शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

चौधरी चूड़ामन सिंह  जाट जाट नायक ठाकुर चूड़ामन सिंह का सम्बन्ध बाबा नन्द से सम्बद्ध है ।

चौधरी चूड़ामन सिंह  जाट
जाट नायक ठाकुर चूड़ामन सिंह का सम्बन्ध बाबा नन्द से सम्बद्ध है ।
चूड़ामन के पिता ब्रजराज की दो पत्नियाँ थीं– इन्द्राकौर तथा अमृतकौर।
दोनों ही मामूली ज़मींदार परिवार से थीं।
चूड़ामन की माँ, अमृतकौर चिकसाना के चौधरी चन्द्रसिंह की पुत्री थी। उसके दो पुत्र और थे– अतिराम और भावसिंह ; वे दोनों भी मामूली ज़मींदार(चकधारी) थे। विदित हो कि चौधरी शब्द भी जाट गूज़र तथा अहीरों की उपाधि बन गया था
ये लोग बीहड़ इलाकों के चकधारी अर्थात् चक्र- भू-खण्ड पर कब्जे दार थे ।
17 वीं सदी में चकधारी अर्थात् जमींदारों के लिए तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन भाषाओं से आगत तक्वुर (ठक्कुर) प्रचलन में हो गया । अत: ठाकुर चूड़ामन कह कह कर जनता इन्हे बुलाती थी ।
परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द का प्रवेश तुर्कों के माध्यम से भारतीय धरा पर हुआ ।
_________________________________________
और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत में आया ।
ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त था ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र
नाथद्वारा प्रमुखत: है।
क्योंकि कृष्ण को भक्त गण अपना स्वामी मानते थे ।
आज मथुरा वृन्दावन  के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है।
यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है।
विदित हो कि हवेली  (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर)  दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है ।
कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी कहने का परम्परा इस भाव से प्रारम्भिक हुई है।
कालान्तरण में यही शब्द संस्कृत भाषा में "ग्राम के सरपञ्च" के अर्थ में रूढ़ हो गया है,
यह शब्द ईरानी , आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात है ।
संस्कृत भाषा में तक्वुर (ठक्कुर) शब्द के जन्म सूत्र
तुर्की भाषा में ही प्राप्त हैं ।

सम्भवतः चूड़ामन सिनसिनी पर शत्रु का अधिकार होने के बाद डीग, बयाना और चम्बल के बीहड़ों के जंगली इलाक़ों में छिप गया होगा ।
वह 'मारो और भागो' की छापामार पद्धति से लूटपाट करता था।
इस लिए इतिहास कारों ने जाटों को दस्यु तो रूप में भी वर्णित किया परन्तु यह डकैती एक तरह की बगावत ही थी ।
ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था को खिलाफ  तथा इस समाज ने इनका बहिष्कार करने की कोशिश भी की ब्राह्मणों ने यदु वंश का होने से तथा नन्द गोप से सम्बद्ध होने को कारण जाटों को शूद्र श्रेणी में रखा ।
परन्तु चूड़ामन को गरीब जनता का समर्थन प्राप्त था।
चूड़ामन स्वंय अपने प्रति निष्ठावान था।
जाट-लोग कठोर जीवन व्यतीत करते थे।
वे न दया चाहते थे और न दया करते थे ; चूड़ामन कर्मठ और व्यावहारिक व्यक्ति था; उसने जाटों को उन्नत एवं दृढ़ बनाया तथा उसके समय में पहली बार 'जाट शक्ति' शब्द प्रचलन में आया ।
बदनसिंह तथा सूरजमल के नेतृत्व में जाट शक्ति अठारहवीं शती में हिन्दुस्तान में एक शक्तिशाली ताक़त बन गई थी।
चूड़ामन सिंह ने सन् 1721 में आत्महत्या की, तब उसके भाई का पौत्र सूरजमल चौदह बरस का था।

चूड़ामन की छापामार लड़ाकू सेना
चूड़ामन में नेतृत्व के गुण विद्यमान थे। उसने एक ज़बरदस्त छापामार लड़ाकू सेना तैयार की थीं। उसकी नीति थी–

किसी क़िले या गढ़ी में घिरकर बैठने की अपेक्षा कुछ घुड़सवारों को लेकर गतिशील रहना,
योजना बनाकर विरोध करना, युद्ध की योजना बनाना, अनुशासन बनाना और एक के बाद एक मोर्चा खोलने के लिए लगातार चलते रहना।
जिससे शत्रु आराम से नहीं रह पाते थे। शत्रुओं को रास्तों की जानकारी ना होने और भारी साज़-सामान होने के कारण उनकी गतिशीलता कम हो जाती थी और वे जंगलों में भटक जाते थे।
सिनसिनवार जाटों ने मुरसान और हाथरस के सरदारों की सहायता से दिल्ली और मथुरा, आगरा और धौलपुर के बीच शाही मार्ग को लगभग बन्द कर दिया था।
मुग़लों के विरुद्ध युद्ध करते हुए चूड़ामन कभी पकड़ा नहीं गया, ना पूरी तरह परास्त हुआ।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया था।
उसके पास 10,000 योद्धाओं–बन्दूकचियों, घुड़सवारों और पैदल की सेना थी। सन् 1704 में उसने सिनसिनी पर फिर अधिकार कर लिया, सन् 1705 में आगरा के फ़ौजदार मुख़्तारख़ाँ के आक्रमण करने पर वह सिनसिनी छोड़कर अपना प्रधान शिविर थून ले गया।
वहाँ उसने बहुत मज़बूत दुर्ग बनवाया।
मुग़ल काल में जाटों ने औरंग जे़ब से भी मुकाबला किया ।
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद चूड़ामन के लिए यह संघर्ष सरल रहा।
औरंगज़ेब के अयोग्य पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध में चूड़ामन विजेता के साथ था।
यह युद्ध 13 जून, 1707 को गर्मियों में आगरा के दक्षिण में जाजौ में हुआ।
आज़म हार गया; उसे और उसके पुत्र को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मुअज़्ज़्म 'शाह आलम प्रथम' के रूप में राजगद्दी पर बैठा।
आज़म और मुअज़्ज़्म की सेनाओं की जाजौ में मुठभेड़ हुई, चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ युद्ध का रूख़ देखता रहा और आक्रमण के लिए मौक़े की तलाश करता रहा।
पहले उसने मुअज़्ज़्म के शिविर को लूटा। जब उसने देखा कि आज़म हारने लगा है तो मौक़े का फ़ायदा उठाकर वह भी उस पर टूट पड़ा। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नक़दी, सोना, अमूल्य, रत्नजटित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे। इस धन के कारण वह जीवन-भर आर्थिक चिन्ताओं के बिलकुल मुक्त रहा।
इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन् 1721 में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात् ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के ख़ज़ानों में भी पहुँचा।
अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार क़िले बनवा सकता था। थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजौ के युद्ध में सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी सम्राट की ओर से इनाम मिले।
बहादुरशाह ने चूड़ामन को 1,500 ज़ात और 500 घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को सरकारी कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया। चूड़ामन बहुत ही पहुँचा हुआ अवसरवादी था; शाही सेनाध्यक्ष के अपने नए पद पर उसने मुग़ल सम्राट की निष्ठापूर्वक सेवा की। वह सन् 1710-11 में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट के साथ गया और 27 फ़रवरी, 1712 को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था। सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में भी बहुत से लोग, भले ही वे नानक के धर्म को मानते थे, उसी जैसे जाट थे।
_________________________________________

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें