अब तमन्ना नहीं है ,मुझे शौहरत कमाने की ...
हर हक़ीकत से व़ाकिफ हुआ मैं , इस जमाने की ..
लोग क्यों ? पूछते हैं मुझको ये भी खबर सब है !
वो हम्हें पूछते रहेंगे जब तक की उनका मतलब है ।।
पास आकर मुसकराना ये भी मतलबों का सबब है ।
ईश्वर की भी मुझ पर अब महती इनायत है
हम्हें उसकी जरूरत है जिसको हमारी चाहत है ।
बात ये अबकी नहीं पुरानी रवायत है ....
मुझे भी उसकी बन्दगी की आख़िर तलब है ..
मेरा रहवर भी वही है और वही रब है ...........
केवल अपने मतलबों की खातिर ..
लोगो का हमारे पास आना है ..
काम निकलने पर छोड़ देना...
ये दौर सदीयों पुराना है ........
मैंने दरिया से सीखा है , संयम का एक सलीका
मौज़ों मेें बहकना नहीं ,ये सम्हलने का तरीका ..
स्वाद मुझे भोजन में नहीं भूख की गहराईयों में दीखा ।
बे मन होने पर हर मेवा लगता है फ़ीका..
पल कभी ये गुजरते नहीं और कल आते नहीं
बेह्याईयों का इस दौर में अब लोग शरमाते नर्हीं ...
एक अजीब सी दौड़ है ज़िन्दगी,ये रोहि
हम पढ़ाबों को छोड़ते नहीं.मञ्जिले पाते नहीं ...
बख़्त की राहों पर रोहि ,जिन्दगी मुसाफिर है
आशाओं के पढ़ाब हैं बहुत मञ्जिले बेख़बर है ..
चलते रहो चलते रहो "चरैवेति चरैवेति चरैवेति" ..
यादव योगेश कुमार 'रोहि' की मसिधर से ज्ञान की गहराईयों में प्रेषित यह आध्यात्मिक कविता ...
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