तदनन्तर प्रधानके विकृत होनेपर उससे महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है, जिससे लोकोंके मध्य में उसकी सदा 'महान्' रूप से ख्याति होती है।
उस महत्तत्त्व से मान को बढ़ानेवाला अहंकार प्रकट होता है। उस अहंकार से दस इन्द्रियाँ होती हैं, जिनमें पाँच बुद्धि के वशीभूत रहती हैं और दूसरी पाँच कर्म के अधीन रहती हैं। इस इन्द्रिय-समुदाय में क्रमश: श्रोत्र वा नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा पायु (गुदा), उपस्थ (जनेन्द्रिय) हस्त पाद और वाणी ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन दसों इन्द्रियों के क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, उत्सर्ग (मल एवं अपानवायु आदिका त्याग), आनन्दन (आनन्दप्रदान), आदान ( ग्रहण करना), गमन और आलाप-ये दस कार्य हैं। इन दसों इन्द्रियोंके अतिरिक्त मन नामक ग्यारहवीं इन्द्रिय है, जिसमें कर्मेन्द्रियों और | ज्ञानेन्द्रियोंके समस्त गुण वर्तमान हैं।
इन इन्द्रियोंके जो सूक्ष्म अवयव उस मनीषी के शरीर का आश्रय लेते हैं, वे तन्मात्रा कहलाते हैं और जिसके सम्पर्क से तन्मात्र की उत्पत्ति होती है, उसे शरीर कहा जाता है। उस शरीर का सम्बन्ध होनेके कारण विद्वान्लोग जीव को भी 'शरीरी' कहते हैं। जब सृष्टि करने की इच्छा से मन को प्रेरित किया जाता है, तब वही सृष्टि की रचना करता है। उस समय शब्दतन्मात्र से शब्दरूप गुणवाला आकाश प्रकट होता है। इसी आकाश के विकृत होने पर वायु की उत्पत्ति होती है, जो शब्द और स्पर्श- दो गुणोंवाली है। तत्पश्चात् वायु और स्पर्शतन्मात्रसे तेजका आविर्भाव होता है, जो शब्द, स्पर्श और रूपनामक तीन | विकारोंसे युक्त होनेके कारण त्रिगुणात्मक हुआ। राजन् ! इस त्रिगुणात्मक तेज में विकार उत्पन्न होनेसे चार गुणोंवाले जल का प्राकट्य होता है, जो रस- तन्मात्रसे उद्भूत होनेके कारण प्रायः रसगुणप्रधान ही होता है। तत्पश्चात् पाँच गुणों से सम्पन्न पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है।
वह प्रायः गन्ध-गुणसे ही युक्त रहती है। यही (इन सबका यथार्थ ज्ञान रखना ही) श्रेष्ठ बुद्धि है। इन्हीं चौबीस (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्राओं, एक मन, एक बुद्धि, एक अव्यक्त, अहंकार) तत्त्वोंद्वारा सम्पादित सुख-दुःखात्मक कर्मका पचीसवाँ पुरुषनामक तत्त्व भोग करता है।
वह भी ईश्वरकी इच्छा के वशीभूत रहता है, इसीलिये विद्वान्लोग उसे जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार इस मानव-योनिमें यह शरीर छब्बीस तत्त्वोंसे संयुक्त बतलाया जाता है।
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जब ब्रह्माने जगत्की सृष्टि करनेकी इच्छासे हृदयमें सावित्रीका ध्यान करके तपश्चरण प्रारम्भ किया। उस समय जप करते हुए उनका निष्पाप शरीर दो भागों में विभक्त हो गया। उनमें आधा भाग स्त्रीरूप और आधा पुरुषरूप हो गया।परंतप ! वह स्त्री सरस्वती, 'शतरूपा' नामसे विख्यात हुई। वही सावित्री, गायत्री और ब्रह्माणी भी कही जाती है। इस प्रकार ब्रह्माने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली सावित्रीको अपनी पुत्रीके रूपमें स्वीकार किया; परंतु तत्काल ही उस सावित्रीको देखकर वे सर्वश्रेष्ठ प्रजापति ब्रह्मा मुग्ध हो उठे और यों कहने लगे-'कैसा मनोहर रूप है! कैसा सौन्दर्यशाली रूप है।' ब्रह्माको सावित्रीके मुखकी ओर अवलोकन करनेके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं दीखता था वे वारंवार यही कह रहे थे "कैसा अद्भुत रूप है। कैसी अनोखी सुन्दरता है।' तत्पश्चात् जब सावित्री झुककर उन्हें प्रणाम करने लगी, तब ब्रह्मा पुनः उसे देखने लगे। तदनन्तर सुन्दरी सावित्रीने अपने पिता ब्रह्माकी प्रदक्षिणा की इसी समय सावित्रीके रूपका अवलोकन करने की इच्छा होनेके कारण ब्रह्माके मुखके दाहिने पार्श्वमें पीले गण्डस्थलोंवाला (एक दूसरा) नूतन मुख प्रकट हो गया। पुनः विस्मययुक्त एवं फड़कते हुए होंठोंवाला दूसरा (तीसरा मुख पीछेकी ओर उद्भूत हुआ तथा उनकी बायीं ओर कामदेवके बाणोंसे व्यथित
से दीखनेवाले एक अन्य (चौथे) मुखका आविर्भाव हुआ सावित्रीकी ओर बार-बार अवलोकन करनेके कारण ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचनाके लिये जो अत्यन्त उग्र तप किया गया था, उसका सारा फल नष्ट हो गया तथा उसी पापके परिणामस्वरूप बुद्धिमान् ब्रह्माके मुखके ऊपर एक पाँच मुख आविर्भूत हुआ, जो जटाओंसे व्याप्त था। ऐश्वर्यशाली ब्रह्माने उस मुखको भी वरण (स्वीकार) कर लिया ॥ 30-40 ॥
तदनन्तर ब्रह्माने अपने उन मरीचि आदि मानस पुत्रोंको आज्ञा दी कि तुमलोग भूतलपर चारों ओर देवता, असुर और मानवरूप प्रजाओंकी सृष्टि करो पिताद्वारा इस | प्रकार कहे जानेपर उन पुत्रोंने अनेकों प्रकारको प्रजाओंकी रचना की सृष्टि कार्यके लिये अपने उन पुत्रोंके चले जानेपर विश्वात्मा ब्रह्माने प्रणाम करनेके लिये चरणोंमें पड़ी | हुई उस अनिन्दिता शतरूपा का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर अधिक समय व्यतीत होनेके उपरान्त शतरूपाके गर्भसे मनु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो स्वायम्भुव नामसे विख्यात हुआ। उसे विराट् भी कहा जाता है तथा अपने पिता ब्रह्माके रूप और गुणकी समानताके कारण उसे- लोग अधिपुरुष भी कहते हैं—ऐसा हमने सुना है। उस ब्रह्म-वंशमें सात-सातके विभागसे जो बहुत-से |महाभाग्यशाली एवं नियमोंका पालन करनेवाले स्वारोचिष आदि तथा उसी प्रकार औत्तमि आदि स्वायम्भुव मनु हुए हैं, वे सभी ब्रह्माके समान ही स्वरूपवाले थे। उन्हींमें इस समय तुम सातवें मनु हो ॥ 41–47॥
पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन करनेसे ब्रह्मा दोषी क्यों नहीं हुए- एतद्विषयक मनुका प्रश्न, मत्स्यभगवान्का उत्तर तथा इसी प्रसङ्गमें आदिसृष्टिका वर्णन
मनुने पूछा— सर्वव्यापी भगवन्! अहो ! पुत्रीकी और बार-बार अवलोकन तो अत्यन्त कष्टका विषय है, परंतु | ऐसा कर्म करनेपर भी कमलयोनि ब्रह्मा दोषभागी क्यों नहीं हुए? तथा उनके सगोत्र पुत्रोंका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ? विभो ! मेरे इस संशयको दूर कीजिये ॥ 1-2 ॥
मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! रजोगुणसे उत्पन्न हुई यह शतरूपारूपी आदिसृष्टि दिव्य है। जिस प्रकार इस (मूल प्रकृति) की इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत हैं, उसी प्रकार इस (शतरूपा, सहस्ररूपा नारी)का शरीर भी इन्द्रियातीत है। यह दिव्य तेजसे सम्पन्न एवं दिव्य ज्ञानसे समुद्भूत है, अतः मांस-पिण्डरूप नेत्रधारी मानवोंद्वारा | इसका भलीभांति वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे सर्पोके मार्गको सर्प तथा सम्पूर्ण पक्षियोंके मार्गको आकाशचारी पक्षी ही जान सकते हैं, वैसे ही (शतरूपा आदि) दिव्य जीवोंके (अचिन्त्य) मार्गको दिव्य जीव ही समझ सकते हैं, | मानव कदापि नहीं जान सकते। राजेन्द्र! चूँकि देवताओंके कार्य (करनेयोग्य अर्थात् उचित) तथा अकार्य (न करनेयोग्य अर्थात् अनुचित) शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले नहीं होते, इसलिये उनके विषयमें विचार करना मानवोंके लिये श्रेयस्कर नहीं है। * दूसरा कारण यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मा सारे वेदोंके अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार (शतरूपारूपी) गायत्री ब्रह्मा के अङ्गसे उत्पन्न हुई बतलायी जाती हैं। इसलिये यह मिथुनरूप (जोड़ा) अमूर्त (अव्यक्त) या मूर्तिमान् (व्यक्त) दोनों ही रूपोंमें कहा जाता है। यहाँतक कि जहाँ जहाँ भगवान् ब्रह्मा हैं, वहाँ-वहाँ (गायत्रीरूपी) सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ-जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं-वहीं ब्रह्माभी हैं। जिस प्रकार धूप (सूर्य) छायासे विलग होकर कहीं भी दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्माके सामीप्यको नहीं छोड़ती हैं। यद्यपि ब्रह्मा वेदसमूहरूप हैं और सावित्री (या सरस्वती) उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं, | इसलिये ब्रह्माको सावित्रीपर कुदृष्टि डालने से कोई दोष नहीं लगा, तथापि उस समय अपने उस कुकर्मसे प्रजापति ब्रह्मा लज्जासे अभिभूत हो गये और कामदेवको शाप देते हुए यों बोले- 'चूँकि तुमने अपने बाणोंद्वारा मेरे भी मनको भलीभाँति क्षुब्ध कर दिया है, इसलिये भगवान् रुद्र शीघ्र ही तुम्हारे शरीरको भस्म कर डालेंगे।' तदनन्तर कामदेवने बड़ी अनुनय-विनयसे ब्रह्माको प्रसन्न किया। वह बोला 'मानद! इस विषयमें आपका मुझे निष्कारण ही शाप देना उचित नहीं है। चतुरानन! आपने ही तो मुझे इस प्रकार सम्पूर्ण देहधारियोंकी इन्द्रियोंको क्षुब्ध करनेके लिये पैदा किया है। विभो! आपने ही पहले मुझे ऐसी आज्ञा दी | है कि स्त्री-पुरुषका कोई विचार न करके तुम प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र सर्वदा उनके मनको क्षुब्ध किया करो। इसलिये विभो ! मैं निरपराध हूँ, तथापि आपने मुझे वैसा शाप दे डाला है; अतः भगवन्! मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मैं | पुनः अपने पूर्वशरीरको प्राप्त कर सकूँ ' ll 3-16 ll
ब्रह्माने कहा- कामदेव ! वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर असुरोंके विनाशक श्रीराम जब मेरे बल पराक्रमसे सम्पन्न होकर मानव रूपमें यदुवंशमें (बलरामरूपसे) अवतीर्ण होंगे और द्वारकाको अपना निवासस्थान बनायेंगे, उस समय तुम उन्होंके समान बल पराक्रमशाली उनके भ्राता (श्रीकृष्ण) के पुत्ररूपमें उत्पन्न होगे। इस प्रकार शरीरको प्राप्तकर (द्वारकामें) सम्पूर्ण भोगोंका भोग करनेके उपरान्त तुम भरत वंशमें | महाराज वत्सके पुत्र होगे। तत्पश्चात् विद्याधरोंके अधिपति | होकर महाप्रलयपर्यन्त धर्मपूर्वक सुखोंका उपभोग करके मेरे समीप वापस आ जाओगे। इस प्रकार शाप और कृपसे संयुक्त कामदेव शोक और आनन्दसे अभिभूत होकर जैसे आया था, वैसे ही चला गया। 17- 21 ॥मनुने पूछा भगवन्! आपने जिनके वंशमें कामदेवकी उत्पत्ति बतलायी है, वे यदु कौन हैं? भगवान् रुद्रने कामदेवको किसलिये और कैसे जलाया तथा भरतवंशमें पहले किसकी और कौन-सी सृष्टि हुई थी? (इन बातोंको सुनकर ) मेरे मनमें महान् संदेह उत्पन्न हो गया है; अतः आप प्रारम्भसे ही इन सबका वर्णन कीजिये ll 22-23 ।।
मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! ब्रह्माके शरीरके आधे भागसे जो ब्रह्मवादिनी गायत्री उत्पन्न हुई थी और जो मनुकी माता थी तथा जिसे शतरूपा और शतेन्द्रिया नामसे भी जाना जाता था, उसी शतरूपाके गर्भ से ब्रह्माजीने रति, मन, तप, बुद्धि, महान्, दिक् तथा सम्भ्रम- इन सात संतानोंको जन्म दिया तथा उन बुद्धिमान् ब्रह्माके पहले जो मरीचि आदि दस मानस पुत्र हुए थे, उन्हींके द्वारा इस सम्पूर्ण ज्ञानात्मक संसारकी रचना हुई। तदनन्तर ब्रह्माने श्रेष्ठ त्रिशूलधारी वामदेवकी और पुनः पूर्वजोंक भी पूर्वज शक्तिशाली सनत्कुमारकी रचना की। भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुखसे ब्राह्मणोंकी, बाहुओंसे क्षत्रियोंकी, करुओंसे वैश्योंकी और पैरोंसे शौकी उत्पत्ति की। तदुपरान्त उन्होंने क्रमशः बिजली, वज्र, मेघ, रंग-बिरंगा इन्द्रधनुष और छन्दकी रचना की। उसके बाद मेघकी सृष्टि की। तत्पश्चात् उन शक्तिशाली वामदेवने जरामरणरहित एवं त्रिनेत्रधारी चौरासी करोड़ | साध्यगणोंको उत्पन्न किया। चूँकि वामदेवने उन्हें जरा मरणरहित रचा था, इसलिये ब्रह्माने उन्हें सृष्टि रचनेसे मना कर दिया (और कहा कि इस प्रकार जरा मरणसे विवर्जित सृष्टि नहीं होती, अपितु जो सृष्टि शुभ और अशुभसे युक्त होती है, वही प्रशंसनीय है। ब्रह्मा ऐसा कहनेपर वामदेव सृष्टिकार्यसे निवृत्त होकर स्थाणुकी भाँति स्थित हो गये । ll24-32 ॥
(अब मैथुनी सृष्टिका वर्णन करते हैं ) परम बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनुने कठोर तपस्या करके अनन्ती नामवाली एक सुन्दरी कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त किया। मनुने उसके गर्भसे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामके दो पुत्र उत्पन्न किये। पुनः धर्मकी कन्या सूनृताने, जो परम सुन्दरी, मन्थरगतिसे चलनेवाली और चतुर थी, उत्तानपादके सम्पर्कसे पुत्रोंको प्राप्त किया। उस समय प्रजापति उत्तानपादने सूनृता गर्भसे अपस्यति, अपस्यन्त | कीर्तिमान् तथा ध्रुव (इन चार पुत्रों) को उत्पन्न किया।उनमें ध्रुवने पूर्वकालमें तीन सहस्र वर्षांतक तप करके ब्रह्माके वरदानसे दिव्य एवं अटल स्थानको प्राप्त किया। आज भी उन्हीं ध्रुवको आगे करके सप्तर्षिमण्डल स्थित है। उन्हीं ध्रुवके संयोगसे मनुकी कन्या धन्याने शिष्टको जन्म दिया। शिष्टके सम्पर्कसे अग्नि-कन्या सुच्छायाने कृष्ण रिपुज्जय, वृत्त, चूक, वृकतेजस् और यक्षुष नामक पुत्रोंको पैदा किया। उनमें रिपुज्जयने ब्रह्माकी दौहित्री | एवं धीरणको कन्या वीरणीके गर्भसे चाक्षुष मनुको उत्पन्न किया। चाक्षुष मनुने राजपुत्री नड्वलाके गर्भसे ऊरु, पूरु, तपस्वी शतद्युम्न, सत्यवाक्, हवि, अग्निष्टुत्, अतिरात्र, सुद्युम्र, अपराजित और दसवाँ अभिमन्यु इन दस निष्पाप एवं शूरवीर पुत्रोंको पैदा किया। आग्नेयोने ऊरुके संयोगसे अग्नि, सुमनस्, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरस् और गय- इन छः परम कान्तिमान् पुत्रोंको जन्म दिया। पितरोंकी कन्या सुनीथाने अङ्गके सम्पर्कसे वेनको उत्पन्न किया। (वेन अत्यन्त अन्यायी था। जब वह विप्रशापसे मृत्युको प्राप्त हो गया, तब) ब्राह्मणोंने उस अन्यायी वेनके हाथका मन्थन किया। उससे महातेजस्वी पृथु नामका पुत्र प्रकट हुआ। उनके ( अन्तर्धान और हविर्धान नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें अन्तर्धानने शिखण्डिनीके गर्भसे मारीच नामक पुत्र पैदा किया ।। 33-44 ॥ 3–443 ll
अग्नि-कन्या धिषणाने हविर्धानके संयोगसे प्राचीन बर्हिषु, साङ्ग, यम, शुक्र, बल और शुभ- इन छः पुत्रोंको जन्म दिया। इनमें महान् ऐश्वर्यशाली प्राचीनवर्हि प्रजापति थे। उन्होंने हविर्धान नामसे विख्यात बहुत-सी प्रजाओंका विस्तार किया तथा समुद्र-कन्या सवर्णाके गर्भसे दस पुत्रोंको जन्म दिया। वे सभी धनुर्वेद के पारगामी विद्वान् थे तथा प्रचेता नामसे विख्यात हुए। रविनन्दन। इन्हीं प्रचेताओंक तपसे सुरक्षित रहकर वृक्षजगत्में चारों ओर शोभा पा रहे थे. परंतु इन्द्रदेवके आदेश से अग्रिने उन्हें जलाकर भस्म कर दिया। तत्पश्चात् चन्द्रमाकी कन्या, जो मारिषा नामसे विख्यात थी, उन प्रचेताओंकी पत्नी हुई। उसने उनके संयोगसे एक दक्ष नामक श्रेष्ठ पुत्रको जन्म दिया।दक्षकी उत्पत्तिके पश्चात् उस सोमकन्याने समस्त वृक्षों और ओषधियोंको तथा चन्द्रवती नामकी नदीको उत्पन्न किया। चन्द्रमाके अंशसे उत्पन्न हुए उस दक्ष प्रजापतिकी अस्सी करोड़ संतानें हुईं, जो इस समय लोकमें सर्वत्र फैली हुई हैं | और जिनका विस्तार मैं आगे वर्णन करूँगा। उनमेंसे किन्हीं के दो पैर थे तो किन्हींके अनेकों पैर थे। किन्हींके मुख टेढ़े मेढ़े थे तो किन्हींके कान खूंटे-जैसे थे तथा किन्हींके कान (बालोंसे) आच्छादित थे। किन्हींके मुख घोड़े और रीछके | सदृश थे तथा कोई सिंहके समान मुखवाले थे। कुछ लोग कुत्ते और सूअरके सदृश मुखवाले थे तो किन्हींका मुख ऊँटके समान था । इस प्रकार धर्मात्मा दक्षने अपने मनसे अनेकों प्रकारके सभी म्लेच्छोंकी सृष्टि की, तत्पश्चात् स्त्रियोंको उत्पन्न किया। उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको तथा नक्षत्र नामवाली सत्ताईस स्त्रियोंको चन्द्रमाको प्रदान | किया। उन्हीं कन्याओंसे देवता, असुर और मानव आदिसे | परिपूर्ण यह सारा जगत् प्रादुर्भूत हुआ है ॥ 45-55॥
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