मंगलवार, 1 जुलाई 2025

किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कौशल, और कर्म से होना चाहिए शास्त्र सम्मत-

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में अध्याय एकादश ( ग्यारह) में वर्णित निम्नलिखित श्लोक जन्म की अपेक्षा गुण( योग्यता) कर्म और स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति सा मूल्यांकन करते हैं-

यह श्लोक 33 एवं 36, वर्ण-व्यवस्था, और ज्ञान के महत्व पर आधारित हैं।
श्लोक 33
 यथा शूद्रस्तथा मूर्खा ब्राह्मणो नात्र संशयः।  
 न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३।
शब्दार्थ-
- यथा = जैसे
- शूद्रः = शूद्र (वर्ण व्यवस्था में सेवा कार्य करने वाला वर्ण)
- तथा = वैसे ही
- मूर्खा = मूर्ख (अज्ञानी)
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण (वर्ण व्यवस्था में विद्या और धर्म का पालन करने वाला वर्ण)
- नात्र संशयः = इसमें कोई संदेह नहीं
- न पूजार्हो = पूजा के योग्य नहीं
- न दानार्हो = दान के योग्य नहीं
- निन्द्यश्च = निंदनीय है
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
अनुवाद-
जैसे शूद्र होता है, वैसे ही मूर्ख ब्राह्मण भी होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। वह न तो पूजा के योग्य है, न दान के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है।
                         व्याख्या
यह श्लोक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण के कर्तव्यों और गुणों पर जोर देता है। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण को विद्या, तप, और धर्म का प्रतीक माना जाता था। यह श्लोक कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण अज्ञानी (मूर्ख) है, तो वह अपने वर्ण के गुणों को खो देता है और शूद्र के समान हो जाता है। यहाँ "शूद्र" का उल्लेख संभवतः प्रतीकात्मक है, जिसका अर्थ है कि वह अपने उच्च कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है। ऐसा ब्राह्मण न तो सम्मान (पूजा) के योग्य है, न ही दान पाने के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है। यह श्लोक ज्ञान और विद्या के महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से ब्राह्मण के लिए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि विद्या और सद्गुण आवश्यक हैं।
श्लोक ३६
 राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।  
 कर्षकस्तु द्विजः कार्यों ब्राह्मणो विद्यावर्जितः॥३६।
शब्दार्थ-
- राज्ञा = राजा द्वारा
- शूद्रसमो = शूद्र के समान
- ज्ञेयो = जाना जाए (समझा जाए)
- न योज्यः = नियुक्त नहीं किया जाए
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
- कर्षकस्तु = कर्षक (कृषक, किसान)
- द्विजः = द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो उपनयन संस्कार द्वारा दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं)
- कार्यों = कार्य में नियुक्त किया जाए
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण
- विद्यावर्जितः = विद्या से रहित (अज्ञानी)
                         अनुवाद
राजा को चाहिए कि वह मूर्ख ब्राह्मण को शूद्र के समान समझे और उसे किसी भी कार्य में नियुक्त न करे। विद्या से रहित ब्राह्मण को द्विज के रूप में कृषि कार्य में नियुक्त किया जाए।
                       व्याख्या-
यह श्लोक शासन और सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में है। यहाँ राजा को सलाह दी गई है कि वह अज्ञानी ब्राह्मण को शूद्र के समान माने और उसे महत्वपूर्ण कार्यों (जैसे यज्ञ, पुरोहिताई, या शासन से संबंधित कार्य) में नियुक्त न करे। इसके बजाय, यदि कोई ब्राह्मण विद्या से रहित है, तो उसे द्विज के रूप में (अर्थात् उसके वर्ण के सम्मान को बनाए रखते हुए) कृषि जैसे कार्य में लगाया जाए। यह श्लोक यह दर्शाता है कि विद्या के अभाव में ब्राह्मण का सामाजिक और धार्मिक महत्व कम हो जाता है, और उसे अन्य उत्पादक कार्यों में योगदान देना चाहिए। साथ ही, यह सामाजिक लचीलापन भी दर्शाता है कि यदि कोई ब्राह्मण अपने परंपरागत कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है, तो उसे समाज के लिए अन्य उपयोगी कार्य करने चाहिए।
                          संदर्भ
ये श्लोक श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध अध्याय एकादश से हैंं।
जो वर्ण-व्यवस्था, कर्तव्यों, और समाज में विद्या के महत्व पर चर्चा करते हैं। हालाँकि, बिना । ये श्लोक प्राचीन भारतीय समाज की उस विचारधारा को दर्शाते हैं, जहाँ ज्ञान और गुणों को जन्म से अधिक महत्व दिया गया है। यह विचारधारा भगवद्गीता (4.13) में भी परिलक्षित होती है, जहाँ कर्म और गुण के आधार पर वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

                 -आधुनिक परिप्रेक्ष्य-
आधुनिक सन्दर्भ में इन श्लोकों को जातिगत भेदभाव के बजाय योग्यता और ज्ञान के महत्व के रूप में देखा जा सकता है। ये श्लोक इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कौशल, और कर्म से होना चाहिए। यह शिक्षा और आत्म-विकास के महत्व को रेखांकित करता है, जो आज के समाज में भी प्रासंगिक है।
उपर्युक्त विचार ही सुव्यवस्थित समाजिक व राष्ट्रीय उन्नति का आधार है।

सड़ी गली तथा रूढ़िवादी मानसिकता के लोग ही इन विचारों का विरोध करते हैं- जिनके स्वार्थ सहज ही विना किसी परिश्रम और योग्यता के ही सिद्ध हो रहे हो तो वे धूर्त ही इन शास्त्रीय मतों का विरोध करेंगे-
पहले भी देश में इसी प्रकार व्यक्ति के ज्ञान और कर्म कौशल से उसकी महानता का मूल्यांकन होता था-