०/ ३५ में कहे हैं कि- "मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः"
अर्थात्- महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अग्रहायन) यानी अगहन और ऋतुओं में वसन्त हूँ।
▪️इसके अतिरिक्त पुराणों में भी वर्णन मिलता है कि गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा सृष्टि रचना का आरम्भ अगहन मास में हुआ। और भूतल पर वर्ष का यह प्रथम मास  मार्गशीर्ष भी है।
जिस तरह से परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में अगहन मास में रास नृत्य करके सृष्टि का विस्तार किया था। उसी तरह से भूलोक पर भी इन्हीं समयों में रास का विशेष आयोजन किया करते थे।
इन विशेषताओं के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है।
इस लिए इन दोनों (अगहन और कार्तिक पूर्णिमा) के
मासिक समयों में की जमाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना गया है। क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक आनन्द की रसानुभूति किया करते थे। यह परम्परा गोपों की चिर पुरातन परम्परा है।
इसकी पुष्टि- श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से होती है-

कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।

अनुवाद- (८५-८९)
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी की स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तब वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।

कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका आध्यात्मिक पराकाष्ठा व विस्तार "रास" है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और बलराम हैं।


  (ख)- गोपों की देन "पञ्चमवर्ण"।


भारतीय संस्कृति में पञ्चमवर्ण की अवधारणा गोपों की ही है। जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के चारो वर्णों से स्वतन्त्र है। जिसको विष्णु के नामानुसार वैष्णव या "पञ्चमवर्ण" के नाम से भी जाना जाता है। इस वर्ण में केवल गोप आते हैं जो विष्णु यानी श्रीकृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इन्हें वैष्णव जन भी कहा जाता हैं। इसकी पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड के अध्याय- ११ श्लोक संख्या (४३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि वैष्णव ही गोपों यानी अहीरों का वर्ण है जो चारों वर्णों से श्रेष्ठ एवं स्वतन्त्र है।

ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो     जातयो       यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।

अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ  जैसे इस विश्व में हैं, वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति (वर्ण) भी इस संसार में है ।४३।
"उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

जहाँ तक बात रही गोपों को श्रीकृष्ण से उत्पन्न होने की, तो इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-  (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव    रूपेण     वेशेनैव    च    तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद - ४०-४१
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

     कहने का तात्पर्य यह है कि पञ्चम वर्ण अर्थात् वैष्णव वर्ण की अवधारणा गोपों की ही देन है। जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण से अलग और स्वतन्त्र है। वैष्णव वर्ण के बारे में और विस्तार से अध्याय (९) में बताया गया है।


[ग] - किसान और कृषि शब्द श्रीकृष्ण सहित गोपों की देन है।

व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के कृषाण शब्द से ही हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यं संस्कृत भाषा कोश के अनुसार-  (कृष्+आनक्)= कृषाण होता है।

आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार भी कृषाण शब्द- कृष् धातु में आनक् अथवा किकन् प्रत्यय करने पर बनता है। अर्थात् जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
ज्ञात हो- कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ- कृषक भी है।
कुल मिलाकर कृष्ण से "कृषाऩ" और कृषाण से किसान शब्द का विकास हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण का नाम भी इसी अनुरूप है क्योंकि वे सबसे पहले एक सफल पशु पालक (गोपालक) थे। और पशु पालक ही कृषि और आर्य संस्कृति के जनक हैं। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण सहित सभी गोपों को एक साथ कृषक होने की पुष्टि- श्रीगर्गसंहिता, गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६ ) से होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्दबाबा से कहते हैं कि-
                  "श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।

अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।।२६।

इसी तरह से गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय (६) में नन्दबाबा को उस समय भी कृषक होने की पुष्टि होती है जब एक बार कुछ गोप लोग वषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हुए नन्द के विषय में वृषभानु जी कहते हैं कि-

त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित्।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥

यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।

अनुवाद:-( ७-८)
• यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है। अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द भी तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
• हे स्वामी ! यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा अवश्य लीजिए, जिससे हम सबके देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८।

ज्ञात हो- जिस तरह से गोपेश्वर श्रीकृष्ण सदैव गोप वेष (रूप) में रहते हैं, उसी तरह से बलराम जी भी सदैव किसान वेष में ही रहते हैं। चाहे वे कृषि-क्षेत्र में हों अथवा, युद्ध-क्षेत्र में हों, सदैव उनके साथ हल और मूसल रहता।
इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक -(१३) से भी होती है। जिसमें बलराम जी भू-तल पर अवतरित होने से पहले अपने हल और मूसल से कहते हैं-
हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।।१३।

अनुवाद - हे हल और मूसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।१३।

उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही कृषि और आर्य संस्कृति के जनक होने के साथ साथ किसानों के आदि पूर्वज और प्रतीक भी हैं। क्योंकि अबतक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनके जैसा किसान तथा गोपालक भेष (रूप) वाला न तो कोई देवता न किन्नर न गन्धर्व न दैत्य और न ही कोई दानव देखा गया।

अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि कृषि और किसान गोपों की ही देन है।


(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
          
आर्य और किसान एक सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि आर्य शब्द भी हल और कृषि से ही जुड़ा हुआ है। जगजाहिर है कि प्रारम्भ में आर्य चरावाहे ही थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया। क्योंकि आर्य शब्द जुड़ा है अरि से जिसमें अरि एक वैदिक देव है। जो सदैव अर (आरा) हाथ में लिए रहता है। ऋग्वेद में अरि सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति का भी वाचक है। जिसकी पुष्टि- ऋग्वेद -(१०/२८/१) से होती है-

"विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात् ॥१॥
पदान्वय:-  विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम ।जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥१.
ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५। ७]

उपर्युक्त  ऋचा (श्लोक) में अरि शब्द ईश्वर वाची है।
इसके अतिरिक्त यूनानी कथाओं में इस वैदिक देव का वर्णन अरेस (Ares) के रूप में यूनानी युद्ध देवता के लिए है। अरेस नाम की व्युत्पत्ति पारम्परिक रूप से ग्रीक शब्द ἀρή (arē) से जुड़ी हुई है, जो डोरिक भाषा के ἀρά (ara) शब्द का आयोनिक (यूनानी) रूप है, जिसका अर्थ-  "विनाश"।
यूरोपीय विद्वान वाल्टर बर्कर्ट का कहना है कि "अरेस स्पष्ट रूप से एक प्राचीन अमूर्त संज्ञा है जिसका अर्थ है लड़ाई अथवा युद्ध। वहीं अरि: शब्द कालान्तर में लौकिक संस्कृत में हरि यानी ईश्वर हो गया।

संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द आज भी शस्त्र वाली हैं।  परन्तु वर्तमान में लौकिक संस्कृत में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; जो पीछे से लुप्त हो गई हो। अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु का ही रूपान्तरण, "अर" हो गया हो (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल्  अन्त:स्थ वर्णों  का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन होना। सम्प्रसारण की प्रक्रिया है। अर् अथवा ऋ धातु का अर्थ होता है- "हल चलाना"

यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो। क्योंकि- "ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये दोनों शब्द कृदन्त पद हैं। कृदन्त वे पद (शब्द) होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति किसी धातु (मूल क्रिया) से हुई हो। विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक ही है। कुल मिलाकर चरवहे कृषक ही आर्य हैं। इस बात को इतिहास भी मानता है।

कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं गोप- गोचारण करते थे और इतिहास साक्षी है कि चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण (बलराम) दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे। इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे। किन्तु आज जो कृषक और चरवाहे नहीं है जैसे बनिया, ब्राह्मण और अन्य वृत्तियों से युक्त जन समुदाय को आर्य थ्योरी में जोड़ दिया गया। जबकि आर्य थ्योरी के हिसाब से ये लोग आर्य नहीं हो सकते। क्योंकि आर्य होने के लिए चरवाहा और कृषक होना आवश्यक है। और ये लोग चरवाहा और कृषक संस्कृति के ठीक विपरित है, क्योंकि इनको ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में कृषि कार्यों से इस लिए रोका गया कि कृषि कार्य से जीवों की हत्या होती है। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति ।।10/83। से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83।

अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य को कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।

इस प्रकार से देखा जाए तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो पशुपालन कर सकता हैं और ना ही कृषि कार्य। अर्थात् कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए निषिद्ध कर दिया गया। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि चरवाहे और कृषक जो आर्य संस्कृति के जनक थे उन्हें ही अनार्य घोषित कर दिया और जो आर्य संस्कृति के विरोधी थे उन्हें आर्य घोषित कर दिया गया।

जबकि सर्वविदित है कि आर्य संस्कृति के जनक गोपेश्वर श्रीकृष्ण और बलराम सहित समस्त गोप ही हैं। इसके साथ ही ये लोग ग्राम संस्कृति के भी जनक है। क्योंकि ग्राम शब्द का मूल अर्थ- ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे; धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और इस प्रकार कालान्तर में  ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं। इसके विपरित गाँवों में कृषकों की बस्तियाँ देखने को मिलती है।

भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास यह उद्घोषणा करता है। कि कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य ही कृषक थे। यहीं से इनकी ग्राम- सभ्यता का विकास हुआ था जो अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए ये चरावाहे जहाँ- जहाँ भी विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान) देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे। इनके ये पड़ाव स्थाई होते गये और उसी प्रक्रिया के तहत कालान्तर में ग्राम संस्कृति का जन्म व विकास हुआ। ग्राम शब्द (आभीर-पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया।

श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत: स्वामी, गुरू और सुहद् आदि को सम्बोधन करने में भी इस आर्य शब्द का व्यवहार नाट्यशास्त्र में होने लगा। छोटे लोग बड़े को सम्बोधित करते हुए आर्य का प्रयोग करते हैं। स्त्रियाँ अपने पति को सम्बोधित करते हुए आर्य शब्द का प्रयोग करती, और छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर सम्बोधित करते हैं ।

इसी क्रम में आर्य शब्द का सम्बोधन आभीरों (गोपों) के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि- हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (६) के श्लोक- ३३ से होती है जिसमें माता यशोदा अपने पति नन्द राय को आर्य शब्द से सम्बोधित उस समय की हैं जब भगवान श्रीकृष्ण शैशवास्था में अपने अंगूठे से छकड़ा को ठोकर मारकर उपर उछाल दिया और जब छकड़ा भूमि पर गिरा तो बहुत ही भयंकर आवाज हुई, जिससे यशोदा जी की नींद खुल गई।

यशोदा त्वब्रवीद् भीता न आर्य जानामि किं त्विदम्।
दारकेण सहानेन सुप्ता शब्देन बोधिता ।। ३३ ।।

अनुवाद :-यशोदा ने भयभीत होकर नन्दराय जी से कहा - "हे आर्य मैं नहीं जानती हूँ !  कि यह क्या है ! मैं अपने पुत्र के साथ सो रही थी और इस भयंकर ध्वनि से मेरी नींद खुल गई।

अतः उपर्क्त श्लोक से सिद्ध होता है कि आभीर कृषक चरवाहे ही आर्य संस्कृति के जनक थे। किन्तु कालान्तर में जो कृषि कार्य को जीव हिंसा बताकर ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषेध कर दिया वहीं आज अपने को आर्य कहते हैं। यह कितनी विडम्बना है।



(ङ)- आभीर छन्द और आभीर राग।


श्रीकृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के संगीत विद्या के भी अच्छे विशारद भी थे। उन्होंने संगीत और अन्य ललित कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार भी किया। उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के संधान के लिए वन्शी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण करके कृष्ण ने स्वरों को नयी दिशा दी। कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला  दोनों रूपों में मानकर अपनी आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी सर्जन किया। देखा जाए तो राग आभीर का प्रचलन प्राचीन काल से है। सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो (छिद्र) का वाचक है। वैदिक  सुषिर शब्द का ही तद्भव है।
वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद सामवेद को ही कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया-

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।
(१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-)

अनुवाद:- मैं वेदो में सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- (प्राणियों) में चेतना हूँ। अर्थात् कार्य-करण के समुदायरूप शरीर में सदा प्रकाशित रहने वाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।
✴️ ज्ञात हो- सामवेद में गाये जाने वाले मन्त्रों का संकलन है। इसीलिए सामवेद को भारतीय संगीत का मूल माना जाता है। और भगवान श्रीकृष्ण संगीत विद्या के पारंगत थे। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि - मैं वेदों में शामवेद हूँ।
श्रीकृष्ण की उपर्क्त संकल्पना ने ही भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्राण फूँका और भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों ने प्राय: लोक धुनों से प्रेरणा ली, और फिर उन्हें भारतीय राग प्रणाली के सिद्धान्तों के अनुसार औपचारिक रूप दिया। जिसमें अहीर जाति की विशेष भूमिका रही। क्योंकि अहीर भारत में एक प्राचीन जातीय समूह है जो मुख्य रूप से पशुपालक हैं। जब ये लोग अपने पशुओं को चराने के लिए समूह में जाते थे तब वे एक निश्चित राग और छन्द में गाया करते थे। चुँकि ये आभीर जाति के थे इसलिए इनकी गायन विधि से जो राग निकला उन्हीं के नामानुसार उस राग नाम भी आभीर (अहीर) हुआ। जिसकी संगीत की दुनिया में एक अलग पहचान है।

✳️ ज्ञात हो इसी राग अहीर पर हिन्दी फिल्म- "एक दूजे के लिए का गाना- "बाली उमर को सलाम" गाया गया है"। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अहीर जाति की प्राचीनतम एवं अति समृद्धशाली संस्कृति रही है।

राग अहीर भैरव दो रागों का मिश्रण है- "अहीर और भैरव"। अहीर और अहीर भैरव के स्वर एक जैसे ही हैं, लेकिन उनकी मधुर संरचना में अन्तर है। आभीर एक मात्रिक छन्द का नाम भी है जिसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में (११) मात्राएँ होती है और अन्त में जगण होता है । जैसे—
यमाताराजभानसलगा- ये छन्दों के वार्णिक छन्द का अनुक्रम है।
किसी भी वर्णिक छन्द में वर्णों का समूह गण कहलाता है। ये प्रायः तीन वर्णों से मिलकर एक गण का निर्माण करते हैं । इन गणों के नाम इस प्रकार से हैं-

यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण।
इनकी मात्राओं के लिए लघु को ‘I’ और गुरु को ‘s’ कहते हैं। इस लघु-गुरु का के ही क्रम को याद रखने का एक विशिष्ट सूत्र स्थापित किया गया है जोकि ये है:- यमाताराजभानसलगा
इसमें किसी शब्द में जिस गण की जानकारी पता करनी हो तो उसके वर्ण के बाद इसी सूत्र से अगले दो वर्ण उनकी मात्रा समेत उसके बाद और जोड कर लिखें तो शब्द में कौन सा वार्णिक गण है ये ज्ञात हो जाएगा।
जैसे: एक शब्द "ममता" लिया।
तो सूत्र के अनुसार देखे सभी गण को
यगण – अर्थात- यमाता = ।ऽऽ
मगण – मातारा = ऽऽऽ
तगण – ताराज = ऽऽ।
रगण – राजभा = ऽ।ऽ
जगण – जभान = ।ऽ।
भगण – भानस = ऽ॥
नगण – नसल = ॥।
सगण – सलगा = ॥ऽ
ममता शब्द में वार्णिक छन्द का गण "सगण" आता है क्योंकि इस ममता शब्द में प्रथम दो वर्ण लघु और अंतिम वर्ण गुरु है।
यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार ।
                 
इस प्रकार से इस पुस्तक का अन्तिमवाँ अध्याय- (१२) वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। समाप्त

           जय श्रीकृष्ण