---जो कृष्ण द्रौपदी को
नंगा होने से बचाता है ।
जो कृष्ण प्रागज्यज्योतिषपुर में भौम के कारागार कैद कालीदेवी पर बलि हेतु बन्धन -युक्त आठ हजार कन्याओं को सम्मान सहित स्वतन्त्र कराता हो ! ।
वह कृष्ण कैसे स्त्रीयों को नंगा होने के लिए वाध्य करेगा ?
यह विरोधाभासी वर्णन ही भागवतपुराण अथवा
ब्रह्म वैवर्त पुराणआदि की प्रमाणिकता को खण्डित कर देता है ।
कृष्ण का चरित्र छान्दोग्य उपनिषद से लेकर ऋग्वेद तक में है । ---जो आध्यात्मिक पुरुष के रूप में द्रविड अथवा ड्रयूड Druids संस्कृति का सन्देश वाहक है ।
कृष्ण वैदिक पात्र हैं ।
कृष्ण देव -संस्कृति के विध्वंशक के रूप में इन्द्र के प्रति द्वन्द्वी बन कर वेदों में तथा पुराणों में प्रकाशित होते हैं ।
पुराणों ने वेदों की अर्थ व्यञ्जना के आधार पर वर्णन किया है ।
पुराणों का सृजन बुद्ध का परवर्ती काल खण्ड हुआ हैं।
परन्तु मौर्य काल के बाद से लेकर तथा पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ से 12 वीं सदीयों तक के काल-अवधि में कृष्ण चरित्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं ।
गर्ग संहिता ,महाभारत तथा हरिवंश पुराण में कृष्ण स्वच्छ व आध्यात्मिक महात्मा के रूप में वर्णित हैं ।
श्रीमद् भगवत् गीता में कृष्ण स्पष्टत कामीयों अर्थात् (व्यभिचारीयों ) को सबसे बड़ा पापी सिद्ध करते हैं ;
---जो वासनामयी जीवन से मनुष्यों को निकने की प्रेरणाऐं देता हो; वही परायी स्त्रीयों के साथ रास रचाऐंगे !
यह असम्भव सी बात ही है ।
यादवों से द्वेष रखने वाले तथा व्यभिचारी प्रवृत्ति पुरोहितों की सुनियोजित षड्यन्त्र पूर्ण योजना की अभिव्यक्ति है ।
कृष्ण को रास लीला के नायक रूप में प्रस्तुत करना !
यह मेरे प्रबल प्रमाणों का सिद्धि -करण है ।
कृष्ण को रास लीला का नायक बनाने के पीछे व्यभिचारी अथवा वासनाओं के पुजारी पुष्यमित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों की योजना थी ; कि व्यभिचार को भी धर्म संगत ठहरा कर परायी सुन्दर स्त्रीयों के साथ व्यभिचार किया जाय सके ।
कृष्ण को ( इरॉस )रास लीला अथवा काम (Sex) लीला का नायक बना कर यादवो (गोपों ) की गरिमा को नष्ट करना ब्राह्मणों का सबसे बड़ा उद्देश्य था ।
क्योंकि अहीरों का यह नायक सर्व जन -पूज्य हो गया ?
रास शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण Etymological Analization ग्रीक भाषा से है ।
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सत्य पूछा जाय तो रास शब्द भी ई०पू० 323 में यूनानीयों की भाषा ग्रीक से संस्कृत भाषा में आया हुआ है ।
रास का मूल रूप इरॉस शब्द से
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क्योंकि रास, रति तथा काम जैसे श्रृंगार मूलक शब्द ग्रीक भाषा के हैं।
अर्थात् एरॉस( Eros) एरेटॉ
erotes god of love, from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love,"
यहाँ तक की प्रेम शब्द भी प्रेयस् के रूप में यूनानीयों की भाषा में है ।
प्रेम की शाब्दिक परिभाषा ज्ञात करने से पूर्व यह अनुभव करना आवश्यक होगा, की प्रेम अधिकतर आभासीत होकर ही अभिव्यक्ति होता है।
और अपनी चरम् अनुभूति में स्पर्शमय भी हो सकता है।
परन्तु वह स्पर्श वासनाओं से परे होगा "
कृष्ण ने तो इस तथ्य की भी व्याख्याऐं की केवल भक्ति रूप में
शुद्ध प्रेम त्याग पूर्ण होता है,उसमे स्वार्थ का निम्नतम अंश ही पाया जाता है।
केवल इतना कि त्याग में ---जो आत्म तृप्ति होती है वह
स्वार्थ और वासना की बढ़ती मात्रा प्रेम के स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो जाती है।
मनोवैज्ञानिक (जीक रुबिन )के अनुसार शुद्ध प्रेम में तीन तत्वों का होना, अति आवश्यक है, वो है,
1• लगाव- राग (attachment)
2• ख्याल- ध्यान(caring)
3• अंतरंगता- आत्मीयता (intimacy)
उनका मानना है, इन तीनो के कारण ही, एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम करता है। परोपकार की पराकाष्ठा है प्रेम
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प्रेम की उत्तम परिभाषा यही है, इसमे कहीं “मैं” का समावेश नहीं रहता, इसके लिए “हम” ही उत्तम माना गया है।
दूसरी बात प्रेम में पवित्रता का आभास होता है, परन्तु वासना के बारे में ऐसा कहने से संकोच का अनुभव होता है।
इसका एक कारण यह भी हो सकता है, कि प्रेम सत्यता के आसपास रहना चाहता है ।
अतृप्ति का ही नाम वासना है ।
तथा पूर्ण तृप्ति है प्रेम जहाँ वासनाओं की सीमा समाप्त हो जाती है ।
प्रेम जितना भावनात्मक है ।
वासना उतनी ही शारीरिक बुभुक्षा (भोगने की इच्छा)
जिसे हम भूख कहते हैं।
प्रेम में कोई आकाँक्षी नहीं होता है, क्योंकि आकाँक्षाएं तो अतृप्ति के जल में उत्पन्न लहरें ही हैं।
और अतृप्त व्यक्ति किसी भी तरह स्वयं तृप्त हो जाना चाहता है, वह यह इसकी चिन्ता नहीं करता है , कि किसी को कष्ट भी हो रहा है।
प्रेम आध्यात्मिक अनुभूति है ।
वासना में व्यक्ति पशु के भाँति व्यवहार करता है।
जबकि प्रेम में परम विश्रांति को प्राप्त होता है ।
वासना और प्रेम में मुख्य भेद यह है कि वासना में मनुष्य कि उर्जा नीचे की ओर प्रवाहित तथा प्रेम में ऊपर की ओर प्रवाहित होती है।
वासना में मनुष्य का केंद्र खो जाता है तथा प्रेम में केंद्र पर होता है।
बहुत लोग प्रेम के भ्रम में वासना को ही पोषित करते रहते हैं।
जहाँ पर थोड़ा भी अपने सुख का ख्याल आया वहां प्रेम नहीं हो सकता है भले ही हम उसे देख न पायें।
प्रेम में दो नहीं होते जहाँ पर दो की अनुभूति होती है वहां पर वासना ही होती है।
प्रेम अखंड होता है तथा वासना में व्यक्ति बनता होता है।
यद्यपि उपनिषदों ने विशेषत छान्दोग्य उपनिषद में कृष्ण को तत्व वेत्ता के रूप में वर्णित किया गया है
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आज का नव युवक केवल शारीरिक सम्बन्धों और विवाह को ही प्रेम की अन्तिम सीढ़ी समझते हैं।
वासना एक ऐसी यथार्थ प्रवृत्ति गत भूख है।
जो कि हर एक स्त्री पुरूष में एक दूसरे के प्रति ऋण -धन के विद्युतीय आवेशात्मकता रूप में
आकर्षण उत्पन्न करती है ।
यह दौनों की एक दूसरे को प्राकृतिक आवश्यकता है।
और सौन्दर्य आवश्यकता मूलक दृष्टि-कोण ही है।
इस आवश्यकता की आपूर्ति होना आवश्यक है ।अन्यथा मनुष्य में विक्षिप्तताऐं आ जाती है।
यही प्रक्रृति का नियम भी है।
वासना का अर्थ होता है :- कामलिप्सा या मैथुन की तीव्र इच्छा , वासना कभी-कभी हिंसक रूप में भी प्रकट होती है।
अधिकांश धर्मों में इसे पाप माना गया है।
वासनाओं के जल में ही पाप की लहरें और अपराध के बुलबुलें उठते रहते हैं
वासना आपूर्ति क्षणिक सुख का आकाँक्षी है ।
और प्रेम परम तृप्तिमूलक गहन आध्यात्मिक अनुभूति है ।
श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं ।
जिनका सम्बन्ध
असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है ।
द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है।
कहीं कहीं अहीरों को ब्राह्मणों ने उनकी अलौकिकताओं से प्रभावित होकर ब्राह्मण भी स्वीकार कर लिया है ।
परन्तु द्वेष फिर भी वरकरार रहा ।
कृष्ण को इतिहास कारों ने द्रविड संस्कृति का नायक स्वीकार किया है।
कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
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कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
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कृष्ण का रास लीला विरोधी स्वभाव ---
कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze)
कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये ।
द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है ।
एक साम्य दौनों का
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |6।
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता
प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids)
कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे
यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ...
इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
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Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean "
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The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal
, and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body "
ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है ,
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Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13..
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कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है ।
( Philosophyof Druids About Soul)
Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean":
"The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body."
Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote:
With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion.
— Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13
आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन)
अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस )"पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धांत को कहा:
"गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं । कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।"
सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)।
सीज़र ने लिखा:
अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है । जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धांत द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है ।
इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं।
- जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13
इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती
द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic)
थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी
ईश्वर को एक मानते थे ।
तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है ।
सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं ।
तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत ..
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वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् ।
१ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश। वास--अच् । ४ वासके शब्दर० ।
तत्रार्थे स्त्रीत्वमपि तत्र टाप् । ५ सुगन्धे च । स्थानभेदेऽवस्थाननिषेधी यथा
“तस्मात् सङ्कीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ।
पुंसो ये नाभिनन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च ।
न तेषु च वसेत् प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापपुद्धिपु ।
ये त्वेवमभिजानन्ति वृत्तेनाभि- जनेन च ।
तेषु साधुषु व स्तव्यं सवासः श्रेयसे मतः” मात्स्ये २८ अ० ।
“धार्मिकैरावृते ग्रामे न व्याधिबहुले भृशम् ।
न शूद्रराज्ये निवसेत् न पाषण्डजनैर्वृते । हिमवद्बिन्ध्ययोर्मध्यं पूर्वपश्चिमयोः शुभम् ।
मुक्त्वा समुद्रयोर्देशं नान्यत्र निवसेत् द्विजः ।
अर्द्धक्रोशा- न्नदोकूलं वर्जयित्वा द्विजोत्तमः ।
नान्यत्र निवसेत् पुण्यं नान्त्यजग्रामसन्निधौ ।
न संवसेच्च पतितैर्न चण्डालैर्न पुक्कशैः ।
न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः”
कूर्मपुराण १५ अ० ।
“धनिनः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यश्च पञ्चमः ।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं न कारयेत्” चाणक्
...सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है,
हमारी चेतना जितनी प्रखर वाणी उतनी ही स्पष्ट और उज्ज्वल।
कृष्ण का ज्ञान निस्सन्देह आध्यात्मिक ही है; परन्तु कृष्ण को आधार मानकर काम शास्त्र की व्याख्याऐं इनके चरित्र पर आरोपित की गयीं ।
कृष्ण के जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का है; और वह ऐतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक हैं;
और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
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भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
जिसका निर्माण दक्षिणात्य के उन ब्राह्मणों ने किया जो वात्स्यायन के कामशास्त्र से अनुप्रेरित थे
खजुराहो मध्य प्रदेश के मन्दिर काम शास्त्रीय पद्धति पर आरेखित प्रस्तुत चित्र हैं ।
अधिकांश पुराण इसी काल की रचनाऐं हैं ।
आइए देखें--- उनमे ध्वनित अश्लीलता भागवतपुराण को सन्दर्भित करते हुए।
दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत |
वामावर्ते तथा लिंगे नर: कन्या प्रसूयते ||१||
स्थूले: शिरालेर्वीषमैर्लिंगैर्दारिद्र्यमादिशेत् | ऋजुभिर्वर्तुलाकारे: पुरुषा: पुत्रभागिन: ||२|| - भविष्यपुराण ब्राह्म. अध्याय २५
अर्थ –जिस आदमी का लिंग दायी तरफ झुका हुआ हो वह पुत्र पैदा करने वाला होता है|
जिसका लिंग बायीं तरफ झुका हो उसके कन्या पैदा होती है ||१||
मोटे रंगोवाले ,टेढ़े रंगोवाले ,टेड़े लिंगो से दरिद्रता होती है जिन पुरुषो के लिंग सीधे ,गोल होवे ,वे पुत्रो के भागी होते है ||२||
कटुतेल भल्लातन्क बृहतीफलदाडिमम् ||१७ ||
कल्के: साधितैर्लिंप्त लिंग तेन विवर्द्धते ||१८||
-गरुडपुराण .आचार. अध्याय १७६
अर्थ –कडवा तेल ,भिलावा ,बहेड़ा तथा अनार,
इसकी चटनी के लेप करने से लिंग बढ़ता है |
कर्पुर देवदारु च मधुना सह योजयेत |
लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात स्त्रिय किल ||२|| - -गरुडपुराण .आचार .अध्याय १८० अर्थ – कपूर ,देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है|
सैन्धव च महादेव पारावतमल मधु |
एभिर्लिंप्ते तु लिंगे वे कामिनीवशकृद भवेत ||१६|| - गरुडपुराण. आचार.अध्याय १८५
अर्थ –हे महादेव ! नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है |
ब्रह्मचर्येsपि वर्तनत्या: साध्व्या ह्मपि च श्रूयते |
ह्रद्ंय हि पुरुष दृष्टवा योनि: संक्लिद्यते स्त्रिया: ||२८|| - भविष्यपुराण. ब्राह्म. अ. ७३
ब्रह्मचर्य में रहती साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देख कर टपकने लगती है |
बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयन जलम् ||२४|| - ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ अध्याय २३ ।
रोमाञ्चित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत्त होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है २४। कर्पुरमदनफलमधुकै: पूरित: शिव |
योनि: शुभा स्याद वृध्दाया युवत्या: कि पुनर्हर||१६|| - गरुड़पुराण आचार. अ. २०२ ।
हे शिव ! यदि योनि को कपूर ,मैनफल तथा शहद से भर दिया जावे तो बूढी स्त्री की योनि भी बढिया हो जाती है जवान का तो कहना ही क्या ||
इसके अलावा बहुत से ऐसी बाते पुराणों में है|
ऐसा लगता है कि जेसे ये पुराण नही बल्कि कोई यौवनचिकित्सा शास्त्रीय या कामशास्त्रीय ग्रन्थ हों ।
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भागवतपुराणकार ने भी काम (सेक्स) को केन्द्रित करके इस पुराण की रचना की है ।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन काल्पनिक और कामात्मक (रास लीला परक रूप )में कराया गया है।
ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कन्ध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। यद्यपि कहीं कहीं सांख्य दर्शन की गम्भीरता तो कहीं वेदान्त दर्शन के अद्वैत वाद की गरिमा भी है ।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहुचानने का यहाँ प्रयास किया गया है। जो कि उस काल की प्रवृत्ति रही है ।
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भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था ।
परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो ।
परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है ।
और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है।
महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू० 566के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान कृष्ण से सम्बद्ध है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरम्भ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था।
एेसा आनुमानिक रूप से माना है।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई।
पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।
इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं । वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं।
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इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।
ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है
🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् ।
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त वरुण , अग्नि आदि का वाचक भी है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है।
उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे।
यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।
अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।
(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे । इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है । यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा ।
क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नी़ामित है। और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है
इसी लिए इन्हें सेमेटिक
सोम वंश का कहा जाता है
पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की बात नहीं है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं ।
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया ।"
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कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर:इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ हैं।
पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
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सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
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इस्लाम को मानने वाले जो बहुपत्नीवाद में विश्वास करते हैं । सदा कृष्ण जी महाराज पर १६००० रानी रखने का आरोप लगा कर उनका माखोल करते हैं|
उनके लिए विरोध करने का यह सम्बल ही है यह रास लीला।
और ऐसे कई उदाहरण आपको कृष्ण के नाम पर मिल जाएँगे..
श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अाधार क्या हैं?
इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण विशेषत: भागवतपुराण -ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा विष्णु आदि।
हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग ( अवशिष्ट) है ।उसमे कृष्ण का गोप रूप कुछ वास्तविक व उज्ज्वल रूप है।
आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं|
पुराणों में गोपियों से कृष्ण का रमण करना ।
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विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :-
"गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी "
कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं ।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :-
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" नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्।
रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना ।।४५।
बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू- नीवीस्तनाल -
भननर्नमनखाग्रपातै: ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा-
मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६
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कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया.।
वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करने के लिए बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी चोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत यौनोत्तेजित करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय सम्भोग) किया ।
ऐसे अभद्र विचार कृष्ण को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं ।
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन
राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं. महाभारत में राधा का वर्णन नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं ।
"की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं। तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनि मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा. हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावते, ! यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकाल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यन्त अश्लील वर्णन लिखा हैं
जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम यहाँ और विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यन्त अश्लील रूप में वर्णित हैं ।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं ।
राधा कृष्ण के वामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी ।
समान वृषभानु गोप की कन्या थी ।
राधा का रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी। चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था; इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यशोदा का भाई था ।
इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई|
यद्यपि राधा गायत्री के समान वृषभानु गोप की कन्या रूप में वर्णित है।
कृष्ण की गोपिओं कौन थी? पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं :-
की रामचंद्र जी दंडक -अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे ।
उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अन्त में गोपियों के रूप में जन्म लिया और राम , कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया ।
इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई ।
अब देखें---
भागवतपुराण के अनुसार कृष्ण का कामुक वर्णन :-
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भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वर: ।
वयैस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्म सिद्धये ।।८।
तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वर: ।
हसद्भि: प्रहसन् बालै: परिहासमुवाच ह ।९।अत्रागत्याबला: कामं स्वं स्वं वास: प्रगृह्यताम् ।
सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद् यूयं व्रतकर्शिता: ।१०
न मयोदित पूर्वं वा अमृतं तदिमे विदु:।
एकैकश प्रतीत् शध्वं (प्रतीच्छध्वं)
सहैवोत सुमध्यमा:।११
तस्य तद् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्य: प्रेमपरिप्लवता:।
व्रीडिता: प्रेक्ष्यचान्योन्यं जात हासा न निर्ययु:।१२।
एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणा८८क्षिप्तचेतस:।
आकण्ठमग्रा: शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ।१३
मानयं भो कृथास्त्वां तु नन्द गोप सुतं प्रियम् ।
जानीमो अंग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिता:।१४
श्यामसुन्दर ते दास्य: करवाम तवोदितम् ।
देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवामहे ।।१५
श्री भगवानुवाच
भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीचछन्तु शुचिस्मिता:।।१६
एक अश्लीलता से पूर्ण श्लोक देखें---
ततो जलाशयात् सर्वा दारिका: शीतवेपिता: ।
पाणिभ्यां योनिम्आच्छाद्य प्रोत्तेरु:शीतकर्शिता।१७
वे कुमारियाँ ठण्ड से ठिठुर रहीं थी काँप रही थी।
कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर वे अपने दौनो हाथों से योनि को छुपाकर जलाशय से बाहर निकली ।उस समय ठण्ड उन्हें बहुत सता रही थी ।१७।
भगवानाह ता वीक्ष्य शुद्धभाव प्रसादित:।
स्कन्धे निधाय वासांसि प्रीत:
प्रोवाच सस्मितम् ।।१८
यूयं विवस्त्रा यदपो धृत व्रता ।
व्यगाहतैतत्तदु देवहेलनम् ।
बध्वाञ्जलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयें८हस:
कृत्वा नमो८धो वसनं प्रगृह्यताम्।।१९
इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला।
मत्वा विवस्त्राप्लवनं व्रतच्युतिम्।
तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां ।
साक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग् यत:।२०।
तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकी सुतः।
वासांसि ताभ्य: प्रायच्छत् करुणस्तेन तोषित:।२१।
दृढ़ प्रलब्धास्रपया च हापिता:।
प्रस्तोभिता क्रीडनवच्च कारिता:।
वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं।
ता नाभ्यसुयन् प्रियसंग निर्वृता: ।२२।
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अर्थात्- अरी कुमारीयों तुम यहाँ आकर इच्छा हो तो अपने अपने वस्त्रों को ले जाओ।
मैं तुमसे सच सच कहता हूँ ।
हंसी बिल्कुल नहीं करता। तुम सब व्रत करती करती दुबली होगयी हो।
यह मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं ; कि मैं ने कभी झूँठी बात नहीं कही है । सुन्दरियो तुम्हारी इच्छा हो तो अलग अलग आकर अपने वस्त्रों को ले लो ।
मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। ११।
भगवान की यह हंसी मजाक देखकर गोपिकाओं का हृदय प्रेमपरिप्लवता हो गया ।
वे तनिक सकुचाकर एक दूसरे की और देखकर मुस्कराने लगीं ; जल से बाहर नहीं निकली १२।
जब भगवान् ने हंसी हंसी में यह बात कही तब उनके विनोद से कुमारियों का चित्त और भी उनकी और खिंच गया ।
वे ठण्डे पानी में कण्ठ तक डूबी हुईं थी ; और उनके शरीर थरथर काँप रहा था ।
उन्होने श्री कृष्ण से कहा ।१३।
प्यारे कृष्ण ऐसी अनीति मत करो ! हम जानती हैं कि तुम नन्द बाबा के लाड़ले हो ।
हमारे प्यारे हो सारे व्रज वासी तुम्हारी सराहना करते हैं देखो हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं ।
तुम हम्हें हमारे वस्त्रों को द दो !१४।
प्यारे श्याम सुन्दर हम तुम्हारी दासी हैं ।
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तुम जो कुछ कहोगे हम उसे करने को तैयार हैं । तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो ।
हम्हें कष्ट मत दो हमारे वस्त्र हम्हें दे दो नहीं तो हम नन्द बाबा से कह देंगी ।१५।
( श्री कृष्ण ने कहा )
कुमारीयो तुम्हारी मुस्कराहठ पवित्रता और प्रेम से भरी हुई है । देखो जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञ का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने अपने वस्त्रों को ले लो ।१६।
परिक्षित! वे कुमारियाँ ठण्ड से ठिठुर रहीं थी ।
कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर वे अपने दौनो हाथों से गुप्त अंगों को छुपाकर यमुना से बाहर निकली उस समय ठण्ड उन्हें बहुत सता रही थी ।१७।
उनके इस शुद्ध भाव से कृष्ण बहुत ही प्रसन्न हुए ।उनको अपने पास आयी देखकर कृष्ण ने उनके वस्त्रों को अपने कन्धे पर रख लिया ।और बड़ी प्रसन्नता से मुस्कराते हुए बोले ।१८ ।
अरी गोपिकाओं तुमने -जो व्रत लिया था अच्छी प्रकार से निर्वहन किया --इसमें सन्देह नहीं ।
परन्तु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर तुमने जल में स्नान किया है। इससे तो जल के देवता वरुण तथा यमुना का अपराध ही हुआ है।
इस लिए इस दोष के निवारण के लिए तुम अपने दौनो हाथों को जोड़ कर सिर से लगाओ और झुक कर उन्हें प्रणाम करो तब अपने अपने वस्त्रों को ले जाओ ।१९।
और तब गोपिकाओं ने एेसा ही किया।
तब कृष्ण ने उनके वस्त्रों को दिया ।२०।
निश्चित रूप से यहाँ अश्लीलता और वासनात्मक अभिव्यक्तियों की हदें पार होगयीं ।
यह पुराणों का सृजन करने वाले की कामुक मानसिकता का प्रदर्शन है ।
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अन्यथा अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती ।
क्या गोपियों की उत्पत्ति का दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता हैं?
श्री कृष्ण का वास्तविक रूप अब हम योगिराज, नीति- निपुण , महान कूटनीतिज्ञ श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में उनके सत्य रूप को जानोगे |
कृष्ण की २ या ३ या १६००० पत्नियाँ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिक आश्रम चले गए और १२ वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रद्धुम्न था. यह श्री कृष्ण के चरित्र के साथ अन्याय हैं ।
की उनका नाम १६००० गोपियों के साथ जोड़ा जाता हैं. महाभारत के श्री कृष्ण जैसा अलोकिक पुरुष , जिसे कोई पाप नहीं किया और जिस जैसा इस पूरी पृथ्वी पर कभी-कभी जन्म लेता हैं ।
वहीँ श्री कृष्ण की श्रेष्ठता समझें की उन्होंने सभी आगन्तुक अतिथियो के धुल भरे पैर धोने का कार्य भार लिया. श्री कृष्ण जी महाराज को सबसे बड़ा कूटनितिज्ञ भी इसीलिए कहा जाता हैं क्यूंकि उन्होंने बिना हथियार उठाये न केवल दुष्ट कौरव सेना का नाश कर दिया बल्कि धर्म की राह पर चल रहे पांडवो को विजय भी दिलवाई|
क्या है राधा का सच| राधा का अर्थ है सफ़लता | यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का पांचवा मंत्र, ईश्वर से सत्य को स्वीकारने तथा असत्य को त्यागने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ रहने में सफ़लता की कामना करता है | कृष्ण अपनी जिंदगी में इन दृढ़ संकल्पों और संयम का मूर्तिमान आदर्श थे |
पश्चात किसी ने किसी समय में इस राधा (सफ़लता) को मूर्ति में ढाल लिया |
उसका आशय ठीक होगा परंतु उसी प्रक्रिया में ईश्वर पूजा के मूलभूत आधार से हम भटक गये, तुरंत बाद में अतिरंजित कल्पनाओं को छूट दे गई और राधा को स्त्री के रूप में गढ़ लिया, यह प्रवृत्ति निरंतर जारी रही तो कृष्ण के बारे में अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के साथ व्यभिचार चित्रित करनेवाली कहानियां गढ़ ली गयीं और यह खेल चालू रहा|
ऐसे महान व्यक्तित्व पर चोर, लम्पट, रणछोर, व्यभिचारी, चरित्रहीन , कुब्जा से समागम करने वाला आदि कहना अन्याय नहीं तो और क्या हैं और इस सभी मिथ्या बातों का श्रेय पुराणों और उनके रचयिता को जाता हैं|
इसलिए महान कृष्ण जी महाराज पर कोई व्यर्थ का आक्षेप न लगाये एवं साधारण जनों को श्री कृष्ण जी महाराज के लिए पुराणों और भागवत में कही गयी अनर्गल और मिथ्या बाते जो कृष्ण के चरित्र को कलंकित करती हैं उनका बहिष्कार करें ।
यद्यपि अवान्तर काल में महाभारत में भी वाल्मीकि-रामायण के उत्तर काण्ड के सादृश्य पर मूसल पर्व का काल्पनिक रूप से निर्माण कर आभीरों अथवा यादवों को ही स्वयं अपने ही गोपिकाओं को लूटने का विरोधाभासी वर्णन महाभारत की प्रमाणिकता को सन्दिग्ध कर देता है
महाभारत में महात्मा बुद्ध को भी वर्णित किया गया है।
पुराणों के समान अत: यह सर्व ब्राह्मण वर्चस्व को स्थापित कर ने का उपक्रम मात्र हैं ।
भीष्म पर्व में वर्णित श्रीमद्भगवद् गीता में आध्यात्मिक विचारों का प्रकाशन अवश्य कृष्ण से सम्बद्ध है ।
परन्तु इसमें भी "वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
तथा "चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:"
ब्राह्मण वाद का आदर्श प्रस्तुत करना ही है ।
परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त के दशम् ऋचा में गोप जन-जाति के पूर्व प्रवर्तक एवम् पूर्वज यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(10/62/10 ऋग्वेद )
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं । अत: सम्मान के पात्र हैं |
यद्यपि पौराणिक कथाओं में यदु नाम के दो राजा हुए ।
एक हर्यश्व का पुत्र यदु तथा एक ययाति का पुत्र और तुर्वसु का सहवर्ती यदु ।
आभीर जन जाति का सम्बन्ध तुर्वसु के सहवर्ती यदु से है । जिसका वर्णन हिब्रू बाइबिल में भी है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
“इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत!। गवां का-रणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्। येनांशेन हृता गावःकश्यपेन महात्मना। स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्व-मेष्यति। या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणी। उभे ते तस्य वै भार्य्ये सह तेनैव (यास्यतः। ताभ्यांसह स गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। तदस्य कश्यपस्यां-शस्तेजसा कश्यपोपमः वसुदेव इति ख्यातो गोषु ति-ष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्द्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।
तत्रासौ गोष्वभिरतः कंसस्य करदायकः। तस्यभार्य्या-द्वयञ्चैव अदितिः सुरभिस्तथा।
देवकी रोहिणी चैववसुदेवस्य धीमतः। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसू-दन!।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्द्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले। देवकीं रो-हिणीञ्चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
तत्रत्वं शिशुरेवादौगोपालकृतलक्षणः। वर्द्धयस्व महाबाहो! पुरा त्रैविक्रमेयथा॥ छादयित्वात्मनात्मानं मायया गोपरूपया।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्। गाश्च ते र-क्षिता विष्णो! वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।
विष्णो! पद्मपलाशाक्ष!
गोपाल-वसतिङ्गते। बाले त्वयि महाबाहो। लोको बालत्व-मेष्यति। त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष! तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततन्तव। वने चार-यतो गास्तु गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायान्तुरतिमाप्स्यन्ति ते भृशम्। जीवितं वसुदेवस्य भविष्यतिसुजीवितम्।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।
अथ वा कस्यं पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते।
का वा धारयितुं शक्ता विष्णो! त्वामदितिं विना।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छत्व विजयाय वै” इति विष्णुं प्रतिब्रह्मोक्तिः।
ताभ्यां तस्योत्पत्तिकथा च तत्र .........
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हे अच्यत् ! वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव के रूप में गोप होकर जन्म लेने का शाप दे दिया ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड मे नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध कन्या मान कर ब्रह्मा ने विवाह कर लिया है ।
परन्तु व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप शूद्र के रूप में हैं ।
वर्द्धिकी नापितो गोप आशाप कुम्भकारको .
..इति शूद्रा: भिन्न स्वकर्मभि:
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ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था ।
बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया
विचार-विश्लेषण---
यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---के सौजन्य से----
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