सोमवार, 30 जून 2025

यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु

मूर्खपुत्रादपुत्रत्वं वरं वेदविदो विदुः।
तथापि ब्राह्मणो मूर्खः सर्वेषां निन्द्य एव हि॥३१॥
पशुवच्छूद्रवच्चैव न योग्यः सर्वकर्मसु ।
किं करोमीह मूर्खेण पुत्रेण द्विजसत्तम॥३२॥
यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु॥३३॥
देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा॥३४॥
नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता॥३५॥
राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो विद्यावर्जितः॥३६॥
विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥
आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः॥३८॥
धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि॥३९॥
आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै॥४०॥
मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन॥४१॥
असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते॥४२॥
भुक्त्वान्नं वेदविद्विप्रो वेदाभ्यासं करोति वै ।
क्रीडन्ति पूर्वजास्तस्य स्वर्गे प्रमुदिताः किल॥४३॥
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समाधान- देवी भागवत महा पुराण में तृतीय स्कन्ध अध्याय (10) में गोभिल ब्राह्मण और देवदत्ततपस्वी के संवाद रूप में वर्णन मिलता है-
जिसमें वैदिक सिद्धान्तों के हवाले से तपस्वी देवदत्त गोभिलब्राह्मण को बताते हैं-  कि  कुपात्र और अज्ञानी ब्राह्मण कभी भी सम्मान और पूजा का पात्र नहीं होता है।

गोभिल का यह वचन सुनकर शाप से आहत देवदत्त ने अत्यन्त दुःखी होकर उनसे कहा- हे विप्रवर ! आप मुझ निर्दोष पर व्यर्थ ही क्यों क्रुद्ध हैं ? मुनिलोग तो सदा क्रोधरहित और सुखदायक होते हैं ॥ 28-29 ॥
हे विप्र थोड़े से अपराध पर आपने मुझे शाप क्यों दे दिया ? पुत्रहीन होनेके कारण मैं तो पहले से  ही बहुत दुःखी था, उसपर भी शाप देकर आपने मुझे और भी दुःखी कर दिया। 
देवदत्त वेदों के विद्वानों का हबाला देते हुए कहते हैं-
"वेद के विद्वानों ने कहा है कि मूर्ख पुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना अच्छा है। उस पर भी मूर्ख ब्राह्मण तो सबके लिये निन्दनीय होता है। वह पशु एवं शूद्र के समान सभी कार्यों में अयोग्य माना जाता है। अतः हे विप्रवर ! मूर्ख पुत्र को लेकर मैं क्या करूँगा ? ॥30-32॥

मूर्ख ब्राह्मण शूद्रतुल्य होता है; इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि वह न तो पूजा के योग्य होता है और न दान लेने का पात्र ही होता है। वह सब कार्यों में निन्दनीय भी होता है ॥33॥

किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्रविहीन ब्राह्मण कर(टैक्स) देनेवाले शूद्र की भाँति एक राजा के द्वारा समझा जाना चाहिये॥34॥

फल की इच्छा रखनेवाले पुरुष को चाहिये कि देव तथा पितृकार्यों के अवसरपर उस मूर्ख ब्राह्मण को आसनपर न बैठाये ॥35॥

राजा भी वेदविहीन ब्राह्मण को शूद्र के समान समझे और उसे शुभ कार्यों में नियुक्त न करे, बल्कि उसे कृषि के काम में लगा दे ॥36॥

ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से स्वयं श्राद्धकार्य कर लेना ठीक है, किंतु मूर्ख ब्राह्मण से कभी भी श्राद्धकार्य नहीं कराना चाहिये ।37॥

मूर्ख ब्राह्मण को भोजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिये क्योंकि देनेवाला व्यक्ति नरक में जाता है और लेने वाला तो विशेषरूप से नरकगामी होता ही है ॥38॥

उस राजा के राज्य को धिक्कार है, जिसके राज्य में मूर्खलोग निवास करते हैं और मूर्ख ब्राह्मण भी दान, सम्मान आदि से पूजित होते हैं, साथ ही जहाँ मूर्ख और पण्डित (तत्वज्ञानी समदर्शी)  के बीच आसन, पूजन और दान में रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता। अतः विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह मूर्ख और पण्डित की जानकारी अवश्य कर ले ॥ 39-40 ।।

जहाँ दान, मान तथा परिग्रह से मूर्ख लोग महान् गौरवशाली माने जाते हैं, उस देश में पण्डितजन( तत्वदर्शी विद्वान)  को किसी प्रकार भी नहीं रहना चाहिये।

 दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जनों के उपकार के लिये ही होती हैं। जैसे अधिक फलों से लदे हुए नीम के वृक्ष का उपभोग  केवल कौए ही करते हैं ।। 41-42 ॥

परन्तु वेद को जानने वाले ब्राह्मण की प्रशंसा करते हुए देवी भागवत महापुराण में देवदत्त नामक तपस्वी कहते हैं-

वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदाभ्यास करता है, उसके पूर्वज परम प्रसन्न होकर स्वर्ग में विहार करते हैं ।। 43 ।।

जब वेदविहित कर्त्तव्यों का ब्राह्मण त्याग करने वाला हो तो वह कभी भागवतकथा कहने और पाण्डित्य कर्म करने का अधिकारी नहीं हो सकता है।

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